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[ कर्मप्रकृति
अक्षीण होने पर, य - और, दिट्ठिमोहम्मि – दर्शन मोहनीय के, उवसामगे – उपशामक में, य - और, खवगे - क्षपक में, य - और, संकमे – संक्रम के, मग्गणोवाया - मार्गण के उपाय हैं।
गाथार्थ – आनुपूर्वी से अनानुपूर्वी से और उभय से दर्शनमोहनीय के क्षीण और अक्षीण होने पर उपशामक और क्षपकश्रेणी में संक्रमस्थानों की मार्गणा के उपाय हैं।
विशेषार्थ – पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमस्थानों की संकलना का विचार करने के जो उपाय हैं, अब उनको स्पष्ट करते हैं - क्या यह संक्रमस्थान आनुपूर्वी से संक्रम में घटित होता है अथवा अनानुपूर्वी से अथवा दोनों प्रकारों से? दर्शनमोहनीय के क्षय होजाने पर घटित होते हैं अथवा क्षय नहीं होने पर अथवा दोनों अवस्थाओं में घटित होते हैं ? तथा ये उपशमक के घटित होते हैं अथवा क्षपक के अथवा दोनों के ?'
उक्त कथन का सारांश यह है कि उपर्युक्त प्रश्नों को ध्यान में रखकर पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमस्थानों का अन्वेषण करना चाहिये।
इस प्रकार मोहनीयकर्म के संक्रमस्थानों और पतद्ग्रहस्थानों की विधि का विस्तार से विचार करना चाहिये। नामकर्म के संक्रमस्थान और पतद्ग्रहस्थान
अब नामकर्म के संक्रमस्थान और पतद्ग्रहस्थानों का वर्णन किया जाता है। उनमें से पहले संक्रमस्थान बतलाते हैं। वे बारह होते हैं, जो इस प्रकार हैं -
तिदुगेगसयं छप्पण - चउतिगनउई य इगुणनउईया।
अट्ठचउदुगेक्कसीई, संकमा बारस य छटे ॥ २३॥ शब्दार्थ – तिदुगेगसयं - तीन, दो, एक अधिक सौ, छप्पण चउतिगनउई - छह, पांच, चार, तीन अधिक नव्वै, य - और, इगुणनउईया - एक कम नव्वै, अट्ठ चउदुगेक्कसीई - आठ, चार, दो और एक अधिक अस्सी, संकमा – संक्रम स्थान, बारस – बारह, य – और, छ8 – छठे कर्म में।
गाथार्थ – छटे कर्म में अर्थात् नामकर्म में तीन अधिक सौ आदि अर्थात् एक सौ तीन , एक सौ दो, एक सौ एक, छियानवै, पंचानवै, चौरानवै, तेरानवै, नवासी, अठासी, चौरासी, बियासी और इक्यासी
१. पूर्वानुपूर्वी अथवा पश्चातानुपूर्वी से, प्ररूपणा करना आनुपूर्वी प्ररूपणा है। २. अनुक्रम रहित संक्रमस्थानों की अमुक-अमुक पतद्ग्रहस्थान में प्राप्ति कहना अनानुपूर्वी प्ररूपणा है। ३. उभय प्रकार (आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी) से विचार करना उभय प्ररूपणा है। ४. उक्त कथन का सारांश यह है कि पतद्ग्रह और संक्रमस्थानों को स्थापित करके उनके विचार करने की विधि यह है।