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[ कर्मप्रकृति
प्रकार का, चदव्विहो चार प्रकार का, मोहे – मोहनीय में, सेसविगप्पा – बाकी के विकल्प, तेसिंसंक्रम में, होंति - होते हैं ।
उनके, दुविगप्पा - दो प्रकार के, संक
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गाथार्थ - संक्रम में सात मूलकर्मों का अजघन्य स्थितिसंक्रम तीन प्रकार का है, और मोहनीय कर्म का अजघन्य स्थितिसंक्रम चार प्रकार का है, इन सभी कर्मों के शेष विकल्प दो प्रकार के होते हैं ।
विशेषार्थ इस प्रकरण में जघन्य से अन्य जितनी स्थिति है उत्कृष्ट स्थिति तक, वह सब अजघन्य और उत्कृष्ट से अन्य सभी जघन्य तक की स्थिति अनुत्कृष्ट कहलाती है । इनमें मोहनीयकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का अजघन्य स्थितिसंक्रम तीन प्रकार का है, यथा - अनादि संक्रम, ध्रुव संक्रम और अध्रुव संक्रम। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का जघन्य स्थितिसंक्रम क्षीणकषायगुणस्थान की एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण शेष रही स्थिति में वर्तमान जीव के होता है। नाम, गोत्र, वेदनीय और आयु कर्मों का जघन्य स्थितिसंक्रम सयोगी केवली के चरम समय में एक आवलि रहित अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। वह सादि और अध्रुव संक्रम है। उससे जो अन्य सभी स्थितिसंक्रम अजघन्य हैं वे अनादि हैं। अभव्यों ध्रुव संक्रम और भव्यों के अध्रुव संक्रम होता है ।
'चउव्विहो मोहेत्ति' अर्थात मोहनीय कर्म में अजघन्य स्थितिसंक्रम चार प्रकार का है, यथासादि, अनादि ध्रुव और अध्रुव । वह इस प्रकार जानना चाहिये कि मोहनीय कर्म का जघन्य स्थितिसंक्रम सूक्ष्म पराय क्षपक के एक समय अधिक आवलि प्रमाण की स्थिति के शेष रह जाने पर होता है, इसलिये वह सादि और अध्रुव है । उस जघन्य संक्रम से अन्य सभी अजघन्य कहलाता है और वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है । किन्तु वहां से प्रतिपात होने पर होता है, इसलिये वह सादि है। इस स्थान को प्राप्त नहीं होने वाले जीव के जो संक्रम होता है वह अनादि है । अध्रुव और ध्रुव संक्रम क्रमशः भव्य और अभव्य की अपेक्षा से जानना चाहिये ।
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उन कर्मों के संक्रम के विषय में उत्कृष्ट अनुभाग, अनुत्कृष्ट अनुभाग और जघन्य अनुभाग रूप शेष विकल्प के दो रूप होते हैं, यथा सदि और अध्रुव संक्रम। वे इस प्रकार समझना चाहिये जो जीव उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है, वही उत्कृष्ट स्थिति संक्रम को करता है और उत्कृष्ट संक्लेश में रहने वाला उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है । किन्तु उत्कृष्ट संक्लेश सदा नहीं पाया जाता है, परन्तु अन्तराल - अन्तराल में पाया जाता है। इसलिये शेषकाल में अर्थात् जब उत्कृष्ट संक्लेश नहीं होता है तब अनुत्कृष्ट संक्रम होता है। इसलिये ये दोनों ही संक्रम सादि और अध्रुव हैं । जघन्य संक्रम सादि और अध्रुव होता है, यह पूर्व में कहा जा चुका है। उत्तर प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा
मूल प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा करने के बाद अब उत्तर प्रकृतियों की सादि अनादि
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