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संक्रमकरण ]
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जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
___ इन सत्रह प्रकृतियों में से अनन्तानुबंधीचतुष्क को छोड़कर शेष तेरह प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागसंक्रम अपने-अपने क्षय के अन्तिम अवसर में जघन्य स्थिति के संक्रम काल में प्राप्त होता है और अनन्तानुबंधी कषायों की उद्वलना संक्रमण के द्वारा उद्वलना करके फिर भी मिथ्यात्व के निमित्त से उनके बंधन के पश्चात बंधावलिकाल व्यतीत हो जाने पर दूसरी आवलि के प्रथम समय में जघन्य अनुभागसंक्रम होता है। इससे अन्य पुनः सभी संक्रम इन सत्रह प्रकृतियों के अजघन्य जानना चाहिये और वह अजघन्य संक्रम उपशमश्रेणी में उपशान्त हुई इन प्रकृतियों का नहीं होता है और वहां से प्रतिपात होने पर होता है। इसलिये वह सादि है। उस स्थान को अप्राप्त जीव के वह अनादि है। अध्रुव और ध्रुव संक्रम क्रमशः भव्य और अभव्य की अपेक्षा से जानना चाहिये तथा ज्ञानावरणपंचक स्त्यानर्द्धित्रिक को छोड़कर शेष छह दर्शनावरण और अन्तरायपंचक इन सोलह प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागसंक्रम तीन प्रकार का है – अनादि, ध्रुव और अध्रुव। वह इस तरह समझना चाहिये -
इन सोलह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागसंक्रम क्षीणकषाय गुणस्थान के समयाधिक आवली प्रमाण शेष रहे काल में वर्तमान क्षीणकषाय संयत के पाया जाता है। उससे अन्य सभी अजघन्य अनुभागसंक्रम है और उसकी आदि नहीं है। इसलिये वह अनादि है। अध्रुव और ध्रुव संक्रम क्रमशः भव्य और अभव्य की अपेक्षा से होते हैं।
अब उक्त इकतीस प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियों के अनुभागसंक्रम के प्रकारों को बतलाते हैं।
सातावेदनीय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजससप्तक, समचतुरस्रसंस्थान, शुक्ल, लोहित, हारिद्र वर्ण, सुरभि गंध, कषाय, अम्ल, मधुररस, मृदु, लघु, उष्ण, शीत (स्निग्ध उष्ण) ये शुभ वर्णादि एकादश, अगुरुलघु, उच्छ्वास, पराघात, प्रशस्त विहायोगति, सदशक और निर्माण इन छत्तीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम तीन प्रकार का होता है, यथा – अनादि, ध्रुव और अध्रुव। वह इस प्रकार समझना चाहिये -
इन छतीस प्रकृतियों का क्षपक जीव अपनी-अपनी प्रकृति के बंधविच्छेद काल में उत्कृष्ट अनुभाग बांधता है और बांधकर बंधावलि के बीत जाने पर संक्रमण करना आरम्भ करता है और उसे तब तक संक्रमाता है, जब तक कि सयोगी केवली को छोड़कर शेष जीवों के इन प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभाग ही संक्रांत होता है और उनकी आदि नहीं है, इसलिये वह अनादि है। ध्रुव और अध्रुव संक्रम क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा से समझना चाहिये।
- 'नवगस्स य चउद्ध' अर्थात नौ प्रकृतियों – उद्योत, वज्रऋषभनाराचसंहनन, औदारिकसप्तक का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम चार प्रकार का होता है – सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव। वह इस प्रकार जानना