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सल्लेखना
५. भक्तप्रत्याख्यानमें निर्यापकका स्थान
मिदंगो पडिचरय गुणेण णिब्बुदि लहइ । तम्हा णिघिसिदव्यं खबएण पकुत्रयसयासे ।४५८। धिदिबलकरमाद हदं महुरं कण्णाहुदि जदि ण देह । सिद्रिसुहमावहती चत्ता साराहणा होइ ॥५०॥ इय णिववओ
खवयस्स होइ णिज्जावओ सदायरिओ। होइ य कित्ती पधिदा ' एदेहि गुणेहि जुत्तस्स ।५०६।जो आचार्य सूत्रार्थज्ञ है उसके पाद
मूल में जो क्षपक समाध्यर्थ रहेगा, उसको उपर्युक्त अनेक गुणोंकी प्राप्ति होती है, उसके संक्लेश परिणाम नहीं होते, न ही रत्नत्रयमें कोई बाधा होती है। इसलिए आधारगुणयुक्त आचार्यका आश्रय लेना ही क्षपकके लिए योग्य है ।४४७१ रोगसे प्रसित क्षपक आचार्य के द्वारा की गयी शुश्रूषासे सुखो होता है, इसलिए प्रकुर्वी गुणके धारक आचार्य के के पास ही रहना श्रेयस्कर है।४५८। निर्यापकाचार्यकी वाणी धैर्य उत्पन्न करती है, वह आत्माके हितका वर्णन करती है, मधुर और कर्णाहादक होती है। यदि ऐसो वाणोका प्रयोग न करें तो क्षपक आराधनाओंका त्याग करेगा 1५०५। इस प्रकारसे क्षपकका मन आह्लादित करनेवाले आचार्य निर्यापक हो सकते हैं अर्थात निर्वापकत्व गुणधारक आचार्य क्षपकका समाधिमरण करा सकता है। इन आचारवत्वादि गुणोंसे परिपूर्ण आचार्यको जगत्में कीर्ति होती है।०६।
३. योग्य निर्यापकका अन्वेषण भ. आ./मू./गा. पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि या गंतूं। णिज्जावगमण्णेसदि समाधिकामो अणुण्णादं ।४०१। एक्कं व दो व तिणि य वारसवरिसाणि वा अपरिदतो। जिणवयणमणुण्णाद गवेसदि समाधिकामो दु।४०२। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झझा। अज्जवमद्दवलाघवतुट्ठी पाहादणं च गुणा 1४०६। --जिसको समाधिमरणकी इच्छा है ऐसा मुनि ५००,६००,७०० अथवा इससे भी अधिक योजन तक विहारकर शास्त्रोक्त निर्यापकका शोध करता है । ४०१। वह एक, दो, तीन वर्षसे लेकर बारह वर्ष तक खेदयुक्त न होता हुआ जिनागमसे निर्णीत निर्यापकाचार्यका अन्वेषण करता है।४०२। निर्यापकत्वकी शोध करनेके लिए विहार करनेसे क्षपकको आचारशास्त्र, जीतशास्त्र और कल्पशास्त्र इनके गुणों का प्रकाशन होता है। आत्माकी शुद्धि होती है, संक्लेश परिणाम नष्ट होते हैं। आर्जव, मार्दव, लाघव (लोभरहितता) सन्तुष्टी, आहाद आदि गुण प्रगट होते हैं ।४०६॥ ४. एक निर्यापक एक ही क्षपकको ग्रहण करता है भ. आ./म् /५१६-५२० एगो संथारगदो जजइ सरीर जिणोवदेसेण । एगो सलिलहदि मुणी उग्गेहि तवोविहाणेहि ।।१६। तदिओ णाणुण्णादो जजमाणस्स हु हवेज्ज वाघादो। पडिदेसु दोसु तीस य समाधिकरणाणि हायन्ति ।५२०॥ भ. आ./वि./५२०/७३६/१६ तृतीयो यतिन नुज्ञातः तीर्थकृद्भिः एकेन निर्यापकेनानुग्राह्यस्वेन -एक क्षपक जिनेश्वरके उपदेशानुसार संस्तरपर चढ़कर शरीरका त्याग करता है अर्थात समाधिमरणका साधन करता है और एक मुनि उन अनशनादि तपोंके द्वारा शरीरको शुष्क करता है ।५११। इन दोनों के अतिरिक्त तृतीय यति निर्यापकाचार्यके द्वारा अनुग्राह्य नहीं होता है। दो या तीन मुनि यदि संस्तरारूढ़ हो जायेंगे तो उनको धर्म में स्थित रखनेका कार्य, विनय वैयावृत्त्य आदि कार्य यथायोग्य नहीं हो सकेंगे, जिससे उनके मनको संक्लेश होगा। अत: एक ही क्षपक संस्तरारूढ़ हो सकता है। ।२०।
