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[ कर्मप्रकृति चाहिये
उद्योत को छोड़कर शेष उक्त आठ प्रकृतियों का अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाला सम्यग्दृष्टि देव उत्कृष्ट अनुभाग बांधकर बंधावलिका के बीत जाने पर संक्रम करता है। उद्योत नामकर्म का तो उत्कृष्ट अनुभाग बंध सप्तम नरक पृथ्वी में वर्तमान और सम्यक्त्व प्राप्त करने के अभिमुख हुआ मिथ्यादृष्टि नारक जीव करता है। तत्पश्चात बंधावलिका के व्यतीत हो जाने पर उसे संक्रमाता है और उसे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कर्ष से दो छियासठ सागरोपम अर्थात १३२ सागरोपमों तक संक्रमाता है। यहां यद्यपि सप्तम नरक पृथ्वी में अन्तर्मुहूर्त में अवश्य ही मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, तथापि आगामी भव में अन्तर्मुहूर्त के पश्चात ही जो सम्यक्त्व को प्राप्त होता है, वह जीव यहां ग्रहण किया गया है। इसलिये अपान्तराल में अल्पमिथ्यात्व काल प्राप्त होता है, फिर भी प्राचीन ग्रन्थों में उसकी विवक्षा नहीं की गई है। इसलिये यहां भी दो छियासठ (१३२ सागरोपम) काल तक संक्रमाता है, ऐसा कहा है। उस उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम से प्रतिपतित जीव के अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है और वह सादि है। उस स्थान को प्राप्त जीव के अनादि संक्रम होता है। ध्रुव और अध्रुव संक्रम अभव्य और भव्य की अपेक्षा से होते हैं।
'एयासिं इत्यादि' अर्थात इन सत्रह, सोलह, छत्तीस और नौ प्रकृतियों के कथन करने से शेष रहे विकल्प तथा उक्त सत्रह आदि से भिन्न शेष अस्सी (८०) प्रकृतियों के सभी-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रम दो-दो प्रकार के जानना चाहिये, यथा - सादि और अध्रुव। जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है -
पूर्वोक्त सत्रह और सोलह प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव के पाया जाता है। शेषकाल में तो उसके भी अनुत्कृष्ट ही अनुभागसंक्रम प्राप्त होता है। अतएव वे दोनों सादि और अध्रुव हैं। जघन्य संक्रम का कथन पूर्व में किया जा चुका है।
___ छत्तीस और नवक प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग संक्रम बहुत से अनुभाग सत्त्व का घात करने वाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव में पाया जाता है। बहुत से अनुभाग सत्त्व के घात के अभाव में तो उसके भी अजघन्य अनुभाग संक्रम होता है। इसलिये ये दोनों सादि और अध्रुव हैं । उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम का विचार पूर्व में हो चुका है। शेष वैक्रियसप्तक, देवद्विक उच्चगोत्र, आतप, तीर्थंकर नाम, आहारकसप्तक मनुष्यद्विक, नरकायु को छोड़कर शेष तीन आयु इन चौबीस शुभ प्रकृतियों का विशुद्धि में वर्तमान संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव के उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम पाया जाता है।तथा स्त्यानर्द्धित्रिक, असातावेदनीय, दर्शनमोहनीयत्रिक, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषायअष्टक, नरकायु, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रियजाति को छोड़कर शेष जातिचतुष्क, प्रथम संस्थान को छोड़कर शेष पांच संस्थान, प्रथम संहनन को छोड़कर शेष पांच संहनन, अशुभ वर्णादि नवक, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, स्थावरदशक और नीच गोत्र इन छप्पन अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट