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स्थितिसंक्रम आवलिकात्रिक से हीन जानना चाहिये।
इस प्रकार जिन प्रकृतियों की बंध होने पर संक्रम से उत्कृष्ट स्थिति होती है उन्हीं प्रकृतियों का वह उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम परिमाण जानना चाहिये ।
संक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमपरिमाण
अब जिन प्रकृतियों की बंध के बिना केवल संक्रम से ही उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, उन प्रकृतियों उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमपरिमाण का निरूपण करते हैं
मिच्छत्तस्सुक्कासो, भिन्नमुहुत्तूणगो उ सम्मत्ते । मिस्सेवंतो कोडाकोडी आहारतित्थयरे ॥ ३० ॥
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[ कर्मप्रकृति
शब्दार्थ - मिच्छत्तस्सुक्कासो मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम, भिन्नमुहुत्तूणगो अन्तर्मुहूर्तहीन, उ - और, सम्मत्ते – सम्यक्त्व मोहनीय, मिस्सेव मिश्र मोहनीय का, अंतोकोडाकोडीअन्तः कोडाकोडी सागरोपम, आहारतित्थयरे आहारक और तीर्थंकर नाम का ।
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गाथार्थ – मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहूर्तहीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तथा सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम दो आवलिका अधिक अन्तर्मुहूर्तहीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तथा आहार सप्तक और तीर्थंकर नामकर्म का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है ।
विशेषार्थ – मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम भिन्नमुहूर्तोन – अन्तर्मुहूर्तहीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है तथा सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम भिन्नमुहूर्तोन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । गाथा में पठित तु (उ) शब्द अधिक अर्थ का संसूचक है। इसलिये उसे दो आवलिकाल और अन्तर्मुहूर्त से हीन जानना चाहिये। इसका अभिप्राय यह है
दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान होता हुआ मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति को बांधकर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात विशुद्धि को प्राप्त होता हुआ मिथ्यात्व को छोड़ कर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। तब मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति जो सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण. अभी बाकी है, उसे अन्तर्मुहूर्त न्यून शेष स्थिति को सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रांत करता है और वह संक्रांत होती हुई स्थितिसंक्रम आवलि के व्यतीत हो जाने पर उदयावलि के ऊपर की सम्यक्त्व की स्थिति को अपवर्तनाकरण से स्वस्थान में संक्रांत' करता है । सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति को भी संक्रमावलि के व्यतीत हो
१. प्रकृति के परमाणु अन्य प्रकृतिरूप परिणमित न होकर हीन या अधिक स्थिति वाले अपने ही परमाणुओं में संक्रान्त हों, उसे स्वस्थान संक्रम कहते हैं ।