Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : संस्कत ग्रन्थांक-४४ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग ४ (श-ह) क्षु. जिनेन्द्र वर्णी . भारतीय मानपीठ भारतीय ज्ञानपीठ - छठा संस्करण : 20000 मूल्य : 150 रुपये Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN 81-2630563-0(Set) 81-263-0565-7 (Part-IV) भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण 9; वीर नि. सं. 2470; विक्रम सं. 2000; 18 फरवरी 1944) पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की स्मृति में साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा जैन द्वारा सम्पोषित मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की ग्रन्थसूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी इस ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं। ग्रन्थमाला सम्पादक (प्रथम सस्करण) डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ. ने. उपाध्ये प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110 003 मुद्रक नागरी प्रिटर्स, नवीन शहादरा, दिल्ली-110 032 © भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MOORTIDEVI JAINA GRANTHAMĀLĂ: Sanskrit Grantha No.44 JAINENDRA SIDHANTA KOŚA VOL. 4 (श - ह) by Kshu. JINENDRA VARNI BHARATIYA JNANPITH Price: Rs. 150 Sixth Edition : 2000 O Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN 81-263-0563-0 (Set) 81-263-0565-7 (Part-IV) BHARATIYA JNANPITH (Founded on Phalguna Krishna 9; Vira N. Sam. 2470; Vikrama Sam. 2000; 18th Feb. 1944) MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA FOUNDED BY Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his illustrious mother Smt. Moortidevi and promoted by his benevolent wife Smt. Rama Jain In this Granthamala critically edited jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc. are being published in original form with their translations in modern languages. Also being published are catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies on art and architecture by competent scholars and also popular Jain literature, General Ediotrs (First Edition) Dr. Hiralal Jain & Dr. A.N. Upadhye Published by Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110 003 Printed at Nagri Printers, Naveen Shahdara, Delhi-110 032 © All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची अ.ग.पा..../.. अन.ध..../.1. आ.अनु... बा...../.../... आय.प ........... आप्त.मी.... इ.उ./..../... क.पा.-.18.../.../... का.अ./.... कुरल........ कि.क.../.../... कि.को.... क्ष.सा./मू..../... गुण.श्रा.... गो.क./मू....... गो.क./जी.प्र........... गो.जी./....... गो,जी./जो.प्र..../.../... झा.सा... चा.पा./.../... चा.सा..../... ज.प..../... जै.सा..../... जै.पी.... अमितगति श्रावकाचार अधिकार सं./श्लोक सं..पं.बंशीधर शोलापुर, प्र.सं..वि.सं. १९७६ अनगारधर्मामृत अधिकार सं./ श्लोक सं./पृष्ठ सं... खूबचन्द शोलापुर, प्र. सं., ई. १.६.१९२७ आत्मानुशासन श्लोक सं. आलापपति अधिकार संसूत्र सं./पृष्ठ सं, चौरासी मथुरा, प्र.सं., बी. नि. २४५६ आतपरीक्षा श्लोक सं./प्रकरण सं./पृष्ठ सं . बीरसेवा मन्दिर सरसावा. प्र. सं., वि. सं. २००६ आप्तमीमांसा श्लोक सं. इष्टोपदेश/मूलयाटीका श्लो.सं /पृष्ठ सं.(समाधिशतकके पीछे).आशाधरजीकृत टीका, वीरसेवामन्दिर दिल्ली कषायपाहुड़ पुस्तक सं. भाग सं./प्रकरणसं /पृष्ठसं./पंक्ति सं., दिगम्बर जैनसंघ, मथुरा,प्र.सं.,वि.सं.२००० कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल या टोका गाथा सं., राजचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र.सं.१९६० कुरल कालय परिच्छेद सं./श्लोक सं., पं. गोविन्दराज जैन शास्त्री, प्र.सं..की.नि.सं. २४८० क्रियाकलाप मुख्याधिकार सं:-प्रकरण सं.श्लोक सं./पृष्ठ सं., पन्नालाल सोनी शास्त्री आगरा,बि.सं.१९१३ क्रियाकोश श्लोक सं, पं.दौलतराम क्षपणसार/मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ सं..जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता गुणभद्र श्रावकाचार श्लोक सं. गोम्मटसार कर्मकाण्ड/मूल गाथा सं./पृष्ठ सं., जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था. कलकत्ता गोम्मटसार कर्मकाण्ड/जीव तत्त्व प्रदोपिका टोका गाथा सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं.,जैन सिद्धान्त प्रका. संस्था गोमट्टसार जीवकाग्ड/मूल गाथा सं./पृष्ठ स., जनसिद्धान्त प्रकाशिनो संस्था, कलकत्ता गोमट्टसार जोबकाण्ड/जीव तत्त्वप्रदीपिका टीका गाथा सं./पृष्ठ सं./क्ति सं.,जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था शानार्णव अधिकार सं./दोहक सं./पृष्ठ सं. राजचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र.सं. ई. १९०७ ज्ञानसार श्लोक सं. चारित्त पाहुड़/मूल या टीका गाथा सं/पृष्ठ सं.. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई,प्र.सं., वि.सं. १९७७ चारित्रसार पृष्ठ सं./पंक्ति सं.. महावीर जी, प्र.सं.. बी.नि. २४८८ जंबुदोवपणत्तिसंगहो अधिकार सं./गाथा सं..जैन संस्कृति संरक्षण संघ, शोलापुर, वि.सं.२०१४ जैन साहित्य इतिहास खण्ड सं./पृष्ठ सं., गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, बी.नि. २४८१ जैन साहित्य इतिहास/पूर्व पीठिका पृष्ठ सं. गणेशपसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वी.नि. २४८१ तत्त्वानुशासन श्लोक सं.. नागसेन सरिकृत, वीर सेवा मन्दिर देहली. प्र.सं..ई. १६६३ तत्त्वार्थवृत्ति अध्याय सं./सूत्र सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., भारतीय ज्ञानपीठ, मनारस, प्र.सं..ई. १९४६ तत्त्वार्थसार अधिकार सं./श्लोक सं./पृष्ठ सं.,जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता, प्र.सं.ई.स.१९२६ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय सं./सूत्र सं. तिलोयपण्णत्ति अधिकार सं./गाथा स, जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.सं..वि.सं. १६६ तीर्थकर महावीर और उनकी आनार्य परम्परा, पृष्ठ सं., दि. जैन विद्वपरिषद, सागर, ई. १६७४ त्रिलोकसार गाथा सं., जैन साहित्य बम्बई, प्र. सं., १९१८ दर्शनपाहुड़/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र.स., वि.सं. १९७७ दर्शनसार गाथा सं., नाथूराम प्रेमी. मम्बई, प्र.सं., वि. १६७४ द्रव्यसंग्रह/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं., देहली, प्र.सं. ई. १९५३ धर्म परीक्षा श्लोक सं. धवला पुस्तक सं/खण्ड सं , भाग, सूत्र/पृष्ठ सं./क्ति या गाथा सं., अमरावती, प्र. सं. नयचक्र बृहद् गाथा सं.श्रोदे मेवनाचार्यकृत, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई प्र. सं.,वि.सं.११७७ नयचक्र/श्रुत भवन दीपक अधिकार सं /पृष्ठ सं., सिद्ध सागर, शोलापुर नियमसार मूल या टोका गाथा सं. नियमसार/तात्पर्य वृत्ति गाथा सं./कलश सं. न्यायदीपिका अधिकार मं./प्रकरण सं/पृष्ठ सं./पंक्ति में वीरसेवा मन्दिर देहली. प्र.सं. वि.सं २००५ न्यायमिन्दु/मूल या टोका श्लोक सं., चौखम्बा संस्कृत सीरीज, बनारस न्यायविनिश्चय/मूल या टीका अधिकार सं./श्लोक २./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., ज्ञानपीठ बनारस न्यायदर्शन सूत्र/मूल या टीका अध्याय सं./आह्निक/सूत्र सं./पृष्ठ सं. मुजफ्फरनगर, वि.सं..ई. १९३४ पंचास्तिकाय/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं., परमश्रृत प्रभावक मण्डल, बम्बई, प्र.सं., वि. १९७२ पंचाध्यायी/पूर्वाध श्लोक सं., पं.देवकीनन्दन, प्र. सं., ई. १९३२ पंचाध्यायी/उत्तरार्ध श्लोक सं...देवकीनन्दन, प्र.सं. ई. १९३२ पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार सं./श्लोक सं. जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.स. १६२ पंचसंग्रह/प्राकृत अधिकार सं गाथा सं.. ज्ञानपीठ,मनारस प्र. सं.ई. १९६० पंचसंग्रह/संस्कृत अधिकार सं./श्लोक सं., पं. सं./प्रा. की टिप्पणी.प्र. सं.,ई. १३१० त..../.../.../... त.सा.../.../... ति.प..../... ती.... त्रि.सा.... द.पा./मू..../... द.सा.... द्र.सं./मू..../.. ध.प ... ध..../11/.../... न.च./श्रुत........ नि.सा./.... नि.सा/ता.कृ..../क... न्या.दी..../.../.../... न्या.मि./.... न्या.वि./मू..../.../.../... न्या.सू./.../.../.../... पं.का./मू..../... पं.ध./पू.... पं.ध./उ.... पं.वि..../... पं.सं./प्रा..../... म.सं./सं..../... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प.पु..../... प.प्र./मू..../.../... पा.पु..../... पु.सि .. प्रसा ./मू..../... प्रति.सा..../... मा.अ.... बो.पा./मू....... बृ. जै. श... भ आ./.../ 1... भा.पा./मू..../... म.पु..../... म.मं...../.../... मो.पं.... मो.पा/मू..../... मो.मा.प्र..../.../... यु.अनु.... यो सा.अ..../... यो सा.यो.... रक.धा.... र.सा... रा.वा..../.../.../... रा.वा.हि..../.../... ल.सा./मू..../... ला.सं..../.../... लि.पा./मू..../... बसु.श्रा... वै.द..../.../../... शी.पा./ .../... श्लो .वा..../.../.../.../... पद्मपुराण सर्ग/श्लोक सं., भारतीय ज्ञानपीठ बनारस, प्र.सं., वि.सं. २०१६ परीक्षामुख परिच्छेद सं./सूत्र सं./पृष्ठ सं.. स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी, प्र.सं. परमात्मप्रकाश/मूल या टोका अधिकार सं./गाथा सं./पृष्ठ सं., राजचन्द्र ग्रन्थमाला, द्वि.सं..वि.सं. २०१७ पाण्डवपुराण सर्ग सं./श्लोक सं..जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.सं..ई. १९६२ पुरुषाथ सिध्युपाय श्लोक सं. प्रवचनसार/मूल या टोका गाथा स./पृष्ठ सं. प्रतिष्ठासारोद्धार अध्याय सं./श्लोक सं. बारस अणुवेवरवा गाथा सं. बोधपाहुड़/मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ सं. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र.सं..वि. सं. १९७७ बृहत जैन शब्दार्णव/द्वितीय खंड/पृष्ठ सं., मूलचंद किशनदास कापड़िया, सरत. प्र.सं..वी.नि. २४६० भगवती आराधना/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., सखाराम दोशी, सोलापुर, प्र.सं.,ई. १६३५ भाव पाहुड़/मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई,प्र.सं.,विसं. १९७७ महापुराण सर्ग सं./श्लोक सं., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र. सं., ई. १६५९ महावन्ध पुस्तक सं./ प्रकरण सं./पृष्ठ सं., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.सं.ई. १६५१ मुलाचार गाथा सं.. अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला, प्र. सं., वि. सं. १६७६ मोक्ष पंचाशिका श्लोक सं. मोक्ष पाहुड़/मूल या टोका गाया सं./पृष्ठ सं.. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, सम्बई, प्र. सं.. वि.सं. १९७७ मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., सस्ती ग्रन्थमाला, देहली, द्वि.सं., वि.सं. २०१० युक्त्यनुशासन श्लोक सं..वीरसेवा मन्दिर, सरसावा, प्र. सं. ई. १९५१ योगसार अमितगति अधिकार सं/श्लोक सं.. जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता, ई.सं. १६१८ योगसार योगेन्दुदेव गाथा सं., परमात्मप्रकाशके पीछे छपा रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक सं. रयणसार गाथा सं. राजवार्तिक अध्याय सं./सूत्र स/पृष्ठ सं./पंक्ति सं., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.सं..वि.स. २००८ राजवातिक हिन्दी अध्याय सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं. लब्धिसार/मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ सं., जैन सिद्वान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकसा, प्र.सं. लाटी संहिता अधिकार से /श्लोक सं./पृष्ठ सं. लिंग पाहड/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला.प्र.सं., वि.सं. १९७७ बसुनन्दि श्रावकाचार गाथा सं, भारतीय ज्ञानपीठ बनारस, प्र. सं..वि. सं. २००७ वैशेषिक दर्शन/अध्याय सं./आह्निक/सूत्र सं./पृष्ठ सं.. देहली पुस्तक भण्डार देहली, प्रसं., वि.सं. २०१७ शोल पाहुड़/मूल या टोका गाथा सं./पंक्ति सं., माणिकचन्द्र ग्रन्धमाला बम्बई, प्र.सं., वि.सं. १९७७ श्लोकवार्तिक पुस्तक सं./अध्याय सं./सूत्र सं./वार्तिक सं./पृष्ठ सं., कुन्थुसागर ग्रन्यमाला शोलापुर, प्र.सं., ई. १६४६-१९५६ पट्खण्डागम पुस्तक सं./खण्ड सं., भाग, सूत्र/पृष्ठ सं. सप्तभङ्गीतरङ्गिनी पृष्ठ सं./पंक्ति सं, परम श्रुत प्रभावक मंण्डल, वि.सं. वि.सं. १६५२ स्याद्वादमजरी श्लोक सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं.. पाम श्रुत प्रभावक मण्डल, प्र. सं. १९६१ समाधिशतक/मूल या टीका श्लोक सं./पृष्ठ सं., इष्टोपदेश युक्त, वीर सेवा मन्दिर, देहली, प्र.सं., २०२१ समयसार/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं /पंक्ति सं., अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, देहली, प्र.सं.३१.१२.१३५ समयसार/आत्मरख्याति गाथा सं./कलश स. सर्वार्थ सिद्धि अध्याय सं./सूत्र सं./पृष्ठ स'., भारतीय ज्ञानपीठ. बनारस. प्र.सं. ई. १९५५ स्वयम्भू स्तोत्र श्लोक सं . वीरसेवा मन्दिर सरसावा, प्र. सं., ई.११११ सागार धर्मामृत अधिकार सं./श्लोक सं. सामायिक पाठ अमितगति श्लोक सं. सिद्वान्तसार संग्रह अपार सं./श्लोक सं., जोवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.सं.ई, १९५७ सिद्धि विनिश्चमामूलपाटोका प्रस्ताव सं. श्लोक सं./पृष्ठ सं./पंक्ति संभारतीय ज्ञानपीठ, प्र.सं.ई.१९५५ सुभाषित रत्न सदोह नोक सं. (अमितगति), जेन प्रकाशिनो संस्था, कलकत्ता, प्र.सं..ई. १९९७ सूत्र पाहुइ/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं..मा णक चन्द्र ग्रन्थमाला बन्बई, प्र.सं. वि.सं. १९७७ हरिवंश पुराण सग/श्लोक/सं., भारतीय ज्ञानरठ, बनारस, प्र.सं. ष.वं....//... सभं.त..../... स.म..../.../... स.श./मू..../... स.सा./.../.../... स.सा./आ..../क स.सि..../.../... स.स्तो... सा.ध..../... सा.पा.,.. सि.सा.सं..../... सि.वि./..../.../.../... सु.र.सं... सू.पा./मू...... ह.पु..../... नोट : भिन्न-भिन्न कोष्ठकों व रेखाचित्रों में प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ मसे उस उस स्थल पर ही दिये गये है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश [ भाग ४] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश [ क्षु० जिनेन्द्र वर्णी ] . ___II/ T [ श] शंख वज्र-विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर। शंकर वेदांत-इसका अपरनाम ब्रह्माद्वैत-दे० वेदान्त।२।। शंखवर-मध्यलोकका बारहवाँ द्वीप व सागर-दे. लोक/५/१। शंकराचार्य-ब्राह्मण जातिके थे। हिन्दू धर्मके (विशेषतः अद्वैत- शंखवर्ण-एक ग्रह-दे. ग्रह। वादके ) महान् प्रचारक थे। गौड़पादके शिष्य गोविन्दके शिष्य थे। ब्रह्माद्वैतमतके संस्थापक थे। केवल २८ वर्ष की आयु थी। ई,७८८ शंखाक शंखाकार आकृतिमें मालाबार में जन्म हुआ था। मृत्यु ई.८१६। । ज. प./प्र.८५ । क्षेत्रफल - दे. गणित/ शंकरानंद-बहत बडा तार्किक व नैयायिक एक बौद्ध साधु था। कृति-अपोहसिद्धि, प्रतिबन्धसिद्धि । समय-ई.८१० (स्याद्वाद शंखावत योनि-दे. योनि । सिद्धि । प्र. पृ. २० पं. दरबारीलाल )। शंब-ह. पु./सर्ग/श्लोक-पूर्व भव सं. ७ में शृगाल ( ४३/११५ ) फिर शका-१. नि. सा./ता. वृ./५ शंका हि सकलमोहरागद्वेषादयः । वायुभूति ब्राह्मण (४३/१००); फिर सौधर्म स्वर्ग में देव (४३/१४६ ) - शंका अर्थात् सकल मोहराग द्वेषादिक ( दोष)। चौथेमें मणिभद्र सेठका पुत्र (४३/१४६) फिर सौधर्म स्वर्ग में देव पं.ध./उ./४८१ शंका भी साध्वस भीतिर्भयमेकाभिधा अमी। शंका, (४३/१५८); फिर कैटभ नामक राजपुत्र ( ४३/१६० ) फिर पूर्व भवभी, साध्वस, भीति और भय ये शब्द एकार्थ वाचक हैं। में अच्युतेन्द्र ( ४३/२१६ ) वर्तमान भवमें जाम्बवती रानीसे कृष्णका द. पा./पं. जयचन्द/२/१० शंका नाम संशयका भी है और भयका पुत्र था (४८/७) बन क्रीड़ा करते समय वनमें पड़े कुण्डोंमें से शराब भी। और भी दे, निशंकित। २. सामान्य अतिचारका एक पी ली (६१/४६ ) जिसके नशेमें द्वीपायन मुनिपर उपसर्ग किया (६१। भेद-दे. अतिचार । ३. लघु व दीर्घ शंका विधि- दे. समिति/१/७ ४६-५५)। द्वारका भस्म होने की घटनाको जान दीक्षा ग्रहण की। ४. सम्यग्दर्शनके शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्व में अन्तर-दे. (६१/६८) अन्तमें गिरनारसे मोक्ष प्राप्त किया ( ६५/१६-१७ ) । संशय । शंबरदेव-भगवान पार्श्वनाथका पूर्व भवका भाई था। इसने भगशंकाकार शिखा-Super-incumbent cone (ध./प्र.५ वान् पर घोर उपसर्ग किया (म.पू./७३/१३७ ) अन्तमें परम्पराका और प्र./२८)। छोड़कर भगवानकी स्तुति की (७३/१६८) यह कमठका उत्तरका शंकित-आहारका एक दोष-दे, आहार/II/४/४ । नवाँ भव है-दे० कमठ। शंकित विपक्ष वृत्ति हेत्वाभास-दे. व्यभिचार । क-प. पु./४३/श्लोक-रावणको बहन चन्द्रनखाका पुत्र था। सुर्यहास खड्गको सिद्ध करनेके लिए १२ वर्षका योग वंशस्थल पर्वत क -Frustrum of cone (ज. प./प्र. १०८)। पर धारण किया (४५-४७) वनवासी लक्ष्मणने खड्गकी गन्धसे शख-१, चक्रवर्तीकी नवनिधियों में से एक-दे. शलाकापुरुष/२ । आश्चर्यान्वित हो, खड्गकी परखके अर्थ शम्बूक सहित वंशके २. प्रतिमाके १०८ उपकरणों में से एक-दे, चैत्य/६/११ । ३. यादव- बीड़ेको काट दिया (४९-५५) यह मरकर नरकमे गया। बंशी कृष्णका २३वाँ पुत्र-दे. इतिहास१०/१०% ४. लवण समुद्र में शक-इसका वर्तमान नाम बैक्ट्रिया है। (म. पु./प्र. ५२)। स्थित एक पर्वत-दे. लोका/६५. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र-दे. लोक५/२६. आशीविष वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव शकट-ध.१४/५, ६,४१/३८/७ लोहेण बद्धणेमि-तुंब महाचक्का दे. लोक/31 लोहबद्धहयपेरंता लोणादीणं गरुअभरुव्वहणक्षमा सयडा नाम । शंख परिणाम-एक ग्रह-दे. ग्रह । -जिनकी धुर गाड़ीकी नाभि और महाचक्र लोहेसे बंधे हुए हैं, जिनके हय पर्यन्त लोहसे बँधे हुए है, जो नमक आदि भार ढोने में शंख रत्न-रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे, लोकाश१३. । समर्थ हैं वे शकट कहलाते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकटमुखी शब्द शकटमुखी-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर । शतमुख-भगवान् वासुपूज्यका शासक यक्ष--दे. तीर्थकर।।। -दे. विद्याधर। शतहद-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । शक वंश- देवकी गागावली अनसार यह एक शतानीक-कुरुवंशी राजा था। पांचाल देशका राजा तथा जनमे. छोटी सी जाति थी । इस जातिका कोई भी एकछत्र राज्य । जयका पुत्र था। प्रवाहण जेबलि का पिता था। समय-ई. पू. नहीं था। इस वंशमें छोटे-छोटे सरदार होते थे जो धीरे-धीरे १४२०-१४००-दे. इतिहास/३/३ । करके भारतवर्ष के किन्ही-किन्हीं भागोंपर अपना अधिकार जमा बैठे शतार-१, कल्पवासी देवोंका एक भेद-दे, स्वर्ग/३ । २, कल्पथे. जिसके कारण मौर्यवंशी विक्रमादित्यका राज्य छिन्न-भिन्न हो। __ स्वाँका ग्यारहवाँ पटल-दे. स्वर्ग/५/२। .. गया था। भृत्यवंशी गौतमी पुत्र सास्कणी (शालिवाहन ) ने वी. शत्रुजय-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । नि. ६०५ में शक संवत् प्रचलित किया था। जो पीछेसे शक संवत् शत्रु-सच्चा शत्रु मोह है-दे. मोहनीय/१/५ । कहलाने लगा। इसके सरदारोंका नाम इतिहास में नहीं मिलता है। शत्रुघ्न-१. ह. पु./सर्ग/श्लोक-पूर्वभव भव सं.३ में भानुदत्त सेठहाँ, आगमकारोंने उनका उल्लेख किया है जो निम्न प्रकार है का पुत्र शूरदत्त था (३४/६७-६८) फिर मणिचूल नामक विद्याधर १. पुष्यमित्र वी. नि. २५५-२८५; ई.पू. २७१-२४६ हुआ (३४/१३२-१३३) पूर्व भवमें गंगदेव राजाका पुत्र सुनन्द था २. वसुमित्र ... २८५-३१५, , , २४६-२११ (३४/१४२) वर्तमान भवमें वसुदेवका पुत्र कृष्णका भाई था (३४/३) । ३. अग्निमित्र ,, .. ३१५-३४५, , , २११-१८१ कंसके भयसे जन्मते ही किसी देवने उसको उठाकर सुदृष्टि सेठके घर ४. गर्दभिक्ल,,,, ३४५-४४५, , ,, ९८१-८१ पहुँचा दिया (३४/७)। दीक्षा ग्रहणकर घोर तप किया (५६/११५-१२०) ५. नरवाहन ,, ,, ४४५-४८५, , , ८१-४१ अन्तमें गिरनारसे मोक्ष प्राप्त किया (६५/१६-१७) । २. प. पु./सगे। (विशेष-दे, इतिहास/मगधके राज्य वंश) नरवाहन की वी. नि, श्लोक सं.दशरथका पुत्र तथा रामका छोटा भाई था (२५/३५) मधु. ६०६ में शालिवाहन द्वारा हारनेको संगतिके लिए भी-दे. इति- को हराकर मथुराका राज्य प्राप्त किया (७६/११६)। अन्तमें दीक्षा हास/३/४। ग्रह्ण की (११४/३८)। शक संवत्-दे. इतिहास/२/४,१० । कोश 1/परिशिष्ट/१३ 1 शनि-१. एक ग्रह-दे, ग्रह। २. इसका लोकमें अवस्थान-दे. शक्ति-शक्तिके भेद व लक्षण-दे. स्वभाव । ज्योतिष लोक । शन्मुख-भगवान् वासुपूज्यका शासक यक्ष-दे, तीर्थकर/५/३ । शक्तिकुमार-गुहिलोत वंशका राजा था। पाशुपत धर्मका अनुयायी था। परन्तु कुछ-कुछ जैनधर्मका भी विश्वास करता था। शबर-मीमांसा दर्शनमें जैमिनी सूत्रके मूल भाष्यकार शाबरसमय-ई. श. १०-११ । (जैन साहित्य इतिहास/पृ. २५६ प्रेमी जी) भाष्यके रचयिता । समय-ई. श. ४-दे. मीमांसा दर्शन । (ति. प./प्र.CA.N. Up.) शबल-असुर भवनबासी देव-दे. असुर । शक्ति तत्त्व-दे. शैव दर्शन। शब्द-1. शब्द सामान्यका लक्षण शक्तितस्तप-दे, तप । शक्तितस्त्याग-दे. त्याग। स. सि./२/२०/१७८-१७४/१० शब्दात इति शब्दः । शब्दनं शब्द इति । - जो शन्द रूप होता है वह शब्द है। और शब्दन शब्द है। शक्ति भूपाल-बंश वंशका राजा था। इसके राज्यमें ही पद्म- (रा. वा./२/२०/१/१३२/३२)। नन्दीने जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिकी रचना की थी। सम्भवतः गुहिलोत वंश- . रा. वा./५/२४/१/४८५/१०। शपत्यर्थमाहयति प्रत्याययति, शप्यते का शक्तिकुमार ही यह शक्ति भूपाल था। समय-ई.१० का अन्तिम येन, शपनमात्र वा शब्दः । -जो अर्थको शपति अर्थात कहता है, चरण (ज. प./प्र. १४ A.N. Up., हीरालाल)। जिसके द्वारा अर्थ कहा जाता है या शपन मात्र है, वह शब्द है। शक्यप्राप्ति-न्या. सू./टी./१/१/३२/३३/२३ प्रमातुः प्रमाणानि ध.१/१,१,३३/२४७/७ यदा द्रव्यं प्राधान्येन विवक्षितं तदेन्द्रियेण द्रव्य मेव संनिकृष्यते, न ततो व्यतिरिक्ताः स्पर्शादयः केचन सन्तीति प्रमेयाधिगमार्थानि सा शक्यप्राप्तिः । -प्रमेयोंके जानने के लिए जो प्रमाताके प्रमाण हैं, उसीको शक्यप्राप्ति कहते है। एतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं शब्दस्य युज्यत इति, शब्द्यत इति शब्दः। यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेः शक्रपुरी--विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर ।-दे. विद्याधर । औदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनं शब्दः शब्दन शब्द इति । शक्रादित्य-बौद्ध मतानुयायी राजा था। इसने नालन्दामें मठ - जिस समय प्रधान रूपसे द्रव्य विवक्षित होता है उस समय बनवाये थे। समय-ई. श. इन्द्रियों के द्वारा द्रव्यका हो ग्रहण होता है। उससे भिन्न शतक-(दे. परिशिष्ट)। स्पर्शादिक कोई चीज नहीं है । इस विवक्षामें शब्दके कर्मसाधनपना शतकचूणि-दे.णि तथा कोश II का परिशिष्ट । बन जाता है जैसे शब्द्यते अर्थात जो ध्वनि रूप हो वह शब्द है। शतपदा-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे. लोक५/१३ ॥ तथा जिस समय प्रधान रूपसे पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्यसे पर्यायका भेद सिद्ध होता है अतएव उदासीन रूपसे अवस्थित शतपर्वा-एक विद्या-दे. विद्या। भावका कथन किया जानेसे शब्द भावसाधन भी है जैसे 'शब्दन शतभागा-भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । शब्द:' अर्थात् ध्वनि रूप क्रिया धर्मको शब्द कहते हैं। शतभिषा-एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । पं. का./प्र.प्र./७६ बाह्यश्रवणेन्द्रियावलम्बिती भावेन्द्रियपरिच्छेद्यो शतमति-म पु./स. श्लोक-ऋषभदेवके पूर्व (/२००) भबके महाबल ध्वनिः शब्दः । = बाह्य श्रवणेन्द्रिय द्वारा अवलम्बित, भावेन्द्रिय द्वारा जानने योग्य ऐसी जो ध्वनि वह शब्द है। की पर्यायका मिथ्यादृष्टि मन्त्री था (४/९६१) नैरात्मवादी था * कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे. व्युत्सर्ग/१ । (४/४४) मर कर नरक गया (१०/२२) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द शब्द दसदिसावा चेव गच्छति । विदिया २. शब्दके भेद स. सि./३/२४/२६४-२६५/१२ शब्दो द्विविधो भाषालक्षणो विपरोत- श्चेति ।...अभाषात्मनो द्विविधः प्रायोगिको वैनसिकश्चेति । प्रायोगिकश्चतुर्धा ततविततधनसौषिरभेदात । -भाषारूप शब्द और अभाषारूप शब्द इस प्रकार शब्दोंके दो भेद हैं ।...अभाषात्मक शब्द दो प्रकारके हैं--प्रायोगिक और वैससिक । ...तथा तत, वितत, घन और सौषिरके भेदसे प्रायोगिक शब्द चार प्रकार है। (रा. वा./५/२४/२-१/४८/२१), (पं. का./ता. वृ./७४/१३५/६), (द्र. सं./टी./१६/५२/२)। ध.१३/५,५,२६/२२१/६ छबिहो तद-विदद-घण-सुसिर-घोस-भास भेएण । - वह छह प्रकार है-तत वितत, घन, सुषिर, घोष और भाषा। * भाषात्मक शब्दके भेद व लक्षणं-दे. भाषा। ३. अभाषात्मक शब्दोंके क्षण स. सि./५/२४/२६५/३ वैससिको बलाहकादिप्रभवः तत्र चर्मतनननिमित्तः पुष्करभेरीददुरादिप्रभवस्ततः । तन्त्रीकृतवीणासुघोषादिसमुद्भवो विततः। तालघण्टालालनाद्य भिघातजो घनः । वंशशङ्गादिनिमित्तः सौषिरः । = मेघ आदिके निमित्तसे जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे वैन सिक शब्द हैं । चमड़ेसे मढ़े हुए पुष्कर, भेरी और ददुरसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह तत शब्द है । ताँत वाले वीणा और सुघोष आदिसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह वितत है । ताल, घण्टा और लालन आदिके ताड़नसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह धन शब्द है तथा बांसुरी और शंख आदिके फूकनेसे जो शन्द उत्पन्न होता है वह सौषिर शब्द है । (रा. वा./५/२४/४-५/४८५/२७)। ध, १३/५.५,२६/२२१/७ तत्थ तदो णाम वीणा-तिसरिआलावणिवव्वीस-खुक्खुणादिजणिदो। वितदो णाम भेरी-मुदिंगपटहादिसमुन्भूदो । घणो णाम जयघंटादिघणदव्याण संघादुट्ठाविदो। सुसिरो णाम वस-संख-काहलादिजणिदो। घोसो णाम घस्समाणदबजणिदो। -वीणा, त्रिसरिक, बालापिनी, बव्वीसक और खुक्रवुण आदिसे उत्पन्न हुआ शब्द तत है । भेरी, मृदंग और पटह आदिसे उत्पन्न हुआ शब्द वितत है। जय घण्टा आदि ठोस द्रव्यों के अभिवातसे उत्पन्न हुआ शब्द घन है। वंश, शंख और काहल आदिसे उत्पन्न हुआ शब्द सौषिर है। घर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यसे उत्पन्नहुआ शब्द घोष है। पं का./ता. बृ./७६/१३५/६ ततं बीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकं । घन तु कंसतालादि सुषिर वंशादिकं विदुः। वैससिकस्तु मेघादिप्रभवः । - वीणादिके शब्दको तत, ढोल आदिके शब्दको वितत, मंजीरे तथा ताल आदिके शब्द को पन और बसी आदिके शब्दको सुषिर कहते हैं। स्वभाव से उत्पन्न होनेवाला वैससिक शब्द बादल आदिसे होता है। (द्र. सं./टी./१६/१२/६) । * द्रव्य व माव वचन-दे० वचन । *क्रियावाची व गुणवाची आदि शब्द-दे. नाम/३ । ५.शब्दके संचार व श्रवण सम्बन्धी नियम ध. १३/५,५,२६/२२२/६ सह-पोग्गला सगुप्पतिपदेसादो उच्छलिय दसदिसामु गच्छमाणा उकस्सेण जाव लोगंत ताव गच्छति ।...सव्वे ण गच्छति, थोवा चेव गच्छति । तं जहा-सद्दपज्जाएण परिणदपदेसे अर्णता पोग्गला अवट्ठाणं कुणं ति। विदियागासपदेसे तत्तो अणं तगुणहीणा । तिदियागासपदेसे अणं तगुणहीणा। चउत्थागासपदेसे अणं तगुणहीणा । एवमणतरोवणिधाए अणं तगुणहीणा होदूण गच्छति जाव सब दिसासु वादवलयपेरंतं पत्ताति। परदो किण्ण गच्छति । धम्मास्थिकायाभावादो। ण च सव्वे सह-पोग्गला एगसमएण चेव लोगत गच्छति त्ति णियमो, केसि पि दोसमए आदि कादूण जहणेण अंतोमुत्तकालेण लोगंतपत्ती होदि ति उवदेसादो। एवं समयं पडि सहपज्जाएण परिणदपोग्गलाणं गमणाबट्ठाणाणं परूवणा कायबा। ध. १३/५.५,२६/गा. ३/२२४ भासागदसमसेडिं सहजदि मुणदि मिस्सयं सुणदि । उस्सेडिं पुण समुणेदि णियमा पराघादे ।। ध. १३/५,५,२६/१२६/१ समसेडीए आगच्छमाणे सद्द-पोग्गले परघावेण अपरबादेण च सुणदि। तं जहा-जदि परघादो ण स्थि तो कंडुज्जुवाए गइए कण्णछि पवितु सद्द-पोग्गले सणादि । पराधादे संते वि मुणे दि, दो समसेडीदो पराधादेण उस्सेडि गंतूण पुणो पराघादण समसेडीए कण्णछिद्द पविट्ठाणं सह-पोग्गलाणं सवणुवलं भादो। उस्से डि गदसह-पोग्गले पुण पराधादेणेव मुणेदि, अण्णहा तेसि सवणाणुववत्तीदो-१. संचार सम्बन्धी-शब्द पुद्गल अपने उत्पत्ति प्रदेशसे उछलकर दसों दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूपसे लोकके अन्त भाग तक जाते हैं ।...सन नहीं जाते थोड़े ही जाते हैं। यथाशब्द पर्यायसे परिणत हुए प्रदेश में अनन्तपुद्गल अव स्थित रहते हैं। ( उससे लगे हुए ) दूसरे आकाश प्रदेशमें उनसे अनन्त गुणे हीन पुदगल अवस्थित रहते हैं। तीसरे आकाश प्रदेशमें उससे लगे हुए अनन्तगुणे हीन पुदगल अवस्थित रहते हैं। चौथे आकाश प्रदेशमें उससे अनन्तगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। इस तरह वे अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा बातवलय पर्यन्त सम दिशाओं में उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेशके प्रति अनन्तगुणे हीन होते हुए जाते हैं । प्रश्न-आगे क्यों नहीं जाते । उत्तर-धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे वातवलयके आगे नहीं जाते हैं। ये सब शब्द पुद्गल एक समयमें ही लोकके अन्त तक जाते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु ऐसा उपदेश है कि कितने ही शब्द पुद्गल कमसे कम दो समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा लोकके अन्तको प्राप्त होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में शब्द पर्यायसे परिणत हुए पुद्गलोंके गमन और अवस्थानका कथन करना चाहिए। २. श्रवण सम्बन्धी-"भाषागत समश्रेणिरूप शब्दको यदि सुनता है तो मिश्रको ही . नता है। और उच्छ्रणिको प्राप्त हुए शब्दको यदि सुनता है तो मसे परधातके द्वारा मुनता है"।३। समश्रेणि द्वारा आते हुए शब्द पुदगलोंको परघात और अपरघात रूपसे मुनता है। यथा-यदि परघात नहीं है तो माणके समान ऋजगतिसे कर्ण छिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलोंको सुनता है। पराघात होनेपर भी सुनता है क्योंकि, समश्रेणिसे पराघात द्वारा उच्छ्र णिको प्राप्त होकर पुनः पराघात द्वारा समश्रेणिसे कर्णछिद्रमें प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलोंका श्रवण उपलब्ध होता है। उच्छ्रणिको प्राप्त हुए शब्द पुनः पराघातके द्वारा ही सुने जाते हैं अन्यथा उनका सुनना नहीं बन सकता है। .. ढोक आदिके शब्द कथंचित् भाषात्मक हैं ध.१४/५,६,८३/६९/१२ कथं काहलादिसहाणं भासाववएसो। ण, भासो __व भासे त्ति उवयारेण कालादिसहाणं पि तव्वयएससिद्धीवो । ४. शब्दमें अनेकों धौंका निर्देश स्या. म./२२/२७०/१७ शन्देष्वपि उदात्तानुदात्तस्वरितविवृतसंवृतघोषबदघोषतात्पप्राणमहाप्राणतादयः तत्तदर्थप्रत्यायनशक्त्यादयश्चावसेयाः । = पदार्थों की तरह शब्दों में भी उदात्त, अनुदात्त. स्वरित, विवृत, संवृत, घोष, अबोष, अस्पप्राण, महाप्राण आदि पदार्थोंके ज्ञान कराने की शक्ति आदि अनन्त धर्म पाये जाते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द प्रश्न- नगारा आदिके शब्दोंकी भाषा संज्ञा कैसे है। (अर्थात् इन्हें भाषा वर्गणासे उत्पन्न क्यों कहते हो ) ! उत्तर- नहीं, क्योंकि, भाषा के समान होनेसे भाषा है इस प्रकारके उपचारसे नगारा आदिके शब्दोंकी भी भाषा संज्ञा है । ७. शब्द पुद्गलकी पर्याय है आकाशका गुण नहीं .का./मू./७१ सो स्कंधोधो परमाणु संग भादो पु तेसु जायदि सद्दो उप्पादिनो गियदो |७ शब्द स्कन्धजन्य है । स्कन्ध परमाणु दलका संघात है, और वे स्कन्ध स्पर्शित होनेसे - टकराने से शब्द उत्पन्न होता है; इस प्रकार वह ( शब्द ) नियत रूपसे उत्पाद्य है | ७६ अर्थात् पुगलकी पर्याय है । (प्र. सा./मू./९३२)। " प्रश्न- शब्द आकाश रा.वा./५/१०/१२/४६८/४ इन्दो हि आकाशगुणः माताभिघातनाद्यनिमित्तवशात् सर्वत्रोत्पद्यमान इन्द्रियप्रत्यक्षः अन्यद्रव्यासंभवी गुणितमाकाशं सर्वगतं गमयति, गुणानामाधार पर सन्त्रस्यादितिः तन्नः किं कारणम् । पौद्गलिकत्वात् । पुद्गलद्रव्य विकारो हि शब्दः नाकाशगुणः । तस्योपरिष्टाद युक्तिर्वक्ष्यते । का गुण है. यह वायुके अभिघात आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होता है. इन्द्रियक्ष है, गुण है, अन्य क्यों नहीं पाया जाता, निराधार गुण रह नहीं सकते अतः अपने आधारभूत गुणी आकाशका अनुमान कराता है ? उत्तर- ऐसा नहीं है क्योंकि शब्द पौगलिक है। शब्द पुद्गल द्रव्यका विकार है आकाशका गुण नहीं। ( और भी थे. चूर्त 4)। प्र. सा./त. म./१३२ शम्यस्यापीत्यगुवं न खल्वानीयं । ....अनेकद्रव्यात्मकलपर्यायत्वेनाभ्युपगम्यमानत्वात् । ... तावदर्तव्यगुणः शब्द: अमूर्त मध्यस्यापि श्रवणेन्द्रिय विषयापद्रव्यनुगोऽपि न भवति। ततः कादा चित्रात नित्यत्वस्य न शब्दस्यास्ति गुण...न च गलपर्यायाने पादस्म पृथिवोस्कन्धस्यैव स्पर्धानादीन्द्रियविष यत्वस्अप प्राणेन्द्रियविषयत्वात्। - १. ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि शब्द भी इन्द्रियग्राह्य होनेसे गुण होगा; क्योंकि वह विचित्रताके द्वारा विश्वरूपत्व ( अनेकानेक प्रकारत्व ) दिखलाता है, फिर भी उसे अनेक द्रव्यात्मक पुद्गल पर्यायके रूपमें स्वीकार किया गया है । २. शब्द अमूर्त द्रव्यका गुण नहीं है क्योंकि...अमूर्त व्यके भी अपनेन्द्रियकी विषयभूतता आ जायेगी । ३. शब्द मूर्त द्रव्यका गुण भी नहीं है... अनित्यश्वसे निके उस्थापित होनेसे ( अर्थात् शब्द कभी-कभी ही होता है और निश्य नहीं है, इसलिए शब्द गुण नहीं है। ४. यदि शब्द पुद्गज्ञकी पर्याय हो तो वह पृथिवी स्कन्धकी भाँति स्पर्शनादिक इन्द्रियों का विषय होना चाहिए अर्थात् जैसे पृथिवी स्कन्धरूप पुगल पर्याय सर्व इन्द्रियोंसे ज्ञात होती है उसी प्रकार शब्दरूप पुद्गल पर्याय सभी इन्द्रियोंसे ज्ञात होनी चाहिए (ऐसा तर्क किया जाये तो ऐसा भी नहीं है क्योंकि पानी ( पुगलकी पर्याय है, फिर भी)का विषय नहीं है (प्र. सा./ता. . १३०/१८६/११)। ... ८. शब्दको जाननेका प्रयोजन पं.का./ता.वृ./११/१३४/१० इदं सर्वं यतत्त्वमेतस्माद्भिन्नं शुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थ: यह सर्व तत्व देय है। इससे भिन्न शुद्धात्म ही उपादेय है ऐसा भावार्थ है। भी ★ शब्द की अपेक्षा द्रव्यमें भेदाभेददे * शब्द अल्प हैं और अर्थ अनन्त हैं-दे आगन/ ४ । शब्द अर्थ सम्बन्ध - दे. आगम / ४ । शब्द कोश - जैनाचार्योंने कई शब्दकोश बनाये हैं- १. आ. पूज्यपाद ( ई. श. १) कृत शब्दावतार | २. श्वे. हेमचन्द्रसूरि ६. १०८८-११०३) सिम शब्दानुशासन । ३. श्वे. म चन्द्रसूरि (ई. १०८८ - १९७३) कृत अभिधानचिन्तामणि कोश (हैमी मानवाला कोश) ४. श्वे. हेमचन्द्रसूरि (ई. १०००११०३) कृत] अनेकार्थसंग्रह . . हेमचन्द्रसूरि (ई. १०००० ११०३) कृत देशीनाममाता ६, पं. आशाधर (ई. ११०३-१२४३) कृत 'अमरकोषकी टीका' रूप क्रिया-कलाप । ७ आचार्य शुभचन्द्र (ई. १५९६ - १५५६ ) द्वारा रचित शब्द चिन्तामणि । आ० महाकवि (ई. १९०४) द्वारा रचित शब्दानुशासन ६. पं. बनारसीदास (ई. १५८७-१८४४) १०५ दोहा प्रमाण भाषा नाम माला। (ती./४/२५२) । १०. मा. बिहारी लाल (ई. १६२४(१९३४) कृत वृहद् जैन शब्दार्णव । शब्द नयदे, नय / III / ६ । शब्दपुनरुक्त निग्रह स्थान --- दे. पुनरुक्त । शब्द प्रमाण दे. आगम । शब्द ब्रह्म - दे. ब्रह्म । शब्द लिंगज ज्ञान दे. श्रुतज्ञान/III/ शब्दवान् हैमवत क्षेत्रके महुमध्य भागस्थ फूट आकार वाला नामिगिरि प५/३ शब्द समय - दे. समय । शब्दाकुलित आलोचना आलोचना शब्दाद्वैत -- - दे. अद्वैतवाद । शब्दानुपात -स. सि. / ०/११/६३१/१० व्यापारकरान्पुरुषान्प्रत्य भ्युत्कारिसकादिकरणं शब्दानुपात जो पुरुष किसी उद्योगमें जुटे हैं उन्हें उद्देश्य र पसिना आदि शब्दानुपात है ( देशगत के अतिचारके प्रकरण में ) ( रा. बा. /०/३१/३/४५६/५)। शब्दानुशासन - दे. शब्दकोश । शब्दावतार शब्दकोश परिषद् , शमप्र सा./ता / ०/१/९० स एव धर्म स्वात्मभावनोत्यमुखा मृतशीतजलेन कामक्रोधादिरूपाग्निजनितस्य संसारदुखदाहस्योपशमकत्वात् शम इति । - वह धर्म ही शम है, क्योंकि स्वात्मभावनासे उत्पन्न सुखामृत शीतल जलके द्वारा कामक्रोधादिसे उत्पन्न संसार दुखकी दाहको विनाश करनेवाला है। शयनासन शुद्धि - दे. शुद्धि । शय्या परिषहस. सि./६/६/४२३ / १९ स्वाध्यायध्यानाध्यश्रमपरिखेदितस्य मौहूर्तिकीं खरविषमप्रचुरशर्कराकपालसङ्कटा तिशीतोष्णेषु भूमिप्रदेशेषु निद्रामनुभवतो यथाकृतै कपार्श्व दण्डायितादिशामनप्राणिमाधापरिहाराय पतितदारुवद्ध व्यपगतासुवदपरिवर्त मानस्य ज्ञानभावनावहितचेतसोऽनुष्ठितव्यन्तरादिविविधोपदप्यचलितविग्रहस्या नियमितकाला तत्कृतबाधा श्रममाणस्य शय्यापरिषहक्षमा कथ्यते । --जो स्वाध्याय ध्यान और अध्व श्रमके कारण थककर कठोर, feeम तथा प्रभुर मात्रामें कंकड़ और खप्परोंके टुकड़ोंसे व्याप्त ऐसे अतिशीत तथा अत्युष्णभूमि प्रदेशोंमें एक मुहूर्त प्रमाण निद्राका अनुभव करता है, जो यथाकृत एक पार्श्व भागसे या दण्डाति आदि रूपसे शयन करता है, करवट लेनेसे प्राणियोंको होनेवाली बामाका निवारण करने के लिए जो गिरे हुए लकड़ी के जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर कुन्देके समान या मुदकेि समान करवट नहीं बदन्नता, जिसका चित्त ज्ञान भावनामें लगा हुआ है, व्यन्तरादिकके द्वारा किये गये नाना प्रकारके उपसर्गोंसे भी जिसका शरीर चलायमान नहीं होता और जो अनियतकालिक तत्कृत बाधाको सहन करता है उसके शय्या परिषहजय कही जाती है। (रा. वा./६/६/१६/६१०/१८), (चा. सा./११६/३)। शरण-रा. वा./8/9/२/६००/१५ शरणं द्विविध-लौकिकं लोकोत्तरं चेति । तत्प्रत्येक त्रिधा-जीवाजीव मिश्रकभेदात् । तत्र राजा देवता वा लौकिकं जीवशरणम्, प्राकारादि अजीवशरणम् । ग्रामनगरादि मिश्रकम् । पञ्च गुरवो लोकोत्तरजीवशरणम्, तत्प्रतिबिम्बाद्यजीवशरणम्, सधर्मोपकरणसाधुवर्णो मिश्रकशरणम् । = शरण दो प्रकारका है-एक लौकिक दूसरा लोकोत्तर । तथा वे दोनों ही जीव, अजीव और मिश्रकके भेदसे तीन-तीन प्रकारके हैं । राजा देवता आदि लौकिक जीवशरण हैं। कोट, शहर, पनाह आदि लौकिक अजीव शरण हैं और कोट खाई सहित गाँव नगर आदि लौकिक मिश्र शरण हैं । पाँचों परमेष्ठी लोकोत्तर जीव शरण हैं। इन अरहंत आदिके प्रतिबिंब आदि लोकोत्तर अजीव शरण हैं। धर्म सहित साधुओंका समुदाय तथा उनके उपकरण आदि लोकोत्तर मिश्र शरण हैं। (चा. सा./१७८/४) शरावती-वर्तमान श्रावस्ती जो अयोध्याके पास है। (म. प्र./प ५० पं. पन्नालाल) शरीर-जीवके शरीर पाँच प्रकारके माने गये है-औदारिक, वै क्रियिक, आहारक, तैजस व कार्माण ये पाँचों उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। मनुष्य तिर्यचका शरीर औदारिक होनेके कारण स्थूल व दृष्टिगत है। देव नारकियों का वै क्रियिक शरीर होता है। तैजस व कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं । आहारक शरीर किन्हीं तपस्वी जनों के ही सम्भव हैं। शरीर यद्यपि जीवके लिए अपकारी है पर मुमुक्षु जन इसे मोक्षमार्गमें लगाकर उपकारी बना लेते हैं। शरीरों के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान । शरीरों की अवगाहना व स्थिति ।-दे. वह वह नाम । । शरीरोंका वर्ण व द्रव्य लेश्या -दे. लेश्या /३। शरीरकी धातु उपधातु । -दे. औदारिक । शरीरमें करण (कारण) पना कैसे सम्भव है। जीवको शरीर कहनेको विवक्षा। -दे. जीव/१/३ । द्विचरम शरीर। -दे. चरम। देह प्रमाणत्व शक्तिका लक्षण शरीरोंका स्वामित्व एक जीवके एक कालमें शरीरोंका स्वामित्व । शरीरोंके स्वामित्वको आदेश प्ररूपणा । तीर्थकरों व शलाका पुरुषोंके शरीरको विशेषता । -दे. वह वह नाम। मुक्त जीवोंके चरम शरीर सम्बन्धी। -दे. मोक्ष/५ । साधुओंके मृत शरीरकी क्षेपण विधि। -दे. सहलेखना/६/१॥ महामत्स्यका विशाल शरीर। -दे. संमूर्छन । शरीरोंकी संघावन परिशातन कृति । (ध.१/३५५-४५१) पाँचों शरीरोंके स्वामियों सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प बहुत्व प्ररूपणाएँ । -दे. वह वह नाम। शरीरके अंगोपांगका नाम निर्देश। -दे. अंगोपांग । शरीरका कथंचित् इष्टानिष्टपना शरीरको कथंचित् इष्टता अनिष्टता। -दे.आहार/II/६/२। १ | शरीर दुखका कारण है। शरीर वास्तवमें अपकारी है। | धर्मार्थीके लिए शरीर उपकारी है। शरीर ग्रहणका प्रयोजन। शरीर बन्ध बतानेका प्रयोजन । | योनि स्थानमें शरीरोत्पत्तिक्रम। -दे. जन्म/१५ शरीरका अशुचिपना। -दे. अनुप्रेक्षा/११६ । * * * * | शरीर व शरीर नामकर्म निर्देश शरीर सामान्यका लक्षण। शरीरोंकी उत्पति कर्माधीन है। -दे, कर्म।। शरीर नामकर्मका लक्षण । शरीर व शरीर नामकर्मके भेद औदारिकादि शरीर -दे.वह वह नाम। प्रत्येक व साधारण शरीर। -दे. वनस्पति । शायक व च्युत, च्यावित तथा त्यक्त शरीर । -दे. निक्षेप/५। शरीर नामकर्मकी बन्ध उदय व सत्त्व प्रकपणाएँ तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान । -दे, वह वह नाम । जीवका शरीरके साथ बन्ध विषयक। -दे, बन्ध । जीव व शरीरकी कथंचित् पृथक्ता। -दे, कारक/२ जीवका शरीर प्रमाण अवस्थान । -दे. जीव/३ शरीरों में प्रदेशोंकी उत्तरोत्तर तरतमता। शरीरोंमें परस्पर उत्तरोत्तर सूक्ष्मता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान। * १. शरीर व शरीर नामकर्म निर्देश १.शरीर सामान्यका लक्षण स, सि./६/३६/१९१/४ विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तीनि शीर्यन्त इति शरीराणि । -जो विशेष नामकर्म के उदयसै प्राप्त होकर शीर्यन्ते अर्थात् गलते हैं ये शरीर हैं। घ. १४/५,६,९१२/४३४/१३ सरीरं सहायो सील मिदि एयट्ठो..अणं ताणतपोग्गलसमबाओ सरीरं। -शरीर, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द हैं ।...अनन्तानन्त पुद्गलों के समवायका नाम शरीर है। द्र. सं./टी./३/१०७/३ शरीर कोऽर्थः स्वरूपम् । - शरीर शब्दका अर्थ स्वरूप है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. शरीरोंका स्वामित्व २. शरीर नामकर्मका लक्षण स.सि./८/११/३८६/६ यदुदयादात्मनः शरीरनिर्वृतिस्तच्छरीरनाम । -जिसके उदयसे आत्माके शरीरकी रचना होती है वह शरीर नामकर्म है । (रा. वा./८/११/३/५७६/१४) (गो. क./जी.प्र./३३/२८/२०)। ध.६/१,६-१,२८/१२/६ जस्स कम्मस्स उदएण आहारवग्गणाए पोग्गलरखधा तेजा-कम्मइयवग्गणपोग्गलखंधा च सरीरजोग्गपरिणामेहि परिणदा संता जीवेण संवझति तस्स कम्मक्खंधस्स शरीरमिदि सण्णा । -जिस कर्म के उदयसै आहार वर्गणाके पुद्गल स्कन्ध तथा तेजस और कामण वर्गणाके पुद्गल स्कन्ध शरीर योग्य परिणामों के द्वारा परिणत होते हुए जीवके साथ सम्बद्ध होते हैं उस कर्म स्कन्धकी 'शरीर' यह संज्ञा है। (ध. १३/५,५,१०१/३६३/१२) ३.शरीर व शरीर नामकर्मके भेद प. ख, ६/१६-१/सू. ३१/६८ जंतं सरीरणामकम्मं तं पंचविहं ओरालियसरीरणामं वेउवियसरीरणामं आहारसरीरणामं तेयासरीरणामं कम्मइयसरीरणामं चेदि ३१ -जो शरीर नामकर्म है वह पाँच प्रकार है-औदारिक शरीरनामकर्म, वैक्रियिक शरीर नामकर्म, आहारकशरीर नामकम, तैजस शरीरनामकर्म और कार्मण शरीर नामकर्म ।३१। (ष, खं. १३५,सू. १०४/३६७) (ष. खं. १४/५,६/सू. ४४/४६) (प्र. सा./म./१७१ ) ( त. सू./२/३६) (सं.सि./८/११/३८६/१) (4.सं./२/४/४७/६) (रा. वा./५/२४/ १/४८८/२) (रा. वा./८/११/३/५७६/१५) (गो. क./जो. प्र./३३/ २८/२०) ४. शारीरोंमें प्रदेशोंकी उत्तरोत्तर तरतमता त. सू./२/३८-३६ प्रदेशोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसाद ॥३८॥ अनन्त गुणे परे ॥३६॥ स. सि./२/३८-३६/१६२-१९३/८,३ औदारिकादसंख्येयगुणप्रदेश वैक्रियिकम् । वैक्रियिकादसंख्येयगुणप्रदेशमाहारकमिति । को गुणकारः । पल्योपमासंख्येय भागः । (१९२/८) आहारकात्तैजस प्रदेशतोऽनन्तगुणम्, तैजसात्कार्मणं प्रदेशतोऽनन्तगुणमिति । को गुणकारः । अभव्यानामनन्तागुणः सिद्धानामनन्तभागः। - तैजससे पूर्व तीन तीन शरीरों में आगे-आगेका शरीर प्रदेशोंकी अपेक्षा असरण्यातगुणा है।३८। परवर्ती दो शरीर प्रदेशोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं ।३१। अर्थात औदारिकसे वै क्रियिक शरीर असंरण्यातगुणे प्रदेशवाला है, और वैक्रियिकसे आहारक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेशवाला है । गुणकारका प्रमाण पत्यका असंख्यातवाँ भाग है ( १९८) परन्तु आहारक शरीरसे तैजस शरीरके प्रदेश अनन्तगुणे हैं, और तेजस शरीरसे कार्मण शरीरके प्रदेश अनन्तगुणे अधिक है। अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धोका अनन्तवाँ भाग गुणकार है। (रा. वा./ २/३८-३६/४,१/१४८/४,१५) (घ.६/४,१,२/३७/१) (गो.जी./जी, प्र./२४६/५१०१०) और भी दे. अल्पमहुव) गो. जी./जी. प्र./२४६/५१०/१५ यद्येवं तर्हि वै क्रियिकादिशरीराणा उत्तरोत्तर प्रदेशाधिक्येन स्थूलत्वं प्रसज्यते इत्याशक्य परं पर सूक्ष्म भवतीत्युक्तं । यद्यपि वै क्रियिकाइयुत्तरोत्तरशरीराणां बहुपरमाणुसंचयत्वं तथापि बन्धपरिणति विशेषेण सूक्ष्मसूक्ष्मावगाहनसंभवः कार्पसपिण्डायःपिण्डबन्न बिरुध्यते खत्विति निश्चेतव्यं । - प्रश्नयदि ओदारिकादि शरीरों में उत्तरोत्तर प्रदेश अधिक हैं तो उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्थूलता हो जायेगी। उत्तर-ऐसी आशंका अयुक्त है, क्योंकि वे सब उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । यद्यपि वैक्रियिक आदि शरीरोंमें परमाणुओं का संचय तो अधिक-अधिक है तथापि स्कन्ध बन्धनमें विशेष है । जैसे-कपासके पिण्डसे लोहेके पिण्डमें प्रदेशपना अधिक होनेपर भी क्षेत्र थोड़ा रोकता है तै से जानना । १. शरीरके लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान रा.वा./२/३६/२-३/१४५/२५ यदि शीर्यन्त इति शरीराणि घटादीनामपि विशरणमस्तीति शरीरत्वमतिप्रसज्येत; तन्नः कि कारणम् । नामकर्मनिमित्तत्वाभावात् । विग्रहाभाव इति चेतः नः रूढिशब्देष्वपि व्युत्पत्ती क्रियाश्रयात ।। - प्रश्न-यदि जो शीर्ण हों वे शरीर हैं, तो घटादि पदार्थ भी विशरणशील हैं, उनको भी शरीरपना प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि उनमें नामकर्मोदय निमित्त नहीं है। प्रश्न-इस लक्षणसे तो विग्रहगतिमें शरीरके अभावका प्रसंग आता है ? उत्तर-रूढिसे वहाँपर भी कहा जाता है। ७. शरीरमें करण( कारण )पना कैसे सम्भव है ध.६/४,१.६८/३२५/१ करणेसु ज पढम करणं पंचसरीरप्ययं तं मूलकरणं । कधं सरीरस्स मूलतं । ण, सेसकरणाणमेदम्हादो पउत्तीए शरीरस्स मूलत्तं पडिविरोहाभावादो। जीवादो कत्तारादो अभिण्णतणेण कत्तारत्तमुपगयस्स कध करणतं । ण जीवादो सरीरस्स कथंचि भेदुवलंभादो। अभेदे वा चेयणत्त-णिच्चत्तादिजीवगुणा सरीरे वि होति । ण च एवं, तहाणुवलं भादो। तदो सरीरस्स करणत्तं ण विरुज्झदे । सेसकारयभावे सरीरम्मि संते सरीरं करण मेवेत्ति किमिदि उच्चदे। ण एस दोसो. सुत्ते करणमेवे त्ति अवहारणाभावादो। -करणों में जो पाँच शरीररूप प्रथम करण है वह मूल करण है। प्रश्न-शरीरके मूलपना कैसे सम्भव है। उत्तर-चू कि शेष करणोंकी प्रवृत्ति इस शरीरसे होती है अतः शरीरको मूल करण मानने में कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-कर्ता रूप जीवसे शरीर अभिन्न है, अतः कपिनेको प्राप्त हुए शरीरके करणपना कैसे सम्भव है। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है । जीवसे शरीरका कथंचित् भेद पाया जाता है। यदि जीबसे शरीरको सर्वथा अभिन्न स्वीकार किया जावे तो चेतनता और नित्यत्व आदि जीवके गुण शरीरमें भी होने चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि शरीरमें इन गुणोंकी उपलब्धि नहीं होती। इस कारण शरीरके करणपना विरुख नहीं है। प्रश्न-शरीरमें शेष कारक भी सम्भव है। ऐसी अवस्थामें शरीर करण ही है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्र में 'शरीर करण ही है' ऐसा नियत नहीं किया गया है। ८. देह प्रमाणस्व शक्तिका लक्षण पं. का./त. प्र./२८ अतीतानन्तरशरीरमाणावगाहपरिणामरूपं देह मात्रत्वं । - अतीत अनन्तर ( अन्तिम ) शरीरानुसार अवगाह परि__णामरूप देहप्रमाणपना होता है। ५. शरीरोंमें परस्पर उसरोसर सूक्ष्मता व तरसम्बन्धी शंका समाधान त. सू./२/३७,४० परं परं सूक्ष्मम् ॥३७१ अप्रतिधाते ।४०॥ स.सि.२/३७/१९२।१ औदारिक स्थूलम, ततः सूक्ष्म वैक्रियिकम् ततः सूक्ष्म आहारकम्, ततः सूक्ष्मं तैजसम, तेजसारकार्मणं सूक्ष्ममिति। -आगे-आगेका शरीर सूक्ष्म है ।३७कार्मण व तैजस शरीर प्रतीघात रहित है।४। अर्थात् औदारिक शरीर स्थूल है, इससे वैक्रियिक शरीर सूक्ष्म है । इससे आहारक शरीर सूक्ष्म है, इससे तेजस शरीर सूक्ष्म है और इससे कार्मण शरीर सूक्ष्म है। २. शरीरोंका स्वामित्व १. एक जीवके एक कालमें शरीरोंका स्वामित्व त. सू./२/४३ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकास्मिन्नचतुर्थ्यः।४। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर स.सि./२/४/११/३ युगपदेकस्यात्मनः कस्यचि जाणे । अपरस्य त्रीणि औदारिकले जसकार्मणानि मै क्रियिकरी जसका मानि या अन्यस्य चत्वारि बीदारिकाहार तैजसकार्मणानि विभागः क्रियते । एक साथ एक जीवके तेजस और कार्मणसे लेकर चार शरीर तक पिसे होते हैं । ४३० किसीके तेजस और कार्मण ये हो शरीर होते हैं। अन्यके औदारिक तेजस और कार्मण, या क्रियिक तेजस और कार्मण मे तीन शरीर होते हैं। किसी दूसरेके औदारिक तेजस और कार्मण तथा आहारक ये चार शरीर होते हैं । इस प्रकार यह विभाग यहीं किया गया (रा. वा./२/४१२३/३/१५०/१६) दे.ऋ१० आहार नै किकि शुद्धिके एक साथ होनेका विरोध है। २. शरीरोंके स्वामित्वकी आदेश प्ररूपणा संकेत अप. अपर्या आहा आहारक; ate. औदारिक; छेदो छेदोपस्थापना: पर्याप्त वा भावर बैंक नै क्रियिक; = सा. - सामान्य; सू सूक्ष्म । घ. नं. १४/५.६ / सू. १३२ - १६६/२३८-२४८) प्रमाण २. मति मार्गणा १३२ - | नरक सा. १३३ १३४ १३५ १३६ मनुष्य सा. प. मनुष्यणी अप. मनुष्य अप. १३७ १३८- देव. सा. विशेष = १३६ २. इन्द्रिय मार्गणा १४० १४१ ऐकेन्द्रिय सा. वा. प. पंचेन्द्रि साप एकेन्द्रि, बा, अप एकेन्द्रि, सू. प, अप. विकलेन्द्रि, प. अ. पंचेद्रि अप ३. काय मार्गणा १४३ 11 मार्गणा तिच सा. पं. पं. तियंचनी प. तियंच पंचे, अप. १४४ १४५ १४४ १४६ विशेष 93 १४७ १४८ 11 तेज वायु सा. 11 त्रस सा. प. शेष सर्व प. अप 11 १४२ ४. योग मार्गणा बा. प. पाँचों मन वचन योग काय सामान्य बौदारिक औदारिक मिश्र क्र. क्र. मिश्र आहा. आहा. मिश्र कार्मण -3 Mamla संयोगी विकल्प २,३ २,३,४ २,३ २,३,४ २,३ २,३,४ २.३ 3 २,३,४ = 31 २,३ ३.४ २,३,४ ३,४ ३ ३ ४ २,३ औदारिक ब्रेक्रियिक X ::: : x X : " " " :::::: 11 x X : " :: x : आहारक तेजस x X :::x x x x X X x x x X X : x xx ::: X ११ X X X : : : :: 19 ::: : :: 1 3 : " " :: 11 :: === ::::: ::::: :: 17 11 प्रमाण ५. वेद मार्गणा १४६ १५१ ६. कषाय मार्गणा १५० १५१ अकषाय ७. ज्ञान मार्गणा १५२ | मतिबूत अज्ञान विभंग ज्ञान १५३ १५४ १५३ " १६० १०. १६१ १६९ पुरुष स्त्री नपुंशक अपगत वेदी १५५ केवलज्ञान ८. संयम मार्गणा १५६ :: 1 " मार्गणा 11 चारों कषाय १५७ १५६ १५८ असंयत ९. दर्शन मार्गणा १५६ | " मति, श्रुत, अवधिज्ञान मन:पर्यय कृष्ण, नील, कापोत पीत, पद्म, शुक्ल 55 १२. मध्य मार्गणा --- यथाख्यात संयतासंयत संयत सा. सामायिक घेरो परिहार, सूक्ष्म भव्य अभव्य १२. सम्यक्त्व मार्गणा अदर्शन दर्शन मागंणा / १६४ १६३ मिथ्यादृष्टि १२. संधी मार्गणा १६५ संज्ञी असंज्ञी सम्यग्दृष्टि सा. क्षायिक, उपशम, वेदक सासादन मिश्र ३. शरीरका कथंचित् इष्टानिष्टपना १४. आहारक मार्गणा १६६ | आहारक अनाहारक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश संयोगी विकल्प २,३,४ ३ २,३,४ ३ २,३,४ ३,४ २,३,४ ३,४ ३ ३.४ ३ ३,४ २,३,४ २,३,४ ३ २,३,४ २,३,४ २,३,४ " 97 ३,४ २,३,४ २,३,४ 15 ३,४ २,३ ३. शरीरका कथंचित् इष्टानिष्टपना १. शरीर दुःखका कारण है औदारिक वैक्रियिक आहारक_ ::: " :: ::: X: : ::: ११ ::: :: 19 „ :: " x :: :: X X X X F X : : Cex :::: x X X : X X ::::: ::::: × | × X ::::: ::::: :: " X X = 11 X X : x :: x = X : x x x x :: : x : x X X X : ? : x ::: ::: 19 ::: कार्मण :: :: ::: :: :: == 31 91 11 29 ::::: ::::: :: " 11 :: :: स.श./मू./१५ मूल संसारदुःखस्य देह एवारमधीस्ततः । त्यक्त्वैनां प्रविशेद हिरव्यान्द्रयः ॥१४- इस शरीर में आत्मबुद्धिका Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर शलाका पुरुष होना संसारके दुःखोंका मूल कारण है। इसलिए शरीरमें आत्मत्वको छोड़कर बाह्य इन्द्रिय विषयोंसे प्रवृत्तिको रोकता हुआ आत्मा अन्तरंगमें प्रवेश करे ।१५॥ आ.अनु./१६५ आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काङ्क्षन्ति तानि विषया विषयाश्च मानहानिप्रयासभयपापकुयोनिदाः स्यु-मूलं ततस्तनुरनर्थ परंपराणाम् ।१९५॥ -- प्रारम्भमें शरीर उत्पन्न होता है, इससे दुष्ट इन्द्रियाँ होती हैं, वे अपने-अपने विषयों को चाहती हैं। और वे विषय मानहानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गतिको देनेवाले हैं। इस प्रकारसे समस्त अनर्थों की मूल परम्पराका कारण शरीर है ।१६॥ ज्ञा.२/६/१०-११ शरीरमेतदादाय त्वया दुःख विसह्यते । जन्मन्यस्मिस्ततस्तद्धि निःशेषानर्थमन्दिरम् ।१०। भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः । सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्व पुरादाय केवलम् ।१०-हे आत्मन । तूने इस संसार में शरीरको ग्रहण करके दुःख पाये वा सहे हैं. इसीसे तू निश्चय जान कि यह शरीर ही समस्त अनर्थोंका घर है, इसके संसर्ग से सुखका लेश भी नहीं मान ।१०। इस जगदमें संसारसे उत्पन्न जो-जो दुःख जीवोंको सहने पड़ते हैं वे सब इस शरीरके ग्रहणसे ही सहने पड़ते हैं, इस शरीरसे निवृत्त होनेपर कोई भी दुःख नहीं है ।११॥ २. शरीर वास्तव में अपकारी है इ. उ./१६ यज्जोबस्योपकाराय तदेहस्यापकारकं । यद देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकं ।१६। - जो अनशनादि तप जीवका उपकारक है वह शरीरका अपकारक है, और जो धन, वस्त्र, भोजनादि शरीरका उपकारक है वह जीवका अपकारक है ।११! अन. ध./४/१४१ योगाय कायमनुपालयतोऽपि युक्त्या, क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽन्यथाक्ष्सुखजीवितरन्धलाभात, तृष्णा सरिद्विधुरयिष्यति सत्तपोद्रिम् ।१४१- योग-रत्नत्रयात्मक धर्म की सिद्धि के लिए संयम के पालनमें विरोध न आवे इस तरहसे रक्षा करते हुए भी शक्ति और युक्तिके साथ शरीरमें लगे ममत्वको दूर करना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार साधारण भी नदी जरासे भी छिद्रको पाकर दुर्भेद्य भी पर्वतमें प्रवेशकर जर्जरित कर देती है उसी प्रकार तुच्छ तृष्णा भो समीचीन तप रूप पर्वतको छिन्न-भिन्नकर जर्जरित कर डालेगी ।१४१३ 1. धर्मार्थीके लिए शरीर उपकारी है ज्ञा.२/६/१ तैरेव फलमेतस्य गृहीतं पुण्यकर्मभिः। विरज्य जन्मनः स्वार्थे यैः शरीरं कथितम् । = इस शरीरके प्राप्त होनेका फल उन्होंने लिया है, जिन्होंने संसारसे विरक्त होकर, इसे अपने कल्याण मार्गमें पुण्यकर्मोसे क्षीण किया।। अन. ध./४/१४० शरीरं धर्मसंयुक्त रक्षितव्यं प्रयत्मतः । इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति तण्डुलः ॥१४०। -धर्मके साधन शरीरकी प्रयत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिए', इस शिक्षाको प्रवचनका तुष समझना चाहिए। 'आत्मसिद्धिके लिए शरीररक्षाका प्रयत्न सर्वथा निरुपयोगी है। इस शिक्षाको प्रवचनका तण्डल समझना चाहिए । अन, ध// शरीमाद्य किल धर्मसाधनं, तदस्य यस्येव स्थितयेऽशनादिना। तथा यथाक्षाणि वशे स्युरुत्पथं, न वानुधावन्त्यनुबद्धतृड्वशात् ।। -रत्नरूप धर्मका साधन शरीर है अतः शयन, भोजनपान आदिके द्वारा इसके स्थिर रखनेका प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु इस बातको सदा लक्ष्यमें रखना चाहिए कि भोजनादिकमें प्रवृत्ति ऐसी और उतनी हो जिससे इन्द्रियाँ अपने अधीन रहें। ऐसा न हो कि अनादिकालकी वासनाके वशवर्ती होकर उन्मार्गकी तरफ दौड़ने लगें ।। ४. शरीर ग्रहणका प्रयोजन आ. अनु./७० अवश्यं नश्वरैरेभिरायुः कायादिभिर्यदि। शाश्वतं पदमायाति मुधायातमवैहि ते ७० - इसलिए यदि अवश्य नष्ट होनेवाले इन आयु और शरीरादिकोंके द्वारा तुझे अविनश्वर पद प्राप्त होता है तो तू उसे अनायास ही आया समझ/७।। ५. शरीर बन्ध बतानेका प्रयोजन पं.का./ ता. वृ./३४/७३/१० अत्र य एव देहाद्भिन्नोऽनन्तज्ञानादिगुणः शुद्धात्मा भणितः स एव शुभाशुभसंकल्पविकल्पपरिहारकाले सर्वत्र प्रकारेणोपादेयो भवतीत्यभिप्रायः। यहाँ जो यह देहसे भिन्न अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे सम्पन्न शुद्धात्मा कहा गया है, वह आत्मा ही शुभ व अशुभ संकल्प विकल्पके परिहारके समय सर्व प्रकारसे उपादेय होता है, ऐसा अभिप्राय है। द्र.सं./टी./१०/२७/७ इदमत्र तात्पर्यम्-देहममत्वनिमित्तेन देहं गृहीत्वा संसारे परिभ्रमति तेन कारणेन देहादिममत्वं त्यक्त्वा निर्मोहनिजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्येति। तात्पर्य यह है-जीव देहके साथ ममत्वके निमित्तसे देहको ग्रहणकर संसारमें भ्रमण करता है, इसलिए देह आदिके ममत्वको छोड़कर निर्मोह अपने शुद्धारमामें भावना करनी चाहिए। शरीर पर्याप्ति-दे. पर्याप्ति । शरीर पर्याप्ति काल-दे. काल/१। शरीर मद-दे. मद। शरीर मिश्र काल-दे. काल/१। शकराप्रभा-१, स. सि./३/१/२०१८ शर्कराप्रभासहचरिता भूमिः शर्कराप्रभा। ...एताः संज्ञा अनेनोपायेन व्युत्पाद्यन्ते। -जिसकी प्रभा शर्कराके समान है वह शर्कराप्रभा है ।...इस प्रकार नामके अनुसार व्युत्पत्ति कर लेनी चाहिए। (ति. प./२/२१); (रा. वा./२/१/ ३/९५६/१८); (ज. प./११/१२१) । २. शर्कराप्रभा पृथिवीका लोकमें अवस्थान । दे. नरक/५/११:३. शर्कराप्रभा पृथिवीका नकशा। दे. लोक/२/। शरावती-भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी-दे, मनुष्य/४। शलाका-जो विवक्षित भाग करनेके अर्थ किच्छ प्रमाण कल्पना कीजिये ताका नाम यही शलाका जानना। विशेष-दे. गणित/II/२ शलाका पुरुष-तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि प्रसिद्ध पुरुषों को शलाका पुरुष कहते हैं । प्रत्येक कल्पकाल में ६३ होते हैं। २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, हबलदेव, हनारायण, प्रतिनारायण। अथवाह नारद, १२ रुद्र २४ कामदेव, व १६ कुलकर आदि मिलानेसे १६६ शलाका पुरुष होते हैं। शलाका पुरुष सामान्य निर्देश ६३ शलाका पुरुष नाम निर्देश । १६९ शलाका पुरुष निर्देश। शलाका पुरुषोंकी आयु बन्ध योग्य परिणाम । -दे. आयु/३। कौन पुरुष मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे। -दे. जन्म/६॥ * जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष ३ * २ १ २ ३ ४ ५ ६ ९ १० ११ १२ १३ १४ ३ १ २ ३ ४ ५ शलाका पुरुषोंका मोक्ष प्राप्त सम्बन्धी नियम | शलाका पुरुषोंका परस्पर मिलाप नहीं होता । शलाका पुरुषोंके शरीरकी विशेषता । ૪ ५ ६ ७ एक क्षेत्रमें एक ही तज्जातीय शलाका पुरुष होता है । - दे. विदेह / में त्रि. सा. । चरम शरीरी चौथे कालमें ही उत्पन्न होते हैं । - . जन्म / ५ 1 अचरम शरीरी पुरुषोंका अकाल मरण भी सम्भव है। - दे. मरण /४१ दे तीर्थंकर । तीर्थंकर । गणधर चौबे कालों ही उत्पन्न होते हैं। द्वादश चक्रवर्ती निर्देश चक्रवर्तीका लक्षण 1 नाम व पूर्व भत्र परिचय | वर्तमान भव नगर व माता पिता । वर्तमान भव शरीर परिचय । कुमार कालादि परिचय | वैभव परिचय | चौदह रत्न परिचय सामान्य | चौदह रत्न परिचय विशेष नवनिधि परिचय | दश प्रकार भोग परिचय | चकवतों की विभूतियोंकि नाम। दिग्विजयका स्वरूप | राजधानीका स्वरूप ढाणी चक्रवती उत्पत्ति कालमें कुछ अन्तर । चक्रवर्ती शरीरादि सम्बन्धी नियम । नव बलदेव निर्देश पूर्व मज परिचय | वर्तमान भवके नगर व माता-पिता । वर्तमान भव परिचय। देवका वैभव । बलदेवों सम्बन्धी नियम । नव नारायण निर्देश ४ १ पूर्व भव परिचय । २. वर्तमान भवके नगर व माता-पिता । ३ वर्तमान शरीर परिचय । कुमार कालादि परिचय । नारायणका वैभव नारायणोंकी दिग्विजय नारायण सम्बन्धी नियम । भा० ४-२ -दे, जन्म /५ - दे. शलाका पुरुष / १ / ४.५ । ያ ५ नव प्रतिनारायण निर्देश १ नाम व पूर्वभव परिचय | २ वर्तमान भव परिचय । प्रतिनारायणों सम्बन्धी नियम । ३ ६ १ १ २ १ २ ३ ४ १ २ १. शलाका पुरुष सामान्य निर्देश नव नारद निर्देश वर्तमान नारदोंका परिचय । नारद सम्बन्धी नियम । एकादश रुद्र निर्देश ९ सोलह कुछकर निर्देश १ वर्तमान कालिक कुळकर परिचय । नाम व शरीरादि परिचय। कुमार कालादि परिचय | रुद्र सम्बन्धी कुछ नियम । रुद्र चौथे कालमें ही उत्पन्न होते हैं। - दे. जन्म / ५ । चौवीस कामदेव निर्देश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश चौबीस कामदेव का नाम निर्देश मात्र । कामदेव चौधे काल ही पत्र होते हैं। १० मावि शलाका पुरुष निर्देश कुलकर के अपरनाम व उनका सार्थक्य । पूर्वभव सम्बन्धी नियम । पूर्वभवमै संयम तप आदि सम्बन्धी नियम उत्पत्ति व संख्या आदि सम्बन्धी नियम | कुलकर, चक्रवर्ती व बलदेव निर्देश। नारावणादि परिचय १. शलाका पुरुष सामान्य निर्देश १. ३ शलाका पुरुष नाम निर्देश वि. प./२/५१०-३११ एती सहायपुरिया सही सलभवविवखाया। जायंति भरलेले परसोहाग १० तिरययरलहरिप B णाम विस्सुदा कमसो । बिउणियबारसबारस पत्थणिधिरं धसंखाए |११| अब यहाँसे आगे ( अन्तिम कुलकरके पश्चात् ) पुण्योदयसे भरत क्षेत्र में मनुष्यों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण लोकमे प्रसिद्ध तिरेसठ शलाका पुरुष उत्पन्न होने लगते हैं ।५१०। ये शलाका पुरुष तीर्थंकर २४, चक्रवर्ती १२, बलभद्र ६, नारायण ६ प्रतिशत्रु ६, इन नामों प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार उनकी संख्या ६३ है । ५११६ (त्रि, सा./८०३), (ज. प./२/१७६-१८४ ) ( गो, जी./जी. प्र./३६१-३६२/- ७७३/३) । सि.प./४/९६९५ १६१ डास शुरुमे काले बामणा समायपुरिया में ५८ ही शलाका पुरुष होते हैं । २. १६९ शलाका पुरुष निर्देश वि. प./४/१४०३ तिर परा म्गुर चकबल के सिरुदणारा अंगजकुरा भया सिज्यंति नियमेन । १४७३० - २४ तीर्थंकर - दे. जन्म/५ .. एका १६१२२ दुस्सम९६९६१ डावसर्पिणी काल Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष २. द्वादश चक्रवर्ती निर्देश उनके गुरु (२४ पिता, २४ माता), १२ चक्रवर्ती, हबलदेव, १ नारायण, ११ रुद्र, नारद, २४ कामदेव और १४ कुलकर ये सब भव्य होते हुए नियमसे सिद्ध होते हैं ।१४७३(इनके अतिरिक्त प्रतिनारायण ऊपर गिना दिये गये हैं। ये सब मिलकर १६६ दिव्य पुरुष कहे जाते हैं।) १. शलाका पुरुषका मोक्ष प्राप्ति सम्बन्धी नियम ति.प./४/१४७३ तित्थयरा तग्गुओ चक्कीवलकेसिरुदणारहा। अंगजकुलियरपुरिसा भविया सिझति णियमेण ।१४७३। - तीर्थकर, उनके गुरु ( पिता व माता), चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, रुद्र, नारद, कामदेव और कुलकर ये सब (प्रतिनारायणको छोड़कर १६० दिव्य पुरुष ) भव्य होते हुए नियमसे (उसी भवमें या अगले १, २ भवोंमें ) सिद्ध होते हैं ।१४७३ ४. शलाका पुरुषोंका परस्पर मिलाप नहीं होता ह. पु./४/५६-६. नान्योन्यदर्शन जातु चक्रिणां धर्मचक्रिणाम् ।। हलिनो वासुदेवानां त्रैलोक्ये प्रतिक्रिणाम् ॥५६॥ गतस्य चिह्नमात्रेण तव तस्य च दर्शनम् । शवस्फोटनिनादैश्च रथ ध्वजनिरीक्षणैः ६०१ -- तीन लोकमें कभी चक्रवर्ती-चक्रवतियोंका, तीर्थकर-तीर्थकरोंका, बलभद्र-बलभद्रोंका, नारायण-नारायणोंका और प्रलिनारायण-प्रतिनारायणोंका परस्पर मिलाप नहीं होता। तुम (धातकी खण्डका कपिल नामक नारायण ) जाओगे तो चिह्न मात्रसे ही उसका (कृष्ण नारायणका) और तुम्हारा मिलाप होगा। एक दूसरेके शंख का शब्द सुनना तथा रथोंकी ध्वजाओंका देखना इन्हीं चिह्नोंसे तुम्हारा उसका साक्षात्कार हो सकेगा ।५६-६०॥ ५. शलाका पुरुषों के शरीरकी विशेषता ति. प./४/१३७१ आदि मसंहण्ण जुदा सव्वे तवणिज्जवण्णवरदेहा। सयलसुलक्षण भरिया समचउरस्संगसंठाणा ।१३७१। - सभी वज्रऋषभ नाराच संहननसे सहित, सुवर्ण के समान वर्ण वाले, उत्तम शरीरके धारक, सम्पूर्ण सुलक्षणोंसे युक्त और समचतुरस रूप शरीरसंस्थानसे युक्त होते हैं ।१३७१। बो. पा./टी./३२/१८ पर उद्धृत-देवा वि य गैरइया हलहरचक्की य तह य तित्थयरा । सव्वे केसव रामा कामानिक्कंचिया होति । सर्व देव, नारकी, हलधर (बलदेव), चक्रवर्ती तीर्थक्रं, केशव ( नारायण ) राम और कामदेव मूंछ-दाढ़ीसे रहित होते हैं। २. द्वादश चक्रवर्ती निर्देश १. चक्रवर्तीका लक्षण ति.प./१/४८ छक्लंड भरहणादो बत्तीससहस्समउडबद्धपहुदीओ। होदि है सयलं चक्की तित्थयरो सयलभुवणवई ।४।-जो छह खण्डरूप भरतक्षेत्रका स्वामी हो और बत्तीस हज़ार मुकुट बद्ध राजाओंका तेजस्वी अधिपति हो वह सकल चक्री होता है।...४८। (ध. १/१, १.१/गा,४३/५८)(त्रि. सा./६८५) २. नाम व पूर्वमव परिचय पूर्व भव नं.२ पूर्वभव |म. पु./सर्ग/श्लो. १. प. पु./२०/१२४-१९३ २. म. पु./पूर्ववत १. प.पु./२०/१२४-१६३ २, म. पु./पूर्ववत १. ति.प./४/५१५-५१६ २. त्रि. सा./८१५. ३. प.पु./२०/१२४-१६३ ४. ह.पु./६०/२८६-२८७ ५. म. पु./पूर्ववत् भरत नगर दीक्षागुरु स्वर्ग नाम राजा __ पीठ पुण्डरी किणी कुशसेन सर्वार्थ सिद्धि । २ अच्युत विजय वि० ४८/६९-७८ सगर पृथिवीपुर यशोधर ६१/६१-१०१ मघवा विजय (२ जयसेन शशिप्रभ (२नरपति धर्मरुचि पुण्डरी किणी विमल ग्रैवेयक माहेन्द्र 1 २ अच्युत ६२/१०१/१०६ सनत्कु० शान्ति* सुप्रभ महापुरी देतीर्थकर ६४/१२-२२ ६५/१४-३० कुन्थु अर* सुभौम धान्यपुर ६६/७६-८० एम कनकाभ (२ भूपाल चिन्त (२ प्रजापाल महेन्द्रदत्त वीतशोका (२ श्रीपुर विजय विचित्र गुप्त १२ सम्भूत सुप्रभ १२ शिवगुप्त नन्दन ६७/६४-६५ हरिषेण जयन्त वि० १२ महाशुक्र ब्रह्मस्वर्ग २अच्युत माहेन्द्र १२ सनत्कुमार ब्रह्मस्वर्ग १२ महाशुक्र कमलगुल्म मि० ६६/७८-८० IS जयसेन ४ जय | ब्रह्मदत्त अमितांग २ वसुन्धर सम्भूत राजपुर ।। २ श्रीपुर काशी सुधर्ममित्र १२ वररुचि स्वतन्त्रलिंग ७२/२८७-२८८ * शान्ति कुन्थु और अर ये तीनों चक्रवर्ती भी थे और तीर्थकर भी। प्रमाण नं. २,३,४ के अनुसार इनका नाम महापद्म था। यह राजा प उन्हीं विष्णुकुमार मुनिके बड़े भाई थे जिन्होंने ७५० मुनियोंकी राजा बलि कृत उपसर्ग से रक्षा की थी। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष २. द्वादश चक्रवर्ती निर्देश १. वर्तमान मवमें नगर व माता पिता वर्तमान नगर वर्तमान पिता वर्तमान माता क्रम तीर्थकर म. पु./सर्ग श्लोक १. प. पु./२०/१२५-१६३ २. म, पु./पूर्ववत् १. प. पु./२०/१२४-१६३ २. म. पु./पूर्ववत् १. प. पु./२०/१२४-१६३ २. म. पु./पूर्व वत् सामान्य विशेष सामान्य विशेष सामान्य বিহীৰ अयोध्या समुद्र विजय अयोध्या प. पु. मरुदेवी सुबाला भदा ४८/६१-७८ ६१/११-१०१ ६१/१०४-१०६ ६३/३८४,४१३ ६४/१२-२२ ऋषभ विजय सुमित्र विजय दे० तीर्थ कर | श्रावस्ती हस्तिनापुर यशस्वती सुमंगला भद्रवती सहदेवी अनंतवीर्य दे. तीर्थकर तारा चित्रमती ६/१६,१५२ ६६/७६-८० ६७/६४-६५ ६६/७८-८० ७२/२८७-२८८ दृशावती हस्तिनापुर काम्पिल्य अयोध्या वाराणसी भोगपुर कौशाम्बी मयूरी कीर्तिवीर्य पप्ररथ पद्मनाभ विजय ब्रह्मरथ सहरूमाहु पद्मनाभ हरिकेतु एरा वप्रा यशोवती चूला ब्रह्मा प्रभाकरी चूड़ादेवी - ४. वर्तमान मव शरीर परिचय संहनन । शरीरोत्सेध आयु वर्ण संस्थान ति.प./४/१३७१ म. पु./सर्ग/श्लो. सं. १.ति. प./४/१२६२-१२६३ २ त्रि. सा./८१८-८१६ ३. ह. पू./१०/३०६-३०६ ४. म. पु./पूर्व शीर्षवत् सामान्य प्रमाण न. विशेष १. ति. प./४/१२६५-१२६६ २. त्रि. सा./८१६-८२० ३.ह.पू./६०/४६४-५१६ ४. म. पु./पूर्व शीर्षवत् सामान्य प्रमाण नं. विशेष । समचतुरस्त्र वज्रऋषभ नाराच ५०० ८४ लाख पूर्व । ४ ७० लाख पूर्व ४२३ 1 लाख वर्ष दे० तीर्थ कर 3m Gm c 000 दे. पूर्व शीर्षवद ४२३ (शान्ति) (कुन्थु) ( अरह) समचतुरख वज्र ऋषभनाराच ६८००० वर्ष ६०,००० बर्ष |३०,००० [१०,००० |३,००० .. ७००, ३ २६००० वर्ष C0 ०दद जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -शलाका पुरुष क्रमः १७७,००० बर्ष २५०,००० 8 ३ २५,००० ४५०००० or Do Sup कुमारकाल आदि परिचय ला - लाख, पू० पूर्व कुमार काल fa, 9./8/ १२६७-१२६६ ह. पु. /६०/४६४- ५१६ ५ ८ ५००० 19 ६५०० व. १० ३२५ ११ ३०० १२ २८ क्रम १ ३ 11 iii ४ मंडलीक सि. प./५/ १३००-१३०२ 8.9/10/ ४६४-१६ *ह, पु. में भरतका संयम काल ** नाम १००० वर्ष २५००० ५०००० " ५०,००० ३०,००० ५००० ३२५ १. ३०० 炫 :: रत्न निधि रानियाँ आर्य खण्डकी राजकन्याएँ विद्याधर राजकम्बाएँ " " 88 ५०० बर्ष ३०० दिग्विजय सि, १/४/ १२६८-१६६१ E../60/ ४६४-५१६ ६०००० वर्ष १४ १०,००० १०," ६ म्लेच्छ राजकन्याएँ । पटरानी १५० " १०० 19 [११] ३२,००० 11 ३२००० ३२.००० १६,००० १ mahan (११) ००३० वर्ष दिया है। 8 ह. पु. व म. पु. में सगरका कुमार व मण्डलीक काल १८ लाख पूर्व दिया गया है। SS ह. पु. की अपेक्षा सुभौम चक्रवर्तीको राज्यकाल प्राप्त ही नहीं हुआ । राज्य काल ति प /४/१४०१-१४०५ ४. पू. /२०/४४-१६ सामान्य खा.. ६१००० वर्ष | ७० ला.पू. ३०००० वर्ष ३६०००० १०००० १२ ४६५०० व. १८७०० " गणना सामान्य प्रमाण गणना विशेष नं. ८८५० " १६०० 14 ६०० 39 (वे. जागे) ( ..) ह. पु. ६. सा. प्र. १ ५० विशेष ६१०००००. + ६६६६६ पूर्वा सा.वर्ष ४२५०० वर्ष २५१०५५ क्रम & द ३. वैभव परिचय १. प./४/१३०२-१६६७) २ (त्रि. सा./६-२) ३ (६.५ / ११ / १०८ ९६२) ४. (म.पू./१०/२३-२०१४६०८१, २०१०९०५) ४. (ज. १/७/४२० ५४. ५-६७)। नाम पुत्र पुत्री संयम काल सि.प./५/ १४००-१४०६ ६. पु./10/४६४-५१६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १ ला..पू.* ९ ., .. ५०००० बर्ष १ ला.. " १०००० वर्ष ३५० ४०० गणमख देव देव रसोइये ० == २. द्वादश चक्रवर्ती निर्दे मर कर कहाँ गये वि. प./४/१४१० त्रि. सा. २४ प. पु. २०/१२४-११२ म.पू. वे शीर्षक सं. २ विशेष संख्यात सहस्र सामान्य ३२,००० ४० ३६० मोक्ष ७ वें नरक मोक्ष कुमारस्व " 9 वें नरक गणना सामान्य प्रमाण 'नं. ३ ४ ४ म. पु. ३.४ मोक्ष सर्वार्थसिद्धि जयन्त गणना विशेष भरतके ५०० पुत्र थे सगर के ६०,००० पुत्र पद्यपुत्री थौ १६००० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष १३ २. द्वादश चक्रवर्ती निर्देश क्रम. नाम | गणना सामान्य प्रमाण । गणना विशेष क्रम नाम | मणना सामान्य प्रमाण । गणना विशेष ३२ ३५० लाख १२ यक्ष यक्षोंका बन्धु कुल भेरी पटह (नगाड़े) शंख हल नाट्यशाला संगीतशाला पदाति देश ग्राम ३२००० ३२००० ४८ करोड़ ३२००० ६६ करोड़ ७५००० १२ २४ १ कोडाकोड़ी है. । नगर १ करोड़ १ला. करोड़ ७२००० २६००० ३ करोड़ गौ गौशाला थालियाँ | ३ करोड़ ३४००० खर्वट मटंब ၃၀၀၀ २४००० ४००० ४८००० ६६००० १४००० ८४ लाख गज रथ अश्व योद्धा विद्याधर म्लेच्छ राजा चित्रकार मुकुट बद्ध राजा द्रोणमुख संवाहन অন্দৰ कुक्षि निवास दुर्गादिवन पताकाएँ १८ करोड़ ८४ , अनेक , ८८००० १६००० ३२०० ७०० २८००० ४८ करोड़ १८००० ६६००० ३ भोग पृथिवी १० प्रकार षट् खण्ड - ७. चौदह रत्न परिचय सामान्य उत्पत्ति क्रम निर्देश १.ति.प./४/१३७६-१३८१ २. त्रि. सा./८२३ ३. ह. पू./११/१०८-१०६ ४.म.पू./३७/८३-८६ संज्ञा १.ति, प./४/१३७७-१३८१ २. दे, आगे शीर्ष क.सं. ११' १. ति. प./४/१३७८.१३८० २. त्रि. सा./२३ ३. म. पु./३०/८५-८६ दृष्टि भेद विशेषता नाम क्या है सामान्य विशेष सामान्य विशेष प्रमाण नं०२ प्रमाण न०२ आयुधशाला worm * आयुध छतरी आयुध अस्त्र अस्त्र सुदर्शन सूर्यप्रभ भद्रमुख प्रवृद्धवेग चिन्ता जननी चूड़ामणि सौनन्दक चण्डवेग छत्र खड्ग दण्ड काकिणी मणि चर्म सेनापति गृहपत्ति श्री गृह ति.प./१/१३८२ किन्हीं आचार्योक मतसे इनकी उत्पत्तिका नियम नहीं। यथायोग्य स्थानों में उत्पत्ति । दे. पृगला शीर्षक ! विजया বালানী ॥ W भण्डारी आयोध्य भवमुख कामवृष्टि (ह.पू./११/१२३) गज हाथी শিলা राजधानी :. विजयगिरि पवनंजय बुद्धिसागर कामवृष्टि सभद्रा अश्व पुरोहित स्थपति युवती तक्षक (मबई) पटरानी विजया जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष २. द्वादश चक्रवर्ती निर्देश ४. चौदह रत्न परिचय विशेष ९. नव निधि परिचय जीव अजीब काहे से बने विशेषताएँ १निर्देश | २ उत्पत्ति | ३ क्या प्रदान करती हैं १.ति. प./४/गा; २ त्रि. सा./८२३ । क्र. ति.प./ १. ति.प.४/१३८४] १. ति.प./४/१३८६ ३. म. पु./३७/श्लो.;४.ज.प./७/गा. ४/१३८४ २. ति.प.४/१३८५ २. त्रि.सा./८२२ २. त्रि.सा./ ३. ह. पु./१२/११४-१२२ ८२१, ४. म.पु./३७/७५-८२ ३. ह.पु./११/ १-११० विशेष | १.ति. प./४/१३७७-१३७६ २. म. पु./३७/८४ ति.प./४/१३८१ ४.म.पु./३७/ दृष्टि सं. दृष्टि से.| सामान्य प्रमाणसं বিষ चक्र अजीव छत्र खड्ग c0 " " दे. नीचे काकिणी " " ६ मणि ७/चर्म | 1- म. प्र./ ३७/१७१ ८ सेनापति १ गृहपति १० गज | अश्व १२ पुरोहित शत्रु संहार १२ योजन लम्बा और इतना ही ।।१] काल श्रीपुर नदीमुख ऋतुके अनु-३,४ निमित्त, न्याय, चौड़ा है। वर्षासे कटक की रक्षा सार पुष्प व्याकरण आदि करता है।४/१४०-१४१ फल आदि विषयक अनेक शत्रु संहार प्रकारके शास्त्र विजयाधं गुफा द्वार उद्घाटन ४ माँसुरी, नगाड़े ११/१३३०:२/४/१२४। गुफाके कांटों आदि पंचेन्द्रिय आदिका शोधन ।३/१७०। वृषभा के मनोज्ञ विषय चलपर चक्रवर्तीका नाम लिखना। २ महाकाल भाजन ३पंचलोह आदि १/१३५४।। धातुएँ विजयाधकी गुफाओंका अन्ध ४ असि, मसि कार दूर करना ।१/१३३६:३/१७३। आदिके साधनघृषभाचल पर नाम लिखना।२। भूत द्रव्य ||३| पाण्डु ४ धान्य तथा विजयाध की गुफामें उजाला करना। | " | " धान्य | मदरस म्लेच्छ राजा कृत जलके ऊपर तैरकर मानव आयुध ४ नोति व अन्य अपने ऊपर सारे कटकको आश्रय अनेक विषयों के देता है । (२:३/१७१, ४/१४०) शास्त्र ५ | शंख | वादित्र हिसाब किताब आदि रखना ।३/१७६३ || वस्त्र | ७ | नै सर्प हर्म्य३,४ शय्या, आसन, (भवन)। भाजन आदि दैवी उपद्रवोंकी शान्तिके अर्थ उपभोग्य वस्तुएँ ____ अनुष्ठान करना (३/१७५) पिंगल . आभरण नदीपर पुल बनाना (१/१३४२:४/१३१|| नानारत्न अनेक प्रकार मकान आदि बनाना।३/१७७१ के रत्न आदि नोट-ह. पु./११/१०६। इन रत्नों में से प्रत्येक की एक एक | ४. विशेषताएँ हजार देव रक्षा करते थे। ह. पु./११/१११-११३,१२३ अमी...निधयोऽनिधना नब। पालिता निधिपालारव्यैः सुरै र्लोकोपयोगिनः ।१११३ शकटाकृतयः सर्वे चतु. रक्षाष्ट चक्रकाः। नवयोजन विस्तीर्णा द्वादशायामसंमिताः ॥११॥ ते चाष्टयोजनागाधा महुवक्षारकुक्षयः । नित्यं यक्षसहमण प्रत्येक रक्षितेक्षिताः ।११। कामवृष्टिवशास्तेऽमी नवापि निधयः सदा। निष्पादयन्ति निःशेष चक्रवर्तिमनीषितम् ॥१२३। - ये सभी निधियाँ अबिनाशी थीं। निधिपाल नामके देवों द्वारा सुरक्षित थीं। और निरन्तर लोगों के उपकारमें आती थी ।११। ये गाड़ीके आकारकी थी। योजन चौड़ी, १२ योजन लम्बी, ८ योजन गहरी और वक्षार गिरिके समान विशाल कुक्षिसे सहित थीं। प्रत्येककी एक-एक हजार यक्ष निरन्तर देखरेख रखते थे ।११२-११३। ये नौ की नो निधियाँ कामवृष्टि नामक गृहपति (ध्वाँ रत्न ) के अधीन थी। और सदा चक्रवर्ती के समस्त मनोरथोंको पूर्ण करती थी ।१२३। १३ स्थपति १४ | युवती जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष १०. दश प्रकार भोग परिचय दि. १/४/१३६० दिव्यपुर रंगहि षभायण भोयणाएं समभिव आसणवाहणणट्टा दसंग भोगा इमे ताणं | १३६७। दिव्यपुर ( नगर ), रत्न, निधि, चमू (सैन्य) भाजन, भोजन, शय्या, आसन, वाहन, और नाट्य ये उन चक्रवतियोंके दशांग भोग होते हैं । १३६७॥ ( ह. पु./९९/१३९) (म.पु./३०४१४३)। ११. मस्त चक्रवर्तीकी विभूतियोंके नाम *1.3./20/€. क्रम श्लोक सं. १ २ ३ ६ ८ ह १० ११ १२ १३ १४ १५ १७ १८ ११ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ १४६ ३८ ३६ , १४७ 33 " १४८ १४६ १५० 37 १५१ १५१ १५२ १५३ 39 १५४ १५५ १५६ १५७ १६० १६= १६६ १७० १७२ १७३ १७४ ३७ १७५ १७६ १७० १५ १५६ १६० १६९ १६२ ९६३ १६४ १६५ REG विभूति घरका कोट गौशाला छावनी ऋतुओंके लिए महल सभाम टहलनेकी लकड़ी दिशा प्रेक्षण भवन नृत्यशाला शीतगृह वर्षा ऋतु निवास निवास भवन भण्डार गृह कोठार स्नानगृह रत्नमाला चाँदनी शय्या चमर छत्र कुण्डल खड़ाऊँ कवच रथ धनुष बाण शक्ति माला पुरी are ( अस्त्र विशेष ) तलवार सेट (विशेष) चक्र दण्ड चिन्तामणि रत्न काकिणी (दीपिका) सेनापति पुरोहित गृहपति शिला (पति) नाम क्षितिसार सर्वतोभद्र नन्दार्त वैजयन्त दिग्वसतिका सुविधि गिरिकूटक वर्षमानक धारागृह पुष्करावती कुबेरकान्त वसुधारक जीमूत सिका देवरम्या सिंहवाहिनी अनुपमान सूर्यप्रभ विद्य प्रभ विष मोचिका अमेय अजितंजय 6 वज्रकाण्ड अमोघ वज्रतुण्डा सिघाटक लोह वाहिनी मनोवेग सोनन्टक भूतमुख सुदर्शन चण्डवेग चूड़ामणि चिन्ताजननी अयोध्य बुद्धिसागर कामवृदि भद्रमुख १५ क्रम श्लोक सं. ४० ४१ ४२ ४३ ∞ ∞ ∞ of of ∞ ४४ ४५ ४६ ४७ ?s= १७६ १८० १८२ ४६ १८४ १८५ १८७ १८८ ४८ १८६ १८६ विभूति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश गज अश्व स्त्री भेरी शंख कड़े भोजन खाद्य पदार्थ स्वाद्यपदार्थ पेय पदार्थ २. हा चक्रवर्ती निर्देश नाम विजयगिरि धमर्ण पवनंजय सुभद्रा आनन्दिनी (१२ योजन शब्द (म. प्र./२०१ १८२ ) गम्भीरावर्त वीरानन्द महाकल्याण अमृतगर्भ अमृतकल्प अमृत १२. दिग्विजयका स्वरूप ति. प./४/१३०३-१३६६ का भावार्थ - आयुधशाला में चक्रको उत्पत्ति हो जानेपर चक्रवर्ती जिनेन्द्र पूजन पूर्वक दिग्विजयके लिए प्रयाग करता है । १३०३-१३०४१ पहले पूर्व दिशाकी ओर जाकर गंगा किनारे-किनारे उपसमुद्र पर्यन्त जाता है | १३०५। रथपर चढ़कर १२ योजन पर्यन्त समुद्र तटपर प्रवेश करके वहाँसे अमोघ नामा बाण फॅक्सा है, जिसे देखकर मागथ देव चकनकी अधीनता स्वीकार कर लेता है | १३०६-१३१४ | यहाँसे जम्बूद्वीपकी वेदीके साथ-साथ उसके वैजयन्त नामा दक्षिण द्वारपर पहुँचकर पूर्वकी भाँति ही वहाँ रहनेवाले वरतनुदेवको वश करता है ।१३१५-१३१६ । यहाँसे वह पश्चिम दिशा की ओर जाता है और सिन्धु नदीके द्वारमें स्थित प्रभासदेवको पूर्ववत् ही वश करता है । १३१७- १३१८ | तत्पश्चात् नदी के तटसे उत्तर मुख होकर विजयार्ध पर्वत तक आता है और पर्वतके रक्षक वैताढ्य नामा देवको वश करता है | १३१६-१३२३ तब सेनापति दण्ड रत्नसे उस पर्वतकी खण्डप्रपात नामक पश्चिम गुफाको खोलता है | १३२५- १३३०। गुफामेंसे गर्म हवा निकलनेके कारण वह पश्चिम म्लेच्छ राजाओंको वश करने के लिए चला जाता है। छह महीने में उन्हें वश करके जब वह अपने कटकमें लौट आता है तब तक उस गुफाकी वायु भी शुद्ध हो नुकती है। १३३११३३६ । अब सर्व सैन्यको साथ लेकर वह गुफा में प्रवेश करता है, और काकिणी रहतसे गुफा के अन्धकारको दूर करता है । और स्थपति रत्न गुफामें स्थित उन्मग्नजला नदीपर पुल बाँधता है। जिसके द्वारा सर्व सैन्य गुफासे पार हो जाती है । ९३३०-९२४९० यहाँपर सेनाको ठहराकर पहले सेनापति पश्चिम खण्डके म्लेच्छ राजाओंको जीतता है ।११४३-१२४८ तत्पश्चाद हिमवान पसपर स्थित हिमवानदेवसे युद्ध करता है। देवके द्वारा अतिघोर वृष्टि की जानेपर छत्ररत्न व चर्म रत्नसे सैन्यकी रक्षा करता हुआ उस देवको भी जीत लेता है । १३४- १३५०। अब वृषभगिरि पर्वतके निकट आता है । और दण्डरत्न द्वारा अन्य चक्रवर्तीका नाम मिटाकर वहाँ अपना नाम लिखता है । १३५१-१३५५ | यहाँसे पुनः पूर्व में गंगा नदी के तटपर आता है, जहाँ पूर्वद सेनापति दण्ड रत्न द्वारा समिक्षा गुफाके द्वारको खोल कर छह महीने में पूर्वखण्डके म्लेच्छ राजाओंको जीतता है। ।१३५६-१३५८ १६६-१८ विजयार्थी उतर के ६० विद्याधरोंको जीतने के पाद पूर्व गुफा द्वार को पार करता है । ९३२६-१२६५। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष ३. नव बलदेव निर्देश यहाँसे पूर्व खण्डके म्लेक्ष राजाओंको छह महीनेमें जीतकर पुनः कटकमें लौट आता है ।१३६६। इस प्रकार छह खण्डोंको जीतकर अपनी राजधानी में लौट आता है। (ह. पु./११/१-५६): (म.पु./२६३६ पर्व/पृ. १-२२०); (ज. प./9/११५-१५१)। और १००० चौपथ हैं ७१६। नगरों के बाह्य चौगिर्द ३६० बाग हैं। और नगरके मध्य जिनमन्दिर, राजमन्दिर व अन्य लोगोंके मन्दिर रत्नमयी शोभते हैं ।...७९७१ १३. राजधानीका स्वरूप ति. सा./७१६-७१७ रयणकवाडवरावर सहस्सदलदार हेमपायारा। बार सहस्सा वीही तत्थ चउप्पह सहस्सेक्क १७१६। णयराण बहि परिदो बणाणि तिसद ससठ्ठि पुरमझे। जिणभवणा परवइ जणगेहा सोहंति रयणमया ७१७१ राजधानी में स्थित नगरोंके ( दे. मनुष्य/ ४) रत्नमयी किवाड़ हैं। उनमें बड़े द्वारों की संख्या १००० है और छोटे ५०० द्वार हैं । सुवर्णमयी कोट है । नगरके मध्यमें १२००० वीथी १४. हुंडावसर्पिणीमें चक्रवर्तीके उत्पत्ति कालमें कुछ अपवाद ति. प./४/१६१६-१६१८...सुसमदुस्समकालस्स ठिदिम्मि थोअवसेसे १६१६। तकाले जायते...पढमचक्की य ।१६१७। चक्विस्सविजयभंगो । - हुण्डावसर्पिणी कालमें कुछ विशेषता है । वह यह कि इस कालमें चौथा काल शेष रहते ही प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हो जाता है। ( यद्यपि चक्रवर्तीकी विजय कभी भंग नहीं होती। परन्तु इस कालमें उसकी विजय भी भंग होती है।) ३. नव बलदेव निर्देश 1. पूर्व मव परिचय कम म.पु./सर्ग/श्लो. द्वितीय पूर्व भव १. प. पु./२०/२२६-२३५ २. म. पु./पूर्ववत नाम निर्देश १.ति. प./४/५१७,१४११ २. त्रि. सा./८२७ ३. प. पु./२०/२४२ टिप्पणी ४. है. पु./६०/२१० ५. म. पु./पूर्ववत सामान्य । विशेष । प्रथम पूर्व भव (स्वर्ग) १. प. पु./२०/ २३६-२३७ २. म.पु./पूर्ववत् नाम नगर | दीक्षा गुरु । स्वर्ग ५७/८६ विजय पुण्डरीकिणी अमृतसर अनुत्तर विमान १२ महाशुक्र अचल धर्म भद्र सहस्रार ma Gm-0. बल (विशाखभूति) मारुतवेग नन्दिमित्र महाबल पुरुषर्षभ सुदर्शन बसुन्धर १८/८०-८३ ५६/७१,१०६ ६०/५८-६३ ६९/७०,८७ ६५/१७४-१७६ ६६/१०६-१०७ सुप्रभ सुदर्शन नन्दीषण नन्दिमित्र पृथ्वीपुरी आनन्दपुर नन्दपुरी वीतशोका विजयपुर सुसीमा महासुबत सुबत ऋषभ সলাথাল। दमबर सुधर्म नन्दिमित्र नन्दिषेण २ सौधर्म राम पद्म अर्णव 5६७/१४८-१४६ (६८/७३१ श्रीचन्द्र १२ विजय सरिखसज्ञ क्षेमा २ मलय हस्तिनापुर २ सनत्कुमार महाशुक्र बल विद्रुम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष ३. नव बलदेव निर्देश २. वर्तमान मवके नगर च माता पिता नगर पिता माता | तीर्थ म. पु./सर्ग/श्लो. म. पु./पूर्ववद १. प. पु./२०/२३८-२३६ २. म. पु./पूर्ववत् १. प. पू./२०/ २४६-२४७ २. म. पु./पूर्ववत् सामान्य विशेष १७/८६ पोदनपुर द्वारावती म.पु. जयवती सुभद्रा सुवर्णकुम्भ सत्कीति ५८/८०-८३ ५६/७१,१०६ प्रजापति ब्रह्म भद्र सोमप्रभ सिंहसेन वरसेन म.पु. भद्राम्भोजा सुभद्रा सुवेषा सुदर्शना सुप्रभा सुधर्म ६९/७०,८७ ६/१७४,१७६ खगपुर चक्रपुर जयवन्ती विजया वैजयन्ती विजया मृगांक श्रुतिकीर्ति सुमित्र २. शिवघोष भवनश्रुत दे. तीर्थकर ६६/१०६-१०७ बनारस अग्निशिख वैजयन्ती अपराजिता सुबाला सुचत 5६७/१४८-१४६ 1६८/७३१ पीछे अयोध्या दशरथ (१६४) वसुदेव अपराजिता (कौशिल्या) रोहिणी सुसिद्धार्थ ३. वर्तमान मव परिचय शरीर उत्सेध आयु । निर्गमन क. म. पु./सर्ग/श्लो. ति. प./४/१३७१ ति. प./४/१८१८ त्रि. सा./८२६ ह. पु./६०/३१० म.पु./पूर्ववत १. ति.प./४/१४१६-१४२० २. त्रि.सा./८३१ ३. म. पु./पूर्ववत संस्थान वर्ण ति.प./४/१४३७ ति. सा./८३३ प. पु./२०/२४८ संहनन सामान्य धनु. प्रमाण विशेष धन सामान्य प्रमाणसं. विशेष ८४ लाख ५७/८६-६० ५८/८६ سہ سہ । ६०/६८-६६ ६१/७१ |६/१७७-१७८ ६६/१०८ ६७/१५४ ति.प.-स्वर्ण, म.पु.-सफेद समचतुरख वज्र ऋषभ नाराच ६७००० वर्ष ३७००० १७००० १२००० له سه س १० " ५६००० वर्ष ३२००० , १३००० १२००, | ब्रह्म स्वर्ग कृष्णके तीर्थ में मोक्ष प्राप्त करेंगे। , ४. बलदेवका वैभव म.पु./१८/६६७-६७४ सीताद्यष्टसहस्राणि रामस्य प्राणवल्लभाः । द्विगुणाटसहस्राणि देशास्तावम्महीभुजः ।६६७१ शून्यं पञ्चाष्टरन्धोक्तख्याता द्रोणमुखाः स्मृताः । पत्तनानि सहस्राणि पञ्चविंशतिसंख्यया ।६६८। कटाः खत्रयद्वये कप्रमिताः, प्रार्थितार्थदाः। मटम्बास्तत्प्रमाणाः स्युः सहस्राण्यष्ट खेटकाः १६६६। शून्यसप्तकवस्वग्धिमिता ग्रामा महाफलाः। अष्टाविंशमिता द्वीपाः समुद्रान्तर्वतिनः ।६७०। शून्यपञ्चक पक्षाब्धिमितास्तुङ्गमतङ्गजाः । रथवर्यास्तु तावन्तो नवकोट्यस्तुरङ्गमाः ।६७१। खसप्तकद्विर्युक्ता युद्धशौण्डाः पदातयः । देवाश्वाष्टसहस्राणि गणवद्धाभिमानकाः ।६७२। हलायुधं महारत्नमपराजितनामकम् । अमोघाख्याः शरास्तीक्ष्णा: संज्ञया कौमुदी गदा ६७३। रत्नावतंसिका माला रत्नान्येतानि सौरिणः । तानि यक्षसहस्रण रक्षितानि पृथक-पृथक् ।६७४। रामचन्द्र जी (बलदेव) के ८००० रानियाँ, १६००० देश, १६०.० आधीन राजा, ९८५० द्रोणमुख, २५००० पत्तन, १२००० कर्वट, १२००० मट ब, ८००० खेटक, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०४-३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष , ४८ करोड़ गाँव २८ द्वीप, ४२ लाख हाथी ४२ लाख रथ है करोड़ घोड़े, ४२ करोड़ पदाति, ८००० गणबद्ध देव थे । ६६६-६७२। रामचन्द्र जीके अपराजित नामका 'हलायुध' अमोघ नामके तीक्ष्ण 'बाण', कौमुदी नामकी 'गदा' और रत्नावतंसिका नामकी 'माला' ये चार महारत्न थे। इन सब रत्नोंकी एक-एक हज़ार यक्ष देव रक्षा करते थे ६०२-६०४१ (ति प./४/१४३३), (शि.सा./८२५): ( म. पु. / ५७/६०-६४ )। ४. नव नारायण निर्देश १. पूर्व मव परिचय क्र. क्र. १ १. नाम १. ति प / ४ / १४१२,५१८ २. त्रि. सा./८२५ ह २. १.५/२०/२२० मी ४. ह. पु. / ६०/२८८-२८ २. म. पू. // प पु. पोदनपुर द्वापुरी हस्तिनापुर 3 चक्रपुर कुशाग्रपुर मिथिला अयोध्या मथुरा नाम १५७/८३-८५ २५८/८४ ३ | ५६/८५-८६ ४ ६०/६६.२० ५६१/७१,८५ ६ ६५ / १७४-९७६ ७६६/१०६-२०० ८६७/१५० १७०/३० २. वर्तमान मवके नगर व माता पिता (प. पु. /२०/२२१-२२८) (म.पू./ पूर्व शीर्षनल) ५ पिता ६. माता द्विपृष्ठ स्वयंभू पुरुषोत्तम पुरुषसिंह पुरुषपंडरीक दत्त ( २, ५ पुरुषदत्त ) नारायण ( ३.५ लक्ष्मण ) कृष्ण ४. नगर म. पु. पोदनपुर द्वारावती " " खगपुर चक्रपुर बनारस " ( पीछे अयोध्या ) ६०/२६४ मथुरा नाम विश्वनन्दी पर्वत धनमित्र १. प. पु. /२०/२०६-२१७ २. म. पू. पूर्व नीचे वाले नाम प. पु. से दिये गये हैं । म. पु. के नामोंमें कुछ अन्तर है सागरदत्त बिकट १८ प्रिय मित्र मानसचेष्टित पुनर्वसु गंगदेव म. पु. प्रजापति ब्रह्म भद्र सोमप्रभ सिहसेन वरसेन अग्निशिख दशरथ ५. बलदेवों सम्बन्धी नियम ति.प./४/१४३६ अणिदाणगदा सव्वे बलदेवा केसवा णिक्षाणगदा उड्ढगामी राज्ये महदेवा मेसमा अधोगामी १४३६सम मलदेव निदानसे रहित होते हैं और सभी मटदेव उर्ध्वगामी अर्थात स्वर्ग म मोक्षको जाने वाले होते हैं ( ध. ६/१, ६-६,२४३ / ५००/६ ); ६. पु. ६०/२६३)। शलाका पुरुष / १/२ - ५ बलदेवोंका परस्पर मिलान नहीं होता, तथा एक क्षेत्र में एक समय में एक ही बलदेव होता है। २. द्वितीय पूर्व भव वसुदेव नगर हस्तिनापुर अयोध्या श्रावस्ती कौशाम्बी पोदनपुर शैलनगर सिंहपुर कौशाम्बी हस्तिनापुर प. पु. प्रजापति भवभूति रोवनाव सोन प्रख्यात शिवाकर समसूर्याग्निनाद दशरथ वसुदेव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश दीक्षा गुरु सम्भूत सुभद्र सुदर्शन श्रेयांस ਚੰਦਰਿ वसुभूति घोषसेन पराम्भोधि द्रुमसेन प. पु. व म. पु. मृगावती माधवी ( ऊषा ) पृथिवी सीता अम्बिका लक्ष्मी कोशिनी यी देवकी ४. नव नारायण निर्देश ३. प्रथम पूर्व भव १.१.५./२०/ २१८-२२० २. म पु . / पूर्ववत स्वर्ग महाशुक्र प्राणत लान्तव सहस्रार ब्रह्म ( २ माहेन्द्र ) प्रभवा मनोहरा सुनेत्रा माहेन्द्र ( २ सौधर्म ) सौधर्म सनत्कुमार ७. पटरानी प. पु. व म. पु. सुप्रभा रूपिणी महाशुक्र रुक्मिणी विमलन्दरी आनन्दवती प्रभावती तीर्थ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. नव नारायण निर्देश शलाका पुरुष ३. वर्तमान शरीर परिचय ६. शरीर १०. उत्सेध ११. आयु ति. प./४/१३७१ म. पु./पूर्व बद क. म. पु./सर्ग/श्लो.. १. ति.प./४/१४१८ २. त्रि. सा./८२६ ३. ह. पु./६०/३१०-३१२ ४. म.पु./पूर्ववत् ति. प./४/१४२१-१४२२ २. त्रि. सा./८३० ३. ह. पु./६०/५१७-१३३ म. पु./पूर्ववत् वर्ण संस्थान संहनन सामान्य प्रमाण सं. विशेष ५७/८६-१० ५८/८६ ८४ लाख वर्ष ७२ " " ५५ धनुष MAGroc0001 ६०/६८-६९ ६१/७१ ६५/१७७-१८८ ति.प.-स्वर्णवत्/म.पु.-नील व कृष्ण ति. प.-समचतुरस्र संस्थान ति.प.--वज्रऋषभ नाराच संहनन ६५००० ४ (५६०००) ३२००० १२००० १००० १२ ६७/१५१-१५४ ७१/१२३ ॥ ४. कुमार काल आदि परिचय १२. कुमार काल १३. मण्डलीक काल जथ काल १५. राज्य काल | म. पु./क. १. ति.प./४/१४२४-१४३३ २.ह.पु./६०/५१७-५३३ १६. निर्गमन ति.प./४/१४३८ / त्रि. सा./८३२ १. ति. प./४/१४२५-१४३६ २. ह. पु./६०/५१७-५३३ सर्ग/श्लो. सामान्य 1. विशेष सामान्य विशेष २५००० वर्ष २५००० वर्ष १००० वर्ष ८३७४००० सप्तम नरक १२५०० वर्ष ७०० १२५०० वर्ष ५७/८४-१० १८/८६ ५६/६०/६८-६६ ६१/७१ ६/१७७-१७८ ८३४६००० ७१४६१०० ५६७४६१० २६१७६२० ६६८३८० , mMG.mro ६६६५०५ १२५० २५० म.पु./की अपेक्षा सभी सप्तम नरकमें गये हैं। पंचम ॥ २०० १०० ६७/१५१-१५४ ७२/१२३ ३१७०० ११५६० १२० ११८६० तृतीय, ५. नारायणोंका वैभव म. पु./६८/६६६,६७५-६७७ पृथिवीसुन्दरीमुरख्याः केशवस्य मनोरमाः । द्विगुणाष्टसहस्राणि देव्यः सत्योऽभवत् श्रियः।६६६। चक्रं सुदर्शनारख्यानं कौमुदीत्युदिता गदा। असिः सौनन्दकोऽमोघमुखी शक्ति शरासनम् ।६७५॥ शाङ्ग पञ्चमुखः पाञ्चजन्यः शङ्खो महाध्वनिः । कौस्तुभं स्वप्रभाभारभासमानं महामणिः ।६७६। रत्नान्येतानि सप्तव केशवस्य पृथक-पृथक् । सदा यक्षसहस्रण रक्षितान्यमितद्य तेः १६७७) -नारायणके ( लक्ष्मणके ) पृथिवीसुन्दरीको आदि लेकर लक्ष्मीके समान मनोहर सोलह हज़ार पतिव्रता रानियाँ थी १६६६। इसी प्रकार सुदर्शन नामका चक्र, कौमुदी नामकी गदा, सौनन्द नामका खड्ग, अमोघमुखी शक्ति, शाङ्ग नामका धनुष, महाध्वनि करने वाला पाँच मुखका पाञ्चजन्य नामका शंख और अपनी कान्तिके भारसे शोभायमान कौस्तुभ नामका महामणि ये सात रत्न अपरिमित कान्तिको धारण करने वाले नारायण (लक्ष्मण ) के थे और सदा एक-एक हजार यक्ष देव उनकी पृथक्पृथक् रक्षा करते थे।६७५-६७७ (ति.प./४/१४३४); (त्रि सा./८२६); (म, पु./५७/६०-६४); (म.पु./७१/१२४-१२८)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष ५. नव प्रतिनारायण निर्देश ६. नारायण की दिग्विजय म. पु./६८/६४३-६५५ लंकाको जीतकर लक्ष्मणने कोटिशिला उठायो और वहाँ स्थित सुनन्द नामके देवको वश किया ।६४३-६४६। तत्पश्वात् गंगाके किनारे-किनारे जाकर गंगा द्वारके निकट सागर में स्थित मागधदेवको केवल बाणं फेंक कर वश किया। ६४७-६५० । तदनन्तर समुद्रके किनारे-किनारे जाकर जम्बूद्वीपके दक्षिण वैजयन्त द्वारके निकट समुद्र में स्थित 'बरतनु देव' को वश किया। ६५१-६५२ ।। तदनन्तर पश्चिमकी ओर प्रयाण करते हुए सिन्धु नदीके द्वारके निकटवर्ती समुद्र में स्थित प्रभास नामक देवको वश किया।६५३-६५४॥ तत्पश्चात् सिन्धु नदीके पश्चिम तटवर्ती म्लेच्छ राजाओंको जीता।६५॥ इसके पश्चात पूर्व दिशाकी ओर चले । मार्ग में विजयाकी दक्षिण श्रेणीके ५० विद्याधर राजाओंको वश किया। फिर गंगा तटके पूर्ववर्ती म्लेच्छ राजाओंको जीता।६५६-६५७। इस प्रकार उसने १६००० पट बन्ध राजाओंको तथा ११० विद्याधरोंको जीतकर तीन खण्डोंका आधिपत्य प्राप्त किया। यह दिगविजय ४२ वर्ष में पूरी हुई। ६३८ । म. पु/६/७२४-७२५ का भावार्थ-वह दक्षिण दिशाके अर्धभरत क्षेत्रके समस्त तीन खण्डोंके स्वामी थे। .. नारायण सम्बन्धी नियम ति. प./४/१४३६ अणिदाणगदा सम्बे बलदेवा केसवा जिंदाणगदा। उड्ढंगामी सत्वे बलदेवा केसवा अधोगामी ११४३६। सब नारायण ( केशव ) निदानसे सहित होते हैं और अधोगामी अर्थात नरकमें जाने वाले होते हैं ।१४३६। (ह. पु./६०/२६३) ध.६/१,१-६,२४३/५०१/१ तस्स मिच्छत्ताविणाभावि णिदाणपुरंगमत्तादो। वासुदेव ( नारायण ) की उत्पत्तिमें उससे पूर्व मिथ्यात्व के अविनाभावी निदानका होना अवश्यभावी है। ( प. पु./२०/२१४) प.पु./२०/२१४ संभवन्ति बलानुजाः १२१४। ये सभी नारायण बलभद्रके छोटे भाई होते हैं। त्रि. सा./८३३ ...किण्हे तित्थयरे सोवि सिझेदि ।८३३। -(अन्तिम नारायण) कृष्ण आगे सिद्ध होंगे। दे. शलाका पुरुष/१ दो नारायणोंका परस्पर में कभी मिलाप नहीं होता। एक क्षेत्रमें एक काल में एक ही प्रतिनारायण होता है। उनके शरीर मूंछ, दाढ़ीसे रहित तथा स्वर्ण वर्ण व उत्कृष्ण संहनन व संस्थानसे युक्त होते है । प. प्र./टी./१४२/४२/५ पूर्वभवे कोऽपि जीवो भेदाभेदरत्नत्रयाराधनं कृत्वा विशिष्टं पुण्यबन्धं च कृत्वा पश्चादज्ञानभावेन निदानबन्ध करोति, तदनन्तरं स्वर्ग गत्वा पुनर्मनुष्यो भूत्वा त्रिखण्डाधिपतिबर्वासुदेवो भवति । - अपने पूर्व भवमें कोई जीव भेदाभेद रत्नत्रयकी आराधना करके विशिष्ट पुण्यका बन्ध करता है। पश्चात् अज्ञान भावसे निदान बन्ध करता है। तदनन्तर स्वर्ग में जाकर पुनः मनुष्य होकर तीन खण्डका अधिपति वासुदेव होता है। ५. नव प्रतिनारायण निर्देश 1. नाम व पूर्वभव परिचय २. कई भव पहिले म. पु./पूर्ववत म. पु |सर्ग श्लो. १. नाम निर्देश १.ति. प./४/१४१३. ५१६ २. त्रि. सा./८२८ ३. प. पू./२०/२४४-२४५ ४. ह. पु./६०/२६१-२६२ ५. म. पु./पूर्ववत ३. वर्तमान भवके नगर प. पु./२०/२४२-२४३ म. पु./पूर्ववत विशेष सामान्य | सं. अश्वग्रीव नाम विशाखनन्दि । नगर राजगृह प.पु. अलका म. पु. अलका तारक ५७/७२ ७३ ८७-८८.६५ ५८/६३.६० ५६/८८६६ ६०/७०८३ ६१/७४,८३ ६५/१८०-१८६ ६६/१०६-१११,१२५ ६८/११-१३,७२८ विन्ध्यशक्ति चण्डशासन राजसिंह मलय श्रावस्ती मलय मेरक मधुकैटभ निशुम्भ ললি प्रहरण मधु मधुसूदन मधुक्रीड़ निशुम्भ प्रसाद बलीद्र दशानन विजयपुर नन्दनपुर पृथ्वीपुर हरिपुर सूर्यपुर सिंहपुर भोगवर्धन रनपुर वाराणसी हस्तिनापुर चक्रपुर मन्दरपुर मन्त्री नरदेव सारसमुच्चय लंका रावण जरासंघ लंका राजगृह - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष ६. नव नारद निर्देश २. वर्तमान भव परिचय ४. तीर्थ ८.निर्गमन काम म. पु./सर्गालो. ५. शरीर ६. उत्सेध ७. आयु १. ति. प./४/१४१८ १ति. प./४/१४२२ ति. प./४/१३७१ २. त्रि. सा./८२६ २ त्रि. सा./८३० ३. ह. पु./६०/३१०-३११ ३ ह. पु./६०/३२०-३२१ ४ म. पु./पूर्ववत वर्ण । संस्थान । संहनन । सामान्य विशेष | सामान्य । विशेष वर्ष ८४ लाख १ति, प./४/१४३८ .सा./८३२-८३३ |३ म. पु./पूर्ववन् पत्रि सप्तम षष्टम षष्ठ (३ सप्तम) षष्ठ 1५७/७२-७३,८७-८८ ५८/६३.६० ५६/८८.६६ ६०/७०,८३ ६१/७४,८३ ६/१८०.१८६ ६६/१०६-१११,१२५ ६८/११-१३,७२८ दे. तीर्थंकर ति.प.-स्वर्णवर्ण; म, पु.-x समचतुरस संस्थान वज्र ऋषभ नाराच संहनन पंचम ३२००० १२००० १४००० चतुर्थ ००० तृतीय ३. प्रति नारायणों सम्बन्धी नियम ति. प./४/१४२३ एदे णवपडिसत्तु णवाव हत्थेहि वासुदेवाणं । णियचक्कहि रणेसं समाहदा जति णिरयखिदि।१४२३। -यै नौ प्रति- शत्रु युद्ध में नौ वासुदेवोंके हाथोंसे निज चक्रों के द्वारा मृत्युको प्राप्त होकर नरक भूमिमें जाते हैं ।१४२३॥ दे. शलाका पुरुष/१/४.५ दो प्रतिनारायणोंका परस्परमें मिलान नहीं होता। एक क्षेत्र में एक कालमें एक ही प्रतिनारायण होता है। इनका शरीर दाढ़ी मूंछ रहित होता है। ६. नव नारद निर्देश .. वर्तमान नारदोंका परिचय ४ वर्तनाकाल १. नाम निर्देश १ ति. प./४/१४६१ २त्रि, सा./८३४ ३ है. पु./६०/५४८ २. उस्सेध ३. आयु ति. १/४ ह. पु./६० |१.ति. प./४/१४७१ /१४७१ ५४६ २.६. पू./६०/४६ १त्रि. सा./८३५ 38/03/28 १.निर्गमन १ति.प./४/१४७० २त्रि, सा./८३६ ३ ह. पु./६०/५५७ सामान्य विशेष m Gmxcc00 भीम महाभीम रुद्र महारुद्र काल महाकाल दुर्मुख नरकमुख अधोमुख उपदेश उपलब्ध नहीं है। तात्कालिक नारायणोंके तुल्य है उपदेश उपलब्ध नहीं है तात्कालिक नारायणोंके तुल्य है नारायणोंके समयमें ही होते हैं नारायणोंवत नरकगतिको प्राप्त होते हैं महाभव्य होनेके कारण परम्परा मुक्त होते हैं। चतुर्मुख नरवक्त्र उन्मुख जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष ८. चौबीस कामदेव निर्देश २. नारदों सम्बन्धी नियम २. कुमार काक आदि परिचय ५.कुमार काल | ६. संयमकाल ७.तप भंगकाल |८. निर्गमन १ ति. प./४/१४४६-१४६७ १ति. प./४/ । २ ह. १/६०/५३६-५४५ १४६८ क्रमा २त्रि, सा./८४० ३ ह. पु./६०/ ५४६-५४७ १ २७६६६६६ पूर्व २७६६६६८ पूर्व | २७६६६६६ पूर्व सप्तम नरक २ | २३६६६६६, | २३६६६६८ २ ३६६६६६ , ma ६६६६८ , ति.प./४/१४७० रुद्दाबइ अइरुद्दा पावणिहाणा हवं ति सठवे दे। कलह महाजुज्झपिया अधोगया बासुदेव व्य ।१४७०।-ये सब अतिरुद्र होते हुए दूसरोंको रुलाया करते हैं और पापके निधान होते हैं। सभी नारद कलह एवं महायुद्ध प्रिय होनेसे वासुदेव के समान अधोगति अर्थात् नरकको प्राप्त हुए ।१४७०) प. पु./११/११६-२६६ ब्रह्मरुचिस्तस्य कर्मी नाम कुटुम्बिनी (११७) प्रसूता दारकं शुभं ।१४। यौवनं च...१५३।.. प्राप्य क्षुल्लकचारित्रं जटामुकुटमुवहन ... ॥६५॥ कन्दर्पकोत्कृच्यमौखात्यन्तवत्सल... ।१५६। उवाचेति मरुत्वञ्च किं प्रारब्धमिदं नृप। हिंसन.. प्राणिवर्गस्य द्वार...१६११ नारदोऽपि ततः कश्चिन्मुष्टिमुद्गरताडनै :..।२५७१ श्रुत्वा रावणः कोपमागतः ...२६४॥ व्यमोचयन् दयायुक्ता नारद शत्रपजरात ।२६६ - ब्रह्मरुचि ब्राह्मणने तापसका वेश धारण करके इसको (नारदको ) उत्पन्न किया था। यौवन अवस्थामें ही क्षुल्लकके वत लिये ।१५३। कन्दर्प व कौत्कुच्य प्रेमी था ।१५६। मरुत्वान यज्ञमें शास्त्रार्थ करनेके कारण (१६०) पीटा गया।२५६॥ रावणने उस समय रक्षा की ।२६६। (ह. पु./४२/१४-२३) ( म. पू./६७/३५६-४५५) ।। त्रि. सा./८३५ कलहप्पिया कदाइंधम्मरदा वासुदेव समकाला। भब्बा णिरयगदि ते हिंसादोसण गच्छति ।३। -ये नारद कलह प्रिय हैं, परन्तु कदाचित् धर्म में भी रत होते हैं। वासुदेवों ( नारायणों) के समय में ही होते हैं। यद्यपि भव्य होनेके कारण परम्परासे मुक्तिको प्राप्त करते हैं, परन्तु हिंसादोषके कारण नरक गतिको जाते हैं ।८३५॥ (ह. पु./६०/५४९-५५०)। . ३३३३३, २८ लाख वर्ष ४. ३३३३३ । ३३३३४, || २८ लाख वर्ष ६ २० , २० , , ७ | १६६६६६६ वर्ष १६६६६६८ बर्ष २०७ १६६६६६६ वर्ष । ६८ वर्ष) । ६६६ वर्ष ८ | १३३३३३३ वर्ष | १३३३३३४ वर्ष १३३३३३३ वर्ष 1 ६६६६६६ . ६६६६६८, ६६६६६६, । चतुर्थ , (ह. पु. ६६६६- (ह. पु./६६६६६८ वर्ष) ६६ वर्ष) ३३३३३३ वर्ष ३३३३३४ वर्ष ३३३३३३ वर्ष ७वर्ष ३४ वर्ष २८ वर्ष तृतीय, (ह.पु. २८ वर्ष) | (ह. पु./३४ वर्ष) ७. एकादश रुद्र निर्देश १. नाम व शरीरादि परिचय क्रम १. नाम निर्देश १ति. प./४/१४३६-१४४१, ५२०-५२१ २ त्रि. सा./८३६ ३ ह. पु./६०/५३४-५३६ ३, उत्सेध ४. आयु ति. प./४/- १ ति. प./४/१४४४-१४४५ १४४६-१४४७ । २ त्रि. सा./८३८/२ त्रि.सा./८३६) ३६. पु./६०/- ३ह.पु./६०/ । ५३५-५३८५३६-५४५ ३. रुद्रो सम्बन्धी कुछ नियम ति, प./४/१४४०, १४४२ पीढो सच्चइपुत्तो अंगधरा तित्थकत्ति-समएमु ।...|१४४०। सम्वे दसमे पुग्वे रुदा भट्टा तवाउ विसयत्थं । सम्मत्तरयणरहिदा बुड्डा घोरेसु णिरएसु।१४४२। -ये ग्यारह रुद्र अंगधर होते हुए तीर्थकर्ताओंके समयोंमें हुए हैं।१४४०। सम रुद्र दशमें पूर्वका अध्ययन करते समय विषयों के निमित्त तपसे भ्रष्ट होकर सम्यक्त्व रूपी रत्नसे रहित होते हुए घोर नरकमें डूब गए ।१४४२॥ ह. पु.६०/५४७ ...) भूर्यसंयमभाराणां रुद्राणां जन्मभूमयः। उन रुद्रोंके जीवनमें असंयमका भार अधिक होता है, इसलिए नरकगामी होना पड़ता है। त्रि. सा./८४१ विज्जाणुवादपढणे दिट्ठफला णट्ठ संजमा भब्बा । कदिचि भवे सिमति हु गहिदुझिय सम्ममहियादो 1८४१ ते रुद्र विद्यानुवाद नामा पूर्व का पठन होते इह लोक सम्बन्धी फलके भोक्ता भए । बहुरि नष्ट भया है, अङ्गीकार किया हुआ संजम जिनका ऐसे है । बहुरि भव्य है, ते ग्रहण करके छोड़ा जो सम्यक्त्व ताके माहास्म्यसे केतेइक पर्याय भये सिद्ध पद पायेंगे। | त्रि, सा. १०.धनुष ८३ ला० पूर्व भीमावलि নিরন্তু दे, तीथंकर : 6m na 0000 वैश्वानर सुप्रतिष्ठ अचल | बल पुण्डरीक अजितंधर अजितनाभि | जितनाभि पीठ ८. चौबीस कामदेव निर्देश 1. चौबीस कामदेवोंका निर्देश मात्र ति.प/४/१४७२ कालेसु जिणवराणां चउवीसाणा हवं ति चउवीसा । ते पाहुबलिप्पमुहा कंदप्पा 'णिरुवमायारा ।१४७२। -चौबीस तीर्थकरों के समयों में अनुपम आकृतिके धारक वे बाहुमलि प्रमुख २४ कामदेव होते हैं। (२-१...) वर्ष सात्यकि पुत्र ७ हाथ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ९. सोलह कुलकर निर्देश १. वर्तमानकालिक कुलकरोंका परिचय क्रम म. पु. / ३ / श्लो. २२-२३२ চয চাষ 20 way ६ २ ७६-८६ ति, प ६३-७२ ४११ प्रतिभूति ४३० सन्मति ६०-१०१ ४ १०२ - १०६ ५१०७ - १११ ११२-११५ १९६-९९१ ८१२०-१२४ १२५-१२८ १० १२६-- १३३ ११ १३४ - १३८ १२ १२६-१४५ १३ १४६ - १५१ १४ १५२–१६३ १. नाम निर्देश १. ति प / ४ / गाथा २. त्रि. सा. / ७६२-७३३ १५ २३२ ३. प.पु./३/७५-८८ 8.8.9./0/992-8130 ५. म.पू./पूर्व ४३६ क्षेमंकर ४४४ क्षेमंधर ४४८ सीमंकर ४५३ | सीमंधर ४५० बिमल ४६० ! चक्षुष्मान् ४६२ यशस्वी ४६६ अभिचन्द्र चन्द्राभ ४७५ ४८२ मरुद व ४८६ प्रसेनजित् ४६४ नाभिराय ऋषभ भरत पतसंस्थान ह. पु. /७/१७३ ह. पु / ७ / १७३ ४. संहनन ह.पु./७/१२५-१७० अगला अगला कुलकर अपने से पूर्व पूर्व का पुत्र है । सभी सम चतुरस्र संस्थान से युक्त हैं । सभी वज्र ऋषभ नाराच संहननसे युक्त हैं । २. वर्ण १. ति. १/४/ गा. २. त्रि. सा. / ६. उत्सेध १. लि. ५/४/गा २. त्रि. सा / ७६५ इ.पू./७/१०४-१०० १४.५./६०/१०१ ति. प. X ४३० स्वर्ण ४४० ४४६ ४४६ ४५८ ४७१ ४७६ ४८४ 93 ४६० ४६५ 99 X स्वर्ण ४६६ स्वर्ण * X* ::::: 11 * * १७२ ४. म . पु / पूर्ववत् ति. प. ४२२ १८०० घ० ४३११३०० ४४० ४४५ ४४६ ४५४ ४६१ ४६६ ४७० ४७६ ४८३ ४६० ४६५ । । ति. प. तृ० काल में 2/४२१पये शेष में ४३० | १/८० पण्य ४३६ १/८०० 888 1/5000 ४४८९/८०,००० ७° ७२५." ४५३ १/८ लाख " ४५७९/८० ७०० ८०० ७७५ ६७५ ६५० :::: " 95 ६२५" ६००.. दू७५” ५५० " ७. जन्मान्तराल ५२५" १. वि.प./४/गा. २. प्रसा. / ०१० ४६० ४६५ ४६६ ४७५ ४८२ 1 देखो तीर्थकर देखो चक्रवर्ती "1 १/८ करोड़ १/८० "1 १/८०० १/८०००. १/८०००० ११ १/८ पल्य 1 1 " ," ४८६ १/८ ला " ४६४ | १/८० [११] " 11 ८. आयु १.ति.//ना १, जि. सा./०६६ ३. म.पू./ब ४.ति. १/४/५०२-२०३ ५. ह. पु. /७/१४८-१७० पल्य ति. प. दृष्टि सं० १ ४२२ १/१० ४३११/१०० ४४० | १/१००० ४४५ १/१०,००० ४४६ १/१ लाख ४५४ १/१० "1 नोट-१ पद्म पुराण में विमलवाहन नाम नहीं दिया है और यशस्वी आगे 'वि' नाम देकर कमी पूरी कर दी है। २. म. पु. की अपेक्षा ऋषभ व भरतकी गणना भी कुलकरोंमें करके उनका प्रमाण १६ दर्शाया गया है । * त्रि.सा, की अपेक्षा नं. ८ व १ का वर्ण श्याम तथा सं. ११ व १३ का धवल है। ह.पु, की अपेक्षा ८, ९, १३ का श्याम तथा सं. ११ का धवल है । 11 १५ ४५२ १/१ करोड़... "1 "1 ४६९१२/१०करोड़ ४६६ १/१०० ४७०१ / १००० ४७६ ११०,००० क ४८३ | १/१ ला क ४०१/१० ११ ११ ११ ४६१ १/१०० किचिडून १ प "3 ++ प्रमाण सं० दृष्टि सं० २ ति. प. ३-५ १/१० पल्य अमम अटट त्रुटित ::::: *:::::: कमल नलिन पद्म पद्मांग कुमुद कुमुर्दाग ६. पटरानी १.वि.१/४/गा. नमुत नमुतांग पर्व ४२२ स्वयंप्रभा ४३१ यशस्वती ४४० सुनन्दा ४४६ | विमला ४५० मनोहरी ४५४ यशोधरा सुमति ४६२ धारिणी ४६७ कान्त माला ४७१ श्रीमती ४७७ प्रभावती ४८४ सत्या ४६१ अमितमति मरुदेवी १ करोड पूर्व ४६५ शलाका पुरुष U ९. सोलह कुलकर निर्देश Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष २४ ९. सोलह कुलकर निर्देश १०. नाम११.दण्ड विधान । १२. तात्कालिक परिस्थिति १३. उपदेश प्रमाण देखो पीछे 'lit/8/'h PL म.पू./३/श्लो. १.ति.प./४/४५२-४७४ २, त्रि. सा./४६८ ३.ह.पु./७/१४१-१७६ ४. म. पु./पूर्ववत १. ति.प./पूर्ववत् २. त्रि. सा./988-८०२ ३. प.पु./३/७५-८८ ४. ह.पू./७/१२५-१७० ५. म. पु./पूर्ववत १.ति. प./पूर्ववत् २. त्रि. सा./988-८०२ ३. प. पु./३/७५-८८ ४.ह.पु./७/१२५-१७० ५.म.पु./पूर्ववत | ति.प./४५२ १/४२३-४२८६३-७५ प्रतिश्रुति २४३२-४३८ | ७६-८४ सन्मति ३ | ४४१-४४३ १०-१०१ क्षेमंकर | चन्द्र सूर्यके दर्शनसे प्रजा भयभीत थी| तेजांग जातिके कल्पवृक्षोंकी कमीके कारण अब दीखने लगे हैं। यह पहले भी थे पर दीखते न थे। इस प्रकार उनका परिचय देकर भय दूर करना। तेजांग जातिके कल्प वृक्षोंका लोप। अन्धकार व ताराओंका परिचय अन्धकार व तारागणका दर्शन । देकर भय दूर करना। व्याघ्रादि जन्तुओं में क्रूरताके दर्शन। क्रूर जन्तुओंसे बचकर रहना तथा गाय आदि जन्तुओंको पालनेकी शिक्षा। व्याघ्रादि द्वारा मनुष्योंका भक्षण । अपनी रक्षार्थ दण्ड आदिका प्रयोग करनेकी शिक्षा। कल्प वृक्षोंकी कमीके कारण उनके कल्प वृक्षोंकी सीमाओंका विभाजन ।। स्वामित्व पर परस्पर में झगड़ा। ४४४६-४४७१०२-१०६ । क्षेमन्धर ५ ४५१-४५३ | १०७-१११ । सीमंकर ति.प./४७४ हा, मा, ४५५-४५६ | ११२-११५ | सीमंधर | ४५६ ११६-११६ विमलवाहन ८४६२-४६३ / १२०-१२४ | चक्षुष्मात् हा- हाय; मा= मतकर; धिक्-चिक्कार वृक्षों की अत्यन्त हानिके कारण वृक्षों को चिह्नित करके उनके कलहमें वृद्धि। स्वामित्वका विभाजन । गमनागमनमें बाधाका अनुभव। अश्वारोहण व गजारोहणकी शिक्षा तथा वाहनोका प्रयोग। अबसे पहले अपनी सन्तानका सन्तानका परिचय दे कर भय दूर | मुख देखनेसे पहले ही माता-पिता | करना। मर जाते थे। पर अब सन्तानका मुख देखनेके पश्चात् मरने लगे। बालकोंका नाम रखने तक जीने लगे। बालकोंका नामकरण करनेको शिक्षा बालकोंका बोलना व खेलना देखने | बालकोंको बोलना ब खेलना तक जीने लगे। सिखानेकी शिक्षा। ६४६७-४६८ | १२५-१२८ | १० ४७२-४७३ | १२६-१३३ यशस्वी अभिचन्द्र त्रि. सा. हा, मा. ११ ४७८-४८१ १३४-१३८ । चन्द्राभ धिक | १२४८४-४८६ १३६-१४५ | मरुह व १४६-१५१ । प्रसेनजित १५२-१६३ नाभिराय १४ ४६६-५०० पुत्र-कलत्रके साथ लम्बे काल तक | सूर्य की किरणोंसे शीत निवारणकी जीवित रहने लगे। शीत वायु चलने | शिक्षा। लगी। मेघ, वर्षा, बिजली, नदी व पर्वत | नौका व छातोंकी प्रयोग विधि आदिके दर्शन। तथा पर्वतपर सीढ़ियाँ बनानेकी शिक्षा। बालकोंके साथ जरायुकी उत्पत्ति। | जरायु दूर करनेके उपायकी शिक्षा। १. नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने | १, नाभिनाल काटनेके उपायकी लगा। शिक्षा। २. कल्पद्रुमोंका अत्यन्त अभाव। | २. औषधियों व धान्य आदिको औषधि, धान्य व फलों आदि की | पहचान व विवेक कराया तथा उत्पत्ति। उनका व दूध आदिका प्रयोग करनेकी शिक्षा दी। स्व जात धान्यादिमें हानि । कृषि आदि षट् विद्याओंकी शिक्षा। मनुष्यों में अविवेककी उत्पत्ति। वर्ण व्यवस्थाकी स्थापना। ऋषभदेव भरत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष १०. भावि शलाका पुरुष निर्देश २. कुलकरके अपर नाम व उनका सार्थक्य ति. प./४/५०७-५०१ णियजोगसुदं पढिदा वीणे आउम्हि ओहिणाण जुदा। उपज्जिदूण भोगे केई णरा ओहिणाणेणं ।५०७। जादिभरणेण केई भोगमणुस्साण जीवणोवायं । भासंति जेण तेणं मणुणो भणिदा मुणिदेहिं ।५०८) कुनधारणादु सव्वे कुलधरणामेण भुवणविवादा। कुलकरणम्मि य कुसला कुल करणामेण सुपसिद्धा ।५०६। - अपने योग्य श्रुतको पढकर इन राजकुमारों में से कितने ही आयुके क्षीण होनेपर अवधिज्ञानके साथ भोगभूमिमें मनुष्य उत्पन्न होकर अवधिज्ञानसे और कितने ही जाति स्मरणसे भोगभूमिज मनुष्योंको जीवनके उपाय बतलाते हैं, इसलिए मुनीन्द्रोंके द्वारा ये मनु कहे गये हैं ।५०७५०८। ये सब कुलोको धारण करनेसे कुलधर और कुलों के करने में कुशल होनेसे 'कुलकर' नामसे भी लोकमे प्रसिद्ध हैं ।५०६॥ (म. पु./ ३/२१०-२११)। ३. पूर्वमव सम्बन्धी नियम ति. प./४/५०४ एदे च उदस मणुओं पदिसुदिपहुदी हु णा हिरायंता । पुत्र भवम्मि विदेहे राजकुमारा महाकुले जादा ।५०४ - प्रतिश्रुतिको आदि लेकर नाभिराय पर्यन्त ये चौदह मनु पूर्व भवमें विदेह क्षेत्रके भीतर महाकुल में राजकुमार थे।५०४। ४. पूर्वभवमें संयम तप आदि सम्बन्धी नियम ति. प/४/५०५-५०६ कुसला दाणादीसं संजमतवणाणवंतपत्ताणं । णियजोग अणुट्ठाणा महवअज्जवगुणेहिं संजुत्ता ।०५। मिच्छत्तभावणाए भोगाउंबंधिऊण ते सव्वे । पच्छा खाइयसम्म गेण्हं ति जिणिदचलणमूलम्हि ।५०६ = वे सत्र संयम तप और ज्ञानसे युक्त पात्रों के लिए दानादिकके देने में कुशल, अपने योग्य अनुष्ठानसे युक्त, और मार्दव, आर्जव गुणोंसे सहित होते हुए पूर्व में मिथ्यात्व भावनासे भोगभूमिकी आयुको बाँधकर पश्चात जिनेन्द्र भगवान के चरणोंके समीप क्षायिक सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं 1५०५-५०६। (त्रि. सा./६४) । ५. उत्पति व संख्या आदि सम्बन्धी नियम ति. प./४/१५६६ वाससहस्से सेसे उत्पत्ती कुलकराण भरहम्मि । अथ चोहसाण ताण कमेण णामाणि बोच्छामि।-इस कालमें (पंचमकाल प्रारम्भ होने में ) १००० वर्षोंके शेष रहनेपर भरत क्षेत्रमें १४ कुलकरोकी उत्पत्ति होने लगती है। (कुछ कम एक पक्यके वें भाग मात्र तृतीयकालके शेष रहनेपर प्रथम कुलकर उत्पन्न हुआ।-दे० शलाका पुरुष/१।१)। म. पू./३/२३२ तस्मान्नाभिराजश्चतुर्दशः। वृषभो भरतेशश्च तीर्थ चक्र भृतो मनू ।२३२१-चौदहवें कुलकर नाभिराय थे। इनके सिवाय भगवान् ऋषभदेव तीर्थकर भी थे और मन भी, तथा भरत चक्रवर्ती भी थे और मनु भी थे। त्रि. सा./७६४...खझ्यसं दिछी । इह खत्तियकुलजादा केइज्जाइभरा ओही ।७६४।क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कुलकर उपजते है। और भी क्षत्रिय कुल में जन्मते हैं। (यहाँ क्षत्रिय कुलका भावी में वर्तमान का उपचार किया है।)। ते कुलकर केइ तौ जाति स्मरण संयुक्त है, और कोई अवधिज्ञान संयुक्त है। १०. भावि शलाका पुरुष निर्देश १. कुलकर चक्रवर्ती व बलदेव १. कुलकर २. चक्रवर्ती ३. बलदेव १. ति. प./४/१५७०-१५७१ २. ह. पु./६०/५५५-१९७ काम- ३. म. पु./७६/४६३-४६६. १. ति. प./४/१५८७-१५८८ २.त्रि. सा./८७७-८७८ ३.ह.पु./६०/५६३-५६५ 808-228/26/- १.ति. प./४/१५-१-१५६० २. त्रि. सा./८७८-८७६ ३. ह. पु./६०/५६८-५६६ ४. म. पु./७६/४८५-४८६ प्रमाण | ৰিহী प्रमण विशेष सामान्य सं० सामान्य 8 कनक कनकप्रभ कनकराज भरत दीर्घदन्त मुक्तदन्त (३ जन्मदत्त) गूढदन्त चन्द्र महाचन्द्र चन्द्रधर ४ चक्रधर कनकध्वज वरचन्द्र २,३,४ | हरिचन्द्र कनकपुख नलिन ., ध्वज पुख २,३ कनकपंगव ।। श्रीषेण सिंहचन्द्र श्रीभूति हरिचन्द्र २४ वरचन्द्र श्रीकान्त श्रीचन्द्र पूर्णचन्द्र पद्म पूर्णचन्द्र . शुभचन्द्व महापद्म सुचन्द्र २,४ । श्रीचन्द्र नलिन पंगव चित्रवाहन बालचन्द्र पद्म बिमल वाहन (४ विचित्र वाहन) : अरिष्टसेन नोट-त्रि, सा. व. ह. पु. में नामोंके क्रममें अन्तर है। ह. पु. में ५ वाँ वरवन्द्र २३ | पद्मपुंगव नाम नहीं दिया है । अन्तमें बालचन्द्र नाम देकर कमी पूरी कर दी है। ___ महापद्म जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पद्मप्रभ पद्मराज पद्मध्वज पद्मपुख भा०४-४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष ३ २ m.cmxc द्विपृष्ठ झालाका निशान, शल्य २. मारायणादि परिचय ..शल्यके भेदोंके लक्षण भ. आ./वि./२/०८/२४ मिथ्यादर्शनमायानिदानशख्यानो कारणं कर्म नारायण प्रति नारायण | रुद्र द्रव्यशल्यं । - मिथ्यादर्शन, माया, 'निदान ऐसे तीन शक्योंकी १ति.प./४/१५६०-१९६१ ति.प./४/१५६२ जिनसे उत्पत्ति होती है ऐसे कारणभूत कर्मको द्रव्यशल्य कहते हैं। ३त्रि.सा/७g.00 | २ त्रि.सा./८८० ह. पु/६०/- इनके उदयसे जीवके माया, मिथ्या व निदान रूप परिणाम होते हैं ३१. पु./६०/५६६-५६७ ३१. पु./६०/-५७१-५७२ बे भावशल्य है। ४ म.पु७६/४७-४८८ ५६१-५७० भ. आ /वि./१३६/७५५/१३ दर्शनस्य शक्यं शङ्कादि। ज्ञानस्य शक्य अकाले पठनं अविनयादिकं च । चारित्रस्य शल्यं समिति-गुप्स्योरप्रमाण सामान्य नादरः। योगस्य.. असंयमपरिणमनं । तपसश्चारित्र अन्तर्भाव विवक्षया तिबिहमित्युक्तम् ।...सचित्त द्रव्यशक्य दासादि। अचित्त नन्दी श्रीकण्ठ प्रमद द्रव्यशम्यं सुवर्णादि ।...विमिश्र द्रव्यशक्यं ग्रामादि। -शंका कक्षा नन्दिमित्र हरिकण्ठ संमद आदि सम्यग्दर्शनके शल्य है । अकाल में पढ़ना और अविनयादिक नन्दिवेण नन्दिन नीलकण्ठ करना ज्ञानके शल्य है। समिति और गुप्तियों में अनादर रहना नन्दिभूति |३ नन्दि भूतिक अश्व कण्ठ प्रकाम चारित्रशल्य है। असंयममें प्रवृत्ति होना योगशल्य है । तपश्चरणका अचल सुकण्ठ कामद चारित्र में अन्तर्भाव होनेसे भावशाक्यके तीन भेद कहे है। दासादिक | महाबल शिरिखकण्ठ भव सचित्त द्रव्य शल्य है, सुवर्ण वगैरह पदार्थ अचित शल्य हैं और अतिबल अश्वग्रीव ग्रामादिक मिश्र शक्य है। त्रिपृष्ठ हयग्रीव मनोभव द्र. सं./टी./१२/१८३/१० बहिरङ्गमकवेषेण यक्लोकरञ्जन करोति मयूरग्रीव मार तन्मायाशल्यं भण्यते । निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैवोपोदेय इति काम रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षण मिध्याशल्यं भण्यते। ...दृष्टश्रुतानुभूतमोट-है. पु. में इसके क्रममें भागेषु यन्नियतम् निरन्तरम् चित्तम् ददाति तन्निदानशक्यमभि धीयते। यह जीव वाहरमें बगुले जैसे बेषको धारणकर, लोकको कुछ अन्तर है। प्रसन्न करता है, वह माया शल्य कहलाती है। अपना निरंजन दोष रहित परमात्मा ही उपादेय है' ऐसो रुचि रूप सम्यक्त्वसे विलक्षण मिध्याशक्य कहलाती है।...देखे, सुने और अनुभवमें आये हुए शलाका निष्ठापन-Log illing (ज.प्र./प्र.१०८)। भोगों में जो निरन्तर चित्तको देता है, वह निदान-शक्य है। और भो-दे० वह वह नाम । शल्य-१. शल्य सामान्यका लक्षण स. सि./७/१८/३५६।६ शृणाति हिनस्तीति शन्यम् । शरीरानुप्रवेशि ४. बाहुबलिजीको भी शल्य थी काण्डारि प्रहरणं शल्यमिव शल्यं यथा तत् प्राणिनो माधाकर तथा भा. पा./मू./४४ देहादिचत्त संगो माणकसाएण कलुसिओ धीर । अत्ताशारीरमानसनाधाहेतुरवात्कर्मोदय विकारः शल्यमित्युपचर्यते । वणेण जादो बाहूबली कित्तियं काल ४४॥ माहूबलीजोने देहादिक--'शृणाति हिनस्ति इति शन्यम्' यह शव्य शब्द की व्युत्पत्ति है। से समस्त परिग्रह छोड़ दिया और निर्ग्रन्थ पद धारण किया। तौ शक्यका अर्थ है पीड़ा देनेवाली वस्तु । जन शरीरमें काँटा आदि चुभ भी मान कषाय रूप परिणामके कारण कितने काल आतापन योगसे जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीड़ा रहनेपर भी सिद्धि नहीं पायी।४४। कर भात्र वह शल्य शन्दसे लिया गया है। जिस प्रकार काँटा आदि आ. अनु./२१७ चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहसंस्थं यत्प्रावजन्ननु तदैव शक्य प्राणियों को माधाकर होती है उसी प्रकार शरीर और मन स तेन मुञ्चेत् । क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय मानो.मनागपि सम्बन्धी बाधाका कारण होनेसे कर्मोदय जनित विकारमें भो। हति महतीं करोति ।२११ -अपनी दाहिनौ भुजापर स्थित चक्रको शक्यका उपचार कर लेते हैं। अर्थात उसे भी शल्य कहते है। छोड़कर जिस समय माहबलीने दीक्षा धारण की थी उस समय उन्हें (रा. वा/११८/१-२/५४५/२६) । तपके द्वारा मुक्त हो जाना चाहिए था। परन्तु वे चिरकाल उस क्लेशको प्राप्त हुए। सो ठीक है थोड़ा सा भी मान बड़ी भारी हानि करता है। २. शल्य के भेद म. पू./१६/६ सुनन्दायां महाबाहुः अहमिन्द्रो दिवोऽग्रतः। च्युत्वा भ,आ 14./५३८-५३६/७५४-७५५ मिच्यादसणसम्लं मायासक्लं णिदाण- बाहुबली त्यासीव कुमारोऽमरसंनिभः ।६। सरलं च । अहना सल्लं दुनिह दव्वे भावे य बोधव ५३तिविहं म. पु/६/श्लोक - श्रुतज्ञानेन विश्वासपूर्वयित्त्वादिविस्तरः ।१४६। तु भावसग्लं सणणाणे चरित्तजोगे य । सच्चित्ते य मिस्सगे वा वि परमाय धिमुल्लधचस सर्वावधिमासदह । मनःपर्ययोधे च संप्रापद् दम्मम्मि ५६६। -१. मिथ्यादर्शनशक्य, मायाशस्य और निदान- विपुला मतिम् ।१४७. संक्लिष्टोभरताधीशः सोऽस्मत इति यत्किल । शम्य ऐसे शब्यके तीन दोष है। (भ. आ./म./१२१४/१२१३); (स. हृद्यस्य हार्द तेनासीत तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् १८६। -आनन्द पुरीसि./७/१०/३५६/८); (रा. वा./७/१०/३/१४५/३३); (भ. आ./वि /- हितका जीव जो पहले महाबाहु या सर्वार्थ सिद्धिसे च्युत होकर २१/०८/२४); (द्र. सं/टी./४२/१३/१०)। २. अथवा द्रव्य शल्य और सुनन्दाके वाहुबली हुआ 1६। (अतः नियमसे सम्यग्दृष्टि थे) बाहुबलीभावशक्य ऐसे शब्दके दो भेद जानने चाहिए ।५३८। (भ. आ./वि./ की दीक्षाके पश्चात् श्रुतज्ञान बढ़नेसे समस्त अंगों तथा पूौको २५/०८/२४)। ३. भाव शल्यके तीन भेद है-दर्शन, ज्ञान, चारित्र जाननेकी शक्ति बढ़ गयी थी।१४६। वे अवधिज्ञानमें परमावधिको और योग । द्रव्य शल्यके तीन भेद है-सचित्तशल्य अचितशल्य उल्लंघन कर सविधिको प्राप्त हुए थे तथा मनःप य ज्ञानमें विपुलऔर मिश्रशल्य ५३६ मति मन पर्यय ज्ञानको प्राप्त हुए थे।१४७४ (अत: सम्यग्दर्शनमे कभी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शामिला यव मध्य शल्य बालेशको प्राप्त हया यह महाना यक्त नहीं)। वह भरतेश्वर मुझमे संक्लेशको प्राप्त हवा यह विचार बाहबलीके हृदय में विद्यमान रहता था, इसलिए केवलज्ञानने भरतकी पूजाको अपेक्षा की थी।१८६। *अन्य सम्बन्धित विषय १. सशल्य मरण -दे. मरण/१॥ -दे० वती। २. व्रती सशल्य नहीं होता। शल्य-पा.पु./सर्ग श्लोक-यह एक विद्याधर था । कौरवोंकी तरफसे पाण्डवोंके साथ लड़ाई को (१६/११६) उस युद्ध में युधिष्ठिरके हाथों मारा गया (२०/२३६)। शशिप्रभ-विजयाकी उप्सर श्रेणीका एक नगर।-दे, विद्याधर । शान्तनु-१.कुरुवंशकी वंशावली सं०१ के अनुसार शान्तिषेणका पत्र तथा धृत व्यासका पिता था। महाभारत काल से बहुत पहले हुआ था। -दे, इतिहास//५। २. कुरुवंशको वंशावली स०२ के अनुसार पराशर का पिता था, तथा महाभारतके समय हुआ।-दे. इतिहास /0/५। ३. यादव वंशकी वंशावली के अनुसार मथुराके राजा बीरका पुत्र तथा महासेनादि छः पुत्रों का पिता था। -दे. इतिहास/७/१०। शांतनु-यादव वंशको वंशावली के अनुसार कृष्णके भाई बलदेवका १४ वा पुत्र -दे इतिहास१०१० । शांतभद्र-ई. स. ७०० में न्याय विन्दु के टीकाकार एक बौद्ध मतानुयायी था। (सि. वि./३३ पं. महेन्द्र )। शांतरिक्ष-एक पौद्व मतानुयायी था। ई. स. ७४३ में तिब्बतकी यात्रा की थी। कृति-तत्त्वसंग्रह, वादन्यायकी टोका। समयई. ७०५-७६२ (सि. वि./३९ पं. महेन्द्र ) । शांति-दे. सामायिक/१/१ ।। शांति कीति-१. नन्दिसंघ भलाकारगण, मेषचन्द्र के शिष्य मेरुकीति के गुरु । समय-शक. ३२७-१४२ (ई. ७०५-७२०)। दे. इतिहास/७/२। २. शान्तिनाथ पुराण के रचयिता एक कम्न कषि । समय-ई. १९१६ । (ती.//३११)। शांति-चक्र-पूजा-दे. पूजापाठ। शांति चक्र यंत्रोद्धार-दे.यंत्र । शांतिनाथः-(म.पू./स/श्लोक-पूर्व भव सं. ११ में मगधदेशका राजा श्रीषेप था ( ६२/१४०) १० में में भोगभूमिमें आर्य हुआ (६२/ ३५७) 8वें में सौधर्म स्वर्गमें श्रीप्रभ नामक देव (६२/३७१) ८ में अर्ककोतिका पुत्र अमिततेज (६२/१५२) ७३ में तेरहवें स्वर्ग में रविचूल नामक देर हुआ (६२/४१०) छठे में राजपुत्र अपराजित हुआ। (६२/४१२.४१३) पाँचवें में अच्युतेन्द्र (६३/२६-२७) चौथे में पूर्व विदेह में बज्रायुध नामक राजपुत्र (६३/३७-३६)तोसरे में अधो प्रवेयकमें अहमिन्द्र, (६३/१४०-१४१) दूसरे में राजपुत्र मेघरथ (६/ १४२-१४३) पूर्वभव में सर्वार्थ सिद्धि में अहमिन्द्र था। वर्तमान भवमें १६वें तीर्थकर हुए हैं। (६३/५०४) युगपत सर्वभव (६/५०४) वर्तमान भव सम्बन्धी विशेष परिचय-दे. तीर्थर/ शांतिनाथ पुराण-१. कवि असग बारा (ई १८८) द्वारा रचित हिन्दी महाकाव्य । (at./४/१३) । २. आ. श्रीधर (ई. १९३२) कृत अपभ्रंश काब्य । (ती.१८) ३. सकाकीति (ई. १४०4.१४४२) कृत ३४७५ संस्कृत पच प्रमाण ग्रन्थ । (ती./३/३३०)। ३. शुभकीर्ति (.श. १५ पूर्वाधीकृत अपभ्रंश काव्य । (ती./३४१३)। शांति विधान यंत्र-दे. यन्त्र । iffarशांतिसागर-आप दक्षिण देशके भोज ग्राम (बेलगाम) के रहने वाले थे। क्षत्रिय बंशसे सम्बन्ध रखते थे। आपके पिताका नाम भीमगौड़ा और माताका नाम सत्यवती था। आपका जन्म जापाड़ कृ.६ वि.सं. १९२६ को हुआ था। ६ वर्ष की अवस्थामें आपका विवाह हो गया था परन्तु छह माह पश्चात् हो आपकी पत्नीका देहान्त हो गया। पुनः विवाह न कराया। सं. ११७२ में आपने देवेन्द्रकीर्ति मुनिसे क्षुल्लक दाक्षा धारण कर ली। और सं. १६७६ में उन्हींसे मुनि दीक्षा ले ली। उस समय आपकी आयु ४७ वर्षकी थी। आपके चारित्रसे प्रभावित होकर आपकी शिष्य मण्डली पढ़ने लगी। यहाँ तक कि जब आप नि. १९८४ में ससंघ सम्मेद शिखर पधारे तो आपके संघमें सात मुनि और मुग्नकब ब्रह्मचारी आदि थे। वर्तमान युगमें आपके समान कठोर तपश्चरण करनेवाला अन्य कोई हो सकेगा यह बात हदय स्वीकार नहीं करता। आप बास्तबमें ही चारित्र चक्रवर्ती थे। इस कलिकाल में भी आपने आदर्श समाधिमरण किया है यह बड़ा आश्चर्य है। भगवतो आराधनामें उपदिष्ट मार्गके अनुसार आपके १२ वर्षकी समाधि धारण की। सं. २००० (ई. १६४३ ) में आपने भक्त प्रत्याख्यान ब्रत धारण कर लिया और १४ अगस्त सन् १९५५ में आकर कुन्युल गिरि क्षेत्रपर इंगिनी व्रत धारण कर लिया।-१८ सितम्बर सन १६५५ रविवार प्रातः ७ मजकर १० मिनटपर आप इस नश्वर देहको त्यागकर स्वर्ग सिधार गये। २४ अगस्त १९४५ को आप अपने सुयोग्य शिष्य वीर सागर जी को आचार्य पद देकर स्वयं इस भारसे मुक्त हो गये थे। इस प्रकार आपका समय-वि. १९७६-२०१२) ई. १६१६-१६५५); (चा. सा./प्र./ व. श्रीलाल)। शांतिसेन-१. प्रन्नाट संघकी गवली के अनुसार आप श्री जयसेनके गुरु थे। समय-वि,शGि-(ती./२/४५९)।-दे. इतिहास/७/८ २. लाड़ बागड़ संघकी गुवक्लिीके अनुसार आप धर्मसेनके शिष्य तथा गोपसेनके गुरु थे। समय-वि. ६० (ई०६२३)-दे. इतिहास/७/१०। शात्यष्टक-आ. पूज्यपाद (ई. श.५) द्वारा रचित संस्कृतके ८ श्लोकोंमें निबद्ध शान्ति पाठ। शांत्याचार्य-१. सौराष्ट्र देशके वल्लभीपुर नगरमें इनके शिष्य जिनचन्द्रने इन्हें मारकर श्वेताम्बर संघकी स्थापना की। समयवि. १३६-१५६ (ई. ७-88) विशेष-दे, श्वेताम्बर । २.ई.६६३१११८ में जैन तर्क वार्तिक वृत्तिके क्र्ता जैनाचार्य थे। (सि.वि. प्र.७६५ महेन्द्र)। शाकटायन न्यास-आ, प्रभाचन्द्र (ई. १५०-१०२०) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्याय विषयक ग्रन्धा। (दे. प्रभाचन्द्र) शाकल्य-एक अज्ञानवादी-दे, अज्ञानवाद । शाखा-School. (घ./५/प्र. २८)। शातंकर-आरण स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/५/३ । शापरा . बा./४/२०/२/२३६/१३ शापोऽनिष्टापादनम् ।- अनिष्ट मात कहना शाप है। शामकुंड-आर तुम्बुल्लूर आचार्य से कुछ ही पहले हुए है। आपने शामकं-थानमस षट् खण्डके प्रथम पाँच खण्डोंपर 'पद्धतिनामकटीका लिखी है। समय-ई. श. ३ का अपराध । (प. वं. १/प्र. H. L.Jain), , शामिला यव मध्य-वे यब । शांति यंत्र-दे. मन्त्र। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिर.कंप शालगुहा-भरत क्षेत्रका एक नगर-दे. मनुष्य/४।। शालिभद्र-भगवान् वीरके तीर्थ में अनुत्तरोपपादक हुए हैं।-दे. अनुत्तरोपपादक। शालिवाहन-१. भृत्य वंशके गोतमी पुत्र सातकर्णीका ही दूसरा प्रसिद्ध नाम शालिवाहन था। इसने वी. नि. ६०५ (ई.८०) मे शक वंशके अन्तिम राजा नरवाहन को परास्त करने के उपलक्ष्यमें शक संवत् चलाया था। यह भृत्य बंशका दूसरा राजा था। मगध देश की राज्य वंशावलीके अनुसार इसका समय-वी. नि. ६००-६४६ (ई. ७४-१२०) विशेष-दे, इतिहास/३/४) । २. शालिवाहन विक्रम संवत् शक संवत्को ही कहते हैं-दे. इतिहास/२/३ तथा कोश /परिशिष्ट। शालि सिक्थ मत्स्य-दे. संमूर्च्छन/७।। शाल्मली वृक्ष-देवकुरुमें स्थित अनादि शाल्मलीका वृक्ष । यह पृथिवीकायका है।-दे. वृक्ष । शाल्मली वृक्षस्थल-देवकुरुमें स्थित एक भू भाग जिसमें शाल्मली वृक्ष व उसके परिवार वृक्षोंका अवस्थान-दे. लोक/३/१३ ॥ शाश्वत उपादान कारण-दे. उपादान । शाश्वतासंख्यात-दे. असंरख्यात । शासन-१. स्या, म./२१/२६३७ आ सामस्त्येनानन्तधर्मविशिष्टतया ज्ञायन्तेऽबबुद्धयन्ते जीवाजीवादयः पदार्था यया सा आज्ञा आगमः शासनं । जिसके द्वारा समस्त रूप अनन्तानन्त धर्म विशिष्ट जीवाजीवादिक पदार्थ जाने जाते हैं वह आज्ञा या आगम शासन कहलाता है। २. आत्माको जानना समस्त जिन शासनका जानना है।-दे. श्रुतकेवली/२/६ ।। शासन दिवस-दे. महाबीर /२। शास्त्र-१.कल्प शास्त्रादिका लक्षण भ. आ./वि./१३०/३०७/१४ काप्यते अभिधीयते येन अपराधानुरूपो दण्डः स कल्पः। भ. आ./वि./६१२/८१२/७ स्त्रीपुरुष रक्षणं निमित्तं, ज्योतिनि, छन्दः अर्थशास्त्र, वेद्य', लौकिकवैदिकसमयाश्च बाह्यशास्त्राणि । -१. जिसमें अपराधके अनुरूप दण्डका विधान कहा है उस शास्त्रको कल्पशास्त्र कहते हैं। २. स्त्री पुरुषके लक्षणोंका वर्णन करनेवाले शास्त्रको निमित्तशास्त्र कहते हैं। ३. ज्योतिनि, छन्दशास्त्र, अर्थशास्त्र, वैद्यक शास्त्र, लौकिक शास्त्र, मन्त्रवाद आदि शास्त्रों को बाह्यशास्त्र कहते हैं। मू /भाषा./१४४ । ४ व्याकरण गणित आदि लौकिक शास्त्र हैं। ५. सिद्धान्त शास्त्र वैदिक शास्त्र कहे जाते हैं, ६. स्याद्वाद न्याय शास्त्र व अध्यात्म शास्त्र सामायिक शास्त्र जानना। २. शास्त्र लिखने व पढ़नेसे पूर्व षटु आवश्यक ध.१/गा, १/७ मंगल-णिमित्त-हेउ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । बागरिय छ पि पच्छा बखाणउ सत्यमाइरियो। - मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम, कर्ता इन छह अधिकारों का व्याख्यान करने के पश्चात आचार्य शास्त्रका व्याख्यान करें।१। १. अन्य सम्बन्धी विषय १. शास्त्र सामान्यका लक्षण व विषय -दे. आगम। २. शास्त्र व देवपूजामें कथंचित् समानता ३ शास्त्रमें कथंचित् देवत्व --दे, देव/1१। ४ शास्त्र श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान -देसम्यग्दर्शन/11/१ ५ शास्त्रार्यके विधि निषेध सम्बन्धी -दे. वाद शास्त्रज्ञान-दे. आगम । शास्त्रदान-दे. दान । शास्त्र वार्ता समुच्चय-श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (ई. १६२८-१६८८) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्याय विषयक ग्रन्थ । शास्त्रसार समुच्चय-माघनन्दि योगीन्द्र (ई.श.१२ उत्तरार्ध) कृत १६६ संस्कृत सूत्र प्रमाण सिद्धान्त ग्रन्थ । (सी./३/२८५)। शास्त्राभ्यास-दे. स्वाध्याय । शिकार-दे. आखेट । शिक्षा-भ. आ./वि./६७/१६४/६ शिक्षाश्रुतस्य अध्ययनमिह शिक्षाशब्देनोच्यते। जिणबयणं कलुसहरं अहो य रत्ती य पढिदव्य मिदि । शास्त्राध्ययन करना यह शिक्षा शब्दका अर्थ है। जिनेश्वरका शास्त्र पाप हरनेमें निपुण है अतः उसको दिनरात पढ़ना चाहिए। शिक्षाकाल - दे. काल/१। शिक्षा गुरु-दे, गुरु/१ । शिक्षा व्रत-भ. आ./म./२०८२-२०८३ भोगाणं परिसंवा सामाझ्य मतिहिसंविभागो य। पोसहविधी य सब्बो चदुरो सिक्वाउ बुत्ताओ ।२०६२। आसुकारे मरणे अव्वोच्छिण्णाए जोविदासाए । णादीहि वा अमुक्को पच्छिमसालेहणमंकासी ।२.८३-भोगोपभोग परिमाण, सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं ।२०७२। इन व्रतोंको पालनेवाला गृहस्थ सहसा मरण आनेपर जीवितको आशा रहनेपर, जिसके बन्धुगणने दीक्षा लेनेकी सम्मति नहीं दी है ऐसे प्रसंगमें सल्लेखना धारण करता है। (स. सि./७/२१,२२/३५६,३६३/७.१) । र. क. श्रा./११ देशावकाशिकं वा सामायिक प्रोषधोपवासो वा। वैयावृत्यं शिक्षावतानि चत्वारि शिष्टानि ।११-देशावकाशिक तथा सामायिक, प्रोषधोपवास और यावृश्य ये चार शिक्षाबत कहे गये हैं। चा. पा./मू./२६ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेब पोसई भणियं । तइयं च अतिहिपुज्ज चउत्थ सल्लेहणा अंते । = पहला सामायिक शिक्षाबत, दूसरा प्रोषधवत, तीसरा अतिथि पूजा और चौथा शिक्षाबत अन्त समय सल्लेखना है ।२६। वसु, श्रा./२१७-२१६,२७० भोगविरति, परिभोग-निवृत्ति तीसरा अतिथि सविभाग व चौथा सग्लेखना नामका शिक्षा व्रत होता है। शिखडी-दुपद राजाका पुत्र था। इसके बाणोंसे तारित होकर भीष्म पितामहने संन्यास धारण कर लिया। (पा. पु/१६/२४३) । शिखरी-रा.वा./३/११/११/१८४/१ शिखराणि कुटान्यस्य सन्तीति शिखरीति संज्ञायते। अन्यत्रापि तव सद्भावे रूढिवशाद्विशेषे वृत्तिशिखण्डित -जिसके शिखर अर्थात् कूट हो उसकी शिखरी संज्ञा है। यह रूढ संज्ञा है जैसे कि मोरकी शिखंडी संज्ञा रूढ है। (यह ऐरावत क्षेत्रके दक्षिणमैं स्थित पूर्वापर लभ्लायमान वर्षधर पर्वत है)। विशेष -दे. लोक/५/३५. २. शिरवरी पर्वतस्थ एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक/४ । ३. पद्म ह्रदमें स्थित एक कूट-दे. लोक/५/७।। शिखाचारण ऋद्धि-दे धि। शिप्रा-भरत क्षेत्र आर्य खण्डको एक नदी-दे. मनुष्य/४ । शिरःप-कालका परिमाण विशेष। अपरनाम श्रीकल्प-दे, गणित/म। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिरोन्नति शिरोन्नति - दे, नमस्कार । शिला नरककी तृतीय पृथिवी नरक / ५ शिल्पकर्म - दे. सावध / ३ । शिल्पि संहिता. दीनन्दि२ (६.६६०-६१६) की एक रचना है। बीरनन्दि - दे. | - ! शिवंकर - विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । शिवकालीन तेरहवें तीर्थंकर दे. सोकर / ५ शिव- स. श./टी.२/२२२/२५ शिवं परमसौख्यं परम कल्याणं निर्वाणं चोच्यते । =परम कल्याण अथवा परम सौख्यमय निर्वाणको शिम कहते हैं। स.सा./ता.वृ./३०३-३०२/४६२/१८ वीतरागसहजपरमानन्दरूपं शिवशब्दवाच्यं सुखं वीतराग परमानन्द रूप सुख शिव शब्दका बाच्य है ( प. प्र./टी./२/१) । # द्र. स./टी./१४/४७ पर उद्धृत-शिवं परमकल्याण निर्वाणं ज्ञानमक्षयम् । प्राप्तं येन स शिवः परिकीर्तितइतिलक्षणः शिवः । शिव यानी परम कल्याण निर्वाण एवं अक्षय ज्ञान रूप मुक्त पदको जिसने प्राप्त किया वह शिव कहलाता है। भा.पा./टी./१४१/२१२ / ६ शिवः परमकल्याणभूतः शिवति लोका गच्छतीति] शिवः । शिवः अर्थात परम कल्याणभूत होता है, और लोकके अग्र भाग में जाता है वह शिव है। शिवकुमार वंशी शिव का दूसरा नाम था। इनकी राजधानी कांचीपुर ( कांजीवरम् ) थी। पंचास्तिकायकी रचना इन्हींके लिए हुई थी। तदनुसार इनका समय ई. श. २ आता है ( प्रो. ए. चक्रवर्ती नायनार M. A. L. T.) दे. शिव स्कन्द । शिव कुमार वेलाव्रत - सर्व साधारण विधि में ७-८ व १३-१४ का बेला तथा ६, १५ का पारणा । इस प्रकार प्रतिमास ४ बेले व ४ पारणा । यदि शक्ति हो तो १ बेला व १ पारणाका क्रम १००० वर्ष (1) तक निभाये । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । ( व्रत विधान सं. पू. ११९। २९ शिवकोटि१. प्रेमीजी के अनुसार यापनीय संधी दिगम्बराचार्य भ.आ.// २१६६-२१६८ पढ़ने से ऐसा अनुमान होता है कि यह उस समय हुए थे जब कि जैन संघ में कुछ शिथिलाचारका प्रवेश हो चुका था । कोई-कोई साधु पात्र भी रखने लग गए थे तथा घरों से माँगकर भोजन लाने लग गये थे। परन्तु यह संघ अभी अपने मार्ग पर दृढ़ था, इसलिये इन्होंने अपने नाम के साथ पाणिपात्रा हारी विशेषण लगाकर उल्लेख किया है। शिवनन्द. शिव गुप्त, शिवकोटि शिवार्य इनके अपर नाम हैं। यद्यपि किसी भी गुणव मैं आपका नाम प्राप्त नहीं है तदपि भगवती आराधनाकी उक्तगाथाओं में जननन्दिगी आर्य सर्व और आर्यमनन्द का नाम दिया गया है जो इनके शिक्षागुरु प्रतीत होते हैं। यद्यपि आराधना कथा कोश मैं इन्हें आसमन्तभद्र (ई.श. २) के शिष्य कहा गया है तदपि प्रेमीजी को यह बात स्वीकार नहीं है । श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. १०५ के अनुसार तस्वार्थ सूत्रके एक टीकाकार भी शिबकोटि हुये हैं। वही सम्भवतः आ. समन्तभद्र के शिष्य रहे होंगे। कृति- भगवती आराधना समय-म.श.१ (..) (./२/१२२) २.२१माला तथा तत्वार्थ सूत्र की टीका के रचयिता एक शिथिलाचारी आचार्य । । समय- यशस्तिलक (वि. १०१६) के पश्चात् कभी । (भ, आ / प्र.७-१ ) । ३ - वाराणसीके राजा थे। शैष थे । समन्तभद्र आचार्य के द्वारा स्तोत्र के प्रभाव से शिवलिंगका फटना व उसमें से - शिवार्थ चन्द्र भगवाकी प्रतिमाका होना देखकर उनके शिष्य बन गये थे। पीछे उनसे ही जिन दीक्षा ले ली थी। समन्तभद्र के अनुसार इनका समय ई. श. २ आता है । ( प्रभाचन्द्र व नेमिदत्तके कथाको आधारपर भ.आ./न. ४ प्रेमीजी ) । शिवगुप्त - पुनाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप गुप्ति ऋद्धि शिष्य तथा अर्ह नलिके गुरु थे । समय- वी. नि. ५६० (ई. ३३ ) - दे. इतिहास / ७ / ८ शिवतस्य ध्यान /४/२ शिवस्व वास्तव में आत्मा है। झा / २१ / १०... युगपतु घनपटल त्रिगमे सवितुः प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् स खल्वयमात्मैव परमात्मव्यपदेशभाग्भबति। युगपत् अनन्तज्ञान-दर्शन सुख पीर्य रूप चतुश्य जिसके रेखा, जैसे- मेघ पटलोंके दूर होनेसे सूर्यका प्रताप और प्रकाश युगपत प्रकट होता है, उसी प्रकार प्रगट हुआ आत्मा ही निश्चय करके परमात्मा व्यपदेशका धारक होता है। यहाँ शिवराय है। शिवदत्त पट्टावर्सी के अनुसार भगवान् महावीरकी मूल परम्परामें लोहाचार्य के पश्चात्वाले चार आचार्यों में आपका नाम है। समय - वी. नि. ५६५-५८५ ई. ३८-५६ । - दे. इतिहास / ४/४ । शिवदेव"लवण समुद्रस्थ उदक व उदकाभास पर्वतका स्वामी देव । दे. लोक /४/१ शिवदेवी भगवान नेमिनाथकी माता तीर्थ / शिव मंदिर - १. विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर । - दे. विद्याधर । २. विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । शिवम - - शिवमार द्वि० ई. ८१० गंगी नरेश श्रीपुरुष उत्तराधि कारी थे। (सि. वि. /१६. महेन्द्र ) शिव मृगेशवर्म- - आप कदम्ब वंशी राजा थे। चालुक्य वंशी राजा कीर्तिवर्य द्वारा बादामी नगरी में श. सं. ५०० में कदम्ब वंशका नाश हुआ था। अतः कदम्बवंशी इनका समय लगभग श. सं. ४५०५०० (वि. ५८५) ( ई०५२८-५७८) आता है। (जै. सि. प्र. के समय प्रभु KB Pathak ) शिवलाल ( पं०) आप एक उच्चकोटिके मिद्वार बनेक ग्रन्थोंकी देश भाषामय टीकाएँ लिखी हैं। यथा-भगवती आराधना, रत्नकरण्ड श्रा. चर्चासंग्रह, बोधसार, दर्शनसार अध्यात्म तरंगिनी आदि ग्रन्थोंकी भाषा टीका । समय- वि. १८१८ ( ई. ०६९) ( आ./२५ मी शिवशर्म - ३० परिशिष्ट । शिव सागर आचार्य शान्तिसागरजीकी आम्नायमें - आप तीसरे नम्बर पर आते हैं। आप आ शान्ति सागरजी के शिष्य थे । और आप आचार्य धर्म सागरजी के गुरु थे। वि २००६ में दीक्षा ही थी और नीरसागरजी के पश्चात् मि. २०१४ में आचार्यपदपर आसीन हुए समय म. २००६. १९४६) शिव स्कंद पलव वंश (बि. श. १) के राजा, अपर नाम शिव कुमार, राजधानी कांजीपुरम मर्यारडबोलुजा दानपत्र के दाता । कुन्दकुन्द ने इनके लिये पंचास्तिकाय ग्रन्थ की रचना की। समयकुन्दकुन्द के अनुसार ई. श. २ (प्रो. ए. चक्रवर्ती नायना (जे./१/११४)। शिवार्य वास्तममें इनका ही नाम शिवकोटि था. क्योंकि भग जिनसेनने आदि पुराण में इसी नामका उल्लेख किया है। कार्य तो इनका विशेषण था जैसे कि स्वयं इन्होंने अपने तीनों गुरुओं के जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिविका ३० शील नामके साथ आर्य विशेषण जोड़कर उल्लेख किया है । (म. पु./प्र./ ४५ पं. पन्नालाल ) दे० शिवकोटि । शिविका-ध.१४/१.४.६१/३/२ माणुसे हि बुन्भमाणा सिविया णाम। जो मनुष्यों के द्वारा उठाकर ले जायी जाती हैं वे शिविका कहलाती हैं। शिशुपाल-१. इसके साथ पहले रूक्मिणीका सम्बन्ध हो गया था (ह.पु./४६/५३) कृष्ण द्वारा रुक्मिणोके हर लिये जानेपर युद्धमैं मारा गया ( ह. पु./४२/६४) । २. पाटली पुत्रका राजा था। (वी. नि. ३) के पश्चात् इसके चतुर्मुख नामका पुत्र हुआ, जो कि अत्याचारी होनेसे कल्की सिद्ध हुआ। (म, पु./७६/४००) ३. मगध देशकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह राजा इन्द्रका पुत्र व चतुर्मुख (कलिक)का पिता था। यद्यपि इसे कल्कि नहीं बताया गया है, परन्तु जैसा कि वंशावली में बताया गया है यह भी अत्याचारी व करकी था। हूणवंशी तोरमाण ही शिशुपाल है। समय-बी, नि. १००० १०३३ ( ई. ४७४-५०७ ) विशेष-दे. इतिहास/३/४ । शिष्य-गुरु शिष्य सम्बन्ध-दे, गुरु/२ । शीत-तीसरे नरकका दूसरा पटल-दे. नरक/११ | शीतगृह-भरत क्षेत्रमें मलयगिरिके निकट एक पर्वत-दे. मनुष्य/४ शीतपरोषह-स. सि./६/६/४२१/३ परित्यक्तप्रच्छादनस्य पक्षिवदनवधारितालयस्य वृक्षमूलपथिशिलातलादिषु हिमानीपतनशीतलानिलसं पाते तत्प्रतिकारप्राप्ति प्रति निवृत्तेच्छस्य पूर्वानुभूतशीतप्रतिकारहेतुवस्तुनामस्मरतो ज्ञानभावनागर्भागारे वसतः शीतवेदनासहनं परिकीर्यते। - जिसने आवरणका त्याग कर दिया है, पक्षीके समान जिसका आवास निश्चित नहीं है, बृक्षमूल, चौपथ और शिलातल आदिपर निवास करते हुए बर्फ के गिरनेपर और शीतल हवाका झोंका आनेपर उसका प्रतिकार करनेकी इच्छासे जो निवृत्त हैं, पहले अनुभव किये गये प्रतिकारके हेतुभूत वस्तुओंका जो स्मरण नहीं करता और जो ज्ञान भावनारूपो गर्भागारमें निवास करता है उसके शीत वेदनाजय प्रशंसा योग्य है। (रा.वा./8/E/4/08/४); (चा. सा./१११/४ )। २. शीलवतके भेद चा. सा./१३/६ गुणवतत्रयं शिक्षाबतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्युच्यते । दिग्विरतिः देशविरतिः, अनर्थदण्डविरतिः सामायिक, प्रोषधोपवासः उपभोगपरिभोगपरिमाणं अतिथिसंविभागश्चेति । तीन गुण व्रत व चार शिक्षाबतोंको शील सप्तक कहते हैं। उनके नाम निम्न हैं:दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंड विरति, सामायिक, प्रोषधोपवास. उपभोगपरिभोग परिमाण और अतिथि सविभाग बत। ३.शीलवतेष्वनतिचार मावनाका लक्षण स. सि./६/२४/३३८/९ अहिंसादिषु व्रतेषु तत्प्रतिपालनार्थेषु च क्रोधबंर्जनादिषु शीलेषु निरवद्या वृत्तिः शीलबतेष्वनतीचारः । - अहिंसादिक व्रत है और इनके पालन करनेके लिए क्रोधादिकका त्याग करना शील है। इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलवता. नतिचार है। (रा.वा./4/२४/३/५२६/१६) (चा. सा./५/२), (भा. पा./टी./७७/२२१/६)। ध. ६/३,४१/८२/४ सीलव्वदेसु णिरदिचारदार चेव तित्थयरणामकम्म बज्झइ। तं जहा-हिंसालिय-चोज्जम्बंधपरिग्गहे हितो विरदी बदं णाम । बदपरिरक्वणं शीलं णाम । सुरावाण-मासभरखण-कोह-माणमाया - लोह - हस्स - रइ-सोग-भय-दुछिस्थि-पुरिस-ण सयबेयापरिच्चागो अदिचारो, एदेसि विणासोणिरदिचारो संपुण्णदातस्स भावो णिरदिचारदा। तीए सीलब्वदेसु णिरदिचारदाए तित्थयर६म्मस्स बंधी होदि। - शील-व्रतों में निरतिचारतासे ही तीर्थकर नामकर्म बाँधा जाता है। वह इस प्रकारसे-हिसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहसे विरत होनेका नाम बत है। व्रतों की रक्षाको शील कहते है । सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसक वेद, इनके त्याग न करने का नाम अतिचार और इनके विनाशका नाम नितिचार या सम्पूर्ण ता है, इसके भावको निरतिचारता कहते हैं । शीलव्रतों में इस निरतिचारतासे तीर्थकर कर्म का बन्ध होता है। शीतभोग तप-दे, कायक्लेश । शीतयोनि-दे. योनि । शीतलनाथ-(म, पु./५६/श्लोक ) पूर्वभः सं.२ में सुसीमा नगर का राजा पद्मगुल्म था (२-३) पूर्वभवमें आरणेन्द्र था ( १७-१८) वर्तमान भवमें १० वें तीर्थकर हुए (२०-२७) इस भव सम्बन्धी विशेष परिचय-दे. तीर्थकर । शीतलप्रसाद (०)-आप अग्रवाल जातिमें गोयल गोत्री श्रावक श्री मक्रवनलाल जी के सुपुत्र थे। आपका जन्म वि. सं. १८३५ ई.१८७८ में हुआ था। आपने अनेकों अन्य रचे और समाज में बड़ा भारी काम किया । वास्तवमें आपने इस अन्धकारमय युग में ज्ञान का अद्वितीय प्रकाश किया । आप स्वयं अत्यन्त विरागी व कर्मठ व्यक्ति थे। आपके लिए जैन समाज अत्यन्त आभारी है। आपका मरण ई. १६४८ में हुआ था। शील--1. शीलवतका लक्षण स. सि./७/२४/३६५/६ बतपरिरक्षणार्थ शोलमिति दिग्विर यादीनीह शीलग्रहणेन गृह्यन्ते। -व्रतोंको रक्षा करनेके लिए शोल हैं, इसलिए यहाँ शोल पदके ग्रहणसे दिग्विरति आदि लिये जाते हैं। (रा. वा./२४/१/५५३/२)। .. इस एकमें शेष १५ मावनाओंका समावेश ध. ८/३, ४१/८२/८ कधमत्थ सेसपण्णरसण्णं संभवो। ण, सम्मईसणेण खग-लवपडिबुज्झण-लद्धिसंवेगसंपण्णत्त-साहुसमाहिसंधारण वेज्जा - बच्चजोगजुत्तत्त - पासुअपरिच्चाग - अरहत- महुसुदपवयण-भत्ति - पवयण-पहावण लवखण सुद्धिजुत्तेण विणा सीलव्यदाणमणदि चारत्तरस अणुबवत्तीदो। असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मणिज्जरहेदू बदं णाम । ण च सम्मत्तेण विणा हिंसालिय पोज्जभ अपरिग्गहविरइमेत्तेष सा गुणसे डिणिज्जरा होदि, दोहितो चेबुपज्जमाण कज्जस्स तत्येक्कादो समुप्पत्तिविरोहादो। होदु णाम एदेसि संभवी, ण णाणबिणयस्स । ण, छदव-गवपदस्थ समूह-तिहुणबिस एण अभिवरवणमभिवणमुवजोग बिसयमापज्जमाणेण णाण विणएण विणा सीलव्यद. णि बंधणसम्मत्तुप्पत्तीए अणुववत्तीदो। ण तत्थ चरणविणयाभावो वि, जहाथाम-तबाबासयापरिहोणत्त-पक्ष्यणवच्छलत्तलक्रवचरणबिण एण विणा सीखव्वदणिरदिचारत्ताण्ववत्तीदो। तम्हा तदियमेद तित्थयरणामकम्मबंधस्स कारणं । -प्रश्न-इसमें शेष १५ भावनाओं की सम्भावना कैसे हो सकती है । उत्तर--यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्षण-लव-प्रतिबुद्धता, लब्धि-संबेगसम्पन्नता, साधु समाधि धारण, बैं यावत्ययोगयुक्तता, प्रासुक परित्याग, अरहंत भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रबचन भक्ति और प्रवचन प्रभावना लक्षण शुद्धिसे युक्त सम्यग्दर्शनके बिना शील बोंकी निरतिचारता बन नहीं सकती. दूसरी बात यह है कि जो असण्यात गुणित श्रेणीसे कर्म निर्जराका कारण है वही बत है। और सम्यग्दर्शनके मिना हिसा, असत्य. चौर्य, अब्रह्म, और परिग्रहसे विरक्त होने मात्रसे वह गुणश्रेणि निर्जरा हो नहीं सकती, क्योंकि जैनेन्द्र सिवान्त कोश Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wantwalaman शुक्लध्यान शील कथा दोनोंसे ही उत्पन्न होनेवाले कार्यकी उनसे एकके द्वारा उत्पत्तिका विरोध है। प्रश्न-इनकी सम्भावना यहाँ भले ही हो, पर ज्ञान विनयकी सम्भावना नहीं हो सकती। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि छह द्रव्य, नौ पदार्थों के समूह और त्रिभुवनको विषय करनेवाले एवं मार-मार उपयोग विषयको प्राप्त होनेवाले ज्ञान विनयके बिना शीलवतोंके कारण भूत सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति नहीं बन सकती। शील व्रत विषयक निरतिचारतामें चारित्र विनयका भी अभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यथाशक्तितप, आवश्यकापरिहीनता और प्रवचनवत्सलता लक्षण चारित्र विनयके बिना शील व्रत विषयक निरतिचारताकी उपपति ही नहीं बनती। इस कारण यह तीर्थकर नामकर्म के बन्धका तीसरा कारण है। *किसी एक ही भावनासे तीर्थकरव सम्भव -दे० भावना/२। * ब्रह्मचर्य विषयक शील-दे० ब्रह्मचरी । शील कथा-कवि भारामल (ई. १७५६) रचित हिन्दी भाषा कथा। शील कल्याणक व्रत-दे. कल्याणक व्रत । शील पाहुड़-आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६) कृत ज्ञान व चारित्र का समन्वयात्मक, ४० (प्रा.) गाथा निबद्ध ग्रन्थ है। इसपर केवल पं. जयचन्द्र छाबड़ा (ई. १७६७) कृत भाषा वचनिका उपलब्ध है। शील व्रत-प्रतिवर्ष वैशाख शु.६ के दिन (अभिनन्दन नाथ भगवान्का मोक्ष कल्याणक दिवस ) उपवास। इस प्रकार ५ वर्ष पर्यन्त करे । 'ओं ह्रीं अभिनन्दनजिनाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । (वतविधान सं./पृ.८६)। शीलवतेष्वनतिचार भावना-दे. शील। शील सप्तमी व्रत-सात वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष भाद्रपद शु. ७ को उपवास करे। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (वत विधान सं./पृ. १०४) (कथाकोष)। भेद व लक्षण शुक्लध्यान सामान्यका लक्षण शुक्लध्यानमें शुक्ल शब्दकी सार्थकता -- दे. शुक्लध्यान/१/१। शुक्लध्यानके अपरनाम -दे. मोक्षमार्ग/२/५ । शुक्लध्यानके भेद बाह्य व आध्यात्मिक शुक्लध्यानका लक्षण शून्य ध्यानका लक्षण पृथक्त्व वितर्क विचारका स्वरूप एकत्व वितर्क अविचारका स्वरूप सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपातीका स्वरूप समुच्छिन्न क्रिया निवृत्तिका स्वरूप शुक्लध्यान निर्देश ध्यानयोग्य द्रव्य क्षेत्र आसनादि -दे. कृतिकर्म/३ । धर्म व शुक्लध्यान में कथंचित् भेदाभेद --दे. धर्मध्यान/३ । शुक्लध्यानमें कथंचित् विकल्पता व निर्विकल्पता व क्रमाक्रमवर्तिपना -दे. विकल्प। शुक्लध्यान व रूपातीत ध्यानकी एकार्थता -दे, पद्धति । शुक्ल ध्यान व निर्विकल्प समापिकी एकार्थता -दे. पद्धति। शुक्लध्यान व शुद्धात्मानुभव की एकार्थता-दे. पद्धति । शुद्धात्मानुभव -वे. अनुभव। शुक्लध्यानके बाह्य चिह्न --दे. ध्याता/५ । शुम्लध्यानमें वासोच्छ वासका निरोध हो जाता है। पृथक्त्ववितर्कमें प्रतिपातीपना सम्भव है। एकत्व वितर्कमें प्रतिपातका विधि निषेध । चारों शुक्लध्यानोंमें अन्तर। शुक्लध्यानमें सम्भव भाव व लेश्या शुक्लध्यानमें संहनन सम्बन्धी नियम -दे. संहनन। । पंचमकालमें शुक्लध्यान सम्भव नहीं-दे,धर्मध्यान/१।। शुक्लध्यान का स्वामित्व व फल शीलांक-नांग वृत्ति' के रचयिता एक श्वेताम्बराचार्य । समय बि. श. (ई.स.पूर्वार्ध)। (जै./२/३६५) । शुभा--पूर्व विदेहस्थ रमणिया क्षेत्रकी मुख्य नगरी-दे. लोक/७ ॥ शुक्ति-भरत क्षेत्रमें शुक्तिमती नदीपर स्थित एक नगर-दे. मनुष्य/४। शुक्तिमती-भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४ । शुक्र-१औदारिक शरीरमें शुक्रधातुकानिर्देश-दे. औदारिक/११७ २. एक प्रह-दे. ग्रह; ३. शुक्र ग्रहका लोकमें अवस्थान-दे. ज्योतिष,लोक; ४ कल्पवासी बोका एक भेद--दे. स्वर्ग/३; ५. कल्प स्वर्गोंका नवमां कल्प-दे. स्वर्ग/२५२, ६. शुक्र स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/५/३। । शुक्लध्यान-ध्यान करते हए साधुको बुद्धिपूर्वक राग समाप्त हो जानेपर जो निर्विकल्प समाधि प्रगट होती है, उसे शुक्लध्यान या रूपातीत ध्यान कहते हैं। इसकी भी उत्तरोत्तर वृद्धिगत चार श्रेणियाँ हैं। पहली श्रेणी में अवुद्धिपूर्वक ही ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थोंकी तथा योग प्रवृत्तियोंकी संक्रान्ति होती रहती है, अगली श्रेणियों में यह भी नहीं रहती। रत्न दीपककी ज्योतिकी भाँति निष्कंप होकर ठहरता है। श्वास निरोध इसमें करना नहीं पड़ता अपितु स्वयं हो जाता है। यह ध्यान साक्षात मोक्षका कारण है। शुक्लध्यानके योग्य जघन्य उत्कृष्ट ज्ञान -दे. ध्याता/१। पृथक्त्व वितर्क विचारका स्वामित्व एकत्व वितर्क विचारका स्वामित्व उपशान्त कषायमें एकत्व वितर्क कैसे सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती व सूक्ष्म त्रिया निवृत्तिका स्वामित्व। स्त्रीको शुक्लध्यान सम्भव नहीं। चारों ध्यानोंका फल। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल ध्यान १. भेद व लक्षण शुक्ल व धर्मध्यानके फलमें अन्तर -दे. धर्मध्यान/३।५। * ध्यानकी महिमा --दे, ध्यान/२। * स्थितिरूपशुक्लध्यानम् । = ध्यान-ध्येय-ध्याता, ध्यानका फल आदिके विविध विकल्पोंसे विमुक्त, अन्तर्मुखाकार, समस्त इन्द्रिय समूहके अगोचर निरंजन निज परमतत्व में अविचल स्थितिरूप वह निश्चय शुक्लध्यान है। (नि. सा./ता../८१)। प्र. सा./ता. वृ./८/१२ रागादि विकल्परहितस्वस वेदनज्ञानमागमभाषया शुक्लध्यानम् । रागादि विकल्पसे रहित स्वसंवेदन ज्ञानको आगम भाषामें शुक्लध्यान कहा है। द्र. सं./टी./४८/२०५/३ स्वशुद्वात्मनि निर्विकल्पसमाधिलक्षणं शुक्ल ध्यानम् । निज शुद्धामा में विकल्प रहित समाधिरूप शुक्लध्यान है। भा. पा. टी./७८/२२६/१८ मलरहितात्मपरिणामोद्भवं शुगलम् । - मल रहित आत्माके परिणामको शुक्ल कहते हैं। २. शुक्लध्यानके भेद शंका-समाधान संक्रान्ति रहते ध्यान कैसे सम्मव है। प्रथम शुक्लध्यानमें उपयोगकी युगपत् दो धाराएँ -दे. उपयोग/II/३/१॥ २ | योग संक्रान्तिका कारण । योग संक्रान्ति बन्धका कारण नहीं रागादि है। प्रथम शुक्लध्यानमें राग अव्यक्त है -दे. राग/३ । * | केवलीको शक्लध्यानके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएँ -दे, केवली/६। * orm * १. भेद व लक्षण १. शुक्लध्यान सामान्यका लक्षण स. सि./६/२८/४४५/११ शुचिगुणयोगाच्छक्लम् । (यथा मलद्रव्यापा यात शुचिगुणयोगाच्छुकलं वस्त्र तथा तद्गुगसाधादात्मपरिणामस्वरूपमपि शुक्ल मिति निरुच्यते । रा. वा.)1- जिसमें शुचि गुणका सम्बन्ध है वह शुक्ल ध्यान है। [जैसे मैल हट जानेसे वस्त्र शुचि होकर शुक्ल कहलाता है उसी तरह निर्मल गुणयुक्त आत्म परिणति भी शुक्ल है। रा. वा. ) ( रा वा./६/२८/४/६२७/३१)। ध. १३/५,४,२६/७७/६ कुदो एदस्स मुक्कत्तं कसायमलाभावादो। कषाय मलका अभाव होनेसे इसे शुक्लपना प्राप्त है। का. अ./मू./४८३ जत्थ गुणा सुविसुद्धा उपसम-खमणं च जत्थ कम्माणं । लेस्सावि जत्थ सुक्का सं सुक्कं भण्णदे माणं ।४८३-जहाँ गुण अतिविशुद्ध होते हैं. जहाँ कोका क्षय और उपशम होते हैं, जहाँ लेश्या भी शुक्ल होती है उसे शुक्लध्यान कहते हैं ।४८३॥ ज्ञा./४२/४ निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् । अन्तर्मुख च यश्चित्तं तच्छक्लमिति पठ्यते ।४। शुचिगुणयोगाचारलं कषायरजसः क्षयादुपशमाद्वा । वैडूर्यमणि शिखा इव सुनिर्मलं निष्प्रकम्पं च १-१. जो निष्क्रिय व इन्द्रियातीत है। 'मैं ध्यान करू" इस प्रकारके ध्यानकी धारणासे रहित हैं, जिसमें चित्त अन्तर्मुख है वह शुक्लध्यान है।४। २. आत्माके शुचि गुण के सम्बन्धसे इसका नाम शुक्ल पड़ा है। कषायरूपी रजके क्षयसे अथवा उपशमसे आत्माके सुनिर्मल परिणाम होते हैं, वही शुचिगुणका योग है। और वह शुक्लध्यान वैडूर्यमणिकी शिखाके समान सुनिर्मल और निष्कप है। (त. अनु./ २२१-२२२)। द्र. सं./म./५६ मा चिटुह मां जपह मा चिन्तह किविजेण होइ थिरो।। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव पर हवे ज्झाणं ।५६-हे भव्य ! कुछ भी चेष्टा मत कर, कुछ भी मत बोल, और कुछ भी चिन्तवन मत कर, जिससे आरमा निजात्मामें तल्लीन होकर स्थिर हो जावे, आत्मामें लोन होना ही परम ध्यान है। नि. सा./ता वृ./१२३ ध्यानध्येयध्यातृतत्फलादि विविधविकल्पनिर्मक्तान्तर्मुखाकार निखिलकरणग्रामगोचरनिरंजननिजपरमतत्त्वाविचल भ. आ./म्./१८७८-१८५६ ज्झाणं पुधत्तसवितकसविचार हवे पढममुक्कं । सवितक्के क्वत्तावीचार ज्माण विदियसुक्क ११८७८। सुहुमकिरियं खु तदियं मुक्कज्माणं जिणेहिं पण्णत्तं । बैंति चउत्थं सुक्कं जिणा समुच्छिण्णकिरियं तु ।१८७६-प्रथम सवितर्क सविचार शुम्लध्यान, द्वितीय सवितर्केकत्ववीचार शुक्लध्यान, तीसरा सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यान, चौथा समुच्छिन्न क्रिया नामक शुक्लध्यान कहा गया है। (मू. आ./2०४-४०५); (त. सू./8/३६); (रा. वा./१/७/१४/४०/ १६); (ध. १३/५.४,२६/७७/१०); (ज्ञा./४२/६-११); (द्र. सं./टी./ ४८/२०३/३)। चा. सा /२०३/४ शुक्लध्यानं द्विविध, शुक्लं परमशुक्ल मिति। शुक्लं द्विविध पृथक्त्ववितकेवीचारमेकत्व वितर्कावीचामिति । परमशुक्ल द्विविधं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसमुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिभेदात् । तल्लक्षणं द्विविध, बाह्यमाध्यात्मिकमिति । शुक्लध्यानके दो भेद हैं--एक शुक्ल और दूसरा परम शुक्ल । उसमें भी शुक्लध्यान दो प्रकारका है-पृथक्त्ववितर्क विचार और दूसराएकत्ववितर्क अविचार। परम शुक्ल भी दो प्रकार का है-सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती और दूसरा समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति । इस समस्त शुमल ध्यानके लक्षण भी दो प्रकार है-एक बाह्य दूसरा आध्यात्मिक ।। ३. बाह्य व आध्यात्मिक शुक्लध्यानका लक्षण चा, सा./२०३/५ गात्रनेत्रपरिस्पन्दविरहित जम्भजम्भोद्गारादिवजितमनभिव्यक्तप्राणापानप्रचारत्वमुच्छिन्नप्राणापानप्रचारत्वमपराजितत्वं बाह्य, तदनुमेयं परेषामात्मनः स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं तदुच्यते । -शरीर और नेत्रों को स्पन्द रहित रखना, जंभाई जम्भा उद्गार आदि नहीं होना, प्राणापानका प्रचार व्यक्त न होना अथवा प्राणापानका प्रचार नष्ट हो जाना बाह्य शुक्लध्यान है। यह बाह्य शुक्लध्यान अन्य लोगोंको अनुमानसे जाना जा सकता है तथा जो केवल आत्माको स्वसंवेदन हो वह आध्यात्मिक शुक्लध्यान कहा जाता है। ४. शून्यध्यानका लक्षण ज्ञानसार/३७-४७ किं बहुना सालम्ब परमार्थेन ज्ञात्वा । परिहर कुरु पश्चात ध्यानाभ्यासं निरालम्बम् ।