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[ कर्मप्रकृति
असुभाणं अन्नयरो, सुहुम अपज्जगाइ मिच्छो य। वज्जिय असंखवासाउए य मणुओववाए य॥५३॥ सव्वत्थायावुज्जोय - मणुयगइपंचगाण आऊणं।
समयाहिगालिगा, सेसगत्ति सेसाण जोगतां॥५४॥ शब्दार्थ – असुभाणं - अशुभ प्रकृतियों का, अन्नयरो - अन्यतर (कोई भी) जीव, सुहुम - सूक्ष्म, अपजगाइ - अपर्याप्तक, मिच्छो - मिथ्यादृष्टि, य - और, वज्जिय – छोड़कर, असंखवासाउएअसंख्यातवर्षायुष्क मनुष्य तिर्यंच, मणुओववाए – मनुष्य में उत्पन्न होने वाले देव, य – और।
सव्वत्थ – सर्वत्र, (सभी जीवों के) आयावुजोय - आतप, उद्योत – मणुयगइपंचगाण - मनुष्य गति पंचक, आऊणं - आयु का, समयाहिगालिगा - समयाधिक आवलिका, सेसगत्ति - शेष रहे, वहां तक, सेसाण - शेष प्रकृतियों का, जोगंता – सयोगी केवली जीवों तक।
गाथार्थ – असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य तथा तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले देव को छोड़कर सूक्ष्म अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि आदि कोई भी एक जीव अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम का स्वामी है।
__ आतप, उद्योत और मनुष्यगतिपंचक, इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम सर्वत्र अर्थात सब जीव भेदों में होता है। आयुकर्म का उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम समयाधिक आवलिकाल प्रमाण स्थिति शेष रहने तक होता है और शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सयोगि केवली तक के जीवों के होता है।
विशेषार्थ – अशुभ प्रकृतियों का अर्थात ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेदनीय, अट्ठाईस मोहनीय की प्रकृतियां', नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रिय जाति को छोड़कर शेष चार जाति प्रथम संस्थान को छोड़कर शेष पांच संस्थान और प्रथम संहनन को छोड़कर शेष पांच संहनन, नील, कृष्णवर्ण, दुरभिगंध, तिक्त कटुकरस, सूक्ष्म, शीत, कर्कश, गुरुस्पर्श, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर सूक्ष्म, साधारण अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति, नीचगोत्र और अन्तरायपंचक इन अठासी अशुभ प्रकृतियों का कोई एक सूक्ष्म अपर्याप्तक आदि तथा आदि शब्दों से पर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त बादर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, देव और नारकों में से कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम करता है। लेकिन उसमें यह अपवाद है कि असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य, तिर्यंच और जो देव अपने भव से च्युत होकर मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं, उन आनत्त,
१. शुभानुभागयुक्त सर्वदलिकों के संक्रम का निष्ठापन मिथ्यात्व में होता है किन्तु उत्कृष्ट अनुभागयुक्त सर्वशुभदलिकों का संक्रम सम्यक्त्व में नहीं होता है। इसलिये यहाँ मिथ्यादृष्टि जीव का ग्रहण किया गया है।