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संक्रमकरण ]
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गाथार्थ – श्रेणी को प्राप्त जीव के परभव सम्बंधी प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाने के बाद एक प्रकृतिक पतद्ग्रह स्थान में एक सौ एक, एक सौ दो, पंचानवै, चौरानवै और उसके बाद तेरह कम वे ही स्थान अर्थात् अठासी, नवासी, बियासी और इक्यासी कुल मिलाकर ये आठ प्रकृतिस्थान संक्रांत होते हैं।
यति के (अप्रमत्तविरत और अपूर्वकरण गुणस्थान वाले के) इकतीस प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में एक सौ तीन, एक सौ दो और छियानवै और पंचानवै प्रकृतिरूप ये चार संक्रमस्थान हैं तथा तीस और उनतीस प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में एकान्त श्रेणी योग्य पांच स्थानों को छोड़ कर शेष सात संक्रमस्थान संक्रांत होते हैं।
अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में भी पूर्वोक्त सात स्थानों में से बियासी और एक सौ तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान को छोड़ कर शेष पांच संक्रमस्थान संक्रान्त होते हैं और शेष पतद्ग्रहस्थानों में बियासी प्रकृतिरूप संक्रमस्थान सहित और छियानवै प्रकृतिक स्थान से रहित वे ही पांच संक्रमस्थान संक्रांत होते हैं।
विशेषार्थ - पारभविक अर्थात् परभव में ही जिनका वेदन होता है, ऐसी नामकर्म की देवगतिप्रायोग्य इकतीस आदि प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने पर, उसके आगे दोनों ही उपशम और क्षपक श्रेणी में एक यश:कीर्ति प्रकृति के बंधते हुए उसमें आठ संक्रमस्थान संक्रांत होते हैं, यथा एक सौ एक, एक सौ दो पंचानवै, चौरानवै ये चार तथा इन्हीं चारों संक्रमस्थानों को तेरह से न्यून करने पर चार संक्रमस्थान होते हैं, यथा अठासी, नवासी, बियासी और इक्यासी।
__इनमें एक सौ तीन प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव के यशःकीर्ति बध्यमान पतद्ग्रहप्रकृति है, इसलिये उसको कम करने पर शेष एक सौ दो प्रकृतिरूप संक्रमस्थान यश:कीर्तिरूप पतद्ग्रह में संक्रांत होता
इसी प्रकार एक सौ दो प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव के एक सौ एक प्रकृतिरूप संक्रमस्थान एक प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है।
छियानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव के यश:कीर्ति प्रकृति पतद्ग्रहरूप है, इसलिये उसके निकाल देने पर शेष पंचानवै प्रकृतिरूप संक्रमस्थान उस एक यश कीर्ति पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है।
इसी प्रकार पंचानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव के चौरानवै प्रकृतिरूप संक्रमस्थान एक प्रकृतिरूप पतद्ग्रह में संक्रांत होता है।
____एक सौ तीन प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव के नामकर्म की पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियों के क्षय हो जाने पर यश:कीर्ति पतद्ग्रह है। इसलिये उसके निकाल देने पर नवासी प्रकृतिरूप संक्रमस्थान एक यश:कीर्ति रूप
१. नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रियादि जातिचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण आतप, उद्योत - १३।