३७ तथा प्रथम तथा द्वितीयं तृतीयं निश्रेणिकायर्या चरमाना । प्राप्नोति समुच्चयस्थानं तथायोगी स्थूलतः शून्याम् ।३८। रागादिभिः वियुक्तं गतमोह तत्वपरिणतं ज्ञानम् । जिनशासने भणितं शून्यं इदमीदृश मनुते ।४१। इन्द्रियविषयातीत अमन्त्रतन्त्र-अध्येय-धारणाकम् । नभःसदृशमपि न गगनं तव शून्य केवलं ज्ञानम् ।।२। नाहं कस्यापि तनयः न कोऽपि मे आस्त अहंच एकाकी। इति शून्य प्रधान ज्ञाने लभते योगी पर स्थानम् ।४३। मनवचन-काय-मत्सर-ममत्वतनुधनकलादिभिः शून्योऽहम् । इति शून्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. भेद व लक्षण शुक्ल ध्यान न लिप्यते पुण्यपापेन ।४४। शुद्धारमा तनुमात्र ज्ञानी चेतन- गुणोऽहम एकोऽहम् । इति ध्याने योगी प्राप्नोति परमात्मकं स्थानम १४५ अभ्यन्तरं च कृत्वा बहिरर्थसुखानि कुरु शुन्यतनुम् । निश्चिन्त स्तथा हंसः पुरुषः पुनः केवली भवति । ४७ बहुत कहनेसे क्या ! परमार्थ से सालम्बन ध्यान (धर्म ध्यान) को जानकर उसे छोड़ना चाहिए तथा तत्पश्चात् निरालम्बन ध्यानका अभ्यास करना चाहिए 1३७। प्रथम द्वितीय आदि श्रेणियों को पार करता हुआ वह योगी चरम स्थानमें पहुँच कर स्थूलतः शून्य हो जाता है।३८। क्योंकि रागादिसे मुक्त, मोह रहित,स्वभाव परिणत ज्ञान ही जिनशासनमें शून्य कहा जाता है।४१॥ इन्द्रिय विषयोंसे अतीत, मन्त्र, तन्त्र तथा धारणा आदि रूप ध्येयोंसे रहित जो आकाश न होते हुए भी आकाशवत निर्मल है, वह ज्ञान मात्र शून्य कहलाता है।४२। मैं किसीका नहीं. पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं हैं, मैं अकेला हूँ शून्य ध्यानके ज्ञानमें योगी इस प्रकारके परम स्थानको प्राप्त करता है ।४३। मन, वचन,, काय, मत्सर, ममत्व, शरीर, धन-धान्य आदिसे मैं शून्य हूँ इस प्रकारके शून्य ध्यानसे युक्त योगी पुण्य पापसे लिप्त नहीं होता।४४। 'मैं शुद्वात्मा हूँ, शरीर मात्र हूँ, ज्ञानी हूँ, चेतन गुण स्वरूप हूँ, एक हूँ, इस प्रकारके ध्यानसे योगी परमात्म स्थानको प्राप्त करता है।४५॥ अभ्यन्तरको निश्चित करके तथा बाह्य पदार्थों सम्बन्धी सुखों व शरीरको शून्य करके हंस रूप पुरुष अर्थात् अत्यन्त निर्मल आत्मा केवली हो जाता है।४।। आचारसार/७७-८३ जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथा कौतुक शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमणात प्रीतिः शरीरेऽपि च । जोषं वागपि धारयत्वविरतानन्दात्मनः स्वारमनश्चिन्तायामपि यातुमिच्छति मनोदोषः समं पञ्चताम् ७७। यत्र न ध्यानं ध्येय ध्यातारौ नैव चिन्तनं किमपि । न च धारणा विकल्पस्तं शून्यं सुष्ठ भाक्ये १७८) शून्यध्यानप्रविष्टो योगः स्वसद्भावसंपन्नः। परमानन्द स्थितो भृतावस्थः स्फुटं भवति ।७। तस्त्रिकमयो ह्यारमा अवशेषालम्बनैः परिमुक्तः । उक्तः स तेन शून्यो शानिभिर्न सर्वथा शून्यः ।८० यावद्विकल्पः कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य । तावन्न शून्यं ध्यान चिन्ता वा भावनाथवाश --सब रस विरस हो जाते हैं, कथा गोष्ठी व कौतुक विघट जाते हैं, इन्द्रियों के विषय मुरझा जाते हैं, तथा शरीरमें प्रीति भी समाप्त हो जाती है व वचन भो मौन धारण कर लेता है। आत्माकी आनन्दाभूति काल में मन के दोषों सहित स्वारम विषयक चिन्ता भी शान्त होने लगती है। जहाँ न ध्यान है, न ध्येय है, न 'ध्याता है, न कुछ चिन्तबन है, न धारणाके विकल्प हैं, ऐसे शून्यको भली प्रकार भाना चाहिए ७८॥ शून्य ध्यानमें प्रविष्ट योगी स्व स्वभावसे सम्पन्न, परमानन्दमें स्थित तथा प्रगट भरितावस्थावत् होता है ।७१। ज्ञानदर्शन चारित्र इन तीनों मयी आत्मा निश्चयसे अवशेष समस्त अवलम्बनोंसे मुक्त हो जाता है। इसलिए वह शून्य कहलाता है, सर्वथा शून्य नहीं 100 ध्यान युक्त योगीको जंब तक कुछ भी विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, तब तक वह शून्य ध्यान नहीं, वह या तो चिन्ता है या भावना। ५. पृथक्त्व वितके वीचारका स्वरूप भ. आ./मू./१८८०, १८८२ दवाई अणेयाई ताहि वि जोगेहि जेणज्झायं ति। उबसंतमोहणिज्जा तेण पृधत्तंत्ति तं भणिया ।१८८०। अत्थाण बंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो। तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचार १५२ = इस पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानमें अनेक द्रव्य विषय होते हैं और इन विषयोंका विचार करते समय उपशान्त मोह मुनि इन मन वचन काय योगोंका परिवर्तन करता है ।१८८०। इस ध्यानमें अर्थ के वाचक शब्द संक्रमण तथा योगोंका संक्रमण होता है। ऐसे वीचारों (संक्रमणोंका) का सद्भाव होनेसे इसे सवीचार कहते हैं। अनेक द्रव्योंका ज्ञान करानेवाला जो शब्द श्रुत वाक्य उससे यह ध्यान उत्पन्न होता है, इसलिए इस ध्यानका पृथक्त्वबितर्क सबीचार ऐसा नाम है ।१८८२। त. स./8-४१-४४ एकाश्रये सवितर्क वीचारे पूर्व ।४१। वितर्कः श्रुतम् ।४३। वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ।४४१ म पहलेके दो ध्यान एक आश्रयवाले, सवितर्क, और सवीचार होते हैं ।४१॥ वितर्कका अर्थ श्रुत है।४३। अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्ति वीचार है।४४। भावार्थ-पृथक्त्व अर्थात् भेद रूपसे वितर्क श्रुतका वीचार अर्थात् संक्रान्ति जिस ध्यानमें होती है वह पृथक्त्व वितर्क वीचार नामका ध्यान है । (ध. १३/५,४,२६/७७/११); (क. पा.१/१.१७/६३१२/३४४/६) (ज्ञा./४२/१३,२०-२२)। स, सि./१/४४/४५६/१ तत्र द्रव्यपरमाणु' भावपरमाणु वा ध्यायन्नाहितवितर्क सामर्थ्य : अर्थव्यजने कायव चसी च पृथक्त्वेन संक्रामता मनसापर्याप्तबालोत्साहवदव्यवस्थितेनानिशितेनापि शस्त्रेण चिरातरु'छिन्दन्निव मोहप्रकृतीरुपशमयन्क्षपयंश्च पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानभाग्भवति । [ पुनर्वीर्यविशेषहानेर्योगाद्योगान्तरं व्यब्जनाद्वयञ्जनान्तरमदिर्थान्तरमाश्रयन् ध्यानविधूतमोहरजाः ध्यानयोगान्निवर्तते इति । पृथक्त्व वितर्कवीचारम् [ रा. वा.]। जिस प्रकार अपर्याप्त उत्साहसे बालक अव्यवस्थित और मौथरे शस्त्रके द्वारा भी चिरकाल में वृक्षको छेदता है उसी प्रकार चित्तकी सामर्थ्य को प्राप्त कर जो द्रव्यपरमाणु और भाव परमाणुका ध्यान कर रहा है वह अर्थ और व्यंजन तथा काय और वचनमें पृथक्रवरूपसे संक्रमण करनेवाले मनके द्वारा मोहनीय कर्म की प्रकृतियोंका उपशम और क्षय करता हुआ पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानको धारण करनेवाला होता है। फिर शक्तिको कमीसे योगसे योगान्तर, व्यंजनसे व्यंजनान्तर और अर्थ से अर्थान्तरको प्राप्त कर मोहरजका विधूननकर ध्यानसे निवृत्त होता है यह पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान है। (रा, वा./६/४४/१/६३४/२५); (म. पु./२१/१७०-१७३ ) । घ.१३/५.६,२६/गा. ५८-६०/७८ दवाइमणेगाई तीहि वि जोगेहि जेण झायं ति। उबसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तं तितं भणितं ।५८ जम्हा सुदं बिदक्कं जम्हा पुव्यगयअत्थकुसलो य। ज्झायदि ज्झाणं एदंसविदयकं तेण तं ज्झाणं ।।६। अस्थाण वंजणाण य जोगाण य संक मो हु वीचारो। तस्स य भावेण तगं सुत्ते उत्तं सवीचार ।। ध,१३/५,४,२६/७८/८ एकदव्यं गुणपज्जायं वा पढमसमए बहुणयगहणणिलीणं सुदरविकिरणुज्जोयवलेण ज्झाएदि। एवं तं चेव अंतोमुहत्तमेत्तकालं ज्झाएदि । तदो परदो अत्यंतरस्स णियमा संकमदि। अधवा तम्हि चेव अत्थे गुणस्स पज्जयस्स वा संकमदि। पुबिक्लजोगहजो गोर्गतरपि,सिया संकमदि । एगमत्थमत्यंतरं गुणगुणं तरं पज्जायपज्जायतरं च हेट्ठोबरि टुक्यि पुणो तिण्णि जोगे एगपंतीए ठविय दुसजोग-तिसजोगेहि एत्थ पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणभंगा मादालीस 1४२। उपाएदया। एवमंतोमुहुत्तकालमुवसंतकसाओ सुक्कलेस्साओ पुधत्त विदकावीचारज्माणं छदब्ब-णवपयस्थ बिसयमंतोमुहत्तकाल ज्झायइ । अत्थदो अत्यंतरसंकमे संति वि ण ज्माण विणासो, चित्तसरगमणाभाबादो। -१. यतः उपशान्त मोह जीव अनेक द्रव्योंका तीनों ही योगों के आलम्बनसे ध्यान करते हैं इसलिए उसे पृथक्त्व ऐसा कहा है।१८यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है और यतः पूर्वगत अर्थ में कुशल साधु ही इस ध्यानको ध्याते हैं, इसलिए इस ध्यानको सवितर्क कहा है ।५६। अर्थ, व्यंजन और योगोंका संक्रम वीचार है। जो ऐसे संक्रमसे युक्त होता है उसे सूत्र में सविचार कहा है 1६०। (त. सा./७/४५-४७) । २. इसका भावार्थ कहते हैं...एक द्रव्य या गुण-पर्यायको श्रुत रूपी रविकिरणके प्रकाशके बल से ध्याता है । इस प्रकार उसी पदार्थको अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्याता है। इसके बाद अर्थान्तरपर नियमसे संक्रमित होता है। अथवा उसी अर्थ के गुण या पर्याय पर संक्रमित होता है। और पूर्व योगसे स्यात् योगान्तरपर संक्रमित होता है इस तरह एक अर्थ-अर्थान्तर, गुण-गुणान्तर और पर्याय-पर्यायान्तरको नीचे ऊपर स्थापित करके फिर तोन योगोंको एक पंक्ति में स्थापित करके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०४-५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान १. भद व लक्षण द्विसंयोगी और त्रिसंयोगीको अपेक्षा यहाँ पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानके ४२ भंग उत्पन्न करना चाहिए। इस प्रकार शुक्ललेश्या वाला उपशान्तकषाय जोब छह द्रव्य और नौ पदार्थ विषयक पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानको अन्तर्मुहर्त कालतक ध्याता है। अर्थसे अर्थान्तरका संक्रम होनेपर भी ध्यानका विनाश नहीं होता, क्योंकि इससे चिन्तान्तरमें गमन नहीं होता। (चा. सा./२०४/१)। द्र, सं./टी./४८/२०३/६ पृथक्त्ववितर्कविचारं तावत्कथ्यते। द्रव्यगुणपर्यायाणां भिन्नत्वं पृथक्त्वं भण्यते. स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं भावश्रुतं तद्वाचकमन्तजल्पवचनं वा वितर्को भण्यते, अनीहितवृत्त्यार्थान्तरपरिणमनम् वचनाद्वचनान्तरपरिण मनम् मनोवचनकाययोगेषु योगायोगान्तरपरिणमनं वीचारो भण्यते । अयमत्रार्थ:- यद्यपि ध्याता पुरुष, स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिन्ता न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान भण्यते। द्रव्य, गुण और पर्यायके भिन्नपनेको पृथक्त्व कहते हैं। निजशुद्धात्माका अनुभव रूप भाश्रुतको और निज.शुद्धात्माको कहने वाले अन्तर्जल्परूप बचनको 'वितर्क' कहते हैं। इच्छा बिना ही एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक बचनसे दूसरे वचनमे, मन वचन और काय इन तीनों योगों मेसे किसी एक योगसे दूसरे योगमें जो परिणमन है, उसको वीचार कहते हैं। इसका यह अर्थ है-यद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज शुद्धात्म संवेदनको छोड़कर बाह्य पदार्थोंकी चिन्ता नहीं करता, तथापि जितने अंशोंसे स्वरूपमें स्थिरता नहीं है उतने अंशोसे अनिच्छित वृत्तिसे विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यानको पृथक्त्व वितर्क वीचार कहते हैं । .. एकत्व वितक अवीचारका स्वरूप भ. आ./मू./१८८३/१६८६ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेगेण अण्णदरेण । खौण कसायो ज्झायदि तेणेगत्तं तयं भणियं १८८३। - इस ध्यानके द्वारा एक ही योगका आश्रय लेकर एक हो द्रब्यका ध्याता चिन्तन करता है। इसलिए इसको एकत्व वितर्क ध्यान कहा गया है ।१८८३। स. सि./६/४४/४५६/४ सएव पुनः समूलतूल मोहनीय निर्दिधक्षन नन्तगुण विशुद्धियोगविशेषमाश्रित्य बहुतराणां ज्ञानावरणीय सहायीभूतानां प्रकृतीनां बन्ध निरुन्धन स्थिति ह्रासक्षयौ च कुर्वन् श्रुतज्ञानोपयोगी निवृत्तार्थव्यजनयोगसंक्रान्ति अविचलितमना: क्षीणक्यायो वैडूर्यमणिरिक निरुपलेपो ध्यात्वा पुनर्न निवर्तत इत्युक्तमेकत्ववितर्कम् । - पुनः जो समूल मोहनीय कर्म का दाह करना चाहता है, जो अनन्तगुणी विशुद्धि विशेषको प्राप्त होकर बहुत प्रकारकी ज्ञानावरणीकी सहायभूत प्रकृतियों के बन्धको रोक रहा है, जो कर्मों की स्थितिको न्यून और नान कर रहा है, जो श्रुतज्ञानके उपयोगमे युक्त है. जो अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्तिसे रहित है। निश्चलमन बाला है, क्षीण कषाय है और वैडूर्यमणिके समान निरुपलेप है,...इस प्रकार एकत्व वितर्क ध्यान कहा गया है । (रा. वा./६/४४/१/६३४/३१) । ध. १३/५,४,२६/गा.६१-६३/७६ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेक्केण अण्णदरएण । रवीणकसाओ ज्झायइ तेणेयतं तम् भणि ६१। जम्हा सुदं विदक्क जम्हा पुधगय अत्थ कुसलो य। ज्झायदि झाणं एवं सविदवक तेण तज्माण ६२। अत्थाण बंजणाण य जोगाण य संकमोह विचारो। तस्स अभावेश तगं झाण मवीचारमिदि वृत्त ।६३। व. १३/५,४,२६/८०/१ णवपश्यत्येसु दव्य-गुण-पज्जयथं दव्य-गुण-पज्जय भेदेण ज्झाएदि, अण्णदरजोगेण अण्गदराभिधाणेण य तत्थ एगम्हि दवे गुणे पज्जाए बा मेरुमहियरोव्व णिच्चलभावेण अवट्ठियचित्तस्स असंखेज्जगुणसेडीए कम्मरबंधे मालयंतस्स अणं तगुणहीणाए सेडीए कम्माणुभागं सोसयंतस्स कम्माण छिदोयो एगजोगएगाभिहाण झाणेण घादयंतस्स अंतोमुत्तमेत कालो गच्छत्ति तदो सेसरवीणक् सायमेतद्विदीयो मोत्तूण उवरिमसद्विदियो घेत्तण उदयादिगुणसे डिसरूवेण रचिय पुणो टिदिखंडएण विणा अघटिदिगलणेण असंखेज्जगुणसेडीए कम्मक्खंधे घाईतो गच्छादि जाव रवीण कसायचरिमसमओ त्ति। तत्थ खीणकसायचरिमसमए णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराश्याणि विणादि । एदेसु णि? सु केवलणाणी केवल दंसणी अणं तवीरियो दाण-लाह-भोगुवभोगेसु विग्धज्जियो होदि ति घेत्त । -१. यतः क्षीणकषाय जीव एक ही द्रव्यका किसी एक योगके द्वारा ध्यान करता है, इसलिए उस ध्यानको एकत्व कहा है।६११ यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है और इसलिए पूर्वगत अर्थ में कुशल साधु इस ध्यानको ध्याता है, इसलिए इस ध्यानको सवितर्क कहा है।६। अर्थ, व्यंजन और योगोके संक्रमका नाम वीचार है। यतः उस विचारके अभावसे यह ध्यान अवीचार कहा है ।६३॥ (त. सा./७/४८-५०); ( क. पा. १/१, १७/६ ३१२/३४४/१५); (ज्ञा./४२/१३-१४)1 २. जो जीव नौ पदार्थों में से किसी एक पदार्थका द्रव्य, गुण और पर्यायके भेदसे ध्यान करता है। इस प्रकार किसी एक योग और एक शब्दके आलम्बनसे वहाँ एक द्रव्य, गुण या पर्यायमें मेरु पर्वतके समान निश्चल भावसे अबस्थित चित्तवाले, असंख्यात गुणश्रेणि क्रमसे कमस्कन्धोंको गलानेवाले, अनन्त गुणहीन श्रेणिक्रमसे कर्मों के अनुरागको शोषित करनेवाले और कमों की स्थितियोको एक योग तथा एक शब्दके आलम्बनसे प्राप्त हुए ध्यानके बलसे घात करनेवाले उस जीवका अन्तमुहूर्त काल रह जाता है। तदनन्तर शेष रहे क्षीणकषायके कालका प्रमाण स्थितियों को छोड़कर उपरिम सन स्थितियोंकी उदयादि श्रेणि रूपसे रचना करके पुनः स्थिति काण्डक घातके बिना अध.स्थिति गलना आदि ही असंख्यात गुणश्रेणि कमसे कर्म स्कन्धोंका घात करता हुआ क्षीण कषायके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक जाता है। वहाँ क्षीण कषायके अन्तिम समयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तरायका घात करके केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, अनन्तवीर्यधारी तथा दान-लाभ-भोग व उपभोगके विध्नसे रहित होता है। (चा. सा /२०६/३)। द. सं./टी./४८/२०४/४ निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्ति. पर्याये वा निरुपाधिस्वसंवेदनगुणे वा यत्रै कस्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्क संज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्नुतवलेन रिथरीभूयावी चार गुणद्रव्यपर्याय परावर्तनं न करोति यत्तदेकत्ववितर्कावीचारसंज्ञे क्षीणकषायगुणस्थानसंभवं द्वितीयं शुक्लध्यानं भण्यते । तेनैव केवलज्ञानोत्पत्ति' इति । निज शुद्धात्म द्रव्यमें या विकार रहित आत्मसुख अनुभवरूप पर्यायमें, या उपाधि रहित स्व संवेदन गुणमें. इन तीनों में से जिस एक द्रव्य गुण या पर्यायमें प्रवृत्त हो गया और उसी में बितर्क नामक निजात्मानुभवरूप भाव श्रुतके बलसे स्थिर होकर अवीचार अर्थात द्रव्य गुण पर्यायमें परावर्तन नहीं करता वह एकत्व वितर्क नामक गुणस्थानमें होनेवाला दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है जो कि केवल ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है। ७. सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपातीका स्वरूप भ, आ./म्/१८८६-१८८७ अवितक्कमवीचार सुहुमकिरियबंधणं तदियसुक्कं । सुहमम्मि कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं १८८६। सुहमम्मि कायजोगे वट्टतो केवली तदियसुक्कम् । झायदि णिरु भिर्दुजे सुहमत्तणकाय जोगपि ११८८७) -वितर्क रहित, अवीचार, सूक्ष्म क्रिया करनेवाले आत्माके होता है। यह ध्यान सूक्ष्म काय योगसे है ।१८८६। प्रवृत्त होता है। त्रिकाल विषयक पदार्थोंको युगपद प्रगट करनेवाला इस सूक्ष्म काययोगमें रहनेवाले केवली इस तृतीय शुक्लध्यान के धारक हैं। उस समय सूक्ष्म काययोगका चे निरोध करते हैं ११८८७४ (भ. आ./मू./२११४), (ध. १३/५, ४. २६/गा. ७२-७३/८३), (त. सा.//५१-५२), (ज्ञा/४२/५१) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. शुक्लध्यान निर्देश घ. १३/१४,२६/८७/६ समुच्छिन्नक्रिया योगो यस्मिन् तत्समुच्छिन्नक्रियम् । समुच्छिन्न क्रियं च अप्रतिपाति च समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । श्रुतरहितत्वात अबितर्कम् । जीवप्रदेशपरिस्पन्दाभाबादवीचारं अर्थव्यजनयोगसंक्रान्त्यभावाद्वा। जिसमें क्रिया अर्थात योग सब प्रकारसे उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्न क्रिय है और समुच्छिन्न क्रिया होकर जो अप्रतिपाती है वह समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति ध्यान है। यह भूतज्ञानसे रहित होने के कारण अबितर्क है, जीव प्रदेशों के परिस्पन्दका अभाव होने से अविचार है, या अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्ति के अभाव होनेसे अविचार है। द्र.सं./टी./४८/२०४/१ विशेषगोषरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद व्युपरतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्तकं च तद् व्युपरतक्रियानिवृत्तिसंज्ञ चतुर्थ शुक्लध्यान । -विशेष रूपसे उपरत अर्थात दूर हो गयी है -क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति हो वह व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा चतुर्थ शुक्ल ध्यान है। शुक्लध्यान स.सि./३/४४/४५६/८ एवमेकत्ववितर्कशुक्लध्यानवैश्वानरनिग्धयातिकर्मेन्धन... स यदान्तर्मुहुर्त शेषायुष्कः । तदा सर्व बाङ्मनसयोग बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाययोगालम्बनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानमास्कन्दितुमर्हतीति । ...समी कृतस्थितिशेषकर्मचतुष्टयः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति ।- इस प्रकार एकरव वितर्क शुक्लध्यानरूपी अग्निके द्वारा जिसने चार घातिया कर्म रूपी इंधनको जला दिया है। वह जब आयु कर्ममें अन्तर्मुहूतं काल शेष रहता है...तब सब प्रकारके वचन योग, मनोयोग, और बादर काययोगको त्यागकर सूक्ष्म काययोगका आलम्बन लेकर सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यानको स्वीकार करते हैं। परन्तु जन उनकी सयोगी जिनकी आयु अन्तमुहूर्त शेष रहती है।... तब ( समुद्घातके द्वारा) चार कर्मोकी स्थितिको समान करके अपने पूर्व शरीर प्रमाण होकर सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ध्यानको स्वीकार करते हैं ( रा. वा./१/४४/१/६३५/१), (ध. १३/५, ४, २६/८३-८६/१२), (चा. सा./२०७/३) । च, १३/५,४,२६/३/२ संपहि तदिय सुक्कझाण परूवणं कस्सामो। त जहा-क्रिया नाम योगः। प्रतिपतितुं शीलं यस्य तत्प्रतिपाति । तत्प्रतिपक्षः अप्रतिपाति । सूक्ष्म क्रिया योगो यस्मिन तत्सूक्ष्मक्रियम् । सूक्ष्मक्रियं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । केवलज्ञानेनापसारितश्रुतज्ञानत्वात् तद वितर्कम् । अर्थान्तरसंक्रान्त्यभावात्तदवीचार व्यञ्जन-योगसंक्रान्त्यभावाद्वा । कथं तत्संक्रान्त्यभावः । तदवष्टम्भवलेन विना अक्रमेण त्रिकालगोचराशेषावगतेः।- अब तीसरे शुक्ल ध्यानका कथन करते हैं यथा-क्रियाका अर्थ योग है वह जिसके पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है, और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता है। जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है, और सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। (द्र. सं./टी/४८/२०४/८) यहाँ केवलज्ञानके द्वारा श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता है, इसलिए यह अवितर्क है और अतिरकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है, अथवा व्यंजन और योगकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अविचार है। प्रश्न-इस ध्यानमें इनकी संक्रान्तिका अभाव कैसे है। उत्तर-इनके अवलंबनके बिना ही युगपत त्रिकाल गोचर अशेष पदार्थों का ज्ञान होता है। २. शुक्लध्यान निर्देश १. शुक्ल ध्यान में श्वासोच्छ वासका निरोध हो जाता है प. प्र./म./२/१६२ णास-विणिग्गउ सासडा अंवरि जेत्थु विलाइ। तुट्ठइ मोह तड त्ति तहिं मणु अस्थवणहं जाइ १६२। -नाकसे निकला जो श्वास वह जिस निर्विकल्प समाधिमें मिल जावे. उसी जगह मोह शोध नष्ट हो जाता है, और मन स्थिर हो जाता है ।१६२१ भ, आ./वि./१८८८/१६६१/४ अकिरियं समुच्छिन्नप्राणापानप्रचार। - इस ( समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ) ध्यानमें सर्व श्वासोच्छ्वासका प्रचार बन्द हो जाता है। २.पृथक्त्व वितमें प्रतिपातपना सम्मव है ध. १३१५.४,२६/पृ. पक्ति तदो परदो अस्थतरस्स णियमा संकम दि (७८/१०) उवसंतकसाओ...पुधत्तविदकवी चारज्माण... अंतोमुहूत्तकाल ज्झायइ (७८/१४) एवं एदम्हादो णिचुइगमणाणुवलं भादो (६/१) उबसंत । - अर्थ से अर्थान्तरपर नियमसे संक्रमित होता है ।...इस प्रकार उपशान्त कषाय जीव पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानको अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्याता है । इस प्रकार...इस ध्यान के फलसे मुक्तिको प्राप्ति नहीं होती। ८. समुच्छिन्न क्रिया निवृत्तिका स्वरूप भ. आ./मू./१८८८, २१२३ अवियस्कमवीचार अणियट्टिमकिरियं च सीलेसिं । ज्झाणं णिरुद्धयोग अपच्छिम उत्तम सुक्क १८८८। देहतियबंधपरिमोक्रवत्थं केवली अजोगी सो। उवयादि समच्छिपण- किरियं तु झाण अपडिवादी ।२१२३। -अन्तिम उत्तम शुक्लध्यान वितर्क रहित है, वीचार रहित है, अनिवृत्ति है, क्रिया रहित है, शैलेशी अवस्थाको प्राप्त है और योग रहित है। (ध. १३/३,४, २६/गा, ७७/८७) औदारिक शरीर, तैजस घ कार्मण शरीर इन तीन शरीरोंका बन्ध नाश करनेके लिए वे अयोगिकेवली भगवान समुच्छिन्न क्रिया निवृत्त नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्याते हैं (त. सा.//५३.५४)। स. सि./६४४/४५७/६ ततस्तदनन्तर समुच्छिन्नक्रियानिर्वत्तिध्यानमार भते । समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकायवाङ्मनोयोगसर्व प्रदेशपरिस्पन्द क्रियाव्यापारत्वात समुच्छिन्न निवृत्तीत्युच्यते। - इसके बाद चौथे समुचि अन्न क्रिया निवृति ध्यानको प्रारम्भ करते हैं। इसमें प्राणापानके प्रचार रूप क्रियाका तथा सब प्रकारके काययोग वचनयोग और मनोयोगके द्वारा होनेवाली आत्म प्रदेश परिस्पन्द रूप क्रियाका उच्छेद हो जानेसे इसे समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ध्यान कहते हैं (रा. वा./६/४४/१/६३६/११), (चा, सा./२०१/३)। ३. एकत्व वितर्क में प्रतिपातका विधि निषेध स.सि./६/४४/४५६/८ ध्यात्या पुनर्न निवर्तत इत्युक्तमेकत्ववितर्कम् । ___-वह ध्यान करके पुनः नहीं लौटता। इस प्रकार एकत्व वितर्क ध्यान कहा। ध, १३/५,४,२६/८२/६ उवसंतकसायम्मि भवद्धारव एहि कसाए सु णिवदिवम्मि पडियादुवलं भादो।-उपशान्त कषाय जीवके भवक्षय और कालक्षयके निमित्तसे पुनः कषायों के प्राप्त हानेपर एकरव वितर्कअविचार ध्यानका प्रतिपात देखा जाता है। । १. चारों शुक्लध्यानों में अन्तर भ. आ./वि./१८८४-१८८५/१६८७/२० एकद्रव्यालम्बनत्वेन परिमितानेकसर्वपर्यायद्रव्यालम्बनात प्रथमध्यानात्समस्तवस्तुविषयाभ्यां तृतीय. चतुर्थाभ्यां च विलक्षणता द्वितीयस्यानया गाथया निवेदिता । क्षीणकषायग्रहणेन उपशान्तमोहस्वामिकत्वात् । सयोग्ययोगकेवलिस्वामिकाभ्यां च भेदः पूर्ववदेव । पूर्वव्यायणितवीचाराभावादवीचारत्वं ।- यह ध्यान ( एकस्व वितर्क ध्यान ) एक द्रव्य का ही आश्रय करता है इसलिए परिमित अनेक पर्यायों सहित अनेक द्रव्योंका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान ३६ ३. शुक्लध्यानों का स्वामित्व व फल आश्रय लेने वाले प्रथम शुक्ल ध्यानसे भिन्न है। तीसरा और चौथा ध्यान सर्व वस्तुओंको विषय करते हैं अतः इनसे भी यह दूसरा शुक्ल ध्यान भिन्न है, ऐसा इस गाथासे सिद्ध होता है। इस ध्यान का स्वामित्व क्षीण कषायवाला मुनि है पहले ध्यानका स्वामित्व उपशान्त कषायवाला मुनि है और तीसरे तथा चौथे शुक्लध्यानका स्वामित्व सयोग केवली तथा अयोग केवली मुनि है । अतः स्वामित्वकी अपेक्षासे दूसरा शुक्लध्यान इन ध्यानोंसे भिन्न है। (भ. आ./ वि./१८८२/१६८५/४)। ५. शुक्ल ध्यानमें सम्मव भाव व लेश्या चा. सा./२०५/५ तत्र शुक्लतरलेश्यावलाधानमन्तर्मुहर्तकाल परिवर्तन क्षायोपशमिकभावम् । यह ध्यान शुक्लतर लेश्याके बलसे होता है और अन्तर्मुहूर्त कालके बाद बदल जाता है ! यह क्षायोपशमिक भाव है। ३. शुक्लध्यानोंका स्वामित्व व फल 1. पृथक्त्व वितर्कवीचारका स्वामित्व भ. आ./न.१८८१ जम्हा सुदं वितक्क जम्हा पुनगद अत्थ कुसलो य । ज्झायदि ज्माण एद' सवितक्कं तेण तंभाणं १८८११-इस ध्यानका स्वामी १४ पूर्वोके ज्ञाता मुनि होते हैं। (त. सू./६/३७) (म. पु/ २१/१७४)। स. सि./8/४१/४४४/११ उभयेऽपि परिप्राप्तश्रुतज्ञानमिष्ठेनारम्ये ते इत्यर्थः । जिसने सम्पूर्ण श्रुत ज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके द्वारा ही दो ध्यान आरम्भ किये जाते हैं। (रा. वा./६/४१/२/६३३/ २०); (ज्ञा./४२/२२)। ध, १३/५.४,०६/७८/७ उवसंतकसायवोयरायछमत्थो चोद्दस-दस-णबपुबहरो पसत्थति विहसंघडणो कसाय-कलं कत्तिण्णो तिसु जोगेसु एकजोगम्हि वट्टमाणो। ध. १३/५,४,२६/८१/८ ण च वीणकसायाए सम्वत्थ एयत्तविदकाबीचारज्माणमेव...। १. चौदह, दस, नौ पूर्वोका धारी, प्रशस्त तीन संहननवाला, कषाय कलं कसे पारको प्राप्त हुआ और तीनों योगों में किसी एकमें विद्यमान ऐसा उपशान्त कषाय वीतरागछमस्थ जीव । २. क्षीणकषायगुणस्थान के काल में सर्वत्र एकत्व वितर्क अविचार ध्यान ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं है। ( अर्थात् वहाँ पृथक्त्व वितर्क ध्यान भी होता है । दे. शुक्लध्यान/३/३ ॥ चा. सा./२०६/१ चतुर्दशदशनवपूर्वधरयतिवृषम निषेव्यमुपशान्तक्षीणकषायभेदात् । - चौदह पूर्व, दशपूर्व अथवा नौ पूर्व को धारण करनेवाले उत्तम सुनियों के द्वारा सेवन करने योग्य है और उपशान्त कषाय तथा क्षीण कषायके भेदसे...1 द्र. सं./टो./२०४/१ तच्चोपशमश्रेणिविवक्षायामपूर्वोपशमकानिवृत्युपशम कसूक्ष्मसाम्परायोपशमकोपशान्तकषायपर्यन्तगुणस्थानचतुष्टये भवति । क्षपकश्रेण्या पुनरपूर्वकरणक्षपकानिवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसाम्परायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये चेति प्रथम शुक्लध्यानं व्याख्यातं । यह प्रथम शुक्लध्यान उपशम श्रेणिकी विवक्षामें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्परायउपशमक तथा उपशान्तकषाय इन चार गुणस्थानों में होता है। क्षपक श्रेणिकी विवक्षामें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्परायक्षपक इन तीन गुणस्थानों में होता है। २. एकत्ववितर्क अवीचार ध्यानका स्वामित्व भ, आ,/मू./२०६६/१८१२ तो सो वीणकसाओ जायदि स्त्रीणामु लोभ- किट्ठी । एप्रत्त वितकावीचार तो झादि सो काणं == जब संज्वलन लोभकी सूक्ष्मकृष्टि हो जाती है, और क्षीणकषाय गुणस्थान प्राप्त होता है तब मुनिराज एकत्व वितर्क ध्यानको ध्याते हैं। (ज्ञा./४२/२५) । दे. शुक्लध्यान/३/१ में. स. सि. पूर्वोके ज्ञाताको ही यह ध्यान होता है । ध. १/५,४,२६/७६/१२ खीण कसाओ सुक्कले स्सिओ ओघबलो ओघसरो वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणो अण्णदरसंठाणो चोहसपुव्वधरो दसपुवहरो णव पुत्रहरी बा खड्यसम्माइछी खविदासेसकसाय वग्गो । ध. १३/३,४,२६१८१/७ उवसंतकसायम्मि एयत्त विदक्काविचारं । १. जिसके शुक्ल लेश्या है, जो निसर्गसे बलशाली है, निसर्ग से सूर है, वज्रऋषभनाराच संहननका धारी है, किसी एक संस्थानाला है, चौदह पूर्वधारी है, दश पूर्वधारी है या नौ पूर्वधारी है, क्षायिक सम्यग्दृष्टि है और जिसने समस्त कषाय बर्गका क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही समस्त कषायोंकाक्ष्य करता है । २, उपशान्त कषाय गुणस्थानमें एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान होता है। चा, सा./२०६ पूर्वोक्तक्षीणकषायावशिष्ट कालभूमिकम...। - पहिले कहे हुए क्षीण कषायके समयसे बाकी बचे हुए समयमें यह दूसरा शुक्लध्यान होता है। द्र. सं.टी/४८/२०४/७ क्षीण कषायगुणस्थानसंभवं द्वितीयं शुक्लध्यानं । -दूसरा शुक्लध्यान क्षीणकषाय गुणस्थानमें ही सम्भव है। ३. उपशान्त कषायमें एकत्ववितर्क कैसे ध. १३/५,४,२६/८१/७ उवसंतकसायम्मि ऐयत्तविदकवीचारसंते 'उपसंतो दु पुधत्तं' इच्चेदेण विरोहो होदि त्ति णासंकणिज्ज, तस्थ पुधत्तमेवे त्ति णियमाभावादो। ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदकावीचारज्माणमेव, जोगपराबत्तीए एगसमयपरूवणण्णहाणुववत्तिबलेण तदबादीए पुत्तिविदक्कवीचारस्स वि संभवसिद्धीदो। -प्रश्न-यदि उपशान्त कषाय गुणस्थानमें एकत्व वितर्क वीचार ध्यान होता है तो 'उब संतो दु प्रधत्तं' इत्यादि गाथा वचनके साथ विरोध आता है 1 उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उपशान्त कषाय गुणस्थान में केवल पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। और क्षीणकषाय गुणस्थान कालमें सर्वत्र एकत्व अवितर्क ध्यान ही होता है, ऐसी भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि वहाँ योग परावत्तिका कथन एक समय प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता। इससे क्षीणकषाय काल के प्रारम्भ में पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका अस्तित्व भी सिद्ध होता है। ४. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती व समुच्छिन्न क्रिया निवृत्तिका स्वामित्व त. सू./६/३८, ४० परे केवलिनः ॥३८.. योगायोगानाम् ॥४०॥ स. सि./६/४०/४५४/७ काययोगस्य सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति, अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवर्तीति । - काययोगबाले केवलिके सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है और अयोगी केवलीके व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यान होता है । ( स. सि. ६/३/४५३/६ ); (रा. वा./६/३८,४०/१,२/८,२१) ! दे. शुक्लध्यान/१/७,८ सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त कालमें जब भगवान स्थूल योगोंका निरोध करके सूक्ष्म काययोगमें प्रवेश करते हैं तब उनको सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता है। और अयोग केवली गुणस्थान में योगीका पूर्ण निरोध हो जानेपर समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति नामका चौथा शुक्ल ध्यान होता है। ५. स्त्री को शुक्लध्यान सम्भव नहीं सू. पा./मू./२६ चित्तासोहि ण तेसिं दिल्लं भावं तहा सहावेण । विज्जदि मासा तेसि इत्थीसुण संकया भाणा ।२६।-स्त्रीके चित्तकी शुद्धि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ शुक्लध्यान ४. शंका समाधान नहीं, और स्वभावसे ही शिथिल परिणाम है । तथा तिनके प्रति मास रुधिरका स्राव होता है, उसकी शंका बनी रहती है इसलिए स्त्रीके ध्यानकी सिद्धि नहीं है ।२६। है. चारों ध्यानोंका फल १. पृथक्त्व वितर्क वीचार ध. १३/१.४.२६/७४/१ एवं संवर-णिज्जरामरसुहफलं एदम्हादो णिब्यु इगमणाणुवलं भादो। इस प्रकार इस ध्यानके फलस्वरूप संघर, निर्जरा और अमरसुख प्राप्त होता है, क्योंकि इससे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती। चा. सा./२०६/२ स्वर्गापवर्गगतिफलसंवर्तनीय मिति । - यह ध्यान स्वर्ग और मोक्षके मुखको देनेवाला है। दे धर्मध्यान/३/५/२ मोहनीय कर्मकी सर्वोपशमना होने पर उसमें स्थित रखना पृथक्त्व वितर्क बिचार नामक शुक्लध्यान का फल है। ज्ञा./४२/२० अस्याचिन्त्यप्रभावस्य सामथ्यत्सि प्रशान्तधीः । मोहमुन्मूलयत्येव शमयत्यथवा क्षणे ।२०। इस अचिन्त्य प्रभाववाले ध्यानके सामर्थ्यसे जिसका चित्त शान्त हो गया है, ऐसा ध्यानी मुनि क्षण भरमें मोहनीय कर्मका मूलसे नाश करता है अथवा उसका उपशम करता है ।२०॥ २. एकत्व वितर्क अवीचार दे. धर्मध्यान/३/१/२ तीन घाती कोका नाश करना एकत्व वितर्क अवीचार शुक्लध्यानका फल है। ३. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध. १३/५,४,२६/गा. ७४,७५/८६,८७ तोयमिव णालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा। परिहादि कमेण तहा जोगजलं झाण जलणेण ।७४। तह बादरतणुविसर्य होगविमं ज्माणमंतबलजुत्तो । अणुभावम्मिणिरु'भदि अवणेदि तदो वि जिणवेज्जो ७६। जिस प्रकार नाली द्वारा जलका क्रमशः अभाव होता है या तपे हुए लोहे के पात्र में क्रमश: जल का अभाव होता है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्निके द्वारा योगरूपी जलका क्रमशः नाश होता है 1७४। ध्यानरूपी मन्त्रके बलसे युक्त हुआ वह सयोगकेवली जिनरूपी वैद्य बादर शरीर विषयक योग विषको पहले रोकता है और इसके बाद उसे निकाल फेंकता है ७६। ४. सम्मुच्छिन क्रिया निवृत्ति घ. १३/५.४.२६/०८/१ सेलेसियअद्धाए उझोणाए सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धि गच्छादि । -शैलेशी अवस्थाके कालके क्षीण होनेपर सब कोसे मुक्त हुआ यह जीव एक समयमें सिद्धिको प्राप्त होता है। निवत्तिता भवति।२११ - प्रश्न--यदि ध्यान में अर्थ व्यंजन योगकी संक्रान्ति होती है तो एकाग्र' बचन कहने में भी अनिष्टका प्रसगसमान, ही है। उत्तर-ऐसा नहीं क्योंकि अपने विषयके अभिमुख होकर पुन: पुनः उसी में प्रवृत्ति रहती है । अग्रका अर्थ मुख्य होता है, अतः ध्यान अनेकमुखी न होकर एकमुखी रहता है और उस मुख में ही संक्रम होता रहता है। अथवा “अङ्गतीति अग्रम् आरमा' इस व्युत्पत्तिमें द्रव्यरूपसे एक आत्माको लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है। ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें बाह्य चिन्ताओंसे निवृत्ति होती है। ध. १३/५,४,२६/गा. ५२/७६ अंतोमुहुत्तपरदो चिंता-ज्माणं तरं व होज्जादि । सुचिरं पिहोज्ज बहूवत्थुसं कमे ज्झाणसंताणो ।।२।। ध. १३/५.४,२६/७५/५ अत्यंतरसंचाले संजादे वि चित्तंतरगमणाभावेण ज्झाणविणासाभावादो। -१. अन्तर्महर्त के बाद चिन्तान्तर या ध्यानान्तर होता है, या चिरकाल तक बहुत पदार्थोंका संक्रम होनेपर भी एक ही ध्यान सन्तान होती है ।५२३ २. अर्थान्तरमें गमन होनेपर भी एक विचारसे दूसरे विचार में गमन नहीं होनेसे ध्यानका विनाश नहीं होता। ज्ञा./४२/१८ अर्थादिषु यथा ध्यानी संक्रामत्यविलम्बितम् । पुनर्व्यावर्त्तते तेन प्रकारेण स हि स्वयम् ॥१८। - जो ध्यानी अर्थ व्यंजन आदि योगों में जैसे शीघ्रतासे संक्रमण करता है, वह ध्यानी अपनेआप उसी प्रकार लौट आता है। प्र.सा./ता, बृ./१०४/२६२/१२ अल्पकालत्वात्परावर्तनरूपध्यानसंतानो न घटते । अल्प काल होनेसे ध्यान सन्तति की प्रतीति नहीं होती। भा. पा./टी./७८/२२७/२१ यद्यप्यर्थव्यठजनादि संक्रान्तिरूपतया चलन वर्तते तथापि इदं ध्यानं । कस्मात् । एवं विधस्यै बास्य विवक्षितत्वात । विजातीयानेकविकल्परहितस्य अर्थादिसंक्रमेण चिन्ताप्रबन्धस्यैव एतद्यानत्वेनेष्टत्वात् । अथवा द्रव्यपर्यायात्मनो वस्तुन एकत्वात सामान्यरूपतया व्यजनस्य योगानो चै की करणादेकार्थचिन्तानिरोधोऽपि घटते। द्रव्यात्पर्याय व्यन्जनाद्वयञ्जनान्तर योगायोगान्तरं विहाय अन्यत्र चिन्तावृत्ती अनेकार्थतान द्रव्यादेः पर्यायादी प्रवृत्तौ। यद्यपि पृथक्त्व बितर्क वीचार ध्यानमें योगकी संक्रान्ति रूपसे चंचलता वर्तती है फिर भी यह ध्यान ही है क्योंकि इस ध्यान में इसी प्रकारको विवक्षा है और विजातीय अनेक विकल्पों से रहित तथा अर्थादि के संक्रमण द्वारा चिन्ता प्रबन्धक इस ध्यानके ध्यानपना इष्ट है । अथवा क्योंकि द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुमें एकपनर पाया जाता है इसलिए व्यंजन व एकीकरण हो जानेसे एकार्थ चिन्ता निरोध भी घटित हो जाता है। द्रव्यसे पर्याय, व्यंजनसे व्यंजनान्तर और योगसे योगान्तर इन प्रकारों को छोड़कर अन्यत्र चिन्तावृत्तिमें अनेकार्थता या द्रव्य व पर्याय आदिमें प्रवृत्ति नहीं है। पं.ध./उ./८४६-८५१ ननु चेति प्रतिज्ञा स्यादर्थादर्थान्तरे गतिः । आत्मनोऽन्यत्र तत्रास्ति ज्ञानसंचेतनान्तरम् ।८४६। सत्य हेतरेविपक्षत्वे वृत्तित्वाद व्यभिचारिता। यतोऽत्रान्यात्मनोऽन्यत्र स्यात्मनि ज्ञानचेतना ८५० किंच सर्वस्य सदृष्टेनित्यं स्याज्ञानचेतना । अव्युच्छिन्नप्रवाहेण यद्वारखण्डै कधारया ८५१ -प्रश्न-यदि ज्ञानका संक्रमणात्मकपना ज्ञानचेतना बाधक नहीं है तो ज्ञान चेतनामें भी मतिज्ञानपनेके कारण अर्थ से अर्थान्तर संक्रमण होनेपर आत्माके इतर विषयों में भी ज्ञानचेतनाका उपयोग मानना पड़ेगा ! उत्तरठीक है कि हेतुकी विपक्ष में वृत्ति होनेसे उसमें व्यभिचारीपना आता है। क्योंकि परस्वरूष परपदार्थ से भिन्न अपने इस स्वात्मामें ज्ञान चेतना होती है। तथा सम्पूर्ण सम्यग्दृष्टियोंके धारा प्रवाहमें अथवा अखण्ड धारासे ज्ञान चेतना होती है। २. योग संक्रान्तिका कारण रा. वा, हि/8/४४/७५८ उपयोग क्षयोपशम रूप है सो मनके द्वारा होय प्रवर्ते है । सो मनका स्वभाव चंचल है । एक शेयमें ठहरे नाही। याही ४. शंका समाधान १. संक्रान्ति रहते ध्यान कैसे सम्भव है स. सि./६/४/४५५/१३ की टिप्पणी-संक्रान्तौ सत्यो कथं ध्यानमिति चेत् ध्यानसंतानमपि ध्यानमुच्यते इति न दोषः। =प्रश्नसंक्रान्तिके होनेपर ध्यान कैसे सम्भव है : उत्तर-ध्यानकी सन्तति को भी ध्यान कहा जाता है इसमें कोई दोष नहीं है। रा, वा./६/२७/१६,२१/६२६-६२७/३५ अथमेतत्-एकप्रवचनेऽपि तस्यानिष्टस्य प्रसङ्गतुल्य इति; तन्न; किं कारणम् । आभिमुरम्ये सति पौनःपुन्येनापि प्रवृत्तिज्ञापनार्थत्वात् । अग्रं मुखमिति ह्युच्यमानेऽनेकमुखत्वं निवर्तितं एकमुखे तु संक्रमोऽभ्युपगत एवेति नानिष्टप्राप्ति ११॥ अथवा अतीत्यग्रमात्मेत्यर्थः। द्रव्यार्थ तय कस्मिन्नात्मन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानम् । ततः स्ववृत्तित्वात बाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुचि ३८ तै इस पहिले ध्यान विषै, अर्थ व्यंजन योगके विषय उपयोगकी २. अन्य सम्बन्धित विषय पलटनी बिना इच्छा होय है। १. जीवमें कार्यचित् शुद्धत्व व अशुद्धत्व । --दे. जीव/३। ३.योग संक्रान्ति बन्धका कारण नहीं रागादि हैं। २. शुद्धाशुद्ध पारिणामिक भाव । -दे. पारिणामिक। पं.ध./उ./८८० व्याप्तिबन्धस्य रागाचे व्याप्तिविकल्पैरिव। विकरुपैर शुद्ध चेतना-दे. चेतना/१॥ स्य चाव्याप्ति न व्याप्तिः किल तैरिव ८८०- रागादि भावो के साथ बन्धकी व्याप्ति है किन्तु जैसे ज्ञान के विकल्पोके साथ अव्याप्ति है शुद्धद्रव्याथिक नय-दे, नय/IVIR I वैसे ही रागादिके साथ बन्धकी अव्याप्ति नहीं, अर्थात् विकल्पोंके शुद्धनय-दे. नय/५/४। साथ इस बन्धकी अव्याप्ति ही है, किन्तु रागादिके साथ जैसी बन्धकी व्याप्ति है ऐसी बन्धके विकल्पोंके साथ व्याप्ति नहीं हैं १८८०। शुद्ध निश्चयनय-दे. नय/V/१ । शुद्ध पर्यायाथिक नय-दे. नय/IV/४ | चि-१. रा. वा/8/७/६/६०२/४ शुचितं द्विविधम-लौकिक लोकोत्तरं चेति । तत्रात्मन' प्रक्षालित कर्ममलक्लङ्कस्य स्वात्मन्य शुद्धमति-भूत कालीन द्वाविंशति तीर्थकर-दे. तीर्थंकर५ । वस्थानं लोकोत्तरं शुचित्वम् तत्साधनं च सम्यग्दर्शनादि तद्वन्तश्च शुद्धात्म दर्शन-) साधवः तद धिष्ठानानि च निर्वाणभूम्यादोनि तत्प्राप्युपायत्वाच्छचिव्यपदेशमह न्ति । लौकिकं शुचित्वमप्ट विधम्-कालाग्निभस्म शुद्धात्म स्वरूप- निर्विकल्प समाधि के अपरनाम। -दे, मोक्षमार्ग/२१५॥ मृत्तिकागोमयसलिलज्ञाननिर्विचिकित्सत्वभेदात् । -लौकिक और शुद्धात्म ज्ञानलोकोत्तरके भेदसे शुचित्व दो प्रकारका है। कर्ममल-कोको धो शुद्धाद्वैत-दे, वेदान्त/७ । कर आत्माका आत्मामें ही अवस्थान लोकोत्तर शुचित्व है। इसके साधन सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयधारी साधुजन तथा उनसे अधिष्ठित शुद्धाभदेव-भूतकालीन पाँचवें तीर्थंकर-दे. तीथंकर। निर्माणभूमि आदि मोक्ष प्राप्तिके उपाय होनेसे शुचि हैं। काल, अग्नि, भस्म, मृत्तिका, गोबर, पानी, ज्ञान और निर्विचिकित्सा शुद्धि-जैनाम्नायमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भोजनादि आदि रूप अनेक ग्लानिरहितपना, इस प्रकार लौकिक-लाक प्रसिद्ध शुचित्व आठ प्रकारकी शुद्धियोंका निर्देश है जिनका विवेक यथायोग्य प्रत्येक प्रकार का है (चा. सा./११०/६)। धर्मानुष्ठानमें रखना योग्य है। रा.वा./4/१२/१०/५२३/४ लोभप्रकाराणामुपरमः शौचम् । = लोभके १. शुद्धि सामान्यका लक्षण प्रकारोंसे निवृत्ति शौच है। २.पिशाच जातीय व्यन्तर देवों का एक भेद-दे. पिशाच। स. सा./ता. वृ./३०६:३०७/३८८/१३ दोषे सति प्रायश्चित्तं गृहीत्वा विशुद्धि कारणं शुद्धिः । = दोष होनेपर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि शुतभुग-ई. श. ७ के उत्तरार्ध में मान्यखेट के राजा थे । (सि. वि) वरना शुद्धि कहलाती है। प्र.११ पं. महेन्द्र)। २. शुद्धिके भेद १. संयमकी आठ शुद्धियाँ १. शुद्धका लक्षण रा. वा./६/६/१६/५६६/१ अपहृतसंयमस्य प्रतिपादनार्थः शुद्धयष्टकोपदेशो ध, १३/५०५०५०/२८६/११ वचनार्थगतदोषातीतत्वाच्छदः सिद्धान्तः । द्रष्टव्यः । तद्यथा, अष्टौ शुद्धयः-भावशुद्धिः, कायशुद्धिः, विनयशुद्धिः, बचन और अर्थगत दोषों से रहित होने के कारण सिद्धान्तका ईर्यापथ शुद्धिः, भिक्षाशुद्धिः, प्रतिष्ठापनशुद्धिः शयनासनशुद्धिा. बाक्यनाम शुद्ध है। शुद्धिश्चेति । = इस अपहृत संयमके प्रतिपादन के लिए ही इन आठ आ. प/६ शुद्ध केवलभावम् । = शुद्ध अर्थात केवलभाव । शुद्धियोंका उपदेश दिया गया है-भाव शुद्धि, कायशुद्धि, विनयदे, तत्व/१/१ तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, परमपरम, ध्येय शुद्ध और शुद्धि, ईर्थापथ शुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापन शुद्धि, शयनासन शुद्धि परम एकार्थवाची हैं। और वाक्य शुद्धि । (रा. वा./८/१/३०/६६४/२६); (चा, सा./७६/१); स. सा./आ./६ अशेषद्रव्यान्तरभावेश्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध (अन. ध./६/४६)। इत्यभिलप्यते । -समस्त अन्य द्रब्योंके भावाँसे भिन्न उपासित २. सल्लेखना सम्बन्धी अन्तरंग व बहिरंग शुद्धियाँ होता हुआ 'शुद्ध' कहलाता है। भ, आ./मू./१६६-१६७/३७६-३८० आलोयणाए सेज्जसंथारुबहीण भत्तस. सा./ता. वृ./१०२/१६२/१६ निरुपाधिरूपमुपादानं शुद्ध', पीतस्वादि- पाणस्स । वेज्जावच्च कराण य सुद्धी खलु पंचहा होइ ।१६६। अहवा गुणानां सुवर्णवतः अनन्तज्ञानादिगुणानां सिद्रजीववत् । = निरुपाधि दसणणाणचरित्तमुखी य विणय सुद्धी य। आवासयसुद्धी वि य पंच रूप उपादान शुद्ध कहलाता है जैसे--सुवर्ण के पीतल आदि गुण, वियपा हवदि सुद्धी ।१६७५ = आलोचनाकी शुद्धि, शय्या और की भाति सिद्ध जीव के अनन्त ज्ञान आदि गुण । संस्तरकी शुद्धि, उपकरणोंकी शुद्धि. भक्तपान शुद्धि, इस प्रकार प. प्र./टो./१/१३ शुद्धो रागादिरहितो। = शुद्ध अर्थात रागादि रहित । वैयावृत्त्यकरण शुद्धि पाँच प्रकारकीद है ।१६६। अथवा दर्शन शुद्धि द्र. सं./टी./२८/८०/१ की चूलिका-मिथ्यात्वलगादिसमस्तविभाव ज्ञानशुद्धि. चारित्र शुद्धि, विनयशुद्धि, और आवश्यक शुद्धि ऐसी रहितत्वेन शुद्ध इत्युच्यते। -मिथ्यात्व, राग आदि भावों से रहित पाँच प्रकार की है ।१६७ =(अन. ध.//४२)। होने के कारण आत्मा शुद्ध कहा जाता है। पं.ध./उ./२२१ शुद्ध' सामान्यमात्रखादशुद्ध तद्विशेषतः। -वस्तु ३ स्वाध्याय सम्बन्धी चार शुद्धियाँ सामान्य रूपसे अनुभव में आती है तब वह शुद्ध है, और विशेष भेदोध,६/४,१.५४/२५३/१ एस्थ वक्रवणं तेहि मुणं तेहि वि दव-नेत्त-कालकी अपेक्षासे अशुद्ध कहलाती है। भ वसुद्धीहि वखाण पढणवावारो कायव्यो। - यहाँ व्याख्यान शुद्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि शुद्धि करनेवाले और सुननेवालोंको भी द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि हिसे व्यारण्यांन करने में या पढ़ने में प्रवृत्ति करना चाहिए। (विशेष-दे. स्वाध्याय/२); ( अन, ध./६/४/८४७)। ४. लिंग व व्रतकी १० शुद्धियाँ म. आ./७६ लिंगं बदं च मुद्धी बसदि विहारं च भिक्खणाणं च । उज्मणसुद्धी य पुणो वक्कं च तवं तधा झाणं १७६६। -लिंगशुद्धि, बतशद्धि, वसतिशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्झणशुद्धि, वाक्यशुद्धि, तपशुद्धि और ध्यानशुद्धि। ५ लौकिक आठ शुचियों दे. शुचि । काल, अग्नि, भस्म, मृतिका, गोबर, जल, ज्ञान और निर्विचिकित्साके भेदसे आठ प्रकारकी लौकिक शुचि है। ३. मन, वचन व काय शुद्धियोंका लक्षण भ, आ./वि./१६७/३८०/१३ दृष्टफलानपेक्षिता विनयशुद्धिः। तस्या सत्यामुपकरणादिलोभो निरस्तो भवति। -कीति आदर इत्यादि लौकिक फलों की इच्छा छोड़कर साधर्मिक जन, गुरुजन इत्यादिकोंका विनय करना विनय शुद्धि है, इसके होनेसे उपकरण आदि के लोभका अभाव होता है। नि. सा./म./११२ मदमाणमायलोहविवज्जिय भावो दु भावमुद्धि ति। परिकहियं भवाणं लोयालोयम्पदरिसीहिं ।-(आलोचना प्रकरणमे) मद, मान, माया ओर लोभ रहित भाव बह भाव शुद्धि है। ऐसा भव्योंको लोकालोकके द्रष्टाओंने कहा है ।११२। (मू. आ./२७६) नोट- वचनशुद्धि-दे. समिति/१। रा. वा./8/६/१६/५६७/४ तत्र भावशुद्धि कर्मक्षयोपशमज निता मोक्षमार्गरुच्याहितप्रसादा रागाद्य पप्लवरहिता । तस्यां सत्यामाचारः प्रकाशते परिशुद्रभित्तिगतचित्रकर्मवत। कायशुद्धिनिरावरणाभरणा निरस्तसस्कारा यथाजातमलधारिणी निराकृताङ्गविकारा सर्वत्र प्रयतवृत्तिः प्रशमसुखं मूतिमिव प्रदर्शयन्तीति । तस्यां सत्यां । न स्त्रतोऽन्यस्य भयमुपजायते नाप्यन्यतस्तस्य । विनयशुद्धिः अहंदादिषु परमगुरुषु यथाहं पूजा प्रवणा, ज्ञानादिषु च यथाविधि भक्तियुक्ता गुरोः सर्वत्रानुकूल वृत्तिः, प्रश्नस्वाध्यायवाचनाकथाविज्ञप्त्यादिषु प्रतिपत्तिकुशला, देशकालभावावबोधनिपुणा, आचार्यानुमतचारिणी। तन्मूलाः सर्वसपदः, सैषा भूषा पुरुषस्य, सैव नौः संसारसमुद्रतरणे। -भावशुद्धि-कर्मके क्षयोपशमसे जन्य, मोक्षमार्गको रुचिसे जिसमे विशुद्धि प्राप्त हुई है और जो रागादि उपद्रवोंसे रहित है वह भावशुद्धि है । इसके होनेसे आचार उसी तरह चमक उठता है जैसे कि स्वच्छ दिवालपर आलेखित चिन। कायशुद्धि-यह समस्त आवरण और आभरणोंसे रहित, शरीर संस्कारसे शून्य, यथाजात मलको धारण करनेवाली, अंगविकारसे रहित, और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति रूप है। यह मूर्तिमान प्रशमसुखकी तरह है। इसके होनेपर न तो दूसरोंसे अपनेको भय होता है और न अपनेसे दूसरो को। विनयशुद्धि-अर्हन्त आदि परम गुरुओंमें यथायोग्य पूजा-भक्ति आदि तथा ज्ञान आदिमें यथाविधि भक्तिसे युक्त. गुरुओंमे सर्वत्र अनुकूल वृत्ति रखनेवाली, प्रश्न स्वाध्याय, वाचना, कथा और विज्ञप्ति आदिमें कुशल, देश काल और भावके स्वरूपको समझने में तत्पर तथा आचार्यके मतका आचरण करनेवाली विनयशुद्धि है। समस्त सम्पदाएँ विनयमूलक है। यह पुरुषका भूषण है। यह संसार समुद्रसे पार उतारनेके लिए नौकाके समान है। ध.६/४,१.५४/२५४/१० अवगयराग-दोसाह कारट्ट-रुद्दज्माणस्स पंचमहब्वयकलिदस्स तिगुत्तिगुत्तस्स णाण-दसण-चरणादिचारण डढदस्स भिक्खुस्स भावसुद्धी हादि। -राग, द्वेष, अहंकार, आर्त व रौद्र ध्यानसे रहित, पाँच महावतोंसे युक्त, तीन गुप्तियों से रक्षित, तथा ज्ञान दर्शन व चारित्र आदि आचारसे वृद्धिको प्राप्त भिक्षुके भावशुद्धि होती है। वसु. श्रा./२२६-२३० चहऊण अट्टरुद्दे मण सुमी होई कायव्वा ।२२६) सव्वत्थसपुडंगस्स होइ तह काय सुद्धी वि ।२३०। - आर्त, रौद्र ध्यान छोड़कर मनःशुद्धि करना चाहिए ।२२६। सर्व ओरसे संपुटित अर्थात विनीत अंग रखनेवाले दातारके कायशुद्धि होती है। ४. द्रव्य. क्षेत्र व काल शुद्धिोंके लक्षण मू आ /२७६ रुहिरादि पूयमंसं दम्वे खेत्ते सदहत्यपरिमाणं । -लोही, मल, मूत्र, बीर्य, हाड, पीब मासरूप द्रव्यका शरीरसे सम्बन्ध करना। उस जगहसे चारों दिशाओं मे सौ सौ हाथ प्रमाण स्थान छोड़ना क्रमसे द्रव्य व क्षेत्रशुद्धि है। ध.६/४,१,५४/गा, १०३-१०७/२५६ प्रमितिररत्निशतं स्यादुच्चारविमोक्षण क्षितेरारात । तनुस लिलमोक्षणेऽपि च पञ्चाशदर स्निरेवातः। । १०३ । मानुषशरीरलेशावयवस्याप्यत्र दण्डपञ्चाशत् । संशोध्या तिरश्चां तदर्द्धमात्रैव भूमिः स्यात १०४॥ क्षेत्रं संशोध्य पुनः स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमनाः। प्राशुकदेशावस्थो गृह्णीया वाचना पश्चात् ।१०७१ = मल छोड़नेकी भूमिसे सौ अरनि प्रमाण दूर, तनुसलिल अर्थात मूत्र छोड़नेमें भी इस भूमिसे पचास अररिन दूर, मनुष्य शरीरके लेशमात्र अवयवके स्थानसे पचास धनुष तथा तियंच के शरीर सम्बन्धी अवयवके स्थानमे उससे आधी मात्र अर्थात् पच्चीस धनुष प्रमाण भूमिको शुद्ध करना चाहिए ।१०३-१०४। क्षेत्रकी शुद्धि करनेके पश्चात अपने हाथ और पैरोंको शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्रासुक देशमें स्थित होकर बाचनाको ग्रहण करे ।१०७१ दे. आहार/II/२/१ उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम, कारण-इन दापोंसे रहित भोजन ग्रहण करना वह आठ प्रकार को पिंड (द्रव्य) शुद्धि है। ध.६/४,१,५४/२५३-२५४/३ तत्र ज्वर-कुक्षि-शिरोरोग-दुःस्वप्न-रुधिरविण-मूत्र-लेपातीसार-पूयसाबादीनां शरीरे अभावो द्रव्य शुद्धिः । व्याख्यातृव्यावस्थितप्रदेशात चतसृष्व पि दिक्ष्वष्टाविशतिसहस्रायातासु-विमूत्रास्थि-केश नख-त्वगाद्यभावः षष्ठातीतवाचनातः आरात्पञ्चेन्द्रियशरीरास्थि-वड मांसासृसंबन्धाभावश्च क्षेत्रशुद्धिः । विद्यु दिन्द्रधनुग्रहोपरागाकालवृष्टयभ्रगर्जन - जीमूतवातच्छाद - दिग्दाह - धूमिकापात - संन्यास-महोपवास-नन्दीश्वरजिनमहिमाद्यभावः कालशुद्धि । अत्र काल शुद्धिकारण विधानमभिधास्ये। तं जहापच्छियरत्तिसज्झायं खमाविय बहि णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे काओसग्गेण पुवाहिमुहो हाइदूण णवगाहापरियट्टणकालेण पुवदिस सोहिय पुणो पदाहिणेण पल्लटिय एदेणेव कालेण जम-वरुण-सोमदिसासु सोहिदामु छत्तीसगाहुच्चारणकालेण (३६) अट्ठसदुस्सासकालेण वा कालसुद्धी समप्पदि (१०८) अबरण्हे वि एवं चेव कालसुद्धी कायव्वा । णवरि एक्केक्काए दिसाए सत्त-सत्त गाहापरियट्टणेण परिच्छिण्णकाला त्ति णायव्वा । एत्थ सव्वगाहापमाणमट्ठावीस (२८) चउरासीदि उस्सासा (८४) पुणो अणस्थमिदे दिवायरे खेत्त सुद्धि कादूण अस्थ मिदे कालसुद्धिं पुव्वं ब कुज्जा। णवरि एत्थ कालो वीसगाहुच्चारणमेनो (२०) सट्ठिउस्सासमेत्तो वा (६०) = १. द्रव्यशुद्धि-ज्वर कुक्षिरोग, शिरोरोग, कुत्सित स्वप्न, रुधिर, बिष्टा, मूत्र, लेप, अतिसार और पीबका बहना इत्यादिकोका शरीरमें न रहना द्रव्यशुद्धि कही जाती है। २. क्षेत्रशुद्धि-व्याख्यातासे अधिष्ठित प्रदेशसे चारों ही दिशाओमें अट्ठाईस हजार (धनुष ) प्रमाण क्षेत्रमें विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख और केश तथा चमड़े आदिके अभावको; तथा छह अतीत वाचनाओ से (1) समीपमैं (या दूरी तक) पचेन्द्रिय जीवके शरीर सम्बन्धी गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रुधिरके सम्बन्धके अभावको क्षेत्रशुद्धि कहते है (मू. आ./२७६ )। ३. कालशुद्धिविजली, इन्द्रधनुष, सूर्य चन्द्र का ग्रहण, अकाल वृष्टि, मेघगर्जन, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि मेवोंके समूह आच्छादित रिसाए विशावाह भूमिकापात ( कुहरा ), संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर महिमा और जिनमहिमा इत्यादिके अभावको कालशुद्धि कहते हैं । यहाँ कालशुद्धि करनेके विधानको कहते हैं। वह इस प्रकार है - पश्चिम रात्रि के सन्धिकाल में क्षमा कराकर बाहर निकल प्रासुक भूमिप्रदेश में कोरस पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओंके प्रचारका से पूर्व दिशाको शुद्ध करके फिर दक्षिण रूप पलट कर इसने ही कालसे दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओंको शुद्ध कर लेनेपर ३६ गाथाओं के उच्चारण काल से अथवा १०८ उच्छ्वास कालसे कालशुद्धि समाप्त होती है। अपराह्न कालमें भी इस प्रकार ही कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि इस समयकी कालशुद्धि एकएक दिशाओं में सात-सात गाथाओं के उच्चारण कालसे सीमित है, ऐसा जानना चाहिए। यहाँ सब गाथाओंका प्रमाण २८ अथवा उच्छ्वासका प्रमाण ८४ है । पश्चात् सूर्यके अस्त होनेसे पहले क्षेत्र शुद्धि करके सूर्य अस्त हो जानेपर पूर्वके समान कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि यहाँ काल बीस २० गाथाओं के उच्चारण प्रमाण अथवा ६० उच्छवास प्रमाण है । ( अर्थात प्रत्येक दिशामें ५ गाथाओं का उच्चारण करे) । (मु. आ / २७३) । क्रिया कोष / प्रथम रसोईके स्थान चक्की उखरी द्वय त्रय जान । चौथो अनाज सोधने काज जमीन चौका पंचम मढ | छठमें आटा छनने सोय सप्तम थान सयनका होय । पानी थान सु अष्टम जान सामायिकका नवमों थान । ५. दर्शन ज्ञान व चारित्र शुद्धियोंके लक्षण सु.आ./गा. चक्तजीविद माऊल माणुससम सारं भोगा धम्मम्मि उवद्विदमदीया ७०३० पिम्मालियाणि च पयति वीरपुरिसा विरलकामा मिहावासे 100 उसाहमिद वायबद्धकच्छा य । भावाणुरायरत्ता जिणपण्णत्तम्मि धम्मम्मि | 5991 अपरिग्गहा अणिच्छा संतुट्ठा सुट्टिदा चरितमि । अवि णीवि सरीरेण कति मुणी ममत्ति ते । ७८३ | ते लढणाण चक्खू णाणुज्जोएग दिट्ठपरमहा विदालपरवकमा साधू २) उवलद्वपुण्णपावा जिणसासणगहितमुणिदपज्जाला । करचरणसंयुगा झाणुता मुनी होति धा जिणेहा अप्पणो सरीरम्मि । ण करंति किंचि साहू परिसंठप्पं सरीरम्मि ।८३६ | उप्पण्णम्मिय वाही सिरवेयण कुक्खिवेयणं चैव । अधिपति सुधिया कार्याणि १६ ि अप्पमत्ता जमसमिदो माजोगे तचरणरणजुत्ता हति सवणा समिपावा |८६२ । विसएसु पधावंता चवला चंडा तिदंडगुत्ते हि । इंदियघोरा घोरा वसम्मि ठविदा व सिदेहिं । ७३ | ण च एदि विणिस्सरिदु मगहस्थी काण मारिबंधणीदो मद्धों व पडो विरारज्जू हि धीरेहिं | ७६ एदे इंदियतुरया पयदीदोसेण चोइया संता । उम्मगं णेंति रह करेह मणपग्गहं बलियं ८७६१ - १, लिंग शुद्धि-अस्थिर नाशसहित इस जीवनको और परमार्थ रहित इस मनुष्य जन्मको जानकर स्त्री आदि उपभोग तथा भोजन आदि भोगों से अभिलाषा रहित हुए निर्ग्रन्यादि स्वरूप चारित्र में दृढ़ बुद्धिवाले, घर के रहने से विरक्त चित्तवाले ऐसे वीर पुरुष भोग में आये फूलोंकी तरह गाय पोहा आदि-धन-सोना इनसे परिपूर्ण ऐसे बान्धव जनोंको छोड़ देते हैं । ७७३-७७४५ तपमें तल्लीन होने में जिनकी बुद्धि निश्चित है जिन्होंने पुरुषार्थ किया है, कर्म के निर्मूल करनेमें जिन्होंने कमर कसी है, और जिनदेव कथित धर्म में परमा भक्ति उसके प्रेमी हैं, ऐसे मुनियोंके लिंगशुद्धि होती है । ७७७ २. व्रतशुद्धि-आश्रय रहित, आशा रहित, सन्तोषी चारित्र में तत्पर ऐसे मुनि अपने शरीर में ममत्व नहीं करते ।७८३ · ४० शुद्धि ३. ज्ञानशुद्धि- जिन्होंने ज्ञान नेत्र पा लिया है, ऐसे साधु हैं, ज्ञानरूपी प्रकाश जिन्होंने राम लोकका सार जान लिया है. पदार्थों शंका रहित, अपने बल के समान जिनके पराक्रम है ऐसे साधु हैं । २६ जिन्होंने पुण्य पापका स्वरूप जान लिया है, जिन मतमें स्थित सब इन्द्रियों का स्वरूप जिन्होंने जान लिया है, हाथ, पैर, कर से ही जिनका शरीर ढँका हुआ है और ध्यान थमी हैं । ८१३॥ ४. उज्भणशुद्धि पुत्र स्त्री आदिमें जिनने प्रेमरूपी बन्न काट दिया है और अपने शरीर में भी ममृता रहित ऐसे साधु शरीरमें कुछ भी स्नानादि संस्कार नहीं करते । ८३६। ज्वर रोगादिक उत्पन्न होनेपर भी मस्तक में पीड़ा, उदरमें पीड़ा होने पर भी चारित्र परिणाम बाले में मुनि पीडाको सहन कर लेते हैं, परन्तु शरीरका उपचार करनेकी इच्छा नहीं करते । ३ ५ तपशुद्धि - वे मुनीश्वर सदा संयम, समिति, ध्यान और योगोंमें प्रमाद रहित होते हैं और तप चरण तथा तेरह प्रकार के करणों में उद्यमी हुए पापके नाश करने वाले होते हैं । ८६२। ६, ध्यान शुद्धि-रूप, रसादि दोड़ते चलोकों भयंकर ऐसे इन्द्रियरूपी चोर मनवचनकाय गुप्तित्राले चारित्रमें उद्यमी साधुजनोंने अपने वशमें कर लिये हैं । ८७३| जैसे मस्त हाथी बारिबन्धकर रोका गया निकलनेको समर्थ नहीं होता, उसी तरह मन रूपी हाथी ध्यानरूपको प्राप्त हुआ धीर अति प्रचण्ड होने पर भी सुनियों कर वैरागरूपी रस्से कर संयम बन्दको प्राप्त हुआ निकलने में समर्थ नहीं हो सकता ।०६। ये इन्द्रिय रूपी घोड़े स्वाभाविक राग-द्वेष कर मेरे हुए धर्मध्यान रूपी रथको कुमार्ग में ले जाते हैं, इसलिए एकाग्र मनरूपी लगामको बलवान करो १८७६६ भ. जा./वि./ १६०/३० / १ काते पठनमित्यादिका ज्ञानशुद्धिः वस्य सत्यां अकालपठनाद्याः क्रिया ज्ञानावरणमूलाः परित्यक्ता भवन्ति । पञ्चविंशति भावनाश्चारित्रशुद्धिः सत्यां तस्यां अनिगृहीतमनःप्रचारादिशुभपरिणामोऽभ्यन्तरपरिहरत्यक्तो भवति |...मनसायययोगनिवृत्ति जिनगुणानुरागः वन्द्यमानश्रुतादिगुणानुवृत्तिः कृतापराधविषया निन्दा, मनसा प्रत्याख्यानं, शरीरासारानुपकारित्वभावना, वश्यद्विरस्यां सत्यो अशुभयोगो जिनगुणाननुरामः श्रुतारिमाहायैनादर अपराधानुसा अप्रत्याख्यान शरीरममता चेत्यमी दोषा परिग्रहनिराकृता भवन्ति । =१ ज्ञानशुद्धि-योग्य काल में अध्ययन करना, जिससे अध्ययन किया है। ऐसे गुरुका और शास्त्रका नाम न छिपाना इत्यादि रूप ज्ञानशुद्धि है। यह शुद्धि वरमायें होनेसे अकाल पठनाविक किया को कि ज्ञानावरण कर्मासवका कारण है त्यागी जाती है । २. चारित्रशुद्धिप्रत्येक पाँच-पाँच भावनाएं है, पाँच मतोंकी पचीस भावनाएँ हैं इनका पालन करना यह चारित्रशुद्धि है । इन भावनाओंका त्याग होनेसे मन स्वच्छन्दी होकर अशुभ परिणाम होते हैं। ये परिणाम अभ्यन्तर परिग्रह रूप हैं । व्रतों की पाँच भावनाओं से अभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग होता है । ३. आवश्यक शुद्धि - सावद्य योगों का त्याग, जिन गुणोंपर प्रेम, वंद्यमान आचार्यादिके गुणोका अनुसरण करना, किये हुए अपराधोंकी निन्दा करना, मनसे अपराधोंका त्याग करना, शरीरकी असारता और अपकारीपनेका विचार करना यह सब आवश्यकशुद्धि है। यह शुद्धि होनेपर अशुभ योग, जिन गुणोंपर अप्रेम, आगम, आचार्यादि पूज्य पुरुषों के गुणोंमें अप्रीति, अपराध करनेपर भी मनमें पश्चात्ताप न होना, अपराधका त्याग न करना, और शरीरपर ममता करना ये दोष परिग्रहका त्याग करनेसे नष्ट होते हैं । ६. सल्लेखना सम्बन्धी शुद्धियोंके लक्षण भ.आ./वि./९६६/१०१/२ मायामृबाराहाता आटोचना शुद्धिः ... जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुको दन शुभनन्दि ३. शुभ-अशुभ प्रकृतियोंकी बन्ध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ। । -दे. वह वह नाम। ४. पुण्य-पाप प्रकृति सामान्य - दे. प्रकृतिबंध/२। उदगमोसादने षणादोषरहितता ममेदं इत्यपरिग्राह्यता च वसतिसंस्तरयोः शुद्धिस्तामुपगतेन उद्गमादिदोषोपहतयोर्वसतिसंस्तरयोस्यागः कृत इति भवत्युपधित्यागः । उपकरणादीनामपि उद्गमादिरहितता शुद्धिस्तस्यां सत्या उद्दगमादिदोषदुष्टानां असंयमसाधजानी ममेदं भावमूलानां परिग्रहाणा त्यागोऽस्त्येव । संयतबयावत्यकमजता यावृत्यकारिशुद्धिः सत्यां तस्यां असंयता अक्रमज्ञाश्च न मम वैयावश्यकरा इति स्वीक्रियमाणास्त्यक्ता भवन्ति । १. सालोतना शद्धिः- माया और असत्य भाषणका त्याग करना यह आलोचना शुद्धि है। २. शय्या व संस्तर शुद्धि-उदगम, उत्पादन. ऐषणा दोषोंसे रहित यह मेरा है ऐसा भाव वसतिकामें और संस्तरमें होना यह वसति-संस्तरशुद्धि है। इस शुद्धिको जिसने धारण किया है उसने उद्गम उत्पादनादि दोषयुक्त वसतिकाका त्याग किया है, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए इसमें उपधिका भी त्याग सिद्ध हुआ समझना चाहिए। ३. उपकरण शुद्धि-पिछी, कमण्डलु वगैरह उपकरण भी उद्गमादि दोष रहित हों तो वे शुद्ध हैं, उद्गम आदि दोषोंसे अशुद्ध उपकरण असंयमके साधन हो जाते हैं। उसमें ये मेरा है ऐसा भाव उत्पन्न होता है अतः वे परिग्रह हैं, उनका त्याग करना यह उपकरण शुद्धि है। ४. वैयावृत्यकरण शुद्धि-साधु जनकी वैयावृत्त्यकी पद्धति जान लेना यह वैयावृत्य करने वालोंकी शुद्धि है यह शुद्धि होनेसे असंयत लोक अक्रमज्ञ लोग मेरा वैयावृत्य करनेवाले नहीं हैं ऐसा समझकर त्याग किया जाता है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. आहार शुद्धि -दे. आहार/१/२ २. भिक्षा शुद्धि -दे. भिक्षा/११ ३. प्रतिष्ठापन, ईर्यापथ, व वचन शुद्धि -दे, समिति/१। ४. शयनाशन शुद्धि -दे. वसतिका। शुद्धोदन-महात्मा बुद्ध के पिता थे (द, सा./२७ प्रेमी जी.)। शुद्धोपयोग-दे. उपयोग/II/२ । शुभ-१. शुभ व अशुभ नामकमका लक्षण स, सि./८/११/३६२/१ यदुदयाद्रमणीयत्वं तच्छुभनाम । तद्विपरीतमशुभनाम । -जिसके उदयसे रमणीय होता है वह शुभ नामकर्म है। इससे विपरीत अशुभ नामकर्म है। (रा. वा./८/११-२७-२८/ ५७४/५); ( गो. क./जी.प्र./३३/३०/१)। ध, 4/१,६,१,२८/६४/ जस्स कम्मस्स उदएण अंगोवंगणामकम्मोदय जणिद अंगाणमुवंगाणं च महत्तं होदितं सुहं णाम। अंगोबंगाणमनहत्त णिवत्तयममुहं णाम ।-जिस कर्मके उदयसे अंगोपांग नामकर्मोदय जनित अंगों और उपांगोंके शुभ ( रमणीय ) पना होता है, वह शुभनामकर्म है। अंग और उपागोंके अशुभताको उत्पन्न करनेवाला अशुभ नामकर्म है। ध. १३/५.५,१०१/३६५/१२ जस्स कम्मस्सुदएण चक्कन टि-बलदेव-वासुदेव तादिरिद्धीणं सूचया संखं कुसारविंदादओ अंग-पच्चंगेसु उप्पज्जंति तं सुहणामं । जस्स कम्मस्सुदएणं असुहलकवणाणि उपज्जति तममुहणामं ।-जिस कर्मके उदयसे चक्रवर्तित्व, बलदेवत्व, और वासुदेवत्व आदि ऋद्धियोंके सूचक शंख, अंकुश और कमल आदि चिह्न अंग-प्रत्यंगों में उत्पन्न होते है वह शुभ नामकर्म है। जिस कर्म के उदयसे अशुभ लक्षण उत्पन्न होते हैं वह अशुभ नामकर्म लक्षण है। २. अन्य सम्बन्धित विषय १. अशुभसे निवृत्ति शुभमें प्रवृत्तिका नाम ही चारित्र है -(दे. चारित्र/१/१२)। २. मनःशुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। -दे, साधु/३। शभकोति-काष्ठा संघ के माथुरगच्छ में देवकीर्ति के शिष्य । कृति-शान्तिनाह चरिउ । समय-- देवकीर्ति ने वि.११४१ में मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई । तदनुसार वि. श. १५ । (ती./३/४१२) ।। शुभचन्द्र-१.आप राजा मुडज तथा भत हरिके भाई थे, जिनके लिये विश्वभूषण भट्टारक ने अपने 'भक्तामर चरित्र' की रत्थानिका में एक लम्बी-चौड़ी कथा लिखी है। ये पंचविंशतिकार पद्मनन्दि (ई.श.११ का उत्तरार्ध) के शिक्षा गुरु थे। कृति-ज्ञानार्णव । समय-वि. १०६०-११२५ (ई. १००३-१०६८)। (आ. अनु./प्र. १२/ए. एन. उप.); (ती./३/१४८, १५३)। २. नन्दि संघ देशीयगण, दिवाकरमन्दि के शिष्य और सिद्धान्तदेव के गुरु । पोयसल नरेश विष्णुवर्धन के मन्त्री गंगराज ने इनके स्वर्गवास के पश्चात् इनकी निषधका मनवाई और इन्हें 'धवला' की एक ताड़पत्र लिपि भेंट की। समय-ई.१०६३११२३ । प.सं./प्र./H. L. Jain); (दे. इतिहास/७/10। ३. नन्दिसंघ के देशीयगणमें मेषचक्र त्रैविद्य के शिष्य जिनकी समाधि ई. १९४७ में हुई । (दे. इतिहास/७/५)। ४. तखानुशासन के कर्ता तथा नागसेन के शिक्षागुरु तथा देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य । समय--वि.१२२० (ई. १९५३) में स्वर्गवास । अत: बि. १२९५ (ई. १९५८-१९८५)। (ती./३/१४८); (दे इतिहास/७/६) । ५. 'नरपिंगल' के रचयिता एक कन्नड़ आयुर्वेदिक विद्वान् । समय-ई. श.१२ का अन्त । (ती-/४/३११)। . नन्दि संघ देशीयगण में गण्डविमुक्त मालधारी देव के शिष्य। समय-श.११६०(ई. १२५८) में स्वर्गवास । (ती./३/१४८), (दे. इतिहास/७/१)। ७. पद्मनन्दि पण्डित नं.८ के गुरु । समय-वि १३७० में स्वर्गवास । तदनुसार वि. १३४०-१३७० (ई. १२८३-१३१३) (पं.वि./प्र.२८/AN.UP).नन्दिसंध बलात्कार गणकी गुर्वावलीक अनुसार आप विजय कीर्ति के शिष्य और लक्ष्मीचन्द्र के गुरु थे। पभाषा कविकी उपाधिसे युक्त थे। न्याय, पुराण, कथा-पूजा आदि विषयोंपर अनेक ग्रन्थ रचे थे। कृति-१ प्राकृत व्याकरण, २ अंग पण्णत्ति, ३ शब्द चिन्तामणि, ४ समस्या बदन विदारण, ५ अपशब्द खण्डन,६तत्त्व निर्णय, ७ स्याद्वाद, स्वरूप सम्बोधन वृत्ति, ह. अध्यात्म पद टीका, १० सम्यक्त्व कौमुदी, ११ सुभाषितार्णव, १२ सुभाषित रत्नावली, १३ परमाध्यात्मतरंगिनीकी संस्कृत टीका, १४ स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षाकी संस्कृत टीका (माघ वि. १६१३) १५ पाण्डवपुराण (वि. १६०८, ई. १५५१), १६ करकण्ड चरित्र (ई. १५५४), १७ चन्द्रप्रभ चरित्र, १८ पद्मनाभ चरित्र, १६ प्रद्य म्न चरित्र, २० जीवन्धर चरित्र, २१ चन्दन कथा, २२ नन्दीश्र कथा, २३ पार्श्वनाथ काव्य पंजिका, २४ त्रिश्क चतुर्विशति पूजा, २५ सिद्धार्चन, २६ सरस्वतीपूजा, २७ चिन्तामणि पूजा, २८ कर्म दहन विधान, २६ गणघर वलय विधान, ३० पल्योपम विधान, ३१ चारित्र शुद्धि विधान, २ चतुस्त्रिशदधिक् द्वादशशत व्रतोद्यापन, ३३ सर्वतोभद्र विधान, ३४ समवशरण पूजा, ३५ सहस्रनाम, ३६ विमान शुद्धि विधान, ३७ प, आशाधरपूजा वृत्ति कुछ स्तोत्र आदि । समय-वि. १५७३-१६१३ (ई. १५१६-१५५६); (प.प्र./प्र. ११८ A.N.Up.); (द्र. सं./प्र.११ पं. जवाहरलाल); (पा. पु/प्र.१. A.N Up.); (जै./१/४५६)।-दे. इतिहास/७/४ । शुभनान्द-आप बप्पदेवके शिक्षा गुरु तथा पटवण्डागमके ज्ञाता थे। रविनन्दिके सहचर थे। समय-डा. नेमिचन्द्र के अनुसार वी. नि.श.-4 (ई.श.१) (दे. परिशिष्ट)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०४-६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौच शरय . शुभयोग शुभयोग-दे. योग/२। २. शोक अरति पूर्वक होता है शुभोपयोग-दे. उपयोग/u/8 | ध. १२/४,२,७,१००/५७/२ कुदो। अरदिपुरगमत्तादो। कधमरदिपुरशुभ्र-भरतक्षेत्रका एक नगर-दे. मनुष्य/४। गमत्तं । अरदीए विणा सोगाणुप्पत्तीए। क्योंकि, वह (शोक) अरति पूर्वक होता है। प्रश्न - वह अरति पूर्वक कैसे होता है।' शुष्क-भरतक्षेत्र आर्य स्खण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४ । उत्तर- क्योंकि, अरतिके बिना शोक नहीं उत्पन्न होता है। शूद्र-दे. वर्ण व्यवस्था/४ ३. शोकका उस्कृष्ट उदय काल शून्य-१, सर्व द्रव्योंका अभाव शून्य दोष कहलाता है। (पं.ध./ घ. १२/४.२,७,१०१/१७/४ सोगो उकस्सेण छम्मासमेत्तो चेव । शोकपू./१४,६१३); २. जीवको कथंचित् शून्य कहना-दे. जीव/१/३, का उत्कृष्ट उदय काल छह मास पर्यन्त ही है। ३. सांध्य साधन व उभय विकल दृष्टान्त-दे. दृष्टांत । शून्यनय-शून्याशून्य नय-दे. नय/11५ । * अन्य सम्बन्धित विषय शून्यध्यान-दे, शुक्लध्यान/१। १. शोक द्वेष है -दे. कषाय/४ शन्य परिकमाष्टक-दे. गणित/II/2/२,१६i २. शोक प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम -दे. मोहनीय/२/६ । शन्यवाद-१. मिथ्या शून्यवादका स्वरूप शोधित-गणितकी व्यकलन विधिमें मूल राशिको ऋणराशि करि यु. अनु./२६ व्यतीत-सामान्य-विशेष-भावाद विश्वाभिलापार्थ शोधित कहा जाता है -दे. गणित/11/१/४ । विकल्पशून्यम् । खपुष्पवत्स्यादसदेव तत्त्वं प्रबुद्धतत्वाद्भवतः शोन-पूर्वी उत्तर आर्य खण्डको एक नदी-दे. मनुष्य/४ । परेषाम् ।२६.हे प्रबुद्ध तत्व बीर जिन! आप अनेकान्तवादीसे भिन्न दूसरोंका सर्वथा सामान्य भावसे रहित, सर्वथा विशेष शौच-1. शौच सामान्यका लक्षण भावसे रहित तथा सामान्यविशेष भाव दोनोंसे रहित जो तत्त्व है वह स. सि./६/१३/३३६/४ लोभप्रकाराणामुपरमः शौचम् । = लोभके प्रकारोंसम्पूर्ण अभिलाषों तथा अर्थ विकल्पोंसे शून्य होनेके कारण आकाशपुष्पके समान अवस्तु ही है। (और भी-दे. बौद्ध दर्शनमें का त्याग करना शौच है ( रा. वा./६/६/१०/५२३/४ )। महायान)। २. शौच धर्मका लक्षण शूर-१. भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश-दे. मनुष्य/४ । २. राजा ना. अ./७५ करवाभावणिवित्ति किच्चा वेग्गभावणाजुत्तो। जो वदृदि यदुका पुत्र था तथा नेमिनाथ भगवानका बाबा था। इसने शौर्य पुर परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सौर्च १७५/- जो परममुनि इच्छाओंको बसाया था।-दे. इतिहास १०/१०॥ रोककर और वैराग्य रूप विचारोंसे युक्त होकर आचरण करता है शूरसेन-मथुराका समीपवर्ती प्रदेश । गोकुल वृन्दावन और आगरा उसको शौच धर्म होता है। इसोमें है (म. पु./प्र.२० पन्नालाल )। स. सि./६/६/४१२१६ प्रकर्ष प्राप्तलोभान्निवृत्तिः शौचम् । = प्रकर्ष प्राप्त शेषवत् अनुमान-दे. अनुमान/१। लोभका त्याग करना शौचधर्म है। (रा. वा./8/६/५/५६५/२८), (चा. सा./६२/४)। शषवता-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे. लोक ५/१३. भ. आ./वि./१६/१४४/१४ ट्रव्येषु ममेदं भावमलो व्यसनोपनिपातः शक्षस, सि./६/२४/१४२/८ शिक्षाशीलः शैक्षः । - शिक्षा शील सकल इति ततः परित्यागो लाघवं । -धनादि वस्तुओं में ये मेरे हैं (साधुः) शैक्ष कहलाता है। ऐसो अभिलाष बुद्धि ही सर्व संकटोंमे मनुष्यको गिराती है इस रा. वा./६/२४/६/६२३/१७ श्रुतज्ञानशिक्षणपरः अनुपरवतभावनानिपुणः ममत्वको हृदयसे दूर करना ही लाघव अर्थात् शौच धर्म है। शैक्षक इति। - श्रुतज्ञानके शिक्षण में तत्पर और सतत व्रत भावनामें त. सा./५/१६-१७ परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदतः ।१६। चतुनिपुण ( साधु ) शैक्ष है (चा. सा./१५१/२) । विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते ।१७ -भोग व उपभोगका, शेल-सुमेरु पर्वतका अपरनाम-दे, सुमेरु । जीनका, इन्द्रियविषयोंका; इन चारों प्रकारके लोभके त्यागका नाम शौचधर्म है। शैलकर्म-दे. निक्षेप/४। का. अ./मू./३६७ सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव्व-लोह मल जं। शल भन्द-यक्ष जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद-दे. यक्ष । भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्च हवे विमलं ।३६७। जो सम भाव और सन्तोष रूपी जलसे तृष्णा और लोभ रूपी मलके समूहको शेला-नरककी तृतीय पृथिवी-दे. नरक/५॥ धोता है, तथा भोजनकी गृद्धि नहीं करता उसके निर्मल शौच धर्म शेवदर्शन-१, शुद्धाद्वैतका अपर नाम । दे. वेदान्त/७१२. वैदिक होता है। दर्शनका स्थूलसे सूक्ष्मको ओर विकास-दे. दर्शन (षड्दर्शन )। पं.वि./१/९४ यत्परदारार्थादिषु जन्तुषु निःस्पृहमाहिसक चेतः । शोक-१. शोक व शोक नामकमका लक्षण दुश्छेदयान्तर्मलहत्तदेव शौचं परं नान्यद श-चित्त जो परस्त्री एवं परधनकी अभिलाषा न करता हुआ षट् काय जीवोंकी हिंसासे स. सि./६/११/३२८/१२ अनुग्राहकसंबन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः रहित होता है, इसे ही दुर्भेद्य अभ्यन्तर कलुषताको दूर करनेवाला शोकः । उत्तम शौचधर्म कहा जाता है, इससे भिन्न दूसरा शौचधर्म नहीं स. सि./4/8/३८६/१ यद्विपाकाच्छोचनं स शोकः । -१. उपकार करनेवालेसे सम्बन्धके टूट जानेपर जो विकलता होती है वह शोक है ( रा. वा./६/११/२/५१६/२१) । २. जिसके उदयसे शोक होता है ३. गंगादिमें स्नान करनेसे शौचधर्म नहीं वह शोक (नामकर्म) है। (रा. वा./८/४/४/५७४/१८), (ध.६/ पं. वि./१/१५ गङ्गासागरपुष्करादिषु सदा तीर्थेषु सर्वेष्वपि स्नातस्यापि १,६-१,२४/४७/८), (ध. १३/५,५,६६/३६१/१२) । न जायते तनुभृतः प्रायो विशुद्धिः परा । मिथ्यात्वादिमलीमसं यदि है ६४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शौच = मनोऽतिशुद्रोदधतः किं बहुशोऽपि शुद्धयति सुरापूरप्रपूर्णो घटः ॥ ६५ ॥ यदि प्राणीका मन मिथ्यात्वादि दोषोंसे मलिन हो रहा है तो गंगा, समुद्र एवं पुष्कर आदि सभी तीर्थों में सदा स्नान करनेपर भी प्रायः करके वह अतिशय विशुद्ध नहीं हो सकता ( ठीक भी -मद्य के प्रवाहसे परिपूर्ण घटको यदि बाह्यमें अतिशय विशुद्ध जलमें बहुत बार धोया जावे तो भी क्या वह शुद्ध हो सकता है। अर्थात् नहीं । ६५ - ४. शौचधर्मके चार भेद रा.बा./६/६/०/५१६/५ तत्तनिवृचित शौचं चतुमसे - जीवन लोभ, इंद्रियलोभ, आरोग्य सोभ व उपयोग लोभके भेदसे लोभ चार प्रकार है - दे, लोभ) इस चार प्रकार के लोभका त्याग करनेसे शौच भी चार प्रकारका हो जाता है ( चा सा./६३/२) । ५. पौच व त्याग धर्म में अन्तर रा. बा./१/६/२०/२६०/१० शौचवचनात (व्यागस्य) सिद्धिरिति पेट नापि पपत्तेः ॥१०१ असंनिहिते परिग्रहे कर्मोदयशास गर्न उत्पद्यते नित्यं शौचमुक्त त्यागः पुनः संनिहितस्यापायः दानं वा स्वयोग्यम् अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग इत्युच्यते । प्रश्न - शौच वचनसे हो त्याग धर्मकी सिद्धि हो जाती है अतः स्यान धर्मका पृथक निर्देश पर्थ है। उत्तर-नहीं क्योंकि शौचधर्म में परिग्रहके न रहनेपर भी कर्मोदयसे होनेवाली तृष्णाकी निवृति की जाती है पर त्यागमें विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है। अथवा त्यागका अर्थ स्व योग्य दान देना है। संयतके योग्य ज्ञानादि दान देना श्याग है। . ५. शौच व आकिंचन्य धर्म अन्तर रा.मा./१/६/७/२६६/१ स्थादेतत्-आर्डिचन्यं वक्ष्यते तत्रास्यावरोधाद शौचग्रहणं पुनरुक्तमिति; तन्नः किं कारणम् । तस्य नैर्मम्यप्रधानस्मात् स्वशरीरादिषु संस्कारापोहार्थ माि - प्रश्न- आगे आकिंचन्य धर्मका कथन करेंगे, उसीसे इसका अर्थ भी घेर लिया जानेसे शौच धर्मका ग्रहण पुनरुक्त है। उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि आर्कियन्यधर्म स्वशरीर आदि संस्कार आदिको अभिलाषा दूर करके निर्ममत्व बढ़ानेके लिए है और शौच धर्म लोभकी निवृलिए अत दोनों है। ७. शौचधर्म पालनार्थं विशेष भावनाएँ म.आ./मू./१४२६-१४३०/२१५२ सो आयोग होइ पुरियस्स अडियोगस्स अरविद होने अथ पडिमोस्स १४१६० सजिए अस्था परिहासे तो मे अरथे इत्य कोमज्भ विभओ गहिद विजडेसु । १४३७॥ इह य परत्तए लोए दोसे बहुए य आवहह लोभो । इदि अप्पणी गणित्ता णिज्जेदव्बो' हवदि लोभो १४३८ लोभ करनेपर भी पुण्य रहित मनुष्यको द्रव्य free नहीं है और न करनेपर भी पुण्यवानको पनकी प्राप्ति होती है। इसलिए धन प्राप्ति में आसक्ति कारण नहीं, परन्तु पुण्य ही कारण है ऐसा विचारकर लोभका त्याग करना चाहिए | १४३६ । इस त्रैलोक्य में मैंने अनन्सबार धन प्राप्त किया है, अतः अनन्सबार ग्रहण कर त्यागे हुए इस धनके विषय में आश्चर्य चकित होना फजूल है ।१४३७ इहपर लोक में यह लोभ अनेकों दोषोंको उत्पन्न करता है ऐसा समझकर लोभ कषायपर विजय प्राप्त करना चाहिए। 1 प. बा./६/६/२७/५६६/१६ शुच्याचारमिहापि सन्मानयन्ति सर्वे विश्रम्भादयश्च गुणाः समधितिष्ठति सोमभावनाकान्तहृदये नावका समते गुमाद रह चामुत्र चाचिन् व्यसनमान ४३ श्रद्धान शुचि आचार वाले निर्लोभ व्यक्तिका इस लोकमें सन्मान होता है। विश्वास आदि गुण उसमें रहते हैं। लोभीके हृदय में गुण नहीं रहते । वह इस लोक और परलोकमें अनेक आपत्तिओं और दुर्गतिको प्राप्त होता है । ( अन. ध. / ६ / २७) निराश्चक्रेश्वरश्रियम्। शा./१६/६६-७१ शकेनापीच्या जातु न भर्तृमुदर क्षमाः । लोभाचस्वामिगुरुवृद्धानाबातांश्च जीर्णदीनादीच व्यापाच विगतको लोभात वित्तमारते 1901 ये केचि रिसद्धान्ते दोषाः श्वभ्रस्य साधकाः प्रोक्ताः । प्रभवन्ति निर्विचार ते सोभादेव जन्तुना ॥७१॥ - अनेक मनुष्य यद्यपि अपनी इच्छा से शाकसे पेट भरने को कभी समर्थ नहीं होते तथापि सोभ के बासे चक्रवर्तीकी सो सम्पदाको बाँधते हैं। इस लोभकषायसे पीड़ित हुआ पुरुष अपने मालिक, गुरु, बन्धु, वृद्ध, स्त्री, बालक, तथा क्षीण, दुर्बल, अनाथ, दीनादिको भी निशंकता से मारकर धनको ग्रहण करता है |७०| नरकको ले जानेवाले जो जो दोष सिद्धान्त शास्त्रमें कहे गये हैं मे राम जीवोंके निःकल्या होमसे प्रगट होते हैं। श ( अन. ध. / ६ / २४-२६,३१ ) । * अन्य सम्बन्धित विषय २. शौचधर्म व मनोगुप्तिमें अन्तर । २. दशधर्म निर्देश । शौरपुर — कुशय देशका एक नगर । - दे० मनुष्य /४ । श्यामकुमार - असुरकुमार ( भवनवासी देव ) - दे. असुर । श्यामवर-मध्य सोकका रहमो द्वीप व सागर-दे, लोक/२/१ श्रृंखलित- - कायोत्सर्गका एक अतिचार । - दे. व्युत्सर्ग / १ श्रद्धान मोक्षमार्ग में चारित्र आदिको मुल होनेसे श्रद्धाको प्रधान कहा है । यद्यपि अन्ध श्रद्धान अकिंचित्कर होता है तथापि सूक्ष्म पदार्थोंके विषय में आगमपर अन्ध श्रद्धान करनेके अतिरिक्त कोई चारा नहीं । सम्यग्दृष्टिका यह अन्ध श्रद्धान ईषत् निर्णय लक्षणवाला होता है, पर विध्यारिका अपने पक्षी हठ सहित । - १. श्रद्धान निर्देश १. श्रद्धानका लक्षण इस दे. प्रत्यय / १ दृष्टि, श्रद्धा, रुचि, प्रत्यय ये एकार्थ वाची हैं । स सा/आ./ १०० १८ समेति प्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्तमरी... आत्माको जैसा जाना वैसा ही है 'इस प्रकारकी प्रतीति है लक्षण जिसका ' ऐसा श्रद्धान उदित होता है । प्र. सं./टी./२१/११/१२ श्रद्धानं रुविनिश्चयमेवेत्यमेवेति निय बुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । = ( सप्त तत्त्वों में चलमलादि दोषों रहित ) श्रद्धान रुचि निश्चय, अथवा जो जिनेन्द्रने कहा तथा जिस प्रकार बहा है उसी प्रकार है, ऐसी निश्चय रूप बुद्धिको सम्यग्दर्शन कहते हैं । पं. ध. /उ. / ४१२ तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धिः श्रद्धा । - उन्मुख बुद्धिको श्रद्धा कहते हैं । - ये. गुमि / २ / ५। - दे. धर्म / जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २. श्रद्धान के अनुसार चारित्र होता है स.श. / ६५-६६ माहिती भावजायते य श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते । ६५॥ यत्रानाहितः पुंसः श्रद्धा तस्मान्निवर्तते । यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्ल्यः | १६ | = जिस किसी विषय में पुरुषकी दत्तावधान बुद्धि होती है उसी विषय में उसको श्रद्धा होती है और जिस विषयमें श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है - तत्त्वार्थोंके विषय में Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धान ४४ २. अन्ध श्रद्धान निर्देश उस विषयमें उसका मन लीन हो जाता है।६५। जिस विषयमें दत्तावधान बुद्धि नहीं होती उससे रुचि हट जाती है। जिससे रुचि हट जाती है उस विषयमें लीनता कैसे हो सकती है। ३.चारित्रकी शक्ति न हो तो श्रद्धान तो करना चाहिए नि. सा./मू./१५४ जदि सक्कदि काटु' जे पडिकमणादि करेज्ज झाणमय।। सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेत्र कायव्यं १५४। यदि किया जा सके तो अहो ? ध्यानमय, प्रतिक्रमणादि कर; यदि तू शक्ति विहीन हो तो तबतक श्रद्धान ही कर्तव्य है। द. पा./मू./२२ ज सकइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केव लिजिणे हि भणियं सद्दहमाणस्स संमत्तं ।२२। जो करनेको (त्याग करनेको) समर्थ हो तो करिये, परन्तु यदि करनेको समर्थ नहीं तो श्रद्धान तो कीजिए, क्योंकि श्रद्धान करनेवालो के केवली भगवान्ने सम्यक्त्व कहा है ।२२। नि, सा./ता. बृ./१५४/क. २६४ कलिविलसिते पापबहूले। ...अतोsध्यात्म ध्यानं कमिह भवेन्निर्मलधियां । निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् । पापसे बहुल कलिकालका विलास होनेपर... इस काल में अध्यात्म ध्यान कैसे हो सकता है। इसलिए निर्मल बुद्धिवाले भवभयका नाश करनेवाली ऐसी इस निजात्म श्रद्धाको अंगीकार करते हैं। १. यथार्थ श्रद्धान न करे तो अमव्य है प्र. सा./मू-/६२ णो सद्दहति सोक्वं सुहेसु परमं ति विगदधादीणं । सुणिदूण ते अभव्या भव्वा वा तं पडिच्छ ति ६२१ =जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं, उनका सुख ( सर्व ) सुखों में उत्कृष्ट है, यह सुनकर जो श्रद्धा नहीं करते वे अभव्य हैं और भव्य उसे स्वीकार करते हैंउसकी श्रद्धा करते हैं। ५. अन्य सम्बन्धित विषय १. श्रद्धानमें सम्यक्त्रकी प्रधानता। -दे, सभ्यग्दर्शन/II/२.३ । २. श्रद्धानमें अनुभवकी प्रधानता । -दे, अनुभव/३ । ३. श्रद्धान व सम्यग्दर्शनमें कथंचित् भेदाभेद । -दे. सम्यग्दर्शना/१। ४. दर्शनका अर्थ श्रद्धान। -दे. सम्यग्दर्शन/|१| ५. श्रद्धानमें भी कथंचित् ज्ञानपना। -दे, सम्यग्दर्शन/I/४ । ६. श्रद्धान व शानमें पूर्वोत्तरवर्तीपना। -दे. ज्ञान/III/३. ७. ज्ञान व श्रद्धानमें अन्तर । -दे. सम्यग्दर्शन/४। वालों को किस प्रकार स्तवन करने योग्य है। इससे सर्वकी सत्ता सिद्ध हो, यहीं कर्म का मूल है । ऐसी जिनकी आम्नाय है। भद्रबाहु चरित्र/प्र.६ पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्बचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । न तो मुझे वीर भगवान का कोई पक्ष है और न कपिलादिकोंसे द्वेष है जिसका भी वचन युक्ति सहित है, उस ही से मुझे काम है। English Tatwarth Sutra/Page 15- Right Belief is not identical with blind faith, Its authority is neither External nor autocratic - सम्यग्दर्शन अन्ध श्रद्धानकी भाँति नहीं है। इसका अधिकार न तो बाह्य है और न रूढ़ि रूप ही है। २. अन्धश्रद्धान ईषत् निर्णय लक्षण वाला होता है दे० आगम/३/आगमकी विरोधी दो बातोंका संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टि नहीं होता, क्योंकि संग्रह करने वालेके यह 'सूत्रकथित है' इस प्रकारका श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसे सन्देह नहीं हो सकता। गो. जी./जी.प्र./५६१/१००६/१३ तच्छ्रद्धानं आज्ञया प्रमाणादिभिविना आप्तवचनाश्रयेण ईषनिर्णयलक्षणया...] = बिना प्रमाण नय आदिके द्वारा विशेष जाने, जैसा भगवान्ने कहा वैसे ही है, ऐसे आप्त बचनोंके द्वारा सामान्य निर्णय है लक्षण जिसका ऐसी आज्ञाके द्वारा श्रद्धान होता है। ३. सूक्ष्म दूरस्थादि पदार्थों के विषयमें अन्ध श्रद्धान करनेका आदेश २. अन्ध श्रद्धान निर्देश * श्रद्धानमें परीक्षाकी प्रधानता-दे. न्याय/२/१। . ..परीक्षा रहित अन्ध श्वद्धान अकिंचित्कर क. पा. १/७/३ जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयट्टमाणस्स पमाणाणुसारित विशेहादो। =शिष्य युक्तिकी अपेक्षा किये बिना मात्र गुरु वचनके अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता भ, आ./मू./३६/१२८ धम्माधम्मागासाणि पोग्गला कालदव्य जीवे य। आणाए सद्दहन्तो समत्ताराहओ भणिदो।३६।- धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल काल व जीव इन छह द्रव्योंको जिनेश्वरकी आज्ञासे श्रद्धान करने वाला आत्मा सम्यक्त्वका आराधक होता है ।३६॥ द्र, सं./टी./४८/२०२ पर उद्धृत स्वयं मन्दबुद्धित्वेऽपि विशिष्टोपा ध्यायाभावे अपि शुद्धजीवादिपदार्थाना सूक्ष्मत्वेऽपि सति सूक्ष्म जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते । आज्ञासिद्ध तु तद्ग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः ...। =स्वयं अल्पबुद्धि हो विशेष ज्ञानी गुरुकी प्राप्ति न हो जब शुद्ध जीवादि पदार्थोकी सूक्ष्मता होने पर-श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ जो सूक्ष्मतत्त्व है, वह हेतुओंसे रखण्डित नहीं हो सकता, अतः जो सूक्ष्मतत्त्व है उसे जिनेन्द्रकी आज्ञाके अनुसार ग्रहण करना चाहिए। ( द. पा./टी./१२/१२/२८/पर उद्धृत)। पं. वि./१/१२८ निश्चेतव्यो जिनेन्द्रस्तदतुलवचा गोचरेऽर्थे परोक्षे। कार्यः सोऽपि प्रमाण वदत किमपरेणालं कोलाहलेन । सत्यां छद्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा। भो भो भव्या यतध्वं दृगबगमनिधावात्मनि प्रीतिभाजः ॥१२८ -हे भव्य जीवो! आपको जिनेन्द्रदेवके विषयमें व उनकी वाणीके विषयभूत परोक्ष पदार्थोके विषयमें उसीको प्रमाण मानना चाहिए, दूसरे व्यर्थ के कोलाहलसे क्या प्रयोजन है। अतएव छद्मस्थ अवस्थाके रहने पर सिद्धान्त मार्गसे आये हुए आत्मानुभवसे प्रबोधको प्राप्त होकर आप सम्यदर्शन व ज्ञानकी निधि स्वरूप आत्माके विषयमें प्रीतियुक्त होकर आराधना कीजिए ।१२८० अन. ध./२/२५ धर्मादीनधिगम्य सच्छू तनयन्यासानुयोगैः सुधीः, श्रद्दध्यादविदाज्ञयैव सुतरां जीवांस्तु सिद्धेतरात् ।२५। -विशिष्ट ज्ञानके धारकोंको समीचीन, प्रमाण-नय-निक्षेप और अनुयोगों के द्वारा धर्मादिक द्रव्यों को जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिए। किन्तु मन्द ज्ञानियों को केवल आज्ञाके अनुसार ही उनका ज्ञान व द्वान करना चाहिए। मो. मा. प्र./७/३१६/७ जो निर्णय करने को विचार करते ही सम्यक्त्वको दोष लागै, तो अष्टसहस्रीमें आज्ञाप्रधानतें परीक्षा प्रधानको उत्तम क्यों कहा? मो. मा. प्र./१८/३८१/१३ जो मैं जिन वचन अनुसारि मानौ हो तो भाव भासे बिना अन्यथापनो होय जाय । सत्ता स्वरूप/पृ. १०२ ( जिसकी सत्ताका निश्चय नहीं हुआ वह परीक्षा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धान ३. सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि में अन्तर दसं. टी./२२/६८/६. कालद्रव्यमन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं ___* मिथ्यादृष्टिका धर्म सम्बन्धी श्रद्धान श्रद्धान नहीं । परं किन्तु वीतरागसर्व ज्ञवचनं प्रमाण मिति मनसि निश्चित्य -दे० मिथ्यादृष्टि। विचारो न कर्तव्यः । ...विवादे रागद्वेषौ भवतस्ततश्च संसारवृद्धि * सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानमें कदाचित् शंकाको सम्भावना। रिति । काल द्रव्य तथा अन्य द्रव्यके विषय में परमागम के अविरोधसे ही विचारना चाहिए। 'वीतराग सर्वज्ञका वचन प्रमाण है। -दे० निःशंकित/३ । ऐसा मनमें निश्चय करके उनके कथनमें विवाद नहीं करना चाहिए। ____२. सूक्ष्मादि पदार्थोके अश्रद्धानमें भी सम्यग्दर्शन क्योंकि विवाद में राग-द्वेष व इनसे संसारकी वृद्धि होती है। सम्मत है। पं, ध/उ./४८२ अर्थवशादत्र सूत्रं (सूत्रार्थे ) शङ्का न स्यान्मनीषिणाम । सुक्ष्मान्तरितदूरार्थाः स्युस्तदास्तिक्यगोचराः ।४८२६ - सूक्ष्म, भ. आ./वि./३७/१३९/२१ यदि नाम धर्मादिद्रव्यापरिज्ञानात् परिज्ञानदूरवर्ती और अन्तरित पदार्थ सम्यग्दृष्टिके आस्तिक्यके गोचर हैं सहचारि श्रद्धानं नोस्पन्नं तथापि नासौ मिथ्याष्टिदशनमोहोदअतः उनके अस्तित्व प्रतिपादक आगममें प्रयोजनबश कभी भी शंका यस्थ अश्रद्धानपरिणामस्याज्ञानविषयस्याभावात् । न हि श्रद्धाननहीं होती।४८२॥ स्यानुत्पत्तिरश्रद्धानं इति गृहीतं श्रद्धानादन्यदश्रद्धानं इदमिथमिति दे० आगम// छद्मस्थोंको विरोधी सूत्रोंके प्राप्त होनेपर विशिष्ट श्रूतनिरूपितेऽरुचिः। = यद्यपि धर्मादि द्रव्यों का ज्ञान न होनेसे ज्ञानीके अभाव में दोनोंका संग्रह कर लेना चाहिए। ज्ञानके साथ होनेवाली श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई तो भी वह सम्यदे० सम्यग्दर्शन/I/१/२ तत्त्वादिपर अन्धश्रद्धान करना आज्ञा. ग्दृष्टि ही है, मिथ्यादृष्टि नहीं है, क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म के सम्यक्त्व है। उदयसे उत्पन्न हुआ जो अश्रद्धान जो कि अज्ञानको विषय करता है वह यहाँ नहीं है। मिथ्यादर्शनसे उत्पन्न हुआ जो श्रद्धान व १. क्षयोपशमकी हीनतामें तत्व सूत्रोंका भी अन्ध अरुचि रूप है अर्थात् यह वस्तु स्वरूप इस तरहसे है ऐसा जो श्रद्धान कर लेना योग्य है आगममें कहा गया है उस विषयमें अरुचि होना यह मिथ्यादर्शन रूप अश्रद्धान है और प्रकृत विषयमें ऐसी अश्रद्धा नहीं है। परन्तु का. अ./३२४ जो ण विजाणदि तच्च सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं । जिनेश्वरके प्रतिपादित जीवादि सच्चे हैं, ऐसी मनमें प्रीति-रुचि जं जिणवरेहि भणियं तं सब्वमहं समिच्छामि ।३२४। =जो तत्त्वों उत्पन्न होती है। को नहीं जानता किन्तु जिनवचनमें श्रद्धान करता है कि जिन भगवान्ने जो कुछ कहा है उस उस सबको मैं पसन्द करता हूँ। वह ३. गुरु नियोगसे सम्यग्दृष्टिके भी असत् वस्तुका भी श्रद्धावान् है ।३२४ श्रद्धान सम्भव है। पं.वि./१/१२५ यः कल्पयेत् किमपि सर्व विदोऽपि वाचि संदिह्य तत्त्वमसमञ्जसमात्मबुद्ध्या । खे पत्रिण विचरतां सुदृशेक्षितानां भ, आ./मू./३२/१२१ सम्मादिट्ठी जीवो उवइळं पवयणं तु सद्दहइ । संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ॥१२॥ - जो सर्वज्ञके भी सद्दहइ असम्भावं अयाणमाणो गुरुणियोगा।३२। -सम्यग्दृष्टि जीव वचनमें सन्दिग्ध होकर अपनी बुद्धिसे तत्त्वके विषयमें अन्यथा जिन उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित, कुछ कल्पना करता है, वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रों वाले व्यक्तिके ( सद्भावको) नहीं जानता हुआ गुरुके नियोगसे असद्भावका भी द्वारा देखे गये आकाशमें विचरते हए पक्षियोंकी संख्याके विषयमें श्रद्धान कर लेता है।३२१ ( क.पा./सुत्त/१०/गा १०७/६३७); (पं. विवाद करने वाले अन्धेके समान आचरण करता है ।१२५॥ ( पं.. सं./प्रा./१/१२); (ध.१/१,१,१३/गा, ११०/१७३); (ध,६/१,६-८,६/ वि./१३/३४)। गा, १४/२४२), (गो, जी./मू./२७/५६)। ल.सा./मू./१०५/१४४ सम्मुदये चलमलिणमगाद सद्दहदि तच्चयं अत्थं । ४. अन्ध श्रद्धानकी विधिका कारण व प्रयोजन सद्दहदि असम्भाव अजाणमाणो गुरुणियोगा ।१०३१ =सम्यक्त्व दे० आगम/६/४ अतीन्द्रिय पदार्थोंके विषयमें छद्मस्थ जीवोंके द्वारा मोहनीयके उदयसे तत्त्व श्रद्धानमें चल, मल व अगाढ दोष लगते कतिपत युक्तियोंसे रहित निर्णयके लिए हेतुता नहीं पायी जाती। हैं। वह जीव आप विशेष न जानता हुआ अज्ञात गुरुके निमित्तै इसलिए उपदेश को प्राप्त करके निर्णय करना चाहिए। असत्का भी श्रद्धान करता है। परन्तु सर्व ज्ञकी आज्ञा ऐसे ही है पं.ध./उ./१०४५ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रागेवात्रापि दर्शिताः । नित्यं ऐसा मानकर श्रद्धान करता है, अतः सम्यग्दृष्टि ही है। जिनोदितर्वाक्यातुं शक्या न चान्यथा 1१०४५॥ = पहले भी ४. असत्का श्रदान करनेसे सम्यश्वमें बाधा नहीं कहा है कि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, राम-रावणादिक सुदीर्घ अतीत कालवी और मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ सदैव जिनवाणीके भाती। द्वारा ही जाने जा सकते हैं किन्तु अन्यथा नहीं जाने जा भ, आ./वि./३२/१२२/१ स जीवः सम्मादिट्ठी...प्रतीतपदार्थकत्वमासकते ११०४५ दर्शितं । श्रद्धहति श्रद्धानं करोति असत्यमप्यर्थं अयाणमाणे अनव३. सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिके श्रद्धानमें अन्तर गच्छन् । किं । विपरीतमनेनोपदिष्टमिति । गुरोर्यारव्यातुरस्यायमर्थ इति कथनान्नियुज्यते प्रतिपत्त्या श्रोता अनेन वचनेन इति नियोगः १. मिथ्याष्टिकी प्ररूपणापर सम्यग्दृष्टिको श्रद्धान नहीं कथनं । सर्वज्ञप्रणीतस्यागमस्यार्थः आचार्य परंपरया अविपरीतः श्रुतोहोता। ऽवधृतश्चानेन सूरिणा उपदिष्टो ममेति सर्व ज्ञाज्ञाया रुचिरस्यास्तीति । आज्ञारुचितया सम्यग्दृष्टिर्भवत्येवेति भावः । “यह सम्यग्दृष्टि प.ध/उ./५६१ सूक्ष्मान्तरितदूराथें दर्शितेऽपि कुदृष्टिभिः । नाल्प- जीव असत्य पदार्थका भी श्रद्धान करता है, परन्तु वह तबतक असत्य स्ततः स मुह्येत किं पुनश्चेद्बहुश्रुतः ।५६१। -मिथ्यादृष्टियों द्वारा पदार्थ के ऊपर श्रद्धान करता है जबतक वह 'गुरुने मेरेको असत्य सूक्ष्म, दूरस्थ व अन्तरित पदार्थों के दिखानेपर भी अल्पज्ञानी सम्य. पदार्थ का स्वरूप कहा है' यह नहीं जानता है। जबतक वह असत्य ग्दृष्टि मोहित नहीं होता है। यदि बहुश्रुत धारक हुआ तो फिर पदार्थका श्रद्धान करता है तब तक उसने आचार्य परम्पराके अनुसार भला क्योंकर मोहित होगा। जिनागमके जीवादि तत्त्वका स्वरूप कहा है और जिनेन्द्र भगवान की जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धान--- श्रावक दे. सम्यग्दर्शम//५ जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट है वे भध हैं। क्योंकि सम्य. ग्दर्शनके बिना ज्ञान व चारित्र नियम पूर्वक नहीं होते। धद्धान प्रायश्चित्त-दे. प्रायश्चित्त/१ । श्रद्धावान-१.अपर विदेहका एक वक्षार-दे लोक ॥३॥ २. उस वक्षारका एक कूट तथा उस क्टका रक्षक देव, दे. लोक/५/४। श्रमण-१न, च, वृ./३३२ सम्मा वा मिच्छा विय तवोहणा समण तह य अणयारा। होति विराय सराया जदिरिसिमुणिणो य णायबा ।३३२-श्रमण तथा अनगार सम्यक व मिथ्या दोनों प्रकारके होते हैं। सम्यक् श्रमण विरागी और मिथ्या श्रमण सरागी होते हैं । उनको ही यति, ऋषि, मुनि और अनगार कहते हैं ।३३२॥ (प्र. सा./ता. वृ./२४६); (विशेष-दे. साधु ) २. श्रमणके १० कल्पोका निर्देश साधु/२। श्रमण-१ एक ग्रह-दे. ग्रह । २. एक नक्षत्र-दे. नक्षत्र । श्रावक-विवेकवान विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थको श्रावक कहते हैं। ये तीन प्रकारके हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक । निज धर्मका पक्ष मात्र करनेवाला पाक्षिक है और वतधारी नैष्ठिक । इसमें वैराग्यकी प्रकर्षतासे उत्तरोत्तर ११ श्रेणियाँ हैं। जिन्हें ११ प्रतिमाएँ कहते हैं। शक्तिको न छिपाता हुआ वह निचली दशासे क्रम पूर्वक उठता चला जाता है। अन्तिम श्रेणी में इसका रूप साधुसे किंचित् न्यून रहता हैं। गृहस्थ दशामें भी विवेक पूर्वक जीवन मितानेके लिए अनेक क्रियाओंका निर्देश किया गया है। आज्ञा प्रमाणभूत माननी चाहिए ऐसा भाव हृदय में रखता है अत: उसके सम्यग्दर्शनमें हानि नहीं है, वह मिथ्याष्टि नहीं गिना जाता है। सर्वज्ञकी आज्ञाके ऊपर उसका प्रेम रहता है, वह आज्ञा रुचि होनेसे सम्यग्दृष्टि ही है, ऐसा भाव समझना। (और भी दे. आगम/५)। गो.जी./जी. प्र./२७/५६/९२ असद्भावं-अतत्त्वमपि स्वस्य विशेषज्ञान शून्यत्वेन केवल गुरुनियोगात् अर्ह दाद्याज्ञातः श्रद्दधाति सोऽपि सम्यग्दृष्टिरेव भवति तदाज्ञाया अनतिक्रमात् ।२७१ - अपने विशेष ज्ञानका अभाव होनेसे गुरुके नियोगसे 'अरहंत देवका ऐसा ही उपदेश है' ऐसा समझकर यदि कोई पदार्थ का विपरीत भो श्रद्धान कर लेता है तो भी वह सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि उसने अरहंतका उपदेश समझकर उस पदार्थ का वैसा श्रद्धान किया है। उनकी आज्ञाका अतिक्रम नहीं किया। ५. सम्यक् उपदेश मिलनेपर भी हठ न छोड़े तो मिथ्यादष्टि हो जाये भ, आ./मू.३३,३६ सुत्तादो त सम्म दरसिज्जतं जदा ण सद्दहदि। सो चेव हवह मिच्छादिट्ठी जीवो तदो पहुदि ॥३३॥ पदमक्रवरं च एक्क पि जो ण रोचेदि सुत्तणिहिट्ठं । सेसं रोचंतो विहु मिच्छादिट्ठी मुणेयत्रो ३६-१. सूत्रसे आचार्या दिकके द्वारा भले प्रकार समझाये जानेपर भी यदि वह जीव विपरीत अर्थ को छोड़कर समीचीन अर्थका श्रद्धान नहीं करता, तो उस समयसे वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (ध. १/१,१,३६/गा, १४३/२६२); (गो. जी./मू./२८); (ल. सा./मू./१०६/१४४ ) २. सूत्रमें उपदिष्ट एक अक्षर भी अर्थको प्रमाण मानकर श्रद्धा नहीं करता वह माकीके श्रृतार्थ वा श्रुतांशको जानता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है । क्योंकि बड़े पात्रमें रखे दूधको छोटी सी भी विष कणिका बिगाड़ती है। इसी प्रकार अश्रद्धाका छोटा सा अंश भी आत्माको मलिन करता है ।। १. क्योंकि मिथ्याष्टिके ही ऐकान्तिक पक्ष होता है भ. आ./मू./१०/१३८ मोहोदयेण जीवो उवइ8 पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असम्भावं उबइठं अणुवइ वा ।४०)- दर्शन मोहनीय कर्मके उदय होनेसे यह जीव कहे हुए जीवादि पदार्थों के सच्चे स्वरूपपर श्रद्धान करता नहीं है। परन्तु जिसका स्वरूप कहा है अथवा कहा नहीं ऐसे असत्य पदार्थों के ऊपर वह श्रद्धान करता है ॥४॥ क. पा. सू./१०८/पृ. ६३७ मिच्छाइट्ठी णियमा उवइट्ठ पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असन्भाव उवइट्ठ वा अणुवइर्छ ।१०८/मिथ्यावृष्टि जीव नियमसे सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान नहीं करता है, किन्तु असर्वज्ञ पुरुषों के द्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भावका अर्थात पदार्थके विपरीत स्वरूपका श्रद्धान करता है ।१०८) (ध. ६/१,६-८६/गा. १५/२४२) । * सम्यग्दृष्टिको पक्षपात नहीं होता-दे. सम्यग्दृष्टि। .. एकान्त श्रद्धान या दर्शन वादका निर्देश १. मिथ्या एकान्तको अपेक्षा ज्ञा./४/२४ कैश्चित् कीत्तिता मुक्तिदर्शनावेव केवलम् । वादिना खलु सर्वेषामपाकृत्य नयान्तरम् ।२४। कई बादियोंने अन्य समस्त वादियों के अन्य नयपक्षों का निराकरण करके केवल दर्शनसे ही मुक्ति होनी कही है, ॥२४॥ २. सम्यगेकान्तको अपेक्षा दे. विज्ञानवाद/२ ज्ञान क्रिया व श्रद्धा तीनों ही मिलकर प्रयोजन * भेद व लक्षण १ श्रावक सामान्य के लक्षण । श्रावकके भेद। १. पाक्षिकादि तीन भेदः २. नैष्ठिक श्रावकके ११ भेद; ३. ग्यारहवी प्रतिमाके दो भेद। पृथक-पृथक् ११ प्रतिमाएँ। -दे, वह बह नाम । पाक्षिकादि श्रावकोंके लक्षण । श्रावक सामान्य निर्देश गृहस्थ धर्मकी प्रधानता। श्रावक धर्मके योग्य पात्र । विवेकी गृहस्थको हिंसाका दोष नहीं। श्रावकको भत्र धारणकी सीमा। श्रावकके मोक्ष निषेधका कारण । श्रावकके पढने न पढ़ने योग्य शास्त्र -दे. श्रोता। श्रावकमें विनय व नमस्कार योग्य व्यवहार --दे. विनय/३। सम्यग्दृष्टि भी श्रावक पूज्य नहीं -दे. विनय/४ । गृहस्थाचार्य -दे. आचार्य/२। श्रावक ही वास्तवमें ब्राह्मण है -दे. ब्राह्मण । श्रावकको गुरु संशा नहीं -दे. गुरु/१। |* प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थमें श्रावकोंका प्रमाण -दे. तीर्थंकर/५। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक १. भेद व लक्षण पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश संयतासंयत गुणस्थान -दे, संयतासंयत । नैष्ठिक श्रावकमें सम्यक्त्वका स्थान ।। सम्यग्दृष्टि श्रावक मिथ्यादृष्टि साधुसे ऊँचा है -दे. साधु४ि। * सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिके व्यवहार धर्ममें अन्तर -दे, मिथ्यादृष्टि/४। | ग्यारह प्रतिमाओंमें उत्तम मध्यमादि विभाग। क्षुल्लका -दे. क्षुल्लक। | ग्यारह प्रतिमाओंमें उत्तरोत्तर व्रतोकी तरतमता। ४ पाक्षिक श्रावक सर्वथा अविरति नहीं। पाक्षिक श्रावककी दिनचर्या । पाँचौ व्रतोंके एक देश पालन करनेसे व्रती होता है। पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावको अन्तर। * श्रावकके योग्य लिंग -दे. लिंग/१। साधु व श्रावकके धर्ममें अन्तर -दे. धर्म/६ । साधु व श्रावकके ध्यान व अनुभवमें अन्तर -दे. अनुभव/५॥ आवश्यक क्रियाओंका महत्व। कुछ निषिद्ध क्रियाएँ। सब क्रियाओंमें संयम रक्षणीय है। श्रावकको भी समिति गुप्ति आदिका पालन करना चाहिए। -दे, व्रत/२/४ । श्रावकको स्थावर वध आदिकी भी अनुमति नहीं है -दे. व्रत/३॥ ४ | श्रावकके मूल व उत्तर गुण निर्देश अष्ट मूल गुण अबश्य धारण करने चाहिए। अष्टमूल गुण निर्देशका समन्वय । अष्ट मूल गुण विशेष व उनके अतिचार - दे. वह वह नाम । ३ | अष्ट मूल गुण व सात व्यसनोंके त्यागके बिना नामसे भी श्रावक नहीं। श्रावकके १२ व्रत। -दे. व्रत/१। | अष्टमूल गुण व्रती व अव्रती दोनोंको होते हैं। मूलगुण साधुको पूर्ण व श्रावकको एक देश होते हैं। श्रावकके अनेकों उत्तरगुण १ श्रावकके दो कर्तव्य। २ श्रावकके ४ कर्तव्य । ३ श्रावकके ५ कर्तव्य। ४ श्रावकके ६ कर्तव्य। ५ श्रावकको ५३ क्रियाएँ। *श्रावककी २५ त्रियाएँ। -दे. क्रिया। * गर्भान्वय आदि १० या ५३ क्रियाएँ-दे. संस्कार/२।। श्रावकके अन्य कर्तव्य। श्रावककी स्नान विधि -दे,स्नान। दान देना ी गृहस्थका प्रधान धर्म है-दे. दान/३। वैयावृत्य करना गृहस्थका प्रधान धर्म है -दे, वैयावृत्य/ * | सावध होते भी पूजा व मन्दिर आदि निर्माणकी आशा -दे, धर्म/१/२। * | श्रावकोंको सल्लेखना धारने सम्बन्धी -दे.सल्लेखना/१ व ३॥ | अणव्रतोंमें भी कथंचित् महाव्रतत्व -दे. व्रत/३ । सामाोयकके समय श्रावक भी साधु-दे. सामायिक/३ । १. भेद व लक्षण १. श्रावक सामान्यके लक्षण स.सि./४/४५/४५८/८ स एव पुनश्चारित्रमोहकर्म विकल्पाप्रत्यारण्यानावरणक्षयोपशमनिमित्तपरिणामप्राप्तिकाले विशुद्धिप्रकर्षयोगाव श्रावको"। - वह ही (अविरत सम्यग्दृष्टि ही) चारित्र मोह कर्मके एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्मके क्षयोपशम निमित्तक परिणामोंकी प्राप्तिके समय विशुद्धि का प्रकर्ष होनेसे श्रावक होता हुआ। सा.ध./१/१५-१६ मूलोत्तरगुण निष्ठामधितिष्ठन् पञ्चगुरुपदशरण्यः । दानयजनप्रधानो, ज्ञानसुधा श्रावकः पिपासुः स्यात् ।१५। रागादिक्षयतारतम्यविकसनाद्धारमसं विरसुख - स्वादात्मस्वबहिर्ष हिस्त्रसव धाद्य होव्यपोहात्मसु । सदग्दर्श निकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादश-स्वेक यः श्रयते यतिवतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ।१६ =पंच परमेष्ठीका भक्त प्रधानतासे दान और पूजन करनेवाला भेद ज्ञान रूपी अमृतको पीनेका इच्छुक तथा मूलगुण और उत्तरगुणोंको पालन करनेवाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है ।१५। अन्तरं गमें रागादिकके क्षयकी हीनाधिकताके अनुसार प्रगट होनेवाली आत्मानुभूतिसे उत्पन्न सुखका उत्तरोत्तर अधिक अनुभव होना ही है स्वरूप जिन्होंका ऐसे और बहिरंगमें त्रस हिंसा आदिक पाँचों पापोंसे विधि पूर्वक निवृत्ति होना है स्वरूप जिन्होंका ऐसे ग्यारह देश विरत नामक पंचम गुणस्थानके दर्श निक आदि स्थानों-दरजोंमें मुनिव्रतका इच्छुक होता हुआ जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थानको धारण करता है उसको श्रावक मानता हूँ अथवा उस श्रावकको श्रद्धाकी दृष्टिसे देखता हूँ। सा, ध/स्वोपज्ञ टीका/१/१९ शृणोति गुरिभ्यो धर्ममिति श्रावकः । -जो श्रद्धापूर्वक गुरु आदिसे धर्म श्रवण करता है वह श्रावक है। द्र. सं./टी./१३/३४/५ स पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावको भवति । -पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक होता है । २. श्रावकके भेद १. पाक्षिकादि तीन भेद चा. सा./४१/३ साधकत्वमेवं पक्षादिभित्रिभिहिंसाद्य पचित पापम् अपगतं भवति । = इस प्रकार पक्ष चर्या और साधकत्व इन तीनोंसे गृहस्थीके हिंसा आदिके इकट्ठ किये हुए पाप सब नष्ट हो जाते हैं। सा.ध./१/२० पाक्षिकादिभि त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । ... नैष्ठिकः साधकः...।२० = पाक्षिक, नैष्ठिक और साधकके भेदसे श्रावक तीन प्रकारके होते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक सा. ध. /३/६ प्रारब्धो घटमानो निष्पन्नाश्चार्हतस्य देशयमः । योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी । ६। जिसे प्रकार प्रारब्ध आदि तीन प्रकारके योगसे योगी तीन प्रकारका होता है, उसी प्रकार देशयमी भी प्रारब्ध ( प्राथमिक ), घटमानो ( अभ्यासी) और निष्पन्न के भेदसे तीन प्रकारके हैं । पं. घ. //७२५ किं पुनः पाक्षिको ढोनेष्ठिका साधको नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक तो कैसे। ==पाक्षिक, गूढ, २. नैष्ठिक के ११ भेद मा. अणु./६१ सण-यय-सामाइन पोसह सचित राहते व बंधारंपरा अणु उहि देसविरवेये ।१३६ दार्शनिक, मलिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तविरत, ब्रह्मचारी. आरम्भविरत परिग्रह विरत अनुमति विश्त और उद्दिष्टविरत मे ( आवकके) ग्यारह भेद होते हैं । १३६ (चा. पा./मू./२२) (पं. सं./ प्रा/९/१३६). (ध. १/१.१.२ / ०२/१०२), (५.१/१.१.१२२ / गा. ११२/१७३), (५.६/४.१.४५ /गा. ०८/२०१). (गो. जी./मू./४००/८०), (सु. आ./४), (चा. सा./१/२), (द्र.सं./टी./११/२४ १२ उत (पं.वि./१/१४)। छ.सं./टी./४५/१६५/२ दार्शनिकवतिक विकासामयिक प्रवृत्तः प्राचितपरिहारेण दिवानापर्येण षष्ठ, सर्वथा अहपर्येण समः आरम्भनिवृशोऽष्टमःपरिग्रहनिवृत्तो नमः... अनुमतनिवृत्तो दागः उद्दिष्टाहारनिवृत्त एकादशमः दार्शनिक, अती सामयिकी श्रोषधोपवासी और सचित विरत तथा दिना मैथुन विरत. अविरत आरम्भविरत और परिग्रह विरत अनुमति विरत और उद्दिष्ट विरत श्रावकके ये ११ स्थान हैं (सा. ध. /३/२-३)। २. ग्यारहवी प्रतिमाके २ भेद बसु श्रा./३०१ एयरसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविओ । [] प कोपरगड़ी विविध ३०१० ग्यारहवें अर्थात उद्दिष्ट विरत स्थानमें गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं- प्रथम एक वस्त्र रखनेवाला ( क्षुल्लक ), दूसरा कोपीन ( लंगोटी ) मात्र परिग्रहवासा ( ऐलक ) (गुल. श्रा./१०४), (सा. प. ७/३८-३६) । ३. पाक्षिकादि श्रावकके लक्षण १. पाक्षिक श्रावक चा, सा/४०/४ असिमधिकृषिवाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंसासंभवेऽपि पक्षः । असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भों कर्मोंसे गृहस्थोंके हिमा होना सम्भव है तथापि पक्ष चर्या और साधकपना इन तीनोंसे हिंसाका निवारण किया जाता है। इनमें से सदा अहिंसा रूप परिणाम करना पक्ष है । सा. घ. / २ / २.९६ तत्रादी अनीमा हिंसामपासितु मद्यमांसमधूत्युज्मेद पत्र क्षीरफलानि च 12 स्थूल हिसानृतस्तेयमैथुन प्रवर्द्धनम्। पापभीरुतयाभ्यस्येद्- बलवीर्य निगूहकः | १६ | = उस गृहस्थ धर्म में जिनेन्द्र देव सम्बन्धी आज्ञाको श्रद्धान करता हुआ पाक्षिक आपक हिंसाको छोड़ने के लिए सबसे पहले मध्य, मांस, मधुको और पंच उदुम्बर फलोंको छोड़ देवे |२| शक्ति और सामर्थ्यको नहीं छिपानेवाला पाक्षिक श्रावक पापके डर से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ; स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रहके त्यागका अभ्यास करे ।१६। (पाक्षिक श्रावक देवपूजा गुरु उपासना आदि कार्यको शक्त्यनुसार नित्य करता है - दे. वह वह नाम) सदावत खुलवाना (बे. पूजा / १) मन्दिरमें फुलवाड़ी आदि लबाना कार्य करता है ( दे. चैत्य वैश्यालय रात्रि भोजनका त्यागी होता है, परन्तु कदाचित | ४८. २. श्रावक सामान्य निर्देश - रात्रिको साथी आदिका ग्रहण कर लेता है-थे. रात्रि भोजन (३/३) । पर्व के दिनों में प्रोषधोपवासको करता है- दे, प्रोषघोपवास (१/१) । व्रत खण्डित होनेपर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है (सा ध./२/ ७७)। आरम्भादि संकल्पी आदि हिंसा नहीं करता (दे. श्रावक / 2) इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धिको पाता प्रतिमाओंको धारण करके एक दिन मुनि धर्मपर आरूढ होता है। दे, पक्ष । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिसाका त्याग करना जैनोंका पक्ष है । २. चर्या श्रावक } पा. सा. ४०/४ धर्मा देवतार्य मन्त्र सिद्धार्थ मोषधार्थ माहारार्थं स्वभोगाय च गृहमेधिनो हिंसा न कुर्वन्ति हिंसा भने प्रायश्चित्तविधिना विशुद्धः सन् परिग्रहपरित्यागकरणे सति स्वगृहं धर्म च वेश्याय समय या गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति । - धर्म के लिए, किसी देवताके लिए किसी मन्त्रको सिद्ध करनेके लिए, औषधि के लिए और अपने भोगोपभोगके लिए, कभी हिंसा नहीं करते हैं। यदि किसी कारण से हिंसा हो गयी हो तो विधिपूर्वक प्रायश्चित कर विशुद्धता धारण करते हैं। तथा परिग्रहका त्याग करनेके समय अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पुत्र आदिको समर्पण कर जबतक वे घरको परित्याग करते हैं तबतक उनके चर्या कहलाती है। यह चर्या दार्शनिकसे अनुमति विरत प्रतिमा पर्यन्त होती है (सा. ध./९/१४) ३. नैष्ठिक श्रावक सा. घ. / ३ / १ देशयमघ्न कषाय-क्षयोपशमतारतम्यवशतः स्यात् । दर्शनिकायकादया-दशा में ष्टिकः सुलेश्य र ११ देशका घात करनेवाली कषायोंके क्षयोपशमकी क्रमशः वृद्धिके वशसे श्रावकके दर्शनिक आदिक ग्यारह संयम स्थानोंके वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है |१| ४. साधक श्रावक म.पु. / ३ / १४ जीवितान्ते तु साधनम्। देहातिरागाव ध्यानशुद्धात्मशोधनम् | १४६ = जो श्रावक आनन्दित होता हुआ जीवनके अन्तमें अर्थात् मृत्यु समय शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापारके त्यागसे पवित्र ध्यानके द्वारा आत्माकी शुद्धिको साधन करता है वह साधक कहा जाता है । ( सा. ध./१/१६-२०/८/१ ) । चा. सा. ४१/१ सकलगुणसं पूर्णस्य शरीरकम्पमानोन्मीलनविधि परिहरमाणस्य लोकाग्रमनसः शरीरपरित्यागः साधकत्वम् = इसी तरह जिसमें सम्पूर्ण गुण विद्यमान हैं, जो शरीरका कंपना, उच्छ्वास लेना, नेत्रोंका खोलना आदि क्रियाओंका त्याग कर रहा है और जिसका चित्त लोकके ऊपर विराजमान सिद्धों में लगा हुआ है ऐसे समाधिमरण करनेवालेका शरीर परित्याग करना साधकपना कहलाता है । ste २. धावक सामान्य निर्देश १. गृहस्थ धर्मकी प्रधानता I कुरल./६.८ गुही स्वस्यैव कर्माणि पास मानतो यदि तस्य नावश्यका धर्मा भिनाश्रमनिवासिना । यो गृही नित्यमुद्यः परेष कार्यसाधने स्वयं चाचारसंपन्नः पूतात्मा स पैरपि यदि मनुष्य गृहस्थ के समस्त कर्तव्यों को उचित रूपसे पालन करे, तब उसे, दूसरे आश्रमों धर्मो पालनेकी क्या आवश्यकता 2 | ६ | जो गृहस्थ दुसरे लोगों को कर्तव्य पालनमें सहायता देता है और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है, वह ऋषियोंसे अधिक पवित्र है | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश श्रावक ३. पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश ..नैष्ठिक श्रावकमें सम्यक्त्वका स्थान ६.वि./१/१२ सन्तः सर्वसुरासुरेन्द्र महितं मुक्तः परं कारणं रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति । वृत्तिस्तस्य यदुन्नतः परमया भक्त्यापिताज्जायते तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रियः ।१२। =जो रत्नत्रय समस्त देवेन्द्रों एवं असुरेन्द्रोंसे पूजित है. मुक्तिका अद्वितीय कारण है तथा तीनों लोकोंको प्रकाशित करनेवाला है उसे साधुजन शरीरके स्थित रहनेपर ही धारण करते हैं। उस शरीरकी स्थिति उत्कृष्ट भक्तिसे दिये गये जिन सद्गृहस्थोंके अन्नसे रहती है उन गुणवान सद्गृहस्थोंका धर्म भला किसे प्रियन होगा ! अर्थात सर्वको प्रिय होगा। २. श्रावक धमके योग्य पात्र सा.ध./१/११ न्यायोपात्तधनो, यजन्गुणगुरून. सहगी स्त्रिवर्ग भजन्नन्योन्यानुगुणं, तदहंगृहिणी-स्थानालयो होमयः । युक्ताहारविहारआर्यसमितिः, प्राज्ञः कृतज्ञो वशी, शृण्वन्धर्म विधि, दयालुरघभी, सागारधर्म चरेत् ।११। न्यायसे धन कमानेवाला, गुणोंको, गुरुजनोंको तथा गुणोंमें प्रधान व्यक्तियों को पूजनेवाला, हित मित और प्रियका वक्ता, त्रिवर्गको परस्पर विरोधरहित सेवन करनेवाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकानसहित लज्जावान् शास्त्रके अनुकुल आहार और विहार करनेवाला, सदाचारियोंकी संगति करनेवाला, विवेकी, उपकारका जानकार, जितेन्द्रिय, धर्मकी विधिको सुननेवाला दयावान् और पापोंसे डरनेवाला व्यक्ति सागार धर्मको पालन कर सकता है ।११। ३. विवेकी गृहस्थको हिंसाका दोष नहीं म. पु./३६/१४३-१४४,१५० स्यादारेका च षट्कर्मजीविनां गृहमे धिनाम् । हिंसादोषोऽनुषङ्गो स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ।१४३। इत्यत्र ब्र महे सत्य अल्पसावद्यसङ्गतिः। तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ।१४४॥ त्रिवेतेषु न संस्पर्शो वधेनाइद्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यान्निराकृतिः ॥१५० - यहाँपर यह शंका हो सकती है कि जो असि-मषी आदि छह कर्मोसे आजीविका करनेवाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसाका दोष लग सकता है परन्तु इस विषयमें हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है; आजीविकाके करनेवाले जैन गृहस्थोंके थोड़ीसी हिंसाकी संगति अवश्य होती है, परन्तु शास्त्रों में उन दोषोंकी शुद्धि भी तो दिखलायी गयी है ।१४३-१४४। अरहन्तदेवको माननेवालेको द्विजोंका पक्ष, चर्या और साधन इन तीनोंमें हिसाके साथ स्पर्श भी नहीं होता...॥१५॥ घ. १/१,१.१३/१७५/४ सम्यक्त्वमन्तरेणापि देशयतयो दृश्यन्त इति चेन्न, निर्गतमुक्तिकाङ्क्षस्यानिवृत्तविषय पिपासस्याप्रत्याख्यानानुपपत्ते । -प्रश्न-सम्यग्दर्शनके बिना भी देशसंयमी देखने में आते है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, जो जीव मोक्षकी आकांक्षासे रहित हैं और जिनकी विषय पिपासा दूर नहीं हुई है, उनके अप्रत्यारयान संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। बसु. श्रा./५ एयारस ठाणाई सम्मत्त विवज्जिय जीवरस । जम्हाण संति तम्हा सम्मत्तं सुणह वोच्छामि।५।(श्रावकके) ग्यारह स्थान चूकि सम्यग्दर्शनसे रहित जीवके नही होते, अतः मैं सम्यक्त्वका वर्णन करता हूँ। हे भव्यो ! तुम सुनो। द्र, सं./टी./४५/१६५/३ सम्यक्त्वपूर्वकेन.. दार्शनिकश्रावको भवति । -सम्यक्त्वपूर्वक.. दार्शनिक श्रावक होता है । (ला. सं./२/६ ) । २. ग्यारह प्रतिमाओंमें उत्तम मध्यमादि विभाग चा. सा./४०/३ आद्यास्तु षट् जघन्याः स्युमध्यमास्तदनु त्रयः । शेषौ द्वावुत्तमायुक्तौ जनेषु जिनशासने।जिनागममे ग्यारह प्रतिमाओ मेंसे पहलेकी छह प्रतिमा जघन्य मानी जाती है. इनके बादकी तीन अर्थात सातवी, आठवीं और नौवीं प्रतिमाएँ मध्यम मानी जाती हैं। और बाकी की दशवी, ग्यारहवीं प्रतिमाएँ उत्तम मानी जाती है। (सा. ध./३/२-३); (द्र. सं./टी./४५/१/६/११); ( द. पा./टी./१८/१७) । ३. ग्यारह प्रतिमाओंमें उत्तरोत्तर व्रतोंकीरतमता चा. सा./२/४ इत्येकादेश निलया जिनोदिताः श्रावकाः क्रमशः बतादयो गुणा दर्शनादिभिः पूर्व गुणैः सह क्रमप्रवृद्धा भवन्ति ।- जिनेन्द्रदेवने अनुक्रमसे इन ग्यारह स्थानों में रहनेवाले ग्यारह प्रकार के श्रावक बतलाये हैं। इन श्रावकोंके व्रतादि गुण सम्यग्दर्शनादि अपने पहले के गुणों के साथ अनुक्रमसे बढ़ते रहते हैं। सा.ध./३/५ तद्वदर्श निकादिश्च, स्थैर्य स्वे स्वे व्रतेऽवजन् । लभते पूर्वमेवार्थाद, व्यपदेशं न तूत्तरम् । =नैष्ठिक श्रावककी तरह अपनेअपने व्रतों में स्थिरताको प्राप्त नहीं होनेवाले दर्शनिक आदि श्रावक भी वास्तवमें पूर्व-पूर्व की ही संज्ञाको पाता है, किन्तु आगेकी संज्ञाको नहीं 11 ४. पाक्षिक श्रावक सर्वथा अवती नहीं ला. सं./२/४७-४६ नेत्थं यः पाक्षिकं कश्चिद् व्रताभावादस्त्यवती। पक्षमात्रावलम्बी स्याद् व्रतमात्रं न चाचरेत् ।४७। यतोऽस्य पक्षग्राहित्वमसिद्ध बाधसंभवात् । लोपात्सर्व विदाज्ञायाः साध्या पाक्षिकता कुतः।४८ आज्ञा सर्व विद: सैव क्रियावान् श्रावको मतः। कश्चित्सर्व निकृष्टोऽपि न त्यजेत्स कुल क्रियाः ।४। = प्रश्न-१ पाक्षिक श्रावक किसी व्रतको पालन नहीं करता, इसलिए वह अवती है। वह तो केवल व्रत धारण करनेका पक्ष रखता है, अतएव रात्रिभोजन त्याग भी नहीं कर सकता 1 उत्तर-ऐसी आशंका ठीक नहीं क्योंकि रात्रिभोजनत्याग न करनेसे उसका पाक्षिकपना सिद्ध नहीं होता। सर्वज्ञदेव द्वारा कही रात्रिभोज नत्याग रूप कुल क्रियाका त्याग न करनेसे उसके सर्वज्ञदेवकी आज्ञाके लोपका प्रसंग आता है, और सर्वज्ञकी अज्ञाका लोप करनेसे उसका पाक्षिकपना भी किस प्रकार ठहरेगा।।४७-४८० २. सर्वज्ञकी आज्ञा है कि जो क्रियावात कुलक्रियाका पालन करता है वह श्रावक माना गया है। अतएव जो सबसे कम दर्जेके अभ्यासमात्र मूलगुणोंका पालन करता है उसे भी अपनी कुल क्रियाएँ नहीं छोड़नी चाहिए ।४। ४. श्रावकको भव धारणकी सीमा बसु. श्रा./५३६ सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए। भुंजिवि सुर-मणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं ॥५३६।। - ( उत्तम रीतिसे श्रावकोंका आचार पालन करनेवाला कोई गृहस्थ) तीसरे भवमें सिद्ध होता है। कोई क्रमसे देव और मनुष्यों के सुखोंको भोगकर पाँचवें, सातवें या आठवें भव में सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं ।५३६॥ ५. श्रावकको मोक्ष निषेधका कारण मो. पा./१२/३१३ पर उद्धृत-खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुंभ प्रमार्जनी। पञ्च सूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति। -गृहस्थोंके उखली, चक्की, चूलही, घड़ा और झाडू ये पंचसूना दोष पाये जाते हैं। इस कारण उनको मोक्ष नहीं हो सकता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भो०४-७ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक ला सं/३/१२६ १३९ एव च सात्स्यात्कुलाचार क्रमात्परम् । बिना नियमादि तावत्प्रोच्यते सा कुलक्रिया | १२६ दर्शनप्रतिमा नास्य पाक्षिकाः स्वस्थानादसंयत | | १३१ | ३. यदि ये उपरोक्त (अष्टमूलगुण व सप्तव्यसनत्याग ) क्रियाएँ बिना किसी नियमके हों तो उन्हें व्रत नहीं कहते बल्कि कुल क्रिया कहते हैं |१२६ | ऐसे ही इन कुल क्रियाओं का पालन करनेवाला न दर्शन प्रतिमाभारी है और न पंचम गुणवत पाक्षिक है और उसका गुणस्थान असंयत है | १३१| दे. श्रावक /४/३ [ अष्ट मूलगुण तथा सप्त व्यसन त्यागके बिना नाममात्रको भी श्रावक नहीं । ] ./४/४ [ ये अष्ट मूलगुण व्रती व अवती दोनोंको यथायोग्य रूपये होते हैं।] दे. श्रावक / २ /३/१ [ अष्ट मूलगुण धारण और स्थूल अणुवतका शक्रयनुसार पालन पाक्षिक श्रावकका लक्षण है । ] ५. पाक्षिक श्रावकी दिनचर्या == सा- ध./६/१-४४ ब्राह्म मुहूर्त्त उत्थाय वृत्तपश्ञ्चनमस्कृति' । कोऽहं को मम धर्म कि, व्रतं चेति परामृशेत् |१| ब्राह्म मुहूर्त में उठ करके पढ़ा है नमस्कार मन्त्र जिसने ऐसा भावक मैं कौन हूँ. मेरा धर्म कौन है, और मेरा यत कौन है इस प्रकार चितवन करे | अति दुर्लभ धर्म में उत्साहकी भावना |२| स्नानादिके पश्चात् अष्ट प्रकार अर्हन्त भगवान्की पूजा तथा वन्दनादि कृतिकर्म ( ३-४ ) ईर्ष्या समिति से ( ६ ) अत्यन्त उत्साहसे (७) जिनालय में तिस्सही शब्द के चाणके साथ प्रवेश करे) जिनालयको समवसरण के रूप में ग्रहण करके (१०) देव शास्त्र गुरुकी विधि अनुसार पूजा करे (११-१२) स्वाध्याय (१३) दान (१४) गृहस्थ संबन्धित कार्य (१५) मुनित्रतकी धारणकी अभिलाषा पूर्वक भोजन (१७) मध्याह्न में अर्हन्त भगवान्की आराधना (२१) पूजादि (२३) तत्व चर्चा (२६) सन्ध्यामें भाव पूजादि करके सोचे (२७) निद्रा उचटनेपर वैराग्य भावना भावे (२८-३३) । स्त्रीकी अनिष्टताका विचार करे (३४-३६) समता व मुनको भावना करे (३४-४३) आदर्श आवकों की प्रशंसा तथा धन्य करे (४४) । (ला. सं./६/१६२-१८८ ) | एकदेश पालन करनेसे व्रती ६. पाँच व्रतोंके होता है स. सि. / ७ / ११ / ३५८ / ३ अत्राह किं हिंसादीनामन्यतमस्माद्यः प्रतिनिवृत्तः सवागारी बती । नेवम्। किं तर्हि । पञ्चतय्या अपि विरतेबैंकरमेन विवक्षित प्रश्न जो हिंसादिकसे किसी एक निवृत्त है वह कया अगारी बत्ती है ? उत्तर-ऐसा नहीं है। प्रश्नतो क्या है। उत्तर- जिसके एक देशसे पाँचोंकी विरति है वह जारी है। यह अर्थ यहाँ विवक्षित है (रा. बा. /७/१६/४/५४७/१) । हम रा. वा. /७/११/२/०४६/२१ यथा गृहापपरका दिनगरीनिवास स्यापि नगरावास इति शब्द्यते, तथा असकलवतोऽपि नैगम संग्रहव्यवहारनयनापेक्षा मतीति व्यपदिश्यते। जैसे-घरके एक कोने या नगरके एकदेशमें रहनेवाला भी व्यक्ति नगरवासी कहा जाता है उसी तरह सकल को धारण न कर एक देशव्रतोंको धारण करनेवाला भी नैगम संग्रह और व्यवहार नयोंकी अपेक्षा वती कहा जायेगा । ७. पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावकमें अन्तर घ. / ३ / ४ दुर्लेश्याभिभवाज्जातु विषये क्वचिदुत्सुकः । स्खलन्नपि कापि गुणे, पाक्षिकः स्थान्न नैष्ठिकः |४| =कृष्ण, नील व कापीत - to ३. धावकके मूल व उत्तर गुण निर्देश इन लेश्याओं मे से किसी एकके वेगसे किसी समय इन्द्रियके विषय में उत्कण्ठित तथा किसी मूलगुणके विषयमे अतिचार लगानेवाला गृहस्थ पाक्षिक कहलाता है कि नहीं। ४. श्रावकके मूल व उत्तर गुण निर्देश १. अष्ट मूतगुण अवश्य धारण करने चाहिए २.क./६६ मा अ गुलगुला नाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा ६६ । = मद्य, मांस और मधुके त्याग सहित पाँचों अगुतोको श्रेष्ठ मुनिराज गृहस्थोके गुण कहते है। (सा.प.) पू.सि./६९ मा क्षोई पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन हिंसा व्युपठिका मैमकम्यानि प्रथममेव हिंसा स्थानकी कामना वाले पुरुषों को सबसे पहले शराब, मांस, शहद, ऊमर, कठूमर आदि पंच उदुम्बर फलोंका त्याग करना योग्य है । ६११ (पं. वि. / ६ / २३), ( सा. ध./२/२) । या सा.१०/४ पर भूत- हिंसासत्यस्यापरिग्रहाथ बादरभेदाद । यताम्मासान्यासि हिमोऽष्ट सम्य्यमी मूलगुणाः । = - स्थूल हिसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म व स्थूल परि ग्रहसे विरक्त होना तथा जुआ, मांस और मद्यका त्याग करना ये आठ गृहस्थोंके मूलगुण कहलाते हैं । ( चा. सा. /३० /३), (सा. घ /२/३१। सा. घ. / २ / १८ मद्यपलमधुनिशाशन पञ्चफलीविरति पञ्चकातनुती । जीवदयातालनमिति चक्कचिदष्टमूलगुणाः १ = किसी आचार्य के मत मे मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन व पंच उदुम्बर फलोंका त्याग, देववन्दना, जीव दया करना और पानी छानकर पीना में मूलगुण माने गये है | १८| (सा. घ. सान राम /फुट नोट पृ. ८२ ) । २. अष्ट मूलगुण निर्देशका समन्वय रा. वा. हिं. /७/२०/५३८ कोई शास्त्रमें तो आठ मूल गुण कहे हैं, तामें पाँच अणुव्रत कहे, मद्य, मांस, शहदका त्याग कहा, ऐसे आठ कहे । कोई शास्त्र में पाँच उदुम्बर फलका त्याग, तीन प्रकारका त्याग, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्रमें अन्य प्रकार भी कहा है। यह तो मिक्षाका भेद है, हाँ ऐसा समझना जो स्थूलपले पाँच पाप हो का त्याग है। पंच उदुम्बर फलमें तो त्रस भक्षणका त्याग भया, शिकार के त्यागमें त्रस मारनेका त्याग भया । चोरी तथा परस्त्री त्यागमें दोऊ व्रत भए । द्यत कर्मादि अति तृष्णाके त्याग त असत्यका त्याग तथा परिग्रहकी अति चाह मिटी । मांस, मद्य, और शहदके त्याग तै त्रस कू मार करि भक्षण करनेका त्याग भया । ३. अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनोंके त्यागके बिना नामसे भी धावक नहीं दे दर्शन प्रतिमा / २ / ५ पहली प्रतिमामें ही श्रावकको अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनका त्याग हो जाता है। साध टिप्पणी ८२ प्रगुणा गुरागारिकीर्तिता बिना यदि -आठ सगुण श्रावकों के लिए गणधश्देवने कहे हैं. इनमें से एकके भी अभाव आवक नहीं कहा जा सकता। पं.प./७/०२४-०२८ निसर्गादा याशयातास्ते गुणाः स्फुटम् । तद्विना न व्रतं यावत्सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम् ||२४| एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति नामतः । किं पुनः पाक्षिको जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ श्रावक ४. श्रावकके मूल व उत्तर गुण निर्देश गहो नैष्ठिकः साधकोऽथवा १७२५॥ मद्यमांसमधुरमागी त्यक्तोजबरपञ्चकः। नामतः श्रावकः ख्यातो नान्यथाऽपि तथा गृही। ia यथाशक्ति विधातव्यं गृहस्थैर्व्यसनोज्झनम् । अवश्य तदवतस्यैस्तै रिच्छद्भि श्रेयसी क्रियाम् ।७२७। त्यजेहोषांस्तु तत्रोतास सूत्रोऽतीचारसंज्ञकान् । अन्यथा मद्यमांसादीद श्रावकः कः समाचरेत् १७२८। -आठों मूलगुण स्वभावसे अथवा कुल परम्परासे भी आते हैं। यह स्पष्ट है कि मूलगुणके बिना जीवोंके सब प्रकारका व्रत और सम्यक्त्व नहीं हो सकता ।७२४ मूलगुणों के बिना जीव नामसे भी श्रावक नहीं हो सकता तो फिर पाक्षिक, गूढ नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक कैसे हो सकता है ।७२५॥ मद्य, मांस, मधु व पंच उदुम्बर फलोंका त्याग करनेवाला गृहस्थ नामसे श्रावक कहलाता है, किन्तु मद्यादिका सेवन करने वाला गृहस्थ नामसे भी श्रावक नहीं है ।७२६। गृहस्थोंको यथाशक्ति व्यसनों का त्याग करना चाहिए, तथा कल्याणप्रद क्रियाओंके करनेकी इच्छा करनी चाहिए। व्रती गृहस्थको अवश्य ही व्यसनोंका त्याग करना चाहिए (७२७। और मूलगुणोंके लगनेवाले अतिचार नामक दोषों को भी अवश्य छोड़ना चाहिए अन्यथा साक्षात् रूपसे मद्य, मांस आदिको कौनसा श्रावक खाता है ।७२८1 (ला. सं./२/६-१), (ला. सं./३/१२६-१३०)। ४. श्रावकके ६ कर्तव्य चा. सा /४३/१ गृहस्थस्येज्या, बार्ता, दत्तिा, स्वाध्यापः, संयमः, तप इत्यार्यषट्कर्माणि भवन्ति । - इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह गृहस्थों के आय कर्म कहलाते हैं। पं.वि./६/७ देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने १७जिनपूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थों के लिए प्रतिदिनके करने योग्य आवश्यक कार्य हैं । अ.ग. श्रा./८/२६ सामायिकं स्तवः प्राज्ञैर्वन्दना सप्रतिक्रमा । प्रत्या ख्यानं तनुत्सर्ग: षोढावश्यकमीरितम् ।२६। = सामायिक, स्तवन, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान ऐसे छह प्रकार के आवश्यक पण्डितोंके द्वारा कहे गये हैं।२६॥ ५. श्रावककी ५३ क्रियाएँ र. सा./१५३ गुणवयतवसमपडिमादाणं जलगालण अणस्थमियं । दंसपणाणचरितं किरिया तेवण्ण सावमा भणिया ।१५३- गुणवत३, अणुवत५, शिक्षावत ४, तप १२, ग्यारह प्रतिमाओंका पालन ११, चार प्रकारका दान देना ४, पानी छानकर पीना १, रातमें भोजन नहीं करना १, रत्नत्रयको धारण करना ३, इनको आदि लेकर शास्त्रों में श्रावकोंकी तिरेपन क्रियाएँ निरूपण की हैं उनका जो पालन करता है वह श्रावक है ।१५३॥ ७. श्रावकके अन्य कर्तव्य ४. अष्ट मूलगुण व्रती अव्रती दोनोंको होते हैं पं.ध./उ./७२३ तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् । कचिद वतिना यस्मात् सर्वसाधारणा इमे ।७२३३ = उनमें जिस कारणसे बतो गृहस्थोंके जो आठ मूलगुण हैं वे कहीं-कहीं पर अवती गृहस्थोंके भी पाये जाते हैं इसलिए ये आठों ही मूलगुण साधारण है ।७२३१ (ला. सं./३/१२०-१२८)। ५. साधुको पूर्ण और श्रावकको एकदेश होते हैं पं. ध./3/७२२ मूलोत्तरगुणाः सन्ति देशतो वेश्मवर्तिनाम् । तथा नगारिणां न स्युः सर्वत. स्युः परेऽथ ते १७२२॥ - जैसे गृहस्र्थोके मूल और उत्तरगुण होते हैं वैसे मुनियों के एकदेश रूपसे नहीं होते हैं किन्तु वे मूलगुण तथा उत्तरगुण सर्व देश रूपसे ही होते हैं। (विशेष दे. व्रत/२/४ )। ६. श्रावकके अनेकों उत्तर गुण १. श्रावकके २ कर्तव्य र. सा./११ दाणं पूजा मुकावं साक्पधम्मे प्य सावया तेण विणा | चार प्रकार का दान देना और देवशाख गुरुकी पूजा करना श्रावकका मुख्य कर्तव्य है, इनके बिना वह श्रावक नहीं है। २. श्रावकके ४ कर्तव्य क. पा./८२/१००/२ दाणं पूजा सीलमुक्वासो चेदि चउबिहो सावय धम्मो। -दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकके धर्म हैं। (अ. ग. श्रा./४/१), (सा.ध./७/५१), (सा.ध./पं. लालाराम/फुटनोट पृ.६५) ३. श्रावकके ५ कर्तव्य कुरल./५/३ गृहिणः पञ्च कर्माणि स्वोन्नतिर्देवपूजनम् । बन्धु साहाय्यमातिथ्य पूर्वेषा की तिरक्षणम् ।। -पूर्वजोंको कीर्तिकी रक्षा, देवपूजन, अतिथि सत्कार, बन्धु-बान्धवोंकी सहायता और आत्मोन्नति मे गृहस्थ के पाँच कर्तव्य हैं ।। त. सू./७/२२ मारणान्तिकी सरलेखनां जोषिता ।२२१ तथा वह (श्रावक) मारणान्तिक संलेखनाका प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला होता है ।२२। ( सा, ध./७/५७ ) । बसु. श्रा./३१६ विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं । सत्तीए जहजोगं कायव्वं देसविरएहिं ।३१।। देशविरत श्रावकोंको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना चाहिए ।३१।। पं. वि./६/२५, २६, ४२, ५६ पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तपः । वस्त्रपूत पिबे तोयं .. २५॥ विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः परमेष्ठिषु। दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितः ।२६। द्वादशापि चिन्त्या अनुप्रेक्षा महारमभिः.. ४२। आद्योत्तमक्षमा यत्र यो धर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।। - पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्यागरूप अनशनादि तपोंको करना चाहिए । तथा वस्त्रसे छना जल पीना चाहिए ।२५॥ श्रावकों को जिनागमके आश्रित होकर पंच परमेष्ठियाँ तथा रत्नत्रयके धारकोंकी यथायोग्य विनय करनी चाहिए ।२६। महात्मा पुरुषों को अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करना चाहिए ।४२॥ श्रावकों को भी यथाशक्ति और आगमके अनुसार दशधर्मका पालन करना चाहिए ॥५६॥ सा. ध./टिप्पणी/२/२४/पृ. ६५ आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनति र्धार्मिके प्रीतिरुच्चैः । पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया । तत्त्वाभ्यासः स्वकीयवतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यम् । तद्गाहस्थ्य बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो मोहपाशः । जिनेन्द्रदेवकी आराधना, गुरुके समीप विनय, धरिमा लोगोंपर प्रेम, सत्पात्रोंको दान, विपत्तिग्रस्त लोगोंपर करुणा, बुद्धि से दुख दूर करना. तत्वोंका अभ्यास, अपने व्रतोंमें लीन होना और निर्भल सम्यग्दर्शनका होना, ये क्रियाएँ जहाँ त्रिकरण से चलती है वही गृहस्थधर्म 'विद्वानों को मान्य है, इससे विपरीत गृहस्थ लोक और परलोकमें दुख देनेवाला है। सा.ध./७/५५. ५६ स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रक्षाश्च भावयेत् । यस्तु मन्दायते तत्र, स्वकार्ये सः प्रमाद्यति ।। यत्प्रागुक्तं मुनीन्द्राणी, वृत्वं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक . थिति तदपि सेव्यताम् । सम्यनिरूप्य पदवी, शक्ति च स्वामुपासकैः ५६ ९. कुछ निषिद्ध क्रियाएँ - श्रावक आत्महितकारक स्वाध्यायको करे, बारह भावनाओंको भावे। परन्तु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह हित पु. सि. उ./७७ स्तोकै केन्द्रियघाताइगृहिणी संपन्नयोग्यविषयाणाम् । कार्यो में प्रमाद करता है । ५५६ पहले अनगार धर्मामृतमें कथित शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ७७। - इन्द्रियों के विषयों को न्याय पूर्वक सेवन करनेवाले श्रावकोंको कुछ आवश्यक मुनियोंका जो चारित्र, उसको भी अपनी शक्ति व पदको समझकर श्रावकों के द्वारा सेवन किया जाय ।५।। एकेन्द्रियके घातके अतिरिक्त अवशेष स्थावर-एकेन्द्रिय जीवोंके मारनेका त्याग भी अवश्यमेव करने योग्य होता है ।७७। प.ध./उ./७३६-७४० जिनचैत्यगृहादीनां निर्माण सावधानतया । यथा दे. सावध/२ खर कर्म आदि सावध कर्म नहीं करने चाहिए। संपद्विधेयास्ति दृष्या नावद्यलेशतः १७३६॥ अथ तीर्थादियात्रासु वसु. श्रा./३१२ दिणपडिम- बीरचरिया-तियालजोगेषु णत्थि अहियारो। विदध्यात्सोद्यतं मनः । श्रावकः स तत्रापि संयमन विराधयेत् ।७३८) सिधंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं १३१२१ - दिनमें प्रतिमा संयमो द्विविधश्चैवं विधेयो गृहमे धिभिः । विनापि प्रतिमारूपं योग्य धारण करना अर्थात् नग्न होकर कायोत्सर्ग करना, त्रिकालवतं यद्वा स्वशक्तितः ७४01- अपनो सम्पत्ति के अनुसार मन्दिर योग-गर्मी में पर्वतोंके ऊपर, बरसातमें वृक्षके नीचे, सर्दी में नदीके बनवाने में भी सावधानता करनी चाहिए, क्योंकि थोड़ा सा भी किनारे ध्यान करना, वीरचर्या-मुनिके समान गोचरी करना, पाप इन कार्यों में निंद्य नहीं है ।७३६। और वह श्रावक तीर्थादिककी सिद्धान्त ग्रन्थोंका-केवली श्रुतकेअली कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध यात्रामें भी मनको तत्पर करे, परन्तु उस यात्रामें अपने संग्रमको और अभिन्न दशपूर्वी साधुओं से निमित ग्रन्थों का अध्ययन करना विराधित न करे ७३८। गृहस्थों को अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिमा और रहस्य अर्थात प्रायश्चित्त शास्त्रका भी अध्ययन करना, रूपसे वा बिना प्रतिमारूपसे दोनों प्रकारका संयम पालन करना इतने कार्यों में देश विरतियों का अधिकार नहीं है।३१२। (सा.ध.. चाहिए ७४०॥ ७/५०)। ला. सं./५/१८५ यथा समितयः पञ्च सन्ति तिखश्च गुप्तयः। अहिंसा- सा, ध./४/१६ गवाद्यनष्ठिको वृत्ति, त्यजेद् बन्धादिना विना । भोग्यात् व्रतरक्षार्थ कर्तव्या देशतोऽपि तैः ।१८५- अहिंसाणुव्रतको रक्षाके वा तानुपेयात्तं, योजयेद्वा न निर्दयम् ॥१६= नैष्ठिक श्रावक गौ बैल लिए पाँच समिति तथा तीन गुप्तियोंका भी एक देशरूपसे पालन आदि जानवरों के द्वारा अपनी आजीविकाको छोड़ें अथवा भोग करना चाहिए ।१८॥ करने के योग्य उन गौ आदि जानवरोंको बन्धन ताड़न आदिके बिना ग्रहण करें, अथवा निर्दयता पूर्वक बन्धन आदिको नहीं करें।१६।। दे बत/२/४ महाव्रतको भावनाएँ भानी चाहिए। ला. सं./१/२२४, २६५ अश्वाधारोहणं मार्ग न कार्य व्रतधारिणाम । ईदे. पूजा/२/१ अर्हन्तादि पंच परमेष्ठीकी प्रतिमाओंकी स्थापना करावें। समितिसंशुद्धिः कुतः स्यात्तत्र कर्मणि (२२४१ छेद्यो नाशादिछिद्रार्थ: तथा नित्य जिनबिम्ब महोत्सव आदि क्रियाओं में उत्साह रखे। काष्ठमूलादिभिः कृतः । तावन्मात्रातिरिक्तं तन्निविधेयं प्रतिमादे. चैत्यचैत्यालय/२/८ औषधालय, सदावतशालाएँ तथा प्याऊ खुल न्वितैः ।२६५१- अणुवती श्रावकको घोड़े आदिकी सवारीपर चढ़कर वावे। तथा जिनमन्दिरमें सरोवर व फुलवाड़ी आदि लगवावे । चलनेमें उसके इर्या समितिकी शुद्धि किस प्रकार हो सकती है ।२२४। प्रतिमा रूप अहिंसा अणुवतको पालन करने वाले श्रावकोको नाक ८. आवश्यक क्रियाओंका महत्त्व छेदने के लिए सूई, सूआ बा लकड़ी आदिसे छेद करना पड़ता है, वह भी उतना ही करना चाहिए जितनेसे काम चल जाये, इससे अधिक 2. दान/४ चारों प्रकारका दान अत्यन्त महत्त्वशाली है। छेद नहीं करना चाहिए ।२६५॥ र. सा./१२-१३ दाणुण धम्मुण चागुण भोगुण बहिरप्पो पयंगो सो। जोह कसायग्गिमुहे पडिउमरिउण संदेहो ।१२। जिण पूजा मुणिदाणं १० सब क्रियाओं में सयम रक्षणीय है करेइ जो देइ सत्तिरूवेण । सम्माइटठी सावय धम्मी सो होइ मोक्ख दे. श्रावक/४/७ में पं.ध-वह श्रावक तीर्थ यात्रादिकमें भी अपने मनको मग्गरओ।१३।-जो श्रावक सुपात्रको दान नहीं देता, न अष्टमूलगुण, तत्पर करे, परन्तु उस यात्रामें अपने संयम को विराधित करे। गुणवत, संयम पूजा आदि धमका पालन करता है, न नीतिपूर्वक भोग भोगता है वह मिथ्यादृष्टि है। जैन धर्म धारण करनेपर भी श्रावकाचार-श्रावकों के आचारके प्ररूपक कई ग्रन्थ श्रावकाचार लोभको तोव अग्निमें पतंगे के समान उड़कर मरता है। जो श्रावक नामसे प्रसिद्ध हैं यथा-१. आ. समन्तभद्र (ई. श. २) कृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार। २.आ. योगेन्द्र देव (ई. श.६) कृत नवकार श्रावआनो शक्ति अनुसार प्रतिदिवस देव, शास्त्र, गुरु पूजा तथा सुपात्रमें दान देता है, वह सम्पग्दष्टि श्रावक इससे मोक्षमार्गमें शीघ गमन काचार । ३. आ. अमितगति (ई. १८३-१०२३.) कृत श्रावकाचार । ४. आ. वसुनन्दि (ई.१०४३-१०५३) कृत श्रावकाचार। करता है ।१२-१३। १. आ. सकल कीर्ति (ई. १४३३-१४४२) कृत प्रश्नोत्तर श्रावकाचार । म. पु./३६/88-१०१ ततोऽधिगतसज्जातिः सद्भगृहित्वमसौ भजेत् । ६.प.आशाधर (ई.११७३-१२४३) कृत सागार धर्मामृत । ७. आ. गृहमेधी भवनार्यषट्कर्माण्यनुपालयन् । यदुक्तं गृहचर्यायाम पद्मनन्दि नं. ७ (ई. १३०५) कृत श्रावकाचार । ६.९ । अनुष्ठानं विशुद्धिमतम् । तदाप्त विहितं कृत्स्नम् अतन्द्रालुः समा । श्रावण द्वादशी व्रत-बारह वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष भाद्रपद शु. १२ चरेत् ।१००। जिनेन्द्रापलब्धसज्जन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षितः । स धत्ते परमं को उपवास। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य (व्रत विधाम ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तमः ।१०१ -जिसे सज्जाति क्रिया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सदगृहित्य क्रियाको प्राप्त होता है। इस प्रकार जो सग सं./पृ.८८). हित्व होता हुआ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन श्रिांत-भ. आ./म./१७१/३८८ जा उबरि-उपरि गुणपडिबत्ती सा करता है, गृहस्थ अवस्थामें करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे भावदो सिदी होदि । दबसिदी हिस्सेणी सोवाणं आरुहंतस्स ।१७१। गये हैं अरहन्त भगवान के द्वारा कहे गये उन-उन समस्त आचरणोंका -सम्यग्दर्शन आदि शुद्ध गुणोंकी गुणित रूप उत्तरोत्तर उन्नताजो आलस्य रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्र देवसे वस्थाको प्राप्त कर लेना यह भाव रूप श्रिति है। और कोई उच्च उत्तम जन्म प्राप्त किया है, गणधर देवने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह स्थानमें स्थित पदार्थ लेना चाहे तो निश्रेणीका अवलम्बन लेकर उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेजको धारण करता है ।६९-१०११ एक-एक सोपान पंक्ति क्रमसे चढ़ना बह द्रव्य श्रिति है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र श्री देकर सातों पुत्र सहित दीक्षा ग्रहण कर ली (६)। अन्तमें मोक्ष प्राप्त की (८)। श्रीनदि-नन्दि संघ देशीयगण के अनुसार आप सकल-चन्द्रके शिष्य तथा नयनन्दिके गुरु थे। आपके लिए ही श्री पद्मनन्दिने जम्बूदीव पण्ण त्ति लिखी थी। अपरनाम रामनन्दि था। समयवि.१०२५-१०८० ई.६६८-१०२३), (ज. प./प्र. १३ A.N. Up.)। दे. इतिहास/७/५ । श्रीनाथ-अग्रोहाके राजा थे । समय-ई. १८६ । श्रीनिकेत-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर। श्रीनिचय-१. पद्मद में स्थित एक कूट । - दे. लोक/४/७ २. सप्तऋषियो में से एक-दे. सप्तऋषि । । श्रीनिवास-विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नंगर-दे. विद्याधर । श्री-१. विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर देविद्याधर; २. हिमवान् पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक ५/४,३. हिमवान् पर्वतस्थ पद्महदकी स्वामिनी देवी-दे. लोक३/४. रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे. लोक५/१३,५. भरतके आर्य खण्डस्थ एक पर्वत-दे. मनुष्य/४। श्रीकंठ-१. इसको राक्षस वंशीय राजा कीर्तिधवलने वानर द्वीप दिया था, जिससे आगे जाकर इसकी सन्ततिसे वानर वंशकी उत्पत्ति हुई।-दे. इतिहास/७/१२ । २. वेदान्तकी शिवाद्वैत शाखाके प्रवर्तक-दे. वेदान्त/७॥ श्रोकटन-भरतक्षेत्रस्थ आर्य खण्डके मलय पर्वतके निकटस्थ एक पर्वत-दे. मनुष्य/४। श्रीकल्प-कालका प्रमाण विशेष। अपरनाम शिरःकंप।-दे. गणित/I/१/४। श्रीकांता-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि वनोंमें स्थित वापियाँ ।-दे. लोक/७! श्रीचंद्र-पुराणसार संग्रह तथा दसणकहारयणकरड के कर्ता अपभ्रश कवि । गुरु परम्परा-नन्दिसंघ देशीयगण में श्रीकीर्ति, श्रुतकीर्ति. सहस्रकीर्ति, वीरचन्द्र, श्रीचन्द्र । समय-ग्रन्थ रचनाकाल घि, १९२३ (ई. १०६६) । (ती./४/१३१) । श्रीदत्त-१. भूतकालीन सप्तम तीर्थकर - दे. तीर्थकर/५ । २. भगवान महावीर की मूल परम्परा में लोहाचार्य के पश्चात एक अङ्गधारी। समय -वी.नि.५६५-५८५ (ई. ३८-५८) । (दे. इतिहास/ ४/४)। ३. एक प्रसिद्ध जैन तार्किक दिगम्बराचार्य जिनका नामोक्लेख आ. विद्यानन्दि ने श्लोकवातिक में किया और आ. पूज्यपाद (ई. श.६) तक ने जिनका स्मरण किया। कृति-जल्प निर्णय । समय - वि..श. ४-५ (ई. श. ४ का उत्तरार्ध)। (तो./२/४४६) (सि. वि./प्र. १६/पं. महेन्द्रकुमार)। श्रीधर-१. गणित तथा ज्योतिष विद्या के विद्वान दिगम्बराचार्य। कृति-गणितसार संग्रह, ज्योतिनिविधि, जातक तिलक, लीलावती (कन्नड़)। समय-रचनाकाल ई.७६६-८६५। (ती./३/१९९१) २. 'सुकुमाल चरिउ' के कर्ता अपभ्रंश कवि । समय-ग्रन्थ रचनाकाल ई. ११५१ । (ती./३/१८९)1३. पासणाह चरिउ तथा बड्ढमाण चरिउ के रचयिता एक भाग्य व पुरुषार्थ उभयवादी। हरियाणावासी बुध गोन्ह के पुत्र । समय-ग्रन्थ रचनाकाल वि. ११८६ । (ती./४/१३४)। ४. 'भविसयन्त चरिउ' के रचयिता अपभ्रंश कवि दिगम्बर मुनि । माथुरवंशीय नारायण के पुत्र । समय-ग्रन्थ रचनाकाल वि १२००। (ती./४/१४५)। ५. 'सुकुमाल चरिउ' के रचयिता एक अपभ्रंश कवि गृहस्थ । साहू पाथी के पुत्र । समय-ग्रन्थ रचनाकाल वि.१२०८ । (ती./४/१४६)। ६. सेनसंघी मुनिसेन के शिष्य, काव्य शास्त्रज्ञ । कृति-विश्वलोचन कोश । (ती-1३/१८८) । ७. भविष्यदत्त चरित्र तथा श्रुतावतार के रचयिता । समयई. श. १४ । (ती./३/१८५)। धोधरा-म.पु./५६/ श्लोक-धरणीतिलक नगरके स्वामी अतिवेग विद्याधरकी पुत्री थी। अलका नगरके राजा दर्शकसे विवाही गयी (२२८-२३०) । अन्तमें दीक्षा ग्रहण कर तप किया (२३२) पूर्व भवके वैरी अजगरने इसे निगल लिया। (२३७) मर कर यह रुचक विमानमें उत्पन्न हुई (२३८) । यह मेरु गणधरका पूर्व का छठाँ भव है -दे, मेरु । श्रीनंदन-प.प्र./१२/श्लोक नं. श्रीमन्यु आदि सप्तऋषियों के पिता थे (४) प्रीतिकर भगवान के केवल ज्ञानके समय एक पुत्रको राज्य श्रीपाल-१.म.प्र./सर्ग/श्लोक-पूर्व विदेहमें पुण्डरी किणी नगरीका राजा था (४७/३-४)। पिता गुणपालके ज्ञानकल्याणमें जाते समय मार्ग में एक विद्याधर घोड़ा बनकर उड़ाकर ले गया, जाकर वनमें छोड़ा (४७/२०) घूमते-घूमते विदेश में अनेकों अवसरों व स्थानोंपर कन्याओंसे विवाह करनेके प्रसंग आये परन्तु 'मैं माता आदि गुरुजनके द्वारा प्रदत्त कन्याके अतिरिक्त अन्य कन्यासे भोग न करू गा' इस प्रतिज्ञाके अनुसार सबको अस्वीकार कर दिया (४५/२८-१५०) । इसके अनन्तर पूर्व भवकी माता यक्षी द्वारा प्रदत्त चक्र, दण्ड, छत्र आदि लेकर, उनके प्रभावसे पिताके समवसरण में पहुँचा (४७/१६०१६३) । इसके अनन्तर चक्रवर्तीके भोगोंका अनुभव किया (४७/१७३)। अन्तमें दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष प्राप्त किया (४७/४४-४६)। २. चम्पापुर नगरके राजा अरिदमनका पुत्र था। मैना सुन्दरीसे विवाहा गया। कोढ़ी होनेपर मैना सुन्दरी कृत सिद्धचक्र विधानके गन्धोदकसे कुष्ठ रोग दूर हुआ। विदेश में एक विद्याधरसे जलतरंगिणी व शत्रु निवारिणी विद्या प्राप्त की। धवल सेठके रुके हुए जहाजोंको चोरोंसे छुड़ाया। इनको रैनमंजूषा नामक कन्याकी प्राप्ति होनेपर धवल सेठ उसपर मोहित हो गया और इनको समुद्र में गिरा दिया। तब ये लकड़ीके सहारे तिरकर कुंकुमद्वीपमें गये। वहाँपर गुणमाला कन्यासे विवाह किया। परन्तु धवलसेठके भाटों द्वारा इनकी जाति भाण्ड बता दी जानेपर इनको सूलीकी सजा मिली । तब रैनमंजूषाने इनको छुड़ाया। अन्तमें दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त किया (श्रीपाल चरित्र) । ३. पंचस्तूप संघ में वीरसेन स्वामी (ई. ७७०-८२५) के शिष्य और जिनसेन (ई.८१८-८७८) के सधर्मा। समय-(लगभग ई.८००-८४३) वि.श. । (ती./२/४५२) (दे. इतिहास/७/७)। ४. द्रविड़ संघी. गोणसैन के शिष्य और देवकीर्ति पण्डित के गुरु । अनन्तवीर्य के सधर्मा । समय-ई.६७५-१०२५ । (सि. वि./-प्र./७७/पं. महेन्द्र)। ५. एक राजा जिनके निमित्त नेमिचन्द्र सिद्धान्तिकदेव ने द्रव्य स ग्रह की रचना की थी। समय-वि. ११००-१९४० (ई. १०४३१०८.३) (ज्ञा./प्र. २/पं. पन्नालाल)। श्रीपाल चरित्र-१. सकलकोतिकृत संस्कृत छन्दोबद्ध । समय ई. १४०६-१४४२ । (ती./३/३३३) । २. भट्टारक श्रुतसागर (ई. १४८७१४६६) कृत संस्कृत गद्य रचना। (ती./३/४००)।३. कवि परिमान (ई. १५६४) कृत। ४.ब्र. नेमिदत्त (वि. १५८१,ई. १४२८) कृतन (ज./२/३७८)। (ती./३/४०४)। ५. वादिचन्द्र (वि.१६३७-१६६४) कृत हिन्दी गीत काव्य । (ती./४/७२)11.प.दौलत राम (ई.१७२०१७७२) कृत भाषा ग्रन्थ । कृत संस्कृत गद्य (वि. १५८५, ३ १६६४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल वर्णी . ५४ श्रुतकेवली श्रीपाल वणी-इन्होंने शुभचन्द्राचार्यको अध्यात्म तरंगिनी लिखने में सहायता दी थी। समय-वि.१६११ (ई. १५५४), (का, अ./ प्र. ८३ ॥ A. N. Up.)। श्रीपुर-विजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । श्रीपुरुष-राजा पृथिवी कोङ्गणिका दूसरा नाम श्रीपुरुष था। आप गंगवंशी नरेश थे। समय-वि. ८३३ (ई. ७६६), (भ.आ./प्र. १६ प्रेमी जी)। श्रीप्रभ-१. विजयाको दक्षिण श्रेणिका एक नगर-दे, विद्याधर, २. दक्षिण पुष्कर समुद्र का रक्षक व्यंतर देव-दे. तर/४ । श्रीभद्र-भूतकालीन २३ वें तीर्थकर -दे. तीर्थकर।। श्रीभद्रा-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि वनों में स्थित वापी -दे. लोक/५६ श्रीभूषण-शान्तिनाथ पुराण, पाण्डव पुराण, द्वादशांग पूजा तथा प्रबोध चिन्तामणि के कर्ता एक भट्टारक । समय-वि. १६३५-१६७६। (ती./४/४३) . श्रीमंडप भूमि-समवशरणकी आठवीं भूमि-दे, समवशरण। . श्रीमति-१,म पु./सर्ग/श्लोक-पुण्डरीकिणी नगरीके राजा बज्र. दन्तकी पुत्री थी (६/६०)। पूर्वभवका पति मरकर इसकी बुआका लड़का हुआ। जातिस्मरण होनेसे उसको ढूढने आयी।६/११)। जिस किस प्रकार खोज निकालकर उससे विवाह किया (६/१०५) । एक दिन मुनियोंको आहार देकर भोगभूमिकी आयुका बन्ध किया 1८/१७३) । एक समय शयनागारमें सुगन्धित द्रव्यके घुटनेसे आकस्मिक मृत्यु हो गयी (६/२७)। तथा भोगभूमि में जन्म लिया (/३३)। यह श्रेयांस राजाका पूर्वका सातवाँ भा है।-दे. श्रेयांस; २. जिनदत्त चरित्र/सर्ग/श्लोक-सिंघल द्वीपके राजा धनबाहनकी पुत्री थी। इसको ऐसा रोग था जो इसके पास रहता वह मर जाता था। इसी कारण इसके पिताने इसे पृथक् महल दे दिया (४/८) एक दिन एक बुढ़ियाके पुत्रकी बारी आनेपर जिनदत्त नामक एक लड़का स्वयं इसके पास गया। और रात्रिको इसके मुँहमें से निकले सर्पको मारकर इसको विवाहा (८/१५-२६)। इसपर मोहित होकर सागरदत्तने जिनदत्तको समुद्र में गिरा दिया। यह अपने शीलपर दृढ़ रही और मन्दिरमें रहने लगी (५/८)। कुछ समय पश्चात इसका पति आ गया (७/२४) अन्तमें दीक्षा धारण कर ली। समाधिपूर्वक कापिष्ठ स्वर्ग में देव हुई (६/११२) । श्रीमन्यु सप्तऋषियोंमेंसे एक-दे. सप्तऋषि । श्रीमहिता-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि वनोंमें स्थित वापी। -दे. लोक/५।६। श्रीवंश-एक पौराणिक राजवंश-दे. इतिहास/१०/१५ । श्रीवर्मा-म. पु./५४/श्लोक-पुष्कर द्वीपके पूर्व मेरुकी पश्चिम दिशामें सुगन्धि नामक देशके श्रीपुर नगरके राजा श्रीषेण (६/२७) का पुत्र था (६८)। एक समय विरक्त हो दीक्षा ले ली, तथा संन्यास मरणकर (८०-८१) स्वर्ग में देव हुआ (८२)। यह चन्द्रप्रभ भगवान्का पूर्वका पाँचवाँ भव है।-दे. चन्द्रप्रभ । श्रीवल्लभ-दक्षिण में लाट देशके राजा कृष्णरज प्रथमका पुत्र था. तथा ध व राजाका बड़ा भाई था। कृष्णराज प्रथमका नाम गोविन्द प्रथम था, इसी कारण इनका नाम गोविन्द द्वितीय भी था। यह वर्धमानपुरकी दक्षिण दिशामें राज्य करता था। अमोघवर्ष के पिता जगतुंगने इसे इन्द्रराजकी सहायतासे युद्ध में परास्त करके इसका राज्य छीन लिया था। इसीके समयमैं आ, जिनषेशने अपना हरिवंश पुराण लिखना प्रारम्भ किया था। समय-श.६६४-७१६ (ई.७७२-७६४); (ह.पु./६६/५२-५३); (ह../प्र.५ प. पन्नालाल )।--दे. इतिहास/३/४।। श्रीविजय-म.पू./६/श्लोक त्रिपृष्ठ नारायण का पुत्र था (१५३) । एक बार राज्य सिंहासन पर वज्रपात गिरनेकी भविष्यवाणी सुनकर (१७२-१७३) सिंहासन पर स्फटिक मणिको प्रतिमा विराजमान कर दी। और स्वयं चैत्यालय में जाकर शान्ति विधान करने लगा। (२१६-२२१) 1 फिर सात दिन वज्रपात यक्षमूर्तिपर पड़ा (२२२) । एक समय इनकी स्त्रीको अनिघोष विद्याधर उठाकर ले गया और स्वयं सुताराका वेष बनाकर बैठ गया (२३३-२३४) तथा बहाना किया कि मुझे सर्पने उस लिया, तब राजाने चिताकी तैयारी की (२१५२३७)। इसके साले अमिततेजके आश्रित राजा संभिन्नसे ठीक-ठीक वृत्तान्त जान (२३८-२४६) अश निघोषके साथ युद्ध किया (६८-८०) । अन्त में शत्रु समवशरण में चला गया, तब वहींपर इन्होंने अपनी स्त्रीको प्राप्त किया (२८४-२८५) । अन्त में समाधिमरण कर तेरहवें स्वर्ग में मणिचूल नामक देव हुआ (४१०-४९१)। यह शान्तिनाथ भगवान के प्रथम गणधर चक्रायुधका पूर्वका १०याँ भव है। ---दे. चक्रायुध । धावृक्ष-१. कुण्डल पर्वतस्थ मणिकूटका स्वामी नागेन्द्र देव-दे. लोक/५/१२:२. रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/१/१३ | श्रीशल-हनुमानका आरनाम है - दे. हनुमान् । श्रीषण-म प्र./६२/श्लोक मगध देशका राजा था (३४०) । आदित्यगति नामक मुनिको आहार देकर भोगभूमिका बन्ध किया (३४८३५०)। एक समय पुत्रोंका परस्पर सुद्ध होनेपर विष खाकर मर गया (१५२-३५३)। यह शान्ति नाथ भगवादका पूर्वका ११वाँ भव है। - दे. शान्तिनाथ। श्रीसंचय-पद्मदके वन में स्थित एक कूट-दे. लोक/५/७ । सोध-विजया की उत्तर शेणीका एक नगर ।-दे, विद्याधर । वेदान्त सिद्धान्त में खण्डनरवण्डखाद्य नामक ग्रन्थ के कर्ता। समय-ई. ११५०।- दे. वेदान्त । श्रुतकीति-१. नन्दिसंघ मलात्कारगण त्रिभुनन कीर्ति के शिष्य । कृतियें-हरिवंश पुराण, धर्म परीक्षा, परमेष्ठी प्रकाशसार, योगसार । . समय-हरिवंश रचनाकाल वि. १५.२। दे. इतिहास/७/४); (ती./३/४३०)। २. नन्दिसंघ देशोयगण, माघनन्दि कोव्हापुरीय के शिष्य एक महाबादी। श्वेताम्बराचार्य देवेन्द्र सूरि को परास्त किया। कृति-काव्य राधव पाण्डबीय । समय-(ई. १९३३-१९६३)। (दे. इतिहास/9/५); (प. सं.२/प्र.४/H.L.Jain) । श्रतकवली-ज्ञान स्वरूप होनेके कारण आत्मा स्वयं ज्ञयाकार स्वरूप है। इसलिए आत्माको जाननेसे ही सकल विश्व प्रत्यक्ष रूपसे जाना जाता है। अतः केवल आत्माको जाननेवाला अथवा सक्लश्रुतको जाननेवाला हो त केवली है। इसीसे १० या १४ अंगो के जाननेसे भी श्रुतकेवली कहलाता है और केवल समिति गुप्तिरूप अष्ट प्रवचन मात्रको जाननेसे भी श्रुतके बली कहलाता है। १. दश व चतुर्दश पूर्वी निर्देश का लक्षण ति. ५/४/१००१ सयलागमपारगया सुदकेवलिणाममुप्पसिद्धा जे । एदाण बुद्धिरिद्धी चोहसपुबि त्तिणामेण ॥१००१-जो महर्षि सम्पूर्ण आगमके पारंगत हैं और श्रुतकेवली नामसे प्रसिद्ध है उनके चौदहा पूर्वी नामक बुद्धि ऋद्धि होती है ।१००१॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली २. निरचय व्यवहार श्रुतकेवली निर्देश प्रत्यय स्थान अर्थात विश्वास उत्पादन द्वारा दशक्यिोंके त्यागकी महिमा दिखलानेके लिए पूर्व में उन्हें नमस्कार किया है। अथवा श्रुतकी परिपाटीकी अपेक्षासे पहले दशपूर्वियों को नमस्कार किया गया है। ५. चौदहपूर्वी अप्रतिपाती हैं ध.६/४,१,१३/७४/६ चोहसपुवहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि, तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवजदि, एसो एदस्स विसेसो। --चौदह पूर्वका धारक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता, और उस भवमें असं यमको भी नहीं प्राप्त होता, यह इसकी विशेषता है। ol .रा.बा./३/३६/३/२०२/६ सम्पूर्ण श्रुतकेवलिता चतुर्दशपूविरवम् । - पूर्ण श्रुतकेवली हो जाना चतुर्दशपूर्वित्व है। (ध.६/४,१,१३/७०/७)। चा. सा./२१४/२ श्रुतकेवलिनां चतुर्दशपूर्विलम् । = श्रुतकेवलीके चतुर्दशपूर्वित्व नामकी ऋद्धि होती है। २. दशपूर्वोका लक्षण ति. प./MEE८-१००० रोहिणि पहुदीणमहाविज्जाणं देवदाउ पंचसया। अंगुठपसेणाई खुद्द अविज्जाण सत्तसया।