________________
संक्रमकरण ]
[
६७
प्ररूपणा करते हैं -
धुवसंतकम्मिगाणं, तिहा चउद्धा चरित्तमोहाणं।
अजहन्नो सेसेसु य, दुहेतरासिं च सव्वत्य॥ ३७॥ शब्दार्थ - धुवसंतकम्मिगाणं - ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का, तिहा – तीन प्रकार का, चउद्धाचार प्रकार का, चरित्तमोहाणं – चारित्रमोहनीय का, अजहन्नो -- अजघन्य, सेसेसु - शेष संक्रमों में, य - और, दुहा – दो प्रकार का, इतरासिं - इतर (अध्रुवसत्ताका) प्रकृतियों का, च – और, सव्वत्थ - सर्वत्र (सर्व स्थितिसंक्रमों में)।
गाथार्थ – ध्रुव सत्तावाली प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिसंक्रम तीन प्रकार का है और चारित्रमोहनीय प्रकृतियों का चार प्रकार का होता है। ध्रुव सत्तावाली प्रकृतियों से इतर अर्थात् अध्रुव सत्तावाली तथा शेष सभी प्रकृतियों के सर्वस्थितिसंक्रम दो प्रकार के (सादि और अध्रुव) जानना चाहिये।
विशेषार्थ – जिन प्रकृतियों की सत्ता ध्रुव रूप से पाई जाती है उन्हें ध्रुवसत्कर्मिक कहते हैं - ध्रुवं सत्कर्म यासां ता ध्रुवसत्कर्मिकाः। उनकी संख्या एक सौ तीस है, यथा - नरकद्विक, मनुष्यद्विक, देवद्विक, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, तीर्थंकर नाम, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, उच्चगोत्र और चारों आयुकर्म ये अट्ठाईस, अध्रुव सत्तावाली प्रकृतियां हैं, इनको सभी एक सौ अट्ठावन प्रकृतियों में से कम कर देने पर शेष जो एक सौ तीस प्रकृतियां रहती हैं, वे ध्रुव सत्तावाली प्रकृतियां हैं। इनमें से चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियां कम करना चाहिये। क्योंकि उनका कथन पृथक् रूप से किया गया है। इसलिये शेष रही एक सौ पांच प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसंक्रम अपने-अपने क्षपण काल के अंत में होता है। अतः वह सादि और अध्रुव है। उससे अन्य सभी संक्रम अजघन्य हैं और वे अनादि हैं। अध्रुव और ध्रुव संक्रम भव्य और अभव्य की अपेक्षा से जानना चाहिये।
चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिसंक्रम चार प्रकार का होता है, यथा - सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव, जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - उपशमश्रेणी में सभी चारित्रमोहनीय प्रकृतियों के उपशांत हो जाने पर संक्रम का अभाव होता है। पुनः उपशमश्रेणी से गिरने पर वह अजघन्य स्थितिसंक्रम को आरंभ करता है। इसलिये वह सादि है। उस स्थान को अप्राप्त जीव के पुनः अनादि संक्रम होता है। अध्रुव और ध्रुव संक्रम भव्य और अभव्य की अपेक्षा से होता है।
'सेसेसु य दुहा' अर्थात् शेष जो उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिसंक्रम हैं, उनमें दो प्रकार की प्ररूपणा करनी चाहिये, यथा - सादि और अध्रुव। इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट का विचार जैसा मूल प्रकृतियों के प्रसंग में किया है उसी प्रकार यहां पर भी करना चाहिये। जघन्य स्थितिसंक्रम अपने अपने क्षपण के अवसर