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सल्लेखना
भ.आ./ ताराधना टीका/२४१/४०२/४ ईदयामाहार यदि मासाम्यन्तरे सभेऽहं ततो भोजनं करोमि नान्यथेति । तस्य मासस्यान्तिमे दिने प्रतिमायोगमास्ते! सा एका भिक्षुप्रतिमा एवं पूर्वोक्ताहाराच्छतगुणेनोत्कृष्टदुर्लभान्यान्याभ्यवहारस्यावग्रहं गृह्णाति । यावदुद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्तमासाः 'सर्वत्रान्तिमदिनकृतप्रतिमायोगाः एताः सप्त भिक्षुप्रतिमाः । पुनः पूर्वाहाराच्छतगुणोत्कृष्टस्य दुर्लभस्य अन्यान्याहारस्य सप्त सप्त दिनानि वारत्रयं तं गृह्णाति । पतास्तिो भिक्षुप्रतिमाः । ततो रात्रिदिनं प्रतिमायोगेन स्थित्वा पश्चाद्रात्रिप्रतिमायोगमास्ते । द्वे भिक्षुप्रति । पूर्वमवधिमन:पर्ययज्ञाने प्राप्य पश्चात्सूर्योदये केवलज्ञान प्राप्नोति एवं द्वादशभिनलिमाः १. मुनि स्वयं ठहरे हुए देशमें उत्कृष्ट और दुर्लभ आहारका मत प्रहण करता है। अर्याद उत्कृष्ट और दुर्लभ इस प्रकारका आहार यदि एक महीने के भीतरभीतर मिल गया तो मैं आहार करूगा अन्यथा नहीं। ऐसी प्रतिज्ञा करके उस महीने के अन्तिम दिनमें वह प्रतिमा-योग धारण करता है । यह एक भिक्षु प्रतिमा हुई (२०) पूर्वोक्त, आहारते शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहारका व्रत वह क्षपक ग्रहण करता है यह व्रत क्रमसे दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात मास तकके लिए ग्रहण करता है। प्रत्येक अवधिके अन्तिम दिन में प्रतिमायोग धारण करता है। ये कुल मिलकर सात भिक्षु प्रतिमाएँ हुई । - ( ८-१० ) पुनः सात-सात दिनोंमें पूर्व आहारकी अपेक्षासे वातगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न भिन्न आहार तो दफा लेनेकी प्रतिज्ञा करता है। आहारकी प्राप्त होनेपर तीन, दो और एक ग्रास लेता है। ये तीन भिक्षु प्रतिमाएँ हैं । (११-१२ ) तदनन्तर रात्रि और दिन भर प्रतिमायोगसे खड़ा रहकर अनन्तर प्रतिमायोगसे पानस्थ रहता है। ये दो प्रतिमाएं हुई प्रथम अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानकी प्राप्ति होती है। अनन्तर सूर्योदय होनेपर भइ झपक केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है। इस रीतिले १२ भिक्षु प्रतिमाएं होती है।
२. शकी अपेक्षा तीन प्रकारके अथवा चारों प्रकारके आहारका त्याग
भ.आ./मू./७०–७०८ वमयं पच्चस्त्रावेदि तदो सव्वं च चदुविधाहा संघसमवायम के सागारं गुरुजिओगे 101 अहवा समाधिहे कायoat पाणयस्य आहारो । तो पाणयंपि पच्छा बोसरिद जहाकाले |७०८ | = तदनन्तर संघके समुदाय में सविकल्पक प्रत्याख्यान अद चार प्रकारके आहारोंका निर्यापकाचार्य लपकको त्याग कराते हैं, और इतर प्रत्याख्यान भी गुरुकी आज्ञासे वह क्षपक करता है 1909 | अथवा क्षपकके चित्तकी एकाग्रताके लिए पानकके अतिरिक्त अशन खाद्य और स्वाद्य ऐसे तीन प्रकारके आहारोंका त्याग कराना चाहिए। जब क्षपककी शक्ति अतिशय कम होती है तब पानकका भी स्याग करना चाहिए अर्थात् परीचह सहन करने में खून समर्थ है उसको चार प्रकारके आहारका और असमर्थ साधुको तीन प्रकारके आहारका त्याग कराना चाहिए। (और भी दे. सल्लेखना / ३ / ७-१) | ४. आहार त्यागका सामान्य क्रम .बा./ /२१८-१११ अणुसज्जमाण पुरा समाधिकामस्स सम्महरिय एमकेक्स हार्मो उवेदि पौराणमाहारे ४१ अनुमेय ठविदो सब दूण सव्यमाहारं । पाणयपरिक्कमेण तु पच्छा भावेदि अप्पा | ६६६| संथारत्थो खबओ जहया खोणी हवेज्ज तो तश्या । बोसरिदव्य पुत्र विधिणेत्र सोपाणगाहारो | १४६२ - निर्यापकाचार्य के द्वारा आहाराभिलाषाके दोष बतानेपर भी क्षपक उस आहार में यदि प्रेमयुक्त ही रहा तो समाधिमरणको इच्छा रखनेवाले उस के सम्पूर्ण आहारों में से एक-एक बाहारको घटाते हैं, अर्था क्षपकसे एक-एक आहारका क्रमसे त्याग कराते हैं । ६६८| आचार्य