६८। एत्तूण पेसणाई दसमपुत्वपढणम्मि। णेच्छंति संजमता ताओ जेते अभिण्णदसपुवी। 1888 भुवणेसु मुप्पसिद्धा विज्जाहरसमणणामपज्जाया। ताणं मुणीण बुद्धी दसपुवी णाम बोद्धव्या ।१०००। -दसवें पूर्व के पढ़ने में रोहिणी प्रभृति महाविद्याओं के पाँच सौ और अंगुष्ठ प्रसेनादिक (प्रश्नादिक) क्षुद्र विद्याओं के सात सौ देवता आकर आज्ञा माँगते हैं। इस समय जो महर्षि जितेन्द्रिप होनेके कारण उन विद्याओंकी इच्छा नहीं करते हैं, 'वे विद्याश्रमण' इस पर्याय नामसे भुवनमें प्रसिद्ध होते हुए अभिन्नदशपूर्वी कहलाते है । उन मुनियों की बुद्धिको दशपूर्वी जानना चाहिए।६६८-१००० रा. वा./३/३६/३/२०२/७ महारोहिण्यादिभिखिरागताभि.प्रत्येकमास्मीयरूपसामाविष्करणकथनकुशलाभिर्वेगवतीभिविद्यादेवताभि - रविचलितचारित्रस्य दशपूर्व दुस्तरसमुद्रोत्तरण दशपूर्विस्वम् । =महारोहिण्यादि लौकिक विद्याओं के प्रलोभनमें न पड़कर दशपूर्वका पाठी होता है वह दशपूर्वित्व है । (चा, सा./२१४/१)। ३. मिन्न व अभिन्न दशपू के लक्षण ध. ६/४,१,१२/६३/५,७०/१ एत्थ दसपुग्विणो भिण्णाभिषण भेएण दुविहा होति । तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्तपढमाणियोग-पुवगयचूलिया त्ति पंचा हियारणिद्धाद्धिठिवादे परिजमाणे उत्पादपुव्वमादि कादूण पढं ताणं दमपुठवीए विजाणुपवादे समते रोहिणीआदिपंचसममहाविजाओ अंगुठपसेणादि सत्तसयदहरबिजाहिं अणुगयाओ किं भयवं आणवेदि त्ति कति । एवं दुक्काणं सब्वविजाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुब्बी। जो ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होंतो सो अभिण्णदसप्रवी णाम (६३/५) । ण च तेसिं (भिण्णदसपुवीणं) जिणत्तमत्थि, भग्गमहब्बएसु जिणत्ताणुवक्त्तीदो। यह भिन्न और अभिन्न के भेदसे दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें ११ अंगोंको पढकर पश्चात् परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवादके पढ़ते समय उत्पाद पूर्व को आदि करके पढ़ने वालेके दशमपूर्व विद्यानुवादके समाप्त होनेपर अंगुष्ठ प्रसेनादि सात सौ क्षुद्र विद्याओंसे अनुगत रोहिणी आदि पाँच सौ महा विद्याएँ 'भगवान् क्या आज्ञा देते हैं' ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओं के लोभको प्राप्त होता है वह भिन्न-दशपूर्वी है। किन्तु जो कर्मक्षयका अभिलाषी होकर उनमें लोभ नहीं करता है वह अभिन्नदशपूर्वी कहलाता है। 'भिन्नदशपूर्वियोंके जिनत्व नहीं हैं. क्योंकि जिनके महावत नष्ट हो चुके हैं उनमें जिनत्व घटित नहीं होता। (भ. आ./वि./३४/१२५/१४)। . चतुर्दशपूर्वीको पीछे नमस्कार क्यों घ.६/४,१,१२/७०/३ चोद्दसपुब्वहराणं णमोकारो किण्ण कदो। ण, जिणवयणपच्चयाणपदुप्पायणदुकारेण दसपुवीण चागमहप्पपदरिसण्ठं पुवं तण्णमोकारकरणादो। सुदपरिवाडीए वा पुवं दसपुत्रीणं णमोकारो कुदो। -प्रश्न-चौदह पूर्वोके धारकोंको पहले नमस्कार क्यों नहीं किया ! उत्तर-नहीं, क्योंकि जिनवचनोंपर २. निश्चय व्यवहार श्रुतकेवली निर्देश १. श्रुतकेवलीका अर्थ आगमज्ञ स. सा./मू./१० जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवलि तमाहु जिणा। णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा ।१०। जो जीव सर्व श्रुतज्ञानको जानता है उसे जिनदेव श्रुतकेवली कहते हैं, क्योंकि ज्ञान सब आत्मा ही है इसलिए वह श्रुतकेवलीके है ।१०॥ स. सि./६/३७/४५३ '४ पूर्व विदो भवतः श्रुतके वलिन इत्यर्थः। -पूर्व विद् अर्थात् श्रुतकेवलीके होते है।। म. पु./२/६१ प्रत्यक्षश्च परोक्षश्च द्विधा ते ज्ञानपर्ययः । केवलं केवलि न्ये कस्ततस्त्वं श्रुतकेवली ।६११ = ( श्रेणिक राजा गौतम गणधरकी इस प्रकार स्तुति करते हैं।) हे देव । केवली भगवादमें मात्र एक केवल ज्ञान ही होता है और आपमें प्रत्यक्ष परोक्ष के भेदसे दो प्रकारका ज्ञान विद्यमान है। इसलिए आप श्रुतकेवलो कहलाते हैं ।६११ भ, आ./वि./३४/१२५/१२ सुदकेवलिणा समस्तश्रुतधारिणा कथित चेति । =द्वादशांग श्रुतज्ञानको धारण करने वाले महर्षियों को श्रुतकेवलि कहते हैं । (और भी दे० श्रुतकेवली/१/१) । २. श्रुतकेवलीका अर्थ आत्मज्ञ स. सा./मू./ह जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धात सुयकेवलि मिसिणो भणति लोयप्पईवयरा -जो जीव निश्चयसे (बास्तबमें) श्रुतज्ञानके द्वारा इस अनुभवगोचर केवल एक शुद्ध आत्माको सम्मुख होकर जानता है, उसे लोकको प्रगट करने वाले ऋषीश्वर श्रुत केवली कहते हैं। प्र. सा./मू./३३ जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण । तं सुयकेवलिमिसिणो भणं ति लोयपदीवकरा ३३ - जो वास्तव में श्रुतज्ञानके द्वारा स्वभावसे ज्ञायक (ज्ञायस्वभाव) आत्माको जानता है उसे लोकके प्रकाशक ऋषीश्वरगण श्रुतकेवली कहते हैं। ३. श्रु त केवलीके उस्कृष्ट व जघन्य ज्ञानकी सीमा स. सि./६/४७/४६१/८ श्रुतं-पुलाकमकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदसपूर्व धराः । कषायकुशीला निर्ग्रन्थाश्चतुर्दशपूर्वधराः। जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु । नकुशकुशीला निर्ग्रन्थानां । श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः । स्नातका अपगतश्रुताः केवलिनः । भूतपुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील उत्कृष्ट रूपसे अभिन्नाक्षर दश पूर्वधर होते हैं। कषाय कुशील और निर्गन्ध चौदह पूर्वधर होते हैं। जघन्य रूपसे पुलाकका श्रुत आचार वस्तु प्रमाण होता है। बकुश, कुशील और निग्रन्थोंका श्रुत आठ प्रवचन मातृका प्रमाण होता है। स्नातक श्रूतज्ञानसे रहित केवली होते हैं। (रा. वा/8/४७/४/६६८/१), (चा. सा./१०३/४ )। दे. ध्याता/१ उत्सर्ग रूपसे १४ पूर्वोके द्वारा और अपवाद रूपसे अष्ट प्रवचन मातृकाका मात्र ज्ञानसे ध्यान करना सम्भव है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतवली दे० शुक्लध्यान / ३ / १.२ पृथक्त्व व एकत्व वितर्क ध्यान १४,१० व ६ वा को होते हैं । ४. मिथ्यादृष्टि साधुको ११ अंग तक भाव ज्ञान सम्भव 1 ला, सं./५/१८-२० एकादशाङ्गपाठोगि तस्य स्याह द्रव्यरूपतः । आत्मानुवृतिशून्यत्वाभावतः संविदुषितःच् पाठमात्रत्वमस्ति तस्येह नार्थतः । यतस्तस्योपदेश । द्वै ज्ञानं विन्दन्ति केचन । ११ ततः पाठोऽस्ति ते पृच्चे शस्याप्यस्ति ताय च श्रद्धानं प्रतीती रोचनं क्रिया | २०| = कोई • मिथ्यादृष्टि मुनि १९ अंगके पाठी होते हैं, महात्रतादि क्रियाओंको बाह्यरूपसे पूर्णतया पालन करते हैं, परन्तु उन्हें अपने शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं होता, इसलिए वे परिणामोंके द्वारा सम्यग्ज्ञानसे रहित हैं |१| ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि 'मिथ्यादृष्टिको ११ अंगका ज्ञान केवल पठन मात्र होता है, उसके अर्थोका ज्ञान उसको नहीं होता 1 क्योंकि शास्त्रों में यह कथन आता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टियोंके उपदेश से अन्य कितने ही भव्य जीवोंको सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान हो जाता है ।१८। इससे सिद्ध होता है कि ऐसे मिध्यादृष्टिमुनियोंके ग्यारह अंगों का ज्ञान पाठमात्र भी होता है और उसके अर्थों का ज्ञान भी होता है, उस ज्ञानमें श्रद्धान होता है, प्रतीति होती है, रूचि होती है और पूर्व किया होती है। * श्र तज्ञानी में भावश्रुत इष्ट है— दे० श्रुतकेबली/२/४ । ज्ञान सर्वग्राहक कैसे ५. घ. १/४.१.७/२०/९ पासुन परिति णम पिज्जा भारा अणसभागो दु अभिलम्पाय - भादो ११ दिनमादो ति उत्ते होदु नाम सयलपवत्थामतिमभागदणाणओ भावमा विसओ पुण सयलपयत्था; अण्णहा तित्थयराणं वागदिसयन्ता भावप्पसंगादो । [ तदो ] बीजपदपरिच्छेदकारिणी बोजबुद्धित्ति सिद्ध | प्रश्न - श्रुतज्ञान समस्त पदार्थोंको नहीं जानता है, क्योंकि, वचन के अगोचर ऐसे जीवादिक पदार्थोंके अनन्तवें भाग प्रज्ञापनीय अर्थात् तीर्थंकरकी सातिशय दिव्यध्वनिमें प्रतिपाद्य होते हैं तथा ज्ञापनीय पदार्थों के अनन्त भाग द्वादशांग के विषय होते हैं ? इस प्रकारका वचन है ? उत्तर- इस प्रश्न के उत्तरमैं कहते हैं. कि समस्त पदार्थोंका अनन्तवाँ भाग द्रव्य श्रुतज्ञानका विषय भले ही हो, किन्तु भाव श्रुतज्ञानका विषय समस्त पदार्थ है, क्योंकि ऐसा माननेके बिना तीर्थंकरोंके वचनातिशयके अभावका प्रसंग होगा। ( इसलिए] भोजपदोंको ग्रहण करनेवाली मजबुद्धि है, यह सिद्ध हुआ । ६. जो एकको जानता है वही सर्वको जानता है असे अप .../१५ दिन देस समय परसदि जिनसा स १५० जो पुरुष आमाको अबद्ध स्पृष्ट, अनन्य अविशेष ( तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त) देखता है वह जिन शासन बाह्य श्रुत तथा अभ्यन्तर ज्ञानरूप भाव श्रुतवाला है |१५| यो सां, यो. / १५ जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ असुइ सरीरविभिण्णु । सो जाणइ सत्थई सयल सासय सुक्खहं लोणु । ६५ । =जो आत्माको अशुचि शरीरसे भिश समझता है, वह शाश्वत में लीन होकर समस्त शास्त्रों को जान जाता है । ६६॥ १६ २. निश्चय व्यवहार श्रुतकेवली निर्देश न.च./श्रुत./३/६८ पर एको भावः सर्वभावस्वभावः । सर्वे भावा एकभाव-: स्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्धः सर्वे भवत बुद्धाः |१| एक भाव सर्व भावों के स्वभावस्वरूप है और सर्व भाव एक भावके स्वभावस्वरूप है; इस कारण जिसने तवसे एक भावको जाना उसने समस्त भावोंको यथार्थतया जाना। (ज्ञा. / ३५/१३/१. ३४४ पर उद्धृत ) । का. अ./मू./४६४ जो अप्पाणं जाणदि अमुइ-सरीरा दु तच्चदो भिण्णं जाग- रूव सरू सो सत्यं जाणदे सव्वं ॥ ४६५८ = जो अपनी आत्माको इस अपवित्र शरीरसे निश्चयसे भिन्न तथा ज्ञापक स्वरूप जानता है वह सब शास्त्रोंको जानता है ।४६५॥ जानता * जो सर्वको नहीं जानता वह एक को भी यथार्थ नहीं - केवलज्ञान/२/१। केवकीका समन्वय ७. निश्चय व्यवहार प. प्र./मू./१/१६ जोइय अप्पें जानिएण जगु जाणियउ हवेइ । अपह केरह भावडइ बिंविउ जेण वसेइ । = हे योगी ! एक अपने आत्माके जाननेसे यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञानमें यह लोक प्रतिनिति हुआ बस रहा है। सा.आ.१-१० यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानावि स केवलीति तावत्परमार्थी, यः श्रुतज्ञानं सवं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः । तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा । न तावदनात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतर पदार्थपञ्चतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः । ततो गत्यन्तराभावात् ज्ञानमा यातितः राज्ञानमध्यमेव स्यात् । एवं सति नः आत्मानं जानाति स केवलश्वायाति तु परमार्थ एवं एवं ज्ञानज्ञानि नोर्भेदेन व्यपदिशता उपमहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते न किचिदव्यतिरिक्तम्। अथ च वः तेन केवल शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेनलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स सकेमलीय व्यवहारः परमार्थप्रतिपाद करनारमानं प्रतिष्ठापयति ॥१-१० प्रथम जो भूसे केसद्धाराको जानते हैं वे तवली हैं वह तो परमार्थ है; और जो सर्व श्रुतज्ञान जानते हैं वे केवल हैं, यह व्यवहार है । यहाँ दो पक्ष लेकर परीक्षा करते हैं - उपरोक्त सर्वज्ञान आत्मा है या अनात्मा 1 यदि अनात्माका पक्ष लिया जाये तो वह ठीक नहीं है; क्योंकि जो समस्त जड़ रूप अनात्मा आकाशादिक पाँच द्रव्य हैं, उनका ज्ञानके साथ तादात्म्य बनता ही नहीं । ( क्योंकि उनमें ज्ञान सिद्ध नहीं है ) इसलिए अन्य पक्षका अभाव होनेसे 'ज्ञान आत्मा ही है, यह पक्ष सिद्ध हुआ । इसलिए श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है। ऐसा होनेसे जो आत्माको जाता है वह केवली है ऐसा ही घटित होता है और यह तो परमार्थ ही है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानीके भेदले कहनेवाला जो व्यवहार है, उससे भी परमार्थ मात्र ही कहा जाता है; उससे भिन्न कुछ नहीं कहा जाता । और जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते हैं वे श्रुतकेवल हैं, इस प्रकार परमार्थका प्रतिपादन करना अशक्य होनेसे 'जोसको जानते हैं सी है ऐसा महार परमार्थ के प्रतिपादक अपनेको दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। पं.वि./१/९४८ नं दर्शन जीवस्य नार्थान्तर- शुद्धादेशविवक्षया सहि तरिच हस्ते पर्यायश्व गुणैश्च साधु विदते तस्मिन् गिरा सगुरोइति किं न मिलोकित न किम प्राप्त न किं योगिभिः । १५८१ = शुद्ध नयकी अपेक्षा समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला ज्ञान और दर्शन ही जीवका स्वरूप है जो उस जीवसे पृथक् नहीं है । इससे भिन्न कोई दूसरा जीवका स्वरूप नहीं हो सकता है । अतएव वह विद्रूप अर्थात् चेतन स्वरूप ऐसा कहा जाता है। उत्तम गुरुके उपदेशसे अपने गुणों और पर्यायोंके साथ उस ज्ञान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ सूचीपत्र भुखमान श्रुतज्ञान है। बाचक शब्दको सुनकर या पढ़कर वाच्यका ज्ञान शब्दलिंगज है। वह लौकिक भी होता है लोकोत्तर भी। लोकोत्तर श्रुतज्ञान १२ अंग १४ पूर्वो आदि रूपसे अनेक प्रकार है। पहला अर्थलिंगज तो क्षुद्र जीवोंसे लेकर क्रमसे वृद्धिगत होता हुआ ऋद्धिधारी मुनियों तकको होता है। पर दूसरा अर्थ लिंगज व शब्दलिंगज संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंको ही सम्भव है। श्रुतकेवलीको यह उत्कृष्ट होता है। I | श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश भेद व लक्षण श्रुतज्ञान सामान्यका लक्षण । शब्द व अर्थलिंग रूप भेद व उनके लक्षण । द्रव्यभाव श्रुत रूप भेद व उनके लक्षण । सम्यक् व मिथ्या श्रुतशानके लक्षण । सम्यक् लब्धि व भावना रूप भेद । अष्टांग निमित्त ज्ञान। -दे. निमित्त/२। अष्ट प्रवचन माताका लक्षण। -दे. प्रवचन । स्थित जित आदि श्रु तशानोंके लक्षण । -दे. निक्षेप//। ६ धारावाही शान निर्देश।। श्र तज्ञानके असंख्यात मेद। -दे, ज्ञान/१/४। श्र तज्ञानमें भेद होनेका कारण । और स्वरूप जीवके भले प्रकार जान लेनेपर योगियोंने क्या नहीं क्या नहीं देखा, और क्या नहीं प्राप्त किया ? अर्थात सब कुछ जान, देख व प्राप्त कर लिया।१५। स सा./ता. वृ./8-१०/२२/६ अयमत्रार्थ:-यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदन जानबलेन शुद्धात्मानं जानाति स निश्चयश्रुतकेवली भवति । यस्तु स्वशद्वधात्मानं न संवेदयति न भावयति बहिर्विषयं द्रव्यश्रृतार्थ जानाति स व्यवहारश्रुतकेवली भवतीति । यहाँ यह तात्पर्य है कि-जो भावभुत रूप स्व संवेदन ज्ञानके बलसे शदूध आत्माको जानता है वह निश्चय श्रुतकेवली है। और जो शुद्भधात्माका न संवेदन करता है-न भावना भाता है, परन्तु बाह्य द्रव्य श्रुतको जानता है वह व्यवहार श्रुतकेवली है। प.प्र.टी./8/EE/E४/१ वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मतत्त्वे झाते सति समस्तद्वादशाङ्गस्वरूपं ज्ञातं भवति। कस्मात । यस्माद्राघवपाण्डवादयो महापुरुषा जिनदीक्षा गृहीत्वा द्वादशाङ्ग पठित्वा द्वादशाजाध्ययनफलभूते निश्चयरत्नत्रयारमके परमात्मध्याने तिष्ठन्ति तेन कारणेन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन निजात्मनि ज्ञाते सति सर्व ज्ञातं भवतीति । अथवा निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नपरमानन्दसुखरसास्वादे जाते सति पुरुषो जानाति । किं जानाति । वेत्ति मम स्वरूपमन्यदेहरागादिकं परमिति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवति । अथवा आत्मा कर्ता श्रुतज्ञानरूपेण व्याप्तिज्ञानेन कारणभूतेन सर्व लोकालोकं जानाति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवतीति । अथवा वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिवलेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन केवलज्ञाने जाते सति दर्पणे बिम्बवत् सर्व लोकालोकस्वरूपं विज्ञायत इति हेतोरात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवतीति ।- वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानसे शुधात्म तत्त्वके जाननेपर समस्त द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है। क्योंकि जैसे-१. रामचन्द्र, पाण्डव, भरत, सगर आदि महान् पुरुष भी जिनराजकी दीक्षा लेकर द्वादशांगको पढ़कर द्वादशांग पड़नेका फल निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्ध आत्माके ध्यानमें लीन हुए थे। इसलिए वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानसे जिन्होंने अपनी आत्माको जाना उन्होंने सबको जाना । २. अथवा निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न हुआ जो परमानन्द सुख रस उसके आस्वाद होनेपर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है कि मेरा स्वरूप पृथक है, और देहरागादिक मेरेसे दूसरे हैं, इसलिए परमात्माके जाननेसे सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपने आत्माको जाना उसने सर्व भिन्न पदार्थ जाने । ३. अथवा आत्मा श्रुतज्ञान रूप व्याप्ति ज्ञानसे सब लोकालोकको जानता है, इसलिए आत्माके जाननेसे सब जाना गया। ४. अथवा वीतराग निर्विकल्प परम समाधिके बलसे केवलज्ञानको उत्पन्न करके जैसे दर्पणमें घट पट आदि पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी दर्पणमें सब लोकालोक भासते हैं। इससे यह बात निश्चित हुई कि आत्माके जाननेपर सब जाना जाता है। दे. अनुभव/५ अल्प भूमिकामें कथंचित् शुद्धात्माका अनुभव होता है । दे. दर्शन/२/७ दर्शन द्वारा आत्माका ज्ञान होनेपर उसमें प्रतिबिम्बित सब पदार्थों का ज्ञान भी हो जाता है। दे. केवलज्ञान/६/६ (याकारोंसे प्रतिबिम्बित निज आत्माको जानता है) * पूर्व श्रुतकेवलीवत् वर्तमानमें भी सम्भव है। __ --दे. अनुभव/१ श्रुतज्ञान-इन्द्रियों द्वारा विवक्षित पदार्थको ग्रहण करके उससे सम्बन्धित अन्य पदार्थको जानना श्रुतज्ञान है । वह दो प्रकारका है-अर्थ लिंगज व शब्दलिंगज । पदार्थको जानकर उसमें इष्टता अनिटताका ज्ञान अथवा धूमको देखकर अग्निका ज्ञान अर्थ लिंगज श्रुतज्ञान निर्देश श्रुतज्ञानके पर्यायवाची नाम । श्रु तशानमें कथंचित् मति आदि शानोंका निमित्त । श्रु तशान सम्बन्धी दर्शन -. दर्शन/६॥ श्रुतशानमें मनका निमित्त ।। श्रुतशान अधिगम ही होता है -दे, अधिगम । श्रुतशानका विषय । द्रव्य श्रुतकी अल्पता -दे. आगम/१/११ श्रुतज्ञानको त्रिकालज्ञता। मोक्षमार्गमें मतिश्रुत शानकी प्रधानता। एक आत्मा जानना ही सर्वको जानना है -दे. श्रुतकेवली/६। शब्द व अर्थलिंगजमें शब्दलिंगज ज्ञान प्रधान । । द्रव्य व भावश्रुतमें भावश्रुतकी प्रधानता। श्रुतज्ञान केवल शब्दज नहीं होता। द्रव्य व भाव श्रुतज्ञान निर्देश -दे. आगम/२। श्रुतशानके अतिचार -दे. आगम/१। वस्तु स्वरूपके निर्णयका उपाय -दे. न्याय, अनुमान, आगम व नय । श्रुतशानका स्वामित्व -दे. ज्ञान/I/४ एकेन्द्रियों व संशियोंके श्रुतशान कैसे -दे. संज्ञी। श्रुतज्ञान क्षयोपशमिक कैसे है औदयिक क्यों नहीं। -दे. मतिज्ञान/२/४ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०४-८ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान I श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश श्रुतशानकी ओघ व आदेश २० प्ररूपणाएँ-दे. सत् ।। श्रुतज्ञानके स्वामित्व सम्बन्धी सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ -दे. बह बह नाम । सभी मार्गणा स्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम -दे. मार्गणा। मतिज्ञान व तज्ञान में अन्तर १ दोनोंमें कथंचित् एकता। | मति व श्रुतशानमें भेद। श्रोतज मतिशान व श्रुतशानमें अन्तर । | मनोमति शान व श्रुतज्ञानमें अन्तर । ईहादि मतिशान व श्रुतशानमें अन्तर । स्मृतिसे अनुमान तकके शानोंकी उत्पत्तिका क्रम -दे. मतिज्ञान/३। * अनुमान उपमान आदि सब श्रुतज्ञानके विकल्प हैं -दे. वह वह नाम। श्रतज्ञान व केवलज्ञानमें कथंचित् समानताअसमानता श्रुतशान भी सर्व पदार्थ विषयक है। दोनोंमें प्रत्यक्ष परोक्षका अन्तर है। श्रुतज्ञान कथंचित् त्रिकाल ग्राहक है -दे. श्रुतज्ञान/1/२/५ ॥ समन्वय । मति श्रुतज्ञानकी कथंचित् प्रत्यक्षता-परोक्षता मतिश्रुत शान कथंचित् परोक्ष हैं। श्रुतशान परोक्ष है -दे. परोक्ष/४॥ मतिशान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है -दे. प्रत्यक्ष/१/४ । इन्द्रिय ज्ञानको प्रत्यक्ष माननेमें दोष । | परोक्षता व अपरोक्षताका समन्वय । श्रुतशानकी कथंचित् निर्विकल्पता -दे. विकल्प। शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष भेद व लक्षण लोकोत्तर शब्द लिंगजके सामान्य भेद । आगम सामान्य व विशेषके लक्षण । अंग प्रविष्ट व अंग बाह्यके भेद । अंग प्रविष्ट के भेदोंके लक्षण । | अंगबाह्यके भेदोंके लक्षण । शब्द लिंगज निर्देश । श्रुत तीर्थकी उत्पत्ति चुत वायका उत्पत्ति -दे. इतिहास/४/५। श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास --दे. इतिहास/४/६। बारह अगोंमें पद निर्देश। दृष्टिवाद अंगोंमें पद संख्या निर्देश। चौदह पूर्वोमें पदादिकी संख्या निर्देश । अंग बायके चौदह भेदोंमें पद संख्या निर्देश । ५ | यहॉपर मध्यम पदसे प्रयोजन है। ६ | इन शानका अनुयोग आदि शानोंमें अन्तर्भाव । १ I श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश १. भेद व लक्षण १. श्रुतज्ञान सामान्यका लक्षण १. सामान्य अर्थ स.सि./अ./सू./पू./पं. श्रूयते अनेन तत् शृणोति श्रवणमा वा श्रुतम् (१/३/१४/१) श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादितोऽपि रूढ़िवशात् कस्मिश्चिज्ज्ञान विशेषे वर्तते । यथा कुशलवनकम प्रतीत्य व्युत्पादितोऽपि कुशल शब्दो रूढिवशात्पर्यवदाते वर्तते (१/२०/१२०/ ४) श्रुतज्ञानविषयोऽर्थः श्रुतम् ( २/२१/१७६/७ )। विशेषेण तकण - मूहनं वितर्कः श्रुतज्ञानमित्यर्थः (१/४/४५६)१. पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुनना मात्र श्रुत कहलाता है (रा वा./१/४/२/४४/१०)। २. यह श्रुत शब्द सुनने रूप अर्थ की मुख्यतासे निष्पादित है तो भी रूढिसे उसका वाच्य कोई ज्ञान विशेष है। जैसे-कुशल शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ कुशाका छेदना है तो भी रूढिसे उसका अर्थ पर्यवदात अर्थात् विमल या मनोज्ञ लिया जाता है । (रा. वा./१/२०/१/७०/२१) (ध.१/४,१,४५/१६०/५); (गो. जो./जी. प्र./३१६/६७३/१७) ३. श्रुतज्ञानका विषय भूत अर्थ श्रुत है । (रा. बा./२/२१/-/१३४/१८)४, विशेष रूपसे तर्कणा करना अर्थात् ऊहा करना वितकं अर्थात श्रुतज्ञान कहलाता है । (रा. वा./8/ ४३/-६३४६), (त. सा./१/२४), (अन. ध./१/१४५ पर उधृत)। का, अ/मू./२६२ सव्वं पि अणेयतं परोवरख-रूवेण जं पयासे दि । त सुयणाणं भण्णादि ससय-पहूदीहि परिचत्तं ।२६२। जो परोक्ष रूपसे सब वस्तुओंको अनेकान्त रूप दर्शाता है, संशय, विपर्यय आदिसे रहित उस ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं ।२६॥ अन. ध./१५ स्वावृत्यपायेऽविस्पष्टं यन्मानार्थ प्ररूपणम्। ज्ञान... तच्छुतम ।। - भूतज्ञानावरण कमका क्षयोपशम होनेपर नाना पदार्थोके समीचीन स्वरूपका निश्चय कर सकनेवाले अस्पष्ट ज्ञानको श्रुत कहते हैं ।। द्र.सं./टी./५/१५/१० श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमात्...मूर्त्तामूर्तवस्तुलोकालोकव्याप्तिज्ञानरूपेण यदस्पष्टं जानाति तत्... श्रुतज्ञान भण्यते । I अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश । भेद व लक्षण अर्थलिंगज २० प्रकारका है। २ अर्थ लिगके २० भेदोंके नाम निर्देश । बीस भेदोंके लक्षण। उपरोक्त ज्ञानोंको वह संशाएँ क्यों। अक्षर झानमें कौनसा अक्षर इष्ट है। अर्थलिंगज निर्देश लब्ध्यक्षर ज्ञानका प्रमाण। लब्ध्यक्षर शान सदा निरावरण होता है। | पर्याय आदि शानोंमें वृद्धि क्रम विकास । .जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ [ श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश भुतज्ञान प्रत ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे...जो मूर्तिक अमूर्तिक वस्तुको ..मोथा अलोकको व्याप्ति ज्ञान रूपसे अस्पष्ट जानता है उसको शुतज्ञान कहते हैं। गो.जी./जी.प्र./३१४१६७३,१६ श्रूयते श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्यते इति श्रुतः शब्दः, तस्मादुत्पन्नमर्थज्ञानं श्रुतज्ञानमिति व्युत्पत्तरपि अक्षरात्मकप्राधान्याश्रयणात्। -जो सुना जाता है उसको शब्द कहते हैं, शब्दसे उत्पन्न ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं। इस अर्थ में अर्थात्मक श्रुतज्ञान ही प्रधान हुआ, अथवा श्रुत ऐसा रूढि शब्द है। २. अयेसे अर्थान्तरका ग्रहण पं.स /प्रा./१/१२२ अस्थाओ अत्यंतर उवलंभे त भणं दि सुयणाणं । तिज्ञानसे जाने हुए पदार्थ के अवलम्बनसे तत्सम्बन्धी दूसरे पदार्थका जो उपलम्भ अर्थात् ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते है ।१२२। (ध. १/१.१.१९५/गा. १८३/३५६); (गो.जी./मू./३१५/६७३); (न. च./गद्य/३६/६) रा.वा./१/8/२७-२६/पृ./पं. इन्द्रियानिन्द्रियबलाधानात पूर्वमुपलब्धेऽथे नोइन्द्रियप्राधान्यात यदुत्पद्यते ज्ञानं तत् श्रुतम् (४८/२१)। एक घटमिन्द्रियानिन्द्रियाभ्यां निश्चित्यायं घट इति तज्जातोयमन्यमनेकदेशकालरूपादिविलक्षणमपूर्वमधिगच्छति यत्तत् श्रुतम (४८/३४) । अथवा इन्द्रियानिन्द्रियाभ्यामेकं जीवमजीवं चोपलभ्य तत्र सत्संख्या.. आदिभिः प्रकार रर्थप्ररूपणे कर्तव्ये यत्समर्थ तत श्रुतम् (१६/१) । ०१. शब्द सुननेके बाद जो मनकी ही प्रधानतासे अर्थ ज्ञान होता है वह श्रुत है। २. एक घड़ेको इन्द्रिय और मनसे जानवर तज्जातीय विभिन्न देशकालवर्ती घटों के सम्बन्ध जाति आदिका जो विचार होता है वह श्रुत है। ३. अथवा श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मनके द्वारा एक जीवको जानकर उसके सम्बन्ध के सत संख्या ...आदि अनुयोगों के द्वारा नाना प्रकारसे प्ररूपण करनेमें जो समर्थ होता है वह श्रुतज्ञान है। ध, १/१,१,२/६३/५ सुदणाणं णाम मदि-पृव्वं मदिणाणपडिगहियमत्थं मोत्तूणण्णस्थम्हि वावद सुदणाणावरणीय-वयोवसम-जणिदं । -जिस ज्ञानमें मतिज्ञान कारण पड़ता है, जो मतिज्ञानसे ग्रहण किये गये पदार्थ को छोड़कर तत्समन्धित दूसरे पदार्थ में व्यापार करता है, और श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। (ध. १३/५४५.२१/२१०/४५.५,४३/५४५/४% (क.पा. १/१.१/७२८/४२/६); (क, पा, १/१-१५/६३०८/-३४०/५); (ज. प./१३/७७ ); (गो. जी./जी. प्र./३१५/६७३/११ )। २.शब्द व अर्थ लिंग रूप भेद व उनके लक्षण क. पा. १/१-१५/३०८-३०६/३४०-३४१/५ तं दुविह-सद्दलिंगज अत्थलिंगजं चेदि । तत्थ तं सद्दलिंगजं तं विहं लोइये लोउत्तरियं चेदि । सामण्णपुरिसवयणविणिग्गयवयण कलावजणियाणं लोइयसहज । असच्चकारण विणिम्मुफपुरिसत्रयणविणिग्गयवयणक लाब जणिय सुदणाणं लोउत्तरिय । धूमादि अथलिंगजं पुणअणुमाण णाम । -श्रुतज्ञान शब्दलिंगज और अर्थ लिंगजके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें भी जो शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है वह लौकिक और लोकोत्तरके भेद से दो प्रकारका है। सामान्य पुरुषके मुखसे निकले हुए बचन समुदायसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह लौकिक शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है । असत्य बोलनेके कारणों से रहित पुरुषके मुखसे निकले हुए वचन समुदायसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह लोकोत्तर शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है। तथा धूमादिक पदार्थ रूप लिंगसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अथलिंगज श्रुतज्ञान है । इसका दूसरा नाम अनुमान भी है। ध./९,६-१.१४/२१/६ सत्य सुवणाणं णाम इंदिएहि गहित्थादो तदो पुधभूदस्थग्रहणं, जहा सद्दाहो घडादीणमुक्तंभो, धूमादो अग्गि-सुबलं भो बा । - इन्द्रियों से ग्रहण किये पदार्थ से उससे पृथग्भ्रत पदार्थ का ग्रहण करना श्रुतज्ञान है। जैसे शब्दसे घट आदि पदार्थोका जानना । अथवा धूमादिसे अग्निका ग्रहण करना । (ध. १/१,१,११५॥ ३५७/८); (ध. १३/५.५.२१/२१०/१५४३.२४५१५); (ज. प./१३/ ७८-७१) (द्र. सं./टी./४४/१८/२) गो. जी./जी.प्र./३१६/६७६/३ श्रुतज्ञानस्य अनक्षरात्मकाक्षरात्मको द्वौ भेदौ। = अनक्षरात्मक और असरात्मकके भेदसे श्रुतज्ञानके दो भेद हैं। [वाचक शब्दपरसे वाच्यार्थ का ग्रहण अक्षरात्मक श्रुत है, और शीतादि स्पर्श में इष्टानिष्ट का होना अनक्षरात्मक श्रुत है। दे. श्रुतज्ञान/३/३] ३. द्रव्य-भाव तरूप भेद व उनके लक्षण गो. जी./जी.प्र./३४८-३४६/७४४/१५ अङ्गबाह्यसामायिकादिचतुर्दशप्रकीर्ण कभेदद्रव्यभावात्मकशुतं पुद्गलद्रव्यरूपं वर्ण पदवाक्यात्मक द्रव्यश्रुत, तच्छ्रवणसमुत्पन्नश्रुतज्ञानपर्यायरूपं भावभुतं । - आचारांग आदि बारह अंग, उत्पादपूर्व आदि चौदह पूर्व और चकारसे सामायिकादि १४ प्रकीर्णक स्वरूप द्रव्यश्रुत जानना, और इनके सुननेसे उत्पन्न हुआ जो ज्ञान सो भावभुत जानना । पुद्गलद्रव्यस्वरूप अक्षर पदादिक रूपसे द्रव्यश्रुत है, और उनके सुननेसे श्रुतज्ञानकी पर्याय रूप जो उत्पन्न हुआ ज्ञान सो भावश्रुत है। (द्र. सं./टी./५७/ २२८/११)। द्र. सं./टी./५८/२२६/१० वर्तमानपरमागमाभिधानद्रव्य श्रुतेन तथैव तदाधारोत्पन्ननिर्विकारस्वसंवेदनज्ञानरूपभावश्रुतेन । वर्तमान परमागम नामक द्रव्यश्रुत से तथा उस परमागम के आधारसे उत्पन्न निर्विकार स्व-अनुमव रूप भावश्रुतसे परिपूर्ण... | ४. सम्यक् व मिथ्याश्रुतज्ञानके लक्षण नोट- सम्यक् श्रुतके लिए-दे. श्रुतज्ञान सामान्यका लक्षण । ) पं. सं./प्रा/१/११६ आभीयमासुरक्खा भारह-रामायणादि उवएसा। तुच्छा असाहणीया सुयअण्णाण त्ति णं विति।११६। -चौरशास्त्र, हिसा शास्त्र तथा महाभारत, रामायण आदिके तुच्छ और परमार्थशून्य होनेसे साधन करनेके अयोग्य उपदेशोंको श्रुताज्ञान कहते हैं। (ध.१/१,१,११/गा. १८९/३५६); (गो. जी./मू./३०४/६५५)। पं.का./त. प्र./४१ यत्तदावरणक्षयोपशमादनिन्द्रियावलम्बाच्च मूतमूर्तद्रव्यं बिकलं विशेषेणावबुध्यते तत् श्रुतज्ञानम् ।...मिथ्यादर्शनोदयसहचरितं श्रुतज्ञानमेव कुश्रुतज्ञानम् । - उस प्रकार के (अर्थात श्रुतज्ञानके ) आवरणके क्षयोपशमसे और मनके अवलम्मनसे मूर्तअमूर्त द्रव्यका विकल्प रूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह श्रुतज्ञान है ।... मिथ्यादर्शन के उदय के साथ श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान है । ५. उपयोग लब्धि व भावना रूप भेद निर्देश पं. का./प्रक्षेपक गा/४३.२/८६ सुदणाणं पुण गाणी भणति लबी य भावणा चेव । उवगणयवियप्पणाणेण यवस्थु अस्थस्स १४३-२। - ज्ञानीको श्रुतज्ञान लब्धि व भावनारूपसे दो-दो प्रकारका होता है अथवा प्रमाण व नयके भेदसे दो प्रकारका होता है। सकल वस्तुको ग्रहण करनेवाले के प्रमाण रूप और वस्तुकै एकदेश ग्रहण करनेवालेके नय रूप होता है। ६. धारावाही ज्ञान निर्देश न्या. दी./१/१५/१३/७ एकस्मिन्नेव घटे विषयाज्ञान विघटनार्थ मारे ज्ञाने प्रवृत्त तेन घटमिती सिद्धायां पुनर्घटोऽयं घटोऽयमित्येवमुरुपनान्युत्तरोत्तरज्ञानानि खलु धारावाहिक ज्ञानानि भवन्ति। - एक ही घट में घट विषयक अज्ञानके निराकरण करनेके लिए प्रवृत्ताए पहले पट ज्ञानसे घटकी प्रमिति हो जाने पर फिर 'यह घट है' 'यह घट है इस प्रकार उत्पन्न हुए ज्ञान धारावाहिक शाम है। " जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश ७. श्रुतज्ञानमें भेद होनेका कारण रा. वा./१/२०/६/७२/६ मतिपूर्व कत्वाविशेषात् श्रुताबिशेष इति चेत्, न, कारणभेदात्तभेद सिद्धेः राहा. प्रतिपुरुषं हि मतिश्रुतावरणक्षयोपशमो बहुधा भिन्नः तदभेदा बाह्यनिमित्तभेदाच्च श्रुतस्य प्रकर्षाप्रकर्षयोगो भत्रति मतिपूर्वकत्वाविशेषेऽपि । प्रश्न-मतिज्ञान पूर्वक होनेसे सभी श्रुतज्ञानों में अविशेषता है, अर्थात कोई भेद नहीं हैं। उत्तर-नहीं: क्योंकि कारण भेदसे कार्य के भेदका नियम सर्व सिद्ध है। चूकि सभी प्राणियों के अपने-अपने क्षयोपशमके भेदसे, माह्य निमित्तके भेदसे, श्रुतज्ञान का प्रकर्षापकर्ष होता है, अतः मतिपूर्वक होनेपर भी सभीके श्रुतज्ञानों में विशेषता बनी रहती है । (ध.६/४, १,४५/१६१/१)। २. श्रुतज्ञान निर्देश १. श्रुतज्ञानके पर्यायवाची नाम पं. ख १३/ १मू. ५०/२८० पावयणं पवयणीयं पवयणट्ठो गदीमु मागणदा बादा परंपरलबी अणुत्तरं पवयणं पवयणी पबयणद्धा पवयणसणियासो णयविधी णयंतरविधी भंगविधी भंगविधिविसेसो पुच्छाविधी पुच्छाविधिक्सेिसोतच्चं भूदं भवं भवियं अवितर्थ अविहदं वेदं णायं सुद्ध सम्माइट्ठी हेदुवादो णयवादो पवरवादी मग्गवादो सुदवादो परवादो लोइयवादो लोगुत्तरीयवादो अग्गं मग्न जहाणुमग्गं पुवं जहाणुपुव्वं पुवादिपुव्वं चेदि ॥५०॥ घ.१३/५.५.५०/२८५/१२ कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेशः । सर्वनयविषयाणामस्तिरबविधायकत्वात् । -१. प्रावचन, प्रवचनीय. प्रवचनार्थ, गतियों में मार्गणता, आरमा, परम्परा लब्धि, अनुत्तर, प्रवचन, प्रवचनी, प्रवचनाद्धा, प्रवचन संनिकर्ष, नयविधि, नयान्तरविधि, भंगविधि, भंगविधिविशेष, पृच्छाविधि, पृच्छाविधि विशेष, तत्त्व, भूत, भव्य, भविष्यत, अवितथ, अविहत, वेद, न्याय, शुद्ध, सभ्यगदृष्टि, हेतुबाद, नयवाद, प्रवरवाद, मार्गाद, श्रुतवाद, परवाद, लौकिकवाद, लोकोत्तरीयवाद, अग्रय, मार्ग यथानुमार्ग, पूर्व, यथानुपूर्व और पूर्वातिपूर्व ये श्रुतज्ञानके पर्याय नाम हैं ।१०।२. प्रश्न-श्रुतकी विधि संज्ञा कैसे है। उत्तर-चू कि वह सब नयोंके विषयके अस्तित्वका विधायक है, इसलिए श्रुतकी विधि संज्ञा उचित ही है। २.श्रतज्ञानमें कथंचित् मति आदि ज्ञानोंका निमित्त त. सू./१/२० श्रुतं मतिपूर्व द्वधनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥ स.सि./१/२०/१२०/७ मतिः पूर्वमस्य मतिपूर्व मतिकारणमित्यर्थः । १. शुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है ।।२०। २. मति जिसका पूर्व अर्थात् निमित्त है वह मतिपूर्व कहलाता है। जिसका अर्थ मंतिकारण क होता है। तात्पर्य यह है कि जो मतिज्ञानके निमित्तसे होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। (पं.सं./प्रा./१/१२२), (रा. वा./१/ २०/२/७०/२४), (दे. श्रुतज्ञान/1/१/२), (ध. ६/४,१,४५/१६०/७), (ध. १३/५.५,२१/२१०/७), (द्र.सं./टी./४४/१८८/२), (पं.ध./पू/७०३, ७१७)। श्लो. बा./२/१/७/६/११०/७ अवधिमनःपर्ययविशेषत्वानुषङगात् । यथैव हि मत्यार्थ परिच्छिद्य श्रुतज्ञानेन परामृशनिर्देशादिभिः प्ररूपयति तथावधिमनःपर्ययेण वा। न चे श्रुतज्ञानस्य तत्पूर्वकत्वप्रसङगः साक्षात्तस्यानिन्द्रियमतिपूर्वकत्वात् परम्परया तु तत्पूर्व करवं नानिधम् । -प्रश्न-अवधि और मनःपर्ययसे प्रत्यक्षकरके उस पदार्थ का श्रुतज्ञान द्वारा विचार हो जाता है तो मतिपूर्वकपने के समान अवधि मनःपर्ययपूर्वक भी श्रुतज्ञानके होनेका प्रसंग आयेगा । उत्तर-नहीं, क्योंकि अव्यवहित पूर्ववर्ती कारणकी अपेक्षासे श्रुतज्ञानका कारण मतिज्ञान ही है। हाँ, परम्परासे तो उन अवधि और मनःपर्ययको कारण मानकर श्रुतज्ञानकी प्रवृत्ति होना अनिष्ट नहीं है। श्लो. वा. ३/१/२०/श्ली. २०/६०५ मतिसामान्यनिर्देशान्न श्रोत्रमतिपूर्वक । श्रुतं नियम्यतेऽशेषमतिपूर्वस्य वीक्षणात् । = सूत्रकारने मतिपूर्व ऐसा निर्देश कहकर सामान्य रूपसे सम्पूर्ण मतिज्ञानोंका संग्रह कर लिया है। अतः केवल श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको हो। पूर्ववर्ती मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न होय ऐसा नियम नहीं किया जाता सकता है। क. पा. १/१-१/३४/५१/४ ण मदिणाणपुवं व मुदणापां सुदणाणादो वि सुदणाणुप्पत्तिदसणादो । “यदि कहा जाय कि मतिज्ञानपूर्वक हो. श्रतज्ञान होता है सो भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि श्रुतज्ञानसे. भो श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है। ३. श्रुतज्ञानमें मनका निमित्त त. सू./२/२१ श्रुतमनिन्द्रियस्य ।२१। -शुत मन का विषय है। .दे. मतिज्ञान/३/१ ईहादिको मनका निमित्तपनाउपचारसे है पर श्रुतज्ञान नियमसे मनके निमित्तसे ही उत्पन्न होता है। स.भ.त./४७/१३ अनिन्द्रियमात्रजन्यत्वं श्रुतस्य स्वरूपम् । =मन मात्रसे उत्पन्न होना श्रुतज्ञानका स्वरूप है। ४. श्रुतज्ञानका विषय दे, मतिज्ञान/२/२ सर्व द्रव्योंकी असर्व पर्यायों में वर्तता है । रा, वा./१/२६/४/८७/२२ शब्दाश्च सर्वे संख्येया एव द्रव्यपर्याः पुनः संख्येयासंख्येयानन्तभेदाः, न ते सर्वे विशेषाकारेण तै विषयीक्रियन्ते । स सर्व शब्द संख्यात ही हैं और द्रव्योंकी पर्याय संख्यात और अनन्त भेदवाली है। अत: संख्यात शब्द अनन्त पदार्थोंकी स्थूल पर्यायौंको ही विषय कर सकते हैं, सभी पर्यायोंको नहीं। कहा भी है [प्रज्ञापनीय भाव अनन्त है और शब्द अत्यन्त अल्प हैं। दे. आगम/१/११] । दे. श्रुतकेवली २।५ द्रव्य श्रुतका विषय भले अल्प हो पर भावश्रुतका विषय अनन्त है। दे. श्रुतज्ञान/२१५ (परोक्ष रूपसे सामान्यतः सर्व पदार्थों को ग्रहण करनेसे केवलज्ञानके समान है, पर विशेष रूपसे ग्रहण करनेसे अल्पज्ञता है।) ५. श्रुतज्ञानकी त्रिकालज्ञता न. च. वृ./९७३ में उद्धृत गाथा सं. २ कालत्तयसंजुत्तं दव्यं गिहुणेइ केवलणाणं । तत्थ णयेण वि गिहूणइ भूदोऽभूदो य वट्टमाणो वि ।। - तीनों कालोंसे संयुक्त द्रव्यको केवलज्ञान ग्रहण करता है और नयके द्वारा भी भूत, भविष्य और वर्तमान कालके पदार्थों को ग्रहण किया जाता है। दे, निमित्त/२/३ अष्टांग महानिमित्त ज्ञान त्रिकालग्राही है। दे. द्रव्य/१/१२/२ भविष्यत परिणामसे अभियुक्त द्रव्य द्रव्य निक्षेपका विषय है। १. मोक्षमार्गमें मति श्रुत ज्ञानकी प्रधानता श्लो. बा. २/१/३/६२/१४ केबलस्य सकल श्रुतपूर्व कत्वोपदेशात् । - सम्पूर्ण पदार्थोको जाननेवाले केवलज्ञानको उत्पत्ति तो पूर्ववर्ती पूर्ण द्वादशांग श्रुतज्ञान रूप कारणसे होती हुई मानी है। पं.ध./पू./७१६ अपि चात्मसंसिद्धयै नियतं हेतु मतिश्रुती ज्ञाने। प्रान्स्यद्वयं विना स्यान्मोक्षो न स्याहते मतिद्वैतम् । - आत्म सिद्धि के लिए मति श्रुतज्ञान निश्चित कारण है क्योंकि अन्तके दो ज्ञानोंके. बिना मोक्ष हो सकता है किन्तु मति, श्रुत ज्ञानके बिना मोक्ष नहीं हो सकता। ..शब्द व अर्थ लिंगजमें शब्द लिंगज ज्ञान प्रधान गो. जी./जी.प्र./३१५४६७३/१५ शब्दजैलिङ्गजयोः श्रुतज्ञानभेदयोः मध्ये शब्दजं वर्ण पदवाक्यात्मकशब्दजनितं श्रुतज्ञान प्रमुख प्रधानं दत्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान - ग्रहणास्त्राध्ययनादि तन्मूलख्या अनक्षरारम सिद्धानं एकेपिचेन्द्रियपर्यन्तेषु विद्यमानमपि व्यवहारानुपयोगित्वादप्रधानं भवति । श्रुतज्ञानके भेदोंके मध्य शब्द लिंगज अर्थात् अक्षर, वर्ण, पद, वाक्य आदि रूप दादसे उत्पन्न हुआ जो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान वह प्रधान है, क्योंकि लेना, देना, शास्त्र पढ़ना इत्यादि सर्व व्यवहारोंका मूल अक्षरात्मक ज्ञान है। और जो लिंग अर्थात् चिह्नसे उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान है वह एकेन्द्रिय कर सकके जीवोंमें होता है किन्तु उससे कु व्यवहारकी प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए वह अप्रधान होता है। ८. य व भावश्रुत भाववकी प्रधानत - इस सूत्र - श्लो. वा. ३/१/२० श्लो १७/६०८ मुख्या ज्ञानात्मका भेदप्रभेदास्तस्य सूत्रताः । शब्दात्मकाः पुनगणाः श्रुतस्येति विभिद्यते । - मैं ज्ञान भेदप्रभेद मुख्य रूपसे तो ज्ञान स्वरूप सूचित किये जाते हैं। हाँ, फिर दाभेद तो गौ रूपसे कहे गये हैं। इस प्रकार श्रुतके मुख्यरूपसे ज्ञानस्वरूप और गौण रूपसे शब्द स्वरूप विशेष भेद लेने चाहिए । ९. तज्ञान केवल शब्दज नहीं होता श्लो. बा./३/१/२०/८६/६३४ / २२ अथ शब्दानुयोजनादेव श्रतमिति नियमस्तदा ओमतिपूर्वकमेव चक्षुरादिमतिपूर्वकमिति सिद्धान्तविरोधः स्यात्सव्यवहारिक ज्ञानं श्रतमित्यपेक्षया तथा नियमे तु वाचास्ति चरादिमतिपूर्वकस्यापि श्रतस्य परमार्थाभ्युपगमात् स्वसमयप्रतिपत्तेः । श्लो. वा. ३/१/२०/११६/६५२/१४ श्रुतं शब्दानुयोजनादेव इत्यवधारणश्याकतङ्काभिप्रेतस्य कदाचिद्वरोधाभावाद तथा संप्रदायस्या विच्छेद कायनुग्रहारच सर्वमतिपूर्वकस्यापि तस्याज्ञानत्व व्यवस्थितैः । - १. प्रश्न- शब्द की अनुयोजना से ही अस होता है, इस प्रकार नियम किया जायेगा तब तो श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानस्वरूप निमित्त से ही तो श्र ुतज्ञान हो सकेगा। चक्षु आदि इन्द्रियों से श्र ुतज्ञान नहीं हो सकेगा। उक्त प्रकार सिद्धान्तसे विरोध आवेगा । उत्तर- सांव्यवहारिक ज्ञान है। इस अपेक्षासे नियम किया जायेगा, तब तो इष्ट सिद्धान्तसे कोई बाधा नहीं आती है। क्योंकि चक्षु आदि से उत्पन्न हुए मतिज्ञानको पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न हुए भी अटोको परमार्थ रूपसे श्री अ देवने स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार अपने सिद्धान्तकी प्रतिपत्ति हो जाती है। २. शब्दको अनुयोजनासे ही भूत होता है, इस प्रकार भी अकशंक देवको अभिप्रेत हो रहे अवधारणका कभी भी विरोध नहीं पड़ता है।... पूर्व से चली आ रही तिस प्रकारको आम्नायोंकी नहीं हुई है। इस कारण सम्पूर्ण मतिज्ञानों को पूर्ववर्ती कारण मानकर श्रुतको अक्षरज्ञानपना व्यवस्थित हो गया है। त ३. मतिज्ञान व श्रुतज्ञानमें अन्तर १. दोनों में कथंचित् एकता दे. श्र तज्ञान/T/२/२ (मति पूर्वक उत्पन्न होता है । ) रा.वा./१/१/१६/४०/२७ मतितयोः परस्परापरित्यागः यत्र मतिस्त श्र ुतं यत्र भूतं तत्र मतिः' इति । मति श्रुतका विषय, बराबर है और दोनो सहभावी हैं, जहाँ मति है, वहाँ श्र ुत है, जहाँ श्र ुत है वहाँ मति है । रा. वा. / २ /३० / ४/१०/२५ एते हि मतिश्रुते सर्वकालमव्यभिचारिणी नारदपर्वत । तस्मादनयोरन्यतरग्रहणे इतरस्य ग्रहणं संनिहितं भमति। -मति और त सदा अव्यभिचारी है. नारद पती तरह एक दूसरेका साथ नहीं छोड़ते, अतः एकके ग्रहणसे दूसरेका ग्रहण ही हो जाता है। ६१ I 1 बुतज्ञान सामान्य निर्देश २. मति व तज्ञानमें भेद 1 1 S स.सि./१/२०/१२०/- यदि मतिपूर्व श्रुतं तदपि मध्यात्मक प्राप्नोति कारणसदृशं हि लोके कार्य दृश्य इति नैकान्तिकदण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मकः । अपि च सति तस्मिंस्तदभावात् । सत्यपि मतिज्ञानेनाह्मज्ञाननिमित्त निधानेऽपि प्रमघुसावरण दयस्य श्रुताभावः । श्रुतावरणक्षयोपशमत्रवर्षे तु सति श्रुतज्ञानमुत्पद्यत इति मतिज्ञानं निमित्तमात्रं शेय प्रश्न यदि ज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है तो वह श्रुतज्ञान भी मध्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोकमें कारणके समान ही कार्य देखा जाता है ? उत्तर- यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घटकी उत्पत्ति दण्डादिकसे होती है तो भी वह दण्डाद्यात्मक नहीं होता। दूसरे, मतिज्ञानके रहते हुए भी सज्ञान नहीं होता। यद्यपि मतिज्ञान रहा आता है और श्रुतज्ञानके बाह्य निमित्त भी रहे आते हैं तो भी जिसके श्रुत ज्ञानावरणका प्रबल उदय पाया जाता है, उसके श्रुतज्ञान नहीं होता। किन्तु राज्ञानका प्रकर्ष क्षयोपशम होनेपर ही ज्ञान होता है इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में निर्मित मात्र जानना चाहिए । (रा. मा./१/२०/३-४/००/१०:७-०/०१/३१)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - • B - रा. वा./१/१/२१-२६/४०१२ महिलयोरेकस्वम् साहचर्यादिकत्राय स्थानाचा विशेषाय २१॥ नः अतरससि यत एवं मतितयोः साहचर्यमेवस्थानं योग्य अत एव विशेषः सिद्धः प्रतिनियतविशेषसिद्धयोर्हि साहचर्य मेकत्रावस्थानं च युज्यते नान्यथेति २२| तत्पूर्वकत्वाच्च । ततश्चानयोर्विशेषः । यत्पूर्वं यच पश्चात्तयोः कथमविशेषः | १२३॥ तत एवाविशेषः कारणसदृशत्वात् युगपदवृत्तेरचेति चेत् न कि कारण यो साहश्य युगपड़वृत्तिरति ॥२४ स्यादेतद विषयाविशेषाय मतिश्रुतिरेकस्वम् । एवं हि वक्ष्यते मतियनिक द्रव्येषु (त. सू./१/२६ ) इति; तन्नः किं कारस् । ग्रहणभेदात् । अन्यथा हि मत्या गृहाते अन्यथा तेन ॥२३॥ स्वादेतत् उभयोरन्द्रियानिन्द्रियमिपाकर कि कारणम् असिया जिवा हि शब्दोच्चारक्रियाया निमित्तं न ज्ञानस्य श्रवणमपि स्वविषयमतिज्ञाननिमित्तं न तस्य हरदुभयनिमित्तत्वमसि प्रश्नचूंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों सहचारी हैं, और एक व्यक्तिमे युगपत् पाये जाते हैं, अतः दोनों में कोई विशेषता न होने से दोनोंको एक ही कहना चाहिए। उत्तर- साहचर्य तथा एक व्यक्तिमें दोनोंके युगपत् रहनेसे ही यह सिद्ध होता है कि दोनों जुदेजुदे हैं, क्योंकि दोनों बातें भिन्न सत्तावाले पदार्थोंमें ही होती है । मतिपूर्वक श्रुत होता है, इसलिए दोनोंकी कारण-कार्यरूपसे विशेषता सिध है ही प्रश्नकारणके सदा ही कार्य होता है, चूंकि मंतिपूर्वक हुआ है, अतः उसे भी मतिरूप ही कहना श्रुत चाहिए। सम्यग्दर्शन होनेपर कुमति और कुतको युगपदज्ञानव्यपदेश होता है अतः दोनों एक ही कहना चाहिए ? उत्तर- यह प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि जिन कारण सशस्त्र और युगपदवृत्ति हेतुओंसे आप एक सिद्ध करना चाहते हो उन्होंसे उनमें भिन्नता सिद्ध होती है। सादृश्य और युगपदवृत्ति पृथसिद्ध पदार्थोंमें ही होते हैं। प्रश्न- पति और श्रुतज्ञानका विषय एक होनेसे दोनों में एकव है - ऐसा कहा गया है कि- मतिज्ञान व श्रुतज्ञानकी सम्पूर्ण इव्योंमें एक देश रूपसे प्रवृत्ति होती है। (त.सू./१/५३) उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि दोनों के जाननेके प्रकार जुदा-जुदा हैं। प्रश्नमति और श्रुत दोनों इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए दोनों में एकस्व है 1 उत्तर- एक कारणता असिद्ध है । ताकी जीभ शब्द उच्चारणमें कारण होती है न कि ज्ञानमें। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान 1 श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश नहीं देखे गये सजातीय और विजातीय अनेक अर्थोंका विचार करना रूप स्वभावोंसे सहितपने करके प्रसिद्धि हो रही है। गो.जी./जी. प्र./३१५/६७३/१६ तत्र जीवोऽस्तीपयुक्त जीवोऽस्तीति शब्दज्ञानं श्रोत्रेन्द्रियप्रभवं मतिज्ञानं भवति ज्ञानेन जीवोऽस्तीति शब्दवाच्यरूपे आत्मास्तित्वे वाच्यवाचकसंबन्धसंकेतसंकलनपूर्वक यत ज्ञानमुत्पद्यते तदक्षरात्मकं श्र तज्ञानं भवति, अक्षरामक शब्दसमुत्पन्नत्वेन कार्य कारणोपचारात । वातशीतस्पर्शज्ञानेन वातप्रकृतिकस्य तस्परों अमनोज्ञज्ञानमनक्षरात्मकं लिङगजं श्रुतज्ञानं भवति, शब्दपूर्वकत्वाभावात् । -'जीवः अस्ति' ऐसा शब्द कहनेपर कर्ण इन्द्रिय रूप मतिज्ञानके द्वारा 'जीवः अस्ति' यह शब्द ग्रहण किया। इस शब्दसे जो 'जीव नाम पदार्थ है। ऐसा ज्ञान हुआ सो श्रतज्ञान है। शब्द और अर्थ के ऐसा वाच्य वाचक सम्बन्ध है । सो यहाँ 'जीवः अस्ति' ऐसे शब्दका जानना तो मतिज्ञान है, और उसके निमित्तसे जीव नामक पदार्थ का जानना सो श्रतज्ञान है । ऐसे ही सर्व अक्षरात्मक श्रुतज्ञानका स्वरूप जानन।। अक्षरात्मक शब्दसे समुत्पन्न ज्ञान, उसको भी अक्षरात्मक कहा। यहाँपर कार्य में कारणका उपचार किया है, परमार्थसे ज्ञान कोई अक्षर रूप नहीं है। जैसे-शीतल पवनका स्पर्श होनेपर 'तहाँ शीतल पवनका जानना तो मतिज्ञान है, और उस ज्ञानसे वायुकी प्रकृतिवालेको यह पवन अनिष्ट हैं' ऐसा जानना श्रतज्ञान है, सो यह अनक्षरात्मक भूतज्ञान है, क्योंकि यह अक्षरके निमित्तसे उत्पन्न नहीं हुआ है। श्रोताका ज्ञान भो शब्द प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान में निमित्त होता है न कि अर्थ ज्ञान में, अतः श्रुत में मनोनिमित्तता असिद्ध है। रा.वा./१/२०/५/७१/११ नायमेकान्तोऽस्ति-कारणसदृशमेव कार्यम् इति । कुतः । तत्रापि सप्तभङ्गीसंभवात । कथम् । घटवत् । यथा घटः कारणेन मृत्पिण्डेन स्यात्सदृशः स्यान्न सदृश इत्यादि ।... तथा श्रुतं सामान्यादेशात स्यात्कारणसदृशं यतो मतिरपि ज्ञान श्रुतमपि । अहिताभिमुखग्रहगनानाप्रकारार्थप्ररूपणसामादिपर्यायादेशात स्यान्न कारणसदृशम् । =यह कोई नियम नहीं है कि कारण के सदृश ही कार्य होना चाहिए। क्योंकि यहाँपर भी सप्तभंगी की योजना करनी चाहिए। घड़ेकी भाँति जैसे पुदगल द्रव्यकी दृष्टिसे मिट्टी रूप कारणके समान घड़ा होता है। पर पिण्ड और घट पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं ।...उसी तरह चैतन्य द्रव्यकी मति और श्रुत दोनों एक हैं, क्योंकि मति भी ज्ञान है और श्रुत भी ज्ञान है। किन्तु तत्तत् ज्ञान पर्यायोंको हष्टसे दोनों ज्ञान जुदाजुदा हैं। श्लो. वा./३/९/8/३०/२४/२२ न मतिस्तस्यास्तर्कात्मिकायाः स्वार्थानुमानात्मिकायाश्च तथा भावरहितस्वात् । न हि यथा श्रुतमनन्तव्यञ्जनपर्यायसमाक्रान्तानि सर्व द्रव्याणि गृह्णाति न तथा मतिः । -तकस्वरूप अथवा स्वार्थानुमानस्वरूप भी उस मतिज्ञानमें श्रुतज्ञानके समान सर्व तत्त्वोका ग्राहकपना नहीं है, जिस प्रकार अनन्त व्यंजन पर्यायोंसे चारों ओर धिरे हुए सम्पूर्ण द्रव्यों को श्रुतज्ञान ग्रहण करता है, तिस प्रकार मतिज्ञान नहीं जानता। ३. श्रीतज मतिज्ञान व श्रुतज्ञानमें अन्तर रा, वा./२/६/३०/४६/४ श्रुत्वा यदवधारयति तत् श्रुतमिति केचिन्मन्यन्ते; तन्न युक्तमः कुतः । मतिज्ञानप्रसनत। तदपि शब्द श्रुत्वा 'गोशब्दोऽयम्' इति प्रतिपाद्यते। ...श्रुतं पुनस्तस्मिन्निन्द्रियानिन्द्रियगृहोतागृहोतपर्यायसमूहात्मनि शब्दे तदभिधेये च श्रोत्रेन्द्रियव्यापारमन्तरेण जीवादी नयादिभिरधिगमोपायैर्याथात्म्येनाऽवबोधः। रा, वा./१/२०/६/७१/२५ स्यादेतत-श्रोत्रमतिपूर्वस्यैव श्रुतत्व प्राप्नोति । कुतः। तदर्थ त्वात । श्रुत्वा अवधारणाद्धि श्रुतमित्युच्यते, तेन चक्षुरादिमतिपूर्वस्य श्रुतत्वं न प्राप्नोति; तन्न; 1क कारणम् । उक्तमेतत्त-श्रुतशब्दोऽयं रूढिशब्दः' इति । रूढिशब्दाश्च स्वोसत्तिनिमित्त क्रियानपेक्षाः प्रवर्तन्त इति सर्वमतिपूर्वस्य श्रुतत्वसिद्धिभवति। -१. प्रश्न -सुनकर निश्चय करना श्रुत है 1 उत्तरऐसा कहना युक्त नहीं है। यह तो मतिज्ञानका लक्षण है, क्योंकि वह भी शब्दको सुनकर 'यह गो शब्द है' ऐसा निश्चय करता ही है। किन्तु श्रुतज्ञान मन और इन्द्रियके ज्ञान द्वारा गृहोत या अगृहीत पर्याय वाले शब्द या उसके वाच्यार्थका श्रात्रेन्द्रियके व्यापारके बिना ही नय आदि योजनाके द्वारा विभिन्न विशेषों के साथ जानता है। २. प्रश्न-श्रोत्रन्द्रिय जन्य मतिज्ञानसे जो उत्पन्न हो उसे ही श्रुत कहना चाहिए, क्योंकि सुनकर जा जाना जाता है वही श्रु त होता है। इस प्रकार चक्षु इन्द्रिय आदिसे श्रु त नहीं हो सकेगा! उतर-श्रु त शब्द श्रुतज्ञान विशेष रूढ़ हानेके कारण सभी मतिज्ञान पूर्वक हानेवाले भू तज्ञानों में व्याप्त है। (भ. आ./ वि./१६४/४०६/२१)। श्लो. वा./२/१/६/३३/२७/३ केचिदाहुर्मतिश्रु तयारेकरवं श्रवण निमित्तस्वादिति, तेऽपि न युक्तिवादिनः । श्रुतस्य साक्षाच्छ्रवण निमित्तत्वासिद्धः तस्यानिन्द्रियवत्वादृष्टार्थसजातीयनानार्थपरामर्शनस्वभावतया प्रसिद्धत्वात् । -प्रश्न-कर्ण इन्द्रियको निमित्त पाकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं, इस कारण दोनों का एकपना है ? उत्तर-आप युक्तिवादी नहीं हैं, क्योंकि कर्ण इन्द्रियको साक्षात निमित्त मानकर तज्ञानका उत्पन्न होना असिद्ध है।... तज्ञान की अनिन्द्रियवानपना यानी मनको निमित्त मानकर और प्रत्यक्षसे ४. मनोमति ज्ञान व श्रतज्ञानमें अन्तर पं. का./ता. पू./४३/ प्रक्षेपक १.२/८/१९ तन्मतिज्ञानं तच्च पुन स्त्रिविध उपलब्धिविना तथोपयोगश्च...अर्थ ग्रहणशक्तिरूपमाघतिऽय पुनः पुनश्चितनं भावना नीलमिदं पीतमिदं इत्यादिरूपेणार्थ ग्रहणव्यापार उपयोगः।। श्रुतज्ञान...ल धिरूपं च भावनारूपं चैव ।... उपयोगविकल्प नय विकल्पं च उपयोगशब्देनात्र वस्तुग्राहक प्रमाण भण्यते नयशब्देन तु वस्त्वेकदेशग्राहको ज्ञातुरभिप्रायो विकरूपः ।... यद्भावश्रुतं तदेवोपादेयं । मतिज्ञान तीन प्रकारका है-उपलब्धि भावना और उपयोग । अर्थ ग्रहण की शक्तिको लब्धि कहते हैं, जाने हुए अर्थका पुनः पुनः चिन्तवन करना भावना कहलाता है. और यह नीला है, यह पोला है इत्यादि रूपसे अर्थ ग्रहण के व्यापारको उपयोग कहते हैं ।...श्रुतज्ञान दो प्रकारका है-लब्धिरूपाऔरभावनारूप ही, तथा उपयोग बिकाप और नय विकल्प। उपयोग शब्दसे यहाँ वस्तु ग्राहक प्रमाण कहा जाता है। और नय शब्दसे तो वस्तुका एक देश ग्राहक ज्ञाताका अभिप्राय रूप विकल्प ग्रहण किया जाता है। यह भावश्रुत ही उपादेय है। ५. ईहादि मतिज्ञान श्रु तज्ञानमें अन्तर रा. बा./१/६/२८/४८/३१ स्यादेतत ईहादीनामपि श्रुतव्यपदेशः प्राप्तः, तेऽप्यनिद्रियानमित्ता इति तन; कि कारणम् । अवगृहीतमात्रविषयस्वति । इन्द्रियेणावगृहीतो योऽर्थस्तन्मात्रविश्या ईहादयः, श्रुतं पुनर्न तद्विषयम्। कि विषयं तहि श्रुतम् । अपूर्व विषयम् ।-प्रश्न-ईहा आदि ज्ञानका भी श्रुत व्यपदेश प्राप्त होता है, क्योंकि वे भी मनके निमित्त से उत्पन्न होते हैं। उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि वे मात्र अवगृह के द्वारा गृहीत हो पदार्थको जानते हैं, जबकि श्रुतज्ञान अपूर्व अर्थको विषय करता है। (क. पा./१/१-१५/६३०८/३४०/१) (ध. ६/१.६-१४/१७/४)। श्लो. वा./२/१/६/३२/२६/२२ नहि यादृशमतीन्द्रियनिमित्तत्व महीयास्तादृशं श्रुतस्यापि । यद्यपि ईहा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही मनसे होते हैं, किन्तु जिस प्रकार ईहा ज्ञानका निमित्तपन मनको जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश श्रुतज्ञान दोनों में प्रत्यक्ष परोक्ष मात्रका अन्तर है आप्त. मी./१०५ स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वे प्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च, ह्यवस्वन्यतमं भवेत् ॥१०५= स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों सर्व तत्वोंका प्रकाशन करनेवाले हैं। इन दोनों में केवल परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप जानने मात्रका भेद है। इन दोनों में से यदि एक हो, और अन्यतम न हो तो, वह अवस्तु ठहरे। ( गो. जी./मू./१६६/७६५)। दे. अनुभव/४ श्रुतज्ञानमें केवल ज्ञानवद प्रत्यक्ष अनुभव होता है। ३. समन्वय ध, १५/१/४/४ मदिसुदणाणाण सव्वदव्य विसयत्तं किण्ण बुच्चदे, तासि मुत्तामुत्तासेसदव्वेप्नु वावारुवल भादो। ण एस दोसो, तेसि दव्वाणमण तेसु पज्जारसु तिकाल बिसएसु तेहि सामण्णेणावगए विसेससरूवेण वावाराभावादो। भावे वा केवलणाणेण समाणत्तं तेसिं पावेज्ज । ण च एवं, पंचणाणुवदेसस्स अभावप्पसंगादो।-प्रश्नमतिज्ञान व श्रुतज्ञान समस्त द्रव्योंको विषय करनेवाले हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते, क्योंकि उनका मूर्त व अमूर्त सर्व द्रव्यों में व्यापार पाया जाता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उन द्रव्यौंको त्रिकाल विषयक अनन्त पर्यायो में उन ज्ञानोंका सामान्य रूपसे व्यवहार नहीं है। अथवा यदि उनमें उनकी विशेष रूपसे भी प्रवृत्ति स्वीकार की जाय तो वे दोनों ज्ञान केवलज्ञानकी समानताको प्राप्त हो जावेगे। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर पाँच ज्ञानों का जो उपदेश प्राप्त है उसके अभावका प्रसंग आता है। के उस सरीखा श्रुतज्ञानका भी निमित्तपना मनमें नहीं है। केवल सामान्य रूपसे उस मनका निमित्तपना तो मति और श्रुतके तदात्मकपनका गमन हेतु नहीं है। दे मतिज्ञान/३/१ ईहादिको अनि न्द्रियका निमित्तत्व उपचारसे है पर श्रुतज्ञान अनिन्द्रिय निमित्तक ही है। ४. श्रुतज्ञान व केवलज्ञानमें कथंचित् समानताअसमानता १. श्रुत मी सर्व पदार्थ विषयक है दे अद्धि/२/२/३ केवलज्ञानके विषयभूत अनन्त अर्थको श्रुतज्ञान परोक्ष रूपसे ग्रहण कर लेता है। दे, श्रुतज्ञान/२/५ केवलज्ञानको भाँति श्रुतज्ञान भी मनके द्वारा त्रिकाली पदार्थोंको ग्रहण कर लेता है। प्र. सा./त.प्र./२३५ श्रमणानां ज्ञेयत्वमापद्यन्ते स्वयमेव, विचित्रगुणपर्यायविशिष्टसर्व द्रव्यव्यापकानेकान्तात्मकश्रुतज्ञानोपयोगी भूयो विपरिणमनात् । अता न किंचिदप्यागमचक्षुषामदृश्यं स्यात् ।-वे (विचित्रगुणपर्यायों सहित समस्त पदार्थ) श्रमणोंको स्वयमेव ज्ञेयभूत होते हैं, क्योंकि श्रमण विचित्र गुणपर्यायवाले सर्वद्रव्यों में व्यापक अनेकान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोग रूप होकर परिणमित होते हैं। इससे ( यह कहा है कि) आगम चक्षुओंको आगम रूप चक्षु बालोंको कुछ भी अदृश्य नहीं है। प्र. सा./ता. वृ./गा./पृ./ प. अत्राह शिष्यः-आत्मपरिज्ञाने सति सर्वपरिज्ञान भवतीत्यत्र व्याख्यानं, तत्र तु पूर्वसूत्रे भणितं सर्वपरिज्ञाने सत्यात्मपरिज्ञानं भवतीति । यद्यवं तहि छद्मस्थानां सर्वपरिज्ञानं नास्त्यात्मपरिज्ञानं कथं भविष्यति। आत्मपरिज्ञानाभावे चात्मभावना कथ । तदभावे केवलज्ञानोत्पत्तिस्तिीति। परिहारमाहपरोक्षप्रमाणभूतश्रुतज्ञानेन सर्व पदार्था ज्ञायन्ते। कथमिति चेतलोकालोकादिपरिज्ञान व्याप्तिज्ञानरूपेण छद्मस्थानामपि विद्यते, तच्च व्याप्तिज्ञान परोक्षाकारेण केवलज्ञानविषयग्राहकं कथंचिदास्मैव भण्यते। (४६/६५/१३) सर्वे द्रव्यगुणपर्यायाः परमागमेन ज्ञायन्ते। कस्मात् । आगमस्य परोक्षरूपेण केवलज्ञानसमानत्वात् पश्चादागमाधारेण स्वसंवेदनज्ञाने जाते स्वसंवेदनज्ञानबलेन केवलज्ञाने च जाते प्रत्यक्षा अपि भवन्ति । (२३५/३२५/१३.)। प्रश्न - आत्माके जाने, जानेपर सर्व जाना जाता है, ऐसा यह व्याख्यान है, और पूर्व सूत्र में सर्वका ज्ञान होनेपर आत्माका ज्ञान होता है, ऐसा है तो छद्मस्थोंके सर्वका ज्ञान तो होता नहीं है, तो आत्मज्ञान कैसे होगा 1 और आत्मज्ञानके अभावमें आत्माकोभावनाकै सेसम्भव है, तथा भावनाके अभावमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। उत्तर-परोक्ष प्रमाणभूत श्रुतज्ञानके द्वारा सर्व पदार्थ जाने जाते हैं, क्यों कि लोकालोकका परिज्ञान व्याप्ति रूपसे छदस्थोंके भो पाया जाता है। और वह केवल ज्ञानको विषय करनेवाला व्याप्ति ज्ञान परोक्ष रूपसे कथंचित आत्मा ही है। सर्व द्रव्य गुण और पर्याय परमागमसे जाने जाते हैं, क्योंकि आगमके परोक्षरूपसे केवलज्ञानसे समानपना होने के कारण, आगमके आधारसे पीछे स्वसंवेदन ज्ञानके हो जानेपर, और स्वसंवेदन ज्ञानके बल से केवलज्ञानके हो जानेपर समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भी हो जाते हैं। पं. का./ता. वृ./६६/१५६/६४ यत्पुनादशाङ्गचतुर्दशपूर्वरूपपरमागमसंज्ञं तच्च मूर्तामूर्तोभयपरिच्छित्तिविषये व्याप्तिज्ञानरूपेण परोक्षमपि केवलज्ञानसशमित्यभिप्रायः । द्वादशांग अर्थात् १२ अंग चौदह पूर्वरूप परमागम संज्ञावाला द्रव्य श्रुत है, वह मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकारके द्रव्यों के ज्ञानके विषयमें परोक्ष होनेपर भी व्याप्त ज्ञान रूपसे केवलज्ञानके सदृश है, ऐसा अभिप्राय है। दे. श्रुतज्ञान/1/२/४ श्रुतज्ञान सर्व पदार्थ विषयक है। . ५. मति श्रुत ज्ञानकी कथंचित् प्रत्यक्षता-परोक्षता १. मति श्रुत ज्ञान कथंचित् परोक्ष हैं प्र. सा./मू./५७ परदवं ते अक्रवाणेव सहाबोत्ति अप्पाणो भणिदा। उबलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अपणो होंति ॥५७ वे इन्द्रियाँ पर द्रव्य हैं, उन्हें आत्मस्वभाव स्वरूप नहीं कहा है । उनके द्वारा ज्ञात आत्माका प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है। स. सि./१/११/१०१।६ अतः पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बायनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मतिश्रुतं उत्पद्यमानं परोक्षमित्याख्यायते । - मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माके इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेशादिक वाह्य मिमित्तोंकी अपेक्षा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं अतः ये परोक्ष कहलाते हैं । (रा.वा./१/११/६/५२/२४ ) (और भी दे. परोक्ष/४)। के पा./१/१-१/६१६/२४/३ मति-सुदणाणाणि परोक्खाणि, पाएण तत्थ अविसदभावदसणादो । मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि इन दोनों में प्रायः अस्पष्टता देखी जाती है । २. इन्द्रिय ज्ञानको प्रत्यक्ष माननेमें दोष स. सि./१/१२/१०३/७ स्यान्मतमिन्द्रियव्यापारजनित ज्ञान प्रत्यक्ष व्यतीतेन्द्रियविषयव्यापार परोक्षमित्येतदविसंवादि लक्षणमभ्युपगन्तव्यमिति । तदयुक्तम, आप्तस्य प्रत्यक्ष ज्ञानाभावप्रसङ्गात् । यदि इन्द्रियनिमित्तमेव ज्ञान प्रत्यक्षमिष्यते एवं सति आप्तस्य प्रत्यक्षज्ञानं न स्यात् । न हि तस्येन्द्रियपूर्वोऽर्थाधिगमः। अथ तस्यापि करणपूर्वकमेव ज्ञानं कलप्यते, तस्यासर्वज्ञत्वं स्यात् । तस्य मानसं प्रत्यक्षमिति चेत; मनःप्रणिधानपूर्वकत्वात ज्ञानस्य सर्वज्ञत्वाभाव एव । आगमतस्त सिद्धिरिति चेत् । नः तस्य प्रत्यक्षज्ञानपूर्वकत्वात । यो गिप्रत्यक्षमन्यज्ज्ञानं दिव्यमप्यस्तीति चेत् । न तस्य प्रत्यक्षत्वं; इन्द्रियनिमित्तत्वाभावात : अक्षमक्षं प्रति यद्वर्तते तत्प्रत्यक्ष मित्यभ्यु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रतज्ञान II अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश पगमात् । प्रश्न-जो ज्ञान इन्द्रियों के व्यापारसे उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रियों के व्यापारसे रहित है वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष व परोक्षका यह अविसंवादी लक्षण मानना चाहिए । उत्तरकहना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त लक्षणके माननेपर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञानका अभाव प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियोके निमित्त से होनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा जाता है तो ऐसा माननेपर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि आप्तके इन्द्रियपूर्वक पदार्थका ज्ञान नहीं होता। कदाचित् उसके भी इन्द्रिय पूर्वक ही ज्ञान पाया जाता है तो उसके सर्वज्ञता नहीं रहती। प्रश्न-उसके मानस प्रत्यक्ष होता है ? उत्तर- मनके प्रयत्नसे ज्ञानकी उत्पत्ति माननेपर सर्वज्ञत्वका अभाव ही होता है। प्रश्न-आगमसे सर्व पदार्थोंका ज्ञान हो जायेगा ! उत्तर-नहीं, क्योंकि सर्वज्ञता प्रत्यक्षज्ञान पूर्वक प्राप्त होती है । प्रश्न-योगी-प्रत्यक्ष नामका एक अन्य दिव्यज्ञान है ! उत्तर-उसमें प्रत्यक्षता नहीं बनती, क्योंकि वह इन्द्रियों के निमित्तसे नहीं होता है । जिसको प्रवृत्ति प्रत्येक इन्द्रियसे होती है वह प्रत्यक्ष है ऐसा आपके मतमें स्वीकार भी किया है। (रा. वा./२/१२/६-६/५३-५४)। ३. परोक्षता व अपरोक्षताका समन्वय न्या. दो./२/१२/३४/१ इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः 'सांव्यवहारिकम् । इदं चामुख्यप्रत्यक्षम, उपचारसिद्धत्वात। वस्तुतस्तु परोक्षमेव, मतिज्ञानत्वात्। -इन्द्रिय और मनके निमित्तसे होनेबाला एक देश स्पष्ट सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान अमुख्य प्रत्यक्ष हैगौण रूपसे प्रत्यक्ष है, क्योंकि उपचारसे सिद्ध होता है, वास्तव में तो परोक्ष ही है। दे. परोक्ष/४ ( इन्द्रिय ज्ञान परमार्थ से परोक्ष है व्यवहारसे प्रत्यक्ष है । ) दे, अनुभव/ ४ वह बाह्य विषयोंको जानते समय परोक्ष है और स्वसंवेदनके समय प्रत्यक्ष है। सावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीय संघादावरणीयं संघातसमासावरणीयं पडिवत्तिआवरणीयं पडिवत्तिसमासावरणीयं अणियोगद्दारावरणीयं अणियोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडावरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीय पाहुडावरणीयं पाहुडसमासावरणीषं वत्थुआवरणीयं वत्थुसमासावरणीयं पुव्यावरणीय पुत्वसमासावरणीयं चेदि ४८। १. पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमासः, संघात, संघात समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयागद्वार, अनियोद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृत-प्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्व समास, ये श्रुतज्ञानके बोस भेद जानने चाहिए।१। २. पर्याय ज्ञानावरणीय, पर्यायसमास ज्ञानावरणीय, अक्षरावरणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासाबरणीय, प्रतिपत्ति-आवरणीय, प्रतिपत्तिसमासावरणीय, अनुयोगद्वारावरणीय, अनुयोगद्वारसमासावरणीय, प्राभृतप्राभृतामरणीय, प्राभृतप्राभृत समासावरणीय, प्राभृतावरणीय, प्राभृतसमासाबरणीय, वस्तु आवरणीय, वस्तुसमासावरणीय, पूर्वावरणीय, पूर्वसमासावरणीय, ये श्रुतावरणके बीस भेद हैं ।४। (ह. पु./१०/१२-१३); (ध.६/१. ६-१,१४/२१/८); (ध, १२/४,२.१४,५/४८०/१२); (गो. जो./मू./ ३१७-३१०/६७७)। ३, बीस भेदोंके लक्षण ह पु./१०/१४-२६ श्रुतज्ञानविकल्पः स्यादेकह्रस्वाक्षरात्मकः । अनन्तानन्तभेदाणुपुद्गलस्कन्धसंचयः।१४। अनन्तानन्तभागैस्तु भिद्यमानस्य तस्य च । भागः पर्याय इत्युक्तः श्रुतभेदो ह्यनत्पशः ११५॥ सोऽपि सूक्ष्मनिगोदस्यालब्धपर्याप्तदेहिनः। सम्भवी सर्वथा तावान् श्रुतावरणवर्जितः ।१६। सर्वस्यैव हि जीवस्य तावन्मात्रस्य नावृतिः । आवृतौ तु न जीवः स्यादुपयोगवियोगतः १९ जीवोपयोगशक्तेश्च न विनाशः सयुक्तिकः । स्यादेवात्यभ्ररोधेऽपि सूर्याचन्द्रमसोः प्रभा ।१८। पर्यायानन्तभागेन पर्यायो युज्यते यदा । स पर्यायसभास: स्यात् श्रुतभेदो हि सावृतिः ॥१६॥ अनन्तसङ्खचसङ्ख्ययभागवृद्धिक्षयान्वित.। सङ्खयेयासङ्घयकानन्तगुणवृद्धिक्रमेण च ।२०। स्यात्पर्यायसमासोऽसौ यावदक्षर पूर्णता। एकैकाक्षरवृद्धया स्यात् तत्समासः पदावधिः १२१५ पदमर्थपदं ज्ञेयं प्रमाणपदमित्यपि । मध्यम पदमित्येवं त्रिविधं तु पदस्थितम् ।२२। एकद्वित्रिचतुःपञ्च षट्सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्य' द्वितीयं दु पदमष्टाक्षरात्मकम् ।२३। कोट्यश्चैव चतुस्त्रिंशत् तच्छतान्यपि षोडश । यशीतिश्च पुनर्लक्षाः शतान्यष्टौ च सप्ततिः ।२४। अष्टाशीतिश्च वर्णाः स्युर्मध्यमे तु पदे स्थिताः । पूर्वाङ्गपदसङ्ख्या स्यान्मध्यमेन पदेन सा ।२५। एकैकाक्षरवृद्धया तु तत्समासभिदस्ततः । इत्थं पूर्वसमासान्तं द्वादशाक्ष श्रुतं स्थितम् । १२६ -श्रुतज्ञानके अनेक विकल्पोमें एक विकल्प एक ह्रस्व अक्षर रूप भी है। इस विकल्पमें द्रव्यको अपेक्षा अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओंसे निष्पन्न स्कन्धका संचय होता है ।१४। इस एक ह्रस्वाक्षर रूप विकल्पके अनेक बार अनन्तानन्त भाग किये जावें तो उनमें एक भाग पर्याय नामका श्रुतज्ञान होता है ।१. वह पर्याय. ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके होता है और श्रुतज्ञानावरणके आवरणसे रहित होता है ।११६। सभी जीवोंके उतने ज्ञानके ऊपर कभी आवरण नहीं पड़ता। यदि उसपर भी आवरण पड़ जावे तो ज्ञानोपयोगका सर्वथा अभाव हो जायेगा और ज्ञानोपयोगका अभाव होनेसे जीवका अभाव हो जायेगा ।१७। यह निश्चयसे सिद्ध है कि जीवकी उपयोग शक्तिका कभी विनाश नहीं होता। जिस प्रकार कि मेधका आवरण होनेपर भी सूर्य और चन्द्रमाको प्रभा कुछ अंशोंमें प्रगट रही आती है उसी प्रकार श्रुतज्ञानका आवरण होनेपर । भी पर्याय नामका ज्ञान प्रकट रहा आता है ।१८। जब यही पर्याय ज्ञान पर्याय ज्ञानके अनन्तवें भागके साथ मिल जाता है तब यह II अलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश १. भेद व लक्षण १. अर्थ लिंगज २० प्रकारका है प. वं. १३/५, सू. ४७/२६० तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स वीसदिविधा परूवणा कायया भवदि ।४७ पुवं संजोगक्रवरमेत्ताणि सुदणाणावरणाणि परविदाणि । संपहि ताणि चेव सुदणाणावरणाणि बीसदि विधाणि ति भण्णमाणे एदस्स मुत्तस्स पुव्व सुत्तेण विरोहो किण्ण जायदे। ण एस दोसो. भिण्णाहिप्पायंतादो। पुबिल्ल सुत्तमक्खरणिबंधणभेदपस्वयं, एदं पुण खओवसमगदभेदमस्सिद्रूण आवरणभेदपरूवयं । तम्हा दोसो जत्थि त्ति घेत्तव्यो। -श्रुतज्ञानाबरणीय कर्मकी २० प्रकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए।४७१ प्रश्नपहले जितने संयोगाक्षर होते हैं उतने श्रुतज्ञानावरण कर्म कहे गये हैं । अब वे ही श्रुतज्ञानावरण २० प्रकारके हैं, ऐसा कथन करनेपर इस सूत्रका पूर्व सूत्रके साथ विरोध क्यों नहीं होता । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भिन्न अभिप्रायसे यह सूत्र कहा गया है। पूर्व सूत्र अक्षर निमित्तक श्रुतभेदोंका कथन करता है, परन्तु यह सूत्र क्षयोपशमका अवलम्बन लेकर आवरणके भेदोका कथन करता है। इसलिए कोई दोष नहीं है। ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। २. अर्थ लिंगजके २० भेदोका नाम निर्देश ष. खं. १३/५.६/गा. १ व सू. ४८।२६० पज्जय-अक्खर पद-संघादयपडिवत्ति-जोगदाराई। पाहुडपाहुडवत्थू पुत्वसमासाय बोद्धव्वा ।। पज्जयावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं अक्रवरावरणीयं अक्रवरसमा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ II अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश श्रुतज्ञान २. अर्थलिंगज निर्देश १. लब्ध्यक्षर ज्ञानका प्रमाण ध. १३/५,५,४८२६२/७ किमेदस्स पमाणं केवलणाणस्स अणं तिमभागो। -प्रश्न- इसका ( लब्ध्यक्षर अ तज्ञानका) प्रमाण क्या है। उत्तरइसका प्रमाण केवल-ज्ञानका अनन्तवाँ भाग है। पर्यायसमास नामका भूतज्ञान कहलाने लगता है, यह श्रुतज्ञान आवरणसे सहित है।१६। यह पर्याय-समास-ज्ञान अनन्तभागवृद्धि, असंख्यभाग वृद्धि, संख्यातभागवृद्धि तथा अनन्तभाग हानि, असंख्यात भागहानि, एवं संख्यात भाग-हानिसे सहित हैं। पर्यायज्ञानके उपर संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुण वृद्धिके क्रमसे वृद्धि होते-होते जबतक अक्षर ज्ञान पूर्णता होती है तब तकका ज्ञान पर्याय समास ज्ञान कहलाता है। उसके बाद अक्षरसमासज्ञान प्रारम्भ होता है उसके ऊपर पद ज्ञान तक एक-एक अक्षर की वृद्धि होती है। इस वृद्धि प्राप्त ज्ञानको अक्षर-समास ज्ञान कहते हैं । अक्षर समासके बाद पदज्ञान होता है। १२०-२१ अर्थपद, प्रमाणपद, और मध्यम पदके भेदसे पद तीन प्रकारका है ।२२। इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह व सात अक्षर तकका पद अर्थपद कहलाता है। आठ अक्षर रूप प्रमाण पद होता है और मध्यम पदमें सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठसौ अठासी अक्षर होते हैं, और अंग तथा पूर्वोके पदकी संख्या इसी मध्यम पदसे होती है ।२३-२४। एक अक्षरकी वृद्धिकर पद समास लेकर पूर्व-मास पर्यन्त समस्त द्वादशांग श्रुत स्थित है ।२६। (ध.१३/१,५,४८/२६२-२७१); (ध.६/१,६-१,१४/२१२५०); (गो.जी./म्./३२२-३४६) । २. लब्ध्यक्षर ज्ञान सदा निराकरण होता है ध. १३/५.१,४८/२६२७ एवं णिरावरण, 'असवरस्साणं तिमभागो णिच्चुग्धाडिओ' ति वयणादो एदम्मि आवरिदे जीवाभावप्पसंगादो वा। एदम्हि लद्धि अक्वरे सबजीवरासिणा भागे हिदे सम्बजीवरासीदो अणंतगुणणाणाविभागपडिच्छेदा आगच्छति । -यह (लन्यक्षर) ज्ञान निराकरण है, क्योंकि अक्षरका अनन्तवाँ भाग नित्य उद्घाटित (प्रगट ) रहला है। ऐसा आगम वचन है। अथवा इसके आवृत होनेपर जीवके अभावका प्रसंग आता है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीव राशिका भाग देनेपर सब जीव राशिसे अनन्तगुणे ज्ञानाविभागप्रतिच्छेद होते हैं (१३/४,२,१४,४/४७६/५), (और भी दे. श्रु तज्ञान/II/१/३)। गो. जी./मू./३१६-३२० सुहमणिगोदअपज्जत्तस्स जादस्स पढमसम यम्हि । हवदि हु सबजहष्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं ।३१६। सुहमणिगोद अपज्जत्तगेसु सगसंभवेतु भमिऊण । चरिमापुण्णतिवक्काणादिमकट्ठियेव हवे।३२० -सूक्ष्म निगोदिया लन्ध्यपर्याप्तक जीवके उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे जघन्य ज्ञान होता है। इसीको प्रायः लन्ध्यक्षर ज्ञान कहते हैं । इतना ज्ञान हमेशा निवारण तथा प्रकाशमान रहता है ।३१। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके अपने अपने जितने भव (६०१२ ) सम्भव हैं उनमें भ्रमण करके अन्तके अपर्याप्त शरीरको तीन मोड़ाओं के द्वारा ग्रहण करनेवाले जीवके प्रथम मोड़ा के समग्रमे सर्वजघन्य ज्ञान होता है। ४. उपरोक्त ज्ञानोंकी वह संज्ञाएँ क्यों ३. पर्याय आदि ज्ञानोंमें वृद्धि क्रम ध.६/५.६-१,१४/२७/७ कधमेदस्स अक्खरववएसो। ण, दबदपडि. म यक्वरुप्पण्णस्स उबयारेण अक्खरववएसादो। - प्रश्न-उक्त प्रकारके इस श्र तज्ञानकी 'अक्षर' ऐसी संज्ञा कैसे हुई । उत्तर-नहीं, क्योंकि, द्रव्य श्रुत प्रतिबद्ध एक अक्षरसे उत्पन्न श्र तज्ञानकी उपचार से 'अक्षर' ऐसी संज्ञा है। ध.१३/५४५,४८/पृ./पं. कधं तस्स अक्खरसण्णा। खरणेण विणा एग सरूवेण अवठाणादो। केवलणाणमक्खर, तत्थ पड्ढि-हाणीणमभावादो । दम्वठियणए सुहमणिगोदणाणं तं चेवे ति व अक्खरं । (२६२१५) को पज्जओ णाम । णाणाविभागपडिच्छेदपवखेवो पज्जो णाम । तस्स समासो जेसु णाणाणेसु अत्थि तेसिं जाणठ्ठाणाणं पज्जयसमासो त्ति सम्णा (२६४२)।-प्रश्न-इसकी (सूक्ष्म निगोदियाके ज्ञानकी) अक्षर संज्ञा किस कारणसे है ! उत्तरक्योंकि यह ज्ञान नाशके बिना एक स्वरूपसे अवस्थित रहता है। अथवा केवलज्ञान अक्षर है, क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती। द्रव्याधिक नयकी अपेक्षा चूकि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका ज्ञान भी वही है, इसलिए भी इस ज्ञानको अक्षर कहते हैं। प्रश्न = पर्याय किसका नाम है। उत्तर-ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदोंके प्रक्षेपका नाम पर्याय है। उनका समास जिन ज्ञानस्थानों में होता है उन ज्ञानस्थानों में पर्याय समास संज्ञा है। परन्तु जहाँ एक ही प्रक्षेप होता है उस ज्ञानकी पर्याय संज्ञा है, क्योंकि, एक पर्यायमें उनका समास नहीं बन सकता। दे. पदा६ एक पदके १६३४८३०७८८८ अक्षरोंसे होनेके कारण ज्ञानको उपचारसे पद ज्ञान कह देते हैं। ध.६/१,६-१,१४/२१/११ तस्स (केवलणाणस्स) अणं तिमभागो पजाओणाम मदिणाणं । तं च केवलणाणं व णिराबरणमक्खरं च । एदम्हादो सुहमणिगोदलद्धि अक्वरादो जमुप्पज्जइ सुदणाणं तं पि पज्जाओ उच्च दि....तदो अणंतभागवड्ढी असंखेज्जभागवड्ढी संखेजभागवड्ढी, संखेज्जगुणवड्ढी असंखेज्जगुणवड्ढी. अणंतगुणवढी त्ति एसा एक्का छवड्ढी। एरिसाओ असंखेज्जलोगमेत्तीओ छवटीओ गंतूण पज्जायसमाससुदणाणस्स अपच्छिमो वियप्पो होदि। तमण तेहि रूवेहि गुणिदे अक्खरं णाम सुदणाणं होदि।...एदस्सुवरि अक्खरवड्ढी चेब होदि, अबराओ बढीओ णस्थि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसादो। केहं पुणं आइरिया अक्रवरसुदणाणं पिछब्बिहाए बड्ढीए वददि ति भणं ति, णेदं घडदे, सयलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागादो अक्खरणाणादो उवरि छवड्ढोणं संभवाभावा। - केवलज्ञान अक्षर कहलाता है उसका अनन्तवाँ भाग पर्याय नामका मतिज्ञान है, वह पर्याय नामका मतिज्ञान केवलज्ञानके समान निरावरण है और अविनाशी है। इस सूक्ष्म निगोद लब्धि अक्षरसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह पर्याय ज्ञान है, इस पर्याय श्रुतज्ञानसे जो अनन्त भागसे अधिक श्रुतज्ञान होता है वह पर्याय समास कहलाता है। अनन्त भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, असंख्यात, भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, और अनन्तगुण वृद्धि होती है इस प्रकार की असंख्यात लोक प्रमाण षड् वृद्धियाँ ऊपर जाकर पर्याय समास नामक श्रुतज्ञान का अन्तिम विकल्प होता है। उस ५. अक्षर ज्ञानमें कौन सा अक्षर इष्ट है ध. १३/५.१,४८/२६/५ एदेसु तिम् अक्रवरेनु केणेत्थ अक्वरेण पयदं । लद्धि अक्रवरेण, ण सेसे हि, जडत्तादो। प्रश्न-इन तीन अक्षरों में से (लम्हयक्षर, मिव त्यक्षर, और संस्थानाक्षरमेंसे) प्रकृतमें कौनसे अक्षरसे प्रयोजन है। उत्तर-नन्धि अक्षरसे प्रयोजन है,शेष अक्षरोंसे नहीं। क्योंकि वे जड़ स्वरूप हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०४-९ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान अन्तिम frerest अनन्त रूपोंसे गुणित करनेपर अक्षर- नामक होता है।इस अक्षर ज्ञान के ऊपर एक एक अक्षरकी वृद्धि होती है। अन्य वृद्विधयाँ नहीं होती हैं, इस प्रकार परम्परागत उपदेश पाया जाता है। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं। कि अक्षर ज्ञान भी छह प्रकारको वृद्धिसे भड़ता है। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि समस्त श्रुतज्ञान के संस्था भाग अक्षर-ज्ञानसे ऊपर छह प्रकारको वृद्धिधयोंका होना सम्भव नहीं है। घ. १३/५,५.४८/२६८/३ अक्खरणाणादो उवरि छविहरड्ढि परूविदवैयाक्खाणेण सह किण्ण विरोहो। ण, भिण्णाहिप्पायत्तादो। एयओसमा जेसिमाहरियाममहिपाएक एरिओसीएम अस्थि समस्या पनि एनलजेसिमाहरियाणमहिपारण सत णाणस्स संखेज्जदिभागो चैव तेसिमहिप्पाएणेदं वक्खाणं । तेण ण दोष्णं विरोहो । प्रश्न- अक्षर ज्ञान के ऊपर छह प्रकारकी वृद्धिका कथन करनेवाले वेदना अनुयोगद्वारके व्याख्यानके साथ इस व्याख्यानका विरोध क्यों नहीं होता । उत्तर-नहीं, क्योंकि उसका इससे भिन्न अभियान है। जिन आयायोंके अभिप्रायानुसार एक बरके आनेके क्षयोपन यह वृद्धियों द्वारा वृद्धि लिये हुए होते हैं उन आचार्योंके अभिप्रायको ध्यान में रखकर वेदना अनुयोगद्वार में यह व्याख्यान किया है। किन्तु जिन आचार्योंके अभिप्रायानुसार एक अक्षर श्रुतज्ञान समस्त श्रुतज्ञानके संख्यातवे भागप्रमाण ही होता है। उन आचार्यों के अभिप्रायानुसार यह व्याख्यान किया है, इसलिए इन दोनों व्याख्यानों में विरोध नहीं है। ६६ गोजी/३२२-३३२ अवरुवरिमितमयं संखं च मागवडीए संमतं गुणबड्ढी होंति हु कमेण १३२२ ॥ जीवाणं च य रासी लोग भागगुणम्हि को अदा होति छट्टाणा ॥ ३२३ ॥ उन्नकं चउर के पणछस्सत्तंक अट्ठअंकं च । छवकमोदिकरण (२२४ भागेगड्ढोगदे परवड्ढी । एकं वारं होदि हु पुणो पुणो चरिमउडती |३२| आदिमछट्ठाणमिह य पंच य बड्ढी हवंति सेसेसु । वीओ हाँति सरिसा सम्बन्ध पदसंखा | २२|चट्ठाषा आदि अकोर होदि जिहिं 1201 एव अकं कंडो रूपयिकंडरण य गुणिदकमा जावमुब्बकं । ३२८ ॥ सव्वसमासो णियमा रूवाहियकंडयस्स वग्गस्स । विंदस्स य संवग्गो होदिति फिट १३२१४ मेचित्येकदालछप्प | मतदसमं च भागं गंतॄण य लद्विअक्वरं दुगुणं । ३३०| एवं असंखजोगा अणववरप्पे हवंति छट्टाणा ते पज्जायसमासा अक्खरगं उवरि वोच्छामि ।१३१। चरिमुव्वंकेण बट्टिद अत्थ क्खरगुणिदचरिममुकं । अत्थवखरं तु णाणं होदित्ति जिणेहि णिहिट्ठ १३३२० सर्वजधन्य पर्याय ज्ञानके ऊपर क्रमसे अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्याभाग संख्यातगुण, असंख्यातगुणवृधि ग्रह बृद्धि होती हैं । ३२२ अनन्तभाग ये वृद्धि और अनन्तगुणवृधि इनका भागहार और गुणाकार समस्त जीवराशि प्रमाण अवस्थित है । असंख्यातभाग वृदिव और असंख्यात गुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार असंख्यात लोकमान स्थित है। संख्यात भागवृद्धि संधि इनका भागहार और गुणाकार उत्कृष्ट संख्यात अवस्थित है | ३२३| लघुरूप संदृष्टिके लिए क्रमसे छह वृधियोंकी ये छह संज्ञा हैं अनमा वृद्धिको एक असंख्यात भागवृद्धिको चतुर 1 11 अलग तज्ञान विशेष निर्देश के , संख्यात भागवृद्विधको पञ्चाङ्क, संख्यात गुणवृघिकी षडङ्क, असंख्यात गुणवृद्वधकी सप्ताङ्क, अनन्तगुण वृद्धिधकी अष्टांक | ३२४१ गुरुके असंख्पाट भाग प्रमाण पूर्व वृद्वि होनेपर एक बार उत्तर वृदि होती है। यह नियम की वृद्धि पर्यन्त समझना चाहिए |१२| सोक प्रमाण षट्स्थानोंमें से प्रथम स्थानों में पाँच हो वृद्धि होती हैं, अक वृद्धि नहीं होती। शेष सम्पूर्ण षट् स्थानोंमें शंकसहित वह होती है। सू संस्पात भाग अवस्थित है इसलिए पदोंकी संख्या सब जगह दश ही समझनी चाहिए । ३२६ सम्पूर्ण पदस्थानों में आदिके स्थानको अष्टांक, और अन्तके स्थानको उर्वक कहते हैं, क्योंकि जघन्य पर्यय ज्ञान भी अगुरुलघु गुणके अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा अष्टक हो सकता है | ३२७| एक षट्स्थानमें एक ही अष्टांक होता है। और सप्तांक गुलके असंख्या में भागमात्र होते हैं। इसके नीचे पक, पंचक, चतुरक क एक एक अधिक मार असंख्यात भागसे ग्रथित कम है। ३२५ एक अधिक काण्डकके वर्ग और घनको परस्पर गुणा करनेसे जो प्रमाण लब्ध आवे उतना ही एक पदस्थान पट्टियोंके प्रमाणका जोड़ है|३२| एक अधिक काण्डकसे गुणित सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अनन्त भाग वृद्धिके स्थान और गुलके असंख्यात भाग प्रमाण असंख्यात भागवृधिके स्थान, इन दो वृद्धियोंको जघन्य ज्ञानके ऊपर हो जानेपर एक बार संख्यात भागवृद्विपका स्थान होता है. इसके आगे उक्त क्रमानुसार उत्कृष्ट संख्यात मात्र पूर्वोक्त 'संख्यातवृद्विध के हो जानेपर उसमें प्रक्षेपक वृद्धिधके होनेसे लब्ध्यक्षरका प्रमाण दूना हो जाता है | ३३० | इस प्रकारसे अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानके असंख्यात लोक्प्रमाण षट्स्थान होते हैं, ये सब ही पर्याय समास ज्ञानके भेद हैं। २१ और भी सज्ञान /11/१/३ अन्तकेार समूहमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसको अन्तके उर्वकसे गुणा करनेपर अर्थाक्षर ज्ञानका प्रमाण होता है | ३३२ | ( विशेष - दे. नीचे यंत्र) एक स्थानकी संदृष्टि तदनुसार है : ३४ | ३३४ | 334 | 53४ | 33४ | 33५ | 33४33४ | 33 ४ | ३४३3५ | 33४ | 33४ ३५ ३३४ ३४ 331 ३४ ३४ ३५ ३३४ ३३४ ३५ ३३४ ३३४ ३३७ 33४ | ३३४ ३५ ३३४ | ४ | ३३५ | ३३४ | ३३४ | 33 ३३४ | ३३४ | ३३५ | ३३४ ३३४ ३५ ३३४ ३३४ 33 33४ | ३३४ ३५ ३३४ | ३३४ / ३३५ | 33४ | 33४ | 339 33४ ३४ ३३५ ३३४ 33४ | ३३५ ३३४ | 33४ | 33 ३३४ ३३४ ३३५ ३३४ / ३३४ ३३५ | ३३४ | ३३४ 33 ३३४ | ३३४ ३३५ | ३३४ ३३४ ३३५ | 33४ | ३३४ | ३3८' (क. पा. २/४-१२/१५०९/१२४२) (गो.जी.भाषा/२/१४) । ); जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान III शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष III शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष १. भेद व लक्षण १. लोकोत्तर शब्द लिंगजके सामान्य भेद त. सु./१/२० श्रुतं...चनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥ स. सि./१/२०/१२३/२ अङ्गबाह्य मङ्गप्रविष्टमिति ।१. श्रुतज्ञानके दो भेद-अंग बाह्य व अंग प्रविष्ट ये दो भेद हैं। (रा.वा./१/२०/११/ ७२/२३); (क. पा. १/१-१/९१७/२/१); (ध. १/१,१,२/६६/६); (ध.१/१,१,१११/३५७/८); (ध.१/४,१,४५/१८४/१२). २. अथवा अनेक भेद और बारह भेद हैं। ३. अंग सामान्य व विशेषके लक्षण १. अंग सामान्यकी व्युत्पत्ति ध.६/४,१,४५/१६३/६ अंगसुदमिदि गुणणामं, अङ्गति गच्छति व्याप्नोति त्रिकालगोचराशेषद्रव्य-पर्यायमित्यङ्गशब्द निष्पत्ते । अंगश्रुत यह गुणनाम है, क्योंकि, जो तीनों कालकी समस्त द्रव्य वा पर्यायौंको 'अङ्गति' अर्थात् प्राप्त होता है या व्याप्त करता है वह अंग है, इस प्रकार अंग शब्द सिद्ध हुआ है। गो. जी./जी, प्र./३५०/७४७/१७ अङ्ग्यते मध्यमपदैलक्ष्यते इत्यङ्ग ।। अथवा आचारादिद्वादशशास्त्रसमूहरूपश्रुतस्कन्धस्य अगं अवयव एकदेश आचाराद्य कैकशास्त्रमित्यर्थः।-'अङ्ग्यते' अर्थात् मध्यम पदोंके द्वारा जो लिखा जाता है वह अंग कहलाता है। अथवा समस्त श्रुतके एक एक आचारादि रूप अवयवको अंग कहते हैं। ऐसे अंग शब्दकी निरुक्ति है। २. अंग बाह्य व अंग प्रविष्ट रा.पा./१/२०/१२-१३/पृ./पंक्ति आचारादि द्वादशविधमङ्गप्रविष्टमित्युच्यते (७२/२५) यद्गणधरशिष्यप्रशिष्यैरारातोयैरधिगतश्रुतार्थतत्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचन विन्यासं तदङ्गाबाह्यम् । (७/३)= आचारसंग आदि १२ प्रकारका ज्ञान अंगप्रविष्ट कहलाता है। (७२/२५) गणधर देवके शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु-बुद्धि बलवाले प्राणियों के अनुग्रहके लिए अंगोंके आधारसे रचे गये संक्षिप्त ग्रन्थ अंगबाह्य हैं। दे. श्रुतज्ञान/II/९/३ पूर्व ज्ञानका लक्षण ! दे, अग्रायणी/अमायणीके लक्षणका भावार्थ । ३, अंग प्रविष्ट व अंग बाह्य के भेद १. अंगप्रविष्टके भेद स. सि./१/२०/१२३/३ अङ्गप्रविष्टं द्वादश विधम् । तद्यथा, आचारः सूत्रकृतं स्थानं समवायः व्याख्याप्रज्ञप्तिः ज्ञातृधर्मकथा उपासकाध्ययन, अन्तकृतदर्श अनुत्तरोपपादिकदशं प्रश्नव्याकरणं विपाकसूत्रं दृष्टिप्रवाद इति ।- अंगप्रविष्टके बारह भेद है-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्यापाप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्न व्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद । (रा. वा /१/२०/१२/७२/२६); (ध. १/१.१.२/88/१); (ध.४/१,४४/१९२६) (ध.६/४,१,४५/१९७१)(के. पा. १/१-२/ १८/२६/२); (गो.जी./मू-/३६६-३५७/७६०)। २. दृष्टिवादके पॉच भेद स.सि./१/२०/१२३/५ दृष्टिवादः पञ्चविधः-परिकर्म सुत्र प्रथमानुयोगः पूर्वगतं चूलिका चेति ।-दृष्टिवादके पाँच भेद हैं. परिकम, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । (रा. वा./१/२०/१३/७४/१०); (ह. पु./१०/६१); (घ, १/१,१,२/१०६/४); (ध. १/४,१,४०/२०४/ ११); (क. पा. १/१-१/१६/२६/५); (गो. जो./मू./३६१.३६२/ ७७२ )। ३. पूर्वगतके १४ भेद स. सि./१/२०/१२३/६ तत्र पूर्वगतं चतुर्दशविधम् - उत्पादपूर्व . आग्राय णीयं, वीर्यानुप्रवादं अस्तिनास्तिप्रवादं ज्ञानप्रवाई सत्यप्रवाद आरमप्रवादं कर्मप्रवाद प्रत्याख्याननामधेयं विद्या नुप्रवाद कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशाल लोकबिन्दुसारमिति ।- पूर्वगतके चौदह भेद हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनारित प्रयाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल, और लोकबिन्दुसार। (रा. वा./१/२०/१२/७४/११); (ध. १/१,१,२/११४/8); (ध.१/४,१,४५//२१२/५); (क.पा.१/१-१/६२०/२६/७); (गो. जो./म् /३४५-३४६/७४१)। ४. चूलिकाके पाँच भेद ह.पु./१०/१२३ जलस्थलगताकाशरूपमायागता पुनः । चूलिका पञ्चधान्व र्थसंज्ञा भेदवती स्थिता ।१२३-चूलिका पाँच भेदवाली है-जलगता, स्थलगता, आकाशगता, रूपगता और मायागता। ये समस्त भेद सार्थक भेदवाले हैं ।१२३। (ध. १/१,१,२/११६/१); (घ, १/४,१,४५॥ २०६/१०)। ५. अग्रायणी पूर्वके भेद ध, १/१,१,२/१२३/२ तस्स अग्गेणियस्स पंचविहो उवक्कमो, आणुपुवी णाम पमाणं वत्तबदा अत्थाहिचारो चेदि । अग्रायणीय पूर्वके पाँच उपक्रम हैं-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार । (ध.६/४,१,४५/२२६/६) । ६. अंग बाह्यके भेद रा. वा./१/२०/१४७८/६ तदङ्गबाह्यमनेकविधम्-कालिक मुत्कालिकमित्येवमादिविकल्पात् । स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम् । अनियतकालमुत्कालिकम् । तदभेदा उत्तराध्ययनादयोऽनेक विधाः । = कालिक, उत्कालिकके भेदसे अंग बाह्य अनेक प्रकारके हैं। स्वाध्याय काल में जिनके पठन-पाठनका नियम है उन्हे कालिक कहते हैं, तथा जिनके पठन पाठनका कोई नियत समय न हो वे उत्कालिक हैं। उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ अंगबाह्य अनेक प्रकार हैं। (स. सि./१/२०/१२३/२)। ध.१/१,१,१/१६/६ तत्थ अगबाहिरस्स चोद्दस अत्थाहियारा। तं जहा. सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणा पडिक्कमणं वेणइयं किदियम्मं दसवेयालियं उत्तरायणं कप्पव्यवहारो कप्पाकप्पियं महाकप्पियं पुंडरीयं महापुंडरीपं णिसि हियं चेदि । - अंगबाह्यके चौदह अर्थाधिकार हैं। वे इस प्रकार हैं - सामायिक, चतुर्विशतिःतव, बन्दना, प्रतिक्रमण, वै नयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कलपव्यवहार, कलप्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धका । (ध.६/४.१,४/१८७/१२), (क. पा./१/१-१/६१७१२६/१), (गो. जी./मू./३६७-३६८/७८६) । ४. अंग प्रविष्टके भेदोंके लक्षण १. १२ अंगोंके लक्षण रा,वा./१/२०/१२/-७२/२८ से ७४/8 तक-आचारे चर्या विधान शुद्धयटकपञ्च समितित्रिगुप्तिविकल्प कथ्यते । सूत्रकृते ज्ञानविनयप्रज्ञापना कतप्याकलप्यच्छेदोपस्थापना व्यवहारधमक्रियाः प्ररूप्यन्ते । स्थाने अनेकाश्रयाणामर्थानां निर्णयः क्रियते । समवाये सर्व पदार्थानां जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ 44 समरायश्चिन्त्यते स चतुर्विधयक्षेत्रकाभावः तत्र धर्माधर्माका काका जीवन तुल्या संख्येयप्रदेशत्वात् एकेन प्रमाणेन द्रव्याणां समवायनाद द्रव्यसमवायः । व्याख्याप्रो टिम्याकरणसहस्राणि 'किमस्ति जीवः नास्ति इत्येवमादोनि निरूप्यते ज्ञातृधर्मकथा आपल्या महुप्रकाराणां कथनम् । उपासकाध्ययने श्रावकधर्मलक्षणम् । ... ऋषभादीनां तीर्थेषु दश दशानागरा दशदश दारुणानुपसर्गान्निर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृतः दश अस्यां वर्ण्यन्ते इति अन्तकृद्दशा । .. एवमृषभादीनां तीर्थेषु दवा दश अनागारा दश दश दारुगानुप सर्गनिजि विजयाद्यनुसरेपन्ना इत्येवमनुत्तरोपपादिकाः दशास्यां मयत इत्यनुपपादिकदशा प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्, तस्मिल्लौकिकवैदिकानामर्थानां निर्णयः विपाकसूत्रे सुकृतदुकृतानां विपाकश्चिन्त्यते द्वादशम दृश्यादइष्टि शतान या पितरानी प्ररूपण निग्रहस्य। - आचारोग में चर्याका विधान काठ शुद्धि पाँच समिति दोन गुप्ति आदि रूपसे वर्णित है ज्ञान-विनय, क्या य है क्या है घेोपस्थापनादि व्यवहारधर्मको क्रियाओंका निरूपण है। स्थानांग में एक-एक दो-दो आदिके रूपसे अर्थोका वर्णन है। समवार्यागमें सब पदार्थोंकी समानता रूपसे समवायका विचार किया गया है। जैसे धर्म-अधर्म लोकाकाश और एक जीवके तुल्य असंख्यात प्रदेश होनेसे इनका द्रव्यरूपसे समवाय कहा जाता है। ( इसी प्रकार यथायोग्य क्षेत्र, काल, व भावका समवाय जानना) व्याख्याप्रज्ञप्तिमें 'जीव है कि नहीं' आदि साठ हजार प्रश्नोंके उत्तर हैं। ज्ञातुधर्मकथा अनेक आख्यान और उपाख्यानोंका निरूपण है। उपासकाध्ययनमें धावकधर्मका विशेष विवेचन किया गया है। अन्तकृदशांग प्रत्येक तीर्थकरके समयमे होने वाले उन दश दश अन्तकृत केवलियोंका वर्णन है जिनने भयंकर उपसगको सहकर मुक्ति प्राप्त को ... अनुसारोपपादिकदश में श्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले उन दश-वश मुनियोंका वर्णन है। जिनने दारुण उपसर्गों को सहकर... पाँच अनुत्तर विमानों में जन्म लिया। प्रश्न व्याकरणमें युक्ति और नयोंके द्वारा अनेक आक्षेप और विशेष रूप प्रश्नोंका उत्तर दिया गया है। विपाक-सूत्र में पुण्य और पापके विपाकका विचार है। बारहवाँ दृष्टि प्रवाद अंग है. इसमें २६३ मतोंके निरूपण पूर्वक लण्डत है ( २६३ मतोंके लिए दे० एकान्त / २ / २) (ह./१०/२७-४६), (थ. १/१.१.२/६१-१०६). (४१७-२०३ (पी. जी. जी. १/२५६३४७/७६०-७६६)। श्रुतज्ञान + २. दृष्टिवादके प्रथम तीन भेदोंके लक्षण घ. १/१.१.२/१०१-१९१/४ तस्स पंच अत्याहियरा हमेत परिय तपाभियोगबूलिया चेदिपरियविहं से जहा चंदपणासी सुरपणी जंमुदीवासी दोवसायपापणी दिनाम..चंदापरिवारिद्धि गहन कुश सूरत...सुरस्यायु भोगोवभोग परिवार यह बिस्सेह विकिर कुण दीपति... जंबूदीचे पाणानि मया भोगक भूमियाणं अण्णेसिं च पव्वद दहणवण्णणं कुणइ । दीवसायरप पत्तदोवसायरमाणं अण्णंवि दीवसायरं तम्भूदत्थं महुभेयं वण्णेदि । विवाहपणची नाम अजीवदन्वं भवसिद्धियय राशि · ' दि सु... अमले अवता अमोला जिन्गुणो ...अपेति मेदिपमानियागो पंच सहस्सपदेहि... पुराणं ममेदिहिवदके पाँच अधिकार है, परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग, पूर्वगत और पूलिका उनसे चन्द्रग्रह सूर्य जम्बूद्वीपमति द्वीपसागरप्रति और व्याख्यासि इस तरह + 11 सब्द लिंग श्रुतज्ञान विशेष परिकर्म के पाँच भेद है। चन्द्रमति नामका परिकर्म चन्द्रमाकी आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और बिम्बकी ऊँचाई आदिका वर्णन करता है। सूर्य सूर्यकी आयु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, बिम्बकी ऊँचाई आदिका वर्णन करता है । जम्बूद्वीप प्रज्ञति जम्बूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए नाना प्रकारके मनुष्य तथा दूसरे तिथंच आदिका पर्वत, द्रह, नदी आदिका वर्णन करता है। सागर प्रज्ञप्ति नामका परिकर्म द्वीप और समुद्रोंके प्रमाणका तथा द्वीपसागर के अन्य नानाप्रकार के दूसरे पदार्थोंका वर्णन करता है व्याख्या पुग धर्म, अधर्म, आकाश और काल भव्यसिद्ध और अभव्यसिध जीव, इन सबका वर्णन करता है। सूत्र नामका अर्धाधिकार जीव अवन्धक ही है, अलेक हो है ही है. अभोक्ता ही है. इत्यादि रूपये ३६३ मतोंका पूर्वपक्ष रूपसे वर्णन करता है। ( ३६३ मतोंके लिए दे० एकान्त/५/२) प्रथमानुयोग पुराणोंका वर्णन करता है (ह. पु०/१०/६१-०१), (घ. ६/४, १.४३ / २०६ - २०६). (गो. जी. / जी. म./१६१-२६२/०७२ ) । ३. दृष्टिवाद के चौथे भेदः पूर्वगतके १४ भेद व लक्षण श. मा./१/२०/१२/~७४/११ से ७०/२ तक पूर्व चतुर्दशत्रकार ...जीवानां यथा यत्र यथा च पर्यायेोत्पाद ब तदुपादपूर्व क्रियावादादोनां प्रक्रिया अद्रायणीय अद्गादीनां स्वसमय यत्र स्थापितस्तदप्रायण केसिनीसुरेन्द्र दैत्याधिपानी शुद्धयो नरेन्द्रचक्रधरमलदेवानां च वीर्यलाभों द्रव्याणां सम्यक्त्वलक्षणं च यत्राभिहितं तद्वीर्यप्रवादम् । पञ्चानामस्तिकायानामय नयानां चानेकपर्यायै यत्रावभासितं हस्तिनास्तिप्रमादम्। पश्चानामपि ज्ञानानां इन्द्रियाणां च प्राधान्येन यत्र विभागो विभावितः तज्ज्ञानप्रवादय मानिसंस्कारकारणत्रयोगी द्वादशधा भाषावक्तारश्चानेकप्रकारमृषाभिधानं यत्र प्ररूपितः तव सत्यप्रवादम् ।...यत्रात्मनोऽस्तित्वनास्तित्व धर्माः षड्जीवनिकायभेदाश्च युतितो निर्दिशः मोदोषदामनिर्भ पर्याया स्थितिरपत्र निर्दिश्यतेामत-नियमप्रतिक्रमणश्रामण्य कारणं च परिमितापरिमिताद्रव्यभावप्रत्याख्यानं च यत्राख्यातं तत्प्रत्याख्याननामधेयम् । .... अष्टौ महानिमित्तानि तद्विषयो रज्जुराशिविधिः क्षेत्र श्रेणी दोकप्रतिष्ठा संस्थान समुद्रयातश्च पत्र कथ्यते तद्वियानुनाद ...रविशशि मनक्षत्रहाराणां चारोपपादयतिविपर्ययफलानि शकुन व्याहृतम् अमलदेव वासुदेव-चक्रधरादीनां गर्भावतरणादिमहात्मानि यत्रोतानि तद्यानामधेय कायचिकित्साद्यहाआयुर्वेदः भूतिकर्म-वाङ्गुलिकप्रक्रमः प्राणापान विभागोऽपि यत्र विस्तारेण मस्तिद प्राणानायम् देखादिका: कलाद्वासप्ततिः, गुणारचतुःषष्टिस्त्रेणाः, शिल्पानि काव्यगुणदोषक्रियान्दोविचित कियाोकार व व्याख्याताः क्रियाविशाल यत्रा व्यवहाराचत्वारि बीजानि परिकर्मराशिक्रियाविभागश्च सर्व भिन्दुसार पूर्वगतके उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेद है-उत्पाद जीवादिका जहाँ जम जैसा उत्पाद होता है उसका वर्णन है। अप्रावणी पूर्व क्रियामार आदिको प्रक्रिया और स्वाविवेचित है। पाद उग्रस्थ और केवली की शक्ति सुरेन्द्र असुरेन्द्र आदिको ऋद्धियाँ नरेन्द्र चक्रवर्ती बलदेव आदिकी सामर्थ्य द्रव्योंके लक्षण आदिका निरूपण है। अस्तिनास्तिप्रवादमें पाँचों अस्तिकायोंका और नयाँका अस्ति नास्ति आदि अनेक पर्यायों द्वारा विवेचन है। ज्ञानप्रमादमें पाँचों ज्ञानों और इन्द्रियोंका विभाग आदि निरूपण है। .... सत्यप्रवाद पूर्व में बारगुप्ति, वचन संस्कार के कारण, वचन प्रयोग बारह प्रकारकी भाषाएँ, दस प्रकारके सत्य, वक्ता के प्रकार आदि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश .. .. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान III शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष का विस्तारसे विवेचन है । .. आत्म प्रवादमें आत्म द्रव्यका और छह जीव निकायोंका अस्ति-नास्ति आदि विविध भंगोंसे निरूपण है। कर्मप्रवादमें कर्मोको बन्ध उदय उपशम आदि दशाओंका और स्थिति आदिका वर्णन है। प्रत्याख्यान मवादमै ब्रत-नियम, प्रतिक्रमण, तप, आराधना आदि तथा मुनित्वमें कारण द्रव्योंके त्याग आदिका विवेचन है। विद्यानुवाद पूर्व में समस्त विद्याए आठ महा निमित्त, रज्जुराशिविधि, क्षेत्र, श्रेणी, लोक प्रतिष्ठा, समुद्वघात आदिका विवेचन है। कल्याणवार पूर्वमें सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारागणोंके चार क्षेत्र, उपपादस्थान, गति, बक्रगति तथा उनके फलोंका, पक्षीके शब्दोंका और अरिहन्त अर्थाद तीर्थकर, बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती आदिके गर्भावतार आदि महाकल्याणकोंका वर्णन है। प्राणावाय पूर्व में शरीर चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म, आंगुलिकक्रम (विष विद्या) और प्राणायामके भेद-प्रभेदोंका विस्तारसै वर्णन है । क्रिया विशाल पूर्व में लेखन कला आदि बहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बन्धी चौंसठ गुणोंका, शिल्पकलाका, काव्य सम्बन्धी गुण-दोष विधिका और छन्द निर्माण कलाका विवेचन है । लोकबिन्दुसारमें आठ व्यवहार, चार बीज, राशि परिकर्म आदि गणित तथा समस्त श्रुतसम्पत्तिका वर्णन है । (ह.पु./१०/७५-१२२); (ध.१/१,१,२/११४-१२२), (ध.१/४,१,४५/२१२-२२४/१२); (गो.जी./जी. प्र./६६५-६६६/७७८ )। ४. दृष्टिवादके ५ भेद रूप ५ चूलिकाओंके लक्षण ध.१/१,१,२/११३/२ जलगया...जलगमण-जलत्थ भण कारण-मंत-संततवच्छरणाणि वण्णेदि । थलगया णाम.. भूमि-गमण-कारण-मंत-तंततवच्छरणाणि अत्यु-विवं भूमि-संबंधमण्णं पि सुहासुह-कारणं यण्णेदि । मायागया.. इंदजालं वण्णेदि । रूवगया...सीह-हयहरिणादि-रूवायारेण परिणमण-हेदु-मंत-तंत-तवच्छरणाणि चित्तकट्ठ-लेप्प-लेण-कम्मादि-लवरवणं च बण्णेदि। आयासगया णाम... आगास-गमण णिमित्त-मंत-तंत तवच्छरणाणि वण्णेदि । - जलगता वृलिका-जल में गमन, जलस्तम्भनके कारण भूत मन्त्र तन्त्र और तपश्चर्या रूप अतिशय आदिका वर्णन करती है। स्थलगता चूलिका-पृथिवीके भीतर गमन करनेके कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणरूप आश्चर्य आदिका तथा वास्तु विद्या और भूमि सम्बन्धी दूसरे शुभ-अशुभ कारणोंका वर्णन करती है। मायागता चूलिकाइन्द्रजाल आदिके कारणभूत मन्त्र और तपश्चरणका वर्णन करती है। रूपगता चूलिका-सिंह, घोड़ा और हरिण आदिके स्वरूपके आकार रूपसे परिणमन करनेके कारणभूत मन्त्र-तन्त्र और तपश्चरण तथा चित्र-काष्ठ-लेप्य-लेन कर्म आदिके लक्षणका वर्णन करती है। आकाशगता चूलिका-आकाशमें गमन करनेके कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणका वर्णन करती है। (ह.पू./१०/१२४): (ध.६/४,१,४५/२०१-२१०); (गो, जी./जी.प्र./३६१३१२/७७३/५)। ५. अंग बाह्यके भेदोंके लक्षण ध, १/१,१,२/१६-१८/९ जं सामाश्यं तं णाम ठवणा-दब्बवनेत्त-कालभावेसु-समत्त विहाणं बण्णेदि। चउवीसत्थओ चउवीसह तित्थयराणं वेदण-विहाण-तण्णाम संठाणुस्सेह-पंच-महाकल्लाण-चोत्तीसअइसयसरूवं तिस्थयर-वंदणाए सहलस च वण्णेदि। वंदणा एगजिण-जिणालय-विसय-बंदणार हिरवज्ज-भावं धणे । पठिकमणं काल पुरिसं च अस्सिऊण सत्तविह-पडिकमणाणि वण्णेइ । वेणश्य णाण-दसण-चरित्त-तवोक्यारविणए वण्णेइ। किदियम्मं अरहंतसिद्ध-आइरिय-महुसुद-साहूणं पूजाविहाणं वण्णेइ । दसवेयालिय आयार-गोयर-विहिं वण्णेई । उत्तरम्झयणं उत्तर-पदाणि वण्णेइ । कम्पबबहारो साहूणं लोग्गमाचरणं अकप्प-सेवणाए पायच्छित्तं च वण्णेइ । कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदि ज च ण कप्पदि तं सव्व वणे दि। महाकप्पियं कालसंघडणाणि अस्सिऊण साहु-पाओग्गदन-खेत्तादीण वण्णणं कुणइ । पुंडरीयं चउबिह-देवेमुववादकारणअणुष्वाणाणि वण्णेइ । महापुंडरीयं सयलिंद-पडिइंदे उप्पत्तिकारणं वण्णेइ । णिसिहियं बहुविह-पायच्छित्त-विहाण-वण्णणं कुणइ । सामायिक नामका अंगबाह्य समता भावके विधानका वर्णन करता है। चतुर्विशति स्तव चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करनेकी विधि, उनके नाम, संस्थान, उत्सेध, पाँच महाकल्याणक, चौंतीस अतिशयोंके स्वरूप और तीर्थंकरों की वन्दनाकी सफलताका वर्णन करता है। बन्दना एक जिनेन्द्र देव सम्बन्धी और उन एक जिनेन्द्र देवके अबलम्बनसे जिनालय सम्बन्धी वन्दनाका वर्णन करता है। सात प्रकारके प्रतिक्रमणोंका प्रतिक्रमण वर्णन करता है। वैनयिक पाँच प्रकारको बिनयोका वर्णन करता है। कृतिकर्म अरहन्त, सिद्ध आचार्य और साधुको पूजा विधिका वर्णन करता है। दश वैकालिकोंका दशवकालिक वर्णन करता है। तथा वह मुनियोंकी आचार विधि और गोचरविधिका भी वर्णन करता है। जिसमें अनेक प्रकारके उत्तर पढनेको मिलते हैं उसे उत्तराध्ययन कहते हैं। इसमें चार प्रकारके उपसर्ग कैसे सहन करने चाहिए। बाईस प्रकारके परिषहाँको सहन करनेकी विधि क्या है ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तरोंका वर्णन किया गया है। कल्प्य व्यवहार साधुओंके योग्य आचरणका और अयोग्य आचरणके होने पर प्रायश्चित्त विधिका वर्णन करता है। कल्प्याकल्प्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा मुनियों के लिए यह योग्य है और यह अयोग्य है' इस तरह इन समका वर्णन करता है। महाकल्प्य काल और संहननका आश्रय कर साधुके योग्य द्रव्य और क्षेत्रादिका वर्णन करता है। पुण्डरीक भवनवासी आदि चार प्रकारके देवों में उत्पत्तिके कारण रूप, दान, पूजा, तपश्चरण आदि अनुष्ठानोंका वर्णन करता है। महापुण्डरीक समस्त इन्द्र और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति के कारण रूप तपो विशेष आदि आचरणका वर्णन करता है। निषिद्धि अर्थात बहुत प्रकारके प्रायश्चित्तके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको निषिद्धिका कहते हैं। (ह. पु./१०/१२६-१३८); (ध. ६/४,१,४५/१८८ १६१): (गो. जी./जी.प्र./३६७-३६/७८६) । २. शब्द लिंगज निर्देश १. बारह अंगोंमें पद संख्या निर्देश (ह. पु./१०/२७-४५): (ध. १/१,१.२/१६-१०७), (च.६/४,१,४५/१९७ २०३); (गो. जी./जी.प्र./३५६-३६०/७६०-७७०)। नाम पद संख्या क्र. नाम पद संख्या आचारांग सूत्रकृतांग | स्थानांग ११७०००० २३२८००० | समवायोग व्याख्या प्र० ((श्वे:भगवतीसूत्र ज्ञातधर्मकथा १८००० उपासकाध्ययन ३६००० अन्तकृदशांग ४२००० |8अनुत्तरोपपादिक दशांग १६४०००१० प्रश्न व्याकरण २२८०००११ विपाक सूत्र १२ दृष्टिबाद ५६००० कुलपद ६२४४००० ६३१६००० १८४००००० १०८६८५६०५ ६॥ ११२८३५८० - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान २. दृष्टिबाद अंग पद संख्या निर्देश ( ह. पु. /१०/६३-७१, १२४); (ध. १ / १,१.२/१०६-११३); (घ, १/४१,४५/ २०६-२१०) : (गो, जी./मू./३६३-३६४/७७५) । पद संख्या क्र. ९ परिकर्म नाम ५ व्याख्या २ सूत्र ३ प्रथमानुयोग क्र. १ चन्द्र प्रज्ञप्ति २ सूर्य | ३ जम्बू द्वीप ४ द्वीप समुद्र ७ " 11 ५ ज्ञान प्रवाद ६सत्यप्रवाद नाम १ उत्पाद पूर्व २ अायणीवपूर्व ३भीर्यानुवाद पूर्व ४ अस्तिनास्ति प्रवाद आत्म प्रवाद कर्म प्रवाद प्रत्याख्यानप्रबाद १० विद्यानुवाद ११ कल्याण नामधेय २. चौदह पूर्व पदादि संख्या निर्देश पूर्वोमें १२ प्राणावाय १३ क्रिया विशाल १४ लोक बिन्दुसार ३२५००० ५२३६००० ४ पूर्वगल ३६०५००० ५ चुलिका ३०३००० १' जलगता २ स्थलगता ३ आकाशगता. ४ रूपगता ८४३६००० ८८००००० (इ.पू./१०/०५-१२०) (४. २/१.१.२/१९४-११२) (४. १/४.१.४१/२१२२२४.२२६) (क. १. १/१-१/१२०/२६/१०) (गो.जी./३६२288/0001 क्र. नाम ५००० ६ | कुल जोड़ ५ मायागता १८ १२ १२ १६ वस्तुगत प्राभृत दि० श्वे १० १४ ८ २०० २८० १०८ ३५० २४० ४० ३२० ४०० २० ३० २० ६०० १५ ३०० पदसंख्या १०. २०० १० २०० १० २०० १०२० २०० देखो अंगलाई शीर्षक २०६७६२०५ | १०४८६६०२५ पद संख्या १००००००० ६६००००० ७०००००० ६०००००० ७० *888888 १००००००६ २६००००००० १८०००००० ८४००००० ११०००००० २६००००००० १३००००००० ६००००००० १२५०००००० ४. अंग बाह्य के चीदह भेदोंमें पद संख्या निर्देश 1 .पू./१०/१२०-१२० सहस्राणि पञ्चसरयेकविदातिः कोटी प पदसंख्येयं वर्णाः सप्तैव वर्णिताः | १२७५ पञ्चविंशतिलक्षाश्च त्रयस्त्रिशच्छतानि च। अशीतिः श्लोकसंख्येयं वर्णाः पञ्चदशात्र १२८|पुतज्ञानके समस्त अक्षरोंका संग्रह आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर प्रमाण है (८०१०८१७५) | १२७| और इसके समस्त श्लोकोंकी संख्या पच्चीस लाख तीन हजार तीन सौ अस्सी तथा शेष पन्द्रह अक्षर प्रमाण है । १२८ । (२५०३३०० + १५ अक्षर)। ५. यहाँपर मध्यम पदसे प्रयोजन है। घ. १३/५,५,४८/२६६/७ एदेसु केण पदेण पयदं । मज्झिमपदेण । स च-तिहिं पदमुट्ठि पमाणपदमत्थमज्झिमपदं च । मज्झिमवृता गपदविभागो ११ प्रश्न- इन पदों (अर्थपर प्रमाणपद, मध्यमपद) मेंसे प्रकृत में किस पदसे प्रयोजन है। उत्तरमध्यम पदसे प्रयोजन है, कहा भी है--पद तीन प्रकारका कहा गया है अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद। इनमें से मध्यम पदके द्वारा पूर्व और अंगों का पद विभाग कहा गया है | १६ | ६. इन ज्ञानोंका अनुयोग आदि शानों में अन्तर्भाव १३/५०२.४८/२०६१ अंगमाहरोह समययामा आयारादिका रसंगाई परियम्म- सुचण्डमाणियोगचूतिया क गच्छति। अभियोगहारे रास्स समासे या तस्सा बतादो। ण पाहुडपाहुडे तस्समासे वा, तस्स पुब्वगयअवयव तादो। परियम्मत-पाणियोग-पुलियाओ एवारस अंगाई मा पुव्वगयावयवा । तदो ण ते करंथ वि लयं गच्छति। ण एस दोसो, कोर-समासा च तम्माबादो न च अभियोगहारतस्समासेहि पाहुडपाडावयमिदि नियमो थि निष्पाभावाद अथना, पडिवति समासे एसियाम दत्तपावीर पुन विवक्खियार समा गच्छति त्ति बत्तवं प्रश्न- अंगमाह्य, चौदह प्रकीर्णकाध्याय, आचार आदि ११ अग, परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग और चूलिका, इनका किस श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव होता है। प्रथमानुयोग या अनुयोगद्वारसमासमें तो इनका अन्तर्भाव हो नहीं सकता, क्योकि ये दोनों प्राभृतप्राभृतश्रुतज्ञानसे प्रतिबद्ध हैं। प्राभृतप्राभृत या प्राभृतप्राभृतसमास में भी इनका अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि ये पूर्वगढ़के अध्यक्ष है परन्तु परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग, भूतिका और ११ बंग पूर्वगत अवयन नहीं है इसलिए इनका किसी भी सज्ञानके भेद अन्तर्भाव नहीं होता है। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमासमें इनका अन्त होता है। अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमास प्राभृतप्राभृतके अवयव होने चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि इसका कोई निषेध नहीं किया है। अथवा प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान में इनका अन्तर्भाव कहना चाहिए। परन्तु पश्चादानुपूर्वीकी विवक्षा करनेपर इनका पूर्वसमास होता है, यह कहना चाहिए । श्रुतज्ञान व्रत क श्रुतज्ञान व्रत - इस व्रत की विधि दो प्रकारसे वर्णन की गयी हैलघु व बृहद् । ९.१२ 1 1 मा पर्यन्त सोमा तीन सीज ४ चौथी घटके, मी, मी नवमी १० दशमी, १९ एकादशीके, १२ द्वादशी, १३ त्रयोदशी, १४ चतुर्दशी के पन्द्रह पूर्णिमाओं के और १२ अमावस्याओंके, इस प्रकार कुल १४८ उपवास करे। प्रत्येक उपवास के साथ १ पारणा आवश्यक है। कुल उपवास १४८ करे तथा 'ओं ह्रीं द्वादशांगश्रुतज्ञानाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (किशन कृत क्रियाकोष) (विधान सं. पू. १७९)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - २. बृहद् विधि - ६ वर्ष ७ माह पर्यन्त निम्न प्रकार उपवास करें। मतिज्ञानके २८ डिमाके २८ उपवास २८ पारणा; ग्यारह अंगों के ११ एकादशियोंके ११ उपवास ११ पारणाः परिकर्मके २ दोजके २ उपवास २ पारणा; सूत्रके अष्टमियों के उपवास पारणाः प्रथमानुष्योगका १ नवमीका १ उपमास १ पारणा; १४ पूर्वके १४ चतुर्दशियों के १४ उपवास १४ पारणा: पाँच चूलिकाके ५ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत ज्ञानावरण ७१ पंचमियोंके ५ उपवास ५ पारणा अवधिज्ञानके ६ षष्ठियोंके - ६ उपवास ६ पारणा; मनःपर्यय ज्ञानके २ चौथोंके २ उपवास २ पारणा, केवलज्ञानके १ दशमीका १ उपवास १ परिणा । इस प्रकार कुल १५८ उपवास करे । तथा 'ओं ह्रीं श्रुतज्ञानाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे विधान सं./१३२) (हि तरंगिनी)। श्रुत ज्ञानावरण - दे. ज्ञानावरण श्रुत ज्ञानी दे. श्रुतकेवली । | | श्रुत तीर्थं - दे. इतिहास ४ । श्रुत पंचमी व्रत - पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला ५ को "तारके उपलक्षमें उपवास करे जो हो द्वादशानाय नम:' इस मन्त्रकी त्रिकाल जाप करे। (व्रत विधान सं./ पृ. १०) । श्रत भावना दे. भावना / १ । अंत मूढ मूढ । = श्रुतवाद. १३/२-२२०/२००/१२ पु द्विविधं प्रविष्टम बाह्यमिति । तदुच्यते कथ्यते अनेन वचनकलापेनेति श्रुतवादी द्रव्यश्रुतम् । सुदवादोति गदं । श्रुत दो प्रकारका है-अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य । इसका कथन जिस वचन कलापके द्वारा किया जाता है वह द्रव्यश्रुतश्रुतवाद कहलाता है। इस प्रकार श्रुतवाद का कथन किया। " श्रुतसागर नन्दिसंघ बलात्कार गण की सूरत शाखा में । ( दे. इतिहास) आप विद्यानन्द सं. २ के शिष्य तथा श्रीचन्द्रके गुरु थे । कृति - यशस्तिलक चम्पूकी टीका यशस्तिलकचन्द्रिका, स्वावृत्ति (सागरी) तत्त्वत्रय प्रकाशिका (ज्ञानायके गद्य भागकी टीका) प्राकृत व्याकरण, जिनसह नाम टीका, विक्रमप्रवन्धकी टीका, औदार्यचिन्तामणि तीर्थदीपक, श्रीपाल चरित, यशोधर चरित महाभिषेक टीका (पं. आशाधर के नित्यमहोद्योतकी टोका); तस्कन्ध पूजा, सिद्धचकाटपूजा, सिद्धभक्ति, बृहद कथाकोष, षट् प्राभृतकी टीका । व्रत कथाकोष । समय-महाभिषेक टीका वि. १५८२ में लिखी गयी है। तदनुसार इनका समय वि. १५४४ - १५६० (ई. १४८७-१५३३ ); ( सभाप्य तत्त्वार्थाधिगम/प्र./२ टिप्पण प्रेमजी); (पं.वि.प्र. ३५ / A N. Up ); ( प.पु.प्र./६३ A.N, Up): (ती./१/१११) (/२/३७६) (दे. इतिहास /७/४) । 1 1 श्रुतस्कंध पूजा - दे. पूजापाठ । श्रुतस्कंध व्रत- इस व्रतकी विधि उत्तम, मध्यम व जधन्यके भेद से तीन प्रकारकी है- उत्तम विधि - भाद्रपद कृ. १ से आश्विन कृ. २ तक ३२ दिनमें एक उपवास एक पारणा क्रमसे. १६ उपवास करे। मध्यमविधि - भाद्रपद कृ. ६ से शुक्ला १५ तक २० दिनमें उपरोक्त ही प्रकार १० उपवास करे। लघुविधि-भाद्रपद शुक्ला १ से आश्विन कृ. १ तक १६ दिनों में उपरोक्त ही प्रकार में उपवास करे। तीनों ही विधियों में 'ओ ह्रीं श्रीजिनमुखोइ भूतस्याद्वादनयगभिद्वादशांग श्रुतज्ञानाय नमः इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। ( व्रत विधान सं./७०); ( किशनसिंह कृत क्रिया कोष ) | श्रुतावतार - १. भगवान् महावीरके पश्चात केवली व श्रुतकेवतियोंकी मूल परम्पराको ही सुतावतार नामसे कहा गया है। दे. इतिहास / ४ / १ । २. आ, इन्द्रनन्दि ( ई. श. १०-११) द्वारा रचित प्राकृत गाथाम भगवात् महावीरके निर्माणसे १८३ वर्ष पर्यन्तकी मूलसंघकी पट्टावली । ३. आ. श्रीधर ( ई. श. १४) द्वारा रचित प्राकृत छन्दबद्ध ग्रन्थ । बुतिगम्य - रा. बा.४/४५२/१२/२६०/२० अनपेक्षितवृत्तिनिमित्तः श्रेणी श्रुति मात्र प्रापितः श्रुतिगम्यः । अनपेक्षित रूपसे प्रवृत्ति में कारण मितभूतिगम्य है। श्रुतिकल्याण व्रत . श्रेदि - Arithmetical and Geometrical progression, श्रेणिक-म. पु. / ७४ / श्लोक सं. पूर्व भव सं २ में खदीरसार नामक भी था | ३६ | पूर्वं भवमें सौधर्म स्वर्ग में देव था (४०६) वर्तमान भव में राजा कुणिकका पुत्र था ( ४१४) मगधदेशका राजा था। उज्जै भी राजधानी थी। पहले बौद्ध था. पीछे अपनी रानी चेतनाके उपदेशसे जैन हो गया था । और भगवान् महावीरका प्रथम भक्त बन गया था | जिनधर्मपर अपनी दृढ़ आस्थाके कारण इसे तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध हो गया था। इसके जीवनका अन्तिम भाग बहुत दुखद बीता है, इसके पुत्र ने इसे बन्दी बनाकर जेलमें डाल दिया था और उसके भय से ही इसने आत्महत्या कर ली थी, जिसके कारण कि यह प्रथम नरकको प्राप्त हुआ। और वहाँ आकर अगले युग में प्रथम तीर्थंकर होगा। भगवान् वीरके अनुसार इसका समय बी. नि. २० वर्ष से १० वर्ष पश्चात तक माना जा सकता है। ई. पू. ५४६ - ५१६ श्रेणी - Series (ज. प. प्र.१०८ ) । श्रेणी श्रेणी नाम का है। इस शब्दका प्रयोग अनेक प्रकरणों आता है। जैसे आकाश प्रदेशोंकी श्रेणी, राजसेनाकी १६ श्रेणियाँ, स्वर्ग व नरकके श्रेणीबद्ध विमान मिल शुक्लध्यान गत साधुकी उपशम व क्षपक श्रेणी, अनन्तरोपनिधा व परम्परोपनिधा श्रेणी प्ररूपण आदि । उपशम श्रेणी से साधु नीचे गिर जाता है, पर क्षपक श्रेणी से नहीं यहाँ उसे नियमसे मुक्ति होती है। १ १ २ ३ ४ ५ ६ * १ २ ३ श्रेणी सामान्य निर्देश अणी प्ररूपणाके भेद व मेदक लक्षण । राजसेनाकी १६ श्रणियोंका निर्देश। आकाश प्रदेशोंकी अणी निर्देश । अभिवद्ध विमान दिल उपशम व क्षपक श्रेणीका लक्षण । उपशम व क्षपक श्र ेणीमें गुणस्थान निर्देश | अपूर्व करण आदि गुणस्थान - दे. वह वह नाम । सभी गुणस्थानोंमें आपके अनुसार ही व्यय होनेका नियम । - दे. मार्गणा । श्री आरोहण के समय आचार्यादि पद छूट जाते है । - दे. सा श्र ेणी मांडनेमें संहनन सम्बन्धी । - दे. संहनन । उपशम व क्षपक अभी स्वामित्व सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ । - दे. वह वह नाम । क्षपक श्रेणी निर्देश चारित्रमोहका क्षपण विधान अद्धायुष्क को ही क्षपक श्र ेणीकी सम्भावना | क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही गांढ सकता है। क्षपकों की संख्या उपशमकोंसे दुगुनी है। क्षपक श्र ेणीमें मरण सम्भव नहीं । दे, मरण / ३ ॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - दे. क्षय । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणी ७२ २. क्षपक श्रेणी निर्देश * * क्षपक श्रेणीसे तद्भव मुक्तिका नियम । -दे. अपूर्व करण/४। क्षपक श्रेणीमें आयुकर्मकी प्रदेश निर्जरा ही होती है। -दे. निर्जरा/३/२। | उपशम श्रेणी निर्देश चारित्र मोहका उपशमन विधान। -दे. उपशम।। यदि मरण न हो तो ११वाँ गुणस्थान अवश्य प्राप्त होता है। -दे. अपूर्व करण/४। उपशम व क्षायिक दोनों सम्यक्त्वमें सम्भव है। उपशम श्रेणीसे नीचे गिरनेका नियम । उपशान्त कषायसे गिरनेका कारण व विधान । उपशम श्रेणीमें मरण सम्भव है, मरकर देव ही होता है। -दे. मरण/३। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसे सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति सम्बन्धी दो मत। -दे, सासादन/२। गिरकर असंयत होनेवाले अल्प हैं। अधिकसे अधिक उपशम श्रेणी मांडनेकी सीमा। --दे. संयम/२। | पुन: उसी द्वितीयोपशमसे श्रेणी नहीं मांड सकता है। गिर जानेपर भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त द्वितीयोपशम सम्यक्त्व रहता है। -दे. मरण/३/ * * गणरायमच्च-तलवर-पुरोहिया दप्पिया महामत्ता। अठारह सेणीओ पयाइणामीलिया होति ।३८०-घोड़ा, हाथी, रथ, इनके अधिपति, सेनापति, मन्त्री, श्रेष्ठी, दण्डपति, शुद्र, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, महत्तर, गणराज, अमात्य, तलवर, पुरोहित, स्वाभिमानी, महामात्य और पैदल सेना. इस तरह सब मिलाकर अठारह श्रेणियाँ होती है। ३७-३८। ३. आकाश प्रदेशोंका श्रेणी-निर्देश स. सि./२/२६/१८३/७ लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमस्तिर्यक् च आकाशप्रदेशानां क्रमसनिविष्टानां पक्तिः श्रेणी इत्युच्यते। -लोकमध्यसे लेकर ऊपर नीचे और तिरछे क्रमसे स्थित आकाश प्रदेशोंकी पंक्तिको श्रेणी कहते हैं । (रा. वा./२/२६/१/१३७/१६ ); (ध. १/१,१,६०/३००/४)। ध. १/४,१,४५/२२३/३ पटसूत्रवच्चर्मावयववद्वानुपूबिणोधिस्तिर्य व्यवस्थिताः आकाशप्रदेशपङ्क्तयः श्रेणयः । वस्त्र तन्तुके समान ..अथवा चमके अवयवके समान अनुक्रमसे ऊपर नीचे और तिरछे रूपसे व्यवस्थित आकाश प्रदेशोंकी पंक्तियाँ श्रेणियाँ कहलाती है। ४. श्रेणिबद्ध विमान व बिल द्र.सं./टो /११६/१. विदिक्चतुष्टये प्रतिदिशं पक्तिरूपेण यानि... विलानि ( विमानानि वा)... तेषामत्र श्रेणीमद्धसंहा। -चारों मिदिशाओं में से प्रत्येक विदिशामें पंक्ति रूप जो...मिल ( अथवा विमान ) हैं.. उनकी श्रेणीबद्ध संज्ञा है। त्रि. सा./पं, टोडरमल/४७६ पटल-पटल प्रति तिस इन्द्रक विमानकी पूर्वादिक च्यारि दिशानिवि जे पक्तिबंध विमान ( अथवा मिल ) पाईए तिनका नाम श्रेणीबद्ध विमान है। विशेष दे० नरक/५/३: स्वर्ग!५/३.६ । ५. उपशम व क्षपक श्रेणीका लक्षण रा. वा./६/१/१८/५६०/१ यत्र मोहनीयं कर्मोपशमयन्नारमा आरोहति सोपशमकश्रेणी। यत्र तत्क्षयमुपगमयन्नुगच्छति सा क्षपकश्रेणी। जहाँ मोहनीयकर्मका उपशम करता हुआ आत्मा आगे बढता है वह उपशम श्रेणी है, और जहाँ क्षय करता हुआ आगे जाता है वह क्षपक श्रेणी है। ६. उपशम व क्षपक श्रेणीमें गुणस्थान निर्देश रा. वा./६/१/१८/५६०/७ इत ऊध्र्व गुणस्थानानां चतुर्णा द्वे श्रेण्यौ भवतः-उपशमकश्रेणी क्षपकश्रेणी चेति। इसके (अप्रमत्त संयतसे) आगेके चार गुणस्थानोंकी दो श्रेणियों हो जाती है-उपशमश्रेणी. और क्षपकश्रेणी। (गो. क./जी.प्र./३३६/४८७/८)। * * १. श्रेणी सामान्य निर्देश १. श्रेणी प्ररूपणाके भेद व भेदोंके लक्षण प, वं./११/४,२,६/सू. २५२ व टी./३५२ तेसि दुविधा सेडिपरूवणा अणं तरोवणिधा परंपरोवणिधा ।२५२। जत्थ णिरंतर थोरबहुत्तपरिक्खा कीरदे सा अणं तरोधणिधा। जत्थ दुगुण-चदुगुणादि परिक्खा कीरदि सा परंपरोवणिधा। -श्रेणीप्ररूपणा दो प्रकार की हैअनन्तरोपनिषा और परम्परोपनिधा ।२५२१ (ध. १०/४,२,४,२८/ ६३/१) जहाँ पर निरन्तर अल्पमहत्वकी परीक्षा की जाती है वह अनन्तरोपनिधा कही जाती है। जहाँपर दुगुणत्व और चतुर्गणत्व आदिकी परीक्षा की जाती है वह परम्परोपनिधा कहलाती है। २. राजसनाकी १८ श्रेणियोंका निर्देश ति.प./२/४३-४४ करितुरयरहाहिबई सेणबईपदत्तिसेठ्ठिदंडवई। सुद्दवत्तियवइसा हवं ति तह महयरा पवरा ।४३। गणरायमंतितलवरपुरोहियामत्तयामहामत्ता। बहुविह पइण्णया य अट्ठारस होति सेणोओ।४४। -हस्ती, तुरग ( घोड़ा), और रथ, इनके अधिपति, सेनापति, पदाति ( पादचारीसेना), श्रेष्ठि ( सेठ ), दण्डपति, शुद्र, क्षत्रिय, वैश्य, महत्तर, प्रवर अर्थात ब्राह्मण, गणराज, मन्त्री, तलवर ( कोतवाल ), पुरोहित, अमात्य और महामात्य, वह बहुत प्रकारके प्रकीर्णक ऐसी अठारह प्रकारकी श्रेणियाँ हैं ।४३-४४। (ध.१/१,१,१/ गा. ३६/५७)। घ. १/१,१,१/गा. ३७.३८/५७-य-हत्थि-रहाण ह्विा सेणाकइ-मंति. सेठि-दंडवई । सुद-कवत्तिय बम्हण-बइसा तह महयरा चेव ।३७ २. क्षपक श्रेणी निर्देश १. अबद्धायुष्कको ही क्षपक श्रेणीकी सम्भावना घ. १२/४,२ १३.६२/४१२/८ भद्धाउआणं खवगसेडिमारुहणाभावादो। -बद्घायुष्क जीवों के क्षपक श्रेणिपर आरोहण सम्भव नहीं है। गो, क./जी.प्र./३३६/४७/८ चतुर्गणस्थानेष्वेकत्र क्षपितत्वान्नरकतिर्यग्देवायुषां चाबद्धायुष्कत्वेनासत्वात् । जिसने असंयतादिक गुणस्थानमेंसे किसी एकमें (प्रकृतियोंका) क्षय किया है, और देव, तियंच और नरकायुका जिसके सत्त्व न हो. और जिसके आयुबन्ध नहीं हुआ हो वही क्षपक श्रेणिको मांडता है। २. क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही माँड सकता है घ.१/१.१.१६/१८२/६ सम्यक्त्वापेक्षया तु क्षपकस्य क्षायिको वा भावः दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपक श्रेण्यारोहणानुपपत्तः। -सम्यक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणी ७३ २. उपशम श्रेणी निर्देश दर्शनकी अपेक्षा तो क्षपकके क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है वह क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। (ध. १/१,१,१८/१८८/२)। ३. क्षपकोंकी संख्या उपशमकोंसे दुगनी है ध. १.८.२४६/३२३/१ णाण वेदादिसबवियप्पेसु उबसमसेडि घडंतजीवे हितो खबगसेडि चदंतजोवा दुगुणा त्ति आइरिओवदेसादो। -ज्ञानवेदादि सर्व विकल्पों में उपशम श्रेणोपर चढ़ने वाले जोवोंसे क्षपक श्रेणीपर चदनेवाले जीव दुगुने होते हैं, इस प्रकार आचार्योंका उपदेश पाया जाता है। ३. उपशम श्रेणी निर्देश १. उपशम व क्षायिक दोनों सम्यक्त्वमें सम्भव हैं ध.१/१.१,१६/१८२/७ उपशमकस्यौपशमिकः क्षायिको वा भावः, दर्शनमोहोपशमक्षयाभ्यां विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलम्भाव। --उपशमकके औपशमिक या क्षायिक भाव होता है, क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम अथवा क्षय नहीं किया है, वह उपशम श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता। ध. १/१,१,१८/१८८/३ उपशमकः औपशमिकगुणः क्षायिकगुणो वा द्वाभ्यामपि सम्यक्त्वाभ्यामुपशमश्रण्यारोहणसंभवाव । -उपशम श्रेणी वाला औपशमिक तथा क्षायिक इन दोनों भावोंसे युक्त है, क्योंकि दोनों ही सम्यक्त्वोंसे उपशम श्रेणीका चढ़ना सम्भव है। २. उपशम श्रेणीसे नीचे गिरनेका नियम रा, वा./१०/१/३/६४०/८ उपशान्तकषाय.. आयुषः क्षयात् प्रियते। अथवा पुनरपि कषायानुदोरयन् प्रतिनिवर्तते । -उपशान्त कषायका आयुके क्षयसे मरण हो सकता है। अथवा फिर कषायोंकी उदीरणा होनेसे नीचे गिर जाता है। ध.१,६-८,१४/३१७/६ ओवसमियं चारित्तं ण मोक्खकारणं, अंतोमुहुत्तकालादो उवरि णिच्छएण मोहोदयणिबंधणसादो। -औपशमिक चारित्र मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि, अन्तर्महर्त कालसे ऊपर निश्चयतः मोहके उदयका कारण होता है। ल. सा./मू. व जी.प्र./३०४/३८४ अंतोमुत्तमैत्तं उवसंतकसायवीय रायदार ...१३०४...ततः परं कषायाण नियमेनोदयासंभवाद । द्रव्यकर्मोदये सति संक्लेशपरिणामलक्षणभावकर्मणः तयो कार्यकारणभावप्रसिद्धः । = उपशान्त कषाय वीतराग ग्यारहाँ गुणस्थानका काल अन्तमुहूर्त है, इसलिए तत्पश्चात द्रव्यकमके उदयके निमित्तसे संक्लेश रूप भाव प्रगट होते हैं। ३. उपशान्त कषायसे गिरनेका कारण व मार्ग ध.६/१,६-८,१४/३१७/८ उबसंतकसायरस पडिवादो दुविहो, भवक्खयणिमंधणो उक्सामणद्धाखयणिभंधणो चेदि । तत्थ भवक्त एण पडिव दिदस्स सव्वाणि करणाणि देवेसुप्पण्णपढमसमए चैव उग्घाडिदाणि। ...उवसंतो अद्धारखएण १दंती लोभे चेष पडिवददि, सुहमसापराइयगुणमर्गतूण गुणतरगमणाभावा । -उपशान्त कषायका' वह प्रतिपात दो प्रकार है-भवक्षयनिबन्धन और उपशमनकालक्षयनिबन्धन । इनमें भवक्षयसे प्रतिपातको प्राप्त हुए जीवके देवों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही बन्ध, ... (गिरकर असंयत गुणस्थानको प्राप्त होता है। -दे० मरण/३) उपशान्त कषाय कालके क्षयसे प्रतिपातको प्राप्त होने वाला उपशान्त कषाय जीव लोभमें अर्थात सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थानमें गिरता है, क्योंकि सूक्ष्म साम्पराधिक गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानोंमें जानेका अभाव है। गो. क./जी. प्र./५५०/७४३/४ उपशान्तकषाये आ तच्चरमसमयं... क्रमेणावतरन्.. अप्रमत्तगुणस्थानं गतः । प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि कुर्वन् सक्लेशवशेन प्रत्याख्यानाचरणोदयादेशसंयतो भूत्वा पुनः अप्रत्याख्यानाबरणोदयादसंयतो भूत्वा च । -उपशान्त कषायके अन्तसमय पर्यन्त.. अनुक्रमसे उत्तर अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हुआ। तहाँ अप्रमत्तसे प्रमत्तमें हजारों बार गमनागमन कर, पीछे संक्लेश वश प्रत्याख्यानावरण कर्मके उदयसे देशसंयत होकर - अथवा अप्रत्याख्यानके उदयसे असंयत होकर...। ल. सा./जी. प्र./३०८,३१०/३६० उपशान्तकषायपरिणामस्य द्विविधः प्रतिपात: भवक्षयहेतुः उपशमनकालक्षयनिमित्तकश्चेति । .. आयु:क्षये सति उपशान्तकषायकाले मृत्वा देवासंयतगुणस्थाने प्रतिपतति । एवं प्रतिपतिते तस्मिन्नेवासयतप्रथमसमये सर्वाण्यपि बन्धनोदीरणासंक्रमणादीनि कारणानि नियमेनोद्घाटितानि स्वस्वरूपेण प्रवृत्तानि भवन्ति। यथारख्यातचारित्र विशुद्धिबलेनोपशान्तकषाय उपशमिताना तेर्षा पुनर्देवासंयते संश्लेशवशेनानुपशमनरूपोदघाटनसंभवात् ॥३०८। आयुषि सत्यद्धा क्षयेऽन्तर्मुहूर्तमानोपशान्तकषायगुणस्थानकालावसाने सति प्रतिपतत् स उपशान्तकषायः प्रथम नियमेन सूक्ष्मसापरायगुणस्थाने प्रतिपतति। ततोऽनन्तरमनिवृत्तिकरणगुणस्थाने प्रतिपतति । तदन्वपूर्वकरणगुणस्थाने प्रतिपतति । ततः पश्चादप्रमत्तगुणस्थाने अधःप्रमत्तकरणपरिणामे प्रतिपतति । एवमधःप्रवृत्तकरणपर्यन्तमनेनैव क्रमेण नान्यथेति निश्चेतव्यम् । - उपशान्त कषायसे प्रतिपात दो प्रकार है-एक आयु क्षयमे, दूसरा कालक्षयने । १. उपशान्त कषायके कालमें प्रथमादि अन्त पर्यन्त समयों में जहाँ-तहाँ आयु के बिनाशसे मरकर देव पर्याय सम्बन्धी असंयत गुणस्थानमें गिरता है। तहाँ असंयतका प्रथम समय में नियमसे बन्ध, उदीरणा, संक्रमण आदि समस्त करण उघाड़ता है। अपने-अपने स्वरूपसे प्रगट वर्ते । यथारख्यात विशुद्धिके बलसे उपशान्त पाय गुणस्थानमें जो उपशम किये थे, उनका असंयत गुणस्थानमें संक्लेशके बलसे अनुपशमन रूप उघा. इना सम्भव है १३०८। २. और आयुके शेष रहनेपर कालक्ष्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र उपशान्त कषायका काल समाप्त होनेपर वह उपशामक गिरकर नियमसे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानको प्राप्त होता है। फिर पीछे अनिवृत्तिकरणको प्राप्त होता है। और इसके पश्चाव कमसे अपूर्व करण, अधःप्रवृत्त करण रूप अप्रमत्तको प्राप्त होता है। अधःप्रवृत्त करण तक गिरनेका यही निश्चित क्रम है। [आगे यदि विशुद्धि हो तो ऊपरके गुणस्थानमें चढ़ता है, यदि संक्लेशतायुक्त हो तो नीचेके गुणस्थानको प्राप्त होता है । कोई नियम नहीं है। (दे० सम्यग्दर्शन/IV/३/३)]। क्रमशःल. सा /जी. प्र./३१०-३४४ का भावार्थ-संक्लेश व विशुद्धि उपशान्त कषायसे गिरने में कारण नहीं है क्योंकि वहाँ परिणाम अवस्थिति विशुद्धता लिये है। वहाँसे गिरने में कारण तो आयु व कालक्षय ही है ।३१०। इन १०,६,८३ ७ गुणस्थानों में पृथक-पृथक क्रियाविधान उत्तरते समय प्रतिस्थान आरोहककी अपेक्षा दूनी अवस्थिति वा दूना अनुभाग हो है। स्थिति बन्धापसरणकी बजाय स्थितिबन्धोत्सरण हो है। अर्थात् आरोहकके आठ अधिकारोंसे उलटा क्रम है। क्रमश:ल. सा./जी.प्र./३४५/४३६/१ विरताविरतगुणस्थानाभिमुखः सन् संक्लेशवशेन प्राक्तनगुणण्यायामात संख्यातगुणं गुणश्रेण्यायाम करोति पुनः स एव यदि परावृत्योपशमकक्षपकश्रेण्यारोहणाभिमुखो भवति तदा विशुद्धिवशेन प्राक्तनगुणश्रेण्यायामात संख्यातगुणहानं गुणश्रेण्यायाम करोति । - उपशामक जीव गिरकर यदि विरताविरत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०४-१० Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणी चारण ऋद्धि गुणस्थानको सन्मुख होय तो संक्लेशताके कारण पूर्व गुणश्रेणि आयामसे संख्यात गुण बंधत्ता गुणश्रेणि आयाम करता है। और यदि पलट कर उपशम वक्षपक श्रेणी चढनेको सन्मुख होय तो विशुद्धिके कारण संख्यात गुणा घटता गुणश्रेणि आयाम करता है। ४. गिर कर असंयत होनेवाले अल्प हैं ध.४/१,३,८२/१३५/४ उसमसेढोदो ओदरीय उवसमसम्मत्तेण सह असं जम पडिवण्णजीवाणं संखेज्जत्त वलं भादो। - उपशम श्रेणिसे. उतरकर उपशम सम्यक्त्वके साथ असंयम भावको प्राप्त होनेवाले जीवोंकी संख्या संख्यात ही पायी जाती है । . ५. पुनः उसी द्वितीयोपशमसे श्रेणी नहीं मांड सकता ध.५/१,६,३७४/१७०४२ हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिबज्जिय पुश्वुत्र समसम्मत्तेणुवसमसेढोसमारणे संभवाभावादी। तं पि कुदी उबसमसेडी समारहणपाओग्गकालादो सेसुवसमसम्मत्तद्धाए स्थोबत्तुबलभादो।-उपशम श्रेणीसे नं.चे उतरे हुए जोबके वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुए बिना पहलेबाले उपशम सम्यक्त्वके द्वारा पुन: उपशम श्रेणीपर समारोहणकी सम्भावनाका अभाव है। प्रश्न यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-क्योंकि, उपशम श्रेणी के समारोहण योग्य कालसे शेष सम्यक्त्वका काल अल्प है। श्रेणीचारण ऋद्धि-दे. ऋद्धि।। श्रेणीबद्ध-बिल दे० नरक/१/३: स्वर्ग विमान-दे. स्वर्ग//३ श्रेणीबद्ध कल्पना-classify (ध. [प्र. २८)। श्रेयस्कर-लौकान्तिक देवोंका एक भेद-दे. लोकांतिक। श्रेयांस-म.प्र./सर्ग/श्लोव-पूर्व के दसवें भव में धातकोखण्डमे एक गृहस्थकी पुत्री थी। पुण्यके प्रभावसे नवमें भवमें बणिक सुता निर्नामिका हुई । वहाँसे व्रतोंके प्रभावसे आठवें भवमे श्री प्रभ विमानमें देवी हुई (८/१८५-१८८); ( अर्थात ऋषभदेवके पूर्व के आठवें भवमें ललितांगदेवकी स्त्री) सातवें भवमें श्रीमती (६/६०) छठेमें भोगभूमि में (८/३३) पाँचवें में स्वयंप्रभदेव (६/१८६) चौथेमें केशव नामक राजकुमार (१०/१८६) तीसरेमें अच्युत स्वग में प्रतीन्द्र (१०/१७१) दूसरेमें धनदेव (११/१४) पूर्व भवमें अच्युत स्वर्ग में अहमिन्द्र हुआ (१०/१७२)। ( इनके सर्वभव ऋषभदेवसे सम्बन्धित हैं । सर्व भवोंके लिए दे. ४७/३६०-३६२)। वर्तमान भवमें राजकुमार थे। भगवान् ऋषभदेवको आहार देकर दानप्रवृत्तिके कर्ता हुए (२०/८८,१२८) अन्तमें भगवानके समवशरणमें दीक्षा ग्रहण कर गणधर पद प्राप्त किया (२४/१७४) तथा मोक्ष प्राप्त किया (४७/६६) । धेयांसनाथ-म.पू./१७/श्लोक-पूर्वके दूसरे भवमें नलिनप्रभ राजा थे (२-३)। दीक्षा लेकर सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थ कर प्रकृतिका बन्ध किया। अन्तमें समाधि मरणकर पूर्व भवमें अच्युतेन्द्र हुए (१२-१४) । वर्तमान भवमें ११वें तीर्थकर हुए। विशेष-दे. तीर्थ कर/५ । श्रीता-वीतराग वाणीको सुननेकी योग्यता आत्मकल्याणकी जिज्ञासाके बिना नहीं होती। अतः वे ही शास्त्रके वास्तविक श्रोता . हैं तथा उपदेशके पात्र हैं अन्य लौकिक व्यक्ति उपदेश के अयोग्य हैं। १. अव्युत्पन्न आदिकी अपेक्षा श्रोताओंके भेद व लक्षण ध.१/१.१.१/३०/७ त्रिविधा, श्रोतारः, अव्युत्पन्नः अवगतावशेषविवक्षित पदार्थ एकदेशतोऽजगतविवक्षितपदार्थ इति । तत्र प्रथमोऽव्युत्पन्न- स्वान्नाध्यवस्यतीति । विवक्षितपदस्यार्थ द्वितीयः संशेते कोऽर्थोऽस्य पदस्याधिकृत इति, प्रकृतार्थादन्यमर्थमादाय विपर्यस्यति वा। द्वितीयवत्ततीयोऽपि संशेते विपर्यस्यति वा । - श्रोता तीन प्रकारके होते हैं-पहला अव्युत्पन्न अर्थात वस्तु स्वरूपसे अनभिज्ञ, दूसरा श्रोत सम्पूर्ण विवक्षित पदार्थको जाननेवाला और तीसरा एकदेश विवक्षित पदार्थ को जाननेवाला। इनमेसे पहला श्रोता अव्युत्पन्न होने के कारण विवक्षित पदार्थ के अर्थको कुछ भी नहीं समझता है। दूसरा 'यहाँपर इस पदका कौनसा अर्थ अधिकृत है' इस प्रकार विवक्षित पदार्थ के अर्थ में सन्देह करता है, अथवा प्रकरण प्राप्त अर्थको छोडकर दूसरे अर्थ को ग्रहण करके विपरीत समझता है। दूसरी जातिके समान तीसरी जातिके श्रोता भी प्रकृत पद के अर्थ में या तो सन्देह करता है अथवा विपरीत निश्चय कर लेता है (गो. क./जी. प्र./५०/५१/३)। २. मिट्टी आदि श्रोताके भेद व लक्षण म. पु./१/१३६ मृच्चालिन्यजमारिशककट्टशिलाहिभिः । गोहं समाहिष-. च्छिद्रघटदंशजलौककैः ।१६।-मिट्टी.चलना, बकरा, बिलाव,तोता, बगुला, पाषाण, सर्प, गाय, हंस, भैंसा, फूटा घडा, डांस और जोंक इस तरह चौदह प्रकारके श्रोताओके दृष्टान्त समझने चाहिए। भावार्थ-१. जैसे मिट्टी पानीका संसर्ग रहते हुए कमल रहती है बाद में कठोर हो जाती है, उसी प्रकार जो श्रोता शास्त्र सुनते समय कोमल परिणामी रहते हैं बादमे कठोर परिणामी हो जावें वे श्रोता मिट्टोके समान हैं। २. जिस प्रकार चलनी सारभूत आटेको नीचे गिरा देती है और छोकको बचा लेती है, उसी प्रकार जो श्रोता वक्ताके उपदेशमैसे सारभूत तत्त्वको छोड़कर निस्सार तत्त्व को ग्रहण करते हैं वे चलनीके समान श्रोता हैं। ३. जो अत्यन्त कामी हैं अर्थात शास्त्रके उपदेशमें शृगारका वर्णन सुनकर जिनके परिणाम शृगार रूप हो जावें वे अजके समान श्रोता है। ४. जैसे अनेक उपदेश मिलनेपर भी बिलाव अपनी हिंसक प्रवृत्ति नहीं छोड़ता, सामने आते हो चूहेपर आक्रमण कर देता है उसी प्रकार जो श्रोता बहुत प्रकारसे समझानेपर भी करताको नहीं छोड़ें, अवसर आनेपर क्रूर प्रवृत्ति करने लगें, वे मारिके समान हैं। जैसे तोता स्वयं ज्ञानसे रहित हैं, दूसरों के समझानेपर कुछ शब्द मात्र ग्रहण वर पाते हैं वे शुकके समान श्रोता है। ६. जो बगुले के समान बाहरसे भद्र परिणामी मालूम होते हैं, परन्तु जिनका अन्तरंग दुष्ट हो वे बगुलाके समान श्रोता हैं। ७. जिनके परिणाम हमेशा कठोर रहते हैं, तथा जिनके हृदय में समझाये जानेपर भी जिनवाणी रूप जलका प्रवेश नहीं हो पाता वे पाषाणके समान श्रोता हैं। ८. जैसे साँपको पिलाया हुआ दूध भी विष रूप हो जाता है, वैसे ही जिनके सामने उत्तमसे उत्तम उपदेश भी खराब असर करता है वे सर्पके समान श्रोता हैं। १. जेसे गाय तृण खाकर दूध देती है, वैसे ही जो थोड़ा सा उपदेश सुनकर बहुत लाभ लिया करते हैं वे गायके समान श्रोता हैं। १०. जो केवल सार वस्तुको ग्रहण करते हैं वे सके समान श्रोता हैं। ११. जैसे भंसा पानी तो थोड़ा पीता है पर समस्त पानीको गंदला कर देता है इसी प्रकार जो श्रोता उपदेश तो अल्प ग्रहण करते हैं, परन्तु अपने कुतर्कोसे समस्त सभामें धोभ पैदा कर देते हैं वे भैंसाके समान श्रोता हैं। १२. जिनके हृदय में कुछ भी उपदेश नहीं ठहरे वे सछिद्रघटके समान है।१३. जो उपदेश तो बिलकुल ही ग्रहण न करें परन्तु सारी सभ को बिलकुल व्याकुल कर दें वे डाँसके समान श्रोता है। १४. जो गुण छोड़कर सिर्फ अवगुणों को ही ग्रहण करें वे जोंकके समान श्रोता है'।१३६॥ ३. मिट्टी आदि उत्तम, मध्यम, जघन्य विभाग म. पु./१/१४०-१४१ श्रोतारः समभावाः स्युरुत्तमाधममध्यमाः । अन्यादृशोऽपि सन्त्येव तरिक तेषामियत्तया ।१४०। गोहंससदशान्प्राहुरुत्तमान्मृच्छु कोपमान । माध्यमान्विदुरन्सैश्च समकक्ष्योऽधमो मतः । ११४१ऊपर कहे हुए श्रोताओंके उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन-तीन भेद होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य भी भेद हैं, उनकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लेष संबन्ध श्रोता गणना करनेसे क्या लाभ ।१४०। इनमें जो श्रोता गाय और इसके मिथ्यातकी मन्दतामे जैनधर्मसे द्वेष न करनेवाला व्यक्ति भद्र है वह समान हैं, वे उत्तम कहलाते हैं, जो मिट्टी और तोताके समान हैं वे उपदेशका पात्र है, उससे विपरीत अभद्र है तथा उपदेश पानेका मध्यम कहलाते हैं। बाकीके सब श्रोता अधम माने गये हैं 1१४१॥ अधिकारी नहीं है । ४. सच्चे श्रोताका स्वरूप ६. अनिष्णातको सिद्धान्त शास्त्र सुनना योग्य नहीं क.पा. १/१/७/3 ण च मिस्सेप्नु सम्मत्तस्थित्तमसिद्ध, अहेदु दिष्ट्रिवाद- भ, आ./वि /२६१/६७५ पर उद्धृत-सव्वेण वि जिणवयणं सोदव्व सट्ठिसणणण्णहाणुवरत्तीदो तेसि तदस्थित्त सिद्धीदो । शिष्यों में सम्यक देण पुरिसेण । छेद सुदस्स हु अत्थो ण होदि सम्वेण णादवो ।४६१॥ श्रद्धाका अस्तित्व असिद्ध है सो बात नहीं है, क्योंकि अहेतुवाद ऐसे - श्रद्धावान् सर्व पुरुष जिनवचन सुन सकते हैं, परन्तु प्रायश्चित्त दृष्टिवाद अंगका सुनना सम्यक्त्वके बिना बन नहीं सकता है। इस- शास्त्रका अर्थ सर्व लोगोंको जाननेका अधिकार नहीं है। लिए उनमें सम्यक्त्वका अस्तित्व सिद्ध है। दे. श्रावक/४/ गणधर. प्रत्येक बुद्ध आदि द्वारा रचित प्रायश्चित्त शास्त्रध. १२/४.२.१३.६६/४१४/१० धारण गहणसमत्थाणं चेव संजदाणं विण- का देशवतो को पढनेका अधिकार नही है। यालंकाराण ववरखाण कादम्ब मिदि भणि होदि। -धारण व ध.१/१,१,२/१०६/३ विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणतस्स अर्थग्रहण में समर्थ तथा विनयसे अलंकृत ही संयमीजनोंके लिए ण कहेयवा। जिसका जिन वचनमे प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुषको व्याख्यान करना चाहिए, यह अभिप्राय है। विक्षेपणी कथाका उपदेश नहीं करना चाहिए । म. पु./१/१४५.१४६ श्रोता शुश्रूषता : स्वैर्गुणैर्युक्तः प्रशस्यते।:: सा.ध./७/५० स्यान्नाधिकारी सिद्धान्त-रहस्याध्ययनेऽपि च 101 - १९४५ शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा। स्मृत्यूहापोहनिर्णीतीः सिद्धान्त शास्त्र और प्रायश्चित्त शास्त्रों के अध्ययन करनेके विषयमें श्रोतुरष्टौ गुणान् विदुः ॥१४६। जो श्रोता शुश्रूषा आदि गुणोसे श्रावक को अधिकार नहीं है। युक्त होता है वही प्रशंसनीय माना जाता है ।१४५ शुश्रूषा, श्रवण, ७. निष्णातको सर्वशास्त्र पढने योग्य है ग्रहण, धारण, स्मृति, जह, अपोह और निर्णीत (तत्त्वाभिनिवेश सा. ध.) ये श्रोताओं के आठ गुण जानने चाहिए ।१४६। (सा.ध./१/७) । ध, १/१.१,२/१०६/५ गहिद-समणस्स तब-सील-णियम-जुत्तस्स पच्छा पु. सि उ./७४ अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवज्यं । विबखेरणी कहा कहे यना। -जिसने स्व समयको जान लिया है .. जिनधर्मदेशनाया भवन्ति शुद्वा धिय. ७४ - दुखदायक, दुस्तर जो तप, शील और नियमसे युक्त है, ऐसे पुरुषको ही पश्चात और पापों के स्थान इन आठ पदार्थोको परित्याग करके निर्मल विक्षेपणी कथाका (भी) उपदेश देना चाहिए। बुद्धिवाले पुरुष जिनधर्म के उपदेशके पात्र होते हैं। सा. ध./२/२१ तत्त्वार्थ प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशवत', तहीक्षाग्रआ. अनु ७ भव्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् दुःखाद् भृशं भीतिवान्, धृतापराजितमहामन्त्रोऽस्तदुर्दैवत' । आङ्ग पौर्वमथार्थ संग्रहमधीसौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धर्म शर्मकर व्याधीतशास्त्रान्तरः, पर्वान्ते प्रतिमासमाधिमुपयन्, धन्यो निहन्त्य दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितं गृहन् धर्मकथाश्रुतावधिकृतः हसी ।२१। -धर्माचार्य या गृहस्थाचार्य के उपदेशसे सातौ तत्त्वोंको शास्यो निरस्ताग्रहः ॥७१ = जो भव्य है, मेरे लिए हितकारक मार्ग ग्रहणकर, एकदेशवतकी दीक्षाके पहले धारण किया है महामन्त्र कौन सा है इसका विचार करनेवाला है, दुःख से अत्यन्त डरा हुआ जिसने ऐसा छोड़ दिया है मिथ्यादेवोंका आराधन जिसने, ऐसा है, यथार्थ सुखका अभिलाषी है, श्रवण आदि रूप बुद्धिसे सम्पन्न है, द्वादशांग सम्बन्धी और चतुर्दशपूर्व सम्बन्धी शास्त्रों को पढ़कर, पढ़े तथा उपदेश को सुनकर और उसके विषयमे स्पष्टतासे विचार करके हैं न्याय आदिक शास्त्र जिसने ऐसा पर्व के दिन प्रतिमायोगको धारण जो युक्ति व आगमसे सिद्ध ऐसे सुखकारक दयामय धर्मको ग्रहण करनेवाला पुण्यात्मा द्रव्य व भाव पापोको नष्ट करता है ।२१॥ करनेवाला है, ऐसे दुराग्रहसे रहित शिष्य धर्मकथाके सुननेका अधि ८. शास्त्र श्रवणमें फलेच्छाका निषेध कारो माना गया है । म पु./१/१४३ श्रोता न चैहिकं किंचित्फलं वाउछेत्कथाश्रुतौ । नेच्छेद्रक्ता सा, ध./२/१६ यावज्जीवमिति त्यक्त्वा, महापापानि शुद्धधी । जिन च सत्कारधनभेषजस क्रियाः।१४३, = श्रोताओंको शास्त्र सुनने के बदले धर्मश्रुतेर्योग्यः स्यात्कृतोपनयो द्विजः ॥१६॥ = अनन्त संसारके कारण किसी सांसारिक फल की चाह नहीं करनी चाहिए, इसी प्रकार वक्ताभूत मद्यपानादिक पापोको जीवनपर्यन्त के लिए छोड़कर, सम्यवत्व के को भी श्रोताओंसे सत्कार, धन, औषधि और आश्रय (घर) आदि द्वारा विशुद्ध बुद्धिवाला और किया गया है यज्ञोपवीत संस्कार की इच्छा नहीं करनी चाहिए। जिसका ऐसा ब्राह्मण, वैश्य व क्षत्रिय जैनधर्मको सुनने का अधिकारी होता है ।१६॥ श्रोत्र इन्द्रिय- दे. इन्द्रिय/१। न्या. दी./३.१८०/१२४/४ सदुपदेशात्प्राक्तनमज्ञानस्वभाव हन्तुमुपरि- इलक्ष्णकूला-शिखरी पर्वतस्थ एक कूट व तन्निवासी एक देव । तननयमर्थ ज्ञानस्वभाव स्वीकर्तुं च यः समर्थ : आत्मा स एव शास्त्रा- -दे. लोक/91 धिकारी ति। -समीचीन उपदेशसे पहलेके अज्ञान स्वभावको नाश करने और आगे के तत्त्वज्ञान स्वभावको प्राप्त करने में जो समर्थ आत्मा श्लेष औदारिक शरीरमे श्लेष ( कफ) का निर्देश। है वही शास्त्रका अधिकारी है। -दे. औदारिक/१। श्लष सबन्ध-ष. खं/१२/५,६/सू. ४३/४१---जो सो संसिलेसबंधो ५. उपदेशके अयोग्य पात्र णाम तस्स इमो णिसो-जहा कट्ठ-जदूणं अण्णोण्णसंसिले सिदाणं ध. १२/४,२,१३,६६/गा. ४/४१४ बुद्विविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थक बंधो संभयदि सो सयो संसिलेसबंधो णाम ।४३: जो संश्लेष भवति साम। नेत्रविहीने भर्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।। बन्ध है उसका यह निर्देश है-जमे परस्पर संश्लेषको प्राप्त हुए काष्ठ - जिस प्रकार पतिके अन्धा होनेपर स्त्रियोंका विलास व सुन्दरता और लाखका बन्ध होता है वह सब संश्लेषबन्ध है ।४३। व्यर्थ है, इसी प्रकार श्रोताके मूर्ख होनेपर पुरुषों का वक्तापना व्यर्थ रा. वा./२/२४/६/१८८/३ जतुकाष्ठादिसंश्लेषणात संश्लेषवन्धः। -लाख काठ आदिका संश्लेष बन्ध है। सा.ध./९/६ कुछमेस्थोऽपि सहधर्म लघुकमतया द्विषन् । भद्रः स देश्योध. १२/५.६.६/७/रज्जु-वस्त्र-कट्ठादी हि विणा अल्लीवणविसेसे हि द्रव्यत्वान्नाभद्रस्त द्विपर्ययात् ।। -मिथ्यामतमें स्थित जीव विणा जो चिक्कग-अचिक्क गदवाण चिक्कणदवाणं वा परोप्परेण मंधो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक वार्तिक ७६ श्वेताम्ब सो संसिलेसबंधो णाम ।-रस्सी, वस्त्र और काष्ठ आदिकके बिना तथा अल्लीषणविशेषके बिना जो चिकण और अचिवाण द्रव्योंका ९ । श्वेताम्बरके अनुसार दिगम्बर मतकी उत्पत्ति । अथवा चिमण द्रव्यों का परस्पर बंध होता है वह संश्लेषबंध कह १. द्विविध कल्प निर्देश। लाता है। २. जिन कल्पका विच्छेद । स. सा./ता. वृ./५७/६६/१५ क्षीरनीरसंश्लेषस्तथा । दूध और जलका ३. उपकरण व उनकी सार्थकता। परस्पर सम्बन्ध संश्लेष है। ४. दिगम्बर मत प्रवर्तक शिवभूति मुनिका परिचय।। श्लोक वातिक-आ. उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्रकी आ. विद्या ५. शिवभूति द्वारा दिगम्बर मतकी उत्पत्ति । नन्द ( ई. ७७५-८४० ) कृत विस्तृत टीका है । (तो,/२/३६१) । ढूंढिया पन्थ । श्लोहित-एक ग्रह-दे. ग्रह । १. दिगम्बरके अनुसार उत्पत्ति। २. श्वेताम्बरके अनुसार उत्पत्ति । श्वस्ता --भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४। ३. स्वरूप। श्वस्रा धारणा-दे. वायु । श्वासोच्छवास-१-दे. उच्छवास: २. कालका एक प्रमाण विशेष । अपरनाम उच्छ्वास. वा निःश्वास । -दे, गणित/1/१। १. श्वेताम्बर मतका स्वरूप श्वेतकूमार-बैराट राजाका पुत्र था। भीष्म द्वारा युद्ध में मारा स.सि./८/१/५ सग्रन्थः निग्रन्थः। केवली कवलाहारी । खी सिध्यति ।। एवमित्यादि विपर्ययः । = सग्रन्थको निर्गन्थ मानना, केवलीको गया था । ( पा. पु./१६/१६१-१६१)। कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपश्वेतकेतु-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर ।दे. विद्याधर।। रीत मिथ्यादर्शन है। (रा. वा./८/१/२८/५६४/२०), (त. सा./श्वेतपंचमीव्रत-आषाढ़, कार्तिक व फाल्गुन,तीनों में से किसी भी मासमें प्रारम्भ करके ६५ महीनों तक बरावर प्रत्येक मास शु. ५ को द.सा./मू./१३-१४तेण कियं मयमेयं इत्थीण अत्थि तम्भवे मोक्खो। उपवास करे। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। ( वसुनन्दि केवलणाणीण पुण अण्णवरवाण तहा रोगो।१३ । अंभरसहिखो विजई। श्रावकाचार/३५३-३६२), (धर्मपरीक्षा/२०१४), (बत-विधान सिज्झई वीरस्स गभचारत्तं । परलिंगे बिय मुत्ते कासुयभोजच संग्रह/पृ.८८)। सब त्था १४। उसने (आचार्य जिनचन्द्रने)' यह मत चलाया कि स्त्रियों को तद्भवमें मोक्ष प्राप्त हो सकता है। श्वतवाहन-चम्पा नगरीका राजा था। दीक्षा धारण कर एक केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है।१३॥ मासका उपवास किया। चर्या में 'मेरे पुत्रने गृहस्थोंको मेरे लिए वस्त्रधारी तथा अन्य लिंग वाले भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। भगआहारदान करने को मना किया है' ऐसा सुनकर वापस लौट आये। वान वीरके गर्भका संचार हुआ था। अर्थात पहले एक ब्राह्मणीके श्रेणिक महाराज द्वारा शंका निवारण कर दिये जाने पर इनका रोष गर्भ में आये और पीछे क्षत्रियाणीके गर्भ में चले गये। मुनिजन दूर हुआ। अनन्तर केवलज्ञान प्राप्त किया। (दे० म. पु./७६/- किसीके घर भी प्रामुक्त भोजन कर सकते हैं। ५-२६)। द. पा./टी./११/११/११ श्वेतवाससः सर्वत्र भोजनं गृहन्ति, प्रामुक श्वेताम्बर-दिगम्बर मान्यताके अनुसार भगवान् वीरके पश्चाद मांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीति वर्ण लोपः कृतः। -श्वेताम्बर मूल संघ दिगम्बर ही था। पीछे कुछ शिथिलाचारी साधुओंने साधु सर्वत्र भोजन करना उचित मानते हैं। उनकी समझमें मांस श्वेताम्बर संघको स्थापना की। श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार भक्षकों के यहाँ भी प्रासुक भोजन करनेमे दोष नहीं है। जिन कल्प व स्थविर कल्प दोनों ही प्रकारके संघ विद्यमान थे। गो,जी./जी.प्र./१६ इन्द्रः श्वेताम्बर गुरुः तदादयः संशयितमिथ्या- । जम्बू स्वामीके पश्चात् काल प्रभावसे जिनकल्पका विच्छेद हो ___ दृष्टयः। - इन्द्र श्वेताम्बरोंका गुरु था। उनको आदि लेकर संशयित गया और स्थविर कल्प ही शेष रह गया। पीछे शिवभूति नामक मिथ्यादृष्टि हैं। एक साधु जिनकल्पके पुनरावर्तनके उद्देश्यसे नग्न हो गया। उसके द.सा./प्र./५० प्रेमीजी-दर्शनसार ग्रन्थमें तथा गोम्मटसारको टीकामें द्वारा ही दिगम्बर मतका प्रचार हुआ। श्वेताम्बरमें-से ढूंढिया मत जो श्वेताम्बरों की गणना सोशयिक मिथ्यादृष्टियों में की सो ठीक की उत्पत्ति के विषय में दोनों ही सम्प्रदाय सहमत हैं।। नहीं है। वास्तव में उनकी गणना विपरीत मतमें हो सकती है ऐसा उपरोक्त सर्वार्थसिद्धिके उद्धरणसे स्पष्ट है। श्वेताम्बर मतका स्वरूप । दिगम्बरके अनुसार श्वेताम्बर मतकी उत्पत्ति । २. दिगम्बरके अनुसार श्वेताम्बर मतकी उत्पत्ति | अर्ध फालक संघकी उत्पत्ति । दिगम्बर मतके अनुसार श्वेताम्बर मतको उत्पत्ति कैसे हुई, उसके श्वेताम्बरोंके विविध गच्छ । अर्थ फालक व श्वेताम्बर विषयक समन्वय । द.सा./मू./११-१२ एक्कसए छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । प्रवर्नको विषयक समन्वय । सोरटे बलहीए उप्पण्णो सेबडो संघी। ११ । सिरि भवमा गणिनो 'सीसो गामेण संति आइरिखो। तस्स य सीसो दुढो जिणचंदो उत्पत्तिकाल विषयक समन्वय । । मंदचारित्तो । १२ । तेण कियं मयमयं...। १३। -इसी बात को दिगम्बर मतकी प्राचीनता। और भी विस्तृत रूपसे इन्हीं देवसेनाचार्यने अपने भावसंग्रह नामक ग्रन्थमें एक कथाके रूपमें दिया है। उसका संक्षिप्त सार निम्न है र. सा./स./११-४ाचे दो कथाएँ दो जीको उत्पत्ति कैसे हुई, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर ७७ श्वेताम्बर भावसंग्रह/५२-७५ विक्रम संवत् १३६ में सौराष्ट्र देशके वल्लभीपुर के समय अपनो वसतिका में बैठ कर खा लें। मगरमें श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ। इस संघके प्रवर्तक भद्रबाहू ४. श्वेताम्बरोंके विविध गच्छ गणी जी एक निमित्तज्ञानी थे (पंचम श्रुतकेवलीसे भिन्न थे) उनके शिष्य शान्त्याचार्य, तथा उनके भी शिष्य जिनचन्द्र थे। उज्जैनी श्वेताम्बरोंमे विविध गच्छ प्रसिद्ध हैं, यथा-चैत्यवासी नगरीमें १२ वर्षीय दुर्भिक्षके सम्बन्धमें आचार्य भद्रबाहुको भविष्य गच्छ, उपके शगच्छ, खरतर गच्छ, तपा गच्छ, पार्श्व चन्द्र गच्छ. बाणी सुनकर सर्व आचार्य अपने-अपने संघको लेकर वहाँसे विहार सार्धपौर्णमीयक गच्छ, आंचलिक गच्छ, आगमिक गच्छ आदि । कर गये।५३-५७ भद्रबाहुके शिष्य शान्ति नामके आचार्य सौराष्ट्र इनमें से आज खरतर, तथा व आंचलिक गच्छ ही उपलब्ध होते हैं। देशके वल्लभीपुर नगरमें आये ५६ परन्तु वहाँ भी भारो दुष्काल प्रत्येक गच्छको समाचारी जुदी है तथा उनके श्राव कोंकी सामायिक पडा ।१७। परिस्थितिवश सिह वृत्ति छोड़कर साधुओंने वस्त्र, पात्र प्रतिक्रमण आदि विषयक विधियाँ भी जुदी हैं। कोई कल्याणकके आदि धारण कर लिये और वसतिकामें-से भोजन माँग कर लाने लगे दिन छह मानता है तो कोई पाँच । कोई पर्युषणका अन्तिम दिन ५८-५६। दुभिक्ष समाप्त हो जाने पर जन शान्त्याचार्यने पुनः उन्हें भाद्रपद शु. ४ मानता है और कोई भाद्रपद शु.५। शुद्ध चारित्र पालनेका आदेश दिया तो उनके शिष्य जिनचन्द्रने 'धर्मसागर' कृत पट्टावलीके अनुसार वी. नि. ८८२ में चैत्यउन्हें जानसे मार दिया और स्वयं संघ नायक बन गया ।६०-६ वास प्रारम्भ हुआ। 'जिन बल्लभ सूरि' कृत संघपट्टकी भूमिकामें शान्त्याचार्य मरकर व्यन्तर हुआ और संघ पर उपद्रव करने भी चैत्यबासका कुछ इतिहास उल्लिखित है। अनेकान्त वर्ष ३ लगा, जिसे शान्त करनेके लिए जिनचन्द्रने उसकी एक कुलदेवताके अंक ८-8 के 'यति समाज' शीर्षकमें श्री अगरचन्द नाहटाने श्वेतारूपमें पूजा प्रचलित कर दी। जो आज तक श्वेताम्बर सम्प्रदायमें म्बर चैत्यवासियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। चली आ रही है ।७०-७५॥ अणहिलपुर पट्टण राजा दुर्लभदेवको सभामें वर्द्ध मान सूरिके शिष्य जिनेश्वर सूरिद्वारा परास्त हो जाने पर यह चैत्यवासी गच्छ ३. अर्धफालक संघकी उत्पत्ति ही खरतर नामसे पुकारा जाने लगा। वि. सं. १२८५ में श्री जगच्चन्द्र सूरिके उग्र तपसे प्रभावित भद्रबाहु चरित्र/ तृ. परिच्छेद--बिलकुल उपरोक्त प्रकार की कथा कुछ उचित परिवर्तनोंके साथ भट्टारक श्री रत्ननन्दिने भदबाहु चरित्र में होकर मेवाड़के राजाने उसके गच्छको 'तपा गच्छ' नाम प्रदान किया। दी है। इसका सारांश यह है कि- "पंचम भूतकेवली श्री भद्रबाहू मुख पट्टी के बदले अंचल का अर्थात वस्त्रके छोरका उपयोग किया स्वामीके मुखसे उज्जैनी में पड़ने वाले १२ वर्षीय दुर्भिक्षके सम्बन्धमे सुनकर भी तथा अन्य संघोंके दक्षिणकी ओर विहार कर जाने पर जाने के कारण आंचलिक गच्छ' प्रसिद्ध हुआ है। भी रामल्य, स्थूलभद्र व स्थूलाचार्य नामके आचार्योंने जाना ५. अर्धफालक व श्वेताम्बर विषयक समन्वय स्वीकार न किया। दुर्भिक्ष पड़ा और परिस्थिति वश उन्होंने कुछ शिथिलाचार अपना लिये। वे लोग पात्र ग्रहण करके भोजन माँगने- द.सा.//६० प्रेमी जी-अब इस बातपर विचार करना है कि भावके लिए वसतिकामें जाने लगे और अपनी नग्नताको उतने समय संग्रहको कथामें (भद्रबाहु चरित्रके कर्ताने ) इतना परिवर्तन क्यों छिपानेके लिए, एक वस्त्रका टुकड़ा भी अपने पास रखने लगे, किया। हमारी समझमें इसका कारण भद्रबाहुका और श्वेताम्बर जिसे वसतिकामें जाते समय वे अपने आगे ढंक लेते थे और लौटनेपर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय है। भाव संग्रह के वर्ताने तो भद्रबाहुको पृथक्कर देते थे। इस कारण इस संघका नाम.अर्धफालक पड गया केवल निमित्तज्ञानी लिखा है, पर रत्ननन्दि उन्हें (श्रुतावतारके तत्पश्चात् सुभिक्ष हो जाने पर जब दक्षिणसे वह मूल संघ लौट अनुसार ) पंचम श्रुतकेवली लिखते हैं। दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार आया तब स्थूलाचार्य ने अपने संघसे पुनः पहला मार्गअपनाने को कहा। श्रुतकेबलीका शरीरान्त बी. नि, १६२ में हुआ है। (दे. इतिहास / संघने उन्हें जानसे मार दिया। वे व्यन्तर हो गये और संघ पर १ और श्वेताम्बरों की उत्पत्ति की. नि. ६०६ (वि. १३६ ) उपद्रव करने लगे, जिसे शान्त करने के लिए संघने उनकी अपने मे बतायी गयी है। दोनों के बीच में इस ४५० वर्ष के अन्तरको पूरा कुलदेवताके रूपमें पूजा करनो प्रारम्भ कर दी। ४५० वर्ष तक यह करनेके लिए ही रत्ननन्दिने श्वेताम्बरसे पहले अर्धफालक उत्पन्न संघ इसी अर्ध फालकके रूपमें घूमता रहा। तत्पश्चात् वि. सं. होनेकी कल्पना की है। दूसरे श्वेताम्बर मत जिनचन्द्र के द्वारा बल्लभी१३६ में सौराष्ट्र देशकी वल्लभीपुरी नगरीको प्राप्त हुआ। उस समय पुरमें प्रगट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ कि दुर्भिक्षके समय इस संघके आचार्य जिनचन्द्र थे। वल्लभीपुर नरेशकी रानो उज्जैनी जो मत प्रगट हुआ था उसका स्थान व प्रवर्तक इससे भिन्न मताया नरेशकी पुत्री थी। उज्जैनी में रहते उसने इन्हीं साधुओं के पास जाये । इसलिए अर्ध फालकको उत्पत्ति उज्जैनी में बतायी गयी और विद्याध्ययन किया था। अतः विनयपूर्वक अपने यहाँ बुलानेकी इसके प्रवर्तक आचार्यका नाम भी स्थूलभद्र रखा, जो कि श्वेताम्बर इच्छा करने लगी। परन्तु राजाको उनका वह वेष पसन्द न था, आम्नायमें अति प्रसिद्ध है। उज्जैनी नगरी में बी. नि. १६२ में अतः उसने उन साधुओंके पास कुछ वस्र भेज दिये, जिसे उत्पन्न होने के पश्चात् वह संघ अर्धफालकके रूपमें ४५० वर्ष तक जिनचन्द्रने राजा व रानीको प्रसन्नताके अर्थ ग्रहण करनेकी आज्ञा. विहार करता रहा। अर्ध फालक संघवाले साधु जन वस्तिकामें दे दो। बस तभी इस संघका नाम श्वेताम्बर पड़ गया। भोजन लेने जाते थे, तो एक वस्त्रके टुकड़ेको वे अपनी बायौं भुजापर हरिपेग कृत कथा कोष/५८-५६/३.