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संक्रमकरण ]
[ ७१ प्रवर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत या अप्रमत्तविरत मनुष्य जघन्य स्थितिसंक्रम का स्वामी होता है।
समउत्तरालिगाए, लोभे सेसाए सुहमरागस्स। पढमकसायाण विसंजोयण संछोभणाए उ ॥४२॥ चरिम सजोगे जा अत्थि तासि सो चेव सेसगाणं तु।
खवगक्कमेण अनियट्टिबायरो वेयगो वेए ॥४३॥ शब्दार्थ -- समउत्तरालिगाए - समयाधिक आवलिका प्रमाण, लोभे सेसाए - लोभ की स्थिति रहने पर, सुहमरागस्स - सूक्ष्मसंपराय वाला, पढमकसायाण – प्रथम (अनन्तानुबंधी) कषाय का, विसंजोयणसंछोभणाए – विसंयोजना करने पर अन्त्य प्रक्षेप करने वाला, उ – और।
चरिमसजोगे - सयोगी केवली के चरम समय में, जा – जो, अन्थि – है, तासि – उनका, सो चेव – वही, सेसगाणं - शेष प्रकृतियों का, तु – और, खवगक्कमेण – अनुक्रम से क्षय करने वाला, अनियट्टिबायरो – अनिवृत्तिबादर गुणस्थान वाला, वेयगो – वेदन करने वाला, वेए - वेद का।
गाथार्थ – समयाधिक आवलिका प्रमाण लोभ की स्थिति शेष रहने पर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव लोभ के जघन्य स्थितिसंक्रम का स्वामी है तथा प्रथम अनन्तानुबंधी कषाय का विसंयोजन करते हुये अन्त्य प्रक्षेप करने वाला जघन्य स्थिति का संक्रम करता है।
सयोगी केवली के चरम समय में जो प्रकृतियां विद्यमान होती हैं, उन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिसंक्रम को करने वाला वही है और शेष प्रकृतियों का अनुक्रम से क्षय करने वाला अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती और वेद का तो उस वेद का वेदन करने वाला जघन्य स्थितिसंक्रम का स्वामी है।
विशेषार्थ – सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान का स्वामी अपने गुणस्थान की समयाधिक आवलि प्रमाण शेष रही स्थिति में वर्तमान जीव के लोभ का – संज्वलन लोभ का जघन्य स्थितिसंक्रम होता है। इसका तात्पर्य यह है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की समयाधिक आवलि प्रमाण शेष रही स्थिति में वर्तमान सूक्ष्मसंपराय संयत संज्वलन लोभ की जघन्य स्थिति के संक्रम का स्वामी होता है।
अनन्तानुबंधी कषायों के जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामी का प्रतिपादन करने के लिये पढमकसायाण इत्यादि पद कहा है। उसका यह अर्थ है कि प्रथम कषाय जो अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं, उनके विसंयोजन में अर्थात विनाश करने में जो पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण चरम खंड का संक्षोभण अर्थात प्रक्षेपण होता है, उसमें वर्तमान चारों गतियों में से किसी एक गति का सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य स्थितिसंक्रम का स्वामी होता है।