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[ कर्मप्रकृति
पर्याप्त, प्रत्येक और साधारण में से कोई एक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति इन तेईस प्रकृतियों को बांधने वाले एक सौ दो, पंचानवै, तेरानवै, चौरासी और बियासी प्रकृतियों की सत्तावाले एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के यथाक्रम से एक सौ दो आदि पांचों संक्रमस्थान तेईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होते हैं।
इस प्रकार प्रकृतिसंक्रम का कथन जानना चाहिये। स्थितिसंक्रम
अब स्थितिसंक्रम के कथन का अवसर प्राप्त है। उसमें छह अर्थाधिकार हैं - १. भेद, २. विशेष लक्षण, ३. उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम प्रमाण, ४. जघन्य स्थितिसंक्रम प्रमाण, ५. सादि-अनादि आदि प्ररूपणा, ६. स्वामित्व प्ररूपणा। “इनमें से पहले भेद और विशेष लक्षण का प्रतिपादन करते हैं -
ठिइसंकमो त्ति वुच्चइ, मूलुत्तरपगईउ य जा हि ठिई।
उव्वट्टियाउ ओवट्टिया, व पगई निया वऽण्णं॥२८॥ शब्दार्थ – ठिइसंकमोत्ति – स्थितिसंक्रम, वुच्चइ – कहलाता है, मूलुत्तरपगईउ – मूल और उत्तर प्रकृतियों की, य - और, जा हि ठिई – जो स्थिति है, उवट्टियाउ – उद्वर्तना करना, ओवट्टिया- अपवर्तना, व – अथवा, पगई – प्रकृति को, निया - लाकर, वऽण्णं – अथवा अन्य प्रकृतिरूप से।
गाथार्थ – मूल और उत्तर प्रकृतियों की जो स्थिति होती है, उसकी उद्वर्तना करना अथवा अपवर्तना करना अथवा अन्य प्रकृतिरूप से परिणमाना स्थितिसंक्रम कहलाता है।
विशेषार्थ – मुलुत्तरपगईउ इस पद में षष्ठी विभक्ति के अर्थ में पंचमी विभक्ति प्रयुक्त की गई है। इसलिये इसका अर्थ यह है कि आठ मूल प्रकृतियों की जो स्थिति है अथवा एक सौ अट्ठावन उत्तर प्रकृतियों की जो स्थिति है वह उद्वर्तित की गई, -अल्प स्थिति से दीर्घ की गई अथवा अपवर्तित की गई-दीर्घ स्थिति से अल्प की गई अथवा अन्य प्रकृति में परिणत की गई अर्थात् पतद्ग्रह प्रकृति की स्थितियों के मध्य में ले जाकर निक्षिप्त की जाती है, उसे स्थितिसंक्रम कहा जाता है।
१. कर्म प्रकृतियों के संक्रम योग्य गुणस्थानों को परिशिष्ट में देखिये। २. स्थितिर्मूलप्रकृतीनां उत्तरप्रकृतीनां संबंधिनी ह्रस्वीभूता सती दीर्घाकृता वा दीर्घाभूता सती ह्रस्वीकृता, अन्यां वा प्रकृति नीता पतद्ग्रहप्रकृतिस्थितिषु नीत्वा निवेशिता स स्थितिसंक्रम उच्यते ।