३१८ "यावन्न शोभनः काल. जायते लटका कर रखते थे, जिससे उनकी नग्नता छिप जाये। चर्यासे साधवः स्फुटम् । तावच्च वामहस्तेन पुरः कृत्वाऽर्धकालकम् ॥१८॥ लौटनेपर उस वस्त्रको पुनः पृथक् करके वे दिगम्बर हो जाते थे। भिक्षापात्र' समादाय दक्षिणेन करेण च । गृहीत्वा नक्तमाहार', कुरु- यही संघ काल योगसे वी.नि. ६०६ में वल्लभीपुरीमें प्राप्त हुआ। ध्वं भोजनं दिने ।५६)"-१२ वर्षीय दुर्भिक्ष के समय १२००० साधुओं उस समय उस संघका आचार्य जिनचन्द्र था, जिसने उपरोक्त के साथ श्रुतकेबली भद्रबाहु और विशाखाचार्य (चन्द्र गुप्त) दक्षिण- कथनानुसार इसे श्वेताम्बरके रूपमें प्रवर्तित कर दिया। इस प्रकार पथ को चले गए और अपने संघ को यह आदेश दिया कि जब तक इसकी संगति भद्रबाहु श्रुतकेवलो तथा १२ वर्षीय दुर्भिक्षके साथ भी सुभिक्ष न हो जाये तब तक साधुओं को चाहिए कि वे अपना बायाँ बैठ जाती है। श्वेताम्बरोंके आदि गुरु स्थूलभद्र के साथ बल्लभीपुरके हाथ आगे करके उस पर एक अर्धफालक ( कपड़े का टुकड़ा) लटका साथ,भावसंग्रह वे दर्शनसारके अनुसार जिन चन्द्र के साथ व बी. नि, लें । तथा दायें हाथसे भिक्षा द्वारा आहार ग्रहण करके, उसे दिन ६०६ के साथ भी बैठ जाती है। यद्यपि प्रेमीजी रत्ननन्दि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर श्वेताम्बर क्योंकि वि. श. २ में किया गया था इसलिए उसकी उत्पत्तिका काल वि.१३६ भी माना जा सकता है। संघ की स्थापना के तरन्त पश्चात् अपनी मान्यताओं को वैध सिद्ध करने के लिये सूत्र संग्रह का विचार बहुत संगत है। [दिगम्बराचार्य श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वि. सं. १३६ (वी. नि, ६०६ ) में बता रहे हैं और श्वेताम्बराचार्य दिगम्बरोंकी उत्पत्ति वि. सं. १३६ (वी. नि. ६०६ ) में बता रहे हैं । १२ वर्षीय दुर्भिक्ष जो कि संघ विभेदमें प्रधान निमित्त है वी.नि.६०६ (वि. से, १३६) में पड़ा था। इन सब बातोंको देखते हुए भद्रबाहु चरित्रकी मान्यता कुछ युक्त अँचती है, कि वि.पू. ३१० में अर्थ फालक संघ उत्पन्न हुआ, और धीरे-धीरे वि. सं. १३६ में श्वेताम्बर के रूप में परिवर्तित हो गया। श्वेताम्बर ग्रन्थों में दिगम्बर मतकी उत्पत्ति भी उसी समय (वि. १३६ ) में बताया जाना भी इसी बातकी सिद्धि करता है कि बि.सं.१३६ में ही वह उत्पन्न हुआ था। अपने उत्पन्न होते ही उन्हें अपनेको मूलसंधी सिद्ध करनेके लिए दिगम्बरकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें यह कथा गदनी पडी होगी। इसके अतिरिक्त भी दिगम्बर मत की प्राचीनता निम्नमें दिये गये प्रमाणोंसे सिद्ध होती है। भट्टारक की इस कल्पभाको निर्मूल बताते है, और कहते हैं कि अर्धफालक नामका कोई भी सम्प्रदाय नहीं हुआ (द. सा./प्र./६९) परन्तु उनका ऐसा कहना योग्य नहीं, क्योंकि मथुराके कंगाली टीलेसे उपलब्ध कुशन कालीन (ई. २४०-३२० बी.नि. ५६७-८४७) कुछ प्राचीन आयाग पट्ट मिले हैं। जिनको पुरातत्व विभागने अर्धफालक मतका सिद्ध किया है। क्योंकि उनमें कुछ नग्न साधु अपने बायें हाथपर एक कपड़ाडाल कराउस कड़े के द्वारा अपनी नग्नता छिपाते दिखाये गये हैं। वे साधु कपडा तो अपने बायें हाथपर लटकाये हैं और कमण्डल या भिक्षापात्र अपने दाहिने हाथमें लिये हए.हैं (भद्रबाह चरित्र/प्र. उदयलाल ) Dr. Buhler in Indian antiquity. Vol 2, Page 135 At his ( Nemisha's) left knee stands a small packed male characterised by the cloth in his left hand as an ascetic with uplifted right hand, अर्थात् उसके बायीं ओर एक छोटी-सी नग्न पुरुषाकृति है जिसके बायें हाथपर एक वषड़ा है और एक साधुके रूपमें उसका दायाँ हाथ ऊपरको उठा हुआ है। जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १० खण्ड २ पृ.८० के फुटनोट में डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार पट्टमें नीचे एक स्त्री और उसके सामने एक नग्न श्रमण अंकित है। बह एक हाथ में सम्मार्जिनी और बायें हाथ में एक कपड़ा लिये हुए है। शेष शरीर नग्न है। भद्रबाहु चरित्र /प्र. उदयलाल-आगे चलवर वि. १३६ (वी.नि.६०६) में वह प्रगट रूपसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें प्रवर्तित हो गया। प्रारम्भमे उसका उल्लेख 'निर्ग्रन्थ श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ' के नामसे होता था। उपरान्त वही श्वेताम्बर कहलाया। इसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय भी पहले 'निर्गन्य श्रमण संघ' के नामसे पुकारा जाता था। उपरान्त वह दिग्वास और फिर दिगम्बर कहलाने लगा ! ६. प्रवर्तकों विषयक समन्वय दिगम्बर ग्रन्थ दर्शनसारके अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रवर्तक शान्त्याचार्य के शिष्य तथा भद्रबाह प्रथम (पंचम श्रुत केवली) के प्रशिष्य जिनचन्द्र थे। नन्दी संघ को गुर्वावली के अनुसार जिनचन्द्र भद्रबाहु द्वि. के प्रशिष्य थे प्रथम के नहीं। ये कुन्दकुन्द के गुरु थे। (दे. इतिहास ७/२) परन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थों में इस नामके आचार्यों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। दूसरी तरफ श्वेताम्बर आम्नायके अनुसार दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक शिवभूति या सहस्रमलको बताया है, परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में इस नामके आचार्योका कहीं पता नहीं चलता। भद्रबाहु चरित्रके कर्ता रत्ननन्दि 'रामस्य' व स्थूलभद्र को इसका प्रवर्तक बताते हैं। इन्द्र. श्वेताम्बरगुरुः तदादयः संशयमिथ्यादृष्टयः (गो, जी./जी, प्र./१६) में टीकाकारने श्वेताम्बर सम्प्रदायका प्रवर्तक 'इन्द्र' नामके आचार्यको ताया है प्रेमी जो को गोम्मटसारके टीकाकारका मत इष्ट है( द.सा./प्र.६०प्रेमी जी)। ७. उत्पत्ति काल विषयक समन्वय द, सा./प्र.६० प्रेमीजी-दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्रदाय कम हए यह विषय बहुत ही गहरी अन्धेरीमे छिपा हुआ है । श्रुतावतार में बतायी गयी गुर्वावलीमें गौतमसे लेकर जम्बू स्वामी तककी परम्परा दोनो ही सम्प्रदायको की तू मान्य है। इससे आगेके ५ श्रुतकेवलियोंके नाम दिगम्बर सम्प्रदायमें कुछ और श्वेताम्बर सम्प्रदायमैं कुछ और है। परन्तु भद्रबाहुको अवश्य दोनों स्वीकार करते है। इससे पता चलता है कि भद्रबाहु के पश्चात ही दोनों जुदा जुदा हो गये है। दूसरी बात यह भी है कि श्वेताम्बर मान्य सूत्र ग्रन्थोकी रचनाका काल वी. नि. वि. सं. ११० के लगभग है। उस समय वे वल्लभीपुर में देवधिगणी क्षमाश्रमणकी अध्यक्षतामें परिस्थिति बश संगृहीत किये गये थे श्वेताम्बरों के अनुसार संकलन का यह कार्य ८ दिगम्बर मतकी प्राचीनता १. श्वेताम्बर मान्य कथाको स्वीकार कर लें तो शिवभूतिने जिनकरूप (दिगम्बर मत) को स्वीकार किया था, उसका कारण इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि जिनकपी मार्ग से भ्रष्ट साधुओं में फिरसे जिनकल्प (दिगम्बरता) का प्रचार किया जाये। कथाके अनुसार शिवभूति गुरुके मुखसे जिनकल्पका उपदेश सुनकर उसे धारण करने में निश्चलप्रतिज्ञ हुए थे। इससे पता चलता है कि शिवभूतिसे पहले भी जिनकल्प अवश्य था जो इस समय शिथिल हो चुका था। २. श्वेताम्बर ग्रन्थोंमे ऐसा उल्लेख पाया जाता है"संयमो जिनकल्पस्य दु साध्योऽयं ततोऽधुना । वत स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराश्रितम् । तथा- दुर्धरो मूलमार्गोऽयं न शक्यते ततः।" इस उद्धरणसे स्पष्ट कहा गया है कि जिनकल्प ही मूलमार्ग है, परन्तु कालकी करालताके कारण आज उसका धारण किया जाना शक्य नहीं है। इसीलिए हमने स्थिरकल्पनाका आश्रय लिया है। इधर तो श्वेताम्बराचार्य ऐसा लिखते हैं दूसरी तरफ दिगम्बराचार्य क्या कहते हैंर. क. पा./१० विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।१० जो विषयो की आशाके वश न हो और परिग्रहसे रहित तथा ज्ञान-ध्यान-तपमें लवलीन हो वह तपस्वी गुरु प्रशंसनीय है। ३ इसके अतिरिक्त विक्रमादित्यकी सभाके नवरत्नों में से वराहमिहिर भी नग्न साधुओं का उल्लेख करते देखे जाते हैंविष्णोर्भागवतामयश्च सवितुर्विप्रा विदुर्ब्राह्मणः मातृणामिति मातृमण्डलविदः शंभोः सभस्मादद्विनः।। शाक्याः सर्वहिताय शान्तमनसो नग्ना जिनामा विदुयें यं देवमुपाश्रिताः स्वविधिना ते तम्य कुर्यः क्रियाम्।" = भाव यह है कि वैष्णव लोग विष्णुको प्रतिष्ठा करें, सूर्योपजीवी लोग सूर्य की उपासना वर; विप्र लोग ब्रह्माकी करें; ब्रह्माणी व इन्द्राणी प्रभृति सप्त मातृमण्डलको उनके माननेवाले अर्चा करें, बौद्ध लोग बुद्धकी प्रतिष्ठा करें, नग्न (दिगम्बर साधु) लोग जिन भगवान की पर्युपासना करें। थोड़े शब्दोमे यो कहिए कि जिस-जिस देव के जो उपासक हैं वे उस उसकी अपनी-अपनी विधिसे उपासना करें। ४. महाभारत जो कि वेदव्यास जी द्वारा ईसबी पूर्व बहुत प्राचीन काल में रचा गया था, वह भी दिगम्बर मतका उल्लेख करता है । यथा जनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर श्वेताम्बर माधयामस्तावदिश्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तस्ते कु.डले गृहीखा सोऽपश्यदध पथि नग्नं क्षपण कमागच्छन्तं भुमहश्यमानमहश्यमान च । (महाभारत परिच्छेद ३) = इसके अतिरिक्त भी महापुराणअश्वमेधाधिकारमे ४४ापृ. ६२०१ पर दिगम्बरव व अस्नानवका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। तथा ४६१८पृ.६१६६ पर दिगम्बर साधु सरीखी ही आहार बिहार चर्या आदि सम्बन्धी उल्लेख पाया जाता है। इसके अतिरिक्त भी दिगम्बराम्नायमें कुन्दकुन्द प्रभृति आचार्योंकत ईसवी पहिलो शताब्दोके ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, जब कि श्वेताम्बरोंके इतने प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त नहीं हैं। ९. श्वेताम्बरके अनुसार दिगम्बर मतकी उत्पत्ति यह सारा विषय उत्तराध्ययन सूत्र/अध्याय ३/चूर्ण सूत्र १७८ की श्री शांति सूरिकृत संस्कृत वृत्ति के तथा उसमें उद्धृत विविध आगमक्त गाथाओके आधारपर संकलित किया गया है। १. विविध कल्प निर्देश दिगम्बर मत की उत्पत्ति से पूर्व दिगम्बर व श्वेताम्बर ऐसे दो सम्प्रदायोंका नाम नहीं था, परन्तु साधुओंके दो कल्प अवश्य थे-स्थविर कल्प व जिन कल्प, जिनके लक्षण व भेद निम्न प्रकार हैं। उत्तराध्ययन टीका/पृ. "स्थविराश्च स्थिरीकरणकारिण'। (पृ. १५२)। यः स्याज्जिन व प्रभुः। (पृ. १७६ पर उधृत श्लोक)। सच प्रथमसहनन एव ( टोका पृ. १७६) ।"-तात्पर्य यह कि विकल्प ___ स्थविर कल्प जिन कल्प हीन संहननधारी उत्तम संहननधारी अपवादानुसारी मृदु आचार- जिनेन्द्र प्रभुवत उत्सर्ग मार्गावान् नुसारी कठोर आचारवान् । मन्दिर मठ आदिमें ससंघ । एकाकी वन विहारी आवास श्रावकोंके भोजन काल में श्रावकजन खा पीकर निवृत्त भिक्षावृत्ति हो चुके ऐसे तीसरे पहर में भिक्षा वृत्ति । नचा खुचा मिला तो ले लिया अन्यथा उपवास किया। रोग आदि होनेपर उसका उपचार न करते हैं न करउपचार करते हैं वाते हैं ऑखमें रजाणु पड़ जानेपर । न निकालते हैं न निकलवाते अथवा पॉवमें शूल लग जानेपर उसे निकालते या निकलबाते हैं सिंह आदिके समक्ष आ जाने- | वहाँ ही ध्यानस्थ होकर खड़े पर भागकर अपनी रक्षा करते रह जाते हैं। पाणिपात्राहारी, अवस्व पाणिपात्राहारी, सबस्न पात्रधारी और अवस परन्तु पात्रधारी। जो आचार विषयक निम्न दोषोंको बिना उपकरणों के ही टालनेको समर्थ है, उनके लिए तो इनका न ग्रहण करना ही योग्य है, परन्तु जो ऐसा करनेको समर्थ नहीं वे उपकरण ग्रहण करते हैं। २. जिनकल्पका विच्छेद उत्तराध्ययन/टोकः/पृ. एष व्युच्छिन्न। (१७६)। न चेदानीं तदस्तीति... ( १८०)।-वीर निर्वाणके ६२ वर्ष पश्चात् जम्बू स्वामीके निर्वाण पर्यन्त ही जिनकल्पको उपलब्धि होती थी। उसके पश्चाव इस काल में उत्तम संहनन आदिके अभावके कारण उसकी व्युच्छित्ति हो गयी है। ३. उपकरण व उनकी सार्थकता उत्तराध्ययन/पृ. १७६ पर उधृत .."जन्तबो बहबस्सन्ति दुर्दर्शा मांसचक्षुषाम् । तेभ्य. स्मृतं दयार्थं तु रजोहरणधारणम् ।११ सन्ति संपातियाः सत्त्वाः सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽगरे। तेषां रक्षानिमित्तं च विज्ञेया मुखवखिका ।। किंच-भवन्ति जन्तवो यस्यान्नपानेषु केषुचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थ पात्रग्रहणमिष्यते।४। अपरं च-सम्यक्त्वज्ञानशोलानि तपश्चेतीह सिद्धये। तेषामनुग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् । शीतवातातपैदशमशकैश्चापि खेदितः। मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं न सम्यक् संविधास्यति ।६। तस्य त्वग्रहों युव स्यात् क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञानाध्यानोपघातो वा महान् दोषस्तदैव तु ७" - बहुतसे जन्तु ऐसे होते है जो इन चर्मचक्षुओसे दिखाई नहीं देते। विहार शय्या आसन आदि रूप प्रवृत्तियों में उनकी रक्षाके अर्थ रजोहरण है। वायुमण्डल में सर्वत्र ऐसे सूक्ष्म जीव व्याप्त है जो मुखमें अथवा भोजन पान आदिमें स्वतः पड़ते रहते हैं। उनकी रक्षाके लिए मुखवखिका है। बहुत सम्भव है कि भिक्षामे प्राप्त अन्न पान आदिक में कदाचित् कोई जन्तु पड़े हों। अत. ठीक प्रकारसे देख शोधकर खानेके लिए पात्रों का ग्रहण इष्ट है । इनके अतिरिक्त सम्यवत्व, ज्ञान, शील व तपकी सिद्धिके अर्थ वस्त्र ग्रहण की आज्ञा है, ताकि ऐसा न हो कि कही शोत वात आतप डांस व बखो आदिको बाधाओंसे खेदित होनेपर कोई इनमे ठीक प्रकारसे ध्यान व उपयोग न रख सके। ये सभी पदार्थ बाह्याभ्यन्तर संयमके उपकारी होनेसे उपकरण संज्ञाको प्राप्त होते हैं, जिनका ग्रहण न करनेपर.शुद्र प्राणियों का विनाश तथा ज्ञान ध्यान आदिका उपघात रूप महान् दोष प्राप्त होते है। उत्तराध्ययनाटीका/पृ. १७६ "धर्मोपकरणमेवैतत न तु परिग्रहस्तथा।" दश वैकालिक सूत्र/अ.६ गा. १६"जं पिवत्थं य पायं वा. केवल पाय पंछणं । तेऽपि संजमलज ठा, धारेन्ति परिहरन्ति य।" अर्थातमूरिहित साधुके लिए ये सब धर्मोपकरण है न कि परिग्रह, क्योंकि मूछको परिग्रह संज्ञा प्राप्त होती है वस्तुको नहीं। बस्त्र व पात्रादि इन उपकरणों को साधुजन संयम की रक्षार्थ तथा लज्जा निवारणके लिए धारण करते हैं, और उनके प्रति इतने अनासक्त रहते हैं कि समय आनेपर जीर्ण तृणकी भाँति वे इनका त्याग भी कर देते हैं। ४. दिगम्बर मत प्रवर्तक शिवभूतिका परिचय उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १६४ का उपोद्घात/पृ. १५१ "जमालिप्रभृतीनां निङ्गगनां शिष्यास्तद्भक्तियुक्तितया स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्नः।' उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र १७८/पृ. १७६ पर उद्धृत “छवाससएहि णवोत्त रेहिं सिद्धिगयस्स बोरस्स । तो बोडियाण दिट्ठी रहवीपुरे समुप्पणा।" -श्वेताम्बर आगममें यत्र तत्र जमालि आदि सात तथा शिवभूति नामक अष्टम निह्नवोंका कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है। निह्नव संज्ञाको प्राप्त ये स्थविरकल्पी साधु तथा इनके शिष्य यद्यपि आगमके प्रति भक्ति युक्त होने के कारण स्वयं आगमानुसारी बुद्धिवाले होते हैं, साँझ पड़नेपर भी उचित | जहाँ दिन छिपा वहीं खड़े हो स्थान की खोज करते हैं जाते हैं। इस प्रकारके शक्तिकृत भेदके अतिरिक्त इनमें बाह्य वेषकृत कोई भेद नहीं होता। बाह्य वेषकी अपेक्षा दोनों ही चार-चार प्रकारके होते हैं । यथाउत्तराध्ययन/पृ. १७६ पर उद्धृत गाथा--जिणकप्पिया व दुविहा पाणिपाया पडिग्गहधरा य । पाउरजमया उरणा एक्केवा ते भवे विहा। य एतान् वर्जयेदोषान् धर्मोपकरणाहते । तस्य त्वग्रहण युक्तं, यः स्याजिन इव प्रभुः । - जिनकल्पी साधु चार प्रकारके होते हैं-सबस्त्र जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ। श्वेताम्बर श्वेताम्बर परन्तु गुरु आज्ञासे विपरीत अर्थ का प्रतिपादन करनेके कारण संघसे १०. दंढिया पंथ बहिष्कृत कर दिये जानेपर स्वयं स्वच्छन्द रूपसे अपने-अपने मतोंका प्रसार करते हैं, जिनसे विभिन्न सम्प्रदायों व मतमतान्तरोंकी उत्पत्ति १. दिगम्बरके अनुसार उत्पत्ति : होती है । भगवान् वीरके निर्वाण होनेके ६०६ वर्ष पश्चात अर्थात' कुछ काल पश्चात् इसी श्वेताम्बर संघमैसे ढिया पंथ अपरनाम वि. सं. १३६ में रथवीपुर नामक नगरमें वोटिक(दिगम्बर)मतवाला स्थानकवासी मतकी उत्पत्ति हुई । यथाअष्टम निहव शिवभूति उत्पन्न हुआ। भद्रबाहु चरित्र /४/१५७/९६१ मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते। उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र १७८/पृ. १७६-१८० का भावार्थ-यह शिवभूति दशपञ्चशतेऽब्दानामतीते शृणुतापरम् ११५७ अपनी गृहस्थावस्थामें अत्यन्त स्वच्छन्द वृत्तिवाला एक राजसेवक लुकामतमभूदेक लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजितनिर्जरे ।१५८। था, जिसने किसी समय राजाके एक शत्रुको जीतकर राजाको प्रसन्न अणहिल्लपत्तने रम्ये प्राग्वाटकुलजोऽभवत् । लुङ्काऽभिधो महामानी किया और उपलक्ष्य में उससे नगरमें स्वच्छन्द घूमनेकी आज्ञा प्राप्त श्वेतांशुकमहाश्रयी।१५।। दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपति' पापमण्डितः। कर ली । बह रात्रिको भी इधर-उधर घूमता रहता था, जिसके कारण तीव्रमिध्यात्व पाकेन लुटामतमकम्पमत ।१६०॥ तन्मतेऽपि च भूयासो उसकी खी व माता उससे तंग आ गयी, और एक रात्रिको जब वह मतभेदाः समाश्रिताः ।१६विक्रमकी मृत्युके १९२७ वर्ष बाद धर्म घर आया तो उन्होंने द्वार नहीं खोले। शिवभूति क्रुद्ध होकर उपा कर्मका सर्वथा नाश करनेवाला एक लुकामत (टू'ढिया मत) प्रगट श्रयमें चला गया और गुरुके मना करनेपर भी 'खेलमल्लक' नामक हुआ। इसीकी विशेष व्याख्या यों है कि--गुर्जर देश (गुजरात) में किसी साधुसे दीक्षा लेकर स्वयं केशलोंच कर लिया। कुछ काल एक अणहिल नामका नगर है। उसमें प्राग्वाट (कुलम्बी) कुल में पश्चाद ससंघ विहार करता हुआ जब वह पुनः इस नगर में आया तो लुका नामका धारक एक श्वेताम्बरी हुआ है। उस दुष्ट आत्माने कुपित राजाने अपना प्रिय जान उसे एक रत्न कम्बल मेंट किया। गुरुकी होकर तीन मिथ्यात्वके उदयसे खोटे परिणामों के द्वारा लुकामत आज्ञाके मिना भी उसने बह रत्न कम्बल ग्रहण कर लिये और उसे चलाया। उनमें भी पीछे अनेक भेद हो गये। गुरुसे छिपाकर अपने पास रखता रहा। एक दिन जब वह भिक्षाचर्याके लिए बाहर गया था, तब गुरुने इस परिग्रहसे उसकी रक्षा द. पा./टी./१२/११/१२ तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नाः । - उनमें से करनेके लिए उसकी पोटलीमें-से वह कम्बल निकाल लिया और (श्वेताम्बरियोंमेंसे) ही श्वेताम्बराभास (दढिया मत) उत्पन्न बिना पूछे उसमेसे फाड़कर साधुओके पाँव पोंछनेके आसन बना दिये । अतः शिवभूति भीतर ही भीतर गुरुके प्रति रुष्ट रहने लगा। २. श्वेताम्बरायाम्नायके अनुसार उत्पत्ति : ५. शिवभूतिसे दिगम्बर मतकी उत्पत्ति : विक्रम सं. १४७२ में इस मतके संस्थापक लोकाशाहका जन्म हुआ। उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १७८/पृ. १७१-"इत्यादि सो (सिवभूइ ) किं यह व्यक्ति अहमदाबादमें ग्रन्थ लिखनेका ब्यवसाय करता था। एक एस एवं ण कोरइ । तेहिं भणियं-एप गुच्छिन्नः । मम न व्युच्छिद्यते बार एक ग्रन्थ लिखनेको उजरतके विषयमें किसी यतिसे उसकी इति स एव परलोकार्थिना कर्त्तव्यः । कहा सुनी हो गयी, जिसके कारण उसने मूर्तिपूजाको तथा कुछ उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १७८/१८० "न चेदानों तदस्तीरयादिकया प्रागु- आचार विचारोंको आगम विरुद्ध बताकर एक स्वतन्त्रमतका प्रचार क्तया च युक्त्योच्यमानोऽसौ र्मोदयेन चीवरादिकं त्यक्त्वा करना प्रारम्भ कर दिया उसने २२ शिष्योंको दीक्षित किया, . गतः ।... तस्योत्तरा भगिनी, उद्याने स्थित वन्दिका मता, तं च जिनकी परम्परामे 'लोकागच्छ की उत्पत्ति हुई। पीछे इसमें भी दृष्ट्वा तयापि चीबरादिकं तवं त्यक्त, तदा भिक्षाय प्रविष्टा अनेकों भेद प्रभेद उत्पन्न हो गये। गणिकया दृष्टा । मास्मासु लोको विरक्षीत इति उरसि तस्याः सूरतके एक साधुने इस लोंकामतमें भी कुछ सुधार करके 'ढिया' पोतिका बद्धा। सा नेच्छति, तेन भणितं-तिष्ठतु एषा तब देवता नामक एक नये सम्प्रदायको जन्म दिया, जिससे कि पूर्ववर्ती भी दत्ता। तेन च द्वौ शिष्यो, प्रवजितौ-कौण्डिन्यः कोटिबीरश्च, सभी लोंकानुयायी दढिया नामसे प्रसिद्ध हो गये । स्थानकों में रहनेके ततः शिष्याणां परम्परा स्पर्शो जातः।" कारण इसके साधु स्थानकवासी कहलाते हैं। इसी सम्प्रदायमें उत्तराध्ययन । चूर्ण सूत्र १७८/पृ. १८० पर उदधृत-"उहाए पण्णत्तं आचार्य भिक्षुने तेरहपन्थकी स्थापना की। बोडियसिवभूइ उत्तरा हि इमं । मिच्छादसणमिणमो रहवीपुरे समुप्पण्णारा बोडियसिवभूइओ नोडियलिंगस्स होई उम्पत्ती। कोडिण्णा- ३. स्वरूप कोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्न। ।२।"-एक दिन गुरु जब पूर्वोक्त प्रकार भद्रबाहु चरित्र/४/१६१ सुरेन्द्रार्चा जिनेन्द्रार्चा तत्पूजा दानमुत्तमम् । जिनकल्पके स्वरूपका कथन कर रहे थे, तब शिवभूतिने उनसे पूछा समुत्थाप्य स पापात्मा प्रतापो जिनसूत्रवतः ।१६११- जिन सूर्यसे कि किस कारणसे अब आप साधुओंको जिनकल्पमें दीक्षित नहीं प्रतिकूल होकर, देवताओंसे भी पूजनीय जिन प्रतिमाकी पूजा दानादि करते हैं। वह मार्ग अब ब्युच्छिन्न हो गया है', गुरुके ऐसा कहनेपर सब कर्मोंका उत्थापन करके वह पापारमा जिन भगवानके व्रतोंसे वह बोला कि भले ही दूसरोंके लिए व्युच्छिन्न हो गया हो, परन्तु प्रतिकूल हो गया। मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं हुआ है। सर्वथा निष्परिग्रही होनेसे द. पा./टी./११/११/१२ तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव परलोका के लिए वही ग्रहण करना कर्तव्य है।-"हीन संहननके पापिष्ठाः देवपूजादिकं किल पापकर्मेदमिति कथयन्ति, मण्डलवत्सर्वत्र कारण इस काल में वह सम्भव नहीं है", गुरुके पूर्वोक्त प्रकार ऐसा भाण्डप्रक्षालनोदकं पिबन्ति इत्यादि, बहुदोषवन्तः -उन (श्वेतासमझानेपर भी मिथ्यात्व कर्मोदयवश उसने गुरुकी बात स्वीकार म्बरों) मेंसे श्वेताम्बराभासी ('ढिया मती) उत्पन्न हुए। वे नहीं की, और बस्त्र त्यागकर अकेला वनमें चला गया। उसके पीछे तीन पापिष्ठ होकर देव पूजादिकको भी पापकर्म बताने लगे। मण्डल उसकी बहन भी उसकी बन्दनार्थ उद्यानमें गयी और उसे देखकर मतकी भाँति बर्त नोंके धोबनका पानी पीने लगे। इस प्रकार बहुत वस्त्र त्याग नग्न हो गयी। एक दिन जब वह भिक्षार्थ नगर में प्रवेश दोषवन्त हो गये। कर रही थी, तो एक गणिकाने उसे एक साड़ी पहना दी, जिसे देवता प्रदत्त कहकर शिवभूतिने ग्रहण करनेकी आज्ञा दे दी। शिवभूतिने नोट-यह सम्प्रदाय श्वेताम्बर मान्य आगम सूत्रोंमेंसे ३२ को मान्य कौडिन्य व कोटिवीर नामक दो शिष्यों को दीक्षा दो जिनकी करता है। परन्तु श्वेताम्बराचार्यों कृत उनकी टीकाएँ इसे मान्य परम्परामें ही यह वोटिक या दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ है। नहीं हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंड खंड-दे, नपुंसक षडावश्यक - दे. आवश्यक । षट्कर्म - दे. साम ไป षट् काय काय | षट् काल-काल / ४ । षट्खंड - - भरतादि १०० कर्मभूमियों रूप क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो नदियाँ व एक-एक विजयार्ध पर्वत हैं। जिनके कारण वह छह खण्डों में विभाजित हो जाता है। इन्हें ही षट् खण्ड कहते हैं। इनमेंसे एक आर्य व शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। इन्हीं षट् खण्डोंको चक्रवर्ती जीतता है। विजयार्ध तथा आर्य खण्ड सहित तीन खण्डोंको अर्ध चक्रवर्ती जीतता है । दे, म्लेच्छ, खण्ड । षट् घट खंडागम यह कर्म सिद्धान्त पय ग्रन्थ है। इसकी विषयक उत्पत्ति मूल द्वादशांग श्रुतस्कन्धसे हुई है (दे. श्रुतज्ञान) । इसके छह खण्ड हैं-१ जीवद्वाण, २ खुद्दाबन्ध, ३ बन्धस्वामित्व विचय, ४ वेदना, ५ वर्गणा, ६ महाबन्ध । मूल ग्रन्थ के पाँच खण्ड प्राकृत भाषा सूत्र निवद्ध है। इनमें पहले खण्डके सूत्र (१०६* १३६) आचार्य बनाये हुए हैं। पीछे उनका शरीरान्त हो जाने के कारण शेष चार खण्डों के पूरे सूत्र आ. भूतबलि (ई.१३६-९५६) ने बनाये थे । छठा खण्ड सविस्तर रूपसे आ. भूतबलि द्वारा बनाया गया है । अतः इसके प्रथम पाँच खण्डोंपर तो अनेकों टीकाएँ उपलब्ध हैं, परन्तु छठे खण्डपर वीरसेन स्वामीने संक्षिप्त व्याख्या के अतिरिक्त और कोई टीका नहीं की है । १. सर्व प्रथम टीका आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६) द्वारा इसके प्रथम तीन खण्डोंपर रची गयी थी। उस टीकाका नाम 'परिकर्म' था। २. दूसरी टीका आ. समन्तभद्र (ई. श. २) द्वारा इसके प्रथम पाँच खण्डोंपर रची गयी । ३. तीसरी टीका आ. शामकुण्ड (ई. श. ३) द्वारा इसके पूर्व पाँच खण्डोंपर रची गयी है । ४. चौथी टीका आ, वीरसेन स्वामी (ई. १७७-८२७) कृत है। (विशेष दं० परिशिष्ट)। षद्गुणहानि वृद्धि - १. अविभाग प्रतिच्छेदोंमें हानि वृद्धिका नाम ही षट्गुण हानि वृद्धि है ८१ पं. का./त.प्र./८४ धर्मः (द्रव्य ) अगुरुलघु भिर्गुणै रगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वातिष्ठवनिमन्नस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदैः प्रतिसमयसंस्थानपतितवृद्धिहानिभिरनन्ते सदा परिणतत्वादुत्पादव्ययत्वेऽपि । धर्म ( धर्मास्तिकाय) अगुरुलघुगुणों रूपसे अर्थात अगुरुलघु नामका जो स्वरूपप्रतिष्ठत्व के कारणभूत स्वभाव उसके अविभागप्रतिरूप जो कि प्रतिसमय होनेवाली पदस्थानपतित वृद्धि हानिवासे अनन्त हैं उनके रूप परिण मित होनेके उत्पाद व्यय स्वभाववाला है । मोजो./जी./२६१/२०१२/२ धर्माधर्मादीनां गुरुताविभाग प्रतिच्छेदः स्वद्रव्यत्वस्य निमित्तभूत शक्तिविशेषाः षड्वृद्धिभिर्वर्धमानषड्हानिभिश्च हीयमानाः परिणमन्ति । - धर्म और अधर्म द्रव्योंके अपने correst कारणभूत शक्ति विशेष रूप जो अगुरुलघु नामक गुणके अविभाग प्रतिच्छेद से अनन्त भाग वृद्धि आदि, तथा षट्स्थान हानि के द्वारा वर्धमान और हीयमान होता है। P २. एक समय में एक ही वृद्धि या हानि होती है ष. वं. १०/४,२,४ / सू. व टी / २०२-२०५/४६६ तिण्णिवद्वितिणिहाणीओ केवचिरं कालादो होंति । जहणेण एगसमयं |२०११ -- भा० ४-११ पदज संभाग समयमा जिदिए समय सेसतिणं मड्डी मेनबडि हामीणमेत महाणि वा गदस्स अज्जभागकालो जहन समय होदि एवं दोबड्ढीणं तिष्णिहाणीण च एगसमयपरूवणा कादव्या । 'उक्कस्से आवलियाए असंखेज्जदिभागो । २०३।१ - एका जीवो जम्हि कहि बिजोग हिंदो असंगडियो गदो तत्थ एकसमयमपि विदियसमए ततो असेनदिभागुत्तरयोग गदो एवं दोण्णम संखेज्जभागबडू ढिसमयाण मुबलद्धी जादा । बढिहाणी केवचिरं कालादो होंति । जहण्जेण एगसमओ 1२०४१अवगुणहाणि वा एगम दवढि हाणीणं - गदस्स एगसमओ होदि । 'उक्कस्सेण अंतीमुत्तं २०५१' = 'तीन वृद्धियाँ और तीन हानियाँ कितने काल तक होती हैं 1 जघन्यसे एक समय होती हैं । २०२१ -- असंख्यात भाग वृद्धि होनेपर जघन्यसे एक समय रहकर द्वितीय समय में शेष तीन वृद्धि में किसी वृद्धि अथवा चार हानियोंमें किसी एक हानिको प्राप्त होनेपर असंख्यात भागवृद्धिका काल जघन्यसे एक समय होता है। इसी प्रकार शेष दो वृद्धियों और तोन हानियोंके एक समयकी प्ररूपणा करनी चाहिए। 'उत्कर्ष से उक्त हानि-वृद्धियोंका काल आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । २०३ - एक जीव जिस किसी भी योगस्थान में स्थित होकर असंख्यात भागवृद्धिको प्राप्त हुआ। वहाँ एक समय रहकर दूसरे समय में उससे असंख्यातवें भागसे अधिक योगको प्राप्त हुआ। इस प्रकार असंख्यात भाग वृद्धिके दो समय की उपलब्धि हुई । ( इसी प्रकार तीन आदि समयों में आवली पर्यन्त लागू कर लेना ) । 'असंख्यात गुणवृद्धि और हानि मिल्ने काल तक होती है । जघन्यसे एक समय होती है । २०४ गुणवृधि अथवा असंख्यात गुण हानिको एक समय करके अविवक्षित वृधि या हानिको प्राप्त होनेपर एक समय होता है। उ हानि अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है|२०| असल्भात ३. स्थिति आदि बन्धोंमें वृद्धि हानि सम्बन्धी नियम घ. ६/१.३-४.३/१८३/१ एत्यहानीओ सत्य पतिदोनमस्स असं दिभागमेत हिदीए विणा गुणहानीए असंभवादो। यहाँ अर्थात इस जघन्य स्थिति गुणहानियाँ नहीं होती है, क्योंकि, पक्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिके बिना गुण-हानिका होना सम्भव नहीं है । घ. १२/४.२.११.२६१/०६२/१३ सदिकमसिए परि रहनी Goraड्ढी होदि तो एगसममपत्रद्धधमेत्ता चेव होदित्ति गुरुब एसादो । = क्षपित कर्माशिक के यदि बहुत अधिक द्रव्यवः (प्रदेशोंकी) वृद्धि होती है तो वह एक समय प्रबंध प्रमाण ही होती है, ऐसा गुरुका उपदेश है । * अन्य सम्बन्धित विषय = १. छह वृद्धि हानियाँका क्रम, अर्थ, संहनानी व यन्त्र । -देन 11/२/ २. अनुभाग काण्डको गुण हानियाँ २. अध्यवसाय स्थानोंमें वृद्धि हानियों। ४. व्यंजन पर्याय अन्तलीन अर्थ पर्याय ५. अशुद्ध पर्यायोंमें भी एक दो आदि समयोंके पश्चात् हानिवृद्धि होती है। बड़क संख्यात गुण की संज्ञा षड्ज - एक स्वर - दे, 'स्वर' । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - दे. ध. १२/१५७-२०२ । - दे. वह वह नाम । -vofa/1/1 - दे. अवधिज्ञान / २ / २ / खान 15/२/३ 1 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड् दर्शन संक्रमण षड् दर्शन-दे. दर्शन। षड् दर्शन समुच्चय-श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि (ई.४८०- ५२८) द्वारा रचित संस्कृत सूत्र बद्ध ग्रन्थ है। इसमें जैन, बौद्ध. चार्वाक, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग और मोमांसक इन छह दर्शनोंका संक्षिप्त वर्णन है। . . संकलन वार-दे. गणित/I1/१। संकलित धन-Sum of series (ज. प./प्र. १०८) । संकल्प-पं. का.ता. वृ.//९/७ बहिर्द्रव्ये चेतनाचेतनमिश्रे ममेद मित्यादि परिणामः संकल्पः । = चेतन-अचेतन-मिश्र, इन बाह्य पदार्थों में 'ये मेरे हैं' ऐसी कल्पना करना संकल्प है। प.प्र./टी./१/१६ बहिर्द्रव्यविषये पुत्र कलत्रादिचेतनाचेतनरूपे ममेदमिति स्वरूपः संकल्पः। -स्त्री-पुत्र आदि चेतन, अचेतन, नाह्य पदार्थों में 'ये मेरे हैं' ऐसा विचारना सो संकल्प है। (द्र. सं./टी./ ४१/१७४/१)। संकुट-जीवको संकुट कहनेकी विवक्षा-दे. जीव/२/३ । सकत-Symbol Notation (ध./प्र.२८)। २. गणित सम्बन्धी विशेष शब्दोंकी सहनानियाँ -दे. गणित/I/२ . संकेत क्रम-Scale of Notation (ध.५/प्र. २८)। षडरसी-व्रत-उत्कृष्ट २४वर्ष,मध्यम १२ वर्ष वजघन्य १ वर्ष में ज्येष्ठ कृ. १ से ज्येष्ठ पूर्णिमा तक-कृ.१ को उपवास, २-१५ तक एकाशन: शु.१ को उपवास, २-१५ तक एकाशन करे। 'ओं ह्रीं श्री वृषभजिनाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (व्रत विधान सं./४३) । षण्णवति प्रकरण-आ. सोमदेव (ई.६४३-६६८) कृत न्याय विषयक एक ग्रन्थ है। षष्ठभक्त-दो उपवास--दे. प्रोषधोपवास/१ । षष्ठ बेला-बेला अर्थात दो उपवासको षष्ठ भक्त कहते हैं। -दे. बेलावत। षष्ठी व्रत-वर्ष तक प्रतिवर्ष श्रावण शु. ६ के दिन उपवास करे। तथा 'ओं ह्रीं श्री नेमिनाथाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जप करे। (व्रत विधान सं./१२२)। षाष्ठिक पद्धति-Sexagesimal Measure (ज.प./प्र.१०८)। षोडशकारण धर्म चक्रोद्धार यन्त्र-दे, यन्त्र । षोडशकारण भावना-दे, भावना। षोडश कारण भावना व्रत-१६ वर्ष तक, वा ५ वर्ष तक, अथवा जघन्य एक वर्ष तक प्रतिवर्ष भाद्रपद, माघ व चैत्र, इन तीनों महीनों में कृ.१ से लेकर अगले महीने की कृ.१तक ३२ दिन तक क्रमशः ३२ उपवास, वा १६ उपवास. १६ पारणा, अथवा जघन्य विधिसे ३२ एकाशना करे। जाप्य-'ओं ह्रीं दर्शविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो नमः ।' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । (व्रत विधान सं./पृ. ३८) । संकोच-जीवकी संकोच विस्तार शक्ति-दे. जीव/३ । संक्रमण-जीवके परिणामोंके वशसे कर्म प्रकृतिका बदलकर अन्य प्रकृति रूप हो जाना संक्रमण है। इसके उद्वेलना आदि अनेकों भेद हैं। इनका नाम वास्तव में संक्रमण भागाहार है। उपचारसे इनको संक्रमण कहने में आता है। अतः इनमें केवल परिणामोंकी उत्कृष्टता आदि हीके प्रति संकेत किया गया है। ऊंचे परिणामोंसे अधिक द्रव्य प्रतिसमय संक्रमित होनेके कारण उसका भागाहार अस्प होना चाहिए । और नीचे परिणामोंसे कम द्रव्य संक्रमित होने के कारण उसका भागाहार अधिक होना चाहिए। यही बात इन सम भेदोंके लक्षणोंपर से जाननी चाहिए। उद्वेलना विध्यात व अधःप्रवृत्त इन तीन भेदों में भागहानि क्रमसे द्रव्य संक्रमाया जाता है, गुणश्रेणी संक्रमण में गुण श्रेणी रूपसे और सर्व संक्रमणमें अन्तका मचा हुआ सर्व द्रव्य युगपत संक्रमा दिया जाता है। یه له [स] الله संकट हरण व्रत-तीन वर्ष तक प्रतिवर्ष भाद्रपद, माघ व चैत्रमासमें शु. १३ से शु. १५ तक उपवास । तथा ओं हाँ, ह्रीं ह्र हों हः असि आ उसा सर्व शान्ति कुरु कुरु स्वाहा' इस मंत्रका त्रिकाल जप करे। (वत विधान सं./४२)। संकर दोष-स्या. मं/२४/२१२/१० येनात्मना सामान्यस्याधि करणं तेन सामान्यस्य विशेषस्य च, येन च विशेषस्याधिकरणं तेन विशेषस्य सामान्यस्य चेति सङ्करदोषः। -स्याद्वादियों के मत अस्तित्व और नास्तित्व एक जगह रहते हैं। इसलिए अस्तित्वके अधिकरणमें अस्तित्व और नास्तित्वके रहनेसे, और नास्तित्व के अधिकरणमें नास्तित्व और अस्तित्वके रहनेसे स्याद्वादमें संकर दोष आता है । ( ऐसी शंकामें संकर दोषका स्वरूप प्रकट होता है।) स. भ.त/८२/६ सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः। -( उपरोक्तवत् ) सम्पूर्ण स्वभावोंकी युगपत् प्राप्ति हो जाना संकर है। (श्लो. वा.न्या. ४५६/५५१/१८ पर भाषामें उद्धृत)। संकलन-Addition जमा करना । दे. गणित/I1/१/३ ! संकलन धन-दे, गणित/1/१/३ । १ संक्रमण सामान्यका लक्षण संक्रमण सामान्यका लक्षण । संक्रमणके मेद। पाँचों संक्रमणोंका क्रम। ४ | सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिको उद्वेलनामें चार संक्रमणों का क्रम। विसंयोजना। - दे. विसंयोजना। संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियों। केवल विध्यात ,.." केवल अधःप्रवृत्त , , | केवल गुणसंक्रमण योग्य प्रकृतियों । केवल सर्व संक्रमण ,, , | विध्यात व अधःप्रवृत्त इन दोके योग्य । अधःप्रवृत्त व गुण इन दोके योग्य । अधःप्रवृत्त और सर्व इन दो के योग्य । विध्यात अधःप्रवृत्त व गुण इन तीनके योग्य । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमण सूचीपत्र अध:प्रवृत्त गुण व सर्व इन तीनके योग्य । विध्यातगुण व सर्व इन तीनके योग्य । उद्वेलनके बिना चारके योग्य । विध्यातके बिना चारके योग्य । पाँचोंके योग्य । प्रकृतियोंमें संक्रमण सम्बन्धी कुछ नियम व शंका | बध्यमान व अवध्यमान प्रकृतियों सम्बन्धी। दर्शन मोहमें अबध्यमानका भी संक्रमण होता है। -दे. संक्रमण/३/१।। २ | मूल प्रकृतियोंमें परस्पर संक्रमण नहीं होता। स्वजाति उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। -दे. संक्रमण/३/२॥ उत्तर प्रकृतियोंमें संक्रमण सम्बन्धी कुछ अपवाद । चारों आयुओंमें परस्पर संक्रमण सम्भव नहीं। -दे, संक्रमण/३/३ । * दर्शन चारित्र मोहमें परस्पर संक्रमण सम्भव नहीं। -दे, संक्रमण/३/३। * कषाय नोकषायमें परस्पर संक्रमण सम्भव है। -दे, संक्रमण/३/३। ४ | दर्शन मोह त्रिकका व उदयकालमें ही संक्रमण नहीं होता। प्रकृति व प्रदेश संक्रमणमें गुणस्थान निर्देश । संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियोंका भी उदय । | अचलावलि पर्यन्त संक्रमण सम्भव नहीं। संक्रमण पश्चात् आवली पर्यन्त प्रकृत्तियोंकी अचलता। संक्रमण विषयक सत् संख्यादि आठ प्ररूपणाऐं। -दे. वह वह नाम। * प्रकृतियोंके संक्रमण व संक्रामको सम्बन्धी काल अन्तर आदि प्ररूपणाएँ। -दे. वह बह नाम । उद्वेलना संक्रमण निर्देश उद्वेलना संक्रमणका लक्षण! उदेलना संक्रमण द्विचरम काण्डक पर्यन्त होता है। -दे. संक्रमण/१/४1 २ मार्गणा स्थानोमें उद्वेलना योग्य प्रकृतियों। ३ मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलना योग्य काल । यह मिथ्यात्व अवस्थामें होता है। * सम्यक् व मिश्र प्रकृतिको उद्वेलनामें चार संक्रमणोंका क्रम। - दे. संक्रमण/९/४। यह काण्टक घात रूपसे होता है।-दे. संक्रमण 1 सम्यक् व मिश्र प्रकृतिको उद्वेलना का क्रम । विध्यात संक्रमण निर्देश विध्यात संक्रमणका लक्षण । * | बन्ध व्युच्छित्ति होनेके पश्चात् उन प्रकृतियोंका ४-७ गुणस्थानों में विध्यात संक्रमण होता है। -दे. संक्रमण/१। अधःप्रवृत्त संक्रमण निर्देश अधःप्रवृत्त संक्रमणका लक्षण । काण्डकपात व अपवर्तनाघातमें अन्तर । -दे. अकर्षण/४/६ यह नियमसे वातिरूप होता है। मिथ्यात्व प्रकृतिका नहीं होता। शेष प्रकृतियोंका व्युच्छित्ति पर्यन्त होता है। -दे. संक्रमण/१/३ । | सम्यक् व मिश्र प्रकृतिके अध:प्रवृत्त संक्रमण योग्य काल। गुण संकमण निर्देश गुण संक्रमणका लक्षण। गुण संक्रमणका स्वामित्व। -दे. संक्रमण/१/३ । बन्धवालो प्रकृतियोंका नहीं होता। मिथ्यात्वके विधाकरणमें गुण संक्रमण । -दे, उपशम/२1 | गुण संक्रमण योग्य स्थान । गुण संक्रमण कालका लक्षण । गुणश्रेणी निर्देश गुणश्रेणी विधानमें तीन पर्वोका निर्देश । गुणश्रेणि निर्जराके आवश्यक अधिकार । गुणश्रेणिका लक्षण । गुणश्रेणि निर्जराका लक्षण। गुणश्रेणि शीर्ष का लक्षण । गुणवेणि आयामका लक्षण । गलितावशेष गुणश्रेणि आयामका लक्षण । अवस्थिति गुणश्रेणि आयामका लक्षण । गुणश्रेणि आयामोंका यन्त्र। अन्तर स्थिति व द्वितीय स्थितिका लक्षण। गुणश्रेणि निक्षेपण विधान। * गुण श्रेणि निर्जराका ११ स्थानीय अल्पबहुत्व । -दे. अल्पबहुत्व/३/१०॥ | गुणश्रेणि निर्जरा विधान। गुणश्रेणि विधान विषयक यन्त्र । १४ नोकर्मकी गुणश्रेणि निर्जरा नहीं होती। सर्व संक्रमण निर्देश सर्व संक्रमणका लक्षण । चरम फालिका सर्वसंक्रमण ही होता है। -दे. संक्रमण/१/३/४ । १० आनुपूर्वी व स्तिवुक संक्रमण निर्देश आनुपूर्वी संक्रमणका लक्षण । स्तिवुक संक्रमणका लक्षण । अनुदय प्रकृतियों स्तिवुक संक्रमण द्वारा उदयमें आती हैं। -दे, संक्रमण/३/६।। - ----- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमण सक्रमण योग्य प्रकृतियाँ १. संक्रमण सामान्य निर्देश १. संक्रमण सामान्यका लक्षण क. पा. १/१, १८/६३१/३ अंतरकरणे कए जं णवंसयवेयकवणं तस्स 'संकमणं ति सण्णा । - अन्तरकरण कर लेनेपर जो नपुंसकवेदका (क्षपकके जो ) पण होता है यहाँ उसको ( उस कालकी ) संक्रमण संज्ञा है। गो, क./जी. प्र./४३८/५६१/१४ परप्रकृतिरूपपरिणमन संक्रमणम् । जो प्रकृति पूर्व में बँधी थी उसका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है। (गो, क /जी, प्र./४०६/५७३/५) । सम्यक्त्व प्रकृतिके पूरण काल में और मिथ्यात्वके क्षय करनेमें अपूर्वकरण परिणामोके द्वारा मिथ्यात्वके अन्तिम काण्डककी उपाध्य फालिपर्यन्त गुणसंक्रमण और अन्तिम फासिमें सर्व संक्रमण होता है। ४. सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलनामें चार संक्रमणों का क्रम गो, क./मू./४१२-४१३ मिच्छेसमिस्साणं अधापवत्तो मुहुत्त अंतोत्ति। उज्वेलण तु तत्तो दुचरिमकंडोत्ति शियमेण ।४१२१ उध्वेलणपयडोणं गुणं तु चरिमम्हि कंडये णियमा। चरिमे फालिम्मि पुणो सब्वं च र होदि संकमणं ।४१३१- मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेपर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीयका अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त तक अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है। और उद्वेलन नामा संक्रमण द्विचरम काण्डक पर्यन्त नियमसे प्रबलता है।४१२। उद्वेलन प्रकृतियोंका अन्तके काण्डकमें नियमसे गुण संक्रमण होता है। और अन्तको फालिमें सर्व संक्रमण होता है ।४१३॥ २. संक्रमणके भेद १. सामान्य संक्रमणके भेद घ. १५/२८२-२८४ संक्रमण या विपरिणमन अपवर्तन उद्वर्तनअन्य प्रकृतिअपकर्षण - उत्कर्षण... संक्रम अन्यप्रकृति.. सक्रम निर्जरा अन्यप्रकृति संक्रमण प्रकृति स्थिति अनुभाग २. संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ १. केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ मूल उत्तर पं. सं./प्रा./२/८ आहारय-वेउविय-णिर-णर-देवाण होंति जुगलाणि | सम्मत्तुच्चं मिस्सं एया उब्वेलणा-पयडी।आहारक युगल (आहारक शरीर-आहारक अंगोपांग), वैक्रिमिक युगल (वै क्रियिक शरीर, वैक्रियिक-अंगोपांग), नरक युगल (नरकगति, नरक गत्यानुपूर्वी), गो. जो/मू./५०४/१०३ संकमणं सट्ठाण बरठाणं होदि । - संक्रमण दो नरयुगल ( मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी), देवयुगल, ( देवगति, प्रकारका है-स्वस्थान संक्रमण और परस्थान सक्रमण [इसके देवगत्यानुपूर्वी), सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्रप्रकृति और उच्चगोत्र ये अतिरिक्त आनुपूर्वी संक्रमण (ल. सा./म./२४६ ), फालि संक्रमण और तेरह उद्वेलन प्रकृतियाँ हैं । (गो. क./मु/४१४५७७ ) काण्डक संक्रमण (गो.क./जी.प्र/४१२/५७५ ) का निर्देश भी आगममें पाया जाता है। २. केवल विध्यात योग्य प्रकृतियाँ २. भागाहार संक्रमणके भेद गो. क./मु./४२६ सम्मत्तणुव्वेलणथीणतितीसं च दुवस्ववीसं च । वज्जो राल दुतित्थं मिच्छं विज्झादसत्तराठी १४२६ सम्यक्त्व मोहनीयके ध. १६/गा, १/४०६ उज्वेलणविज्झादो अधापवत्तो गुणो य सम्यो य । (संकमणं)...1४०/- उसके ( भागाहार या संक्रमणके) उद्वेलन, बिना उद्वेलन प्रकृतियाँ १२ ( दे. संक्रमण/२/१), स्त्यानगृद्विध तीन विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम, और सर्वसंक्रमणके भेदसे पॉच आदिक ३० प्रकृतियाँ (दे. संक्रमण/२/१२), असाता वेदनीय आदिक २० प्रकृतियाँ (दे, संक्रमण/२/8), वज्रर्पभनाराचसंहनन, औदारिक प्रकार हैं।४०१) ( गो. क./मू./४०६)। युगल, तीर्थ कर प्रकृति और मिथ्यात्व प्रकृति ये (१२+३०+२०+ ३. पाँचों संक्रमणोंका क्रम ५ = ) ६७ प्रकृतियाँ विध्यात संक्रमणवाली हैं। गो.क./मू.व. जी.प्र/४१६ बंधे अधापवत्तो विज्झाद सत्तमोत्ति ह ३. केवल अधःप्रवृत्त योग्य प्रकृतियाँ अबंधे। एत्तो गुणो अबंधे पयडीणं अप्पसंस्थाण।४१६ प्रकृतीनां बन्धे- गो, क./मू/११६-४२०/५८० मुहमरम बंधधादी सादं संजलणलोहपंचिंदी। सति स्वस्व बन्धव्युच्छित्तिपर्यन्तमधःप्रवृत्तसक्रमण: स्यात न मिथ्या- तेजदुसमवष्णचङ अगुरुलहुपरघाद उस्सासं १४१६। सत्यगदी तसदसयं स्वस्य । ...बन्धब्युच्छित्तौ सत्यामसंयताद्यप्रमत्तपर्यन्त विध्यात- णिमिणुगुदाले अधापवत्तो दु ।..."४२०- सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमें संक्रमण स्यात् । इत. अप्रमत्तगुणस्थानादुपर्युपशान्तकषायपर्यन्तं अंधव्युच्छिन्न होनेवाली धातिया कोको १४ प्रकृतियाँ ( दे. प्रकृतिबन्धरहिताप्रशस्तप्रकृतीनो गुण संक्रमणं स्यात् । ततोऽन्यत्रापि प्रथमो- बंध./9/२ ) साता वेदनीय, संज्वलन लोभ, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस, पशमसम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयादन्तर्मुहूर्त पर्यन्तं पुनः मिश्रसम्यक्त्व- कार्मण, समचतुरस्त्र, वर्णादि ४, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रकृत्योः पूरणकाले मिथ्यात्वक्षपणायामपूर्वकरणपरिणामान्मिथ्यात्व. प्रशस्तबिहायोगति. त्रस आदि १० (दे, उदय/4/९) और निर्माण चरमकाण्डकद्विक चरमफालिपर्यन्तं च गुणसंक्रमणं स्यात् । चरमफालौ इन ३६ प्रकृतियों में अधःप्रवृत्त संक्रमण है। सर्व संक्रमणं स्यात् । प्रकृतियों के बंध होनेपर अपनी-अपनी बंध ___गो. क./मु./४२७/५८४ मिच्छूणि गिवीससयं अधापवत्तस्स होति पयव्युच्छित्ति पर्यन्त अध प्रवृत्त संक्रमण होता है परन्तु मित्यात्व डोओ।...1४२७१-मिथ्यात्व प्रकृतिके बिना १२१ प्रकृतियाँ अधःप्रवृत्त प्रकृतिका नहीं होता। और बन्धको व्युच्छित्ति होने पर असंयतसे संक्रमणकी होती हैं। लेकर अप्रमत्तपर्यन्त विख्यातनामा संक्रमण होता है। तथा अप्रमत्तसे ४. केवल गुण संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ आगे उपशान्त कषाय पर्यन्त बन्ध रहित अप्रशस्त प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण होता है। इसी तरह प्रथमोपशम सम्यक्त्व आदि अन्य गो, क./मू./४२७-४२८/५८४-५८५.. मुहमस्स बंधघादिप्पहुदी उगुदातुजगह भी गुणसंक्रमण होता है ऐसा जानना। तथा मिश्र और रालदुगतिथं ।४२७१ वज्ज संजलणति ऊणा गुणसं कमरस पयडीओ। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्रमण सखाओ = जिवनं विजानाहि ४२१क्ष्म साम्प रायमें बँधनेवाली घातिया कर्मोकी १४ प्रकृतियोंको आदि लेकर ( दे, संक्रमण / २ / ३ में केवल अधःप्रवृत्त सक्रमण में योग्य ) ३६ प्रकृतियों, औहारिक शरोर, जहारिक अंगोपांग, तीर्थंकर वर्ष भनाराय पुरुषवेद, संजवन कोयादि तीन (३) ४० प्रकृतियों को कम करके (१२२ - ४७ ) शेष ७५ प्रकृतियाँ गुण संक्रमण की हैं । ४२७-४२८ । ५. केवल सर्वसंक्रमण योग्य प्रकृतियाँ गो.क./मू / ४१७/५७६ तिरियेयारुववेल्लणपयडी संजलणलोहसम्म मिसूना | मोहा थोतिर्ग च य चावण्णे सव्त्रसंकमणं । ४१७१ - तिर्यगेकादश (दे. २/१) उसनको १३ (दे. संक्रमण/२/१ ). संज्वलन लोभ, सम्यक्त्व मोहनोय, मिश्र, इन तीन के बिना मोहनीयकी २५ और स्थानगृद्धि आदिक (स्त्यानगृधि प्रचा नाना प्रकृतियाँ (११+१३+१५+३) २२ प्रकृतियोंमें सर्वसंक्रमण होता है ।४१७ ३ ६. विध्यात व अधःप्रवृत्त इन दोके योग्य गो.क./मू./४२५/५८३ ओरालदुगे वज्जे तित्थे विज्झादधापवत्तोय ।४२५| -दारिक शरीर अंगोपांग वज्रर्षभनाराच संहनन तीर्थंकर प्रकृति- इन चारोंमें विध्यातसंक्रमण और अधःप्रवृत ये दो संक्रमण हैं । ७. अधःप्रवृत्त व गुण इन दो के योग्य गो./मू./ ४२१-४२२/११ वा पयला अचानक उब घादे | २१| सत्तण्हं गुणसंकममधापवत्तो य ।... १४२२ - निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णादि चार, और उपघात, इन सात प्रकृतियों के गुणसंक्रमण और संक्रमण पाये जाते हैं। ८. अधःप्रवृत्त और सर्व इन दोके योग्य गो. . / . / ४२४/४८२ संगतिमे पुरिसे अधापवतोय सोय ४२४ 'संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा पुरुषवेद इन चारोंमें अधःप्रवृत्त और सर्व संक्रमण ये दो ही संक्रमण पाये जाते हैं । ९. विध्याज अधःप्रवृत्त व गुण इन तीनके योग्य गो/ यू. ४२२-४२...महादी संहदि ठाण 1 थिरछक्कं च ॥ ४२२| वोसहं विज्झाढं अधापवत्तो गुणो य ।... । ४२३ । - असातावेदनीय, अप्रशस्त विहायोगति, पहले के बिना पाँच हमन व पचि संस्थान ये १० नीचो अपर्याप्त और अस्थिरादि ६, इस प्रकार २० प्रकृतियोंके विध्यातसंक्रमण, अधःप्रवृत्त संक्रमण, सर्व संक्रमण ये तीन हैं । १०. अधःप्रवृत्त गुण व सर्व इन तीनके योग्य श्री.क./मू./४२००३ इस्सरदि भयछे अधापयतो गुट सम्बो |४२५ । हास्य, रति, भय और जुगुप्सा-इन चार प्रकृतियों में अधःप्रवृत्त, गुण और सर्व संक्रमण ये तीन संक्रमण पाये जाते हैं । ४२ ॥ ११. विध्यात गुण 'और सर्व इन तीनके योग्य गो...४२/२ विकास सम्मे-४१३ मिध्याव प्रकृतिमें विध्यात गुण और सर्व संक्रमण ये सीन है १२. उद्वेलनाके बिना चारके योग्य गो.क./मू./४२०-४२१/५८१ थीणतिबारकसाया संढित्यो अरइ सोगो य ४२०१ तिरिमेयारं तीसे उज्वेलणहीणचारि संकमणा ।।४२१८ ८५ ३. प्रकृतियोंके संक्रमण सम्बन्धी कुछ नियम - स्त्यानगृधि निशानिया, प्रताप्रचला. ( संज्वलनके बिना) १२ कवाय, नपुंसक वेद, स्त्रीव, अति, शोक, और तिर्यक एकादशकी ११ (दे. उदय ६/१) इन तीस (३०) प्रकृतियों में उद्वेलन संक्रमणके बिना चार संक्रमण होते हैं। १३. विध्यातके बिना चारके योग्य गो.क./मू. ४२३ / ५८२ सम्मे विज्झादपरिहीणा | ४२३ | सम्यक्त्व मोहनीय विष्यात के बिना सर्व संक्रमण पाये जाते हैं। १४. पाँचके योग्य गो.क./मू./ ४२४/५८३ संजलणतिये पुरिसे अधापवतोय सब्बो य ॥ ४२४॥ = सम्यक्त्व मोहनीयके बिना १२ उद्वेलन प्रकृतियों में (दे, संक्रमण / २१) पांचों ही संक्रमण होते हैं। ३. प्रकृतियोंके संक्रमण सम्बन्धी कुछ नियम व शंका १. बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति सम्बन्धी १६/४०२/४ असोज जाय डोणं बंधी संभवदि तत्थ तासि पयडीणं बंधे संते असंतो वि अधापमत्तसंकमो होदि । एसो नियमो बंधपयडीर्ण, अबंधपयडीण' मस्थि कुरो सम्म सम्मामिच्छते वित भादो । म. १६/४२०/५ 1 संज-पुरिसवेदाणमधान्तको सम्यकमो चेदि दौपिंग संकमा होंति से तहादिणं संजणापूरसहस्स मिच्छाgिoogडि जाव अणियट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो । १. बन्धके होनेपर अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है । (यो क./मू./ ४१६) २. बंधे अधापवत्तो'का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाते हैं कि जहाँ जिन प्रकृतियोंका बन्ध संभव है वहाँ उन प्रकृतियों के बन्धके होनेपर और उसके न होनेपर भी अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है । यह नियम बन्ध प्रकृतियोंके लिए है, अनन्य प्रकृतियोंके लिए नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो अन्ध प्रकृतियों में भी अधःप्रवृत्त संक्रमण पाया जाता है । ३. तीन संज्वलन और पुरुषवेदके अथ प्रवृत्तसंक्रम और सर्व-संक्रम मे दो संक्रम होते हैं। यथादोन पायों और पुरुष वेदा मिध्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण तक अधःप्रवृत्त सक्रम होता है (गो, क./मू./४२४)। गो.क./मू. ब जी. प्र. / ४१० बंधे संकामिज्जदि गोबधे । ४१०१ बंधे मध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमुत्सर्गविधिः कचिदध्यमानेऽपि संकमा नोम जमन्ये न संक्रामति इत्यनर्थ कमचनादर्शनमोहनीयं बिना शेषं कर्म मध्यमानमात्रे एव संक्रामतीति नियमो ज्ञातव्यः । -- जिस प्रकृतिका बन्ध होता है, उसी प्रकृतिका संक्रमण भी होता है यह सामान्य विधान है क्योंकि कहींपर जिसका बन्ध नहीं उसमें भी संक्रमण देखा जाता है। जिसका बन्ध नहीं होता उसका संक्रमण भी नहीं होता। इस वचनका ज्ञापन सिद्ध प्रयोजन यह है कि दर्शनमोहके बिना शेष सत्र प्रकृतियाँ बन्ध होनेपर संक्रमण करती हैं ऐसा नियम जानना । 1 २. मूल प्रकृतियोंमें परस्पर संक्रम नहीं होता I ध. १६/४०८/१० जं पदेसग्गं अण्णपयडि संकामिज्जदि एसो पदेससंकमो देण अनुपदे पडिको पर उत्तरपटि संकमे पयदं । - जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृतिमें संक्रान्त किया जाता है इसका नाम प्रदेश संक्रम है। इस अर्थ पदके अनुसार प्रकृति संक्रम नहीं है। उत्तरप्रकृति संक्रम प्रकरण प्राप्त है । गो.क./प्र.४९०/२०४ मूत्रकृतीनां परस्परसंक्रमण नास्ति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोण पडी । संक्रमणं ॥१०॥ उत्तरप्रकृती नामस्तीत्यर्थः । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमण ४. उद्वेलना संक्रमण निर्दे - मूल प्रकृतियोंका परस्पर संक्रमण नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं होती। सारांश मह हुआ कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है। ३. उत्तर प्रकृतियोंमें संक्रमण सम्बन्धी कुछ अपवाद ध. १६/३४१/१ ईसणमोहणीयं चारित्तमोहणीए ण संकमदि, चारित्तमोहणीयं पि दंसणनोहणीए ण संकमदि । कुदो। साभावियादो।... चदुण्णमाउआणं संकमो णस्थि। कुदो । साभावियादो। दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीयमे संक्रान्त नहीं होती, और चारित्र मोहनीय भी दर्शनमोहनीयमें संक्रान्त नहीं होती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।...चारों आयुकर्मका संक्रमण नहीं होता क्यों कि ऐसा स्वभाव है । ( गो. क./मू./४१०/५७४) । क.पा. ३/३,२२/४११-४१२/२३४/४ दंसणमोहणीयस्स चारित्तमोहणीय संकमाभावादो। कसायाणं णोकसाएस णोकसायाणं च कसाएसु कुदो संकमो। ण एस दोसो, चारित्तमोहणीयभावेण तेसिं पच्चासत्तिसंभवादो। मोहणीयभावेण दंसणचारित्तमोहणीयाण पच्चासत्ति अस्थि त्ति अण्णोण्णेसु संकमो किण्ण इच्छदि। ण, पडिसेज्झमाणदंसणचारित्ताणं भिष्णजादित्तणेण तेसि पच्चासत्तीए अभावादो। - दर्शनमोहनीयका चारित्र मोहनीयमें संक्रमण नहीं होता है। प्रश्न-कषायों का नोकषायों में और नोकषायों का कषायों में संक्रमण किस कारणसे होता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है क्योंकि दोनों चारित्रमोहनीय हैं, अतः उनमें परस्पर में प्रत्यासत्ति पायी जाती है, इसलिए उनका परस्परमें संक्रमण हो जाता है। प्रश्नदर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दोनों मोहनीय हैं, इस रूमसे इनकी भी प्रत्यासत्ति पायी जाती है, अतः इनका परस्पर में संक्रमण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ! उत्तर-नहीं, क्योंकि परस्परमें प्रतिषेध्यमान दर्शनमोहनीय और चारिख मोहनीयके भिन्न जाति होनेसे उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति नहीं पायी जाती, अतः इनका परस्परमें संक्रमण नहीं होता है। आदिके सात ही करण होते हैं। उससे आगे सयोग केवली तक संक्रमणके बिना छह ही करण होते हैं ।४४२॥ ६. संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियोंका भी उदय क. पा. ३/३,२२/६४३०/२४४/४ उदयाभावेण उदयनिसेयट्ठिदी परसरूवेणं गदाए...। जिस प्रकृतिका उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थितिके उपान्त्य समयमें पररूपसे संक्रामित हो जाती है। ७. अचलावली पर्यन्त संक्रमण सम्भव नहीं क. पा. ३/३,२२/६४११/२३३/४ अचलावलियमेत्त कालं बद्धसोलसकसायाणमुक्कस्सट्ठिदीए णोकसाएसु संकमाभावादो। कुदो एसो। णियमो। साहावियादो। बंधी हुई सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अचलावली काल तक नौकषायों में संक्रमण नहीं होता। प्रश्न -विवक्षित समयमें बंधे हुए कर्मपुंजका अचलावलौ कालके अनन्तर ही पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है ऐसा नियम क्यों उत्तर-स्वभावमे ही यह नियम है। ८. संक्रमण पश्चात् आवली पर्यन्त प्रकृतियों की अचलता ध.६/१.१-८,१६/गा. २१/३४६ संकामेदुक्क उदि जे असे ते अवठ्ठिदा होति। आवलियं ते काले तेण परं होति भजिदया ।२११- जिन कर्म प्रदेशोंका संक्रमण अथवा उत्कर्षण करता है वे आवलीमात्र काल तक अबस्थित अर्थात् क्रियान्तर परिणामके बिना जिस प्रकार जहाँ निक्षिप्त हैं उसी प्रकार ही वहाँ निश्चल भावसे रहते हैं। इसके पश्चात उक्त कर्म प्रदेश वृद्धि, हानि एवं अवस्थानादि क्रियाओंसे भजनीय हैं।२१॥ ४. दर्शनमोह त्रिकका स्व उदय कालमें ही संक्रमण नहीं होता गो. क./म् /४११/५७५ सम्म मिच्छ मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेब संकमदि । १४११॥ - सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अपने-अपने असंयतादि गुणस्थानों में तथा मिथ्यात्व गुणस्थानमें और मिश्रमें नहीं संक्रमण करती। ५. प्रकृति व प्रदेश संक्रमणमें गणस्थान निर्देश क. पा. ३/३,२२/६३४८/३८८/१० ण, तस्य दंसणमोहणीयस्स संकमाभावेण सम्मत्तसन्मामिच्छत्ताण... सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयका संक्रमण नहीं होता। गो, क /मू. व जी. प्र./४११/५७४ सासणमिस्से णियमा दसणतियसंकमो णस्थि ।४११॥...सासादन मिश्रयोनियमेन दर्शनमोहत्रयस्य संक्रमण नास्ति । असंयतादिचतुर्ध्वस्तीत्यर्थः। - सासादन गुणस्थान में नियमसे दर्शनमोह त्रिकका संक्रमण नहीं होता। असं यतादि (४-७) में होता है। गो, क./मू./४२६ बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहमरागोत्ति ४२६॥ गो. क./मू. व टी./४४२,५६४ आदिमसत्तेव तदो सुहम कसायोत्ति संकमेण विणा। छच्च सजोगित्ति...१४४२।.. तित्रापि सक्रमकरणं विना षडेर सयोगपर्यन्तं भवन्ति । अन्धरूप प्रदेशोंका संक्रमण भी सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त है। क्योंकि 'बंधे अधापबत्तो' इस गाथासूत्रके अभिप्रायसे स्थितिबंध पर्यन्त ही संक्रमण संभव है।४२१। उस अपूर्वकरण गुणस्थानके ऊपर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त ४. उद्वेलना संक्रमण निर्देश १. उद्वेलना संक्रमणका लक्षण नोट-[करण परिणामों अर्थात् परिणामों की विशुद्धि व संक्लेशसे निरपेक्ष कर्म परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप परिणमन हो जाना, अर्थात रस्सीका बट खोलनेवत् उसी प्रकृतिरूप हो जाना जिसमें कि संक्रम कर पहले कभी इस प्रकृतिरूप परिणमन किया था, सो उद्वेलना संक्रमण है। इसका भागाहार अंगुल/असं. है, अर्थात सबसे अधिक है। अर्यात प्रत्येक समय बहुत कम द्रव्य इसके द्वारा परिणमाया जाना सम्भव है। यह बात ठीक भी है, क्योंकि बिना परिणामों रूप प्रयत्न विशेषके धीरे-धीरे हो कार्यका होना सम्भव है। जो प्रकृति उस समय नहीं बंधती है और न ही उसको बाँधनेकी उस जीवमें योग्यता है उन्हों प्रकृतियोंको उद्वेलना होती है। मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही होती है। यह काण्डकरूप होती है अर्थात प्रथम अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा विशेष चयहीन क्रमसे तथा द्वितीय अन्तर्मुहूर्त में उससे दुगुने चयहीन क्रमसे होती है । अधःप्रवृत्त पूर्वक ही होती है। उपान्त्य काण्डक पर्यन्त ही होती है। यह प्रकृतिके सर्वहीन निषेकोंको परिणमाने पर होता है, थोड़े माअपर नहीं। प्रत्येक काण्डक पत्य/असं. स्थिति वाला होता है। गो, क./जी. प्र./३४६/५०३/२ बल्बजरज्जुभावविनाशयत् प्रकृतेरुद्वेषलन भागाहारेणापकृष्य परप्रकृतिता नीत्वा विनाशनमुढल्लनं ।३४६ - जैसे जेवड़ी (रस्सी)के बटने में जो बल दिया था पीछे उलटा घुमानेसे वह बल निकाल दिया। इसी प्रकार जिस प्रकृतिका बंध किया था, पीछे परिणाम विशेषसे भागाहारके द्वारा अपकृष्ट करके, उसको अन्य प्रकृतिरूप परिणमाके उसका नाश कर दिया (फल-उदयमें नहीं आने दिया, पहले ही नाश कर दिया ।) उसे उद्वेलन संक्रमण कहते हैं। .. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. अधःप्रवृत्त संक्रमण निर्देश जाता है कि इन दो प्रकृतियोंकी उद्वेलना मिथ्यात्वमें ही होती है, वेदक सम्यक्त्वावस्थामें नहीं, और उपशम सम्यक्त्व हुए बिना मिथ्यात्वावस्थामें ही इनका पुनः सत्त्व नहीं होता। न ही इनका सत्त्व प्राप्त हो जानेपर उपशम सम्यक्त्व हुए बिना मार्गमेंसे ही पुन: मिथ्यात्वको प्राप्त होता है । और भी दे, अगला शीर्षक ] | ५. सम्यक् व मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलनाका क्रम क. पा. २/२,२२/१२४८/१११/६ अठ्ठावीससंतकम्मिओ उज्वेलिदसम्मत्तो मिच्छाइट्ठी सत्तावीसविहत्तिओ होदि । अछाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जोक (पहले) सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियों को सत्तावाला होता है । तत्पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वकी भी उद्वेलना करके २६ प्रकृति स्थानका स्वामी हो जाता है । ] ( क. पा. ३/६३७३/२०५/६ ) । संक्रमण गो.क./जो. प्र./४१३/५७६/८ करणपरिणामेन बिना कर्म परमाणून परप्रकृतिरूपेण निक्षेपणमुद्वेल्लनं संक्रमणं नाम |-अधःप्रवृत्त आदि तीन करणरूप परिणामों के बिना ही कर्मप्रकृतियों के परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप परिणमन होना वह उद्वेलन संक्रमण है। २. मार्गणा स्थानों में उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ गो. क./मू./३५१, ६१३, ६१६ चदुगतिमिच्छे चउरो इगिविगले छप्पि तिणि तेउदुगे ।...|३५१। वेदगजोग्गे काले आहारं उबसमस्स सम्मतं । सम्मामिच्छ चेगे विगलेवेगुव्वछक्कं तु ६१४। तैउदुगे मणवद्गं उच्च उठवेल्लदे जष्णिदरं । पल्लासंखेज्जदिमं उन्धेलणकालपरिमाणं ।६१६- चारों गतिबाले मिथ्यादृष्टि जीवों के चार ( आहारक द्विक, सम्यक्त्व, मिश्र) प्रकृतियाँ, पृ., अप.. वन., तथा विकलेन्द्रियों में देवद्वि., वै. द्वि., नरकति ये छह प्रकृतियाँ, तेजकाय व वायुकाय इन दोनोंके ( उच्चगोत्र, मनुष्य द्विक) ये तीन प्रकृतियाँ उद्वेलनके योग्य हैं ।३.१। वेदक सम्यक्त्व योग्य कालमें आहारक द्विकको उद्वेलना, उपशम कालमे सम्यक्त्व प्रकृति वा सम्यगमिथ्यात्वप्रकृतिकी उद्वेलना करता है। और एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय पर्याय में वैक्रियिक षट्ककी उद्वेलना करता है।६१४॥ तेजकाय और वायुकायके मनुष्यगति युगल और उच्चगोत्र -- इन तीनकी उद्वेलना होती है, उस उद्वेलनाके कालका प्रमाण जघन्य अथवा उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।६१६॥ ३. मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलना योग्य काल क.पा.२/२.२२१११२३/१०५/१ एइंदिएच सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तविहत्ती० जह० एगसम ओ, उक्क० पलिदोवमस्स असंखे० भागो । एकेन्द्रियों में सम्यकप्रकृति व सम्यग्मिध्यात्वको विभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। [ क्योंकि यहाँ उपशम सम्यक्त्व प्राप्तिकी योग्यता नहीं है, इसलिए इस काल में वृद्धि सम्भव नहीं। यदि सम्यक्त्व प्राप्त करके पुनः नवीन प्रकृतियोंकी सत्ता कर ले तो क्रम न टूटने के कारण इस काल में वृद्धि होनी सम्भव है । यदि ऐसा न हो तो अवश्य इतने काल में उन प्रकृतियों की उद्वेलना हो जाती है। जिन मार्गणाओंमें इनका सत्त्व अधिक कहा है वहाँ नवीन सत्ताको अपेक्षा जानना । दे. अन्तर/२] ध.५/१,६,७/१०/८ सम्मत्स-सम्मामिच्छत्तद्विदीर पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुत्तस्स वा हेठा पदणाणुक्वत्तोदो। सम्यक्त्व और सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृतिको स्थितिका, पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालके बिना सागरोपमके, अथवा सागरोपमपृथक्त्वके नीचे पतन नहीं हो सकता ५. विध्यात संक्रमण निर्देश १. विध्यात संक्रमणका लक्षण नोट-[अपकर्षण विधान में बताये गये स्थिति व अनुभाग काण्डक व गुणश्रेणीरूप परिणामों में प्रवृत्त होना विध्यात संक्रमण है। इसका भागाहार भी यद्यपि अंगुल/असंख्यात भाग है, परन्तु यह उद्वेलनाके भागाहारसे असंख्यात गुणहीन है, अतः इसके द्वारा प्रति समय उठाया गया द्रव्य बहुत अधिक है। मिथ्यात्व व मिन मोह इन दो प्रकृतियों को जब सम्यकप्रकृतिरूपसे परिणमाता है तब यह संक्रमण होता है । वेदक सम्यक्त्ववालेको तो सर्व ही अपनी स्थिति कालमें वहाँ तक होता रहता है जब तक कि क्षपणा प्रारम्भ करता हुआ अधःप्रवृत्त परिणामका अन्तिम समय प्राप्त होता नहीं। उपशम सम्यक्त्वके भी अपने सर्व कालमे उसी प्रकार होता रहता है, परन्तु यहाँ प्रथम अन्तर्मुहूर्त में गुणसंक्रमण करता है पश्चात उसका काल समाप्त होनेके पश्चात् विध्यात प्रारम्भ होता है।] गो. क./जी. प्र./४१३/५७६/८ विध्यातषिशुद्धिकस्य जीवस्य स्थित्यनुभागकाण्डकगुणश्रेण्यादिपरिणामेष्वतीतेषु प्रवर्तनाद्विध्यातसंक्रमण णाम । मंद विशुद्धतावाले जीवकी, स्थिति अनुभागके घटाने रूप भूतकालीन स्थिति काण्डक और अनुभाग काण्डक तथा गुणश्रेणी आदि परिणामों में प्रवृत्ति होना विध्यात संक्रमण है। गो. के./मू ६१७/८२१ पल्लासंखेज दिम ठिदिमुवेल्लदि मुहत्तअतेण । संखेज्जसायरठिदि पलासंखेज्जकालेण । पत्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिको अन्तर्मुहूर्त कालमें उद्वेलना करता है । अतएव एक संख्यात सागरप्रमाण मनुष्यद्विकादिकी सत्तारूप स्थितिकी उद्वेलना त्रैराशिक विधिसे पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण काल में ही कर सकता है, ऐसा सिद्ध है। ४. यह मिथ्यात्व अवस्थामें होता है क.पा.२/२.२२/६२३७/१२६/२ पंचिंदियतिरि० अपज्ज. सबपयडीणं णत्थि अंतरं। एवं सम्मादि० खझ्य० वेदग० उवसम० सासण. सम्मामि मिच्छादि०..अणाहारएत्ति वत्तव्यं । -पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्धि अपर्याप्तकोंके सभी प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार.. सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि, "" और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिए। । इस प्रकरणसे यह जाना ६. अधःप्रवृत्त संक्रमण निर्देश १. अधःप्रवृत्त संक्रमणका लक्षण नोट-[सत्ताभूत प्रकृतियोंका अपने-अपने बंधके साथ संभवती यथा योग्य प्रकृतियों में उनके बंध होते समय ही प्रवेश पा जाना अधःप्रवृत्त है। इसका भागाहार पत्य/असंख्यात, जो स्पष्टतः ही विध्यातसे असंख्यातगुणा हीन है। अतः इसके द्वारा प्रतिक्षण ग्रहण किया गया द्रव्य विध्यात की अपेक्षा बहुत अधिक है। बंधकाल में या उस प्रकृतिको बंधकी योग्यता रखनेपर उस ही गुणस्थानमें होता है जिसमें कि वह प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न नहीं हुई है, थोड़े द्रव्यका होता है सर्व द्रव्यका नहीं, क्योंकि इसके पीछे उद्वेलना या गुण संक्रमण या विध्यात संक्रमण प्रारम्भ हो जाते हैं। क्रोधको प्रत्यारण्यानादि स्व जाति भेदोंमें अथबा मान आदि विजाति भेदों में परिणमाता है। यह नियमसे फाली रूप होता है। अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही होता है। काण्डकरूप संक्रमण और फालिरूप संक्रमणमें इतना भेद है कि फालिरूपमें तो अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त बराबर भागाहार हानि क्रमसे उठा-उठाकर साथ-साथ संक्रमाता है और काण्डक रूपमें वर्तमान समयसे लेकर एक-एक अन्तर्मुहूर्त काल बीतनेपर भागाहार क्रमसे इकट्ठा द्रव्य उठाता है अर्थात संक्रमण करनेके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमण ८. गुणश्रेणी लिए निश्चित करता है। एक अन्तर्मुहूर्त तक संक्रमानेके लिए जो द्रव्य निश्चित किया उसे काण्डक कहते हैं। उस द्रव्यको अन्तर्मुहूर्तकाल' पर्यन्त विशेष चय हानि क्रमसे खपाता है। उसके समाप्त हो जानेपर अगले अन्तर्मुहूर्त के लिए अगला काण्डक उठाता है। गो. क./जी. प्र./४१३/५७६/९ बन्धप्रकृतीनां स्वबन्धसंभव विषये यः प्रदेशसंक्रमः तदधःप्रवृत्तसंक्रमण नाम। -बंध हुई प्रकृतियोंका अपने बंधमें संभवती प्रकृतियोंमें परमाणुओंका जो प्रदेश संक्रम होना वह अधःप्रवृत्त संक्रमण है। २. यह नियमसे फालीरूप होता है गो. क./जी, प्र./११२/१७५/७ तत्राधःप्रवृत्तसंक्रमः फालिरूपेण उद्वेलनसंक्रमः काण्डकरूपेण वर्तते। -( मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेपर सम्यक् व मिश्रका अन्तर्मुहूर्त के पश्चात उपान्त काण्डक पर्यन्त) अधःप्रवृत्तसंक्रमण फालिरूपसे प्रवर्तता है और उद्वेलना संक्रमण काण्डक रूपसे प्रवर्तता है। ३. मिथ्यात्व प्रकृतिका नहीं होता गो. क./जी.प्र./४१६/५७८/७ अधःप्रवृत्तसंक्रमणः स्यात न मिथ्यात्वस्य, 'सम्म मिच्छ मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदीति' निषेधात (गो. क./४११) -(प्रकृतियोंके बन्ध होने पर अपनी-अपनी व्युतित्यत्ति पर्यन्त ) अध प्रवृत्त संक्रमण होता है, परन्तु मिथ्यात्व प्रकृतिका नहीं होता। कयोंकि 'सम्म मिच्छ मिस्सं' इत्यादि गाथाके द्वारा इसका निषेध पहले बता चुके हैं (दे, संक्रमण/३/४)। ४.सम्यक् व मिश्र प्रकृतिके अधःप्रवृत्त संक्रम योग्य काल गो. क./मू./४१२/५७५ मिच्छे सम्मिस्साणं अधःपत्तो मुहुत्तअंतोत्ति । -मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेपर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीयका अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तक अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है। है ऐसी स्वजाति प्रकृतियों में संक्रमण करता है, अपने स्वरू छोड़कर तद्रूप परिणमन करता है। ल, सा./जी, प्र./२२४/२८०/८ मन्धवरप्रकृतीन गुणसंक्रमो मारि - जिनका बन्ध पाया जाता है ऐसो प्रकृतियोंका संक्रमण होता। ३. गुण संक्रमण योग्य स्थान ल. सा./जी. प्र./७५-७६/१०६/११०/१६ गुणसंक्रमः अपूर्वकरणप्रथमसर नास्ति तथापि स्वयोग्यावसरे भविष्यत: (७५) एवं विधं प्रतिसा यमसंख्येयगुणं संक्रमणं प्रथमकषायाणामनन्तानुबन्धिना विसंयोग वर्तते। मिथ्यात्वमिश्रप्रकृत्योः क्षपणायां वर्तते । इतरासा प्रकृती नामुभयश्रेण्यामुपशमकश्रेण्या क्षपक श्रेण्यां च वर्तते १७६-गुण संक्र मण अपूर्वकरणके पहले समयमें नहीं होता है। अपने योग्यकाला होता है ।७५। असंख्यातगुणा क्रम लिये जो हो उसको गुण संक्रमण कहते हैं। सो अनन्तानुवन्धी कषायोंको गुणसंक्रमण उनकी विसं. योजनामें होता है। मिथ्यात्व और मिश्रप्रकृतिका गुण संक्रमण उनकी क्षपणामें होता है, और अन्य प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशम बक्षपक श्रेणी में होता है। ४. गुण संक्रमण कालका लक्षण ल. सा./भाषा-/१२८/१६६/६ मिश्र मोहनीय (या विवक्षित प्रकृतिका) गुण संक्रमण कर यावत् सम्यक्त्व मोहनीयरूप ( या यथा योग्य किसी अन्य विवक्षित प्रकृतिरूप) परिणमै तावत गुण संक्रमण काल कहिये। ७. गुण संक्रमण निर्देश १. गुण संक्रमणका लक्षण नोट-[प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी क्रमसे परमाणु प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमावे सो गुण संक्रमण है। इसका भागहार भी यद्यपि पल्य/असंख्यात है परन्तु अध.प्रवृत्तसे असंख्यात गुणहीन हीन है। इसलिए इसके द्वारा प्रतिसमय ग्रहण किया गया द्रव्य बहुत ही अधिक होता है। उपान्त्य काण्डक पर्यन्त विशेष हानि क्रमसे उठाता हुआ चलता है। (यहाँ तक तो उद्वेलना संक्रमण है), परन्तु अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालि पर्यन्त गुणश्रेणी रूपसे उठाता है। जिन प्रकृतियोंका बन्ध हो रहा हो उनका गुण संक्रमण नहीं हो सकता, अबन्धरूप प्रकृतियोंका होता है और स्व जातिमें ही होता है। अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुण संक्रम नहीं होता। अनन्ताभुबन्धीका गुण संक्रमण विसंयोजना कहलाता है। गो. क./जी. प्र./४१३/५७६/९ प्रतिसमयमसंख्येयगुणश्रेणिक्रमेण यत्प्रदेशसंक्रमणं तद गुणसंक्रमण नाम । =जहाँपर प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणीक्रमसे परमाणु-प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमे सो गुणसंक्रमण है। २. बन्धवाली प्रकृतियोंका नहीं होता ल. सा./जी. प्र./७५/१०६/१७ अप्रशस्तानां बन्धोज्झितप्रकृतीनां द्रव्य प्रतिसमममसंख्येयगुणं बध्यमानसजातीयप्रकृतिषु संक्रामति । पूर्वस्वरूपं गृह्णातीत्यर्थः । बन्ध अयोग्य अप्रशस्त प्रकृतियोंका द्रव्य, समय-समय प्रति असंरण्यातगुणा क्रम लिये जिनका बन्ध पाया जाता ८. गुणश्रेणी निर्देश १. गुणश्रेणी विधानमें तीन पर्वोका निर्देश ल. सा./मू./५८३/६६५ गुणसैढि अंतरदिदि विदियट्ठिदि इदिहवं ति पबतिया ।...१५८३ - गुणश्रेणी में तीन पर्व होते हैं-गुणश्रेणी, अन्तर स्थिति और द्वितीय स्थिति । अपकृष्ट किया हुआ द्रव्य इन तीनोंमें विभक्त किया जाता है। २. गुणश्रेणी निर्जराके आवश्यक अधिकार नोट-[गुणश्रेणी शीर्ष, गुणश्रेणी आयाम, गलितावशेषगुणश्रेणी आयाम __ और अवस्थित गुणश्रेणी आयाम इतने अधिकार हैं। ३. गुणश्रेणीका लक्षण ध. १२/४,२,७,१७५/८०/६ गुणो गुणगारो, तस्स सेडी ओली पंती गुण सेडी णाम। दंसणमोहुवसामयस्स पढमसमए णिज्जिण्णदब्बू थोवं । विदियसमए णिज्जिण्णदव्यमसंखेजगुणं । तदियसमए णिज्जिण्णदव्यमसखेजगुणं । एवं णेयव्वं जाव दंसणमोहउवसामगचरिमसमओ त्ति । एसा गुणागारपत्ती गुणसेडि त्ति भणिदं । गुणसेडीए गुणो गुणसेडिगुणो, गुणसेडिगुणगारो त्ति भणिदं होदि । -गुण शब्दका अर्थ गुणकार है। तथा उसकी श्रेणी, आवलि या पंक्तिका नाम गुणश्रेणी है। दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवका प्रथम समयमें निर्जराको प्राप्त होनेवाला द्रव्य स्तोक है। उसके द्वितीय समयमें निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। उससे तीसरे समयमें निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। इस प्रकार दर्शनमोह उपशामकके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यह गुणकार पंक्ति गुणश्रेणि है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। तथा गुणश्रेणिका गुण गुणश्रेणिगुण अर्थात गुणश्रेणि गुणकार कहलाता है। क्ष,सा./मू./५८३/६६५ मुहुमगुणादो अहिया अवठिदुदयादि गुणसेदी ५८३। यावत् अपकृष्ट किया द्रव्य सूक्ष्मसे लेकर असंख्यातगुणा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमण ८. गुण श्रेणी निर्देश व्यतीत होते' उपरितन स्थितिका एक समय मिलाय गुणश्रेणि आयामका प्रमाण समय व्यतीत होते भी जेताका तैता रहै। तात अवस्थित कहिये तातें याका नाम उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है। ल.सा./वचनिका/२२/७ अवस्थित गुणश्रेणि आयामका प्रारम्भ करनेका प्रथम समय द्वितोयादि समयनिविर्षे गुणश्रेणि आयाम जैताका तेता रहै। ज्यू ज्यू एक एक समय व्यतीत होइ न्यू ल्यू गुणश्रेणि आयामके अनन्तरिवर्ती ऐसा उपरितन स्थितिका एक एक निषेक गुणश्रेणि आयाम विषै मिलता जाइ तहां अवस्थित गुणश्रेणि आयाम कहिये है। ९. गुणश्रेणी आयामोंका यन्त्र कम लिये अपस्थितादि आयाममें दिया जाता है उसका नाम गुणश्रेणी है। ४. गुणश्रेणी निर्जराका लक्षण गो. जी./भाषा/६७/१७४/११ उदयावलि काल के पीछे अन्तर्मुहूर्त मात्र जो गुणश्रेणिका आयाम कहिए काल प्रमाण ताविषं दिया हुआ द्रव्य सो तिस कालका प्रथमादि समयविर्षे जे पूर्व निषेक थे, तिनकी साथि क्रम” असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होइ निर्जरै है सो गुणश्रेणी निर्जरा ( है।) ५. गुणश्रेणी शीर्षका लक्षण ध.६/१,६-८,१२/२६९/११ सम्मत्तस्स चरिमदिखंडगे पढमसमय आगाइदे ओवट्टियमाणसु टिदिसु जं पदेसग्गसमुदए दिज्जदि तं थोवं, से काले असंखेज्जगुणं । ताव असखेज्जगुणं जाब ट्ठिदिखंडयस्स जहणियाए वि दिदीए चरिमसमयं अपत्त' त्ति । सा चेव हिदी गुण से डी सीसयं जादा। -सम्यक्त्व प्रकृतिके अन्तिम स्थिति काण्डकके प्रथम समयमें ग्रहण करनेपर अवर्तन की गयी स्थितियोंमें-से जो प्रदेशाग्र उदयमें दिया जाता है, वह अल्प है, अनन्तर समयमें असंख्यात गुणित प्रदेशाग्रौंको देता है। इस क्रमसे तब तक असंख्यात गुणित प्रदेशानोंको देता है जब तक कि स्थितिकाण्डककी जघन्य भी स्थितिका अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता है। यह स्थिति ही गुणश्रेणिशीर्ष कहलाती है। ल. सा./भाषा/१३५/१८६/५ गुणश्रेणि आयामका अन्तका निषेक ताको इहाँ गुणश्रेणि शीर्ष कहते हैं। उपरितन स्थिति पहला गुणश्रेणि आयाम अबका गुणश्रेणि आयाम उदयावलि सम्यक्त्व मोहनीयकी स्थिति अण्ट वर्षमात्रकरने कासमय ६. गुणश्रेणी आयामका लक्षण क्ष. सा./३६८/भाषा उदयावलिसे बाह्य गलितावशेष रूप जो यह गुणश्रेणि आयाम है ता विषै अपकर्ष किया द्रव्यका निक्षेपण हो है। ७. गलितावशेष गुणश्रेणी आयामका लक्षण ल, सा./भाषा/१४३/१६८/२--उदयादि वर्तमान समय से लगाय यहाँ गुणश्रेणी आयाम पाइये तातै उदयादि कहिये, अर एक एक समय व्यतीत होते एक एक समय गुणश्रेणि आयाम विर्षे घटता जाय (उपरितन स्थितिका समय गुणश्रेणी आयाममें न मिले) तातै गलितावशेष कहा है। ऐसे गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम जानना। ल. सा./बच निका/२२/४ गलितावशेष गुणश्रेणीका प्रारम्भ करनेकौं प्रथम समय विर्षे जो गुण श्रेणि आयामका प्रमाण था, तामैं एकएक समय व्यतीत होते ताकै द्वितीयादि समयनिविर्षे गुण श्रेणि आयाम क्रमतें एक-एक निक घटता होइ अवशेष रहै ताका नाम गलितावशेष है । (ध. ६/१,६-८,६/२३० पर विशेषार्थ )। ८. अवस्थित गुणश्रेणि आयामका लक्षण ल. सा./जी. प्र./१३०/१७१/९ सम्यक्त्वप्रकृतेरष्टवर्ष स्थितिकरणसमयादूधर्वमपि न केवलमष्टवर्षमात्रस्थितिकरणसमय एवोदयाद्यवस्थितिगुणश्रेणिरित्यर्थः। -सम्यक्त्व मोहनीयकी अष्ट वर्ष स्थिति करनेके समयतें लगाय उपरि सर्व समयनिविर्षे उदयादि अवस्थिति गुण श्रेणि आयाम है। ल, सा./भाषा/१२८/१६६/१८...इहाँ नै पहिले (सम्यक्त्व मोहकी, क्षपणा विधानके द्वारा, अष्टवर्ष स्थिति अवशेष रखनेके समय ते पहिलै ) तो उदयावलि त बाह्य गुणश्रेणि आयाम था। अब इहाँ तै लगाइ उदयरूप वर्तमान समय से लगाइ ही गुणश्रेणि आयाम भया तात याको उदयादि कहिये । अर ( उदयादि गुण श्रेणी आयाम तै) पूर्वे तो समय व्यतीत होत गुणश्रेणि आयाम घटता होता जाता था, अब ( उदयाव लिमें-से) एक समय ( उदय विषै ) १०. अन्तरस्थिति व द्वितीय स्थितिका लक्षण क्ष. सा./भाषा/५८३/६६५/१६ ताके उपरिवर्ती (गुणश्रेणिके ऊपर) जिनि निषेकनिका पूर्वे अभाव किया था तिनका प्रमाण रूप अन्तरस्थिति है। ताकै उपरिवर्ती अवशेष सर्व स्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है। ११. गुणश्रेणि निक्षेपण विधान क्ष. सा./५८६/६६८-७०० का भावार्थ-प्रथम समय अपकर्षण किया द्रव्य ते द्वितीयादि समयनि विषै असंख्यात गुण द्रव्य लिये समय प्रतिसमय द्रव्यको अपकर्षण कर है और उदयावली विष, गुणश्रेणि आयाम विषै और उपरितन (द्वितीय) स्थिति विषै निक्षेपण करिये है। अन्तरायामके प्रथम स्थितिके प्रथम निषेक पर्यन्त गुणश्रेणि शीर्ष पर्यन्त तो असंख्यात गुणक्रम लिये द्रव्य दीजिये है, ताकै उपरि ( अन्तर स्थिति व द्वितीय स्थिति में ) संख्यातगुणा घटता द्रव्य दीजिये है। १२. गुणश्रेणी निर्जरा विधान ध. ६/१,६-८,५/२२४-२२७/५ उदयपयडीणमुदयावलियबाहिर टिठदद्विदीर्ण पदेसरगमोकडणभागहारेण खंडिदेयलंडं असंखेज्जलोगेण भाजिदेगभागं घेत्तूण उदए बहुगं देदि । विदियसमए विसेसहीणं देदि । एवं विमेसहीणं विसेसहीणं देदि जाव उदयावलियचरिमसमओ त्ति । "एस कमो उदयपयडीणं चैव, ण सेसाणं, तैसिमुदयावलियम्भतरे पडमाणपदेसग्गाभावा । उपल्लाणमणुदलाणं 'च पयडीणं पदेसग्गमुदयावलियमाहिरद्विदीसु द्विदमोकणभाराहारेण खंडिदेगरवंडं घेत्तूण उदयावलियबाहिरहिदिम्हि असंखेजसमयप्रबद्धे देदि। तदो उवरिमट्ठिदीए तत्तो असंखेज्जगुणे देदि । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० ४-१२ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमण १०. आनुपूर्वी व स्तिवुक संक्रमण १३. गुणश्रेणी विधान विषयक यंत्र अपकृष्ट द्रव्य प्रथम खण्ड ܘ | ܘ ܘ ܘܐ ܘ ܘ ܘ ܐ ܘ ܘ ܘ ܐ ܘ द्वितीय खण्ड ० तृतीय खण्ड तदियट्ठिदीए तत्तो असंखेज गुणे देदि । एवमसंखेजगुणाए सेडीए णेदवं जाब गुणसेडीचरिमसमओ त्ति । तदो उवरिमाणं तराए छिदीए असंखेज्जगुणहीणं दव्वं देदि। तदुवरिमट्टिदीए विसेसहीण देदि । एवं बिसेसहोणं विसेसहीण चेव पदेसगं णिरंतरं देदि जाब अप्पप्पणो उक्कोरिद ट्ठिदिमावलियकालेण अपत्तोत्ति । णवरि उदयावलियबाहिरहिदिमसंखेज्जालोगेण खंडिदेगखंड समऊणावलियाए वे त्तिभागे अइच्छाविय समयायितिभागे णिक्विवदि पुवं व विसेसहीण कमेण । तदो उरिमट्टिदीए एसो चेव णिवखेबो । णवरि अइच्छावणा समउत्तरा होदि । एवं णेयध्वं जाव अइच्छावणा आवलियमेत्ता जादा त्ति । तदो उबरिमणिवखेवो चेव वड् ढदि जाव उकस्सणिवखे पत्तो त्ति । जासि द्विदीर्ण पदेसग्गस्स उदयावलियभंतरे चेक णिक्खेको तासि 'पदे मस्स ओकणभागाहारो असंखेजा लोगा । एवमुव रिमसव्वसमएम कीरमाणगुणसेटीणमेसो चेत्र अत्थो बत्तबो। - उदयमें आयी हुई प्रकृतियोंकी उदयावलीसे बाहर स्थित स्थितियोंके प्रदेशाग्रको निषकों को) अपकर्षण भागाहार ( पत्य/असं.) के द्वारा खण्डित करके, एक खण्डको असंख्यात लोकसे भाजित करके एक भागको ग्रहण कर उदयमें बहुत प्रदेशाग्र को देता है। दूसरे समय में विशेष हीन प्रदेशाग्र को देता है। इस प्रकार उदयावलीके अन्तिम समय तक विशेष हीन देता हुआ चला जाता है । ...यह क्रम उदयमे आयी हुई प्रकृतियोंका ही है, शेष ( सत्तावाली) प्रकृतियोंका नहीं, क्योंकि उनमे उदयावलीके भीतर आने वाले प्रदेशागों का अभाव है। उत्कीरित स्थिति अपकृष्ट विधान के अनुसार विशेष हीन क्रमसे निक्षेप शीर्ष ००००००००० ००० ०००००००००० गुणश्रेणी शीर्ष असं. गुणहीन क्रमसे निक्षेप उदयावली विशेष हीन क्रमसे निक्षेप आबाधा . १४. नोकर्मकी गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती ध.६/४,१,७१/३५२/१ गोकम्मस्स गुण सेडीए णिज्जराभावादो। -नोकर्मकी गुणश्रेणी रूपसे निर्जरा नहीं होती। उदयमें आयी हुई और उदय में नहीं आयी हई प्रकतियों के प्रदे- शाप्रोको तथा उदयावलोके बाहर की स्थिति में स्थित प्रदेशाग्रोको (पूर्वोक्त प्रकार ) अपकर्षण भागाहारके द्वारा खण्डित करके एक खण्डको ग्रहण कर असंख्यात समय प्रबद्धोंको उदयावती के बाहरकी स्थितिमें देता है। इससे ऊपरको स्थितिमें उससे भी असख्यात गुणित समय प्रबद्रोंको देता है। तृतीय स्थितिमें उससे भी असंख्यात गुणित समय प्रबद्धोंको देता है । इस प्रकार यह क्रम असंख्यात गुणित श्रेणीके द्वारा गुण श्रेणीके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। ९. सर्व संक्रमण निर्देश १. सर्व संक्रमणका लक्षण . नोट-[ अन्तकी फाली में शेष बचे सर्व प्रदेशोंका अन्य प्रकृतिरूप होना सर्व संक्रमण है। क्योंकि इसका भागाहार एक है।] गो, क./जी.प्र./४१३/५७६/१० चरमकांडकचरमफाले. सर्व प्रदेशाग्रस्य यत्संक्रमणं तत सर्वसंक्रमणं णाम। -अन्तके काण्डककी अन्तकी फालिके सर्व प्रदेशों में से जो अन्य प्रकृतिरूप नहीं हुए हैं उन परमाशुओं का अन्य प्रकृति रूप होना वह सर्व संक्रमण है। पंक्रमण उससे ऊपर की अनन्तर स्थितिमें असंख्यात गुणित हीन द्रव्यको देता है। उससे ऊपरकी स्थिति में विशेषहीन द्रव्यको देता है। इस प्रकार विशेष हीन विशेष हीन ही प्रदेशाग्रको निरन्तर तब तक देता है, जब तक कि अपनी अपनी उत्कीरित स्थिति को आवलि मात्र काल के द्वारा प्राप्त न हो जाये। विशेष बात यह है कि उदयावलिसे बाहरकी स्थितिके...एक समय कम २/३ का अतिस्थापन करके (प्रारम्भ का) एक समय अधिक आवलिके त्रिभागमें पूर्वके समान विशेषहीन क्रमसे निक्षिप्त करता है। उसमे ऊपरकी स्थितिमें (भी) यही ( विशेष हीन क्रम वाला) निक्षेप है। केवल विशेषता यह है कि अतिस्थापना एक समय अधिक होती है। इस प्रकार यह क्रम तब तक ले जाना चाहिए जब तक कि अतिस्थापना पूर्णावली मात्र हो जाती है। उससे ऊपर उपरिम विशेष हो उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होने तक बढ़ता जाता है। १. आनुपूर्वी संक्रमणका लक्षण ल. सा./जी. प्र./२४६/३०५/१ स्त्रीनपंसकवेदप्रकृत्योर्द्रव्यं नियमेन वेद एव संक्रामति । वेदहास्यादिषणोकषायाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधद्वयद्रव्यं नियमेन संज्वलनक्रोध एव संकामति । संज्वलनक्रोधाप्रत्याख्यान प्रत्यारधान मान्द्यद्रव्य नियमेन संज्वलनमाने एच संक्रामति संज्वलनमायाप्रत्याख्यान प्रत्याख्यामलोभद्वयद्रव्यं संज्वलन लोभेएव नियमत. संक्रामतिरडत्यानपूा संक्रमो । जो स्त्री.नपंसक वेद प्रकृतिके द्रव्यको तो पुरुषवेदमें ही संक्रमण करता है। और पुरुष, हास्यादि छह, तथा अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान कोधका संज्वलन क्रोध, संज्वलन क्रोध, अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान मानका संज्वलन मान ही संक्रमण • करता है। और संज्वलन मान व अप्रत्यारख्या प्रत्याख्यान मायाका संज्वलन मायामें ही संक्रमण करता है। संबल माया अप्रत्याख्यान प्रत्यारम्यान लोभका संज्वलन लोभ हीमें नियमगे संक्रमण होता है. अन्यथा नहीं होता है, यह आनुपूर्वी संक्रमण है। जिन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का उदयावलोके भीतर ही निक्षेप करता है, उन स्थितियों के प्रदेशानोंका अपकर्षण भागाहार असंख्यात लोक प्रमाण है। इस प्रकारसे सर्व समयोमे को जाने वाली गुणश्रेणियों का यही अर्थ कहना चाहिए। (ल. सा./जी.प्र/६८-७४) विशेषता यह है कि प्रथम समग्रमें अपकर्षण · दे० अपकर्षण । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रान्ति २. स्तिबुक संक्रमणका लक्षण सा/जो प्र./२०३/२२०/६ संज्वलनक्रोधस्य समयो नोष्टालि मात्रनिषेकद्रव्यमपि संज्वलनमानस्योदयावत्यां समस्थितिनिषेकेषु प्रतिसमय मे कनिषैमागमिष्यति संकलनक्रोधोनिषेकाः मानोदयावलि निषेवेषु संक्रम्य अनन्तर समये हृदयमिच्छन्तीति तात्पर्यम् । अयमेव थिउक्कसंक्रम इति भव्यते। - संज्वलन क्रोधका एक समय कम उच्छिष्टावलिमात्र निषेक द्रव्य भी, अपनी समान स्थिति लिये जे संज्वलन मानकी उदयावली के निषेक उनमें समय-समय एक-एक निषेकके अनुक्रमसे संक्रमण होकर अनन्तर समय में उदय होता है। तात्पर्य यह है कि उच्छिष्टावलि प्रमाण संज्वलन क्रोधका द्रव्य मानको उदयावलि निषेक़ों में संक्रमण करके अनन्तर समय में उदयमें आते हैं। यह ही थिउक्क (स्तिबुक) संक्रमण है। ३/२०१८ / २१९/८ विशेषार्थ गति जाति आदि पिंड कृतियों से जिस किसी विवक्षित एक प्रकृतिके उदय आनेपर अनुदय प्राप्त शेष प्रकृतियोंका जो उसी प्रकृतिमें संक्रमण होकर उदय आता है, उसे कि कहते है जैसे-एकेन्द्र जीवोंके उदय प्राप्त एकेन्द्रिय जाति नामकर्म में अनुपमा दीन्द्रिय जाति आदिका संक्रमण होकर उदयमें आना । - संक्रांति- १. स. सि./६/४४/४५५/१० संक्रान्तिः परिवर्तनम् । द्रव्यं निहाय पर्यायमुपैति पर्याया द्रव्यमित्यर्थं संक्रान्तिः एक श्रुतवचनमुपादाय वचनान्तरमालम्बते तदपि विहायाम्यदिति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं गृह्णाति योगान्तरं च काययोगमिति योगसंक्रान्ति । संक्रान्तिका अर्थ परिवर्तन है द्रव्यको छोड़कर पर्यायको प्राप्त होता है और पर्याय छोड़कर count प्राप्त होता है । यह अर्थ संक्रान्ति है। एक त वचनका आलम्बन लेकर दूसरे वचनका आलम्बन लेता है और उसे भी त्यागकर अन्य बचनका आलम्बन लेता है यह व्यंजन संक्रान्ति है । काययोगको छोड़कर दूसरे योगको स्वीकार करता है और दूसरे योगको छोड़कर काययोगको स्वीकार करता है । यह योग संक्रान्ति है । (रा. बा./१/४४/२/६३४/१०), (भा, पा/टी./७८/२२७), २. ध्यानमें योग संक्रांति सम्बन्धी शंका समाधान दे. शुक्लध्यान / ४ । संविल हस्तकर्मकर्म संक्लेश - दे, विशुद्धि | सम्यग्दर्शन / ११ । संक्षेप सम्यग्दर्शन --- दे, संख्या-लोक जीवस-किस गुणस्थान मार्गमा स्थान आदि कितने कितने हैं इस बातका निरूपण इस अधिकार में किया गया है। तहाँ अल्प संख्याओंका प्रतिपादन तो सरल है पर असंख्यात व अनन्तका प्रतिपादन क्षेत्रके प्रदेशों व कालके समयोंके आश्रयपर किया जाता है। १ संख्या सामान्य निर्देश १ संख्या व संख्या प्रमाण सामान्यका लक्षण | अज्ञसंचारके निमित्त शब्दोंका परिचय गणित/11/ संख्या प्रमाणके भेद । - २ * संख्यात असंख्यात व अनन्तमें अन्तर । - दे. अनन्त / २ ३ संख्या व विधानमें अन्तर । ४ कोड़ाकोड़ी रूप संख्याओंका समन्वय । * संख्यात, असंख्यात व अनन्त - दे. वह वह नाम । ९१ २ | १ २ ३ ४ उपशम व क्षपक श्रेणीका संख्या सम्बन्धी नियम । ५ सिद्धोंका संख्या सम्बन्धी नियम । ६संयतासंयत जीव असंख्यात कैसे हो सकते हैं । ७ सम्यग्दृष्टि दो तीन ही है ऐसे कहने का तात्पयें। लोभ कषाय क्षपकोंसे सूक्ष्म साम्परायकी संख्या अधिक क्यों वर्गणाओंका संख्या सम्बन्धी दृष्टि भेद । जीवोके प्रमाण सम्बन्धी दृष्टिमेद सभी मार्गणा व गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम ९. १० * संख्या प्ररूपणा विषयक कुछ नियम कालकी अपेक्षा गणना करनेका तात्पर्य । क्षेत्रकी अपेक्षा गणना करनेका तात्पर्यं । संयम मार्गणामें संख्या सम्बन्धी नियम । ३ १ २ संख्या विषयक प्ररूपणाएँ सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची । जीवोंकी संख्याविषयक ओ रुपा १. जीव सामान्यकी अपेक्षा । २. तीर्थंकरों आदि पुरुष विशेषोंकी अपेक्षा । जीवोंकी संख्या विषयक सामान्य विशेष प्ररूपणा । जीवोंकी स्वस्थान भागाभाग रूप आदेश प्ररूपणा । ५। चारों गतियोंकी अपेक्षा स्व पर स्थान भागाभाग । ६ । एक समय में विवक्षित स्थानमें प्रवेश व निर्गमन 1 करनेवाले जीवोंका प्रमाणं । इन्द्रोंकी संख्या द्वीप समुद्रोंकी संख्या ज्योतिष मण्डलकी संख्या तीर्थकरों के - दे. मार्गणा । संख्या आदिको संख्या द्रव्योंकी संख्या द्रव्योंके प्रदेशोंकी संख्या जीत्रों आदिकी संख्या परस्पर - दे. इन्द्र | -=/9/1 - दे. ज्योतिष / २ | देसी -२ - दे, वह वह द्रव्य | अल्पव - दे अन्य विषयों सम्बन्धी संख्या व भागाभाग सूची । कर्म बन्धक की अपेक्षा संख्या व भागाभाग सूची । ८ ९ मोहनीय कर्म, सत्त्रकी अपेक्षा संख्या व भागाभाग 1 सूची । १. संख्या सामान्य निर्देश १. संख्या व संख्या प्रमाण सामान्यका लक्षण स.सि./१// २६ / ६ सख्या भेवगणना संख्या से भेदोंकी गणना ली राती है। (रा. वा./१/८/३/४१२६) । 1 ब. १/८०/१०२/१५ विहे परिमार्थ । १०२ (टोबा) संत नियोगह जमतं तस्मादि दवाणियोयो । = सत् प्ररूपणाने जो पदार्थोंका अस्तित्व कहा गया जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या २. सख्या प्ररूपणा विषयक कुछ नियम है उनके प्रमाणका वर्णन करनेवाली संख्या (द्रव्यानुयोग) प्ररूपणा करती है। २.संख्या प्रमाणक भेद ति, प./४/३०६/१७६/१ एत्थ उक्स्स संखेज्जयजाण णिमित्त वदीववित्थार सहस्सजोयण उठवेधपमाणचत्तारिसराधया कादब्बा। सलागा पडिसलागा महासलागा ऐदे तिणि वि अवट्ठिदा च उत्थो अणवटिहो। एदे सम्वे पण्णाए ठविदा। एत्थ चउत्थसरावयअभंतरे दुवे सरिसवेत्युदे तं जहण्णं संखे जयं जादं । एदं पढमवियप्पं तिणि सरिसवेच्छदधे अजहण्ण मणुकस्ससं खेज्जयं । एवं सराबए पुण्णे एदमुवीमज्झिमवियप । ...तदो एगरूवमवणीदे जादमुक्कस्ससंबज्ज अ । जम्हि जम्हि संखेज्जयं मग्गिज्जदि तम्हि-तम्हि य जहण्ण मणुक्कस्ससखेज्जयं गंतूण घेत्तव्यं । तं कस्स विसओ। चोइसविस्स हाँ उत्कृष्ट संख्यातके जाननेके निमित्त जम्बूद्वीपके समान विस्तारवाले (एक लाख योजन) और हजार योजन प्रमाण गहरे चार गड्ढे करना चाहिए। इनमें शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका ये तीन गड्ढे अवस्थित और चौथा अनस्थित है। ये सब गड्ढे बुद्धिसे स्थापित किये गये हैं। इनमेसे चौथे कुण्डके भीतर दो सरसोंके डालनेपर बह जघन्य संरख्यात होता है। यह संख्यातका प्रथम विकल्प है। लीन सरसोंके डालनेपर अजघन्यानुत्कृष्ट (मध्यम) संख्यात होता है। इसी प्रकार एक-एक सरसोंके डालनेपर उस कुण्डके पूर्ण होने तक यह तीनसे ऊपर सब मध्यम संख्यातके विकल्प होते हैं। (रा वा./३/ ३८/५/२०६/१८)। दे. गणित/1/१६ । ३. संख्या व विधानमें अन्तर रा. वा./९/८/११/४३/४ विधानग्रहणादेव संख्या सिद्धिरितिः तन्न; किं कारणम् । भेदगणनार्थत्वात् । प्रकारगणन हि तत, भेद गणन र्थ सिदमुच्यते-उपशमसम्यग्दृष्टय इयन्तः, क्षायिकसम्यादृष्टय पतावन्तः इति ।-प्रश्न-विधानके ग्रहण से हो संख्याको सिद्धि हो जाती है। उत्तर ऐसा नहीं है क्योकि विधानके द्वारा सम्यग्दर्शनादिकके प्रकारों की गिनती की जाती है-इतने उपशम सम्यग्दृष्टि है, इतने क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं आदि । ४. कोडाकोडी रूप संख्याओंका समन्वय ध. ७/२.५,२९/२५८/३ एसो उबदेसी कोडाकोडाकोडाको डिए हेहुदा त्ति मुत्तेग कधं ण विरुज्झदे। ण, एगकोडाकोडाकोडाकोडिमादि कादूण जाव रूगदसकोडाकोडाकोडाको डि त्ति एसब पि कोडाकोडाकोडाकोडि त्ति गहणादो। = प्रश्न यह उपदेश कोडाकोड़ाकोड़ाकोड़ी नीचे इस मूत्रसे कैसे विरोधका प्राप्त न होगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि, एक कोडाकोड़ा कोड़ाकोड़ीको आदि करके एक कम दश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोडी तक इस सबको भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकाड़ी रूपसे ग्रहण किया गया है। २. संख्या प्ररूपणा विषयक कुछ नियम १. कालकी अपेक्षा गणना करनका तात्पर्य ष. खं. ३/१.२/स. ३/२७ अणं ताणताहि ओस प्पिणि-उम्सपिण्णीहि ण अवहिरति कालेज 11 घ./१,२,३/२८/4 कपंकालेण मिणिज्जते मिच्छाइट्टी जीवा । अणता णं ताणं ओसप्पिणि-उस्स चिपणीण समए स्वेद्रण मिच्छाइट्ठिरासि च ठवेऊण कालम्हि एगो समयो मिच्छाइटिरासिम्हि एगो जीवो अवहिरिजदि। एबमबाहिरिज्जमाणे अबहिरिज्जमाणे सब्वे समया अवहि रिजंति, मिच्छाइट्ठिरासीण अवहिरिज्जदि । -१. कालकी अपेक्षा मिथ्यावृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसपिणियों और उत्सपिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते है ।३। २. प्रश्न-काल प्रमाणकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण कैसे निकाला जाता है। उत्तर एक और अनन्तानन्त अबसपिणियों और उत्सपिणियों के समयों को स्थापित करके और दूसरी ओर मिथ्यावृष्टि जीवोंकी राशिको स्थापित करके काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ मिथ्यादृष्टि जीव राशिके प्रमाण मेसे एक-एक जीव कम करते जाने चाहिए। इस प्रकार उत्तरोत्तर काल के समय और जीव राशिके प्रमाणको कम करते हुए चले जानेपर अमन्तानन्त अबसपिणियों और उत्पपिणियोंके सब समय समाप्त हो जाते हैं, परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव राशिका प्रमाण समाप्त नहीं होता। २. क्षेत्रकी अपेक्षा गणना करनेका तात्पर्य प. वं. ७/१,२/सू.४/३२ खेत्तेण अणं ताणता लोगा।४। घ. ३/१,२,४/३२-३३/६ खेतेण कथं मिच्छाइटिरासी मिणिज्जदे। बुच्चरे--जधा पत्थेण जब-गधूमादिरासी मिणिज्जदि तथा लोएण मिच्छाइद्विरासी मिणिज्जदि (३२/६) एक्छे कम्मि लोगागासपदेसे एक्केवक मिच्छाइटिजी णिवखेविऊण एक्को लोगो इदि मणेण संकप्पेयचो । एवं पुणो पुणो मिणिज्जमाणे मिच्छाइद्विरासी अणंतलोगमेत्तो होदि । १.क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण मिथ्याष्टि जीव राशिका प्रमाण है ।४। २. प्रश्न-क्षेत्र प्रमाणके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि कैसी मापी अति जानी जाती है। उत्तरजिस प्रकार प्रस्थ मे गेहूँ, जौ आदिको राशिका माप किया जाता है, उसी प्रकार लोकप्रमाणके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि मापी अर्थात् जानी जाती है (३२/६) लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर एक-एक मिथ्याष्टि जीवको निक्षिप्त करके एक लोक हो गया इस प्रकार मनसे संकल्प करना चाहिए इस प्रकार पुनः-पुनः माप करनेपर मिथ्याष्टि जोवराशि अनन्तानन्त लोकप्रमाण होती है। ३. संयम मार्गणामें संख्या सम्बन्धी नियम ध.७/२,११,१७४/५६८/१ जस्स मंजमम्स तद्विद्वामाणि बहुआणि तत्थ जीवा वि बहुआ चेच, जत्थ योवाणितन्थ थोवा चेव होति ति। - जिस संयमके लब्धिस्थान बहुत हैं उसमें जीव भी बहुत ही हैं, तथा जिस संयममें लब्धिस्थान थोड़े है उसमें जीव भी थाड़ ही है। ४. उपशम व क्षपक श्रेणीका संख्या सम्बन्धी नियम ध. १११,८.२४४/३२३/१ णाण वेदादिसम्वनियप्पेसु उबसमसेडिं चरतजीवेहितो खबगडि चढतजीत्रा दुगुणा त्ति आइगिओवदेसादो। ज्ञान वेदादि सर्प विकल्पोमें उपशम श्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोंसे क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाले जीव दुगुणे होते हैं, इस प्रकार आचार्योंका उपदेश पाया जाता है। ५ सिद्धोंकी संख्या सम्बन्धी नियम ध. १४/५.६,११६/१४३/१० सव्वकालमदोदकालस्स सिद्धा असखेज दि भागो चेवः छम्मासमंतरिय शिवुइगमनणि यमादी । - सिद्ध जीव सर्वदा अतीतकालके असंख्यात भागप्रमाण ही होते है, क्योंकि छह महोनेके अन्तरसे मोक्ष जानेका नियम है।। ६. संयतासंयत जीव असंख्यात कैसे हो सकते हैं ध.५/१,८,१०/२४८/४ माणुसखेतम्भतरे चेय संजदासजदा होंति, यो बाहिद्वा; भोगभूमि म्हि संजमासंजमभावविरोहा। ण च माणुसखेत्तभंतरे असंखेज्जाणं संजदासंजदाणमथि संभत्रो, तेत्तियमेत्ताणमेल्यावहाणविरोहा । तदो संखेज गुणे हि संजदासंजदेहि होठवमिदि। ण, सर्यपहपबदपरभागे असंखेन्ज जोयणवित्थडे कम्मभूमिपडिभाए तिरियरवाणमसंखेज्जाणं संजमासंजमगुणस हिदाणमुबलं भा। या प्रश्न-संयतासंयत मनुष्यक्षेत्रके भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं, क्योंकि, भोगभूमि में संयमासं यमके उत्पन्न होनेका विरोध है। तथा मनुष्य क्षेत्रके भीतर असंख्यात संयतासं यतोंका पाया जाना सम्भव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या नहीं है, क्योंकि उसने गाया यहाँ मध्य क्षेत्रके मीटर अवस्थान माननेमें विरोध आता है। इसलिए प्रमत्त संयतों से या संख्यात गुणित होना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योंकि, बोरिस्तृत एवं कर्म के प्रतिभागरूप स्वयंभ पर्वत परभागमायण गुणसहित असंख्यात तिच पाये जाते हैं। ७. सम्यग्दृष्टि २, ३ ही हैं ऐसा कहनेका प्रयोजन | का, आ./मू व टीका / २७६ विरला णिसुनहिं तच्च विरला जाणंति तच्चदो दच्चं । विरला भावहि तच्च विरलाणं धारणा होदि 12011-- विद्यन्ते कति नामशेष संय कतिचिद आत्मा परमोधमुखनामीको द्वित्राः स्युर्बहवो यदि त्रिचतुरास्ते पञ्चधा दुर्लभाः । जगत् में विरले ही मनुष्य को सुनते हैं बिरले ही जानते हैं, उनमें विरले ही की भावना करते हैं, और उनमेसे तत्रकी धारणा विरले ही मनुष्यों को होती है भी है रामसे विमुख और सदेह पड़े हुए प्राणी बहुत है, जिनकी आत्मा विषय जिज्ञासा है ऐसे प्राणी क्वचित कदाचित ही मिलते है, किन्तु जो आत्मप्रदेशोंसे ली हैं तथा जिनको अन्तरष्टि खुली है ऐसे आत्मज्ञानी पुरुष दो तीन अथवा बहुत हुए तो तीन चार ही होते हैं, किन्तु पाँचका होना दुर्लभ है । ( अर्थात् अत्यल्प होते हैं ) । ८. लोभ कपाय क्षपकोंसे सूक्ष्मसाम्परायकी संख्या अधिक क्यों प.सं. व वाटी./१०/सू. १६६/११२ मेरि विसेसा सोधका माउसमा विसेसाहिया ११६ प अधिक हिंदी सेक्शगुणेोगुण द्वारा वसामया विसेसाहिला । ण एस दोसो, लोभकसाएण खबएस पसंतीने पेरण सिमराउनसामसु पनि संत परिमाणं विशेाहिताविरोहर कुरो सोभ कसाई ति विसेसणादो। केवल विशेषता यह है कि लोभकाजी साम्परायिक उपशामक हैं | १६ | प्रश्न - अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो उपशामक गुणस्थानों में प्रवेश करनेवाले जीवोंसे संख्यातगुणित प्रमाणवाले इन्हीं दो गुणस्थानों में प्रवेश करनेवाले क्षपकों को देखकर अर्थात् उनकी बझासे सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक विशेष से हो सक हैं। उत्तर - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि लोभकषायके उदयसे पोंमें प्रवेश करनेवाले जीवोंको देखते हुए सोय सूक्ष्म साम्परायिक उपशामक और चीन संख्या रूप परिमाणवाले उन लोभकषायी जीवोंके विशेष अधिक होने में "कोई विरोध नहीं है, कारण कि 'लोभकषायी जीवोंमें ऐसा विशेषण पद दिया गया है । ९. वर्गणाओंका संख्या सम्बन्धी दृष्टिभेद ध. १४/५,६,११३/१६/५ बादरणिमोदग्गणाए सब्बेगसे डिवग्गणाओ अगाडी अनभि... के विद्वाइरिया अपरासिया गुणगारी भिति सम्म लिया सह रोमादनिगोद वर्गणाकी सम एकि संस्थाती है।श्रेणके असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणकार हैं ।... कितने ही आचार्य असंख्यात प्रतरावलि प्रमाण गुणकार हैं ऐसा कहते हैं, परन्तु वह पति नहीं होता, कलिका मूत्र के साथ विरोध आता है। १०. जीवों के प्रमाण सम्बन्धी दृष्टिभेद २] [ एक दृष्टि स्वर्गवासी इन्द्रप्रतीन्द्र १४ और दूसरी है। ९३ ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ ध. ३/१,२,१२ / गा. ४५-४६/६४ति दिति केई चउरुत्तरमत्थषं चमं केई । जब सामने एवं ख ४५ तर सिणि सयं मागमुक्साम गाण केई तु । तं चैव य पंचूर्ण भणति केई तु परिमाणं |४६ ॥ = कितने ही आचार्य उपशामक जीनोंका प्रमाण ३०० कहते हैं कि ही आचार्य २०४ बहते हैं, और कितने ही आचार्य २६६ कहते हैं। इस प्रकार यह उपशामक जीवोंका प्रमाण है, कोंका इससे दूना जानो १४५। कितने ही आचार्य उपशामक जीवोंका प्रमाण ३०४ कहते हैं और कितने २६६ कहते हैं ४६ घ. २/९.३००/१३०/२ के पि दरिया सागइयरासी उप्पज्जदित्ति भणति के वितं च्छति । कुदो । अदरा ससमुदयरस वापराने आचार्य पोथी बार स्थापित कलाकाराशिके आये प्रमाण के पक्षी होनेपर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है, ऐसा कहते हैं। परन्तु कितने ही आचार्य इस कथनको नहीं मानते हैं क्योंकि साढ़े तीन कार राशिका समुदाय वर्गद्वारा उत्पन्न नहीं है। गो. जी./मू./१६३ तिगुणा सतगुणा वा सम्बट्ठा माणुसीयमाणदो । - मनुष्य स्त्रियोंका जितना प्रमाण है उससे तिगुना अथवा सतगुणा देवोंका प्रमाण है। ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ १. सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची अंतर्भू अनं. अनं. लो. अनपहृत अप. अपहृत प्रतिसमय एक एक जीव निकालते जानेपर विवक्षित काल के समय समाप्त हो जाते हैं और उसके साथ जीब भी समाप्त हो जाते हैं । पत्य+ मध्यम असंख्याता संख्यात (ध. ३ / १,२,१५ / १२६ / ६ ) आवली / असं रूप असंख्यात आवली (ध.७/ २,५,५५/ अ. रूप असं. आवली २६९/९) असं. (ध. ७/२,५५५/२६७/१) उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी उत्तरोत्तर असं अपने से पूर्व वाली राशिके अवशेष उतनेवाँ भाग या सं. बहुभाग असं. बा./अर्स, प/अन्तर्ग मार्स उत, "अब, उप. ए. + कुछ गु. स. ज. प्र जल ज. ST तिमं तेज अन्तर्मुहूर्त [असं] (.०/१५५५/२०१२ मध्यम अनन्तानन्त (ध. ७/२,५,११७/२८५१५ ) अनन्तानन्त लोक ( विशेष दे. संख्या / २ / २ ) (दे. संख्या/२/१) अपर्याप्त श्री. द्वी. नि. प. पंचे. उपशामक एकेन्द्रिय राशिसे पृषि कुछ अधिक बन, गुणस्थान चतुरिन्द्रिय जगत्प्रतर जलकायिक जगणो तियंच तेजकायिक त्रीन्द्रिय हीन्द्रिय निगोद शरीर पर्या पंचेद्रिय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश बहुभाग ཚཱ ཝཿ ལླ ཡཱ मनु, ल. पृ. सं. सा. साधा. 15. पृथक्त्व अर्थात् ३ से ६ तक अथवा नरक पृथिवी पृथिवीकायिक मनस्पतिकायिक बहुभाग राशि बादर मनुष्य योनिमति तिच राशि भागाहार लक्ष पृथक्त्व वायुकायिक संख्यात सामान्य साधारण शरीर सूक्ष्म Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ । २. जीवोंकी संख्या विषयक ओघ प्ररूपणा १. जीव सामान्यकी अपेक्षा प्रमाण-१ प. वं. ३/१,२/सूत्र/पृष्ठ; २, ३. ३/१,२.६/गा.३८-४०/८७ ३. ध. ३/१,२/पृष्ठ; ४, ५.३/१, २, १२/गा. ४५-४८/६४-६६; ५. गो. जी./म. व टी./६२४-६४२/१०७७-१०६४ । अंका संदृष्टि-पल्य-६५५३६; अन्तर्मुहूर्त - सासादनके योग्य ३२: मिश्रयोग्य १६; असंयत योग्य ४; संयतासंयत योग्य १२८॥ मूल प्ररूपणा विशेष प्ररूपणा सं. गुणस्थान प्रमाण ष,खं.. ३/सू./पृ. संख्या अपेक्षा विशेष विवरण १ | मिथ्यावृष्टि । द्रव्य मध्यम अनंतानंत ( दे. संकेत सूचो) काल क्षेत्र २/१० अनं. ३/२६ ३१२७ अनं, उत अवसे अनपहत ३/२८ ४/३२ अनं.लो तीनोंका ज्ञान पल्य सूत्र २ सासादन असं. द्रव्य, क्षेत्र व काल प्ररूपणाका ज्ञान पत्य - (बिशेष दे, संकेत सूची) स्त्र योग्य अन्तर्मु. ६५५३६+३२-२०४८ (दे. उपरोक्त संकेत) काल अंकसंदृष्टि अंकसंदृष्टि मिश्र पत्य ६५५३६+१६-४०६६ असं " " अविरत संयतासंयत कोटि पृ. गणना ३/४ ३/१० प्रमत्त अप्रमत्त (७८ चारों उप'वेशापेक्षा (विशेष दे. अगला उपशीर्षक) ६५५३६+४-१६३८४ ६५५३६+१२८५१२ [स्वयंभूरमण द्वीप सागरकी अपेक्षा-दे. संख्या/२/६३] ५६३६८२०६ २६६६६१०३ (प्रमत्तसे आधे) उपशम श्रेणीयोग्य लगातार ही समय उत्कृष्ट होते हैं। तहाँ प्रथमादि समयोंमें जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त क्रमसे-१-१६:१-२४:१-३०:१-३६:१-४२:१-४८ ब१-५४ जीव प्रवेश करते हैं। २६६ या ३०० या ३०४ (विशेष दे. संख्या /२/१०) १-१४ 3/5o ४ " ३/१२/ गणना उपशामकोंसे दूने (दे. संख्या/२/४+ उपरोक्त उपशामों की प्ररूपणा) उपशामकोंसे दुगुने अर्थात ५६८ या ६०० या ६०८ ( उपरोक्तवत) ० संचयापेक्षया १०/६१ चारों क्षपकप्रवेशापेक्षा (विशेष |११/१२ दे, अगला उपशीर्षक) संचयापेक्षा १२/६३ सयोगीप्रवेशापेक्षा संचयापेक्षा १४/६५ अयोगीप्रवेशापेक्षा | ११/१२) संचयापेक्षा | १२/६३ २. तीर्थकर आदि पुरुष विशेषोंकी अपेक्षा (ध.१/१,८,२४६/३२३/१) १-१०८ ३/६५ उपरोक्त क्षपकवत् ८६८५०२ ल.पृ. . --→ उपरोक्त क्षपकावर --- --→ उपरोक्त क्षपकोंबतू --- नाम युगपत् उपशम. युगपत क्षपकश्रेणी में प्रवेश | श्रेणी में प्रवेश नाम युगपत् उपशम | युगपत् क्षपकश्रेणी में प्रवेश श्रेणी में प्रवेश 0 AM & ० rco-14. तीर्थकर प्रत्येकबुद्ध मोधित बुद्ध उत्कृष्ट अवगाहना मध्यम अवगाहना जघन्य अवगाहना पुरुष वेदोदय सहित स्त्री वेदोदय सहित नपुंसक वेदोदय सहित ४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. जीवोंकी संख्या विषयक सामान्य विशेष आदेश प्ररूपणा संख्या ष. खं. ३.१,२/ पुस्तक सं. ष. वं. ७/२, ५ पुस्तक सं. क्षेत्र की अपेक्षा कालकी अपेक्षा मार्गणा गुण द्रव्यकी अपेक्षा .. - ..स्थान । पखं. प्रमाण प्रमाण असं.का प्रमाण ष, खं. प्रमाण (ति. ग./२/१६५-२०१); ( गो जी./मू. व जी. प्र./१५३-१५४७३७६) असं असं. उत. अव. से अपहृत असं. १ गति मार्गणा ११. नरक गति. सामान्य प्रथम पृथिवी २-७ में प्रत्येक पृ. द्वितीय पृथिवी तृतीय पृथिवी चतुर्थ पृथिवी पंचम पृथिवी षष्ठ पृथिवी सप्तम पृथिवी सामान्य असं. जगश्रेणी असं → सामान्य वत् - - ज.श्रे. असं अस.करोड़योजनः ७११ ज. श्रेजने का १२वा वर्ग मूल असं. उत. अब, से अपहृत । ७-३१३ ७२४३ ( की टीका :: : जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश . + : . असं, ज. श्रे.+ज. श्रे.,, २ असं. ज. श्रे. → ओघवत् असं. उत. अब, से अपहृत - - असं - - - प्रथम पृथिवी २-७ पृथिवी (प्रत्येक) असं. ज.श्रे-असं → ओघवत अस.करोड़योजन ३२१ असं. उत. अब. से अपहृत २. तियं च गतिः-- सामान्य (विशेष दे. भागाभाग) । गो. जी./म. व. जी. प्र./१५५-१५६/ ३७६-३८०) ७२ अनं. ७३२ असं. ७३१ ७३६५ अनं, उत. अब, से अनपहृत एचे. तिर्य. सामान्य अनं लो. । ज. प्र + देव अवहार काल असं | ज.प्र... देव अवहार काल असं. उत्त. अब. से अपहृत , पर्याप्त ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएं : " : योनिमति , अपर्याप्त ज, प्र.(देव अवहार काल x सं.) ज.प्र.*(देव अवहार कोलxअसं) : Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रब्यकी अपेक्षा क्षेत्रकी अपेक्षा कालकी अपेक्षा संख्या मागणा गुणस्थान ष.ख. प्रमाण प्रमाण अर्म का प्रमाण प्रमाण सामान्य → ओधवत् - पंचें, तिर्य. सामान्य ज.प्र. * देव अवहार काल असं. असं. असं. उत. अव. से अपहृत पल्य/असं = पत्य आ. असं. पल्य/असं. " पर्याप्त असं. असं. उत. अब. से अपहृत , योनिमति असं. २.३७ - ज.प्र. दब अवहार शल सं. → आश्वत् - ज प्र. - (देव अवहार कालxसं.) → ओघवत् -- ज. प्र. - (देव अवहारकाल असं.)/ २३३० अस. उत. अव. से अपहृत ३३९२ असं. उत. अब से अपहृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पचें, तिर्य, पर्याप्त ३. मनुष्य गतिसामान्य मनु, अपर्याप्त मनु. पर्याप्त ___ असं. (गो. जी./मू. व जीव प्र./१५७-१५६) असं. ७२५-२६ ज. श्रे.+असं, असं करोड योजन ७२४ असं. उत. अव. से अपहृत टी./२५७ टो./२५६ कोड़ाकोड़ाकोड़ी व कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी के बीच में अर्थात - उपरोक्त ४४% उपरोक्त = असं. मनुष्यणी पुरुष व नपुंसक मनुष्य सामान्य ७६२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४३६५०३३६[ ४२११२१८८५६६८२५३१६५१५७६६२७५२ (ति, प./४/२६२६)] [१६८०७०४०६२८५६६०८४३१८३८५६८७५८४ (ति. प./४/२६२७ ) ] ३३३८ । ज श्रे. असं. असंकरोड़ योजन| ३४१ M - असं. उत. अब. से अपहृत 5 ५२ करोड़ १०४ ,, ७.०.. [ मतान्तरकी अपेक्षा ५० करोड़) [ मतान्तरकी अपेक्षा १०० करोड़ ] (ध. ३/१,२,४३/ गा.६८-६६/२५२) ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या द्रव्य की अपेक्षा क्षेत्रको अपेक्षा कालकी अपेक्षा भा०४-१३ मार्पणा गुणस्थान घ.खं. प्रमाण प्रमाण | असं.का प्रमाण ष. खं. प्रमाण मनुष्य सामान्य मनुभ्य पर्याप्त | → ओधवत् - - कोड़ाकोड़ाकोड़ी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी के बीच में अति- (उपरोक्त मनुष्य सामान्य राशि-अपने २-१४ गुणस्थानोंका जोड़) टी./२५४ टो./२६० मनु. सा. उत् → ओघवत - - m Stu जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश AKAM of मनुष्यणी कोड़ाकोड़ाकोड़ी ३ कोड़ाकोड़ाकडाकोड़ी। के बीचमें . अर्थात- उपरोक्त मनुष्यणी सामान्य राशि- अपने २-१४ गुणस्थानोंका जोड़ टी.'६० २-१४ टी./२६१ मनुष्य अपर्याप्त २५ असं. उत. अब. से अपहृत . १४. देवगति गुणस्थान प्रतिपन्न उपरोक्त मनुष्प + संस्थान । किती निनत राशिका उपदेश प्राश नहीं है । असं. असं.करोड योजन (ति. प./८/६६१-६७४); ( गो. जो./मू. व जो. प्र/१६०-१६३ ) असं, ७३३ ज.प्र. - ( २५६ सूच्च गुल) | असं. ७३३८ (ज. - असं) प्रमाण असं जो असं. - ज.प्र.-(सं. सौ याजन)२ असं. उत. अय. से अपहृत सामान्य भवनवासी वानव्यन्तर 15 Aur KaM Mur owinnr ७३३३ G. ७१३३ ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएं ज्योतिषी → देव सामान्यवत् - सौधर्म ईशान ७३६४ ७४४.४६ जप्र./अ.प्रमाण असं. ज.. असं.उत. अव, से अपहृत A Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यकी अपेक्षा क्षेत्रकी अपेक्षा कालकी अपेक्षा संख्या मागणा गुणस्थान प्रमाण प्रमाण असं का प्रमाण पखं प्रमाण → सप्तम नरकन्द सनत्कुमार-सहस्रार आनत-अपराजित पर अ. (पल्य/अंतुर्मु ) से अपहृत अंतर्मु - आ.(टो.पृ.२६७) JAGGC MSAKASHe सर्वार्थ सिद्धि देव सामान्य ७५६ wker curror । अम उत. अवसे अपहृत असं. ३३८ असं.. ज, प्र. + (२५६ सूच्यं गुल)२ । | → ओघवत् । | भागाहार - असंचन सम्यग्दृष्टि सामान्यका भागहार + यही भागाहार आ. टी./२६६ असं अस असं.उत. अवसे अपहृत , -असंयत सम्यग्दृष्टिका उपरोक्त भागाहारxआ. , -तीसरे गुणस्थानका उपरोक्त भागहारxसं. अमं. ज.प्र./असं.प्रमाण असं.ज.श्रे. → उपरोक्त सामान्यवत् - ज. प्र. (सं. सौ योजन)२ भवनवासी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश असं. dies व्यन्तर पल्य/असं उत असे अपहृत एल्य/असं वय+आ असं पत्य/असं. mmmmmmmm. NIGAMmalamamRAS 9 9 9 9 to lrvo० 9 w orlu ol ज्योतिष सौधर्म-ईशान ३ Iris 12 Mon असं. उत. असे अपहत mr । → देव सामान्यवत - ज.प्र./असं प्रमाण असं ज, श्रे. → देव सामान्यक्त - → सप्तम पृथिवीवत् - ज. श्रे. असं | ( ज. श्रे.)३३ । (ज. श्रे.)इंट टी./२८० सनत्कुमार-सहस्त्रार सनत्कुमार-माहेन्द्र ब्रह्मब्रह्मोत्तर लान्तवका पिष्ठ शुक्र-महाशुक्र शतार-सहस्रार सनत्कुमारमे सहस्रार आनत-उपरिम प्रैवेर्षक . (ज. श्रे.) ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएं | टी./२८१ → सप्तम नरकवत २-४ १-४ - पल्य/असं पत्य/अंतर्मुसे अपहृत पल्य/अंतर्मु. पल्य Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अनुदिश-अपराजित सर्वार्थ सिद्धि २. इन्द्रिय मार्गणा : एकेन्द्रिय सामान्य एकेन्द्रिय पर्या " बा. एके. सामान्य पर्याप्त पर्या सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त द्वीन्द्रिय सामान्य " सूक्ष्म, 11 " 37 11 मागेणा " 19 13 अपर्याप्त त्रीन्द्रिय सामान्य पर्याप्त अपयष्ठि 19 11 पर्याप्त जयति चतुरिन्द्रिय सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त गुणस्थान ४ ४ X ष खं. टी./२०६ ७२६ " ७२ " द्रव्यकी अपेक्षा गो.जी./टी./१०५-१००), (ति १/३/२०० ::::: प्रमाण पाय असं अनं. सं. मनुष्यणीसे तिगुने - [ १७८२६५६५७०६४७५६५८५४७३८८७५५६ ] 99 17 असं. घ. नं. 11 11 इंट " ::: अनं. क्षेत्रकी अपेक्षा 91 19 19 19 71 99 प्रमाण 99 ज. प्र. + ( सूच्यं गुल / असं ) 2 + ज. प्र. + ( सूच्यं गुल / असं ) २ द्वीन्द्रिय सामान्यवत् पर्याप्त अत सामान्य पर्याप्त अप 11 11 "1 +9 असं का प्रमाण आ./असं. आ./असं, ष. रवं, 부분문자 93 11 19 14 ::::: कालकी अपेक्षा प्रमाण अंत पत्य + - पल्य / अंतर्मु - अनं उत अबसे अनपहृत 13 31 आ. असं असं उत. अब से अपहृत " संख्या ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पंचेन्द्रिय सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रियके उपरोक्त सर्व विक 99 विलेयके उपरोक्त सर्व विकल्प पंचेन्द्रिय सामान्य पर्याप्त मार्गणा 33 " ३. काय मार्गणा : सूक्ष्म "1 पृथिवी कायिक सामान्य बादर पृथिवी अपु अपर्याप्त : 11 11 "" 39 ११. पर्याप्त अपर्याप्त सामान्य पर्याप्त अपमति >> कायिक सामान्य गुणस्थान १ १ १ ष, खं. ३ १४ ॐ१० २३१४ २-१४२३६० १० ७ ७ 19 द्रव्यकी अपेक्षा 19 प्रमाण अस. अनं. बर्स. असं. । असं. "" यस असं लोक. 39 प.सं. 특히 ចុះ ७ ३४ ३६ ट ७ घ. ३ / पृ. ३३४ "" 11 क्षेत्रकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय सामान्यवत पयो अपर्याप्त " प्रमाण (विशेष च ३/१२/००/२२४-२४८) (.आ./ १२०५-१२०६) (ति. १/५/२००); (मो.जो../२०४-२९४/४६२-४६६) असं लोक. ध. ३/पृ. ३३४ प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं ७ইউৰ उपरोक्त सामान्य विकल्पोवत् ज. प्र. (सूचयगुन / असं ) २ ज. प्र + ( सूच्यं गुल / सं ) २ ओषत प्रसूत/असं) असं का प्रमाण प्र + ( सूर्यगुल / अस ) 2 प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं ३३५६ ३३१४ 11 ३६१७' ध. ३ / पृ. ३३४ ७হ ध. ३/पृ. ३३४ :::: कालकी अपेक्षा प्रमाण असं उत. अब से अपहृत 39 19 अनं उत. अब से अनपहृत अस उत. अब से अपहृत असं उत. अत्र से अपहृत : असं, उत. अब से अपहृत प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं। असं उत अत्र से अपहृत प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं 37 39 संख्या १०० ३. संख्या विषयक प्ररूपणा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यकी अपेक्षा क्षेत्रको अपेक्षा कालकी अपेक्षा संख्या मार्गणा गुणस्थान खं. प्रमाण ष.खं. प्रमाण असं.का प्रमाण प, वं. प्रमाण ७६ घ.३/पृ.३३४ असं. लोकध,३/१३३४ प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं असं. ७५७२ - ज. प्र. (सूच्यंगुल/असं.)२ असं लोक ध.३/१३३४ प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं matam GGIndia प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं| असं. उत. अवसे अपहृत । प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं बादर अप कायिक सामान्य " , पर्याप्त " अपर्याप्त सामान्य " पर्याप्त " अपर्याप्त " सामान्य ध.३/पृ.३३४ तेज. " " GGIN ७७२-७३ (असं, आवली)२ (आ.२ से नीचे) असं. लोक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १०१ 99 .59019 M - असं. असं. लोक ७७.१.१८ । लोक/असं प्रमाण असं ज.प्र. प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं असं. उत. अवसे अपहृत प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं ध./.३३४ ध.३/पृ.३३४ पर्याप्त .. अपर्याप्त १. सामान्य , पर्याप्त " , अपर्याप्त + सामान्य बादर बायु ", " ! " " पर्याप्त . . अपर्याप्त . " सामान्य " " " पर्याप्त " " " अपर्याप्त बनस्पति सामान्य बादर बनस्पति " " " . " पर्याप्त . . , अपर्याप्त सूक्ष्म " " सामान्य , पर्याप्त " , अपर्याप्त निगोद , सामान्य :::: AmNGa GIN अनं.लोक अनं. उत अवसे अनपहृत ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यको अपेक्षा क्षेत्रको अपेक्षा कालको अपेक्षा संख्या मार्गणा गुणस्थान ष,खं. प्रमाण ष.खं. प्रमाण अंस. का प्रमाण प्रमाण अनं. लोक अनं,लोक अनं. उत. अवसे अन पहृत - : : बादर निगोद सामान्य , पर्याप्त " अपर्याप्त सामान्य , पर्याप्त , अपर्याप्त : : घ.३/पृ.३३४ घ.३/पृ.३३४ बादर बन. प्रत्येक सामान्य " " " पर्याप्त । . . अपर्याप्त MAnamom GG असं. लोक अर्स, असं. लोक प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं असं. उत अवसे अपहृत प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं। ध.३/पृ.३३४ घ.३/पृ.३३४ त्रसकायिक सामान्य प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं ज, प्र.+ (सूर्यगुल/असं.) प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं । पंचेन्द्रिय सामान्यवत् . पर्याप्त , , अपर्याप्त सर्वत्र उपरोक्तवत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १०२ ३ UN १ m पर्याप्त " . अपर्याप्त स्थावर कायिकोंके उपरोक्त सर्व विकल्प त्रस कायिक सामान्य . पर्याप्त त्रस सा. व पर्याप्त ज.प्र. (सूच्यंगुल/असं.)२ ज.प्र. (सूच्यंगुल सं.२ । ३ ally . असं. उत. अबसे अपढ़त ओघवत ३१०२ 23 पंचेन्द्रिय अप. ( या विकलेन्द्रिय अप.+पचेन्द्रिय अप.) बत् त्रस कायिक अप. ४. योगमार्गणापाँचों मनोयोगी (गो. जी./२५६-२७०/२७१ -५८६) देव सा/असं असं. ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ बचन योगी सा, ७ ट ज.प्र. - (सूच्यं गुल/सं.)२ ७६७ असं. उत. अवसे अपहृत Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यकी अपेक्षा क्षेत्रको अपेक्षा - संख्या कालकी अपेक्षा मार्गणा गुणस्थान प. वं. प्रमाण प्रमाण असं.का प्रमाण प., प्रमाण सत्य वचनयोगी देव. सा/असं. असत्य उभय असं ज. प्र. (सूच्यंगुल/सं.)२ अनं. लोक असं. उत. अव.से अपहृत अनं. उत, अव.से अनपहृत WN ७६७२ अनुभय . काय योगी सामान्य औदारिक काय योगी औदारिक मिश्र , वैक्रियक - .. वैक्रियक मिश्र : AM देव/सं.से कम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश देव/सं. W or o०० OL आहारक ७६. ५४ सं. (२७) आहारक मिश्र कार्मण पाँचों मनोयोगी अनं. अनं. लोक अनं. उत. अव.से अनपहृत देव/सं. २-१४ ३०४१०५ वचनयोगी सामान्य असं. ओधवत - ज. प्र.(सूच्यंगुल/सं.)२ मनोयोगी वत असं. उत. अव से अपहृत सत्य असत्य ब उभय वचनयोगी देव/सं. २-१४ ३२०४८०५ ओघवत ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यको अपेक्षा क्षेत्रकी अपेक्षा कालकी अपेक्षा संख्या मार्गणा गुणस्थान प्रमाण घ. खं, प्रमाण असं.का प्रमाण प्रमाण असं. उत. अव. से अपहृत अनुभय बचनयोगी काय योगी सामान्य ज. प्र. (सूच्यंगुल/सं )२ | → मनोयोगीवत् → ओघवत् → मनोयोगीवत् → ओघवत् →मनोयोगीवत् | →ओघवत् →औदारिक मिश्र सामान्यवत् औदारिक काय योगी औदारिक मिश्र टी/३८ [कपाट समुद्धातमें आरोहण करनेवाले-२० तथा अवरोहण करनेवाले-२०] ४० देव/सं. वैक्रियक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २०४ ओधबत बैंक्रियक मिश्र ३११४ देव/सं. ओघवत आहारक मित्र - " सं. (२७) कार्मण - ओघवत् ओघवत् - - सं. ५. वेद मार्गणा स्त्री वेदी पुरुष वेदी xxx x टी/४०४ ६०- [प्रतर समुद्धातमें २०, लोकपूरण में २०, तथा उतरते हुए २० । ] (गो, जी./म. व टी./२७७-२८१/५६६-६०३) देवी+कुछ देव+कुछ अनं. अनं.लोक, अनं. ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ नपुंसक वेदो ७३३ । अन-उत-अवसे अनपहृत अपगत वेदी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यको अपेक्षा क्षेत्रकी अपेक्षा कालकी अपेक्षा संख्या मार्गणा भा०४-१४ गुणस्थान प्रमाण ष.खे. | प्रमाण प्रमाण असं, का प्रमाण | प. खं, प्रमाण स्त्री वेदी देवी+ कुछ ओघवत् पुरुष वेदी ३४३६ देव+कुछ → ओघवद - - नपुंसक वेदी उपक्षप-१० टी/४१६ ३१३१ अपगत वेदी उप. (विशेष दे. ओघ) क्षपक ओघवत् मैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १०५ ६. कषाय मार्गणा: चारों कषायवाले 17 पृथक् पृथक (गो. जी./मूध टी./२६६.२६८/६४०-६४४) अनं अनं, लोक अनं.उत. अव. से अनपहृत अनं. अकषायी चारों कषायी ओघवत लोभ कषायी अकषायी ساله با 9100000 این ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ - ७. ज्ञान मार्गणा मति अज्ञानी (गो. जी./म. व टी./४६१-४६३/८७२ ) ७३८६ । नपुंसक वेदीव Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यकी अपेक्षा क्षेत्रको अपेक्षा कालकी अपेक्षा संख्या मार्गणा गुणस्थान प्रमाण प्रमाण असं का प्रमाण प.खं. प्रमाण नपुंसक वेदीवत् देव+ कुछ पल्य/अस. ७३टे (पल्य/अंतर्म.) से अपहृत अंतर्मु.- आ/असं. श्रुत अज्ञानी विभंगज्ञानी मति, श्रुत ज्ञानी अवधिज्ञानी मनापर्ययज्ञानी केवलज्ञानी मति, श्रुत अज्ञानी विभंगज्ञानी अनं. ओघवत Gu09 tola देव+कुछ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १०६ ओघवत् मति आदि तीन ज्ञानी ३१४३ ११४५ ३४४१ ३१४३ अवधिज्ञानी मन पर्यय ज्ञानी केवलज्ञानी 6. संयम मार्गणा | → ओघवत - - - (गो. जी./म. व टी./१८०-४८१/८८६) ७१३६ कोटि. पृ. संयत सामान्य सामायिकछेदो. परिहार शुद्धि ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ सहस्र.. सूक्ष्म साम्पराय शत. पृ. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - देव्यकी अपेक्षा क्षेत्रकी अपेक्षा कालकी अपेक्षा मार्गणा -संख्या गुणस्थान प.ख. प्रमाण प्रमाण ष,खं. प. वं. प्रमाण असं. का प्रमाण प.वं. प्रमाण शतसहस पृ. पल्य/असं. ७११६ (पन्य/अन्तर्मू. ) से अपहृत -अन्तर्मु.-या/असं. यथारख्यात संयतासंयत असंयत संयत सामान्य सामायिक-छेदोपस्थापक उप० व क्षपक परिहार विशुद्धि मति अज्ञानी बत् - ओघवत ६-१४ ३१ टी./४४६ ६६६७ टी./४४६ ६६७ [ध. ३/१,२,१५०/गा.७४/४५०) । → ओघवत् - [ध, ३/१,२,१११/७६/४५०] ओघवत् - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १०७ . सूक्ष्म साम्पराय. उप.नक्षप यथारख्यात संयतासंयत असंयत ९. दर्शन मार्गणा चक्षुदर्शनी अचक्षुदर्शनी अवधिदर्शनी केवल दर्शनी चक्षुदर्शनी (गो, जी-/मू-वटी./४८७-४८८/८६१) असं. असं.उत. अब. से अपहृत ७३२१ 1 । | ज. प्र.*(सूच्यंगुल )२ | → असंयतवत् → अवधिज्ञानीवद → केवलज्ञानौवत् ज.प्र. (सूच्यंगुल )२ ___ओघवत् - ___ ओघवत् - → अवधिज्ञानीवत् + → केवलज्ञानीबत - ३१५१ असं,उत, अब, मे अपहृत | २-१२ ३१५ अचक्षु दर्शनी अवधि दर्शनी केवल दर्शनी १०.लेश्या मार्गणा कृष्ण नील कापोत १३-१४ ३१६६ (गो, जी./म्.बटी./ ५३७-५४२/६३२) ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ असंयतवत् Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यकी अपेक्षा क्षेत्रको अपेक्षा कालकी अपेक्षा संख्या मागणा गुणस्थान प्रमाण ष.ख. प्रमाण असं. का प्रमाण प.खं. प्रमाण तेजो लेश्या पद्म खेश्या देव+कुछ (संज्ञी-पंचे-तिर्य. योनि)/सं. पत्य/असं. | टी-२६३ ज.प्र. सं. प्रतरांगुल शुक्ल लेश्या । ७१५१ ( पक्य/अन्तर्मु.) से अपहृत -अन्तर्मु-अ./असं. कृ. नील. कापोत. ३८ → ओधवत - तेजो लेश्या देव+कुछ ३.११४ २४६२ → ओधवत - पत्र लेश्या सं. (संज्ञी. पंचें. तियं. योनि.)+सं. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश → ओघवत् - - - mmm शुक्ल लेश्या 10 Sonuft 6 पक्य/असं. सं. ३४ई पत्य/अन्तर्मु. से अपहृत -अन्तर्मु.आ./असं, → ओघवत् - ११. भव्यत्व मार्गणाः भव्य (गो. जी./म. व टी./५६०/६८६) अनं. अनं.डोक अनं. उत. अव. से अपहृत अभव्य → ओधवत् | - अभव्य १२. सम्यक्त्व मार्गणा:सम्यग्दृष्टि सा. तीनों सम्य (प्रत्येक) सासादन सम्य, सम्ममिथ्यादृष्टि (गो. जी./म्. ब.टी./६५७-६५६/११०थे पल्य/असं. ७३३ पल्य/अन्तर्मु. से अपहृत -अन्तर्मु.आ./असं. ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यकी अपेक्षा क्षेत्रकी अपेक्षा कालकी अपेक्षा संख्या मार्गणा गुणस्थान प्रमाण ष.खं. प्रमाण असं, का प्रमाण प. खं. प्रमाण - ४ - → असंयतवत - मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि सा. क्षायिक सम्यग्दृष्टि 9mm → ओघवत् - ४ । n - उपशामक क्षपक " ८ ओघवत् 'वेदक. सम्यग्दृषि उपशम सम्यग्दृष्टि GEWWWWWWWWW 000-00000000000000000000000 GIGG66666666666666com जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश → ओघवत् १०९ सासादन सम्यग्दष्टि सम्यग्मिथ्याष्टि मिथ्यावृष्टि १३. संशी मार्गणा:संझी असंही संज्ञी (गो. जो./भू. व टी./ ६६३/११०८ ) | देव+कुछ → असं यतवत् - TTE देव + कुछ های حمام ماله مالم २-१२ ३४४ . ओघवत् अनं लोक अनं.उत. अव. से अनपहृत me असंज्ञी १४. आहार मागणा आहारक { गो. जो./म. व टी./ ६७१/१९९१ अनं. उत. अव. से अनपहृत अनं. लोक ७४ अनाहारक आहारक ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ - अनाहारक १,२४,१३, → ओधवत् + →कार्मण काययोगीवत् - → ओघवत Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ११० ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएं ४. जीवोंकी स्वस्थान भागाभागरूप आदेश प्ररूपणा (प. रवं. ७/२.१०/सू. सं./पृष्ठ सं.); (ध. ३/१,२, सूत्र ( दे. नीचे नोट )/पृष्ठ सं.) नोट-संख्या विषयक आदेश प्ररूपणामें उस उस मार्गणा सम्बन्धी सूत्रों में से अन्तिम सूत्रों की टीकामें उस उस मार्गणा सम्बन्धी भागाभाग प्ररूपणा की गयी है। मार्गणा ध./पृ. भागाभाग I मार्गणा ष.खें./ सू./पृ. ध, भागाभाग १. गति मार्गणा सौधर्म युगल शेषका सं. बहु. १. नरक गति नारकी सा. १-७ प्रत्येक पृ. प्रथम पृ. २-७ पृ. प्रथम पृ. ool स्वर्ग क्रमसे उत्तरोत्तर प्रत्येक स्वर्गमें सौधर्म युगलबत् उत्तरोत्तर असं बहु. २-७ पृ. ४.३२ सर्व जीव अनं. सनत-सहस्रार उपरोक्तवत नरक सा.का असं.बहु.. ज्योतिषी ४,३,२ उत्तरोत्तर असं.बहु. व्यंतर ४,३,२ शेषका अस. बहु. भवनवासी ४.३,२ (आनत-उपरिम वेयक उत्तरोत्तर क्रमसे आनत से. प्रथम पृथिवीवत् उपरिमz. अनुदिश सर्व जीवका अनं.बहु, विजय आदि सर्व जीव+अनं. चारों अनुत्तर आनत से. उपरोक्तवत् उपरिम गै. तियं.सा.का अनं,बहु शेषका सं. बहु. सर्वार्थ सि. | " असं... २. इन्द्रिय मार्गणा शेषका उत्तरोत्तर , , २. वियंच गति तियं. सा. पंचें.सा. प., यो, अप. एके+विक. पंचें. अप. पंचें. तियं. प. " , योनिपंचेंप, सा. २४० . .. शेष एक भाग एकें. सा. सर्व जीवके अनं, बहु. सर्व जीव' असं. - " असं.. शेष एक भाग बा. एके. सा. ,, प, अप सू. सा. to. ३. मनुष्य गति मनु, सा. सर्व जीव+अनं. उपरोक्तवत् सर्व जीवके सं. बहु. सर्व जीव+सं. सर्वजीवके अन, गहु, मनुष्यनी मनु. अप. मनु. अप. मनुष्यनी मनु. प. ., ,, अप. विकलें. सा: प, अप. पंचें. सा. प. अप. 13501505 | ve ve xe : : : मनु. सा.का असं.बहु. शेषका सं. बहु. । उत्तरोत्तर ,, " , अप, सर्व जीवके सं.बहु. शेषके असं बहु. (असं असं.लोक) शेषके असं. बहु. "अनं. बा. , अप. अनिन्द्रिय वस राशि शेष (पत्य/असं.) ४. देव गति देव सा, भवन सर्वार्थ. ज्योतिष व्यन्तर, भवन सौधर्म युगल सनद-सहस्रार सौधर्म युगल सर्व जीव अनं. उपरोक्तवत् देव सा.का असं. महु. उत्तरोत्तर , शेषका उत्तरोत्तर , शेषका नोट-प्रस राशिके असं बहुभागके चार समान खण्ड करके द्वीन्द्रियादि प्रत्येकको एक एक खण्ड दें। तहाँ समान भागोंकी सहनानी='क'; शेष भागकी सहनानी-'ख/ख' राशिका उत्तरोत्तर असं, बहुभाग द्वीन्द्रिय आदिके पूर्वोक्त 'क' में जोड़ना। असं आ/असं] जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएं मार्गणा घ/पृ. भागाभाग | मार्गणा गु. स. १. रवं. ध./५. भागाभाग । द्वी. सा. त्री. सा. चतुर्रि. सा. पंचें. सा. द्वी. अप. प. त्री. प. असं ,, अपर्याप्त क+ख का असं.बहु. नोट-[इन्द्रिय मार्गणावत् यहाँ भी इस सूक्ष्म राशिके असं. महुक+शेषका , भागके चार समान खण्ड करके सु.पृ. आदि चारोंको एक एक क+ , , खण्ड देना । इन समान भागोंकी सहनानी-'क'; योष भागकी क+शेष एक भाग . सहनानी-ख। पुनः इस 'ख' राशिका उत्तरोत्तर असं. बहुभाग द्वी. सा. के असं. बहु. उन्हीं चारोंकी पृथक-पृथक् 'क' राशिमें मिलाना । असं - असं शेष, एक भाग लोक] त्री. सा. के असं.बहु. सू. वायु सा. ३६३ | क+ख का असं. बहु शेष एक भाग • अप.. क+शेष . . चतु. सा. के असं.बहु. क+ .. . . शेष एक भाग तेज , क+शेष एक भाग पंचें सा,के असं, बहु. सू. वायु. पर्याप्त सू.वायु सा.का असं.बहु शेष एक भाग , अपर्याप्त शेष एक भाग पन्य के असं. महु सू. अप, पर्याप्त सअप-सा. का असं. महु शेष एक भाग उत्तरोत्तर , , सू. पृ. पर्याप्त सू.पू. सा.का असं.बहु , अपर्याप्त शेष एक भाग सू, तेज पर्याप्त सू. तेज सा.का असं. बहु ", अपर्याप्त शेष एक भाग सर्व जीव अनं. बा. निगोद से असं. लोक (पृथक । अतिरिक्त बा. राशि स्थापित) | बा, वायु अपर्याप्त असं लोक प्रमाण बादर राशिका असं. बहु । असं.- असं.लोक बा. अप्. अपर्याप्त शेषका असं. बहु सर्वजीवोंके अनं. बहु , निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक बन अपर्याप्त बा.नन प्रत्येक अप । , तेज अपर्याप्त । , वायु पर्याप्त ३. काय मार्गणा पृथिवी. सा. , प. अप. मा. पृ. सा, प. अप. ६प्रकार अप.. ::.:. MSMS मन. सा. बा. बन. सा. , प. अप. बा. निगोद. सा. प.अप. बा. बन. प्रत्येक सा. सर्व जीव+अनं. सर्वजीवोंके असं.बहु (बा. प्रतिष्ठित । प्रत्येक बन पर्याप्त मा. मन प्रत्येक पर्याप्त १ स. अपर्याप्त , पर्याप्त mlsmitml5.05 mismis::.-.00000000000 . अमं , ३.२,५ " प. अप. सू. बन, सा. ..., पर्याप्त ,,,, अपर्याप्त , निगोद सा. ,, पर्याप्त ,,, अपर्याप्त त्रस. सा. , प. अपर्याप्त सू. निगोद पर्याप्त ,, अपर्याप्त ना. " , ,, पर्याप्त अकायिक सू. पृ. आदि | उत्तरोत्तर "" शेषके . बा. तेज पर्याप्त त्रस पर्याप्त सर्व जीव- अनं । उत्तरोत्तर , सर्व जीवोंके सं. बहु शेषके असं., सर्व जीव + अन , १ । ४. योग मार्गणा पाँचों मनोयोगी पाँचों वचनयोगी काययोगी सा. औदारिक काय अनं... सर्वजीवके अन.बहु शेष-असं.लोक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या जौवारिक मिश्र वैि मार्गणा आहारक व कार्मण काय औदारिक काय मिश्र कार्मण काय सिद्ध जीव अभय वचन 1. वैक्रियक काय उभय बच्चन असत्य सत्य अनुभय मन उभय वरीय असत्य सत्य pla :: 39 सत्य " बैकि. मिश्र वैक्रि. काय अनुभय वचन उभय Mama 39 11 " ११ 19 उपरोक्त क्रमसे चार मनोयोगी बैंक कार्य उपरोक्त क्रमसे चार वचनयोगी उपरोक्त क्रमसे चार मनोयो, वैक्रि. काय उपरोक्त कमसे चार बचन उपरोक्त क्रमसे चार मन औदा. काय उपरोक्त क्रमसे चार वचन उपरोक्त क्रम चार मन कि. मिश्र कार्मण काय औदा, मिश्र जैकि मिश्र कार्मण काय गुणस्था १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ३ ३ ३ २ २ २ ४ ३ २ ५ ४ ४ २ २ २ ४२ 오태 3 ५०७ " ४४ ५०५ घ. / पृ. ४०४ " 37 ४०४ ** 99 ४०५ 95 99 11 5+ 13 "1 ४०६ :: ::::: 49 ४०७ :::: " सर्व + सं 35 " 19 सर्व जीव+असं 11 सर्व जीवों से हू घोष असं.." 11 19 १७ 91 " ११ शेष के सं. " 11 14 11 भागाभाग 11 १० + अनं ११ उत्तरोत्तर.. 19 99 शेषके उसरोवर.. 17 अनं 15 39 11 शेषके उत्तरोत्तर.. ::: असं असं. स. असं, 11 91 उत्तरोत्तर.. असं. सं. 19 : 14 hco महु 19 39 19 10 "" 39 " 39 19 19 असं म सं. :: 17 19 37 " 14 शेषके असं. महु. ११२ 99 11 " मार्गणा (उपरोक्त क्रमसे ६-७ सर्व योग ५. वेद मार्गगा स्त्री. पुरुष व अपगत वेदी नपुंसक वेदी अपगत श्री पुरुष तीनों बेदी 33 99 11 ६. काय मार्गणा क्रोधी मानीमायी लोभ कषायी अकषायी चारों कषायो ( अकषायी + लोभ कषायी माया क्रोध मान अकषायी 17 11 19 क्रमसेोभ माया, मान व क्रोध कषायी लोभ कषायी माया क्रोध 79 ११ मान, उपरोक्त क्रमसे चारों गुणस्था. " जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १ ४ ५-६ १ २-१०) १ १ १ १ ४ ५ ५ ५ . ܗ रव नोट -चारों कषायीकी मिथ्यादृष्टि सामान्य राशिके असं बहुभाग के चार समान खण्ड करके एक एक खण्ड प्रत्येकको दीजिये। इस एक खण्डकी सहनानीक / शेष असं वें भागकी सहनानी- रख । इस क्षेत्र राशिके उपरोक्त असं बहु भागको चारोंकी कराशिमें मिलाना । असं आ/ असं. । ५ ६-१० Xir ४८ पं.१० ५१० १० ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ घ./पृ. ४२१ 17 ४३१ ४३२ 17 11 ४३३ ४३३ ओघके आधार पर जान लेना शेषके असं. चारों कषाय नोट-उपरो नोटकी भाँति यहाँ संयतास मतको अपेक्षा 'क'म 'ख' राशि जानना । :::: भागाभाग सर्व जीव + अनं. सर्व जीवों के अनं बहु. • शेषके 21 " 17 11 सं. असं. 19 "1 ओघवत सर्वजं से कुछ कम ४ सर्व जीव: -से कुछ अधिक " ४ सर्व जीव+अनं सर्व जीव के अनं, बहु शेष एक भाग क +खका असं. न. क + शेषका क+ क +शेष एक भाग उपरोक्त अवामी + "1 41 १-१० गुणस्थानकी सर्वशिके वनं महु. उत्तरोत्तर संभ बहु. " महु. क+का असं बहु क + शेषका 11 क + W ११ 11. क + शेष एक भाग सयतासंयत के क्रम से यथा योग्य Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ११३ ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ ___ मार्गणा . गुणस्था प.ख. ध./पृ. भागाभाग मार्गणा प.खं *3/4 भागाभाग | शेषके सं. बहु. ७. ज्ञान मार्गणा 515515 -Tula. सामायिक व ६-६ छेदोपस्थापना यथाख्यात सर्व जीवों के अनं.बहु.] परिहार वि. ६-६ सर्व जीव अनं. सूक्ष्मसाम्पराय | १०. ९, दर्शन मार्गणा ::: शेष एक भाग मति श्रुत अज्ञानी विभंग ज्ञानी (पाँचों ज्ञानों में से प्रत्येक मति श्रत अज्ञानी केवलज्ञानी विभंग मति श्रुत ज्ञानी अवधि ज्ञानी सर्व जीव + अनं. सर्व जीवों के अनं. बहु | चक्षुदर्शनी शेषके असं बहू. अवधि दर्शनी , ccc - केवल अचक्षु सर्व जीवोंके अन'. बहु. असं. c. मति श्रुत मिश्र (मति श्रुत अवधि मिश्र ३ Wor मतिश्रुत ज्ञानीके असं, बहु(असं)- आ. केवल - शेके सं. बहु.. चक्षु , चक्षु अचक्षु दर्शनी मतिश्रुत मिश्रके अवधि असं. बहु(अस)- आ. चक्षु अचक्षु । शेषके असं. बहु. मति श्रुत अज्ञानीके अवधि उपरोक्त तीन, शेषके असं बहु. | १०. लेश्या मार्गणा www चक्षु अचक्षुका असं. बहु. शेषके सं. बहु. असा मति श्रुत अज्ञानी विभंग ज्ञानी मंति श्रुत ज्ञानी sxc असं, बहु(अस) असं. उपरोक्त संयतासंयतबत यथायोग्य / सर्वजीवसे कुछ अ धक अवधिज्ञानी दूसरे प्रकारसेमति श्रुत अज्ञानी केवलज्ञानी विभंगज्ञानी तीन ज्ञान वाले १ 3 सर्वजोबसे कुछ कम दो ज्ञान वाले । कृष्ण लेश्या सर्व जीवोंके अनं. बहु. शेषके नील, कापोत असं... तेज, पद्म, शुक्ल सर्व जीव+अनं. कृ.+नील+कापोत सर्व जीवों के अनं. बहु असं... अलेश्य दोषके .. तेजो लेश्या पद्म , | असं.., , | शेष एक भाग नोट-उपरोक्त कृष्णादि तीन लेश्याके प्रमाण में इन्द्रिय मार्गणावत ___'क' व 'ख' राशि उत्पन्न करना। असं-आ/असं, विशेषता यह संयतासं यतके क्रम | कि यहाँ चारकी बजाय तीन समान खंड करना। से यथायोग्य कृ. लेश्या । ४६६ । क+खका असं.बहु. नील , क+शेषका ॥ कापोत . क+शेष एक भाग सर्व जीव- अनं. कापोत , कापोत राशिका अ.नहु शेषका असं. बहु. असं.. शुक्ल , तीन ज्ञान वाले मनःपर्यय सहित ६-१२ १२,३,४ ज्ञानवाले ८. संयम मार्गणासंयत सा. पाँचों संयत संयतासंयत असंयत असंयत सिद्ध comcm. नील सर्वजोवोंके अनं.बहु. सर्वजीवों के अनं.बहु. शेषके अनं. बहु. । " असं , | कृष्ण लेश्या शेषका एक भाग नील राशिसे । कापोतके क्रमबत (कृष्टा राशिमेंसे कापोतवत तज राशिका असं,बहु. , असं . ] तेज , संयतासंयत भा०४-१५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ११४ ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ - - मार्गणा प.ख ध./पृ. भागाभाग मार्गणा गुणस्था. ष.ख'. भागाभाग तेज लेश्या aaru गुणस्था. सर्व जीके अनं. बहु. शेषका " , असं. , :: :: असंज्ञी संज्ञी असंज्ञी रहित संज्ञी . असं., ओव भागाभागवत १४. आहारक मार्गणा शेष एक भाग पद्म लेश्या राशि में से सर्व क्रम तेजो लेश्यावत् शुक्ल राशिका सं.बहु. शेषका असं. , सं. . . असं, शुक्ल " आहारक هه لبه س :: :: :: सर्व जीवोंके असं. महु. सर्व जीव+असं. सर्व जीवोंके असं.बहु. शेषका अनंत , * अनाहारक आहारक बन्ध मुक्त अना हारक अमन्धक अना हारक आहारक शेषका एक भाग . ११. भव्यत्व मार्गणा " ه असं भव्य ه ع सर्व जीवोंके अनं.बहु. सर्व जीव अनं. सर्व जीव+अनं शेषका अनं. बहु. م अनाहारक अभय भव्य भव्य अभव्यसे अतीत अभव्य भव्य ه ع م आहारक अनाआहारक ७-१३ शेष एक भाग असं. .. ओघ भागाभागवत् १२. सम्यक्त्व मार्गणा सर्व जीत्र अनं, सम्यग्दृष्टि सा. क्षायिक वेदक उपशम सासादन सम्यग्मिथ्यात्व मिथ्याष्टि सर्व जीवों के अन.बहु. सिद्ध शेषका " वेदक क्षाधिक उपशम सम्यग्मिथ्यात्व सासादन वेदक उपशम क्षायिक तोनों सम्य. Gmxxxmar or or .. शेषके सं. बहु. यथा योग्य उपशम क्षायिक । ८-१४ । १३. संशी मार्गणा संज्ञी असंज्ञी सर्व जीव + अनं. सर्व जीवोंके अनं.नहु. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएं मार्गणास्थान भागाभाग मागणा गुण | स्थान भागाभाग मनुष्य पर्याप्त शेषका सं. युगलवत् ५. चारों गतियोंकी अपेक्षा स्वपर स्थान भागाभाग (ध. ३/१.२,७३/२६५-२६७) सर्व जीवों के अनं, बहु एकेन्द्रिय + विकलेंद्रिय सिद्ध जीव पंचेन्द्रिय अपर्याप्त असं.. सयोगकेवली चारों क्षपक चारों उपशामक अयोगकेवली ___ सं. . ८-११ शेष एक भाग -rrr-w ज्योतिषी देव (व्यन्तर देव) भवनवासी प्रथम पृथिवी सौधर्म ऐशान द्वितीय पृथिवी सनत्कुमार माहेन्द्र तृतीय पृथिवी ब्रह्म ब्रह्मोत्तर चतुर्थ पृथिवी लांतब कापिष्ठ पंचम पृथिवी शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रार षष्ठम पृथिवी सप्तम पृथिवी सौधर्म ऐशान ६. एक समयमें विवक्षित स्थानमें प्रवेश व निर्गमन करनेवाले जीवोंका प्रमाण (ध.६/४,१,६६/२७७-७८ or~~~r. मार्गणा | ध./प्र. संख्या | १,२ या अधिक १. सचयको अपेक्षा मनुष्य अपर्याप्त बैंक्रियक मिश्र आहारक द्विक सूक्ष्मसाम्परायिक उपशम सम्यग्दृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्टि 30M 2009 " " असं. उत्तरोत्तर सौधर्म युगलवर :: :: : : सत्तरकुमार युगलसे शतार युगल तक प्रत्येक युगल में : ४,३,२ : : : प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत चारों उपशामक चारों क्षपक सयोग केवली अयोग केवली : ५६३६८२०६ प्रमत्तसे आवे २६६ या ३०० या ३०४ उपशामकों से दुगुने ८८५०२ क्षपको बत. शेषके सं.बहु भाग उत्तरोत्तर , शेषके ज्योतिषी व्यन्तर भवनवासी तिर्यच सामान्य सातों पृथिवियोंमेसे प्रत्येक पृ. आनत-प्राणत आरण-अच्युत १-१ ग्रेवेयक नव अनुदिश विजय आदि चार अनुत्तर आनत-प्राणत आरण अच्युत १-१ वेयक आनत-प्राणत आरण-अच्युत १-८ वेयक नर्वा ग्रैवेयक सर्वार्थ सिद्धि मनुष्य पर्याप्त " " असं. १,२ या अधिक " .:: :: :: :: है १ दे. संरम्या/५२ " २. प्रवेशकी अपेक्षा सर्व नारकी सर्व तिर्यच सर्व देव मनुष्य सा. मनुष्य पर्याप्त मनुष्यणी एकेन्द्रिय सम विकलेन्द्रिय सब पंचेन्द्रिय बा. पृथिवी कायिक बा, जलकायिक शेषर .बहु उत्तरातर . कोषका १.२ या अधिक उत्तरोत्तर शेषका असं. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या मार्गणा बा. तेजकायिक मा. कायिक बा, बन, प्रत्येक प त्रस सामान्य स पर्याप्त त्रस अपर्याप्त पांचों मनोयोगी पाँचों वचनयोगी काय योगी सा. वैक्रिक काय यो. स्त्री वेदी पुरुषवेदी नपुंसक मेही अपगत वेदी कपायी आठों ज्ञान सूक्ष्म सम्पराय बिना ४ संयम संयमासंयम संयम सा दर्शनी अभि दर्शनी केवल दर्शनी तेज पद्म शुक्ल लेश्या सम्यग्दृष्टि सा क्षायिक, वेदक सम्यग्दृष्टि' मिथ्यादृष्टि संज्ञी, असंज्ञी शेष सर्व स्थान चारों उपशामक चारों क्षपक सयोगी, अयोगी ध. / पृ. २७८ ::: " "" " 11 99 24 99 " 19 94 91 11 11 41 35 31 17 २७६ दे. संख्या/३/२ (दे. सख्या /३/२) संख्या १.२ या अधिक तृ. चतु. पंचम 71 19 ::: 11 षष्ठ सप्तम " 17 99 १.२ के प्रवेशका अभाव है अधिकका ही होता है । प्रथम समय में १-१६ द्वि. " १-२४ " " " ,, १-३० १-३६ १-४२ १-४८ १-५४ 17 17 :: :: ११६ उपशामकों ने क्षपक वत् मार्गणा ध./१. २. चरम समयमै अनस्थानकी अपेक्षा भव्य सिद्धिक दर्शनी १ इन दो स्थानों के अतिरिस उप नं. २ में कथित सर्व स्थान ह १० ७ अन्य विषयों सम्बन्धी संख्या व भागाभाग सूची संकेत -भागा भागाभाग (ध. / पृ./ पंक्ति) ११ १२ १३ १४| १५ विषय ज. उ. योगस्थान में अवस्थित जीव १४ जीव समासों में पृथक् पृथक् योग स्थान उत्कृष्टादि क्षेत्रों के स्वामी { अधः कर्म आदि कमोंके स्वामी उत्कृष्टादि अवगाहना वर्गणा परमाणु 'पंच शरीर योग्य जघन्य व उत्कृष्ट पुद्गल स्कन्ध का संघातन परिशातन पंच शरीरों सम्बन्धी २,३,४ शरीरोंका स्वामित्व पंच शरीरों के प्रदेश पंच शरीरोंके एक समय प्रबद्ध प्रदेश स्थितिबन्ध अध्यवसाय स्थान अष्टकर्म बद्धण्देश अनुभाग वन्ध अध्यवसाथ स्थानकी यवमध्य उपरोक्त स्थानोंके स्वामी कर्म बन्धकी समय प्रबद्वार्थता व क्षेत्र प्रयास ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २८० संख्या या भागा संख्यात भागा १०/१२/१३ ४. १०/१५/९ संख्यात ष. वं. १० / सू. १८७/४८० 19 भागा० संख्यात भागा० सख्यात संख्या १.२ या अधिक १.२ नहीं होते । २ से अधिक नहीं घ. ११/३२/४ ५. १९/३२/१६ भागा० संख्यात ध. ३/१३/१३-१८ 99 भागा. प्रमाण (२३८) ध. ११/२७/१६ घ. १४/१५४-१६० थ. १४/१६०-१६३ प. १/२३०-३६४ १४२४१-२२३/ .नं. १५/- २४२-२४४/ ३३० प.सं. १४/२४१-१५३/ ३३६-३१४ घ. ११/३४६-३५२ ध.१२/१०४-११० प. १२/२०२-२०१ नं. १२/ २६१२७१/ २४२ ष. खं १२ / अ. ६ / सू. १२१/ ५०१-५०८ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ११७ ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ ८ कर्म बन्धकोंकी अपेक्षा संख्या व भागाभाग सूची (म. बं./पुस्तक सं./पृ. सं.)। संकेत-भागा-भागाभाग मूल या उत्तर संख्या या "प्रकृति भागाभाग सामान्य जघन्य उत्कृष्ट स्थान भुजगारादि पद संख्यात भागादि वृद्धि १ अष्ट कर्म प्रकृति बन्धक जीव मा २/३०२-३०८/१५४ २/३०२-३०८/१५६ ३/७६८-७६६/३६३ ३/७७०-७७१/३६४ २/३८६/१६६ २/३८७/१६६-११७ ३/४१६-६१/४४६ ३/६१८-१२८/४४८ भागा. ४/३६२/१६४ उत्तर १/२०४-२४६/१४१ संख्या १/२४७-२८०/१७६ २ अष्टकर्म अनुभाग बन्धक जीवमूल भागा. 1 २/१४१-१४७/८८.६१ संख्या २/१४८-१६०/६१-६५ उत्तर ३/४४६-४५१/२०४ संख्या ३/४५२-४७०/२०६ ३ अष्टकर्म अनुभाग बन्धक जीव-- भागा. ४/१८६-१८६/८१ संख्या ४/११०-२०२/८३ उत्तर | भागा. ५/३१४/१२६ संख्या ५/३१६-३३७/१३१ ४ अष्टकर्म प्रदेशबन्धक जीव भागा. संख्या उत्तर भागा. ६/१६५-१६७/८७ ६/५७०-५७१/३५४ संख्या ६/५७२-५६२/३५६ ९ मोहनीय कर्म सत्त्वकी अपेक्षा संख्या व भागाभाग सूची (क. पा./पुस्तक सं./ सं./पृ. सं.)। संकेत-भागा-भागाभाग । ४/२८६/१३२ ४/२८७/१३३ ५/४६६/२७८ १/४६६-५०६/२७६ श६१८/३६३ /६१६/३६४ ६/१२७/६६ ६/१२८-१३०/६७ - मूल या उत्तर संख्या या प्रकृति भागाभाग सत्त्वासत्त्व | जघन्य उत्कृष्ट स्थान भुजगारादि बन्ध असंख्यात भाग आदि वृद्धि २/३५०-३५३/३१६ २/३५४-३५६/३१६ २/४४०-४५२/४०६ २/४४६-४४६/४०४ २/५०८-५११/४५६ २/५१२/५१४/४६६ १ प्रकृति सत्त्वकी अपेक्षा भागा. २६७-६६/४७ संख्या २/७०-७६/४६.५३ उत्तर भागा. २/१६०/१६७/१५१ संख्या २/१६८-१७४/१५७ कषाय भागा. १/३७८-३७१/३१२ संख्या | १/३८०-३८२/३६६ २ स्थिति सत्वकी अपेक्षामूल भागा. संख्या उत्तर संख्या ३ अनुभाग सत्वको अपेक्षा भागा. ! हतहत समुत्पात्तक स्थान संख्या १/१८७/१२७ उत्तर भागा. संख्या भागा. ३/१८-१०३/५८ ३/१०४-१११६१ ३/५६६/६०३/३५४ ३/६०४-६१५/३५८ ३/११८-१६६/११३ ३/२००-२०२/११४ ४/१०४-१०८/१५ ४/१०९-११३/५७ ३/२२१-२६८/१६४ ३/२६६-३०५/१६६. ४/३६५-३६७/२२७ ४/३६८-३७३/२२८ १/०८-१२/१६ ५६३-६७/५६ ५/३४५-३५०/२२० ५/३५१-३५६/२२४ १५/१५२/१०१ 1/१५३-११७/१०२ ५/४६०-४६२/२८८ ५/४६३-४६/२८४ ५/१७६,१२० १५/१८०/१२१ १९४७-५४६/३१८ ५४५५०-४५२/३२० जैनेन्द्र सिदान्त कोश Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यात संगति संख्यात-दे, संख्या। संख्यातुल्य घात-Raising of number to its own Power. (ध. ५/प्र. २८) संख्या व्यभिचार-दे.नय./III/६/८। सगांत-मनपर संगतिका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक होनेके कारण मोक्षमार्ग में भी साधुओंके लिए दुर्जनों, स्त्रियों व आर्यिकाओं आदिके संसर्गका कड़ा निषेध किया गया है और गुणाधिककी संगतिमें रहनेकी अनुमति दी है। १. संगतिका प्रभाव भ, आ./मू./३४३ जो जारिसीय मेत्ती केरइ सो होइ तारिसो चेव । बासिज्जइ च्छरिया सा रिया वि कणयादिसंगण ।३४३ - जैसे री सुवर्णादिककी जिल्हई देनेसे सुवर्णादि स्वरूपकी दीखती है वैसे मनुष्य भी जिसकी मित्रता करेगा वैसा ही अर्थात् दुष्ट के सहबाससे दुष्ट और सज्जनके सहवाससे सज्जन होगा।३४३। २. दुर्जनकी संगतिका निषेध भ. आ./मू./३४४-३४८ दुजणसंसग्गोए जहदि णियगं गुणं खु सजणो वि। सीयलभाव उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण ३४४ा सुजणो वि होइ लहुओ दुज्जणसंमेलणाए दोसेण । माला वि मोल्लगरुया होदि लहू मडयसं सिट्ठा ।३४५॥ दुज्जणसंसग्गीए संकिज्जदि स्जदो वि दोसेण । पाणागारे दुद्ध पियंतओ बंभणो चेव ।३४६। अदिसंजदो वि दुज्जणकरण दोसेण पाउणइ दोसं । जह धूगकए दोसे हंसो य हो अपावो वि ।३४८। - सज्जन मनुष्य भी दुर्जनके संगसे अपना उज्ज्वल गुण छोड़ देता है। अग्निके सहवाससे ठण्डा भी जल अपना ठण्डापना छोड़कर क्या गरम नहीं हो जाता । अर्थात हो जाता है ३४४। दुर्जनके दोषोका संसर्ग करनेसे सज्जन भी नीच होता है, बहुत कीमत की पुष्पमाला भी प्रेतके (शबके) संसर्गसे कौड़ोकी कीमतकी होती है ।३४६। दुर्जनके संसर्ग से दोष रहित भी मुनि लोकों के द्वारा दोषयुक्त गिना जाता है। मदिरागृहमें जाकर कोई ब्राह्मण दूध पीवे तो भी मद्यपी है ऐसा लोक मानते हैं ।३४६। महान तपस्वी भी दुर्जनों के दोषसे अनर्थ में पड़ते हैं अर्थात दोष तो दुर्जन करता है परन्तु फल सज्जनको भोगना पड़ता है। जैसे उसलूके दोषसे निष्पाप हंस पक्षी मारा गया ।३४८, ३. लौकिकजनोंकी संगतिका निषेध प्र. सा./म् /२६८ णिच्छिद सुत्तत्थ पदो समिदकसाओ तबोधिगो चावि । लोगिगजणसंसग्गंण चयदि जदि संजदो ण हदि । - जिसने सूत्रों के पदोको और अर्थोंको निश्चित किया है, जिसने कषायोंका शमन किया है और जो अधिक तपवान है ऐसा जीव भी यदि लौकिकजनों के संसर्गको नहीं छोड़ता, तो वह संयत नहीं है ।२६८० र. सा./मू./४२ लोइयजणसंगादो होइ मइमुहरकुडिलदुन्भावो। लोइयसग तहमा जइ वि त्तिविहेण मुंचाओ ।४२। -लौकिक मनुष्यों को संगतिसे मनूष्य अधिक मोलनेवाले वक्कड कुटिल परिणाम और दुष्ट भावोसे अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं इसलिए लौकिकजनोंकी सगतिको मन-वचन-कायसे छोड़ देना चाहिए। स. श. मू./७२ जनेभ्यो बाक ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः । भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनोगी ततस्त्यजेत् ।७२। =लोगोंके संसर्गसे वचनकी प्रवृत्ति होती है। उससे मनकी व्यग्रता होती है, तथा चित्तकी चंचलतासे चित्तमें नाना विकल्प होते हैं। इसलिए योगी लौकिकजनोंके संसर्गका त्याग करे। भ. वि./वि./६०६/८०७/१५ उपवेशन अथवा गोचरप्रविष्टस्य गृहेषु निषद्या कस्तत्र दोष इति चेद ब्रह्मचर्यस्य विनाशः खोभिः सह संवा. सात् ।...भोजनार्थिनां च विघ्नः । कथमिव यतिसमीपे भुजिक्रिया संपादयामः ।...किमर्थमयमत्र दाराण मध्ये निषण्णो यतिक्ते न यातीति । -आहार के लिए श्रावकके धरपर जाकर वहाँ बैठना यह भी अयोग्य है। स्त्रियों के साथ सहवास होनेसे ब्रह्मचर्यका विनाश होता है। जो भोजन करना चाहते है उनको विघ्न उपस्थित होता है, मुनिके सनिधि में आहार लेने में उनको संकोच होता है..."ये यति स्त्रियों के बीच में क्यों बैठते हैं, यहाँसे क्यों अपने स्थानपर जाते नहीं ?" घरके लोग ऐसा कहते हैं। पं.ध./उ./६५५ सहासंयमिभिर्लोकः संसर्ग भाषणं रतिम् । कुर्यादाचार्य इत्येके नासौ सूरिन चाईत. १६५३१ = आचार्य असंयमी पुरुषों के साथ सम्बन्ध, भाषण, प्रेम-व्यवहार, करे कोई ऐसा कहते हैं, परन्तु बह आचार्य न तो आचार्य है और न अर्हवका अनुयायी ही।६५५॥ ४. तरुणजनोंकी संगतिका निषेध भ, आ./मू./१०७२-१०८४ खोभेदि पत्थरो जह हे पडतो पसण्णमवि पंक। खोभेइ तहा मोहं पसण्णमवि तरुणसंसग्गी ।१०७२। संडय संसग्गीए जह पादु' संडओऽभिलस दि सुरं। विरुए तह पयडीए संमोहो तरुणगोट्ठीए ।१०७८। जादो खु चारुदत्तो गोट्ठोदोसैण तह विणीदो वि। गणियासत्तो मज्जासत्तो कुलदूसओ य तहा ।१०२१ परिहरइ तरुण गोट्ठी विसं व बुढासले य आयदणे। जो वसइ कुणइ गुरुणिसं सो णिच्छरइ बंभं । १८८४। -जैसे बड़ा पत्थर सरोबरमें डालनेसे उसका निर्मल पानी उछलकर मलिन बनता है वैसा तरुण संसर्ग मनके अच्छे विचारोंको मलिन बनाता है ।१०७२। जैसे मद्यपीके सहवाससे मद्यका प्राशन न करनेवाले मनुष्यको भी उसके पानकी अभिलाषा उत्पन्न होती है वैसे तरुणोके संगसे वृद्ध मनुष्य भी विषयोंकी अभिलाषा करता है ।१०७८। ज्ञानी भी चारुदत्त कुसंसर्गसे गणि कामें आसक्त हुआ, तदनन्तर उसने मद्य में आसक्ति कर अपने कुलको दूषित किया ।१०८२जो मनुष्य तरुणोंका संग विष तुल्य समझकर छोड़ता है, जहाँ बृद्ध रहते हैं, ऐसे स्थानमें रहता है, गुरुकी आज्ञाका अनुसरण करता है वही मनुष्य ब्रह्मचर्यका पालन करता है। * सल्लेखनामें संगतिका महत्त्व-दे सल्लेखना/५ ५. सत्संगतिका माहात्म्य भ. आ./मू /३५०-३५३ जहदि य णि ययं दोस पि दुजणो सुयणवइयरगुणेण । जह मेरुमल्लियंतो काओ णिययच्छवि जहदि ।३५०। कुसममगंधमवि जहा देवयसेसत्ति करिदे सीसे। तह सुयणमझत्रासी वि दुज्जणो पूइओ होइ ।३५१॥ संविग्गाणं मज्झे अप्पियधम्मो वि कायरो वि णरों। उज्जमदि करणचरणे भावणभयमाणलज्जाहि ॥३५२। स विग्गोवि य संविग्गदरो संवेगमज्झारम्मि। होइ जह गंधदुत्ती पयडिसुर भिदव्य संजोए ।३५३। - दुर्जन मनुष्य सज्जनों के सहवाससे पूर्व दोषोंको छोडकर गुणोंसे युक्त होता है, जैसे-कौवा मेरुका आश्रय लेनेसे अपनी स्वाभाविक मालिन कान्तिको छोड़कर सुवर्ण कान्तिका आश्रय लेता है ।३५० निर्गन्ध भी पुष्प यह देवताकी शेषा है-प्रसाद है ऐसा समझकर लोक अपने मस्तकपर धारण करते हैं वैसे सज्जनों में रहनेवाला दुर्जन भी पूजा जाता है ।३५१। जो मुनि संसारभीरु मनुष्यों के पास रहकर भी धर्म प्रिय नहीं होते हैं। तो भी भावना, भय, मान और लज्जाके वश पाप क्रियाओंको वे त्यागते हैं १३५२। जो प्रथम ही संसारभीरु हैं वे संसारभोरुके सहवाससे अधिक संसार भीरु होते हैं। स्वभावतः गन्धयुक्त कस्तूरी, चन्दन वगैरह पदार्थोंके सहवाससे कृत्रिम गन्ध पूर्व से भी अधिक सुगन्धयुक्त होता भ, आ./मू /१०७३-१०८३ कलुसीकदंपि उदयं अच्छ' जह होइ कदयजोएण। कलुसो वि तहा मोहो उक्समदि हु बुढसेवाए ।१०७३। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगति संगति तरुणो वि बुढ्सीली होदि णरो बुढुसंसिओ अचिरा । लज्जा संकामाणावमाग भयधम्म बुट्टीहि ।१८७६। तरुणस्स वि वेरग्ग पहाविज्जदि परस्स बुढ ढेहिं । पहा विजइ पाडच्छी वि हु वच्छस्स फरुसेण ।१०८३। -जैसे मलिन जल भी कतक फलके संयोगसे स्वच्छ होता है वैसा कलुष मोह भी शील वृद्रोंके संसर्ग से शान्त होता है ।१०७३। वृद्धोके संसर्गसे तरुण मनुष्य भी शीघ्र ही शील गुणोकी वृद्धि होनेसे शीलवृद्ध बनता है। लज्जासे, भीतिसे, अभिमानसे, अपमानके डरसे और धर्म बुद्धिसे तरुण मनुष्य भी वृद्ध बनता है 1१०७६। जैसे बछड़े के स्पर्शसे गौके स्तनों में दुग्ध उत्पन्न होता है वैसे ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध और तपोवृद्वों के सहवाससे तरुणके मनमें भी वैराग्य उत्पन्न होता है ।१०८३। करल/४६/५ मनसः कर्मणश्चापि शुद्धेर्मुल सुसंगतिः । तद्विशुद्धौ यतः सत्यां संशुद्धिर्जायते तयो, ।। - मनकी पवित्रता और कर्मोंकी पवित्रता आदमीकी सगतिकी पवित्रतापर निर्भर है।५। ज्ञा./१५/१६-३६ वृद्धानुजोविनामेव स्युश्चारित्रादिसंपद। भवत्यपि च निर्लेपं मनः क्रोधादिकश्मलम् ।१६। मिथ्यात्वादि भगोत्तुङ्गशृङ्गभङ्गाय कल्पितः । विवेकः साधुसङ्गोत्थो वज्रादघ्यजयो नृणाम् ॥२४॥ एकैव महतो सेवा स्याज्जेत्री भुवनत्रये। ययैव यमिनामुच्चरन्तज्योतिबिज़म्भते ।२७ दृष्ट्वा श्रुत्वा यमी योगिपुण्यानुष्ठानमूजि. तम् । आक्रामति निरातङ्कः पदवों तैरुपासिताम् ।२८। वृद्धोंकी सेवा करने वाले पुरुषों के हो चारित्र आदि सम्पदा होती हैं और क्रोधादि कषायोसे मैला मन निर्लेप हो जाता है ।