Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 506
________________ स्याद्वाद ३. मुख्य गौण व्यवस्था का. अ./मू./२६१ जं वत्थु अणेयंत एयंतं तं पि होदि सविपेक्वं । कल्पतः ।६२॥ --विधि और निषेध दोनों कथंचित इष्ट हैं। विवक्षासुय-णाणेण णएहि य णिरवेक्वं दीसदे णेव ।२६। जी वस्तु से उनमें मुख्य गौणकी व्यवस्था होती है ।२५। जिस प्रकार एक-एक अनेकान्त रूप है वही सापेक्ष दृष्टिसे एकान्त भी है। श्रुतज्ञानकी कारक शेष अन्यको अपना सहायक रूप कारक अपेक्षित करके अर्थअपेक्षा अनेकान्त रूप है और नयकी अपेक्षा एकान्त रूप है। बिना की सिद्धि के लिए समर्थ होता है उसी प्रकार आपके मतमें सामान्य अपेक्षाके वस्तुका स्वरूप नहीं देखा जा सकता। और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले जो नय हैं वे मुख्य और गौणकी दे. अनेकान्त/१/४ वस्तु एक नयसे देखनेपर एक प्रकार दिखाई देती है, कल्पनासे इष्ट हैं ।६२॥ और दूसरी नयसे देखनेपर दूसरी प्रकार। प.ध./पू /६५५ नैवमसंभवदोषाधतो न कश्चिन्नयो हि निरपेक्षः। ३. सप्तभंगीमें मुख्य गौण व्यवस्था सति च विधौ प्रतिषेधः प्रतिषेधे सति विधेः प्रसिद्धत्वात् ।६५५॥ रा. वा./४/४२/१४२५३/२१-२६ गुणप्राधान्यव्यवस्थाविशेषप्रतिपादनार्थ- असम्भव दोषके आनेसे इस प्रकार कहना ठीक नहीं (कि केबल त्वात् सर्वेषां भड्गानां प्रयोगोऽर्थवान् । तद्यथा, द्रव्यार्थिकस्य निश्चय नयसे काम चल जावेगा) क्योंकि निश्चयसे कोई भी नय प्राधान्ये पर्यायगुणभावे च प्रथमः । पर्यायार्थिकस्य प्राधान्य द्रव्यगुणनिरपेक्ष नहीं है। परन्तु विधि होने में प्रतिषेध और प्रतिषेध होने में भावे च द्वितीयः। तत्र प्राधान्यं शब्देन 'विवक्षितत्वाच्छन्दाधीनम्। विधिको प्रसिद्धि है। शब्देनानुपात्तस्यार्थ तो गम्यमानस्याप्राधान्यम् । तृतीये तु युगपद्भावे १. एक अंशका लोप होनेपर सबका लोप हो जाता है उभयस्याप्राधान्यं शब्देनाभिधेयतयानुपात्तत्वात् । चतुर्थ स्तूभय प्रधानः क्रमेण उभयस्यास्त्यादिशब्देन उपात्तत्वात्। तथोत्तरे च स्व. स्तो./२२ अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि भगा वक्ष्यन्ते। गौण और मुख्य विवक्षासे सभी भंगोंकी सार्थसत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपा कता है। द्रव्यार्थिककी प्रधानता तथा पर्यायार्थिककी गौणतामें ख्यम् ।२२। -यह सुयुक्तिनीत वस्तुतत्व भेदाभेद ज्ञानका विषय प्रथम भंग सार्थक है और द्रव्याथिककी गौणता और पर्यायार्थिकहै और अनेक तथा एक रूप है। और यह वस्तुको भेद-अभेद की प्रधानतामें द्वितीय भंग। यहाँ प्रधानता केवल शब्द प्रयोगकी रूपसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान ही सत्य है। जो लोग इनमें से एकको है, वस्तु तो सभी भंगों में पूरी ही ग्रहण की जाती है। जो शब्दसे ही सत्य मानकर दूसरे में उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या कहा नहीं गया है अर्थात गम्य हुआ है वह यहाँ अप्रधान है। तृतीय है क्योंकि दोनों में से एकका अभाव माननेपर दूसरेका भी अभाव भंगमें युगपत विवक्षा होनेसे दोनों ही अप्रधान हो जाते है क्योंकि हो जाता है, दोनों का अभाव हो जानेसे वस्तुतत्त्व अनुपाख्य दोनोंको प्रधान भावसे कहनेवाला कोई शब्द नहीं है। चौथे भंगमें निःस्वभाव हो जाता है। क्रमशः उभय प्रधान होते हैं। पं.ध./पू./१६ तन्न यतो द्रव्यार्थिकपर्यायाथिकनयात्मकं वस्तु। अन्यतरस्य वितोपे शेषस्यापोह लोप इति दोषः ।