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[ कर्मप्रकृति जघन्य अनुभागसंक्रमस्वामी
अब जघन्य अनुभागसंक्रम के स्वामी का प्रतिपादन करने के प्रसंग में जघन्य अनुभागसंक्रम की भावना का परिज्ञान कराते हैं -
खवगस्संतर करणे, अकए घाईण सुहुमकम्मुवरि।
केवलिणो णंतगुणं, असन्निओ सेस असुभाणं॥५५॥ शब्दार्थ - खवगस्स – क्षपक के, अंतरकरणे – अन्तरकरण, अकए – न किया हो, घाईण- घाति प्रकृतियों की अनुभाग सत्ता, सुहुमकम्मुवरि – सूक्ष्म एकेन्द्रिय अनुभाग सत्ता से, केवलिणोकेवली को, णंतगुणं - अनन्तगुणी, असन्निओ – असंज्ञी पंचेन्द्रिय से, सेस – बाकी की, असुभाणं - अशुभ प्रकृतियों की।
गाथार्थ – क्षपक जीव के जब तक अन्तरकरण न किया हो वहां तक घातिकर्मों की अनुभागसत्ता सूक्ष्म एकेन्द्रिय की अनुभाग सत्ता से अनन्तगुणी होती है तथा केवली के बाकी की अशुभ प्रकृतियों की अनुभागसत्ता असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की अनुभाग सत्ता से अनन्तगुणी होती है।
विशेषार्थ – जब तक अन्तरकरण नहीं किया जाता है तब तक क्षपक जीव के सर्वघातिनी और देशघातिनी प्रकृतियों सम्बंधी अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रिय की अनुभागसत्ता से अनन्तगुणा होता है। किन्तु अन्तरकरण कर लेने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय के भी अनुभागसत्व से क्षपक की अनुभाग सत्ता हीन हो जाती है - तथा शेष भी - अघातिनी अशुभ प्रकृतियों की अर्थात् असातावेदनीय, प्रथम संस्थान को छोड़कर शेष पांच संस्थान, प्रथम संहनन को छोड़कर शेष पांच संहनन कृष्ण नील वर्ण, दुरभिगंध, तिक्त कटुक रस, गुरु , कर्कश, रूक्ष, शीत स्पर्श, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अस्थिर, अशुभ, अपर्याप्त, अयश:कीर्ति और नीच गोत्र इन तीस प्रकृतियों की केवली की अनुभागसत्ता असंज्ञी पंचेन्द्रिय की अनुभागसत्ता से अनन्तगुणी जानना चाहिये। ऐसा होने पर सर्वघातिनी और देशघातिनी प्रकृतियों के जघन्य अनुभागसंक्रम का होना क्षपक जीव के अन्तरकरण करने पर जानना चाहिये। शेष अर्थात ऊपर कही गई अशुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभागसंक्रम सयोगी केवली में संभव नहीं है, किन्तु 'हत प्रभूत सत्कर्मा' अर्थात बहुत सी अनुभाग सत्ता का घात करने वाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि के होता है। क्योंकि उसी का आगे कथन किया गया है।
यहां पर 'संकमई य आमुहत्तंतो' इस वचन के अनुसार सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव अन्तर्मुहूर्त के बाद सभी प्रकृतियों के अनुभाग का घात करते हैं, यह प्रसंग प्राप्त होता है, अतः इस विषयक अपवाद का कथन करते हैं -