१६। सत्पुरुषों की संगतिसे उत्पन्न हुआ मनुष्योंका विवेक मिथ्यात्वादि पर्वतों के ऊँचे शिखरों को खण्ड-खण्ड करनेके लिए वज्रसे अधिक अजेय है ।२४। इस त्रिभुवनमें सत्पुरुषों की सेवा ही एकमात्र जयनशील है। इससे मुनियों के अन्तरमे ज्ञानरूप ज्योतिका प्रकाश विस्तृत होता है ।२७। संयमी मुनि महापुरुषोंके महापवित्र आचरण के अनुष्ठान को देखकर या सुनकर उन योगीश्वरोंकी सेयी हुई पदवीको निरुपद्रव प्राप्त करता है। अन. घ./४/१०० कुशीलोऽपि सुशोल' स्यात सद्गोष्ठ्या मारिदत्तवत् । - कुशील भी सद्गोष्ठीसे सुशील हो जाता है, मारिदत्तकी भाँति। एकासनपर बैठना, इन कार्योंसे अल्प धैर्य वाले और स्वच्छन्दसे बोलना-हँसना वगैरह करने वाले पुरुषका मन अग्निके समीप लाखकी भॉति पिघल जाता है ।१०१२। स्त्री सहवाससे मनुष्य का मन मोहित होता है, मैथुनकी तीव्र इच्छा होती है, कारण-कार्यका 'विचार न कर शील तट उल्लंघन करनेको उतारू हो जाता है ।१०६३। माता, अपनी लड़की और बहन इनका भी एकान्तमें आश्रय पाकर मनुष्य का मन क्षुब्ध होता है. अन्यका तो कहना ही क्या ।१०६५। जो पुरुष स्वीका संसर्ग विषके समान समझकर उसका नित्य त्याग करता है वही महात्मा यावज्जीवन ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहता है ।११०२। मू. आ./१७६ तरुणो तरुणीए सह कहा व सल्लावणं च 'जदि कुज्जा। आणाकोबादीया पंचवि दोसा कदा तेण ।१७। -युवावस्था वाला मुनि जवान स्वीके साथ कथा व हास्यादि मिश्रित वार्तालाप करे तो उसने आज्ञाकोप आदि पाँचो ही दोष किये जानना। बो. पा/मु./५७ पसुमहिलासढसग कुसोलसंग ण कुणइ विकहाओ... पत्रज्जा ए रसा भणिया ।५७ =जिन प्रवज्यामें पशु, महिला, नपंसक और कुशील पुरुषका संग नहीं है तथा विकथा न करे ऐसी प्रव्रज्या कही है।५७ लि. पा./मू./१७ रागो करेदि णिच्च महिलावग्गं परं च दूसेइ । ईसण जाणविहीणो तिरिवरवजोणी ण सो समणो ।१७। - जो लिग धारण. कर स्त्रियोंके समूहके प्रति राग करता है, निर्दोषीको दूषण लगाता है, सो मुनि दर्शन व ज्ञान कर रहित तिथंच योनिसा पशुसम है । ६. गुणाधिकका ही संग श्रेष्ठ है प्र. सा./मू./२७० तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणे हि वा अहियं । अधिषसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दरवपरिमोक्वं ।२७०। -- ( लौकिक जन के संगसे संयत भी असं यत होता है । ) इसलिए यदि श्रमण दुःखसे परिमुक्त होना चाहता हो तो वह समान गुणों वाले श्रमणके अथवा अधिक गुणों वाले श्रमण के संगमें निवास करो १२७०। ७. स्त्रियों आदिकी संगतिका निषेध भ.आ./मू./३३४/५५४ सव्वत्थ इथिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अबीसत्थो। णित्थरदि बंभचेरं तविवरीदो ण णित्थरदि ॥३३४॥ सम्पूर्ण खोमात्रमें मुनिको विश्वास रहित होना चाहिए, प्रमाद रहित होना चाहिए, तभी आजन्म ब्रह्मचर्य पालन कर सकेगा, अन्यथा ब्रह्मचर्य को नहीं निभा सकेगा। भ. आ./मू./१०१२-११०२ संसग्गोए पुरिसस्स अप्पसारस्स लछपम रस्स। अग्गिसमीवे लक्खेव मणो लहमेव वियलाइ ।१०६२। संसग्गीसम्मूढो मेहू गसहिदो मणो हु दुम्मेरो। पुवावरमगणता लंघेज्ज सुसीलपायारं ।१०६३। माद सुटं च भगिणीमेगते अल्लियंतगस्त मणो। खुभइ परस्स सहसा कि पुण सेसासु महिल सु ।१०६५। जो महिलासंसरगी विसंव दळूण परिहरइ णिचं। णित्थरह बंभचेर जावजीवं अकंपो सो ॥११०२। स्त्रीके साथ सहगमन करना. ८. आर्यिकाकी संगतिका निषेध भ.आ/मू./३३१-३३६ थेरस्स वि तव सिस्स वि बहुस्सुदस्स वि पमाण भू दस्स । अज्जासं सग्गीए जणपणयं हवेज्जादि ।३३१॥ जदि वि सय थिरबुद्धी तहा बि संसग्गिलद्धपसराए। अग्गिसमीवे व घदं विलेज्ज चित्तं खु अज्जाए ।३३। खेलपडिदमपाण ण तरदि जह मच्छिया विमोचेदं । अज्जाणुचरो ण तरदि तह अप्पाण विमोचे, १३३६। = मुनि, वृद्ध, तपस्थी, बहुश्रुत और जनमान्य होने पर भी यदि आर्यिकाका सहवास करेगा तो वह लोगों की निन्दाका स्थान बनेगा ही।३३१॥ मुनि यद्यपि स्थिर बुद्धिका धारक होगा तो भी मुनिके सहबाससे जिसका चित्त चंचल हुआ है ऐसी आयिकाका मन अग्निके समीप धी जैसा पिघल जाता है ।३३३३ जैसे मनुष्यके कफमे पड़ी मवरवी उससे निकलनेमे असमर्थ होती है वैसे आर्यिकाके साथ परिचय किया मुनि छुट काग नहीं पा सकता ।३३६। मू. /१७७-१८५ अज्जागमणे काले ण अत्थिदव्वं तहेब एक्केण । ताहिं पुण सल्लाबो ण य काययो अकज्जेण ११७७। तासि पुण पुच्छाओ एकस्से णय कहेज एक्को दु। गणिणों पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदवं ।१७८। णो कप्पदि विरदाणं विरदीमुबासयमिह चिठेदु । तत्थ णिसेज्जउवटुणसज्झाहार भिवरवबोसरणे ।१८० कण्णं विधवं अंतेउरियं तह सइरिणी सलिंग वा। अचिरेणल्लियमाणो अत्र वादं तत्थ पप्पोदि १८२१ =आर्यिका आदि स्त्रियोंके आनेके समय मुनिको बनमे अकेला नहीं रहना चाहिए और उनके साथ पर्म कार्यादि प्रयोजनके बिना बोले नहीं।१७७। उन आर्यिकाओं में से यदि एक आर्यिका कुछ पूछे तो निन्दाके भयसे अकेला न रहे। यदि प्रधान आर्यिका अगाड़ी करके कुछ पूछे तो कह देना चाहिए !१७८। संयमी मुनिको आर्थिकाओंकी वस्तिकामें ठहरना, बठना, सोना, स्वाध्याय करना, आहार व भिक्षा ग्रहण करना तथा प्रतिक्रमण व मलका त्याग करना आदि क्रिया नहीं करनी चाहिए 1१८०कन्या, विधवा, रानी वा विलासिनी, स्वेच्छाचारिणी तथा दोक्षा धारण करने वाली, ऐसी स्त्रियों के साथ क्षणमात्र भो वार्तालाप करता मुनि लोक निन्दाको पाता है ।१८॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगति १२० संज्ञा ९. आर्यिकाको साधुसे सात हाथ दूर रहनेका नियम मू. आ./१६५ पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य। परिहरि अणज्जाओ गवासणेणेव बंदति ।१६५। =आर्यिकाएँ साधुसे पाँच हाथ दूरसे, उपाध्यायको छह हाथ दूरसे और साधुओं को सात हाथ दूरसे गौ आसनसे बैठकर नमस्कार करती हैं ।१९।। १. कथंचित् एकान्तमें आर्यिकाकी संगति प. पु./१०६/२२५-२२८ ग्रामो मण्डलिको नाम तमायात. सुदर्शनः । मुनिमुद्यानमायात बन्दित्वा तं गता जनाः ।२२५॥ सुदर्शनां स्थिता तत्र स्वसारं सचो व वन् । ईक्षितो वेदवत्याऽसौ सत्या श्रमणया तया ।२२६। ततो ग्रामीणलोकाय सम्यग्दर्शनतत्परा | जगाद पश्यतेवृक्ष श्रमणं ब्रथ सुन्दरम् ।२२७। मया मुयोपिता सार्क स्थितो रहसि बीक्षित। तत. कैश्चित प्रतीतं तन्न तु कैश्चिद्विचक्षण ।२२८। - उस ग्राममें एक सुदर्शन नामक मुनि आये। वन्दना कर जब सब लोग चले गये तब उनके पास एक सुदर्शना नामकी आर्यिका जो कि मुनिकी बहन थी बैठी रही और मुनि उसे सद्वचन कहते रहे । अपने आपको सम्यग्दृष्टि बताने वाली वेदवती ( सीताके. पूर्व भवकी पर्याय ) ने गाँवके लोगोंसे कहा कि मैंने उन साधुओंको एकान्तमें सुन्दर स्त्रीके साथ बैठे देखा है। * पाश्र्वस्थादि मुनि संग निषेध-दे० साधु/५ । कर भाग जाता है। ऐसे लोगोंसे मैत्री रब नेसे तो अकेला रहना ही हजारगुभा अच्छा है ।४। सज्ञा-क्षुद्र प्राणीसे लेकर मनुष्य व देव तक सभी संसारी जीवों में आहार, भय, मैथुन व परिग्रह इन चारके प्रति मो तृष्णा पायी जाती है उसे संज्ञा कहते हैं। निचलो भूमिओं में ये व्यक्त होती हैं और ऊपरकी भूमिकाओं में अव्यक्त । १. संज्ञा सामान्यका लक्षण १. नामके अर्थमें स. सि./२/२४/१८१/१० संज्ञा नामेत्युच्यते । - संज्ञाका अर्थ नाम है। (रा. वा./२/२४/५/१३६/१३) । २. ज्ञानके अर्थमें दे. मतिज्ञान/१ मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता ये सर्व सम्यग्ज्ञानकी संज्ञाएँ हैं। स. सि./१/१३/१०६/५ संज्ञानं संज्ञा। = 'संज्ञानं संज्ञा' यह इनकी व्युत्पत्ति है। गो. जो./मू./६६० णो इंदियआवरणरत्र ओवसमं तज्जबोहणं सण्णा । = नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमको या तज्जन्य ज्ञानको संज्ञा ११. मित्रता सम्बन्धी विचार १. मित्रतामें परीक्षाका स्थान कुरल/८०/१.३,१० अपरीक्ष्यैव मैत्री चेत कः प्रमादो ह्यतः परः। भद्राः प्रीति विधायादौ न तां मुञ्चन्ति कर्हिचित् ।। कथं शीलं कुलं किं कः संबन्धः का च योग्यता। इति सर्व विचार्येव कर्तव्यो मित्रसंग्रहः । विशुद्धहृदयरायः सह मैत्री विधेहि वै । उपयाचितदानेन मुञ्चस्वानार्य मित्रताम् ।१०। इससे बढ़कर अप्रिय बात और कोई नहीं है कि बिना परीक्षा किये किसी के साथ मित्रता कर ली जाय, क्योंकि एक बार मित्रता हो जाने पर सहृदय पुरुष 'फिर छोड़ नहीं सकता।१जिस मनुष्यको तुम अपना मित्र बनाना चाहते हो उसके कुलका, उसके गुण-दोषोंका, किन-किनके साथ उसका सम्बन्ध है, इन सब बातोंका विचार कर, पश्चात् यदि वह योग्य हो तो मित्र बना लो।३. पवित्र लोगों के साथ बड़े चावसे मित्रता करो, लेकिन जो अयोग्य हैं उनका साथ छोड़ दो, इसके लिए चाहे तुम्हें कुछ भी देना पड़े ।। २. मित्रतामें विचार स्वतन्त्रताका स्थान कुरल/८१/२,४ सत्यरूपात तयोमैत्री वर्तते विज्ञसमता । स्वाश्रितो यत्र पक्षौ द्वौ भवतो नापि बाधकः ॥२॥ प्रगाढमित्रयोरेकः किमप्यनुमति विना । कुरुते चेद् द्वितीयोऽपि सख्यमाध्याय हृष्यति ।४। -सच्ची मित्रता वही है जिसमें मित्र आपस में स्वतन्त्र रहें और एक-दूसरेपर दबाव न डालें । विज्ञजन ऐसी मित्रताका कभी बिरोध नहीं करते ।। जब कि जिन दो व्यक्तियों में प्रगाढ़ मैत्री है उनमेंसे एक दूसरे की अनुमतिके बिना ही कोई काम कर लेता है तो दूसरा मित्र आपसके प्रेमका ध्यान करके उससे प्रसन्न ही होगा।४। ३. अयोग्य मित्रकी अपेक्षा अकेला रहना ही अच्छा है कुरल/८२/४ पलायते यथा युद्धात पातयित्वाश्ववारकम् । कुत्स्यसप्तिस्तथा मायी का सिद्धिस्तस्य सख्यतः १४। -कुछ आदमी उस अक्खड़ घोड़ेकी तरह होते हैं कि जो युद्धक्षेत्र में अपने सबारको गिरा ३. इच्छाके अर्थमें स. सि./२/२४/१२/१ आहारादिविषयाभिलाषः संज्ञति । आहारादि विषयोंकी अभिलाषाको संज्ञा कहा जाता है। (रा.वा./२/२४/७/ १३६/१७)। पं.स प्रा./१/५१ इह जाहि नाहिया वि य जीवा पावं ति दारुणं दुक्खें। सेवंता वि य उभए॥५१॥ = जिनसे बाधित होकर जीव इस लोकमें दारुण दुःखको पाते हैं, और जिनको सेवन करनेसे जीव दोनों ही भवोंमें दारुण दुःखको प्राप्त करते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। (पं. सं.। सं./१/३४४); (गो. जी./मू /१३४)। गो.जी./जी. प्र./२/२१/१० आगमप्रसिद्धा वाञ्छा संज्ञा अभिलाष इति । - आगममें प्रसिद्ध वाञ्छा संज्ञा अभिलाषा ये एकार्थवाची हैं । (गो. जी./जी. प्र./१३४/३४७/१६) । २. संज्ञाके भेद घ. २/१.१/४१३/२ सण्णा चउबिहा आहार-भय-मेहणपरिग्गहसण्णा चेदि।-खीणसण्णा वि अत्थि (पृ. ४१६/१)। -संज्ञा चार प्रकारकी है। आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। क्षीण संज्ञावाले भी होते हैं । (ध.२/१,१/४१६/१); (नि. सा./ ता. वृ./ ६६); (गो. जी/जी.प्र | १३४/३४७)। ३. आहारादि संज्ञाओंके लक्षण गो. जी./जी. प्र./१३५-१३८/३४८. ३५१ आहार-विशिष्टान्नादौ संज्ञाबाब्छा आहारसंज्ञा (१३५-३४८) भयेन उत्पन्ना पलायनेच्छा भयसंज्ञा (१३६/३४६) मैथुने-मिथुनकमणि सुरतव्यापाररूपे संज्ञा-वाञ्छा मैथुनसंज्ञा (१३७/३५०) परिग्रहसंज्ञा-तदर्जनादि बाञ्छा जायते । (१३८/३५१) - विशिष्ट अन्नादिमें संज्ञा अर्थात् वाग्छाका होना सो आहारसंज्ञा है। (१३५/३४८) अत्यन्त भयसे उत्पन्न जो भागकर छिप जाने आदिकी इच्छा सो भयसंज्ञा है। मैथुनरूप क्रियामें जो बाब्छा उसको मैथुनसंज्ञा कहते हैं। धन-धान्यादिके अर्जन करने रूप जो वाञ्छा सो परिग्रहसंज्ञा जाननी। ध.२/१,१/४१६/३ एदासिं चउण्डं सणाणं अभावो खीणसण्णा णाम । -इन चारों संज्ञाओं के अभावको क्षीणसंज्ञा कहते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञा १२१ ४. आहारादि संज्ञाओंके कारण ८. सं. / प्रा./१/५२-५५ आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणकुठेण । सादिरुदीरणाए होदि हु आहारसण्णा दु । ५२| अह भीमदंसणेण य तस्वओगेण कणससे भयकम्मुदीरणार भयसाणा जायदे पहि 15३ परिदरसभोयणे यतस्तुनोगे कुशीलवणार वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं ॥ ५४॥ उबगरणदंसणेण यतस्तओगेण मुखिया व लोहस्सुदीरणाए परिजायते सा ॥५५॥ - बहिरंगमें आहारके देखनेसे उसके उपयोग और उदररूप कोडके खाली होनेपर तथा अन्तरंग में असाता बेदनीयकी उदीरणा होनेपर आहारमा उत्पन्न होती है ५१ हिरंग अति भीमदर्शनसे. उसके उपयोगसे, शक्तिकी हीनता होनेपर, अन्तरंग भयकर्म की उदीरणा होनेपर भयसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥५३ बहिरंग गरिष्ठ स्वादिष्ठ और रसयुक्त भोजन करनेसे, पूर्व-भुक्त विषयोंका ध्यान करनेसे, कुशीलका सेवन करनेसे तथा अन्तरंग बेदकर्मकी उदीरणा होनेपर मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥५४ महिर गर्ने भोगोपभोग के साधनभूत उपकरणोंके देखनेसे उनका उपयोग करनेसे, उनमें मूर्छाfभाव रखनेसे तथा अन्तरंग में लोभकर्मकी उदीरणा होनेपर परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है ५५ गोजी./१२५-१३८) (पं.सं./सं./९/३४८-३३१) । ५. संज्ञा व संज्ञीमें अन्तर स.सि./२/२४/१८१८ ननु च संज्ञिन इत्यनेनैव गतार्थत्वमनस्का इति विशेषणमनर्थकम् यतो मनोव्यापारहिताहितप्राप्तिपरिहार परीक्षा संज्ञापि संमेति तय कम् संज्ञाशब्दार्थव्यभिचारात संज्ञानामेत्युच्यते तवन्तः संज्ञिन इति सर्वेषामतिप्रसङ्गः संज्ञा ज्ञानमिति चैव सर्वेषां प्राणिनां हानात्मकत्वादतिप्रसङ्गः आहारादिविषयाभिलाष' संज्ञेति चेत् । तुल्यं तस्मात्समनस्का इत्युच्यते । - प्रश्न – सूत्र में 'संज्ञिनः' इतना पद देनेसे ही काम चल जाता है, अतः 'समनस्काः ' यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हित की प्राप्ति और अहितके श्यागकी परीक्षा करनेमें मनका व्यापार होता है। यही संज्ञा है उत्तर यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि संज्ञा शब्द के अर्थ में उपभिचार पाया जाता है। संज्ञाका अर्थ नाम है। यदि नाम वाले जीव ही माने जायें तो सभी जीवोंको संझीपनेका प्रसंग प्राप्त हो जायेगा । संज्ञाका अर्थ यदि ज्ञान मान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञान स्वभावी होनेसे सबको संज्ञोपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयोंकी अभि Parent संज्ञी कहा जाता है तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। चूँकि यह दोष प्राप्त न हो अतः सूत्र में 'समनस्का:' ग्रह पद रखा है। (रा.वा./२/१४/७/११/९०) ६. वेद व मैथुन संज्ञामें अन्तर , घ. २ / ११ / ४१३ / २ मेथुनसंज्ञा वेदस्यान्तर्भवतीति चेन्न वेदत्रयोदयसामान्यनिबन्धनमै नहाया वेदोदयविशेषणस्यानुपपत्तेः । प्रश्न- मैथुन संज्ञाका वेदने अन्तर्भाव हो जायेगा। उत्तर- नहीं, क्योंकि तीनों वेदोंके उदय सामान्यके निमित्तसे उत्पन्न हुई मैथुन संज्ञा और वेद के उदय विशेष स्वरूप वेद, इन दोनों में एकत्व नहीं बन सकता है । ७. लोभ व परिग्रह संज्ञा में अन्तर म २/१.१/४१३/४ परिग्रहसंज्ञापि न सोने करमास्कन्दति लोभीदवसामान्यस्यालीवाह्मार्थसोभतः परिग्रहसंज्ञामादधानतो भेदाद । = परिग्रह संज्ञा भी लोभ कषायके साथ एकत्वको प्राप्त नहीं होती है; क्योंकि बाह्य पदार्थोंको विषय करनेवाला होनेके कारण परिग्रह सज्ञाको धारण करनेवाले लोभसे लोभकषायके उदयरूप सामान्य भा० ४-१६ संज्ञी लोभका भेद है। (अर्थात् बाह्य पदार्थोंके निमित्त से जो लोभ विशेष होता है उसे परिग्रह संज्ञा कहते हैं) और सोभ उपायके उदयसे उत्पन्न परिणामोंको लोभ कहते हैं । ८. संज्ञाओंका स्वामित्व - गो. जी. जी. प्र. ७०२ / ११३६/६ मिथ्याहादिपमतान्त आहारादि चत संज्ञा भवन्ति पठगुणस्थाने आहारसंज्ञा म्युखिन्ना । शेषास्तिसः अम्मचादिषुकरणात्र भयसंज्ञा व्युच्छिन्ना। अनिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागान्तमैथुनपरिग्रहसंज्ञे स्तः । तत्र मैथुनसंज्ञा युना सूक्ष्मसाम्पराये परिग्रहसंज्ञा व्युच्छिन्ना । उपरि उपशान्तादिषु कार्यरहिता अपि संज्ञा न सन्ति कारणाभावे कार्यस्याप्यभावादमिथ्या गुणस्थान से लेकर प्रमत पर्यन्त चारों संज्ञाएँ होती हैं पट्ट गुणस्थान में आहार संशाका छेद हो जाता है। अपूर्वकरण पर्यत शेष तीन संज्ञा है तहाँ भय संज्ञ का विद हो जाता है । अनिवृत्तिकरण के सवेद भाग पर्यन्त मैथुन और परिग्रह दो संज्ञाएँ हैं। हाँ मैथुनका विच्छेद हो गया। तब सूक्ष्म साम्परायमें एक परिग्रहसंज्ञा रह जाती है, उसका भी वहाँ विच्छेद हो गया। तब ऊपरके उपशान्त आदि गुणस्थानमें कारणके अभाव में कार्यका अभाव होता है, अतः वह कार्य रहित भी संज्ञा नहीं है। 1 ९. अप्रमत्तादि गुणस्थानों में संज्ञा उपचारसे है - धं. २/९.१/४१३४३३/६३ यदि चतस्रोऽपि संज्ञा आलीढबाह्यार्थाः, अप्रमत्तानां संज्ञाभावः स्यादिति चेन्न तत्रोपचारतस्तत्सत्याभ्युप गमात् । ४९३/६ (कारण कम्मोदय संभवादो भयमे परिग्गहसण्णा अत्थि ( ४३३ / ३) । प्रश्न- यदि ये चारों ही माह्या संसर्गसे उत्पन्न होती है तो अप्रमत गुणस्थानवर्ती जीवो के संज्ञाओंका अभाव हो जाना चाहिए। उत्तेर-नहीं क्योंकि अप्रमत्तों में उपचारसे उन संज्ञाओंका सद्भाव स्वीकार किया गया है । भय आदि संज्ञाओंके कारणभूत कर्मोंका उदय संभव है इसलिए उपचार भय और मैथुन संज्ञाएँ हैं। गो. जी./मू./७०२ छट्ठोत्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणावखा । - मिध्यात्व से लेकर अम्मत पर्यन्त चारों ही संज्ञाएँ कार्यरूप होती हैं । किन्तु ऊपर के गुणस्थानोंमें तीन आदिक संज्ञाएँ कारणरूप होती हैं। (गो.क./मू./ १३६ ) । १०. संज्ञा कर्मके उदयसे नहीं उदीरणासे होती है .. २/१.१/४३३/२ आसादावेदणीयस्स उदीरणाभावादी आहार सण्णा अप्पमत्त संजदस्स णत्थि = - अमाता वेदनीय कर्म की उदीरणाका अभाव होनेसे अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं है । दे, संज्ञा / ४ चारों संज्ञाओंके स्वस्व कर्मकी उदीरणा होनेपर वह वह संज्ञा उत्पन्न होती है । * संज्ञाके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान आदि २० प्ररूपणाएँ । ३. सद * संज्ञा प्ररूपणाका कपाय मार्गणामें अम्तमोव । २. मार्गा संज्ञासंज्ञ - क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष / अपरनाम सन्नासन्न - दे. गणित / T / १ । संज्ञी - मनके सद्भाव के कारण जिन जीवोंमें शिक्षा ग्रहण करने व विशेष प्रकारसे विचार, तर्क आदि करनेकी शक्ति है वे संज्ञी कहलाते हैं। यद्यपि चींटी आदि वृद जन्तुओं में भी पदार्थ की प्राप्ति के प्रति गमन और अनिष्ट पदार्थोंसे हटने की बुद्धि देखी जाती है पर उपरोक लक्षण के अभाव में वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते जैनेन्द्र सिद्धान्त कोण Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञी १. संज्ञी - असंज्ञी सामान्यका लक्षण १. शिक्षा आदि घाटीके अर्थ पं. सं. / प्रा./१/१९७३ सिक्खाकिरिओवएसा आलावगाही मनोवल बेण । जो जोवो सो सण्णी तव्त्रिवरीओ असण्णी य । १७३। जो जीव मनके अवलम्बनसे शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलापको ग्रहण करता है उसे ही कहते हैं, जो इससे विपरीत है उसको असं बढ़ते हैं। ( . १४१.१०४/१०/१५२) (रा.सा./२/१२); (गो. जी./मू./ ६६१) (पं.सं./सं. १/३९६) । रा. वा./१/०/११/६०२/२७ शिक्षा काही संको, तद्विपरीतोऽसंज्ञो । जो जीब शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलापको ग्रहण करता है सो संज्ञी और उससे विपरीत असंज्ञी है । ( ध. १ / १.१.४/ १५२/४ ); (ध. ७/२,१,३ / ७ / ७); ( पं. का./ता. वृ./११७/१८०/१३ ) | २. मन सहित अर्थमें त. सू. / २ / २४ संज्ञिनः समनस्काः | २४| मनवाले जीवसंज्ञी होते हैं। ४. १/१.१.२५/२५६/६ १२२ पं. सं. / /१/१०४-१७६ मीमंस जो मचमिदर च । सिक्ख णामेणेदिय समणो अमणो य विवरीओ | १७४ | एवं कए मए पुण एवं होदित्ति कज्ज णिष्पत्ती। जो दु विचार जीवो सो सणि असणि इयरो य । १७५१ - जो जीव किसी कार्यको करने से पूर्व कर्तव्य और अकर्तव्यकी मीमांसा करे, तत्त्व और अतत्वका विचार करे, याग्यको सांधे और उसके नामको पुकारनेपर आवे सो समनस्क है उससे विपरीत अमनस्क है। ( गो. जी./मू / ६६२ ) जो जीव ऐसा विचार करता है कि मेरे इस प्रकार कार्यके करनेपर कार्यकी निष्पत्ति होगी, वह संज्ञी है और इससे विपरीत असज्ञी है । " रा. बा. २/६/२/१०/१३ हिताहितापरीक्षा प्रत्यसामध्ये अशिल| हिताहित परीक्षा के प्रति असामर्थ्य होना सो अहिल है। मनः सदस्यास्तीति १/११/१२/३ सम्यक् जानातीति संज्ञी | जो भली प्रकार जानता है उसको संज्ञ अर्थात् मन कहते हैं. वह मन जिसके पाया जाता है उसको संज्ञी कहते हैं । गो, जो./मू./६६० णोई दिय आवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा । सा जस्मा सो दुसरो कर्मके क्षयोपशमसे तज्जन्य ज्ञानको संज्ञा कहते हैं वह जिसको हो उसको संज्ञी कहते हैं और जिनके यह संज्ञा न हो किन्तु केवल यथासम्भव इन्द्रिय ज्ञान हो उसको असंही कहते हैं। पं. का./ता.वृ./११७/१००/१५ नोद्रियावरणस्यापि क्षयोपशमलाभात्यो भन्नोद्रियावरण कर्मके क्षयोपशम से जीव संक्षी होते हैं। पाटी इ. सं/टी./१२/२०११ समस्त शुभाशुभ नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते, तेन सह ये वर्तन्ते ते समनस्काः सज्ञिनः तद्विपरीता अमनस्का असंज्ञिनः ज्ञातव्या । समस्त शुभाशुभ विकल्पोंसे रहित परमात्मरूप द्रव्य उससे विलक्षण अनेक तरह के विकल्पजाल रूप मन है, उस मनसे सहित जीवको संज्ञी कहते है। तथा मनसे शून्य अमनस्क अर्थात् असंज्ञी है । २. संज्ञी मार्गणाके भेद ९/९.१९०२/४०८ पानादेण अस्थि सग्गी असण्णी | १७२ ) [णेत्र सण्णि क्षेत्र असण्णणां वि अस्थिध / २ ] । -संज्ञी मार्गणा अनुवाद से संज्ञी और असंज्ञी जीव होते हैं । १७२ ॥ संज्ञी तथा असंज्ञी विकल्प रहित स्थान भी होता है। ( रा. वा./६/७/ १९/६०४/१८); ( ध. २ / ११ / ४१६ / ११ ); (द्र.सं./टी./१३/४०/३) । ३. संज्ञी मार्गणाका स्वामित्व २. गति आदिकी अपेक्षा दिया पेया पं.का./सू./१९९ मपरिणामविरहिया जीवा = मन परिणामसे रहित एकेन्द्रिय जीव जानने । रा.पा/२/११/२/१२/२० एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पद्रियेषु केषश्चित मनोविषय विशेषव्यवहाराभावात अमनस्क एक, दो, सीम, चार और पाँच इन्द्रियों कोई जीव मनके विषयभूत विशेष व्यापार के अभाव से अमनस्क हैं। इ.टी./१२/२०१४. संपर्स पियास्तिर्यच एवं नारवमनुष्य देवाः पचेन्द्रिया एवं साहात परे सर्वे द्वित्रिपतुरिन्द्रियाः। बाहरसूक्ष्मा एकेन्द्रियास्तेऽपि अनि ए = पञ्चेन्द्रिय जीव संज्ञी तथा असंज्ञी दोनों होते हैं, ऐसे संज्ञी तथा असंही दोनों पचेन्द्रिय तिच ही होते हैं। नारकी मनुष्य और देव संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। पंचेन्द्रिय से भिन्न अन्य सब इन्द्रिय, त्रीय और चतुरिन्द्रियजीव मन रहित असंही होते हैं। बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय हैं वे भी...असंज्ञी है । गो.ज./जी.प्र./६१०/११११/- जीवसमासौ संहिपर्याय | संज्ञी हो । तुन असंज्ञिणीनः स्थावरकायायसंपन्त मिध्यादृक्षिगुणस्थाने एव स्यान्नियमेन तत्र जीवसमासा द्वादशसंज्ञिनो द्वयाभावात् । -संज्ञीमार्गणामें पर्याप्त और अपने दो जीवसमास होते हैं असंही जी स्थायस्कायसे लेकर अज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त होते हैं। इनमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान तथा जोवसमास संज्ञी सम्बन्धी पर्याप्त और इन दोको छोड़कर शेष बारह होते हैं । २. गुणस्थान व सम्यक्त्वकी अपेक्षा प. ९/११/१००/४०८ रुग्णी मिष्याट्ठि-पड जाय लोककसाय - वीयराय-छदुमत्था त्ति | १७३ - संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय, वीतराग, छद्मस्थ गुणस्थान तक हते हैं। टि. प./५/२६६ तेतीस संजूद सिरिजमाण सब्वकालम्मि । मिच्छत्तगुणद्वाणं वोच्छं सण्णीण तं मानं । २हासंज्ञी जीवोंको छोड़कर शेष तेतीस प्रकारके भेदोंसे युक्त तियंचोंके (दे. जीवसमास ) सर्व काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है । गो.जी./मू./६६०सी वियहुदी लोग साओति होदिनियमेण । - ही जी सही मिध्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होते हैं। दे. संज्ञी/३/१ में गो. जो. असंज्ञी जीवोंमें नियमसे एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। गो.क./जी. प्र./५५१/०५३/४ सासादनरुचौ... असं ज्ञिसंज्ञितिथंडमनुष्येषु सासादनसम्यक् संज्ञी असंज्ञी विच मनुष्यों ४. एकेन्द्रियादिकमै मनके अभाव संबंधी शंका समाधान रावा./२/१६/३०-३२/४०२/२६ यदि मनोऽन्तरे या बेदनागमो न स्पाय एकेन्द्रियविश्लेन्द्रियाणामस पिचेन्द्रियार्णा च वेदनातगमो न स्यात् । ३०/ पृथगुपकारानुपलम्भात् तदभाव इति चेत्; म गुणदोषविचारादि३१ स्वन्तःकरणं मनःयदि मनके बिना इन्द्रियोंमें स्वयं सुख-दुःखानुभव न हो तो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंही पंचेद्रियजमोको दुःखका अनुभव नहीं होना चाहिए। प्रश्न - मनका ( इन्द्रियों से ) पृथक उपकारका अभाव होनेसे मनका भी अभाव है ? उत्तर- नहीं, गुण-दोष विचार आदि मनके स्वतन्त्र कार्य हैं इसलिए मनका स्वतन्त्र अस्तित्व है । ध. १/१.१७३ / ३१४/४ विकलेन्द्रियेषु मनसोऽभावः कुतोऽवसीयत इति चेदात कथमार्थस्य प्रामाण्यमिति चेत्स्वाभाव्याप्रयस्येव । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञी = प्रश्न - विकलेन्द्रियोंमें मनका अभाव है यह किस प्रमाण से जाना जाता है। उत्तर-आगम प्रमाणसे जाना जाता है। और आगम प्रत्यक्ष की भाँति स्वभाव से प्रमाण है। पं.का./ता.वृ./१०/१८०/९६ योपशम विकल्परूपं हि मनो भव्यते तत्तेषामप्यस्तीति कथमसंज्ञिनः । परिहारमाह । यथा पिपीलिकाया गन्धविषये जातिस्वभावेनैवाहारादिसंज्ञारूप पटुत्वमस्ति न चान्यत्र कार्यकारणव्या शिज्ञानविषये अन्येषामप्यज्ञिनां तथैव। प्रश्नयो मन होता है। वह एकेन्द्रियादिके भी होता हैं, फिर से असंज्ञी कैसे हैं उसका परिहार करते हैं। जिस प्रकार चींटी आदि गन्धके विषय में जाति स्वभावसे ही आहारादि रूप संज्ञामें चतुर होती है, परन्तु अन्यत्र कारणकार्य व्याप्तिरूप ज्ञानके विषय मे चतुर नहीं होती, इसी प्रकार अन्य भी असंज्ञी जीवों के जानना । = ५. मनके अभाव में श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति कैसे ध. १ / १.१,३५ / २६१/१ अथ स्यादर्थालोकमनस्कारचक्षुभ्यः संप्रवर्तमानं ज्ञानं समनस्केषूपलभ्यते तस्य कथममनस्केष्वाविर्भाव इति नैष दोषः भिन्नजातिस्वात् प्रश्न-पदार्थ, प्रकाश, मन और अक्षु इनसे उत्पन्न होनेवाला रूप ज्ञान समनस्क जीवों में पाया जाता है, यह तो ठीक है, परन्तु अमनस्क जीवों में उस रूपज्ञानकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि समनस्क जीवों के रूप ज्ञानसे अमनस्क जीवोंका रूप ज्ञान भिन्न जातीय है । २.११.१.७३ / ३९४ / ९ मनसः कार्ययेन प्रतिपक्षविज्ञानेन सह सतन विज्ञानस्य ज्ञानस्वं प्रत्यविशेषान्मनो निमन्नमनुमीयतइति श भिन्नजातिस्तिविज्ञानेन सहाविशेषाः प्रश्न मनुष्यों मनके कार्यरूपसे स्वीकार किये गये विज्ञानके साथ विकलेन्द्रियों में होनेवाले विज्ञानकी ज्ञान सामान्यकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है. इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि विकलेन्द्रियोंका विज्ञान भी मनसे उत्पन्न होता होगा उतर नहीं, क्योंकि भिन्न जाति में स्थित विज्ञानके साथ भिन्न जातिमें स्थित विज्ञानकी समानता नहीं बनती । 1 - • १/१.१.११६ / ३६१/- अमनसा तदपि कथमिति चेन्न मनोऽन्तरेण वनस्पतिषु हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्युपलम्भतोऽनेकान्ताय प्रश्नमन रहित जीवोंनें अंतज्ञान से सम्भव है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, मनके बिना पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिए मन सहित जीवोंके ही श्रुतज्ञान माननेमें उनसे अनेकान्त दोष आता है। (और भी दे. अगला शोर्ष ।) ६. श्रोत्रके अभाव में श्रुतज्ञान कैसे 5 - १/९.१.११६/३६९/६ कथमेकेन्द्रियाणां तहानमिति चन भवात श्रोत्राभावान्न शब्दागतिस्तदभावान दान इति नैष दोषः यतो नायमेकान्तोऽस्ति शब्दार्थावबोध एव श्रुतमिति । अपितु अशदरूपावपि ज्ञानमपि श्रुतमिति प्रश्नएकेन्द्रियोंके श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है। उत्तर- कैसे नहीं हो सकता है। प्रश्न एकेन्द्रियोंके श्रोत्र इन्द्रियका अभाव होनेसे शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता है, शान के अभाव में शब्द के विषयभूत अर्थका भी ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए उनके श्रुतज्ञान नहीं होता यह बात सिद्ध है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह एकान्त नियम नहीं है कि शम्यके निमित्त होनेवाले पार्थ ज्ञानको ही घुल कहते है किन्तु शब्द से भिन्न रूपादिक लिंग भी जो लिगका ज्ञान होता है उसे भी महान कहते हैं। • १३/५,५,२१/२१०/६ एदित्सु सोद - णोई दियवज्जिसु कथं सुदणागुप्पती सरथ मन बिना जारिविसेसेण सिगिविसयाणापुष्पत्तीए विरोहाभावादी प्रश्न एकेन्द्रिय जीव श्रोत्र और । - - १२३ संघ मन्यसे रहित होते हैं. उनके सहानकी उत्पति कैसे हो सकती है। उत्तर- नहीं, क्योंकि वहाँ मनके बिना भी जातिविशेष के कारण लिंगी विषयक ज्ञानकी उत्पत्ति माननेमे कोई विरोध नहीं आता । ७. संज्ञीमें क्षयोपशम भाव कैसे है। ध. ७/२.१,८३/१११/१० णोइंदियावरणस्स सव्यघादिफद्दयाणं जादिवसेण अनंतगुणहाणीए हाइदूण देसघादित्तं पाविय उवसंताणमुदण सविसनादो नोद्रवरण कर्म सर्वघाती स्पर्धक के अपनी जाति विशेष के प्रभाव से अनन्तगुणी हानिरूप पासके द्वारा देशघातिको प्राप्त होकर उपशान्त हुए पुनः उन्होंके उदयसे संज्ञित्व उत्पन्न होता देखा जाता है । ८. अभ्य सम्बन्धित विषय १. संज्ञा व संज्ञीमें अन्तर । २. संधी जीप सम्मूर्च्छन भी होते हैं। ३. असंज्ञी जीवोंमें वचन प्रवृत्ति कैसे सम्भव है । ४. अशियों देवादि गतियोंका उदय व तासम्बन्धी शंका - दे० संज्ञा । - दे० सम् समाधान । - दे० उदय / ५ । ५. संशित्वमें कौन सा भाव है। -- दे० भाव / २ | ६. - दे० वह वह नाम । शीके गुणस्थान, जीवसमास, आदिके स्वामित्व संज्ञीके सम्बन्धी २० रूयणायें। ७. संधी सत्, संख्या, क्षेत्र आदि सम्बन्धी ८ प्ररूपणाऐं। - दे० वह वह नाम । ८. सभी मार्गणामें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम । - दे० मार्गणा । - -दे० योग/४ । संग्रह - म. पु. / १६/१७६ दशग्राम्यास्तु मध्ये यो महान् ग्रामः स संग्रहः । दश गाँवोंके बीच जो एक बड़ा भारी गाँव होता है, उसे संग्रह ( जहाँ हर वस्तुओंका संग्रह रखा जाता हो ) कहते हैं । संग्रह कृष्टिकृष् । संग्रह नय / IM संघ - १. संघका लक्षण स.सि./६/१३/३३९ / ९२ रोपे नवगणाः संघः । स.सि./१/२४/४४२/१ चातुर्वर्णश्रमणन संचारयुक्त श्रमणका समुदाय संध कहलाता है । ( रा. वा./६/१३/३/५२३) चार व श्रमणों समुदायको संघ कहते हैं। ( रा. वा./१/२४/४४२/१) चाहा./१५१/४) (म साता वृ./२४६/३४३/९०) २] आचार्य लेकर गंग पर्यन्त सर्व साधुओंकी व्याधि दूर "करना संघ वैश्य कहलाता है। * संघके भेद - दे. इतिहास / ५ । १. एक मुनिको असंध पना हो जायेगा मा. पा./टी./०८/२२३/१ ऋषिमुनियस्यमगारनिमहः संथ अथवा पाकाकानिमहः संघ ऋषि मुनि, यति और अनगार के समुदायका नाम संध है। अथमा ऋषि आर्थिक और भाषिका समुदायका नाम संप है ( और भी वे अगला शीर्षक) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश रा. बा./६/१३/४/२२४/१ स्वावेव सहयो गयो बृन्दमित्यनर्थान्तर तस्य कथमेकस्मिन् वृत्तिरिति । तन्नः किं कारण अनेक गुण Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघात १२४ संज्वलन संहननादे कस्यापि सङ्घत्वसिद्ध । उक्तं च-संघो गुणसंघादो कम्माण विमोयदो हव दि संघो। दसणणाणचरित्ते संघादितो हवदि सघो।-प्रश्न-संघ, गण और समुदाय ये एकार्थवाची है. तो इस कारण एक साधुको संघ कैसे कह सकते हैं। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्यों कि एक व्यक्ति भी अनेक गुणवतादिका धारक होनेसे संघ कहा जाता है। कहा भी है-गुण संघातको संघ कहते हैं। कर्मों का नाश करने और दर्शन, ज्ञान और चारित्रका संघटन करने से एक साधु को भी संघ कहा जाता है। संघात-१. संघात सामान्यका लक्षण स. सि./५/२६/२६८/४ पृथग्भूतानामेकत्वापत्ति. संघातः। = पृथग्भूत हुए पदार्थों के एकरूप हो जानेको संघात कहते हैं । (रा. बा./५/२६/२/४६३/२५) घ. १४/५,६,६८/१२१/ परमाणुपोग्गलसमुदायसमागमो संघादो णाम। - परमाणु पुद्गलोंका समुदाय समागम होना संघात है। २. भेद संघातका लक्षण ध, १४/५.६,६८/१२१/४ भेदं गंतूण पुणो समागमो भेदसंधादो णाम । -भेद को प्राप्त होकर पुनः संघात अर्थात समागम होना भेद संघात २. संघातन-परिशातन ( उभय रूप ) कृतिका लक्षण ध.६/४,१,६९/३२०/२ अप्पिदसरीरस्स पोग्गलक्रबंधाणमागम-णिज्ज राओ संघादण-परिसादणकदी णाम। =(पाँचों शरीरों मे-से ) विवक्षित शरीरके पुद्गल स्कन्धोंका आगमन और निर्जराका एक साथ होना संघातन-परिशातन कृति कही जाती है । * पाँचों शरीरोंकी संघातन-परिशातन कृति। दे० (घ. १/३५५-४५१)। . संघात समास ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/III संघातिम-दे० निक्षेप/५/६ । संघायणी-बृहत्संग्रहणी सुत्रका अपरनाम है। -दे० बृहत्संग्रहणी सूत्र। ३. संघात नामकर्मका लक्षण स. सि./८/११/३१०/१ यदुदयादौदारिकादिशरीराणां विवररहितान्यो ऽन्यप्रदेशानुप्रवेशेन एकत्वापादन भवति तत्संघातनाम । - जिसके उदयसे औदारिका दि शरीरोंकी छिद्र रहित होकर परस्पर प्रदेशों के अनुप्रवेशन द्वारा एकरूपता आती है वह संघात नामकर्म है। (रा. का./८/११/७/५७६/२७); (गो. क./जो. प्र /३३/२६/२) ध, ६/१,६-१,२८/१३/३ जेहि कम्मरबंधेहिं उदयं पत्तेहि बंधणणामकम्मोदएण धमागयाणं सरीरपोग्गलववंधाणं महत्तं कीरदे तेसि सरीरसंघादसण्णा । जदि सरीरसंघादणाम कम्मजीवस्स ण होउज, तो तिलमोअओ व अबुदुसरीरी जीवो होज्ज। = उदयको प्राप्त जिन कर्म स्वन्धों का मृष्टत्व अर्थात छिद्र रहित संश्लेष किया जाता है उन पुद्गल स्कन्धों की 'शरीरसंघात' यह संज्ञा है। यदि शरीर संघात नामकर्म सज्ञा न हो, तो तिलके मोदकके समान अपुष्ट शरीरवाला जीव हो जावे। (ध. १३/५,५.१०१/१६४/२) ४. शरीर संघातके भेद । ष. खं, ६/१६-१,/सु. ३३/७० जंतं सरीरसंघादणामकम्मं तं पंचविहं, ओरालियसरीरसंघाद णामं वेउब्वियसरीरसंघाद णाम आहारसरीरसंघादणाम तेजससरीरसंघादणामं कम्मइयसरीरसंघादणाम चेदि । --जो शरीर संघात नामकर्म है, वह पाँच प्रकार है-औदारिक शरीर संघात नामकर्म, वै क्रियकशरीर संघात नामकर्म, आहारकशरीरसंघातनामकर्म, तैजसशरीर संघातनामकर्म, और कार्मणशरीरसंघात नामकर्म । (प. बं. १३/५.६/सू. १०६/३६७) संघात-दूसरे नरकका दसवाँ पटल -दे० नरक/५/११॥ संघात ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/III संघातन-१. संघातन कृतिका लक्षण ध. १/४.१.६९/३२६/६ तत्थअप्पिदसरीरपरमाणूण णिज्जराए विणा जो संचयो सा संघादणकदी णाम ! -(पाँचों शरीरों में से ) बिबक्षित शरीरके परमाणुओं का निर्जराके बिना जो संचय होता है उसे संघातन कृति कहते हैं। संचया-पूर्व विदेहस्थ मंगलावती क्षत्रकी मुख्य नगरी। -दे. लोक/७। सचार-१. एक अक्ष या भंगको अनेक भंगनि विषै क्रमसे पलटना । -दे० गणित/II/३। २. न्या. बि./वृ./१/२०/२१७/२६ असंचारः असंप्रतिपत्तिः । -असं चार अर्थात् प्रतिपति यानी निश्चयका न होना। सचेतन-स.सा./आ./क. २२४ पं. जयचन्द्र-किसी के प्रति एकाग्र होकर उसका ही अनुभव रूप स्वाद लिया करना उसका संचेतन कहलाता है। संजयत-म.प्र./18/श्लोक सं. पूर्व भव सं.७ में सिंहपुर नगरका राजा सिंहसेन ( १४६) छठे में साल की बनमें अशनिघोष नामक हाथी हुआ (११७)। में रविप्रभ विमानमें देव (२१८-२१८) चौथेमे राजपुत्र रश्मिदेव तीसरेमें कापिष्ठ स्व. में देव (२३७-२३८) दूसरे में राजा अपराजितका पुत्र ( २३६) पूर्व भवमे सर्वार्थ सिद्धिमे देव था (२७३)। वर्तमान भवमे गन्धमालिनी देशमें वीतशोक नगर के राजा वैजयन्तका पुत्र था (१०६-११०) विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की (११२)। ध्यानस्थ अवस्था में एक विद्य. भ्रष्ट नामक विद्याधरने इनको उठाकर इला पर्वत पर नदीमे डुबो दिया। तथा पत्थरों की वर्षा की। इस घोर उपसर्गको जीतनेके फलस्वरूप मोक्ष प्राप्त किया ( ११६-१२६) । (म. पु./५६/३०६-३०७), (प. पु./१/२७-४४)। संजयंत नगरो-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर --दे० विद्याधर। संजय-एक परिव्राजक था। जिसने मौद्गलायन व सारिपुत्सको बुद्धका शिष्य होनेसे रोका था। संज्वलन-१. संज्वलनका लक्षण स. सि./८/९/३८६/१० समेकोभावे वर्तते । संयमेन सहायस्थानादेकीभूय ज्वल न्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनाः क्रोध मानमायालोभाः। ='सं' एकीभाव अर्थ में रहता है। संयमके साथ अवस्थान होनेसे एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात चमकते हैं या जिनके सद्भाव में संयम चमक्ता रहता है वे संज्वलन, क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । (रा. वा./८/६/५/५७५/४), (गो. क./ जी. प्र./३३/२८/५). (गो. क./जी. प्र./४५/४६/१३)। ध. १३/५०५,६५/३६०/१२ सम्यक् शोभन ज्वलतीति संज्वलन। -जो सम्यक् अर्थात शोभन रूपसे 'ज्वल ति' अर्थात प्रकाशित होता है वह संज्जलन कषाय है। गो. जी./जी. प./२८३/६०८/१५ संज्वलनास्ते यथारख्यातचारित्रपरिणाम कषन्ति, सं समीचीनं विशुद्धं संयम यथारख्यातचारित्रनामधे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्वलन १२५ संबंध ज्वल न्ति दहन्ति इति संज्वलनाः इति निरुक्तिबलेन तदुदये सत्यपि सामायिकादीतरसंयमाविरोधः सिद्धः । - संज्वलन क्रोधादिक सकल कषायके अभाव रूप यथाख्यात चारित्रका घात करते हैं। 'सं' कहिए समीचीन निर्मल यथारख्यात चारित्रको 'ज्वलति' कहिए दहन करता है, तिनको संज्वलन कहते हैं, इस निरुक्तिसे संज्वलनका उदय होने पर भी सामायिक आदि चारित्रके सद्भावका अविरोध सिद्ध होता है। २. संज्वलन कषायमें सम्यकपना क्या ध.६/१,४-१,२३/४४/६ किमत्र सम्यक्त्वम् । चारित्रंण सह ज्वलनम्। चारित्तमविणासेंता उदयं कुणं ति त्ति जं उत्तं होदि। -प्रश्न-इस संज्वलन कषायमें सम्यक्पना क्या ? उत्तर-चारित्रके साथ जलना ही इसका सम्यक्पना है अर्थात् चारित्रको विनाश नहीं करते हुए भी ये उदयको प्राप्त होते हैं, यह अर्थ कहा है। ध. १३/५.१.६५/३६१/९ कुतस्तस्य सम्यक्त्वम् । रत्नत्रयाविरोधात् ।प्रश्न- हसे ( संचलनको) सम्यकपना कैसे है ! उत्तर-रत्नत्रयका अविरोधी होनेसे। ७. अन्य सम्बन्धित विषय १. संज्वलन प्रकृतिके बन्ध उदय सत्व सम्बन्धी नियम व शंका समाधानादि । -दे०वह वह नाम । २. कषायोंकी मन्दता संज्वलनके कारणसे नहीं बल्कि लेश्याके कारणसे है। -दे० कषाय/३। ३. संज्वलनमें दशों करण सम्भव हैं। -दे० करण/२। ४. संज्वलन प्रकृतिका देशवातीपना। -दे० अनुभाग/४। संज्वलित-तीसरे नरकका आठवाँ पटल । -देनरक/१/११॥ सतलाल-सिद्धचक्रपाठ व दशलक्षिक अंकके कर्ता एक जैन कवि। (वि. श.१८ का मध्यः ई. श.१७-१८) हि.जे. सा. इ./१६६ कामता। ३. यह कषाय यथाख्यात चारित्रको घातती है पं.सं./प्रा./२/११५ च उत्यो जहरवायघाईया। संज्वलन कषाय यथा- ख्यात चारित्रकी घातक है। (और भी दे. शीर्षक सं.१); (पं. सं./प्रा./१/११०): (गो. जी./२८३); (गो. क./मू./४५); (पंसं./ सं./१/२०४)। ४ इसके चार भेद कैसे ध. १३/५५५,६५/३६१/१ लोह-माण-माया-लोहेसु पादेवक संजलणणिसो किमठ कदो। एदेसि बंधोदया पुध पुध विराहा, पुल्लितिय घउक्कस्सैव अक्कमेण ण विणट्ठा त्ति जाणावण ठें। - प्रश्न-क्रोध, मान, माया और लोभमें-से प्रत्येक पदके साथ संज्वलन शब्द का निर्देश किस लिए किया गया है ! उत्तर-इनके बन्ध और उदयका विनाश पृथक्-पृथक् होता है, पहली तीन कषायोंके चतुष्कके समान इनका युगपत् विनाश नहीं होता, इस बातका हान कराने के लिए क्रोधादि प्रत्येक पदके साथ संज्वलन पद निर्देश किया गया है। (ध, ६/१,६-१.२३/४४/१) । संततता-Continuum (ज. प./प्र.१०६) । संतान-एक ग्रह । -ग्रह। संतोष भावना-दे० भावना। संथारा-दे० संस्तर। संदिग्धानेकान्तिक हेत्वाभास-दे० व्यभिचार । संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास-दे० असिद्ध । संदृष्टि-symbol {ज. प./प्र. १०६) । साध-१. एक ग्रह-दे० ग्रह । २. औदारिक शरीरमें सन्धियोंका प्रमाण-दे० औदारिक/१/७। सपराय-स. सि./8/१२/11813 संपरायः कवायः।-१. संपराय कषायको कहते हैं। (ध. १/१,१,१७/१८४/४) दे, आस्रब/१/५२. संपराय संसारको कहते हैं। संपच्छिनीदोष-दे. भाषा। संप्रज्वलित-तीसरे नरकका नवम पटल-दे. नरक/। संप्रति-मगधराज अशोक का पौत्र, अपर नाम चन्द्र गुप्त द्वि.। समय-ई.पू. २२०-२११ । (द्वि. इतिहास/३/३/४)। संप्रदान कारक-१.प्र. सा./पं. जयचन्द्र/१६ कर्म जिसको देने में आवे अर्थात जिसके लिए करने में आवे सो सम्प्रदान । २.अभिन्न कारकी व्यवस्थामें सम्प्रदान का प्रयोग- दे. कारक/१। संप्रदान शक्ति-स.सा./आ./परि./शक्ति ४४ स्वयं दीयमानभावोपेयत्वमयी संप्रदान शक्तिः।-अपने द्वारा दिया जाता जी भाव उसके उपयत्वमय (उसे प्राप्त करनेके योग्यपनामय, उसे लेनेके पात्रपनामय ) सम्प्रदान शक्ति । संबंध-१. संबंध सामान्यका लक्षण न. च. कृ./२२५ संबंधो संसिलेसोणाणीण णाणणेय मादीहि-ज्ञानीका ज्ञान और शेयका संसिलेश सो सम्बन्ध है। रा.वा./हिं.१/७/६४ प्रत्यासत्ति है सो ही सम्बन्ध है। रा. वा. हिं/४/४२/२०/११८७ जहाँपर अभेद प्रधान और भेद गौण होता है वहाँपर सम्बन्ध समझना चाहिए । २. सम्बन्धक भद आगममें अनेकों सम्बन्धों का निर्देश पाया जाता है। यथा-१शेय. ज्ञायक सम्बन्ध, ग्राह्य-ग्राहक सम्बन्ध ( स. सा./आ./३१); भाव्यभावक सम्बन्ध (स.सा./आ./३२,८३); तादात्म्य सम्बन्ध (स. ५. इसको चारित्र मोहनीय कहनेका कारण ध: ६/१,६-१.२३/४४/६ चारित्तमविणासेता उदयं कुणं ति तिजं उत्तं होदि । चारित्तमविणासेंताणं संजुलणाणं कध' चारित्ताबरणत जुज्जदे । ण, संजमम्हि मलमुबाइय जहावखादचारित्तु पत्तिपहिबंधयाणं चारित्तावरगत्ताविरोहा। -चारित्रको विनाश नहीं करते हुए.ये ( संज्वलन) कषाय प्रगट होते हैं। प्रश्न-चारित्रको नहीं माश करने वाले संज्वलन कषायोंके चारित्रावरणता कैसे बन सकती है ! उत्तर-नहीं, क्योंकि ये संज्वलन कषाय संयममें मलको उत्पन्न करके यथारख्यात चारित्रकी उत्पत्तिके प्रतिबन्धक होते हैं, इसलिए इनके चारित्रावरणता माननेमें विरोध नहीं है। ६. संज्वलन कषायका वासना काल गो.क./म. व टी./४६/४७ अंतोमुहत्त...संजलणमवासणाकालो दुणिय-. मेण ४६। उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो बासनाकालः स च संज्वलनानामन्तर्मुहुर्तः। - उदयका अभाव होनेपर भी कषायका संस्कार जितने काल तक रहे उसका नाम वासना काल है। सो संज्वलन कषायोंका वासना काल अन्तर्मुहुर्त है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंध १२६ सा./आ./५७,६१ ); संश्लेष सम्बन्ध ( स. सा./ता.वृ./५७); व्याप्यव्यापक सम्बन्ध (स. सा./आ./७५); आधार-आधेय सम्बन्ध (स. सा./आ./१८१-१८३ ); ( पं. ध. / पू. / ३५० ); आश्रय-आश्रयी (पं. ध. / पृ./७६); संयोग सम्बन्ध । सो दो प्रकारका है-देश प्रत्यासत्तिक संयोग सम्बन्ध और गुण प्रत्यासत्तिक संयोग सम्बन्ध ( ध. १४ / २,६,२३/२७/२); ( पं. ध./पू / ७६ ); धर्म-धर्मिमें अविनाभाव सम्बन्ध (पं. ध. / पू. / ७,५४५. ५६१,६६.२४६ ); लक्ष्य लक्षण सम्बन्ध (पं.ध. / पू/ १२,८८, ६१६ ): साध्य साधक सम्बन्ध ( ५. ध. / पू. /५४५ ); दण्ड-दण्डी सम्बन्ध (पं.प./पू /४१) समवाय सम्बन्ध (पं.पू./७६); भविष्याभाव सम्बन्ध ( स. म. /९६/२९७/२४)] [ इनके अतिरिक्त बाध्य बाधक सम्बन्ध, बध्य घातक सम्बन्ध, कार्यकारण सम्बन्ध, वाच्य वाचक सम्बन्ध, उपकार्य - उपकारक सम्बन्ध, प्रतिबध्य प्रतिबन्धकं सम्बन्ध, पूर्वापर सम्बन्ध, द्योश्य द्योतक सम्बन्ध, व्यंग्य-व्यंजक सम्बन्ध, प्रकाश्य प्रकाशक सम्बन्ध, उपादानउपादेय सम्बन्ध, निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध इत्यादि अनेकों सम्बन्धों का कथन आगममें अनेकों स्थलोंपर किया गया है । ] ३. सम्बन्धके भेदोंके लक्षण १. भाव्य-भावक मनो स. सा.आ./१२ भावकत्वेन भवन्तमपि दूरतएव भाव्यस्य व्यावर्तनेन - 1 ( मोहकर्म ) भावकपनेसे प्रगट होता है। तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है ऐसा जो अपना आत्माभाव्य... २. व्याप्य व्यापक स. सा./आ./७५ घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापक भाव...। - बड़े और मिट्टी के व्याप्यव्यापकभावका सद्भाव... न्या. पी./३/१०/१०६/२ साहचर्य नियमरूप व्यातिक्रियां प्रति वर्ग बाध्यम्... एतामेव क्यामिकियां प्रति यस्तु व्यापक...एवं सति धूममति वस्तु न तथाऽग्निव्याप्नोति। - साहचर्य नियमरूप व्यातिक्रियाका जो कर्म है उसे व्याप्य कहते हैं.... व्याप्तिका जो कर्म है- विषय है वह व्याप्य कहलाता है ..... [अग्नि] धूमको व्यान करती है, किन्तु निको व्याम नहीं करता । ३. ज्ञेय शायक व ग्राह्य ग्राहक सा./१९ लक्षणबत्यास मन...भान्द्रियागुह्यमानरूपादीनी याज्ञायक संकरदो परवग्राह्यग्राहक लक्षण वाले सम्बन्धको निकटता के कारण... भावेन्द्रियों के द्वारा (ग्राहक) ग्रहण किये हुए, इन्द्रियोंके विषयभूत स्पर्शादि पदार्थोंको ( ग्राह्य पदार्थोंको )... ज्ञेय ( बाह्य पदार्थ ) ज्ञायक ( जाननेवाला) आत्मा संकर नामक दोष... ४. आधार-आचेव सम्बन्ध स. सा. खा./१०१-१८१ न खम्येकस्य द्वितीयमसिइयोमप्रदेश सात ते सहाधाराधेयमथोऽपि नास्येव ततः पक्षिण एवाधाराधेयसंबन्धोऽवतिष्ठते । - वास्तवमें एक वस्तुको दूसरी वस्तु नहीं है, क्योंकि दोनोंके प्रदेश भिन्न हैं, इसलिए उनमें एक सत्ताको अनुपपत्ति है. इस प्रकार जबकि एक वस्तुकी दूसरी वस्तु नहीं है तब उनमें परस्पर आधार ( जिसमें रहा जाये) आधेय ( जो आश्रय लेवे ) सम्बन्ध भी नहीं है । स्व रूप में प्रतिष्ठित वस्तु में आधार-आधेय सम्बन्ध है । ४. अन्य सम्बन्धित विषय १. संयोग आदि अन्य सम्बन्धोंके लक्षण । २. संश्लेष सम्बन्ध | २. सम्बन्धकी अपेक्षा वस्तु भेदाभेद । ४ मिन इन्योंगे आध्यात्मिक भेदाभेद । ५ द्रव्य गुण पर्यायोंमें युत सिद्ध व समवाय संमूर्च्छन -- दे. वह वह नाम । - दे. श्लेष । - दे. सप्तभंगी / ५ । - दे. कारक / २ ॥ सम्बन्धका निषेध । - दे. द्रव्य / ४ । संबंध कारक दे. कारक /२ संबंध शक्ति - स. सा. / आ. / परि. / शक्ति / ४७, स्वभाव मात्र स्वस्वाfeat संबन्धशक्तिः । स्वभावमात्र स्वस्वामित्वमयी सम्बन्ध शक्ति । ( अपना भाव स्व है और स्वयं उसका स्वामी है ऐसी सम्बन्धमयी सम्बन्ध शक्ति है । ) संभव - - १. एक ग्रह- दे, ग्रह; २. असत् वस्तुओं को भी कथंचित् सम्भावना - दे. असत । संभवनाथ- म. पू. / ४६ / श्लोक सं. पूर्वभव सं २ में कच्छ देशके क्षेमंकरपुरका राजा विमलवाहन या (२) पूर्वभवे सुदर्शन विमान अहमिन्द्र. (१) वर्तमान में तीसरे तीर्थंकर थे (१६) विशेष परिचय दे संभवयोग२/९ संभावना सत्य - दे. सत्य / १ । संभाषण अनिता - संभिन्नमति - म. पु. / सर्ग / श्लोक महाबल ( ऋषभदेवका पूर्वका नवमा भव) राजाका एक मिथ्यादृष्टि मन्त्री था ( ४ / १६१) । इसने राजसभामे नास्तिव मतकी सिद्धि की थी (५/३०-३८)। अन्तमे मरकर निगोद गया ( १०/७ ) । भिन्नत्व ऋद्धि शुद्धि /२ संभ्रान्त - प्रथम नरकका छठा पटल- दे. नरक / ५ /११ तथा रत्नप्रभा । संमत सत्यदे / १ संमूमि-१. संमृमि का लक्षण स.सि./२/११/१८० / ३ प्रषु लोके पूर्ध्व मास्तिर्य च देहस्य समन्ततो मूर्च्छनं संप्रकल्प तीनों लोकों में ऊपर, नीचे, और तिरछे देहका चारों ओरसे मूर्च्छन् अर्थात् ग्रहण होना सम्मूर्छन है । ( अर्थात चारों ओरसे पुद्गलोंका ग्रहण कर अवयवोंकी रचना होना ) ( रा. वा./२/११/१४०/२१) गो.जी./जी.प्र./८३/२०४ / १७ से समन्तात् मूर्च्छनं जायमामजीवा ग्राहकाणी शरीराकारपरिगमनयोग्य न्धान समुद्रयणं सम्पूर्धनम् अर्थात समस्तपने, मूर्च्छन अर्थात जन्म ग्रहण करता जो जीव, उसको उपकारी ऐसे जो शरोराकार मरिणमने योग्य इस स्कन्धोंडा स्वमेव प्रगट होना सो संमूर्धन जन्म है। २. संमूमि जम्मका स्वामित्व जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १. हितमित अथवा मिष्ट व कटु संभाषणकी इष्टतासत्य / ३२. व्यर्थ संभाषणका निषेध सू./२/५३ वषार्च्छनम् | ११- गर्भज और उपपाद जम्म बासोके अतिरिक्त शेष मोका न जन्म होता है। ति प / ४ / २६४८ उपती मजुवाणं गम्भज सम्मुच्छिन खु दुभेदा । - मनुष्यों का जन्म गर्भ व सम्मूर्च्छनके भेदसे दो प्रकारका है 1 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमूर्छन १२७ संमूर्छन ति.प./५/२६३ उप्पत्ती तिरियाणं गभजसमुच्छिमो त्ति ।-तिर्यचों की उत्पत्ति गर्भ और संमूछ न जन्मसे होती है । ( गो, जी./जी.प्र./६१) २१३/४), रा. वा./२/३३/११/१४४/२३ एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पञ्चेन्द्रियाणा तिरश्चा मनुष्याणां च केषां चित्संमूर्छ नमिति...एक, दो, तीन, चार इन्द्रियवाले जीवोंका, किन्हीं पञ्चेन्द्रिय तियंचों तथा मनुष्योंका संमूर्च्छन जन्म होता है। गो. जी./जी. प्र./४/२०७/६ एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां केषाचित्पञ्चेन्द्रियाणां लब्ध्यपर्यासमनुष्याणां च संमूर्छनमेव जन्मेति प्रवचने निर्दिष्टम् । = एकेन्द्रीय, दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, कोई पंचेन्द्रिय तियंच और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य इनके सम्मूच्र्छन ही जन्म होता है. ऐसा प्रवचन में कहा है। (गो. जी./जी. प्र./१०/२१२/११) ३. संमूर्च्छन मनुष्य निर्देश भ आ./वि./७८१/६३७ पर उधृत गाथा-कर्मभूमिषु चक्रावहलभृदरि भूभुजाम् । स्कन्धाबारसमहेषु प्रसवोच्चारभूमिषु । शुक्रसिघाणकश्लेष्मकर्ण दन्तमलेषु च। अत्यन्ताशुचिदेशेषु सद्यः सम्मूछनेन ये॥ भूत्वाङगुलस्यासख्येयभागमात्रशरीरकाः। आशु नश्यम्त्यपप्तिास्ते स्युः सम्मूछना नराः ॥ - कर्मभूमिमें चक्रवर्ती, मलभद्र वगैरह बड़े राजाओंके सैन्योंमें मलमूत्रों का जहाँ क्षेपण करते हैं ऐसे स्थानों पर, वीर्य, नाकका मल, कफ, कान और दाँतोंका मल और अत्यन्त अपवित्र प्रदेश इनमें तो तत्काल उत्पन्न होते हैं। जिनका शरीर अंगुलके असंख्यात भाग मात्र रहता है। और जो जन्म लेनेके बाद शीघ्र नष्ट होते हैं और जो लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं उनको सम्मूर्छन मनुष्य कहते हैं। ४. संमूञ्छिम तिथंच संज्ञीभी होते हैं तथा सम्यक्त्वादि प्राप्त कर सकते हैं ध.४/१,५.१८/३५०/२' सण्णि पंचिंदिय तिरिक्वसंमुच्छिमपज्जत्तएसु मच्छ-कच्छव-मंडूकादिसु उववष्णो। सबलहूएण अंतोमुत्तकालेण सव्वाहिपज्जत्तीहि पज्जत्तयदो जादो। विसंतो। विसुद्धो होदूण संजमासंजमं पडिवण्णो । पुवकोडिकालं संजमासंजममणुपालिदूणमदो सोधम्मादि-आरणच्चुदंतेसु देवेसु उबवण्णो। - संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक, ऐसे संभूर्छन तिर्यंच, मच्छ, कच्छप, मेंढका दिकों में उत्पन्न हुआ. सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त पनेको प्राप्त हुआ। पुनः विश्राम लेता हुआ, विशुद्ध हो करके संयमासंयमको प्राप्त हुआ। वहाँपर पूर्वकोटि काल तक संयमासंयमको पालन करके मरा और सौधर्म कलपको आदि लेकर आरण, अच्युतान्तकरूपों में देवोंमें उत्पन्न हुआ। (ध.५/१,६,२३४/११५/६) ५ परन्तु प्रथमोपशमको नहीं प्राप्त कर सकते ध. ५४९.६ १२१/७३/३ सण्णिसम्मुच्छिम-पंचिदिएसुष्पाइय...पढम सम्मत्तग्गणाभावा। -संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूर्छन जीवों में प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण का अभाव है। (ध.६/१.६,२३७/११८/११)। ६. संमूछिमोंमें संयमासंयम व अवधिज्ञानकी प्राप्ति सम्बन्धी दो मत त्ति चुलियासुत्तादो।-१, मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकीसत्तावाला संज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ।... विशुद्धि हो वेदक सम्यक्वको प्राप्त हुआ। पश्चाद अवधिज्ञानी हो गया। (ध.१११, ६,२३४/११९,११७) । २. संज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में संयमासंयमके समान अवधिज्ञान और उपशम सम्यक्त्वकी सम्भवताका अभाव है। -प्रश्न-यह कैसे जाना है ! उत्तर-पंचेन्द्रियों में दर्शनमोहका उपशमन करता हुआ गर्भोत्पन्न जीवोंमे ही उत्पन्न करता है। सम्मुच्छिमों में नहीं, इस प्रकार चूलिका सूत्रसे जाना जाता है । ७. महामत्स्यकी विशालकायका निर्देश ध. ११/४,२,५,६/१६/६ के वि आइरिया महामच्छो मुहपुच्छेमु सुट सहओ त्ति भणं ति । एत्थतणमच्छे दटतण एदं ण घडदे, कपिलमच्छगेसु वियहिचारदसणादो । अधवा एदे विश्वं भुस्सेहा समवरणसिद्धा ति के वि आइरिया भणं ति। ण च सुद्छु सण्णमुहो महामच्छो अण्णेगजोयणसदोगाहणतिमि गिलादिगिलणखमो, विरोहादो। महामत्स्य मुख और पूछ में अतिशय सूक्ष्म हैं, ऐसा कितने ही अाचार्य कहते हैं। किन्तु यहाँके मत्स्योंको देखकर यह घटित नहीं होता, तथा कहीं-कहीं मत्स्योंके अंगों में व्यभिचार भी देखा जाता है। अथवा ये विष्कम्भ और उत्सेध समकरणसिद्ध हैं. ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। दूसरी बात यह है कि अतिशय सूक्ष्म मुख से संयुक्त महामत्स्य एक सौ योजन की अवगाहना वाले अन्य तिमिगिल आदि मरस्यों के निगलनेमें समर्थ नहीं हो सकता. क्योंकि विरोध आता है। ध.१४/५.६,५८०/४६७-४६८/१० ण च महामच्छउकस्सविस्सासुवचओ अणं तगुणो होदि, जह्मणबादरणिगोदवग्गणादो उक्कस्ससुहमणिगोदवग्गणार अणंतगुणत्तप्पसंगादो।... महामच्छाहारो पोग्गलकलावी पत्तेयसरीरबादर-सुहुमणिगोदवग्गणसहममेतो ण होदि किंतु तस्स पुट्ठीए संभूदउठ्ठियकलावो तत्तो सम्मुच्छिदपत्थरसज्जज्जुण-णिब-कर्यबंब जंवु-जंबीर-हरि-हरिणादयो च विस्ससोवच यंतभूदा दट्ठना। ण च तत्थ मट्टियादीणमुप्पत्ती असिद्धा, सइलोदए पदिदपण्णाण पि सिलाभावेण परिणामदंसणादो मुत्तिवुडपदिदोद बिंदूर्ण मुत्तालागारेण परिणामुवल भादो। ण च तत्थ सम्मुछिमपंचिदियजीवाणमुप्पत्ती असिद्धा, पाउसयार भवासजलधरणिसबंधेण भेगंदर-मच्छ-कच्छादीणमुप्पत्ति दंसणादो।... ण च एदेसि महामच्छत्तमसिद्ध'. माणुसजडसप्पण्णगंडुवालाणं पि माणुसक्वएम. बलभादो। सब्वे सिमेदेसि गहणादो सिद्ध उसस्सविस्सासुबचयस्स अणंतगुणतं । अधवा ओरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणुपोग्गलाणं बंधणगुणेण जे एयबंधणबद्धा पोग्गला विस्सासुवचयसणिया तेसि सचित्तवग्गणाणं अंतम्भावो होदि। ...जे पुण.. बंधणगुणेण तस्थ समवेदा पोग्गला · जीवेण अणणगय भावादो अलद्धसचित्तवग्गणववएसा ते एत्थ विस्सासुवचया घेत्तव्या। ण च णिज्जीवविस्सासुवचयाणं अत्थित्तमसिद्ध, रुहिर-वस-सुक्क-रस-सेंभ-पित्त-मुत्तरवरित्तमथुलिंगादीणं जीवव ज्जियाणं विस्सासुवचयाण मुवलभादो। ण च दंतहड़ वाला हव सव्वे विस्सासुवचया णिज्जीवा पञ्चवरखा चेत्र, अणुभावेण अगताणं विस्सासुवचयाणं आगमचक्रतु गोयराणमुवलं भादो। एदे विस्सासुवचय। महामच्छदेहभूदछज्जीवणिकायविसया अणं तगुणा त्ति घेत्तवा। प्रश्न-महामत्स्यका उत्कृष्ट विखसोपचय अनन्तगुणा नहीं है. क्योंकि जघन्य बादर निगोद वर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणाके अनन्तगुणे प्राप्त होनेका प्रसंग प्राप्त होता है 1 उत्तर-महामत्स्यका आहार रूप जो पुद्गल कलाप है. वह प्रत्येक शरीर, बादर-निगोद-वर्गणा और सूक्ष्मनिगोदवर्गणाका समुदायमात्र नहीं होता है किन्तु उसकी पीठपर आकर जमी हुई जो मिट्टीका प्रचय है वह और उसके कारण उत्पन्न हुए पत्थर, सर्ज नामके वृक्ष विशेष, अर्जुन, नीम, कदम्ब, आम, जामुन, जम्बीर, सिंह और घ.११६.२३४/११/११ अठावीससंतकम्मिओ सण्णि-समुच्छिमपज्जत्तएस"विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो तदो अंतोमुहत्तेण ओघिणाणी जादो। घ.५/१,६.२३७/११८/११ सण्णिसमुच्छिमपज्जत्तएम संजमासंजमस्सेव ओहिणाणुवसमसम्मत्ताणं संभवाभावादो। तं कधं णवबदे। पंचिदिएसु उवसातो गम्भोवक्कंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छियेमु' जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमूर्छन १२८ संयत ४. मारणान्तिक समुद्घात गत महामत्स्यका विस्तार -दे मरण/१/१६। ५. बीजवाला ही जीव या अन्य कोई भी जीव इस योनि स्थानमें जन्म धारण कर सकता है-दे. जन्म/२ । संमोह-पिशाच जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद-दे. पिशाच । संमोही भावना-भ.आ./म्./१८४/४०२ उम्मग्गदेसगो मग्गदूसणो मग्गविप्पडिवणी य। मोहेण य मोहितो संमोहं भावणं कुणइ ॥१८४॥ - जो मिथ्यात्वादिका उपदेश करनेवाला हो, जो सच्चे मार्गको अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप मोक्षमार्गको दूषण लगाता हो, जो मागसे विरुद्ध मिथ्यामार्ग को चलाता हो. ऐसा साधु मिध्यात्व तथा मायाचारीसे जगतको मोहता हुआ सम्मोही देवों में उत्पन्न होता है। (मू. आ./६७) संयत-बहिरंग और अन्तरंग आस्रबौंसे विरत होनेवाला महाव्रती श्रमण संयत कहलाता है। शुभोपयोगयुक्त होनेपर वह प्रमत्त और आत्मसंवित्ति मे रत होनेपर अप्रमत्त कहलाता है ।प्रमत्त संयत यद्यपि संज्वलनके तोवोदयवश धर्मोपदेश आदि कुछ शुभक्रिया करने में अपना समय गँवाता है, पर इससे उसका संयतपना घाता नहीं जाता, क्योंकि वह अपनी भूमिकानुसार हो वे क्रियाएँ करता है, उसको उल्लंघन करके नहीं। हरिण आदिक ये सब विखसोपचयमें अन्तर्भूत जानने चाहिए । वहाँ मिट्टी आदिकी उत्पत्ति असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शैलके पानी में गिरे हुए पत्तों का शिलारूपसे परिणमन देखा जाता है तथा शुक्तिपुट में गिरे हुए जलबिन्दुओंका मुक्ताफल रूपसे परिणमन उपलब्ध होता है। वहाँ पंचेन्द्रिय सम्मूछन जीवोंकी उत्पत्ति असिद्ध है पह बात भी नहीं है. क्योंकि वर्षाकालके प्रारम्भमें वर्षाकाल के जल और पृथिवीके सम्बन्धसे मेंढक, चूहा, मछली और कछुआ आदिकी उत्पत्ति देखी जाती है...इनका महामत्स्य होना असिद्ध है यह कहना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि मनुष्यके जठरमें उत्पन्न हुई कृमि विशेषको भी मनुष्य संज्ञा उपलब्ध होती है। इन सबके ग्रहण करनेसे उत्कृष्ट विनसोपचय अनन्तगुणा है यह बात सिद्ध होती है । अथवा औदारिक तैजस और कार्मण परमाणु पुद्गलोंके बन्धन गुणके कारण जो एक बन्धनबद्ध विनसोपचय संज्ञावाले पुद्गल हैं उनका सचित्त बर्गणाओं में अन्तर्भाव देखा होता है।... बन्धनगुणके कारण जो पुद्गल वहाँ समवेत होते हैं...और जो सचित्त वर्गणाओंको नहीं प्राप्त होते. इसलिए यहाँ विससोपचय रूपसे ग्रहण करना चाहिए । निर्जीव विस्रसोपचयों का अस्तित्व असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जीव रहित रुधिर, वसा, शुक्र, रस, कफ, पित्त, मूत्र, खरिस, और मस्तकमेंसे निकलनेवाले चिकने द्रव्यरूप विस्रसोचय उपलब्ध होते हैं। दाँतोंकी हड्डियों के समान सभी विससोपचय प्रत्यक्षसे निर्जीव होते हैं ग्रह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभाव के कारण आगम चक्षुके विषयभूत अनन्त विससोपचय उपलब्ध होते हैं । महामत्स्यके देहमें उत्पन्न हुए छह जीव निकायौंको विषय करनेवाले ये विससोपचय अनन्तगुणे होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । भ. आ./वि./१६४६/१४८६/७ उत्थानिका - आहारलोलुपतया स्वयंभूरमणसमुद्रे तिमितिमिगिलादयो मत्स्या महाकाया योजनसहस्रायामाः षण्मासं विवृतवदनाः स्वपन्ति । निद्राविमोक्षानन्तरं पिहिताननाः स्व जठरप्रविष्ट मत्स्यादीनाहारीकृत्य अवधिष्ठाननामधेयं नरकं प्रविशन्ति। तत्कण विलग्नमलाहाराः शालि सिक्थसंज्ञका: यदीदृशमस्माकं शरीरं भवेत् । किं निःसर्त एकोऽपि जन्तुर्लभते । सन्भिक्षयामीति कृतमनःप्रणिधानास्ते तमेवावधिस्थानं प्रविशन्ति । -स्वयंभूरमण समुदमें तिमि तिमिगिलादिक महामरस्य रहते हैं, उनका शरीर बहुत बड़ा होता है। उनके शरीरकी लम्बाई हजार योजन की कही है। वे मत्स्य छह मास तक अपना मुँह उघाड़कर नींद लेते हैं, नौंद खुलने के बाद आहारमें लुब्ध होकर अपना मुँह बन्द करते हैं, तब उनके मुँहमें जो मत्स्य आदि प्राणी आते हैं, उनको वे निगल जाते हैं। वे मत्स्य आयुष्य समाप्तिके अनन्तर अवधिस्थान नामक नरकमें प्रवेश करते हैं। इन मत्स्यों के कानमें शालि सिक्थ नामक मत्स्य रहते हैं, वे उनके कानका मल खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। उनका शरीर तण्डुलके सिक्थके प्रमाण होता है इसलिए उनका नाम सार्थक है। वे अपने मनमें ऐसा विचार करते हैं कि यदि हमारा शरीर इन महामत्स्यों के समान होता तो हमारे मुंहसे एक भी प्राणी न निकल सकता, हम सम्पूर्णको खा जाते। इस प्रकारके विचारसे उत्पन्न हुए पापसे वे भी अवधिस्थान नरकमें प्रवेश करते हैं। ८. अन्य सम्बन्धित विषय १ संयत सामान्य निर्देश | संयत सामान्यका लक्षण । प्रमत्त संयतका लक्षण । अप्रमत्तसंयत सामान्यका लक्षण । अप्रमत्तसंयत गुणस्थानके चार आवश्यक । -दे. करण/४। एकान्तानुवृद्धि आदि संयत । -दे. लब्धि/५॥ प्रमत्त व अप्रमत्त दो गुणस्थानोंके परिणाम अध: प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं। -दे, करण/४। * संयतोंमें यथा सम्भव भावोंका अस्तित्व। -दे, भाव/२। संयतोंमें आत्मानुभव सम्बन्धी। -दे, अनुभव/। स्वस्थान व सातिश अप्रमत्त निर्देश । सर्व गुणस्थानों में प्रमत्त अप्रमत्त विभाग । -दे. गुणस्थान/१/४। दोनों ( ६-७) गुणस्थानोंका आरोहण व अवरोहण क्रम। चारित्रमोहका उपशम, क्षय, वक्षयोपशम विधान । -दे. वह वह नाम । * | सर्व लघुकालमें संयम धारनेकी योग्यता सम्बन्धी। -दे. संयम/२। पुनः पुनः संयतपनेकी प्राप्तिकी सीमा। -दे. संयम/२॥ संयत गुणस्थानका स्वामित्व । मरकर देव ही होते हैं। -दे. जन्म/५,६ । १. संमूर्च्छन जीव नपुंसकवेदी होते हैं-दे. वेद/५/३ । २. चींटी आदि संमूच्छित कैसे हैं-दे. वेद/५/६ । ३. महामत्स्य मरकर कहाँ जन्म धारे इस सम्बन्धमें दो मत -दे. मरण/५/६। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ १. संयत सामान्य निर्देश भोगभूमिमें संयम न होनेका कारण। -दे. भूमि/ह। प्रत्येक मार्गणामें गुणस्थानोंके स्वामित्व सम्बन्धी शंका समाधान। -दे. वह वह नाम।। दोनों गुणस्थानोंमें सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ। --दे. सत। दोनों गुणस्थानों सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पशेन काल अन्तरभाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम। सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम। -दे. मार्गणा। दोनों गुणस्थानोंमें कर्म प्रकृतियोंका बन्ध, उदय, सत्व। -दे. वह वह नाम। संयत निर्देश सम्बन्धी शंकाएँ प्रमत्त होते हुए भी संयत कैसे। सामायिक स्थित भी गृहस्थ संयत नहीं। -दे.सामायिक/३। * व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयत नहीं है। -दे. चारित्र/३/८ । २ अप्रमत्तसे पृथक् अपूर्वकरण आदि गुणस्थान क्या हैं। संयतोंमें क्षायोपशमिक भाव कैसे। संज्वलनके उदयके कारण औदयिक क्यों नहीं। इन्हें उदयोपशमिक क्यों नहीं कहते। -दे.क्षयोपशम/२/३ । सम्यक्त्वकी अपेक्षा तीनों भाव हैं। फिर सम्यक्त्वकी अपेक्षा इन्हें औपशमिकादि क्यों नहीं कहते। सामायिक व छेदोपस्थापना संयतमें तीनों भाव कैसे। दे, संयम/१ | व्रत समिति आदि १३ प्रकारके चारित्रका सम्यक्त्वयुक्त पालन करना संयम है। उस संयमको धारण करनेवाला संयत है। दे. अनगार श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त, यति ये सब एकार्थवाची हैं। दे. बती [घरके प्रति जो निरुत्सुक है, वह संयत है।) दे. साधु/३/४ [ कषाय हीनताका नाम चारित्र है और कषायसे असंयत होता है। इसलिए जिस व जितने काल में साधु कषायोंका उपशमन करता है, उस व उतने कालमें वह संयत होता है। २. प्रमत्त संयतका लक्षण पं.सं./प्रा./१/१४ वत्तावत्तपमाए जो वसइ पमत्तसंजओ होइ । सयलगुणसीलकलिओ महबई चित्तलायरणो ।१४। जो पुरुष सकल मूलगुणोंसे और शील अर्थात उत्तरगुणोंसे सहित है, अतएव महावती, तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रमादसे रहता है अतएव चित्रल आचरणी है, वह प्रमत्त रयत कहलाता है ।१४। (ध. १११.१.१५/गा. ११३/१७८ ); (गो. जी./मू./१३/६२); ( इसका विवेचन दे. आगे) रा. वा./8/९/१७/५६०/३ तन्मुलसाधनोपपादितोपजननं बाह्यसाधनसंनिधानाविर्भावमापद्यमानं प्राणेन्द्रिय विषयभेदात् द्वितयी वृत्तिमास्कन्तं संयमोपयोगमात्मसात्कुर्वन् पञ्चदश विधप्रमादयशात् किचिप्रस्खलितचारित्रपरिणामः प्रमत्तसंयत इत्यारख्यायते। - उस संयमलब्धि (दे. लब्धि/११) रूप अभ्यन्तर संयम परिणामोंके अनुसार बाह्य साधनों के सन्निधानको स्वीकार करता हुआ प्राणिसंयम और इन्द्रियर्सयमको पालता हुआ भी पन्द्रह प्रकार के प्रमादोंके वदा कही कभी चारित्र परिणामोंसे स्खलित होता रहता है, अतः प्रमत्त संयत कहलाता है। ध. १/१.१ १४/१७४/१० प्रकर्षण मत्ताः प्रमत्ता, सं सम्यग यता विरताः संयताः । प्रमत्ताश्च ते संयताश्च प्रमत्तसंयताः । प्रकर्ष मे मत्त जीवको प्रमत्त कहते हैं. और अच्छी तरहमे विरत या संयमको प्राप्त जीवोंको संयत कहते हैं। जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं, उन्हें प्रमत्त संयत कहते हैं। गो. जी./म./३२/६१ संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो वि य तम्हा हु पमत्त विरदो सो ३२१ क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्यादि नोकषाय, इनके उदयसे उत्पन्न । होनेके कारण जिस संयममें मलको उत्पन्न करनेवाला प्रमाद पाया जाता है, वह प्रमत्तविरत कहलाता है। द्र. सं./टी./१३/३४/६ स एव सदृष्टिः...पञ्चमहावतेषु वर्तते यदा तदा दु'स्वप्नादिव्यक्ताव्यक्तप्रमादसहितोऽपि षष्ठगुणस्थानवी प्रमत्तसंयतो भवति। - संयमासंयमको प्राप्त वहीं सम्यग्दृष्टि जन पच महावतों में वर्तता है: तब वह दुःस्वप्नादि व्यक्त या अव्यक्त प्रमाद सहित होता हुआ छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत होता है। गो. जी./जी.प्र./३३/६३/४ प्रमत्तसंयतः चित्रलाचरण इत्युक्तम् । चित्रं प्रमाद मिश्रितं लातीति चिवलं आचरणां यस्यासौ चित्रलाचरण । अथवा चित्रनः मारंग', तद्वत् शवलितं आचरण यस्यासौ चित्रलाचरणः । अथवा चित्तं लातीति चित्तलं. चित्तल आचरण यस्यासौ चित्तलाचरणः, इति विशेष व्युत्पत्तिरपि ज्ञातव्या । 1-प्रमत्त संयतको चित्रलाचरण कहा गया है । 'चित्र' अर्थात प्रमादसे मिश्रित, 'लाति' अर्थात ग्रहण करता है उसे चित्रल कहते हैं। ऐसा चित्रल आचरण बाला चित्रलाचरण है। अथवा चित्रल नाम चीतेका है, उसके समान चितकबरे आचरण वाला चिवलाचरण है। अथवा 'चित्तं लाति' अर्थात् मनको प्रमादस्वरूप करे सो चित्तल, ऐसे चित्तल आचरणवाला चित्तलाचरण है। ऐसी विशेप निरुक्ति भी पाठान्तरको अपेक्षा जाननी चाहिए। प्रमादजनक दोष परिचय | आर्तध्यान व स्खलना होती है पर निरर्गल नहीं। | साधु योग्य शुभ कार्योंकी सीमा । शुभोपयोगी साधु भव्यजनोंको तार देते हैं। -दे. धर्म/॥२॥ ३ । परन्तु फिर भी संयतपना पाता नहीं जाता। १. संयत सामान्य निर्देश १. संयत सामान्यका लक्षण ध. १/१,१,३२३/३६६/१ सम् सम्यक् सम्यग्दर्शनज्ञानानुसारेण यताः बहिरङ्गान्तरङ्गास्रवेभ्यो बिरताः संयताः । = 'सम्' उपसर्ग सम्यक अर्थ का वाची है, इससिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक 'यताः' अर्थात जो बहिरंग और अन्तरग आस्रबोंसे विरत हैं उन्हें संयत कहते हैं। भा०४-१७ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयत १३० १. संयत सामान्य निर्देश ३. अप्रमत्त संयत सामान्यका लक्षण पं.सं./प्रा./१/१६ ण डासेसपमाओ वयगुणसीलोलिमडिओ णाणी। अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो सो १३ -जो व्यक्त और अव्यक्तरूप समस्त प्रकारके प्रमादसे रहित है, महावत, मूलगुण और उत्तरगुणोंकी मालासे मण्डित है, स्व और परके ज्ञानसे युक्त है और कषायों का अनुपशामक या अक्षपक होते हुए भी ध्यानमे निरन्तर लीन रहता है, वह अप्रमत्तसया कहलाता है। (ध. १/१.१.१/गा. ११६/१७६), (गो. जो./मू-/४६/१८)। रा.वा./8/१/१८/५६०/६ पूर्ववव सयममास्कन्दन पूर्वोक्तप्रमादविरहात् अविचलितसंयमवृत्तिः अप्रमत्तसंयतः समाख्यायते। -पूर्ववत (दे० प्रमत्तसंयतका लक्षण ) संयमको प्राप्त करके, प्रमादका अभाव होनेसे अविचलित संयमी अप्रमत्त संयत कहलाता है। ध, १/१,१,१५/१७०/७ प्रमत्तसंयताः पूर्वोक्तलक्षणाः, न प्रमत्तसं यता अप्रमत्तसंयताः पञ्चदशप्रमादरहितसंयता इति यावत् । -प्रमत्तसंयतोंका स्वरूप पहले कह आये हैं (दे० शीर्षक स./२)। जिनका संयम प्रमाद सहित नहीं होता है उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं। अर्थात संयत होते हुए जिन जीवोंके पन्द्रह प्रकारका प्रमाद नहीं पाया जाता है, उन्हें अप्रमन्तसयत समझना चाहिए । गो, जी./मू./४५/१७ संजलणणोकसायाणुदयो मदो जदा तदा होदि । अपमत्तगुणो तण य अपमत्तो संजदोहोदि। -जब क्रोधादि संत्रलन कषाय और हास्य आदि नोकपाय इनका मन्द उदय होता है, तब अप्रमत्तगुण प्राप्त हो जानेसे वह अप्रमत्त संयत कहलाता है।४।। (द्र. सं./टी./१३/१४/१०)। ४. स्वस्थान व सातिशय अप्रमत्त निर्देश गो. जी./जो. प्र./४५/89/ स्वस्थानाप्रमत्तः सातिशयप्रमत्तश्चेति द्वी भेदी। तत्र स्वस्थानाप्रमत्तसंयतस्वरूप निरूपयति । -अप्रमत्त संयतके स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त ऐसे दो भेद हैं। तहाँ स्वस्थान अप्रमत्तसंयतका स्वरूप कहते हैं। [ मूल व उत्तर गुणोंसे मण्डित, व्यक्त व अव्यक्त प्रमादसे रहित, कषायोंका अनुपशामक व अक्षपक होते हुए भी ध्यान में लीन अप्रमत्तसं यत स्वस्थान अप्रमत्त कहलाता है-गो, जी./मू./४६ (दे० शीर्षक नं. ३)] । ल.सा./मू./२०५/२५६ उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्भो अणं विज यित्ता । अंतो हुत्तकालं अधापवत्तो पमत्तो य ।२०६॥ ल. सा./जो...२२०/२७३/७ चारित्रमोहोपशमने कर्तव्ये अधःप्रवृत्त करणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरण...चेत्यष्टाधिकारा भवन्ति । तेष्वधःप्रवृत्तक । सातिशयाप्रमत्तसयतः...यथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखसातशयमिथ्यादृष्टेभणितानि...। - उपशमचारित्रके सम्मुख वेदक सम्यग्दृष्टि जीव (अप्रमत्त गुणस्थानमें) अनन्तानुबन्धोका विसंयोजन करके अन्तर्मुहर्त काल पर्यन्त अध प्रवृत्त अप्रमत्त कहलाता है ।२०। बारित मोहके उपशमनमें अध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि आठ अधिकार होते हैं। उनमें से जो अध.प्रवृत्तकरण, अप्रमत्तमं यत है वह,सातिशय अप्रमत्त कहलाता है, जिस प्रकार कि प्रथमोपशम सम्यक्थ्यके सम्मुख जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि होता है। ५. दोनों गुणस्थानोंका आरोहण व अवरोहण क्रम १. अप्रमत्तपूर्वक ही प्रमत्त गुणस्थान होता है ध. १/१.६,१२१/७४/८ उषसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जगवं पडिवण्णो पमत्तो जादो हेवा पडिदूर्ण तरिदो सगढिदि परिभमिय अपच्छिमे भवे मणुसो जादो । .. अंतोमुहत्ताबसैसे संसारे अप्पमत्तो होदूण पमत्तो जादो। लद्धमतरं। ध./१६,१२१/७५/२ उबसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो... अंतरिदो...मणुस्सेसु अववण्णो.. अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विमुद्धो अप्पमत्तो जादो। तदो पमत्ती अप्पमत्तो ...। ध.५/१,६,३५६/१६५/३ एको सेडोदो ओदरिय असंजदो जादो। तत्थ अंतोमुत्तमच्छिय संजमासंजमं पडिवण्णो। तदो अप्पमत्तो पमत्तो होदूण असंजदो जादो। लद्धमुक्कस्संतरं। ध, १/१.६,३६३/१६७/३ एको सेडोदो ओदरिय संजदासजदो जादो। अंतोमुत्तमच्छिय अप्पमत्तो पमत्तो असंजदो च होण संजदासजदो जादो। लद्धमुक्कस्संतरं । -१. ( कोई जीव ) उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तसंयतको एक साथ प्राप्त हुआ. पश्चात प्रमत्तसंयत हुआ। पीछे नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थिति प्रमाण परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें मनुष्य हुआ। अन्तर्मुहूर्त काल संसारमें अवशिष्ट रहने पर अप्रमत्त संयत होकर पुनः प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकार प्रमत्तसयतका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। २. ( कोई जोव) उपशम सम्यक्त्व व अप्रमत्त गुणस्थानको युगपत् प्राप्त हुआ। पश्चात अन्तरको प्राप्त हो मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। संसारके अन्तर्मुहूर्त अबशेष रहने पर विशुद्ध हो अप्रमत्त संयत हुआ। पश्चात् प्रमत्तसंयत हो पुन: अप्रमत्त संयत हुआ। इस प्रकार अप्रमत्त संयतका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। ३. एक संयत उपशम श्रेणीसे उतरकर असंयत सम्यग्दृष्टि हुआ। वहाँ अन्तर्मुहर्त रहकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। पश्चात अप्रमत्त और प्रमत्त संयत होकर असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। इस प्रकार प्रकार उपशम सभ्यग्दृष्टि असंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ।४. एक संयत उपशम श्रेणीसे उतरकर संयतासंयत हुआ। अन्तमुहूर्त रहकर अप्रमत्तसंयत, प्रमत्तसंयत और असंयत सम्यग्दृष्टि होकर पुनः सयतासंयत हो गया। इस प्रकार संयतासंयत उपशम सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। ५. {इसी प्रकार काल व अन्तर प्ररूपणाओं में सर्व पहले अप्रमत्त गुणस्थान प्राप्त कराके पीछे प्रमत्त गुणस्थान प्राप्त कराया गया है। (और भी दे० गुणस्थान/२/१)। २. आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी कुछ नियम ध,४/१.१.६/१४३/६ तस्स संकिलेस-विसोही हि सह पमत्तापुम्बरणे मोत्तूण गुणं तरगमणाभावा। मदस्स वि असं जदसम्मादिट्टि दिरित्तगुणं तरगमणाभावा। -अप्रमत्तसयत जीवके संक्लेशकी वृद्धि हो तो प्रमत्त गुणस्थानको और यदि विशुद्धिकी वृद्धि हो तो अपूर्वकरण गुणस्थानको छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमनका अभाव है। यदि अप्रमत्त संयत जीवका मरण भी हो तो असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन नहीं होता है। [ल. सा./ मू. व जी. प्र/३४६/४३५)। दे० उपशीर्षक सं. १/१,२ [ मिथ्यादृष्टि सीधा सम्यक्त्व व अप्रमत्त गुण। स्थानको युगपत् प्राप्त कर सकता है। तथा संयतासंयतसे भी सीधा अप्रमत्त हो सकता है। दे. गुणस्थान/२/१ [ आरोहणकी अपेक्षासे अनादि व सादि दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि, तीनों सम्यवत्वोसे युक्त सम्यग्दृष्टि, संयत्तासंयत व प्रमत्त संयत ये सब सीधे अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त कर सकते हैं। अवरोहणकी अपेक्षासे अपूर्वकरण गुणस्थानवी ही अप्रमत्तसंयतको प्राप्त होता है अन्य नही और अप्रमत्तसं यत ही प्रमत्तसंयतको प्राप्त है अन्य नहीं।] दे. काल/६/२ [ अपने उत्कृष्ट काल पर्यंत प्रमत्त संयत रहे तो नियमसे मिथ्यात्वको प्राप्त होता है। ६. संयत गुणस्थानोंका स्वामित्व गो.जी./मू./०१० दुविहं पि अपज्जत्तं ओघे मिच्छेब होदि णियमेण । सासण अयद पमते णिवत्तिअप्पुण्णगो होदि १७६०॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयत २. संयत निर्देश सम्बन्धी शंकाएँ गो.जी./जी. प्र./७०३/६ प्रमत्ते मनुष्याः पर्याप्ता; साहारकळ यस्तु उभये। अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्ताः पर्याप्ताः । -१. निवृत्ति व लब्धि ये दानों प्रकारके अपर्याप्त नियमसे मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। सासादन असयत व प्रमत्तसंयतमें नित्यपर्याप्त आलाप तो होता है ( पर लब्ध्यपर्याप्त नहीं ) । २. प्रमत्तसंयत मनुष्य पर्याप्त होते हैं परन्तु आहारक ऋद्धि सहित पर्याप्त व अपर्याप्त (नित्यपर्याप्त) दोनों होते हैं और अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत केवल पर्याप्त ही होते हैं । ( और भी दे./काय/२/४ )। दे. मनुष्य/२/२ [ मनुष्यगतिमें ही सम्भव है।] दे, मनुष्य/३/२ [ मनुष्य व मनुष्यनियाँ (भावसे स्त्रीवेदी और द्रव्यसे पुरुषवेदी) दोनों में सम्भव है। वहाँ भी कर्मभूमिजोंमें ही सम्भव है भोगभूमिजों में नहीं, आर्यखण्डमें ही सम्भव है म्लेच्छ खण्डों में नहीं, आर्यखण्ड में आकर म्लेच्छ भी तथा उनको कन्याओंसे उत्पन्न हुई सन्तान भी कदाचित् संयत हो सकते हैं, विद्याओंका त्याग कर देनेपर विद्याधरों में भी सम्भव है अन्यथा नहीं।] दे. वह बह गति-[नरक तिथंच व देव गतिमें सम्भव नहीं। दे, आयु/६/७ [ देव आयुके अतिरिक्त अन्य तीन आयु जिसने पहिले बाँध ली है, उसको संयमकी प्राप्ति नहीं हो सकती।] दे. चारित्र/३/७-८ [मिथ्यादृष्टि व्रतीको भी संयत नहीं कहा जा सकता २. अप्रमत्तसे पृथक अपूर्वकरणादि गुणस्थान क्या हैं ध. १/१,९,१५/१७/८ शेषाशेषसं यतानामत्रैवान्तर्भावाच्छेषसंयतगुणस्थानानामभाव: स्यादिति चेन्न. संयतानामुपरिष्टात्प्रतिपद्यमानविशेषणाविशिष्टानामस्तप्रमादानामिह ग्रहणात् । प्रश्न-बाकी के सम्पूर्ण संयतोंका इसी अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमे अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए शेष गुणस्थानों का अभाव हो जायगा। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, जो आगे चलकर प्राप्त होनेवाले अपूर्वकरण आदि विशेषणोंसे अविशिष्ट है अर्थात भेदको प्राप्त नहीं होते हैं और जिनका प्रमाद नष्ट हो गया है, ऐसे संयतोंका ही यहाँपर ग्रहण किया गया है, इसलिए आगेके समस्त गुणरथानोंका इसमें अन्तर्भाव नहीं होता है। ३. संयतोंमें क्षायोपशमिक भाव कैसे दे. वेद/७ -[ द्रव्य स्त्री संयत नहीं हो सकती।] २. संयत निर्देश सम्बन्धी शंकाएँ १. प्रमत्त होते हुए भी संयत कैसे ध.१/१,१.१४/१७६/१ यदि प्रमत्ताः न संयताः स्वरूपासंवेदनाद । अथ संयताः न प्रमत्ताः संयमस्य प्रमादपरिहाररूपत्वादिति नैष दोषः, संयमो नाम हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिः गुप्तिसमित्यनुरक्षितः नासौ प्रमादेन विनाश्यते तत्र तस्मान्मलोत्पत्तेः ।। संयमस्य मलत्पादक एवात्र प्रमादो विवक्षितो न तद्विनाशक इति । कुतोऽवसीयत इति चेत् संयमाविनाशान्यथानुपपत्त । न हि मन्दतमः प्रमादः क्षणक्षयी संयम विनाशकोऽसति विबन्धर्यनुपलब्धः। -प्रश्न-यदि छठे गुणस्थानवर्ती जोव प्रमत्त हैं तो संयत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, उनको अपने स्वरूपका संवेदन नहीं हो सकता है। यदि वे संयत हैं तो प्रमत्त नहीं हो सकते हैं, क्योंकि संयम भाव प्रमादके अभावस्वरूप होता है ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, हिसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापोंसे बिरतिभावको संयम कहते हैं, जो कि तीन गुप्ति और पंच समितियों से अनुरक्षित हैं (दे, संयम/१) । वह संयम वास्तव में प्रमादसे नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, संयममें प्रमादसे केवल मलकी ही उत्पत्ति है । प्रश्न - ऐसा ही सूक्ष्म प्रमाद यहाँ विवक्षित है, यह कैसे जाना ? उत्तर-छठे गुणस्थानमें संयमका बिनाश न होना अन्यथा बन नहीं सकता। वहाँ होनेवाला स्वरूप कालवी मन्दतम प्रमाद संयमका नाश भी नहीं कर सकता है, क्योंकि, सकल संयमका उत्कट रूपसे प्रतिबन्ध करनेवाले प्रत्यारण्यानावरण के अभाव में सयमका नाश नहीं पाया जाता। गो. जी. जी. प्र./३३/६३/४ अत्र साकल्यं महत्त्वं च देश संयत्तापेक्षया ज्ञातव्यं, ततः कारणादेव प्रमत्तसं यतः चित्रलाचरण इत्युक्तम् । यहाँ सकल चारित्रपना या महावतपना अपनेसे नोचेवाले देशसंयम की अपेक्षा जानना चाहिए अपनेसे ऊपरके गुणस्थानों की अपेक्षा नहीं। इस लिए ही प्रमत्तसंयतको चित्रलाचरण कहा गया है। ध. १/१.१,१४/१७६/७ पञ्चसु गुणेषु के गुणमाश्रित्यायं प्रमत्तसंयतगुण उत्पन्नश्चेत्संयमापेक्षया क्षायोपश मिकः । कथम् । प्रत्याख्यानावरणसर्वघातिस्पर्धकोदयक्षयात्तेषामेव सतामुदयाभावलक्षणोपशमात संज्वलनोदयाच्च प्रत्याख्यानसमुत्पत्तः। -प्रश्न-पाँचों भावों से किस भाव का आश्रय लेकर यह प्रमत्त संयत गुणस्थान उत्पन्न होता है। उसर-संयमकी अपेक्षा यह क्षायोपशमिक है। प्रश्न-क्षायोपशमिक किस प्रकार है । उत्तर-१. क्योकि वर्तमानमें प्रत्यारण्यानावरणके सर्वघाती स्पर्धकोके उदय क्षय होनेसे और आगामी कालमें उदयमें आनेवाले सत्तामें स्थित उन्होंके उदयमें न आनेरूप उपशमसे तथा संज्वलन कषायके उदयसे प्रत्याख्यान अर्थात संयम उत्पन्न होता है इसलिए क्षायोपशमिक है। [बिलकुल इसी प्रकार अप्रमत्तगुणस्थान भी क्षायोपशमिक है-(ध. १/१,१,१५/१७६/२)] (ध. ५/१,७,७/२०३/१)। घ.७/२.१.४६/१२/४ कई व ओवसमिया लद्धी। चदुसंज्वलण-णवणोकसायाणं देसघादिफयाणमुदयेण संजमुत्पत्तीदो। कधमेदेसिं उदयस्स खोवसमववएसो। सबधादिफयाणि ( दे. क्षयोपशम/१/१) ।... एवं सामाइयच्छेदोवट्ठाणसुद्धिसंजदाणं पिबत्तब्ब-प्रश्न-१.सं यतके क्षायोपशामिक लब्धि कैसे होती है ? उत्तर-२. चारों संज्वलन कषायों और नौ नोकषायों के देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे संयमकी उत्पत्ति होती है, इस प्रकार संयतके क्षायोपशमिक लब्धि पायी जाती है। प्रश्न-नोकषायों के देशघाती स्पर्धकों के उदयको क्षयोपशम नाम क्यों दिया गया । उत्तर-[ सर्वघाली स्पर्धकोंकी शक्तिका अनन्त गुणा होना ही क्षय है और देशघाती स्पर्धकों के रूपमें उनका अवस्थान उपशम है। दोनों के योगसे क्षयोपशम नाम सार्थक है (दे. क्षयोपशम/१/१)] इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसं यतोंके विषय में भी कहना चाहिए। घ. १/१.७.७/२०२/३ पच्चक्रवाणावरण-चदुसंजलणणवणोकसायाणमुद. यस्स सव्वापणा चारित्तविणासणसत्तीए अभावादी तस्स खयमण्णा। तेसिं चेव उप्पण्णचारित्तं सेडिबाबार तस्स उबसमसण्णा। तेहि दोहितो उम्पण्णा एदे तिणि वि भावा खोबसमिया जादा । ३. प्रत्यारव्यानावरण, संज्वलन चतुष्क और नवनोकषायोके उदयके सर्वप्रकारसे चारिच विनाश करनेको शक्तिका अभाव है, इसलिए उनके उत्यकी क्षय संहा है. उन्हीं प्रकृतियोंको उत्पन्न हुए चारित्रको अथवा श्रेणीको आवरण नहीं करनेके कारण उपशम संज्ञा है। क्षय और उपशम इन दोनोंके द्वारा उत्पन्न हुए ये उक्त तीनों भाव (संयतासं यत, प्रमत्तस यत और अप्रमत्तसंग्रत ) भी क्षायोपशमिक हो जाते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयत ३. प्रमादजनक दोष परिचय ४. संज्वलनके उदयके कारण औदयिक क्यों नहीं ध. १/१.१.१४/१७७/१ संज्वलनोदयात्संयमो भवतीत्यौदयिक व्यपदेशोऽस्य कि न स्यादिति चेन्न, ततः संयमस्योत्पत्तेरभावात् । क तद् पाप्रियत इति चेत्प्रत्याख्यानावरणसर्वधातिस्पर्धकोदयक्षयसमुत्पन्न संयममलोत्पादने तस्य व्यापार' | प्रश्न-संज्वलन कषायके उदयसे संयम होता है, इसलिए उसे औदयिक नामसे क्यों नहीं कहा जाता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, संचलन कषायके उदयसे संयमकी उत्पत्ति नहीं होती है। प्रश्न-तो संज्वलनका व्यापार कहाँ पर होता है। उत्तर-प्रत्याख्यानावरण कषायके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षयसे उत्पन्न हए संयममें मलके उत्पन्न करने में संज्वलनका व्यापार होता है।। ५. सम्यक्त्वकी अपेक्षा तीनों भाव हैं ध. १/१,१,१४/१७७/४ संयम निबन्धनसम्यक्त्वापेक्षया क्षायिकक्षायोपशमिकापशमिक गुण निबन्धनः । -संयमके कारणभूत सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो यह गुणस्थान क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावनिमित्त क है। (और भी दे. भाव/२/१०)। 11)। वह प्रमाद वश कदाचित चारित्रके परिणामोंसे स्खलित भी हो जाता है-(दे. संयत/१/२)। उसका आचरण चित्रल होता है(दे. संयत/१/०)। परन्तु यह आते ध्यान सर्वसाधारण नहीं होता। -(दे. अगले संदर्भ )]। र, सा./११०-१११ बसहोपडिमोवयरणे गणगच्छे समयसंगजाइकले। सिस्सपडिसिस्सछत्ते सुयजाते कप्पड़े पुच्छे ।११०। 'पिच्छे संथरणे इच्छाम लोहेण कुणइ ममयाई। यावच्च अट्टरुद्द ताव ण मुंचेदिण ह सोक्खं ।११। -वसतिका, प्रतिमोपकरण, गण, गच्छ, समय, जाति, कुल, शिष्य, प्रतिशिष्य, विद्यार्थी, पुत्र, पौत्र, कपड़े, पुस्तक. पीछी, संस्तर, आदिमें लोभसे जो साधु ममत्व करता है, तथा ममरव करनेके कारण जन तक आतं और रौदध्यान करता है, तब तक क्या वह मोक्षसुख से वंचित नहीं रहता ।११०-१११॥ ज्ञा./२६/४१-४२ इत्यात रौद्रे गृहिणामजस्त्र ध्याने सुनिन्छ' भवतः स्वतोऽपि। परिग्रहारम्भकषायदोषै : कलङ्कितेऽन्त करणे विशङ्कम। ।४११ क्वचिकचिदमी भावाः प्रवर्तन्ते मुनेरपि । प्राकर्म गौरवाच्चित्रं प्रायः संसारकारणम् ।४२ - इस प्रकार ये आप्त और रौद्रध्यान गहस्थियोंके परिग्रह आरम्भ और कषायादिके दोषसे मलिन अन्त:करणमें स्वयमेव निरन्तर होते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।४। और कभी-कभी ये भाव पूर्वमकी विचित्रतासे मुनिके भी होता है। बाहुल्यसे ये संसारके कारण हैं ।४२१ ।। दे, गुरु/२/२ [ कदाचित शिष्यको लात तक मार देते है।) दे. अपबाद/३ [ परोपकारार्थ कदाचित् मन्त्र तन्त्र व शस्त्रावि भी प्रदान करते हैं। दे. अपवाद/४/३ । परन्तु योग्य ही उपधिका ग्रहण करता है अयोग्य का नहीं। दे. साधु/२/- [ बिना सोधे आहारादिका ग्रहण नहीं करता, मैत्रीभाव से रहित हो पैशुन्य आदि भाव नहीं करता। दूसरोंको पीड़ा नहीं देता. आरम्भ व सावध कार्य नहीं करता। मन्त्र तन्त्र आदिका प्रयोग नहीं करता इत्यादि। दे. तीसरा शीर्षक-[ यद्यपि संज्वलनके तीव्र उदयसे अनेकों प्रकारके शुभ कार्यो में रत रहता है, शुद्धात्म भावनासे च्युत हो जाता है, परन्तु फिर भी वह संयतपनेको उल्लंघन नहीं करता। ६. फिर सम्यक्त्वकी अपेक्षा इन्हें औपशमिकादि क्यों नहीं कहते ध. १.७.७/२०३/१० दसणमोहणीयकम्मस्स उबसमखय-रखओयसमै अस्सिदूण संजदासजदादीणमोवस मियादिभावा किण्ण परूविदा। ण, तदो संजमासंजमादिभावाण मुप्पत्तीए अभावादो। ण च एत्थ सम्मत्त विसया पुच्छा अस्थि, जेण दसणमोहणिबंध: ओनसमियादिभावे हि संजदासंजदादी बवएसो होज्ज । ण च एवं तधाणुवलंभा। प्रश्न-दर्शनमोहनीयकर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशमका आश्रय करके संयतासयतादियों के औपशमिकादि भाव क्यों नहीं बताये गये : उत्तर-नहीं. क्योंकि. दर्शनमोहनीयकमके उपशमादिसे संयमासंयम आदि भावों की उत्पत्ति नहीं होती। दूसरे, यहाँपर सम्यक्त्व विषयक पृच्छ ( प्रश्न) भी नहीं है, जिससे कि दर्शनमोहनीय निमित्तक औपशमिका दि भावोंकी अपेक्षा संयतासंयतादिकके औपश भिकादि भावोंका व्यपदेश हो सके। ऐसा है नहीं. क्योंकि उस प्रकार की व्याख्या नहीं पायी जाती है। दे. सान्निपातिक-[ अथवा सान्निपातिक भावोंकी अपेक्षा करने पर यहाँ औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशामिक व पारिणामिक इन चारों भावोंके द्वित्रि आदि संयोगी अनेक भंग बन जाते हैं। ७. सामायिक व छेदोपस्थापनामें तीनों भाव कैसे ध.७/१,१,४६/६३/8 कधमेकस्स चरित्तस्स तिणि भावा। ण एकस्स विचित्तपयंगस्स बचण्णदंसणादो। -[संयत सामान्य, सामायिक वछेदोपस्थापना संयम इनमें औषशामिक, क्षायिक व क्षायोपशामिक तीनों भाव संभव हैं-दे. भाब/२/१०] । प्रश्न-एक ही चारित्रमें औपशमिकादि तीनों भाव कैसे होते हैं ! उत्तर-जिस प्रकार एक . ही बहुवर्ण पक्षीके बहुत से वर्ण देखे जाते हैं, उसी प्रकार एक ही चारित्र नाना भावों से युक्त हो सकता है। ३. प्रमादजनक दोष परिचय १. आर्तध्यान व स्खलना होते है पर निरर्गल नहीं नोट- साधुको प्रमाद बश आर्तध्यान होना सम्भव है--( दे. आत ध्यान/३)। परन्तु उसे रौद्रध्यान कदापि नहीं होता ( दे. रौद्रध्यान/८)। बकुश व प्रतिसेवना कुशील साधुको भी उपकरणों में आसक्ति होनेके कारण कदाचित आर्तध्यान सम्भव है (दे. साधु/ २. साधु योग्य शुभ कार्योकी सीमा प्र. सा./मू./गा, बालो वा बुड्ढो समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदु सजोग्गं मूलच्छेदो जधाण हव दि २३० अरहंतादिम भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजत्ता भबे चरिया ।२४६। बंदणणसणे हि अट ठाणाणुगमणपडिवसी। समणेसु समावणओण' किंदिदा रायच रियाम्हि ।२४७दसणणाणूबवेसो सिस्सरगहण च पोसणं तेसि । चरिया हि सरागाणं जिणिदप्लजोबदेसो य ।२४८. उबकुण दि जो चि णिच्च चादुव्यण्णस्स समणसंघस्स। कायबिराधणहिदं सो बि सरागप्पधाणो से ।२४। जोण्हाणं हिरवेक्त्रं सागारणगारचरियजुत्ताणं। अणुकंपयोवयार कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो ।२५। रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं। दिठा समणं साह पडिबज्जद् आदसत्तीए ।२१२। -बाल, वृद्ध, श्रान्त, या ग्लान श्रमण मूलका छेद जैसे न हो उस प्रकारसे अपने योग्य आचरण करो ।२३० [अर्थात युवाकी अपेक्षा वृद्ध और स्वस्थकी अपेक्षा रोगी में यद्यपि अवश्य ही कुछ शिथिलता होती है, और इसलिए उनकी क्रियाओं में भी तरतमता होती पर वह मूलगुणोंको उनलंघन नहीं कर पाती] | श्रामण्यमें यदि अरहतादिकोंके प्रति भक्ति तथा प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य पाया जाता है, वह शुभयुक्त चर्या है ।२४६। श्रमणों के प्रति वन्दन, नमस्कार सहित अभ्युत्थान और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति करना तथा उनका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयत संयतासंयत श्रम दूर करना रागचर्याय निन्दित नहीं है ।२५७) दर्शनज्ञानका उपदेश, शिष्योंका ग्रहण तथा उनका पोषण और जिनेन्द्रकी पूजाका उपदेश वास्तव में सरागियोंकी चर्या है ।२४८० जो कोई सदा छह कायकी विराधनासे रहित चार प्रकारके श्रमणसंघका उपकार करता है, वह भी रागकी प्रधानतावाला है ।२४। यद्यपि अल्प लेप होता है तथापि साकार अनाकार चर्या युक्त ( अर्थात् शुद्धात्माके ज्ञानदर्शनमें प्रवर्तमान वृत्तिवाले ) जैनोंका अनुकम्पासे निरपेक्षतया ( शुभोपयोगसे ) उपकार करो ।२५१॥ रोगसे, श्रुधासे, तृषासे अथवा श्रमसे आक्रान्त श्रमणको देखकर साधु अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्ति आदि करो ।२५२।। मू. आ./६१५ पोसह उत्रओ परखे तह साहू जो करेदि णियदं तु । णावाए कालाणं चादुम्मासेण णियमेण ११॥ = जो साधु चातुमासिक प्रतिक्रमणके नियमसे दोनों चतुर्दशी तिथियों में प्रोषधी पवास अवश्य करता है वह सुखकी प्राप्ति अवश्य करता है ।१५॥ र. सा./EE तच्चवियारणसीलो मोक्खपहाराहणसहावजुदो। अणवरयं धम्मकहापसंगदो होइ मुणिराओ। - जो मुनिराज सदा आत्मतत्त्वके विचार करनमें लीन रहते हैं, मोक्षमार्गको आराधन करनेका 'जिनका स्वभाव हो जाता है, और जिनका समय निरन्तर धर्मकथामें हो लीन रहता है. वे ही यथार्थ मुनिराज कहाते हैं। दे० संयम/१/६ [वत, समिति, गुप्ति, आदि पालन साधुका धर्म है और दामपूजा आदि गृहस्थोंका। दे,साधु/२/२ [पाँच महावत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का रोध, केशलोंच, षड् आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधोवन, स्थिति भोजन, एकभुक्ति ये तो साधुके २८ मूलगुण हैं और १८००० शील व ८४०००,०० उत्तर गुण इन सबका यथा योग्य पालन करता है। दे. कृतिकर्म/१/१ [ देव बन्दना. आचार्य वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि साधुके नित्यकर्म है।] दे. वैयावृत्त्या८ [वैयावृत्त्यके अर्थ लौकिक जनोंके साथ मातचीत करना निन्द्य नहीं है। दे. अपवाद/३ सल्लेखना गत क्षपकके लिए आहार वर्तन आदि माँगकर लाते हैं, उनको तेलमर्दन करते हैं, गर्मियों में शीतोपचार और सर्दियों में उष्णोपचार करते हैं, कदाचित उसको अनीमा लगाते हैं, क्षपकके मृत शरीरके अंग आदिका छेदन करते हैं, इत्यादि अनेकों अपवाद ग्रस्त क्रियाएँ भी कारण व परिस्थिति वश करता है।] नात्मन्यतत्परः ।६८२॥ तत्रावश्यं विशुद्धय शस्तेषां मन्दोदयादिति । संक्लेशांशोऽथवा तीव्रोदयानाय विधिः स्मृतः ।६८३. किन्तु देवाद्विशुद्धबंशः संक्लेशांशोऽथवा क्वचित । तद्विशुद्धेर्विशुद्धबंशः संक्लेशाशोदयः पुनः ६४तेषां तीवोदयस्तावदेताबानत्र बाधकः । सर्वतश्चेत्प्रकोपाय नापराधोऽपरोऽस्त्यतः ।६८॥ तेनात्रैतावता नून शुद्धस्यानुभवच्युतिः। कत्तु न शक्यते यस्मादत्रास्त्यन्यः प्रयोजक: ६८६। = जो मोहसे अथवा प्रमादसे जितने काल तक वह लौकिकी क्रियाको करता है उतने काल तक अन्तरंग व्रतोसे च्युत होनेके कारण वह आचार्य नहीं है ।६५७। वास्तवमें संज्वलन कषायका तीव या मन्द उदय ही चारित्रको क्षति व अक्षतिमें हेतु है।६८० संक्लेशसे क्षति होती है और असंक्लेशसे अक्षति । वह संक्लेश भी तरतमताकी अपेक्षा अनेक प्रकारका है और वह तरतमता भी अपने कारणोंकी अपेक्षा अनेक प्रकार की है।६८१॥ उस संक्लेश या विशुद्धिके योगसे आचार्यके शिथिलता होवे या न होवे परन्तु इतने मात्रसे उनकी आत्मामें अतत्परता सिद्ध नहीं होती।६२ तथा उस संज्वलनके मन्दोदयसे होनेवाला विशुद्धि अंश और उसके तीवोदयसे होनेवाला संक्लेश अंश ये दोनों ही उस आचार्य पदके साधक या बाधक नहीं हैं, कर्मोदयवश कभी विशुद्धि अंश और कभी संक्लेश अंश उनके पाये ही जाते हैं । ६८३-६८४। उसका तीव उदय बास्तबमें उस विशुद्धिका ही बाधक है, पर आचार्य पदका नहीं। यदि वह संक्लेश आचार्य पदका ही बाधक हो जाय तो फिर उससे बड़ा कोई अपराध ही नहीं है। अर्थात् फिर उसे मल दोष न कहकर अपराध कहना चाहिए ।६८५ उस तीवोदयके द्वारा उनकी आत्मा शुद्धात्मानुभवसे च्युत नहीं को जा सकती, क्योंकि ऐसा करने में संज्वलनका तीव्र उदय नहीं बल्कि मिथ्यात्व का उदय कारण है ।६८६॥ दे. संयत/२/१ [बत समिति गुप्ति रूप चारित्र प्रमादसे नष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका प्रतिबन्धक प्रत्याख्यानावरण है, न कि संयतोंमें पाया जानेवाला संज्वलनका स्वल्पकालिक मन्दतम उदय। दे. संयत/२/४ [ संज्वलनके उदयसे संयममें केवल मल उत्पन्न होता है, उसका विनाश नहीं। दे. धर्म/६/६ [ व्यवहाररूप शुभधर्म प्रायः गृहस्थों को होता है, साधुओंके केवल गौणरूपसे पाया जाता है।] संयतासंयत-संयम धारनेके अभ्यासकी दशामें स्थित कुछ संयम और कुछ असंयम परिणाम युक्त श्रावक संयतासं यत कहलाता है। विशेष दे. श्रावक । ३. परन्तु फिर भी संयतपना धाता नहीं जाता प्र. सा./मू./२२१-२२२ किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदवम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि २२१। छेदो जेण ण विजदि गहण बिसग्गेसु सेवमाणस्स । समणो तेणिह बढ्दु कालं खेत्तं बियणित्ता १२२२२ = प्रश्न-उपधिके सद्भावमें उस भिक्षुके मूर्छा आरम्भ या असंयम न हो यह कैसे हो सकता है, तथा जो परद्रव्यमें रत हो वह आत्माको कैसे साध सकता है ।२२१। उत्तरजिस उपधिके ग्रहण विसर्जनमें, सेवन करने में, जिससे सेवन करनेवालेके छेद नहीं होता, उस उपधियुक्त [ अर्थात् कमण्डलु पीछी व शास्त्ररूप लौकिक जनोंके द्वारा अप्रार्थनीय उपधियुक्त-दे. अपबाद/४/३] काल, क्षेत्रको जानकर इस लोकमें श्रमण भले वर्ते ।२२२॥ पं.ध/उ./६५७, ६८०-६८६ या मोहात्प्रमादाद्वा कुर्याद्या लौकिको क्रियाम् । तावत्काल स नाचार्योऽप्यस्ति चान्तवताच्युत. १६५७ सति संज्वलनस्योच्चैः स्पर्धकाः देशघातिनः । तद्विपाकाऽस्त्यमन्दो + वा मन्दो हेतुः क्रमाद्वयाः ६८०। संक्लेशस्तक्षतिनं विशुद्धिस्तु तवक्षतिः। सोऽपि तरतमस्वांशैः सोऽप्यनेकैरनेकधा ६८१। अस्तु यद्वा न शैथिल्यं तत्र हेतुशादिह । तथाप्येतावताचार्यः सिद्धो १ संयतासंयतका लक्षण । संयतासंयतका विशेष स्वरूप । -दे, श्रावका संयम व असंयम युगपत् कैसे । संयतासंयतके ११ अथवा अनेक भेद । -दे. श्रावक/१/२। संयमासंयम आरोहण विधि। -दे. क्षयोपशम/३ । गुणस्थानोंमें परस्पर अवरोहण आरोहण क्रम। -दे. गुणस्थान/२/१1 इसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरारूप होते हैं । -दे. करण/४। | इसके परिणामोंमें चतुःस्थानपतितहानि वृद्धि । | इसमें आत्मानुभवके सद्भाव सम्बन्धी। -दे. अनुभव/1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयतासंयत १३४ संयतासंयत ११३॥ (ध. १/१,१,१२३/गा. १९२/३७३); (गो. जी./४७६/८८३) रा. बा./२/५/८/१०८/७ विरताविरत परिणामः क्षायोपशमिकः संयमा संयमः । रा. वा./4/१२/७/५२२/२७ संयमासंयमः अनात्यन्तिकी विरत्तिः । -क्षायोपशमिक विरताविरत परिणामको संयमासंयम कहते हैं। अथवा अनात्यन्तिकी विरक्तताको संयमासंयम कहते हैं। घ. १/१,१,१३/१७३/१० संयताश्च ते असंयताच संयतासंयताः।-जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं, उन्हें संयतासंयत कहते हैं। पु. सि. उ./४१ या त्वेकदेश विरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ।-जो एकदेश विरतिमें लगा हुआ है वह श्रावक होता है। दे, तो-[घरके प्रति जिसकी रुचि समाप्त हो चुकी है वह संयत है और गृहस्थी संयतासंयत हैं।] दे, विरताविरत [बारह बतोंसे सम्पन्न गृहस्थ बिरताविरत हैं। संयमासंयमका स्वामित्व । मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं। -दे. चारित्र/३/८ । इसमें सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ। -दे. सत् । मार्गणाओंमें इसके स्वामित्व सम्बन्धी शंका-समाधान । -दे, वह बह नाम । इस सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव व अल्पबहुत्वरूप ८ प्ररूपणाएँ। -दे. बह वह नाम । सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय । -दे. मार्गणा। भोगभूमिमें संयमासंयमके निषेधका कारण। -दे. भूमि। शद्रको क्षल्लक दीक्षा सम्बन्धी । -दे, वर्णव्यवस्था/४। इसके पश्चात् भव धारणकी सीमा। सर्वलघु कालमें संयमासंयम धारणकी योग्यता। -दे. संयम/२ पुनः पुनः संयमासंयम प्राप्तिकी सीमा । - दे. संयम/२। संयतासंयतोंमें सम्भव भाव।। इसमें क्षायोपशमिक भाव कैसे। इसे औदयिकौपशमिक नहीं कह सकते। -दे.क्षायोपशमिक/२/३ । | सम्यग्दर्शनके आश्रयसे औपशमिकादि क्यों नहीं। -दे, संयत/२/६ । इसमें कर्म प्रकृतियोंका बन्ध उदय सत्त। -दे. वह वह नाम । एकान्तानुवृद्धि आदि संयतासंयत । -दे, लब्धि//८ । स्वर्गमें ही जन्मनेका नियम। -दे. जन्म/४। इसमें आत्मानुभव सम्बन्धी। -दे. अनुभव/५॥ * २. संयम व असंयम युगपत् कैसे ध.१/१,१,१३/१७३/१० यदि संयतः, नासावसंयतः । अथासंयतः, नासौ संयत इति विरोधान्नायं गुणो घटत इति चेदस्तु गुणानां परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः इष्टत्वात. अन्यथा तेषां स्वरूपहानिप्रसंगात् । न गुणानां सहानवस्थानल धणो विरोधः संभवति. संभवेद्वा न वस्त्वस्ति तस्यानेकान्त निबन्धनत्वात् । यदर्थ क्रियाकारि तद्वस्तु । सा च नै कान्ते एकानेकाभ्यां प्राप्तनिरूपितावस्थाभ्यामर्थ क्रियाविरोधात। न चैतन्याचैतन्याभ्यामनेकान्तस्तयोर्गुणत्वाभावात । सहभुवो हि गुणाः, चानयोः सहभूतिरस्ति असति विबन्धर्यनुपलम्भात । भवति च विरोषः समाननिबन्धनत्वे सति। न चात्र विरोधः संयमासंयमयोरेकद्रव्यवतिनोस्त्रसस्थावर निवन्धनवाद । - प्रश्न-जो संयत होता है, वह असंयत नहीं हो सकता है, और जो असंयत होता है वह संयत नहीं हो सकता है, क्योंकि, संयमभाव और असं समभावका परस्पर विरोध है, इसलिए यह गुणस्थान नहीं बनता है ? उत्तर-१. विरोध दो प्रकारका है-परस्परपरिहारलक्षण विरोध और सहानवस्थालक्षण विरोध । इनमें से एक द्रव्य के अनन्तगुणों में होनेवाला परस्पर परिहारलक्षण बिरोध यहाँ इष्ट ही है, क्योंकि यदि एक दूसरेका परिहार करके गुणों का अस्तित्व न माना जावे तो उनके स्वरूपकी हानिका प्रसंसा आता है । परन्तु इतने मात्रसे गुणों में सहानवस्थालक्षण विरोध सम्भव नहीं है। यदि नाना गुणोंका एक साथ रहना हो बिरोधस्वरूप मान लिया जाये तो वस्तु का अस्तित्व ही नहीं बन सकता है, क्योंकि, बस्तुका सद्भाव अनेकान्त निमित्तक ही होता है। जो अर्थ क्रिया करनेमें समर्थ है है वह वस्तु है और बह एकान्त पक्षमें बन नहीं सकती, क्योंकि यदि अर्थक्रियाको एक रूप माना जावे तो पुनः पुनः उसी अर्थ क्रियाकी प्राप्ति होनेसे, और यदि अनेकरूप माना जावे तो अनवस्था दोष आनेसे एकान्तपक्षमें अर्थ क्रियाके होनेमें विरोध आता है । २. ऊपरके कथनसे चैतन्य और अचैतन्यके साथ भी व्यभिचार नहीं आता है, क्यों कि, चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों गुण नहीं हैं। जो सहभावी होते हैं उन्हें गुण कहते हैं, परन्तु ये दोनों सहभावी नहीं हैं, क्योंकि बन्धरूप अवस्था नहीं रहनेपर चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों एक साथ नहीं पाये जाते हैं। ३. दूसरे विरुद्ध दो धर्मोंकी उत्पत्तिका कारण यदि एक मान लिया जाये तो विरोध आता है, परन्तु संयमभाव और असंयमभाव इन दोनोंको एक आत्मामें स्वीकार कर लेनेपर भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, उन दोनोंकी उत्पत्तिके कारण भिन्न-भिन्न है। संयमभावकी उत्पत्तिका कारण त्रसहिंसासे विरति भाव है और असंयम भावकी उत्पत्तिका कारण स्थावर हिंसासे अविरति भाव है। इसलिए संयतासंयत नामका पाँचवाँ गुणस्थान बन जाता है। १. संयतासंयतका लक्षण पं.सं./प्रा./२/गा, जो तसवहाउ विरदो णो विरओ अक्रवथावरवहाओ। पडिसमय सो जीबो विरमाबिर ओ जिणेकमई ।१३। जो ण विरदो दू भावो थावरवहइंदियत्थदोसाओ। तसवह बिरओ सोच्चिय संजमासंजमो दिट्ठो 1१३४। पंच तिय चउबिहेहि अणुगुण-सिक्रवावए हिं संजुत्ता। बुच्चति देसविरया सम्माइट्ठी झडियकम्मा ॥१३॥ -१. जो जीव एक मात्र जिन भगवान्में ही मतिको रखता है, तथा त्रस जीबोंके घातसे विरत है, और इन्द्रिय विषयोंसे एवं स्थावर जीवोंके घातसे विरक्त नहीं है, वह जीम प्रति समय क्रिताविरत है। अर्थात अपने गुणस्थानके कालके भीतर दोनों संज्ञाओं को युगपत धारण करता है ।१३। २. भावोंसे स्थावरवध और पाँचों इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी दोषोंसे विरत नहीं होने किन्तु उस बधसे विरत होनेको संयमासंयम कहते हैं, और उनका धारक जीव नियमसे संयमासंयमी कहा गया है ।१३४॥ ३. पाँच अणुवत, तीन गुणवत और चार शिक्षाबतोंसे संयुक्त होना विशिष्ट संयमास यम है। उसके धारक और असंख्यात गुणश्रेणीरूप निर्जराके द्वारा कर्मों के झाड़नेवाले ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत या संयतासंयत कहलाते हैं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयतासंयत संयम ३. इसके परिणामोंमें चतु:स्थान पतित हानि वृद्धि ल. सा./मू./१७६/२२८ देसो समये समये सुज्झतो संकिलिस्समाणो य। चउड्ढिहाणिदयादव द्विदं कुण दि गुणसे दि । = अथाप्रवृत्त देशसंयत जीव समय-समय विशुद्ध और संक्लिष्ट होता रहता है। विशुद्ध होनेपर असंख्यातभाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण व असंख्यातगुण इन चार प्रकारकी वृद्धि सहित, और संक्लिष्ट होनेर इन्हीं चार प्रकारकी हानि सहित द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणी में निक्षेपण करता है। इस प्रकार उसके काल में यथासम्भव चतुःस्थानपतित वृद्धि हानि सहित गुणश्रेणी विधान पाया जाता है । ४. संयमासंयमका स्वामित्व दे. नरक// [नरक गतिमें भव नहीं।] दे तिर्यच/२/२-४ (केवल संज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यंचको सम्भव है, अन्य एकेन्द्रियसे असंज्ञो पर्यतको नहीं, कर्मभूमिजोंको ही होता है भोगभूमिजोंको नहीं. कर्म भूमिजों को भी आर्यखण्डमें ही होता है, म्लेच्छ-खण्डमै नहीं। वहाँ भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यचको नहीं होता । सर्वत्र पर्याप्तकों में ही होता है अपर्याप्तकोमे नहीं।] दे. मनुष्य/३/२ [ मनुष्यों में केवल कर्मभूमिजोंको ही सभव है भोगभूमिजों को नहीं, वहाँ भी आर्य खण्डों में हो सम्भव है म्लेच्छरखण्डोंमें नहीं। विद्याधरोमे भी सम्भव है। सर्वत्र पर्याप्तकों में ही होता है अपर्याप्तकों में नहीं। दे, देव/II/३/२ [ देव गतिमें सम्भव नहीं। दे. आयु/६/७ [ जिसने पहिले देवायुके अतिरिक्त तीन आयुको बाँध लिया है ऐसा कोई जोव संयमासंयमको प्राप्त नहीं हो सकता।) दे. सम्यग्दर्शन/iV// [ क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिथंच नहीं। ५. संथमासंयमके पश्चात् भवधारणकी सीमा वसु. श्रा./५३६ सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए। भुंजिवि सुरमणुयसह पावेइ कमेण सिद्धपयं ।५३४उपरोक्त रीतिमे श्रावकों का आचार पालन करनेवाला (दे. श्रावक)] तीसरे भव में सिद्ध होता है। कोई कमसे देव और मनुष्यो के सुख को भोगकर पाँचवें सातवे या आठवें भवमें सिद्ध पदको प्राप्त करते हैं। [यह नियम या तो क्षायिक सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा जानना चाहिए ( दे. सम्यग्दर्शन/11५/४), और या प्रत्येक तीसरे भवमें संयमासंयमको प्राप्त होनेवालेकी अपेक्षा जानना चाहिए, अथवा उपचाररूप जानना चाहिए, क्योंकि एक जोब पत्यके असख्यातवें बार तक सयमासंयमकी प्राप्ति कर सकता है ऐसा निर्देश प्राप्त है ( दे. संयम/२)] । ६. संयतासंयतमें सम्भव भाव ध. १/१,९,१३/१७४/७ औदयिकादिपञ्चमु गुणेषु के गुणमाश्रित्य संयमासंयमगुणः समुत्पन्न इति चेत् क्षायोपशमिकोऽयं गुणः ।.. संयमासंयमधाराधिकृतसम्यक्त्वानि कियन्तीति चेक्षायिकक्षायोपशमिकोपशमिकानि त्रीण्यपि भवन्ति पर्यायेण ।-प्रश्न- औदयिकादि पाँच भावोंमेसे किस भावके आश्रयसे संयमासंयम भाव पैदा होता है ? उत्तर-संयमासंयम भाव क्षायोपशमिक है। (और भी दे भाव/ २/8) । प्रश्न-संयमासंयमरूप देशचारित्रकी धारासे सम्बन्ध रखनेवाले कितने सम्यग्दर्शन होते हैं : उत्तर-क्षायिक, क्षायोपशामिक व औपशमिक इन तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन विकल्प रूपसे होता है । (और भी दे. भाव/२/१२) । ७. इसमें क्षायोपशमिक भाव कैसे रा. वा./२/५/८/१०८/६ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्यारख्यानकषायाष्टकोदयक्षयात सदुपशमाच्च प्रत्याख्यानकषायोदये संज्वलनकषायस्य देशवातिस्पधंकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च विरताविरतपरिणाम: क्षायोपशमिकः । - अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायोंका उदयक्षय और सदवस्थारूप उपशम, प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय, संज्वलनके देशघाति स्पर्धक और यथासंभव नोकषायोंका उदय होनेपर विरत-अविरत परिणाम उत्पन्न करनेवाला भाव क्षायोपशामिक है। घ. १/१,१,१:/१७४/८ अप्रत्याख्यानावरणीयस्य सर्वधातिस्पर्द्धकानामुदयश्यात सतः चोपशमात प्रत्याख्यानावरणीयोदयादप्रत्याख्यानोस्पत्ते'।अप्रत्यारन्यानावरणीय कषायके वर्तमान कालिक सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयभावी क्षय होनेसे, और आगामी कालमें उदयमें आने योग्य उन्हींके सदवस्थारूप उपशम होनेसे तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषायके उदयसे संयमासं यमरूप अप्रत्याख्यान-चारित्र उत्पन्न होता है। ( गो. जी./मू./४६६/८७६) । ध.७/२.१,५१/१४/६ चदुसं जलण-णवणोकसायाणं खओवसमसण्णिदेस धादिफयाणमुदएण संजमासंजमुप्पत्तीदो स्वओक्समलद्धीए सयमास यमो । तेरसण्हं पयडीणं देसघादिफद्दयाणमुदओ संजमलंभणिमित्तो कधं संजमासंजमणि मित्तं पडिवज्जदे । ण, पञ्चक्खाणाघरणसव्यधादिफहयाणमुदएण पडिय चदुसंजलणादिदेसघादिफद्दयाणमुदयस्स संजमासंजमं मोत्तण संजमुप्पायणे असमत्थादो। -चार संज्वलन और नवनोकषायोंके क्षयोपशम संज्ञावाले देशघातीस्पर्धकोंके उदयसे संयमासंयमकी उत्पत्ति होती है, इसलिए क्षयोपशम लब्धिसे संयमासंयम होता है। (ध. ५/१,७,७/२०२/३) । प्रश्न-चार संज्वलन और नव नोकषाय, इन तेरह प्रकृतियों के देशघाती स्पर्ध कोंका उदय तो संयम की प्राप्तिमें निमित्त होता है (दे० संयत/२/३) । वह संययास यमका निमित्त कैसे स्वीकार किया गया है ! उत्तरनहीं, क्योंकि, प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयसे जिन चार संज्वलनादिकके देशघाती स्पर्धकों का उदय प्रतिहत हो गया है, उस उदयके संयमासं यमको छोड़ संयम उत्पन्न करनेका सामर्थ्य नहीं होता है। दे० अनुभाग/४/६/६ [ इससे प्रत्यारण्यानावरणका सर्वघातीपना भी नष्ट नहीं होता है। सयम-सम्यक प्रकार यमन करना अर्थात बत-समिति-गुप्ति आदि रूपसे प्रवर्तना अथवा विशुद्धात्मध्यानमें प्रवर्तना संयम है। तहाँ समिति आदि रूप प्रवर्तना अपहृत या व्यवहार संयम और दूसरा लक्षण उपेक्षा या निश्चय संयम है। इन्हीं दोनों को वीतराग व सराग चारित्र भी कहते है। अन्य प्राणियों की रा करना प्राणिसयम है और इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होना इन्द्रिय संयम है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यधारख्यात ऐसे इसके पाँच भेद हैं। सराग चार इन्द्रियोंके परिहारविशुखि १ भेद व लक्षण संयमका लक्षण। व्यवहार संयमका लक्षण । निश्चय संयमका लक्षण । निश्चय व्यवहार चारित्रकी कथंचित् मुख्यता गौणता। -दे. चारित्र/४/७। संयम लब्धिस्थान व एकान्तानुवृद्धि आदि । संयम। -दे० लब्धि /५ । संयममार्गणाकी अपेक्षा भेद व लक्षण । सामायिकादि संयम । -दे० शीर्षक सं.४। * शायोपशमिकादि सयम निर्देश। -दे० भाव/२ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम १. भेद व लक्षण निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद व लक्षण । सकल व देशसंयमकी अपेक्षा। सकल चारित्र देशचारित्रकी अपेक्षा है यथाख्यातकी अपेक्षा नहीं। -दे० संयत/२/१ में गो. जी. । | अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश १. लक्षण व उनकी वीतरागता सम्बधी विशेषताएँ। प्राणी व इन्द्रिय संयमके लक्षण । प्राणि व इन्द्रियसंयमके १७ भेद । गुणस्थानोंमें परस्पर संयमोंका आरोहण अवरोहण क्रम। -दे० स यत/१५ । ४ । बद्धायुष्कोंमें केवल देवायु वाला ही संयम धारण कर सकता है। -दे० आयु/६। ५ स्त्रीको या सचेलको सम्भव नहीं। -दे० वेद/७/४ । ६ संयम मार्गणामें सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि रूप २० प्ररूपणाएँ। -दे० सत् । ७ ! संयम मार्गणा सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन काल, अन्तर, भाव व अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। -दे, वह वह नाम। ८ संयमियोंमें कर्मोका बन्ध-उदय-सत्व । -दे.यह वह नाम । ९ | सभी मार्गणा स्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम । -दे. मार्गणा। । नियम व शंका समाधान * चारित्रमोहका उपशम क्षय व क्षयोपशम विधान। -दे० वह वह नाम। * | सम्यक्ष सहित ही होता है। -दे० चारित्र/३॥ व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयमी नहीं। -दे० चारित्र/३/८ । | सवस्त्रसंयम निषेध । -दे० वेद/७/४। संयम व विरतिमें अन्तर। संयम गुप्ति व समिति आदिमें अन्तर । चारित्र व संयममें अन्तर । | उत्सर्ग व अपवादसंयम निर्देश। -दे० अपत्राद/४। सयोगकेवलीके संयममें भी कथंचित् मलका सद्भाव। -दे० केवली/२/२। | संयममें परीषहजयका अन्तर्भाव। -दे० कायक्लेश । इन्द्रियसंयममें जिह्वा व उपस्थकी प्रधानता । इन्द्रिय व मनोजयका उपाय । कषाय निग्रहका उपाय । संयम पालनार्थ भावना विशेष । पंचम कालमें सम्भव है। * निगोदसे निकलकर सीधे संयम माप्ति करने सम्बन्धी। -दे० जन्म/५। | जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्व लघुकाल सम्बन्धी नियम। | पुनः पुनः संयमादि प्राप्तिकी सीमा। संयमी मरकर देवगतिमें ही जन्मता है। दे. जन्म/५/६ । संयममार्गणामें क्षायोपशमिक भाव सम्बन्धी। -दे० संयत/२॥ १. भेद व लक्षण १. संयमका लक्षण ध.७/२,१,३/७/३ सम्यक् यमो वा संयमः । =सम्यक् रूपसे यम । अर्थात नियन्त्रण सो संयम है। दे० चारित्र/३/७ [ सं यमन करनेको संयम कहते हैं । अर्थात भावसंयम." से रहित द्रव्यसंयम संयम नहीं है।] २. व्यवहार संयमका लक्षण १. व्रत समिति गुप्ति आदिकी अपेक्षा प्र. सा./मू./२४० पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदिय संबुडो जिदकसाया। दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ।२४०। -पंचसमितियुक्त, पाँच इन्द्रियों के संवरवाला, तीन गुप्ति सहित, कषायोंको जीतने वाला, दर्शन ज्ञानसे परिपूर्ण जो श्रमण है वह संयत कहा गया है। प्र.सा./प्रक्षेपक गा.मू./२४०-१ चागो अणारंभो बिसयविरागोखओ कसायाण । सो संजमोत्ति भणि दो पज्जाए विसेसेण । बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग, मन वचन कार्यरूप व्यापारसे निवृत्ति सो. अनारम्भ, इन्द्रिय विषयोंसे विरक्तता. कषायोंका क्षय यह सामान्यरूपसे संयमका लक्षण कहा गया है। विशेष रूपसे प्रवज्याकी अवस्थाएँ होती हैं। चा. पा./मू./२८ पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविसकिरियासु । पंच-' समिदि तयगुत्ती सजमचरणं गिरायारं ॥२८१ = पाँच इन्द्रियोंका ' सवर ( दे. संयम/२) पाँच व्रत और पचीस क्रिया, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनका सद्भाव निरागार संयमाचरण चारित्र है। बा. अ./७६ बदसमिदिपालणाए दंडच्चोएण इंदियजएण। परिणम माणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा ७६। =बत व समितियोंका. पालन, मन वचन कायकी प्रवृत्तिका त्याग, इन्द्रियजय यह सब जिसको होते हैं उसको नियमसे संयम धर्म होता है। पं. स./प्रा. १२७ वदस मिदिकसायाणं दंडाणं इंदियाणं पंचण्डं। धारणपालणणिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ ।१२७१ - पाँच महावतोंका धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, चारकषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय रूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पाँच इन्द्रियोंका जीतना (दे. संयम/२) सो संयम कहा गया है ।१२७। (ध. १/१, १,४/ गा.१२/१४५); (ध.७/२,१, ३/७/२); (गो.जी./मू./४६५/८७६)। दे० तप/२/१ [ तेरह प्रकारके चारित्रमें प्रयत्न करना संयम है।) संयमका स्वामित्व । सामायिक आदि संयमोंका स्वामित्व । -दे० वह वह नाम। क्षायोपशमिकादि संयमोंका स्वामित्व (५-७ तक क्षायोपशमिक और आगे औपशमिक व क्षायिक) -दे. वह वह गुणस्थान । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम १. भेद व लक्षण ३. निश्चय संयमका लक्षण प्र. सा./त प्र./१४.२४२ सकलषड् जीवनिकायनिशुम्भनविकसपारगचन्द्रियाभिलाषविकल्पाच व्यावस्यात्मन: शुद्धस्वरूपे संयमनात...१४ाझेयसाततत्त्वतथाप्रती तिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानभतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण शेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि योगपद्येन-.-परिणतस्यात्मनि यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं ।२४२० -१. समस्त छह जीव निकायके हननके विकल्पसे और पंचेन्द्रिय सम्बन्धी अभिलाषाके विकल्पसे आमाको व्यावृत्य करके आत्मा शुद्धस्वरूपमें संयमन करनेसे (संयमयुक्त है ) 1२ शेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्वकी तथा प्रकार प्रतीति, तथा प्रकार अनुभूति और क्रियान्तरसे निवृत्तिके द्वारा रचित उसी तत्त्वमें परिणति, ऐसे लक्षणवाले सम्यग्दर्शन ज्ञान ब चारित्र इन तीनों पर्यायोंकी युगपतताके द्वारा परिणत आत्मामें आत्मनिष्ठता होनेपर जो संयतपना होता है ...। पं. घ./3/१९९७ शुद्धस्वास्मोपलन्धिः स्याव संयमो निष्क्रियस्य च। -निष्क्रिय आत्माके स्वशुद्धात्माकी उपलब्धि ही संयम कहलाता है। १. संयम मार्गणाकी अपेक्षा भेद व लक्षण घ. वं.१/९.९/सूत्र १२३/३६८ संजमाणुवादेण अस्थि संजदा सामाइय छेदोक्छावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहमसापरायमुद्धिसंजदा जहाक्वाद बिहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा असंजदा चेदि। ।१२३। - संयम मार्गणाके अनुवादसे सामायिक शुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनांशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्पराय शुद्धिसंयत और यथारूपातविहारशुद्धिसंयत ये पाँच प्रकारके संयत तथा संयत्तासंयत और असंयत जीव होते हैं ।१२३। (द्र. सं./टो./१३/३८/२) । दे, चारित्र/१/३ [सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात ऐसे चारित्र पाँच प्रकार के हैं। नोट-[ इनके लक्षणोंके लिए-वे. वह वह नाम । ] ५. निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद व लक्षण घ.७/१,१.४८/११/५ णायसंजमो ठवणसंजमो दव्य संजमो भावसंजमो चेदि चउबिहो संजमो......तव्वदिरित्तदव्वसंजमो संजमसाहणपिच्छाहारकवलीपोत्थयादीणि । भावस जमो दुविहो आगमणोआगमभेएण। आगमो गदो। णोआगमो तिविहो खइओ खओवसमिओ उवसमिओ चेदि । -नामसंयम, स्थापनासंयम, द्रव्यसंयम और भावसंयम । इस प्रकार संयम चार प्रकारका है । ( नाम स्थापना आदि भेद-प्रभेद निक्षेपवत जानने)। तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंयम संयमके साधनभूत पिच्छिका, आहार, कमण्डलु, पुस्तक आदिको कहते हैं। भावसंयम आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है-आगमभावसंयम तो गया, अर्थात निक्षेपवत जानना । नोआगम भावसंयम तीन प्रकारका है-क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपमिक। [तहाँ क्षायोपशमिक संयमके लिए।-दे. संयत/२ और औपशमिक व क्षायिकके लिए--दे. श्रेणी ]। ६. सकल व देश संयमकी अपेक्षा चा. पा./मू./२१ दुविहं संजमचरणं साया तह हवे णिरायार । सायारं सर्गथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं १२११-संयम चरण चारित्र दो प्रकारका है-सागार तथा निरागार । सागार तो परिग्रहसहित श्रावक के होता है, बहुरि निरागार परिग्रहसे रहित मुनिक होता है ।२श र.के. पा./५० सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगबिरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ।। -वह चारित्र सकल और विकलके भेदसे दो प्रकारका है। समस्त प्रकारके परिग्रहसे रहित मुनियों के सकल चारित्र और गृहस्थों के विकल चारित्र होता है। प्र.सि.उ.४० हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः। कात्स्न्यै कदेशविर तेश्चारित्र जायते द्विविधम् ।१०। - हिसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचोंके सर्वदेश व एकदेश त्यागसे चारित्र दो प्रकारका होता है। (दे. व्रत/३/१)। ल, सा/भू./१६७/२२१ दुविहा चरित्तलखी देसे सयले.... चारित्रकी लन्धि सकल व देशके भेदसे दो प्रकार है। पं. का./ता. वृ./१६०/२३१/१३ चारित्रं तपोधनानामाचारादिचरणग्रन्थविहितमार्गेण प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पञ्चमहावतपञ्चसमितित्रिगुप्तिषडावश्यकादिरूपम् गृहस्थानां पुनरुपासकाध्ययन ग्रन्थविहितमार्गेण पञ्चमगुणस्थानयोग्यं दानशील पूजोपवासादिरूप दार्शनिक प्रतिकाद्य कादशनिलयरूपं वा इति। -मुनियोंका चारित्र आचारांग आदि चारित्र विषयक ग्रन्थों में कथित मार्गसे. प्रमरा व अप्रमत्त इन दो गुणस्थानोके योग्य (दे. संयत ) पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति, छह आवश्यक आदि रूप होता है (दे. संयम/१/२) और गृहस्थोंका चारित्र उपासकाध्ययन आदि ग्रन्थों में कथित मार्गसे, पंचमगुणस्थानके योग्य (दे. संयतासंयत ) दान शील, पूजा, उपबास आदि रूप होता है। अथवा दार्शनिक प्रतिमा, बतप्रतिमा आदि ११ स्थानोंरूप होता है-(दे. श्रावक)। सिद्धान्त प्रवेशिका/२२४-२२५ श्रावकके बतोंको देशचारित्र कहते हैं ।२२४६ मुनियोंके व्रतोंको सकल चारित्र कहते हैं "२२५ ७. अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश १. लक्षण रा. वा./४/६/१५४५६६/२६ संयमो हि द्विविधः--उपेक्षासंयमोऽपहुतसंयमश्चेति । देशकाल विधानज्ञस्य परानुपरोधेन उत्सृष्ट कायस्य त्रिधा गुप्तस्य रागद्वेषानभिष्वङ्गलक्षण उपेक्षासंयमः । अपहतसंयमस्त्रिविधः उत्कृष्टो मध्ममो जघन्यश्चेति। तत्र प्रामुक मस्त्याहारमात्रबाहासाधनस्य स्वाधीनेतरज्ञान चरणकरणस्य बाह्यजन्तूपनिपाते आत्मानं ततोऽपत्य जीवान् प्रतिपालयत उत्कृष्टः, मृदुना प्रमृज्य जन्तून् परिहरतो मध्यमः, उपकरणान्तरेच्छया जघन्यः। -संयम दो प्रकारका होता है-एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत सयम । देश और कालके विधानको समझनेवाले स्वाभाविक रूपमे शरीरसे विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक व्यक्तिके राग और वषरूप चित्तवृत्तिका न होना उपेक्षासंयम है। अपहतसंयम उत्कृष्ट मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकार है। प्रामुक, वसति और आहारमात्र हैं। बाह्यसाधन जिनके, तथा स्वाधीन हैं ज्ञान और चारित्ररूप करण जिनके ऐसे साधुका बाह्य जन्तुओंके आनेपर उनसे अपनेको बचाकर संयम पालना उत्कृष्ट अपहृत संयम है। मृदु उपकरणसे जन्तुओंको बुहार देनेवाले मध्यम और अन्य उपकरणोंकी इच्छा रखनेवाले के जघन्य अपहृत संयम होता है। (चा. सा./६९/७-७५/२)( और भी दे. संयम/१/१ )। नि. सा./ता, बृ./६४ अपहृतसंयमिना संयमज्ञानाच_पकरणग्रहण बिसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम्। उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमण्डलुप्रभृतयः, अतस्ते परमजिनमुनयः एकान्ततो निस्पृहाः, अतएव बाह्योपकरणनिमुक्ता। यह अपहतसंयमियोंको संयमज्ञानादिक के उपकरण लेते, रखते समय उत्पन्न होनेवाली समितिका प्रकार कहा है। उपेक्षा संयमियोंको पुस्तक, कमण्डलु आदि नहीं होते, वे परम जिनमनि एकान्तमें निस्पृह होते हैं, इसलिए वे बाह्य - उपकरण रहित होते हैं। २. दोनोंकी वीतराग व सराग चारित्रके साथ एकार्थता प.प्र./टी/२/६७/१८८/१५ अथवोपेक्षासंयमापहतसयमौ वीतरागसरागापरनामानौ तावपि तेषामेव संभवतः। -उपेक्षासंयम और अपहतसंयम जिनको कि वीतराग व सराग संयम भी कहते हैं, ये दोनो भी उन शुद्धोपयोगियोंको ही होते हैं। भा०४-१८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम २. नियम व शंका-समाधान आ व स्थावर जीवों में से किसीके भी वधके लिए मन, वचन व काय उद्यत न होना सो प्राणिसंयम है ।११२२॥ ९. प्राणि व इन्द्रिय संयमके १७ भेद मू. आ./४१६-४१७ पुढविदगतेउवाऊवणप्फदीसंजमो य बोधव्वो विगतिचदुपंचेंदिय अजीवकायेस संजमण ।४१६३ अप्पडिलेह दुर डिलेहमुवेरखावहरण दु संजमो चेव । मणवयणकायसंजम सत्तरस विध दुणादयो ।४१७४ -पृथिवी, अप, तेज, वायु व वनस्पति ये पाँ स्थावरकाय और दो, तीन, चार व पाँच इन्द्रियवाले चार त्रस जी. इनकी रक्षामें प्रकार तो प्राणि संयम है, सूखे तृण आदिका छेदः न करना ऐसा १ भेद अजीवकायकी रक्षारूप है ।४१६। अप्रतिलेखन दुष्प्रतिलेखन, उपेक्षासंयम, अपहृतसंयम, मन, वचन व काय संयम इस प्रकार कुल मिलकर १७ संयम होते हैं ।।१७। (यहाँ पीछी द्रव्यका शोधन सो प्रतिलेख संयम है और अप्रमाद रहित यत्नपूर्वक शोधन दुष्प्रतिलेख संयम है।) २. नियम व शंका-समाधान आदि १. संयम व विरतिमें अन्तर ध. १४/५,६,१६/१२/१ संजम-विरईण को भेदो। ससमिदिमहव्वयाणुव्वयाई संजमी। समईहि विणा महव्ययाणुव्वमा विरई। प्रश्न-- संयम और विरतिमें क्या भेद है ! उत्तर-समितियों के साथ महावत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं। और समितियों के बिना महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं । (चा. सा./४०/१) दे. संवर/२/२ विरति प्रवृत्तिरूप होती है और संयम निवृत्ति रूप] २.संयम गुप्ति व समितिमें अन्तर दे. चारित्र/९/१४,१५ [अपवाद, व्याहारनय, एकदेश परित्याग, अपहृतसंयम, सरागचारित्र, शुभोपयोग ये सब शब्द, तथा उत्सर्ग, निश्चयनय सर्व परित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र, शुद्धोपयोग ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। ३. अपहृतसंयमको विशेषताएँ दे. संयम/२/२ ( अपहृत संयम दो प्रकारका है-इन्द्रिय स यम और प्राणि संयम ।] दे. शुद्धि/२ [ इस अपहृत संयममें भाव, काय, विनय आदिके भेदसे आठ शुद्धियोंका उपदेश है। ] ८. प्राणि व इन्द्रिय संयमके लक्षण दे, असं यम [ असंयम दो प्रकारका है- प्राणि असंयम और इन्द्रिय असं यम । तहाँ षट् काय जीवोंकी विराधना प्राणि असंयम है और इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति इन्द्रिय असंयम है। (इससे विपरीत प्राणि व इन्द्रिय संयम हैं-यथा)] मू. आ./४१८ पंचरस पंचवण्ण दोगधे अठ्ठफास सत्तसरा। मणसा चोदसजीवा इदियपाणा य संजमो णेओ। - पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, षड्ज आदि सात स्वर ये सब मनके २८ विषय हैं । इनका निरोध सो इन्द्रिय संयम है और चौदह प्रकारकी जीवों की (दे, जीव समास) रक्षा करना सो प्राणिसंयम है। पं.सं./प्रा./२/१२८ सगवण्ण जीव हिंसा अट्ठावीसिंदियस्थ दोसा य । तेहिंतो जो विरओ भावो सो संजमो भणिओ।१२८। = पहले जीवसमास प्रकरणमे जो सत्तावन प्रकारके जीव बता आये है (दे. जीवसमास). उनकी हिंसासे तथा अठाईस प्रकारके इन्द्रिय विषयों के (दे. सन्दर्भ सं.१)दोषोंसे विरति भावका होना संयम है ।१२८॥ स. सि./६/१२/३३१/११ प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः संयमः । स सि.//६/४१२/१ समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारस्संयमः । १. प्राणियों व इन्द्रियों के विषयों में अशुभ प्रवृत्तिके त्यागको संयम कहते हैं। (रा. वा./६/१२/६/५२२/२१)। २. समितियों में प्रवृत्ति करनेवाले मुनिके उनका परिपालन करनेके लिए जो प्राणियोंका और इन्द्रियों का परिहार होता है, वह संयम है। (रा. वा./६/६/१४/६६६/२६); (चा. सा./७१/१); (त. सा./६/१८); (पं.वि./१/६६) रा.वा./६/६/१४/६६६/२७ एकेन्द्रियादिप्राणिपीडापरिहारः प्राणिसं यमः। शब्दादिष्विन्द्रियार्थेषु रागानभिष्वङ्ग इन्द्रियसंयमः।-एकेन्द्रियादि प्राणियोंको पीड़ाका परिहार प्राणिसंयम है और शब्दादि जो इन्द्रियों के विषय उनमें रागका अभाव सो इन्द्रिय संयम है। (चा, स./७५/१); (अन. ध./६/३७-३८/५६१) का.अ./मू./३६६ जो जीवरक्रवणपरो गमणागमणादिसब्वकज्जेस । तणछेदं पिण इच्छदि संजमधम्मो हवे तस्स । -जीव रक्षामें तत्पर जा मुनि गमनागमन आदि सब कार्यों में तृणका भी छेद नहीं करना चाहता उस मुनिके (प्राणि) संयम धर्म होता है ।३६६। नि. सा./ता.व./१२३ संयमः सकले न्द्रियव्यापारपरित्यागः1 - समस्त इन्द्रियोंके व्यापारका परित्याग सो संयम है। पं.ध./उ./१११८-११२२ पञ्चानामिन्द्रियाणां च मनसश्च निरोधनात् । स्यादिन्द्रियनिरोधारख्यः संयमः प्रथमो मतः ।१११८। स्थावराणां च पञ्चानां त्रसस्यापि च रक्षणात् । अनुसंरक्षणारख्यः स्यादद्वितीयः प्राणसंयमः ११११६। सत्यमक्षार्थ संबन्धाज्ज्ञानं नासंयमाय यत । तत्र रागादिबुद्धिर्या संयमस्तनिरोधन ११२१। त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यतं मनः । न बचो न वपुः क्वापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।११२२ - पाँचों इन्द्रियों व मनके रोकनेसे इन्द्रिय संयम और त्रस स्थावरों की रक्षा प्राणसंयम है ।१११८-१११६. इन्द्रियों द्वारा जो अर्थविषयक ज्ञान हाता है वह असंयम नहीं है, बल्कि उन विषयों में राग वृद्धिका न होना इन्द्रिय संयम है ।११२१और इसी प्रकार त्रस रा. वा./8/६/११-१५५६६/१५ अथ क. संयमः। कश्चिदाह-भाषादिनिवृत्तिरिति। न भाषादिनिवृत्तिः संयमः गुप्त्यन्तर्भावात ॥११॥ गुप्तिहि निवृत्तिप्रवणा, अतोऽत्रान्तर्भावात संयमाभावः स्यात् । अपरमाह-कायादिप्रवृत्ति विशिष्टा संयम इति । नापि कायादिप्रवृत्तिविशिष्टाः समितिप्रसङ्गात् ।१२। समितयो हि कायादिदोषनिवृत्तयः, अतस्तत्रान्तर्भाव: प्रसज्यते । त्रसस्थावरबधप्रतिषेध आत्यन्तिकः संयम इति चेत्, न; परिहारविशुद्धिचारित्रान्तर्भावात १२॥ ...कस्ताहि संयमः। समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयम. १४९ अतोऽहतसं यमभेदसिद्धिः ॥१५ -१. कोई भाषादिकी निवृत्तिको संयम कहता है, पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि उसका गुप्तिमें अन्तर्भाव हो जाता है। गुप्ति निवृत्तिप्रधान होती है इसलिए उपरोक्त लक्षण में संयमका अभाव है। २. काय आदिकी प्रवृत्तिको भी संयम कहना ठीक नहीं है; क्योंकि काय आदि दोषोंकी निवृत्ति करना समिति है। इसलिए इस लक्षणका समितिमें अन्तर्भाव हो जानेसे वह संयम नहीं हो सकता। ३. सस्थावर जीवों के वधका आत्यन्तिक प्रतिषेय भी संयम नहीं है, क्योंकि परिहार विशुद्धि चारित्रमे अन्तर्भाव हो जाता है। ४. प्रश्न -तत्र फिर संयम क्या है ! उत्तर-समितियों में प्रवर्तमान जीवके प्राणिवध व इन्द्रिय विषयोंका परिहार संयम कहलाता है। इससे अपहत संयमके भेदोंकी सिद्धि होती है। (अर्थात अपहृत संयम दो प्रकारका है-प्राणिसंयम व इन्द्रिय संयम ।) (चा. सा./७५/१); (अन. ध./६/१७/५६१) ३. चारित्र व संयममें अन्तर रा.वा./8/१८/५/६१७/७ स्यादेतत् दशविधो धर्मो व्याख्यातः, तत्र संयमेऽन्तर्भावोऽस्य प्राप्नोतीति: तन्नः किं कारणम् । अते वचनस्य कृत्स्नकर्मक्षयहेतुत्वात्। धर्मे अन्तर्भूतमपि चारित्रमन्ते गृह्यते मोक्ष जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम प्राप्ते. साक्षात्कारणमिति ज्ञापनाय । प्रश्न- दश प्रकारका धर्म कहा गया है। तहाँ संयम नामके धर्म में चारित्रका अन्तर्भाव प्राप्त होता है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, सकलकर्मों के क्षयका कारण होनेसे चारित्र मोक्षका साक्षात्कारण है । और इसीलिए सूत्र में उसका अन्त में ग्रहण किया गया है। दे. पारिज/१/६ [ चारित्र जीवका स्वभाव है पर संयम नहीं ।] ४. इन्द्रिय संयममें जिला व उपस्थकी प्रधानत मू. आ./१८८- ६८६ जिग्भोवत्यणिमित्तं जीवो दुक्खं अणादिसंसारे । पत्ती अनंतसो तो जिन्भोतत्थे जह दाणि । १८८। चदुरं गुला च जिन्भा अहा चदुरं गुलो उबरथो वि । अठ्ठ्ठगुलदोसेण दु जीवो दुबखं हु पप्पादि इस अनादिसंसारमें इस जीवने जिहा व उपस्थ इन्द्रियके कारण अनन्त बार दुःख पाया । इसलिए अब इन दोनोंको जीत चार अंगुल प्रमाण तो अशुभ यह जिह्वा इन्द्रिय और चार ही अंगुल प्रमाण अशुभ यह उपस्थ इन्द्रिय, इन आठ अंगुलों के दोषसे ही यह जीव दुःख पाता है | ८ | कुरल काव्य / १३ / ७ अन्येषां विजयो मास्तु संयतां रसनां कुरु । असंयतो यतो जिह्वा बहुपायैरधिष्ठिता । ७ =और किसो इन्द्रियको चाहे मत रोको, पर अपनी जिह्नाको अवश्य लगाम लगाओ, क्योंकि बेलगामकी जिह्वा बहुत दुःख देती है ॥७॥ ३. रसपरित्याग / २ ( जिहाके या होनेपर रूम इन्द्रियों वश हो जाती है।] ५. इन्द्रिय व मनोजयका उपाय 1 भ. आ./मू./१८३७-१८३८ इंदियदुदं तस्सा णिग्घिप्पति दमणाणखतिपहिंगामी पिभिति खसि मिसाईदिवसप्पाणि जिनेदिं तर ति बिज्जामंत सहगव आसी विसा सप्पा | १०३८। उन्मार्गगामी दुष्ट पोड़ोंका जैसे लगाम के द्वारा निग्रह करते हैं वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना से इन्द्रियरूपी अश्वोंका निग्रह हो सकता है । १८३७१ विद्या, औषध और मन्त्र से रहित मनुष्य जैसे आशीविष सर्पोंको वश करनेको समर्थ नहीं होते वैसे ही इन्द्रियं सर्प भी मनकी एकाग्रता नष्ट होनेसे ज्ञानके द्वारा नष्ट नहीं किये जा सकते । १८३८१ चा. पा./मू./२१ अमण्णुष्णेय मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य । ण करे रायदो दियसंवरो अगिओपौष इद्रियोंके विषयभूत अमनोज्ञ पदार्थों में तथा स्त्री-पुत्रादि जोवरूप और धन आदि अजीवरूप ऐसे मन पदार्थों राम-पान करना ही पाँच इन्द्रियों संवर] है. आ./१७-२१)। कुरल काव्य /३० / २ निग्रहं कुरु पचानामिन्द्रियाणां विकारिणाम् । विधेषु संमोह त्यागस्वार्थ शुभश्रमः | ३|अपनी पाँचों इन्द्रियोंका दमन करो और जिन पदार्थोंसे तुम्हें सुख मिलता है उन्हें बिलकुल ही त्याग दो |३| = अनु./७६ संचिन्तयन्नमेक्षाः स्वाध्याये नित्यमुराः जयश्ये मनः साधुरिन्द्रियार्थ परामुखः [६] - जो साधु भने प्रकार अनु का सदा चिन्तवन करता है, स्वाध्यायमे उद्यमी और इन्द्रिय विषयोंसे प्रायः मुख मोड़े रहता है वह अवश्य ही मनको जीतता ७६ ६. कषाय निग्रहका उपाय भ. आ./मू./१८३६ उवसमदयादमाउहक रेण रक्खा कसायचोरेहिं । सक्का काउं आउहकरेण रक्खा व चोराणं । १८३६। जैसे सशस्त्रपुरुष चोरोंसे अपना रक्षण करता है, उसी प्रकार उपशम दया और निग्रह रूप तीन शस्त्रोंको धारण करनेवाला कषायरूपी चोरोंसे अवश्य अपनी रक्षा करता है। १३९ २. नियम व शंका-समाधान आदि भ.आ./मू./२६०-२६८ कोधं खयाए माणं च मद्दवेणाज्जवं च मायं च । संगियो बारिस से मो पनि कायग्यित्युमक्ति जोसम कसाया | २६२॥ तम्हा हु कसायग्गी पावं उप्पज्जमानयं चेव । इच्छामिच्छादुक्कडवं दणसलिलेण विज्झाहि । २६७ - हे क्षपक ! तू क्षमारूप परिणामों से क्रोधको, मार्दवसे मानको, आर्जवसे मायाको और सन्तोष से लोभ कषायको जीतो ॥ २६० | जिस वस्तु के निमित्तसे कषायरूपी अग्नि होती है वह त्याग देनी चाहिए और कषायका शमन करनेवाली वस्तुका आश्रय करना चाहिए | २६२॥ [ धीरे-धीरे बढते हुए कषाय अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्व तकका कारण बन जाती है ] इसलिए यह कषायाग्नि अब पापको उत्पन्न करेगी ऐसा समझकर उसके उत्पन्न होते ही, हे भगवन् आपका उपदेश ग्रहण करता । मेरे पाप मिथ्या होवें मैं आपका बन्दन करता ऐसे वचनरूप जलसे शान्त करना चाहिए | २६७ प.प./मू./२/१०४ मिठु-जह मणि सहण व जाह तो लहु भावहि बंभु पर जिं मणु झत्ति विलाइ | १८४१ = हे जीव | जो कोई अविवेकी किसीको कठोर वचन कहे, उसको सुनकर जो न सह सके तो कषाय दूर करनेके लिए परब्रह्मका मनमें शीघ्र ध्यान करो । आ. अनु. / २१३ हृदयसरसि यावन्निर्मलेऽप्यत्यगाधे, वसति खलु कषायग्राहचक्रं समन्तात् । श्रयति गुणगणोऽयं तन्न तावद्विशङ्क', सयमशमविशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व । निर्मल और अथाह हृदयरूप सरोवरमें जबतक पायरूप हिंस जलजन्तुओं का समूह निवास करता है. तब तक निश्चयसे यह उत्तम क्षमादि गुणोंका समुदाय निःशंक होकर उस हृदयरूप सरोवरका आश्रय नहीं लेता है। इसलिए हे भव्य ! तू व्रतों के साथ तीव्र मध्यमादि उपशम भेदोंसे उन कषायों के जीतनेका प्रयत्न कर । २१३| ससा / आ./२०६/क. १०६ इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञान जानाति तेन सः । रागादोन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः । १७६ | - ज्ञानी ऐसे अपने स्वभावको जानता है. इसलिए वह रागादिको निरूप नहीं करता, अतः वह रामादिकका कहीं नहीं है | १०६ (दे. चेतना / ३ / २.३) । मो.सा./अ./५/७ विशुद्धदर्शनज्ञानचारित्रमयमुज्ज्यत्तस्यो ध्यायच्यारमानात्मानं कार्य क्षपयरसी अपनी आत्मा से ही विशुद्ध दर्शनज्ञान चारित्रमयी उज्ज्वलस्वरूप अपनी आत्माका जो ध्यान करता है वह अवश्य ही समस्त कषायों का नाश कर देता है। दे. राग /५/३ [ राग और द्वेषका मूल कारण परिग्रह है। अतः उसका त्याग करके रागद्वेषको जीत सेता है। ७. संयमपालनार्थ भावना विशेष रा.वा./६/६२७/५६६/१६ संयमो ह्यात्महितः तमुतिष्ठन्निव पूज्यते परत्र किमस्ति वय असंयतः प्राणिवधविषयरणेषु नित्यप्रवृत्तः कर्माशुभं संचिनुते । संयमी पुरुषको यहीं पूजा होती है, परलोक की तो बात ही क्या 1 असंयमी निरन्तर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होनेसे अशुभ कर्मो का संचय करता है। वि./१/१० मानुष्यं हि दुर्लभ भवभूतस्तत्रापि कारणादयस्तेष्वे वाचा सुतिः स्थितिरतस्तस्याश्च ग्बोधने प्राप्ते अतिनिर्म अपि परं स्यातां न येनोज्झिते, स्वर्मोक्षैकफलप्रदे स च कथं न श्लाघ्यते संयमः । = इस संसारी प्राणीको मनुष्यत्व, उत्तम जाति आदि, जिनवाणी श्रवण, लम्बी आयु, सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये सब मिलने उत्तरोत्तर अधिक अधिक दुर्लभ हैं। ये सब भी संयमके बिना स्वर्ग एवं मोक्षरूप अद्वितीय फलको नहीं दे सकते, इसलिए संयम कैसे प्रशंसनीय नहीं है। और भी दे. अनु/१/१९) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश = Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम ४. पंचन कालमें भी सम्भव है २.सा./१८ सम्मोही सपगुणचारित सणादानरिधानं भरहे दुस्समकाले मणुयाणं जायदे णियद |३८| इस दुस्सह दुःखम (पंचम) कालमें मनुष्योंके सम्यग्दर्शन सहित तप व्रत अठाईस मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दान आदि सब होते हैं । ३८१ दे. धर्मध्यान / ५ [ यद्यपि पंचम काल में शुक्लध्यान सम्भव नहीं परन्तु अपनी अपनी भूमिका नुसार तरतमता लिये धर्मध्यान अवश्य सम्भव है ] । ९. जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्वं लघुकाल १. विच घ. ५ / २, ६, ३७/३२ / ४ एत्थ वे उवदेसा । तं जहा - तिरिक्खेसु वेमासमुहतपुत्तस्वरि सम्म जमाज जी ... एसा पत्ती... तिरिखे तिष्णव- तिदिवस अंतोमुहुत्तस्वरि सम्मत्तं संजमासंजमं च पडिवज्जदि ।... एसा उत्तरपडिवत्ती । इस विषय में दो उपदेश हैं । वे इस प्रकार हैं - १. तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव, दो मास और मुहूर्त पृथक्त्व से ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयमको प्राप्त करता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है २. वह तोन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर सम्यम और संयम संयमको प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है। सम्यग्दर्शन //V2/2] [ तिर्यो में उत्पन्न हुआ जीव व लगाकर उपरिमकालमें प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करता है नोचेके कालमें नहीं।] २. मनुष्यों में घ. ५/१. 4.२०/२२/४ मे सुगन्धादि सजमासंजम च अमस्सावरि जहा अमस्से अंतराम्भहिए सम्म संजर्म विदिति । ऐसा दमिडियती ...मसे सम्मत्तं संजम संजमासंजमं च पडिवज्जदिति । एसा उत्तरपडिबत्ती । इस विषय में दो उपदेश हैं - १. मनुष्यों में गर्भ कालसे प्रारमकर अन्तर्मुहूर्त से अधिक आठ वर्षोंके व्यतीत हो जानेपर सम्प सयम और संयमासंयमको प्राप्त होता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है । (ध. ५ / १.६.६६/५२ ) २. वह आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयम संयमको प्राप्त होता है । यह उत्तर प्रतिपत्ति है । घ. १/४.१.६६/२००२ मधुमास विमा मासतांतरे सम्मत संजम संजना जमा महगाभावादी मनुष्यों में वर्ष पृथवत्वके बिना मास पावके भीतर समय संयम और संवासंयम ग्रहणका अभाव है। १४० ध. १०/४,२,४,५६/२७८/१२ गम्भादो क्विंत पढमसमय पहुडि अवस् गणपाओग्गो होदि हेट्ठा ण होदि सि एसो भावत्थो । गमम्मि पदिदपढमसमय पहुडि अट्ठबस्सेसु गदेसु संजमग्गहण पाओग्गो होदित्ति के वि भवति । तण्ण वडदे, जोणिणिक्खभणजम्मणेणेत्ति वणण हाणुवत्तदो । जदि गर्भम्मि पदिदपढ़मसमयादी अवस्थाणि ततो जम्मण अस्सीओ जादो त्ति सुप्तकारी भणेज्ज । ण च एवं तम्हा सत्तमासाहिय अट्ठहि मारोह संजम पडिवजन्ति एसोचेम अस्थमसम्म णिद्द े सण्णहाणुववत्सीदो । गर्भ से निकलने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जानेपर संयम ग्रहण के योग्य होता है, इसके पहले संयम के योग्य नहीं होता, यह इसका भावार्थ है। गर्भ में आनेके प्रथम समय से लेकर आठ वर्षोंके बीतनेपर संयम ग्रहण के योग्य होता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर 'योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे' यह सूत्र - बचन ( इसी पुस्तक के सूत्र नं. ७२,५६ ) नहीं बन सकता। यदि गर्भ संयोग द्रव्य में आनेके प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष ग्रहण किये जाते हैं तो 'गर्भपतनरूप जन्म से आठ वर्ष का हुआ ऐसा सूत्रकार कहते हैं । किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा है। इसलिए सात मास अधिक आठ वर्षका होनेपर संयमको प्राप्त करता है, यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्यथा सूत्रमें 'सर्वलघु' पदका निर्देश घटित नहीं होता । दे. सम्यग्दर्शन / IV/२/५ | जन्म लेनेके पश्चात् आठ वर्षोंके ऊपर प्रथमसम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसके नीचे नहीं २. सूक्ष्म आदि जीवो ५. १०/५.१,४२६/२०६/६ तेहितो गिग्गयस्स सएण काग संजमा जग्गाभावाद आउकाइयपन से हितोमरप्पण्णस्स सब्बलहुएण कालेन संजमादिग्रहणाभावादो । अपर्याप्तकोंमेंसे निकले हुए जीवके सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयमके ग्रहणका अभाव है |... अकायिक पर्याप्तकों मे से मनुष्योंमे उत्पन्न हुए जीवके सर्वकाल के द्वारा संयम आदिका ग्रहण सम्भव नहीं है। दे. जन्म /६/२ [सूक्ष्म निगोदियासे निकले हुए जीवके सर्व द्वारा संयमासंयम या संयमका ग्रहण । सूक्ष्म निगोदिया से निकलकर सीधे मनुष्य होनेवाले जीव युगपत् सम्यक्श्य व संयमासंयम ग्रहण नहीं कर सकते, बीच में एक भय त्रसका धारण करके मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले जीवके ही वह सम्भव है । ] का १०. पुनः पुनः संयमादि प्राप्त करनेकी सीमा . . १०/४.२४/०९/२१४ एवं माणाभवरहगेहि अट्ट जम याणि अणुपालइत्ता चदुवखुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिदोवमस्स असं खेज्ज विभागमेत्ताणि संजमा जमयाणि सम्मत उमाणि च अणुपादता एवं संसारिण अपनिछमे भमरगपुरवि पृथ्व कोडाउए मणुसे उबवण्णो । ७११ = इस सूत्र के द्वारा संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्वके काण्डकोंकी तथा कषायोपशमनाकी संख्या कही गयी है । यथा-चार बार संयमको प्राप्त करनेपर एक संयम काण्डक होता है। ऐसे आठ ही संयम काण्डक होते है (अर्थात अधिकसे अधिक ३२ बार ही सयमका ग्रहण होता है। क्योंकि इससे आगे संसार नहीं रहता ) इन आठ संयमकाण्डकोंके भीतर कषायोपशामनाके बार बार ही होते हैं। जीवस्थान चूलिकामें जो चारित्र मोहके उपशामन विधानकी और दर्शनमोहके उपशामन विधानकी प्ररूपणा की गयी है, उसकी यहाँ प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु संयमासंयम काण्डक परयोपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं ( अर्थात् अधिक से अधिक पत्य / असके चौगुने बार संयमासंयमका ग्रहण होना संभव है। संयमासंयमकाण्डकोंसे सम्यक्त्वकाण्डक विशेष अधिक है, जो पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र है। गो../मू./१०-६२६/८२२ सम्मतं वेसजमं अगसंजोगणविहि एक्कर पलाएं खेज्जदि बार पडिम जीवो ६१ चारि बारमु समसेढिं समरुहृदि खविदकम्मंसो । बत्तीसं वाराई संजममुवलहिय णिव्वदि । ६१ । प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदकसम्यक्त्व, देशसंयम और अनन्तानुबन्धो के विसंयोजनवा विधान में एक जीव में उत्कृष्टतः पण्योपमके असंख्यात बार ही होते हैं । ६१८ । उपशमश्रेणी चार बार चढ़ने के पीछे अवश्य कर्मोंका क्षय होता है। संयम ३२ बार होता है, पीछे अवश्य निर्वाण प्राप्त करता है। पं. सं./प्रा./टी./५/ ४८८ । ..... संयमभूतकालीन १२ वें तीर्थंकर - दे. तीर्थंकर / ५ । संयमी - दे. संयत । संयोग - दे, सम्बन्ध | -- संयोग द्रव्य -- दे, द्रव्य / १ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोगवाद १४१ संवर संयोगवादगो. क./मू./८६२/१०७२ संजोगमेवेति वदंति तण्णा णेवेकचक्केण रहो पयादि । अंधो य पंगू य वर्ण पविट्ठा ते संपजुत्ता णयई पविट्ठा 1८६२/- यथार्थ ज्ञानी संयोग ही को सार्थक मानते हैं। उनका कहना है कि जैसे एक पहियेसे रथ नहीं चलता और बनमें प्रविष्ट अन्धा और पांगला एक दूसरेके संप्रयोगसे दावाग्निसे अपनी रक्षा करके नगरमें प्रवेश कर जाते हैं, उसी प्रकार बस्तुओंके संयोगसे ही सर्वार्थसिद्धि होती है ।८६२। नोट-[ उपरोक्त बात मिथ्या एकान्तरूप संयोगवादके सम्बन्धमें कही गयी है, पर बिलकुल यही बात इसी उदाहरण सहित सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्रकी मैत्री दर्शानेके लिए आगममें कही गयी- दे. मोक्षमार्ग/१/२/रा. वा.] संयोग सम्बन्ध-१. लक्षण सामान्य स. सि./६/६/३२६५७ संयुजाते इति संयोगो मिश्रीकृतम् । -संयोगका अर्थ मिश्रित करना अर्थात मिलाना है । (रा.वा./६/६/२/११६/१)। रा, वा./५/१६/२७/१२ अप्राप्तिपूर्विका हि प्राप्ति. संयोग'। - आपके (बैशेषिकों के मसमें ) अप्राप्ति पूर्वक प्राप्तिको संयोग कहा है। (स. म./२७/३०२/२६ )। ध. १५/२४/२ को संजोगो । पुधप्पसिद्धाण मेलणं संजोगो) -पृथक सिद्ध पदार्थोंके मेलको संयोग कहते हैं। म. आ./१८ की वसुनन्दि कृत टीका-अमात्मीयस्थात्मभावः संयोगः । अनात्मीय पदार्थो में आत्मभाव होना संयोग है। दे. द्रव्य/१/१० ( पृथक् सत्ताधारी पदार्थोंके संयोगसे संयोग द्रव्य बनते हैं, जैसे छत्री, मौली आदि । २. संयोगके भेद व उनके लक्षण घ. १४/५.६.२३/२७/३ तत्व संजोगो दुविहो देसपच्चासत्तिकओ गुण पच्चासत्तिको चेदि । तत्थ देसपच्चासत्तिको णाम दोणं दवाणमवयवफासं काऊण जमच्छणं सो देसपच्चासत्तिकओ संजोगो । गुणेहि जमण्णोण्णाणुहरणं सो गुणपच्चासत्तिकओ संजोगो। संयोग दो प्रकारका है-देशप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध और गुणप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध । देशप्रत्यासत्ति कृतक काअर्थ है दो द्रव्योंके अवयवोंका सम्बद्ध होकर रहना, यह देशप्रत्यासत्तिकृत संयोग है। गुणों द्वारा जो परस्पर एक दूसरेको ग्रहण करना बह गुणप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध है। * संयोग व बन्ध, अन्तर-दे, युति। * द्रव्य गुण पर्यायमें संयोग सम्बन्धका निरास -दे. द्रव्य/४॥ संयोगाधिकरण-दे. अधिकरण । संयोजन-आहारका एक दोष-दे, आहार/11/४/४ । संयोजना सत्यदे. सत्य/१। संरभ-स. सि./६/८/३२६/३ प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः संरम्भः । -प्रमादी जीवोंका प्राणोंकी हिंसा आदि कार्यमें प्रयत्नशील होना संरम्भ है। (रा. वा/६/८/२/५१३/३२); (चा. सा./८७/४)। संवत्सर-१. वीरसंबत, विक्रमसंवत्. शकसंबतईस्वी संबद, गुप्त संबतोंका निर्देश-दे. इतिहास/२। २. कालका एक प्रमाण विशेष । असर नाम वर्ष-दे. गणित/1/१/४ । संवर-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति ये सब कर्मोके आनेके द्वार होनेसे आसव हैं। इनसे विपरीत सम्यक्त्व देश व महावत, अप्रमाद, मोह व कषायहीन शुद्धात्म परिणति तथा मन, वचन, कायके व्यापारकी निवृत्ति ये सब नबीन कर्मोके निरोधके हेतु होनेसे संबर हैं। तहाँ समिति गुप्ति आदि रूप जीवके शुद्धभाव तो भाव संवर है और नबीन कर्मोंका न आना द्रव्य संबर है। १. संवर सामान्य निर्देश . १. संवर सामान्यका लक्षण त. सू./६/१ आस्रवनिरोधः संवरः ॥११ - आस्रवका निरोध संबर है। रा, वा./९/४/११,१८/पृष्ठ/पंक्ति संवियतेऽनेन संवरणमात्र वा संवरः (१९/२६/१)संबर हव संवरः । क उपमार्थः । यथा मुगुप्तमुस वृतद्वारकवाट पुरं सुरक्षितं दुरासादमारातिभिर्भवति, तथा मुगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रात्मनः सुसंवृतेन्द्रियकषाययोगस्य अभिनवकर्मागमद्वारसंबरणाव संवरः। (१०/२७/४)। रा. वा. १/१/१,२,६/५८७ कर्मागमनि मित्ता प्रादुर्भूतिरासवनिरोधः ॥१॥ तन्निरोधे सति तत्पूर्वकर्मादानाभावः संवरः ।। मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययकर्मसंवरणं संवरः ।६। -१. जिनसे कर्म रुकें बह कर्मोका रुकना संवर है ।११। संवरकी भाँति संवर होता है। जैसे जिस नगरके द्वार अच्छी तरह बन्द हों, वह नगर शत्रुओंको 'अगम्य है, उसी तरह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहूजय और चारित्रसे कर ली है संवृत इन्द्रिय कषाय व योग जिसने ऐसी आत्माये नवीन कर्मोंका द्वार रुक जाना संबर है ।१८। २. अथवा मिथ्यादर्शनादि जो कर्मों के आगमनके निमित्त है ( दे० आस्त्रब ) उनका अप्रादुर्भाव आसवका निरोध है ।१। उसके निरोध हो जानेपर, उस पूर्वक जो कर्मों का ग्रहण पहले होता था, उसका अभाव हो जाना संबर है ।२। अर्थात मिथ्यादर्शन आदिके निमित्त से होने वाले कर्मोका रुक जाना संवर है ।। भ. आ./वि./३८/१३४/१६ संवियते संरुध्यते मिथ्यादर्शनादिः परिणामो येन परिणामान्तरेण सम्यग्दर्शनादिना, गुप्त्यादिना वा स संवरः। = जिस सम्यग्दर्शनादि परिणामोंसे अथवा गुप्ति, समिति आदि परिणामोंसे मिथ्यादर्शनादि परिणाम रोके जाते हैं वे रोकनेवाले परिणाम संवर शब्दसे कहे जाते हैं। न. च. वृ./१५६ रुधिय छिद्दसहस्से जनजाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छताइअभाव तह जीवे संवरो होई ।१५६३ - जिस प्रकार नावके छिद्र रुक जानेपर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, इसी प्रकार मिथ्यास्वादिका अभाव हो जानेपर जीवमें कर्मोंका संबर होता है, अर्थात नवीन कर्मोंका आलब नहीं होता है। * संवरानुप्रेक्षाका लक्षण दे० अनुप्रेक्षा २. द्रव्य व भाव संवर सामान्य निर्देश स. सि./६/१/४०६/६ स द्विविधो भावसंवरो द्रव्यसंवरश्चेति। तत्र संसारनिमित्तकिपानिवृत्तिर्भावसंवरः । तन्निरोधे तत्पूर्वकर्म पुदगलादान विच्छेदो द्रव्यसंवरः। -वह दो प्रकारका है- भावसंवर और द्रव्यसंबर। संसारकी निमित्तभूत क्रियाकी निवृत्ति होना भावसंवर है, और इसका (उपरोक्त क्रियाका ) निरोध होनेपर तत्पूर्वक होने वाले कर्म पुदगलोंके ग्रहणका विच्छेद होना द्रव्यसवर है। (रा.वा./९/१/७-१/५८८/१). (ज्ञा /२/८/१-३)। द.सं./मू./३४-३५ चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू। सो भावसंबरो खलु दवासवरोहणे अण्णो ।४। बदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य । चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंबर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर १४२ २. निश्चय व्यवहार सवरका समन्वय विसेसा ॥३५॥ आत्माका जो परिणाम कर्मके आसवको रोकनेमें के विषयोंसे अपनेको सदा दूर रखता है, उनमें प्रवृत्ति नहीं करता, कारण है, उसको भाव संवर कहते हैं और जो द्रव्यानवको रोकने- उसी मुनिके निश्चयसे संवर होता है ।१०१॥ में कारण है द्रव्य सवर है ।३४॥ पाँचवत, पाँचसमिति, तीनगुप्ति, दे. संवर/१/२/द्र. सं. [उपरोक्त समिति गुप्ति आदि भाव संवरके : दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय तथा अनेक प्रकारका विशेष है। चारित्र इस तरह ये सब भाव संवरके विशेष जानने चाहिए ।३॥ द्र. सं./टी./३५/१४६/६ निराखवशुद्धात्मतत्त्वपरिणतिरूपस्य संवरस्य है. सं./टी./३४/६६/१ निराखवसहजस्वभावरवात्सर्वकर्मसंवरहेतुरित्युक्त- कारणभूता द्वादशानुप्रेक्षाः। =निरास्रव शुद्धात्मतत्त्वकी परिणतिलक्षणः परमात्मा तत्स्वभावनोत्पन्नो योऽसौ शुद्धचेतनपरिणामः स रूप जो सबर है उसकी कारणरूप बारह अनुप्रेक्षा है। [ अर्थात भावसंवरो भवति। यस्तु भावसंवरात्कारणभूतादुत्पन्नः कार्यभूतो शुद्धात्मानुभूति तो संवरमें कारण है, और अनुप्रेक्षा तथा अन्य समिति नवतरद्रव्यवामिनाभावः स द्रव्यसंवर इत्यर्थः । = आस्रवविर- गुप्ति आदि संवरके उस कारणके भी कारण हैं।] हित सहजस्वभाव होनेसे सब कर्मोके रोकने में कारण, जो शुद्ध दे. तप/४/५[ तप संबर व निर्जरा दोनों का कारण है । ) परमात्मतत्त्व है उसके स्वभावसे उत्पन्न जो शुद्धचेतन परिणाम है * कर्मोंके संवरकी ओघ आदेश प्ररूपणा सो भावसंवर है। और कारणभूत भावसंवरसे उत्पन्न हुआ जो -दे. प्रकृतिबन्ध/७ । कार्यरूप नवीन द्रव्यकर्मोके आगमनका अभाव सो द्रव्यसंवर है। * निर्जरामें संवरकी प्रधानता-दे, निर्जरा/२। यह गाथार्थ है। * संवर व निर्जराके कारणोंकी समानता-दे, निर्जरा/२/४। ३. संवरके निश्चय हेतु स. सा./भू./१८७-१८६ अप्पाणमपणा रुधिऊण दोपुण्णपावजोएसु। २. निश्चय व्यवहार संवरका समन्वय दसणणाण म्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्ण म्हि ११८७। जो सव्वसंगमुक्को झायदि अपाणमप्पणो अप्पा । णवि कम्मं णोकम्मं चेदा चितेदि १. निश्चय संवरकी प्रधानतामें हेतु एयत्तं । १८८। अप्पाणं झायंतो दसणणाणमओ अणण्णमओ। लहइ स, सा./मू./१८६ [ कथं शुद्धात्मोपलम्भादेव संवर इति चेत्-( उत्थाअचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मविप्पमुक्को ।१८। [एष संवरप्रकार:- निका)]-सुद्ध तु वियाणं तो सुद्ध' चेव अप्पयं लहइ जीवो। स.सा./आ./१८६] = आत्माको आत्माके द्वारा जो पुण्यपापरूपी जाणं तो दु असुद्ध' असुद्धमेवप्पयं लहइ ।१८६। -प्रश्न-शुद्धात्माकी शुभाशुभ योगोंसे रोककर दर्शनज्ञानमें स्थित होता हुआ और उपलब्धि ही संबर कैसे है ! उत्तर-शुद्धात्माको जानता हुआ, अनु. अन्य वस्तुकी इच्छासे विरत होता हुआ।