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श्रावक
ला सं/३/१२६ १३९ एव च सात्स्यात्कुलाचार क्रमात्परम् । बिना नियमादि तावत्प्रोच्यते सा कुलक्रिया | १२६ दर्शनप्रतिमा नास्य पाक्षिकाः स्वस्थानादसंयत | | १३१ | ३. यदि ये उपरोक्त (अष्टमूलगुण व सप्तव्यसनत्याग ) क्रियाएँ बिना किसी नियमके हों तो उन्हें व्रत नहीं कहते बल्कि कुल क्रिया कहते हैं |१२६ | ऐसे ही इन कुल क्रियाओं का पालन करनेवाला न दर्शन प्रतिमाभारी है और न पंचम गुणवत पाक्षिक है और उसका गुणस्थान असंयत है | १३१|
दे. श्रावक /४/३ [ अष्ट मूलगुण तथा सप्त व्यसन त्यागके बिना नाममात्रको भी श्रावक नहीं । ]
./४/४ [ ये अष्ट मूलगुण व्रती व अवती दोनोंको यथायोग्य रूपये होते हैं।] दे. श्रावक / २ /३/१ [ अष्ट मूलगुण धारण और स्थूल अणुवतका शक्रयनुसार पालन पाक्षिक श्रावकका लक्षण है । ]
५. पाक्षिक श्रावकी दिनचर्या
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सा- ध./६/१-४४ ब्राह्म मुहूर्त्त उत्थाय वृत्तपश्ञ्चनमस्कृति' । कोऽहं को मम धर्म कि, व्रतं चेति परामृशेत् |१| ब्राह्म मुहूर्त में उठ करके पढ़ा है नमस्कार मन्त्र जिसने ऐसा भावक मैं कौन हूँ. मेरा धर्म कौन है, और मेरा यत कौन है इस प्रकार चितवन करे | अति दुर्लभ धर्म में उत्साहकी भावना |२| स्नानादिके पश्चात् अष्ट प्रकार अर्हन्त भगवान्की पूजा तथा वन्दनादि कृतिकर्म ( ३-४ ) ईर्ष्या समिति से ( ६ ) अत्यन्त उत्साहसे (७) जिनालय में तिस्सही शब्द के चाणके साथ प्रवेश करे) जिनालयको समवसरण के रूप में ग्रहण करके (१०) देव शास्त्र गुरुकी विधि अनुसार पूजा करे (११-१२) स्वाध्याय (१३) दान (१४) गृहस्थ संबन्धित कार्य (१५) मुनित्रतकी धारणकी अभिलाषा पूर्वक भोजन (१७) मध्याह्न में अर्हन्त भगवान्की आराधना (२१) पूजादि (२३) तत्व चर्चा (२६) सन्ध्यामें भाव पूजादि करके सोचे (२७) निद्रा उचटनेपर वैराग्य भावना भावे (२८-३३) । स्त्रीकी अनिष्टताका विचार करे (३४-३६) समता व मुनको भावना करे (३४-४३) आदर्श आवकों की प्रशंसा तथा धन्य करे (४४) । (ला. सं./६/१६२-१८८ ) |
एकदेश पालन करनेसे व्रती
६. पाँच व्रतोंके होता है
स. सि. / ७ / ११ / ३५८ / ३ अत्राह किं हिंसादीनामन्यतमस्माद्यः प्रतिनिवृत्तः सवागारी बती । नेवम्। किं तर्हि । पञ्चतय्या अपि विरतेबैंकरमेन विवक्षित प्रश्न जो हिंसादिकसे किसी एक निवृत्त है वह कया अगारी बत्ती है ? उत्तर-ऐसा नहीं है। प्रश्नतो क्या है। उत्तर- जिसके एक देशसे पाँचोंकी विरति है वह जारी है। यह अर्थ यहाँ विवक्षित है (रा. बा. /७/१६/४/५४७/१) ।
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रा. वा. /७/११/२/०४६/२१ यथा गृहापपरका दिनगरीनिवास स्यापि नगरावास इति शब्द्यते, तथा असकलवतोऽपि नैगम संग्रहव्यवहारनयनापेक्षा मतीति व्यपदिश्यते। जैसे-घरके एक कोने या नगरके एकदेशमें रहनेवाला भी व्यक्ति नगरवासी कहा जाता है उसी तरह सकल को धारण न कर एक देशव्रतोंको धारण करनेवाला भी नैगम संग्रह और व्यवहार नयोंकी अपेक्षा वती कहा जायेगा ।
७. पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावकमें अन्तर
घ. / ३ / ४ दुर्लेश्याभिभवाज्जातु विषये क्वचिदुत्सुकः । स्खलन्नपि कापि गुणे, पाक्षिकः स्थान्न नैष्ठिकः |४| =कृष्ण, नील व कापीत
