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संक्रमकरण ]
[ ७९ गाथार्थ – तीन मूल कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) का अजघन्य अनुभागसंक्रम तीन प्रकार का है मोहनीय का अजघन्य अनुभागसंक्रम चार प्रकार का है तथा आयुकर्म का अनुत्कृष्टसंक्रम इसी प्रकार का अर्थात चार प्रकार का है। शेष कर्मों (वेदनीय नाम गोत्र) का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम तीन प्रकार का है।
__मूल प्रकृतियों के शेष अनुभागसंक्रम दो प्रकार के हैं तथा उत्तर प्रकृतियों में सतरह प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागसंक्रम चार प्रकार का है और सोलह प्रकृतियों का तीन प्रकार का है।
छत्तीस प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम तीन प्रकार का तथा नौ प्रकृतियों का चार प्रकार का होता है। इन प्रकृतियों के शेष तीन संक्रम और इनके सिवाय शेष प्रकृतियों के सब अनुभागसंक्रम दो-दो प्रकार के हैं।
विशेषार्थ - ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का अजघन्य अनुभाग संक्रम तीन प्रकार का है, यथा - १. अनादि, २. अध्रुव और ३. ध्रुव। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीव के इन कर्मों की समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति के शेष रह जाने पर जो जघन्य अनुभागसंक्रम होता है, वह सादि और अध्रुव है। उससे ऊपर अन्य सभी संक्रम अजघन्य है, वह अनादि है। अध्रुव और ध्रुव संक्रम क्रमशः भव्य और अभव्य की उपेक्षा से हैं।
____ मोहनीय कर्म का अजघन्य अनुभागसंक्रम चार प्रकार का है, यथा - सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती क्षपक के मोहनीय कर्म की समयाधिक आवलि प्रमाण स्थिति के शेष रह जाने पर जघन्य अनुभागसंक्रम होता है, इसलिये वह सादि और अध्रुव है। उससे अतिरिक्त अन्य सभी संक्रम अजघन्य हैं। वह अजघन्य संक्रम उपशमश्रेणी में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उपशान्तमोहगुणस्थान में नहीं होता है, किन्तु उपशान्तमोहगुणस्थान से गिरते हुये जीव के पुनः होता है। इसलिये वह सादि है, उस स्थान को अप्राप्त जीव के अनादि है तथा ध्रुव और अध्रुव पूर्व के समान जानना चाहिये। अर्थात अभव्य और भव्य की अपेक्षा क्रमशः ध्रुव और अध्रुव भंग जानना चाहिये।
आयुकर्म का अनुत्कृष्ट अनुभाग संक्रम चार प्रकार का होता है, यथा – सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव। जिनका तात्पर्य इस प्रकार है -
अप्रमत्त संयत देवायु के उत्कृष्ट अनुभाग को बांधकर बंधावलिका से परे संक्रमण करना प्रारम्भ करता है और वह तब तक संक्रमण करता है, जब तक कि अनुत्तर विमानवासी देव के भव में तेतीस सागरोपम व्यतीत होते हैं और एक आवलि प्रमाण स्थिति शेष रहती है। उससे अन्य सभी आयु का अनुभागसंक्रम