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[ कर्मप्रकृति
पर संज्वलन मान भी पतद्ग्रह नहीं रहता है। इसलिये पूर्वोक्त त्रिक में से उसके निकाल देने पर शेष द्विक रूप पतद्ग्रह में पूर्वोक्त आठ प्रकृतियां संक्रांत होती हैं और वे एक समय कम दो आवलिकाल तक संक्रांत होती रहती हैं । तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण रूप मानद्विक के उपशांत हो जाने पर शेष छह प्रकृतियां द्विक रूप पतद्ग्रह में संक्रांत होती हैं और वे एक समय कम दो आवलिकाल तक संक्रांत होती रहती हैं । तत्पश्चात् संज्वलन मान के उपशांत हो जाने पर पांच प्रकृतियां संक्रांत होती हैं और वे द्विक रूप पतद्ग्रह में अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रांत होती रहती हैं।
इसके पश्चात् संज्वलन माया की प्रथम स्थिति में एक समय कम तीन आवलिकाल शेष रह जाने पर संज्वलन माया की पतद्ग्रहता नहीं रहती है । इसलिये द्विक रूप पतद्ग्रह में से उसको निकाल देने पर शेष संज्वलन लोभ रूप एक ही पतद्ग्रह में वे पांचों प्रकृतियां संक्रांत होती हैं और वे भी एक समय कम दो आवलिकाल तक संक्रांत होती हैं। तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण रूप मायाद्विक के उपशांत हो जाने पर शेष तीन प्रकृतियां संज्वलन लोभ में संक्रांत होती हैं और वे अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रांत होती रहती हैं। तब अनिवृतिबादरसंपरायगुणस्थान के चरम समय में दोनों उपशांत हो जाती हैं। इसलिये कोई भी प्रकृति किसी में भी संक्रांत नहीं होती हैं।
इस प्रकार उपशम श्रेणी में क्षायिक सम्यग्दृष्टि के संक्रम और पतद्ग्रह विधि को जानना चाहिये। जिसे निम्नलिखित प्रारूप में सुलभता से समझा जा सकता है -