१६। यह ठीक नहीं ४. विवक्षावश मुख्य व गौणता होती है (कि एक नयसे सत्ताकी सिद्धि हो जाती है ) क्योंकि वस्तु द्रव्यार्थिक पं. का./ता. वृ./१८/११/१८ द्रव्यार्थिकपर्यायाथिकनययोः परस्परगौणऔर पर्यायार्थिक, इन दोनोंके विषय मय है। इनमें से किसी एकका मुख्यभावव्याख्यानादेकदेवदत्तस्य जन्यजनकादिभावंवक्ष एकस्यापि लोप होनेपर दूसरे नयका भी लोप हो जायेगा। यह दोष आवेगा। द्रव्यस्य नित्यानित्यत्वं घटते नास्ति विरोध इति । ७. अपेक्षा प्रयोगका प्रयोजन पं. का/ता. वृ./१/४१/१ स एव नित्यः स एवानित्यः कथं घटत इति चेत् । यथै कस्य देवदत्तस्य पुत्र विवक्षाकाले पितृविवक्षा गौणा पितका. अ/मू./२६४ णाणाधम्मयुदं पि य, एयं धम्म पि वुच्चदे अस्थ । विवक्षाकाले पुत्रविवक्षा गौणा, तथ.कस्य जीवस्य जीवद्रव्यस्य वा तस्सेयविवरवादी णस्थि विववखादा हु सेसाणं ।२६४।-अनेक धर्मोंसे द्रव्याथिकन येन नित्यत्वविचक्षाकाले पर्यायरूपेणानित्यत्वं गौणं युक्त पदार्थ है, तो भी उन्हें एक धर्म युक्त कहता है, क्योंकि जहाँ पर्यायरूपेणानित्यत्व विवक्षाकाले द्रव्यरूपेण नित्यत्वं गौण । कस्मात् एक धर्म की विवक्षा करते हैं वहाँ उसी धर्मको कहते हैं शेष धर्मोंकी विवक्षितो मुख्य इति वचनात् । = द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक विवक्षा नहीं कर सकते हैं। इन दोनों नयों में परस्पर गौण और मुख्य भावका व्याख्यान होनेसे एक ही देवदत्त के पुत्र व पिताके भावकी भाँति एक ही द्रव्यके ३. मुख्य गोण व्यवस्था नित्यत्व व अनित्यत्व ये दोनों घटित होते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है। प्रश्न-वह ही नित्य और वही अनित्य यह कैसे धस्ति होता १. मुख्य व गौणके लक्षण है। उत्तर-जिस प्रकार एक ही देवदत्त के पुत्रविवक्षाके समय पितृस्व. स्तो./३ विवक्षितो मुख्यं इतोष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो। जो विवक्षा गौण होती है और पितृविवक्षाके समय पुत्रविवक्षा गौण विवक्षित होता है वह मुख्य कहलाता है, दूसरा जो अविवक्षित होता होती है, उसी प्रकार एक ही जीवके वा जीव द्रव्य के द्रव्यार्थिक नयसे है वह गौण कहलाता है । (स्व. स्तो./२५) नित्यत्वकी विवक्षाके समय पर्यायरूप अनित्यत्व गौण होता है, और स्या. म./७/६३।२२ अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च । पर्यायरूप अनित्यत्वकी विवक्षाके समय द्रव्यरूप नित्यत्व गौण होता विपरीतो गौणोऽर्थः सति मुख्ये धीः कथं गौणे । = अव्यभिचारी, है। क्योंकि 'विवक्षा मुख्य होती है। ऐसा वचन है। अविकल, असाधारण और अन्तरंग अर्थको मुख्य कहते हैं और उससे पं.का./ता.वृ./१०६/१६६/२२ विवक्षितो मुख्य इति वचनात् । - "विवक्षा विपरीतको गौण कहते हैं। मुख्य अर्थके रहनेपर गौण बुद्धि नहीं , मुख्य होती है। ऐसा वचन है। हो सकती। ५. गौणका अर्थ निषेध करना नहीं २. मुख्य गौण व्यवस्थासे ही वस्तु स्वरूपकी सिद्धि है __ स्व. स्तो./मू./२३ सतः कथंचित्तदसत्त्वशक्तिः--खे नास्ति पुष्पं तरुषु स्व. स्तो./२५-६२ विधिनिषेधश्च कथंचिदिष्टौ विवक्षया मुख्य-गुण- प्रसिद्धम् । -जो सत् है उसके कथंचित असत्त्व शक्ति भी है-जैसे । व्यवस्था ॥२५॥ यथै कशः कारकमर्थ-सिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहाय- पुष्प वृक्षोंपर तो अस्तित्वको लिये हुए है परन्तु आकाशपर उसका कारकम् । तथैव सामान्य-विशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुण-मुख्य अस्तित्व नहीं है, आकाशकी अपेक्षा वह असत् रूप है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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