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३. धावकके मूल व उत्तर गुण निर्देश
इन लेश्याओं मे से किसी एकके वेगसे किसी समय इन्द्रियके विषय में उत्कण्ठित तथा किसी मूलगुणके विषयमे अतिचार लगानेवाला गृहस्थ पाक्षिक कहलाता है कि नहीं।
४. श्रावकके मूल व उत्तर गुण निर्देश
१. अष्ट मूतगुण अवश्य धारण करने चाहिए २.क./६६ मा अ गुलगुला नाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा ६६ । = मद्य, मांस और मधुके त्याग सहित पाँचों अगुतोको श्रेष्ठ मुनिराज गृहस्थोके गुण कहते है। (सा.प.) पू.सि./६९ मा क्षोई पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन हिंसा व्युपठिका मैमकम्यानि प्रथममेव हिंसा स्थानकी कामना वाले पुरुषों को सबसे पहले शराब, मांस, शहद, ऊमर, कठूमर आदि पंच उदुम्बर फलोंका त्याग करना योग्य है । ६११ (पं. वि. / ६ / २३), ( सा. ध./२/२) ।
या सा.१०/४ पर भूत- हिंसासत्यस्यापरिग्रहाथ बादरभेदाद । यताम्मासान्यासि हिमोऽष्ट सम्य्यमी मूलगुणाः ।
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- स्थूल हिसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म व स्थूल परि ग्रहसे विरक्त होना तथा जुआ, मांस और मद्यका त्याग करना ये आठ गृहस्थोंके मूलगुण कहलाते हैं । ( चा. सा. /३० /३), (सा. घ /२/३१।
सा. घ. / २ / १८ मद्यपलमधुनिशाशन पञ्चफलीविरति पञ्चकातनुती । जीवदयातालनमिति चक्कचिदष्टमूलगुणाः १ = किसी आचार्य के मत मे मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन व पंच उदुम्बर फलोंका त्याग, देववन्दना, जीव दया करना और पानी छानकर पीना में मूलगुण माने गये है | १८| (सा. घ. सान राम /फुट नोट पृ. ८२ ) ।
२. अष्ट मूलगुण निर्देशका समन्वय
रा. वा. हिं. /७/२०/५३८ कोई शास्त्रमें तो आठ मूल गुण कहे हैं, तामें पाँच अणुव्रत कहे, मद्य, मांस, शहदका त्याग कहा, ऐसे आठ कहे । कोई शास्त्र में पाँच उदुम्बर फलका त्याग, तीन प्रकारका त्याग, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्रमें अन्य प्रकार भी कहा है। यह तो मिक्षाका भेद है, हाँ ऐसा समझना जो स्थूलपले पाँच पाप हो का त्याग है। पंच उदुम्बर फलमें तो त्रस भक्षणका त्याग भया, शिकार के त्यागमें त्रस मारनेका त्याग भया । चोरी तथा परस्त्री त्यागमें दोऊ व्रत भए । द्यत कर्मादि अति तृष्णाके त्याग त असत्यका त्याग तथा परिग्रहकी अति चाह मिटी । मांस, मद्य, और शहदके त्याग तै त्रस कू मार करि भक्षण करनेका त्याग
भया ।
३. अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनोंके त्यागके बिना नामसे भी धावक नहीं
दे दर्शन प्रतिमा / २ / ५ पहली प्रतिमामें ही श्रावकको अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनका त्याग हो जाता है।
साध टिप्पणी ८२ प्रगुणा गुरागारिकीर्तिता बिना यदि -आठ सगुण श्रावकों के लिए गणधश्देवने कहे हैं. इनमें से एकके भी अभाव आवक नहीं कहा जा सकता। पं.प./७/०२४-०२८ निसर्गादा
याशयातास्ते गुणाः स्फुटम् । तद्विना न व्रतं यावत्सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम् ||२४| एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति नामतः । किं पुनः पाक्षिको
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