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संक्रमकरण ]
[ ४३ उपशमश्रेणी में वर्तमान औपशमिक सम्यग्दृष्टि के और क्षपकश्रेणी में वर्तमान जीव के पाया जाता है। नौ प्रकृतिरूप संक्रमस्थान तीन प्रकृतिरूप पतद्ग्रह में संक्रांत होता है। यह उपशमश्रेणी में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के पाया जाता है।
आठ प्रकृतियां, दो, तीन और चार प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं। इनमें से उपशम श्रेणी में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के दो और तीन प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के चार प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं तथा सात प्रकृतियां तीन और चार प्रकृतिरूप पतद्ग्रह स्थान में संक्रांत होती हैं। ये संक्रमस्थान उपशमश्रेणी में वर्तमान औपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही दो, तीन और चार प्रकृतिरूप पतद्ग्रह स्थान में जानना चाहिये तथा छह प्रकृतिरूप संक्रमस्थान दो प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में ही नियम से संक्रांत होता है और वह उपशमश्रेणी में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के होता है तथा पांच प्रकृतियां तीन एक और दो प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं। उनमें से उपशमश्रेणी में वर्तमान औपशमिक सम्यग्दृष्टि के तीन प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं और उपशमश्रेणी में वर्तमान क्षापिक सम्यग्दृष्टि के दो और एक प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में पांच प्रकृतियां संक्रांत होती हैं।
चार प्रकृतिरूप संक्रमस्थान तीन प्रकृतिरूप और चार प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है। इनमें से उपशमश्रेणी में वर्तमान औपशमिक सम्यग्दृष्टि के तीन प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में तथा क्षपकश्रेणी में चार प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रम होता हैं तथा तीन प्रकृतियां तीन और एक प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं। इनमें से तीन में क्षपकश्रेणी के भीतर और एक में क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उपशमश्रेणी के भीतर संक्रम होता है तथा दो प्रकृतियां दो और एक प्रकृतिरूप पतद्ग्रह में संक्रांत होती हैं। इनमें से दो में क्षपकश्रेणी के भीतर और उपशम सम्यग्दृष्टि के उपशमश्रेणी के भीतर संक्रम होता है तथा एक में उपशमश्रेणी में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के संक्रम होता है तथा एक प्रकृति का एक प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में ही संक्रम होता है और वह क्षपकश्रेणी में ही जानना चाहिये। पतद्ग्रह स्थानों में संक्रम स्थानों के संकलन करने का उपाय
_____ अब पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमस्थानों का संकलन करने के लिये मार्गण (अन्वेषण) का उपाय बतलाते हैं -
अणुपुष्वि अणाणुपुब्बी, झीणमझीणे य दिट्ठिमोहम्मि।
उवसामगे य खवगे, य संकमे मग्गणोवाया ॥ २२॥ शब्दार्थ – अणुपुब्वि – आनुपूर्वी से, अणाणुपुब्बी – अनानुपूर्वी, झीणमझीणे - क्षीण १. उक्त गाथाओं के अनुसार मोहनीय कर्म के पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमस्थानों और स्वामी की संकलता परिशिष्ट में देखिये।