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संक्रमकरण ]
क्षेत्र की अपेक्षा मार्गणा इस प्रकार है
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जितने प्रमाण वाला द्विचरम स्थितिखंड संबंधी कर्मदलिक पर प्रकृतियों में संक्रमित करता है उतने प्रमाण वाले कर्मदलिक चरम स्थितिखंड को एक तरफ अपहृत किया जाये और दूसरी तरफ एक आकाश प्रदेश अपहृत किया जाये तो इस प्रकार अपहृत किया जाने वाला चरम स्थितिखंड अंगुल मात्र क्षेत्रगत प्रदेशराशि के असंख्यातवें भाग से अपहृत होता है । अर्थात अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने चरम स्थितिखंड में यथोक्त प्रमाण वाले खंड होते हैं । जितने प्रमाण वाला द्विचरम स्थिति खंड का दलिक सर्वस्थान में संक्रमित करता है, उतने प्रमाण वाला यदि चरम स्थितिखंड का कर्मदलिक प्रति समय अपहृत किया जाये तो चरम स्थिति खंड पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र गत समयों के द्वारा निर्लेप होता है ।
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इस प्रकार उद्वलनासंक्रम का स्वरूप जानना चाहिये ।
आहारकसप्तक में उद्वलनासंक्रम की योजना और उद्वेलक
अब इसी उद्वलनासंक्रम के लक्षण की योजना करते हुये आहारकसप्तक की उवलना करने वाले स्वामी का कथन करते हैं -
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आहारतणू भिन्नमुहुत्ता अविरइगओ पउव्वलए ।
जा अविरतो त्ति उव्वलइ पल्लभागे असंखतमे ॥ ६१ ॥ अंतोमुहुत्तमद्धं, पल्लासंखिज्ज मित्तठि खंडं । उक्करइ पुणो वि तहा उणूणमसंखगुणहं जा ॥ ६२ ॥ तं दलियं सत्था (ट्ठा)णे, समए समए असंखगुणियाए । सेढीए परठाणे, विसेस हाणीए संछुभइ ॥ ६३ ॥ जं दुचरमस्स चरिमे, अन्नं संकमइ तेण सव्वं पि । अंगुलमसंखभागेण, हीरए एस उव्वलणा ॥ ६४ ॥
शब्दार्थ - आहारतणू - आहारक शरीर वाला (आहारकसप्तक की सत्ता वाला), भिन्नमुहुत्ताअन्तर्मुहूर्त के बाद, अविरइगओ अविरत को प्राप्त, पउव्वलए उवलना प्रारम्भ करता है, जा अविरतोत्ति - अविरत रहता हुआ, उव्वलइ - उद्वर्तना करता है, पल्लभागे असंखतमे - पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण, ठिझखंड – स्थितिखंड को, उक्किरइ – उत्कीर्ण करता है, पुणोवि - पुन: भी, उसी प्रकार से, उणूण - हीन, असंखगुणहं - असंख्यातगुण, जा तक ।
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तहा
१. स्थितिखंडों की उत्कीरण विधि को सरलता से समझने के लिये सारांश परिशिष्ट में देखिये ।
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