१८७। जो आत्मा सर्व संगसे भव करता हुआ जीव शुद्धात्माको ही प्राप्त करता है, और अशुद्धात्मारहित होता हुआ अपने आत्माको आत्माके द्वारा ध्याता है और कर्म को जानता हआ जीव अशुद्धात्माको ही प्राप्त करता है ।१८६ ( विशेष तथा नोकर्मको नहीं ध्याता एवं चेतयिता (होनेसे ) एकत्वको दे.संबर/१/३) ही चिन्तवन करता है, अनुभव करता है ।१८८वह (आत्मा) पं. का./मू./१४२-१४३ जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वआत्माको ध्याता हुआ दर्शनज्ञानमय और अनन्यमय होता हुआ दव्वेसे । णासबति सुहं असहं समसुदुरवस्स भिरनुस्स १४२। जस्स अल्पकाल में ही कर्मोंसे रहित आत्माको प्राप्त करता है ।१८६। यह जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स। संवरणं तस्स तदा संवरकी विधि है। सहारहकदस्स कम्मरस ।१४३। --जिसे सद्रव्यों के प्रति राग, द्वेष स. सा./आ./१८३/क. १२६ के पीछे-भेद विज्ञानाच्छ्रद्धात्मोपलम्भः या मोह नहीं है, उस समसुख-दुःख भिक्षुको शुभ और अशुभ कर्म प्रभवति । शुद्धात्मोपलम्भात रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभ- आत्रवित नहीं होते ।१४२। जिसे विरतरूप वर्तते हुए योगमें अर्थात वति। -भेद विज्ञानसे शुद्धात्माकी उपलब्धि होती है और मन, वचन, काय इन तीनों में ही जब पुण्य व पापमें से कोई भी नहीं शुद्धात्माकी उपलब्धिसे राग-द्वेष मोहका अगव जिसका लक्षण है होता है, तब उसे शुभ व अशुभ दोनों भावोंकृत कर्म का अर्थात पुण्य ऐसा संवर होता है। व पाप दोनोंका संबर होता है ।१४३॥ द्र. सं./टी./२८/८५/१२ कर्मास्त्रवनिरोधसमर्थ स्वसं वित्तिपरिणतजीवस्य । बा. अ./६३ सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स । सुहशुभाशुभकर्मागमनसंवरणं संवरः। = कर्मों के आस्त्रबको रोकने में जोगस्स सिरोहो सुद्धवजोगेण संभव दि। - मन, वचन, कायकी समर्थ स्वानुभवमें परिणत जीवके जो शुभ तथा अशुभ कर्मों के आने- शुभ प्रवृत्तियोंसे अशुभयोगका संवर होता है और शुद्धोपयोगसे का निरोध है वह संबर है। (4. का/ता. बृ./१४४/२०६/१०)। शुभयोगका भी संवर हो जाता है ।६३ ( और भी दे. संवर/२/४) दे. धर्म/७/१ [जब तक साधु आत्मस्वरूपमें लीन रहता है तब तक ही ४. संवरके व्यवहार हेतु सकल विकल्पोंसे विहीन उस साधुको संवर व निर्जरा जाननी त. सू./8/२ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः ।२। वह चाहिए । संवर गुप्ति, समिति. दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय २. व्यवहार संवर निर्देश में हेतु और सामायिकादि पाँच प्रकार चारित्र इनसे होता है। (रा. वा/९/ ७/१४/४०/१२); ( का.अ.मू./६६); (दे. संवर/१/१)। ना, आ /६२ पंचमहव्वयमणसा अविरमणणिरोहणं हवे णियमा । का. आ./मू.'१५,१०१ सम्मत्तं देसवयं महब्बयं तह जओ कसायाण । कोहादि आसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगे हिं ( 1 ) ६२॥ - पाँच एदे संबरणामा जोगाभावो तहा चेव ।१५। जो पुण विसयविरत्तो महावतोंसे नियमपूर्वक पाँच अविरति रूप परिणामोंका निरोध अप्पाणं सव्वदो वि संवरइ । मणहरविसएहितो तस्स फुडं संवरो होता है और कषाय रहित परिणामों से क्रोधादि रूप आत्रवों के द्वारा होदि ।१०१। -१. सम्यक्त्व, देशवत, महावत, कषायोंका जीतना रुक जाते हैं ।६। और योगोंका अभाव ये सब संवरके नाम हैं । १५ [(दे. संवर/२/२)- ध.७/२.१,७/गा. २/8 मिच्छत्ताविरदी विय कसाय जोगा य आसवा मिथ्यात्व अविरति आदि जो पाँच बन्धके हेतु कहे गये हैं, उनसे होति ।२१ -मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मों के आत्रव विपरीत ये सम्यक्त्व आदि संवरके हेतु सिद्ध हैं। (दे. संवर/१/१)। हैं। तथा ( इनसे विपरीत) सम्यग्दर्शन, विषयविरक्ति, कषायनिग्रह, २. जो मुनि विषयों से विरक्त होकर, मनको हरनेवाले पाँचों इन्द्रियों- और मन, वचन, कायका निरोध ये सबर हैं । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर १४३ २. निश्चय व्यवहार संवरका समन्वय मसि.//सूत्रसं/पृष्ठ सं./पक्ति सं. कायादियोगनिरोधे सति तन्निमित्ते कर्म नासवतीति संवर प्रसिद्धिरवगन्तव्या। (४/४११/५)। तथा प्रवर्तमानस्यासंयमपरिणामनिमित्तकस्सिवात्संवरो भवति। (१) ४१६/११)1 तान्येतानि धर्मव्यपदेशभाझि स्वगुणप्रतिपक्षदोषसद्भाबनाप्रणिहितानि संवरकारणानि भवन्ति । (६/४१३/१२)। एवमनित्यस्वाद्यनुप्रेक्षासंनिधाने उत्तमक्षमादिधारणान्महान् संवरो भवति । (७४१६७)। एवं परिषहान् असंकल्पोपस्थितान् सहमानस्यासंक्लिष्टचेतसो रागादिपरिणामासवनिरोधान्महान्संवरो भवति । (६/४२८/१)। रा.पा./१/१८/१४/६१८/१ तदेतच्चारित्र पूर्वानवनिरोधकारणत्वात्परम संबरहेतुरवसेयः। -१. काय आदि योगोंका निरोध होनेपर योग निमित्तक कर्मका आस्रव नहीं होता है, इसलिए गुप्तिसे संवरकी सिद्धि जान लेना चाहिए ।४। (रा. वा./६/१/४/५६३/२०); (त. सा./६/५) । इस प्रकार समितियों रूप प्रवृत्ति करनेवाले के असंयमरूप परिणामोंके निमित्तसे होनेवाले कर्मोके आसवका संवर होता है । (रा. वा./६/५/६/५६४/३२ ); (ता. सा./६/१२)। इस प्रकार जीवन में उतारे गये स्वगुण तथा प्रतिपक्षभूत दोषोंके सद्भावमें • यह लाभ और यह हानि है, इस तरहकी भावनासे प्राप्त हुए ये धर्मसंज्ञावाले उत्तम क्षमादिक संवरके कारण हैं ।६। (रा.वा.// ६/२७/१६६/३२); (त. सा./६/२२)। इस प्रकार अनित्यादि अनुप्रक्षाओंका सान्निध्य मिलनेपर उत्तमक्षमादिके धारण करनेसे महान् संबर होता है । (रा. वा./६/७/११/६०७/५); (त. सा./६/२६) । इस प्रकार जो संकल्पके बिना उपस्थित हुए परिषहोंको सहन करता है, और जिसका चित्त संक्लेश रहित है, उसके रागादि परिणामों के आत्रबका निरोध होनेसे महान संबर होता है ।। (रा. वा./8/8/२८/६१२/२१); (त. सा./६/४३)। २. यह सामायिकादि भेदरूप चारित्र पूर्व आत्रबों के निरोधका हेतु होनेसे परमसंवरका हेतु है। ( त. सा./६/५०) ३. व्रत वास्तवमें शुमास्रव हैं संवर नहीं स. सि./७/१ को उत्थानिका/३४२/२ आस्रवपदार्थो व्याख्यातः। तत्प्रा रम्भकाले एवोक्तं 'शुभः पुण्यस्य' इति तत्सामान्येनोक्तम् । तद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थ कः पुनः शुभ इत्युक्ते इदमुच्यते-हिंसानृतस्तैयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ।१३ -आस्रव पदार्थका व्याख्यान करते समय उसके आरम्भमें 'शुभ योग पुण्यका कारण है' यह कहा है (त. सू./ ६/३)। पर वह सामान्य रूपसे ही कहा है अतः विशेषरूपसे उसका ज्ञान करानेके लिए शुभ क्या है ऐसा पूछनेपर आगेका सूत्र कहते हैं कि हिंसा आदिसे निवृत्त होना व्रत है। रा.वा./७/१ की उत्थानिका/५३१/४ कैस्ते क्रियाविशेषाः प्रारभ्यमाणास्तस्यास्रवा भवन्तीति । अत्रोच्यते-बतिभिः। - प्रश्न --वे क्रिया विशेष कौन सी हैं, जिनके द्वारा कि उसके प्रारम्भ करनेवालोंको पुण्यका आसव होता है । उत्तर-बतरूप क्रियाओं के द्वारा पुण्यका आस्रव होता है। दे. पुण्य/१/५ [जीव दया, शुभ योग व उपयोग, सरलता, भक्ति, चारित्र में प्रीति, यम, प्रशम, व्रत, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य, आगमाभ्यास, मुगुप्तकाय योग, व कायोत्सर्ग आदिसे पुण्य कर्मका आस्रव होता है। दे. तत्त्व/२/६ [ पुण्य और पाप दोनों तत्त्व आस्रवमें अन्तर्भत हैं।] दे, वेदनीय/४ [सराग संयम आदि सातावेदनीयके आलवके कारण दे. मनोयोग/ [ व्रत, समिति, शोल, संयम आदिको शुभ मनोयोग जानना चाहिए। ४. व्रतादिसे केवल णपका संवर होता है पं. का./म./१४१ इंदियकसायसण्णा णिगहिदा जेहिं सु? मग्गम्मि । जावत्तावत्तेहि पिहियं पात्रासच्छिदं । =जो भलीभाँति मार्ग में रहकर इन्द्रिय, कषाय और संज्ञाओ का जितना निग्रह करते हैं उतना पाप आखवका छिद्र उनका बन्द होता है। द्र. सं./टी./३६/१४६/६ एवं बतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजय चारित्राणां भावसं वरकारणभूतानां यदव्याख्यानं कृतं, तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापात्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि । यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षण निश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसबरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । = इस प्रकार भावसंवर काकारणभूत व्रत,समिति, गुप्ति,धर्म,अनुप्रेक्षा, परोषहजय और चारित्र इन सबका जो पहले व्याख्यान किया है (दे. संवर/१/४) उस व्याख्यानमें निश्चय रत्नत्रयको साधनेवाला जो व्यवहार रत्नत्रयरूप शुभोपयोग है, उसका निरूपण करनेवाले जो वाक्य हैं वे पापालवके संवरमें कारण जानने चाहिए। और जो व्यवहार रत्नत्रयसे साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रयके प्रतिपादक वाक्य है वे पुण्य तथ, पाप इन दोनों आस्रबोंके संवरके कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए। दे, संवर/२/२ [शुभयोगरूप प्रवृत्तिसे अशुभयोगका संवर होता है और शुद्धोपयोगसे शुभयोगका भी। दे. निर्जरा/३/१ [सरागी जीवों को निर्जरासे यद्यपि अशुभकर्मका विनाश होता है, पर साथ ही शुभकर्मोंका बन्ध हो जाता है। ] * सम्यग्दृष्टिको ही संवर होता है मिथ्यादृष्टिको नहीं -दे. मिथ्यादृष्टि/४/२। * प्रवृत्तिके साथ भी निवृत्तिका अंश-दे. चारित्र/9/७ । ५. निवृत्त्यंशके कारण ही व्रतादि संवर हैं स. सि./७/१/३४३/७ ननु चास्य व्रतस्यास्रव हेतुत्वमनुपपन्नं संवरहेतुष्यन्तर्भावात् । संवरहेतवो बड्यन्ते गुप्तिसमित्यादयः। तत्र दशविधे धर्म संयमे वा बतानामन्तर्भाव इति । नैष दोषः; तत्र संवरो निवृत्तिलक्षणो वक्ष्यते। प्रवृत्तिश्चात्र दृश्यते; हिंसानृतादत्तादानादिपरित्यागे अहिंसासत्यवचनदत्तादानादिक्रियाप्रतीतेः गुप्त्यादिसंबरपरिकर्मत्वाच्च । व्रतेषु हि कृतपरिकर्मा साधु सुखेन संवरं करोतीति ततः पृथक्त्वेनोपदेशः क्रियते । प्रश्न-यह व्रत आस्रवका कारण है यह बात नहीं बनती क्योंकि संवरके कारणों में इसका अन्तर्भाव होता है। आगे गुप्ति, समिति आदि संवरके कारण कहनेवाले हैं। वहाँ दस प्रकारके धर्मों में एक संयम नामका धर्म बताया है। उसमें व्रतोंका अन्तर्भाव होता है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ निवृत्तिरूप संवरका कथन करेंगे, और यहाँ प्रवृत्ति देखी जाती है। क्यों कि, हिंसा, असत्य और अदत्तादान आदिका त्याग करनेपर भी अहिसा, असत्य, वचन और दत्तवस्तुका ग्रहण आदिरूप क्रिया देखी जाती है। दूसरे ये बत, गुप्ति आदि रूप संवरके अंग हैं। जिस साधुने व्रतोंकी मर्यादा कर ली है, वह सुख पूर्वक संवर करता है, इसलिए व्रतोंका अलगसे उपदेश दिया है । (रा.वा/७/१/१०-१४/५३४/१४) । त. सा./६/४३, ५१ एवं भावयतः साधोभवेद्धर्ममहोद्यमः। ततो हि निष्प्रमादस्य महात् भवति संवरः ।४३ तपस्तु वक्ष्यते लद्धि सम्यग्भावयतो यतैः । स्नेहक्षयात्तथा योगरोधाइ भवति संवरः ॥११॥ -इस प्रकार १२ अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करनेसे साधुके धर्मका महान् उद्योत होता है, ऐसा करनेसे उसके प्रमाद दूर हो जाते हैं दे. आयु/३/११ [ सराग संयम व संयमासंयम आदि देवायुके आस्रवके कारण हैं।] दे. चारित्र/१/४ [बत, समिति, गुप्ति आदि शुभ प्रवृत्ति रूप चारित्र जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगित १४४ संशय और प्रमाद रहित होनेसे कर्मोंका महान् संवर होता है ।४३। तप आगे प.ध./उ./४३१ संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चित्तः। सधर्मेष्वनुरागो कहेंगे। उसको यथार्थ भावना करनेवाले योगीका राग-द्वेष नष्ट हो वा प्रीति परमेष्ठिषु ।४३११- धर्म में व धर्म के फलमें आत्माके परम जाता है, और योग भी रुक जाते हैं। इसलिए उसके संवर सिद्ध उत्साहको संवेग कहते हैं, अथवा धार्मिक पुरुषोमे अनुराग अथवा होता है ।५१ पंचपरमेष्ठी में प्रीति रखनेको सवेग कहते हैं ।४३१० दे. उपयोग/II/३/३ [ जितना रागांश है उतना बन्ध है और जितना * संवेगोत्पादक कुछ भावनाएँ-दे. वैराग्य/२। वीतरागाश है उतना संवर है। दे. निर्जरा/२/४ [ जब तक आत्मस्वरूपमें स्थिति रहती है तब तक * अकेले संवेगसे तीर्थंकरत्वके बन्धकी सम्भावना संबर व निर्जरा होते हैं।] __-दे. भावना/२। संगित-धर्गित संवर्गितकरण विधि-दे, गणित/II/१/३ । २. संवेगमें शेष १५ भावनाओं का समावेश संवाद-दे. वाद। ध. ८/३.४१/०६/५ कधं लद्धिसंवेगसंपयाएं सेसकारणाणं संभयो। ण संवास अनुमति-दे. अनुमति । सेसकारणे हि विणा लद्धिसंवेगस्स संपया जुज्जदे, पिरोहादो। लद्धिसंवाह संवेगो णाम तिरयणदोहल ओ, ण सो दंसण विसुज्झदादीहि विणा संपुष्णो होदि, विपडिमहादो हिरण्णसुवण्णादीहि विणा अड्ढो व्व। ध.१३/५५,६३/३३६/२ यत्र शिरसा धान्यमारोप्यते स संवाहः । तदो अप्पणो अंतोखित्तसेसकारणा लद्धिसंवेगसंपया छट्ट' कारण । __जहाँपर शिरसे लेकर धान्य रखा जाता है उसका नाम संबाह है। - प्रश्न-लब्धिसंवेग सम्पन्नतामें शेष कारणों की सम्भावना कैसे म. पु./१६/१७३ संवाहस्तु शिरोव्यूढधान्यसंजय इष्यते ११७३ - जहाँ है ? उत्तर- क्योंकि शेष कारणों के बिना विरुद्ध होनेसे लब्धिसंवेगकी मस्तक पर्यन्त ऊंचे-ऊंचे धान्यके ढेर लगे हों वह संवाहन कह सम्पदाका संयोग ही नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि लाता है। त्रि. सा./६७४-६७६ संबाह ।६७४।...सिन्धुवेलावलयितः।६७६ समुद्रकी रत्नत्रय जनित हर्ष का नाम लब्धिसंवेग है । और वह दर्शनविशुद्धतावेलासे वेष्टित स्थान संवाह कहलाता है। दिकों के विना सम्पूर्ण होता नहीं है, क्योंकि, इसमें हिरण्य सुवर्णा दिकों के विना धनाढय होने के समान विरोध है। अतएव शेष कारणोंसंवाहन को अपने अन्तर्गत करनेवाती लब्धिसंवेग सम्पदा तीर्थकर कर्मति.प./४/१४०० संवाहणं ति बहुविहर महासेल सिहररथ १४००। बन्धका छठा कारण है। बहुत प्रकारके अरण्योंसे युक्त महापर्वतके शिखरपर स्थित संवाहन संवेजनीकथा-दे. कथा। जानना चाहिए। संव्यवहरण-आहार का एक दोष-दे. आहार/II/४/४। सावत् स्या. म/१६/२२१/२८ सम्यग्वै परीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति संवित । जिससे यथार्थ रीतिसे वस्तुका ज्ञान संशय यह सीप है या चाँदी इस प्रकार के दो कोरिमें झूलनेवाले हो उस ज्ञान को संवित् कहते हैं। ज्ञानको संशय कहते हैं। देव व धर्म आदिके स्वरूपमें यह ठीक संविति-दे. अनुभव/१। है या नहीं ऐसी दोलायमान श्रद्धा संशय मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन में क्षयोपशमकी हीनताके कारण संशय व संशयातिचार हो सकते हैं सवृत-स. सि./२/३२/१८७/११ सम्यग्वृतः संवृतः। संवृत इति पर तत्त्वोंपर दृढ़ प्रतीति निरन्तर बने रहनेके कारण उसे संशय दुरुपलक्ष्यप्रदेश इत्युच्यते।भले प्रकारसे जो ढका हो उसे संवृत मिथ्यात्व नहीं होता। कहते हैं। यहाँ संवृत ऐसे स्थानको कहते हैं जो देखने में न आवे । १. संशय सामान्यका लक्षण (विशेष दे, योनि); (रा.वा./२/३२/३/१४१/२६) संवृति सत्य--दे सत्य/१ । रा. वा./१/६/४/३६/११ सामान्य प्रत्यक्षाइ विशेषाप्रत्यक्षाइविशेषस्मृतेश्च संशयः। संवेग-१. संसारसे भयके अर्थ में रा. वा./९/१२/१३/६९/२७ कि शुक्लमुत् कृष्णम् इत्यादि विशेषाप्रतिपत्तेः स. सि./६/२४/३३६/११ संसारदुःखान्नित्यभीरता संवेगः- संसारके । संशयः । =१. सामान्य धर्मका प्रत्यक्ष होनेपर और विशेष दुःखोंसे नित्य डरते रहना संवेग है ( रा. वा./६/२४/१/५२६/२५); धर्म का प्रत्यक्ष न होनेपर किन्तु उभय विशेषोंका स्पर्श होनेपर (चा. सा/५३/५); (भा.पा./टी./७७/२२१/७) संशय होता है। (और भी दे. अत्रग्रह/२/१) । २. 'यह शुक्ल है कि भ.आ./वि./३५/१२७/१३ संविग्गो संसाराद् द्रव्यभावरूपात परिवर्तनात कृष्ण' इत्या दिमें विशेषताका निश्चय न होना संशय है । भयमुपगतः । - संवेग अर्थात् द्रव्य व भावरूप पंचपरिवर्तन संसारसे न्या. दी./१/88/8/५ विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञान संशयः, यथा स्थाणुर्वा जिसको भय उत्पन्न हुआ है। पुरुषो वेति । स्थाणुपुरुषसाधारणोद्वतादिधर्मदर्शनात्तद्विशेषस्य २. धर्मोत्साहके अर्थ में बक्रकोटरशिरःपाण्यादेः साधकप्रमाणाभावादनेककोट्यवलम्बित्वं ज्ञानस्य। = विरुद्ध अनेक पक्षोंका अवगाहन करने वाले ज्ञानको ध.८/३,४१/०६/३ सम्मदसणणाणचरणेसु जीवस्स समागमो लद्धी संशय कहते हैं। जैसे-'यह स्थाणु है या पुरुष है.' स्थाणु और णाम । हरिसो संतो संवेगो णाम। लद्धीए संवेगो लद्धिसंवेगो, तस्स पुरुषमें सामान्य रूपसे रहने वाले ऊँचाई आदि साधारण धर्मोके संपण्णदा संपत्ती ।-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें देखने और स्थाणुगत टेढ़ापन, कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत शिर, जो जोवका समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं, और हर्ष व पैर आदि विशेष धर्मों के साधक प्रमाणोंका अभाव होनेसे नाना सात्विक भावका नाम संवेग है। लब्धिसे या लब्धिमें संवेगका नाम कोटियों को अवगाहन करने वाला यह संशय ज्ञान उत्पन्न होता है। लब्धि सवेग और उसकी सम्पन्नताका अर्थ सम्प्राप्ति है। (स. भ.त/८०/४), (न्या. सू./टी/१/१/२३/२८/२१)। द्र. संटी./३५/११२/७ पर उधृत-धम्मे य धम्मफलम्हि दंसणे य स भ.तं./८/४ एकवस्तुविशेष्यकविरुद्ध नानाधर्म प्रकारकज्ञानं हि हरिसो य हुति संवेगो । धर्म में, धर्मके फल में और दर्शनमे जो हर्ष संशयः । -एक ही बस्तु विषयक, विरुद्ध नानाधर्म विशेषणक युक्त होता है, वह संवेग है। ज्ञानको संशय कहते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशय संशय श्लो. वा./२/१/३३/न्या. ४५६/भाषाकार/१५९/१४ भेदाभेदात्मकत्वे ____४. संशय, विपर्यय व अनध्यवसायमें अन्तर सदसदात्मकत्वे वा बस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्यत्वं न्या. दो./१/६/११ इदं हि नानाकोट्यवलम्बनाभावान्न संशयः विपसंशयः। -सम्पूर्ण पदार्थोंको अस्ति-नास्तिरूप या भेद अभेदात्मक रीत ककोटिनिश्चयाभावान्न विपर्यय इति पृथगेव । -यह (अनस्वीकार करनेपर, वस्तुका असाधारण स्वरूप करके निश्चय नहीं ध्यवसाय ) ज्ञान नाना पक्षोंका अवगाहन न करनेसे न संशय है किया जा सकता है, अतः संशय दोष आता है। और विपरीत एक पक्षका निश्चय न करनेसे न विपर्यय है। २. संशयके भेद व उनके लक्षण ५. शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्वमें अन्तर न्या.सू. व भाष्यका भावार्थ /१/९/२३/२८-३० समानानेकधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः। भ. आ./वि./४४/१४३/६ ननु सति सम्यक्त्वे तदतिचारो युज्यते । -१. समान धर्म के ज्ञानसे विशेषकी अपेक्षासहित अबमर्शको संशयश्च मिथ्यात्वमावहति । तथाहि मिथ्यात्वभेदेषु संशयोऽपि संशय कहते हैं जैसे-दूर स्थानसे सूखा वृक्ष देखकर यह क्या वस्तु गणितः । .."सत्यपि संशये सम्यग्दर्शनमस्त्येवेति अतिचारता युक्ता । है स्थाणु है या पुरुष ऐसे अनिश्चित रूप ज्ञानको संशय कहते हैं। कथं । श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषाभावात्...यदि नामनिर्ण यो २. अनेक धर्मोंका ज्ञान होनेपर यह धर्म किसका है ऐसा निश्चय नोपजायते। तथापि तु इदं यथा सर्व विदा उपलब्ध सथै वेति श्रद्दन होना संशय है। जैसे-यह सब नामका धर्म द्रव्यका है, गुण- धेहमिति भावयतः कथं सम्यक्त्वहानिः । एवं भूतश्रद्धानरहितस्य का है अथवा द्रव्य गुण दोनोंका है। ३. विप्रतिपत्ति अर्थात पर- को वेति किमत्र तत्त्वमिति "तं मिच्छत्तं जमसहहणं तच्चाण होदि स्पर विरोधी पदार्थोंको साथ देखनेसे भी सन्देह होता है। जैसे- अत्थाण' मिति । " किं च छद्मस्थान रज्जूरगस्थाणुपुरुषादिषु एक शास्त्र कहता है कि आत्मा है, दूसरा कहता है कि नहीं, दोमें किमियं रज्जूरगः, स्थाणुः पुरुषो बा किमित्यनेकः संशयप्रत्ययो से एकका निश्चय कराने वाला कोई हेतु मिलता नहीं, उसमें जायते इति ते सम्यग्दृष्टयः स्युः। -प्रश्न-यदि सम्यग्दर्शन हो तो तत्त्वका निश्चय न होना संशय है। ४. उपलब्धिको अव्यवस्था- उसका शंका अतिचार मानना योग्य है परन्तु संशय मिथ्यापनेको से भी सन्देह होता है, जैसे सत्य, जल, तालाब आदिमें और असत्य धारण करता है।...मिथ्यालके भेदोंमें आचार्यने इसकी गणना किरणोंमें। फिर कहीं प्राप्ति होनेसे यथार्थ के निश्चय कराने वाले भो की है। उत्तर-आपका कहना ठीक है, संशयके सद्भावमें प्रमाणके अभावसे क्या सत्का ज्ञान होता है या असलुका 1 यह . भी सम्यक्त्व रहता ही है। अतः संशयको अतिचारपना मानना सन्देह वा संशय होना। ५. इसी प्रकार अनुपलब्धिकी अव्यवस्था- युक्तियुक्त है इसका स्पष्टीकरण ऐसा करते हैं । ...विशिष्टि क्षयोपशम से भी संशय होता है। पहले लक्षणमें तुल्य अनेक धर्म जानने योग्य त होना.. इत्यादि कारणोंसे वस्तुस्वरूपका निर्णय नहीं होता, वस्तुमें है और उपलब्धि यह ज्ञाता है। इतनी विशेषता है। तो भी जैसा सर्वज्ञ जिनेश्वरने वस्तु स्वरूप जाना है वह वैसी ही है ऐसी मैं श्रद्धा रखता हूँ, ऐसी भावना करने वाले भव्यके ३. संशय मिथ्यात्वका लक्षण सम्यक्त्वकी हानि कैसे होगी. उसका सम्यग्दर्शन समल हागा स. सि./८/१/३७५/७ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि किं मोक्षमार्गः स्याद्वा परन्तु नष्ट न होगा [.. उपर्युक्त श्रद्धासे जो रहित है वह हमेशा न वेत्यन्यतरपक्षापरिग्रहः संशयः । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और संशयाकुलित ही रहता है, वास्तविक तत्त्वस्वरूप क्या है । उसको चारित्र, ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है या नहीं, इस प्रकार किसी कौन जानता है कुछ निर्णय कर नहीं सकते ऐसी उसकी मति एक पक्षको स्वीकार नहीं करना संशय मिथ्यादर्शन है। (रा. वा./ रहती है...संशय मिथ्यात्वसे सच्चे तत्त्वके प्रति अरुचि भाव ८/१/२८/५६४/२१), (त. सा.//५)। रहता है ।...छास्थोंको भी डोरी, सर्प, खूट, मनुष्य इत्यादि पदार्थों भ, आ/बि./५६/१८०/२० संसयिदं संशयितं किचित्तत्त्वमिति । में यह रज्जू है ! या सर्प है। यह खूट है या मनुष्य है इत्यादि तत्त्वानवधारणात्मकं संशयज्ञानसहचारि अश्रद्धानं संशयितम् । अनेक प्रकारका.संशय उत्पन्न होता है तो भी वे सम्यग्दृष्टि हैं। न हि संदिहानस्य तत्त्वविषयं श्रद्धानमस्ति इदमित्थमेवेति । ____ अन. ध./२/७१ विश्वं विश्वविदाज्ञयाभ्युपगतः शङ्कास्तमोहोदयाजनिश्चयप्रत्ययसहभावित्वात् श्रद्धानस्य । -जिसमें तत्वोंका ज्ञानावृत्त्युदयान्मतिः प्रवचने दोलायिता संशयः । दृष्टि निश्चयनिश्चय नहीं है ऐसे संशयज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले श्रद्धानको माश्रितां मलिनयेत्सा साहिरज्ज्वादिगा-या मोहोदयसंशयात्दरुचिः सशय मिथ्यात्व कहते हैं। जिसको पदार्थोंके स्वरूपका निश्चय स्यात्सा तु संशीतिक ७१३ -मोहोदयके उदयका अस्त होनेसे नहीं है उसको जोबादिकोंका स्वरूप ऐसा ही है अन्य नहीं है यथावत् विश्वास करनेवाले जीवको ज्ञानावरण कर्म के उदयसे तत्त्वोके ऐसी तत्त्व विषयक सच्ची श्रद्धा नहीं रहती है। जब सच्ची श्रद्धा विषयमें दोलायमान बुद्धिको संशय कहते हैं। इस संशयको ही शंका होती है तब निश्चय ज्ञान होता है। नामक अतिचार कहते हैं वही निश्चय सम्यग्दर्शनको मलिन करती घ.८/३.६/२०/८ सम्बत्थ संदेहो चेव णिच्छओ रियत्ति अहिणिवेसो है। सर्प रज्जु आदिके विषयमें उत्पन्न शंका उसको मलिन नहीं संसयमिच्छत्तं । -सर्वत्र सन्देह ही है, निश्चय नहीं है, ऐसे अभि- करती। अर्थात जिस शंकासे सम्यग्दर्शन मलिन हो उसे शंका निवेशको संशय मिथ्यात्व कहते हैं। अतिचार कहते हैं । जो शंका मोहनोय कर्मके उदयसे उत्पन्न हो और नि. सा./ता. वृ./५१ संशयः तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति । जिससे सर्वज्ञोक्त तत्त्वोंमें अश्रद्धा हो उसको संशय मिथ्यात्व -जिनदेव होंगे या शिवदेव होंगे, यह संशय है। कहते हैं। गो, जी./जी प्र./१६/४१/४.इन्द्रो नाम श्वेताम्बरगुरुः तदादयः संशयमिथ्यादृष्टयः। - इन्द्र नामक श्वेताम्बरोंके गुरुको आदि देकर * संशय मिथ्यात्व व मिश्र गुणस्थानमें अन्तर संशय मिथ्यादृष्टि है। -वे. मिश्र/२। द्र. सं./टी./४२/१८०/६ शुद्धात्मतत्त्वादिप्रतिपादकमागमज्ञानं किं वीत- * सम्यग्दृष्टिको भी कदाचित् पदार्थके स्वरूपमें संशय रागसर्वज्ञप्रणीतं भविष्यति परसमयप्रणीतं वेति, संशयः । = शुद्ध -दे. निःशंकित । आत्मतत्त्वादिका प्रतिपादक तत्त्वज्ञान, क्या वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है या अन्य मतियों द्वारा कहा हुआ सत्य है, यह * सम्यग्दृष्टिको संशयके समय कथंचित् अन्धनद्धान संशय है। या अश्रद्धान-दे, श्रद्धान/३। भा०४-१९ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशयवचनी भाषा संशयवचनी भाषा दे. भाषा । संशयसमा जाति - न्या. सू. / मू. व भाष्य / ५ /१/१४/२१३/१३ सामान्यदृष्टान्तयोरिन्द्रिय करवे समाने नित्यानित्यसाधम्र्म्यात्संशयसमः । १४। अनित्यः शब्दः प्रयत्नान्तरीयकत्वा पटवदित्युक्ते देती संशयेन प्रत्यवतिष्ठते सति प्रयत्नानन्तरीयकर अस्त्येवास्य नित्येन सामान्येन साधर्म्यमे न्द्रयकरवमस्ति च घटेनानित्येनातो नित्यानित्यसाधर्म्याद निवृत्तः संशयइति अस्योत्तरम् | १४ | = सामान्य ( शब्दत्व ) और दृष्टान्त (घट) दोनोंके ऐन्द्रियकत्व समान होनेपर नित्य, अनित्योके साधर्म्यसे संशयसम प्रतिषेध उठा दिया जाता है ।१४। जैसे - शब्द अनित्य है प्रयत्न से उत्पन्न होनेवाले परकी भाँति ऐसा कहनेपर हेतुमें सन्देह खड़ा रहता है । प्रयत्नकी समानता रहनेपर भी इसका नित्य सामान्यके साथ ऐन्द्रियक रूप साम्य है और अनित्य घटके साथ भी समानधर्मता है, इसलिए नायिके साधर्म्य से संदेह निवृत्त न हुआ। ( श्लो. वा. २/१/३/न्या. ३८०/५०६/१३ में इसपर चर्चा ) । संशयाने कान्तिक हेत्वाभास दे, व्यभिचार संशयासिद्ध हेत्वाभास दे. असिद्ध संश्लेश बन्ध - दे, श्लेष । दिवसा संसक्त साधु १. भ. बा. / . / १२१२-१२१४ अधवा समण जोगपरितो । जो उब्वायदि सो होदि नियत्तो साधु१३१३ दिसावया केई मामि तापि सव्वाणि । दोसेहि रोहि सम्मेहि संसचा १३९४ इन्द्र और कषायों के दोष से अथवा सामान्य ध्यानादिकसे विरक्त होकर जो साधु चारित्रसे भ्रष्ट होता है वह साधु सार्थ से अलग होता है | १३१३ । इन्द्रिय विषय और मायके वशीभूत कनेक भ्रष्ट मुनि सर्व दोषोंसे युक्त 1. हो कर सर्व अशुभ स्थानको प्राप्ति करानेवाले परिणामोंको प्राप्त होत हैं । १३१४ । भ. आ / वि. / १९६५०/१७२२/२४ संसक्तो निरूप्यते-- प्रियचारित्रे प्रियचारित्रः अप्रियचारित्रे दृष्टे चारित्रः नटवदनेकरूपग्राही संसक्तः, पचेद्रियेषु प्रसक्तः विविधगौरवप्रविद्धः स्त्रीविषये क्लेसहित गृहस्थजनप्रियश्च संरुतः संसक्त मुनिका वर्णन-ऐसे मुनि चारित्रप्रिय मुनिके सहवाससे चारित्रप्रिय और चारित्र"अप्रिय मुनके सहवाससे चारित्र अप्रिय बनते हैं। नटके समान इनका आचरण रहता है। ये संसक्त मुनि इन्द्रियोंके विषयमें आसक्त रहते हैं, तथा तोन प्रकार गारवों में आसक्त होते हैं । स्त्रीके विषय में इनके परिणाम संपलेश युक्त होते हैं। गृहस्थोंपर इनका विशेष प्रेम होता है। चा.सा./१४४/११.मयेकज्योतिष्कोपजीवी राजादिसेवकः संसक्तः । - जो मन्त्र, वैद्यक वा ज्योतिष शास्त्रसे अपनी जीविका करते हैं। और राजा आदिकों की सेवा करते हैं वे संसक्त सांधु हैं। ( भा. पा./ टी. / १४ / १३७ /२० ) । २. संसक्त साधु सम्बन्धी विषय- दे. साधु /५ । संसर्ग - १. स्या. म. / २३/२८४/२८ संसर्गे तु भेदः प्रधानम् - अभेदोगोण इति विशेष संसर्ग में भेइकी प्रधानता और अभेदकी गौणता होती है। ( स. भं. स. / ३३/२१ ) । २. संसर्गकी अपेक्षा बस्तु भेदाभेद देगी/४/८ । - संसार - संसरण करने अर्थात् जन्म मरण करने का नाम संसार है। अनादिकाल से जन्म मरण करते हुए इस जीवने एक-एक करके लोकके सर्व परमाणुओंको, सर्व प्रदेशोंको, कालके सर्व समको, सर्व प्रकार के कषाय भावोंको और नरकादि सर्वभवको अनन्त अनन्त १४६ संसार बार ग्रहण करके छोड़ा है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से यह संसार पंच परिवर्तन रूप कहा जाता है। १. संसार सामान्य निर्देश १. संसार सामान्यका लक्षण १. परिवर्तन स.सि./२/१०/१६४/० संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः । स.सि./१/०/४१६/९ कर्म विपाशादात्मनो भवान्तराजातिः संसारः । - १. संसरण करनेको संसार कहते हैं जिसका अर्थ परिवर्तन है। २. कर्म के विपाकके वंशसे आत्माको भवान्तरकी प्राप्ति होना संसार है । ( . रा. बा० / - २ / १० /१/१२४/१५; ६/९/८/५८८/२ ६/७/३/200/२८)। का.अ./मू./२२-१३ एका पयदि सरीर अवं गिव्हेदि जनणवं जीमो पुणु पुणु अगं अगं हिदि मुंचेदि बहु मार |३२| एवं जं संसरणं णाणा देहेसु होदि जीवस्स । सो संसारो भण्णदि मिच्छ कसाएहिं जुत्तस्स |३३| - जीव एक शरीरको छोड़ता है और दूसरे नये शरीरको ग्रहण करता है । पश्चात् उसे भी छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है। इस प्रकार अनेक बार शरीरको ग्रहण करता है और अनेक बार उसे छोड़ता है। मिथ्यात्व कषाय वगैरहसे युक्त जीवका इस प्रकार अनेक शरीरोंमें जो संसरण (परिभ्रमण ) होता है, उसे संसार कहते हैं । २. कर्म १३/५४,१०/०४/१० संसरति अनेन पातिकर्मसापेन चतम गति वितिघातिकर्मकलापः संसारः । - जिस घातिकर्म समूहके कारण जीव चारों गतियों में संसरण करते हैं, वह घातिकर्म समूह संसार है । २. संसार असंसार आदि संसार निर्देश रा. बा./१/७/३/६००/२८ चतुर्विधात्मावस्था:- संसारः असंसारः नोसंसारः तत्रितयव्यायश्चेति । तत्र संसारश्चतसृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम् अनागतिरसंसारः शिवपदपरमामृत 'नोसंसारसयोगकेवलिन सुप्रतिष्ठा चतुर्गतिभ्रमणाभावाद असंसाराभावाच ईपत्संसारो नोसंसार इति अयोगकेयसिनः तत्रितयव्यपायः भवभ्रमणाभावात सयोग केवलिवत् प्रदेशपरिस्पन्दः विगमात् असंसारावाप्स्यभावाच्च । - आत्माकी चार अवस्थाएँ होती हैं संसार, असंसार, नोसंसार और इन तीनों से विलक्षण अनेक योनिवाली चारों गतियों में परिभ्रमण करना संसार है। फिर जन्म न लेना - शिवप्रद प्राप्ति या परमसुख प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिमें परिभ्रमण न होनेसे तथा अभी मोक्षकी प्राप्ति न होनेसे सयोगकेवली की जीवन्मुक्त अवस्था ईषत्संसार या नोसंसार है । अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण है। इनके चतुर्गति भ्रमण और असंसारकी प्राप्ति तो नहीं है पर केसीकी तरह शरीर परिस्पन्द भी नहीं है। जब तक शरीर परिस्पन्द न होनेपर भी आत्म प्रदेशका चलन होता रहता है तब तक संसार है । ( चा. सा./१८०/३) । ३. द्रव्य क्षेत्रादि संसार निर्देश रा. बा./१/७/३/६०१/४ द्रव्यनिमित्त संसारश्चतुर्विधः कर्मनो कर्मवस्तु'विषयाश्रयभेदात् । तत्र क्षेत्रहेतुको द्विविधः - स्वक्षेत्र पर क्षेत्र विकल्पात् । लोकाकाश तुल्यप्रदेशस्यात्मनः कर्मोदयवशात् संहरणविसर्पणधर्मणः होनाधिप्रवेशपरिणामावगाहित्वं स्वक्षेत्रसारः सम् पपादजन्मनययोनिविलम्बः परक्षेत्रसंसारः॥ कालो द्विविधः परमार्थरूपो व्यवहाररूपाचेति तयोक्षणायाख्या जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 1 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार १४७ २. पंच परिवर्तनरूप संसार निर्देश तम् । तत्र परमार्यकालवतितपरिस्पन्देतरपरिणामविकल्पः तत्पूर्वक- दो भेद हैं..नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन और कर्मदव्य परिवर्तन । (ध. कालव्यपदेशौपचारिककालावृत्तिः कालसंसारम् । भवनिमित्तः ४/१,५.४/३२५/७ ); (गो, जी./जी. प्र./५६०/८/१४) । २. यह संसारः द्वात्रिंश द्विधः-पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकाः प्रत्येकं चतुविधाः पुद्गल (नोकर्म) परिवर्तनकाल तीन प्रकारका होता है- अगृहीत. सूक्ष्मवादर पर्याप्तकापातकभेदात् । बनस्पतिकायिका द्वेधा-प्रत्येक- ग्रहण काल, गृहीतग्रहण काल और मिश्र काल । शरीराः साधारण शरारोश्चेति । प्रत्येक शरीरा द्वेधा-पर्याप्तका ३. द्रव्यपरिवर्तन निर्देश पर्याप्तकभेदात् । साधारणशरीराश्चतुर्धा सूक्ष्मवादर पर्याप्तकापर्याप्तकविकल्पात। विकले न्द्रिया प्रत्येक द्विधा पर्याप्तकापर्याप्त कवि स. सि./२/१०/१६५/२ तत्र नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीकल्पात। पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्धा सक्ष्यसज्ञिपर्याप्तकापर्याप्तकापेक्षयेति । राणां षण्णां पर्याप्तीनां च योग्या ये पुद्गला एकेन जीवेन एक स्मिभावनिमित्तो संसारो द्वधा स्वभावपरभावाश्रयात्। स्वभावो समये गृहीताः स्निग्धरूपवर्ण गन्धादिभिस्तीवमन्दमध्यमभावेन च मिथ्यादर्शनादि पर भावो ज्ञानावरणादिकम रसादिः। - १. कर्म यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निजी अगृहीताननन्तवारानमोकर्म वस्तु और विषयाश्रयके भेदसे द्रव्यसंसार चार प्रकारका तीत्य मिश्रकाश्चानन्तवारानतीत्य मध्ये गृहीताश्चानन्तवारानतात्य है। २. स्वक्षेत्र , और परक्षेत्रके भेदसे क्षेत्रसंसार दो प्रकारका त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्म भावमापद्यन्ते यावत्ता." है। लोकाकाशके समान असंख्य प्रदेशी आत्माको कर्मोदयवश वत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनम्। कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यतेसंहरणविसर्पण स्वभाव के कारण जो छोटे-बड़े शरीरमे रहना है एकस्मिन्समये एकेन जीवेनाष्टविधकर्मभावेन ये गृहीताः पुद्गलाः वह स्वक्षेत्र संसार है। सम्मूर्छन गर्भ उपपाद आदि नौ प्रकारकी समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जी, पूर्वोक्तेयोनियोंके आधीन परक्षेत्र संसार है। ३. काल व्यवहार और पर- नैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते मार्थ के भेदसे दो प्रकारका है ।... परमार्थ कालके निमित्तसे होनेवाले यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनं उक्तं च-"सव्वे घि पुगला खलु परिस्पन्द और अपरिस्पन्दरूप परिणमन जिनमें व्यवहारकालका कमसो भुत्तुझिया य जीवेण । असई अणं तरबुत्तो पुग्गल परियट्टविभाग भी होता है कालसंसार है। ४. भवनिमित्त संसार बत्तीस संसारे।" == नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप कहते हैं-किसी एक प्रकार का है -सूक्ष्म, बादर और पर्याप्त व अपर्याप्तके भेदसे चार-चार जीवने तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंको एक प्रकारके-पृथिवी, जल, तेज और वायुकायिक; पर्याप्तक और अपर्या समयमें ग्रहण किया। अनन्तर वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा तक प्रत्येक वनस्पति-सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तक ये चार वर्ण और गन्ध आदिके द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भावसे साधारण जनस्पति; पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे दो दो प्रकार- ग्रहण किये थे उस रूपसे अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में के-बोन्द्रिप, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय; संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्तक निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओंको अनन्तबार ग्रहण और अपर्याप्तक ये चार पंचेन्द्रिय इस प्रकार बत्तीस प्रकार भवसंसार करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओंको अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा हैं। ५.भावनिमित्तिक संसारके दो भेद हैं स्वभाव और परभाव । और बीच में गृहीत परमाणुओंको अनन्त बार ग्रहण करके मिथ्यादर्शनादि स्वभाव संसार हैं तथा ज्ञानाचरणादि कर्मोका रस छोड़ा। तत्पश्चात जब उसो जीवके सर्वप्रथम ग्रहण किये गये परभाव संसार हैं। वे ही परमाणु उसी प्रकारसे नोकर्म भाव को प्राप्त होते हैं, तब यह सब प्र. सा./ता. प्र./ यस्तु परिणममानस्य द्रव्यस्य पूर्वोत्तरदशापरि- मिलकर एक नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन है। अब कर्मद्रव्यपरिवर्तनका प्यागोपादानात्मक क्रियाख्यपरिणाम तरसंसारस्य स्वरूपम् । कथन करते हैं-एक जीबने आठ प्रकारके अमरूपसे जिन पुद्गलोको -परिणमन दरते हुए द्रव्यका पूर्वोत्तर दशाका त्याग-ग्रहणात्मक ग्रहण किया वे समयाधिक एक आवलीकालके बाद द्वितीयादिक क्रिया नामक परिणाम है सो वह ( भाव ) संसारका स्वरूप है। समयों में भर गये। पश्चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया प्र.सा./ता. वृ./988 मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे है उसी क्रमसे वे ही पुद्गल उसी प्रकारसे उस जीवके जब कर्मभावपतन्त...... -मिथ्यात्व रागादिके संसरणरूप भाव संसारे... को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक कर्म द्रव्यपरिवर्तन होता * जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोदसे निक- है। "इस जीवने सभी पुद्गलोंको क्रमसे भोगकर छोड़ा है। और लते हैं-दे. मोक्ष/२। इस प्रकार यह जीव अनन्तबार पुद्गल परिवर्तनरूप संसारमें घूमता रहता है। (भा. पा./मू-/२२); (बा. अनु./२५); (ध. ४/१,२,४/ * निरन्तर मुक्त होते भी जोवोंसे संसार रिक्त नहीं ३२५-३३); (का.अ./६७); (द्र. सं/टी./३/१०३/३); (गो. जी./ होता-दे. मोक्ष/६। जी. प्र./५६०/६८४/१५) ४. क्षेत्रपरिवर्तन नि २. पंच परिवर्तनरूप संसार निर्देश १. स्त्रक्षेत्र १. परिवर्तनके पाँच भेद गो. जी./जी./५६०/६६१/२० स्वक्षेत्रारिवर्तनमुच्यते-कश्चि ज्जीव स, सि /२/१०,१६५४१ तद परिवर्तन पञ्चविधं इत्यपरिवर्तनं क्षेत्रपरि- सूक्ष्म निगोदजघन्यावगाहनेनोत्पन्नः स्वस्थिति जीवित्वा मृतः पुनः वर्तनं कालपरिवर्तनं भवपरिवर्तनं भावपरिवर्तनं चेति । -परि- प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्नः । एवं द्वयादिप्रदेशोत्तरक्रमेण महामत्स्यावतन के पाँच भेष हैं-द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, वगाहनपर्यन्ताः संख्यातघनाङ्गुनप्रमितावगाहनविकरूपाः तेनैव भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन । (म. आ./७०४ ); (ध.४/१,५.४।। जीवेन यावत्स्वीकृताः तत् सर्व समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तन भवति । ३२५/५); (गो. जी/जी. प्र./५६०/६८६/१४) - स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं-कोई जोव सूक्ष्म निगोदियाकी जघन्य २. द्रव्यपरिवर्तन आदिके उत्तर भेद अवगाहनासे उत्पन्न हुआ, और अपनी आयु प्रमाण जीवित रहकर मर गया। फिर वही जीव एक प्रदेश अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न स. सि./२/१०/१६५/२ द्रव्यपरिवर्तनं द्विविधम्-नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन हुआ । एक-एक प्रदेश अधिककी अवगाहनाओंको क्रममे धारण करते___ कर्मद्रव्यपरिवर्तन चेति । करते महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त संख्यात घनागुल प्रमाण ध.४/१.५.४/३२७/१० पोग्गल परियहकालो तिविह हो दि, अगहितगह- अवगाहनाके विकल्पों को वही जीव जितने समय में धारण करता है णदा गहिदगहणद्धा मिस्सयगणद्धा चेदि । १. द्रव्यपरिवर्तनके उतने काल के समुदायको स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं। 3 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससार १४८ २. पंच परिवर्तनरूप संसार निर्देश २. परक्षेत्र बा. अणु./२६ सय मिह लोयखेत्ते. कमसो तणस्थि जण्ण उप्पण्णं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारं ।२६। क्षेत्र परिवर्तनरूप संसारमें अनेकवार भ्रमण करता हुआ यह जीव तीनों लोकों में सम्पूर्ण क्षेत्र में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँपर अपनी अवगाहना वा परिणामको लेकर उत्पन्न न हुआ हो। (भा. पा./मू./२१); (स.सि./ २/१० पर उद्धृत'; (प.प्र././६५/प्रक्षेपक); (ध. ४/९.५,४/गा. २३/३३३ ): ( का, अ./मू./२८): (द्र.सं./टो./३५/१०३/७)। स. सि /२/१०/१६५/१३ क्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते-सूक्ष्मनिगोदजीबोउपर्याप्तकः सर्वजघन्यप्रदेशशरोरो लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्ये कृत्वोत्पन्नः क्षुद्रग्रहणं जीवित्वा मृतः । स एव पुनस्तेनैवाबगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथात्रिस्तथा चतुरित्येवं यावद् घनाङ्गुलत्यासंख्येयभागप्रमिताकाश प्रदेशास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्बो लोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीतो भवति यावत्तावरक्षेत्रपरिवर्तनम् । - जिसका शरीर आकाशके सबसे कम प्रदेशोपर स्थित है, ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकजीव लोकंके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके मध्यमें करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण कालतक जीवित रहकर, मर गया। पश्चाद वही जीव पुनः उसी अवगाहनासे वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुलके असंख्यातवें भागमें आकाशके जितने प्रदेश प्राप्त हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुनः उसने आकाशका एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोकको अपना जन्म क्षेत्र बनाया। इस प्रकार वह सब मिलकर एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है । (गो. जी./जी. प्र./५६०/६१२/२), ५. काल परिवर्तन निर्देश बा. अणु./२७ अवसप्पिणि उस्सप्पिणि समयावलियासु णिरबसेसासु । जादो मुदो य बहुसो परिभमिदो कालसंसारे। - काल परिवर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालके सम्पूर्ण समयो और आवलियों में अनेक बार जन्म धारण करता है और मरता है। (भा. पा./मु./३६); (स. सि /२/१०/१६६ पर उधृत); (ध,४/१,५,४/गा. २४/३३३); (का. अ./म् /48); (द्र. सं./टी./ ३५/१०३/४)। स.सि./२/१०/१६६/६ कालपरिवर्तनमुच्यते-उत्सपिण्याः प्रथमसमये जातः कश्चिज्जीवः स्वायुषः परिसमाप्तौ मृतः। स एव पुनर्वितीयाया उत्सपिण्या द्वितीयसमये जातः स्वायुषक्षयान्मृतः । स एव पुनस्तृतीयाया उत्सपिणमारतृतीयसमये जातः। एवमनेन क्रमेणोत्सर्पिणी परिसमामा । तथावसर्पिणी च । एवं जन्मनै रन्तर्यमुक्तम् । मरणस्यापि नैरन्तयं तथैव ग्राह्यः । एतावत्काल परिवर्तनम्। -कोई जीव उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें उत्पन्न हुआ और आंयुके समाप्त हो जानेपर मर गया । पुनः वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समयमें उत्पन्न हुआ और अपनी आयुके समाप्त होनेपर मर गया। पुनः वही जीव तीसरी उत्सपिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ इस प्रकार इसने क्रमसे उत्सर्पिणी समाप्त की और इसी प्रकार अबसपिणी भी। यह जन्म नैरन्तर्य कहा। तथा इसी प्रकार मरणका भी नैरन्तर्य लेना चाहिए। यह सब मिलकर एक कालपरिवर्तन है। (गो. जी./जी, प्र./५६०/६६२/१२)। ६. भव परिवर्तन निर्देश बा. अणु./२८ णिरयाउजहण्णादिसु जाव दु उपरिल्ल वा (गा) दुगेवेज्जा मिच्छत्तसंसिदेंण दु बहुसो वि भवहिदीभमिदा ।२८। इस मिथ्यात्व संयुक्त जीवने नरककी छोटी से छोटी आयु लेकर ऊपरके प्रै बेयक विमान तककी आयु क्रमसे अनेक बार पाकर भ्रमण किया है । (भा. पा./म./२४); (स.सि./२/१०/१६७ पर उदधृत ) (4.४/ १,५,४/गा, २५/३३३); ( का. अ./म्./७०); (द्र.सं./टी./१३/१०४/१)। स. सि./२/१०/१६७/१ नरकगतौ सर्वजधन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि । तेनायुषा तनोत्पन्नः पुनः परिभ्रम्य तेनैवायुषा जातः । एवं दशवर्ष सहसाणा यावन्तः समयास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जातो मृतः। पुनरेकै कसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि । ततः प्रच्युत्य तिर्यग्गताबन्तर्मुहूर्तायुः समुत्पन्नः। पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त्रीणि पत्योपमानि तेन परिसमाप्तानि । एवं. मनुष्यगतौ च । देवगतौ च नारकवदं । अयं तु विशेष:-एकत्रिशत्सागरोपमाणि परिसमाप्तानि यावत्ताबद भवपरिवर्तनम् । नरकगतिमें सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। एक जीव उस आयुसे वहाँ उत्पन्न हुआ पुनः घूमफिरकर पुनः उसी आयुसे वहाँ उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय है उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मर गया। पुनः आयुमैं एक-एक समय बढाकर नरककी तेतीस सागर आयु समाप्त की। तदनन्तर नरकसे निकलकर अन्तर्मुहूर्त आयुके साथ तिथंच गति में उत्पन्न हुआ। और पूर्वोक्त क्रमसे उसने तिच गतिकी तीन पत्य आयु समाप्त की। इसी प्रकार मनुष्य गतिमें अन्तर्मुहूर्त में लेकर तीन पस्य आयु समाप्त की। तथा देवगतियोंमें नरक गतिके समान आयु समाप्त की। किन्तु देवगतिमें इतनी विशेषता है कि यहाँ ३१ सागर आयु समाप्त होने तक कथन करना चाहिए। [ क्योंकि ऊपर नव अनुदिश आदिके देव संसारमें भ्रमण नहीं करते ] इस प्रकार यह सब मिलकर एक भवपरिवर्तन है। (गो. जी./जी.प्र./ ५६०/६६२/२०)। ७. भाव परिवर्तन निर्देश बा, अनु./२६ सव्वे पय डिविदिओ अणुभागप्पदेसबंधट्टाणाणि । जीवों मिच्छत्तवसा भमिदो पुण भावसंसारे ।२६।- इस जीवने मिथ्यात्वके वशमें पड़कर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के कारणभूत जितने प्रकारके परिणाम बा भाव हैं, उन सबका अनुभव करते हुए भाव परिवर्तनरूप संसार में अनेक बार भ्रमण किया है। (स.सि./ २/१०/९६६ पर उद्धृत); (ध ४/१३५,४/गा. २६/३३३ ); (का. अ./ मू./७१)। स. सि./२/१०/१६७/१० भावपरिवर्तनमुच्यते-पठचेन्द्रियः सज्ञी पर्याप्त को मिथ्याष्टिः कश्चिज्जीवः सर्व जघन्यां स्वयोग्यां ज्ञानावरणप्रकृतेः स्थितिमन्तः कोटी कोटीसंज्ञिकामापद्यते । तस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि घटू स्थानपतितानि तस्थितियोग्यानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्य कषायाध्यवसायस्थाननिमित्तान्यनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि भवन्ति । एवं सर्वजघन्य स्थिति सर्वजघन्यं च कषायाध्यबस्थान सर्वजघन्यमेवानभागबन्धस्थानमास्कन्दतस्तद्योग्यं सर्वजघन्यं योगस्थान भवति । तेषामेव स्थिंतिकषायानुभागस्थानानां द्वितीयमसरव्येयभागवृद्धियुक्त योगस्थानं भवति । एवं च तृतीयादिषु चतुस्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयंभागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थिति तवेव कषायाध्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वितीयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति । तस्य च योगस्थानानि पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयाविष्वपि अनुभवाध्यवसायस्थानेषु आअसंख्येयलोकपरिसमाप्तेः । एवं तामेव स्थितिमापद्यमानस्य द्वितीयं कषायाध्यवसायस्थानं भवति । तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि कषायाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्तेवृद्धिक्रमो वेदितव्यः । उक्ताया जघन्यायाः स्थितेः समयाधिकायाः कषायादिस्थानानि पूर्ववत् । एवं समयाधिवक्रमेण आ उस्कृष्टस्थिते स्त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोटीपरिमितायाः कषायादिस्थानानि बेदितव्यानि। अनन्तभागवृद्धिः...इमानि षवृद्धिस्थानानि । हानिरपि तथैव। अनन्तभागवृद्धयनन्तगुण वृद्धिरहितानि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार चार स्थानानि एवं सर्वे कर्मणां परिवर्तनको वेदितव्यः प्रकृतीनामुतरप्रकृतीनां च तस्य समुदित भावपरिवर्तनम्। - भाव परिवर्तनका कथन करते हैं- पंचेंद्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिध्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृतिकी सबसे जघन्य अपने योग्य अन्ताफोड़ा-फोड़ी प्रमाण स्थितिको प्राप्त होता है उसके उस स्थितिके योग्य षट्स्थान पतित असंख्यात लोक प्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थान होते हैं। और सबसे जघन्य इन कषाय अध्यवसाय स्थानों के निमित्तसे असंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग अध्यवसाय स्थान होते हैं । इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान और सबसे जधन्य अनुभाग अध्यवसाय स्थानको धारण करनेवाले इस जीवके तद्योग्य सबसे जघन्य योग स्थान होता है। तत्पश्चात् स्थिति कषाय अध्यवसाय स्थान और अनुभाग अध्यवसाय स्थान वहीं रहते हैं किन्तु योगस्थान दूसरा हो जाता है जो असंख्यात भाग वृद्धि संयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योग स्थानों में समझना चाहिए। ये सब योग-स्थान चार स्थान पतित होते हैं, और इनका प्रमाण श्रेणी के असंख्यातवें भाग है । तदनन्तर उसी स्थिति और उसी कषाय अध्यवसाय स्थानको धारण करनेवाले जोवके दूसरा अनुभाग अध्यवसायस्थान होता है इसके योगस्थान पहले के समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ भी पूर्वोक्त तोनों बातें ध्रुव रहती हैं किन्तु योगस्थान श्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग अध्यवसाय स्थानो के होने तक तीसरे आदि अनुभाग अध्यवसाय स्थानों में जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्यवसायस्थान तो जघन्य ही रहते हैं । किन्तु अनुभाग अध्यवसाय स्थान क्रमसे असंख्यात लोक प्रमाण हो जाते हैं और एक-एक अनुभाग अध्यवसाय स्थानके प्रति जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान होते हैं। तत्पश्चात् उसी स्थितिको प्राप्त होनेवाले जीवके दूसरा कषाय अध्यवसाय स्थान होता है, इसके अनु भाग अध्यवसाय स्थान और योगस्थान पहलेके समान जानना चाहिए। इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थानों के होने तक तीसरे कषाय अध्यवसाय स्थानोंमें वृद्धिका क्रम जानना चाहिए। जिस प्रकार सबसे जघन्य स्थितिके कषायादि स्थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्य स्थितिके भी कषायादि स्थान जानना चाहिए। और इसी प्रकार एक-एक समय अधिक के क्रमसे तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तक प्रत्येक स्थिति विकल्पके भी कषायादि स्थान जानने चाहिए। अनन्तभागवृद्धि... ये वृद्धिके छह स्थान हैं तथा इसी प्रकार हानि भी यह प्रकारको है। इनमें सेना और अनन्तगुवृद्धि इन दो स्थानों कम कर देनेपर चार स्थान होते हैं। इस प्रकार सर्व सूत उत्तर प्रकृतियों के परिवर्तनका क्रम जानना चाहिए। यह सब मिलकर एक भाव परिवर्तन होता है । (द्र.सं./टी./३५/ १०४/८ ); (गो. जी./जी. प्र./५६०/६१२/२२ ) । ८. पाँच परिवर्तनों में अल्पबहुस्व ध.४/१५,४/३३४/७ अदीदकाले एगहस जीवस्स सम्बत्यो वा भावपरियट्ट बारा भवपरिवारा अनंतगुगा कालपरियहमारा अनंतगुणा । खेत्तपरियहवारा अनंतगुणा । प्रोग्गल परियट्टवारा अणं सगुणा । सन्त्र थोमोपोरिका परिकारया गुणो भनपरियका अगुतो भाग रियालो अनंतगुणो । १. अतीतकाल में एक जीवके सबसे कम भाव परिवर्तनके बार हैं। भव परिवर्तन के वार भावपरिवर्तन के वारोंसे अनन्तगुणे हैं। काल परिवर्तनके वार भव परिवर्तनके बारोंसे अनन्तगुणे हैं । क्षेत्र परिवर्तनके बार कालपरिवर्तन के बारोंसे अनन्तगुणे है परिवर्तन बार क्षेत्र परिवर्तन के वासे अनन्तगुणे हैं। २. पुदगल संस्कार परिवर्तनका का सबसे कम है। क्षेत्र परिवर्तनका काल पुग परिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। कालपरिवर्तनका काल क्षेत्र परिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है । भव परिवर्तनका काल, काल परिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। भावपरिवर्तनका काल भवपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। (गो. जी./जी.प्र./५६०/६१४/३) । संसारानुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा । संसारी १. जीवोंका एक भेद- दे. जीव/१ २. न च वृ./१०६ कम्मकलें कालीणा अलद्धससहावभावसन्भावा । गुणमग्गण जीवठिया जीवा संसारिणों भणिया | १०६ | - कर्म कलंकसे जो लिप्त हैं, स्वस्वभावको जिन्होंने प्राप्त नहीं किया। गुणस्थान, मार्गणास्थान तथा जीवस्थानमें जो स्थित है वे संसारी जी कहे गये हैं। पं.का./ता../१०१/१०२/१३ कर्मचेतनाक फसवेतनात्मका: संसाकर्म व कर्म फलचेतनारि:... अशुद्धोपयोगयुक्ताः संसारिणः । त्मक संसारी जीव हैं। ...संसारी जीव अशुद्धोपयोग से युक्त हैं । .../१४ मद्धो यथा स ससारी स्यादधस्वरूपवान् पितो = जो अनादिकाल से आठ नादितोऽष्टाभिधावृतिकर्मभिः । कमसे मोहित होकर अपने स्वरूपको नहीं पाने वाला और मेधा हुआ वह संसारी जीव है। संस्कार व्यक्ति जीवनकी सम्पूर्ण शुभ और अशुभ वृत्ति उसके संस्कारोंके अयोग है, जिनमें से कुछ मह पूर्व से अपने साथ लाता है, और कुछ इसी भव में संगति व शिक्षा आदिके प्रभाव से उत्पन्न करता है इसीलिए गर्म में आनेके पूर्व से ही बालक में विशुद्ध संस्कार उत्पन्न करनेके लिए विधान बताया गया हैं। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त यथावसर जिनेन्द्र पूजन व मन्त्र विधान सहित ५३ क्रियाओंका विधान है, जिनसे बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए एक दिन वह निर्वाणका भाजन बन जाता है। १. संस्कार सामान्य निर्देश १. संस्कार सामान्यका लक्षण सि.वि././१/५/३४/१४ वस्तुस्वभावोऽयं यत् संस्कार स्मृतिबीजमादधीत । वस्तुका स्वभाव ही संस्कार है। जिसको स्मृतिका बीज माना गया है। १४९ स. श./टी./२०/२३६/८ शरीरादी स्थिरात्मीया विज्ञानाम्यविद्यास्ता सामम्य सः पुनः पुनः प्रवृत्तिस्तेन जनिताः संस्कारा वासनास्ते कृत्वा । - शरीरादिको शुचि स्थिर और आत्मीय मानने रूप जो अविद्या अज्ञान है उसके पुनः पुनः प्रवृत्ति रूप अभ्यास से उत्पन्न संस्कार अर्थात् वासना द्वारा करके...| पं.का./२०१६मस्कार करोति स आत्मसंस्कारः । = निज परम आत्मामे शुद्ध संस्कार करता है वह आत्म संस्कार है । २. पति ज्ञान के संस्कार साथ जाते हैं . आ / २८६ विपण सुदमधीदं जदिवि पमादेश होदि विस्सरिव समुद्वादि परभ केलाच महादि विनयसे पड़ा हुआ • शास्त्र किसी समय प्रमादसे विस्मृत हो जाये तो भी वह अन्य जन्ममें स्मरण हो जाता है, संस्कार रहता है और क्रमसे केवलज्ञानको प्राप्त कराता है । ( ध १ / ४.१.१८ / गा २२ / -२ ) । घ. ३/४.१.१०/०२/२१ तत्थ जम्सरेहम्मिसमदमले निपाहा विवाहसंगस्स देबेसुरपति मधु विकारेप्पण्णस्स एत्थ भवम्मि पढग सुणण-पुंच्छणवावारविरहियम्स अउ - पत्तियाँ णाम । उनमें (चार प्रकार प्रज्ञाओं में ) जन्मान्तर में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - E Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कार २. संस्कार कर्म निर्देश चार प्रकारको निर्मल बुद्धिके मलसे विनयपूर्वक बारह अंगका अबधारण करके देवों में उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट सस्कारके साथ मनुष्योंमें उत्पन्न होनेपर इस भवमें पढ़ने-सुनने व पूछने आदिके व्यापारसे रहित जीवकी प्रज्ञा औत्पत्तिकी कहलाती है। ल. सा./जी. प्र./६/४५/४ नारकादिभवेषु पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात् सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति । -नरकादि भवोंमे जहाँ उपदेशका अभाव है, वहाँ पूर्व भवमें धारण किये हुए तत्त्वार्थज्ञानके संस्कारके मलसे सभ्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है। (और भी दे० सम्यग्दर्शन/III) मो. मा. प्र./७/२८३/१० इस भवमें अभ्यास करि परलोक विषै तियंचादि गतिविर्षे भी जाय-तौ तहाँ संस्कारके बलसे देव गुरु शास्त्र बिना भी सम्यक्त्व होय जाय। ...तारतम्यतें पूर्व अभ्यास संस्कारतें वर्तमान इनका निमित्त न होय (देव-शास्त्र आदि निमित्त न होय) तौ भो सम्यक्त्व होय सके। ३. संस्कारके उदाहरण स, श /मू./३७ अविद्याभ्याससंस्कार रवशं क्षिप्यते मनः । तदेव ज्ञान संस्कार: स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ।३७1 -अविद्याके अभ्यास रूप संस्कारोंके द्वारा मन स्वाधीन न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वहीं मन विज्ञान रूप संस्कारोंके द्वारा स्वयं ही आत्मस्वरूपमें स्थिर हो जाता है। ध. ६/१,६-१,२३/४१/१० एदेहि जीवम्हि जणिदसंसकारस्स अणतेमु भवेसु अवठ्ठाणभुवगमादो। -इन (अनन्तानुबन्धी) कषायोंके द्वारा जीवमें उत्पन्न हुए संस्कारका अनन्त भवों में अबस्थान माना गया है। ध. ८/३,३६/७३/१ तिस्थयराइरिय-बहुमुद-पवयण-विसयरागज णिद - संसकाराभावादो। वहाँ ( अपूर्वकरणके उपरिम सप्तम भागमें ) तीर्थकर. आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन विषयक रागसे उत्पन्न हुए संस्कारोंका अभाव है। ध.६/४.१,४५/१५४/३ आहितसंस्कारस्य कस्यचिच्छब्दग्रहणकाल एव तदसादिप्रययोत्पत्त्युपलम्भाच्च। - शब्द ग्रहणके काल में ही संस्कार युक्त किसी पुरुषके उसके (शब्दके वाच्यभूत पदार्थ के ) रसादि विषयक प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है। ४. पूर्व संस्कारका महत्त्व स. श./म./४५ जानन्नध्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि । पूर्व विभ्रमसंस्कारात भ्रान्ति भूयोऽपि गच्छति । - शुद्ध चैतन्य स्वरूपको जानता हुआ भी. और अन्य पदार्थोंसे भिन्न अनुभव करता हुआ भी पूर्व भ्रान्तिके संस्कारवश पुनरपि भ्रान्तिको प्राप्त २. संस्कार कर्म निर्देश १. गर्भान्वयादि क्रियाओंका नाम निर्देश म. पु./३८/५१-६८ गर्भावयक्रियाश्चैव तथा दीक्षान्धयक्रियाः। कर्बन्वयक्रियाश्चेति तास्त्रिधैव बुधैर्मताः ॥५१॥ आधानाधास्त्रिपश्चाशत ज्ञेया गर्भान्वयक्रियाः। चत्वारिंशदथाष्टौ च स्मृता दीक्षान्वयक्रिया ।१२। कन्वयक्रियाश्चैव सप्त तज्ज्ञैः समुश्चिताः। तासा यथाक्रम नामनिर्देशोऽयमनूद्यते ।।३। अङ्गानां सप्तमादङ्गाद दुस्तरादर्णवादपि । श्लोकैरष्टभिरुन्नेष्ये प्राप्त ज्ञानल मया ।।४। (नोटआगे केवल भाषार्थ)। -गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कन्वय क्रिया इस प्रकार विद्वान् लोगोंने तीन प्रकारकी क्रियाएँ मानी हैं ।५१। गर्भावय क्रिया आधानादि तिरपन (५३) जाननी चाहिए। और दीक्षान्व्य क्रियाएँ अड़तालीस (४८) समझना चाहिए।२। इसके अतिरिक्त इस विषयके जानकार लोगों ने कत्रन्वय क्रियाएँ सात (७) संग्रह की है। अब आगे यथा कमसे उनका नाम निर्देश किया जाता है ।१३। जो समुद्रसे भी दुस्तर है, ऐसे १२ अंगोंमें सातवें अंग ( उपासकाध्ययनांग ) से जो कुछ मुझे ज्ञानका अंश प्राप्त हुआ है उसे मैं नीचे लिखे हुए श्लोकोंसे कहता हूँ ॥५५॥ केवल भाषार्थ-गर्भान्वयकी ५३ क्रियाएँ-१ गर्भाधान, २ प्रीति, ३ सुप्रीति, ४ धृति, ५ मोद, ६ प्रियोदभव, ७ नामकर्म, ८ बहिर्यान, निषद्या, १० प्राशन, १९ व्युष्टि, १२ केशवाप, १३ लिपि संख्यान संग्रह. १४ उपनीति, १५वतचर्या, १६वतावरण, १७विवाह, १८ वर्णलाभ, १६ कुलचर्या, २०गृहीशिता, २१ प्रशान्ति, २२ गृहत्याग, २३ दीक्षाद्य, २४ जिन-रूपता, २५ मौमाध्ययन बतत्व, २६ तीर्थ कृतभावना, २७ गुरुस्थानाभ्युपगमन, २८ गणोपग्रहण, २६ स्वगुरुस्थान संक्रान्ति, ३०. निःसंगरवारमभावना, ३१ योगनिर्वाणसे प्राप्ति. २ योगनिर्वाणसाधन, ३३ इन्द्रोपपाद, ३४ अभिषेक, ३५ विधिदान, ३६ सुखोदय, ३७ इन्द्रत्याग, ३८ अवतार, ३६ हिरण्य स्कृष्टजन्मता, ४० मन्दरेन्द्राभिषेक, ४१ गुरुपूजोपलम्भन, ४२ यौवराज्य,४३ स्वराज, ४४चक्रलाभ.४५ दिग्विजय, ४६ चक्राभिषेक, ४७ साम्राज्य, ४८ निष्क्रान्ति, ४६ योगसन्मह, १० आहन्य, ५१ तद्विहार, ५२ योगत्याग, ५३ अग्रनिवृत्ति । परमागममें ये गर्भसे लेकर निर्वाण पर्यन्त १३ क्रियाएँ मानी गयी है। १५२-५३। २. दीक्षान्वयकी ४८ क्रियाएँ-१ अवतार, २ वृत्तलाभ, ३ स्थानलाभ, ४ गणग्रह, ५ पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, हनचर्या, उपयोगिता। इन आठ क्रियाओंके साथ (गर्भाग्यय क्रियाओंमें-से) उपनीति नामकी चौदहवी क्रियासे अग्रनिवृत्ति नामकी तिरपनवी क्रिया तककी चालीस क्रियाएँ मिलाकर कुल अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ कहलाती हैं।६४-६५। ३. कर्मन्वयको ७ क्रियाएँ-कन्वय क्रियाएं दे हैं जो कि पुण्य करनेवाले लोगोंको प्राप्त हो सकती हैं, और जो समीचीन मार्गकी आराधना करनेके फलस्वरूप प्रवृत्त होती हैं ६६॥ १.सज्जाति, २ सदगृहित्य, ३ पारिवज्य, ४ सुरेन्द्रता साम्राज्य, ६ परमार्हन्त्य, ७ परमनिर्वाण । ये सात स्थान तीनों लोकों में उत्कृष्ट माने गये हैं और ये सातों ही अन्त भगवादके बचनरूपी अमृतके आस्वादनसे जीवोंको प्राप्त हो सकते हैं।६७-६॥ महर्षियोंने इन क्रियाओं का समूह अनेक प्रकार माना है अर्थात अनेक प्रकारसे क्रियाओं का वर्णन किया है, परन्तु मैं यहाँ विस्तार छोड़कर संक्षेपसे उनके लक्षण कहता हूँ। द्र. सं./टी/३/१५६-१६०/६ सम्यग्दृष्टि...तत्र (शुद्धारमतत्त्वे) असमर्थः सन...परमं भक्ति करोति । तेन...पञ्चविदेहेषु गत्वा पश्यति... समवशरणं ... पूर्वभवभावितविशिष्टभेदज्ञानवासना( संस्कार )बलेन मोह न करोति, ततो जिनदीक्षां गृहीत्वा...मोहं गच्छति । -सम्यग्दृष्टि शुद्धात्मभावना भाने में असमर्थ होता है, तब वह परम भक्ति करता है।...पश्चात पंच विदेहों में जाकर समवशरणको देखता है। पूर्व जन्ममें भावित विशिष्ट भेदज्ञानकी बासना (संस्कार) के बलसे मोह नहीं करता अतः दीक्षा धारण करके मोक्ष पाता है। * शरीर संस्कारका निषेध-दे० साधु/२/७ । * धारणा ज्ञान सम्बन्धी संस्कार-दे० धारणा। * रजस्वला स्त्री व सूतक पातक आदि-दे० सूतक। २. गर्भान्वयकी ५३ क्रियाओंके लक्षण म. पु./३०/७०-३१० आधाम नाम गर्भादी संस्कारो मन्त्रपूर्वकः । पत्नीमृतुमती स्नाता पुरस्कृत्याह दिज्यया ७०। .....अत्रापि पूर्वबहानं जैनी पूजा च पूर्ववत । इष्टमन्धसमाहानं समाशादिश्च लक्ष्यताम् 189 ...क्रियाप्रनिवृति म परानिर्वाणमायुषः । स्वभाव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कार | 3 जनता मयामास्कन्दतो मयाति पर्यन्तः किया गर्भादिकाः सदा भयात्मभिरनुष्ठेयाः प्रिपञ्चाशत्समुचयात् ॥११०॥ १. गर्भाधान क्रिया तुमती स्त्रीके चतुर्थ स्नान के पश्चाद. गर्भा धानके पहले, अर्हन्तदेवकी पूजाके द्वारा मन्त्र पूर्वक जो संस्कार किया जाता है, उसे आधान क्रिया कहते हैं 1901 भगवान् के सामने तीन अग्नियोंकी अर्हन्तकुण्ड, गणधरकुण्ड, व केवलो कुण्डमें स्थापना करके भगवादकी पूजा करें। तत्पश्चाद आहूति में फिर पुत्रोत्पतिकी इससे भोगाभिलाष निरपेक्ष स्त्रीसंसर्ग करें। एस प्रकार यह आधrefeया विधि है 1०१-०६ २ प्रतिक्रियागर्भाधान के पश्चात तीसरे महीने पूर्ववत् भगवान्‌को पूजा करनी चाहिए। उस दिन से लेकर प्रतिदिन बाजे, नगाड़े आदि बजवाने चाहिए ३७२. मोति क्रिया गर्भाधानके पाँचवें महीने पुनः पूर्वोक्त प्रकार भगकी पूजा करे २००१ ४. धृति क्रियागर्भाधान के सातवें महीने में गर्भ की वृद्धिके लिए पुनः पूर्वोक्तविधान करना चाहिए । २। ५. मोदक्रिया - गर्भाधानके नवमें महीने गर्भ की पुष्टि के लिए पुनः पूर्वोक्त विधान करके, स्त्रीको गात्रिकाअन्य मन्त्रपूर्वक बीजाक्षर लेखन व मंगलाभूषण पहनाना मे कार्य करने चाहिए . प्रियोद्भव क्रिया-प्रसूति होनेपर जारा कर्मरूप, मन्त्र व पूजन आदिका बड़ा भारी पूजन विधान किया जाता है। जिसका स्वरूप उपासकाध्ययनसे जानने योग्य है ।८५-८६ | ७. नामकर्म क्रिया -- जन्मसे १२वें दिन, पूजा व द्विज आदिके सत्कार पूर्वक, अपनी इच्छा या भगवान् के १००८ नामोमेंसे घटपत्र विधिद्वारा ( Baliat Paper System) बालकका कोई योग्य नाम छाँटकर रखना (8) ८ बहिन क्रिया जन्मसे ३०४ महीने पश्चाद ही मालकको प्रसूतिगृह बाहर जाना चाहिए। बालकको यथाशक्ति कुछ भेंट आदि दी जाती है । ६०-१२ ६. निषद्या क्रिया-बहिन के पश्चात् सिद्ध भगवान्की पूजा विधिपूर्वक arrest किसी बिछाये हुए शुद्ध आसनपर बिठाना चाहिए |१३४ १०. अन्नप्राशन क्रिया-जन्म के ७/८ माह पश्चात पूजन विधिपूर्वक बालकको जन्म खिलाये । १५४ ११ पुष्टि क्रिया जन्मके एक वर्ष पश्चात जिनेन्द्र पूजन विधि, दानव मधुपर्ग निमन्त्रणादि कार्य करना चाहिए। इसे वर्धन या वर्षगाँठ भी कहते हैं । ६६१० १२. केशवा क्रिया- तदनन्तर किसी शुभ दिन, पूजा विधिपूर्वक बालकके सिरपर उस्तरा फिरवाना अर्थात् मुण्डन करना, व उसे आशीर्वाद देना आदि कार्य किया जाता है। बालक द्वारा गुरुको नमस्कार कराया जाता है । ६८ - १०१। १३. लिपि संख्यातपाँच वर्ष अध्ययन के लिए पूजा विधिपूर्वक किसी योग्य गृहस्थी गुरुके पास छोड़ना । १०२-१०३ १४. उपनीत या आठवें वर्ष यज्ञोपवीत धारण कराते समय, केशोंका मुण्डन तथा पूजा विधिपूर्व योग्य व्रत ग्रहण कराके बाकी कमर जकी रस्सी बाँधनी चाहिए। यज्ञोपवीत धारण करके, सफेद धोती पहनकर सिरपर चोटी रखनेवाला वह बालक माता आदिके द्वारपर जाकर भिक्षा माँगे ने आगत से पहले भगवादको पूजा करे फिर शेष बचे अन्नको स्वयं खाये । अत्र यह बालक ब्रह्मचारी कहलाने लगता है । ९०४-१०८ १ १५. व्रतचर्या क्रिया - ब्रह्मचर्य आश्रमको धारण करनेवाला वह ब्रह्मचारी बालक अत्यन्त पवित्र व स्वच्छ जीवन बिताता है। कमर में रत्नत्रयके चिह्न स्वरूप तीन लरकी मूंकी रस्सी, टाँगों में पवित्र अर्हन्त कुलकी सूचक उज्ज्वल व सादी धोती, वक्षस्थल पर सात लरका यज्ञोपवीत, मन वचन व कायकी शुद्धिका प्रतीक सिरका मुण्डन ~ इतने चिह्न धारण करके अहिंसाणुव्रत का पालन करता हुआ गुरुके पास विद्याध्ययन करता है। वह -कभी हरी दाँतौन नहीं करता, पान खाना, अंजन लगाना, उबटन से स्नान करना व पलंगपर सोना आदि बातोंका त्याग करता है। स्वच्छ जल से स्नान करता है तथा अकेला पृथिवीपर सोता है । १५१ २. संस्कार कर्म निर्देश अध्ययन क्रम में गुरुके मुखसे पहले श्रावकाचार और फिर अध्यात्म शास्त्रका ज्ञान कर लेनेके अनन्तर व्याकरण, न्याय, छन्द, अलंकार, गणित, ज्योतिष आदि विद्याओं को भी यथा शक्ति पढ़ता है । १०६१२० १६. व्रतावतरण क्रिया- विद्याध्ययन पूरा कर लेनेपर बारहवें या सोलहवें वर्ष में गुरु साक्षी में, देवपूजादि विधिपूर्वक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश पानेके लिए उपरोक्त सर्व व्रतोंको त्यागकर, श्रावकके योग्य आठ मूलगुणों (दे, श्रावक) को ग्रहण करता है । और कदाचित् क्षत्रिय धर्म के पालनार्थ अथवा शोभार्थ कोई शस्त्र धारण करता है । । १२१-१२६ । १७ विवाह क्रिया - विवाहकी इच्छा होनेपर गुरु साक्षी में सिद्ध भगवान व पूर्वोक्त ( प्रथम क्रियावत् ) तीन अग्नियोंकी पूजा विधिपूर्वक अग्निप्रदक्षिणा देते हुए कुसीना पाणिग्रहण करें। सात दिन पर्यन्त दोनों से रहें, फिर तीर्थयात्रादि करें। तदनन्तर केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए, स्त्रीके ऋतुकास में सेवन करें। शारीरिक शक्तिहीन हो तो पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहें । १२०-१४० १८ वर्णलाभ क्रिया यथोक्त पूजन विधिपूर्वक पिता उसको कुछ सम्पति व घर आदि देकर धर्म व न्याय पूर्वक जीवनमा पृथक रहने के लिए कहता है । १२६-१४१० १६. चर्या क्रिया अपनी परम्परा अनुसार देव पूजादि गृहस्थके षट्कमको यथाविधि निष्य पालता है यही कुरा । १४२१४३० २०. गृहीशा क्रिया-धार्मिक क्षेत्रमें तथा ज्ञानके क्षेत्र वृद्धि करता हुआ, अन्य गृहस्थोंके द्वारा सत्कार किये जाने योग्य गृहोश मा गृहस्थाचा होता है।९४४९४६ २१. शान्ति कियाअपने पुत्रको गृहस्थका भार सौंपकर रिक्त मिस हो विशेष रूपसे धर्मका पालन करते हुए शान्त वृत्तिसे रहने लगता है । १४७-१४६ । २२. गृह त्याग क्रिया गृहस्थानमे कुंसार्थताको प्राप्त हो. योग विधि पूर्वक अपने ज्येष्ठ पुत्रको घरकी सम्पूर्ण सम्पत्ति व कुटुम् पोषणका कार्यभार सौंपकर तथा धार्मिक जीवन बितानेका उपदेश करके स्वयं घर स्वता देता है । १५० १६६ २३. दीक्षाच क्रियाक्षुल्लक व्रत रूप उत्कृष्ट श्रावककी दीक्षा लेता है । १५७-१३८ । २४. जिनरूपता क्रिया - क्रमसे यथा अवसर दिगम्बर रूपवाले मुनित्रतकी दीक्षा १५-१६०१२४. मौनाध्ययन वृत्ति क्रिया -- गुरुके पास यथोक्त कामोनपूर्वक शास्त्रमा १६९-१६३२६. तीर्थं कृामा किया तीर्थकर पदको कारण सोलह भावनाओंको भाता है। । १६४-१६३॥ २०. गुगमन क्रिया-प्रसन्नता पूर्वक उसे योग्य समझकर गुरु ( आचार्य ) अपने संघके आधिपत्यका गुरुपद प्रदान करे तो उसे विनय पूर्वक स्वीकार करना १९६६ २६० २८, गणोपग्रहण किया- गुरुपदनिष्ठ होकर चतुःसबकी रक्षा व पालन करे तथा नवीन जिज्ञासुओंको उनकी शक्तिके अनुसार वत व दीक्षाएँ दे १६८ - १७१ । २६. स्वगुरु स्थानावाप्ति क्रिया-गुरुकी भाँति स्वयं भी अवस्था विशेषको प्राप्त हो जानेपर, संघमें से योग्य शिष्यको छाँटकर उसे गुरुपदका भार प्रदान करे। १७२ १७४ । ३० निःसंगत्वभावना क्रिया-एकल बिहारी होकर अत्यन्त निर्ममता पूर्वक अधिकाधिक चारित्र में विशुद्धि करना | १०५-१०० ३१. योगनिया पानि क्रिया आयु का अन्तिम भाग प्राप्त हो जानेर वैराग्यकी उरकता पूर्वक एकरम व अन्यत्व भावनाको भाता हुआ सल्लेखना धारण करके शरीर त्याग करने के लिए साम्यभाव सहित इसे धीरे-धीरे कृश करने लगता है । १७८ - १८५ । ३२. योग निर्वाण साधन क्रिया- अन्तिम अवस्था प्राप्त हो जानेपर साक्षात् समाधि या सल्लेखनाको धारणकर तिष्ठे (१८६ - १८६६ ३३. इन्द्रोपपाद क्रिया- उपरोक्त तपके प्रभावसे वैमानिक देवोंके इन्द्र रूपसे उत्पाद होना । १६०-१६४ । ३४. इन्द्राभिषेक क्रिया - इन्द्रपदपर आरूढ करनेके लिए देव लोग उसका इन्द्राभिषेक करते हैं । ९६४-२१०१ ३२. विधिदान क्रिया- देवोंको उन-उनके पदों पर नियुक्त करना । १६६० २६ सुखोदय क्रिया जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कार १५२ २. संस्कार कर्म निर्देश इन्द्र के योग्य सुख भोगते हुए देवलोक में चिरकाल तक रहना ।२००२०११ ३७. इन्द्र त्याग क्रिया-आयुके अन्त में शान्ति पूर्वक समस्त वैभवका त्याग कर तथा देवोंको उपदेश देकर देवलोकसे च्युत होना ।२०२-२१३।३८. इन्द्रावतार क्रिया-सिद्ध भगवान्को नमस्कार करके, १६ स्वप्नों द्वारा माताको अपने अवतारकी सूचना देना ।२१४-२१६। ३६. हिरण्योत्कृष्ट जन्मता-छह महीने पूर्व से ही कुबेर द्वारा हिरण्य, सुवर्ण व रत्नोंकी वर्षा हो रही है जहाँ, तथा श्री ह्री आदि देवियाँ कर रही हैं सेवा जिसकी, ऐसा तथा शुद्ध गर्मवाली माताके गर्भ में तीन ज्ञानोको लेकर अवतार धारण करना ।२१७-२२४॥ ४०, मन्दराभिषेक क्रिया-जन्म धारण करते ही नवजात इस बालकका इन्द्र द्वारा सुमेरु पर्वतपर अभिषेक किया जाना ।२२५-२२८। ४१. गुरु पूजन क्रिया-बिना शिक्षा ग्रहण किये तीनों जगत्के गुरु स्वीकारे जाना ।२२१-२३०१ ४२. यौवराज्य क्रिया-पूजन अभिषेक पूर्वक युवराज पटका बाँधा जाना।२३१॥ ४३. स्वराज्य क्रिया -- राज्याधिपतिके स्थानपर निष्ठ होना ।२३२॥ ४४. चक्रलाभ क्रियापुण्यके प्रतापसे नव निधि व चक्ररत्नकी प्राप्ति ।२३३। ४५. दिशांजय क्रिया-षट् खण्ड सहित समुद्रान्त पृथिवी को जीतकर वहाँ अपनी सत्ता स्थापित करना ।२३४। ४६. चक्राभिषेक क्रिया-दिग्विजय पूर्ण कर नगर में प्रवेश करते समय चक्रका अभिषेक करना। नगर के लोग चक्रवर्ती पद पर आसीन उनके चरणों का अभिषेक कर चरणोदकको मस्तकपर चढ़ाते हैं ।२३५-२५२॥ ४७. साम्राज्य क्रिया -शिष्टोंका पालन व दुष्टों का निग्रह करनेका तथा प्रेम व न्याय पूर्वक राज्य करनेका उपदेश अपने आधीन राजाओंको देकर सुखपूर्वक राज्य करना ।२५३-२६५३४८. निष्क्रान्ति क्रिया-वैराग्य पूर्वक राज्यको त्यागना, लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधनको प्राप्त होना। क्रमसे मनुष्यों, विद्याधरों व देवों द्वारा उठायी हुई शिविकापर आरूढ होकर वनमें जाना । वस्त्रालंकारको त्याग कर सिद्धोंकी साक्षीमें दिगम्बर बतको धारण कर पंचमुष्टि केश लौंच करना आदि क्रियाएँ ।२६.६.२६४। ४६.योग सम्मह क्रिया-ज्ञानाध्ययनके योगसे उत्कृष्ट तेज स्वरूप केवलज्ञानकी प्राप्ति २६५-३००१ ५०. आर्हन्त्य क्रिया-समवशरणकी दिव्य रचनाकी प्राप्ति ।३०१-३०३। ५१. विहारक्रिया-धर्मचक्रको आगे करके भब्य जीवों के पुण्यसे प्रेरित, उनको उपदेश देनेके अर्थ उन अर्हन्त भगवान्का विहार होना।३०४। ५२. योग त्याग क्रिया-केवलिसमुद्धात करके मन, बचन, काय रूप योगोंको अत्यन्त निरोध कर, अत्यन्त निश्चल दशाको प्राप्त होना ।३०५-३०७। ५३. अग्रनिवृत्ति क्रिया- समस्त अघातिया कर्मों का भी नाश कर, विनश्वर शरीरसे सदाके लिए नाता तुड़ाकर उत्कृष्ट व अविनश्वर सिद्ध पद को प्राप्त हो, लोक शिखरपर अष्टम भूमिमे जा निवास करना 1३०८-३०६॥ प्राणी अवतार धारण करता है।६-३५॥ २. वृत्तिलाभ क्रिया-गुरुके द्वारा प्रदत्त बतोको धारण करना ॥३६॥ ३. स्थानलाभ क्रियागृहस्थाचार्य उसके हाथसे मन्दिर जी में जिनेन्द्र भगवान के समवशरण की पूजा करावे। तदनन्तर उसका मस्तक स्पर्श करके उसे श्रावककी दीक्षा दे । पंच मुष्टि लौंचके प्रतीक स्वरूप उसके मस्तकका स्पर्श करे। तत् पश्चात विधि पूर्वक उसे पंच नमस्कार मन्त्र प्रदान करे।३७-४४। ४. गण ग्रहणक्रिया-मिथ्या देवताओंको शान्ति पूर्वक विसर्जन करता हुआ अपने घरसे हटाकर किसी अन्य योग्य स्थानमें पहुँचाना ।४५-४८० १. पूजाराध्य क्रिया-जिनेन्द्र देवकी पूजा करते हुए द्वादशांगका अर्थ ज्ञानी जनोंके मुख से सुनना ।४ . पुण्य यज्ञक्रिया-साधर्मी पुरुषोंके साथ पुण्य वृद्धिके कारणभूत चौदह पूर्व विद्याओंका सुनना ।१०। ७. दृढचर्या क्रिया-शास्त्र के अर्थका अवधारण करके स्वमतमें दृढता धारना । ८ उपयोगिता क्रिया-पर्व के दिन उपवासमें अर्थात् रात्रिके समय प्रतिमा योग धारण करके ध्यान करना ।।२।६. उपनीति क्रियाब्रह्मचारीका स्वच्छवेश व यज्ञोपवीत आदि धारण करके शास्त्रानुसार नाम परिवर्तन पूर्वक जिनमत में श्रावककी दीक्षा लेना ।५३१६।२०, व्रतचर्या क्रिया - तदनन्तर उपासकाध्ययन करके योग्य यतादि धारण करना ।५७। ११. व्रतावरण क्रिया-विद्याध्ययन समाप्त हो जानेपर गुरुको साक्षी में पुनः आभूषण आदिका ग्रहण करके गृहस्थमें प्रवेश करना।८।१२. विवाह क्रिया-स्व स्त्रीको भी अपने मतमें दीक्षित करके पुनः उसके साथ पूर्वरूपेण सर्व विवाह संस्कार करे ।५६-६०। १३. वर्णलाभक्रिया-समाजके चार प्रतिष्ठित व्यक्तियों से अपनेको समाजमें सम्मिलित होनेकी प्रार्थना करे और वे विधि पूर्वक इसे अपने वर्ण में मिला लें ।६१-७१। १४. कुलचर्या क्रिया- जैनकुल की परम्परानुसार देव पूजादि षट् आवश्यक क्रिया ओं में नियमसे प्रवृत्ति करना ।७२। १५. गृहीशिता बिया-शास्त्रमें पूर्ण अभ्यस्त हो जानेपर तथा प्रायश्चित्तादि विधिका ज्ञान हो जानेपर गृहस्थाचार्य के पदको प्राप्त होना ।७३-७४। १६. प्रशान्तता क्रिया-नाना प्रकारके उपवासादिको भावनाओंको प्राप्त होना ७५॥ १७. गृहत्याग क्रिया-योग्य पुत्रको नीति सहित धर्माचारकी शिक्षा देकर, विरक्त बुद्धि वह द्विजोत्तम गृह त्याग कर देता है ७६ १८.दीक्षाध क्रिया-एक वस्त्रको धारण करके बनमें जा क्षुलनककी दीक्षा लेना ७७। १६. जिनरूपता क्रिया-गुरुके समीप दिगम्बरी दीक्षा धारण करना ७८४ २०-४८. मौनाध्ययन वृत्ति-से लेकर अग्रनिवृत्ति क्रिया तक ये आगेकी सर्व क्रियाएँ गर्भान्वय क्रियाओं में नं २५ से नं. ५३ तकको क्रियाओं व जानना ७९-८० ३. दीक्षान्वयकी ४८ क्रियाओंका लक्षण म. पु/३६/१-८० अथाब्रवीद् द्विजन्मभ्यो मनदीक्षान्वयक्रियाः।१४... तदुन्मुखस्य या वृत्तिः पुंसो दीक्षेत्यसौ मता । तामन्विता क्रिया या तु सा स्याद दीक्षान्वया क्रिया ।।...यस्त्वेतास्तत्त्वतो ज्ञात्वा भव्यः समनुतिष्ठति । सोऽधिगच्छति निर्वाणम् अचिरात्सुखसाद्भवन् ।८०। इति दीक्षान्वय क्रिया । दीक्षान्वय सामान्य-बतको धारण करनेके सम्मुख व्यक्ति विशेषको प्रवृत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाओंको दीक्षान्वय क्रियाएँ कहते हैं ।१-५॥ १. अवतार क्रिया-मिथ्यात्वसे दूषित कोई भव्य समीचीन मार्गको ग्रहण करनेके सम्मुख हो किन्हीं मुनिराज अथवा गृहस्थाचार्य के पास जाकर, यथार्थ देव शास्त्र गुरु व धर्मके सम्बन्धमें योग्य उपदेश प्राप्त करके, मिथ्या मार्गसे प्रेम हटाता है और समीचीन मार्ग में बुद्धि लगाता है। गुरु ही उस समय पिता है, और तत्त्वज्ञान रूप संस्कार ही गर्भ है। यहाँ यह भव्य ४. कन्वयादि क्रियाओंके लक्षण म. पु./३८/६६ तास्तु कन्वया ज्ञया याः प्राप्याः पुण्यकर्तृभिः । फलरूपतया वृत्ताः सन्मार्गाराधनस्य वै ।६६- कर्त्तन्वय क्रियाएँ चे हैं जो कि पुण्य करनेवाले लोगोंको प्राप्त हो सकती हैं; और जो समीचीन मार्ग की आराधना करनेके फलस्वरूप प्रवृत्त होती हैं।६६। म.पु./३६/८०-२०७ अथातः संप्रवक्ष्यामि द्विजाः कन्वयक्रियाः ।। तत्र सज्जातिरित्याद्या क्रिया श्रेयोऽनुबन्धिनी। या सा वासन्नभव्यस्य नृजन्मोपगमे भवेत् ।८२२.. कृत्स्नकर्ममलापायात संशुद्धिर्याऽन्तरास्मनः । सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः सा नाभावो न गुणोच्छिदा ।२०६। इत्यागमानुसारेण प्रोक्ताः कन्वयक्रिया सप्ताः परमस्थानसंगतिर्यत्र योगिनाम् ।२०७१ -- १. सज्जाति क्रिया- रत्नत्रयकी सहज प्राप्तिका कारणभूत मनुष्य जन्म, उसमें भी पिताका उत्तम कुल और माताकी उत्तम जातिमें उत्पन्न हुआ कोई भव्य, जिस समय यज्ञोपवीत आदि संस्कारों को पाकर परब्रह्मको प्राप्त होता है, तब अयोनिज दिव्य ज्ञानरूपी गर्भ से उत्पन्न हुआ होनेके कारण सज्जातिको धारण जैनेन्द सिद्धान्त कोश Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्तनक करनेवाला समझा जाता है ।८१-६६ २. सद्गृहित्व क्रिया-गृहस्थ योग्य मिसि आदि षट्कर्मोका पालन करता हुआ, पृथिवीतलपर ब्रह्मतेजके वेद या शास्त्रज्ञानको स्वयं पढ़ता हुआ और दूसरोंको पढ़ाता हुआ वह प्रहसनीय देव-ब्राह्मणको प्राप्त होता है । अर्हन्त उसके पिता हैं, रत्नत्रय रूप संस्कार उनकी उत्पत्तिकी अगर्भज योनि है । जिनेन्द्र देवरूप ब्रह्माकी सन्तान है, इसलिए वह देव ब्राह्मण है । उत्तम चारित्रको धारण करनेके कारण वर्णोत्तम है। ऐसा सच्चा जैन श्रावक ही सच्चा द्विज व ब्राह्मणोत्तम है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य व माध्यस्थ्यादि पक्ष तथा चर्या व प्रायश्चित्तादि साधनके कारण उनसे उद्योग सम्बन्धी हिंसाका भी स्पर्श नहीं होता। इस प्रकार गुणोंके द्वारा अपने आत्माकी वृद्धि करना सद्गृहित्व क्रिया है । - १५४ ३ पारिव्राज्य क्रिया - गृहस्थ धर्मका पालन कर घर के निवासमे विरक्त होते हुए पुरुषका जो दीक्षा ग्रहण करना है उसे परिवज्या कहते हैं। ममत्व भावको छोड़कर दिगम्बररूप धारण करना यह पारिव्राज्य क्रिया है ।१५५-२००१ ४, सुरेन्द्रता क्रियापरिव्रज्याके फलस्वरूप सुरेन्द्र पदकी प्राप्ति । २०१५- साम्राज्य क्रिया चक्रवर्तीका वैभव व राज्य प्राप्ति । २०२ | ६. आर्हन्त्य कियार्हन्त परमेष्ठीको जो पंचकल्याणक रूप सम्पदाओं की प्राप्ति होती है, उसे आईन्ध्य क्रिया जानना चाहिए । २०३ २०४ ७. परिनिर्वृति क्रिया- अन्तमें सर्वकर्म विमुक्त सिद्ध पी २००६ ★ इन सब क्रियाओंके लिए मन्त्र विधान - मंत्र/१/७ ५. गृहस्थको वे क्रियाएँ अवश्य करनी चाहिए म. / २८/४६५० देषां जातिसंस्कारं ददयन्निति सोऽधिराट् । स प्रोवाच द्विजन्मेभ्यः क्रियाभेदानशेषतः |४६ । ताश्च क्रियास्त्रिधा - स्नाताः पावकापासंग्रहे सहदृष्टिभिरनुष्ठेया महोदकाः शुभा वहाः १५०० • इसके लिए इन द्विजों ( उत्तम कुलीनों ) की जातिके संस्कारको दृढ करते हुए सम्राट् भरतेश्वरने द्विजोंके लिए नीचे लिखे अनुसार क्रियाओंके समस्त भेद कहे |४६ | उन्होंने कहा कि श्रावकाध्ययन संग्रहमें क्रियाएँ तीन प्रकारकी कही हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको उन क्रियाओंका पालन अवश्य करना चाहिए। क्योंकि वे सभी उत्तम फल देनेवाली और शुभ करनेवाली हैं । ५०| ★ यज्ञोपवीत संस्कार विशेष दे 1 ★ संस्कार द्वारा अर्जनको जैन बनाया जा सकता है - दे, यज्ञोपवीत / २ । संस्तनक-दूसरे नरकका दूसरा पटल - दे. नरक / ५ /११ संस्तर - भ.आ./मू./६४० - ६४५/८४०-८४५ पुढविसिलामओ वा फलनओ तणमओ में संचारो होदि समाधिनिमित्तं उत्तर सिर अहव सिरो ६४०। अपसे समे अमुसरे अहियअविलेय अप्पपाने य सिपि गजमा ६४ विद्वत्यो य अडिदो णिक्कंपो सव्वदो असंसत्तो । समपट्टो उज्जोवे सिलामओ होदि संथारो | ६४२ | भूमि समरु दलओ अकुडिल एगंग अप्पमाणो य । अच्छिदो य अफुडिदो त०हो वि य फलय संथारो | ६४३ | निस्संधी य अपोलो मिहदो समधि नास्सवितु पडितेो मणसंधारो हवे परिमो ४४ जुतो पमाणरयो पहिणा विधिविदो संधारी बारोहयो तिगुते ॥ ६४५॥ पृथिवी शिलामय, फलकमय, और तृणमय ऐसे चार प्रकारके संस्तर हैं । समाधिके निमित्त इनकी आवश्यकता पड़ती है। इन संस्तरोंके मस्तकका भाग पूर्व व उत्तर दिशाकी तरफ होना चाहिए । ६४०] भूमिसंस्तर - जो जमीन मृदु नहीं है, जो छिद्र रहित, राम, सूखी, प्राणि भा० ४-२० संस्थान रहित, प्रकाशयुक्त, क्षपकके देहप्रमाणके अनुसार और गुप्त, और सुरक्षित है ऐसी जमीन संस्तररूप होगी अन्यथा नहीं । ६४१ शिलामय संस्तर - शिलामय संस्तर अग्निज्वालसे दग्ध, टाँकीके द्वारा उके‍ गया, वा घिसा हुआ होना चाहिए। यह संस्तर टूटा-फूटा न हो निश्चल हो, सर्वतः जीवोंसे रहित हो, खटमल आदि दोषोंसे रहित, समतल और प्रकाशयुक्त होना चाहिए | ६४२ | फलकमय संस्तरचारों तरफसे जो भूमिसे संलग्न है, रुन्द और हलका, उठाने रखने में अनायास कारक, सरल, अखण्ड, स्निग्ध, मृदु, अफूट ऐसा फलक संस्तर के लिए योग्य है । ६४३ | तृणसंस्तर- तृणसंस्तर गाँठ रहित तृणसे बना हुआ, छिद्र रहित, न टूटे हुए तृणसे बना हुआ, जिसपर सोने में बैठने खुजली न होगी ऐसे से बना हुआ स्पर्शाला, जन्तुरहित, जो सुख सोधा जाता है. ऐसा होना चाहिए । ६४४ संस्तरके सामान्य लक्षण चारों प्रकारके संस्तरोंमें ये गुण होने चाहिए योग्य प्रमाणयुक्त हो तथा सूर्योदय व सूर्यास्तकालमें शोधन करनेसे शुद्ध होता है। शास्त्रोत विधिसे जिसकी रचना हुई है. ऐसे संस्तरपर मन वचन कायको शुद्ध कर आरोहण करना चाहिए १५३ संस्तव - दे. भक्ति / ३. संस्थान - १. संस्थान सामान्य व संस्थान नामकर्मका लक्षण स.सि./३/२४ / २०६९ संस्थानमाकृतिः । स.सि./ ८ / १२ / ३६० / ३ यदुदयादौदारिकादिशरीराकृतिनिवृत्तिर्भवति तत्संस्थाननामा - १. संस्थानका अर्थ आकृति है । (रा. वा./३/८/३/१००/१४२, जिसके उदयसे औदारिकादि शरीरोंकी आकृति बनती है वह संस्थाननामकर्म है (रा. ना./८/१९/८/४०८/२६ (ध. ६/१.२-१.२८/२३/4 ) ( ११/५.२१०१ / २६४ / ३) (गो. क./जी. प्र. / ३३ / २६ / ३ ) *रा. वा./५/२४/१/४८५ / १३ संतिष्ठते, संस्थीयतेऽनेनेति संस्थितिर्वा संस्थानम् । - जो संस्थित होता है या जिसके द्वारा संस्थित होता है या स्थितिको संस्थान कहते हैं। क. पा. २ / २-२२/१५/६/२ तंस-उस-बादी जि संठाणाणि । - त्रिकोण, चतुष्कोण, और गोस आदि (आकार) को संस्थान कहते हैं । २. संस्थानके भेद - घ. खं. ६ / १,६-१ / सू. ३४/७० जं तं सरीरसंठाणणामकम्मं तं छविह समच उरससरी रामनाम गोहपरिमंडल सरीरसं ठाणणामं सादियसरीरसंठाणणामं खुज्जसरीरसंठाणणामं वामणसरीरसंठाणणामं डसरीर ठाणणामं चेदि जो शरीर संस्थान नामकर्म है वह छह प्रकारका है समचतुरल शरीरस्थाननामर्क्स, शोधपरिमण्डल शरीर संस्थाननामकर्म, स्वातिशरीरसं स्थाननामकर्म, कुब्जशरीरसंस्थान नामकर्म, वामनशरीर संस्थाननामकर्म, और हुडकशरीरसंस्थाननामकर्म ( . १२/१२/ १०० / ३६०) (स. सि. /८/११/२६० / ३) (पं.सं./प्रा./१/४ की टीका ): (प्र.सं./१८/०१/६) ( पा./टी./६४/२-१/१३) स.सि./५/२४/२६६/१ तह (संस्थानं) द्विविधमित्य सक्षम निरयं लक्षण येति । - इस संस्थान) के दो भेद हैं- लक्षण और अनित्यंलक्षण । . द्र. सं./टी./१६/५३/८ वृत्तत्रिकोणचतुष्कोणादिव्यक्ताव्यक्तरूपं बहुधा संस्थान गोल त्रिकोण, चतुष्कोण आदि अनेक प्रकारके संस्थान हैं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान १५४ संस्थान ३. संस्थानके भेदोंके लक्षण है, वह स्वाति संस्थान है। अर्थात् यह शरीर नाभिसे नीचे विशाल और ऊपर सूक्ष्म या हीन होता है । १. समचतुरस्त्र ४. कुब्ज रा. वा./८/११/८/१७६/३२ तत्रोधिोमध्येषु समप्रविभागेन शरीरावयवस निवेशव्यवस्थापनं कुशल शिल्पिनिर्व तितसमस्थितिचक्रवत अव रा. वा./८/११/८/५७७/२ पृष्ठप्रदेशभाविबहुपुद्गलप्रचयविशेषलक्षणस्य स्थानकर समचतुरस्त्र संस्थाननाम । = ऊपर नीचे मध्यमें कुशल निर्वतकं कुब्जसंस्थाननाम । =पीठपर बहुत पुद्गलोंका पिण्ड हो शिल्पीके द्वारा बनाये गये समचक्रको तरह समान रूपसे शरोरके जाना अर्थात कुबड़ापन कुब्जक संस्थान है। अवयवों की रचना होना समचतुरस्त्र संस्थान है। ध.६/१,६-१,३४/७१/६ कुब्जस्य शरीरं कुब्जशरीरम् । तस्य कुब्जध, ६/१,६-१.३४/७१/१ सम चतुरस्र समचतुरस्र समविभक्तमित्यर्थः । शरीरस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य तत्कुब्जशरीरसंस्थानम् । 'जस्स जस्स कम्मस्स उदएण जोवाण समचउरस्ससंठाणं होदि तस्स कम्मस्स कम्मस्स उदएण साहाणं दीहत्तं मज्झस्स रहस्सत्तं च होदि तस्स समचउरससठाणमिदि सण्णा । समान चतुरस्र अर्थात समविभक्तको खुज्जशरीरसंठाणमिदि सण्णा ।- कुबड़े शरीरको कुन्ज शरीर कहते समचतुरस्र कहते हैं। जिस कर्म के उदयसे जोवोंके समचतुरस्रसंस्थान है। उस कुब्ज शरीरके संस्थानके समान संस्थान जिस शरीरका होता है उस कर्मकी समचतुरस्र संज्ञा है। होता है, वह कुब्ज शरीर संस्थान है। जिस कर्मके उदयसे शाखा ओंकी दीर्घता और मध्य भागके ह्रस्वता होती है, उसकी 'कुब्ज ध. १३/५.५,१०७/३६५५ चतुरं शोभनम्, समन्ताच्चतुरं समचतुरम, समानमानोन्मानमित्यर्थः। समचतुरं च तत् शरीरसंस्थानं च सम शरीर संस्थान' यह संज्ञा है । (ध. १३/५,५,१०७/३६८/१२)। चतुरशरीरसंस्थानम् । तस्य संस्थानस्य निवर्तकं यत् कर्म तस्याप्ये ५. वामन व संज्ञा, कारणे कार्योपचारात्। = चतुरका अर्थ शोभन है, सब ओरसे चतुर समचतुर कहलाता है। समान मान और उन्मानवाला, रा. वा./२/११/८/५७७/३ सर्वाङ्गोपाङ्गह्रस्वव्यवस्थाविशेषकारणं वामनयह उक्त कथनका तात्पर्य है। समचतुर ऐसा जो शरीरसंस्थान वह संस्थाननाम । =सभी अंग उपांगोंको छोटा बनाने में कारण वामन समचतुरस्र शरीरसंस्थान है। उस सस्थानके निवर्तक कर्मकी भी संस्थान है। कारणमें कार्य के उपचारसे यही संज्ञा है। ध. ६/१,६-१, ३४/७१/८ वामनस्य शरीरं वामनशरीरम् । वामन शरीरस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य तद्वामनशरीरसंस्थामम् । जस्स २. न्यग्रोध परिमण्डल कम्मस्स उदएण साहाणं जं रहस्सत्तं कायस्स दीहत्तं च होदि तं रा. रा./८/११/८/५७६/३३ नाभेरुपरिष्टाद् भूयसो देहसंनिवेशव्याधस्ता- वामणसरीरसंठाणं होदि। =बौनेके शरीरको वामन शरीर कहते चाल्पोयसो जनकं न्यग्राधपरिमण्डल संस्थानम् । =बड़के पेड़की तरह हैं। वामन शरीरके संस्थानके समान सस्थान जिससे होता है, वह नाभिके ऊपर भारी और नोचे लघुप्रदेशोंकी रचना न्यग्रोधपरिमण्डल वामन शरीर संस्थान है। जिस कर्मके उदयसे शाखाओंके ह्रस्वता संस्थान है। और शरीरके दीर्घता होती है, वह वामनशरीर संस्थान नामकर्म ध. ६/१,६-१,३४/७१/२ णग्गोहो वडरुवखो, तस्स परिम डलं व परिमडलं है। (ध. १३/५,५,१०७/३६८/९३)। जस्स सरीरस्स तण्णगोहपरिमंडलं । णग्गोहपरिमंडलमेव सरीर ६. हुडक संठाणं णग्मोहपरिमंडलसरीरसं ठाणं आयतवृत्तमित्यर्थः। -न्यग्रोध वट वृक्षको कहते हैं, उसके परिमण्डलके समान परिमण्डल जिस रा.वा./८/११/८/५७७/४ सर्वाङ्गोपाङ्गानां हुण्डसंस्थितत्वात् हुण्डसंस्थाशरीरका होता है उसे न्यग्रोध परिमण्डल कहते हैं। न्यग्रोध परि ननाम | सभी अंग और उपांगोंका बेतरतीब हु'डकी तरह रचना मण्डलरूप ही जो शरीर संस्थान है, वह न्यग्रोध परिमण्डल अर्थात हुंडक संस्थान है। आयतवृत्त शरीरनामकर्म है। ध. ६/१,६,१,३४/७२/२ विसमपासाणभरियदइयो ठव विस्सदो विसम ध. १३/५,५,१०७/३६८/७ न्यग्रोधो वटवृक्षः समन्तानमण्डलं परिमण्डलम्, हुंडं । हुडस्स शरीर हुंडशरीरं, तस्स सठाणमिव सं ठाणं जस्स तं न्यग्रोधस्य परिमण्डल मिव परिमण्डलं यस्य शरीरसंस्थानस्य तन्न्य हेडसरीरसंठाणणाम । जस्स कम्मस्स उदएण पुन्बुत्तपंचसं ठाणेहितो ग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थान नाम । अधस्तात श्लक्ष्णं उपरि विशालं बदिरित्तमण्णसंठाणमुप्पज्जइ एक्कत्तीसभेदभिण्णं तं हुंडसंठाणयच्छरोरं तन्न्यग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थानं नाम । एतस्य यत् सण्णिदं होदि त्ति णादव्यं ।-विषम अर्थात समानता रहित अनेक कारणं कर्म तस्याप्येषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचाराद-न्यग्रोधका आकारवाले पाषाणोंसे भरी हुई मशकके समान सर्व ओरसे विषम अर्थ वटका वृक्ष है, और परिमण्डल का अर्थ सब ओरका मण्डल । आकारको हुंड कहते हैं । हुंडके शरीरको हुंड शरीर कहते हैं। उसके न्यग्रोधके परिमण्डल के समान जिस शरीर संस्थानका परिमण्डल संस्थानके समान संस्थान जिसके होता है उसका नाम हुंड शरीर संस्थान है। जिस कर्म के उदयसे पूर्वोक्त पाँच संस्थानोंसे व्यतिरिक्त, होता है वह न्यग्रोध परिमण्डल शरीर संस्थान है। जो शरीर नीचे इकतीस भेद भिन्न अन्य संस्थान उत्पन्न होता है, वह शरीर हुंडसूक्ष्म और ऊपर विशाल होता है वह न्यग्रोध परिमण्डल शरीर संस्थान संज्ञा वाला है, ऐसा जानना चाहिए। (ध. १३/५,५,१०६/ संस्थान है। कारणमें कार्यके उपचार इसके कारण कर्म की यहो संज्ञा है। ३६६/१)। ३. स्वाति ४. इत्थं अनित्थं संस्थानके लक्षण रा. वा./८/११/८/५७७/२ तद्विपरीतसंनिवेशकरं स्वातिसंस्थाननाम स. सि./२/२४/२६६/१ वृत्तव्यसचतुरस्रायतपरिमण्डलादोनामित्थलक्षवामीकतुल्याकारम् । -न्यग्रोधसे उलटा ऊपर लघु और नीचे भारो, णम् । अतोऽन्यन्मेषादोन संस्थानमनेकविधमित्थमिदमिति निरूप बाम्बीकी रचना स्वाति संस्थान है । (ध. १३/०५.१०७/१६८/१०)। णाभावादनित्थं लक्षणम् ।-जिसके विषयमें 'यह संस्थान इस प्रकारध. ६/१.६-१,३४/७१/४ स्वातिर्वल्मीक: शाल्मलिर्वा, तस्य संस्थानमिव का है' यह निर्देश किया जा सके वह इत्थं लक्षण संस्थान है। वृत्त, सस्थानं यस्य शरीरस्य तत्स्वातिशरीरसंस्थानम् । अहो विसालं त्रिकोण, चतुष्कोण, आयत और परिमण्डल, आदि ये सब इत्थंनक्षण उबरि सण मिदि जं उत्तं होदि 1-स्वाति नाम बन्मीक या संस्थान हैं। तथा इसके अतिरिक्त मेघ आदिके आकार जो कि अनेक शाल्मली वृक्षका है । उसके आकारके समान आकार जिस शरीरका प्रकारके हैं और जिनके विषय में 'यह इस प्रकारका है। यह नहीं कहा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान निर्माण कर्म १५५ संहनन जा सकता वह अनित्थंलक्षण संस्थान है। (रा. वा./५/२४/१३/ ४८६/१)। ५. गति मार्गणामें संस्थानोंका स्वामित्व मू.पा./१०६० समचउरसणिग्गोहासादि य खुज्जा य वामणा हुंडा । पंचिं. दियतिरियणरा देवा चउरस्स णारया हुंडा ।-समचतुरस, न्यग्रोध, सातिक, कुब्जक, बामन और हुंड ये छह संस्थान पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्यों के होते हैं, देव चतुरस्र संस्थान वाले हैं, नारकी सब हुंडक सस्थान वाले होते हैं ।१०६० ६. अन्य सम्बन्धित विषय १. एकेन्द्रियोंमें संस्थानका अभाव तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान। -दे, उदय/५। २. विकलेन्द्रियों में हुंडक संस्थानका नियम तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान । --दे. उदय/५॥ ३. विग्रहगतिमें जीवोंका संस्थान । -दे. अवगाहना/१। ४. संस्थान नामकर्मकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा तथा तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान आदि। -दे. वह बह नाम । संस्थान निर्माण कर्म-दे, निर्माणकर्म । संस्थान विचय धर्म ध्यान-दे. धर्मध्यान/१। संस्थानाक्षर-दे. अक्षर। संहनन-१. संहनन सामान्यका लक्षण स.सि./८/११/३६०/५ यस्योदयादस्थिबन्धनविशेषो भवति तत्संहनननाम । जिसके उदयसे अस्थियोंका बन्धन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है। (रा. बा./८/११/६/५७७/५), (ध.६/१, ६-१, २८/५४/-) (ध. १३/५,६,१०७/३६४/५), (गो. क./जी, प्र./३३/ २६/६)। २. संहननके भेद प. खं. ६/१,६-१/सु. ३६/७३ जं तं सरीरसंघडणणामकम्मं तं छव्यिहं, वज्जरिसहवइरणारायणसरोरसंघडणणामं बज्जणारायणसरीरसंघडणणामं णारायणसरीरसंघडणणाम अद्धणारायणसरीरसंघडणणाम खोलियसरीरसघडणणामं असपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामं चेदि ।३६। = जोशरीर संहनन नामकर्म है वह छह प्रकारका है-बज्रऋषभनाराचशरीरसंहनन नामकर्म, वज्रनाराचशरीरसंहनन नामकर्म, नाराबशरीरसंहनन नामकर्म, अर्धनाराच शरीरसहनन नामकर्म, की लकशरीरसंहनन नामकर्म, और असंप्राप्त सृपाटिकाशरीरसंहनन नामकर्म। (प.खं.१३/५/सू. १०६/३६६), ( स. सि /-/११/ ३६०६).(पं.सं./प्रा./१/४ की टी.) ( रा. वा./८/११/६/५७७/६), (गो, क./जी.प्र./३३/२६/६)। ३. संहननके भेदोंके लक्षण रा. वा./८/११/६/५७७/७ तत्र. वज्राकारोभयास्थिसन्धि प्रत्येकं मध्ये बलयबन्धनं सनाराचं सुसंहतं वज्रऋषभनाराचसंहननम् । तदेव वलयबन्धनविरहितं वज्रनाराचसंहननम् । तदेवोभयं वज्राकारबन्धनव्यपेतमवलयबन्धनं सनाराचं नाराचसंहननम् । तदेवैकपावें सनाराचम् इतरत्रानाराचम् अर्धनाराचसंहननम् । तदुभयमन्ते सकोलं की लिकासंहननम् । अन्तरसंप्राप्तपरस्परास्थिसन्धि पहिः सिरास्नायुमांसटितम् असंप्राप्तसृपाटिकासंहननम् । दोनों हड्डियों की सन्धियाँ बज्राकार हों। प्रत्येकमें बल यवन्धन और नाराच हों ऐसा सुसहत बन्धन बज्रर्षभनाराचसंहनन है। बलय बन्धनसे रहित बही वज्रनाराच संहनन है। वहीं वज्राकार अन्धन और वलय बन्धनसे रहित पर नाराच युक्त होनेपर सनाराच संहनन है। वही एक तरफ नाराच युक्त तथा दूसरी तरफ नाराच रहित अवस्थामें अर्ध नाराच है । जब दोनों हड्डियोंके छोरों में कील लगी हों तब वह कोलक संहनन है। जिसमें भीतर हड्डियोंका परस्पर बन्ध न हो मात्र बाहिरसे वे सिरा स्नायु मांस आदि लपेट कर संघटित की गयी हों बह असंप्राप्तसृपाटिका संहनन है। (ध. १३/५,५,१०६/ ३६६/११)। ध. ६/१,६-१,३६/७३/८ संहननमस्थिसंचयः, ऋषभो वेष्टनम, वज्रवदभेद्यत्वाद्वज ऋषभः। वज्रवन्नाराचः बज्रनाराच', तौ द्वावपि यस्मिन् वज्रशरीरसंहनने तद्वज ऋषभवज्रनाराचशरीरसंहननम् । जस्स कम्मस्स उदएण वजहड्डाई बज्जवे?ण वेट्ठियाई वज्जणाराएण खोलियाई च होंति तं बज्जरिसहवरणारायणसरीर संघडण मिदि उत्तं होदि । एसो चेव हबंधो वज्जरिसहवज्जिओ जस्स कम्मस्स उदएण होदि तं कम्मं बज्जणारायणसरीरसंघडण मिदि भण्णदे। जस्स कम्मस्स उदएण वज्ज विसेसणरहिदणारायणरवीलियाओ हडसं धिओ हवं ति तं णारायणसरीरसंघडणं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण हडसंधीओ णाराएण अद्भविद्धाओ वंति तं अद्भणारायणसरीरसंघडणं णाम । जस्स कम्मस्स उदएण अवज्जहड्डाई खीलियाई हवंति तं खोलियसरीरसघडणं णाम । जस्स कम्मस्स उदएण अण्णोपणमसंपत्ताई सरिसिवहड्डाई व छिरावद्धाई हड्डाई हवं ति तं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं णाम । = हड्डियों के संचयको संहनन कहते हैं। वेष्टन को ऋषभ कहते हैं । बज्रके समान अभेद होनेसे वऋषभ' कहलाता है। बज्रके समान जो नाराच है वह बज्रनाराच कहलाता है। ये दोनों अर्थात बज्र ऋषभ और वज्रनाराच, जिस वज्र संहननमें होते हैं, वह वज्रऋषभ बज्रनाराच शरीर संहनन है। जिस कर्म के उदयसे वज्रमय हड्डियाँ बज्रमय वेष्टनसे वेष्टित और वज्रमय नाराचसे कीलित होती हैं, वह वज्रऋषभनाराच शरीर संहनन है। ऐसा अर्थ कहा गया है। यह उपर्युक्त अस्थिबन्ध ही जिस कर्म के उदयसे वज्र ऋषभसे रहित होता है, वह कर्म वज्रनाराचशरीर संहनन इस नामसे कहा जाता है। जिस कर्मके उदयसे वज्र विशेषणसे रहित नाराच कोलें और हड्डियोंको संधियाँ होती है वह नाराच शरीर संहनन नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे हाड़ोंकी सन्धियाँ नाराच से आधी बिंधी हुई होती हैं, वह अर्धनाराच शरीर संहनन नामकम है। जिस कर्मके उदयसे वज्र-रहित हड्रियाँ और कीलें होती हैं वह कोलक शरीर संहनन नामकर्म है। जिस कर्मके उदससे सरीसृप अर्थात् सर्पकी हड्डियों के समान परस्परमे असंप्राप्त और शिराबद्ध हड्डियाँ होती हैं, वह असंप्राप्तासृपाटिका शरीर संहनन नामकर्म है । ४. उत्तम संहननका तात्पर्य प्रथम तीन संहनन रा. वा./६/२७/१/६२५/१६ आद्य' संहननत्रयमुत्तमम् ।। बज्रवृषभनाराचसंहनन वज्रनाराचसंहननं नाराचसंहननमित्येतस्त्रितयं संहननमुत्तमम् । कुतः। ध्यानादिवृत्तिविशेषहेतुत्वाद। -आदिके तीन उत्तम संहनन हैं अर्थात बऋषभनाराचसंहनन, बज्रनाराचसंहनन, नाराचसंहनन ये तीनों ध्यानकी वृत्ति विशेषका कारण होनेसे उत्तम संहनन कहे गये हैं। (भ. आ./वि./१६१६/१५२१/१४) । ५. ध्यानके लिए उत्तम संहननकी आवश्यकता रा. बा./8/२७/१,११/६२५-६२६/२० तत्र मोक्षस्य कारणमाद्यमेकमेव । ध्यानस्य त्रितयमपि (१/६२५) उत्तमसंहननाभिधानम् अन्यस्येयकालाध्यवसायधारणासामर्थ्यात् । ११/६२६ । = उपरोक्त तीनों जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सककापिर १५६ सकलादेश उत्तम संहननमेंसे मोक्षका कारण प्रथम संहनन होता है और ध्यानके सकलचद्र-नदिसंघ देशीयगण, अभयनन्दि के शिष्य, मेषचन्द कारण तो तीनों हैं ।। क्योंकि उत्तम संहननवाला हो इतने समय विवा के गुरु । समय-(ई. १४०-१०२०) । (दे. इतिहास/0/101 तक ध्यान धारण कर सकता है अन्य संहननवाला नहीं। (भ. आ./ सकलदत्ति-दे दान/१। वि./१६६६/१५२१/१४)। सकल परमात्मा-दे. परमात्मा/१ । घ. १३/५.४.२६/७३/१२ सुकलेस्सिओ...वज रिसहवरणारायणसरीरसंधडणो..खबिदासेसकसायवग्गो...। = जिसके शुक्ल लेश्या है... सकल विधि विधान-दे. पूजापाठ । (जो) वज्रऋषभ नाराच संहननका स्वामी है...ऐसा क्षीणकषाय जीव सकलादेश-१. सकलादेश निर्देश ही एकत्व वितर्क अविचार ध्यानका स्वामी है। ज्ञा./४१४६-७ न स्वामित्वमतः शुक्ले विद्यतेऽत्यल्पचेतसाम् । आद्य रा. वा./४/४२/१३/२५२/२३ यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन संहननस्यैव तत्प्रणीतं पुरातनैः ।६। छिन्ने भिन्ने हते दग्धे देहे वृत्तमारमा पमुच्यते तदै केनापि शब्देन एकधर्मप्रत्यायनमुखेन स्वमिव दूरगम् । प्रपश्यन् वर्षवातादिदुःस्त्रैरपि न कम्पते ।७४ - पहले तदारमकत्वमापन्नस्य अनेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसंभवात योगपद्यम् । संहननवालेके ही शुक्लध्यान कहा है क्योंकि इस संहननवालेकाही तत्र यदा यौगपद्य तदा सकलादेशः, स एव प्रमाण मित्युच्यते । चित्त ऐसा होता है कि शरीरको छेदने, भेदने, मारने और जलानेपर 'सकलादेशः प्रमाणाधीनः' इति वचनात। -जब उन्हीं अस्तित्वादि भी अपने आत्मको अत्यन्त भिन्न देखता हु। चलापमान नहीं धमौकी कालादिककी दृष्टिसे अभेद विवक्षा होती है तब एक भी होता, न वर्षाकाल आदिके दुःखों से कम्पायमान होता है ।६-७। शब्दके द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्य रूपसे एकत्वको प्राप्त सभी त. अनु. ८४ यत्पुनर्वकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः। श्रेण्योनि धोका अखंड भावसे युगपत्त कथन हो जाता है। यह सकलादेश प्रतीत्योक्तं तन्नाथस्तन्निषेधकम् ।८।। - 'वज्र कायस्य ध्यानं कहलाता है । सकलादेश प्रमाण रूप है। कहा भी है-सकलादेश ऐसा जो वचन निर्देश है वह दोनों श्रेणियों को लक्ष्य करके कहा गया प्रमाणाधीन है। (श्लो. वा. २/२/६/१४/४५१/१५), (स्या. म./२३/ है इसलिए वह नोचेके गुणस्थानवर्तियों के लिए ध्यान का निषेधक *२८३/१०)। नहीं है (पं. का./ता, वृ./१२६/२१२/१४), (द्र. सं./टी./५७/२३२/४) । श्लो.बा.२/१/६/५६/पृष्ठ सं./पंक्ति सं. धर्मिमात्रबचनं सकलादेशः धर्मद्र. सं /टी./५७/२३२/६ उपशमक्षपक श्रेण्योः शुक्लध्यानं भवति, मात्रकथन तु बिकलादेश इत्यप्यसारम्, सत्त्वाद्यन्यतमेनापि धर्मेणातच्चोत्तमसंहननेनैव, अपूर्वगुणस्थानादधस्तनेषु गुणस्थानेषु धर्म विशेषितस्य धर्मिणो वचनासंभवात् । धर्ममात्रस्य क्वचिद्धर्मिण्य. ध्यान, तच्चादिमत्रिकोत्तमसंहननाभावेऽप्यन्तिमत्रिकसंहननेनापि वर्तमानस्य वक्तुमशक्तेः । स्याज्जीव एव स्यादस्त्येवेति धर्मिमात्रस्य भवति । - उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी में जो ध्यान होता है वह च धर्ममात्रस्य वचनं संभवत्येवेति चेद, न, जीवशब्देन जीवत्वउत्तम संहनन से ही होता है, किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थानसे नीचे धर्मात्मकस्य जीववस्तुनः कथनादस्तिशब्देन चास्तित्वस्य कचिद्विके गुणस्थान में जो धर्मध्यान होता है वह पहले तीन उत्तर संहननके शेष्ये विशेषणतया प्रतीयमानस्याभिधानात । (४५६/११) सकलाप्रतिअभाव होने पर भी अन्तिमके तीन संहननसे भी होता है। पादकत्वात् प्रत्येक सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्तत्समुदायस्यापि विकलादेशत्वप्रसंगात ४६०/२३. यदि ६. स्त्रीको उत्तम संहनन नहीं होती पुनरस्तित्वादिधर्मसप्तकमुखेनाशेषानम्तसप्तभङ्गीविषयानन्तधर्मसप्तक - मो. क //३२ अंतिम तियसंहणणस्सुदओ पुण कम्मभूमिमहिलाणं । स्वभावस्य बस्तुनः कालादिभिरभेद वृत्त्या भेदोपचारेण प्रकाशनारसआदिमतिगसंहडणं णस्थिति जिणे हिं णिद्दिष्टं। कर्म भूमिकी दादिसप्तविकल्पात्मकवाक्यस्य सकलादेशत्व सिद्धिस्तदा स्यादस्त्येव स्त्रियों के अन्तके तीन अर्द्धनाराच आदि संहननका ही उदय होता जोबादिवस्त्वित्यस्य सक्लादेशत्वमस्तु । विवक्षितास्तित्वमुखेन है, आदिके तीन वज्रऋषभनाराचादि संहननका उदय नहीं होता। शेषानन्तधर्मात्मनो वस्तुनस्तथावृत्त्या कथनात् (४६२/१) =१. केवल (पं.का./ता. इ./प्रक्षेपक/२२५-८/३०४ पर उदधृत)। धर्मीको कथन करनेवाला वाक्य सकलादेश है और केवल धर्मको ७. अन्य सम्बन्धित विषय कथन करना हो तो विकलादेश है। इस प्रकार लक्षण साररहित है १. किस संहननवाला जीव मरकर कहाँ उत्पन्न हो क्योंकि अस्तित्व नास्तित्वादि धर्मों मेंसे किसी एक भी धर्मसे तथा कौन सा गुण उत्पन्न करनेको समर्थ हो। -दे. जन्म/६ । विशिष्ट नहीं किये गये धर्मीका कथन असम्भव है। अर्थात सम्पूर्ण २. संहनन नाम कर्मकी बन्ध उदय सत्त्र प्ररूपणाएँ धर्मोंसे रहित शुद्ध वस्तुका निरूपण नहीं हो सकता है। किसी न किसी धर्मसे युक्त हो धर्मीका कथन किया जा सकता है । (स. भ.त.. तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान । -दे. वह वह नाम। १७/१) २. कथंचित जीव ही है, इस प्रकार केवल जीवद्रव्य रूप ३. सल्लेखनामें संहनन निर्देश। -दे. सहलेखना/३। धर्मीको कहनेवाला वचन विद्यमान है, और 'कथं चित् है ही' ऐसे सककापिर-भरतक्षेत्र दक्षिण आर्य खण्डका एक देश-दे, केवल अस्तित्व धर्मको कहनेवाला वाक्य भी सम्भवता है। ऐसा मनुष्य/४1 कोई कटाक्ष करते हैं। सो ऐसा तो नहीं कहना क्योंकि धर्मी वाचक सकलकीत-मन्दीसंघ बलात्कार गणकी ईडर गद्दी पर यह जीव शब्द करके प्राणधारणरूप जीवख धर्मसे तदात्मक हो रही जीव वस्तु कथन को गयी है केवल धर्मीका ही कथन नहीं। और धर्मपद्मनन्दिनं.१ के शिष्य तथा भुवनकी तिके गुरु, संस्कृत एवं प्राकृत वाचक अस्ति शब्द करके किसी विशेष्य में विशेषण होकर प्रतीत किये बाङ्मय के संरक्षक, अनेकानेक ग्रन्थों के रचयिता। कृतियें मूलाधार जा रहे हो अस्तित्वका निरूपण किया गया है कोरे अस्तित्वधर्मका प्रदीप, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, सिद्धान्तसार दीपक, तत्त्वार्थसार नहीं ।४५६/११॥ ३.अस्तित्व नास्तित्व आदि धर्मोको कहनेवाले, दीपक, आगमसार, द्वादशानुप्रेक्षा, समाधिमरणोत्साह दीपक, सार सातों भी बाक्य यदि प्रत्येक अकेले बोले जाँय तो सकलादेश है इस चतुर्विशतिका, सद्भाषितावली, परमात्मर ज स्तोत्र, पंचपरमेष्ठी प्रकार दूसरे अन्यवादी कह रहे हैं। वे भी युक्ति और शास्त्र प्रमाणमें पूजा. अष्टान्हिका पूजा. सोलहकारण पूजा, गणधरबलय पूजा, आदि प्रवीण नहीं हैं क्योंकि युक्ति और आगम दोनोंका अभाव है। यों तो पुराण, उत्तर पुराण, पुराणसार संग्रह. सुकुमाल. धन्यकुमार आदि उन सातो वाक्योंके समुदायको भी विकलादेशपनेका प्रसंग होगा। अनेकों चारित्र ग्रन्थ । समय-जन्म वि.१४४३, पट्टाभिषेक बि.१४७१, अस्तित्वादि सातो वाक्य भी समुदित होकर भी सम्पूर्ण वस्तुभूत समाधि बि. १४६६1 (ई. १४२२-१४४२)। (ती./३/३२६): (दे, अर्थ के प्रतिपादक नहीं है ।४६०/२३. ४. अस्तित्व आदि सातों धर्म की इतिहास ७/४)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलादेश प्रमुखता से शेष बचे हुए अनन्त सप्तभंगियोंके विषयभूत अनन्त संख्यावाले सातों धर्मस्वरूप वस्तुका काल, आत्म रूप आदि अभेद वृत्ति या भेदउपचार करके प्ररूपण होता है। इस कारण अस्तित्व नास्तित्व आदि सप्त भेद स्वरूप वाक्यको सकलादेशपना सिद्ध हो जाता है ऐसा विचार होनेपर हम कहेंगे कि तब तो 'स्यात् अस्ति एवं जीवादि वस्तु" किसी अपेक्षाजवादि वस्तु है ही इस प्रकार इस एक भगको सलादेशपन हो जाओ। क्योंकि विवक्षा किये गये एक अस्तित्व धर्मकी प्रधानता करके शेष बचे हुए अनन्त धर्म स्वरूप वस्तुका तिस प्रकार अभेद वृत्ति या अभेद उपचारसे कथन कर दिया गया है (४६२/१) । पा, १/१.१३-१४/१९७० / २०२ / २ कयमेतेषां समानयान का देशनः एकधर्मप्रधानभावेन साकल्येन वस्तुनः प्रतिपादकत्वाद। सकलमादिशति कथयतीति सफलादेशः न च त्रिकालमोचरानन्तधर्मोपचितं वस्तु स्यादस्तीत्यनेन आदिश्यते तथानुपलम्भात् ततो नैते सकलादेशा इति; न; उभयनयविषयीकृतविधिप्रतिषेधधर्मव्यतिरिक्तत्रिकालो चरानन्तधर्मानुपलम्भात् उपसा व्य पर्यायार्थिकनयाभ्यां व्यतिरिक्तस्य तृतीयस्य नयस्यास्तित्वमास - जेत्, न चैवम् । - प्रश्न- इन सातों (स्यादस्ति आदि ) सुनयरूप वाक्योंको सकला देशपना कैसे प्राप्त है ? उत्तर- ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि ये सुनय वाक्य किसी एक धर्मको प्रधान करके साकल्य रूप से वस्तुका प्रतिपादन करते हैं, इसलिए ये सकलादेश रूप हैं; क्योंकि साकल्य रूपसे जो वस्तुका प्रतिपादन करता है वह सकलादेश कहा जाता है। प्रश्न- त्रिकाल के विषयभूत अनन्त धर्मोसे उपचित वस्तु 'कथंचित् है' इस एक वाक्यके द्वारा तो कही नहीं जा सकती है, क्योंकि एक धर्म के द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तुका ग्रहण नहीं देखा जाता है। इसलिए उपर्युक्त सातों पाका सकतादेश नहीं हो सकते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि हस्याधिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंके द्वारा विषय किये गये विधि और प्रतिषेध रूप धर्मोंको छोड़कर इससे अतिरिक्त दूसरे त्रिकालवर्ती अनन्त धर्म नहीं पाये जाते हैं। अर्थात् वस्तुमें जिसने धर्म हैं वे या तो विधि हैं या प्रतिषेधरूप, विधि और प्रतिषेधसे हि धर्म नहीं है। सवा विधिरूप धर्मोको द्रव्यार्थिक नय विषय करता है । यदि विधि और प्रतिषेध के सिवाय दूसरे धर्मोका सद्भाव माना जाय तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके अतिरिक्त एक तीसरे नयको मानना पड़ेगा परन्तु ऐसा है नहीं। 3 १५७ सभंत / पृष्ठ / अत्र केचित् अनेकधर्माविषय जनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वं । तेषां प्रमाणवाक्यानां नयवाक्यानां च सप्तविधत्वव्याघातः । (१६ / ३) 1 सिद्धान्तविदस्तु एकधर्मबोधनमुखेन तदात्मकाने काशेषधर्मात्मक वस्तुविषयक बोधजनकवाक्यत्वम् । तदुक्तम् : 'एकगुणमुखेन शेषवस्तुरूपसङ्घात्मक् लादेश', इति । ( १६ / ६) । - यहाँपर कोई ऐसा कहते हैं: सत्य असत्य आदि अनेक धर्म रूप जो वस्तु है उस वस्तु विषय भोजन अर्थात वस्तु के अनेक धर्मोका ज्ञान करानेवाला सकलादेश है ।... उनके मत में प्रमाण वाक्योंके तथा नय वाक्योंके भी सात प्रकारका भेद नहीं सिद्ध होगा । (१६/३) सिद्धान्तवेशा ऐसा कहते हैं कि एक धर्म के बोधन के मुख से उसको आदि के सम्पूर्ण जो धर्म है उन सब धर्म स्वरूप जो वस्तु तादृश वस्तु विषयक बोधजनक जो वाक्य हैं उनको सकलादेश कहते हैं । इसी बात को अन्य आचार्यने भी कहा है । 'वस्तुके एक धर्म के द्वारा शेष सर्व वस्तुओंके स्वरूपोंका' संग्रह करनेसे सकला देश कहलाता है। ' * 'नय कथंचित् सकलादेश है - दे. सप्तभंगी / २ । ★ प्रमाण सकलादेश हैन // २१ * " सकलेन्द्रिय जीव - दे. इन्द्रिय / ४ | सक्तनिभ - एक ग्रह - दे. ग्रह । सक्ता जीवको सक्ता कहनेको विवक्षा- दे. जीव / १ / ३ । सगर - १. म. पु. / सर्ग / श्लोक पूर्व भव नं. २ में विदेह में बरसकावती देशका राजा जयसेन था (४८/५) तथा पूर्व भनमें अच्युत स्वर्ण महाकाल नामक देव था ( ४८ /६८ ) । इस भवमें कौशल देशके वावशी राजा समुद्रविजयका पुत्र था (४८/०१-०२) तथा प. पु. '५/७४ की अपेक्षा इसके पिताका नाम विजयसागर था । यह द्वितीय चक्रवर्ती था ( दे. शलाकापुरुष ) | दिग्विजय करके भोगोंमें आसक्त हो गया । यह देखकर पूर्व भवके मित्र मणिकेतु नामक देवने अनेक दृष्टान्त दिखाकर इसको सबोधा। जिसके प्रभाव से यह विरक्त होकर मुक्त हो गया (४८/१३६-१३७ ) । यह अजितनाथ भगवाका मुख्य श्रोता था ३० तीर्थंकर २. म. पू. / ६० / श्लोक मुनिसुव्रतनाथ भगवान् के समय में भरत चक्रवर्तीके बाद इक्ष्वाकुवंशमें असंख्यात राजाओंके पश्चात् तथा दसवें चक्रवर्ती के १००० वर्ष पश्चात् अयोध्या में राजा हुआ था। उस समय रामचन्द्रका ५५वाँ कुमार काल था । एक बार सुलसा कन्याके स्वयंवर में मधुपिंगलको छल से वरके दुष्ट लक्षणों से युक्त बता कर स्वयं सुलसा से विवाह किया। राम मधुगिने असुर बनकर पर्वत नामक ब्राह्मण की सहायतासे ( १५४-१६०) वैर शोधनके अर्थ यज्ञ रचा। जिसमें उसको बलि चढ़ा दिया गया (६७/३६४ ) | • 1 सचित्त - जीव सहित पदार्थोंको सचित्त कहते हैं। सूखनेसे, अग्निपर पकने से कटने छटने से अथवा नमक आदि पदार्थोंसे संसक्त होनेपर वनस्पति, जल आदि पदार्थ अचित्त हो जाते हैं। व्रती लोग सचिन्त पदार्थोंका सेवन नहीं करते । सचित्त १. सचित्त सामान्यका लक्षण स.सि./२/१२/१००/१० आरमनश्चेतश्यविशेषपरिणामश्चित सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः । स.सि./७/३६/३७१/६ सह चित्तेन वर्तते इति सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् | = १. आत्मा के चैतन्य विशेषरूप परिणामको चित्त कहते हैं । जो उसके साथ रहता है वह सचित कहलाता है (रा. वा./२/१२/१/१४१/२२) २, जो चित सहित है वह सचित्त कहलाता है (रा. वा./७/२३/१/५५९)। , २. सचित त्याग प्रतिमाका लक्षण चा सा./२०११) रा./१४१ शाखाकर प्रसूनानि नामानि योऽति सोऽयं पितविरतो दयावृतिः जो करचे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, जमीकन्द, पुष्प और बीज नहीं खाता है वह दयाकी मूर्ति सचित त्या प्रतिमा है ।९४१ ( का अ./मू./३७१-३८०) (ला. सं./०/९६) सुश्रा/२६५ बजिरहरियं सुपादीयं अप्पासुग च सलिलं सचित्तणित्रित्ति तं ठाणं । जहाँपर हरित, कू (छाल), पत्र, प्रवाल, कन्द, फल, बीज और अप्रामुक जल त्याग किया जाता है वह सचित्त विनिवृत्तिवाला पाँचवाँ प्रतिमा स्थान + 1 है (गुण. आ. १७८ : (व. सं./टी./ ४५/११७/८ ) । सा. घ. ०-१० हरिताली बजाया जाकृष्यतुनिष्ठः सरितः स्मृतः पावेनापि स्मृनर्थ-बशायीऽति ऋतीयते । हरितान्याश्रितानन्त- निगोतानि स भोक्ष्यते || अहो जिनोक्ति निर्णोतिरहो असजिति सताए नामजप दरिय प्यासन्त्येते सुक्षयेऽपि यत् | १०|- प्रथम चार प्रतिमाओं का पालक तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचित्त प्राक नहीं किये गये हरे अंकुर, हरे बोज, जल, नमकादि पदार्थोंको नहीं खानेवाला दयामूर्ति श्रावक सचित्त विरत माना गया है। जो प्रयोजनत्र पैर से भी छूता हुआ अपनी निन्दा करता है वह श्रावक मिले हुए हैं अनन्तानन्त निगोदिया जीव जिसमें ऐसी वनस्पतियोंको कैसे खायेगा । नोंका जिनागम सम्बन्धी निर्णय. इन्द्रिय विषय आश्चर्यजनक है, क्योंकि वैसे सजन दिखाई नहीं देते जो, प्राणों का क्षय होनेपर भी हरी वनस्पतिको नहीं खाते |१०| ३. सचित्ताविधान आदिके लक्षण 1 स. सि. / ०/३५-३६ / ३७१ / ६ सचित्तं चेतनाबद् द्रव्यम् । तदुपश्लिष्टः संबन्धः । व्यतिकीर्णः संमिश्रः ॥२३॥ पित्रानिक्षेपः सचितनिक्षेपः । अभिधानमावरण सचितेनेव समभ्यते सचितापिधानमिति | ३६ | सचित्त से चेतना द्रव्य लिया जाता है। इससे सम्बन्धको प्राप्त हुआ द्रव्य सम्बन्धाहार है । और इससे मिश्रित यस है | ३|रा बा./०/३६/२-३/०६/२) सचित कमल पत्र आदि में रखना सचित्त निक्षेप है । अपिधानका अर्थ ढाँकना है इस शब्दको भी सचित्त शब्दसे जोड़ लेना चाहिए जिससे सचित्ता. पिधानका सचित्त कमलपत्र आदिसे ढाँकना यह अर्थ फलित होता है। (रा. मा./०/३६/१-२/५६८/२० ) । 1 ४. भोगोपभोग परिमाण व्रत व सचित्त त्याग प्रतिमामें अन्तर भ चा. सा. / ३८/१ बायोपभोगपरिभोपरिमाणशीलतातिचारी तीति । - उपभोग परिभोग परिमाण शीलके जो अतिचार हैं उनका त्याग हो इस प्रतिमामें किया जाता है। सा. घ. / ७ /११ सचित्तभोजनं यत्प्राङ् मलत्वेन जिहासितम्। व्रतयत्यङ्गिपञ्चत्व चकितस्तञ्च पञ्चमः | ११ | व्रती श्रावकने सचित्त भोजन पहले भोगोपभोग परिमाण व्रतके अतिचार रूपसे छोड़ा था उस सचित्त भोजनको प्राणियोंके मरणसे भयभीत पंचम प्रतिमाधारी मत रूपसे छोड़ता है | ११ | - - ला. सं./७/१६ इतः पूर्वं कदाचिद्वै सचित्तं वस्तु भक्षयेत । इतः परं स नानुयासचिद्यपि ।९। पंचम प्रतिमासे पूर्व कभी-कभी सचित्त पदार्थो का भक्षण कर लेता था। परन्तु अब सचित्त पदार्थोंका भक्षण नहीं करता। यहाँ तक कि सचित्त जलका भी प्रयोग नहीं करता । १६। ५. वनस्पतिके सर्व भेद अचित्त अवस्था में ग्राह्य हैं दे. मझ्याभक्ष्य /४/४ [ जिमिबंद आदिको सचित रूपमें खाना संसारका कारण है । ] दे० सचित्त / २ [ सचित्त विरत श्रावक सचित्त वनस्पति नहीं खाता ] दे. सागर पके व विदारे कंद आदि प्राशुक है। सू. आ./८२५-२६ फलकंदमूलकी अपितु जामयं किचि णञ्चा अणेसणीयं गवि य पडिच्छति ते धीरा | २५ | जं हवदि अगिव्वीयं णिवट्टिमं फ्रायं कयं चेत्र । णाऊण एसणीयं तं भिक्ख अग्निवर नहीं के ऐसे कंद मूल बीज, तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर वीर मुनि भक्षणको इच्छा नहीं करते | २५ | जो निर्बीज हो और प्रासुक किया गया है ऐसे आहारको खाने योग्य समझ मुनिराज उसके लेनेकी इच्छा करते हैं ||२६| 1 " ला. सं./२/१०४ विवेकस्यावकाशोऽस्ति देशतो विरतावपि । आदेयं = १५८ सत् प्रायोग्यं नादेयं तद्विपर्ययम् । १०४ देशस्थान मे विवेककी बड़ी आवश्यकता है । निर्जीव तथा योग्य पदार्थोंका ग्रहण करना चाहिए। सचित्त तथा अयोग्य ऐसे पदार्थोंको ग्रहण नहीं करना चाहिए | १०४ | ६. पदार्थोंको प्रासुक करनेकी विधि यू. बा./८५४ = सुक्कं पक्कं तत्तं अंबिल लवणेण मिस्सयं दव्वं । जं जंतेण य छिन्नं साहु भवियं १८२४॥ सूरखी हुई पकी हुई, तपायी हुई, खटाई या नमक आदिसे मिश्रित वस्तु तथा किसी यंत्र अर्थात् चाकू आदि छिन्न-भिन्न की गयी सही वस्तुको प्राशुक कहा जाता है। गो.जी./जी.प्र./२२४/४८३/१४ सुम्कपनमस्ताम्हण मिश्रग्धादि व्यं प्राशुकं सूखे हुए पके हुए मस्त खटाई या नमक आदिसे मिश्रित अथवा जले हुए द्रव्य प्रासुक हैं। ७. अन्य सम्बन्धित विषय १. सचित्त त्याग प्रतिमा व आरम्भ त्याग प्रतिमामें अन्तर । २. सूखे हुए भी उदम्बर फल निषिद्ध हैं । ३. साधुके बिहार के लिए अनि मार्ग। ४. मांसको मासुक किया जाना सम्भव नहीं । -- दे. मांस / २ | ५. अनन्त कायिकको प्रातक करनेमें फह कम है और हिसा अधिक । - दे. भक्ष्याभक्ष्य / ४ /३ ६. वही जीव वा अन्य कोई भी जीव उसी भीजके योनि स्थानमें जन्म धारण कर सकता है । - दे. जन्म / २ । सचित गुणयोग ग सचित्त निक्षेप - दे. निक्षेप । सचित्त योनि योनि । सचित्त संबंध - दे. सचित्त / ३ | ३ । सचित संमिश्र - दे. सचिन/ सचित्तापिधानदेि - दे. आरम्भ । - दे. भक्ष्याभक्ष्य । ३. बिहार /१/० सज्जनचित्त वल्लभ-आ. मलिषेण ( १०४०) द्वारा विर चित अध्यात्म उपदेश रूप संस्कृत छन्द मद्ध ग्रन्थ है। इसमें २५ रोक हैं। सत्- सदका सामान्य लक्षण पदार्थोंका स्वतः सिद्ध अस्तित्व है। जिसका निरन्वय नाश असम्भव है। इसके अतिरिक्त किस गति जाति व कायका पर्याप्त या अपर्याप्त जीव किस-किस योग मार्गणा में अथवा कषाय सम्यक्त्व व गुणस्थानादि में पाने सम्भव हैं, इस प्रकार - की विस्तृत प्ररूपणा ही इस अधिकारका विषय है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ १. सत् निर्देश सत् निर्देश . सत् सामान्यका लक्षण । द्रव्यका लक्षण सत्। -दे. द्रव्य/१।। सत् शब्दका अनेकों अर्थों में प्रयोग। सत् स्वतः सिद्ध व अहेतुक है। द्रव्यकी स्वतन्त्रता आदि विषयक । सत् सदा अपने प्रतिपक्षीकी अपेक्षा रखता है। -दे. अनेकान्त/४॥ सत्के उत्पाद व्यय ध्रौव्यता विषयक। -दे. उत्पाद । सत्का विनाश व असत्का उत्पाद असम्भव है । द्रव्य गुण पर्याय तीनों सत् हैं। -दे. उत्पाद/३/६ । असत् वस्तुओंका भी कश्चित् सत्त। -दे, असत् । सत् ही जगत्का कर्ता हर्ता है। सत्ताके दो भेद-महासत्ता व अवान्तर सत्ता । -दे, अस्तित्व । २. सत् शब्दका अनेकों अर्थों में प्रयोग स. सि./१/८/२६/६ स ( सत् ) प्रशंसादिषु वर्तमानो नेह गृह्यते । -बह (सद ) प्रशंसा आदि अनेकों अर्थों में रहता है...। रा, वा./१/८/१/४१/१६ सच्छब्दः प्रशंसादिषु वर्तते । तद्यथा प्रशंसायाँ तावत् 'सत्पुरुषः, सदश्वः' इति । क्वचिदस्तित्वे 'सन् घटः, सन् पटः' इतिा क्वचित् प्रतिज्ञायमाने-वजितः सन् कथमनृतं न यात्। 'प्रत्रजितः' इति प्रज्ञायमान इत्यर्थः। क्वचिदादरे 'सत्कृत्यातिथीन भोजयतीति' 'आदृत्य इत्यर्थः। -- सत् शब्दका प्रयोग अनेक अर्थो में होता है जैसे 'सत्पुरुष, सदश्व' यह प्रशंसार्थक सत् शब्द है । 'सन घटः, सत् पटः' यहाँ सत् शब्द अस्तित्त्व वाचक है। 'प्रत्र जितः सन्' प्रतिज्ञाबाचक है। सत्कृत्य में सत् शब्द आदरार्थक है (रा.बा./५/ ३०/८/४६५/२५)। ध. १३/५,५,८८/३५७/१ सत सुखम् । - सत्का अर्थ सुख है। on or on or सत् विषयक प्ररूपणाएँ सत् प्ररूपणाके भेद। सत् व सत्त्वमें अन्तर। सत् प्ररूपणाका कारण व प्रयोजन । सारणीमें प्रयुक्त संकेत सूची। सत् विषयक ओघ प्ररूपणा। अधःकर्म आदि विषयक आदेश प्ररूपणा । पाँचों शरीरोंकी संघातन परिशातन कृति सम्बन्धी। x 5 w ३. सत् स्वतः सिद्ध व अहेतुक है प्र. सा./त. प्र./गा, नं, यदिदं सदकारणतया स्वतः सिद्धमन्तर्बहिर्मुखप्रकाशशालितया स्वपरपरिच्छेदकं मदीयं मम नाम चैतन्यम्.. हा अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभावः तत्पुनरन्यसाधननिरपेक्षवादनाद्यनन्ततयाहेतुकयैक रूपया वृत्त्या ६६: न खलु द्रव्यैर्द्रव्यान्तराणामारम्भः, सर्व द्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते ।६८ =सत और अकारण सिद्ध होनेसे स्वतः सिद्ध अन्तर्मुख-बहिर्मुख प्रकाशवाला होनेसे स्वपरका ज्ञायक ऐसा जो मेरा चैतन्य...180 अस्तित्व वास्तवमें द्रव्यका स्वभाव है और वह ( अस्तित्व ) अन्य साधनसे निरपेक्ष होने के कारण अनादि-अनन्त होनेसे अहेतुक, एक वृत्ति रूप...६६। वास्तव में ठपोंसे द्रव्यान्तरकी उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं (उनकी) स्वभाव सिद्धता तो उनको अनादि निधनतासे है। क्योंकि अनादि निधन साधनान्तरकी अपेक्षा नहीं रखता ।। पं. ध/पू./- तत्त्वं सबलाक्षणिक सन्मात्रं वा यतः स्वतः सिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च ८। इत्थं नो चेदसतः प्रादुर्भूतिनिरंकुशा भवति। परतः प्रादुर्भावो युतिसिद्धत्वं सतोविनाशो वा ।।।-तत्व का लक्षण सत् है । सत् ही तत्त्व है। जिस कारणसे कि वह स्वभावसे ही सिद्ध है इसलिए वह अनादि अनन्त है। स्वसहाय है, निर्विकल्प है। यदि ऐसा न मानें तो असत्की उत्पत्ति होने लगेगी । तथा परसे उत्पत्ति होने लगेगी। पदार्थ, दूसरे पदार्थके संयोगसे पदार्थ कहलावेगा। सतके बिनाशका प्रसंग आवेगा। दे. कारण/II/१ [ वस्तु स्वतः अपने परिणमन में कारण है।] a ४. सत्का विनाश व असत्का उत्पाद असम्भव है १. सत् निर्देश १. सत् सामान्यका लक्षण स. सि./१/८/२६/६ सदित्यस्तित्वनिर्देशः । सत अस्तित्वका सूचक । है। (स. सि./१/३२/१३८/७); (रा. वा./१/८/१/४१/१६); (रा. वा./५/३०/८/४६/२८ ): (गो. क./जी. प्र./४३६-५१२) । घ, १११.१,८/१५६/६ सत्सत्त्वमित्यर्थः ।...सच्छन्दोऽस्ति शोभनवाचकः, यथा सदभिधानं सत्यमित्यादि । अस्ति अस्तित्ववाचकः, सति सत्ये व्रतीत्यादि । अत्रास्तित्ववाचको ग्राह्यः । - सत्का अर्थ सत्त्व है।..... सत् शब्द शोभन अर्थात सुन्दर अर्थका वाचक है । जैसे, सदभिदान, अर्थात शोभनरूप कथनको सत्य कहते हैं। सत् शब्द अस्तित्वका वाचक है। दे. द्रव्य/९/७ [ सत्ता, सत्त्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ, विधि । ये सर्व एकार्थवाची शब्द हैं। दे. उत्पाद/२/१ [ उत्पाद, व्यय, ध्रुव इन तीनोंकी युगपत् प्रवृत्ति सव है।) पं. का./भू./१५ भावस्स णस्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वं ति। =भाव ( सत) का नाश नहीं है। तथा अभाव ( असत) का उत्पाद नहीं है। भाव (सव द्रव्यों) गुण पर्यायोंमें उत्पाद व्यय करते हैं ।१३॥ सं. स्तो./२४ नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तमः पुदगलभावतोऽस्ति । -जो सर्वथा असत है उसका कभी जन्म नहीं होता और सवका कभी नाश नहीं होता। दीपक बुझने पर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकार रूप पुदगल पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है ।२४। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत् पं. ध . / पू. / १५३ नैवं यतः स्वभावादसतो जन्म न सतो विनाशो वा । उत्पादादित्रयमपि भवति च भावेन भावतया । १८३| इस प्रकार शंका ठीक नहीं है । क्योंकि स्वभावसे असत् की उत्पत्ति और सत्का विनाश नहीं होता है किन्तु उत्पादादि तीनों में भवनशील रूपसे रहता है । ५. सत् ही जगत्का कर्ता हर्ता है। पं. का./मू./२२ जीवा पुग्गलकाया आयास अस्थिकाइय सेसा । अमया अस्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स | २२ | जीव पुद्गलकाय आकाश और शेष दो अस्तिकाय अकृत हैं, अस्तित्वमय हैं और वास्तव में लोक के कारणभूत हैं |२२| २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ १. सत् प्ररूपणाके भेद " धमला/१/१.९/ सु. ८/१५१ संतपदा दुनियेसो यो आदेसेण न च प्ररूपणायास्तृतीयः प्रकारोऽस्ति सामान्य विशेषव्यतिरिकस्यानुपलम्भाद = सत्प्ररूपणार्मे ओघ अर्थात् सामान्यकी अपेक्षा और आदेश अर्थात् विशेषकी अपेक्षासे इस तरह दो प्रकारका कथन है । इन दो प्रकारकी प्ररूपणाको छोड़कर वस्तुके विवेचनका तीसरा उपाय नहीं पाया जाता, क्योंकि वस्तु सामान्य विशेष धर्म को छोड़कर तीसरा धर्म नहीं पाया जाता । २. सत् व सत्व में अन्तर रा.वा./१/८/१२/४२/२५ मानेन सम्यग्दर्शनाचे सामान्येन सत्वमुच्यते किन्तु गतीन्द्रियकायादिषु चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु 'कास्ति सम्यग्दर्शनादि क नास्ति विशेषणार्थ सम्रचनम् इस ( सत् ) के द्वारा सामान्य रूपसे सम्यग्दर्शन आदिका मात्र नहीं कहा जाता है किन्तु गतिइन्द्रिय न्याय आदि चौरह मार्गणा स्थानोंमें 'कहाँ है, कहीं नहीं है आदि रूपसे सम्यग्दर्शनादिका अस्तित्व सूचित किया जाता है । ३. सत् प्ररूपणाका कारण व प्रयोजन रा. बा./१/८/१३/४२/२८ ये वनधिकृता जीवपर्यायाः । क्रोधादयो ये चाजीवपर्याया वर्णादयो घटादयश्च तेषामस्तित्वाधिगमार्थं पुनबेचन अनधिकृत क्रोधादि या अजीव पर्यायवर्णादिके अस्तित्व सूचन 'करनेके लिए 'सत्' का ग्रहण आवश्यक है । PR दे सत् / २ / २ गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में सम्यग्दर्शनादि कहाँ है कहाँ नहीं है यह सूचित करनेको सत् शब्दका प्रयोग है । १६० पं. का./ता.वृ./८/२३/६ शुद्ध जीवद्रव्यस्य या सत्ता सैवोपादेया भवतीति भावार्थ: । शुद्ध जीव द्रव्यकी जो सत्ता है वही उपादेय है ऐसा भावार्थ है । - ४. सारणीमें प्रयुक्त संकेत सूची अज्ञा अज्ञान अना. अनाकार, अनाहारक अनुभय अपर्याप्त, अपर्याप्त, अपकायिक अनु. अप. अभ. अब. अवि. अशु. असं. आ. उ. एके. ओ. का. केवल. क्षयो. क्षा. ज्ञा. च. छे, ति. ते. त्र. दे देश सं. न. नि. पं. परि, प. पृ. प्र. के म. भ, मनः मनु. मा. fa. मे. यथा, लो. व. ने. 5. सा. सा. सू. जेनेन्द्र सिद्धान्त कोश अभव्य अवधिज्ञान अविरत गुणस्थान अशुभ लेश्या आदि असंज्ञी, असंयम आहारक, आहारसंज्ञा " २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ उत्कृष्ट, उभय एकेन्द्रिय औदारिक काययोन, औपशमिक सम्य, कापोत लेश्या, कार्मण केवलज्ञान, केवलदर्शन क्षयोपशमिक सम्य. सायिक सम्यग्दर्शन ज्ञान चतुर्ग तिनिगोद छेदोपस्थापना चारित्र तियंचगति तेजोलेश्या (पीत. ) प्रसकाय देवगति देशसंयम नरकगति नियनिनोद पंचेन्द्रिय परिग्रह, परिहार वि पर्या पर्या पृथिवीकाय प्रतिष्ठित, प्रत्येक वनस्पतिकाय भव्य मन:पर्यय मनोयोग मनुष्यगति मानकषाय मिथ्यात्व मैथुनसंज्ञा यथाख्यात लोभकषाय मचभयोग बेकियकयोग शुक्ललेश्या झुण्ज्ञान संज्ञो साधारण बनस्पति सामायिक, सासादन सूक्ष्म, सूक्ष्मसाम्पराय Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. सत् विषयक ओष प्ररूपणा ध. २/१,१/४२१-४४८ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ भा०४-२१ लेश्या पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास | पर्याप्ति प्राण संज्ञा काय | योग वेद कषाय ज्ञान शन भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग द्र. भा. १जीव सामान्य-(ध.२/१,१/४२१-४२३) १ । पर्याप्त । १४ । ७प ६५,४ पर्याप्ति |१०/88010/४ ६४ ४ ५ अपगत अकषाय अकषायम अपगत में - अपर्याप्त ४ ७/६/ ५४ ४/३ ५ ५। ७ ६,५,४ (१,२, अप. अपर्याप्ति ४ ६ | तीनों मिश्र ३ व ४व व कामण बिना ६ ४ । ६ । ४ तीनों मिश्र मन, विभंग सामा. व कार्मण|| | बिना छ.,यथा, : असंयम असंज्ञा २ | २ भव्य, | आहा.साकार अभव्य असं. अना, अनाकार २६ २ भव्य, सम्यग्मिथ्या सं.असं. आहा., साकार | अभव्य | रहित अनुभय अना. अनाकार युगपत, उभय का.. ४ ५ ६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २ मिथ्यादृष्टि-ध.२१,१/४२४-४२५) १ | १ सामान्य| १ | १४ ६,५.४ प. १०/७;8/७/४ | मिथ्या . प. ६,५,४ अप.८/30/15 अप. ६४,४/३ २१ पर्याप्त । १. ७६ ,५.४ १०,६,८,७४४ मिथ्या प. पर्याप्ति ।६.४ । ६ १३ ३ ४ ३ आहा. द्वि., | | अज्ञान असंयम चक्षु., अचक्षु. भ.,अभ. मिथ्या, . सं., आहा. साकार | बिना असं. अना. अनाकार १० ३.४ ३ । मन४, बच.४ अज्ञान असयम चक्षु.,अचक्षु । भव्य, मिथ्या. आहा. साकार अनाका ३ ३ ४ २ १ । २२६ २ । १ । २ २ २ औ,मि.वै. कुमति व असंयम चक्षु.,अचक्षु. का. भव्य, मिथ्या. | सं.. आहा., साकार मिश्र, कार्म. कुश्रुत अभ. असं. अना. अनाकारी औ.१, वै.१ अभव्य ७,७,६.५ ४.३ ४ ४ ३१ अपर्याप्त १ ७६ ,५४ मिथ्या. अप. अपर्याप्ति ६ ३ सासादन सम्यग्दृष्टि-(ध.२/१,१/४२६-४२७) । १/२ सामान्य १।२ । ६पर्याप्ति । १०७४४ सासा. सं. प. ६अपर्याप्ति सं.अप २२ पर्याप्त । १ । १ सं.प. पर्याप्ति १ १३३ पंचें त्रस औ.द्वि.बिना । अज्ञान असंयम चक्षु., अचच. भव्य, सासा. २ । २ । संज्ञी आहा. साकार अना. अनाकार सासा. अज्ञान त्रस मन ४, वच४ औ. १, ८.१ असंयम चक्षु., अचक्षुः । भव्य, । आहा. साकार अनाकार २२ । सासा. - संज्ञी आहा., साकार | | अना. अनाकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ ३२ अपर्याप्त १ । १ । सासा. स.अ. अपर्याप्ति | पंचे.अप.के ७.अ दे जन्म नरक पंचें त्रस औ.मि.वै. मिश्र, काम. भव्य, | कुमति, असंयम चक्षु., अचक्षु. का. कुश्रुत Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं सत् लेश्या | पर्याप्त गुण । जीव स्थान समास पर्यापि प्राण संज्ञा | गति इन्द्रिय काय | योग । काय ज्ञान अप संयम | दर्शन भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग ४. सम्यग्मिथ्यादृष्टि-(ध. २/१,१/४२८) सं.प., पर्याप्ति । पं. | (अप, मिश्र नहीं है। म भव्य | मिश्र मन.४,वच.४/ औ.१ब वै. तीनों ज्ञान व असंयम चक्षु, अचक्षु । अज्ञान मिश्र संज्ञो आहा., साकार अना. |५. असंयत सम्यग्दृष्टि-(ध.२/१,१/४२६-४३१) । बस आ.द्वि, के बिना मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि व अवधि भव्य १४ सामान्य १।२।६ पर्याप्ति, अवि सं.प.६ अपर्याप्ति सं. अप|२४ पर्याप्त ११६ । १०.४४ १ अवि | सं.प. पर्याप्ति पर्याप्तिके औप., क्षा., क्षयो संज्ञी आहा., साकार, अना. अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश समन४,बच४. मति, श्रुत.. असंयम चक्षु, अचक्षु. अबधि भव्य संज्ञी | हा.साकार अवधि औ..क्षा, क्षयो, . अना. ३४ अपर्याप्त ११ अवि सं.अप. अपर्याप्ति। अप.के। __ स औ.मि. . धै मित्रन व कार्मण मति, श्रुत. असंयम चक्षु, अचक्षु का अवधि अवधि भव्य औ.. क्षा, संझी आहा. साकार क्षयो, अना. अना. ६. संयतास्यत १५ सा,पर्या, १ । १ । | वा सं.प. पर्याप्ति १० पं. स. मन४, वच औ.१ । मति, श्रुत, संयमा-चक्षु, अचक्षु, अवधि संयम अवधि शुभ भव्य | औ., क्षा., संज्ञी आहा. साकार क्षयो. अना. ७. प्रमत्त संयत-(ध.२/१,१/४३२ ) १६ सा.पर्या. १ २ । ६/६ छठा सं.प. पर्याप्ति सं.अप. अपर्याप्ति १०/ ७४ १ १०प, के | मनु ७ अप, के | १ पं. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ त्रस मन, वच औ.१, आहा. २ मति, श्रुत, सामा., चक्षु, अचक्षु, अव., मनः बे.. अवधि परि. शुभ भव्य | औ..क्षा | संज्ञी आहा. साकार क्षयो. अना. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणाविशेष 44. गुण स्थान * अपर्याप्त स्थान समास ८. अप्रमत्त संयत (ध. २ / ११ / ४३४ ) २ द्वि भाग 20 ९. अपूर्वकरण - ( घ. २/११/४३५ } *|||*** | भ w g w १०. अनिवृत्तिकरण- (घ. २/१,१/४३५-४३८) || पर्याप्त १ प्र. भाग हवाँ १ | पयोति . प w तृ. भाग 1: १ हवाँ १ हवाँ सं. प न १ सं.प. १ सं. १. पर्याप्त १ हवाँ सं.प. पर्याप्ति पर्याप्ति -5-5-5-5 प्राण १० १० १० १० 34 संहा आ. रहित ३ आ. रहित ३ DV चं गति इन्द्रिय का हूँ ~ ED ~ ITD A.. - D A.. """" ~~ D v A. A. # त्रस १ 和 योग m मन. ४, बच. ४) ओ. १ ε मन. ४, बच.४ औ. १ לח २० प्ररूपणाएँ ४, वच ४ औ. १ ओ. १ M my कषाय C ∞ 30 oc अपगत अपगत • अपगत अपगत ० " क्रोरहित vo ज्ञान ४. अब, मनः ४ सामा, मति, श्रुत. अब मनः छ. 20 संयम २ मति, श्रुत. आमा अब, मनः छ. ४ मति, श्रुत, अब मनः ४ ३ ३ सा., छे, चक्षु, अचक्षु, परि. अवधि नामा, छ. छ. ~~jα दर्शन अव., मनः छ. २ ३ चक्षु, अचक्षु. अवधि मति, श्रुत, सामा, चक्षु, अचक्षु, M ---50-50 तश्या प्र. भा मति, श्रुत, सामा, चक्षु, अचक्षु.] अब., मनः " ه abo शु. Du १ भव्य भव्य औ., सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग भव्य औ., ov क्षयो. भव्य औ., क्षा. शु. भव्य औ., क्ष १ १ भव्य औ.. २ संज्ञी आहा साकार अना. संज्ञा संज्ञी -I १ १ आहा साकार अना, - भव्य औ. क्षा. संज्ञी आहा. साकार संज्ञी आहा साकार ! संज्ञी आहा, साकार सत् १६३ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ लेश्या te संज्ञा | पर्याप्त गुण | जीव 15 अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति | गति इन्द्रिय काय प्राण कषाय योग ज्ञान संयम दर्शन द्र, भा. भव्य । सम्य, संज्ञित्व | आहा. उपयोग ११. सूक्ष्म साम्पराय-(ध.२/१,१/४३६) १(१० पर्याप्त । ११ ६ |१० वाँ सं.प. पर्याप्ति .. | सू. मनु. पं. स. मन४, वच.४ औ,१ | मति, श्रुत, सूक्ष्म चक्षु. अचक्षु, अव. मनः । सांप.अवधि शु. भव्य सूक्ष्म लोभ . औ. क्षा, | संझी आहा. | साकार अना. परि. १२. उपशान्त कषाय-(ध. २/१,१/४४०) १। ११पर्याप्त १। १ । ६ ११वा सं.प. पर्याप्ति - पं. शु. भव्य उपशान्त संज्ञा ० वस मन ४, वचट | औ.१ अकषाय_ अवधि मति, श्रुत, यथा, चक्षु, अचक्षु अव, मनः औ. क्षा. - संज्ञी | आहा. साकार, अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १३. क्षीण कषाय-(ध. २/१,१/४४०) १ । १२ पर्याप्त । १ । १ । ६ १२वाँ सं.प. पर्याप्ति शु. भव्य । क्षा, . क्षीण संज्ञा - पं. समन ४, वचन औ.१ . অপর अकषाय मति, श्रुत यथा. चक्षु, अचक्षु अव., मनः अवधि संही आहा. | साकार अना १४. सयोग केवलो-(ध.२/१,१/४४५) | १ | १३ पर्याप्त | १ | २ १३वाँ | सं.प. ६६ ४/२ सं. अप. ६ पर्याप्ति (४/३.२.१ ६ अपर्याप्ति दे. केवली/ पं. त्रस अपगत ० ए केवलज्ञान | यथा. | केवलदर्शन शु. भव्य | मन २, बचर औ.२, का. क्षा. अकषाय अनुभय आहा.. | साकार अना. अना. युगपत् | १५. अयोग केवली-(ध. २/१,१/४४७) । | १४वाँ | सं. प. पर्याप्ति | आयु पं. स. अयोग अपगत . अकषाप. केवल ज्ञान यथा. केवल दर्शन भव्य | क्षीण संज्ञा क्षा. अलेश्या अनुभय अना, साकार, अना. युगपत २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal I e Only जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष पर्या गुण अपर्याप्त स्थान समास १६. सिद्ध . . ७/२.१/१ ) ( १२/१२/४४) १ सं. स्थान मार्गणा विशेष गुण स्थान पर्याप्त अपर्याप्त ६. सत् विषयक आदेश प्ररूपणा घ. २/१.१ / ४४१-८५५) जीव पर्याप्ति अपगत अपगत पर्याप्त ० गुण जोव स्थान समास २ सामान्य ४ (१४) सं प सं.अ. ४ (१-४) अपर्याप्त २ १. गति मार्गणा - (. २/९.१/४४१५०) १. नरक गति १. नरकगति सामान्य- ( घ. २/११/४४-४५६ ० १ सं. प. अपगत १. पर्याप्त ६/६ ६ पर्याप्त अपर्याप्त पर्याप्ति ६ अपर्याति प्राण ० अपगत प्राण १०/७ १० पर्याप्तके! अपर्याप्त १० 60 ____ # क्षीण संज्ञा संज्ञा ४ गति इन्द्रिय काय ० सिद्ध अनि अपगत or गति इन्द्रिय काय न. ४ १ I ० न. १ न. १ पं. १ पं. २० प्ररूपणाए १ पं. १ त्रस १ 14 no स १ त्रस w योग ० अयोग वेद_ कषाय योग अपगत ० २० प्ररूपणाएँ वेद अकषाय ११ मन४, वच४ नपुं. वै. २. का. १ bib १ ४ ह १ ४ मन, वचन, वै., नपुं. ४ ४ १ ज्ञान ज्ञान ६ ३ ज्ञान ३ अज्ञान संयम ३ ज्ञान, २ ३ अज्ञान १ । ४ ५ वै.मि., का. नपुं. १ १ केवल ज्ञान अनु. केवल दर्शन अलेश्या अनुभय (२०/२१) (३४/२२) दर्शन संयम दर्शन ३ असंच अच् अवधि १ १ ज्ञा, कुमति अवमं कुत लेश्या द्र. भा. ३ 0 ० श्या द्र. भा. ३ कृ., का., शु. अशुभ असंच अवधि ३ २ अच का. अवधि शु. भव्य अशु... भव्य २ भव्य अभव्य सम्य. १. क्षा. सभ्य. १ ३ २ क्र. भव्य अभव्य २ भव्य मि. अभव्य क्षा, क्षयो ६ संज्ञित्व आहा उपयोग • १ २ अनु. अना साकार अना. युगपत् ३८-३६ २३ संज्ञित्व आहा उपयोग २ २ संज्ञी आहा, साकार, अना. अना. 111 ~ १ २ संज्ञा आहा, साकार, अना १ संज्ञी २ २ आहा साकार: अना, अना सत् १६५ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष Like b पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास ४ १ सामान्य १ ५ १ पर्याप्त ६ १ अपर्याप्त ७ २ सामान्य २ ६/६ १०/७ मिया सं.प. ६ पर्याप्ति १० पर्याप्त सं अप. ६ अपर्याप्ति ७ अपर्याप्तके १ १. मिथ्या सं. प. १ १ ( पर्याप्त सासा, सं. प. ही) ३ सामान्य १ १ विध्या सं. अप १ ༔ ( पर्याप्त मिश्र सं. प. हो) पर्याप्त ६ पर्याप्ति ६ अपर्याप्त ६ पर्याप्ति ६ प्राण पर्या १० १० १० संज्ञा ४ ४ ४ गति इन्द्रिय काय ४ १ भ न. ४ १ १ न. न. १ न. १ १ पं. १ १ 4.1 पं. १ पं. १ पं. १ त्रस १ त्रस १ त्रस २० प्ररूपणाएँ योग ११ मन ४, वच. ४, वै.२, का. १ Stu w १ त्रस मन४, वच. ४, नपं. वै. १ १ ४ 64. १ ४ klace १ .मि., का. नपुं. ६ १ मन४, वच. ४, नपुं. बै.१ ४ ह १ ४ मन४, वच. ४, नपं ६.१ ४ ज्ञान संयम ३ १ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु दर्शन o ३ अज्ञान N 2 B5 ३ १ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु कृ. २ लेश्या " ३ ३ २ अशु. कृ.का. शु. १ कुम, कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु का. शु. or fi १ २ असंयम चक्षु, अचक्षु कृ. अशु ३ १ २ ज्ञान, अज्ञा. असंयम चक्षु, अचक्षु कृ. मिश्र अशु भव्य अशु. २ ३ २ भव्य, अभव्य अशु. २ भव्य, अभव्य १ भव्य १ ३ १ सम्य. भव्य १ मिध्या. १ १ २ २ भव्य, मिथ्या, संज्ञी आहा साकार अभव्य अना. अना. संज्ञित्वा आहा. उपयोग १ १ १ २ मिथ्या. संज्ञी आहा साकार, अना. १ सासा १ २ २ संज्ञी आहा. साकार, अना, अना. १ मिश्र १ २ संज्ञी आहा. साकार अना. १ १ संज्ञी आहा. २ साकार अना. 4 क २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष । २० प्ररूपणाएं सत् लेश्या गुण स्थान पर्याप्त | गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति | प्राण गति इन्द्रिय काय योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन द. भा. भव्य | सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग ६४ सामा सामान्य १ २ न. - पं. ४ था. स. प.६पर्याप्ति | १० पर्याप्तके सं. अप.६ अपर्याप्ति ७ अपर्याप्तके | त्रस भव्य मन४.वच.४, नपुं. वै. २, का.१ मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि अवधि अशु.. कृ.,का. शु. औ.,क्षा., संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अना. | अनां. १०४ | पर्याप्त | १ १ ४ था. सं.प. ६ पर्याप्ति मन ४, न वचन४,वै.१ मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु 'कृ. अवधि अवधि अशु. . भव्य | औ., क्षा.. | संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अना. ११ ४ अपर्याप्त | १ १ ४ था. सं. अप. अपर्याप्ति न, पं. स वै मि.,का. नपुं. मति,श्रुत असयम चक्षु, अचच का. अवधि अवधि शु. अशु.. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २ भव्य |क्षा., क्षयो. १ | २ | २ संज्ञी आहा. साकार अना. अना. 03 २. प्रथम पृथिवी-(ध. २/१,१/४५७-४६४) सामान्य ४ १-४ न. | पं. सं.प.६ पर्याप्ति १० पर्या०के । सं.अप.६ अपर्याप्ति ७ अपर्या के त्रस | मन ४, नपुं. वचन४,वै.२, का.१ ३ ज्ञान, ३ अज्ञान असंयम चक्षु, अचच अवधि कृ.का. का. भव्य अभव्य संज्ञी | आहा.साकार) अना. अना. २ पर्याप्त ४ १ । १-४ । सं.प. पर्याप्ति न, | पं. त्रस मन४,बच.४, नपुं. असंयम चक्षु, अचक्षु कृ. का. भव्य ३ ज्ञान, ३ अज्ञान । अवधि अभव्य | संज्ञी आहा. साकार अना. ३ अपर्याप्त २ १ ६ १४४ सं. अप. अपर्याप्ति | न. | पं. | त्रस वै. मि.,का. न. | ३ ज्ञान, असंयम चक्षु, अचक्षु का.का.| भव्य |क्षा. क्षयो.! संज्ञी | आहा.| साकार। कुमति, अवधि शु. अभव्य | मिथ्या. अना. |अना, २. सत् विषयक प्ररूपणाएं कुश्रुत Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् लेश्या पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास | | पर्याप्ति प्राण संज्ञा इन्द्रिय काय | योग वेद कषाय ज्ञान संयम | दर्शन भव्य सम्य. संज्ञिरव आहा. उपयोग | १ सामान्य १ | २ | ६६ | १०/ ७४ मिथ्या. सं.प ६ पर्याप्ति | १० पर्या. के । न. सं. अप. ६ अपर्याप्ति ७ अप. के । पं. । त्रस मन, वच.४, न. वि.२, का.१ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षुका . भव्य, | मिथ्या, | संज्ञो आहा. साकार अभव्य अना, अना. मिथ्या. सं.प. पर्याप्ति ६१ अपर्याप्त | १ १ ६ मिथ्या.सं. अप. अपर्याप्ति ههه त्रस मन४, वच.न. । अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु| कृ. का. भव्य, मिथ्या. | संज्ञी | आहा. | साकार अभव्य अना. १४ २ २ २१ त्रस | वै.मि., नपु कुमति, असंयम चक्षु, अचश्च का. भव्य, मिथ्या. | संज्ञी कुश्रुत अभव्य अना. साकार । १० |७| २ सामान्य १ १ ६ (पर्या. सासा.सं. प. पर्याप्ति पं. स मन४, वच.४ नपुं. अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु कृ. का. भव्य सासा. संज्ञो आहा. | साकार अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ८३ सामान्य १ १ ६ (पर्याप्त | मिश्र. | सं.प. पर्याप्ति | पं. त्रस मन४, बच ४ नपुं. मिश्र ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचश्च कृ. का. भव्य । मिश्र संज्ञो आहा. साकार ही) अना. । १४ सामान्य १ २ ६ /६ । १०/७ |४|१ अवि. सं. प. ६ पर्याप्ति | १० पर्या, के न, सं. अप. ६ अपर्याप्ति ७ अपर्या, के । पं. | त्रस ज्ञान मन४, वच.४ नपुं. वै.२, का. असंयम चक्षु, अचक्षु. अवधि का. भव्य क्षा., क्षयो., संझी | आहा- | साकार अना. अना, |१०४ पर्याप्त ११६ अवि. सं.प. पर्याप्ति । न. | पं. समनट, बच.४.न. मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचच- कृ. का. भव्य क्षा..क्षयो.. संज्ञी | आहा. साकार अवधि अवधि औ. । ११४ अपर्याप्त १ १ ६ अबि. सं. अप. अपर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएं न. | पं. - त्रस वै.मि.,का. नपुं. मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु. अवधि। अवधि का, शु... का. भव्य क्षा.,क्षयो., संज्ञी आहा. | साकार अना. अना. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० ४-२२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष H. गुण स्थान पर्या गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास r २. द्वितीय पृथिवी. २१/११/४६३-४००) सामान्य। पर्याप्त १ सामान्य अपर्याप्त १ ५१ पर्याप्त ४ १-४ ४ २ ४ 6/2 १०/७ १-४ सं. प. ६ पर्याप्ति १० पर्या. के सं. अप. ६ अपर्याप्त | ७ अपर्या के १ सं. प. पर्याप्ति १ मिथ्या सं अप अपर्याप्त ६ १ अपर्याप्त १ १ ६/६ निम्या ६ पर्यात पर्याप्त २ १ १. मिथ्या. सं, प. प्राण १०/७ १० पर्या के सं. अप. ६ अपर्याप्त ७ अपर्या. के ६ पर्माधि १ मिथ्या सं. अप. अपर्याप्त १० ७ १० ७ ४ ४ ४ ४ ४ गति इन्द्रिय काय १ or 15 न. १ १ न. or h १ न. १ न. १ न. १ १ पं. 4. 4. vo पं. १ or b पं. १ a योग १ ११ त्रस मन ४, वच, ४ नपुं. वै.२, का. १ १ त्रस wat ब २० प्ररूपणाएँ १ त्रस मन ४, वच. ४ नपुं. बे. १ वेद कषाय___ w to १ ४ १ ४ २ १ ४ वै.मि., का. नपुं. १ ११ त्रस मन४, बच४ नपुं. बै. २, का. वै. १ १ ४ १ त्रस मन४, बच, ४, नपुं. १ ४ १ ४ १ त्रस वैमि का नपुं. ज्ञान संयम ६ १ ३ ३ ज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु. ‍ अान अवधि ६ ३ ज्ञान ३ अज्ञान दर्शन ३ अज्ञान लेश्या व. भा. ३ १ कृ., का., शु. ३ १ १ असयम चक्षु, अचक्षु कृ. का. अवधि २ का, भव्य, अभव्य २ २ २ २ १ १ कुमति, असंयम चक्षु, अचक्षु लं का. भव्य, अभव्य ३ १ भव्य कृ.का., शु. २ भव्य, अभव्य २ असंयम चक्षु, अचक्षु का भव्य अभव्य २ ३ १ २ १ १ २ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु कृ का भव्य, अभव्य २ १ २ १ २ कुमति. असंयम चक्षु, अचक्षु का, भव्य, 영어 अभव्य सम्य ५ क्षा. के बिना ५ क्षा. के बिना १ मिध्या, १ मिष्या १ मिथ्या. संज्ञित्व आहा. उपयोग २ २ संज्ञी आहा, साकार, अना, अना, १ २ संज्ञी आहा. साकार, अना. १ २ २ संज्ञी आहा, साकार, अना. अना. १ संज्ञी १ संज्ञी २ २ आहा, साकार, अना. अना, १ आहा. २ साकार, अना. १ २ २ मिथ्या संज्ञी आहा साकार अना. अना. सत् १६९ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश . मागणा विशेष 6. गुणस्थान | जीव पर्याप्त गुण अपर्याप्त स्थान समास २ सामान्य १ १ (पर्या. सासा.सं.प. (1) ३ सामान्य १ ( पर्या. मिश्र सं, प. ही ) ६४ सामान्य ४ षष्ठ ५ १. १ (पर्या. अकि. सं. १. हो । २ चतुर्थ पंचम सप्तम ४. तृतीय से हम पृथिवी २/१.१/४०० ) १ तृतीय पृथिवी " 15 पर्या ६ पर्याप्ति सामान्य ५ १-५ ६ पर्या ६ पर्याप्ति I २. तिर्यच गति १. तिच सामान्य (प. २/११/००२-४८२) १ प्राण १० १० १० 11 । । संज्ञा ४ ४ 20 ४ १४ ६ प / ६ अप १०/७; ६/७ ४ ५ . /५ अप. १६७/५ २४ १/४ प ६/४/३ गति १ न. or १ न. १ न. or १. ति. इन्द्रिय काय १ १ १ पं. १ त्रस १ त्रस १ त्रस योग १ ६ मन४, बच४, नपुं. पं.१ to २० प्ररूपणाएँ वेद मन ४, बच ४ न 21 ११ मन४, वच४ औ. २. का. ह मन ४, वच, ४ नपुं. वै. १ सर्वत्र द्वितीय पृथिवी बद Klke १ ४ ४ 30 १४ ३ ४ ज्ञान ३ अज्ञान 1 संयम ।। TI दक्षन ি ३ १ १ १ ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु कृ. का. भव्य मिश्र 4 ३ान ३ अज्ञान देश सं १ २ १ १ १. असंयम चक्षु, अचक्षु कृ. का. भव्य | लेश्या ३ १ ३ १ १ १. २ ज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु कृ. का. भव्य ओ., क्षयो, अवधि ।। द्र. भा. । । २ ३ असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि १ २ कु. का. h :: भव्य नी. नी. कृ. कृ. " कृ. hi सम्य २ भव्य, अभव्य १ सासा. १ मिश्र ।। [ ] संज्ञित्व आहा, उपयोग संज्ञी १ २ आहा साकार, अना, १ २ संज्ञी आहा, साकार, अना. १ १ २ संज्ञी आहा. साकार, अना. द्वितीय पृ. बत 1.1 11 २ २ सज्ञी आहा. साकार, असंज्ञी अना, अना, सत् १७० २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश / मार्गणा विशेष ३ x गुण स्थान ६ पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास x पर्याप्त x अपर्याप्त ३ १,२,४ ४. १ सामान्य १ ५ ७ १ - ५ | पर्या १ पर्या मिथ्या. २ पर्याप्त १ अपर्याप्त १ ७ २ सामान्य १ सासा, ७ १ मिथ्या पर्या अप. १ सासा. ७ मिथ्या. अप. पर्याप्ति ६.२.४ पर्याप्त १ सं. प १४ ६ १, ६ अप. १०/७: ६/७ ४ ५ प., ५ अप ४ प ४ अप ८/६: ७/५; ६/४; ४/३; ६.२.४ पर्याप्ति ६. ५,४ ७/७; ६/५ ४ अपर्या४/२ ६,५.४ अपर्या २ ६/६ सं. प. ६ पर्याप्ति सं, अप ६ अपर्याप्त प्राण पर्या १०,६,८,४ ७, ६.४ संज्ञा १०,६,८,४ ७, ६, ४ ७/७: ६/५ : ४ १०/७ १० पर्या. के ७ अप के १० 30 ४ गति इन्द्रिय काय १ ལ་ ་ ति. ति atti ति. a ~ १ ति. १ ति. १ ति. ५ १ १ पं. १ त्रस १ त्रस योग ह मन. ४, वच ४ औ. १ २ औ. मि., का. ११ | मन. ४, वच. ४ औ. २, का. १ ६ मन. ४, वच.४ बौ. १ २० प्ररूपणाएं २ art. fa.. का. ११ मन. ४, बच. ४ औ. २, का. १ ह मन. ४, वच. ४) बौ. १ वेद ३ ४ __ ३ | ४ ३ ४ 20 ४ ३ ३ ४ ३ | ४ ३ ४ ६ ३ ज्ञान ३ अज्ञान संयम ज्ञान ५ १ ३ कुमतिरभुत असंयम चक्षु अच मति, श्रुत अधि अवधि ३. अज्ञान ३ अज्ञान दर्शन ३. अज्ञान २ | ३ असंयम, चक्षु, अचक्षु, देश सं. अवधि ३ अज्ञान १ २ असंयम चक्षु, अचक्षु मनिकृत असंयम चक्षु, अच् १ असंयम चक्षु, अचक्षु १ २ असंयम, चक्षु, अचक्षु १ २ असंयम चक्षु, अचक्षु लेश्या द्र. भा. २३ अशु. २ ३ का., शु. अशु भव्य २ भव्य, अभव्य २ भव्य, अभव्य २ ४ भव्य, मि., सा. अभव्य क्षा, क्षयो. २ भव्य, अभव्य २ भव्य, अभव्य भव्य, सम्य १ भव्य, ६ १ मिध्या १ मिथ्या १ सासा, संज्ञित्व आहा. उपयोग सासा. २ १ २ संज्ञी आहा. साकार, असंज्ञी अना. २ २ २ सज्ञी आहा, साकार, असंज्ञी अना. अना. २ २ २ संज्ञी आहा साकार, असज्ञी. अना. अना. १ २ २ २ मिथ्या संज्ञी आहा., साकार. असंज्ञी अना. अना. २ १ २ संज्ञी आहा. साकार, असज्ञी अना. २ २ संज्ञी आहा.. साकार, अना. अना. ~ संज्ञी १ २ आहा साकार, अना. सत् १७१ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष पर्याप्त | euax lak गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास ६ २ अपर्याप्त १ १ १० ३ सामान्य ! १ ( पर्याप्त मिश्र ही) १९४ सामान्य १ अवि सासा, सं. अप अपर्याप्त (१७ अप) (दे. जन्म) १ सं. प. पर्याप्ति १२ ४ पर्याप्त १ अवि १३ ४ अपर्याप्त १ १४ ५ सामान्य १ २ ६ पर्याप्ति सं. प. (सं अप. ६. अपर्याप्त རློབ ་སྒྲོག ་ བློག སྦྱོ1ངྐརྒོས སྦྱོབ ྂ सं. प. पर्याप्त १ १ अनि सं अप अपर्या १ (पर्यात ५ वाँ सं प | पर्याप्त (1) २. पंचेन्द्रिय तिर्वच (प. २/९.९/४८३-४६२) (सामान्य ५ ४ १-५ सं. प., सं. अप. असं प असं अप. प्राण 6 १० to/o १० पर्या, के ७ अप के 6 १० * १० ४ ६/५ ६ प., अप. | १०/७ ५१. अप. ६/७ x ४ 20 20 ४ १०/०६/७४ गति १ सि. at no ति. aixo ति at ro ति. al' no ति. १ ति. इन्द्रिय काय १ पं. A. or b प. १ प. ..A. 9. no or o A. पं. १ त्रस १ २ सओ मि. क १ त्रस त्रस योग १ त्रस २० प्ररूपणाएं १ त्रस १ ६. त्रस मन४, वच, ४ ओ. १ ६ मन४, वच४ औ. १. २ औ. मि. का. १ ह मन. ४, बच.४ श्री. १ द कषाय ११ ३ ४ मन४, वच, ४. बी.१२.१ ११ मन४, बच४ औ. २.का. ३ ४ ३ | ४ २ ३ ४ १ ४ पु. ३ ४ ज्ञान ३ / ४ संयम १ २ २ ३ कुमति, कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु का अशु शु. ३ ज्ञानाज्ञान असंयम मिश्र दर्शन चक्षु. अचक्षु ३ १ मति, बुत, असंयमः च अनधि ३ अवधि ३ १ ३ मति, श्रुत.. असंयम, चक्षु, अचक्षु अवधि अवभि लेश्या द्र, भा. ६ २ ३ ३ ज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु. ३ अज्ञान देश. सं. अवधि ww ६ ६ भव्य १ भव्य १ भव्य १ भव्य ३ १ १ ३ २ १ मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु का का भव्य अवधि अवधि शु. ३ ३ १ मति, श्रुत, संयमाचक्षु, अचक्षु अनधि संयम अवधि १ भव्य १ शुभ भव्य ६२ भव्य, अभव्य सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग १ सासा, १ मिश्र १ संज्ञी १. संजी ३ २ २ ओ. क्षा. संज्ञी आहा. सांकार, क्षयो. अना. अना. ३ १ १ २ औ. क्षा. संज्ञी आहा. साकार, क्षयो. अना, २ क्षा, क्षयो. संज्ञी Վ २ २ आहा साकार. अना. अना. १ २ आहा. साकार, अना, २ ओ. क्षयो, संज्ञी २ २ आहा. | साकार, अना. २. अना, १ आहा. साकार, अना. २ २ संज्ञी, आहा, साकार. असंज्ञी अना अना. सत् १७२ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ लेश्या पर्याप्त | गुण | जीव । गुण स्थान गति इन्द्रिय काय पर्याप्ति योग प्राण दर्शन कषाय वेद ज्ञान संयम संज्ञित्व आहा. उपयोग भव्य | सम्य, समास १०/६ पर्याप्त | ५ | २ ६५ | | १-५ सं. प. ६ पर्याप्ति असं. प.५ पर्याप्ति वस मन ४, वच औ.१ ३ ज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु ३ अज्ञान देश. सं. अवधि भव्य, अभव्य संज्ञी आहा. साकार, असंज्ञी अना.. |पं. त्रस | औ, मि., का. कुमति कुश्रुत असंयम चश्नु, अचश्च का. ३ ज्ञान अवधि शु. १ ति. व्य, मि., सा., संज्ञी आहा.. साकार, अभव्य क्षा. क्षयो. असंज्ञी। बना. अना.) | १ - २ २ २ भव्य, मिथ्या. संज्ञी आहा.. साकार अभव्य असंज्ञी | अना, | अना. १ पं. अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु ३ अपर्याप्त ३ | २ ६ /५ । १,२,४ सं.अप.६ पर्याप्ति ७ असं.अ. ५ अपर्याप्ति |४|१ सामान्य १ ४ ६/५ .१०/७,६/01४ मिथ्या. सं.प.६ पर्याप्ति | सं. अप. ६अपर्याप्ति | असं.प. ५ पर्याप्ति असं.अ. ५अपर्याप्ति ५१ पर्याप्त १ । २ । ६/५ । १०/8 मिथ्या..सं. प. ६ असं. प. ५ वस मन४, वच.४ औ.२, का.१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १७३ ति. । । अज्ञान अंसंयम चक्षु, अचश्च । पं. | वस मन,वच.४ औ.१ भव्य, मिथ्या, संज्ञी आहा.. साकार, अभव्य असंज्ञी अना. पं. | त्रस औ, मि, अशु. १ । २ २३ २ १ २ । २२ कुमति कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु का. भव्य, मिथ्या. संज्ञी, आहा..साकार. असज्ञी अना. अना. शु. अभव्य ६१ अपर्याप्त। १ । २ । ६/ सं. अप. असं.अ.] |७२ सामान्य| १ | २ । ६/६ । १०७ सासा.सं.प.६ पर्याप्ति १० सं. अप.६अपर्याप्ति ७ m । ति - पं पं. अस अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य । सासा. संही आहा. साकार, वस मन४, वच.४ औ.२, का. । । ८२ पर्याप्त १ ६ | सासा.सं.प. पर्याप्ति १० |४|११ - १ | ति. . | त्रस मन४,वच ४ औ.१ | अज्ञान बसंयम चक्षु, अचक्षु । भव्य । सासा. | संज्ञी | आहा. साकार अना, २. सत् विषयक प्ररूपणाएं Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश . मार्गणा विशेष सं. गुणस्थान पर्याप्त गुण अपर्याप्त स्थान ६ २ अपर्याप्त १०३ सामान्य ११ ४ सामान्य १ १ (पर्या, मिश्र सं, प. (1) १२ ४ पर्याप्त १३ ४ अपर्याप्त जीव समास १ १ सासा. सं. अप अपर्याप्ति १ अवि १ अवि पर्याप्त ६ पर्याठि २ ६/६ सं. प. ६ पर्याप्ति सं. अप अपठि १ सं. प. पर्याप्त * १ १ ६ अवि सं. अप अपर्याप्त प्राण ७ १० १०/७ १० १० संज्ञा ४ ४ x ४ ४ गति इन्द्रिय काय ard १ ति. १ वि. १ ति. १ ति. १ पं. १ १ or b पं. १ पं. ~ १ १. १ त्रस २० प्ररूपणाएँ योग २ art., fr., का. १ ६ त्रस मन४, वच. ४. क. १ १ त्रस १ ११ त्रस मन४, बच. ४, औ. २, का. १ १ त्रस मन४, बच ४, प्रो. १ m वेद कषाय ३ ४ ३ ४ ३ ४ ३ | ४ १ ४ २ औ., मि, पु. का. ज्ञान ३. لله संयम १ २ ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु मित्र, दर्शन २ १ कुमति, कुश्रुत असंयम् चक्षु, अचक्षु का. शु. ३ ३ १ मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि अवधि or ३ १. ३ नति श्रुत, असंयम अ अवधि अवभि लेश्या द्र. भा. २ ३ अशु. भव्य १ भव्य ያ भव्य १ भव्य १ भव्य ३ २ १ १ ३ मति, श्रुत.. असंयम चक्षु, अचक्षु का का भव्य अवधि शु. अवधि सभ्य, संज्ञिश्व आहा. उपयोग सासा. १ मिश्र ३ औ, क्षा, क्षयो १ २ २ संज्ञी आहा साकार, अना. अना. $~ १ १ २ संज्ञी आहा साकार, अना, १ २ २ संज्ञी आहा. साकार. अना. अना. ३ औ, क्षा, संज्ञी क्षयी. १ २ आहा साकार अना. २ २ क्षा., क्षयो. संज्ञी आहा. | साकार अना, अना. सत् १७४ २. सत् विषयक प्ररूपणाएं Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं मार्गणा दिवस पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास लेश्या गुण स्थान पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय काय योग । ज्ञान कषाय संयम दर्शन भव्य | सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग द्र.