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५. भक्तप्रत्याख्यान में निर्यापकका स्थान
उपर्युक्त क्रमसे मिष्टाहारका त्याग कराकर क्षपकको सादे भोजन में स्थिर करते हैं । तब वह क्षपक भात वगैरह अशन और अपूप वगैरह खाद्य पदार्थोंको क्रमसे कम करता हुआ पानकाहार करनेमें अपनेको करता है । ( पानकके अनेकों भेद हैं- दे. पानक ) |६| संस्तरपर सोया हुआ क्षपक जब क्षीण होगा तब पानकके विकल्पका भी उपरोक्त सूत्रों के अनुसार त्याग करना चाहिए । १४६२ ( और भी 2. //-ε) |
१२. क्षपकके लिए उपयुक्त आहार
भ.आ./मू./गा. सल्लेहणासरीरे तवोगुणविधी अणेगहा भणिदा | आयंबिलं महेसी तत्थ दु उक्कत्सयं विति । २५०१ छट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं भहि अदिविकट्ठेहि मिदल आहार करेदि जामिल बहुसो | २५१ | आयंबिलेण सिंभं खोयदि पित्तं च उबसमं जादि । वादस्सरण एत्य पपत्तं तु कादब ७०१ अगमतितयमणं विसंग अकसायमलवणं मधुरं अभिरस मदुगंध अच्छमह अगदी १४० पाणगम सिमलं परिपूर्ण खोणस्स तस्स दादव्वं । जह वा पच्छे खवयस्स तस्स तह होइ दायव्वं । १४६११ - शरीर लेखनाके लिए जो पोंके अनेक विकल्प गाथाओं में कहे हैं. उनमें आचाम्ल भोजन करना उत्कृष्ट विकल्प है, ऐसा महर्षि गण कहते हैं | २५० दो दिनका उपवास, तीन दिनका उपवास, चार दिनका उपवास, पाँच दिनका उपवास ऐसे उत्कृष्ट उपवास होनेके अनन्तरमित और हलका ऐसा कांजी भोजन ही क्षपक बहुशः करता है | २६१| आचाम्ल से कफका क्षय होता है, पित्तका उपशम होता है। और वातका रक्षण होता है, अर्थात् बातका प्रकोप नहीं होता । इसलिए आचाम्ल में प्रयत्न करना चाहिए । ७०१ । जो आहार कटुक, तिक्त, आम्ल, कसायला, नमकीन, मधुर, विरस, दुर्गन्ध, अस्वच्छ, उष्ण और शीत नहीं है. ऐसा आहार क्षपकको देना चाहिए अर्थात मध्यम रसोंका आहार देना चाहिए | ११६०| जो पेय पदार्थ क्षीण क्षपकको दिया जाता है, वह कफको उत्पन्न करनेवाला नहीं होना चाहिए और स्वच्छ होना चाहिए। क्षपकको जो देनेसे पथ्यहिटकर होगा ऐसा ही पालक देने योग्य है।
भक्ष्याभक्ष्य // शरीरको प्रकृति तथा क्षेत्र कालके अनुसार देना चाहिए] |
५. भक्तप्रत्याख्यानमें निर्यापकका स्थान
१. योग्य निर्वापक व उसकी प्रधानता
भ.आ./ए./गा. पंचविधे आचारे समुज्जो सम्बमिवडाओ सो उज्जमेदिखवयं पंचविधे सुट्ठु आयारे | ४२३ । आयारत्थो पुण से दोसे सब्वे वि ते विवज्जेदि । तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि बारि ४२] [पकको सम्लेखना धारण करानेवाला आचार्य आचारवाद, आधारवाद व्यवहारवाद, कर्ता, आमापादनोद्योत और उत्नीक होता है। इनके अतिरिक्त वह अपरिसावी, निर्वाचक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान, और निर्यापकके गुणोंसे पूर्ण होना चाहिए - (दे. आचार्य/१/२)] जो आचार्य स्वयं पंचाचार में तत्पर रहते हैं, अपनी सम पेटा जो समितियों के अनुसार ही करते हैं मे हो क्षपकको निर्दोष -- तथा पंचाचार में प्रवृत्ति करा सकते हैं |४२३| आचारवत्व गुणको धारण करनेवाले आचार्य ऊपर लिखे हुए दोषोंका (दे. अगला शीर्षक ) त्याग करते हैं, इसलिए गुणोंमें प्रवृत्त होनेवाले दोषों से रहित ऐसे आचार्य निर्यापक समझने चाहिए।४२ ( और भी दे. आगे शीर्षक नं. 1)" भ.आ./मू./गा. गोवत्यपाद होति गुणा एवमादिया बहूगाण य होइ संकिलेसो ण चाबि उप्पज्जदि विक्त्ती |४४७| खबओ किला
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