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संक्रमकरण ]
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जाने पर उदयावलि से ऊपर की स्थिति को सम्यक्त्व में संक्रांत करता है और अपवर्तित भी करता है। इस प्रकार मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहूर्तहीन और सम्यक्त्व एवं सम्यग्मिथ्यात्व का अन्तर्मुहूर्त और दो आवलिहीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण जानना चाहिये।
प्रश्न – यहां तीर्थंकरनाम और आहारकसप्तक का उत्कृष्ट स्थितिबंध अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कहा है और इनका स्थितिसत्व भी अन्त:कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण ही होता है। इसलिये क्या ये प्रकृतियां संक्रमोत्कृष्टा हैं अथवा बंधोत्कृष्टा ?
उत्तर – इस संशय को दूर करने के लिये ही तो 'अंतो कोडाकोडी' इत्यादि पद दिया है कि आहारकसप्तक और तीर्थंकर नामकर्म में संक्रम से स्थितिसत्व अन्तःकोडाकोडी सागरोपम होता है। अतएव ये संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियां हैं। यद्यपि बंध में भी अन्त:कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण सत्व कहा है, तथापि बंधोत्कृष्टा स्थिति से संक्रमोत्कृष्टा स्थिति संख्यातगुणी जाननी चाहिये। जैसा कि चूर्णि में कहा है -
बंधट्ठिईओ संतकम्मठिई संखिजगुणा। अर्थात् बंधस्थिति से सत्कर्मस्थिति संख्यातगुणी होती है।
प्रश्न – नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होती है, इसलिये आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृति में भी संक्रम से प्राप्त होने वाली उत्कृष्ट स्थिति बंधावलि और उदयावलि से रहित बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण ही प्राप्त होती है। तब यह कैसे कहा जा सकता है कि तीर्थंकर और आहारक की संक्रम से भी उत्कृष्ट स्थिति अन्त:कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होती है ?
उत्तर अभिप्राय को नहीं समझने के कारण आपका उक्त कथन अयुक्त है। क्योंकि तीर्थंकरनाम और आहारक के बंधकाल में ही अन्य प्रकृति की स्थिति संक्रांत होती है, अन्य समय नहीं और इन दोनों प्रकृतियों का बंध यथाक्रम से विशुद्ध सम्यग्दृष्टि के और विशुद्ध संयत के होता है। विशुद्ध सम्यग्दृष्टि और विशुद्ध संयत जीवों के आयुकर्म को छोड़कर शेष सभी कर्मों का स्थितिसत्व भी अन्त:कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण ही होता है, अधिक नहीं। इसलिये संक्रम भी इतना ही प्राप्त होता है, अधिक नहीं। अत: आपका कथन युक्तिसंगत नहीं है। संक्रमकाल में प्राप्त स्थिति
अब सभी प्रकृतियों की चाहे वे बंधोत्कृष्टा हों या संक्रमोत्कृष्टा, उनकी संक्रमणकाल में जितनी स्थिति पाई जाती है, उसका निर्देश करते हैं -
१. यह कथन कार्मग्रन्थिक मतानुसार समझना चाहिये।