भा. ।१४५ सामान्य ११६ (पर्या. ५ वाँ सं. प. पर्याप्ति । ति. शुभ भव्य औ., क्षयो.| संज्ञी | त्रस मन,वच.४, औ.१ मति., श्रुत, देश सं. चक्षु, अचक्षु| अवधि अवधि आहा. साकार, अना ३. पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति -(ध. २/१,१/४६३-५००) १ । १ । ११ ।१४ | पं. | वस मन४,च.४त्री औ.२, का.१ ६ २. ज्ञान असंयम चक्षु, अचश्नु ३ अज्ञान देशसं. अबधि ५ २ । २ २ भव्य, क्षा. बिना संज्ञी, आहा. साकार, अभव्य | असज्ञो अना. अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सामान्य ५ । ४ । ६/५/१०/958/७४ १ १-५ सं. प. ६ पर्याप्ति १० सं. अप. अपर्याप्ति असं.प. मर्याप्ति असं. अपर्याप्ति | अप. पर्याप्त ५ २ ६५ १०/8 १- स. प. ६ पर्याप्त अमं, प. ५पर्याप्ति है १७५ ति. पं. । स मन.४,वच, स्त्री औ. १ ३ ज्ञान असंयम चश्नु, अचश्च ३ अज्ञान देश सं. अवधि भव्य, क्षा. बिना संज्ञी आहा. साकार, |अभव्य असंही अना. ३ २ अपर्याप्त : २ २ ६५ मिथ्या सं. अप६अपर्याप्ति सासाअगं. अपर्याप्ति ७७ ७ ४१ १ ति. पं. अशु. १ २ १४ २ १ । २ २३] स | औ., मि. स्त्री कुमति,कुश्रुत असंयम चश्नु, अचश्नु | | भव्य, मिथ्या..संझी, आहा. साकार, का. अभव्य सासा. असंझी अना. अना. | - अप. ४१ सामान्य १४ ६/ ५१०/७,६/ ७४ १ १ १ । ११ १४३ | मिथ्या सं.प.६ पर्यापि | | ति. पं. स मन४.वच४. स्त्रा अज्ञान असंयम चश्नु, अचक्षु सं. अप अपर्याप्ति औ.२, का.१ अस.प. पर्याप्ति | असं. अपर्याप्ति अप. भव्य, मिथ्या संज्ञी, आहा.साकार, अभव्य असंही अना, अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् गुण स्थान पर्याप्त गुण जीव | पर्याप्ति । प्राण 5 अपर्याप्त स्थान | समास | गति | इन्द्रिय काय | योग कषाय (लेश्या । द्र.भा. भव्य ज्ञान संयम | दर्शन सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग १०६ ११ पर्याप्त १ २ । ६/५ मिथ्या सं. प. | ६ पर्याप्ति असं.प. ५ पर्याप्ति १० | प. त्रस मन४, वच.४ स्त्री औ.१ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य | मिथ्या अभव्य संजी, आहा. साकार, असंज्ञी अना. ७/७ ६१ अपर्याप्त १ २ ६/५ मिथ्या | सं. अप.६ अपर्याप्ति असं. ५ अपर्याप्ति पं. त्रस औ मि.,का. स्त्री कुमति, कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु का. भव्य, मिथ्या अभव्य संज्ञी आहा., साकार, असंही अना. | अना. |७|२ सामान्य १ २ ६६ । १०/७ सासा. | सं. प. ६ पर्याप्ति | |सं अप. ६ अपर्याप्ति । पं. अज्ञान असंयम चक्षु, अचच भव्य | सासा, वस मन४, बच.४ स्त्री औ.२, का.१ संज्ञी आहा. साकार, अना, अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १७६ 1८२ पर्याप्त । १ । सासा. सं.प. पर्याप्ति | पं. अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु । | भव्म सासा, वस मन४, वच,४ स्त्री औ.१ । संज्ञी | आहा. साकार, अना. ७ ४१ १२ अपर्याप्त १ । १ ६ सासा.. सं. अप. अपर्याप्ति पं. | त्रस औ.मि., का.स्त्री कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु का. भव्य र सासा, | संज्ञी आहा. साकार, अना. अना. १०३ सामान्य १ १ ६ पर्याप्त | मिश्र | सं. प. पर्याप्ति पं. वस मन४, वच.४स्त्री ज्ञानाज्ञान. असंयम चक्षु, अचक्षु मिश्र । भव्य | मिश्र 'संज्ञी आहा. साकार, अना. १०४१ ११४ सामान्य १ । १ ६ । (पर्याप्त अवि. सं. प. पर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ " | पं. | ज्ञान वस मन४, वच.४स्त्री औ.१ असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि भव्य । औ.क्षयो.| संज्ञी | आहा. साकार, अना. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ मार्गणा विशेष भा०४-२३ सत् । म. पर्याप्त | गुण जोव लेश्या द. भा. भव्य. सम्य. संज्ञिरव आहा. उपयोग | प्राण गति इन्द्रिय काय । योग कषाय पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान ममास ज्ञान संयम दशन - - 1१२५ सामान्य १ । १ । (पर्याप्त | ५ वॉ सं. प. पर्याप्ति पं. । ज्ञान शुभ भव्य औ., क्षयो. संज्ञी स मन४, बच.४ स्त्री | औ.१ देश. सं. चश्नु, अचक्षु, अबधि. आहा. साकार, अना. २ १४ २ त्रस | औ. मि., नपुं । कुमति. fru ७ | ४. नन्ध्यपर्याप्तक तियंच-(ध. २/२,१५०१ ) सामान्य १ - २६/ ५७७४१ - १ (अपर्या मिथ्या सं. अप. ६ अपर्याप्ति ति. असं.५ अपर्याप्ति अप. |३. मनुष्य गति-- | १. मनुष्य सामान्य-(ध.२/१.१/५०२-५१२) १ । २ २३ २ १ २ २ - २ असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य मिथ्या. सज्ञी आहा. साकार, अभव्य असंज्ञो अना. अना, १७७ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सामान्य १४ । २ । 4/६ - १०/ सं. प.६ पर्याप्ति । १० सं अप. ६ अपर्याप्ति मनु. | पं. त्रस मन४, वच. औ.२,आ.२, का.१ । अकषाय अलेश्य - भव्य अभव्य | संज्ञी आहा. साकार, असंज्ञी अना. अना, युगपद सं.प., पर्याप्ति मनु. | पं. वस मन४, बच.४ औ.१, आ.१ल अकषाय अलेश्य भव्य अभव्य संज्ञी | आहा. साकार | अनुभय अना. युगपत् । अपर्याप्त १,२.४ १ . ६. ! ६,१३ सं. अप. अपर्याप्ति ७ ४ १ | १ . १ | पं. त्रस औ. मि., आहा. अपगत अकषाय ८ विभंग व असंयम मन: बिना सा., छे..यथा का. शु. भव्य मि., सा. संज्ञी आहा. साकार अभव्य क्षा..यो. अनुभय अना. अना, युगपत २. सत् विषयक प्ररूपणाएं Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं संत लेश्या पर्याप्ति संज्ञा गति इन्द्रिय काय योग गुणस्थान ज्ञान कषाय संयम दर्शन । पर्याप्त | गुण जोव अपर्याप्त स्थान | समास भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग बेद द्र, भा. |४|१ सामान्य १ २ । ६/६ मिथ्या. सं. प.६ पर्याप्ति सं. अप.६ अपर्याप्ति मनु. क. स । अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु मन, वच.४ औ २, का.१ । भव्य, मिथ्या | संज्ञी आहा. साकार अभव्य अना. अना. ५१ पर्याप्त ११ । मिथ्या. सं. प. पर्याप्ति मनु. | पं. अज्ञान असंयम चच, अचक्षु | भव्य, | मिथ्या. | संही आहा. | साकार वस मन, वच ४, औ.१ अभव्य अना, ६१ अपर्याप्त ११ । ६ [मिथ्या सं. अप. अपर्याप्ति मन. | पं. । त्रस औ.मि., का. कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु Talth व्य, मिथ्या | संज्ञी आहा.साकार. अना. अना. अभव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १७८ १७८ ७२ सामान्य १ २ सासा.सं.प. पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्ति १०/७ १० ७ मनु., पं. स अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु । भव्य, सासा. मन, वच.४/ औ.२. का. संज्ञी आहा. साकार.' अना. | अना, ८२ पर्याप्त १ १ ] |सासा., सं. प. पर्याप्ति । पं. स अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य, मन, वच.४ औ.१ सासां. संही आहा. . |अना. ३ ४ १२ अपर्याप्त १ १ ६ सासा, सं. अप. अपर्याप्ति १ पं. १ त्रस २ ओ.मि., का.. २ । १ । ३ कुमति, कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु m काशु. २३ १ भिव्य । सासा, | संज्ञी आहा. साकार अना, अना | १०३ सामान्य १ १ ६ (पर्याप्त मित्र सं.प. पर्याप्ति १० ४१ मनु. | पं. २. सत् विषयक प्ररूपणाएं - । भव्य मिश्र वस मन४, वच४ औ.१ | ज्ञानाज्ञान- असंयम चक्षु, अचच | मिश्र संज्ञी आहा.साकार अना. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं मार्गणा विशेष सत् सज्ञा क्षाय लेश्या द्र. भा. भव्य Fपर्याप्त गुण । जीव 5. अपर्याप्त स्थान समास ज्ञान | संयम दर्शन गति इन्द्रिय काय | योग पर्याप्ति । प्राण संज्ञिख आहा. उपयोग सम्य. । ११/४ सामान्य १ २ ६/६ । अवि. सं. प. ६ पर्याप्ति । सं.अप. | ६ अपर्याप्ति १०/७ १० भव्य । त्रस मन४, वच.४. औ.२, का.१ मति. श्रुत, असंयम चक्षु. अचक्षु अवधि अवधि औ.,क्षा, संझी आहा. साकार क्षयो. अना, अना. १२४ पर्याप्त : १ १ । अवि. सं. प. पर्याप्ति पं. मनु स । भव्य मन, वच.४ औ.१ मति. श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि अवधि २ । औ., क्षा. | संज्ञी | आहा. साकार, क्षयो. अना. १३ | ४ | अपर्याप्त ७ १ । १ ६ अवि. सं. अप. अपर्याप्ति मनु. | पं. स औ.मि., पु. मति. श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि अवधि भव्य क्षा., क्षयो. संज्ञी आहा. साकार, अना. अना. का. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १७९ मनु. शुभ.. पं. त्रस (पर्या. ५वाँ. सं. प. पर्याप्ति हो) मन४, बच४, औ.१ मति. श्रुत, देश. सं. चक्षु. अचक्षु अवधि अवधि क्षयो. भव्य | औ., क्षा. | संज्ञी आहा. साकार, अना - - - - - - → - ओधवत् २५ ६- सामान्य १४ (पर्याप्त अप.) २. मनुष्य पर्याप्त-(ध. २/१,१/५१२) | - - - - - ओघवत् - - - - - - - - - - ।११- सामान्य - १४ पर्याप्त व अपर्याप्त २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ मनु, नपु. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ मार्गणा विशेष | | पर्याप्त | गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास लेश्या Elk पर्याप्ति । प्राण गति इन्द्रिय | काय योग वेद ज्ञान भव्य । सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग कषाय संयम दर्शन द्र भा. in ३. मनुष्यणी-(ध. २/१,१/१३-५३०) सामान्य| १४ । २ ६/६ सं.प.६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्ति १०/ ७४ १ १ १० मनु | पं. ७ १ ११ ।१४ स मन४. वच.४,स्त्री. मनः बिना परि. औ.२, का.१ अलेश्या - भव्य, संज्ञा आहा., साकार अनुभय अना. अना. . अपगत अकषाय अभब्य बिना - | सं. प. ' पर्याप्ति । मनु. पं. | वस मन४, वच, स्त्री औ.१ मनः बिना परि. बिना। अकषाय अपगत भव्य, अभव्य अलेश्या |संज्ञी आहा. साकार अना. युगपत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १८० - |३] अपर्याप्त ३ । १ । १,२,१३ सं. अप. अपर्याप्ति । मनु. | पं. | स | औ.मि., स्त्री. कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु का. केवल यथा. | केवल शु. भव्य, मि., सा. | संज्ञी आहा., साकार अभव्य क्षा, अनुभय अना, अना. अकषाय - अपगत ८ ४१ सामान्य १ | २ | ६६ मिथ्या. सं. प.६ पर्याप्ति । सं.अप.६ अपर्याप्ति १०७ |४| १ १ १ पं. १ । त्रस मन, वच.४स्त्री औ.२, का.१ मनु. ११ २.२ भव्य, मिथ्या | संज्ञी आहा., साकार अभव्य अना. ] अना. | अज्ञान असंयम चक्षु, अचच |५१ पर्याप्त । १ ।१ ६ मिथ्या सं.प.| पर्याप्ति मनु पं. | अज्ञान असंयम चक्षु, अचश्च स मन, वच ४,स्त्री औ.१ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ भव्य, मिथ्या. संज्ञी आहा. साकार अभव्य Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ गुण स्थान मार्गणा विशेष पर्याप्त | गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति प्राण गति | इन्द्रिय काय योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या | भव्य । सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग ६१ अपर्याप्त १ १ ६ मिथ्या स. अप. अपर्याप्ति त्रस औ. मि., स्त्री का. कुमति,कुश्रुत असंयम यक्षु, अचक्षु का. कार अशु. भ. अभ. मिथ्या, संही आहा., अना. अना.. - ७२ सामान्य १ २ । ६/६ सासा सं.प.६ पर्याप्ति सं.अप. | ६अपर्याप्ति मनु. पं. समन ४, स्त्री कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य | सासा. * 2 संज्ञी आहा. साकार, अना. अना. ७ । * * ८२ पर्याप्त १ । १ । ६ सासा | सं. प. पर्याप्ति त्रस कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य मन ४, स्त्री वच. ४, औ.१ १ । १ १ । २ सासा. ! संज्ञी आहा.साकार, अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १८१ 1. २ अपर्याप्त १ १ । ६ सासा सं. अप. अपर्याप्ति मनु. पं. स | औ. मि., स्त्री २ २ |३ कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु का, व्य m अशु. सासा. संज्ञी | आहा. साकार, अना. अना. । १०३ सामान्य १ ।१ । ६ (पर्या. मिश्र सं.प. पर्याप्ति | पं. | मिश्र स | मन ४, स्त्री वच, ४ औ.१ ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु । मिश्र संज्ञो आहा. साकार, अना. ११ ४ सामान्य (पर्या. अवि. सं.प. पर्याप्ति । मनु. पं. भव्य त्रस | मन ४, स्त्रीमति, शृत. असंयम चक्षु, अचक्षु वच. ४ अवधि अवधि औ.१ औ..क्षा. संज्ञी | आहा- साकार अना. | १२५ सामान्य १ १ ६ (पर्या. ५ वाँ. सं. प. पर्याप्ति मनु. प. स । मति.. श्रुत. देश. सं. चक्षु, अचक्षु, अवधि अवधि शुभ, भव्य ) औ., क्षा. | संज्ञो आहा. | साकार २. सत्' विषयक प्ररूपणाएँ हो) बच. ४ अना. औ.१ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष सं. १५ गुण स्थान १९३६ सामान्य १ १७ १६ १४ ७ सामान्य F/11 पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास 111/3 A1/3 ६ ( पर्याप्त ६ ठा. सं. प. पर्याप्ति ९६ ६ / सामान्य Cho १२० ६/० १ { ६ (पर्यात . सं. प. पर्याप्ति हो) १ सामान्य १ (पर्याप्त स्व. सं. प. 3 ar bi १ १ ६ (पर्यात म. सं.प. पर्याप्त ही ) S "3 ६ पर्याप्त 55 33 पर्याष्ठि 13 प्राण १० १० १० ° सज्ञा ४ १ १ मनु. पं. T. मिना . बिना #t. aft. ~ गति इन्द्रिय काम पार. १ मनु. १ मनु. १ मनु. s ܟ १ पं. १ पं. १ त्रस १ त्रस योग १ { प्रस मन४, वच, ४, खी औ. १ १. त्रस २० प्ररूपणाए १ ४ १ ४ मन४, बच. ४, खी औ. १ कषाय ह १४ मन४, बच. ४, स्रो बो. १ ह मन४, बच, ४, स्त्री बी. १ १ ४ oPubl अग 30 ভ २ मान लो. ज्ञान संयम दर्शन ३ २ मति, श्रुत, सा., छे, चक्षु, अचक्षु, अवधि अवधि : ३ २ ३ मति, श्रुत, सा., छे, चक्षु, अचक्षु, अनधि अवधि २ ३ १ मति, पुत सा . अच् अवधि अवधि ३ २ ३ मति, श्रुत, सा., छे. चक्षु, अचक्षु, अवधि अवधि » लेश्या द्र. भा. १ शुभ भव्य १ शुभ भव्य ६ १ *. भव्य " 19 १ भव्य १ भव्य सभ्य संज्ञित्व आहा उपयोग ३ ओ., क्षा, क्षयो. १ १ २ संज्ञी आहा. साकार अना. ३ १ २ औ, क्षा. संज्ञी | आहा. साकार, क्षयी. अना. २ २ 3 १ ओ., क्षा., 'संज्ञी आहा. साकार अना. २ १ २ औ, क्षा. संज्ञी आहा साकार अना. מ " 33 4 १८२ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष । २० प्ररूपणाएँ लेश्या गुण स्थान पर्याप्त | गुण | जोव । पर्याप्ति . अपर्याप्त स्थान | समास | प्राण गति इन्द्रिय काय संज्ञा योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य सम्य, संज्ञित्व | आहा. उपयोग दै.भा. २१ १० सामान्य १ । १ । (पर्याप्त | १०वाँ सं. प. | पर्याप्ति पं. शु. भव्य त्रस मन४,वच.४ औ.१ L *मति, श्रुत, सू. सा. चक्षु, अचक्षु अवधि ! अवधि औ. क्षा. | संज्ञी | आहा. साकार अना. २२ ११ सामान्य १ । १ ६ (पर्याप्त | १४वाँ | सं.प. पर्याप्ति । १०० १ में मनु १ । पं. | ......... असं. ° ... १ स मन४,वच.४ औ.१ अपगत अकषाय . |मति, भुत, | यथा, चक्षु,अचक्षु. | अवधि अवधि २ । १ १ । २ शु. भव्य | औ. क्षा. | संज्ञी | आहा. | साकार अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १८३ २३ |१२ सामान्य १ .१ । (पर्याप्त | १२वाँ सं. प. पर्याप्ति अपगत ० अकषाय . शु. भव्य __ असं. प. | त्रस मन४, वच.४, औ.१ मति, श्रुत., | यथा अवधि क्षा. चक्षु, अचक्षु अवधि संज्ञी | आहा. | साकार । अना. _ २४ १३ सामान्य १ । २ /२ ६/ ६४ (पर्याप्त | १३वाँ सं. प. ६पर्याप्ति सं. अप. ६अपर्याप्ति २ असं.. मनु पं. स केवलज्ञान | यथा, केरलदर्शन | शु.| भव्य क्षा. मनर, बच.२/औ.२, का. अपगत अकषाय अनुभय, आहा.साकार, अना, अना, युगपत् २०१४ सामान्य १ । १ ।। ( पर्याप्त | अयो. सं. प. | पर्याप्ति | आयु. असं. ० मनु पं. त्रस | अयोग अपगत ० अकषाय . केवल यथा, | केवलदर्शन भव्य । अलेश्य क्षा. अनुभय आहा. साकार, अना. युगपत्र २. सत् विषयक प्ररूपणाएं Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं |मार्गणा विशेष । सत् लेश्या पर्याप्त गुण | जोव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति प्राण संज्ञा गति इन्द्रिय काय योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग द्र. भा. गण ४ लब्धपर्याप्त मनुष्य-(ध. २/१,१/५३१) | अपर्याप्त १ । १ । ६ मिथ्या सं. अपर्याप्ति अप. मनु. पं. । २ १४२ १ । त्रस | औ. मि, नपुंकुमति,कुश्रुत असंयम का, का. अशु भव्य अभव्य मिथ्या संही आहा साकार अना, । अना. आर्य म्लेक्ष खण्डके मनुष्य-(ति. प./१/२६३४-२६४३) - है १०/ ७४ १ । मनु. १ पं. | सामान्य १४ । २ ६/६ सं. प. ६पर्याप्ति सं.अप.६ अपर्याप्ति ल.अप., ६ अपर्याप्ति त्रस । _ वै, द्वि. | बिना यवेद अकषाय र अलेश्य भव्य अभव्य संझी | आहा, साकार अना, अना. युगपत. २ १४ भरते- रावतके १० | मनु. पं. | त्रस । २ ६ /६ सं.प. ६ पर्याप्ति | सं.अप.६ अपर्याप्ति ल,अप. . जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - अवेद अकषाय ८ भव्य अभव्य अलेश्य । २ । २ । संज्ञी आहा, साकार अना. अना, युगपत् 278 क्षेत्र |३ ॥ , विदेहके १६० क्षेत्र | मनु. पं. । त्रस | वै.द्वि. १४ । २ । सं.प. ६पर्याप्ति सं.अप. ६ अपर्याप्ति ल.अप. अलेश्य - अवेद अकषाय भव्य | अभव्य २ - २ संज्ञी आहा, साकार, अना. | अना. युगपत. बिना __ । मनु. पं. स । ४., विद्याधर (विद्या | १- ५सं.प.६पर्याप्ति सहित) सं.अप. ६ अपर्याप्ति | ल,अप. . मन४,वच४ औ.२, का, ३ ज्ञान असंयम ३ अज्ञान देश सं. चक्षु, अचक्षु, अवधि भव्य अभव्या संज्ञी | आहा.साकार, अना. अना. युगवत ५, विद्याधर १४ (विद्या मनु. | पं. स. वै. द्वि. || संप.६ पर्याप्ति सं.अप. ६ अपर्याप्ति भव्य बिना अवेद अकषाय अलेश्य २ | संझी आहा, साकार असंही अना. अना, युगपत. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ देनेपर) ल,अप. " - । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत भा०४-२४ लेश्या - पर्याप्त गुण | जीव | अपर्याप्त स्थान | समास पयाप्त प्राण JO गति | इन्द्रिय काय कषाय -ज्ञान संयम दर्शन भव्य सभ्य संज्ञित्व आहा. उपयोग n म्लेच्छ । गुण स्थान ६।६ | मनु पं. भूमिज मिथ्या. सं.प. ६पर्याप्ति. |सं.अप.६ अपर्याप्ति ल.अप. . वस | मन४,वच४ औ.२, का.१ १ २ कुमति, असंयमः चक्षु, अचक्षु । भव्य | मिध्या. | संज्ञी | आहा. साकार अभव्य अना. अना. ७ - २ - २ अन्त- ४ २ पिज १-४ | सं.प. ६पर्याप्ति सं. अप.६ अपर्याप्ति I | मनु. पं. प्रस | मन४,बच४ औ.२. का १ ३ ज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु, ३ अज्ञान । अवधि भव्य अभव्य संज्ञी | आहा.साकार अना. अना. म्लेच्छ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश . भोग | ४ । २ ६/६ | १०/ ७ भूमिज | १-४ | सं.प. ६ पर्याप्ति सं, अप, ६अपर्याप्ति ४ १ मनु. १ पं. स मन,वच.४, औ.२,का..| ३ ज्ञान ३ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि भव्य, अभव्य संज्ञी | आहा. साकार | अना. अना. ४. देवगति१. देव सामान्य-(ध.२/१,११५३१५४३) |१-४ सामान्य ४ २६६१ १-४ | सं. प. ६ पर्याप्ति सं. अप.. ६अपर्याप्ति पं. स मन,वच ४, खी वै.२,कार| पु. ३ अज्ञान असंयम चनु, अचक्षु, अवधि भव्य, २ । २ संज्ञी | आहा.. साकार अना. अना. ३ ज्ञान अभव्य 1.२ १.४ पर्याप्त ४ । १ । १-४ सं.प. २. सत् विषयक प्ररूपणाएं पर्याप्ति १० | पं. स मन४, वच.४. स्त्री | ३ ज्ञान ३ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि शुभ भव्य, अभव्य संज्ञी आहा. | साकार अना. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष ४ गुणस्थान ३ १,२ अपर्याप्त ४ 9 पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास १ सामान्य १ पर्याप्त २ ६ १ अप १ ३ १ ६ १.२.४ . अप अपर्या पर्याप्त २ { ६/६ मिथ्या. सं प ६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्त १ मिथ्या. सं. २ सामान्य १ २ पर्या ६ १ मिथ्या. सं. अप अपर्याप्त ६/६ सासा. सं. प. ६ पर्याप्ति ܩ पर्याप्त १ १ सासा. सं. प. सं अप. ६ अपर्याप्त ६ पर्याप्त प्राण 10/0 १० ७ १० 20/७ १० १० संज्ञा ४ ४ गति इन्द्रिय काय or देव or th १ पं. १ देव पं. त्रस १ देव a p at १ त्रस १ प. १ त्रस १ त्रस १ त्रस १ त्रस योग वै, मि., का. ११ मन ४, बच. ४ बै. २, का. १ वै. मि. का. २० प्ररूपणाए वेद कषाय ܚ ܕ का. १ पु. २ ४ स्त्री पु. ६ २ ४ मन ४, बच स्त्री ४. वे. १ पु. ४ स्त्री पु. ११ २ ४ स्त्री मन ४, बच. ४, पु. ६ २ ४ मन ४, बच स्त्री ४, वै. १ पु. ज्ञान अज्ञान संयम १ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु दर्शन ५. १ ३ २ मति श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु का, अ. कुमति अवधि शु. कुश्रुत अज्ञान ३ अज्ञान २ असंयम चक्षु, अचक्षु श्या १ २ कुमति कुश्रुत असंयम वक्षु, अचक्षु का. १ २ असंयम चक्षु, अचक्षु द्र, भा.! असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य ६ २ २ ६ ५ भव्य. मिश्र अभव्य बिना २ भव्य, अभव्य सम्य. २ { शुभ भव्य, मिथ्या, अभव्य १ मिथ्या ६ ३ १ शुभ भव्य १ भव्य सासा. संज्ञित्व आहा. उपयोग सासा. १ २ | २ संज्ञी आहा, साकार. अना. अना, २ ? २ संज्ञी आहा.. साकार अना, अना. २ १ २ २ भव्य. मिथ्या. संज्ञी आहा, साकार, अभव्य अना. अना. संक्षी १. २ आहा, साकार अना. २ संज्ञी आहा, साकार, अना, अना. १ २ संज्ञी आहा. साकार अना, सत् १८६ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं सत् स्थान पर्याप्त मार्गणा विशेष गुण ! जीव अपर्याप्त | स्थान । समास लेश्या पर्याप्ति प्राण - गति | इन्द्रिय काय | योग ज्ञान कषाय संयम दर्शन भव्य | सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग | संज्ञा 18.२ अपर्याप्त १ । सासा. सं. अप. अपर्याप्ति देव पं. | सवै. मि.,का. स्त्री असंयम चक्षु., अचक्षु. का. भव्य । सासा कुमति., कुश्रुत संज्ञी | आहा.साकार, अना. अना. १ । १०४ ११ | १०३ सामान्य १ । १ । (पर्याय मिश्र. सं.प. पर्याप्ति ही) १ १ २४ ३ स मन४, वच.४खीज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु. 'वै.१ . मिश्र शुभ भव्य मिश्र | सज्ञी आहा, साकार, अना. १० |१९| ४ सामान्य १ २ । ६६ | अवि. सं. प. ६. पर्याप्ति सं. अप.६ अपर्याप्ति शुभ भव्य - त्रस मन४,वच,४.खी वै. २ का.१ पृ. मति, श्रुत असंयम चक्षु.,अचक्षु. | अवधि अवधि | क्षयो. औ.,क्षा. | संज्ञी | आहा. साकार. अना, ! अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 0.78 १२४ पर्याप्त १ | १ | अवि. सं. प. पर्याप्ति १ ।१ । २४ ३ । प. | त्रस मन४,बच.४, स्त्री मति, श्रुत, असंयम चक्षु.,अचच. अवधि अवधि शुभ भव्य, | औ.. क्षा. | संज्ञी आहा. साकार, अना. क्षयो. |१३| ४ अपर्याप्त १ १ । | अवि. सं. अप. अपर्याप्ति पं. | त्रस वै. मि.,का. पु./ मति, श्रुत असंयम चक्षु.,अचक्षु. का. शुभ भव्य, | औ, क्षा. संज्ञी | आहा. साकार, अवधि अवधि शु. क्षयो. अना. अना. (२. भवनत्रिकदेव-(ति.प./२/५४३-५५०); (ध.२/१,१/१८३-१९३) । १ |११-४सामान्य ४ । २ । ६/६ १-४ सं. प.६ पर्याप्ति - सं. अप. ६ अपर्याप्ति १०/ ७४ १ । १ ।१ ११ २४६ १० | | देव । पं. वस मन४, बच.४.स्त्री ३ ज्ञान ७ वै.२, का.१ पु. अज्ञान क्षा. ३६४ २ २। ५ असंयम चक्षु.,अचक्षु. अशु/ भव्य अवधि तेज अभव्य | बिना । २ आहा. साकार अना. अनाकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाविशेष २० प्ररूपणाए सत् लेश्या । गुण स्थान पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास समास पर्याप्ति | प्राण | गति इन्द्रिय | काय योग | वेद ज्ञान | संयम दर्शन भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग भा २ पर्याप्त । ४ १-४ । १ । सं. प. पर्याप्ति |६ २४ मन ४, वच स्त्री देव । पं. | स ३ ज्ञान ३ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु, अवधि तेज | भव्य, | अभव्य बिना संज्ञी | आहा. साकार अना . ३ अपर्याप्त २ | १-२ । १ । । सं.अप. अपर्याप्ति देव | पं. | बस वै.मि., का. स्त्री । कुमति, असंयम चक्षु, अचक्षु | का.अशु भव्य, मिथ्या. | संशी | आहा. | साकार, कुश्रुत शु. अभव्य -सासा. अना. | अना. ܩ । ४|१ सामान्य १ २ । मिथ्या. सं. प. ६ पर्याप्ति । १० सं. अप. ६अपर्याप्ति | देव | पं. | स मन ४, वच. स्त्री । अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु ܚ 4 ܩ _ १ अशु भव्य, मिथ्या. संज्ञी तेज | अभव्य २ । २ आहा. साकार, अना. अना. का.१ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 728 १८८ ५१ पर्याप्त १ १ । | मिथ्या सं.प. पर्याप्ति देव पं. | स मन ४, वच.खी ܚ ܕ4 ܩ । २ ६१ २ अज्ञान असंयम | चक्षु, अचक्षु। तेज | भव्य, मिथ्या | संज्ञी | आहा. साकार अभव्य अना. ६१ अपर्याप्त १ । १ मिथ्या सं. अप. अपर्याप्ति । देव | पं. | त्रस [४] २ २ २ ३ २ । १ १ २ । २ वै. मि., का, खी कुमति, असंयम चक्षु, अचक्षु का.अशु भव्य, मिथ्या | संज्ञी | आहा. साकार. । | कुश्रुत शु. अभव्य अना. अना. १०/७ ७२ सामान्य १२ । ६६ । सासा. सं. प.६ पर्याप्ति । सं. अप.६ अपर्याप्ति । । देव . अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु अशु भव्य | सासा. त्रस मन ४, वच. स्त्री |४, वै.२, पु. का.१ संज्ञी आहा.. साकार, अना. | अना. ८२ पर्याप्त १ १ ६ सांसा. सं.प. पर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ | देव पं. त्रस अज्ञान असंयम चश्नु, अचक्षु तेज भव्य | सासा. मन ४, वच. खी] ४, वै.१ | पु. संज्ञी | आहा. साकार, अना. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं सत् लेश्या पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति । प्राण गति | इन्द्रिय | काय योग ज्ञान संयम दर्शन वेद भव्य सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग | कषाय " २ अपर्याप्त १ १ ६ सासा सं. अप | अपर्याप्ति | देव | पं. स वै.मि.. का. स्त्री कुमति, असंयम चक्षु, अचक्षु का भव्य | सासा. संझी आहा., साकार, अना. अना. कुश्रुत * ४ | १ | १०३ सामान्य १ । १ । (पर्या. मिश्र सं.प. पर्याप्ति ही). १ पं. १ वस - देव १ २/४ ३ १ २ ६ १ १ मन ४, वच. स्त्री ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचश्नुतेज भव्य ४, वै.१ पु. ! मिश्र. मिश्र संज्ञी | आहा. साकार, अना. |११| ४ सामान्य १ १ । (पर्या, अवि. सं. प. पर्याप्ति देव | पं. २ । १ । १ । २ तेज भव्य औ.,क्षयो, | सज्ञी | आहा. साकार, अना. त्रस | मन ४, बच. स्त्रीमति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु, ४. वै. पु.।। अवधि । अवधि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश |३. सौधर्म ऐशान देव-(ध.२/१,१४५५१-५६०) सामान्य ४ | २ ६६ १०/७ ४१ |१-४ | सं. प.६ पर्याप्ति । १० देव | पं. सं. अप. ६ अपर्याप्ति प्रस | मन ४, बच, स्त्रो । ३ज्ञान ३ अज्ञान असंयम चक्षु, अचच का. तेज | भव्य, | अवधि शु. अभव्य -संज्ञी आहा., साकार, | अना, अना. | २ | पर्याप्त ४ । १ । १-४, सं.प. पर्याप्ति | देव | पं. त्रस | मन ४, वच स्त्री ३ ज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु. तेज तेज | भव्य, अवधि अभव्य संज्ञी आहा. साकार, अना, अपर्याप्त ३ । १६७ ४१ १,२,४ सं, अप. अपर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ 1 देव | प. | स वै.मि., का| स्त्री १ . ३२१, २ । ३ज्ञान. असंयम चक्षु, अचक्षु, का.तेज | भव्य, मिश्र कुमति कुश्रुत अवधि शु. अभव्य मिना |संही आहा., साकार, अना, अना, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारणा विशेष २० प्ररूपणाएँ गुण स्थान पर्याप्त , गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास लेश्या द्र भा भव्य पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय 'ज्ञान संयम दर्शन सम्य. संज्ञित्व आहा, उपयोग ४१ सामान्य १ । २ ६/ मिथ्या सं.प.६पर्याप्ति सं. अप. ६अपर्याप्ति १०/७ १० १ । ११ ।२ ४ त्रस | मन ४, खी. । वच.४, |पु. वै.२, का१] का, शु.त. ३ । अज्ञान असंयम चन, अचक्षुते | भव्य, | मिध्या. | संझी | आहा.,साकार, अभव्य अना, अना. ५१. पर्याप्त १ १ मिथ्या | सं.प. पर्याप्ति । पं. वस मन,वच.४. स्त्री. अज्ञान असंयम चक्षु., अचक्षु ते. ते. भव्य, अभव्य मिथ्या. संझी आहा. साकार, अना. ६१ अपर्याप्त ११ मिथ्या सं.अप. अपर्याप्ति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश देव । पं. | स वै. मि., का.सी., कुमति कुश्रुत असंयम |चक्षु., अचक्षुका. ते. भव्य, मिथ्या. | संज्ञी | आहा., साकार, शु.। अभव्य अना. अना, ०६४ |७२ सामान्य १ । २ । ६/६ | १०७ सासा. सं.प.६ पर्याप्ति । स. अप. अपर्याप्ति | देव | पं. अज्ञान असंयम चक्षु., अचक्षुका. ते. भव्य | सासा, त्रस मन ४, वच,४, वै.२, का.१ खी. पु.] । २ । संझी । आहा., साकार | अना. अना. 1८२ पर्याप्त | १ १ ! ६ सासा. सं.प.] पर्याप्ति | | देव | पं. वस मन४,वच.४.सी. | अज्ञान असंयम चक्षु., अचक्षु ते. ते. भव्य | सासा. संज्ञी | आहा., साकार अना. | अना. || २ अपर्याप्त १ २ । सासा. सं.अप. अपर्याप्ति १ । १ । २ २ ४ उस वै. मि., का.स्त्री. २ १ २ २१ १ कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु का. ते. भव्य | सासा, देव संज्ञी | आहा.. साकार अना. | अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ श. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष ! २० प्ररूपणाएँ सत् गुण स्थान पर्याप्त : गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति | प्राण गति इन्द्रिय काय योग ज्ञान संयम दर्शन लेश्या - भव्य द्र.भा. सम्य. संज्ञित्व आहा. | उपयोग - १० ३ सामान्य १ । १ ६ (पर्या. मिश्र. | सं.प. पर्याप्ति पं. स मन४, बच स्त्री | मिश्र ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचच ते. ते. भव्य मिश्र संज्ञी आहा.साकार, अनी. - ११ ४ सामान्य १ । २ ६/६ । १०/ ७४१ १ अवि. सं. प.६ पर्याप्ति - १० देव | पं. सं.अप. ६ अपर्याप्ति ७ औ., क्षा., संज्ञी | आहा. साकार, अवधि १ । १९ २४ ३ १ ३ ३१ १ त्रस | मन ४, वच. स्त्रो मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु. का. ते. भव्य अवधि शु. का.१ क्षयो, अना. १२४ पर्याप्त १ । १ अवि. सं. प. ६ पर्याप्ति देव पं. स मन ४, वच. स्त्री ४, वै. १ पु. आहा. साकार, मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचच. ते. ते. भव्य अव. अवधि औ.. क्षा., संज्ञी क्षयो, अना, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश | १३ ४ अपर्याप्त १ । १ ६ | अवि. सं.अप. अपर्याप्ति पं. स .मि., पु. मति, श्रुत. असंयम चक्षु, अचक्षु, का.ते. भव्य | औ.,क्षा., संज्ञी अवधि शु. क्षयो. अबधि आहा., साकार, अना. अना. का, ४. सनत्कुमार माहेन्द्र देव-(ध.२/१,१४६६१-४६३ ) । सामान्य ४ । २ । ६/६ | १०/७ १-४ । सं.प.६ पर्याप्ति सं. अप.६ अपर्याप्ति ११ १४ ६ १ । ३ ३ २] २ पं. - त्रस | मन ४, बच.पु. | ३ ज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु, का. ते.उ भव्य, ३ अज्ञान | अवधि शु. प.ज अभव्य का.१ । त. संज्ञी | आहा.. साकार, | अना. अना. २ पर्याप्त ४ । १ ६ १-४ । सं.प. पर्याप्ति | पं. - त्रस | मन ४, वच. पु. __ । ३ ज्ञान असंयम चश्नु, अचक्षु, ते. ते.उ भव्य, ३ अज्ञान अवधि प. प.ज अभव्य संज्ञी | आहा.. साकार, | अना. ३ अपर्याप्त ७४.१ ३ । १ ६ । १,२,४ सं.अप. अपर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ । ६. स वै.मि.,का. पु. ३ ज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु, का.ते. भव्य, कुमति, अवधि शु. पद्म अभव्य मिश्र बिना संझी आहा..साकार, अना. | अना. - Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ लेश्या थान प्राण गति इन्द्रिय काय | योग कषाय ज्ञान पर्याप्त गुण | जीव | पर्याप्ति 5. अपर्याप्त स्थान समास संयम | दर्शन द्र. भा. " - भव्य । सम्य, मजिस्व आहा. उपयोग ५. ब्रह्मसे महाशुक्र तकके देव-(ध.२/१,१/५६३) सामान्य - - | → सनत्कुमार माहेन्द्रवत - १ → सनत्कुमार माहेन्द्रवद - 4- का.शु. म.पद्म 0 - - - ३ अपयाप्त अपर्याप्त । - - - - एक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १९२ ६. शतार सहस्रार-(ध.२/१,१/५६४) १. सा., प. सर्वत्र सनत्कुमारवत् / केवल लेश्याम विशेष है (द्रव्य लेश्या सामान्य में कापीत, शुक्ल तथा मध्यम पद्म ये तीन । पर्याप्त में मध्यम पद्म। अपर्याप्त में कापोत तथा शुक्ल ये दो। | व. अप. भाव लेश्या सामान्य पर्याप्त तथा अपर्याप्त तीनों में केवल १ मध्यम पद्म।) ७. आनतसे अच्युत-(ध.२/११/१६४) १. सा. प. सर्वत्र सनत्कुमारवर / लेश्यामें विशेष है । (द्रव्य लेश्या-सामान्य में कापोत शुक्ल तथा मध्यम शुक्ल ये तीन । पर्याप्त में मध्यम शुक्ल । अपर्याप्त में कापोत तथा शुक्ल ये दो। व. अप. भाव लेश्या-सामान्य पर्याप्त तथा अपर्याप्त तीनों में नए पद्म और जघन्य शुक्ल ये दो।) ८.नव अनुदिश व पंच अनुत्तर१ सामान्य| १ । २ । ६/६ । ७४ १ | ३ | १ १ | ३ | १ | २ | २ अवि सं.प.| ६ पर्याप्ति पं. - त्रस मन४, वच.४, पु. | मति, श्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु | का.उ. भव्य । औ., क्षा. | 'संशी | आहा. साकार सं.अप. ६ अपर्याप्ति वै.२ का. १ अवधि अवधि शु. शु. क्षयो. अना. पप्ति । १ । १ । । अवि | सं.प. पर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएं देव पं. | बस मन४,वच.४, पु.| मति, श्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु उ.उ. | भव्य | औ.,क्षा. [ संझी | आहा. साकार अवधि अवधि शु. शु. -क्षयो. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं लेश्या । भा०४-२५ गुण स्थान पर्याप्त | गुण | जीव स्थान | समास पर्याप्ति । प्राण गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य । सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग अपर्याप्त | १ | १ | अविसं.अप. | अपर्याप्ति | देव पं. स वै. मि., का. पु. । ३ २१ मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु, का. उ. भव्य | अवधि शु. शु. औ., क्षा., संही आहा. साकार अना. अना. अवधि क्षयो १. देव पुरुष वेदी-(ध.२/१,१/५६०) सर्व विकल्प → देवोंके सर्व आलापोंवत - → देवोंके सर्व आलापों वद - ~ १०. देवियां-(ध. २/१,११५५०,५६०) → सौधर्म या भवनत्रिकवत सौधर्म या भवनत्रिक वव ~ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सा. | पर्याप्त क्षा. बिना |२| अपर्याप्त ~ T 'मिथ्या. सासा. २. इन्द्रिय मार्गणा१. एकेन्द्रिय १. एकेन्द्रिय सामान्य -(ध. २/१,११५६६-५७१) मिथ्या बा. प. | ४ पर्याप्ति । सासा) बा. अप.४ अपर्याप्ति ४ ३ । ति. एके. त्रस औ.२, का.१ नपुंकुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु |बिना It fele भव्य मिथ्या. असंज्ञी आहा. साकार अभव्य (सासा.) अना, अना. दे. जन्म/४ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ जन्म/४) सू. अप. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् लेश्या गुण स्थान पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति । प्राण गति इन्द्रिय | काय | योग कषाय ज्ञान संयम | दर्शन भव्य सभ्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग द्र. भा. पर्याप्त । १ । २ । मिथ्या. बा.प. पर्याप्ति ति. एके. त्रस नपुं. कुमति, कुश्रुत असंयम अचच अशुभ थ्या संज्ञी आहा. भव्य अभव्य बिना साकार, अना. ३ अपर्याप्त | १ | २ ४ मिथ्या बा, अप. अपर्याप्ति नि.अप. (सासा.सू. अप. অহম। | ति. | एके. औ.मि., का. न. कुमति, असंयम अचक्षु स बिना | अभव्य (सासा.) कुश्रुत भव्य मिथ्या असंज्ञी आहा., साकार, अना. अना. दे. जन्म/४ । ति. २. बादर एकेन्द्रिय१, सामान्य १ । २ ४/४ मिथ्या. बा. प.४ पर्याप्ति | (सासावा.अप. ४ अपर्याप्ति | (दे. जन्म/४ एके. औ.२, का.१ नपं कुमति, असंयम अचच स बिना अशुभ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भव्य - मिथ्या असंज्ञी आहा., साकार, अभव्य (सासा. अना, अना. दे. जन्म/४ ___ पर्याप्त १ १ ४ । ४ ४१ मिथ्या. बा.प. पर्याप्ति ति. एके. स औ. औ. न. असंयम अचक्षु कुमति, कुश्रुत अशुभ भव्य | मिथ्या अस ज्ञी आहा. साकार, अभव्य अना. ३ ४११ ५ । २ ति. | एके. | त्रस औ.मि.,का. नपुं. रहित १२ कुमति, असंयम | अचक्षु का अशुभ अपर्याप्त १ १ ४ मिथ्या.वा. अप. अपर्याप्ति नि अप. (सासा.) (दे. जन्म/४) - २ असंज्ञी | आहा., साकार, अना. | अना. भव्य | मिथ्या | अभव्य (सासा) दे. जन्म/४ ३. सूक्ष्म एकेन्द्रिय-ध. २/१,१/ ५७३-५७४) - १४ सामान्य १ | २ | ४/४ | मिथ्या.सू. प. ४ पर्याप्ति । (सासा.सू. अप. ४ अपर्याप्ति | ( दे. जन्म/४ २. सत् विषयक प्ररूपणाएं ति. कानपं औ २, का.१ नपुं. असंयम अचक्षु का. एके. | बस रहित कमति, कुमति, कुश्रुत अशुभ । २ । २ असंज्ञा आहा.,साकार, अना. अना. भव्य | मिथ्या अभव्य | (सासा) दे. जन्म/४ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष । २० प्ररूपणाएं लेश्या गुण स्थान पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान, समास पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय काय | योग वेद कषाय ज्ञान संयम | दर्शन भव्य | सम्य. सज्ञित्व आहा. उपयोग द्र.भा. २ ४ पर्याप्त १ । १ | मिथ्या सू. ५. पर्याप्ति ति, १/४ नपुं. - एके. त्रस | रहित २ सतिशत ससंयम अचश्व का . कुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षुका भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार अभव्य अना. अना. ३ - अपर्याप्त १ १ मिथ्या सू. अप.! अपर्याप्ति (सासा) !ति. एके. त्रस औ मि.,का. नपुंकुमतिनुश्रुत असंयम, अचक्षु रहित अशुभ मिथ्या असंज्ञी आहा. अभव्य (सासा.) अना, | अना, दे. जन्म/४ | २. द्वीन्द्रिय-(ध.२/१,१/५७६-७७) ति. द्वी. बस कुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु औ.२, का. नपुं. अनुभयवच । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मिथ्या द्वी. प. ५ पर्याप्ति (सासा.)द्वी अप.५ अपर्याप्ति दे. जन्म/४ अशुभ १ १ २ । २ भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा. सांकार, अभव्य (सासा अना, | अना. |२ पर्याप्त १ १ । मिथ्या द्वी.प. पर्याप्ति | त्रस | औश्व नपं अनुभय वच. कुमति,कुश्रुत असंयम, अचक्षु 100 भव्य, मिथ्या असंज्ञी) आहा. साकार अना. अिभव्य ३ अपर्याप्त। १ । १ । ५ मिथ्या द्वी-अप. अपर्याप्ति (सासा. ति. द्वी, बस औ.मि., का.नपु. कुमति,कुश्रुत असंयम, अचच का. अशुभ २ । १ ।१ । २ । भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार, अभव्य (सासा.) अना, अना. दे.जन्म/४ ३. बोन्द्रिय-धि.२/१,१५७८-५७६) २ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ | ति. । मिथ्या त्री. प. ५ पर्याप्ति । । (सासात्री अप. ५ अपर्याप्ति दे. जन्म /४ त्री. | त्रस औ.२, का. नपुंकुमति,कुश्रुत असंयम, अचक्षु अनुभय वच. अशुभ भव्य, मिथ्या अभव्य (सासा.) दे. जन्म/४ असंज्ञी आहा. साकार, अना. अना. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गका विशेष ३ गुणस्थान पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास १ पर्याप्त १ मिथ्या श्री. प. अपर्याप्त १ (दे. जन्म / ४) १ 女 मिथ्या श्री अप अपर्याप्त (सासा) ४. चतुरिन्द्रिय- (१२/११/२८०-३८१) | सामान्य) १ पर्याप्त ( दे, जन्म / ४ ) २ ५/५ ५ पर्याप्ति मिथ्या चतु प. (सासा) चतु. अ. १ अपर्या पर्या १ १ मिथ्या चतु. प. ५ पर्या अपर्याप्त १ (द) ५ पर्या १ ५ मिथ्या चतु अपर्याप्ति [(सासः) अप प्राण ७ 2 संज्ञा Oth ४ ८/६ ४ ८ ४ ४ गति इन्द्रिय काय १ ति. R 3 श्री. ति. श्री. or Iph १ fa. g. or १ १ ति. चतु. १ त्रस ९ चतु. त्रस 1 १ त्रस योग १ त्रस २ ४ 20 २० प्ररूपणाएं वेद औ. मि., नपुं. का. अनुभवच १ त्रस औ. २. का. १ नपुं. अनुभय वचः १ ४ १ ܩ कषाय १ ४ १ ४ नयं २ औ. मि., नपुं. का. १ ४ ज्ञान संयम २ १ १ कुमति, असंयम अचक्षु कुत २ १ १ कुमति, असंयम अचक्षु कुकु २ १ कुमति, असंयम दर्शन २ १ कुमति, जसंयम कुत २ १ कुमति, असंयम कुश्बुल २ चक्षु. अचक्षु चक्षु. अचक्षु लेश्या द्र. भा. का. 9. अशु २ ३ २ अशु चक्षु, का. अचक्षु शु. अशु. भव्य सम्य, २ ३ २ भव्य, अभव्य ६३ २ अशु. भव्य, अभव्य शुभ भव्य, अभव्य २ भव्य, अभव्य) (सासा.) १ मिथ्या २ भव्य, अभव्य १ मिथ्या. (सासा) २. जन्म/४ दे. जन्म /४ १ १ २ २ मिथ्या असंज्ञी आहा साकार अना. अनाकार १ मिथ्या संज्ञित्व आहा. उपयोग १ मिथ्या (सासा) १ १ २ असंज्ञी आहा. साकार अना. १ २ २ असंही आहा ! साकार अना, अनाकार १ २ १ असंज्ञी आहा. साकार अना. २ २ असंज्ञी आहा. साकार अना. अना. सत् १९६ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ सत् | मार्गणा विशेष पर्याप्त | गुण | जीव | पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान | समास | लश्या । प्राण गति | इन्द्रिय काय | योग वेद ज्ञान संयम दर्शन भव्य सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग | hlata । असंज्ञा १. पंचेन्द्रिय१. पंचेन्द्रिय सामान्य-(ध.२/१,१/५८२-५८७) सामान्य १४ । ४ । ६/६:५/१०/६/७४ | ४ | १ | १ | १-१४ | सं.प.६ पर्याप्ति । पं. | त्रस | अयोग सं. अप. ६ अपर्याप्ति असं. प. ५ पर्याप्ति असं, ५ अपर्याप्ति अप. अपगत अकषाय ४ अलेश्या भव्य, अभव्य | २ । २ - २ । संझी आहा. साकार असंज्ञी| अना. ! अना. अनुभय २। । पर्याप्त १-१४ २ ६ /t | १०/8 सं. प.६ पर्याप्ति | १० असं. प. अपर्याप्ति ६ पं. 0 अपगत अकषाय ८ अन्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश असंज्ञा अलेश्या m असंझी अभव्य त्रस | मन ४, वच.४ औ. १. वै. आ.. अयोग संज्ञी आहा. साकार, अना. अनुभय युगपत् |३ अपर्याप्त १ २ ६t १.२,४, सं. अप.६ अपर्याप्ति । ६,१३ असं.१ अपर्याप्ति पं. असंज्ञा mes त्रस | औ, मि., वै. मि., आ.मि.. का. ५ भव्य, मिश्र अभव्य बिना विभंग, मन: सा., छ. बिना यथा.. असंयम २ २ | २ संही आहा. साकार असंझी अना. अना. अकषाय अलेश्या | अनुभय १ १ १३ त्रस | आ. द्वि. बिना अज्ञान ४ | ६५ | १०/७१/७४ ४ मिथ्या सं. प. ६पर्याप्ति | सं. अप. ६ अपर्याप्ति असं. प. ५पर्याप्ति असं. ५ अपर्याप्ति असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य, मिथ्या अभव्य । २ । २ । २ । | संज्ञी | आहा. साकार, असंझी अना. | अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ सत मार्गणा विशेष | पर्याप्त | गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास लेश्या पर्याप्ति प्राण | गति | इन्द्रिय काय, योग वेद ज्ञान | संयम | दर्शन भव्य सम्य. सज्ञित्व | आहा. उपयोग ५१ पर्याप्त १ | २ | ६५ मिथ्या | सं.प.६ पर्याप्ति असं.प., पर्याप्ति १०/१ १० - | पं. | स | अज्ञान असंयम चक्षु. अचक्षु मन ४, वच.४, औ. १, भव्य, | मिथ्या | संज्ञी | आहा. साकार, अभव्य असंज्ञी अना, ७७ ६१ अपर्याप्त १ । २ । ६५ । मिथ्या सं. अप.६ अपर्याप्ति | असं. | अपर्याप्ति 4. स | वै. मि., | २ | २ । २ भव्य, मिथ्या | संज्ञी | आहा. कार, अभव्य असंही अना. | अना, कुमति, कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षुका. | शु. औ.मि. अप. का. 82 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - →मूलओघवत - - १९८ |२. संज्ञि पंचेन्द्रिय--(ध.२/१,१/५८७) - → मूल ओघवत्- ३. असंज्ञि पंचेन्द्रिय-(ध. २/१,१/५८७-५८८) मिथ्या असं. प. ५ पर्याप्ति असं.५ अपर्याप्ति | ! ति. पं. - त्रस अनुभयावच. औ. २, कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु. अचश्च भव्य, | मिथ्या | असंज्ञी| आहा. | साकार अना. अना, अप. पर्याप्त १ १ ५ | मिथ्या असं. प. पर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ ति. पं. त्रस अनुभय वच. कुमति, कुश्रुत असयम चक्षु, अचक्षु असंही आहा. साकार औ.१ । भव्य, मिथ्या अभव्य अना, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ L पर्याप्त अपर्या गुण । स्थान | समास पण जीव । व पर्याप्ति । प्राण लगति | इन्द्रिय काय | योग बेद कषाय ज्ञान लेश्या - भव्य | संयम दर्शन सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग ति. पं. वस औ.मि., का. कुमति,कुश्रुत असयम चक्षु, अचक्षु का १ । २ । २ भव्य | मिथ्या | असंज्ञी| आहा. | साकार अभव्य | (सासा) अना. | अना, दे. जन्म/४ ३ अपर्याप्त । १ । मिथ्या असं. अपर्याप्ति सासा.) अप. | (दे. जन्म) | ४. पंचेन्द्रिय लब्ध्य पर्याप्त-(ध.२/१,१/५८६-५६०) १। सामान्य १ २ । ६५ ७/ ७ मिथ्या सं.अप. ६ अपर्याप्ति असं. ५ अपर्याप्ति ४ २ १ त्रस औ. मि., नपुं. कुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु अशु. ७ । २ २ २ भव्य । मिथ्या | संज्ञी आहा. साकार, अभव्य असंही अना. अना, का. अप, । अप. | मिथ्या सं. अप. अपर्याप्ति स औ. मि., नपुं. का. अशु. - कुमति,कुश्रुत असंयम | अचश्नु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १ । १ । २ । २ भव्य | मिथ्या | संही आहा., साकार, अभव्या अना. अना, | १ १ २ २ भव्य मिथ्या असंज्ञी आहा..साकार. अभव्य अना. | अना. असंज्ञि १ १ अप. मिथ्या असं. अप, ५ अपर्याप्ति पं. त्रस | औ.मि., नपुं. का. कुमति कुश्रुत असंयम अचक्षु अशु. ५ ६ काय मार्गणा१. षट् काय सामान्य-(ध, २/१,१/६०१-६०३) |१) सामान्य! १४ । ५७ ६/६ ५५ / १०/७; 8/0/४ ४ १-१४ ४/४ /६७/५ ६,५,४ प. ६/४:४/३/ल ६,५,४ अप. ४/२;१ पर्याप्त १६ | ६,५,४ १०,६/८,७६४ ४ पर्याप्ति ४/४; १ । १५ अयोग अपगत - अकषाय अलेश्या संज्ञी आहा., साकार, अर्मज्ञी | अना. | अना. अनुभय २। ५ १-१४ असंज्ञा ६ । मन४, वच.४, औ.१, वै. आ,१ अपगत " अकषाय 4 अलेश्या m । २ १ २ संज्ञा आहा.. साकार, असंज्ञी अनुभय २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाए सत् लेश्या। गुण स्थान | पर्याप्त गुण । जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति | प्राण संज्ञा गति इन्द्रिय काय | योग वेद कषाय ज्ञान संयम | दर्शन द. भा. भव्य | सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग, |३४ अपर्याप्त ५ । ३८ । १.२,४, अपर्याप्ति ४/३२ असंज्ञा औं. मि. वै. मि. आ. मि. PE विभंग, मनः सा.,छे.. बिना यथा असंयम - अलेश्या भव्य मिश्र | अभव्य | बिना संझी| आहा. साकार, असंज्ञी अना, अना. अनुभय २. पृथिवी काय १. सामान्य-(ध. २/१,१/६०४-६०७) /३ ति. | रकें. | पृ. औ.२, का.१नपुं. कुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १] सामान्य १४४/४ मिथ्या बा.१.४ पर्याप्ति । | (सासा) बा. अप. ४ अपर्याप्ति (दे. जन्म/४) | सू.प. ४ पर्याप्ति सू. अप.४ अपर्याप्ति अशु भव्य मिथ्या | असंही आहा. साकार, अभव्य (सासा) अना. अना. दे, जन्म/४] २०० ४ ४ पर्याप्त १ । २ । । मिथ्या बा.प. पर्याप्ति सू. प. पर्याप्ति ति. एकें. पृ. | औ. न. कुमति,कुश्रुत असंयम अच्चक्षु अशु भव्य ! मिथ्या असंही आहा. साकार, - अभव्य अना. ३ अपर्याप्त १ । २ ४ मिथ्या बा.अप. अपर्याप्ति (सासा) सु. अप. (दे. जन्म/४) | ति. एकें. | पृ. औ.मि.का. नपुंकुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु का.अशु भव्य | मिथ्या | असंझी आहा. | साकार. | शु. अभव्य | (सासा) अना.. २. सत् विषयक प्ररूपणाएं दे, जन्म/४ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् भा०४-२६ स्थान ! प्राण लेश्या द्र.भा भव्य गति इन्द्रिय | काय । योग पर्याप्त / गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास कषाय संयम ज्ञान दर्शन सम्य. वेद संज्ञित्व आहा. उपयोग गुण २. बादर पृथ्वी काय-(ध.२/१,१/६०७-६०६) १ ४/३ ३१४ २ पृ. औ.२, का.न. कुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु सामान्य १ | २ | ४/४ मिथ्या बा. प.४ पर्याप्ति । सासा बा. अप., ४ अपर्याप्ति (दे. जन्म/४) अशु. भव्य मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार, अभव्य (सासा | अना, अना. ३ मिथ्या बा. प. पर्याप्ति ति. | एकें पृ. औ. नपुंकुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु अशु भव्य अभव्य | २ | २ मिथ्या असंज्ञी| आहा. साकार, अना. अना. एके। पृ. औ.मि., नपुं. कुमति,कुश्रुत असंयम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३ अपर्याप्त ११४ ल,अप. मिथ्या बा. अप., पर्याप्ति नि.अप. (सासा) ( दे. जन्म/४)। १ २ ३ २ १ १ २ | २ अचच का. अशु भव्य मिथ्या । असंही आहा. साकार, |शु. अभव्य (सासा) अना. अना. | (दे. जन्म/४) २०१ ३. सूक्ष्म पृथ्वी काय-(ध.२/१.१/६०५-६०१) १) सामान्य १ । २ । ४/४ | मिथ्या सू.प.४ पर्याप्ति सू.अप. ४ अपर्याप्ति ति. एके पृ. औ. २, नपुं. कुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु का. अशु भव्य शु. अभव्य मिथ्या असः आहा. साकार, अना. अना. का,१ पर्याप्त १ । १ । मिथ्या सू. प. पर्याप्ति ___ | ३| अपर्याप्त १ १ ४ (ल.अप.) मिथ्या सू. अप- अपर्याप्ति ३ ४ १ एक | पृ. औ.न. कुमतिकुश्रुत असंयम अचक्षु का. अशु भव्य मिथ्या असंही आहा. साकार, अभव्य अना. २ १४ २ १ १ २३ २ औ. मि., नपुं. कुमति क्रुश्रुत असंयम, अचक्षु का. अशु भव्य मिथ्या असंही आहा. साकार का शु. अभव्य अना. अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं लेश्या गुणस्थान पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति | प्राण इन्द्रिय काय | योग कषाय ज्ञान | संयम दर्शन भव्य - सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग द्रभा २ अपकायिक १ अपकायिक सामान्य-(ध.२/१.१/६०६-६१०) | ति. एक. अप. | मिथ्या बा.प.४ पर्याप्ति (सासा सू. प. "" (दे. जन्म/४) वा. अप.४ अपर्याप्ति . औ. २, नपुंकुमति,कुश्रुत असंयम, अचक्षुका का.१ शु. भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार अभव्य (सासा) । अना. अना. (दे. जन्म/8) ४ पर्याप्त १ २ । ४ मिथ्या बा. प.] पर्याप्ति सू.प. ४ १ १ | ति. एके. १ अप. १ १/४ २ १ १ औ. नपुंकुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु अशुभ १३, २ । १ १ भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार अभव्य अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २०२ ३ ति. एकें । अपर्याप्त १ २ । ४ मिथ्या बा. अप., अपर्याप्ति नि अप. (सासा) सू. अप. । (दे. जन्म/8) अप. औ. मि.,नपुंकुमति, कुश्रुत असंयम अचक्षुका .भव्य, मिथ्या | असंही आहा. साकार का. शु. अभव्य (सासा) अना. अना. (दे, जन्म/४) २. बादर अप्कायिक-(ध.२/१,१/६०६) १ २ ३ २ । ति. एके. | अप. मिथ्या बा. प.४ पर्याप्ति (सासा) बा. अप. ४ अपर्याप्ति (दै.'जन्म/४) औ.२, नपुंकुमति कुश्रुत अस यम अचच का.. भव्य.. मिया असंही आहा साकार का.१ | अभव्य (सांसा) अना, अना, (दे. जन्म/४) २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ मिथ्या बा.प. पर्याप्ति ति, | एक. ! अप. औ. न कुमति,कुश्रुत असंयम अचक्षु शु. भव्य, मिथ्या असंही आहा. साकार अभव्य अना, P ARAMM ARINDIAN lad'. w ikimedies Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ लेश्या | स्थान गुण पर्याप्त | गुण जीव अपतियामास पर्याप्ति । प्राण 18 गति | इन्द्रिय काय । योग वेद ज्ञान । संयम दर्शन भव्य । सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग ति, | एके। अप. कुमति, असंयम अचक्षु औ.मि., न. का. कुश्रुत अशु. अपर्याप्त १ ल. अप. मिथ्या बा, अप. अपर्याप्ति । निम्अप. (सासा) | (दे. जन्म/४) ३. सूक्ष्म अपकायिक का. भव्य, | मिथ्या असंही आहा. साकार, के अभव्य (सासा) अना. अना. दे. जन्म/४) * २ २ १. सामान्य १ । २ । ४/४ मिथ्या सू. प. ४ पर्याप्ति सू. अप., ४ अपर्याप्ति १ । १ असंयमअचक्षु | ति. एकें. ३ १४ २ । औ.२, नपं. कुमति, का.१ अप. अशु. 10 मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार, अना. अना. _ |२ * । पर्याप्ठ १ । | मिथ्या सू.प. पर्याप्ति | ति. एकें. अप.. न. कुमति, असंयम अचक्षु अशु. - मिथ्या | असंज्ञी आहा. साकार, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अना. २०३ | ति. एके. अप. * मिथ्या औ. मि., नपुं. का. |३ अपर्याप्त १ १ । ल. अप. | मिथ्या सु. अप.| अपर्याप्ति ३. तेज कायिक१. तेज कायिक सामान्य-(ध.२/१,११६१०) कुमति, असंयम अचक्षु कुश्रुत २ । २ । २ असंज्ञो आहा, साकार, अना.। अना. ___अशु. . _ १) ४/३ ४ | | ति. एकें. तेज. सामान्य १ । ४ । ४/४ मिथ्या | बा. प. ४ पर्याप्ति सू.प. " " बा. प.४ अपर्याप्ति औ.२, नपं का.१ * १ । १ । २ । २ भव्य, मिथ्या असंझी आहा., साकार, अना. ] अना कुमति, असंयम अचक्षु । कुश्रुत अशु. अभव्य २ । पर्याप्त १ । २ । ४ | मिथ्या | वा. प. पर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ ति, | एकें. | तेज | औ. न. कुमति, असंयम अचक्षु तेज कुश्रुत भव्य, मिथ्या | असंज्ञी/ आहा. साकार, अभव्य अना. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ सत् गुण स्थान मार्गणा विशेष | पर्याप्त | गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय | काय योग ज्ञान संयम दर्शन लेश्या | भव्य । सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग ३ ४ अपर्याप्त १ २ ४ । मिथ्या बा, अप. अपर्याप्ति सु. अप. १ । ति. एकें. | तेज | औ.मि., नपं कुमति, असंयम अचच कुश्रुत | भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा..|साकार, अभव्य अना. | अना. का. २. बादर तेजस् कायिक-(ध.२/१.१४६११) सामान्य १ २ ४ । मिथ्या बा.प.४ पर्याप्ति । बा. अप. ४अपर्याप्ति ति. | एक. तेज | औ. २, नपुंकुमति, असयम, अचक्षु का अशु. भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा., साकार, अना. अना. अभव्य २ । मिथ्या बा. प. पर्याप्ति एकें. तेज तेज औद, नपुंकुमति, असंयम अचक्षु कुश्रुत अशु. भव्य , मिथ्या असंही आहा. साकार, अना. अभव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अपर्याप्त १ १ ४ ल.अप.) मिथ्या. बा. अप. अपर्याप्ति ३ ४ १ १ १ ति, | एके. | तेज | औ, मि., नपं कुमति, असंयम अचक्षु का. अयु.. व्य, | मिथ्या असंज्ञी आहा.. साकार. अना, अना. का, अभव्य २ ३. सूक्ष्म तेजस्कायिक-(ध.२/१,११६११) सामान्य १ २ ४ मिथ्या | सू. प. | ४ पर्याप्ति । सू. अप. ४ अपर्याप्ति ४/३ ४ ति. एकें. | तेज औ.२,न का.१ १ कुमति, असं यम. अचक्षु कुश्रुत अशु.. २ १ १ २ । २ भव्य, मिथ्या. संज्ञी आहा., साकार, अभव्य अना. अना. २ पर्याप्त मिथ्या सू.प.] पर्याप्ति ति. | एक. तेज औ. नपुंकुमति, असंयम अचक्षु अशु. - भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार, अभव्य अना. अपर्याप्त १ | १ ४ ल. अप. मिथ्या सू.अप. अपर्याप्ति ३ ४ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ ति. कुमति, बसंयम अचक्षु एके. | तेज | औ.मि., नपुं का. अशु. ७ भव्य. कुश्रुत मिथ्या असंज्ञी आहा.. साकार, अना. अना. अभव्य Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् पर्याप्त गुण । जीव पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान समास | लेश्या द. भा. भव्य | सम्य, गति इन्द्रिय | काय - प्राण योग वेद ज्ञान | संयम | दर्शन संज्ञित्व आहा. उपयोग ४. वायुकायिक१. वायु कायिक सामान्य१] सामान्य १ ४ ४/४ । मिथ्या बा. प. ४ पर्याप्ति । ४ । ति. एकें. | वायु. औ.२, का.१ नपुं. कुमति, असंयम अचक्षुका कुश्रुत भव्यमिथ्या असंज्ञी आहा. साकार, | अना, अना. बा. अप. ४ अपर्याप्ति || सू. अप... । २ पर्याप्त १ २ ४ | मिथ्या बा, प. पर्याप्ति सू. प. ति. | एकें. | वायु. औद. न. कुमति, असंयम अचक्षु कुश्रुत | अशु. | मिथ्या | असंज्ञी आहा. साकार, अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २०५ २०५ ३ अपर्याप्त १ २ मिथ्या बा. अप. अपर्याप्ति सू. अप. ति. | एक. वायु. औ, मि.,नपुंकुमति, असंयम अचच का. अशु. . भव्य, मिथ्या | असंही आहा. साकार, अना. | अना, का. २ । |२. बादर वायु कायिक|१| सामान्य १ । २ । ४/४ मिथ्या बा. प.४ पर्याप्ति | बा. अप, ४ अपर्याप्ति | | ति. | एके. वायु. औ.२, का.१ नपुं. असंयम अचक्षु का. कुमति, कुश्रुत अशु. १ । १ । २ । २ मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार, अना. | अना. अभव्य ४ ४१ २ पर्याप्त ११ ४ मिथ्या बा, प. पर्याप्ति एकें | वायु. औद. ल. कुमति, असंयम, अचक्षु गो अशु. मिथ्या असंज्ञा आहा. साकार, अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ मान्य Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं मार्गणा विशेष पर्याप्त गुण | जीव । पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान | समास लेश्या गुण स्थान प्राण ज गति | इन्द्रिय काय | योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य | सम्य, संज्ञित्व आहा. | उपयोग ३ २३ अपर्याप्त १ १ । ४ (ल.अप.) मिथ्या बा. अप. अपर्याप्ति ति. एके. वायु. औ. मि., नपुंकुमति, असंयम अचक्षु का., भव्य, | मिथ्या अभव्य] संज्ञी | आहा, साकार. अना. अना. का. ३. सूक्ष्म वायुकायिक-(ध.२/१.१/६११) | सामान्य १ २ । ४/४ मिथ्या सू. प. | ४ पर्याप्ति सू. अप.| ४ अपर्याप्ति . fu ४ । ति. एके. वायु. औ.२, का.१ नपं. कुमति, असंयम अचक्षु ४ ३ का भव्य, मिथ्या, असंही आहा.. साकार, अभव्य अना. अना.. पर्याप्त १. १ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सू. प. पर्याप्ति ति. | एक. आ. वायु.। नपं कुमति, . असंयम अचक्षुका कुश्रुत भव्य, मिथ्या, असंज्ञी/ आहा. साकार, अभव्य अना. ३ | २ | २ अपर्याप्त १ १ (ल.अप.) मिथ्या सू. अप. अपर्याप्ति एक. वायु. औ. मि., का, । भव्य, कुमति, असंयम अचक्षु कुश्रुता अशु. मिथ्या. असंज्ञी आहा. साकार. अना. अना. । अभव्य ५. वनस्पति काय१. वनस्पति सामान्य-(ध. २/१,१/६१२-६१४) संकेत- साधा. - साधारण प्रत्ये. - प्रत्येक : प्रति. अतिष्ठित ; अप्रति अप्रतिष्ठित १। ति, | . बन. औ.२, का.न. कुमति, असंयम अचक्षु सामान्य। १ । १२ । ४/४। मिथ्या साध.८४ पर्याप्ति सासा.) प्रत्ये.४४ अपर्याप्ति (दे.जन्म/४) भव्य | मिथ्या असंझी, आहा., साकार. ल अभव्य (सासा.) . अना, अना. (दे.जन्म/४) २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गमा विशेष or |गुणस्थान | पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्त १ मिथ्या साधा. ४ प्रत्ये. २ अपर्याप्त १ ६ ४/४ मिथ्या साधा. ४ ४ पर्याप्ति नि. अप (सा.) प्र४ अपर्याप्त (दे. जन्म / ४) १ ४ मिष्या २.प. (( सासा) अन प ((दे. जन्म ( ४ ) पर्याप्त पर्याप्त १ मिथ्या प्र. प. अप्र. प. ४/४ ४ पर्याप्ति ४ अपर्याप्त २. प्रत्येक वनस्पति प्रति अप्रति - ( ध २/१, १/६१४ - ६१६ ) सामान्य ** ४/३ 99 प. अप. ४ अपर्याप्त अन, अप" " २ ४ पर्याज्ञि सामान्य १ बा. सू. मिथ्या २ ४ अपर्याप्त १ मिथ्या प्र अप अपर्याप्त नि, अप: (सासा) अप्र. अप ( दे, जन्म (४) ८ ४ प. ४ अप. प्राण ४ 30 pr ३ साधारण वनस्पति सामान्य - ( घ. २ / ११ / ६१७-६२१ ) १ ४/४ ४ पर्या ४ अप. ४ ४/३ 30 m ४ ३ संज्ञा ४ 20 oc ४ ४ ४ ४ गति | इन्द्रिय काय १ ति. एक or d ति. al ~ १ A or or to १ २ १४ ति. एकें. बन. ओ. मि. का. नपुं. १ एकें. or १ बन, एक. १ एक. योग or १ श्री. १ बन. २० प्ररूपणाएँ वेद कषाय a १ ४ १ औद संकेत प्र प्रतिष्ठित प्रत्येक अत्र अति प्रत्येक - - 149.1 १ ३ बन, औ. २, का, १ नपुं. १ ४ १ नपं ४ १ बन. औ मि. १ न का, १ १ ४ ज्ञान २ कुमति, २ कुमति, د कुश्रुत 비 २ कुमति, २ कुमति, संयम कुश्रुत १ १ असंयम अचक्षु 1. १ असंयम १ असंयम दर्शन १ १ असंयम अचक्षु २ १ कुमति, असंयम कुश्रुत संकेत - नि. नित्य निगोद; च = चतुर्गतिनिगोद। १ १ ४ ३ बन औ. २ का १ नपुं. १ अचक्षु १ अप अचक्षु १ अचक्षु २ १ कुमति, असंयम अचक्षु कु. श्रुत लेश्या द्र, भा. का. शु. २ ३ २ अशु का. शु. अशु m.fale भव्य अशु २ भव्य, अभव्य अशु. २ ३ २ १ २ २ भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा, साकार, अभव्य अना, अना २ २ १ भव्य, मिथ्या अभव्य भव्य, अभव्य सम्य १ १ १ २ मिथ्या असंज्ञी आहा साकार, अना. २ भव्य, अभव्य १ मिथ्या १ भव्य, मिथ्या अभव्य संझिन आहा उपयोग १ मिथ्या २ २ असंज्ञी आहा साकार, अना, अना. १ १ २ असंज्ञी आहा, साकार, अना. १ २ २ असंज्ञी आहा साकार, अना, अना. १ २ २ असंज्ञी आहा साकार, अना, अना सत् २०७ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं सत् मार्गणा विशेष । | पर्याप्त | गुग | जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति । प्राण गति | इन्द्रिय काय | योग ज्ञान | संयम लेश्या - भव्य दर्शन सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग | | पर्याप्त । १ । (मा.सू.) मिथ्या पर्याप्ति ओद, नपं भव्य, कुमति, असंयम अचक्षु कुशृत। मिथ्या | असंझी आहा.साकार, अना, अभव्य ४ अपर्याप्त १ मा.सू. मिथ्या. ४ अपर्याप्ति ३ ४१ ति. | एके मन. औ. मि., नपुं. का.१ कुमति, असंथम अचक्षु कुश्रुत का भव्य, | मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार, अभव्य अना. | अना. १] बा. सामान्य मिथ्या | नि.प.४ पर्याप्ति | एकें बन. औ.२, का.न. कुमति. असंयम अचक्षु कुश्रुत | भव्य, मिथ्या असंशी आहा.साकार. अभव्य | अना. | अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश नि. अप, ४ अपर्याप्ति च, अप.. " २०८ । बा. ति, | एकें | नन. | औद. नपुं. पर्याप्त | मिथ्या नि.प. पर्याप्ति नि. अप. कुमति, असंयम अचक्षु कुश्रुत भव्य, मिथ्या | असंशी आहा. साकार, अभव्य अना. २ ३ १ अचक्षु । ति. - एक | मन, औ. मि.,न अपर्याप्त मिथ्या नि.अप. अपर्याप्ति च. अप. कुमति, कुश्रुत असंयम २ । | मिथ्या | असंही आहा. साकार, अभव्य अना. | अना. शु. | एकें | बन. औ.२, का./नपुं. कुमति, कुश्रुत असंघम सामान्य मिथ्या नि.प. ४ पर्याप्ति च.. ." नि.अप. ४ अपर्याप्ति अचक्षु का शु. भव्य, अभव्य मिथ्या | असंशी आहा., साकार, अना. अनाकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएं ३ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ भा०४-२७ लेश्या मार्गणा विशेष । | पर्याप्त गुण | जीव | अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति प्राण संज्ञा गति | इन्द्रिय काय | योग | गुण स्थान ज्ञान संयम | दर्शन कषाय भव्य | सम्य. | संज्ञित्व आहा. उपयोग वेद द्र. भा. म.पर्याप्त १ । २ । | मिथ्या नि.प. पर्याप्ति | नन. | औद, नपुं. कुमति, असंयम अशु. | असंज्ञी आहा. साकार, अनाकार कुश्रुत | ति. | एकें. | बन. | औ. मि., नपुं. का. कुमति, असंयम अचक्षु । का. अशु. - कुश्रुत भव्य, | मिथ्या | असंज्ञी| आहा. साकार, अना. अनाकार अपर्याप्त मिथ्या नि.अप. अपर्याप्ति च. अप. चतुर्गति व नित्य निगोद साधारण बा.सू.प. - → सर्वत्र बादर व सूक्ष्म साधारण मनस्पतिवत् - - | अप जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २०९ २. ल. अप. १ । १ । ४ । | मिथ्या | अप. | अपर्याप्ति ३ ४ १ | १ | १ | २ १४ | ति. | एकें. | मन. | औ. मि.. नपुं. २ कुमति, १ । १ असंयम अचक्षु ।२/३ | १ १ । २ । २ का. भव्य, मिथ्या | असंही आहा..साकार, अना. अनाकार ६. त्रस कायिक-(ध.२/१,१/६२१-६२८) १. सामान्य) १-१४ । १० । / १०/७; 8/७:४ ४ ४ १ _ अलेश्य .._ अशु. 0 ६ ६ द्वी त्री. असंज्ञा ] २ । २ । २ । | संझी, आहा., साकार, असंझी अना. अनाकार अनुभय युगपत् । | अयोग चतु. । ६ पर्याप्ति ८/६; १५ असं,सं. प.,अप. ५ अपर्याप्ति /४; अपगत अकषाय लिअभव्य द्वी.त्री. उस चतु.पं. ४/२:१ २ पर्याप्त १-१४ असंज्ञा ५ ६/५ | १०,६,८७,४| ४ द्वी.त्री. ६ पर्याप्ति ६४.१ । | ४ - १ द्वीत्री. समन४,वच,४, औ.२, का.१ अयोग अकषाय द ] भव्य. लअभव्य संज्ञी | आहा. साकार, असंज्ञी अनाकार अनुभय युगपत् २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ प.अप. ५ पर्याप्ति Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष । २० प्ररूपणार संत लेश्या गुण स्थान पर्याप्त | गुण | जीव . पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान | समास | प्राण गति | इन्द्रिय काय योग कषाय ज्ञान संयम | दर्शन भव्य - सम्य. संझिस्व आहा. उपयोग असंज्ञा द्वी. त्री. बस औ. मि.. वै. मि., आ.मि.,का. अकषाय अपर्याप्त ५ ५ । ६५ ७,७.६.१०४ १,२,४ द्वी. त्रि. ६पर्याप्ति | ४,२ ६.१३ | चतु.५अपर्याप्ति | सं.अस) अप. ४ द्वोत्री.. चतु., संज्ञि, असंज्ञिके सर्व आलाप - - भव्य, अभव्य विभंग, मन:सा., छे. मिना | यथा, असंयम मिश्र संज्ञी आहा.. साकार. बिना असंही अना. अनाकार अनुभय युगपत् । 6. - ४ ५१ सामान्य १ । १० । ६/५ १०/६/७/४ | मिथ्या द्वी. त्री. ६पर्याप्ति 14/६७५] | चतुं. अपर्याप्ति | ६/४ | सं.असं (प.अप. ४ द्वी. जी. चतु.पं | → दे. पीछे इन्द्रिय मार्गणा सम्बन्धी सर्व आलाप - ___ १ | १३ |३|४| ३ १ । २ ६६ २ । । २ । २ । २ स आहा. द्वि. अज्ञान असंयमाचक्षु., अचच । भव्य, मिथ्या संज्ञो आहा., साकार, अभव्य असंझी अना. अनाकार मिना जनेन्द्र सिद्धान्त कोश ६ मनच. ३ २ असंयम चक्षु., अचच अज्ञान द्वी. वी. त्रस मन४,५च.४, चतु.पं. औ. १, वै. अज्ञान असंयमाचा मिथ्या द्वी.त्री. ६ पर्याप्ति ६ चतु. ५ अपर्याप्ति सं.असं. २ । भव्य, अभव्य संज्ञी | आहा. साकार, असंज्ञी अनाकार ४ ४ ३ ४ ४ १ द्वी. त्री, त्रस 1७१ अपर्याप्त १ ५ ६ ५ ७,७.६५ | मिथ्या द्वी.त्री ६पर्याप्ति | | चतु. ५अपर्याप्ति सं.असं. । ३ औ. मि., वै. मि.,का. ३ । कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु.. अचचका. १ २ २२ भव्य, मिथ्या. | संज्ञी आहा.- साकार, अभव्य असंज्ञो | अना. अनाकार शु.. अप. 8- सामान्य प. अप.] - → मूल ओघवद - - - - - - मिथ्या द्वो. त्री.अपर्याप्ति | चतु. ५ अपर्याप्ति कमति.कश्रुत असंयम चक्षु., अचक्षुका. द्वी. त्री.] त्रस | औ. मि, नपं. का. अशु. 1 | २ | २ | २ भव्य, मिल्या. | संशी आहा., साकार, अभव्य असंज्ञी अना. अनाकार चतु. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ सं.अस.. अप. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ गुण स्थान पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति ७. अकायिक-(घ २/१,१,४६२७) | अतीत सामान्य अतीत अतीत, अतीत । अतीत गुण | जीव. पर्याप्ति । प्राण समास अतीत अतीत | अतोत अयोग गति इन्द्रिय काय अतीत अना. संझी अपगतवेद अकषाय क्षीण संज्ञा केवल ज्ञान अतीत केवल दर्शन लल भव्या संयम साकार, भव्य असंज्ञी अनाकार युगपत् ४. योगमार्गणा१. मनोयोग--- १. मनोयोग सामान्य-(ध. २/१,१/६२६-६३४ ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १० सामान्य १-१३१ । | (पर्याप्त सं. प. पर्याप्ति ही) त्रस | मनोयोग भव्य, अपगत वेद अकषाय अभव्य __असंज्ञा |संज्ञी, आहा. साकार, अनुभय अनाकार युगपत |२|१सामान्य ११ ६ (पर्याप्त मिथ्या सं.प. पर्याप्ति पं. त्रस | मनो. अज्ञान असंयम चक्षु., अचक्षु भव्य, मिथ्या संशी ! आहा. साकार, अभव्या अनाकार |३| २ सामान्य १ १ . (पर्याप्त सासा सं.प. पर्याप्ति . त्रस । अज्ञान असंयमाचक्षु., अचश्च भव्य | सासा. संशी आहा. साकार, अनाकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ |४|३ सामान्य १ । १ । ( पर्याप्त मिश्र | सं. प. पर्याप्ति मनो. त्रस ज्ञानाज्ञान | असंयन/चक्षु . अचक्षु भव्य २ संशोआहा. साकार, अनाकार मिश्र Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं 44. गुण स्थान गुण जीव | स्थान | समास पर्याप्ति | प्राण . . . संज्ञा गति | इन्द्रिय काय | योग ज्ञान | संयम | दर्शन लेश्या द. भा. भव्य | सम्य संज्ञित्व आहा. उपयोग ५४ सामान्य १ । १६ (पर्याप्त अवि सं.प. पर्याप्ति पं. - त्रस | मनोयोग औ.,क्षा.:| संज्ञी आहा. साकार, |मति, श्रुत, असंयमचक्षु, अचक्षु, । | भव्य अवधि अवधि क्षयो. अना. ४ २ ६५ सामान्य १ । १६ (पर्याप्त ५ वाँ | सं. प. पर्याप्ति ही) पं. - त्रस | मनोयोग |मति, श्रुत, देश सं. चक्षु, अचक्षु, अवधि अवधि शुभ भव्य | औ., क्षा.. संज्ञी | आहा. साकार. क्षयो. अना. १० ४ १ |७६ सामान्य १ । १ ६ (पर्याप्त प्रमत्त | सं.प. पर्याप्ति | पं. - त्रस | मनोयोग मति, श्रुत, सा., द्वे, चक्षु, अचक्षु अव., मनः| परि. | अवधि शुभ भव्य | औ..क्षा, संज्ञी | आहा. साकार.. क्षयो. अना. _ जैमेन्द्र सिद्धान्त कोश ___ २१२ ८ । ४ सामान्य ६ - १ (पर्याप्त ७-१२ | सं. प. पर्याप्ति यथा योग्य मूल ओघवत् मनोयोग संज्ञी आहा. साकार, अना. || १३|सामान्य १ । १ । ६ | (पर्याप्त सयोग | सं.प. पर्याप्ति मनु. | पं. | त्रस | केवलज्ञान | यथा केवल दर्शन। अपगत ० अकषाय ० __ असंज्ञा • शुभ भव्य क्षा. सत्य. अनुभय ० । १ । २ अनुभय आहा. साकार. अना. युगपद १. मनोयोग विशेष-(ध.२/१,१/६३३.६३४) सं. प. पर्याप्ति मनो पर्याप्त हो असंज्ञा पं. त्रस | सत्यमन अपगत अकषाय भव्य, अभव्य संशी आहा. साकार, अनुभय अनाकार -युगपद २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ - -मूलोधवत् - - सत्यमन - - मूलोधवत - - → Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष क m 20 गुण स्थान M 11 अपर्याप्त स्थान समास 116 # y DE WE (पर्याप्त ) १-१२ सं. प. जीव 1 १२ " 1 1 '' २. वचन योग - (ध. २ / ११ / ६३४-६३६) सामान्य] १३ ५ ( पर्याप्त १-१३ द्वी, त्री. हो) चतु. सं. असं. प. पर्याप्ति प्राण मिथ्या द्वी.. MU पर्याप्ति ↑ ↑ ↑ ६/५ ६/५ १० मूलोघवत् मूलोघबत् मूलोधवृद ६,७,८,९,१० १०,६,८,७,६ संज्ञा असंज्ञ ↑ असंज्ञा 30 गति इन्द्रिय काय 20 ४ I 1 I २० 1 20 A. 1 1 | 20 30 8 एक. ∞ १ त्रस मृषामन 1 1 1 2 当 योग - मृषामनो सत्यमृषा असत्यमृषा 20 २० प्ररूपणाएँ 30 to h कषाय 20 अपगत अकषाय I 1 Y 1 T अपगत अकषाय 20 ज्ञान केवल बिना = I ' ८ m अज्ञान सयम ७ दशन ↑ चक्षु, अचक्षु, अवधि → मुलाघवत् → मूलोघवत् मूलोधवत् ← ४ 20 लेश्या द्र. भा. २ असंयम चक्षु, अचक्षु ↑ ↓ out "w A 1 भव्य W 11 अलेश्य - ६ ६ २ 1 -- भव्य, "ल अभव्य भव्य, अभव्य | सम्य, संज्ञित्व आहा उपयोग "" 1 1 Mo १ मिथ्या 8 १ २ सशा आहा. साकार, अनाकार 1 1 | 1 1 1 1 1 r २ संज्ञी, आहा साकार १ आहा. साकार, マ सत् २१३ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं तत गुण स्थान पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति | लेश्या । भव्य | सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग प्राण संज्ञा गति इन्द्रिय काय | योग ज्ञान संयम दर्शन भा . ३. →मनोयो गी वत् → मनोयोगी बद सामान्य १२ । (पर्याप्त २-१२ वचन योग - →मनोयोगी वत →मनोयोगी बत सत्य अनुभय - सत्य मनो योगी वत् - - सत्यमनोयोगी वव- - वचन सत्य वचन __ -- →मृषा मनो योगी वत् - - | मृषा मनोयोगी वत- - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश वचन मृषा वचन २१४ →उभय मनोयोगीव- - → उभय मनोयोगी बव उभय वचन उभय वचन ॥ → अनुभय मनोयोगी वत - - अनुभय वच. अनुभय अनुभय मनोयोगी वात - - | वचन ३. काय योग १. काय योग सामान्य-(घ. २/१,१४६३७-६४६) । | काय . अपगत अकषाय ० भव्य, अभव्य संज्ञी | आहा.साकार असंही अना. | अना. सामान्य १३ । १४ । ६,५४ १०/७१/ ७४|४ ५ पर्याप्ति८/६७/ अपर्याप्ति / / ४२ पर्याप्त १३ ७ ९. ४ १०,६,८७४४ ५ १-१३ | प. पर्याप्ति ६,४,४ । २१ ६ असंज्ञा | २१ । २ | संज्ञी | आहा. साकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएं औ वै.आ. अकषाय अपगत भव्य, अभव्य Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं सत मार्गणा विशेष पर्याप्त गुण | जीव || पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान | समास | लेश्या। गुण स्थान प्राण संज्ञा इन्द्रिय काय | योग कषाय ज्ञान | संयम | दर्शन भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग द्र.भा. ३ अपर्याप्त ४] ४ ५ । ५ १,२,४ ७ | अप. | अपर्यापि ५,४,३,२ असंज्ञा का. औ.मि., वै. मि., आ. मि. अपगत अकषाय विभंग व सा.,छे. मनः निना | यथा, असंयम भव्य, अभव्य मिश्र संज्ञी आहा. साकार बिना असंही| अना. अना. अनुभय यु गपत। |४|१सामान्य १ । १४ । मिथ्याः|७ प. पर्याप्ति ७ अप. अपर्याप्ति । ६७/ ६/४:४/३ औ. २, वै.२ का.१ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य, मिथ्या संज्ञी | आहा म संज्ञी आहा. साकार अभव्य असंज्ञी अना. अना.। ५१ पर्याप्त १ । ७ । मिथ्या प. औ.१, वै. अज्ञान असंयम चक्षु, अचश्च का.१ | संज्ञी | आहा. साकार असंज्ञी अना. अना.] अभव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २१९ ६ ५ ६ । ३/४ अपर्याप्त १ ७ । ६.५४ ७,७,६,०४४ मिथ्या अप. अपर्याप्त 1४,३ ३ औ.मि., वै. मि. का. २ कुमति, १ २ २६१ । १ असंयम चक्षु, अचक्षु का. भव्य, मिथ्या संज्ञी | आहा. साकार शु. । अभव्य असंही | अना. अना. ७/२सामान्य १ २ ६६ । सासा सं. प. ६ पर्याप्ति सं.अप.६ अपर्याप्ति पं. | स औ.२.वै.२ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु | संज्ञी | आहा. साकार अभव्य ८२ पर्याप्त १ । १ । सासा सं. प. पर्याप्ति पं. | त्रस | औ..वै. अज्ञान असंयम चक्षु, अवश्च भव्य, सासा संशी आहा. साकार | |२ अपर्याप्त| १ | सासा सं. अप. अपर्याप्ति कुमति, नरक रहित असंयम चक्षु, अचक्षुका. भव्य, भव्य, सासा संज्ञी | आहा. साकार त्रस | औ. मि., वै. मिः, का. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् लेश्या tha पर्याप्त गुण । जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय काय संज्ञा योग । कषाय ज्ञान संयम दर्शन । भव्य | सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग पर्याप्त मिश्र सं.प.] पर्याप्ति त्रस | औ.वै. | भव्य मिश्र ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचच मिश्र संज्ञी । आहा. साकार अना... ११ ४ सामान्य १ २ ६ ०७४ ४ ११ अवि. सं.प. ६ पर्याप्ति १० पं. स सं. अप.६ अपर्याप्त औ.२, वै.२ का.. मति, श्रुत. असंयम चक्षु.. अचश्नु । अवधि अवधि भव्य | औ.,क्षा. संशी आहा. साकार क्षयो. अना. अना | अवि. सं.प. पर्याप्ति त्रस | औ.,बै. | मति, भूत. असंयम चच..अचच अवधि भव्य औ. क्षा, संज्ञी आहा. साकार क्षयो. अना. अवधि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २१६ १३ १४ अपर्याप्त १ । १ । अवि. सं. अप. अपर्याप्ति पं. | वस औ.मि.वै. | मि., का. मति, श्रुत. असंयम चक्षु..अचच का. अवधि अवधि भव्य | ओ.,क्षा. संधी | आहा. साकार। क्षयो. अना. अना. १४ | पर्याप्त वा ४) २ ति. - पं. सं.प. पर्याप्ति त्रस औ. | मति., श्रत. देशसं. चक्षु., अचक्षु अवधि अवधि शुभ भव्य | औ..क्षा. 1.संधी क्षयो. आहा. साकार | अना. // ९५६ सामान्य १ २ ६ । १०/ (पर्याप्त प्रमत्त सं. प.६ पर्याप्ति १० सं.अप.६अपर्याप्ति ७ मनु पं. स औ.१, आ.२० मति.,श्रुत. सा., छे. चक्षु., अचनु अव., मनः | परि, अवधि शुभ भव्य | औ. क्षा. 'संशी क्षयो. आहा. . अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० ४-२८ मार्गणा विशेष 4. गुण स्थान MA 2 y जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश r の 32 11 अपर्याप्त स्थान 20 120 ८- सामान्य ५ ( पर्याप्त ८-१२ हा) 4. औदारिक काययोग १३ १-१३ सामान्य १ १/२ पर्याप्त ही f ही १ स. प. १ पर्याप्त सामा ༣ पर्याप्त मिथ्या प. A G D पर्याप्ति प्राण DV - अप. अपर्याप्त पर्याप्ति → मूलोधवत् -11 ६,५,४ पर्याप्ति ६. ५, ४ पर्याप्ति १० पर्याप्ति 20. ४ १०,६,८,७, ६, ४ १०.६.८.७, ६. ४ १० संज्ञा 5 गति इन्द्रिय काय योग له 1 . रहित असंज्ञा असंज्ञा oc ०८ 1 २ पं. 1 4. ী a t ་ 1 ~ 和 ود २० प्ररूपणाए 和 लं M वेद कषाय m 40 अवेद अकषाय ४ لله ० अरगत अकषाय m 20 20 ज्ञान 8 २ केवल बिना सा., छे. परि 1 संयम दर्शन U → मूलौघवत् चक्षु. अचक्षु ६ ३ अवधि の १ यथा केवल दर्शन | 20 लेश्या द. भा. भव्य १ अज्ञान असंयम चक्षु. अचक्षु १ २ अज्ञान असंयम चक्षु अचक्षु १ शुभ भव्य ← ६ 1 १ १ शु. भव्य " २ भव्य अभव्य r सम्य संज्ञित्व आहा. उपयोग w Y औ. क्षा. क्षया. 1. १ क्षा. له १ १ सज्ञा आहा, 1 1. I २ १ संज्ञी आहा असंज्ञी | अनुभय २ अनुभय आहा, साकार अना. -8 भव्य मिथ्या संज्ञी आहा. अभव्य असंज्ञी १ भव्य सासा संज्ञी अहा, W 1 131 air साकार د सत् २१७ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं स्थान म. पर्याप्त | गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्त प्राण संज्ञा इन्द्रिय काय -भव्य | सम्य, संशित्व आहा, उपयोग पर्याप्त | मिश्रः | सं. प. पर्याप्ति .. २ ६६१ ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु., अचक्षु । भव्य | मिश्र, संज्ञी आहा. साकार अना, . पर्याप्त अवि.सं.१. पर्याप्ति पं: भव्य मति, श्रुत. असंयम चक्षु., अचक्षु, अव. अवधि औ. क्षा. संज्ञी आहा. साकार, | अना. - → काययोग सामान्य वत- - । - → काययोग सामान्य वत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २१८ . पर्याप्त अयो. सं. प. पर्याप्ति असंज्ञा पं. त्रस अवेद अकषाय " केवल यथा. | केवल भव्य अनुभय आहा. साकार अना. युगपत् | |३. औदारिक मिश्र काययोग-(ध. २/१,१/६५३-६६१) अपर्याप्त, १.२ | अप. | अपर्याप्ति । ४,३.२ असंज्ञा मनु. । औ. मि. | अपगत विभंग, मनः असंयमा चक्षुरहितका. बिना यथा. दे. दर्शन/७/३ । भव्य, मि., सा. | संझी आहा. साकार अभव्य | क्षा, क्षयो. असंज्ञी अना. अनुभय यु गपत् || . २ १२ अपर्याप्त मिथ्या अप. | अपर्याप्ति १,४३ औ. मि, | २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ कुमति, असंयम अचक्षु का. मिथ्या संज्ञी आहा. साकार असंज्ञी भव्य अभब्य अना. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष । २० प्ररूपणाएं लेश्या गुण स्थान पर्याप्त अपर्याप्त गुण जीव स्थान | समास पर्याप्ति प्राण संज्ञा गति | इन्द्रिय | काय | योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य | सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग द्र. |३| ४ अपर्याप्ठ सासा सं. अप. अपर्याप्ति २ कुमति,कुश्रुतं असंयम अचच पं. त्रस औ. मि, का. अशु. 10 भव्य | संज्ञो आहा. साकार अना. |४|४ । ४] S अपर्याप्त अवि. सं. अप. अप. बस औ. मि. का.. कुमति, कुश्रुत असंयम अचक्षु अबधि अवधि भव्य क्षा. क्षयो, । संज्ञा आहा. साकार अना. १ । २या ४ | अपर्याप्त सयो. सं. अप. अपर्याप्ति (दे. केवली) असंज्ञा पं. वस | औ. मि. अपगत . अकषाय केवल यथा, केवल. का. शु. भव्य क्षा. अनुभय आहा. साकार अना. युगपत् जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ~ ४ बैंक्रियक काययोग-(ध.२/१.१/६६१-६६४) ___२१९ | पर्याप्त १-४ सं.प. पर्याप्ति ३ ज्ञान असंयम चक्षु, अचच ३अज्ञान अवधि भव्य, अभव्य १ संज्ञा आहा. साकार अना. ~ - पर्याप्त मिथ्या सं.प. पर्याप्ति अज्ञान असंयम चक्षु. अचक्षु । : । भव्य, मिथ्या संज्ञी। आहा. साकार अभव्य अना. ३२ पर्याप्त सासा | सं. प. पर्याप्ति अज्ञान असंयमचक्षु, अचक्षु भव्य । सासा | संज्ञी| आहा. साकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएं पर्याप्त मिश्र | सं.प., पर्याप्ति ज्ञानाज्ञान |असंयम चक्षु. अचक्षु | भव्य मिश्र | संज्ञी आहा. साकार Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं लेश्या स्थान पर्याप्त | गुण पयाप्त प्राण संज्ञा ॐ गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान सयम दशन भव्य | सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग गुण अपय स्थान ० ४॥ पर्याप्त अवि. सं. प. पर्याप्ति नरक पं. - त्रस मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचक्षु । अवधि अवधि भव्य | औ., क्षा. संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अना. . ५. वैक्रियिक मिश्र काययोग -(ध.२/१,१/६६४-६६६) अपर्याप्त १,२,४ सं. अप, अपर्याप्ति वस- वै.मि. ३ ज्ञान ,कुमति असंयम अचक्षु अवधि भव्य, मिश्र | संज्ञी आहा. साकार अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २२० अपर्याप्त | मिथ्या सं. अप. अपर्याप्ति पं. | त्रस | वै.मि. कुमति, असंयम अचक्षु का. भव्य. | मिथ्या. संझी | आहा. साकार अना. ४ १ १ २ त्रस | वै. मि. स्त्री अपर्याप्त सासा. सं. अप. अपर्याप्ति | पं. २ कुमति, . असंयम अचक्षुका कुश्रुत भव्य । सासा. संज्ञी | आहा. | साकार अना, | ७ |४|| २ अपर्याप्त अवि. सं. अप. अपर्याप्ति त्रस - वै. मि. का. का. भव्य मति, श्रुत. असंयम अवधि अचक्षु अवधि औ.,क्षा. | संज्ञी | आहा. साकार अना. क्षयो. ६. आहारक काययोग-(ध. २१,१८६६७) २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ पर्याप्त प्रमत्त सं.प. पर्याप्ति पं. त्रस | आहा. पु. मति, श्रुत. सा., छे. चक्षु, जचक्षु| शु. शुभ भव्य अवधि अवधि क्षा.,क्षयो.संझी | आहा. | साकार अना. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं सत् लेश्या स्थान | पर्याप्त गुण - जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय | काय योग कषाय ज्ञान | संयम | दर्शन भा. भव्य । सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग। ७. आहारक मिश्र काययोग-(ध.२/१,१/६६८) अपर्याप्त प्रमत्त सं. अप. अपर्याप्ति मनु पं. वस | आ. मि. पु. मति, श्रुत सा., छे. चक्षु, अचक्षु, का. शुभ भव्य क्षा., क्षयो. संशी | आहा. साकार अवधि अवधि -अना. ८. कार्मण काययोग ४ अप. अपर्याप्ति | ५४,३,२ कामण विभंग, मनः असंयम चक्षु बिना । शु. बिना यथा. | दे. दर्शन/ सर्व अना, | भव्य, | मिश्र बिना संज्ञी अना. साकार अभव्य असंही अनुभय, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २२१ अपर्याप्तः मिथ्या अॅप. अपर्याप्ति | ४,३ कामण कुमति, असंयमअचक्षु शु.. PLE, अकषाय भव्य, मिथ्या सं.असं. अना. साकार अभव्य अना. . 1३/२ अपर्याप्त सासा सं. अप. अपर्याप्ति त्रस। कामण कुमति, असंयम. अचक्षु शु.] भव्य | सासा | संही अना, साकार नरक रहित अना. . ४| ४| अपर्याप्त | अवि. सं. अप. अपर्याप्ति त्रस | कार्मण 64.. शु. भव्य मति, श्रुत, असंयम अवधि अचक्षु अवधि और क्षा. संशी | अना. साकार. अना. असंज्ञा अपर्याप्त सयो. सं. अप. अपर्याप्ति अपगत ० अकषाय . त्रस । कामण २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ केवल | यथा. केवल शु. शु. भव्य । क्षा. अनुभय, अना, साकार, अना. युगपत् Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं सत् मार्गणा विशेष पर्याप्त | गुण जीव अपर्याप्त स्थान | समास ६५. पर्याप्ति प्राण के गति इन्द्रिय काय योग लेश्या - भव्य वेद कषाय ज्ञान दर्शन संयम सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग ५. वेदभार्गणा१. स्त्री वेद-(ध. २११,१४६७३-६८४) - (सामान्या १४ । ६५ । 1१-१ सं. प. ६ पर्या, पं. । त्रस | आ. द्वि, स्त्री बिना | केवल, मनः असंयम चक्षु, अचक्षु | बिना देश सं. अवधि भव्य, अभव्य संज्ञी | आहा.. साकार असंज्ञी अना. अना. ६अप. सं. अप. असं. . अप. २ पर्याप्त १ २ ६५ १-१ | सं. प.६ पर्याप्ति असं. प.५ " नरक | पं. | बस मन ४, वच.४स्त्री रहित औ. १, बै. | | केवल, मन: असंयम चक्षु, अचच | बिना देश सं.] अवधि भव्य, अभव्य संज्ञी | आहा.. साकार, असज्ञो | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २२२ ३ | अपर्याप्त | २ १,२ | २ | ६/५ सं.अ. ६ अपर्याप्ति नरक कुमति,कुश्रुअसंयम चश्नु, अचच. का. २ भव्य | मिथ्या अभव्य सासा । २ । २ । २ संज्ञी आहा. | साकार, असंझी अना, | अना.. अस. पं. | त्रस औ. मि., स्त्री वै. मि. का. . । स्त्री अज्ञान असंयम चक्षु, अचच |४|१ सामान्य १ ४ ६/५ मिथ्या सं.प६पर्या. असं. प. ५ , सं.अप. ६ अप. नरक | पं. | रहित स । आ.द्वि. रहित भव्य | मिथ्या | संज्ञी आहा. | साकार. अभव्य असंज्ञो अना. | अना. ....., असं. अप. ५१ / पर्याप्त | १ | २ | ६/५ मिथ्या संप.६ पर्याप्ति असं, प.५ " २. सत् विषयक प्ररूपणाएं नरक | पं. | उस मन ४, वच.४ स्त्री औ.१, वै, | अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु । भव्य | मिध्या. | संज्ञी आहा., साकार अभव्य असंज्ञी Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मागणा विशेष गुण स्थान ६ १ अपर्याप्त पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास २ सामान्य १ १० ३ ८ २ पर्याप्त १ ११ ४ ཡ, ཙྪཾ, १ २ ६/५ मिथ्या सं. अप ६ अपर्याप्त २ अपर्याप्त १ १ पर्याष्ठ स्याप्त हो अप, सासा | सं प सं. अप. पर्याप्ति 99 ६ १ सासा संप पर्याप्ति १ १ मिश्र सं प ६/६ ६ पर्या. ६ अप. ६ सासा सं. अप अपर्या ६ पर्याप्ति १ १ ६ अबि. सं. प. पर्याप्ति प्राण 0/0 ៖ 20/७ १० ७ १० 2 १० १० संज्ञा_ ४ ४ ४ ३ ४ ४ गति इन्द्रिय ४ ३ नरक रहित नरक रहित नरक रहित ३ नरक रहित ३ नरक रहित ३ नरक रहित १ पं. १ पं. पं. १ पं. १ पं. १ पं. ܂ काय १ त्रस १ त्रस ~ त्रस त्रस १ त्रस १ त्रस योग वेद कषाय ३ ओ. मि. स्त्री वे. मि.. कार्मण १० मन ४, बो. १. वे. १ ४ १० मन ४, बच, ४, श्री. १.. १३ १ ४ ३ आ. द्वि. स्त्री अज्ञान रहित १ ४ स्त्री ३ श्री. मिस्त्री वे. मि. का. १ ४ १ ४ स्त्री २० प्ररूपणाए १० १ ४ मन४, वच ४, स्त्री औ. १. वै. १ ज्ञान ३. अज्ञान २ १ २ कुमति, असंयम चक्षु. अचक्षु का. कुश्रुत शु. २ कुमति, संयम दर्शन कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु २ असंयम चक्षु, अचक्षु लेश्या द्र. भा. २ २ १ ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु २ ३ ३ ३ मति श्रुत असंयम ब अनधि अवधि ? २ [असंयम चक्षु, अचक्षु का. शु. ६ अशु. भव्य अशु. २ भव्य, अभव्य १ भव्य २ ३ १ भव्य १ भव्य सासा. ܕ सम्य, भव्य १ मिथ्या १ सासा १ सासा १ मिश्र संज्ञित्व आहा. उपयोग २ २ २ संज्ञी आहा. साकार. असंज्ञी अना. जना, १ संज्ञी संज्ञी संज्ञी २ २ आहा साकार अना. अना. १ ३ भव्य ओ, क्षा. संज्ञो क्षयो, १ २ आहा. साकार,, अना. २ २ आहा. साकार अना. अना. ܕ संज्ञी आहा. २ साकार अना. , २ आहा. साकार अना. सत् २२३ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं सत् मार्गणा विशेष | पर्याप्त गुण | जीव । पर्याग्नि अयाप्त स्थान | समास स्थान गुण स लेश्या | प्राण संज्ञा गति इन्द्रिय काय योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य सम्य संज्ञित्व आहा. उपयोग पर्याप्त. ५वाँ | सं.प. पर्याप्ति | ति. शुभ भव्य पं. त्रस मन४, बच.४खो औ.१ । मति, श्रुत. देश सं. चक्षु, अचक्षु, अवधि अवधि औ., क्षा. संज्ञी | आहा.साकार, अना. . । पर्याप्त | प्रमत्त सं. प. पर्याप्ति | मनु. | पं. | बस मन४, बच.४/ स्त्रीमति, श्रुत, सा., छे. चक्षु, अचक्षु औ.१ अवधि शुभ| भव्य | औ., क्षा.. | संज्ञी | आहा./ साकार अना. अवधि . पर्याप्त | ७वाँ सं.प. पर्याप्ति रहित * _ | पं. | त्रस मन४, वच.४स्त्री| औ.१ मति, श्रुत, सा., छे. चक्षु, अचक्षु, अवधि अवधि शुभ| भव्य | औ..क्षा | संशी | आहा. साकार, अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २२४ . पर्याप्त ८ वाँ सं. प. पर्याप्ति मनु. | पं. स मति, श्रुत, सा., छे. चक्षु. अचक्षु. अवधि अवधि शुभ भव्य मन४, बच.४ स्त्री औ.१ औ..क्षा. संज्ञी आहा. साकार अना. रहित परि. - . रहित * . पर्याप्त हवाँ | सं. प. पर्याप्ति | पं. वस मन४, वच. स्त्री औ.१ परि. 10 मति, श्रुत, सा,, छे चच. अचक्षु. अवधि अवधि शुभ भव्य औ., क्षा. संधी | आहा. साकार, अना. २. पुरुष वेद-(ध. २/१,१/६२-६८७) १) । त्रस पु. सामान्य ६ । ४ ६/५१०.६,७४३ । १ १-६ सं. प.६ पर्याप्ति नरक पं. असं. प. ५ . रहित सं. अप. ६ अपर्याप्ति असं..., केवल. रहितासू.. यथा चक्षु, अचक्षु रहित | अवधि भव्य अभव्य | संज्ञी | आहा. साकार | असंज्ञी अना. | अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ . Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा०४-२९ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं सत पर्याप्त लेश्या - गुण | जीव स्थान | समास पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय काय योग ज्ञान संयम दर्शन भव्य 5 अपर्याप्त सभ्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग - ४] ३ पर्याप्त १ | १-६ २ । ६/५ सं.प. ६ पर्याप्ति । असं.प.५ , नरक । पं. | त्रस मन४, वच.४ पु. औ.१, बै. आ.१ केवल बिना सू. यथा चक्षु. अचक्षु | रहित | अवधि भव्य, अभव्या संज्ञी | आहा. साकार, असंज्ञी अनाकार ३ अपर्याप्त ४ । २ ६५ |१, २,४/सं. अप. ६ अपर्याप्ति ६ असं. | पं. | त्रस | औ.मि., पु. नरक रहित कुमति,कुश्रुत' असंयमाचक्षु. अचच का. ३ ज्ञान सा.,छे. अवधि शु, भव्य, मिश्र अभव्य मिना । २ २ । २ संज्ञी आहा. साकार. असंज्ञो अना. | अना. अप. . आ. मिका. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २२५ स १०.६७४ ३ । नरक | पं. | रहित पु.] WBw. आ. द्वि. बिना | अज्ञान ४१सामान्य १ ४ ६५ मिथ्या सं.प. ६ पर्या. असं.प. ५ . सं. अप. ६ अप. असं. " अप. असंयम चक्षु, अचश्च । । भव्य, मिथ्या सज्ञा आहा. साकार अभव्य असंज्ञी अना. अना. ११ पर्याप्त १ २ ६/५ मिथ्या सं. प.६ पर्या. असं, प५.. | स रहित नरक | पं. रहित मन४, बच.४ पु. औ.१, वै.१ कुमति, कुश्रुत असंयम चश्च. अचक्षु| | | भव्य, मिथ्या | सज्ञा | आहा.साकार.. विभंग अभव्य ।६१ अपर्याप्त १ २ ६५ मिथ्यां सं.अप. अपर्याप्ति असं. अप, नरक रहित पं. स कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु. अचक्षु का. | औ.मि. |पु. वै. मि. कार्मण भव्य, मिथ्या | संज्ञी | आहा., साकार अभव्य असंही अना. अना. | २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ सत् मार्गणा विशेष पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान | समास लेश्या गुण स्थान पर्याप्ति प्राण संज्ञा गति इन्द्रिय | काय योग ज्ञान दर्शन कषाय संयम भव्य । सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग - → मूलोघवत् - → मूलोघवत ७ि,२,३ सा प. अप. -- नरक रहित ८४-६/सा, प. →मूलोघवत् : → मूलोधवत् --- ३. नपुंसक वेद-(ध. २/१,१/६८८-६६८) / ३ ६ । सामान्य। ।१४ ६/०४ १०/७६/७४ ३ १-१ | प. अप. पर्या, अप.5/4:७५ देव ६/४; ४/३ भव्य, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश आ. द्वि.न. নিলা केवल, मन. असंयम चक्षु, अचक्षु बिना देश सं. अवधि संज्ञी | आहा.. साकार असंज्ञी अना. अना. रहित अभव्य २. पर्याप्त पर्याप्ति ।७६,४ । मन ४, वच.४/न. भव्य, देव रहित केवल, मन: असंयम चक्षु, अचक्षु. बिना देश सं., अवधि सा., छे. संज्ञी । आहा., साकार, असंज्ञी। अना. अभव्य ३. अपर्याप्त ३ १,२,४ ७ । ६/५/४ अप. अप. देव रहित औ. मि., नपुं. वै.मि. कुमति, कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु. का. ३ज्ञान अवधि शु. 11. ४ । २ । २ । २ भव्य | मि., सासा संजी | आ. | साकार, | अभव्य क्षा क्षयो. असंज्ञी अना. | अना. - ४१ सामान्य १ । १४ । ६/५/४ |१०/७,६/७४ | ३ ।। मिथ्या प. अप. पर्या. ८७५ | देव अपर्या. |६/४.४/३/ रहित २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ आ. द्वि. नपुं. अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य अभव्य मिथ्या संज्ञी | आहा. | साकार, असंज्ञी अना. अना. बिना Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ सत् मार्गणा विशेष पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान | समास लेश्या पर्याप्ति । प्राण गति | इन्द्रिय काय योग ME - ज्ञान । | संयम | दर्शन मध्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग Sinh | |१] पर्याप्त । १ । ७ । मिथ्या प. । पर्याप्ति |६/४ देव मन ४, वच.४/नपुं. औ. १, वै, २ ६६ २ अज्ञान | असंयम चक्षु, अचक्षु भव्य, अभव्य १ २ १ मिथ्या | संज्ञी आहा. साकार । असंज्ञो अना.! रहित मिथ्या अप. | अपर्याप्ति देव रहित औ. मि., नपुं. वै. मि., का. कुमति २ २६ २ असंयम चक्षु, अचक्षुका. भव्य, अभव्य १ २२ २ मिथ्या संज्ञी आहा. साकार असंज्ञी अना. अना. शु. ७२ सामान्य १ २ ६६ सासा सं.प.६ पर्याप्ति । सं. अप. ६ अपर्याप्त पं. अज्ञान असंयम चक्षु, अचच | भव्य । | देव रहित समन ४, वच.४/न. औ. २,वै. का.१ |संज्ञी आहा. साकार। अना. अना.. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २२७ |८२ पर्याप्त ११ । ६ | सासा सं. प. पर्याप्ति । पं. बस मन ४,वच.४/नपुं. अज्ञान | असंयम चक्षु, अचक्षु । भव्य सासा देव रहित संज्ञो आहा. साकार अना. है|२ अपर्याप्त १ । १ । सासा सं, अप. अपर्याप्ति | ११ औ.मि.,१४२ । पं. त्रस का. न. कुमति, असंयम चक्षु, अचक्षु का कुश्रुत भव्य । सासा संशी आहा. साकार अना. अना. पर्याप्त | मिश्र सं.प. पर्याप्ति ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु । भव्य मिश्र संज्ञी। आहा. साकार | | देव रहित पं. | बस मन ४, वच.४/न. औ.१, वै.१. । अना. ११/४ सामान्य १ २ ६ | अवि. सं. प. पर्याप्ति सं. अप. अपर्याप्ति | | देव भव्य । औ., क्षा. संज्ञो पं. | बस मन ४,वच.४ नपुं. औ.१, वै.२ का.१ मति., श्रुत. असंयम चक्षु, अचश्च अवधि अवधि आहा. साकार अना, अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् लेश्या गुण स्थान पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति प्राण JP गति इन्द्रिय काय योग कषाय ज्ञान संयम । दर्शन द. भा. भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग १२४ पर्याप्त १ । १ । अवि.सं.प. पर्याप्ति - देव | 4 | त्रस मन ४, वच./न। रहित मति, श्रुत, असंयम चक्षु, अचन अवधि अवधि | भव्य | औक्षा. | संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अवि. सं.प. अपर्याप्ति । नरक पं. स वै. मि., का. नपुं २ १ २ २ । क्षा., क्षयो.| संज्ञी | आहा. साकार. मति, श्रुत. असंयम चक्षु, अचक्षुका. का, भव्य अवधि अवधि | शु. अना. पर्याप्त ५वा सं.प. पर्याप्ति । पं. । वस मन, वच.४न औ,१ । मति, श्रुत. असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि अवधि शुभ भव्य | औ., क्षा. | संज्ञी | आहा.-साकार. क्षयो. मैनेन्ट सिद्धान्त कोश →स्त्रीवेदीवत् -- - -> स्त्रीवेदीवर -- २२८ पयाप्त ४. अपगत वेद-(ध.२/१,१/६६६) 88 २ । १. २ २ भव्य | औ., क्षा. संज्ञी आहा. साकार, अनुभय अनुभय, अना. अना. १/-(सामान्य ६. २ । ६/६ १०४,२/१ १ १ १ १ । ११ . ४ १-१४ | सं.प. ६पर्याप्ति | १०/४ परि. मनु. पं. वस मन,वच ४. ज्ञान सा., छे. सं, अप. ६अपर्याप्ति २/१ सिद्ध अनिन्द्रि अकाय औ. २. 50 सू. यथा. | अतीत अतीत अतीत का.१ अनुभय] अयो. ६. कषाय मार्गणा १. क्रोध कषाय-(ध. २/१,१/७००-७१२) सामान्य ६ १४ । ६/५/४/१०/०६/05/४ ४ ५ ६ १५३/१ ७ १-१७पर्याप्त पर्याप्ति ८/६७/१, क्रो. केवल के सू. यथा चक्षु, अचक्षु अपर्याप्त अपर्याप्ति ६/४४/३ बिना के बिना अवधि २. सत् विषयक प्ररूपणाएं अपगत भव्य, अभव्य संही आहा. सा असंही अना. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश / मार्गमा विशेष ३ गुण स्थान | पर्याप्त गुण अपर्याप्त स्थान पर्याप्त अपर्याप्त ४ ५ १ पर्याप्त 4] १. अपर्या ७ ह १-६ प. ४ १ सामान्य १ ७ २ सामान्य ܗ ६/५/० १,२,४ अप. अपर्या ६ मिथ्या जीव समास १ मिथ्या १ सासा 60 ७ प. अप. ७ प. पर्याप्त 5/k/ पर्याप्ति २ संप सं अ. ६/५/४ पर्याप्ति 4/5/8 पर्याप्ति १ ७ मिथ्या अप, अपर्याप्त प्राण अपर्याप्त | ६/४; ४/३ ६/६ पर्याप्त अपर्या १०,६,८,७, ४ ६,४ गिति इन्द्रिय काय ७७.५४ ४, ३ ६/५/४ ७,७,६,५,४,३ ४ १०/६:६/७ | ४ ४ ८/६: ७/५; १०.६,८,७, ४ ६.४ ४ 60 ४ ४ ४ १०/० ४ ४ १० ५ ५ ६ १ त्रस योग ११ ३ १ मन ४, बच. ४) औ. १, वै. आ. १ ४ श्री. मि.. वै. मि. आ. मि. का. १३ आ.द्वि. बिना २० प्ररूपणाएँ ३ मि... वै.मि., का. १३ आ.द्वि. बिना अपगत ज्ञान १० ३ १ मन४, वच. ४, क्रो. औ. १, बै.१ ७ ५ ३ क्रो, केवल बिना सू. यथा चक्षु. अचक्षु के बिना अवधि संयम न ३ १ ३ १ २ को कुमति, कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु विभंग ३ १ १ ३ क्रो. अज्ञान ३ १ ५. ३ को. कुमति, कुतं असंयम चक्षु, अचका. ३ ज्ञान सा, छे. अवधि शु. १ २ अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु श्या द्र. २ असंयमचक्षु, अचक्षु २ २ ६ को. कुमति, कुतः खयम चक्षु, अचक्षु का. शु. भव्य २ ६ २ २ भव्य, अभव्य भव्य, अभव्य २ भव्य अभव्य ६ ६ २ भव्य अभव्य २ भव्य अभव्य १ भव्य सम्य. 4 मिश्र बिना मिथ्या १ मिथ्या १ मिष्या १ सासा संज्ञित्व आहा उपयोग १ २ संज्ञी आहा. साकार, असंज्ञी अना. २ २ संज्ञी आहा. साकार असंज्ञी अना. अना. २ १ २ संज्ञी आहा. साकार असंज्ञी अना अना. १ २ संज्ञी आहा. साकार अशी अना, २ २. संज्ञी । आहा साकार असंज्ञी अना. अना. १ २ २ संज्ञी आहा साकार, अना, अना. सत् २२९ २. सत् विषयक प्ररूपणाएं Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाए सत गण स्थान | पर्याप्त गुण ! जीव ।। पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान समास प्राण गति इन्द्रिय काय योग ज्ञान कषाय संयम | लेश्या भा. भव्य दर्शन । बेद सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग ८/२/ पर्याप्त सासा सं. प. पर्याप्ति पं. को. अज्ञान असंयम चक्षु. अचक्षु भव्य, सासा. स | मन ४, वध.४ औ. १, वै.१ ।११ २ संज्ञी आहा. साकार, अना. १/२ अपर्याप्त १ सासा सं.अप. अपर्याप्ति नरक रहित 4. । त्रस | औ. मि. को. कुमति,कुश्रुत अमंयम चक्षु, अचक्षु का. भव्य सास संज्ञी आहा. साकार. अना. अना, वै. मि., कार्मण पर्याप्त मिश्र सं. प. पर्याप्ति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पं. | संज्ञी वस मन४,वच ४. औ. १. वै. भव्य को. ज्ञानाज्ञान | असंयम चक्षु, अचक्षुः । । आहा.साकार। अना. २३० ११४ सामान्य १ २ ६/६ अवि.सं. प.६ पर्याप्ति सं. अप. ६अपर्याप्ति १०/७ १० ७ पं. । त्रस: आद्वि. बिना को मति, श्रुत. असंयम चश्नु, अचश्च ! अवधि भव्य औ., क्षा. संझी क्षयो. अवधि । आहा. साकार अना. अना. अवि. सं. प. पर्याप्ति ६. । त्रस | मन ४, | वच,४, औ. १, वै. क्रो. मति. श्रुत. असंयम चक्षु, अचक्षु । अवधि अवधि भव्य | ओ., क्षा. संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अना. १३४ अपर्याप्त १ । १ . अवि. सं.अप. अपर्याप्ति ७४४१ । १ । ३ ३ १ ३ १ ३२६१ पं. | त्रस औ. मि.. को मति, श्रुत असंयम चक्षु, अचच का. | भव्य | औ , क्षा. संज्ञी | आहा. | साकार, अवधि अवधि शु. क्षयो. अना. | अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएं वै. मि. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं सत् लेश्या पर्याप्त गुण । जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति प्राण संज्ञा गति इन्द्रिय काय | योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य | सम्य. संज्ञित्व | आहा. उपयोग P पर्याप्त | वाँ सं.प. पर्याप्ति निः पं. | त्रस मन४, बच. ४ औ.१ । को . मति, श्रुत, देश सं. चक्षु, अचक्षु अवधि अवधि २ २ शुभ भव्य | औ., क्षा, | संज्ञी | आहा. साकार, क्षयो. अना. | अना. ६ पर्याप्त प्रमत्त सं.प.६ पर्याप्ति | मनु. पं. वस मन४, वच. औ.१, आ.२ को. मति, श्रुत, सा.,छे. चक्षु., अचक्षु अवधि, मनः परि. अवधि शुभ भव्य | औ.,क्षा | संझी | आहा. साकार, क्षयो, अना.. __ पयप्ति ७वा सं.प./ पर्याप्ति आ. मनु पं. - त्रस मन४, वच. ४ औ.१ । भव्य को मति, 'श्रुत, सा., छे. चक्षु., अचक्षुभ । अवधि, मनः परि | अवधि औ., क्षा. | संही क्षयो. आहा. साकार, अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ____ रहित २३१ १७/८ पर्याप्त ८ वाँ. | सं. प.] पर्याप्ति आ. मनु | पं. | त्रस मन४, वच.४ औ.१ को. मति., श्रुत, सा..छे, चक्षु..अचक्षु! अवधि, मनः अवधि शुभ भव्य | औ., क्षा. | संज्ञी | आहा./ साकार अना.. रहित १८3/i पर्याप्त हवाँ | सं. प. पर्याप्ति | हो । प्रसमय परि.. । पं. | वस मन, वच.४ औ.१ को.मति., श्रुत, सा., छे. चक्षु., अचच अवधि, मनः अवधि शभ भव्य | औ..क्षा. | संज्ञी | आहा. साकार अना. _ सं.प. पर्याप्ति पर्याप्त हवाँ ही द्वि.समय परि मनु. पं. स मन४, वच. को. मति, श्रुत, सा., हे.. चक्षु., अचक्षु | अवधि,मनः अवधि शुभ भव्य | औ. क्षा. संज्ञी आहा. साकार | अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं लेश्या पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय काय | योग ज्ञान कषाय संयम गुणस्थान पर्याप्त | गुण जीव अपर्याप्त स्थान | समास दर्शन भव्य | सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग २. मान कषाय-(ध. २/१,१/०१२) १-१६ तक सर्व आलाप - → क्रोध कषायवद - → क्रोध कषायवत ३. माया कषाय-(ध.२/१,१/७१२) १-११ तक सर्व आलाप-- - → क्रोध कषायवत - - → क्रोध कषायवव — ४. लोभ कषाय-(ध.२/१.१/७१२) ४ ६ । १५ अपगत . सामान्य १० । १४ । ६/५/४ | १०६६/७| ४ ८/६; १-१० पं. | पर्याप्ति |१/,४१३ अप. अपर्याप्ति लोभ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश । केवल बिना यथा- केवलके बिना बिना भव्य अभव्य सज्ञी आहा. साकार, असंही अना. अना.1 २३२ नोट-२-१४ सर्व आलाप क्रोध कषायवत जानना। विशेषता यह है कि पर्याप्त आलापोंमें गुणस्थान, कषाय व संयमकी प्ररूपणा लोभ सामान्यवत जाननी । अपर्याप्तों में कषाय तो लोभवत कहनी पर गुणस्थान व संयम क्रोधवत् जानना। ५. अकषायी-(घ.२/१,१/७१३) | ११० सामान्य| ४ | २ । ६/६ ११-१४ । सं. प.६ पर्याप्ति | १०,४/२/ मनु. अतीत सं. अप. ६ अपर्याप्ति १ । , सिद्ध अतीत अतीत प. अतीत प्रा. वस मन, वच.४ अकाय औ.२, का.१ अपगत " अकषाय ° | मति, श्रुत. यथा. अव.,मनः, अनुभय | २ १२२ शु. भव्य । औ. क्षा. संज्ञी | आहा. साकार, अनुभय अनुभय, अना. अना. युगपत् == अनिन्द्रिय अलेश्य २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ अयोग केवल Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं लेश्या पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति भव्य | सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग गुण स्थान । दर्शन गति । इन्द्रिय काय प्राण योग ज्ञान (संयम भा०४-३० संज्ञा कषाय ७. ज्ञान मार्गणा १. मतिश्रुत अशानी-(ध. २/१,१/७१४-७२०) । आ. द्वि. कुमति,कुश्रुत.असंयम चक्षु., अचक्षु । १.२ । पर्याप्ति अपर्याप्ति ८/६७/५ ६/४, ४/३ भव्य, मि., सासा संझी आहा, साकार, अभव्य | असंही अना, अनाकार बिना २ । पर्याप्त । २ । ७ ४ । ५ ६ ६ ६.५.४ | १०,६,८७,४ पर्याप्ति | ६,४ । १० मन४, वच. औ..वै. ३४ २ १ २ ६ कुमति कुश्रुतं असंयमाचक्षु., अचक्षु, २ । २ २ १ २ भव्य, मि.,सांसा संज्ञी आहा. साकार, अभव्य असंज्ञी| अना. अनाकारा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३ अपर्याप्त । ४ ४ ५ २३३ ६ ३/४ २ १,२ ७ अप. ६.१.४ ७.७.६१, अपर्याप्ति । ४,३ ३ औ. मि., वै. मि. कार्मण २ ६ । २ २६ कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु., अचक्षु-का. शु. २ २ २ । २ । २ भव्य, | मि.,सासा संही आहा. साकार, अभव्य असंज्ञी| अना. अनाकार ४१ सामान्य १ । १४ । मिथ्या पर्याप्ति ८1८७/५ अपर्याप्ति ६/४:४/३ कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु.. अचच आ.द्वि. बिना । २ । २ । २ भव्य, मिथ्या | संज्ञी | आहा., साकार, अभव्य असंज्ञी अना. अनाकार मिथ्या. अप. पर्याप्ति ६४ । कुमति,कुश्रुता असंयमचक्षु.,अचक्षु मन४, बच.४ औ.१, वै. २१ । २ । भव्य, मिथ्या संज्ञी आहा. साकार, अभव्य असंज्ञी अनाकार | मिथ्या अप. । अपर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ ४.३ औ. मि... वै. मि. १ । २ । २ । २ भव्य | मिथ्या. संज्ञी आहा. साकार. अभव्य असंज्ञी अना, अनाकार कुमति,कुश्रुत असंयम चश्च., अचक्षु, का. शु.] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष सं. ७ गुणस्थान पर्याप्त अपर्याप्त स्थान पर्याप्त ३ २ गुण जीव समास पर्याप्त 1 २ अपर्याप्त १ १ १ २ ६/६ सासा सं. प. ६ पर्याप्ति सं. अप६अपर्या १ सांसा : सं. प. ६ सासा सं. अ. पर्याप्ति ¡ विभंग ज्ञान - (घ. २/११/२१-७२२ ) } ६ १.२ सं. पर्या पर्याप्त मिथ्या सं. १, हो) १ पर्याप्त सासा हो पर्याप्ति सं, प, ६ पर्याधि ६ पर्याप्त ६ पर्या प्राण १०,७ १० ७ १० १० १० १० कि गति इन्द्रिय काय संज्ञा ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ३ नरक रहित 30 ४ ४ ४ ४ or m १ प. १ पं. १ १ पं. १ पं. १ त्रस १ त्रस १ त्रस १ त्रस २० प्ररूपणाए १ त्रस योग १०. १ मन ४, वच. ४ ३ | ४ त्रस औ. १ वै. १३ आ.द्वि. बिना ३ श्री. म.. वै. मि. कामण १० मन ४, वच ४ औ. १, वे. १ १०. मन४, वच. ४ औ. १. वै, १ बद् कषाय १० मन ४, वच ४ बी. १३. ३ ४ ३ ४ ३४ ३ | ४ ३ ४ ज्ञान |: 1 २ १ कुमति कुचखच M २ १ कुमतिलभूत असंयमः अपक्ष २ संयम १ विभंग दर्शन १ विभंग १ २ कुमति कुश्रुत असंयम चक्षु. अचक्षु का. शु. १ विभग २ १ २ असंयम चक्षु, अचक्षु २ असंयम चक्षु, अचक्षु N लेश्या द्र, भा, भव्य सम्य. असंयम चक्षु, अचक्षु १ भव्य २ | ६ १ بورد १ भव्य १ सासा १ सासा २ २ भव्य मिथ्या अभव्य सासा १ भव्य २ १ भव्य मिथ्या अभव्य संज्ञित्व आहा. उपयोग १ १ २ २ भव्य सासा. संज्ञी आहा साकार अना. अना. २ संज्ञी आहा साकार, अना. अना. २ संज्ञी आहा साकार अना. १ २ संज्ञी आहा साकार अना १ २ संज्ञी आहा साकार अना. Love Tv १ १ १ २ सासा संज्ञो आहा साकार अना. सत् २३४ २. सत् विषयक प्ररूपणाएं.. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष सं. गुण स्थान पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास २. मक्ति ७ धान ( २/११/०२३-०२६) | सामान्य ह पर्याप्त अपर्याप्त ५ ४ पर्याप्त ६ ४ अपर्याप्त ६/६ ४- १२ सं. प. ६ पर्याप्ति सं. अप ६ अपर्याप्त *♡♡♡ ४ ४ सामान्य] १ ४-२ २ १ ६ अवि सं अप अपर्याप्त प्रमत्त अवि. १ १ अनि.. पर्याप्त 1 २ ६/६ सं. प. ६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्त on t १ १ अवि. सं. अप सामान्य ५-१२ प अप شده प्राण १०,७ १० の १० १०/० १० ७ १० 9 ओषद π ४ ४ ४ ४ गति इन्द्रिय काय ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ १ or 't' पं. art १ पं. १ पं. १ or obr १ पं. T १ त्रस १ त्रस १ त्रस १ त्रस १ त्रस aa १ त्रस योग १५ २० प्ररूपणाएं ११ मन ४, वच. ४ । वै. १, औ. ६ आ. १ वेद १० मन ४, बच, ४ औ. १, वे. १ - ३ | ४ ३ ४ २ वै. मि. पु. औ. मि. नपुं. आ. मि.का. अपगत १३ ३ आ.द्वि., बिना ३ ३ २ जो मि. पु. वै.मि., नपुं कार्मण कषाय अकषाय ०८ ४ ४ ४ ४ झान २ म.रा. २ मति, झुल, २ मति, श्रुत संयम सा. २. मति पुत दो. दर्शन २ १. मति, श्रुत. असंयम ३. केवल के बिना ३ केवल के बिना २ १ मति, श्रुत, असंयम केवल के बिना ३ ३ असंयम केवल के का. बिना शु. ३ केवल के बिना २ १ ३ मति, श्रुत. असंयम केवल के बिना लेश्या द्र. २ ६ २ का. | शु. ओघवत ← ६ भव्य ཨ भव्य १ भव्य १ भव्य १ भव्य ༠ भव्य १ भव्य, सम्य ३. औ. क्षा. क्षयो. ३ औ, क्षा, क्षयो, ३ जी. क्षा. क्षयो संज्ञित्व आहा, उपयोग १ संज्ञी ३ १ औ. क्षा. संज्ञी क्षयो. १ संज्ञी 1 १ संज्ञी ३ १ औ, क्षा. संज्ञी क्षयो. २ २ आहा साकार अना. अनीकार 1 १ २ आहा साकार (अनाकार २ २ आहा. साकार, अना. अनाकार २ | २ आहा साकार, अना, अनाकार ३ १ १ २ ओ. क्षा, संज्ञी संज्ञी आहा. साकार. क्षयो. अनाकार १ २ आहा. साकार, अनाकार ' 1 सत् २३५ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष गुण स्थान पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास ४. अवधिज्ञान (घ२/९.१/०२६) |-|-| ५. मन:पर्ययज्ञान (. २/११/०५७) सर्व आलाप १ पर्याप्त ६-१२ सं. १ हा ६-१२ सर्व आलाप ६.के. २/११/०२०१ सामान्य २ २ १३.१४ | पर्या. अतीत अप. ८. संयम मार्गणा १. संयम सामान्य | पर्याठि | सामान्य ह ६४६ ६ ६ अपर्याप्त २ ६.६ ६ पर्या. ६-१४ सं. प. सं. अप. ६ अप. प्राण I १० ओघवत ४/२.१ अतीत • संज्ञा असंज्ञा मतिश्रुत वत् असंज्ञा ● गति १०/७,४/२४ १ इन्द्रिय काय १ मनु १ पं. १ १ पं. मनु. सिद्ध अतीत १ १ मनु. पं. I १ त्रस अ योग १ त्रस 1. १ त्रस मन २. वच२ अकाय औ. २, का. १ अयोग २० प्ररूपणाएँ ह मन ४, बच. ४ पु. औ. १ ७ १३ बै.द्वि. मिना अयोग वेद kib १ ४ अकषाय ० अपगत अकषाय ० ३ ४ ज्ञान १ अवधि. १ मनः १ मनः १ केवल संयम | ४ सा., छे. सू.. यथा] ४ परिहार रहित १ यथा., अनुभय ५ ५ मति, भुत.. सा, अव., मनः परि केवल सू, यथा दर्शन ३ केवल के बिना १ केवल ४ लेश्या द्र, भा, मति भव्य १. शुभ भव्य ओघवद ६ १ १ अलेश्य शु. भव्य अनुभय १ शुभ भव्य सम्य, T ३ औ.. क्षा. क्षमो, क्षा. ३ औ. क्षा. क्षमो. संज्ञित्व आहा, उपयोग 1 10 संज्ञी १ २ आहा. साकार, अनाकार ! २ २ अनुभय आहा साकार, अना. अना. युगपत् १ २ २ संज्ञी आहा. साकार, अनुभय| अना. अना. युगपत् सत् न् PRU 4 २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं लेश्या । गुण स्थान पर्याप्त | गुण जीव स स्थान समास पर्याप्ति - प्राण संज्ञा गति इन्द्रिय काय । योग वेद ज्ञान संयम दर्शन सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग] २६ सामान्य १२६६ | ६. सं. प. ६पर्याप्ति सं. अप. ६ आर्याप्त मनु. पं. । वस मन४, वच. औ.१, आ.२ मति, श्रुत. सा., छे. केवल | अब.,मनः | परि. बिना शुभ भव्य | औ., क्षा. क्षयो. संज्ञी | आहा. साकार, अना. ३७ सामान्य १ । १ । |७ वां सं. प. आ. बिना 0 - पं. - त्रस मन, वच.४ | | मति, श्रुत. सा. छे.! केवल अवधि, मनः परि. | बिना शुभ भव्य | औ., क्षा, संज्ञी आहा. साकार क्षयो. अना. औ.१ ४| | सर्व मूलोधवत मूलोधवत आलाप जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २३७ २. सामायिक संयम-(ध. २/१,२/७३३) १०७४ १ १६-६ सामान्य ४ । २ । ६/६ ६-१ सं.प. ६पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्ति १ पं. १ स ११ ३४ ४ । २ मन ४,बच.४ मति, श्रुत. सासा | केवल औ.१, आ.२, अवधि, मनः बिना | शुभ भव्य | औ., क्षा. संज्ञी -क्षयो. आहा. साकार अना. मूलोघवत् -- मुलोघव |२६-१ सर्व : - आलाप - सासा ३. छेदोपस्थापना संयम-(ध.२/१.१/७३३) --सामायिक संयम वत् -सामायिक संयम बत १६-६ सर्व । - आलाप २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् लेश्या | पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति प्राण जगति इन्द्रिय काय | योग hlhue ज्ञान संयम दर्शन भव्य । सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग ४. परिहार विशुद्धि संयम ६,७ सं. प. पर्याप्ति | मनु. | पं. - त्रस मन४, बच.४, पु.] औ.१ | मति, श्रुत परिहार| केवल अवधि बिना १ १ - २ शुभ भव्य. क्षा., क्षयो.संज्ञी आहा. साकार अना. |२६,७/ सर्व आलाप - मूलोधवत् - - → मूलोधवत - | → मुलोधवत् क्षा. क्षयो. - | मति, श्रुत परिहार अवधि मन४, वच.४, पु. औ.१ जैमेन्द्र सिद्धान्त कोश २३८ ५ मूक्ष्म साम्पराय संयम---(ध.२/१,१/७३५) | पर्याप्त । १। मूलोधवत | - *- मूलोधवत् - - -- | | ६. यथाख्यात संयम-(ध.२/१,१/७३५ ) ११११- सामान्य ४ । २ । ६/६ ११-१४ सं. प.६ पर्याप्ति सं.अप. ६ अपर्याप्ति असंज्ञा मनु. 4. अपगत ० त्रस मन४,बच.४ औ.२, का.१ल अकषाय . ज्ञान यथा शु. भव्य | औ. क्षा.संज्ञी अनुभय आहा. साकार अना. | अना. युगपत् | २ |११. सर्व । मूलोधवत् ------मूलोधवत् ७. असंयम-(ध २/१.१/७३६-७३७) १. सामान | भव्य, आ.द्वि. बिना ३ ज्ञान ३ अज्ञान अर्सयम - केवल बिना २ . २ - २ संज्ञी : आहा. साकार असज्ञो अना. अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ अभव्य पर्याप्ति ६४४/३; अपर्याप्ति Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत्. पर्याप्त लेश्या गुण स्थान | गण | जीव | पति | प्राण गति | इन्द्रिय काय योग द कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग अपर्याप्त स्थान समास द्र. भा. पर्याप्त ४ ८,७,६४ ४ १ । १-४ प. | पर्याप्ति मन४,वच.४, भव्य, ३ ज्ञान असंयम केवल ३ अज्ञान बिना संज्ञी आहा. साकार. असंज्ञी। अनाकार अभव्य कुमति,कुश्रुत असयम केवल ३ ज्ञान बिना भव्य, अभब्य बिना | संज्ञी आहा.. साकार. संज्ञी अना. अनाकार शु. नि शुभ भव्य | ओ.,क्षा.संही मति, श्रृत, देश सं. चक्षु, अचक्षु, अवधि अवधि आहा. साकार | अना. औ.१ क्षयो. ३] |३| अपर्याप्त ३ । ७ । १,२४ | अप. | अपर्याप्ति ४.३ औ. मि., ८. संयमा संयम-- वै. मि.,का. । पर्याप्त १ । सं. प. पर्याप्ति पं. । त्रस मन४, बच. ९. दर्शन मार्गणा | १. चक्षु दर्शन-(ध.२/१,१/७३८-७४३) १ सामान्य १२ । ६ ६/ ५ १०/७१/७४४ २ । १ । १२ १-१२ चतु. सं | ६,५ पर्या. ८६ चतु.पं. वस मन४, बच.४ असं.के ६,५ अप, औ. १,वै. प. अप | आ.२ दे. दर्शन/७/३ २ पर्याप्त । १२ । ३ ६ /५ । १०,६,८ १-१२ चतु. सं. पर्या, चतु. पं. वस मन४, वच. असं.प. औ.१ वै. आ.१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भव्य, असंज्ञा अकषाय र केवलके बिना २ । २ । २ संक्षी आहा., साकार.] असंज्ञी | अना. अनाकार २३९ अभव्य आ. असंज्ञा अकषाय र केवलके बिना 1.२ भव्य, अभव्य संज्ञो आहा. साकार. असंज्ञी अनाकार ४ ४ । २ चतु.पं. २ १ स १ आ, मि., ३ ४ कुमति,कुश्रुत असंयम ३ ज्ञान सा., छे. चश्च. अपर्याप्त ४ ३ ६५७,७६ १,२,४ चतु. सं. अपर्याप्ति असं. अप. का. | भव्य, मिश्र अभव्य बिना संज्ञी | आहा.. असंज्ञी अना. अना. चतु.पं. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ अज्ञान असंयम |४|१ सामान्य १ ६ मिथ्या चतु.सं. पर्या, असं.पं अप. अप. चक्षु. | २ । २ भव्य | मिथ्या संज्ञी | आहा. साकार अभव्य असंज्ञी अना. अनाकार त्रस मन, वच.. औ.१.१॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ सत् लेश्या पर्याप्त मार्गणा विशेष गुण । जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति | प्राण गति इन्द्रिय काय योग ज्ञान कषाय गुण स्थान संज्ञा संयम दर्शन भव्य | सम्य. संझिव आहा. उपयोग द्र. भा.. ११ पर्याप्त १०,६, ८ ४ ४ १ ३ । ६.५। मिथ्य चतु. सं. पर्याप्ति असं., । २ । १ । चतु.पं. त्रस मन४, वच.४, औ. १, वै. अज्ञान असंयम चक्षु आहा. साकार. भव्य । मिथ्या | संज्ञो अभव्य 1६१ अपर्याप्त १ ३ । मिथ्या चतु. सं., अपर्याप्ति चतु. पं. त्रस कुमति, कुश्रुतं असंयम चक्षु भव्य अभव्य मिथ्या संज्ञी -आहा.. साकार, असंज्ञो अना. अना. असं. २ . अप. २,४ सा,अधि मूलोधव -मूलोधवत् मूलोघवद - मूलोघवद ७-१२ सर्व आलाप + 7 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २४० २. अचक्षु दर्शन–(घ. २/१,१/७४३-७४७) १. सामान्य। १२ । १४ ६.५४ ४ ५ ६ । १०/७१/७.४ ८/६७/५ ६/४.४/३ असंज्ञा अपगत 0 अकषाय केवल के अचक्षु भव्य, अभव्य संज्ञी | आहा. साकार असंही अना. अना. बिना १-१२ पर्याप्ति अपर्याप्ति १०,६,८,७.६ | ४ ४ ५ ६ पर्याप्त । १२ । ७ । ६५.४ |१-१२ पर्याप्त | पर्याप्ति । ११ ।। ३ | मन४, वच.४, वै.१, औ.१, असंज्ञा अपगत - अकषाय र अचक्षु संज्ञी | आहा. साकार केवलके बिना भव्य, अभव्य आ.१ ..-- ३ अपर्याप्त | ४ । ७ । १,२,४, अप. | अपर्याप्ति का. ५ । २ । २ । २ भव्य, मिश्र संज्ञी आहा साकार अभव्य | बिना असंही अना. | अना. कुमति,कुश्रुत असंयम अचच ३ ज्ञान सा., छे. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ - मि.,आ.मि. कार्मण - Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० ४-३१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष गुण स्थान पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास ४ १ सामान्य ५ १ पर्याप्त १ ३ १ मिथ्या ६ १ अपर्याप्त १ पर्याप्त अपर्याप्त ७ मिथ्या पर्याप्त १४ 6) पर्या ७ २- सर्व आ लाप १२ ३. अवधि दर्शन--( ध २ / ११ / ७४८-७५० ) सामान्य | ह ६/६ ६ पर्याप्ति ४-१२ सं. प सं, अप. ६ अपर्याप्त ६ ४- १२ सं. प. w ६.५.४ पर्याप्ति आप मिथ्या अपर्याप्त अपर्याप्त ६,५,४ १०,६,८,७,६, ४ पर्या ४ प्राण ६.२.४ २७.६.१.४.२ ४. ६ पर्याप्त २ १ ६ ४. ६ स अप अपर्याप्त १०/७१/७४ ४ 214:014: ६/४, ४/३ संज्ञा मूलोघवत १०/० १० १० अस ४ असंज्ञा गति इन्द्रिय ४ ४ ४ ४ 20 ४ 没 १ पं. १ or p पं. १ पं. काय ६ १ त्रस २० प्ररूपणाएँ १ योग १३ ३ ४ बा. वि. दिना १० मन४, वच, ४, औ. १, बै. १ ३. श्री. म.. बै. मि.. कामण - १५ १ ११ त्रस मन४, बच. ४ बि१ औ. ९ आ. १ वेद कषाय ३ ४ ३ ४ । or Ruble ३ अपगत 1 ४ प्रो. मि... पु. मि.आ.मि., नपुं कार्मण अकषाय अकषाय २ ४ ज्ञान ३ अज्ञान १ १ १ अज्ञान असंयम अचक्षु 1 ४ मति, पुल, अब मनः 20 संयम ३ १ १ कुमति, कुश्रुत असयम अचक्षु ४ मतिरा अब मनः १ असंयम | दर्शन 2 の १ अचक्षु १ अचक्षु १ अवधि अवधि लेश्या द्र. भा. ६ ६ | २ २ | ६ का. शु. سوره ६ ३ ३ १ मति श्रुत. असंयम अवधि का अवधि सा शु. २६ भव्य भव्य, अभव्य १ भव्य, अभव्य २ भव्य, अभव्य १ भव्य सम्य, १ भव्य १ मिथ्या १ मिथ्या सायद संज्ञित्व आहा, उपयोग 1 २ २ संज्ञी आहा. साकार असंज्ञीं अना. अना. १ २ २ २ मिथ्या संज्ञी आहा साकार असंज्ञी | अना. अना. २ १ २ संज्ञी आहा साकार असंज्ञी अना. ३ औ., क्षा. क्षयो १ ३ १ २ २ भव्य औ, क्षा. संज्ञी आहा. साकार क्षयो. अना. अना. ↑ I ३ १ २ औ. क्षा. संज्ञी आहा. साकार क्षयो. अना. 1 - २ १ २ संज्ञी आहा साकार अना, अना. सत् २४१ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ सत् मार्गणा विशेष पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास लश्या प्राण पर्याप्ति | प्राण गति इन्द्रिय काय योग कषाय ज्ञान | संयम | दर्शन भव्य - सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग अवधिज्ञानवत अवधिज्ञानवत् आलाप अवधि मति, श्रुत. अवधि ४. केवल दर्शन-(ध. २/१,१/७५०) केवलज्ञानवद केवलज्ञानवव १10] सव & आलाप १०. लेश्या मार्गणा१. कृष्ण लेश्या- (ध.२/१.१/७५०-७५६) १। सामान्य। ४ ४ ५ ६ ६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश । १४ । ६,५,४ । १०/858/७.४ पर्याप्ति ८/६७ अपर्याप्ति ६/४; ४/३ आ.द्वि. | कृ. अज्ञान ३ ज्ञान ३ असंयम | केवल बिना भव्य , अभव्य २ । २ । २५ संज्ञी | आहा. साकार असंज्ञी अना. | अना. २४२ बिना २ पायप्ति | १०.६.८७ ४ ३ ५ ६ ४ ७ । ६.५४ १-४ । पर्या. पर्याप्ति १० ३४ मन ४, वच.४ देव ६ ३ ज्ञान ३ अज्ञान । रहित असंयम केवल बिना कृ. भव्य, अभव्य संज्ञी | आहा. साकार अना. १,२,४ अप, | अपर्याप्ति औ. मि.. वै. मि., का. कुमति, कुश्रु. असंयम | केवल ३ ज्ञान विना | २|१) २ | ३ । २ । २ । २ । का. कृ.| भव्य, मि., सा. संज्ञी | आहा. साकार शु. | अभव्य | क्षयो. असंही अना. अना.| |४|१ सामान्य १ । १४ । मिथ्या! पर्याप्ति ८/६७/५ अपर्याप्ति . ६/४;४/३ THEATRE २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ आ.द्वि. अज्ञान २ । २ । कृ. भव्य, | मिथ्या | संज्ञी | आहा. साकार अभव्य असंज्ञी अना. अना. असंयम चक्षु, अव.] बिना Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मार्गणा विशेष - २० प्ररूपणाएं लेश्या गुण स्थान पर्याप्त गुण । जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय काय । योग ME ज्ञान | संयम दर्शन । भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग ११ पर्याप्त १ । ७ ६ .५५४ मिथ्या पर्याप्त | पर्याप्ति अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु मन४, वच.४ औ.१, वै.१ कृ. भव्य, मिथ्या संज्ञी आहा. साकार अना. रहित । अभव्य ४ ५ ६ ३ ४ ६१ अपर्याप्त | १ । ७ ६५. ४७ ,७,६,३,४.३ ४ मिथ्या | अप. | अपर्याप्ति ३ औ. मि. २ २१ २ कुमति, कुश्रु. असंयम चक्षु. अचक्षु का. कृ. भव्य, | मिथ्या संज्ञी आहा. साकार, शु. अभव्य असंज्ञी| अना, अना. वै. मि. कार्मण |७|२ सामान्य १ । २ । सासा स, प. पर्याप्ति सं. अप. अपर्याप्ति १० पं. त्रस | आ. द्वि. अज्ञान असंयम चश्च. अचश्च कृ. भव्य । सासा | संज्ञी आहा. साकार, | अना. अना. बिना जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २४३ । ८२ पर्याप्त १ १ । ६ सासा | सं. प. पर्याप्ति । पं. अज्ञान असंयम चक्षु. अचक्षु कृ. भव्य | सास वस मन४, वच.४] । औ.१, बै. । | संजी | आहा. साकार. अना. रहित २ अपर्याप्त १ १ ६ | सासा सं. अप] अपर्याप्ति | पं. त्रस | औ. मि., कुमति, कुश्रु. असंयम चक्षु. अचच का. कृ. भव्य नरक रहित सासा संज्ञी आहा. साकार, अना. अनाकार कार्मण पर्याप्त मिश्र सं.प. पर्याप्ति पं. कृ. भव्य त्रस मन४,वच,४ | औ.१, वै. । । ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु मिश्र संशी आहा. साकार, अना. रहित १०/७ ११४ सामान्य १ २ ६६ अवि. सं. प. पर्याप्ति सं. अप. अपर्याप्ति । देव । पं. रहित स मन४, वच.४ औ.२, वै. - कार्मण १ । | मति, श्रु- असंयम चक्षु., अचक्षु अवधि अवधि । कृ.| भव्य | औ., क्षा. संज्ञी | आहा. | साकार, | अना. अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष गुण स्थान पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास १२ ४ पर्याप्त ३ १३ ४ अपर्याप्त १ २. नीललेया (प. २/९.१/०७१) ११-४ सर्व 1-1 आलाप | १ १. अवि सं. प पर्याप्त - २. कापोत लेश्या (ध. २/११/०५१०६८) सामान्य ४ १-४ अपर्याप्त १ 4 अवि सं. अ. अपर्याप्त पर्याप्ति ४ १-४ पर्याप्ति ७ पर्या १४ ६.२४ ६०६४ पर्याप्ति प्राण ३ ७ १,२,४ अप, अपर्याठि १० ७. १०/०८ २७ ४ पर्याप्ति ८/६; ७/५: पर्याप्त ६४.४२ ४ गति १०.६,८,७, ४ ६,४ གླ ༧ ४ १ रहित मनु. ४ रहित इन्द्रिय काय कृष्ण लेश्या बत् ४ १ पं. १ पं. k १ त्रस योग १ १० वस मन४, वच, ४, औ. १. वै. १ ६ १३ आ. द्वि. के बिना २० प्ररूपणाएँ १ श्री मि.. पु. का. १० मन ४, वच. ४ वै. १, औ. १ ३. श्री. मि वे. मि.. कार्मण वेद कषाय ३ | ४ ३ ४ ३ ४ ३ ४ ज्ञान ३ ४ १ ३ मति, श्रुत, असंयम केवल अवधि 1 संयम दर्शन ३ १ ३ मति, भूत. असंयम वेवस अवधि बिना ५ ६ १ ३ ३ ज्ञान असंयम केवल ३ अज्ञान ३ ज्ञान बिना ३ ६. १ ३ अज्ञान असंयम केवल ३ ज्ञान बिना १ कुमतिल बिना ३ बैं बिना 국 लेश्या. द्र. भा. ६ | १ or 16 १ १ २ १ १ का. कृ. भव्य शु. ६ १ का भव्य ६ १ १ भव्य - २ भव्य अभव्य २ का. भव्य अभव्य २ १ २ का. का. भव्य, शु. अभव्य सम्य. ३ ओ.. क्षा. क्षयो. क्षया. T " w संज्ञित्व आहा. उपयोग ४ मि, सा. क्षा, क्षयो. १ १ २ संज्ञी | आहा. साकार अना. २ २ संज्ञी आहा साकार अना, अना. कृष्ण लेश्या बत् २ २ २ आहा साकार संज्ञी असंज्ञी अना. अना. २ १ संज्ञी असंज्ञी २ आहा. साकार अना. २ आहा.साकार असंडी अना. अना. २ सत् २४४ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ - लेश्या गुण स्थान | पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय | काय योग ज्ञान संयम | दर्शन भव्य । सम्य, संज्ञित्व | आहा. उपयोग भा. - ४१ सामान्य १ । १४ मिथ्या ६.५४ पर्याप्ति अपर्याप्ति ७७.६.१,४,३ आ.द्वि. के बिना अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षुका . भव्य, मिथ्या | संज्ञी | आहा. साकार, असंज्ञी| अना. अना.। मिथ्या पर्या पर्याप्ति ६४ देव मन४, बच ४ । अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षुका . भव्य, रहित मिथ्या | संज्ञो आहा. साकार अना. ६१ ७,७.६.५.४.३ ४ ४ ५ अपर्याप्त १ । ७ ६.५. ४ मिथ्या अप. | अपर्याप्ति २ । २१ २ । कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षुका. का. भव्य | मिथ्या औ.मि. वै. मि.. कार्मण संज्ञी | आहा. साकार, असंही अना. अना.. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २४५ |७|२ सामान्य ४ १ ३ ४ १ । २ । ६ । १०/ ७ सासा | सं. प. ६ पर्याप्ति । सं. अप. ६ अपर्याप्ति ४ । १ - पं. । १३ स . आ.द्वि. रहित ३ अज्ञान असयम चक्षु, अचच का. भव्य सासा. | संज्ञी आहा. साकार अना. अना. 1८२ पर्याप्त ११ सासा सं. प. पर्याप्ति देव | 4. । । स मन४, बच.४ औ.१, वै. १ रहित अज्ञान अमंयम | चक्षु, अचक्षुका . भव्य | सासा. | संज्ञी | आहा. साकार, अना. ६|२| अपर्याप्त ७ ४ १ १ ६ सासा सं. अप. अपर्याप्ति ३ नरक रहित | पं. । त्रस औ. मि... कुमति,कुश्रुतं असंयम चक्षु, अचक्षु का. का. भव्य | सासा, वै.मि. संज्ञी | आहा. | साकार अना, अना. ३ २. सत् विषयक प्ररूपणाएं | पर्याप्त मिश्र सं. प. पर्याप्ति देव पं. त्रस मन४,बच,४, कुमति,कुश्रुत असयम चक्षु, अचक्षुका , भव्य | मिश्र १ १ २ संज्ञी आहा, साकार अना. रहित Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ सत् मार्गणा विशेष पर्याप्त गुण जीव | पर्याप्ति अयप्ति स्थान | समास लेश्या गुण स्थान प्राण गति | इन्द्रिय काय | योग = ज्ञान संयम दर्शन भव्य सम्य संज्ञित्व आहा. उपयोग ११/४ सामान्य १ | २ | ६ अवि | सं.प. पर्याप्ति सं. अप. अपर्याप्त ____ देव | पं. - त्रस रहित आ.द्वि. रहित मति, श्रुत, असंयम केवल अवधि बिना का. भव्य क्षा, क्षयो.। संज्ञी आहा. साकार औप. अना. अना. १२४ पर्याप्त ११ ६ अवि | सं.प. पर्याप्ति - पं. स मन४, बच.४ औ.१, वै. आहा.. साकार । । मति, श्रुत. अस यम केवल अवधि बिना का. भव्य | औ., क्षा.संज्ञी क्षयो. अना. |१३४ अपर्याप्त - १ १ । अवि सं. अप. अपर्याप्ति देव | पं. २ १ २ २ मति, श्रुत, असंयम, केवलका . का. | भव्य क्षा, क्षयो.. संज्ञी | आहा. साकार अवधि बिना शु. अना. अना त्रस | औ. मि., पु. वै. मि.न. कार्मण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २४६ ४. तेज लेश्या -(ध. २/१,१/७६८-७७६) : १०७ ४ | सामान्य ७ । २ ६/६ १-७, सं.प. ६ पर्याप्ति सं. अप. ६.अपर्याप्ति ३ नरक रहित १ पं. १ त्रस केवल ज्ञान सू., यथा केवल रहित | रहित | बिना । ते. भव्य अभव्य संज्ञी आहा. साकार | अना. | अना. पर्याप्त । ७ १ १-७ / सं.प. पर्याप्ति १० ४३ नरक पं. स मन४, वच.४ औ.१, वै.१ आ.१ । । केवल ज्ञान सू अथा. केवल रहित रहित बिना ते. भव्य अभव्य संज्ञी आहा. साकार अना. । । ७ ४ २ अपर्याप्त १,२,४, १ ६ ६ सं.अप. अपर्याप्ति | पं. | त्रस औ.मि., वै. पु. मि. आ.मि.न'. कार्मण ... - कुमति,कुश्रुत असंयम केवल का .ते. भव्य | मिश्र । ३ ज्ञान सा., छे. बिना शु. अभव्य बिना सही आहा. साकार अना, अना. २. सत् विषयक प्ररूपणे ATI Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४ गुणस्थानः पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास १ सामान्य १ ५ १ पर्याप्त ६१ अपर्याप्त १० ८ २ पर्याप्त २ मिथ्या सं प सं अप ΟΥ २ सामान्य १ १ १ मिथ्या, सं. प. पर्याप्ति १ १ मिथ्या ६ सं. अप अपर्याप्त २ साखा सं. पं. सं ६ २ अपर्याप्त १ १ १ १ सासा सं प पर्या ६ ६ पर्याप्ति अपर्याप्त १ १ पर्याप्त मिश्र सं.प. हो ६ पर्या अपष्ठि ६ पर्याप्ति ६ सासा सं, अप अपर्याप्त 4 पर्याप्ति प्राण १०.७ १० 9 2010 १० १० 6 ू ____ ४ ४ 30 ४ ३ ४. ३ नरक रहित 20 ४ नरक रहित or १ देव ४ ३ ४ १ देव नरक रहित प. ३ १ नरक पं. रहित or 'b नरक रहित पं. or "b" १ at पं. at ३ १ पं. or काय १ १२ त्रस मन४, वच. ४ औ. १. वे. २० . कामज १० १ त्रस ९ वस मन४, वच. ४ औ. १. वै. १ १ त्रस १ त्रस • प्ररूपणार १ त्रस योग १ त्रस १२ मन४, वच. ४ औ. १. वै. २ कामग १० मन४, बच. ४ औ. १, वे. १ वेद कषाय ने. कामण | চম 20 ३ वै. मि... पु. कामण ३ ४ २ ४ 5 用 ३ ४ ३ ४ २ ४ मि, स्त्री पु. १० ३ | ४ मन४, वच.४ औ. १, वै, १, ज्ञान ३ अज्ञान ३ अज्ञान ३ अज्ञान संयम २ कुमतिसंयम ३ अज्ञान १ २ असंयम चक्षु, अचक्षु १ दर्शन १ असंयम १ २ असंयम चक्षु, अचक्षु 1.10 २ अच् लेश्या द्र. भा. २ ३ 3 ज्ञानाज्ञान असयम चक्षु, अचक्षु मिश्र २ २ १ १ अका भव्य शु. अभव्य ६ १ १ २ ते. भव्य अभव्य ६ २ ते भव्य अभव्य भव्य १ ते. २ २ २ १ १ कुमति कुतः असंयम चक्षु, अलका, भव्य शु. १ १ ते भव्य ६ १ १ भव्य a do १ भव्य सम्य १ मिथ्या १ मिथ्या १ मिथ्या १ सासा संज्ञित्र आहा. उपयोग १ २ २ संज्ञी आहा, साकरर, अना. अना. १ मिश्र १ १ २ संज्ञो आहा. साकार, अना १ सासा संज्ञी १ २ २ संज्ञी आहा. साकार अना. अना. १ २ संज्ञी आहा. साकार अना. ~ T २ २ आहा साकार अना. अना. १ १ २ सासा संज्ञी आहा साकार अना. अना, १ २ संज्ञी आहा. साकार अना. २४७ २. सत विषयक प्ररूपणाएँ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मार्गणा विशेष । २० प्ररूपणाएं सता लेश्या गुण स्थान पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति प्राण गति | इन्द्रिय काय योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य | सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग भा. १०/७ । |११४ सामान्य १ २ ६६ अविसं. प. ६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्ति पं. स | |ते. भव्य | नरक रहित आ.द्वि., पं.स मति, श्रुत. असंयम केवल रहित अवधि बिना ३ १ औ. क्षा. संज्ञी क्षयो. २ । २ आहा. साकार अना. अना.. १२ ४] पर्याप्त १ १ । ६ अवि | सं. प. पर्याप्ति नरक रहित पं. | त्रस मन ४, वच.४ औ. १, वै. मति, श्रुत. असंयम केवल अवधि बिना ते. भव्य | औ. क्षा,संही क्षयो, आहा. साकार, अना. |१३४ अपर्याप्त १ १ ।। अविसं.अप. अपर्याप्ति पं. का. ते. भव्य | मति, श्रुत. असंयम केवल अवधि | निना त्रस | औ. मि., पु. वै.मि., कार्मण क्षयो, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश औ.क्षा. | संज्ञी आहा. साकार, अना. अनाकार २४८ . १० ४ २ ४१५ पर्याप्त वाँ. सं.प. पर्याप्ति ते. भव्य । पं. | वस मन४, वच.४) औ.१ मति, श्रुत. देश संकेवल . बिना । ३ । १ । २ । २ औ. क्षा. | संज्ञी आहा. साकार, क्षयो. अनाकार अवधि १०६ पर्याप्त । प्रमत्त |सं.प.६ पर्याप्ति । सं. अप.६ अपर्याप्ति मनु | १० ७ |ते. भव्य । मति, श्रुत. सा. | केवल अवधिमनः| छेदो. | बिना पं. | त्रस मन४,वच,४, औ.१ औ. क्षा. | संज्ञी क्षयो. आहा. साकार, अनाकार - पर्याप्त अप्रमत्त | सं.प. पर्याप्ति । मनु | पं. | त्रस मन४,वच,४, औ.१ । |ते. भव्य । मति, श्रुत. सा., छे. केवल अवधि,मनः परि. बिना औ. क्षा. | संज्ञो | आहा. साकार, क्षयो. भनाकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएं आ.रहित Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष - २० प्ररूपणाएँ लेश्या पर्याप्त गुण । जीव अपर्याप्त स्थान समास पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय काय योग ज्ञान कषाय संयम दर्शन भव्य भा०४-३२ सम्य. संज्ञित्व आहा. उपयोग पण 1५. पद्मलेश्या-(ध २/१,२/७७६-७७८ ) ४ सामान्य ७ २ ६/ १-७ । सं.प. ६पर्याप्ति सं. अप./६ अपर्याप्ति १०/७ १० ३ नरक ६ पं. स २ | पद्म भव्य अभव्य १ २ | २ संज्ञी आहा. साकार अना. अनाकार केवल ज्ञान दे.सं., केवल बिना सा., छे. मिना परि.असं । रहित २. पर्याप्त ७ १ ६' । १७ सं.पं. पर्याप्ति . त्रस नरक रहित मन४, वच.४ औ.१ वै. केवल ज्ञान दे.सं., केवल बिना सा,छ. बिना परि असं |६|१| २ पद्म भव्य, अभव्य संज्ञी आहा. साकार अनाकार ३ अपर्याप्त ४१६ १,२,४ | सं. प. | अपर्याप्ति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पं. | त्रस | औ.मि., पु. वै.मि. आ.मि., का. कुमति, कुच. असंयम केवल का. पद्म | भव्य, ३ ज्ञान सा.,छे बिना शु. अभव्य मिश्र रहित संज्ञी | आहा.. साकार.| अना• अनाकार E ४ २ ३ | ० ४ ६ ४१ सामान्य १ ।२ । ६६ । १०/ ७ | मिथ्या सं. पं. ६ पर्याप्ति | सं. अप. ६ अपर्याप्ति ७ c. २ ३ अज्ञान ३ | १ | १ नरक - पं. | वस रहित १० । १ २ असंयम चक्षु.,अचक्षु | १ २ मन४,वच.४, औ.१ वै.२ कार्मण । १ । २ पद्म | भव्य, अभव्य मिथ्या | संज्ञी आहा- साकार, अना. अनाकार । | मिथ्या | सं.पं. पर्याप्ति नरक | पं. अज्ञान असंयम चक्षु.,अचच- स मन४, वच४ औ.१ वै. १ | । पद्म भव्य, अभव्य मिथ्या | संशी | आहा. साकार, अनाकार रहित ६ | १ अपर्याप्त' १ ।१ । | मिथ्या. सं.अप. | अपर्याप्ति । देव प. | स । पु. वै.मि., कार्मण कुमति, कुश्रु. असंयम चक्षु., अचक्षु, का. पद्म भव्य, | शु.] | अभव्य मिथ्या संज्ञी आहा.. साकार, | अना. अनाकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष 4. गुण स्थान अपर्याप्त स्थान ७ २ सामान्य १ ८ २ पर्याप्त १० ३ सामान्य १२ अपर्याप्ष्ट १ २ ६/६ सासा सं. प. ६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्त १ सासा, १ (पर्या. मिश्र ही) १२ ४ पर्याप्त १३ ४ अपर्याप्त ११ ४ सामान्य १ अनि जीव समास १ अवि १ ६ सासा, सं. अप. अपर्याप्ति १ अवि १ स. प. पर्याप्ति ६ पर्याप्ति १ ६ सं. प. पर्याप्ति २ सं. ६/६ ६ पर्याशि सं अप. ६ अपर्याप्ति १ ६ सं प पर्याप्त १ દ્ सं अप अति प्राण १०/७ १० १० 9 १०/० १० 20 १० ४ G ४ ३ गति ४ १ ४ ३ नरक रहित 20 ४ नरक रहित ४ ३ देव ३ नरक रहित नरक रहिव ३ नरक रहित २. देव मनु इन्द्रिय काय १ १ पं. 4. 10 पं. b १ पं. र पं. b पं. १ पं. १ १२ त्रस मन ४, वच. ४ ओ. १.२.२ का. 24 १ १० त्रस मन ४, बच. ४ औ. १, वे. १ १ त्रस 1410 २० प्ररूपणाए योग १ त्रस १० त्रस मन४, वच. ४ औ. १, वे. १ १ त्रस कार्मण १३ आ.द्वि. रहित १ १० त्रस मन ४, वच. ४ ओ.१.२.१ २ वेद ३ ४ hlag ३ ४ १ ४ ३ ४ ३ ४ ३ ४ ओ... 5. ३.मि. कामण १ ४ ज्ञान ३ अज्ञान ३ अज्ञान संयम عبد दन ३ १ २ असंयम चक्षु अचक्षु | १ २ असंयम चक्षु. अचक्षु १ २ ज्ञानाज्ञान अयम चक्षु, अचक्षु मिश्र २ २ २ १ १ १. कुमति, कुश्रुत असंयम चक्षु अचक्षु का. पद्म भव्य शु. १ ३ ३ मति, श्रुत. असंयम चक्षु, अचक्षु अवधि अवधि ३ ३ १ मति, श्रुत, असंयम केवल अवधि बिना ३ १ मति, श्रुत, असंयम केवल अवधि لله लेश्या द्र, भा भव्य बिना ६ १ १ पद्म भव्य १ ६ १ (पद्म भव्य १ पद्म भव्य १ पद्म भव्य १ पद्म भव्य २ १ १ का पद्म भव्य शु. सम्य. १ सासा १ सरसा १ सासा १ मिश्र ३ औ, क्षा. क्षयो. ३ औ., क्षा. क्षयो. ३ क्षयो, संज्ञित्व आहा उपयोग १ २ २ संज्ञी आहा. साकार, अना. अना. १ संज्ञी १ आहा. २ साकार अना. २ २ संज्ञी आहा. साकार अना. अना. १ ༢ २ सज्ञी आहा साकार अना. १ २ संझी आहा. साकार अना, अना १ २ 'संज्ञी' आहा साकार, अना. १. २ २ संज्ञी आहा. साकार, अना, अना, सत् २५० २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष 22 له गुण स्थान د S 9 1st अपर्याप्त स्थान समास १ | १ पर्याप्त ५ वां | सं.प. १ पर्याप्त प्रमत्त सं प ही पर्याप्त पर्याप्त = १. पर्याप्ति. ६/६ ६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्तः पर्याप्त ६. शुक्ल लेश्या -- (ध. २/१,१/७६०-८०१) (सामान्य) १३ २ १-१३ – सं. १३ १-१३ सं. प. - पर्याप्ति ६/६ प. ६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्त - पर्याप्ति प्राण १०/७ 834 १० १०/७, ४/२, १०, ४, ७,२ संज्ञा Do 20 आ. रहित असंज्ञा १०,४ ४ गति असंज्ञा ०० ब २. १ ~ 1 ३ नरक लरहित 2 By لله ३ M इन्द्रिय काय प. .. ܝ ܝܦܢ t १ त्रस १ F त्रस मन४, वच. ४ औ. १. आ. २ १ योग - w मन ४, बच. ४ औ. १ मन४, बच. ४ ओ. २० प्ररूपणाएँ १ त्रस मन४, बच. ४ वेद कषाय ३ | ४ ३ ४ or अपगत अकषाय ०८ ११ ३ ४ | 20 अपगत औ. १, बै.१ ल आ. १ अकषाय ०८ ज्ञान ३ १ मति श्रुत. . देश सं. अवधि ४ ३ मति, श्रुत सा., छे.. अव.. मनः परि० संयम U ४ मति, श्रुत. सा., छे. अवधि, मन परि 1 Л -24 दर्शन केवल बिना - कवल बिना 20 20 ४ तस्या द्र. भा. "W AAJ | 3 G& ए ow ki भव्य भव्य, अभव्य R शु. भव्य, अभव्य सम्य औ. क्षा, क्षयो M २ ओ. क्षा, संज्ञी आहा. साकार क्षयो. अनाकार ov संज्ञित्व आहा. उपयोग وه ११ २ संज्ञो आहा साकार अना. २ संशी आहा साकार, अनाकार १ २ २ सज्ञी आहा. साकार, अनुभय अना. अनाकार १ १ सज्ञा आहा साकार, अनुभय r सत् २५१ २. सत् विषयक प्ररूपणाएं Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं थान लेश्या | पर्याप्त गुण | जीव । अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति प्राण | गति इन्द्रिय काय योग ज्ञान वेद संयम दर्शन भव्य सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग ७.२ ४ अपर्याप्त ५ १,२,४, सं. अप. अपर्याप्ति असंज्ञा ८ देव पं. स | औ.मि., पु. अपगत अकषाय ४ विभंग, मन असंयम रहित, सा.,छ.. । २१ २ का. शु. भव्य | मिश्र अभव्य रहित संज्ञी आहा. साकार अनुभय अना. अना. परि युगपतं आ.मि. कार्मण ४ १ सामान्य १ । २ । ६६ । १०७ मिथ्या सं.प.६ पर्याप्ति सं. अप.६ अपर्याप्ति ३ नरक रहित १ पं. अज्ञान असंयम चक्षु. अचक्षु १ १२ त्रस मन४, बच.४ वै.२ औ.१, कार्मण शु. भव्य | मिथ्या संज्ञी | आहा. | साकार अभव्य] अना. | अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मिथ्या सं.प. पर्याप्ति - २५२ अज्ञान नरक | रहित. पं. ] त्रस मन, वच.४ औ.१, वै. संयम चक्षु. अचक्षु| | शु. भव्य | मिथ्या | संझी | आहा. साकार, अभव्य अनाकार ६१ अपर्याप्त १ १ मिथ्या सं. प. अपर्याप्ति | | देव | पं. | त्रस | वै. मि. पु. कामण कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षुका. शु. भव्य | १ । २ । २ मिथ्या संज्ञी आहा. साकार अना. अना. श.. अभळ्या ७२ सामान्य १ ।२ । सासा | सं, प. पर्याप्ति सं. अप. अपर्याप्ति पं. स । नरक रहित अज्ञान असंयम चक्षु. अचश्च शु./ भव्य मन४, बच.४ वै.२ औ.१ कार्मण । सासा संज्ञो आहा. साकार अना. अना. ८२ पर्याप्त १ । १ ।। सास। सं.प. पर्याप्ति २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ स नरक | पं. रहित । अज्ञान असंयम चक्षु. अचक्षु शु., भव्य, मन४, बच.४ औ.१, वै.१ सासा | संज्ञी आहा. साकार अना. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ लेश्या पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास | पर्याप्ति प्राण गति इन्द्रिय | काय योग कषाय ज्ञान | संयम दर्शन भव्य । सम्य. संशित्व आहा. उपयोग | । ७ । । । 1६२ अपर्याप्त, १ १ ६ सासा. सं.अप अपर्याप्ति १ । देव । १ पं. १ । २ त्रस । वै मि., कामण पु. कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु., अचक्षु शु. भव्य । सासा. - संज्ञो आहा. साकार अना. अना. - । - १०.३ सामान्य १ १ (पर्याप्त मिश्र सं.प, ६ पर्याप्ति नरक रहित पं. | वस मन४, वच.४ औ.१, बै. ज्ञानाज्ञान अमंयम चक्षु., अचक्षु मिश्रित शु. | भव्य | मिश्र संज्ञी आहा. साकार, | अना. - ११४ सामान्य १ २ । ६/६ अवि. सं.प.६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्या. पं. त्रस | नरक रहित आ. द्वि. रहित मति, श्रुत. असंयम केवल अवधि शु. भव्य | औ., क्षा. | संज्ञी | आहा. | साकार क्षयो. अना. अना. अना.. बिना - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पर्याप्त | १ १ | अवि.सं.प. पर्याप्ति १० २५३ || पं. | शु. भव्य नरक रहित स मन४, वच.४ औ.१ वै.१. मति, श्रुत असंयम केवल अवधि मिना औ..क्षा, संशी आहा. | साकार क्षयो. अना. 1९३ ४ अपर्याप्त १ १ ६ अवि.सं.अप. पर्याप्ति | पं. | स | औ. मि., पु. । मति, श्रुत असंयम केवल अवधि बिना का. शु. भव्य शु. औ. क्षा. संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अना. | अना. कार्मण _ २४५ सामान्य ११६ (पर्याप्त ५वाँ | सं. प. पर्याप्ति ही) पं. त्रस आहा. साकार मन४, बच.४ | औ.१, |मति, श्रुत. असंयम केबल अवधि बिना भव्य | औ. क्षा. | संज्ञी क्षयो.. अना, - २. सत् विषयक प्ररूपणाएं प्रमत । प. | त्रस सं. प. ६पर्याप्ति सं. अप., ६ अपर्याप्ति मन४, वच.४ औ.१,आ.२ मति, श्रृंत. सा.छे, केवल अव., मनः। परि. बिना शु. भव्य | औ. क्षा. | संज्ञी आहा. साकार क्षयो. अना, __ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत लेश्या | प्राण ज गति इन्द्रिय | काय पर्याप्त ! गुण | जीव | पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान समास योग संयम | दर्शन ज्ञान भव्य सम्य, संज्ञिल आहा. उपयोग कषाय द्र.भा. १ १५ | ७ सामान्य १ । १ ६ (पर्या. ७ वां सं. प. पर्याप्ति पं. | शु. भव्य त्रस मन४,वच.४, औ.१ आ.रहित -मति., श्रुत.,सा., छे, केवल | अब., मन. परि. | बिना औ.. क्षा.संज्ञी आहा, साकार क्षयो. अना. हो) सव | मूलोधवत् - आलाप ७. अलश्य-(ध. २/१.१/८०१) मूलोघवत् - - ११४ । पर्याप्त १४वां सिद्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २५४ | मूलोधवत् - - ११. मन्यत्व मार्गणा१. भव्य-(ध.२/१,१/८०१) १) सर्व । - । - आलाप | २. अभव्य--(ध. २/११/८०३) |१|१सामान्य १ । १४ । पर्याप्ति 14६,७५, अपर्याप्ति अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु अभव्य मि. आ.द्वि. | रहित । २ । २ । २ । | संज्ञो | आहा. साकार, असंज्ञी| अना. अना, २१ पर्याप्त | १ पर्याप्ति | अज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु अभव्य मि. | संज्ञी आहा. साकार मन, वच.४ औ. १, वै. अना. |३१ अपर्याप्त १ २२६ कुमति,कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षुका.! अभव्य अपर्याप्ति मि. | संझी आहा. साकार. असंज्ञी अना. अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएं वै, मि.. कार्मण Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ सत् स्थान मार्गणा विशेष पर्याप्त गुण | जीव अयपप्ति स्थान | समास लेश्या पर्याप्ति | प्राण - गति | इन्द्रिय काय | योग ज्ञान | संयम दर्शन भव्य सम्य संज्ञित्व आहा. उपयोग 6 १२. सम्यक्त्व मार्गणा१. सम्यक्त्व सामान्य १. सामान्य। ११ । २ । ६/६ १०/०४/२ ४-१४ सं.प.६ पर्याप्ति १ अतीत असं अप./६ अपर्याप्ति अतीत प्राण, गुण. अतीत अतीत जीव स. पर्याप्ति असंज्ञा अनुभय सिद्ध गति ४ त्रस । अयोग अकाय अनिन्द्रिय Am अपगत - अकषाय ० भव्य | औ., क्षा.: संज्ञी आहा. साकार, अनुभय क्षयो. अनुभय अना. अना. युगपत् 0 २ पर्याप्त १११ ६ ४-१४ सं. प. पर्याप्ति १०,४, १ A. असंज्ञा वै. मि. रहित अथवा अपगत अकषाय ०८ अलेश्य - भव्य | औ., क्षा, संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अनुभय अना. | अना. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २५५ मन४, बच.४ औ.१, वै. आ.१ अपर्याप्त ३ । १ । ६ ४,६ सं. अप. अपर्याप्ति । ७. २ ४ ४ १ पं. १ स असंज्ञा का. ४ औ.मि., वै. पु. मि.,आ.मि.. नपुं. कार्मण अप. भव्य hinet मति, श्रुत, असंयम अव., केव. सा., छे. यथा औ , क्षा, संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अनुभय अना. | अना. युगपत् 0 ४ २. क्षायिक सम्यक्त्व-(ध.२/१,१/८०७.८१२) १. सामान्य ११ । २ । ६/६ १०/७४/२/४ ४-१४ | सं.प.६ पर्याप्ति | अतीत प्राण अतीत सं. अप. ८ अपर्याप्ति अतीत अतीत प. मति, श्रुति, अनुभय असंज्ञा सिद्ध गति ४ क्षा. अलेश्य m अपगत भव्य । अनुभय | संझी | आहा. साकार, अनुभय अना, अना. युगपत् २. सत् विषयक प्ररूपणाएं मन:, केवल Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सद् लेश्या गुण स्थान पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान . पर्याप्ति स्थान समास प्राण संज्ञा गति | इन्द्रिय काय | योग बंद Elle ज्ञान | संयम दर्शन भव्य सम्य. संज्ञित्व आहा. | उपयोग भा. | पर्याप्त १०,१२,१/४ ४ ११ । १ । ४-१४ | सं. प. पर्याप्ति पं. ज्ञान भव्य असंज्ञा वस मन४,वच,४ औ. १, वै. आ.१ । अलेश्य से क्षा. klaut । १ । २२ संही आहा. साकार अनुभय, अना. | अना. | ا ३ अपर्याप्त | ३ ४.६ | १ ६ सं. अप. अपर्याप्ति पं. - त्रस पु. असंज्ञा औ.मि., वै. मि., आ.मि.. कार्मण hlastele मति, श्रुत. असंयम | अव. केवल सा., छे यथा का. का. भव्य शु. शुभ संज्ञी | आहा. साकार अनुभय अना. अना. ४ | ४ । ४४ सामान्य १ २ ६/६ | अवि सं. प.६ पर्याप्ति सं. अप. ६अपर्याप्ति १०/ ७ १० १ । पं. , त्रस | भव्य । क्षा. संज्ञी । आहा. साकार जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश आ. द्वि. रहित | मति, श्रुत. असंयम केवल अवधि बिना २५६ - अविसं.प. पर्याप्ति पं. भव्य । क्षा. त्रस मन४, वच.४ औ.१ बै.१, मति, श्रुत. असंयम केवल अवधि निना संज्ञी | आहा. | साकार || ४ | अपर्याप्त - १ । १ . ६ अविसं. अप. अपर्याप्ति - त्रस | औ, मि., | पु. संज्ञी आहा. साकार |मति, श्रुत. असंयम केवल अवधि मिना का. का. भव्य शु. शुभ - देश सं.प. पर्याप्ति मनु. पं. क्षा. वस मन४, बच.४ औ.१ --मूलौघवत् मति, श्रुत. देश सं. केवल अरधि बिना संज्ञी आहा. साकार अना. -मूलोधवत्→ सव - -मूलोघवव आलाप सिद्ध ६-१४ २. सत् विषयक प्ररूपणाएं Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ मार्गणा विशेष सत् भा०४-३ सं गुण स्थान पप्ति गुण । जीव पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान सभास संज्ञा लेश्या द्र, भा. भव्य । सम्य. कषाय गति इन्द्रिय | काय प्राण योग। ज्ञान संयम | दर्शन संज्ञित्व आहा. उपयोग ३. वेदक सम्यक्त्व-(ध. २/१,१/८१२-८१७) १। सामान्य ४ । २ । ६/६ । ४-७ सं. प. ६ पर्याप्ति | सं. अप. ६अपर्याप्ति १०७ ४ ४ १ १५ ३ | ४ ४ ५ ३ मति, श्रुत. असंयम केवल अव., मनः देश सं. बिना ६.६१ १ १ | आहा. साकार ! भव्य | क्षयो, | संज्ञी अना, | अना.. __ | परि. | पर्याप्त | ४ १ । ६ |४-७ । सं.प. पर्याप्ति ६६ १ | १ भव्य । क्षयो. | १ | १ | २ | संज्ञो | आहा. साकार पं. त्रस मन४, वच.४ । मति, श्रुत. असंयम केवल अव , मनः देश सं. बिना सा., छे. परि. अना. आ. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २५७ ३ ७ ४ ४ । अपर्याप्त २ । १ । ४,६ सं: अप. अपर्याप्त २६ १ १ २ । २ का. भव्य । क्षयो, । संही आहा. साकार १ ४ २४ ३ ३ ३ पं, | त्रस औ.मि..वै. पू. मति, श्रुत. असंयम केवल मि ,आ,मि.,नपुं. अवधि सा., छ. बिना कार्मण शु. |४४ सामान्य १ । २ । ६/६ अवि सं.प.६ पर्याप्ति सं. अप. ६अपर्याप्ति ६. | स , आ, द्वि.. भव्य । क्षयो. संज्ञी आहा. साकार मति, श्रुत. असंयम केवल अवधि निना |५४ पर्याप्त १ १ ६ अविसं. प. पर्याप्ति पं. | सही आहा. साकार ४ अपर्याप्त १ । १ । अवि सं.अप. अपर्याप्ति स मन४, बच.४, मति, श्रुत, असंयम केवल । भव्य । क्षयो. औ. १, वै. अवधि बिना १ । ३ २४ ३ १ ३ २६ १ त्रस औ. मि., पु. मति, श्रुत. असंयम केवल का. भव्य । क्षयो. वै. मि., न. अवधि बिना शु. कामण 4. संज्ञी | आहा. साकार २. सत् विषयक प्ररूपणाए Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष ૭ गुणस्थान | जीव पर्याप्त गुण अपर्याप्त स्थान समास ५ सामान्य २ १ पर्या देश ही) ८ ६ सामान्य ६७ सामान्य 1 १ प्रमत्त ४. उपशम सम्यक्त्व - पर्याप्त १ १ (पर्या. अप्रमत्त सं. प. ही) सामान्य ८ १ ६ सं. प. पर्याप्ति २ सं. प सं. अप ८ ४-११ पर्याप्ति ६/६ ६ पर्याप्ति अपर्या २ ६/६ ४-११ संप. ६ पर्याप्ति स अप ६ अपर्याप्त पर्याप्ति १ ६ सं.प. ६ अपर्याप्त प्राण ༢༠ १०/७ १० १०/७ १० संज्ञा ४ आ. रहित असं ज्ञा ४ १ असज्ञा c गति इन्द्रिय काय ४ २ वि. मनु. ~ HD १ ४ ४ १ पं. A १ प. १ पं. art १ पं. A प. १ ह त्रस मन४, वच ४. बी. १ १ त्रस १ त्रस 2 २० प्ररूपणाएँ योग १ त्रस ११ मन४, बच.४, at.1.07.2 င် मन४, बच. ४. औ. १ १२ मन४, वच ४ औ. १, वै. २, कार्मण १ १० त्रस मन४, बच. ४. औ. १, बै.१. वेद कषाय ३ ४ ३ | ४ ३ ४ ३ ४ अपगत * ३ ४ अपगत उप. क. ज्ञान لله १ ३ श्रुत, मति, बुत, देश सं. केवल अवधि मिना 20 ४ ३ मति, श्रुत, सा, छे, अवधि, मन परि 20 संयम ४ 4. ३ मति, श्रुत, सा, छे, अवधि, मन परि ४ दर्शन अवधि मन रहित ३ केवल मिना ३ केवल बिना ३ केवल बिना ४ मति घुत परि अव मनः रहित बिना $ लेश्या द्र. भा, ६ ३ भव्य १ शुभ भव्य १ शुभ भव्य སྠཽ ཨ शुभ भव्य १ भव्य सम्य. १ क्षयो. क्षयो, १ क्षयो. औप or १ भव्य श्री. संज्ञित्व आहा उपयोग १ १ २ संज्ञी आहा साकार, अना. संज्ञी १ २ आहा साकार, अना. १ २ संज्ञी आहा साकार, अना. १ २ २ संज्ञी आहा साकार, अना. अना, १ २ २ संज्ञी आहा साकार, अना, अना. ট सत् २५८ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएं लेश्या गुण स्थान पर्याप्त । गुण जीव .. पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान समास । प्राण संजा गति इन्द्रिय काय | योग कषाय ज्ञान संयम | भव्य सभ्य. संशित्व आहा. उपयोग भा. 'अपर्याप्त अविसं. प. अपर्याप्ति पं. ३ २३] १ त्रस व.मि., का.पु.|मति, श्रुत, असं यम केवलका . शुभ भव्य | औप. | संज्ञी आहा. साकार अवधि बिना शु. द्वितीयोपशम |अना. अना. १०७ ४ ४ ४४ सामान्य १ २ ६/६ अविसं.प. ६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्ति १ पं. वस मन४, बच.४ औ. १, वै.२ (मति, श्रुत., असंयम केवल अवधि | संज्ञो आहा. साकार, अना. | अना. बिना का. . ४ पर्याप्त १ अवि | सं.प. पर्याप्ति भव्य मति, श्रुत.. असं यम केवल अवधि बिना औप. पं. [ त्रस मन ४, वच.४ औ.१, वै. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश संज्ञी आहा. | साकार अना. ६४ अपर्याप्त अपर्याप्त' १ १ ६ अवि | सं.प. अपर्याप्ति | देव प. | त्रस । बै, मि. पु. कामंण मति, श्रुत., असंयम केवलका . शुभ भव्य | औप. संज्ञी आहा. साकार अवधि बिना शु. द्वितीयोपशम अना. अना. ७५ सामान्य १ । | (पर्या. देश सं. सं. प. पर्याप्ति ही) पं. | शुभ भव्य मति, श्रुत, देश सं. केवल अवधि औप, , त्रस मन४, वच.४ औ.१ | संशी आहा. साकार अना. बिना ८६ सामान्य १ - १ प्रमत्त सं. प. | पर्याप्ति मति, श्रुत.. सा., छ, केवल अब, मनः | | मनु । प. | वस मन४,बच.४ औ.१ शुभ भव्य | संज्ञी | आहा साकार अना. बिना २, सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार्गणा विशेष २०प्ररूपणाएँ सत् गुण स्थान पर्याप्त | गुण । जीव पर्याप्ति अपर्याप्र स्थान समास | गति इन्द्रिय | काय प्राण योग कषाय ज्ञान संयम म दर्शन । लेश्या भव्य दर्शन भव्य सभ्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग द्र.भा, - | ७| पर्याप्त ७वाँ सं. प. पर्याप्ति | पं. शुभ भव्य औप, आ.रहित वस मन४, वच.४, औ.१ | मति, श्रुत सा., छे. केवल अवधि, मन संज्ञी | आहा. साकार अना. बिना १०८, सर्व आलाप मुलोघवत् १ औ, -मूलोघवत→ ओघमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २६० - ओधमें सासादन गुणस्थानवत् ५. मिथ्यात्व-(ध.२/१,१/८२५) १ | १ सर्व आलाप - ६. सासादन सम्यक्त्व-(ध. २/१,१/८२५ ) १ २ (सर्व आलाप / - ७. सम्यग्मिथ्यात्व-(ध.२/१,१८२५) र | ३ सर्व आलाप । - - १३. संज्ञी मार्गणा १. संशी- (ध. २/१,१/२५-८३४) १. सामान्य १२ / २ ६/६ १-१२ सं. प. ६पर्याप्ति सं.अप. ६ अपर्याप्ति - मूलोषमें सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानवत - १०७४४ | १ १ १५ ७ ३ ६ असंज्ञा अपगत अकषाय र । ३/४ ७ केवल ज्ञान | बिना केवल ६६ २ . भव्य, अभव्य । १ १ । २ । २ संज्ञी | आहा. साकार अना. अना. बिना पर्याप्त १२ । १ । । १-१२, सं.प. पर्याप्ति असंज्ञा वस मन४, बच.४. अपगत अकषाय केवल ज्ञान নিন। केवल লিনা भव्य अभव्य संज्ञी | आहा. साकार अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएं आहा.१ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष | सं. m ४ गुणस्थान जीब पर्याप्त गुण अपर्याप्त स्थान समास १ सामान्य ६ १ अपर्याप्त ८ २ पर्याप्त १ ६ १,२,४ सं. अप अपर्याप्त ४ १ पर्याप्त १ ६ २ अपर्याप्त 20 १ २ ६/६ मिथ्या । सं. प. ६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्त २ सामान्य १ १ मिथ्या सं प पर्याप्ति पर्याप्त १ ६ १ मिथ्या स. प. अपर्याप्त सासा २ सं.प. सं अप १ सासा ६/६ ६ पर्याप्ति अपय १ १ ६ सासा सं. प. पर्याप्ति १ ६ सं. अप अपर्याप्त प्राण ७ 10/0 १० 6 10/0 १० संज्ञा ४ गति ४ ४ 30 ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ३ नरक रहित इन्द्रिय | काय १ १ प. त्रस १ arb पं. १ पं. १ पं. १ पं. १ 4. १ पं. त्रस त्रस १ त्रस १ त्रस १ त्रस १ त्रस २० प्ररूपणाए योग ४ fa.. वै. मि. आ. मि. कामण १३ आ.द्वि. ह १० मन४, बच. ४ ओ. १.. ३ ओ. मि.. वै.मि. कार्मण १३ आ.