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संक्रमकरण ]
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प्राणत आदि कल्पों के देवों को छोड़ देना चाहिये। ये मिथ्यादृष्टि होने पर भी उत्कृष्ट संक्लेश का अभाव होने से उक्त स्वरूप वाली अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग को नहीं बांधते हैं। इसलिये उनके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम का अभाव कहा गया है। . उपर्युक्तोल्लिखित अठासी प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामियों को बतलाने के लिये गाथा में कहा है - सव्वत्थ -- इत्यादि। जिसका आशय यह है -
सर्वत्र अर्थात सभी सूक्ष्म अपर्याप्त आदि नारकी पर्यन्त जीवों में, असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंच और मनुष्यों में ही उत्पन्न होने वाले आनत प्राणत आदि कल्पों के मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि देवों में आतप, उद्योत, मनुष्यगतिपंचक, अर्थात मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिकद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनन लेकिन विवक्षावशात् यहां औदारिकद्विक से औदारिकसप्तक का ग्रहण किया जाता है, इसलिये सब मिलाकर बारह प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम जानना चाहिये। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
सम्यग्दृष्टि जीव शुभ अनुभाग का विनाश नहीं करता है किन्तु विशेष रूप से दो छियासठ सागरोपम काल तक परिपालन करता है। इसलिये उत्कर्ष से उतने काल तक उत्कृष्ट अनुभाग का विनाश नहीं करके पश्चात सर्वत्र यथायोग्य जीवों में उत्पन्न होता है इसलिये मिथ्यादृष्टि जीवों में भी इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम अन्तर्मुहूर्तकाल तक पाया जाता है। आतप और उद्योत का उत्कृष्ट अनुभाग मिथ्यादृष्टि जीव के द्वारा बांधा जाता है। इसलिये वहां इन दोनों के उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रम का अभाव नहीं है और मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त हुए सम्यग्दृष्टि जीव में भी पाया जाता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि होता हुआ वह इन दोनों प्रकृतियों के शुभ होने से उनके उत्कृष्ट अनुभाग का विनाश नहीं करता है। इसलिये दो छियासठ सागरोपम तक उत्कर्ष से इन दोनों प्रकृतियों का वहां संक्रम जानना चाहिये।
चारों आयुकर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग बांधकर और बंधावलिका के बीत जाने पर जब तक समयाधिक आवलि प्रमाण स्थिति रहती है तब तक उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम पाया जाता है। शेष शुभ प्रकृतियों का अर्थात् सातावेदनीय, देवद्विक, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, तैजससप्तक, समचतुरस्र संस्थान, शुक्ल, लोहित, हारिद्र वर्ण, सुरभि गंध, कषाय, आम्ल मधुररस, मृदु, लघु, स्निग्ध, उष्णस्पर्श प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, अगुरुलघु, पराघात, त्रसदशक, निर्माण, तीर्थंकर नाम और उच्च गोत्र इन चउवन प्रकृतियों को अपने-अपने बंधविच्छेद के समय उत्कृष्ट अनुभाग को बांधकर बंधावलिका से परे उत्कृष्ट अनुभाग को सयोगी केवली गुणस्थान के चरम समय तक संक्रमाता है। इस प्रकार इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामी प्रायः अपूर्वकरण आदि से लेकर सयोगी केवलीपर्यन्त जानना चाहिये।
इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामियों का वर्णन जानना चाहिये।