२. चारित्रहीन निर्यापकका आश्रय हानिकारक है भ. आ./मू./४२४-४२६ सेज्जोवधिसंथार भत्तं पाणं च चयणकप्पगदो। उवकप्पिज्ज असुद्ध' पडिचरए वा असं विग्गे।४२४॥ सल्लेहण पयासेज्ज गंध मल्लं च समणुजाणिज्जा। अप्पाउग्गव कथं करिज्ज सहर व जंपिज्ज ।४२५ ण करेज्ज सारण वारणं च खमयस्स चयणकप्पगदो। उहज्ज वा महलं खवयस्स किंचणारं भं ।४२६। -पंचाचारसे भ्रष्ट आचार्य क्षपकको वसतिका, उपकरण, संस्तर, भक्त, पान, उदगमादि दोष सहित देगा । वह वैराग्य रहित मुनियोंको उसकी शुश्रूषाके लिए नियुक्त करेगा, जिनसे क्षपकका आत्महित होना अशक्य है ।४२४। वह क्षपककी सरलेखनाको लोकमें प्रगट कर देगा, उसके लिए लोगोंको पुष्पादि लानेको कहेगा, उसके सामने परिणामोंको बिगाड़नेवाली कथाएँ कहेगा, अथवा योग्यायोग्यका विचार किये बिना कुछ भी बकने लगेगा।४२ वह न तो क्षपकको रत्नत्रयमें करने योग्य उपदेश देगा और न उसे रत्नत्रयसे च्युत होनेसे रोक सकेगा। उसके निमित्त पट्टकशाला, पूजा, विमान आदिके अनेक आरम्भ लोगोंसे करायेगा, इसलिए ऐसे आचार्यके सहवासमें क्षपकका हित होना शक्य नहीं ।४२६॥
५. निर्यापकोंकी संख्याका प्रमाण
भ. आ./मू./(उपोद्धात-क्षपकस्य चतुरङ्ग कथमगृहीतार्थो नाशयतीत्यारेकायामित्यमसौ नाशयतीति दर्शयति)-सम्' सुदिमलहंतो दीहृद्ध मुत्तिमुवगमित्ता वि। परिवडह मरणकाले अकदाधारस्स पासम्मि ४३३। सक्का बंसी छत्तं तत्तो उक्कडिओ पुणो दुवं । श्य संजमस्स वि मणो विसए सुक्कड्ढि, दुवखं ।४३४१ पढमेण व दोवेण व वाहिज्जंतस्स तस्स खवयस्स । ण कुणदि उवदेसादि समाधिकरण अगोदत्थो।४३१- प्रश्न-चतुरंगको न जाननेवाला आचार्य क्षपकका नाश कैसे करता है। उत्तर --[ अनादि संसार चक्रमें उत्तम देश, कुल आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। - गा. ४३०-४३२] योग्य कार्य में प्रवृत्ति करनेवाली स्मृति प्राप्त होनेपर भी और चिरकाल तक संयम पालन कर लेनेपर भी अल्पज्ञ आचार्य के आश्रयसे मरणकाल में क्षपक संयम छोड़ देता है ।४३३। जिस प्रकार बाँसके समूहमें से एक छोटे बाँसको उखाड़ना बहुत कठिन है उसी प्रकार मन विषयोंसे निकालकर संयममें स्थापित करना अत्यन्त कठिन है ।४३४। अगीतार्थ आचार्य क्षुधा और तृषासे पीडित क्षपकको उपदेशादिक नहीं करता इसलिए उसके आश्रयसे उसको समाधि मरण लाभ नहीं होता।४३७॥
भ. आ./मु./गा, कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणुज्जदा सुदरहस्सा। गीदस्था भयबंता अडदालीस तु णिज्जवया।६४८१.... कालम्मि संकिलिट्ठमि जाव चत्तारि साधेति ।६७२। णिज्जावया य दोण्णि घि होति जहण्णेण कालसंसयणा। एक्को णिज्जाक्यो होइ कच्या वि जिणसुत्ते ।६७३। एगो जाणिज्जवओ अप्पा चत्तो परोयवयणं च। बसणमसमाधिमरणं बड्डाहो दुग्गदी चाथि ६७४।योग्यायोग्य आहारको जानने में कुशल, क्षपकके चित्तका समाधान करनेवाले, प्रायश्चित्त प्रन्थ के रहस्यको जाननेवाले, आगमज्ञ, स्वब परका उपकार करने में तत्पर निर्यापक या परिचारक उत्कृष्टतः४५ होते हैं।६४८। संक्लेश परिणामयुक्त काल में वे चार तक भी होते है।६७२। और अतिशय संक्लिष्ट कालमैं दो निर्यापक भीक्षपकके कार्यको साध सकते हैं। परन्तु जिनागममें एक निर्यापकका किसी भी कालमें उल्लेख नहीं है ।६७३। यदि एक ही निर्यापक होगा तो उसमें आत्मत्याग, क्षपकका त्याग और प्रवचनका भी त्याग हो जाता है। एक निर्यापक से दुःख उत्पन्न होता है और रश्नत्रयमें एकाग्रताके विना मरण हो जाता है। धर्मदूषण और दुर्गति भी होती है। (विशेष दे. भ. आ./मू./६७५-६७१) । नि. सा./ता. ७/१२ इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीना सालेखनासमये हि द्विचत्वारिंशद्भिराचार्यदत्तोत्तमार्थप्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मा व्यवहारेण -जिनेश्वरके मार्ग में मुनियों की सहलेखनाके समय
जैनेन्द्र सिवान्त कोश
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