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[कर्मप्रकृति
में पाया जाता है, इसलिये वे सादि और अध्रुव हैं। ।
'इयरासिं इत्यादि' अर्थात् इतर जो अध्रुव सत्ता वाली ऊपर कही गई अट्ठाईस प्रकृतियां हैं, उनकी सर्वत्र अर्थात् सभी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य संक्रमों में दो प्रकार की प्ररूपणा करना चाहिये, यथा – सादि और अध्रुव। यह सादित्व और अध्रुवत्व इन प्रकृतियों को अध्रुव सत्ता वाली होने से ही जानना चाहिये।
___ इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियों की सादि और अनादि आदि प्ररूपणा समझना चाहिये। स्वामित्व प्ररूपणा
__अब क्रमप्राप्त स्वामित्व का कथन करते हैं। वह दो प्रकार का है - १. उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम स्वामित्व और २. जघन्य स्थितिसंक्रम स्वमित्व। इनमें से पहले उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम स्वामित्व का प्रतिपादन करते हैं -
बन्धाओ उक्कोसो, जासिं गंतूण आलिगं परओ।
उक्कोससामिओ संकमाउ (मेण) जासिं दुगं तासिं॥ ३८॥ शब्दार्थ - बन्धाओ – बंध से, उक्कोसो – उत्कृष्ट से, जासिं – जिनका, गंतूण - अतिक्रमण करने के, आलिगं - आवलिका, परओ – पीछे, बाद में, उक्कोससामिओ – उत्कृष्ट स्थिति, संक्रम का स्वामी, संकमाउ – संक्रम से, जासिं – जिनकी, दुगं - दो (आवलिका), तासिं - उन (प्रकृतियों) की।
गाथार्थ – जिन प्रकृतियों का बंध से उत्कृष्ट स्थितिबंध है, उनका एक आवलिका बीतने के बाद उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम का स्वमित्व होता है और जिन प्रकृतियों का संक्रम से उत्कृष्ट स्थितिबंध प्राप्त होता है, उनका दो आवलि काल बीतने के पश्चात् उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम का स्वामित्व प्राप्त होता है।
विशेषार्थ – जिन प्रकृतियों का बंध से उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, उन प्रकृतियों को वे ही देव, नारक, तिर्यंच मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिबंधक होते हैं और 'गंतूण आलिगं परउत्ति' अर्थात बंधावलिका का अतिक्रमण कर उससे परे अर्थात बंधावलिका के व्यतीत हो जाने पर जीव उस उत्कृष्ट स्थिति के संक्रमस्वामी होते हैं यानि उत्कृष्ट स्थिति का संक्रम करते हैं। किन्तु जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति संक्रम से पाई जाती है, उनका द्विक अर्थात् बंधावलिका और संक्रमावलिका स्वरूप दो आवलिका में अतिक्रमण करके उससे परे उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। अर्थात् बंधावलिका और संक्रमावलिका के व्यतीत हो जाने पर वे जीव उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम के स्वामी होते हैं।