________________
७६ 1
[ कर्मप्रकृि
अनुभागसंक्रम हैं। इनमें से मूल प्रकृतियों के उद्वर्तना और अपवर्तना रूप दो ही संक्रम होते हैं किन्तु अन्य प्रकृतिपरिणमनरूप संक्रम नहीं होता है। क्योंकि मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रम का अभाव है। उत्तर प्रकृतियों तीनों ही प्रकार के संक्रम होते हैं ।
इस प्रकार अनुभागसंक्रम का विशेष लक्षण समझना चाहिये ।
उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम प्रमाण
अब उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग संक्रम के प्रमाण का प्रतिपादन करते हैं
दुविह पमाणे जेट्ठो, सम्मत्तदेसघाइ दुट्ठाणा । नरतिरियाऊआयव - मिस्से वि य सव्वघाइम्मि ॥ ४७ ॥
सेसासु चउट्ठाणे, मंदो संमत्तपुरिससंजलणे । एगट्ठाणे सेसासु, सव्वघाइंमि दुट्ठाणे ॥ ४८ ॥
-
शब्दार्थ - दुविहपमाणे - द्विविध प्रमाण (स्थान और घातिक प्रमाण रूप) जेट्ठो – उत्कृष्ट, सम्यक्त्व का, देसघाइ – देशघाती, दुट्ठाणा द्विस्थानक, नरतिरियाऊ मनुष्य और तिर्यंचायु, आयव आतप, मिस्सेवि - मिश्र का भी, य - और, सव्वघाइम्मि – सर्वघाती ।
सम्मत्त
-
-
सेसासु – शेष प्रकृतियों का, चउट्ठाणे – चतुःस्थानक, मंदो - जघन्य, संमत्तपुरिसंजलणेसम्यक्त्व, पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क का, एगट्ठाणे - एक स्थानक, सेसासु– शेष प्रकृतियों का, सव्वघाईमि
सर्वघाती, दुट्ठाणे - द्विस्थानक ।
गाथार्थ - द्विविध प्रमाण (स्थानकप्रमाण और घातिप्रमाण) रूप उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सम्यक्त्व मोहनीय का देशघाती और द्विस्थानक रस वाला है तथा मनुष्यायु, तिर्यंचायु, आतप और मिश्रमोहनीय का भी द्विस्थानक रस है किन्तु सर्वघाती है।
शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम चतुःस्थानक और सर्वघाती रस वाला होता है तथा सम्यक्त्वमोहनीय, पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क का मंद अर्थात् जघन्य अनुभागसंक्रम एक स्थानक और देशघाति रूप है । इनके अतिरिक्त शेष प्रकृतियों का जघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाती और द्विस्थानक रस वाला होता है।
विशेषार्थ – द्विविध प्रमाण में अर्थात स्थानप्रमाण और घातित्वप्रमाण में ज्येष्ठ अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सम्यक्त्व प्रकृति का देशधारी द्विस्थानक रसस्पर्धक में संक्रमण होने पर जानना चाहिये । जिसका आशय यह है कि सम्यक्त्व प्रकृति के घातित्व का आश्रयकर अर्थात देशघाती स्थान की अपेक्षा