द्वि. राहत वेद ______ ३ औ. मि. बै. मि. का. ३ ४ ३४ ३ ४ ३ ४ ३ | ४ १० ३ ४ मन ४, वच, ४ औ. १, वे. १ ३ ४ ज्ञान ५ कुमति ३ ज्ञान ३ अज्ञान अज्ञान r ३. अज्ञान ३ अज्ञान संयम २ न दर्शन ३ ३ असयम केवल सा., हे बिना १ २ असंयम चक्षु अचक्षु १ २ असंयम चक्षु. अचक्षु १ २ कुमति, कुश्रुत असंयम चक्षु अचक्षु का शु. २ असंयम चक्षु, अचक्षु १ २ असंयम चक्षु, अचक्षु ཁྐྲ་ लेश्या द्र, भा. भव्य २ | ६ का. शु २ कुमति, कुश्रुत असंगम चक्षु. अचक्षु का शु. ६ २ भव्य अभव्य २ ६ २ २ भव्य अभव्य २ भव्य अभव्य ६ १ भव्य भव्य २ ६ १ १ भव्य मिथ्या अभव्य सम्य. भव्य १ ५ सम्यग्मि, संज्ञी विना १ मिथ्या १ मिथ्यां १ सासा १ सासा संज्ञित्व आहा. उपयोग १ सासा १ २ २ संज्ञी आहा. साकार अना. अना. संज्ञी १ संज्ञा २ २ आहार साकार अना, अना. २ संशो आहा. साकार. अना, अना १ संज्ञी १ संज्ञी १ २ आहा साकार, अना. २ २ आहा. साकार अना. अना. १ २ आहा साकार, अना. २ २ आहा. साकार, अना. अना. सत् २६१ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं सत् मार्गणा विशेष | पर्याप्त | गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास लेश्या गुण स्थान पर्याप्ति | प्राण गति इन्द्रिय काय | योग । # ज्ञान | संयम दर्शन भव्य | सम्य, संज्ञित्य आहा. उपयोग द. भा. |१०| ३ सामान्य । पर्याप्त मिश्र सं.प., पर्याप्ति त्रस मन४, वच. औ. १, वै. | ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु मिश्र मिश्र संज्ञी | आहा. साकार अना. १०/७ ४ ४ । . ११.४ सामान्य १ । २ | | अवि. । सं.प.६ पर्याप्ति सं. अप.६ अपर्याप्ति त्रस | आ.द्वि. विना मति, श्रुत. | असंयम केवल अवधि | भव्य | औ., क्षा., संज्ञी क्षयो. आहा. साकार, अना. अनाकार बिना १२/४ पर्याप्त १ १ ६ अवि. सं.प. पर्याप्ति वस मन४, बच.४ औ.१, वै. । । मति, श्रुत. असंयम केवल अवधि औ..क्षा., | संझी | आहा. साकार, क्षयो. अनाकार बिना २६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २६२ १३ ४ अपर्याप्त |२६ १ १ ६ अवि. सं.प. अपर्याप्ति १ २ २ भव्य | औ., क्षा., संज्ञी आहा., साकार, क्षयो. अना. अनाकार प्रस | औ. मि.. पु.. । मति, श्रुत. असंयम केवल वै. मि., नपुं. का. । अवधि बिना सर्व मूलोघबद लिाप २. असंशी-(ध.२/११/८३४-८३५) | ति. मि. सं. प. पर्याप्ति |८/६७/५ (२) | व | अपर्याप्ति ६/४/३ (दे. जन्म/४) सं. अप. रहित अनु-बच.१, औ. २, का.१ कुमति, कुश्रुत असंयमचक्षु, अचक्षु अशु भव्य, | मिथ्या असंज्ञी | आहा- साकार, अभव्य अना. अनाकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष गुण स्थान पर्याप्त गुण जीव अपर्याप्त स्थान समास ३ १ अपर्याप्त १ पर्याप्त १ ६ मिष्या स. प. बिना १-१३ २ २. अनुभव घ. २/१. २/८३८ ) सिद्ध सर्व | आलाप १ सामान्य १३ १-१३ १४. आहारक मार्गणा १. आहारक (६, २१/०९/०६६-८५०) पर्याप्त ६ ५,४ मिथ्या सं. अप अपर्याप्त बिना निवृति १३ १-१२ पर्या ५ १.२.४. ६, १३ पर्याक्षि 60 ५.४ पर्या 60 अप. 1 प्राण १४ ६.५.४ १०/७: ६/७ ४ ८/६: ७/५ 15 पर्याप्ति अपर्या६/४:४/३. ४/२ ६,५.४ पर्याप्त क ६.७६४४ १ ति. ७,६५,४.३ ४ 1 १०,६,८,७, ४ | ६.४.४ ६,२.४ अपर्याप्त ३.२ असंज्ञा गति इन्द्रिय काय असंज्ञा दि. 1 ४ ७,७,६,५,४,४४ ४ ५ 1 ५ 幾 ६ ६ ६ w ६ योग २ अनु. वच. १. औ. १ २ को मि कार्मण → लोचनय १४ कार्मण २० प्ररूपणाऍ ११ मन ४, बच. ४ ओ. १. बै. औ. १ ३ at.f., .मि. आ. मि.. वेद ३ कषाय__ - ४ ३ | ४ २० or Puble अकषाय ३ ४ अपगत अकषाय ३ | ४ अपगत अकषाय ज्ञान संचम م 24. ~ ; ↑ २ कुमति, कुश्रुत असंयम चक्षु, अचक्षु १ २ कुमत असंयमका H - ४ कुमति, कुश्रुत असंयम. मति, दर्शन श्रुत, सा., छे.. अब केवल परि. x ४ ४ 20 ४ लेश्या द्र. भा. २ शु. अशु. . अशु. ३ भव्य १ ६ २ भव्य, अभव्य / २ भव्य, अभव्य ६ ६ २ २ १ २ २ भव्य, मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार अभव्य अना. अनाकार भव्य, अभव्य सम्य २ भव्य, अभव्य १ १ १ २ मिथ्या असंज्ञी आहा. साकार. अनाकार 1 1 संज्ञित्व आहा उपयोग ६ ५ मिश्र बिना 1 असं अनुभय २ १ २ मंज्ञी 1 आहा. साकार, अनाकार युगपत् १ २ संज्ञी आहा साकार, असंज्ञा अनाकार अनुभय युगपत्. २ १ संज्ञी आहा असंज्ञी | अनुभय २ साकार अना. युगपत् सत् न न २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् लेश्या गुण स्थान पर्याप्त गुण | जीव | पर्याप्ति अपर्याप्त स्थान | समास प्राण गति इन्द्रिय | काय योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग, ६५.४ ४ ४ ५ ६ ४ सामान्य १ । १४ मिथ्या । १२ ३ मन४, वच.४] औ.२, वै,२ ३ अज्ञान पर्याप्ति ८/ ७/ अपर्याप्ति ६४; ४/३ असंयम चच. अचक्षु भव्य अभव्य मिथ्या | संज्ञो आहा. साकार असंज्ञो. अना. ४] ४ ५ ६ [५१ पर्याप्त १ । ७ । ६,५,४ | १०,६,८,७, मिथ्या पर्याप्ति ६४ । मन,वच.४ औ.१, वै. अन्नान असंयम चक्षु. अचश्च | भव्य मिथ्या | संजी, आहा. साकार अभव्य असंही अना. ७ . ६१ निवृत्ति १ | अपर्याप्त मिथ्या अपर्याप्ति कुमति, कुश्रुता असंयम चक्षु, अचक्षुका. औ. मि., वै. मि. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भव्य अभव्या १ २ । १ । २ मिथ्या | संज्ञो | आहा. | साकार असंज्ञी अना. २६.४ १०/७ ४ ४ । |७|२ सामान्य| १ | २ ६६ । सासा. | सं, प.६ पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्ति १ । पं. | समन४, वच.४ औ.२, वै.२ अज्ञान असंयम चक्षु. अचक्षु | भव्य | सासा ___ संज्ञी | आहा. साकार, अनाकार -८२ पर्याप्त | १ । १ । सासा | सं.प. पर्याप्ति पं. अज्ञान असंयम चनु. अचक्षु भव्य | सासा त्रस मन, वच.४ औ.१, वै. संज्ञी आहा. साकार अना. ३ ४ १/२ निवृत्ति १ | १ | अपर्याप्त सासा. सं.अप. अपर्याप्ति १ २ पं. | त्रस | औ.मि. वै. मि. २ कुमति, कुभुतं असंयम चक्षु, अचक्षु का. नरक | रहित भव्य | सासा | संज्ञी | आहा. साकार अना. १०३ पर्याप्त १ । १ .६ ही. मिश्र सं.प. पर्याप्ति १ मिश्र २. सत् विषयक प्ररूपणाएं । ज्ञानाज्ञान असंयम चक्षु, अचक्षु | पं. - त्रस मन४, बच.४ औ.१, वै. भव्य । संज्ञी | आहा. साकार अना. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएं लेश्या मार्गणा विशेष पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास गुण स्थान पर्याप्ति प्राण ल गति इन्द्रिय | काय | योग ज्ञान कषाय संयम भा०४-३४ दर्शन भव्य | सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग द्र. भा. ११ ४ सामान्य १ २ ६६१०/ ७ अवि. सं. प. ६ पर्याप्ति | सं. अप. ६ अपर्याप्ति ४४ । १ । पं. - त्रस मन ४, वच.४ औ.२, वै.२. मति, श्रुत. असंयम केवल अवधि बिना | भव्य | औ..क्षा. | संज्ञी | आहा. | साकार क्षयो. अना. १२|४| पर्याप्त १० ४ ४ १ १ ६ अवि.सं. प. पर्याप्ति १ पं. वस मन, वच.४ मति, श्रुत. असंयम केवल अबधि भव्य | औ. क्षा. | संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अना. লিনা १३/४ निवृत्ति १ । १ ।। अपर्याप्त अवि. सं. प. अपर्याप्ति पं. त्रस | औ. मि., पु.] भव्य । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश . मति, श्रुत. असंयम केवलका अवधि बिना औ. क्षा. संज्ञा क्षयो. आहा. साकार अना. २६५ वै. मि. १४५ सामान्य १ । १ । ६ | (पर्याप्त ५ वाँ | सं.प. पर्याप्ति पं. वस |मति, श्रुत. | देश सं. केवल अवधि बिना | मन४, वच.४ औ.. शुभ भव्य औ., क्षा. संज्ञी | आहा. साकार क्षयो. अना. मनु १०/ ७ ४ । १५६ सामान्य १ २ ६६ प्रमत्त । सं. प. ६. पर्याप्ति सं. अप. ६ अपर्याप्ति १ | मनु १ पं. १ स । मन४,षच.४, औ., आ. | मति, श्रुत. सा., छे. केवल अब, मनः | परि. बिना | क्षयो. शुभ भव्य | औ., क्षा. | संज्ञी | आहा. साकार, अना. १० ३१ १६ | ७ | पर्याप्त १ १ ६ | ही अप्रमत्त सं.प. पर्याप्ति आ. मनु | पं. | त्रस | शुभ भव्य मन,वच.४ औ.१ मति, श्रुत. सा., छे. केवल | अव , मनः | परि. बिना औ.,क्षा, | संशी आहा. साकार क्षयो, अना. २. सत् विषयक प्ररूपणाएं रहित Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |मार्गणा विशेष २० प्ररूपणाएँ सत् लेश्या गुण स्थान पर्याप्त | गुण | जीव अपर्याप्त स्थान | समास पर्याप्ति प्राण संज्ञा गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान | संयम | दर्शन भव्य | सम्य. | संज्ञित्व आहा. उपयोग . १८ पर्याप्त ' हीवाँ सं.प, पर्याप्ति पं. आ. रहित वस मन४,वच.४, औ.१ |मति, श्रुत., सा. छे. केवल अव., मनः बिना शु. भव्य | औ., क्षा. - संज्ञा आहा. साकार, अना. १६8| प्रथम | १ । १ । भाग हवाँ | सं. प. पर्याप्ति मै. परि... । पं. वस मन, वच.४ | मति, श्रुत., सा. छे. केवल अव. मनः औ.१ बिना शु. भव्य | औ., क्षा. संज्ञी | आहा. साकार, अना, |२०६ शेष ४ भाग-- । → मूलोधवत 6 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश । २११० पर्याप्त १ हो । सु. १ सं. प. पर्याप्ति 4. | स मन४, वच.४ औ.१ सू. मति, श्रुत, सूक्ष्म | केवल | अव. मनः बिना । लोभ शु. भव्य | औ. क्षा. संज्ञी आहा. | साकार। अना. पर्याप्त १ | १ | ६ | १० हो । १९वाँ सं.प. | पर्याप्ति | १ मनु शु. भव्य औ. क्षा. | संज्ञी | आहा. | साकार उप. सं. पं. | उस मन४, वच. ४ औ.१ अपगत क. मति. श्रुत, यथा, उप. अव.. मन:। केवल बिना २३ १२. पर्याप्त ही १ १ ६ श्वाँ सं.प. पर्याप्ति असंज्ञा° पं. | स मन४, वच.४ औ.१ pleble यथा, केवल बिना शु. भव्य क्षा. राझी | आहा. अकषाय अव. मनः २. सत् विषयक प्ररूपणाएं - Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्ररूपणाएँ मार्गणा विशेष पर्याप्त गुण | जीव अपर्याप्त स्थान समास लेश्या गुण स्थान पर्याप्ति प्राण - गति | इन्द्रिय काय योग कषाय ज्ञान संयम दर्शन भव्य | सम्य, संज्ञित्व आहा. उपयोग द्र.भा. २४१३ सामान्य १ २ । ६६ । प., अप. सयो, प. अप.६ पर्याप्ति । ६अपर्याप्ति असंज्ञा मनु. अकषाय ० पं. | त्रस मन२, वच.२ औ.२ केवल. यथा.. केवल शुभ | भव्य | क्षा. अनुभय | आहा. | साकार अनाकार बिना | २. अनाहारक-(ध २/१,१/८५०-८५५) १ अपर्याप्त५ ८ ६.९४ |७,७,६,५, ४४ १.२. ४७ अपक्ष अपर्याप्ति । ४,३,२, १अयो। ६ पर्याप्ति १ ल गति असंज्ञा २ | भव्य, अनिन्द्रिय अकाय कार्मण अयोग विभंग व असंयम ३ चक्षु रहित मनः मिना यथा | दे, दर्शन/ अपगत अकषाय | २ | १ २ मिश्र । संशी अना. साकार बिना असंज्ञी अना.। अभव्य 36 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १४ अनुभय। ७३ प. अनुभय अतीत अतीतप अतीत प. अतीत प्राण, । २१ अपर्याप्त १ ७ । ही मिथ्या अप. | अपर्याप्ति | ४,३ कार्मण ३४ २ १ १ १६ २ २ । १ । २ । | कुमति,कुश्रुत असंयम अचच शु. भव्य, मिथ्या संज्ञी । अना. साकार. अभव्य असंज्ञी अनाकार |३|२ अपर्याप्त ही १ । सासा. सं. अप, अपर्याप्ति | पं. स कार्मण कुमति,कुश्रुत असंयम अचच शु. भव्य. सासा नरक रहित संज्ञी अना. साकार, अनाकार २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा विशेष 14. गुण स्थान 20 ज A 111 अपर्याप्त स्थान | ४ अपर्याप्त १ १३ अपर्याप्त १ the 28 1 4 ७ सिद्ध अतीत जीव समास १ अवि. सं. अप अपर्याप्त सया, पर्याप्ति १ सं. अप अपर्याप्त प्राण 0 ० अतोत अतीत | अतीत प. |गुणस्थान जीव समास २ ६ प्रयो. पर्याप्त पर्याप्ति आयु अतीत प्रा. संज्ञा २० असंज्ञा ● असंज्ञा ● असंज्ञा • गति 30 ov ० इन्द्रिय काय ܢ Po Ov ० अतीन्द्रिय 当 योग कामण ० अयोग अयाग २० प्ररूपणाएँ वेद कषाय o अपगत ० अकषाय अपगत ० ܤ अपगत अकषाय ० अकषाय ज्ञान - ि मति, श्रुत. असंयम अवधि 레 संयम - न दर्शन २ अचक्षु अवधि १ १ यथा. केवल दर्शन यथा, केवल दर्शन 0 अनुभय केवल दर्शन लेश्या द. भा. १ ६ १ یا १ १ kavi ० असेश्य भव्य अलेश्य ० अलेश्य ० भव्य १ भव्य ० र अनुभय सम्य संज्ञित्व आहा. उपयोग - १ औ. क्षा, संज्ञी अना साकार क्ष्यो. अना. क्षा. ० १ अनुभय अना. साकार -BLE FEE अनुभय अना. साकार ० | २ अनुभय| अतीत साकार अना. युगपत् सत् २६८ २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ सत् ६. अधःकर्म आदि विषयक आदेश प्ररूपणा. १३/५.४/११-१२) सं. १ गति मार्गणा: १ २ ३ १ २ ३ ४ k मार्गणा नरक गति सामान्य विशेष तियंचगति सामान्य विशेष पर्याप्त पंचेन्द्रिय अपर्या मनुष्यगति सामान्य विशेष पर्याप्त अपर्या 19 १ २ २. इन्द्रिय मार्गणा : १ २ ३ देवगति सामान्य विशेष १ २ ३ ४ योग मार्गणा :-- एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय पंचेन्द्रिय पर्याप्त पंचेन्द्रिय अपर्या पाँचों स्थावर त्रस पर्याप्त अप पाँचो मन वचन योग औदारिक व औ. मिश्र काय योग वै क्रियिक व वै. मिश्र काय योग आहारक व आ. मिश्र काय योग कार्मण काय योग वेद मार्गणा : तीनों वेद अपगत वेद 1 ६ कषाय मार्गणा १ चारों कषाय २ अकषाय ज्ञान मार्गणा : १ मतिभूत अज्ञान न विभंग २ मति ज्ञान प्रयोग कर्म समवधान कर्म अधः कर्म ईर्याथ कर्म तपः कर्म क्रियाकर्म 222 22 2 2 " " 33 39 " " » 1 2 मे " " 22 33 33 39 כן RR ७७ 3 35 X 22: " 5 כ X " " 39 ::> " X " X X XX x x x : x x x XX X x x x : x " x x x x : x x :: X x : x x × : 19 X 17 11 X x: x :: x :: ११ 11 :: x : : X १० X X K: x: X X X X " सं ३ ४ ८ १ २ ३ ४ २ ३ ४ अवधि मन:पर्ययज्ञान केवल ज्ञान संयम मार्गणा :-- २ मार्गा संयत सामान्य सामायिक धेोपस्थापना सूक्ष्म साम्पराय यथाख्यात संयतास ५ ६ ९ १ २ केवल दर्शन १० छेदमा मार्गणा : परिहार वि० असंयत दर्शन मार्गणा : चः अचक्षु व अवधिदर्शन शुक्ल अलेश्य कृष्ण, नील व कापोत लेश्या पीत पद्म ११ सम्यक्त्वमार्गेणा १ सामान्य क्षायिक, उपशम क्षयोपशम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश -: ३ सासादन व मिश्र मिथ्यादर्शन १२ मन्यत्व मार्गणा : १ भव्य २ अभव्य १३ संधी मार्गणा १ सेक्षी २ असंज्ञी १४ आहारक मार्गणा : १ आहारक, अनाहारक २. सत् विषयक प्ररूपणाऐं प्रयोग कर्म समवधान कम अधःकर्म ईर्यापथ कर्म :: " :: :::: " 13 ::::: ::::: ::::: 11 3 " " :: : :: :: :::: :: " 11 39 :::: :::: :::: : x x x Xx x x x " :: x x :: 2 X तपः कर्म क्रिया कर्म 2 2 x x : 15 PARX x 33 X X X::: X X : x X X ७. पाँचों शरीरोंकी संघातन परिशातन कृति सम्बन्धी * पाँचों शरीरोंके योग्य पुडुगल स्कन्धोंकी उत्कृष्ट जघन्य संघातन व परिशातन कृतियाँ ओघ व आदेश प्ररूपणा - ( ध. ६/४,१, ७१ / ३५४-३५८ ) 99 " X " x x : : x x :: :: x x : 31 x : " X : : : X X X X 11 X = Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कथा सत्कथा - दे. कथा | सत्कर्म तथा सत्कर्म पञ्जिका दे. परिशिष्ट - सत्व । सत्कमिक दे सक्रिया किया / २/३ सत्पुरुष - किम्पुरुष जातिका व्यन्तर देव - दे. किंपुरुष । सत्वाद--६/१५/१७/१७ भाषा -- चूंकि असत् कार्य नहीं किया जा सकता है ।... अतएव... कारण व्यापारसे पूर्व भी कार्य सतु ही है, यह सिद्ध है। ऐसा किन्हीं कपिलादिका कहना है । सत्संगति दे संगति । सतालक पिशाच जातीय व्यन्तर देव - दे, पिशाच । सतीपुत्र[मद्रास प्रान्त में वर्तमान केरल (म.पु. / प्र.५० ) । सत्कार पुरस्कार परिषह --- स.सि./६/६/४२६/६ सत्कारः पूजाप्रशंसात्मकः । पुरस्कारो नाम क्रियारम्भादिष्यग्रतः करणमामन्त्रणं वा तत्रानादरो मयि क्रियते । चिरो - पर्यस्य महातपस्विनः स्वपर समय निर्णयस्य महुकृष्णः परवा दिविजयिनः प्रणामासनादीनि मे न कश्चिकशेति निपात्राती भक्तिमन्तः किंचिदजानन्तमपि सर्वज्ञसंभावना संमान्यस्वसमयप्रभावनं कुर्वन्ति । व्यन्तरादयः पुरा अत्युग्रतपसा प्रत्यग्रपूजा निर्वर्तयन्तीति मिथ्याश्रुतिर्यदि न स्यादिदानीं कस्मान्मादृशां न कुर्वन्तीति दुष्प्रणिधानविरहितचित्तस्य सरकारपुरस्कारपरिषविजय इति निहायत सरकारका अर्थ पूजाविज्ञायते । - प्रशंसा है। तथा क्रिया आरम्भ आदिकमें आगे करना या आमन्त्रण देना पुरस्कार है । इस विषय में यह मेरा अनादर करता है। चिरकालसे मैंने मायका पालन किया है. महा तपस्वी हूँ, स्वसमय और परसमयका निर्णयज्ञ हूँ, मैंने बहुत बार परवादियोंको जीता है तो भी कोई मुझे प्रणाम, और मेरी भक्ति नहीं करता एवं उत्साहसे आसन नहीं देता, निष्यादृष्टि हो अत्यन्त मक्तिवाले होते हैं, कुछ नहीं जानने वाले को भी सर्वज्ञ समझ कर आदर-सत्कार करके अपने समयकी प्रभावना करते हैं, व्यन्तरादिक पहले अत्यन्त उग्र तप करने वालोंकी प्रत्ध पूजा रचते हैं यदि मिथ्या श्रुति नहीं है तो इस समय वे हमारे समान तपस्वियोंकी क्यों नहीं करते इस प्रकार खोटे अभिप्रायसे जिसका चित्त रहित है उसके सत्कारपुरस्कार परीषह जय जानना चाहिए। (रा.वा./६/१/२५/१९२/४) (चा.सा./१२६/५)। सत्तरिका परिशिष्ट में सप्ततिका दे. सत्ता पं.का./मू./८ सत्ता सम्बपयत्था सविस्सरूवा अणं तपज्जाया । पारवत सम्पत्रिहमद एक्का १८-सत्ता उत्पाद व्यय-धौ व्यात्मक, एक सर्वपदार्थ स्थिति, सविश्वरूप, अनन्तपर्यायमय और सापि है ( . १/४.१.४५ / ६०/१०१) सप्रतिपक्ष । गा (५.१३/५.३.१२/४/१६) दे. द्रव्य / १/१ [ सत्ता. सत्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि मे एकार्थक शब्द है] नि सा./ता.वृ./३४ अस्तित्वं नाम सत्ता अस्तित्वको सत्ता कहते हैं। * सत्ताके दो भेदमहासत्ता व अवान्तर सत्ता - (दे. अस्तित्व ) । सत्ताग्राहक द्रव्यार्थिक नयन / IV/२ सत्तावलोकन दर्शन १.३ । - दे. / सत्य -- जैसा हुआ हो वैसा ही कहना सत्यका सामान्य लक्षण है, परन्तु अध्यात्म मार्ग में स्वव पर अहिंसा की प्रधानता होनेसे हित व मित वचनको सत्य कहा जाता है, भले ही कदाचित् वह कुछ असत्य भी क्यों न हो। सत्य वचन अनेक प्रकारके होते हैं। -- २७० - सत्य १. सत्य निर्देश १. सत्य धर्मका लक्षण 1 मा. अणु /०४ परसंतावयकारणत्रयणं मोतृण सपरहस्य जो मददि भिक्खु तुइयो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं 1७४ | जो मुनि दूसरेको क्लेश पहुँचाने वाले वचनोंको छोड़कर अपने और दूसरेके हित करने वाले वचन कहता है उसके चौया सत्य धर्म होता है। स.सि./१/६/४१२/७ सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यमित्युच्यते । - अच्छे पुरुषोंके साथ साधु वचन बोलना सत्य है ५१६/०): (चा.सा./41/2 ) ( न घ.६/३५) । भ.आ./.४६/२५४/१६ स सानो हितभाषणं यमुनि और उनके भक्त अर्थात् श्रावक इनके साथ आत्महितकर भाषण बोलना यह सत्य धर्म है। (रा.वा./६६६ाध रा.सा./६/१० ज्ञानचारित्र शिक्षादी स धर्मः सुनिगद्यते धर्मोच्हणार्थ यत् साधु सत्यं तदुच्यते ।१७१ - धर्मकी वृद्धिके लिए धर्म सहित बोलना वह सत्य कहाता है। इस धर्मके व्यवहारकी आवश्यकता ज्ञान चारित्रके सिखाने आदि लगती है। पं. वि. / ९/११ स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च । विधेयं घोषने मौन ६१-मुनियोंको सदैव ही स्वपर हितकारक, परिमित तथा अमृतके सदृश ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए। यदि कदाचित् सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत होती है तो मौन रहना चाहिए।११। का.अ./मू./३१८ जण वयणमेव भासदि तं पालेदु असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो | ३६८|-जो जिनआचारोंको पालने में असमर्थ होता हुआ भी जिन-वचनका कथन करता है उससे विपरीत कथन नहीं करता है तथा व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता वह सत्यवादी है | २६८| २. महावतका लक्षण नि.सा./५७ रागेण व दोसेण व मोहेण व मोस भासपरिणामं । जो पजहृदि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव । ५७१ - रागसे, द्वेषसे अथवा मोहसे होनेवाले, मृषा भाषाके परिणामको जो साधु छोड़ता है, उसीको सदा दूसरा व्रत है |ভা आ./६.२६० रागादीहिं असचं पता परतावसच्चयोति सुतस्थावि कहणे अयधा वयणुज्झणं सच्चं | ६| हस्सभयको हलोहा मणिचिकायेण सव्वकालम्मि मोसं ण य भासिज्जो पच्चयधादी हवदि एसो | २६०१ - राग, द्वेष, मोहके कारण असत्य वचन तथा दूसरोंको सन्ताप करने से ऐसे चनको छोड़ना और द्वादशांग के अर्थ कहनेने अपेक्षा रहित वचनको छोड़ना सत्य महामत है। हास्य, भय, क्रोध अथवा लोभस मन-वचन-कायकर किसी समय में भी विश्वास घातक दूसरेको पीडाकारक वचन न बोले । यह सत्यवत · IREN ३. सत्य अणुव्रतका लक्षण र.क.आ./६४ स्थूलमती न वदति न पराम्यादयति सत्यमपि विप यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलाल झूठ तो नाप बोले न दूसरों से बुलवावे, तथा जिस वचनसे विपत्ति आती हो, ऐसा वचन यथार्थ भी न आप भोले और न दूसरोंसे बुलवाये ऐसे उसको सरपुरुष सत्यात कहते हैं। स.सि./७/२०/३६८/० स्नेहमोहादिवशाह गृहविनायो ग्रामविनाशे म कारणमित्यभिमाद सत्यवचनाशिवृतो गृहीति द्वितीयमवतस् ।गृहस्थ स्नेह और मोहादिकके वशसे गृहविनाश और ग्रामविनाशने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ १. सत्य निर्देश सत्य कारण असत्य वचनसे निवृत्त है, इसलिए उसके दूसरा अणुव्रत है। (रा.वा./७/२०/२/५४७/८)। ' बसु.श्रा./२१० अलियं ण जंपणीयं पाणिमहकर तु सच्चबयणं पि। रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ।२१०।--रागसे अथवा द्वेषसे झूठ बचन नहीं बोलना चाहिए, और प्राणियों का घात करनेवाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए. यह दूसरा स्थूल सत्यवत जानना चाहिए। का. अ./३३३-३३४ हिंसा बयणं ण बयदि कक्कस-बयण पि जो ण भासेदि। णि ठुरं वयणं पि तहाण भासदे गुज्म-वयणं पि ३३३॥ हिद-मिद अयणं भासदि संतोस-करंतु सब-जीवाणं । धम्म-पयासणवयणं अणुब्बदी होदि सो बिदियो ।३३४। -जो हिंसाका बचन नहीं कहता, कठोर वचन नहीं कहता, निष्ठुर वचन नहीं कहता, और न दूसरोंकी गुप्त बातको प्रकट करता है। तथा हित-मित वचन बोलता है, सब जीवोंको सन्तोषकारक वचन बोलता है, और धर्मका प्रकाशन करनेवाला वचन बोलता है वह दूसरे सत्याणुवतका धारी है ।३३३-३३४॥ ४. सत्यके भेद भ. आ./मू./११६३/११८६ जणबदसंमदिठवणा णामे रूवे पडुच्चयवहारे। संभावणववहारे भावेणोपम्मसच्चेण 1११६३। -जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतोति, सम्भावना, व्यबहार, भाव और उपमा सत्य ऐसे सत्यके १० भेद हैं । (मू. आ./३०८); (गो. जी /मू./२२२)। रा. वा./१/२०/१२/७५/२० दश विधः संत्यसद्भावः नामरूपस्थापनाप्रतीत्य-संवृति-संयोजना-जनपद-देशभाव-समयसत्यभेदेन। सत्यके दश भेद हैं-नाम, रूप, स्थापना, प्रतीति, संवृति, संयोजना, जनपद, देश, भाव, और समयसत्य। (ध. १/१.१.२/११७/६); (ध. १/४,१,४५/२१८/१)। - जो सब भाषाओं मे भातके नाम पृथक-पृथक बोले जाते हैं जैसे चोरु, कूल, भक्त आदि ये देशसत्य हैं। और बहुत जनोंके द्वारा माना गया जो नाम वह सम्मत्तसत्य है, जैसे-लोकमें राजाकी स्त्रीको देवी कहना ।३०। जो अर्हन्त आदिकी पाषाण आदिमें स्थापना वह स्थापनासत्य है। जो गुण की अपेक्षा न रखकर व्यवहार के लिए देवदत्त आदि नाम रखना वह नामसत्य है। और जो रूपके बहुतपनेसे कहना कि बगुलों की प्रक्ति सफेद होती है, वह रूपसत्य है ।३१०। अन्यकी अपेक्षासे जो कहा जाय सो वह प्रतीत्यसत्य है जैसे 'यह दीर्घ है' यहाँ ह्रस्वकी अपेक्षासे है। जो लोकमें 'भात पकता है ऐसा वचन कहा जाता है वह व्यवहार सत्य है । ।३११॥ जैसी इच्छा रखे वैसा कर सके वह सम्भावना सत्य है । जैसे इन्द्र इच्छा करे तो जम्बूद्वीपको उलट सकता है।३१२। जो हिंसादि दोष रहित अयोग्य वचन भी हो वह भावसत्य है जैसे किसीने पूछा कि, 'चोर देखा, उसने कहा कि. 'नहीं देखा। जो उपमा सहित हो वह वचन उपमासत्य है जैसे पस्योपम, सागरोपम आदि कहना । (भ. आ.वि./११६३/११८६/११): (गो.जी./जी.प्र./ २२३-२२४/४८१/२) रा. वा./१/२०/१२/७५/२१ तत्र सचेतनेतरद्रव्यस्यासत्यप्यर्थे यद्वयवहारार्थ संज्ञाकरणं तन्नामसत्यम, इन्द्र इत्यादि । यदर्थासंनिधानेऽपि रूपमात्रेणोच्यते तद्रूपसत्यम्, यथा चित्र पुरुषादिषु असत्यमपि चैतन्योपयोगादावर्थे पुरुष इत्यादि । असत्यप्यर्थे यत्कार्याथं स्थापित छू ताक्षनिक्षेपादिषु तत स्थापनासत्यम् । आदिमदनादिमदौपशमिकादीन् भावान प्रतीत्य यदचन तरप्रतीत्यसत्यम् । यल्लोके संवृत्यानीतं वचस्तत् संवृतिसत्यं यथा पृथिव्याद्यनेककारणत्वेऽपि सति 'पके जात पङ्कजम्' इत्यादि । धूपचूर्णवासानुलेपनप्रघर्षादिषु पद्ममकर-हंस-सर्वतोभद्र-क्रौञ्च-व्यूहादिषु वा सचेतनेतरद्रव्याणां यथा भागविधिसं निवेशाविर्भावक यद्वचस्तत संयोजनासत्यम् । द्वात्रिंशज्जनपदेष्वार्यानार्यभेदेषु धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रापक यद्वचः तत जनपदसत्यम् । ग्रामनगरराजगणपाखण्डजातिकुलादिधर्माणामुपदेष्ट्र यद्वचः तद देशसत्यम् । छद्मस्थज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य संयतासंयतस्य वा स्वगुणपरिपालनार्थ प्रामुकमिदमप्रासुकमित्यादि यदचः तव भावसत्यम् । प्रतिनियतषट्तयद्रव्यपर्यायाणामगमगम्याना याथात्म्याविष्करणं यद्वचः तत् समयसत्यम् । = पदार्थोंके न होनेपर भी, सचेतन और अचेतन द्रव्यकी संज्ञा करनेको नामसत्य कहते हैं जैसे इन्द्र इत्यादि । पदार्थका सन्निधान न होनेपर भी रूपमात्रकी अपेक्षा जो कहा जाता है बह रूपसत्य है जैसे चित्रपुरुषादिमें चैतन्य उपयोगादि रूप पदार्थ के न होनेपर भी 'पुरुष' इत्यादि कहना। पदार्थ के न होनेपर भी कार्यके लिए जो जूऐंके पासे आदि निक्षेपों में स्थापना की जाती है वह स्थापना सत्य है। सादि व अनादि आदि भावोंको अपेक्षा करके जो वचन कहा जाता है वह प्रतीत्यसत्य है। जो वचन लोक रूढमें सुना जाता है वह संवृतिसत्य है, जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणोंके होनेपर भी पंक अर्थात् कीचड़में उत्पन्न होनेसे 'पंकज' इत्यादि वचनप्रयोग । सुगन्धित धूपचूर्ण के लेपन और घिसनेमें अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंचरूप व्यूह ( सैन्यरचना ) आदिमें भिन्न द्रव्यों की विभाग विधिके अनुसार की जानेवाली रचनाको प्रगट करनेवाला वचन वह संयोजना सत्य वचन कहलाता है । आर्य व अनार्य भेदयुक्त बत्तीस जनपदों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका प्रापक जो वचन वह जनपदसत्य है। जो वचन, ग्राम, नगर, राजा, गण, पारखण्ड, जाति एवं कुल आदि धर्मों का व्यपदेश करनेवाला है बह देशसत्य है। छद्मस्य ज्ञानीके द्रव्यके यथार्थ स्वरूपका दर्शन होनेपर भी संयत अथवा संयतासंयतके अपने गुणों का पालन करनेके लिए 'यह प्रासुक है-यह अप्रासुक है' इत्यादि जो बचन कहा जाता है वह भावसत्य है । जो वचन आगमगम्य प्रतिनियत छह द्रव्य व उनकी पर्यायोंकी ५. जघन्योत्कृष्ट सत्य निर्देश सा.ध./४/४१-४३ यद्वस्तु यह शकालप्रमाकार प्रतिश्रुतम् । तस्मिस्त थैव संवादि, सत्यासत्य वचो वदेव ॥४१॥ असत्यं वय वासोऽन्धो, रन्धयेत्यादि-सत्यगम् । वाच्यं कालातिक्रमेण, दानात्सत्यमसत्यगम् । ॥४२॥ यत्स्वस्य नास्ति तत्कव्ये, दास्यामीत्यादिसं विदा। व्यवहार विरुन्धान, नासत्यासत्यमालपेत् ।४३। -जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकारवाली प्रसिद्ध है, उस वस्तुके विषय में उसी देश, काल, प्रमाण और आकार रूप कथन करनेवाले सत्यासत्य वचनको बोलना चाहिए ।४१॥ सत्याणुव्रतके पालक श्रावकके द्वारा वस्त्रको बुनो और भातको पकाओ इत्यादि सत्यसूचक असत्यवचन तथा कालकी मर्यादाको उल्लंघन करके देनेसे असत्य सूचक वचन बोलने योग्य हैं। ऐसे वचन सत्यासत्य कहलाते हैं ।४। सत्याणुवतको पालन करनेवाला श्रावक जो वस्तु अपनी नहीं है वह वस्तु मैं तुम्हारे लिए प्रातःकाल दूंगा इत्यादि रूप प्रतिज्ञाके द्वारा लोक व्यवहारको बाधा देनेवाले असत्यासत्य वचनको नहीं बोले ।४३। ६. जनपद आदि दश सत्योंके लक्षण मू. आ./३०१-३१३ जणपदसच्चं जध ओदणादि रुचिदे य सब्वभासाए । बहुजणसंमदमवि होदि जंतु लोए तहा देवी ।३०६। ठवणा ठविदं जह देवदादि णामं च देवदत्तादि। उक्कडदरोत्ति वण्णे रूवे सेओ जध बलाया ।३१० अण्णं अपेच्छसिद्ध' पडच्चसत्यं जहा हवदि दिग्धं । वबहारेण य सच्चं रज्झदि करो जहा लोए ।३१११ संभाषणा य सच्चं जदि णामेच्छेज्ज एव कुज्जति । जदि सक्को इच्छेज्जो जंबूदीवं हि पालत्थे १३१२। हिंसा दिदोसविसुदं सच्चमकप्पियविभावदो भावं। ओवम्मेण दु सच्चं जाणम् पलिदोवमादीया ।३१३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्य यथार्थताको प्रगट करनेवाला है वह समयसत्य है । ( ध १ / १,१.२ - / ११०/-) (. १/२,१.४५ / २१०/२) (चा. सा./१२/२) (अन. ध. / ४/४७ ) । आमंत्रणी आदि भाषाओं में कथंचित् सत्यासत्यपना । - दे० भाषा । ७. सत्यकी भावनाएँ २७२ १. सत्यधर्मकी अपेक्षा रामा./१/६/२०/५११/१८ सत्यवाचि प्रतिष्ठिताः सर्वा गुणसंपदः । अनृतभाषिणं बन्धवोऽपि अवमन्यते (न्ते) मित्राणि च परित्यजन्ति, जिह्वाच्छेदन सर्वस्वहरणादिव्यसन भाग प भवति । - सभी गुण सम्पदाएँ सत्य वक्ता प्रतिष्ठित होती हैं। झूठेका बन्धुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिड़ा घेदन सर्व धन हरण आदि दण्ड उसे भुगतने पड़ते हैं । ( चा. सा./६५/४ ) । २. सत्यवतकी अपेक्षा यू.आ./३३८ कोमोहापहा अणुवीमा चैत्रविदियस्स भावणावो वदस पंचैत्र ता होंति । क्रोध, भय, लोभ, हास्य, इनका स्थान और सूत्रानुसार बोलना पाँच सयजतको भावनाएं है। (भा. पा / सू./३३)। क्रोधलोभ भीरुत्व हास्यप्रत्याख्यानान्यनुवी ची भाषणं' त. सू / १/५ पञ्च ॥५॥ स.सि./७/१/३४७/६ अनृतवादीऽश्रद्ध योभवति इहैव च जिह्वाच्छेदादीच प्रतिलभते मिध्याध्याख्यानदुःखितेभ्यश्च मदने रेम्पो बहूनि व्यस मान्यवाप्नोति प्रेत्य चाशुभां गति गर्हितश्च भवतीति अमृतवचनादुपरमः श्रेयात् ।..एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम्। १. कोपाख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भोरुवप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्थारूपान और अनुमीचीभाषण में सरवनतकी पाँच भावनाएं है। २. असत्यवादीका कोई श्रद्धान नहीं करता। वह इस लोक में जिल्हाछेद आदि दुखोंको प्राप्त होता है तथा असत्य बोलनेसे दुःखी हुए आए जिन्होंने गाँध लिया है. उनसे बहुत प्रकारकी आप तिलोंको और परलोकमै अशुभगतिको प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए असत्य वचनका त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार हिंसा आदि दोषोंने अपाय और अनद्यके दर्शनकी भावना करनी चाहिए । ८. सत्यावतके अतिचार त. सू. /७/२६ • मिथ्योपदेशरहोपाख्यान कूट लेख कियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥२६-मिष्योपदेश रहोम्याख्यान कूटलेख क्रिया, न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद ये सत्यात पाँच अतिचार 1241 [र... में साकारमन्त्र के स्थानपर शुन्य है।] ( र. क. श्रा / ५६ ) । सा.व./४५ मध्याद रहोभ्यायो कूटलेखकियां व्यजेत् व्यस्वांश मि ममेदं च ततः सत्यको पालनेवाले श्रावकों को मिथ्योपदेश रहोपाख्या कूटलेखक्रिया, न्यस्तशि विस्मा और मन्त्रभेद हम पाँचों अतिचारोंका राग कर देना चाहिए 1921 " ★ सत्यव्रतकी भावनाओं व अतिचारों सम्बन्धी विशेष विचार/ २ २. सत्यासत्य व हिताहित वचन विवेक १. अहितकारी सत्य भी असत्य और हितकारी असस्य भी सत्य है २. सत्यासत्य वहिवाहित वचन विवेक कुरल // २ संकटाकीर्ण जीवानामुढारकरच्या विता साधुभरवसा. २ उस झूठ भी सत्यता विशेषता है जिसके परिणाम नियमसे भलाई ही होती है २ (आराधनासार/२/०)। चा.सा./टी./२ द्विद्यमानार्थ विषयं प्राणिपोहाकारणं तत्सत्यमध्यसत्यम् विद्यमान पदार्थोंको विद्यमान कहनेवाले वचन यदि प्राणियोंको पीडा देनेवाले हों तो वे सत्य होकर भी असत्य माने जाते हैं । = ज्ञा./१/३ असत्यमपि तत्सत्यं यत्सत्त्वाशंसकं वचः । सावद्य यच्च पुष्णाति तत्सत्यमपि निन्दितम् | ३| = जो वचन जीवोंका इष्ट हित करनेवाला हो वह असत्य हो तो भी सत्य है और जो वचन पाप सहित हिसारूप कार्यको पृष्ट करता हो वह सत्य भी हो तो असत्य और निन्दनीय है। ( आचारसार/२/२२-२३ ) । न 1 यं हितं चाहुः सूनृत सूनृताः सत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् । ४२ । - जो वचन प्रशस्त. कल्याणकारक तथा सुननेवालेको आह्लाद उत्पन्न करनेवाला, उपकारी हो, ऐसे वचनको सत्यवतियोंने सत्य कहा है। किन्तु उस सत्यको सत्य न समझना जो अप्रिय और अहितकर हो । सा.सं./६/६७ सत्यमपि असत्यतां याति कचिद्विसानुबन्धः ॥६॥ असत्यं सत्यतां याति कचिज्जीवस्य रक्षणात् [७] - जिन वचनों से जीवोंकी हिंसा सम्भव हो ऐसे सत्य वचन भी असत्य हैं । ६ । इसी प्रकार कहीं-कहीं जीवोंकी रक्षा होनेसे असत्य वचन भी सत्य कहलाते हैं । मो.मा.प्र./८/४१३ / १५ जो झूठ भी है अर साँचा प्रयोजन को पोष तौवाकौ बाकी न कहिये बहुरि साँच भी है अर फूटा प्रयोजन की पोती वह झूठ ही है। २. कटु भी हितोपदेश असत्य नहीं भ. आ /मू./३५७/५६१ पत्थं ह्रिदयाणिट्ट पि भण्णमाणस्स सगणवासिस्स व ओसहं से महरविवार्य हव तस्स १५० हे मुनिगण तुम अपने संभवासी मुनियोंसे हिराकर वचन बोसो, यद्यपि वह हृदयको अप्रिय हो तो कोई हरकत नहीं है। जैसे- कटुक भी औषध परिणाममें मधुर और कल्याणकारक होता है वैसे तुम्हारा भाषण मुनिका कल्याण करेगा । पुसि उ. / १०० हेतो प्रयोगे निर्दिष्टे • वचनानाम्। यानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् | १००१ - समस्त हो अनृत वचनों का प्रमाद सहित योग निर्दिष्ट होनेसे हेयोपादेयादि अनुष्ठानों का कहना झूठ नहीं होता हेयोपादेयता उपदेश करनेवाले मुनिराज के वचनों नवरसपूर्ण विषयोंका वर्णन होनेपर भी तथा पापकी निन्दा करनेसे पापी जीवोंको अप्रिय लगनेपर भी तथा अपने मधुको हितोपदेशके कारण दुखी होते हुए भी उन्हें असत्यका दोष नहीं है, क्योंकि उन्हें प्रमादयोग नहीं है। (पं. टोडरमल )]। ★ कठोर भी हितोपदेशको इष्टता - दे. उपदेश / ३ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य २७३ सत्यघोष ३. असत्य सम्भाषणका निषेध भ. आ./मू./८४७, ८५०/१७५,६७७ अलियं सकि पि भणिदं घादं कुणदि बहुगाण सव्वाणं। अदिसंकिदो य सयमवि होदि अलियभासणो पुरिसो।९४७ परलोगम्मि वि दोस्सा ते चेव हवं ति अलियवादिस्स । मोसादीए दोसे जत्तण वि परिहरंतस्स ।८५०।- एक मार मोला हुआ असत्य भाषण अनेक मार बोले सत्य भाषणोंका संहार करता है। असत्यवादी स्वयं डरता है तथा शंकायुक्त है कि मेरा असत्य भाषण प्रकट होगा तो मेरा नाश होगा।८४७. असत्य भाषीके अविश्वास आदि दोष परलोकमें भी प्राप्त होते हैं परजन्ममें प्रयत्नसे इनका त्याग करने पर भी इन दोषों का उसके ऊपर आरोप आता है 1८1 कुरल/१२/६ नीतिं मनः परित्यज्य कुमागं यदि धावते। सर्वनाश विजानीहि तदा निकटसंस्थितम् ।६-जन तुम्हारा मन सत्यसे विमुख होकर असत्यकी ओर झुकने लगे तो समझ कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है। ममतामयी स्निग्ध दृष्टिमें ही धर्मका निवासस्थान है ३ नम्रता और प्रिय-सम्भाषण, बस ये ही मनुष्यके आभूषण हैं अन्य नहीं। असत्य भाषण मत करो यदि मनुष्य इस आदेशका पालन कर सके तो उसे दूसरे धर्मको पालन करनेकी आवश्यकता नहीं है ।। ज्ञा.//२७,२६ व्रतश्रुतयमस्थानं विद्याविनयभूषणम् । चरणज्ञानयोर्मीजं सत्यसंशं तं मतम् ।२७। चन्द्रमूर्तिरिवानन्दं वर्द्ध यन्ती जगत्त्रये । स्वर्गिभिधियते मूनों कोतिः सत्योत्थिता नृणाम् ॥२६॥सत्यवत श्रुत और यमोंका स्थान है, विद्या और विनयका भूषण है, और सम्यग्ज्ञान व सम्यरचारित्र उत्पन्न करनेका कारण सत्य वचन ही है।२७ तीन लोकोंमें चन्द्रमाके समान आनन्दको बढ़ानेवाली सत्यवचनसे उत्पन्न हुई मनुष्योंको कीर्तिको देवता भी मस्तकपर धारण करते हैं ।२६॥ (पं. वि./१/६२-६३)। ४. कटु सम्भाषणका निषेध कुरल./१३/८,६ एकमेव पदं वाण्यामस्ति चेन्मर्मघातकम् । विनष्टास्तहि विज्ञेया उपकाराः पुराकृताः दग्धमङ्ग पुनः साधु जायते कालपाकतः। कालपाकमपि प्राप्य न प्ररोहति वावक्षतम् ।। कुरल./१४/४ विद्याविनयसंपन्नः शालीनो गुणवान् भरः। प्रमादादपि दुर्वाक्यं न ब्र ते हि कदाचन । यदि तुम्हारे एक शब्दसे भी किसीको कष्ट पहुँचता है तो तुम अपनी सम भलाई नष्ट हुई समझो । आगका जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है, पर वचनका घाव सदा हरा बना रहता है ।। अवाच्य तथा अपशब्द, भूलकर भी संयमी पुरुषके मुखसे नहीं निकलेंगे। ७. धर्मापत्तिके समय सत्यका त्याग भी न्याय है सा.ध./४/३६ कन्यागोक्ष्मालोक-कूटसाक्ष्यन्यासापलापवत् । स्यात्सत्याणुबती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् ।३०-व्रती श्रावक कन्या अलीक, गोअलीक, पृथ्वी अलीक, कूटस्थ अलीक और न्यासालापकी तरह अपने तथा परको विपत्तिके हेतु सत्यको भी छोड़ता हुआ सत्याणुव्रतधारी कहलाता है ॥३॥ अमि. श्रा./4/४७ सत्यमपि विमोक्तव्यं परपीडारम्भतापभयजनकम् । पापं विमोक्तुकामैः सुजनैरिव पापिना वृत्तम् । = पापारम्भको छोड़नेकी वाँछावाला पुरुष पर जीवोंको पीडाकारक आरम्भ, भय व सन्ताप जनक ऐसे सत्य वचनको भी छोड़े।४७। * धर्म हानिके समय बिना बुलाये भी बोले-दे. वाद। ५. व्यर्थ सम्भाषणका निषेध कुरल./२०/७,१० उचितं बुध चेद भाति कुर्याः कर्कशभाषणम् । परं नैव वृथालापं यतोऽस्माद्वै तदुत्तमम् 18 वाचस्ता एव वक्तव्या या श्लाघ्याः सम्यमानवैः । वर्जनीयास्ततो भिन्ना अवाच्या या बृथोक्तयः ।१०। यदि समझदारको मालूम पड़े तो मुखसे कठोर शब्द कह ले, क्योंकि यह निरर्थक भाषणसे कहीं अच्छा है ।७। मुखसे बोलने योग्य वचनोंका ही तू उच्चारण कर, परन्तु निरर्थक शब्द मुखसे मत निकाल १०१ ८. सत्यधर्म व भाषा समितिमें अन्तर स. सि./8/६/४१२/७ ननु चैतद् भाषासमितावन्तर्भवति। नैष दोषः; समिती प्रवर्तमानो मुनिः साधुष्वसाधुषु च भाषाव्यवहारं कुर्वन् हितं मितं च ब्र या अन्यथा रागादनर्थदण्डदोषः स्यादिति वाक्समितिरित्यर्थः । इह पुनः सन्तः प्रब्रजितास्तभक्ता बा तेषु साधु सत्यं ज्ञानचारित्रशिक्षणादिषु बह्वपि कर्तव्यमित्यनुज्ञायते धर्मोपबृहणार्थम । -प्रश्न-इसका ( सत्यका ) भाषा समितिमें अन्तर्भाव नहीं होता है ! उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि समिति के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकार के मनुष्योंमें भाषा व्यवहार करता हुआ हितकारी परिमित वचन बोले, अन्यथा राग होनेसे अनर्थदण्ड दोष लगता है यह वचन समितिका अभिप्राय है। किन्तु सत्य धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि सज्जन पुरुष, दीक्षित या उनके भक्तोंमें साधु सत्य वचन बोलता हुआ भी ज्ञान चारित्रके शिक्षण के निमित्त बहुविध कर्तव्यों की सूचना देता है और यह सन धर्मकी अभिवृद्धिके अभिप्रायसे करता है। इसलिए सत्य धर्मका भाषा समितिमें अन्तर्भाव नहीं होता। (रा. वा./8/६/१०/ ५६६/६). ६. सत्यकी महत्ता सत्यका अहिंसामें अन्तभोव-दे, अहिंसा/३। भ, आ./मू./८३५-८५२ ण डहदि अग्गी सच्चेण णरं जलं च तं ण बुड्डेइ । सच्चमलियं खु पुरिसंण बहदि तिक्खा गिरिणदी वि३८॥ सच्चेण देवदावो णवंति पुरिसस्स ठंति व वसम्मि। सच्चेण य गहगहिदं मोएइ करेंति रक्खं च ।८३६।-सत्यवादीको अग्नि जलाती नहीं, पानी उसको डुनोनेमें असमर्थ होता है। सत्य भाषण हो जिसका सामर्थ्य है ऐसे मनुष्यको भड़े वेगसे पर्वतसे कूदनेबाली नदी नहीं बहा सकती।८३८। सत्यके प्रभावसे देवता उनका बन्दन करते हैं, उसके वश होते हैं, सत्यके प्रभावसे पिशाच भाग जाता है तथा देवता उनके रक्षण करते हैं ।३१। (ज्ञा /8/२८)। कुरल./१०/३.५ स्नेहपूर्णा, दयादृष्टिार्दिकी या च वाक्सुधा। एतयोरेब मध्ये तु धर्मो वसति सर्वदा ।। भूषणे द्वे मनुष्यस्य नम्रताप्रियभाषणे। अन्यद्धि भूषणं शिष्टाढतं सभ्यसंसदि ।। कुरल./३०/७ न वक्तव्यं न वक्तव्यं मृषावाक्यं कदाचन । सत्यमेव परो धर्मः किं परधर्मसाधनैः ७१ = हृदयसे निकली हुई मधुर वाणी और पुत्र-१भावि कालीन २३, २४ वें तीर्थ करका पूर्व अनन्तर भव-दे, तीर्थ कर/५ । २. वर्तमान कालीन ११वाँ रुद्र ८ । दे. शलाका पुरुष/७। सत्यघोष-१.म पु./१६/श्लोक सं. सिंहपुर नगरके राजा सिंहसेन राजाका श्रीभूति नामक मन्त्री था। परन्तु इसने अपनेको सत्यघोष प्रसिद्ध कर रखा था (१४६-१४७)। एक समरा भद्र मित्र सेठके रत्न लेकर मुकर गया ( १५१) । तब रानीने चतुराई से इसके घरसे रत्न भा०४-३५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यदत्त २७४ सत्त्व | गतिप्रकृतिके सत्त्वसे जीवके जन्मका सम्बन्ध नहीं, आयुके सत्त्वसे है। -दे. आयु/२ आयु प्रकृति सत्त्व युक्त जीवकी विशेषताएँ । -दे. आयु/६ । जघन्य स्थिति सत्त्व निषेक प्रधान है और उत्कृष्ट काल प्रधान । ६ जघन्यस्थिति सत्त्वका स्वामी कौन । सातिशय मिथ्यादृष्टिका सत्त्व सर्वत्र अन्तःकोटाकोटिसे भी हीन है। -दे. प्रकुतिबन्ध/७/४ अयोगीके शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्व पाया जाता है। -दे, अपकर्षण/४/ प्रदेशोंका सत्व सर्वदा १॥ गुणहानि प्रमाण होता मंगवाये (१६८-१६६) । इसके फल में राजा द्वारा दण्ड दिया जानेपर आतध्यानसे मरकर सर्प हुआ (१७५-१७७) अनेकों भवोंके पश्चात् विद्वयुद्धदंष्ट्र विद्याधर हुआ। तब इसने सिंहसेनके जीव संजयन्त मुनि पर उपसर्ग किया। -विशेष दे. विद्य दंष्ट्र । २. इसीके रत्न उपरोक्त सत्यघोषने मार लिये थे। इसकी सत्यतासे प्रसन्न होकर राजाने इसको मन्त्री पदपर नियुक्त कर सत्यघोष नाम रखा। -दे. चंद्र मित्र सत्यदत्त-एक विनयबादी -दे, वैनयिक । सत्य प्रवाद-द्रव्यश्रुतका छठा पूर्व -दे. श्रुतज्ञान/II सत्यभामा-ह. पु./सर्ग/श्लोक-सुकेतु विद्याधरकी पुत्री थी। कृष्णको रानी थी (३६/५८) इसके भानु नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई (४४/१) । अन्तमें दीक्षा धारण कर ली ( ६१/४०)। सत्यमनोयोग-दे. मन । ' सत्यवचनयोग-दे, वचन । सत्यवाक कंगुनीवरम्-एक राजा था। समय-ई, १०८-६५० (जोवन्धर चम्पू/प्र./१४) । सत्य शासन परीक्षा-आ.विद्यानन्दि(ई.७७५-८४०)द्वारा रचित संस्कृत भाषा बद्ध न्यायविषयक ग्रन्थ है जिसमें न्याय पूर्वक जिनशासनकी स्थापना की गयी है । (ती./२/३५७)। सत्यादेवी-रुचकपर्वत निवासिनी दिक्कुमारीदेवी --दे. लोक५/१३॥ सत्याभ-एक लौकान्तिकदेव -दे. लौकान्तिक । सत्योपचार-दे. उपचार/१। सत्त्व-सत्त्व का सामान्य अर्थ अस्तित्व है, पर आगममें इस शब्दका प्रयोग संसारी जीवोंमें यथा योग्य कर्म प्रकृतियोंके अस्तित्व के अर्थ में किया जाता है। एक बार बँधनेके पश्चात् जब तक उदयमें आ-आकर विवक्षित कर्म के निषेक पूर्णरूपेण झड़ नहीं जाते तब तक उस कर्मको सत्ता कही गयी है। प्रकृतियोंके सत्त्वमें निषेक रचना। -दे. उदय/३ सत्वके साथ बन्धका समानाधिकरण नहीं। सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थिति सत्व २ समय कैसे। पाँचवेंके अभिमुखका स्थिति सत्त्व पहलेके अभिमुखसे हीन है। सत्त्व व्युच्छित्ति व सत्व स्थान सम्बन्धी दृष्टिभेद सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ ३ सत्त्व निर्देश सत्व सामान्यका लक्षण । उत्पन्न व स्वस्थान सत्वके लक्षण । बन्ध उदय व सत्त्वमें अन्तर । सत्व योग्य प्रकृतियोंका निर्देश । -दे, उदय/२ | प्रकृति सत्व न्युच्छित्तिकी ओघ प्ररूपणा । सातिशय मिथ्यादृष्टियों में सर्व प्रकृतियोका सत्त चतुष्क। - प्रकृति सत्व असत्व की आदेश प्ररूपणा । ४ मोह प्रकृति सत्वको विभक्ति अविभक्ति। | मूलोत्तर प्रकृति सत्व स्थानको ओघ प्ररूपणा। मूल प्रकृति सत्त्र स्थान सामान्य प्ररूपणा। मोहप्रकृति सत्त स्थान सामान्य प्ररूपणा । मोह सत्त स्थान ओष प्ररूषणा । मोह सत्व स्थान आदेश प्ररूपणाका स्वामित्व विशेष । मोह सत्व स्थान आदेश प्ररूपणा। नाम प्रकृति सत्व स्थान सामान्य प्ररूपणा। जीव पदोंकी अपेक्षा नामकर्म सत्व स्थान प्ररूपणा। नामकर्म सत्त्र स्थान ओघ प्ररूपणा । नामकर्म सत्व स्थान आदेश प्ररूपणा । नाम प्रकृति सत्व स्थान पर्याप्तापर्याप्त प्ररूपणा। | मोह स्थिति सत्त्वकी ओघ प्ररूपणा। | मोह स्थिति सत्त्वक्री आदेश प्ररूपणा। सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिके सत्त्व कालकी प्ररूपणा विशेष । -दे. काल/६ | सत्त्व प्ररूपणा सम्बन्धी नियम तीर्थकर व आहारकके सत्व सम्बन्धी। अनन्तानुबन्धीके सत्व असत्व सम्बन्धी। ३ । छब्बीस प्रकृति सत्त्वका स्वामी भिश्यादृष्टि होता है। २८ प्रकृतिका सत्त्व प्रथमोपशमके प्रथम समयमें होता है। प्रकृतियों आदिके सत्त्वकी अपेक्षा प्रथम सम्यक्त्वकी योग्यता। -दे. सम्यग्दर्शन/IV/R - - - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व * बन्ध उदय सत्त्वकी त्रिसंयोगी प्ररूपणाएँ । - दे, उदय / मूलोसर प्रकृतिके चार प्रकार सरस व सत् कर्मिको सम्बन्धी सत् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर व अल्प बहुत्व प्ररूपणाएँ । - दे. वह वह नाम १८ | मूलोत्तर प्रकृति के सच्च चतुष्ककी प्ररूपणा सम्बन्धी सूची । १९ अनुभाग सरवकी ओप आदेश प्ररूपणा सम्बन्धी सूची । २७५ १. सत्त्व निर्देश १. सत्त्व सामान्यका लक्षण १. अस्तित्व के अर्थ में दे. सव/१/१ का अर्थ अस्तित्व है। दे द्रव्य / १/७ सत्ता, सत्त्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि मे सब एकार्थक है। २. जीवके अर्थ स.सि./०/११/२४६/- दुष्कर्म विपाकशाज्ञानायोनिषु सीदन्तीति सत्त्वा जीवाः ! = बुरे कर्मोंके फलसे जो नाना योनियों में जन्मते और मरते हैं वे सत्त्व हैं । सत्त्व यह जीवका पर्यायवाची नाम है । ( रा. वा. / ७ /११/५/५३८/२३ ) ३. कर्मोंकी सत्ताके अर्थ में ...] पं. सं. / प्रा./३/३ घण्णस्स संगहो वा संत.. - धान्य संग्रहके समान जो पूर्व संचित कर्म हैं, उनके आरमा अवस्थित रहने को समय कहते हैं। क. पा./१/१,१३-१४/१२५० / २६१/६ ते चेत्र विदियसमय पहुडि जान फलदाडिमसमओ चि ताथ संतपयएस पडियजति जीवसे सबद्ध हुए में ही (मिष्यामके निमित्त से संचित कर्म स्वध दूसरे समय से लेकर फल देनेसे पहले समय तक सब इस संज्ञाको प्राप्त होते हैं। २. उत्पन्न व स्वस्थान सत्त्वके लक्षण गो.क./भाषा / २९/०६/१ पूर्ण पर्याय जो बिना उसना (अपकर्षण द्वारा अन्य प्रकृतिरूप करके नाश करना ] व उद्वेलनात सत्व या तिस तिस उत्तर पर्याय विषे उपजे तहाँ उत्तरपर्याय तिस सत्वको उत्पन्न स्थानविधे सव कहिए। तिसर्या बिना। उद्वेलना व उद्वेलना ते जो सत्त्व होय ताकी स्वस्थान विषै सत्त्व कहिए । २. सत्व प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम ३. सच्च योग्य प्रकृतियोंका निर्देश |= घ. १२/४,१,१४.३८/४६५ / १२ जाति पुष पयडीचं मंधी चैव रथ बंधे संतेवि जासि पयडीणं द्विदिसंतादो उवरि सव्वकाल' बंधो ण संभवदि; ताओ संतपयडीओ, संतपहाणत्तादो। णच आहारदुगतित्थयराणं द्विदितादो उवरि बंधो अस्थि, समाइट्ठीसु तदणुवलंभादो तम्हा सम्म सम्ममिच्छता व दाणि तिणि वि संतकम्माणि जिन प्रकृतियोंका वध नहीं होता है और बन्धके होनेपर भी जिन प्रकृतियोंका स्थिति सत्त्व से अधिक सदाकाल बन्ध सम्भव नहीं है वे सत्त्व प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि, सत्त्वकी प्रधानता है । आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका स्थिति सबसे अधिक बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टियों में नहीं पाया जाता है, इस कारण सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वके समान ये तीनों भी सत्त्व प्रकृतियाँ हैं। गो, क./ /३० पंचम दोणि अट्ठावीस चउरो कमेण तेनउदी दोणिय पंच य भणिया एदाओ सत्त पयडोओ |३८| = पाँच, नौ, दो अट्ठाईस चार तिरानवे दो और पाँच इस तरह सम (आठों कर्मों की सर्व ) १४८ सत्तारूप प्रकृतियाँ कही हैं |३८| 1 २. सत्त्व प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ १. तीर्थंकर व आहारकके सच सम्बन्धी नियम १. मिथ्यादृष्टिको युगपत् सम्भव नहीं गो. जी. प्र./३३३/४८५/४ मिथ्यादृष्टी तीर्थ कृत्य • आहारकइन आहारकयन्ये च तीर्थकृत्वसत्वं न उभयसले तु मिया न तेन सह इम रात्र मुगपदेकजीयापेक्षया न नानाजीवापेक्षयास्त्विकर्मणा जीवानां सद्गुणस्थानं न संभवतीति कारणात् मिध्यादृहि स्थानमें जिसके तीर्थंकरका सम हो उसके आहारक द्विकका सत्त्व नहीं होता, जिसके आहारक द्वयकासव हो उसके तीर्थंकरका सत्त्व नहीं होता, और दोनोंका सत्त्व होनेपर मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं होता। इसलिए मिध्यादृष्टि गुणस्थान में एक जीवकी अपेक्षा युगपत् आहारक द्विक व तीर्थंकरका 'सत्त्व नहीं होता, केवल एकका ही होता है । परन्तु एक ही जीव में अनुक्रमसे वा नाना जीवकी अपेक्षा उन दोनों का सत्व पाया जाता है।... इसलिए इन प्रकृतियोंका जिनके सत्त्व हो उसके यह गुणस्थान नहीं होता (गो, क./जी./२३/१९) २. सासादनको सर्वथा सम्भव नहीं गो.क./जी. प्र./३३३/४८५/५ सासादने तदुभयमपि एकजीवापेक्षयानेकजीवापेचया च क्रमेण युगपद्वा सत्त्वं नेति । सासादन गुणस्थान में एक जीवकी अपेक्षा वा नाना जीव अपेक्षा आहारक द्विक तथा सीकरका सर नहीं है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३. मिश्र गुणस्थान में सत्त व असत्त्व सम्बन्धी दो दृष्टियाँ गो.क./जी. ३३३/४०५/२ मि तीर्थ करण जीवन गुणस्थानं न संभवति कारणात्। गो../जी./११/प्रक्षेपक /१/२२२/१२ मिले गुणस्थाने तीर्थंयुतं चास्ति । रात्र कारणमाह । तत्तत्कर्म स्वजीवानां तत्तद्गुणस्थानं न संभवति । = १. मिश्र गुणस्थान में तीर्थंकरका सत्व नहीं होता । २. इसका सत्त्व Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २७६. २. सत्त्व प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम होनेपर इस गुणस्थानमें तीर्थकर सहित सत्त्व स्थान है, परन्तु आहारक सहित सत्त्व स्थान नहीं है, क्योंकि इन कर्मोकी सत्ता होनेपर यह गुणस्थान जीवोंके नहीं होता। [ यह दूसरी दृष्टि है ] ५. जघन्य स्थिति सत्त्व निषेक प्रधान है और उत्कृष्ट काल प्रधान २. अनन्तानुबन्धीके सत्व असत्त्व सम्बन्धी क. पा. २/२-२२/६ सं./पृ. सं./पं. अविहत्ती कस्स । अण्ण-सम्मादिहिस्स विसंजोयिद-अणताणुबंधिचउक्कस्स (६११०/६४/७) णिरयगदीए णेरइसु......अणंताणुबंधिचउक्काणं ओघभंगो ।......एवं पदमाए पुढवीए...त्ति वत्तव्वं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एव चेव णवरि मिच्छत्त-अबिहत्ती पत्थि (६१११/१२/३-७) वेदगसम्मादि हिसुअविहत्ति कस्स। अण्णविसंजोइद-अणताणु० चउक्कस्स । ...उवसमसम्मादिट्ठीसु...विसंयोजियद अणं ताणुबंधि च उवकस्स - सासणसम्मादिट्ठीसु सवपयडीणं विहत्ती कस्स। अएण। सम्मामि० अमंताणु० चउक्क० विहत्ती अविहत्ति च कस्स। अण्ण० (६११७/ ६८/१-८) मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तअणं ताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तियो, सिया अविहत्तिओ (६१४२/१३०/५) णेरड्यो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी च सामिओ होदि त्ति। (६२४६/२१९/८) = जिस अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है, ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्क अविभक्ति है। (१११०/११/७) नरकगतिमें...अनन्तानुबन्धि चतुष्कका कथन ओघके समान है।...इस प्रकार पहली पृथिवीके नारकियोंके जानना चाहिए।...दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवौं पृथिवी तकके नारकियों के इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्व अविभक्ति नहीं हैं। (१९११/१२/३-७) वेदक सम्यग्दृष्टि जीवके... जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी बिसंयोजना की है उसकी अविभक्ति है।...जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उस उपशम. सम्यग्दृष्टिके अविभक्ति है।...सासादन सम्यरदृष्टि जीवके सभी प्रकृतियोंकी विभक्ति है। सम्यामिथ्यादृष्टियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कको विभक्ति और अविभक्ति . किसी भी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके है ( ६११७/१८/१.८) जो जीव मिथ्यात्वकी विभक्ति वाला है वह सम्यक् प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित नहीं है । ( १९४२/१३०/५) नारको, तिर्यच, मनुष्य या देव इनमें से किसी भी गतिका सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है । ( ६२४६/२१६/८ ) क. पा. ३/३, २२/६ ४७६/२६७/१० जहण्ण दिदि अद्धाछेदो णिसेगपहाणो ।...उक्कस्सद्विदी पुण कालपहाणो तेण णिसेगेण विणा एगसमए गलिदे वि उक्कस्सत्तं फिट्टदि। -जघन्य स्थिति अद्धाच्छेद निषेक प्रधान है ।...किन्तु उत्कृष्ट स्थिति काल प्रधान है, इसलिए निषेकके बिना एक समयके गल जानेएर भी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्टत्व नाश हो जाता है। क. पा. ३/३,२२/६५१३/२६१/८ जहण्णहिदि-जहण्णादि अद्धच्छेदाण जइवसाच्चारणाइरिएहि णिसेगपहाणाणं गहणादो। उक्कस्सद्विदी उक्कस्सैट्ठिदि अदाछेदो च उक्कस्सट्ठिदिसमयपबद्धणिसेगे मोत्तण णाणासमयपबद्धणिसेगपहाणा [...पुयिल्लवक्रवाणमेदेण सुत्तेण सहकिण्ण विरुज्झदे ।...विरुझदे चेव, किंतु उक्कस्सद्विदि उक्क० हिदि अद्भाछेद जहण्णछिदि-जछिदिअद्धाछेदाणं भेदपरूवणहूँ तं वक्रवाणं कयं वक्रवाणाइरिएहि। चुण्णिसुत्तुच्चारणाइरियाणं पुण एसो णाहिप्पाओ;। -जघन्य स्थिति और जघन्य स्थिति अद्वाच्छेदको यतिवृषभ आचार्य और उच्चारणाचार्य ने निषेक प्रधान स्वीकार किया है। तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्टस्थिति अद्धाच्छेद उत्कृष्ट स्थितिवाले समय प्रबद्धके निषेकोंकी अपेक्षा न होकर नाना समय प्रबद्धोंके निषेकोंकी प्रधानतासे होता है। प्रश्नपूर्वोक्त व्याख्यान इस सूत्रके साथ विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता ! उत्तर-विरोधको प्राप्त होता ही है किन्तु उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति अद्धाच्छेद में तथा जघन्य स्थिति और जघन्य अद्धाच्छेदमें भेदके कथन करने के लिए व्याख्यानाचार्यने यह व्यारण्यान किया है। चूर्ण सूत्रकार और उच्चारणाचार्यका यह अभिप्राय नहीं है। ६. जघन्य स्थिति सत्त्वका स्वामी कौन क. पा. ३/३,२२/१३५/२२/३ जो एइंदिओ हतसमुपत्तियं काऊण जाव सक्का ताव संतकम्मस्स हेठा बंधिय सेकाले समर्मादि मोलेहदि त्ति तस्स जहण्णय ठिदिसंतकम्मं ।...मिच्छादि...त्ति ।-जो कोई एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पतिकको करके जबतक शक्य हो तबतक सत्तामें स्थित मोहनीयकी स्थितिसे कम स्थितिवाले कर्मका बन्ध करके तदनन्तर काल में सत्तामें स्थित मोहनीयको स्थितिके समान स्थितिवाले कर्मका बन्ध करेगा उसके मोहनीयका जघन्य स्थिति सत्त्व होता है । इसी प्रकार...मिथ्यादृष्टि जीवोंके...जानना चाहिए। ३. छब्बीस प्रकृति सत्त्वका स्वामी मिथ्यादृष्टि ही होता .पा. २/२-२२/ चूर्ण सूत्र/ २४७/२२१ छम्चीसाए विहत्तिओ को होदि । मिच्छाइट्ठी णियमा। - नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव छब्बीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है। ७. प्रदेशोंका सत्त्व सर्वदा १३ गुणहानि प्रमाण होता है गो, क./मू./५/५ गुणहाणीणदिवड्ढे समयपबद्ध हवे सत्तं ॥५॥ गो. क./मू./१४३ सत्तं समयपबद्ध दिवड्दगुणहाणि ताडियं अणं । तियकोणसरूवविददब्वे मिलिदे हवे णियमा १४३ - कुछ कम डेढ़ गुणहानि आयामसे गुणित समय प्रमाण समय प्रबद्ध सत्ता (वर्तमान) अवस्थामें रहा करते है ।। सत्त्व द्रव्य कुछ कम डेढ गुणहानिकर गुणा हुआ समय प्रबद्ध प्रमाण है। वह त्रिकोण रचनाके सब द्रव्यका जोड़ देनेसे नियमसे इतना ही होता है। ४. २८ प्रकृतिका सत्त्व प्रथमोपशमके प्रथम समयमें होता है ८. सत्त्वके साथ बन्धका सामानाधिकरण नहीं है दे० उपशमा२/२ प्रथमोपशम सम्यक्त्वसे पूर्व अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समयमें अनादि मिथ्या ष्टि जीव जब मिथ्यात्वके तीन खण्ड करता है तब उसके मोहकी २६ प्रकृत्तियों की बजाय २८ प्रकृतियों का सत्त्व स्थान हो जाता है। ध.६/१६.२,६९/१०३/२ ण च संतम्मि विरोहाभाव दळूण बंधम्हि वि तदभावो बोतुं स किज्जइ, बंध-संताणमेयत्ताभावा। -सत्त्वमें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २७७ २. सत्त्व प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम (परस्पर विरोधी प्रकृतियों के ) बिरोधका अभाव देखकर बम्धमें भी करणद्विविधादादो वि एत्थतणअपुख्यकरणद्विदिघादस्स बहुबयरत्तादो उस ( विरोध ) का अभाव नहीं कहा जा सकला, क्योंकि बन्ध और। बा। ण चेद ण पुब्बकरणं पढमसमत्ताभिमुहमिच्छाइटि अपुवकरणेण सत्त्वमें एकत्वका विरोध है। तुनल, सम्मत्त-संजम-संजमासंजमफलाणं तुम्लत्तविरोहा। ण चापुब्धकरणाणि सव्वणियट्टीकरणे हितो अणं तगुणहीणाणि ति ९. सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्यस्थिति सत्व दो समय कैसे वोत्तुं जुत्तुं, तप्पदुप्पायाणमुत्ताभावा । -प्रश्न-अपूर्वकरणके क. पा. ३/२,२२/६४२०/२४४/६ एगसमयकालट्ठिदिय किण्ण बुच्चदे। ण, अन्तिम समयमें वर्तमान इस उपर्युक्त मिथ्याष्टि जीवका स्थिति उदयाभावेण उदयणिसेयहिदी परसरूवेण गदाए विदियणिसेयस्स सत्व, प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख अनिवृत्तिकरणके अन्तिम दुसमयकालट्ठिदियस्स एगसमयावट्ठाणविरोहादो । विदियणिसेओ समयमें स्थित मिथ्याष्टिके स्थितिसत्त्वसे संख्यात गुणित हीन सम्मामिच्छत्तसरूवेण एगसमयं चेव अच्छदि उपरिमसमए मिच्छत्त के से है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, स्थिति सत्वका अपवर्तन करके स्स सम्मत्तस्स वा उदयणिसेयसरूवेण परिणाममुबलं भादो। तदो संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले संयमासंयमके अभिमुख चरमसमयएयसमयकाल द्विदिसेसं ति बत्तव्यं । ण, एगसमयकालद्विदिए णिसेगे वर्ती मिथ्यादृष्टिके संख्यात गुणित हीन स्थिति सत्त्वके होनेमें कोई संते विदियसमए चेव तस्स णिसेगस्स अदिण्णफलस्स अकम्मसरूवेण विरोध नहीं है। अथवा वहाँके, अर्थात प्रथमोपशमसम्यक्त्व के परिणामप्पसंगादो। ण च कम्म सगसरूवेण परसरूवेण वा अदत्त अभिमुख मिथ्यादृष्टिके, अनिवृत्तिकरणसे होनेवाले स्थिति घातकी फलमकम्मभावं गच्छदि. विरोहादो। एगसमयं सगसरूवेणच्छिय अपेक्षा यहाँके अर्थात संयमासंयमके अभिमुख मिथ्याष्टिके, अपूर्वविदियसमए परपयडिसरूवेणच्छिय तदियसमए अकम्मभावं करणसे होनेवाला स्थितिधात बहुत अधिक होता है। तथा, यह, गच्छदि ति दुसमर्थकालट्ठिदिणिद्देसो कदो। -प्रश्न- सम्य अपूर्वकरण, प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्याष्टिके अपूर्व ग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति एक समय काल प्रमाण क्यों नहीं करणके साथ समान नहीं है, क्योंकि, सम्यक्त्व, संयम और संयमाकही जाती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जिस प्रकृतिका उदय नहीं संयम रूप फलबाले विभिन्न परिणामोंके समानता होनेका विरोध होता उसकी उदय निषेक स्थिति उपान्त्य समयमें पर रूपसे है। तथा, सर्व अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामों के संक्रमित हो जाती है। अतः दो समय कालप्रमाण स्थितिवाले दूसरे अनन्तगुणित हीन होते है, ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि, निषेककी जघन्य स्थिति एक समय प्रमाण मानने में विरोध आता इस बातके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अभाव है। है। प्रश्न-सम्यग्मिथ्यात्वका दूसरा निषेक सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे एक समय काल तक ही रहता है, क्योंकि अगले समयमें उसका ११. सत्व व्युच्छित्ति व सत्य स्थान सम्बन्धी दृष्टि भेद मिथ्यात्व या सम्यक्त्व के उदयनिषेक रूपसे परिणमन पाया जाता है अतः सूत्रमें 'दुसमयकालट्ठिदिसेस 'के स्थानपर 'एकसमयकाल गो. क./मू./३७३,३६१,३६२ तित्थाहारचउक्क अण्णदराउगदुगं च सत्तेदे। द्विदिसेसं' ऐसा कहना चाहिए। उतर-नहीं, क्योंकि इस निषेकको हारचउक्कं वज्जिय तिण्णि य केइ समुट्ठि ।२७३। अस्थि अणं यदि एक समय काल प्रमाण स्थितिवाला मान लेते हैं तो दूसरे ही उवसमगे खवगापुवं खवित्तु अट्ठा य। पच्छा सोलादीणं खवर्ण समयमें उसे फल न देकर अकर्म रूपसे परिणमन करनेका प्रसंग प्राप्त इदि केई णिहिट्ठ ३६१ अणियट्टिगुणट्ठाणे मायारहिद च ठाणहोता है और कर्म स्वरूपसे या पररूपसे फल बिना दिये अकर्म मिच्छत्ति । ठाणा भंगपमाणा केई एवं परूवें ति ।३६२ -सासादन भावको प्राप्त होते नहीं, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। गुणस्थानमें तीर्थकर, आहारककी चौकड़ी, भुज्यमान व मधमान किन्तु अनुदयरूप प्रकृतियों के प्रत्येक निषेक एक समय तक स्वरूपसे आयुके अतिरिक्त कोई भी दो आयुसे सात प्रकृतियाँ हीन १४१ का रहकर और दूसरे समयमें पर प्रकृतिरूपसे रहकर तीसरे समयमें सत्त्व है। परन्तु कोई आचार्य इनमें-से आहारककी ४ प्रकृतियोंअकर्मभावको प्राप्त होते हैं ऐसा नियम है अतः सूत्र में दो समय काल को छोड़कर केवल तीन प्रकृतियाँ हीन १४५ का सत्त्व मानते हैं प्रमाण स्थितिका निर्देश किया है। 1१७३। श्री कनकनन्दी आचार्य के सम्प्रदायमें उपशम श्रेणी वाले चार गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी चारका सत्व नहीं है। इस कारण १०. पाँचवेंके अभिमुखका स्थिति सत्त्व पहलेके अमि- २४ स्थानों में-से बद्ध व अश्रद्धायुके आठ स्थान कम कर देनेपर मुखसे हीन है १६ स्थान ही हैं। और क्षपक अपूर्वकरण वाले पहले आठ कषायोका क्षय करके पीछे १६ आदिक प्रकृतियों का क्षय करते हैं ।३६१। कोई ध. ६/१,६-८-१४/२६९/१ एदस्स अनुबकरणचरिमसमए वट्टमाणमिच्छा आचार्य अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें मायारहित चार स्थान है, ऐसा इद्विस्स विदिसंतकम्म पढमसम्मत्ताभिमुहअणियट्टीकरण चरिम मानते हैं। तथा कोई स्थानों को भंगके प्रमाण कहते हैं ।३६२। समयट्ठिदमिच्छाइट्ठिद्विदिसंतकम्मादो कध संखेज्जगुणहीणं । ण, विदिसंतमोवट्टियं काऊण संजमासजमपडिवज्जमाणस्स संजमा- दे. सत्त्व/२/१ मिप्रमें तीर्थ करके सत्वका कोई स्थान नहीं, परन्तु कोई संजमचरिममिच्छाइडिस्स तद विरोहादो। तस्यतणअणियट्टी- कहते हैं कि मिश्रमें तीर्थंकरका सत्त्व स्थान है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २७८ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं मनुष्य मिश्र० तीर्थ सं० ३० ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ सारणीमें प्रयुक्त संकेत सूची मिथ्या० मिथ्यात्व तिर्य तियउच्च आ० आहारक शरीर सम्यक सम्यवरव मोहनीय मनु० औ..वै.,आ,द्विक वह वह शरीर व अंगोपांग मिश्र मोहनीय नरकादि द्विक बह वह गति व आनुपूर्वीय औ.वै. आ. वह वह शरीर, अगोपांग अनन्तानु० अनन्तानुसन्धी चतुष्क नरकादि त्रिक वह बह गति, आनुपूर्वीय बन्धन तथा संघात अप्र० अप्रत्याख्यान " तथा आयु तीर्थंकर प्र० प्रत्याख्यान " नरकादि चतु० वह बह गति, आनुपूर्वीय भुज्यमान आयु. तथा तच्चोग्य शरीर और भय मान आयु. नपु. नपुंसक बेद अंगोपांग बै क्रि० षटक नरक गति आनपूर्वीय, पुरुष वेद অন্য आनुपूर्वीय देव गति, आनुपूर्वाय, स्त्री स्त्री वेद औ० औदारिक शरीर बैंक्रियिक शरीर तथा हा० चतु० हास्य, रति. अरति. शोक वै० बैक्रिमक" वैक्रियिक अगोपांग १. प्रकृति सत्त्व व्युच्छित्तिकी ओघप्ररूपणा सत्त्व योग्य प्रकृतियाँ-नाना जीवों की अपेक्षा-१४८। एक जीव की अपेक्षा सवत्र ६ विकल्प हैं१. बद्धायुष्क तीर्थकर रहित १४५, ४. अबद्धायुष्क तीर्थंकर रहित = १४४; २. बद्धायुष्क आहारक द्विक रहित १४४ ५. अबद्धायुष्क आहारकद्विक रहित - १४३; .३. बद्धायुष्क आहारक द्विक व तीर्थकर रहित-१४३, ६. अबद्धायुष्क आहारक द्विक व तीर्थंकर रहित-१४२ नोट-इस प्रकार सत्त्व योग्य प्रकृतियोंके आधार पर प्रत्येक गुणस्थानमें अपनी ओरसे एक जीवकी अपेक्षा छह-छह विकल्प बना लेने चाहिए। प्रमाण-(पं.सं./प्रा./३/४६-६३); (पं. सं./प्रा./५/3८४-५००); (.सं./सं./३/६१-७७ ); ( पं. सं./सं./५/४६२-४७७); (गो. क./३३६- ३४३/४८८-४६६)। शेष गुण स्थान व्युच्छि तिकी प्रकृतियाँ असत्त्व कुल सत्त्व योग्य असत्त्व सत्त्व व्युच्छि. सत्व योग्य م १४८ م wo तीर्थकर व आ.द्वि तीर्थकर १४५ س १४७ १ उपशम व क्षयोपशम सम्यक्त्व amro xxxxx नरकायु नरक व तियंचायु ८-११ २ क्षायिक सम्यक्त्व-(गो. क./जो. प्र./३५३४५१२/४ ) ४ । नरकायु, तिथंचायु, दर्शनमोहकी ३, अनन्तानुबन्धी ४ ५ तिर्यचायु xxx o wowo -८ दर्शनमोह, अनन्ता-७१४८ ore ७ | उपशम श्रेणी में =x;क्षपक श्रेणी में - देवायु ३ क्षायिक सम्यक्त्व उपशम श्रेणी--(गो. क./जी. प्र./३५५/५१२/४ ) ८- ११४ ४ क्षायिक सम्यक्त्व क्षपक श्रेणी-(गो.क. जी.प्र./३३६-३४३/४८८-४६६) नोट-अबद्धायुष्क ही क्षपक श्रेणी पर चढ़े। १३८ । ४ । १३८ । ४ १३८ ।xxxxxxx १३८ ६/i | नरकद्विक, तिथंच द्विः १.४ इन्द्रिय, स्त्यानगृद्धित्रिक, आतप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, स्थावर-१६ g/ii | प्रत्यारख्यान ४, अप्रत्याख्यान. ४-८ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश x xx x |४ १२२ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश गुण स्थान ε/ili ε/iv ६/v E/vi /vii 8/viin /ix गुण स्थान १० १२/i १२/ii १३ १४ / i १४/ii मोह सत्त्व स्थान (दे. सत्त्व/३/७ ) ५ ४ १३ नपुंसक वेद १२ स्त्री वेद ११ हास्यादि ग्रह नोकषाय पुरुष वेद मं. क्रोध ३ २ पुरुष वेदोदय सहित व्युच्छित्तिको प्रकृतियाँ समान सं. माया सत्त्व योग्य ११४ ११३ ११२ १०६ व्युच्छि १ १ ६ शेष सत्व ११३ ११२ १०६ १०५ १०४ १०३ १ १०२ १ १०५ १ १०४ १ १०३ माह सत्त्व स्थान ( /२/७) १३ १३ १२ ११ ४ ३ २ व्युच्चिकी प्रकृतियाँ संज्वलन लोभ == ?. (द्विचरम समय में ) निद्रा, प्रचला २ ( अन्त समय में ) ५ ज्ञानावरणी, ४ दर्शनावरणी, ५ अन्तराय - १४ व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ यो वेदोदव सहित X स्त्रीवेद नपुंसक वेद पुरुष हास्यादि ६ सं. क्रोध सं. मान सं. माया सत्त्व योग्य ११४ ११४ ११३ ११२ १०५ १०४. १०३ X (द्विचरम समय ) ५ शरीर, ५ बन्धन, ५ संघात, ६ संस्थान, ६ संहनन ३ अंगोपांग, ५ वर्ण, २ गन्ध, ८ १ रस, स्पर्श - ५०+ स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ स्वर कि वियोगप्रिय दुग निर्माण, अयश, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अनुदयरूप अन्यतम बेश्नीय, नोचगोष ( चरम समय में ) शेष उदयवाली वेदनीय, मनुष्य त्रिक, पंचेन्द्रिय सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थकर, उच्चगोत्र = १३ व्युच्छित्ति Xxx १ ७ १ १ १ मोह सत्त्व स्थान (वे. ३७) शेष सत्त्व ११४ ११३ ११२ १०५ १०४ १०३ १०२ १३ १३ १३ ११ ४ असत्त्व X X X X २ x नपुंसक वेदोदय सहित व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ X x खीव नपुंसक वेद पुरुष वेद, हास्यादि ६ सं, क्रोध सं. मान स माया कुल सत्त्व योग्य १०२ १०१ ६६ सत्त्व योग्य X X X X X ११४ ११४ ११४ ११२ १०५ १०४ १०३ असत्त्व सत्त्व १०२ १०१ ६६ छ ov व्युच्छित्ति X Xoror ११४ ११४ २ ११२ १ व्युच्छित्ति ~ 20 × 5 १ २ १४ शेष सत्त्व १३ १०५ १०४ १०३ १०२ ष सत्त्व योग्य १०१ ६६ छौ X सत्त्व २७९ ३. सत्व विषयक प्ररूपणाएँ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २८० ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ २. सातिशय मिथ्यादृष्टिमें सर्व प्रकृतियोंका सत्व चतुष्क-13/२०७-२१३) द्रष्टव्य-(ध.६/२६८)प्रथमोपशमसहित संयमासंयम के अभिमुख सातिशय मिथ्यादृष्टिका स्थिति सत्त्व इस सारणी में कथित अन्तःकोटाकोटिसे ___संख्यात गुणा हीन अन्तःकोटाकोटि जानना। संकेत-अन्तः को को.-अन्तः कोड़ा काड़ी सागर; न.-बध्यमान आयुष्क भु.- भुज्यमान आयुष्क __ स्थान-निम्बब काटजीर रूप अनुभाग: चतुः स्थान-गुड़ खण्ड शकंरा अमृत रूप अनुभाग। सत्त्व प्रकृतिका नाम प्रकृतिका नाम स्थिति अनुभाग प्रदेश प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेश सत्त्व प्रकृति । ह अन्त को को चतु.स्थान अजघन्य पंचेन्द्रिय जाति औदारिक शरीर है अन्तको.को. द्विस्थान अजघन्य ३ वै क्रियक " ज्ञानावरणीय पाँचों दर्शनावरणीयनिद्रा-निद्रा प्रचला-प्रचला स्त्यान. गृद्धि शेष सर्व वेदनीय है - | नहीं | नहीं नहीं अन्त को को. चतु.स्थान अजघन्य स्व स्व शरीरबद अन्त को को. चतु.स्थान अजघन्य स्व स्व शरीरवत | | at चतुःस्थान, अन्त को को. चतु.स्थान अजघन्य साता : आहारक , तैजस कार्माण अंगोपांग निर्माण बन्धन संघात सम चतुरस्त्रसंस्थान शेष पाँच वज्र ऋषभ नाराच शेष पाँच संहनन वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्शः प्रशस्त अप्रशस्त आनुपूर्वी अगुरु लघु उपधात परपात चतु., असाता मोहनीय(दर्शनमोह प्रस्थान (२८) (२७) सम्यग प्रकृति है नहीं मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व है नहीं २६ स्थान में भी है चारित्र मोह प्रकृति स्थान चतु. , | द्वि. .. स्व स्व शरीरबत् अन्त को को. चतुस्थान अजघन्य चतु.॥ आतप अनन्ता. चतु. अप्रत्याख्यान. उद्योत उच्छवास विहायोगति प्रशस्त प्रत्याख्यान संज्वलन " सर्व नोकषाय अप्रशस्त प्रत्येक २३ साधारण त्रस चतु." | " आयुनरक, तियंचगति ब.भु. है | व.भु. है द्विस्थान अजधन्य] मनुष्य, देवगति नामनरक, तियंचगति अन्तको को, द्विस्थान मनुष्य, देवगति २] १-४ इन्द्रि. जाति स्थावर सुभग दुर्भग | चतु.. सुस्वर दुःस्वर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं सत्त्व सत्त्व सत्व प्रकृतिका नाम क्र. प्रकृतिका नाम प्रकृति स्थिति अनुभाव प्रदेश प्रकृति र स्थिति | अनुभाव | प्रदेश शुभ अन्त को को. चतु.स्थान अजघन्य ७ गोत्र अन्त को.को. चतु.स्थान अजघन्य অহ্ম बादर चतु.. द्वि... चतु.. नीच अन्तराय सूक्ष्म पाँचों चतु... द्वि... ३४ पर्याप्त ३. अपर्याप्त ३६ स्थिर अस्थिर आदेय अनादेय यशःकीर्ति अयशःकीर्ति तीर्थकर चतु. .. चतु. " द्वि. , , नहीं नहीं - - ३. प्रकृति सत्त्व असत्त्व आदेश प्ररूपणाद्रष्टव्य- इस सारिणी में केवल सत्त्र तथा असत्व योग्य प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है. सत्व-व्युछित्तिका नहीं। उसका कथन सर्वत्र ओघवत जानना। जिस स्थान में जिस जिस प्रकार प्रकृति का असत्त्व कहा गया है. उस स्थान में उस उस प्रकृति को छोड़ कर शेष प्रकृतियों की व्युच्छित्ति ओधवत जान लेना । जहाँ कुछ विशेषता है, वहां उसका निर्देश कर दिया गया है । सच्च असत्व का कथन भी यहाँ तीन अपेक्षाओं से किया गया है-उद्वेलना रहित सामान्य जीवों की अपेक्षा, स्वस्थान उद्वेलना युक्त जीवों की अपेक्षा और उत्पन्न स्थान उद्वेलना युक्त जीवों की अपेक्षा। गुण कुल मार्गणा असत्त्व कुल सत्त्व योग्य असत्त्व स्थान सत्त्व स्थान गति मार्गणा(१)/ नरक गति-(गो.क./भाषा./३४६/४६८) सामान्य उद्वेलना सहित १-३ पृथिवी देवायु देखो आगे पृथक् शीर्षक नरकगति सामान्यवत् देवायु, तीर्थ कर देव, मनुष्यायु, तीर्थ १४८ | १ १४० तिथंच गति-(गो. क./भाषां/३४६/४६६-५००) सामान्य उद्वेलना सहित अविरत सम्यग्दृष्टि संयतासंयत पंचेन्द्रिय प. तीर्थकर देखो आगे पृथक शीर्षक नरक व मनुष्य आयुकी व्युच्छित्ति -२ १४७ १४७ सामान्य तियंचवत भा० ४-३६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व क्र. ३ योनिमति प ४ तिर्यंच ल. अप. (३) मनुष्यगति १ २ ३ २ ३ ल. अप. मनुष्य (४) देवर्गात - ( गो . क. / भाषा ) / ३४६/५०३ ) '१ सामान्य ४ .२ १ जानक अनुसिसिि (५) चारों गतिके उद्देसना सहित जीब १ सामान्य (३ प्रकृतियोंके असत्व वाले ) २ आहार. वि. की उसना सहित को (iii) i ii सामान्य उद्वेलना सहित संयतासंयत मनुष्य पर्याप्त मनुष्यणी प. तीर्थ सहित क्षपक ) ३सम्यगूकी मिश्रकी इन्द्रिय मार्गणा १-४ इन्द्रिय सामान्य iii iv २ उद्वेलना सहित भवनत्रिक देव २ मार्गमा सौधर्म ईशान देवी सौधर्म सहकार (i) उत्पन्न उद्वेलना (ii) (गो. क. / भाषा / ३४६/५०३ ) 19 91 29 स्वस्थान उद्वेलना 15 उमा सहित को उत्पन्न स्थान उद्वेलना से युक्त होने पर 91 ईर्चेन्द्रिय 33 11 " द्विविध उद्वेलना सहित रोज बातलाय, सा. • उत्पन्न स्थान उद्वेलना सहित गुण स्थान सीर्थ देवा नरका ३ काम मार्गणा (गो.क्र. / भाषा./२४१-३४९/५०१-५०६) १ पृथि अप, वन, सा X देखो आगे पृथक शीर्षक तिर्यच नरकायु २८२ + स्त्री वेदकीत X सीर्थ देवायु, नरकायु असत्त्व नरकायु देखो आगे पृथक शीर्षक सीकर, नरका नरक, तिचायु 11 सम्यक्त्व मोह मिश्र मोह 19 देवायु, तीर्थकर, नरका अहारक द्विक 1 19 तीर्थ. देवायु, नरकायु, देव नरक मनुष्या सौ. आहारक द्विक. सम्यक्त्व मोह मिश्र मोह देव क * तीर्थंकर, देव, नरकायु बाहा, दि. सम्यकं प्रकृति मिश्र, उम्रगोत्र मनुष्यकि Refre नरक चतु (नरकनि कि. डिक) - उच्च गोत्र मनुष्य द्विक —१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३ २ -२ Trir -२ * * riff - ३ = ३ " कुल सत्व योग्य २ १४८ १४८ सामान्य तियंचवत ३ १४८ १४६ १४६ १४८ १४८ २ १४६ मनुष्य सामान्यवत् १४८ १४८ १४८ १४८ १४५ १४३ १४२ १४८ १४५ १४३ १४२ १४१ १४० १४१ १३६ १३६ १३५ १४८ 11 १४८ ४ १४८ २ १४४ '१ १४२ १४१ १४० असत्त्व सत्व x १४ 31 X १४६ १ १४५ ३ १४५ १४७ २ १४६ भवनत्रिपद सामान्य देववत् २ २ ३ २ १ १ १ २ २ ४ ३. सएव विषयक प्ररूपणाएं ३ ३ ३ ४ १४५ १४८ २ १ २ १४६ १४६ १४५ १४३ १४२ १४१ १४५ १४३ १४२ १४१ १४० १३८ १३६ १३५ १३६ १३२ १४८ १४५ १४४ १४२ १४१ १४० १३८ कुल गुण स्थान or 20 १ १४ ।।।। १ ४ ४ १ चौथा ه له ل ه ل له २ २ २ २ २ २ १४ "" । १ १ १ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २८३ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं मार्गणा | गुण ___ असश्व असचव कुल सत्त्व योग्य असत्व सत्त्व कुल गुण स्थान स्थान स्व स्थानमें उद्वेलना सहित नरक द्वि., बैकि.द्वि. उच्च गोत्र मनुष्य द्वय पंचेन्द्रिय - ४. योग मार्गणा-(गो, क./भाषा/३५२-३५३/५०६-५०८) १४८ ४ १४८ चार मन, चार बचन व औदारिक काय योग आहारक व आ. मिश्र वैक्रियक ३ १(६ठा) १४८ वै क्रियक मिश्र नरकायु, तियंचायु १४८ x तीर्थकर प्रकृतिबाला तीसरे नरक तक वा देवगतिमें जाता है। तिर्यच, मनुष्यायु *२) १४८ १४६ x आ. द्वि., तीर्थ., नरकायु १४६ औदारिक मिश्र देवायु, नरकायु १४४ १.२४४ व १३ बा ६ कार्माण १४८ -बै क्रियक मिश्र व सयोगीवत् - ५. वेद मार्गणा-(गो. क./जी. प्र./३५४/५०८/१) १४८ १४८ १४८ १४८ १४८ पुरुष वेद स्त्री वेद सा. ..क्षपक श्रेणी ३। नपुंसक वेद १४ तीर्थकर -स्त्रीवेदव कषाय मार्गणा क्रोधादिमें गुणस्थान लोभमें गुणस्थान १० ४ | १४८ या १० ७. शान मार्गणा-(गो. के. जी. प्र/३१४/०८/4) १४० कुमति, कुश्रुत, विभंग मति, श्रुत, अवधि मनःपर्यय केवल १४८ ४-१२ नरक तियं चायु ओघवत् व्युच्छित्ति १४८ -६३, १४८ १३-१४ नरक, तिथंचायु ८. संयम मार्गणा-(गो. क./जी./प्र./३५४/०८/8) सामान्य सामायिक छेदोपस्था, परिहार विशुद्धि सूक्ष्म साम्पराय (उप.) " " (क्षपक) यथारख्यात उप. उपशम. ओघवत ४६ व्युच्छि. भरक, तियंचायु १(१०) १० वा| १(११वा - १४८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २८४ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं मार्गणा असत्व कुल सत्त्व योग्य असत्वा सत्व कुल गुण स्थान स्थान यथारख्यात क्षा. (x उपशम.) १४८ ११वां) नरक, तियंच, देवायु, दर्शन मोहकी। ३, अनन्तानुबन्धि ओघवत् व्युच्छिन्न ४७ नरकायु १४८ १४८ १२-१४ १ (५वा) १-४ १४६ १४८ " (क्षा, ४ क्षपक.) संयतासंयत असंयत दर्शन मार्गणा-(गो. क./जी.प्र./३५४/५०६/५) चनु, अचच दर्शन अवधि दर्शन केवल , १० लेश्या मार्गणा-(गो. क./जी. प्र./३५४/५०६/७) कृष्ण, नील कापोत पीत, पद्म xx १४८ १४८ १४८ ८१ ओघवत व्युच्छिन्न १४८ १३-१४ तीर्थकर २ xx १४८ १४८ १४८ १४७ १४८ १४८ १४७ तीर्थ कर (तीर्थ.सत्त्ववाला नरक जानेके सन्मुख होय तभी सम्यक्त्वको छोड़े। परन्तु तब लेश्या भी कापोत हो जाये। क्योंकि शुभ लेश्यामें सम्यक्त्वकी विराधना नहीं होती। शुक्ल १४८ ८-१३ भव्यत्व मार्गणा-( गो. क./जी. प्र./३५४-३५५/५०१-५१०/१६ ) xx भव्य १४८ १४८ अभव्य । तीर्थ., सम्य,, मिश्रमोह, आ.द्वि., आ. बन्धन सघात द्वय सम्यक्त्व मार्गणा-(गो.क./जी.प्र./३५६/५१२/२) क्षायिक सम्य. १३६ मरक, तिथंचायु, दर्शन, मोह ३, | १४८ अनन्तानुबन्धी ४ १४८ १४८ १४८ १४९ अनन्तानुबन्धी ४, नरक, तिर्यंचायु -६ तीर्थकर तीर्थ.. आ.द्वि १४२ Mm _w xx uranx x ४-११ ४-११ १(३रा) १(२रा) १४७ १४५ १४८ १४८ बेदक सम्य. उपशम . द्वितीयोपशम (ल. सा./२२०) ४। सम्यग्मिथ्यात्व ५ सासादन ६ मिथ्यादृष्टि १३ संशी मार्गणा-(गो. क./जो.प्र./३५५/५१३१७) १ संज्ञी २ असंज्ञी १४ आहारक मार्गणा-(गो.क./जी.प्र./३५५/५१२/8) १ आहारक २ अनाहारक १४८ १४९ १-१२ तीर्थकर १४८ १४७ १४८ xx १४८ १४८ (१,२,४ । १.२,४) | । ~~ कार्माण काय योगवत् -- -- ओघवत् -- | | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २८५ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ ४. मोह प्रकृति सत्त्वकी विमक्ति अविभक्ति प्रमाण-क. पा. २/१०१/८३-८७ । संकेत.२८ प्र.-मोहकी सर्व २८ प्रकृतियाँ ७ प्र.-दर्शन मोह ३+अनन्तानु.४६ प्र.-मिथ्यात्व रहित उक्त ७२प्र-सम्य व मिश्र मोह वि.= विभक्ति; अवि.- अविभक्ति। शेष के लिए देखो.सारणी मं.१का प्रारम्भ। विभक्ति अविभक्तिकी प्रकृति या शेषकी विभक्ति प्रमाण मार्गणा ६प्र. २प्र. २८ प्र. । ७ प्र. प्र. २ प्र. अन्य विकल्प x x x xx x x x x x x x x x x x x x :: xxxxxxxxxx x xxxxxxxxxxxxx गति मार्गणा नरक गति सामान्य प्रथम पृथिवी २-७ पृथिवी तिथंच सामान्य पंचेन्द्रिय ति.सा. प. तिथंच योनिमति पंचे ति. ल. अप. मनुष्य त्रिक मनुष्य ल. अप. देव सामान्य भवनत्रिक देवी सर्वकल्प वासी इन्द्रिय मार्गणा सर्व एकेन्द्रि.प. अप. ., विकलेन्द्रि.प. अप. , पंचेन्द्रिय सा. प. .,पंचे. ल. अप. काय मार्गणा योगमार्गणा पाँचों मनोयोग , वचन , काय योग सामान्य औ., औ, मिश्र वै., वै. मिश्र आ., आ. मिश्र कार्माण बेद मार्गणा स्त्री वेद x x x xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx x x x x - इन्द्रिय मार्गणावत X x x x X x X x x :: ::xx X x x x x x x X x x x X x पुरुष वेद X x x x xxx अप्रत्य. आदि १२ कषाय. दर्शन मोह ३, नपु.-१६ को वि. अवि. शेष १२ की अवि. । संज्व. ४, व पुरुष वेदके बिना २३ की विभक्ति अवि.। और इन ५ की वि.. १२ कषाय. दर्शनमोह ३, नपुं. इन १६ की वि. अवि.। शेष १२ को वि.। अनन्तानु ४के बिना २४ वि.अवि. अनन्तान की विभक्ति।। x नपुंसक वेद X x अपगत वेद X x x जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २८६ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं प्रमाण मार्गणा २८ प्र. ७प्र. ७प्र. । २प्र. अन्य विकल्प कषाय मार्गणा क्रोध मान माया लोभ अकषायी x x x x x संव.४ बिना २४ की वि. अवि. संज्व, मान, माया, लोभ बिना २५ की वि. अवि.। संज्व, माया, लोभ, बिना २७ की वि. अवि. ! संज्व. लोभ बिना २७ की घि. अवि, । अनन्तानु. ४ बिना २४ की वि. अवि. । शान मार्गणा मति, श्रुत, अज्ञान विभंग ज्ञान मति, श्रुत, अवधि मनः पर्यय : : x x xxxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxxxxx xxx xx संयम मागणा संयम सा, सामायि. छेदो. परिहार विशुद्धि सूक्ष्म साम्पराय यथारख्यात संयतासंयत असंयत संज. लोभ विना २७ की वि. अवि. । x x x x x x x संज्व. लोभ अनन्ता. ४ बिना २३ की वि. अवि.। अनन्ता.४ विना २४ की वि. अवि. । दर्शन मार्गणा चक्षु, अचक्षु অবধি x x xxx xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx लेश्या मार्गणा कृष्णादि ५ शुक्ल xxxx x x भव्य मागणा भव्य अभव्य x x x x सम्य, मिश्र मोह मिना २६ की वि., अवि.। xxxxxxxx सम्यक्त्व मार्गणा सम्यक्त्व सा. क्षायिक वेदक उपशम सम्यग्मिथ्यादृष्टि सासादन मिथ्यावृष्टि संशी मार्गणा संज्ञी असंज्ञी x x x x x x x x x x x x अनन्ता.४, दर्शन मोह ३ बिना २१ को वि.,अवि. । अनन्ता.४, सम्य., मिश्र मोह बिना २२ की वि., अवि.।। अनन्ता.४ मिना २४ की वि. अवि.। सर्व २८ की वि. x की वि. अवि,। x x x x xxxxx आहारक मार्गणा आहारक अनाहारक xx x x जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ५. मूलोत्तर प्रकृति सत्त्व स्थानोंकी ओघ प्ररूपणा , संकेत-ब०:बद्यमान आयुष्क; भु-भुज्यमान आयुष्क । अबद्घायुष्कके भंग स्थान स्थान का स्वामी असत्वको प्रकृतियाँ . बदायुष्कके भंग अबद्घायुष्कके भंग कुल सत्त्व योग्य असत्त्व सत्त्व प्रकृति प्रति स्थान भंग प्रति स्थान विवरण विवरण भुज्यमान मनुष्य अन्यतम भुज्यमानायु केवल १ भुज्यमानायु अन्यतम .. मिथ्यादृष्टि-(गो. क/३६६-३७१/५२२-५३५)। कुल स्थान १८ ( वद्धा. १०, अन्नद्धा. ८): कुल भंग%५० (बद्धा. २६, अबदा. २४) तीर्थयुक्त नरकायु बद्ध मनुष्य | तियंच, देवायु १४८२१४६ १ भुज्यमान मनुष्य, बद्ध्यमान नरक नरक जानेके सम्मुख तीर्थ. रहित कोई भी जीव भु. ब. बिना २ आयु. तीर्थ -३ १४८/३ /१४५ ( देखो आयु कर्मके सत्त्व स्थान) तियं.,देवायु, आ. चतु. . -६ मनुष्य नरकायु सहित कोई २ आयु, आ. चतु., तीर्थ . = १४८७ ( देखो आयु कर्मके सत्व स्थान) उपरोक्त ७+सम्यक्त्व .. + सम्यक्त्व, मिश्र देवद्विककी उद्वेलना वाला चतु- - उपरोक्त हव देव द्विक -२ | भुज्यमान तियंच, बद्धयमान मनुष्य अथवा भु. ति.. रिन्द्रिय ब.ति.. भु. मनुष्य.. १.ति. नरक द्विक, वै. द्वि, देव द्वि., की । उपरोक्त ११+नरक द्विक, देवद्विक, उद्वेलना वाला चतुरिन्द्रिय । वैक्रियक द्विक') - १३९ ६ १३१ १ भुज्यमान तिर्यच, वध्यमान मनुष्य | उच्चगोत्रके उद्वेलनवाला तेज, भुज्यमान तिर्यंच बध्यमान तियंच वात कायिक | मनुष्यद्विककी उद्वेलनाबाला उप- | उपरोक्त १६ व मनुष्य द्विक १२६२ १२० १ रोक्त तेज बात कायिक २६ मनुष्य या तिर्यंचायु पुनरुक्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २८७ अन्यतम भुज्यमानायु सासादन-(गो. क. ३७२-३७५/५३६-५३६) कुल स्थान,-६ (बद्धा, २, अबद्धा. ४); कुल भंग १८ (बद्धा. ६; अबद्धा. १२) भु. ब. बिना २ आयु,तीर्थ.,आ. चतु., १४८/७/१४६ ५। (देखो आयु कर्मके सत्त्व स्थान) आ. चतु के बन्धवाले किसीको भु. ब. बिना २ आयु, तीर्थ -३१४८३ १४५ १ सासादनकी प्राप्ति होय। | नं. १ को ७~-ब. आयु -११४५ १ १४४ x १ नं.२ की ३- -१:१४५ १ १४४) अन्यतम भुज्यमान xx अन्यतम भुज्यमानायु morro मिश्र (गो.क./३७२-३७५५३६-५३६ ) कुल स्थान = (बद्वा.४; अबद्धा ४); कुल भंग-३६ (बद्वा. २०; अबद्धा. १६) भु. ब. बिना २ आयु, तीर्थ | (देखो आयु कर्मके सत्व स्थान ) उपरोक्त ३+ अनन्ता.४ " + आ. चतु. उपरोक्त ७+ अनन्ता.४ १४१ ४ १३७५ occcc ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं २० Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबद्धायुष्कके भंग प्रति बद्घायुष्कके भंग सत्त्व असत्त्वकी प्रकृतियाँ स्थानका स्वामी कुल सत्त्व योग्य असत्त्व सत्त्व प्रकृति स्थान प्रति | अबद्धायुष्कके भंग स्थान विवरण विवरण भंग ४. AN । अन्यतम ३ आयु م م भु. मनुष्यायु भु. अन्यतम तीन م ه orror ornam. N م م س अन्यतम चारों आयु चारों भुज्यमानायु भु., मनुष्यायु चारों भु. आयु । अन्यतम ३ आयु سه یه अविरत सम्यग्दृष्टि-गो. क./३७६-३८१/५४०-५४६ कुल स्थान=४० ( बद्धा.-२०, अबद्धा.२०); कुल भंग-१२० (बद्धा.-६०, अबद्धा.-६०) तीर्थका सत्त्व तिर्य को न हो। । तिर्यच व अन्य कोई आयु -२१४८२१४६ २ | भु.मनु., न. नरक, भु. मनु., ब. देव Vice versa उपरोक्त २+अनन्ता.४ = ४ १४६ ४ १४२ २ उपरोक्त ६+मिथ्यात्व १४२११४ + मिश्र व मिथ्यात्व -२४२ + दर्शन मोह३ -३ १४२ ३ तीर्थ, भु. ब. मिना २ आयु =३ १४८ (देखो आयु कर्मके सत्त्व स्थान) भुब, बिना २ आयु, अन,४, तीर्थ =७१४८७१४१ मनुष्य उपरोक्त ७+ मिथ्यात्व -८ ६४८८ १४० भु. मनु., ब. ति., नारक देव । ब. मनु , पुनरुक्त उपरोक्त +मिथ्यात्व, मिश्र ६१४८६१३६ ., + दर्शनमोह ३ -१०१४८१० १३८ भु. नरक, न. मनु, भु. ति. ब. देव, भु. मनु., ब. देव, भु. मनु. ब. ति.. ति. व अन्य कोई आयु, आ. चतु. =६ ११६ ६ १४२ भु. मनु.ब. नरक, भु. मनु. ब. देव, व Vice versa + ४ अनन्तानु. -४ १४२ ४ १३८ +मिथ्यात्व +मिश्र + सम्यक्त्व अन्यतम २ आयु, तीर्थ, आ, चतु, = ७'१४८७१४१ ( देखो आयु कर्मके सच्च स्थान) + अनन्तानु.४ = ४,१४१४ १३७ + मिथ्यात्व • भु. मनु. व.ति., नारक, देव / ब. मनुष्य, पुनरुक्त + मिश्र + सम्यक्त्व देखो नं. (१०) अन्यतम ३ आयु له به जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अन्यतम ३ आयु ر له سه Imlor or nocccwnlmma चारोंमें अन्यतम आयु ر به سه سه भु. मनु. अन्यतम ४ आयु ५. | देश संयत-(गो. क./३५२/५५०) कुल स्थान-४० (नद्धा. २०; अबदा.-२०): कुल भंग-४८ (बद्धा,-२४, अबद्धा.-२४) १-५ अविरतवद । अविरतवद बीसों स्थानों में भु, मनु., ब, देवका एक भंग २४२ । भु. मनु... देव / भु. ति., म. देव । १८ भु. मनु., ब. देवका एक भंग सर्वत्र सं.६,७ बत् । १८-२० १४३ - सं.१-५वत २४ । ६-७ प्रमत्त अप्रमत्त संयत-(गो. क./३८२/५५०) कुल स्थान ४०%=(बदा.-२०: अबदा.-२०) कुल भंग-१२० (बद्धा.= ६०: अबद्धा,६०) १-२० अविरतवत् अविरतवत् | १४२०/ भु. मनु., बद्धा. देवका एक भंग सर्वत्र २४२ १४८ २४२ भु. मनुष्य भु. मनु. या तियंच भु. मनु. सर्वत्र सं. ६,७ वत् सं.१-५ वत ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ २४ भु. मनु. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान सं. सत्त्व ८. उपशम श्रेणी / उप. क्षा. सम्यक्त्व ( अपूर्व करण ) (गो. क. / ३०३-३०४/२३१-५१३) -स्थान- २४ मंग-२४ । द्रष्टव्य-कनकनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के अनुसार यहाँ स्थान नं. १, २, ७,८,१३,१४,१९ इन आठ स्थानोंको छोड़कर १६ स्थान व १६ भंग होते हैं । (गो. क. / ३६१ / ५५०) । संकेत- दे. सारणी सं. १ का प्रारम्भ | १ २ ३ ४ ५ 2. ~ ~ ~ 20 2 w 2 ~ w & ∞ & m 20 १० ११ १२ १३ १४ { अनन्तानु, चतु. १५ १६ १७ १८ १६ २० २१ २२ २३ २४ असत्ववाली प्रकृतियाँ नरक, तिर्य. अनन्तानु. चतु. आयु दर्शनमोह त्रिक. नरकर्मि आयु. + तीर्थ, दर्शनमोह त्रिक नरक-तिर्य, आयु + आहा. तु. अनन्तानु. चतु. दर्शनमोह त्रिक नरक-तिर्म, आयु+आहा. तु. + सीर्थ अनन्तानु तु दर्शनमोह त्रिक भा० ४-३७ पहले सत्त्व योग्य १४८ १४६ १४२ १४८ १४५ * १४८ १४२ १३८ १४८ १४१ २८९ १३७ असत्त्व २ 20 ४ ३ 蔡 ४ ३ ४ अब सत्व योग्य ← १४६ १४५ १४२ १४१ १३६ १३८ १४४ १४१ १४० १३८ १३७ १४२ १४१ १३ १३७ १३५ १३४ १४९ १४० १३० १३६ १३४ १३३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भंग १ १ १ १ ༣ १ १ १ १ १ १ ९- ११ उपशम श्रेणी / उपशम व क्षा सम्यक्व ( अनिवृत्तिकरणादि उपशान्त कषाय पर्यन्त ) । (गो.क./१०५/५२१) स्थान २४ भंग २४ । द्रष्टव्य - आ. कनकनन्दिके अनुसार स्थान १६, भंग- १६ । उपरोक्त वे गुणस्थानवत् १ १ १ १ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ विवरण बद्धायु मनुष्य अबद्धायु मनुष्य बद्धायु मनुष्य अबद्धायुष्क मनु. बद्धायु मनुष्य अबद्धायु मनुष्य बद्धायुष्क मनु. अनद्धायु मनुष्य बद्धायु मनुष्य अवद्वायु मनुष्य बदायु मनुष्य अबनायु मनुष्य बद्धायु मनुष्य -अबद्धायु मनुष्य बद्धायु मनुष्य अबद्धायु मनुष्य बद्धायु मनुष्य अबद्धायु मनुष्य बद्धायु मनुष्य अबद्धायु मनुष्य बद्धायु मनुष्य अबद्धायु मनुष्य बद्धायु मनुष्य • अबद्धायु मनुष्य Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्व ८. क्षपक श्रेणी (अपूर्वं करण ) स्थान सं. १ २ ३ ४ ( गो . क. / ३८५/५५३ ) - स्थान -४; भंग- ४ | द्रष्टव्य-बद्धायुष्यकको क्षपक श्रेणी सम्भव नहीं अतः केवल अनद्वायुष्क मनुष्यके ही स्थान हैं। तीन आयु + अनन्त चतु. + दर्शनमोह त्रिक. तीर्थंकर ९. क्षपक श्रेणी ( अनिवृत्तिकरण ) /i आहा. चतु. आहा. चतु. + तीर्थ गुण सरव स्थान स्थान र/ध असत्त्ववाली प्रकृतियाँ संकेत. बेदी पुरुषवेदोदय सहित बेणी चढ़ने वाला। = १ ३ ४ १ २ ३ पहले सरव योग्य असत्त्ववाली प्रकृतियाँ १४५ १३८ १३८ १३८ आहारक चतु आहा, चतु +तीर्थ नरक दि. वि. वि. १-४ इन्द्रिय, स्थान, त्रिक, आतप उद्योत सूक्ष्म, साधारण, -१६ ब्युच्यन्न स्थावर तीर्थंकर आहा, चतु. ३ आयु + अनन्त चतु. + दर्शनमोह त्रि. १० न - तीर्थंकर असत्त्व स्त्रीवेदी - स्त्री वेदोदय सहित श्रेणी चढ़ने वाला । नपुं. वेदी = नपुंसक वेदोदय सहित श्रेणी चढ़ने वाला | द्रष्टव्य- केवल अबद्धायुष्क मनुष्य के आलाप ही सम्भव है क्योंकि बद्धायुष्क क्षपक श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता । २९० (गो.क./३०१-३००/५६४-२२२) स्थान-: भंग द्रष्टव्य-गो. सा.में पुरुष वेदी व स्त्रीवेदी दोनोंके समान आलाप मानकर कुल स्थान ३६ बताये हैं, पर सारणी १ के अनुसार पुरुष व स्त्रीवेदी आलापों में कुछ अन्तर होनेसे यहाँ स्थान ४४ बनते हैं। पहले सख योग्य १४८ १३८ १३८ १३८ १३८ १० १२२ १२१ १ ४ ५ असश्र्व १० अब सत्त्व योग्य १ ४ ५ १६ १३८ १ ४ १३७ १३४ १३३ अ सब योग्य १३८ १३७ १३४ १३३ १२२ · १२१ भंग १९८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १ १ १ १ भंग १ १ १ ३. सत्व विषयक प्ररूपणाएँ १ विवरण X X विवरण X X X X X X Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २९१ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ गुण । सत्त्व स्थान स्थान असत्त्व वाली प्रकृतियाँ पहले सत्त्व योग्य असत्व অল सत्त्व योग्य भंग विवरण आ. चतु.+तीर्थ, १२२ ११७ अप्रत्या. ४+ प्रत्या.४-८व्युच्छि तीर्थकर ११३ आ. चतु. 16 १ ।४ ११० आ. चतु.+ तीर्थ ११४ १०६ १ ११४ ४ । ११४ स्त्रीवेदी व नपुं. वेदी तीर्थ कर ११४ न पु. वेदी ११४ तीर्थ + नपुं. आ. चतु. स्त्रीवेदी व नपुं. वेदी आ. चतु.+नपुं. ११४ १०६१ पु. वेदी आ. चतु.+तीर्थ ११४ स्त्री व नपुं. वेदी आ. चतु,+तीर्थ +नपुं. ११४ १०८ पु. वेदी 8/v ११४ नपुं. वेदी तीर्थकर ११३ स्त्री वेद ११४ पु. वेदी व स्त्री वेदी तीर्थ + स्खोवेद ११४ ११२ । आ. चतु. नपुं. वेदी आ. चतु + स्त्री. १०६ पु. वेदी+स्त्री वेदी आ. चतु.+तीर्थ ११४ नपुं. वेदी आ. चतु.+तीर्थ +खी. ११४ १०८ पु. वेदी व स्त्री वेदी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्व गुण स्थान ε/vi /vii ε/viii e/ix सव स्थान १ २ ३ ५ ६ ७ १ २ ४ २ ३ १ ४ १ २ ३ ४ ३ ४ असाही प्रकृतियाँ स्त्री. व नपुं. तीर्थंकर आ. चतु. आ. चतु. + तीर्थ हास्यादि ६ व्युच्छि तीर्थ = २ व्युच्छि आ. चतु. आ. पत्र+तीर्थ पु. वेद तीर्थंकर आहा. चतु. आप+सी १] व्युच्छि आ. चतु आ. चतु. + तीर्थ संजय, क्रोध - व्युि तीर्थंकर संजय मान १ व्युच्छि. तीथकर संवन माया -१ युच्छि सीकर पहले सत्त्व योग्य आ. चतु. आ. चतु+तीर्थ ११४ ११२ ११२ ११२ ११२ १०६ १०६ १०६ १०६ १०५ १०५ १०५ १०५ १०४ १०४ १०४ १०४ आ. चतु. आ. चतु + सीधे १०. क्षपक श्रेणी (सूक्ष्म साम्पराय ) ( गो . क. / ३८१ / ५५६ ) - स्थान -४; भंग-४ १०३ १०३ १०३ १०३ १०२ १०२ १०२ २९२ असत्त्व १ ४ ५ ६ १ ४ ५ १ ५ १ १ ४ ५ १ १ ४ १ १ ४ ५ अब सत्त्व योग्य ११२ १११ १०८ १०७ १०६ १०५ १०२ १०१ १०५ १०४ १०१ १०० १०४ १०३ १०० ६६ 3 १०३ १०२ ६६ हृद บ १०२ १०१ ૨૮ ७ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भंग १ १ १ १ १ १ १ १ १ ३. सत्व विषयक प्ररूपणाएँ खीवेदी व नपुं. बेदी 97 पु. वेदी 19 19 तीनों वेदी 11 विवरण 19 " X x X X X x X X X Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २९३ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपण एं पहले सत्त्व स्थान! असत्त्ववाली प्रकृतियाँ असत्त्व अब सत्त्व योग्य | भंग सत्त्व योग्य स्थान विवरण १२ । क्षीण कषाय-(गो. क./३८/५१६)-स्थान-८ भंग-८ संज्व, लोभ १ व्युच्छि. तीर्थकर आ, चतु. आ. चतु.+ तीर्थ द्विचरम समय निद्रा, प्रचला =२ व्युच्छि.. चरम समय तीर्थकर आ. चतु. आ, चतु.+तीर्थ १३ । सयोगकेवली-(गो. क./३६०/५५७)-स्थान-४; भंग ४ ५ ज्ञानावरण + ५ दर्शनावरण +४ अन्तराय-१४ व्युच्छि . तीर्थकर xxxx आहा. चतु. आ. चतु.+तीर्थ अयोग केवली- (गो. क./३६०/५५७)-स्थान -८; भंग-८ सयोगीवत चारों स्थान द्वि चरम समय तक व्युच्छित्ति-७२ ( दे.सारणी नं.१) चरम समय तीर्थकर व्युच्छित्ति-१३ चरम समयके अन्तमें व्युच्छित्ति-१२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व सं. १. ६. मूळ प्रकृति सच्च स्थान सामान्य प्ररूपणा १ २ ३ ३. १ २ २. दर्शनावरणीय - ( गो . क./६३१-३२/८३१) १-१/i १/१२/२ १२/६ ५ १ २ १ मार्गणा ८. ४. मोहनीय बेदमीय (गो.क./१३३-६३४/८१२) १-१४/i tw/il ज्ञानावरणीय - ( पं. सं . / प्रा / ५ / ४, २४ ) (पं. सं. / सं./५/५-१०); (गो. क . / ६३०/८३०) १-१२ गुणस्थान ५ (देखो पृथक् सारणी) ६. नाम (देखो पृथक् सारणी) ७. गोत्र ( गो.क./६३/१३-८१५) १-१४/ 1 कुल स्थान अमायुक अन्तराय - ( गो . ६३०/८३० / ) १-१२/ १ १ आयु - (गो, क./३६६-३०१ / १२२-५१५ ) बद्धायुष्क १ १ ३ १ २ नम १ ३ १ २ प्रति स्थान प्रति स्थान प्रकृति भंग ६ २९४ २ १ १ १ १ १ ५ ४ संकेत- देखो सारणी १ का प्रारम्भ । १ पाँचों ज्ञानावरणीय सर्वदर्शनावरणीय या त्रिरहित चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दोनों बेदनीय साता या असाता प्रकृतियोंका विवरण तिर्य 11 (i) भु. मनु., बध्य, मनु. (ii),. ति., (i) भु. मनु, ब. ति. ii व vice versa (ii) भु. मनु. ब. नारक व vice versa (iii) भु. मनु. ब. देव व vice versa (iv) भु. ति., ब. नारक (v) भू. शि. म. देव व vice versa a vice versa अन्यतम भु. आयु से ४ भंग दोनों गोत्र उच्च गोत्र २. सत्य विषयक प्ररूपणाएँ पाँचों अन्तराय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २९५ ३. सत्व विषयक प्ररूपणाएं ७. मोह प्रकृति सव स्थान सामान्य प्ररूपणा (क. पा.२/पृष्ठ), (पं. सं./प्रा./५/३३-३६), (पं. सं./स./१/४२-४७) कुल सत्त्व योग्य-२८: कुल सत्त्व स्थान-१५ द्रष्टव्य-अनिवृत्ति करणमें मोहनीयके क्षयका क्रम: १. नवें गुणस्थानके कालके संख्यातवें भागको व्यतीत करके (अप्रमत्त व प्रमत्त) ८ प्रकृतियों का क्षय करता है। २. अनन्तर अन्तर्मुहूर्त बिता कर क्रमसे (e/i) में दर्शायी १६ का क्षय करता है। ३. ओधर्म की प्ररूपणा पुरुषवेद सहित चढ़नेवालों की हैं । यदि स्त्री., नपुं. वेदके साथ श्रेणी चढ़े तो ६/ii Re/iv में तीनों वेदोंकी क्षपण। ६ नो कषायोंके साथ युगपत् प्रारम्भ करता है। तहाँ पुरुष वेदकी अन्तिम खण्डको क्षपणाके निकट उससे पहले ही स्त्री व न. वेदोंके अन्तिम खण्डौंका अभाव हो जाता है। तब वहाँ e/iv स्थान बजाय ५ के सत्त्वके ११ के सत्त्ववाला बनता है। फिर पं. वेद व ६ नो कषायको युगपत क्षय करके //vii में पुरुषवेदीवन ही ४ का सत्व कर लेता है। संकेत- देखो सारणी सं.१ का प्रारम्भ । মালয় प्रति स्थान प्रकृतियोंका विवरण गुणस्थान प्रमाण प्रकृति प्रमाण स्वामी जीव विवरण क.पा.२/पृ. क.पा.२/प्र. २०२ २११ क्षपक मनु. मनुष्यणी क्षपकमत ६/x Elix g/viii Elvii संज्वलन लोभ सं.लोभ, माया , ,मान चारों संज्वलन चारों सं.व पुरुष वेद ४ संज्व., पु. वेद, ६ नो कषाय ४ सं..६ नो कषाय, पु. स्त्रीवेद Elvi {/iv दर्शन मोहके क्षय सहित चारों गतिके E/ii ४ अनन्ता, रहित चारित्र मोहकी २५ जोब दर्शन मोह क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी उपरोक्त २१ व सम्य. प्रकृ. कृत-कृत्य वे २३ मिथ्यात्व, अन. रहित सर्व . (मिथ्यात्वका क्षय कर चुका हो शेष दोका क्षय करना बाकी हो) चर्तुगतिके उपशम या वेदक सम्यग्दृष्टि या सभ्यगमिथ्यावृष्टि अनन्ता. की विसं योजना सहित चर्तुगतिके अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि चर्तुगतिके सादि मि. (मिश्र मोहको उद्वेलना सहित) उपशम व वेदक सम्य,, यो.१-३ गु.स. २०३ । सम्य. व मिश्र मोह सम्य. प्रकृति रहित सर्व - - - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व सं. १ २ ३ ४ ५ २९६ ३. सत्व विषयक प्ररूपणाएँ ८. मोह सच्च स्थान ओघ प्ररूपणा (क.पा. २ / पृष्ठ), (पं.सं./प्रा./२/३१३-३१८) (...12/४०३-४१०) (गो. ६६४) द्रष्टव्यसन स्थानमें प्रकृतियोंका विवरण देखो सारणी सं. ४)। - ७ ८ ह १० १२ प्रमाण क. पा. २/पृ. २१२/२२१ 19 11 95 २११ उपशम गुणस्थान सादिमि. मिध्यादृष्टि सासादन सम्यग्मध्याव सम्यक्त्व अविरत सम्य संयतासंयत अपूर्वं करण अनिवृत्तिकरण (i) २१२ द्रष्टव्य- [ देखो सरन /३/४-सारणी सं. १) प्रमत्तयत अप्रमतसंगत अप्रमत्त सा. क्षपक श्रेणी 51 19 39 . 11 11 " (vi) (vii) ,, (viii) , (ii) (iii) (iv) (v) सूक्ष्मसाम्पराय क्षीण कषाय उपशम 'श्रेणी उपशम सम्यक्त्व - ( ix/ i ) (ix / ii) ८-११ श्रेणी क्षायिक सम्यक्त्व ८-११ विकल्प नं. १ अनादि मि. २६, २७, २८ 北 २६ क्षायिक २१ " X पुरुषवेदी आरोहक २१ ५ २ १ (नादर) १ सूक्ष्म 3 १३ १३.न. - १२ १२- स्त्री ११ १९-६ नो कषाय ५ ५-पु. =8 २८-२४ के दो स्थान २१ का स्थान व नं. २ सातिशय मि. २६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश X कृतकृत्य वेदक २२,२३,२४ 11 35 स्त्रीवेदी आरोहक २१ ३ २ १ (दर) १ सूक्ष्म 17 १३ १२ (१३-स्त्री.) ११ (१२-नपुं.) (e-y.) X विकल्प नं. २६ X वेदक २८ "1 "1 39 X ३ २१ ११ (१३ स्त्री) ४ (११-पु. ६) ३ २ १ बादर १ सूक्ष्म नपुं. वेदी आरोहक : 99 विकल्प नं. ४ १३ 35 उपशम १३ २८ "1 39 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ ९. मोह सत्व स्थान आदेश प्ररूपणाका स्वामित्व विशेष सत्त्व सं. २ ३ ४ ५ ७ ह गति अपेक्षा पर्याप्त - चारोंमें अन्यतम गतिके जीव पर्याप्त केवल मनुष्य गति मनुष्य व देव गति मनुष्य व तिर्यंच, देव व नरक नरक व मनुष्य" देव मनुष्य म तिच मार्गणा स्थान "1 भा० ४-३८ " नरक " " 11 मनुष्य, तिथंच व नरक ." " द्रष्टव्य- (i) यह ६ स्थान 'पर्याप्तक' के जानने । " "" (ii) इन्हीं स्थानोंको 'अपर्याप्तक' बनानेके लिए पर्याप्त के स्थान पर अपर्याप्त लिख लेना । (iii) इन्हीं स्थानोंको पर्यााटके बनानेके लिए पर्याप्त के स्थान पर उभय लिख लेना । सं. १० ११ ११ |१३ १९४ १५ १६ ११८ Le २० २१ २२ R3 सम्यक्त्व अपेक्षा पर्याप्त अन्यतम सम्यक्त्व केवल क्षायिक सम्यक्त्व केवल वेदक सम्यक्त्व केवल कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्व केवल उपशम सम्यक्त्व उपशम व वेदक सम्यक्त्व मार्गणा स्थान उपशम वेदक सम्यष्टि व सम्य मिध्यादृष्टि उपर्युक्त सं. १६ + सासादन व सादि मि. सादि मि. व सासादन अनादि मिध्यादृष्टि ३. सत्य विषयक प्ररूपणाएँ वेदक सम्य, मिश्र, सासादन, मि. सादि मिध्यादृष्टि सादि अनादि मिध्यादृष्टि - वेदकी अपेक्षा केवल पुरुष वेद जैमेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २९८ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं १०. मोह सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा प्रमाण-क.पा. २/ पृष्ठ), संकेत-प्रकृतियों का विवरण देखो सारणी सं.४। - - - - अल मार्गणा प्रमाण कुल सत्त्व स्थान प्रति स्थान प्रकृतियाँ प्रति स्थान प्रकृतियाँ प्रत्येक स्थानका क्रमशः स्वामित्व विशेष ( दे. सारणी सं..) १. गति मार्गणा २२१ नरक गति सामान्य २६, २७, २६, २४, २२, २१ १७, २०, २२, १३, १२/अ., १० प्रथम पृथिवी २-७ , २८, २७, २६, २४ १७, २०, २२, १५ तिर्य चगति सामान्य २८, २७, २६, २४, २२, २१ १७, २०, २२, १५, १२/अ. भोग भूमि, १० पंचेन्द्रिय सा. व प. .. योनिमति २८, २७, २६, २४ १७, २०, २२, १५ २२३ लब्ध्यपप्ति तियंच २८, २७, २६ २०, २०. २२ मनुष्यगति सामान्य -- → ओघवत् - मनु.प.व मनुष्यणी मनुष्य ल. अप. २८, २७, २६ १८,२०,२२ देवगति सामान्य २८, २७, २६, २४, २२, २१ १७,२०, २२, १५/अ., १२/२३/अ. ११-२३ भवनत्रिक देव २८. २७, २६, २४ १७, २०, २२, १५ सौधर्मादि देवियाँ सौधर्म-नवगै वेयक २८, २७, २६, २४, २२, २१ १७, २०, २२, १५, १२/२३/अ., ११/२३ अनुदिश-सर्वार्थ सिद्धि २८, २४, २२, २१ १५, १५, १२/अ., ११ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व २९९ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ - प्रमाण मार्गणा कुल सत्व स्थान सत्व प्रति स्थान प्रकृतियाँ प्रति स्थान प्रकृतियाँ प्रत्येक स्थानका क्रमशः स्वामित्व विशेष (दे. सारणी सं.) २. | इन्द्रिय मार्गणा एकेन्द्रिय सर्व भेद २८, २७, २६ १८,२०, २२ २०, २०+२२ विकलेन्द्रिय , पं.सामान्य व पर्याप्त - → ओघवत् - पं. लब्ध्यपर्याप्त २८, २७, २६ २०, २०, २२ ३. काय मार्गणा सर्वस्थावर २८, २७, २६ २०, २०, २२ उस सा. व पर्याप्त - → ओघवत् - त्रस ल, अप, २८, २७, २६ २०,२०, २२ ४. योग मार्गणा २२४ । मन, वचन, व काय सामान्य ओघवत - योगी औदारिक काय औदारिक मिश्र २/अ./१३, २१अ. भोग भू. १२ ति. अ. भोग भूमि/१२ २८, २७, २६ ४/अ./१८, ४/अ./२०.४/अ./२० २४, २२ व २१ २/अ./१३, ४/अ. योग/१३ बै क्रियक १/१७,१/२०.५/२२ २२६ वै क्रियक मिश्र अ. के उपरोक्त सर्व+५ अ./१२ २८, २७, २६, २४, २१ उपरोक्त सर्व +२२ २८. २४, २१ २८, २८, २८, २७, २६, २४, २४ आहारक व आ.मि. कामणि ११८, ३/१३, देव/१४, १/२० १/२२, ३/१३, देव/१४, १/१२. १/११ ( यहाँ तिर्य., को भोगभूमिज ही जानना।) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्व प्रमाण ५. वेद मार्गणा २२७ स्त्रीवेदी : २५८ २२६ ६. २२६ ७. २२४ " २२६ पुरुषवेदी नपुंसक वेदी अपगतवेदी कषाय मार्गणा क्रोध मान माया लोभ अकषायो ज्ञान मार्गणा मति, मार्गणा अझान विभंग मति लहान अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान कुल सरव स्थान ह ११ १२ १३ १४ १५ २ 19 १३ ३०० प्रति स्थान प्रकृतियाँ २८.२७,२६,२४ २३.२२, १३, १२. २१ २८,२७,२६.२४ २१.२३.२२ १३.१२, ११.३ २८,२७,२६,२४ २२,२१,१३,१३,१२ २४. २१ ११.५.४.३,२, १ २८ से ४ तक २८ से ३ तक २८ से २ तक २८ से १ तक २४.२१ २८, २७, २६ २८. २४ से १ तक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३. सत्व विषयक प्ररूपणाएं प्रत्येक स्थानका क्रमशः स्वामित्व विशेष दे. सारणी सं.) ७/१७, ७/२०,७/२२.७/१५ २/ १२, २ क्षपक, २/११ ७/९७, ७/२०, ०/२१.७/१२ ७/१९.२/१२. ७/१२ व जोध ६/१०/२०१/२२.१/२ ६/१२/१९.२/१२ ज उपशान्त कषाय → ओघवत् ← → ओघवत ← ↑ ↑ ↑ : १८. २०, २२ : उपशान्त कषाय ↑ ↑ १९५० द T T Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं कुल प्रमाण मार्गणा प्रति स्थान प्रकृतियाँ सव स्थान प्रत्येक स्थानका क्रमशः स्वामित्व विशेष (दे. सारणी सं.) ८ | संयम मार्गणा संयम सामान्य सामायिक, छेदोप. २८, २४ से २ तक २/१५, ओघवद परिहार विशुद्धि २८, २४, २३. २२, २१ २/१५, १५, १२, ११ सूक्ष्म साम्पराय २४, २१, १ उपशामक, क्षपक यथाख्यात उपशान्त कषाय संयमासंयम २४, २१ २८, २४, २३, २२, २१ २८ से २१ तक । ४/१५.४/१५,२/१२, २/११ असंयम → ओघवत् - ९ | दर्शन मार्गणा चक्षु - → ओघवत् - अचच अवधि २८, २४ से १ १/१५, ओघवत | लेश्या मार्गणा कृष्ण २८, २८, २७, २६, २४, २१ १/१८, /१५, १/२०. १/२२ ६/१६, २/११ नोल कापोत ति. अपर्याप्त भोग भूमिज ६/उभय /१२, ११ ७/१७, ७/२०, ७/२२, ७/१५ ७/११, २/१२, ३/१२ देव अपर्याप्त पीत. पद्म २८, २७, २६, २४ २१, २३, २२ शुक्ल | १५ | २२, सर्व १५ स्थान → ओघवद - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ३०२ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ प्रमाण मार्गणा सत्र प्रति स्थान प्रकृतियाँ प्रति स्थान प्रकृतियाँ प्रत्येक स्थानका क्रमशः स्वामित्व विशेष ( दे. सारणी सं.८) स्थान ११ | भव्यत्व मार्गणा भव्य → ओघवत - अभव्य १२ सम्यक्त्व मार्गणा सम्यक्त्व सा. २८, २४ से १ तक १११५ ओघवत् क्षायिक २१ से १ तक वेदक २८, २४, २३, २२ १/१३, १/१३, २/१३, १/१२ १, १ उपशम सम्यगमिथ्या. सासादन मिथ्यादृष्टि २८, २७, २६ २०, २०, २२ १३ । संशी मार्गणा संज्ञी → ओघवत् - असंज्ञी २८, २७, २६ १८, २०, २२ आहारक मार्गणा आहारक → ओघवत् - ] अनाहारक → कार्माणकाय योगवत - | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ३०३ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं ११. नामप्रकृति सरवस्थान सामान्य प्ररूपणा-(पं.सं./प्रा./२०८-२१६); (पं. सं.:सं /३/२२२-२२६); (गो. क./भाषा./६१०/ ८१७); (गो. क./भाषा/६२०-१२४); (गो. क./भाषा./७५६/६३१) कुल सत्त्व स्थान-१३: कुल सत्त्व योग-३ । संकेत- दे. सारणी 'सं. १ का प्रारम्भ । स्वामी जीव गो. क./भाषा/६२०-८२४ प्रति स्थान प्रकृति प्रकृतियोंका विवरण (गो. क /भाषा/६१०/८१७) कर्म भूमिज मनु. प. व नि. अप. असंयमादि वैमानिक देव असं यत सासादन रहित चतुर्गतिके जीव देव सम्यग्दृष्टि, मनुष्य, नारकी सम्यक् व मिध्यादृष्टि ६३-तीर्थकर अनिवृत्ति क. में प्रकृतियोंका क्षय भये पीछे चतुर्गति । ६३-आहारक द्विक ६३-आ.द्वि. व तीर्थ. . उपर्युक्त १०-देवद्विक् देव द्विक्की उद्वेलना, एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रियके होय तो वह मरकर जहाँ उपजे वहाँ तिर्यंच, मनुष्य मिथ्यादृष्टि भी उस उद्वेलना सहित उपर्युक्त सं. ५ जीव नारकद्विक्की उद्वेलना कर ले तो। मनुष्यद्विक्की उद्वेलना भये तेज, वात कायिक या अन्य ८८ वाले स्थानवत्त होय ऐसा तिथंच सा मिथ्यादृष्टि । उपर्युक्त ८८-नारक द्विक् व वैक्रियक द्विक् १३- तीर्थ., आ.द्वि., देवद्विक्, नारकद्विक, वै. द्विक, मनु. द्विक अनिवृत्तिकरण g/ii से १४/i तक १३-(नरक द्वि, ति.द्वि.,१-४ इन्द्रिय आतप, उद्योत, सूक्ष्म साधारण, स्थावर । ८०-तीर्थकर ८०-आ. द्विक ८०-आ.द्विक, तीर्थ. तीर्थ कर अयोगीका अन्तसमय मनु. गति, पंचे.. सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थ, मनुष्यानुपूर्वी सामान्य अयोगी का अन्तसमय उपर्युक्त १०-तीर्थ कर - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ३०४ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ १२. जीव पदोंकी अपेक्षा नामकर्म सत्त्व स्थान प्ररूपणा-(गो. क.१६२३-६२७/८२८) - - मार्गणा कुल स्थान प्रति स्थान प्रकृतियाँ प्रकृतियों का विवरण नारकी सामान्य १०,६१, ६२ नारकी (४-७ पृ.) तियंच (सर्व) ८२, ८४, ८८ मनु. सामान्य ८२ रहित सर्व अयोग केवली ७७,७८, ७६, ८०,६,१० देखो सत्त्व स्थानोंको सारणी सयोग के बली ७७, ७८, ७६८० आहारक ६२,६३ सर्व भोग भू. मनु, ति. वैमानिक देव १०, ६३ १०. ६१, १२, १३ १०, १२ भवनत्रिक सर्व सासादनवर्ती १३. नाम कर्म सत्त्व स्थान ओध प्ररूपणा-(पं.सं./प्रा./५/२१७ ); (प. सं./प्रा./४०२-४१७ ); (गो. क./६९२-७०२/८७२ ) (प. सं./सं./५/४१६-४२८)। संकेत- सत्त्व स्थान - प्रकृतियोंका विवरण - देखो सारणी सं.११॥ गुण स्थान | स्थान प्रतिस्थान प्रकृति (देखो सारणी सं.११) स्थान स्थान प्रति स्थान प्रकृतियों (देखो सारणी सं. ११) ८२,८४,८८,१०,६१,६२ ६०, ६१, ६२, ६३ क्षपक ७७, ७८, ७६८० उपशमक,१०,६१, ६२, ६३ ६०,६२ पूर्वोक्त नवम गुणस्थानवद - १०,६१, ६२, ६३ ६०, ११, १२, १३ ७७, ७८, ७६, ८० ६, १०, ७७, ७८, ७६, ८० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ३०५ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं १४. नाम कर्म सत्व स्थान आदेश प्ररूपणा-(पं.स./प्रा./५/२१८-२१६, ४१६-४७२): (पं.सं./सं./५/२३०-२३१) ( गो. क./७१२-७३८/८८१-८८७) कुल मागणा स्थान मार्गणा प्रति स्थान प्रकृति (देखो सारणी सं. ११) | स्थान प्रति स्थान प्रकृति (दे, सारणी सं..११) १ । गति मार्गणा वैक्रियक १०, ११, १२, १३ नरक ३ १०, ११, १२ वै क्रियक मिश्र, तियंच ८२, ८४, ८८, १०,११ आहारक १२, १३ मनुष्य ७७,७८, ७६, ८०, ८४, ८८,१०, ११, १२, १३.६,६० आ. मिश्र. कार्माण १०, ११, ६२, ६३ ७७, ७८,७६, ८०, ८२, ८२,८८,१०,११,१२,१३ ५ वेद मार्गणा २ इन्द्रिय मार्गणा स्त्री वेद एकेन्द्रिय ५ ८२,८४,८८,१०,६२ ७७, ७६, ८२,८४, ८८,६०, ६१,६२,६३ पूर्वोक्त स्त्रीवेदवत नपुं. वेद विकलेन्द्रिय पंचेन्द्रिय ७७,७८,७६,८०, ८२,८४, ८८,६०,६१, ६२.६३ ७७,७८,७६, ८०,८२, ८४,८८,६०,६१,६२, ६३, ६, १० ३ काय मार्गणा शान मार्गणा मति, श्रु. अज्ञान । ६ ८२,८४,८८,१०,६१.६२ १ पृ. अप., तेज. वायु बनस्प. | ५ | ८२, ८४, ८८, १०,६२ विभंग ६०, ६१,६२ मति, श्रुत. अवधि ८ ७७, ८८, ७६, ८०,६०, ६१,६२, ६३ स पंचेन्द्रियवत मनःपर्यय । ४ । योग मागणा केवल ७७, ७८, ७६, ८०, ६, १० १ सर्व मन वचन । १२ । ८ संयम मार्गणा ७७,७८,८६,८०,८४,८८, ६०,६१, ६२, ६३, ६,१० सा. छेदो. ७७,७८,७६, ८०,६०, ६१, ६२, ६३ औदारिक ७७,७८,७६,८०,८२,८४, ८८,१०,६१, ६२,६३ परि. विशुद्धि ४ . १०.६१, ६२, ६३ औ. मिश्र. सूक्ष्म साम्पराय ७७, ७८,८६,८०,१०, ६१,६२, ६३ भा०४-३९ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ३०६ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाए मार्गणा कुल स्थान । क्र. मार्गणा प्रतिस्थान प्रकृति ( देखो सारणी ११ ) कुल स्थान प्रतिस्थान प्रकृति ( दे. सारणी११) यथाख्यात १० । १२ सम्यक्त्व मार्गणा ७७, ७८,७६,८०,१०, ६१,६२,६३,६,१० क्षायिक १० । देश संयत ७७,७८,७६,८०,६०, ६१.) ६२, ६३, ६.१० १०,६१, ६२.६३ असंयत ८२,८४, ८८,६०,६१, ६२, ६३ - वेदक ६०, ६१. १२, ६३ उपशम सम्य, मि. १०, ६३ | ९ दर्शन मार्गणा सासादन चच. ६ ७७, ७६, ८२,८४,८८,६०, ६१.६२, ६३ मिथ्याष्टि ६ ८२,८४, ८८,६०.६१, १२ अचक्षु. अवधि १३ संशी मार्गणा ७७.७८, ७६,८०,१०, ६१, ६२,६३ संज्ञी ७७,७८, ८२,८४, ८८, ६०,६१.६२, ६३ केवल ७७,७८,७६,८०,६१० असंज्ञी ५ ] ८२,८४,८८,१०,६१ १० लेश्या मार्गणा कृष्णादि ३ ८२, ८४, ८८,१०,६१, | १४ आहारक मार्गणा ६२.६३ १ आहारक १०.६१ १२,६३ ७७,७६,८२,८४,८८, १०,६१, ६२, ६३ पीत ४ । पद्म " अना. सामान्य | ११ | ७७, ७८,७६,८०, ८२,८४, ८८.६०,६१,६२, ६३ शुक्ल ७७, ७८,७६,८०,१०, ६१,६२,६३ अना. अयोगी १६ भब्य मार्गणा भव्य . १३ सर्व स्थान ४ | ८२.८४, ८८,१० अभव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं १५. नाम प्रकृति सत्त्वस्थान पर्याप्तापर्याप्त प्ररूपणा-गो.क मार्गणा कुल स्थान मार्गणा प्रति स्थान प्रकृति ( दे. सारणी,११) कुल स्थान प्रति स्थान प्रकृति (दे. सारणी ११) १] अपर्याप्तक अप. सातों समास ५ ८२.८४,८८,६०,६२ ३ | संज्ञी पर्याप्त ७७,७८,७६,८०,८२, सर्व एके.वि. तथा ८२,८१,८८,६०,६२ ८४,८८,१०,११,१२,६३ असंज्ञो पर्याप्त १६.मोह स्थिति सत्वको ओघप्ररूपणा-(क.पा. ३/पृष्ठ) अन्तः= अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रकृति जघन्य स्थिति प्रमाण | | क्षपक श्रेणी में ही सम्भव क्र. प्रकृति | प्रमाण जघन्य स्थिति क्षपक श्रेणी में ही सम्भव मिथ्यात्व २ समय संज्वलन माया |२०६ अन्तः कम १/२ मास सभ्य, मिथ्यात्व २समय लोभ १समय सम्यक्प्रकृति १ समय ६ नोकषाय संख्यात वर्ष अनन्ता .४ २ समय स्त्री वेद १समय ८कषाय २समय पुरुष वेद अन्त' कर्म व संज्वलन क्रोध अन्तः कम २ मास नपुं. वेद १समय मान अन्तः कम १मास | संक्रमण होनेके पश्चात् २०५ शेष बची सम्यकप्रकृति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव १७. मोह स्थिति सत्त्वकी आदेश प्ररूपणा - ( क. पा. ३ / पृष्ठ ) अन्तः - अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर गुणस्थान व प्रकृति ह ९६४ मिथ्यात्व 31 १ मिध्यादृष्टि मोह सामान्य ९१२ सम्य मिश्रमोह ११७ १६ कषाय नो कषाय ११) सामान्य मोह २०० दर्शन मोह त्रिक २ सासादन- 35 १६ कषाय नो कषाय ३ सम्यग्मध्यादृष्टि १० मोहं सामान्य २०० दर्शन मोह प्र १६ कषाय नो कषाय ११ मोह सामान्य २०० १२ कषाय नो कषाय जघन्य १ सा. पल्य / असं २ समय (दे. सरब / ३ / १६) अविरत सम्बि अन्तः को, को. सा. स्थिति सतव २ समय (दे. सत्व /३/१६) अन्तः २ समय (दे. सव/३/१६) अन्तः : प्रमाण . स्थिति / ६१. २०० ११ (दे. सव / ३ / १६) २०० उत्कृष्ट ७० को, को. सा. 99 अन्तः कम १ सा. ४० को. को, सा, १ आवली कम१ सा. ३०८ अन्तः को, को. सा. अन्तः कम ७० को. को. सा. अन्तः कम ७० को को. सा. अन्तः कम ४० को, को. सा. अन्त. 21 गुणस्थान व प्रकृति १३ मोह सामान्य " ४ अभिरत सम्यष्टि (वेदक ) - २०३ दर्शन मोह त्रिक १६ कषाय नो कषाय १३ मोह सामान्य २०३ दर्शन मोह त्रिक १६ कषाय नो कषाय ५ संयतासंयत ४ अविरत सम्यग्दृष्टि ( उपशम ) - १३ मोह सामान्य २०३ दर्शन मोह त्रिक जघन्य १६ कषाय नो कषाय जैनेन्ट सिद्धान्त कोश ३ सत्व विषयक प्ररूपणाएँ स्थिति सत्त्व अन्तः को, को. सा. १० अन्तः कम ७० को. को. सा. २ समय (दे. सव/३/१६) २ समय (दे. सत्त्व/३/१६) अन्तः २ समय (./१/१६) अन्तः (दे. सब /३/१६) २०० ११ २०० उत्कृष्ट २०० अन्तः कम ४० को को. सा. अन्तः कम ४० को, को, सा. अन्तः ११ अन्तः " Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ३०९ ३. सत्त्व विषयक प्ररूपणाएं स्थिति सत्त्व स्थिति सत्त्व Lalig kطاما गुणस्थान गुणस्थान जघन्य प्रमाण उत्कृष्ट जघन्य प्रमाण उत्कृष्ट ६-७.प्रमत्त अप्रमत्त संयत (सामान्य) ११ उपशान्त कषाय सामान्य सं. संयतासंयतवत १० संयतासंयतवत् । मोह सामान्य अन्तः १० अन्तः सा. छेदो. दर्शनमोह त्रि. दे. सत्त्व/३/१६ २०० अन्तः | १३ परिहार वि. १२ कषाय : नोकषाय : ६.क्षायिक सामायिक छेदो० १४ मोह सामान्य | अन्तर्मुहूर्त __ -क्षिपक ६-७ क्षायिक परिहार विशुद्धि मोह सामान्य दे. सच्च/३/१६ मोह सामान्य १२ कषाय १२ कषाय नोकषाय ६ कषाय १० सूक्ष्म साम्पराय क्षपक ८-६(उपशामक) मोह सामान्य १समय सर्व स्थान २०० संयतासंयतवत लोभ दे, सत्त्व/३/१६ १० सूक्ष्म साम्पराय उपशामक सर्व स्थान दे.सत्त्व/३/१६ २० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० १८. मूलोत्तर प्रकृति चतुष्ककी प्ररूपणाओं सम्बन्धी सूची सत्त्व स प्रकृति मां मोह उत्तर १. ओष आदेशसे प्रकृति सत्त्व- क. पा. २/ मूल | भंगविचय मोह उत्तर शुल विषय उत्तर समुत्कीर्तना सत्रिकर्ष भंगविषय २. ओम आदेश से स्थिति सरल पा./पु.सं./ समुत्कीर्तना भंगविषय कीर्तना भंगविषय सकि अनासोद __२१०-२३४ २०२-२०६ सत्त्व स्थान ३ ३ S... पृ. सं. ३. ३ ३ ३०८-३४६ २८१-३१६ ६-२१ ६-१६ ६३-६७ १४-० पृ.सं. १६९-४०० १४-२२६ ५७३-५६८ ६४५-२५४ ७०६-८७० ४२५-५२४ ३६१-४०० १४-२२६ ३ गारादि पद ४ ४१८ ४४३-४४५ ४०२-४०४ ३. १६६-१७० ६५-६६ १६५-१६० १११-११३ २-१०३ ५०-५५ १६३-१७६ ८३-१५ वृद्धि-हानि ४७६-४७७ ४२-४२ २२६-२२६ १२०-१२१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश संख्यात भागादि वृद्धि ४ ३. सत्व विषयक प्ररूपणाएँ ४ ४८५-४८६ ४३७-४३६ ५०५-५०७ ४५६-४५८. २४६-२४० १३६-१३८ २६०-२६४ १६०-१६४ २२३-१८८ ११७-१६० ३५८-३६४ २२२-२२६ ४१८-४२७ २४६-२५६ सामान्य सत्कर्म ६५-६६ ४४-४७ १०१-१०४ ८३-८८ १४२-१५२ १३०-१४४ १५३-१५६ १४४-१५१ ४००-६४० २९४-३16 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व काल सद्भाव स्थापना १९. अनुमाग सत्त्वको ओघ आदेश प्ररूपणा सम्बन्धी सूची-क., पा./ क. पा./ पु. स प्रकृति विषय सत्त्व स्थान भुजगारादि पद संरख्यात भागादि ज. उ. वृद्धि हानि । वृद्धि सामान्य सत्कर्म हतसमु. मोह । मूल समुत्कीर्तना १६२-१६४ १०७-१०८ १६६-१७० ११२-११३ १८६ १२५-१२७ ८२-६७ भंगविचय १५१ ६६-१०१ १७७ उत्तर समुत्कीर्तना १६६-२२३ १३५-१५५ ४७१-४७३ २७३-२७५ ५३१-५३५ ३०७ भंगविचय ३२५-३४५ २१३-२२१ ४७-४८६ २८६-२८८ ५४५-५४७ ३१६ " सन्निकर्ष ४१८-४२७ २४६२५६ सत्कर्म १८६-१६५ १२६-१३५ ५७०-६२७ ३३०-३६० सत्त्व काल-दे. काल/१/१ । सत्त्व भावना-दे. भावना/१। सत्त्वस्थान त्रिभंगी-आ.कनकनन्दि ( ई.३३६) कृत ५० गाथा, प्रमाण कम विषयक अन्य। (जै./२/३८४)। कुटुम्ब बीसपन्थी था, पर ये स्वयं तेरापन्थी थे। इनके गुरुका नाम 4.मुन्नालाल था। इनके पं. पन्नालाल संघी, नाथूलाल जो दोशी, पं. पारसदास जी निगोत्या सहपाठी थे। इनको विरागकी इतनी रुचि थी कि इन्होंने राजकीय संस्था से ८) मासिककी बजाय ६) मासिक लेना स्वीकार किया था। ताकि २ घण्टे शास्त्र स्वाध्यायके लिए मिल जाये। कृति-भगवती आराधनाकी भाषा वचनिका, नाटक समयसार टीका, तत्त्वार्थ सूत्रकी लघु टी., रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी टीका, अकलंक स्तोत्र, मृत्यु महोत्सव, नित्य नियम पूजा संस्कृतको टीका.तथा आरावासी पं.परमेष्ठीदासकृत अथं प्रकाशिकाका शोधन तथा उसमें ४००० श्लोकों की वृद्धि की। समय--- जन्म वि. १८५२, समाधि वि१९२३(ई. १७६५-१८६६)। (ती./४/२६४) सदरचउक-गो क./भाषा./११३/१००/- तिथंचगति, तियंचगत्यानुपूर्वी, तियंचायु और उद्योत इन चार प्रकृतिनिको सदर चउक कहिए । सदवस्था रूप उपशम-दे. उपशम/१। सदाशिव तत्त्व-दे. शैवदर्शन । सदाशिवमत-सांख्य दर्शन-दे. सांख्य । सदासुखदास-जयपुर निवासी एक विरक्त पण्डित थे। दिगम्बर आम्नायमें थे। पिताका नाम दुलीचन्द था। काशलीवाल गोत्रीय थे। वंशका नाम 'डेडराज था। इनका जन्म वि. १८५२ में हुआ था। राजकीय स्वतन्त्र संस्था (कापडद्वारे) में कार्य करते थे। सदश-१. एक ग्रह-दे, ग्रह । २.पं. ध/प्र. ३२७ जीवस्य यथा ज्ञानं परिणामः परिणमस्तदेवेति । सशस्योदाहृतिरितिजातेरनतिक्रमस्वतो वाच्या ।३२७१ - जैसे जीवका ज्ञानरूपपरिणामतेपरिणमन करता हुआ प्रतिसमय ज्ञानरूप ही रहता है। यही ज्ञानत्व जातिका उल्लंघन न करनेसे सदृशका उदाहरण है। सदाव स्थापना-नापाका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्भावानित्य सद्भावानित्य सद्भूत नय नय -- सनत्कुमार- १. चौथा चक्रवर्ती- दे. शलाकापुरुष / २ । २. कल्प वासी देवोंका एक भेद तथा उनका अनस्थान- दे. स्वर्ग / ३५/२ सन्नासन्न -- क्षेत्रका प्रमाण विशेष अपरनाम संज्ञासंज्ञा - दे. fw/1/t/31 सन्निकर्ष सा१२/४.२.११/२-३/२०५ जो सो या सोहसरायणसगियासो क्षेत्र पराणपण सन्यास व २ अपिम्साल-भावविसी सत्यानसन्निवासो नाम अट्टकम्म विसी परस्यावसयियासो नाम । सणियःसो णाम किं । दव्ब खेत्त-काल-भावेसु जहण्णुक्कस्सभेदभिण्णे एक्कम्हि णिरुद्धे सेसाणि किमुक्कस्साणि किमणुक्कस्साणि जिनान कहाणि वा पदाणि होति सि जा परिखा सो सण्णियासो णाम ।। सन्निकर्ष है वह दो प्रकार है- स्वस्थानवेदनार जो वह वेदना सन्निकर्ष है वह दो प्रकार है- स्वस्थानवेश्नसन्निकर्स और परस्थान वेदना सन्निकर्ष ॥२॥ किसी विवक्षित एक कर्म का जो द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव विषयक सन्निकर्ष होता है. यह स्थान कहा जाता है ओर बाठी कर्मों सन्नि कर्ष परस्थान सन्निकर्ष कहलाता है। प्रश्न- सन्निकर्ष ( सामान्य ) किसे कहते हैं । उत्तर - जवन्य व उत्कृष्ट भेद रूप द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावों में से किसी एकको विवक्षित करके उसमें शेष पद क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है, इस प्रकारको जो परीक्षा को जाती है वह सन्निकर्ष है । २. प्रवचन- सन्नि कर्प के लिये ढे० प्रवचन सन्निकर्ष । सनिक प्रमाण ३१२ घ. ३/२.७.२ / २६३ / ९ एका जीवसमासे वा महयो भाषा जम्हि सणिवदति तेसिं भावाणं सण्णिवादिति सण्णा । एक ही गुणस्थान या जीवसमासमें जो बहुतसे भाव आकर एकत्रित होते हैं, उन भावोंकी सान्निपातिक ऐसी संज्ञा है । सान्निपातिक भाव संकेत औ० औदयिक औप० औपदामिक क्षा०- क्षायिक सयो०- क्षायोपशमिक पा०पारिणामिक १. द्विसंयोगी - भंग निर्देश २. सान्निपातिक भावोंके भेद रा. वा./२/७/२२/९९४ /९५ पर उत दुग तिग चहु पंचैव य संयोगा होंति सन्निवादेसु । दस दस पंच य एक्क य भावा छव्वीस पिंडेण || क - सान्निपातिक भाव दो संयोगी, तीन, चार तथा पाँच संयोगी क्रमसे १०, १०, ५ तथा १ इस प्रकार छवीस बताये हैं (ध. ५/१,७,१/ १२२/२)। रा.मा./२/७/२२/११४/१३ सान्निपातिकभावः विशदिविधः पह निशद्विप एकचत्वारिशद्वयः इत्येवमादिरागमे उक्तः सामिपातिक भाव २६, ३६ और ४१ आदि प्रकार के आगम में बताये गये है [ ४१ अंगोंमें २६ व २६ आदि सर्व भंग गर्भित हैं इसलिए नीचे ४१ मंगका निर्देश किया जाता है। क्र. १ ३ ४ ५ ७ ह १० ११ १२ १९३ १५ १९६ १७ १९८ ११६ सनिपातिक भाव- २३ २५ १ साक्षिपातिक भाव सामान्यका लक्षण रा.वा./२/०/२२/९९४/१० सकिएको भावो नास्तीतिसंयोग- २४ भङ्गापेक्षया अस्ति । ( यथा ) औदयिकी पशमिकसान्निपातिक-- जीवाभावो नाम । सान्निपातिक नामका एक स्वतन्त्र भाव नहीं है। संयोग भंगको अपेक्षा उसका ग्रहण किया ।... जैसे औदयिकऔपशमिक मनुष्य और उपशान्त क्रोध । (ज्ञा (६/४२) जीव भाव पातिक है। २० २१ २२ औद. + औद और+औष औद. +क्षा. औद. + श्यो औद + पारि क्र. औप + औप औप + औद औप +क्षा, औप + क्षयो औप + पारि · क्षा. +श्रा. क्षा.+औद क्षा + औप. क्षा+यो क्षा. +पारि क्षयो. +क्षयो. क्षयो + औ मो. + औप. क्षयो +क्षा. मो. +पारि पारि + पारि पारि. +ओ औद पारि. + औप पारि+क्षा, पारि+क्षयो २. त्रिसंयोगी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भंग निर्देश १ औद. + औप + क्षा. २ औद + औप + क्षयो औद + औप+पा. • ४ औद+क्षा यो ५ औद + क्षा, + पारि. ६) औद + क्षयो + पारि ७ औप + क्षा + पारि, ८ औप+क्षा + पारि. ६ औप + क्षयो + पारि, १० | क्षा. +क्षयो + पारि. - विवरण मनुष्य और कोषी मनुष्य और उपशान्त क्रोध मनुष्य और क्षीणकषाय क्रोधी और मतिज्ञानी मनुष्य और भव्य उपशम सम्यग्दृष्टि और उपशान्त कषाय उपशान्त कषाय और मनुष्य उपशान्त क्रोध और क्षायिक सम्यग्दृष्टि उपशान्त कषाय और अवधिज्ञानी उपशम सम्यग्दृष्टि और जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि और क्षीणकषाय और नृ क्षायिक सम्यग्दृष्टि और उपशान्त वेद क्षीण पायी और मतिज्ञानी क्षीण मोह और भव्य संयत और अधिमानी संत और मनुष्य संयत और उपशान्त कषाय संपतासंयत और क्षायिक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त संयत और जीव जीव और भव्य जीव और क्रोधी भव्य और उपशान्त कषाय भव्य और क्षीण कषाय संत और भ विवरण उपशान्त मोह और क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य उपशान्त क्रोध और वाग्योगी मनुष्य उपशान्तमोह और जीव मनुष्य क्षीणकषाय और बुतज्ञानी मनुष्य क्षायिक सम्यष्टि और जो मनुष्य मनोयोगी और जीव उपशान्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि और काययोगी उपशान्य मेदार और भव्य उपशान्तमान मतिज्ञानी और जीव क्षीणमोह पंचेन्द्रिय और भव्य Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्निवेश सप्त भंगी ३. चतुः संयोगी - भंग निर्देश विवरण औप+क्षा+क्षयो+पारि. | उपशान्त लोभ क्षायिक सम्यग्दृष्टि पञ्चेन्द्रिय और जीव २ औद.+क्षा, +क्षयो+पारि. मनुष्य क्षीणकषाय मतिज्ञानी और भव्य ३/ औद. + औप+ क्षयो+ पारि मनुष्य उपशान्त वेद श्रुतज्ञानी और जीव ४ औद, + औप+क्षा.+पारि मनुष्य उपशान्तरागक्षायिक सम्य ग्दृष्टि और जीव ६ औद.+औप+क्षा.+क्षयो. मनुष्य उपशान्त मोह क्षायिक सम्यग्दृष्टि और अवधिज्ञानी इतना है कि यहाँ १६ की बजाय । उपवासोंसे प्रारम्भ करना। एक मारह से १ तक और इससे आगे ३ बार ८ से १ तक-एक हानि क्रमसे कुल १५३ उपवास करे। बीचके ३३ स्थानों में एक-एक पारणा करे। जघन्य-ह.पु./३४/८८ क्रमशः ५.४.३,२,१९४.३,२.१.४,३,२,१, ४.३, २.१ इक प्रकार ४५ उपवास करे। बीचके १७ स्थानों में एक-एक पारणा करे । तथा तीनों ही विधियों में नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (बतविधान संग्रह/१६)। सप्त गोदावर-भरतक्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी नदी-दे. मनुष्य/४ । सप्त तस्व-दे, तत्त्व । सप्ततिका-३ परिशिष्ट । सप्ततिका चूर्णी-दे. चूर्णी सप्तपारा-भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी नदी-दे. मनुष्य/४ । सप्तभंगी-प्रश्नकारके प्रश्नवश अनेकान्त स्वरूप वस्तुके प्रतिपादनके सात ही भंग होते हैं। न तो प्रश्न सातसे हीन या अधिक हो सकते हैं और न ये भंग हो । उदाहरणार्थ-१. जीव चेतन स्वरूप हो है, २ शरीर स्वरूप बिलकुल नहीं; ३ क्योंकि स्वलक्षणरूप अस्तित्व परकी निवृत्तिके बिना और परको निवृत्ति स्व लक्षणके अस्तित्त्वके बिना हो नहीं सकती है; ४ पृथक या कमसे कहे गये ये स्वसे अस्तित्व और परसे नास्तित्व रूप दोनों धर्म वस्तुमें युगपत् सिद्ध होनेसे वह अवक्तव्य है; ५ अवक्तव्य होते हुए भी वह स्वस्वरूपसे सत है; अवक्तव्य होते हुए भी वह परसे सदा व्यावृत्त ही है; ७ और इस प्रकार वह अस्तित्व, नास्तित्व, व अवक्तव्य इन तीन धर्मोके अभेद स्वरूप है । इस अवक्तव्यको वक्तव्य बनानेके लिए इन सात बातोंका क्रमसे कथन करते हुए प्रत्येक वाक्यके साथ कथंचित वाचक 'स्याव' शब्दका प्रयोग करते हैं जिसके कारण अनुक्त भी शेष छह बातोंका संग्रह हो जाता है, और साथ ही प्रत्येक अपेक्षाके अवधारणार्थ एवकार का भी । स्यात् शब्द सहित कथन होने के कारण यह पद्धति स्याद्वाद कहलाती है। - ४.पंच भाव संयोगी औद.+औप.+क्षा,+क्षयो.+ पारि-मनुष्य उपशान्तमोह क्षायिक सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय जीव । सन्निवेश-ध. १३/११.६३/३३६/२ विषयाधिपस्य अवस्थानं संनि वेशः।- देशके स्वामीके रहनेके स्थानका नाम सन्निवेश है। सन्नीरा-भरत क्षेत्रस्थ मध्य आर्य खण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४। सन्मति-१.भगवान महावीरका अपर नाम था-दे. महावीरः २. द्वितीय कुलकर थे-दे. शलाका पुरुष/8 | सन्मति कीति-समति कीतिका अपरनाम था-दे. सुमतिकीर्ति। सम्मतिसूत्र-आचार्य सिद्धसैन दिवाकर (वि.६२५) द्वारा रचित' तत्त्वार्थ विषयक संस्कृत भाषाबद्ध ग्रन्थ । यह दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों को मान्य है। दिगम्बराचार्योंने अपने ग्रन्थों में उसकी गाथाएँ अपनी बातकी पुष्टिके अर्थ प्रमाण रूपसे उद्धृत की हैं---यथा क. पा. १/१-२०/गा, १३४-१४४/३५१-३६०। इसपर श्वेताम्बराचार्य श्री अभयदेव सूरि (ई. श. १०) ने एक टीका लिखी है। संन्यास मरण-दे, सहलेखना। (ती./२/२१२। सपयो-दे, पूजा/१/१ याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख, मह यह सब पूजाविधिके नाम हैं। सप्तऋषि-प. पु./१२/श्लोक सं. प्रभापुर नगरके राजा श्री नन्दनके सात पुत्र थे-सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्व मुन्दर, जयवान्, विनयलालस, और जयमित्र । (२-३.) प्रीतिकर महाराजके केवलज्ञानके अवसरपर देवोंके आगमनसे प्रतिबोधको प्राप्त हुए तथा पिता सहित सातोंने दीक्षा ले ली (५-६ )। उत्तम तपके कारण सातों भाई सप्तऋषि कहलाये (७)। उनके प्रभावसे ही मथुरा नगरी में चमरेन्द्र यक्ष द्वारा प्रसारित महामारी रोग नष्ट हुआ था। सप्त ऋषि पूजा-दे. पूजा । सप्त कुभ-ह. पु./१४/१० इसकी विधि तीन प्रकार कही गयी है उत्तम, मध्यम व जघन्य । विधि-१. उत्तम-क्रमशः १६,१५,१४,१३, १२.११.१०,६,६,७,६१५,४.३.२.१९१५,१४,१३.१२,११,१०,६,८,७,६५०४, ३,२,१, १५,१४,१३.१२.११.१०,६८,७,६,५,४.३.२.१, १५.१४,१३.१२ ११.१०.६.८.७.६.५.४,३.२.१- इस प्रकार एक हानिक्रमसे एक बार १६ से१तक और इससे आगे ३ बार १५ से एक तक कुल ४६६ उपवास करे । बीचके (१) वाले ६१ स्थानों में सर्वत्र एक एक पारणा करे। २. मध्यम-ह./३४/८६ सर्वविधि उपरोक्त ही प्रकार है। अन्तर सप्तमंगी निर्देश सप्तभंगीका लक्षण। सप्तभंगोंके नाम निर्देश। सातों भंगोंके पृथक्-पृथक् लक्षण । भंग सात ही हो सकते हैं हीनाधिक नहीं। दो या तीन ही भंग मूल हैं। सात भंगीमें स्यात्कारकी आवश्यकता -दे. स्याद्वाद/५ सप्तभंगीमें एवकारकी आवश्यकता - दे. एकान्त/२ । सापेक्ष ही सातों भंग सम्यक् हैं निरपेक्ष नहीं -दे. नय/II/७। स्यात्कारको प्रयोग कर देनेपर अन्य अंगोंकी क्या आवश्यकता। सप्तभंगोका प्रयोजन -दे. अनेकान्त/३॥ प्रमाण नय सप्तभंगी निर्देश प्रमाण वनय सप्तभंगीके लक्षण व उदाहरण । प्रमाण व नय सप्तभंगी सम्बन्धी विशेष विचार -दे. सकलादेश व विकलादेश । प्रमाण सप्तभंगीमें हेतु। प्रमाण व नय सप्तभंगीमें अन्तर । भा०४-४० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी ३१४ १. सप्तभंगी निर्देश Snsna.com * now १. सप्तभंगी निर्देश १. सप्तभंगीका लक्षण रा. वा./२/६/५/३३/१५ एकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणेनाविरुद्रा विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभंगी बिज्ञेया। - प्रश्नके अनुसार एक वस्तुमें प्रमाणसे अविरुद्ध विधि प्रतिषेध धर्मोंकी कल्पना सप्तभंगी है । ( स. म./२३/२७८/८)। पं.का./ता. वृ./१४/३०/१५ पर उद्धृत-एकस्मिन्नविरोधेन प्रमाणनयवाक्यतः। सदादिकल्पना या च सप्तभङ्गीति सा मता। -प्रमाण वाक्यसे अथवा नय वाक्यसे, एक ही वस्तुमें अविरोध रूपसे जो सत् असत् आदि धर्मकी कल्पना की जाती है उसे सप्तभंगी कहते हैं। न्या. दी./३/६८२/१२७/३ सप्तानो भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गीति । - सप्त'भगोंके समूहको सप्तभंगी कहते हैं (स.भ.त./१/१०)। स.भ.त/३/१ प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वे सति, एकवस्तुविशेष्यकाविरुद्धविधिप्रतिषेधात्मकधर्मप्रकारकबोधजनकसप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वम् । =प्रश्नकर्ताक प्रश्नज्ञानका प्रयोज्य रहते, एक पदार्थ विशेष्यक अविरुद्ध विधि प्रतिषेध रूप नाना धर्म प्रकारक बोधजनक सप्त वाक्य पर्याप्त समुदायता ( सप्तभंगी है)। सप्त भंगोंमें प्रमाण व नयका विभाजन युक्त नहीं नय सप्तभंगीमें हेतु। अनेक प्रकारसे सप्तमंगी प्रयोग एकान्त व अनेकान्तकी अपेक्षा । स्वपर चतुष्टयकी अपेक्षा। विरोधी धर्मों की अपेक्षा -दे. सप्तभंगी//७।। सामान्य विशेषकी अपेक्षा नयोंकी अपेक्षा। अनन्तों सप्तभंगियोंकी समानता। अस्ति नास्ति भंग निर्देश वस्तुकी सिद्धिमें इन दोनोंका प्रधान स्थान। दोनों में अविनाभावी अपेक्षा। ३ दोनोंकी सापेक्षतामें हेतु । नास्तित्वभंगकी सिद्धि में हेतु। नास्तित्व वस्तुका धर्म है तथा तद्गत शंका । उभयात्मक तृतीय भंगकी सिद्धि हेतु।' अनेक प्रकारसे अस्तित्व नास्तित्व प्रयोग स्वपर द्रव्यगुण पर्यायकी अपेक्षा। स्त्रपर क्षेत्रकी अपेक्षा। स्त्रपर कालकी अपेक्षा। | स्वपर भावकी अपेक्षा। वस्तुके सामान्य विशेष धर्मों की अपेक्षा। नयोंकी अपेक्षा। विरोधी धर्मों में । * वस्तुमें अनेक विरोधी धर्म युगल तथा उनमें | कथंचित् अविरोध। -दे. अनेकान्त/४,५ । * आकाश कुसुमादि अभावात्मक वस्तुओंका कथंचित् विधि निषेध । -दे. असद । कालादिकी अपेक्षा वस्तुमें भेदाभेद । मोक्षमार्गको अपेक्षा। अवक्तव्य भंग निर्देश युगपत् अनेक अर्थ कहनेकी असमर्थता । वह सर्वथा अवक्तव्य नहीं। कालादिकी अपेक्षा वस्तु धर्म अवक्तव्य है। सर्वथा अवक्तव्य कहना मिथ्या है। वक्तव्य व अवक्तव्यका समन्वय । शब्दकी वक्तव्यता तथा वाच्य वाचकता। -दे. आगम/४। * वस्तुमें सक्षम क्षेत्रादिकी अपेक्षा स्वपर विभाग। . -दे. अनेकान्त/४/७॥ शुद्ध निश्चय नय अवाच्य है। -दे. नय/V|२/२ । सूक्ष्म पर्याय अवाच्य हैं। -दे. पर्याय/३/१। २. सप्तमंगोंके नाम निर्देश पं.का./मू./१४ सिय अस्थि णत्थि उहय अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदर्य । दव्वं खु सत्तभंगं आदेशवसेण संभवदि । १४ । आदेश (कथन) के वश द्रव्य वास्तवमें स्यात-अस्ति, स्याव नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात अवक्तव्य और अवक्तव्यता युक्त तीन भंगवाला (स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, और स्यात अस्ति-नास्ति अवक्तव्य) इस प्रकार सात भंगवाला है । १४ । (प्र. सा./मू./ ११५); (रा. वा./४/४२/१५/२५३/३ ); (स्या. म./२३/२७८/ ११); (सं.भ.त./२/१)। न. च. वृ./२५२ सत्तैव हुँति भंगा पमाणणयदुणयभेदजुत्तावि। -प्रमाण सप्तभंगी में, अथवा नय सप्तभंगी में, अथवा दुर्न य सप्तभंगीमें सर्वत्र सात ही भंग हो है। स. भं,त./१६/१ स च सप्तभंगी द्विविधा-प्रमाणसप्तभंगी नयसप्तभंगी चेति ।-सप्तभंगी दो प्रकारकी है-प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभगी। ३. सातों भंगोंके पृथक्-पृथक् लक्षण स.भ.त./पृष्ठ सं./पक्ति सं. तत्र धर्मान्तराप्रतिषेधकरवे सति विधिविषयकबोधजनकवाक्यं प्रथमो भङ्गः। स च स्यादस्त्येव घट इति वचनरूपः । धर्मान्तराप्रतिषेधकत्वे सति प्रतिषेधविषयकबोधजनकवाक्यं द्वितीयो भङ्गः। स च स्यान्नास्त्येव घट इत्याकारः (२०/३)। घटः स्यादस्ति च नास्ति चेति तृतीयः । घटादिरूपैकधमिविशेष्यक क्रमापितविधिप्रतिषेधप्रकारकबोधजनक्वाक्यत्वं तल्लक्षणम् । क्रमार्पितस्वरूपपररूपाद्यपेक्षयास्तिनास्त्यात्मको घट इति निरूपितप्रायम् । सहार्पितस्वरूपपररूपादिविवक्षायां स्यादवाच्यो घट इति चतुर्थः । घटादिविशेष्यकावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षणं (६०/ १) व्यस्तं द्रव्यं समस्तौ सहार्पितौ द्रव्यपर्यायावाश्रित्य स्यादस्ति चावक्तव्य एव घट इति पञ्चमभङ्गः। घटादिरूपै कर्मिविशेष्यकसत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षणम् । तत्र द्रव्यार्पणादस्तित्वस्य युगपद द्रव्यपर्यायार्पणादवक्तव्यत्वस्य च विबक्षितत्वात् । (७१/७) तथा व्यस्तं पर्यायं समस्तौ द्रव्यपर्यायो चाश्रित्य स्थानास्ति चावक्तव्यो घट इति षष्ठः । तल्लक्षणं च घटादिरूपैकधर्मिविशेष्यकनास्तित्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वम् । एवं व्यस्तौ क्रमापितौ समस्तौ सहापितौ च द्रव्यपर्यायावाश्रित्य स्यादस्ति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी : नास्ति चावत एव घट इति सप्तमभङ्गः । घटादिरूपक वस्तुविशेयकसत्वासत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वप्रकारक बोधजनकवाक्यत्वं तल्लक्षणम् (७२ / १ ) । = १ अन्य धर्मोका निषेध न करके विधि विषयक बोध उत्पन्न करनेवाला प्रथम भंग है । वह 'कथंचित घट है' इत्यादि बचन रूप है २ धर्मान्तरका निषेध न करके निषेध विषयक बोधजनक वाक्य द्वितीय भंग है । 'कथंचित घट नहीं है' इत्यादि वचनरूप उसका आकार है । ( २०/३) । ३. 'किसी अपेक्षासे घट है किसी अपेक्षासे नहीं है' यह तीसरा भंग है । घट आदि रूप एक धर्मी विशेष्यवाला तथा कमसे योजित विधि प्रतिषेधशेष जनक वाक्यस्व, यह तृतीय भंगका लक्षण है । क्रमसे अर्पित स्वरूप पररूप द्रव्य आदिकी अपेक्षा अस्ति नास्ति आत्मक घट है। यह विषय निरूपित है । ४. सह अर्पित स्वरूप पररूप आदिकी विवक्षा करनेपर किसी अपेक्षासे घट अवाच्य है यह चतुर्थ भंग होता है । घटादि पदार्थ विशेष्यक और अवक्तव्य विशेषणवाले बोध ( ज्ञान ) का जनक वाक्यत्व, इसका लक्षण है । ( ६०/१) ५. पृथक् भूत द्रव्य और मिलित द्रव्य व पर्याय इनका आश्रय करके 'कथं चित घट अवक्तव्य है इस भंगकी प्रवृत्ति होती है । घट आदिरूप धर्मी विशेष्यक और सत्व सहित अवक्तव्य विशेषणवाले ज्ञानका जनक वाक्यत्व, यह इसका लक्षण है। इस भंगमें द्रव्यरूपसे अस्तित्व, और एक युगपत् द्रव्य व पर्याय को मिलाके योजन करनेसे अवक्तव्यत्वरूप विवक्षित है । ६. ऐसे ही पृथगभूत पर्याय और मिलित व्य व पर्यायका आश्रय करके 'किसी अपेक्षा से घट नहीं है तथा अवक्तव्य है' इस भंगकी प्रवृत्ति होती है । घट आदि रूप एक पदार्थ विशेष्यक और असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व विशेषणवाले ज्ञानका जनक वाक्यत्व, इसका लक्षण है । ७. क्रम से योजित तथा युगपत् योजित द्रव्य तथा पर्यायका आश्रय करके. 'किसी अपेक्षासे सत्त्व असत्त्व सहित अवक्तव्यत्वका आश्रय घट, इस सप्तम भंगकी प्रवृत्ति होती है । घट आदि रूप एक पदार्थ विशेष्यक और सत्त्व असत्त्व सहित अवक्तव्यस्थ विशेषणवाले ज्ञानका जनक वाक्य इसका लक्षण है। ( और भी दे, नय / I /५/२ ) ४. भंग सात ही हो सकते हैं होनाधिक नहीं रा. वा./४/४२/१२/२५३/० पर उसे भंगा से सं दु भवदि जस्स जथा । वत्थुत्ति तं पउच्चदि सामण्णविसेसदो नियद । = प्रश्नके वशसे ही भंग होते हैं। क्योंकि वस्तु सामान्य और विशेष उभय धर्मों से युक्त है। श्लो. वा./२/१/६/४६-५२ / ४९४ / २६ ननु च प्रतिपर्यायमेक एव भङ्गः पाचनस्य न तु भक्तेः पर्यायशस्तु स्वयमः सहसा अति निम रिति चेत नेतत्सार प्रश्नमाविति वचनात् तस्य स प्रवृत्ती मनिश्वसन्ति प्रश्नस्य तु सप्तचा प्रवृत्तिः वस्तुम्पेयस्य पर्यायस्याणिामापसिद्धिः । प्रश्नप्रत्येक पर्यायकी अपेक्षासे वचनका भंग एक ही होना चाहिए। सात भंग नहीं हो सकते, क्योंकि एक अर्थका सात प्रकार से कहना अशक्य है | पर्यायवाची सात शब्दों करके एकका निरूपण करोगे तो सातका नियम कैसे रहा ! हजारों भंगोंके समाहारका निषेध भी नहीं कर सकते हो ? उत्तर - यह कथन सार रहित है। क्योंकि, प्रश्नके वश ऐसा पद डालकर कहा है । प्रश्न सात प्रकारसे प्रवृत्त हो रहा है तो उसके उत्तर रूप वचनको सात-सात प्रकारपना युक्त ही है । और यह वस्तु एक पर्यायके कथन करनेपर अन्य प्रतिषेध, अवक्तव्य आदि पर्यायों के आक्षेप कर लेने से सिद्ध है। 1 - स.भंत / पर उद्धृत श्लोक - भङ्गास्सत्यादयस्तप्त संशयास्सप्त तद्गताः । सात सप्त स्युः प्रश्नास्तोत्तराभ्यपि कचित् पट है' इत्यादि वाक्य में सत्व आदि सप्त भंग इस हेतुसे हैं कि उनमें स्थिति ३१५ २. प्रमाण नय स सभंगी निर्देश 9 संशय भी सप्त है और संशय के लिए जिज्ञासाओंके भेद भी सह हैं, और जिज्ञासाओंके भेदसे ही रूप्त प्रकार के प्रश्न तथा उत्तर भी हैं। (स्था. म. / २२/२०२/१४.९७); (स. मं. उ/४/०)। 18/9) 1 ५. दो या तीन ही भंग मूल स्या. म. / २४ / २०६ / १२ अमीषामेव त्रयाणां ( अस्ति नास्ति अवक्तक्यानां गुरुवरवाच्च संयोगत्वेनामीवायादिति । क्योंकि आदिके ( अस्ति, नास्ति व अवक्तव्य ये ) तीन भंग ही मुख्य भंग हैं, शेष भंग इन्हीं तीनोंके संयोग बनते हैं, अतएव उनका इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है । स.भ. उ/०५/६ इत्येव सिद्ध उत्तरे च भा एवमेव योजयितव्याः । - इस रीति से मूलभूत ( अस्ति नास्ति ) दो भंगकी सिद्धि होनेसे उत्तर भंगोंकी योजना करनी चाहिए। ६. स्यात्कारका प्रयोग कर देने पर अन्य अंगोंकी क्या आवश्यकता रा. मा. / ४/४२/१४/२/३/१३/२० यद्ययमनेकान्तार्थस्तेनैव सर्वस्योपादानात् इतरेषां पदानामानर्थक्यं प्रसज्यते, नैष दोषः सामान्येनोपादानेऽपि विशेषाविना विशेषोऽनुप्रयोक्तव्यः ॥१३॥ स्याद स्त्येव जीवः इत्यनेनैव सकज़ादेशेन जीवद्रव्यगतानां सर्वेषां धर्माण संग्रहात् इतरेषां भङ्गानामानर्थक्यमासजति नैष दोषः : गुणप्राधान्यव्यवस्थाविशेषप्रतिपादनार्थस्य सर्वेषां भज्ञान प्रयोगोऽवा 7 रन-यदि इस 'स्यात्' शब्द अनेकान्तार्थका योतन हो जाता है. तो इतर पदों के प्रयोगका क्या अर्थ है ? ऐसा प्रसंग आता है। उत्तरइसमें कोई दोष नहीं है; क्योंकि सामान्यतया अनेकान्तका द्योतन हो जानेपर भी, विशेषार्थी विशेष शब्दका प्रयोग करते हैं। प्रश्नयदि स्थात अस्त्येव जीवः' यह वाक्य सकलादेशी है तो इसी से जीव द्रव्य के सभी धर्मोका संग्रह हो ही जाता है, तो आागेके भंग निरर्थक हैं उत्तर गौण और मुख्य सभी गाँकी सार्थकता है। - २. प्रमाण नय सप्तभंगी निर्देश १. प्रमाण व नय सप्तभंगीके लक्षण व उदाहरण 1 रा. बा./४/४५/१५/२२३ / २ समावेश आवेशवाद सभी प्रतिपदं वेदितव्यां । तद्यथा - स्यादस्त्येव जीवः, स्यान्नास्त्येव जीवः, स्यादवक्तव्य एव जीवः स्यादस्ति च नास्ति च स्यादस्ति चावक्तव्यश्च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च स्यादरित च नास्ति चावक्तव्यश्च इत्यादि । स्यादस्रयेय जीव इत्येतस्मिन् वाक्ये जीवशब्दो व्यवचनः विशेष्यत्वात अस्तीति गुणवचनो विशेषणत्वात । तयोस्सामान्यार्याविन विशेषणविशेष्यसंबन्धावद्योतनार्थ .. एवकारः । रा. वा./४/४२/१७/२६०/२२ तत्रापि विकलादेशे तथा आदेशवशेन सप्तभङ्गी मी वेदितव्या... तद्यथा सर्वसामान्यादिषु द्रव्याथविशेषु केनचिदुपलभ्यमानत्वादस्यादस्त्येवात्मेति प्रथमो वि ** शेषभङ्गेष्वपि विनसितांशमात्ररूपणायाम् इतरेष्वोदासीन्येन कादेशमा योज्या १. इस सलादेशमें प्रत्येक धर्मकी अपेक्षा सप्तभंगी होती हैं । १. स्यात् अस्त्येव जीवः २. स्यात् नास्त्येव जीवः, ३. स्यात् अवक्तव्य एव जीवः, ४. रयात् अस्ति च नास्ति च ५ स्यात् अस्ति च अवक्तव्यश्च ६ स्यात् नास्ति च अवक्तव्यश्च ७ स्यात् अस्ति नास्ति च अवक्तव्यश्च । ... ... 'स्यात्' 'अस्त्येव जीवः ' इस वाक्य में जीव शब्द विशेष्य है द्रव्यवाची है और अस्ति शब्द विषय है गुणवाची है उनमे विशेषणविशेष्यभाव द्योतनके लिए 'एव' का प्रयोग है। २ विकलादेश में भी सप्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी २. प्रमाण नय सप्तभंगी निर्देश भंगी होती है ... यथा-सर्व सामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थ दृष्टिसे 'स्यादस्त्येव आत्मा' यह पहला विकलादेश है ।....."इसी तरह अन्य धर्मों में भी स्व विवक्षित धर्मकी प्रधानता होती है और अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता; न तो उनका विधान ही होता है और न प्रतिषेध हो। क. पा. १/१, १३-१४/१७०/२०१/२ स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्यः स्यादस्ति च नास्ति च स्यादस्ति चावक्तव्यश्च स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति सप्तापि सकलादेशः ।...एषः सकलादेशः प्रमाणाधीनः प्रमाणायत्तः प्रमाणव्यपाश्रयः प्रमाणजनित इति यावत् । क. पा. १/१, १३-१४/६१७१/२०३/६ अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एव अस्ति नास्त्येव अस्त्यवक्तव्य एव नास्त्यवक्तव्य एव अस्ति नास्त्यवक्तव्य एव घट इति विकलादेशः। ... अयं च विकलादेशो नयाधीनः नयायत्तः नयवशादुत्पद्यत इति यावत् । =१. कथं चित् घट है, कथंचित घट नहीं है. कथं चिन् घट अवक्तव्य है, कथंचित घट है और नहीं है, कथंचित घट है और अवक्तव्य है, कर्थ चित् घट नहीं है और अवक्तव्य है, कथंचित घट है नहीं है और अवक्तव्य है, इस प्रकार ये सातों भंग सकलादेश कहे जाते हैं। यह सकलादेश प्रमाणाधीन है अर्थात् प्रमाणके वशीभूत हैं, प्रमाणाश्रित है या प्रमाणजनित है ऐसा जानना चाहिए। २. घट है ही, घट नहीं ही है, घट अवक्तव्य रूप है, घट है ही और नहीं ही है, घट है ही और अवक्तव्य ही है, घट नहीं ही है और अवक्तव्य ही है. घट है ही नहीं ही है और अवक्तव्य रूप है, इस प्रकार यह विकलादेश है। ...यह विकलादेश नयाधीन है, नयके वशीभूत है या नयसे उत्पन्न होता है। ध. ६/४.१४५/१६५/४ सकलादेशः.. स्यादस्तीत्यादि.. प्रमाणनिबन्धनत्वात स्याच्छब्देन सूचिताशेषप्रधानीभूतधर्मत्वात् ।...... विकलादेश अस्तीत्यादिः..नयोत्पन्नत्वात् । ध.६/४,१.४५/१८३/७ स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यम्, स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादस्ति चावक्तव्यं च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च. स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च इति एतानि सप्त सुनयवाक्यानि प्रधानीकृत कधर्मत्वात्। -१. 'कथंचित है' इत्यादि सात भंगोंका नाम सकलादेश है, क्योंकि प्रमाण निमित्तक होनेके कारण इसके द्वारा 'स्यात्' शब्दसे समस्त अप्रधानभूत धर्मों की सूचना की जाती है।...'अस्ति' अर्थात् है इत्यादि सात वाक्योंका नाम विकलादेश है, क्योंकि वे नयोंसे उत्पन्न होते हैं। २. कचित् है, कथंचित् नहीं है, कथं चित् अबक्तव्य है, कथंचित है और नहीं है, कथंचित है और अवक्तव्य है, कथंचित नहीं है और अबक्तव्य है, कथंचित है और नहीं है और अवक्तव्य है, इस प्रकार ये सात सुनय वाक्य हैं, क्योंकि वे एक धर्मको प्रधान करते हैं । न. च.श्रुत./६२/११ प्रमाणवाक्यं यथा स्यादस्ति स्याईनास्ति...आदयः । नयवाक्यं यथा अस्त्येव स्वद्रव्यादिग्राहकनयेन । नास्त्येव परद्रव्यादिग्राहकनयेन। ( इत्यादि) स्वभावानां नये योजनिकामाह । - प्रमाण वाक्य निम्न प्रकार है-जैसे कथंचित है, कथं चित् नहीं है। ...इत्यादि प्रमाण की योजना है। नयवाक्य निम्न प्रकार हैं जैसे-स्वद्रव्यादिग्राहक नयको अपेक्षासे भावरूप ही है। परद्रव्यादिग्राहक नयकी अपेक्षासे अभावरूप ही है...( इसी प्रकार अन्य भंग भी लगा लेने चाहिए ) स्वभावोंकी नयों में योजना बतलाते हैं। ( वह उपरोक्त प्रकार लगा लेनी चाहिए)। ( न. च. वृ /२५२-२५५ )। पं. का./ता. वृ./१४/१२/११ सूक्ष्मव्याख्यानविवक्षायां पुनः सदेकनित्यादिधर्मेषु मध्ये एकैकधर्मे निरुद्ध सप्तभङ्गा वक्तव्याः । कथमिति चेत् । स्यादस्ति स्यान्तास्ति । - सूक्ष्म व्याख्यानकी विवक्षामें सत्, एक नित्यादि आदि एक-एक धर्मको लेकर सप्तभंग कहने चाहिए। जैसे-स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, ... ( इत्यादि इसी प्रकार अन्य भंगों की योजना करनी चाहिए ) । प्र. सा./११५/पृ./पं. नयसप्तभङ्गी विस्तारयति स्यादस्त्येव 'स्यान्नास्त्येव (१६९/१०) पूर्व पञ्चास्तिकाये स्यादस्तीत्यादिप्रमाणवाक्येन प्रमाणसप्तभङ्गी व्याख्याता, अत्र तु स्यादस्त्येव यदेवकारग्रहणं तन्नयसप्तभङ्गीज्ञापनार्थमिति भावार्थः ।१६।१४। - नय सप्तभङ्गी कहते हैं-यथा-'स्यादस्त्येव' अर्थात् कथंचित् जीव है ही, कथंचित् जीव नहीं ही है। इत्यादि । पहले पञ्चास्तिकाय ग्रन्थमें 'कथ चित् है' इत्यादि प्रमाण वाक्यसे प्रमाण सप्त भंगी व्याख्यान की गयी। और यहाँपर जो 'कथंचित है ही 'इसमें जो एवकारका ग्रहण किया है वह नय सप्तभंग के ज्ञान करानेके लिए किया गया है। न्या. दी./३/१२/१२६-१२७ द्रव्याथिकनयाभिप्रायेण सुवर्ण स्यादेकमेव, पर्यायाथिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव ।... सैषा नयविनियोगपरिपाटी सप्तभङ्गीत्युच्यते । द्रव्यार्थिक नयके अभिप्रायसे सोना कथंचित एकरूप है, पर्यायार्थिक नयके अभिप्रायसे कथंचित अनेक रूप है ।... इत्यादि नयोंके कथन करनेकी इस शैलीको ही सप्तभंगी कहते हैं। २. प्रमाण सप्तमंगीमें हेतु रा. वा./४/४२/१५/पृ.सं./पं. सं. जीवः स्यादस्ति स्यान्नास्तीति । अतः द्रव्यार्थिकः पर्यायाधिकमात्मसात्कुर्वन् व्याहियते, पर्यायार्थिकोऽपि द्रव्यार्थिकमिति उभावपि इमो सकलादेशौ ( २५७/८)। ताभ्यामेव क्रमेणाभिधित्सायां तथैव वस्तुसकलस्वरूपसंग्रहात चतुर्थोऽपि विकल्पसकलादेशः ( २५८०२०) ततः स्यादस्ति चावक्तव्यश्च जीव. । अयमपि सकलादेशः। अंशाभेदविवक्षायाम् एकांशमुखेन सकलसंग्रहात ( २५६/२७) यश्च वस्तुत्वेन सन्निति द्रव्याथांशः यश्च तत्प्रतियोगिनावस्तुत्वेनासन्निति पर्यायांशः, ताभ्यां युगपदभेदविवक्षाया अवक्तव्य इति द्वितीयोऽशः। तस्मानास्ति चावक्तव्यश्चात्मा। अयमपि सकलादेशः शेषवाग्गोचरस्वरूपसमूहस्याविनाभावात् तत्र वान्तर्भूतस्य स्याच्छब्देन द्योतितत्वात ( २६०/१) सप्तमो विकल्पः चतुर्भिरात्मभिः व्यंशः । द्रव्या विशेष कंचिदाश्रित्यास्तित्वं पर्यायविशेषं च कंचिदाश्रित्य नास्तित्वमिति समुचितरूपं भवति, द्वयोरपि प्राधान्येन विवक्षितत्त्वात् । द्रव्यपर्यायविशेषेण च केनचित् द्रव्यपर्यायसामान्येन च केनचित् युगपदवक्तव्यः इति तृतीयोऽशः। ततः स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च आत्मा। अयमपि सकलादेशः। यतः सर्वान् द्रव्यार्थान् द्रव्यमित्यभेदादेक द्रव्यार्थं मन्यते । सर्वान् पर्यायाश्च पर्यायजात्यभेदादेकं पर्यायार्थम् । अतो विवक्षितवस्तुजात्यभेदात कृत्स्नं वस्तु एकद्रव्यार्थाभिन्नम् एकपर्यायाभेदोपचरितं वा एकमिति सकलसंग्रहात (२६०/ ५)। जीव स्यादस्ति और स्यानास्तिरूप है। इनमें द्रव्यार्थिक पर्यायर्थिकको तथा पर्यायाथिक द्रव्यार्थिकको अपने अन्तर्भूत करके व्यापार करता है, अतः दोनों ही भंग सकलादेशी हैं (२५७/८)। ( अवक्तव्य भेद-दे, सप्तभंगी/६) जब दोनों धर्मोकी क्रमशः मुख्य रूपसे विवक्षा होती है तब उनके द्वारा समस्त वस्तुका ग्रहण होनेसे चौथा भी भाग सकलादेशी होता है ( २५८/२०) जीव स्यात् अस्ति और अवक्तव्य है, यह भी विवक्षासे अखण्ड वस्तुको संग्रह करनेके कारण सकलादेश है क्योंकि इसने एक अंश रूपसे समस्त वस्तुको ग्रहण किया है (२५६/२७)जो वस्तुत्वेन'सद है द्रव्यांश वही तथा जो अवस्तुत्वेन असद है वही पर्यायांश है। इन दोनोंकी युगपत अभेद विवक्षामें वस्तु अवक्तव्य है यह दूसरा अंश है। इस तरह आत्मा नास्ति अवक्तव्य है यह भी सकलादेश है क्योंकि विवक्षित धर्मरूपसे अखण्ड बस्तुको ग्रहण करता है। (२६०/१) सातवाँ भंग चार स्वरूपोंसे तीन अंशवाला है। किसी द्रव्यार्थ विशेषकी अपेक्षा अस्तित्व किसी पर्याय विशेषकी अपेक्षा नारितत्व है। तथा किसी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी ३१७ ३. अनेक प्रकारसे सप्तभंगी प्रयोग इति वक्तुं युक्त सिद्धान्तविरोधात् । -तीन (प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ भंग) ही नय वाक्य हैं और चार (तृतीय, पंचम, षष्ट, सप्तम भंग) ही प्रमाण वाक्य हैं, ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि सिद्धान्तसे विरोध आता है। ५. नय सप्तभंगीमें हेतु दे. सप्तभंगी/२/१ में घ.VE 'स्याद् अस्ति' आदि ये सात वाक्य सुनय बाक्य हैं, क्योंकि वे एक धर्मको विषय करते हैं। पं. घ./पू./६८२,६८८,६८६ यदनेकांशग्राहकमिह प्रमाणं न प्रत्यनीकतया। प्रत्युत मैत्रीभावादिति नयभेदाददः प्रभिन्नं स्यात् ।६८२ स यथास्ति च नास्तीति च क्रमेण युगपच्च वानयोर्भावः। अपि वा वक्तव्यमिदं नयो विकल्पानतिक्रमादेव ६८८। तत्रास्ति च नास्ति समं भङ्गस्यास्यैकधर्मता नियमात् । न पुनः प्रमाणमिव किल विरुद्धधर्मद्वयाधिरूढत्वम् ।६८६। -प्रमाण अनेक अंशोंको ग्रहण करनेवाला परस्पर विरोधीपनेसे नहीं कहा गया है किन्तु सापेक्ष भावसे कहा गया है। इसलिए संयोगी भंगात्मक नयोंके भेदसे भिन्न है ६८२ (नयविकल्पात्मक हैं ) जैसे विकल्पका उल्लंघन नहीं करनेसे ही क्रमपूर्वक अस्ति और नास्ति, अस्तिनास्तिक्रम पूर्वक एक साथ कहना यह भंग तथा यह अवक्तव्य भंग भी नय है ।६८८। उन भंगों में-से निश्चय करके एक साथ अस्ति और नास्ति मिले हुए एक भंगको नियमसे एक धर्मपना है किन्तु प्रमाणकी तरह विरुद्ध दो धर्मोको विषय करनेवाला नहीं है। द्रव्यपर्याय विशेष, और द्रव्य पर्याय सामान्यकी युगपत विवक्षामें वही अबक्तव्य भी हो जाता है। इस तरह अस्ति नास्ति अवक्तव्य भंग बन जाता है। यह भी सकलादेश है। सर्वद्रव्योंको द्रव्य जातिकी अपेक्षासे एक कहा जाता है, तथा सर्व पर्यायोंको पर्याय जातिकी अपेक्षासे एक कहा जाता है। क्योंकि इसने विवक्षित धर्मरूपसे अखण्ड समस्त वस्तुका ग्रहण किया है। ध.४/१,४,१/१४५/१ दवपज्जवठ्ठियणए अणवलंबिय कहणोवायाभावादो। जदि एवं. तो पमाणवक्कस्स अभावो पसज्जदे इदि बुत्ते, होदु णाम अभावो, गुणप्पहाणभावमंतरेण कहणोवायाभात्रादो। अधवा, पमाणुप्पाइदं वयणं पमाणवक्कमुवयारेण बुच्चदे। -द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नयोंके अवलम्बन किये बिना वस्तु स्वरूपके कथन करनेके उपायका अभाव है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो प्रमाण वाक्यका अभाव प्राप्त होता है। उत्तर-भले ही प्रमाण वाक्यका अभाव हो जावे, क्योंकि, गौणता और प्रधानताके बिना वस्तु स्वरूपके कथन करनेके उपायका भी अभाव है। अथवा प्रमाणसे उत्पादित वचनको उपचारसे प्रमाण वाक्य कहते हैं । ३. प्रमाण व नय सप्तभंगीमें अन्तर स्या. म./२८/३०८/४ सदिति उल्लेखनात नयः। स हि 'अस्ति घटः' इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्म प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गज निमिलिकामालम्बते। न चास्य दुर्न यत्वम् । धर्मान्तरातिरस्कारात् । न च प्रमाणत्वम् । स्याच्छब्देन अलाब्छितत्वात् । स्यात्सदिति 'स्यात्कंथचित सद वस्तु' इति प्रमाणम् । प्रमाणत्वं चास्य दृष्टे याबाधितत्वाइ विपक्षे बाधकसभावाच्च । सर्वं हि वस्तु स्वरूपेण सत् पररूपेण चासद इति असकृदुक्तम् । सदिति दिङ्मात्रदर्शनार्थम् । अनया दिशा असत्त्वनित्यत्वानित्यत्ववक्तव्यत्वसामान्यविशेषादि अपि बोद्धव्यम् । -१. किसी वस्तुमें अपने इष्ट धर्मको सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तुके विवेचन करनेको नय कहते हैं-जैसे 'यह घट है। नयमें दुर्न यकी तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मोका निषेध नहीं किया जाता, इसलिए नयको दुर्न य नहीं कहा जा सकता। तथा नयमें स्यात शब्दका प्रयोग न होनेसे इसे प्रमाण भी नहीं कह सकते। २. वस्तुके नाना दृष्टियोंकी अपेक्षा कथं चित् सतरूप विवेचन करनेको प्रमाण कहते हैं. जैसे 'घट कथंचित् सत् है। प्रत्यक्ष और अनुमानसे अबाधित होनेसे और विपक्षका बाधक होनेसे इसे प्रमाण कहते हैं। प्रत्येक वस्तु अपने स्वभावसे सत और दूसरे स्वभावसे असत् है, यह पहले कहा जा चुका है। यहाँ वस्तुके एक सव धर्मको कहा गया है। इसी प्रकार असद, नित्य, अनित्य, वक्तव्य, अवक्तव्य, सामान्य, विशेष आदि अनेक धर्म समझने चाहिए। स्या, म./२८/३२१/१ स्याच्छन्नलाञ्छितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेश भाक्त्वाव । -नय वाक्यों में स्यात् शब्द लगाकर बोलनेवालेको प्रमाण कहते हैं। पं.का./ता, वृ/११/३२/१६ स्पादस्ति द्रव्यमिति पठनेन वचनेन प्रमाणसप्तभङ्गी ज्ञायते। कथमिति चेत् । स्यादस्तोति सकलवस्तुग्राहक. स्वात्त्रमाणवाक्यं स्यादस्त्येव द्रव्यमिति वस्त्वेकदेशग्राहकत्वान्नयन वाक्यम् । -'द्रव्य कथंचित है' ऐसा कहनेपर प्रमाण सप्तभंगी जानी जाती है क्योंकि, 'कथं चित है' यह वाक्य सकल वस्तुका ग्राहक होने के कारण प्रमाण वाक्य है। 'द्रव्य कथं चित है हो' ऐसा कहनेपर यह वस्तुका एकदेश ग्राहक होनेसे नय वाक्य है। दे. विकलादेश केवल धर्मी विषयक बोधजनक वाक्य सकलादेश, तथा केवल धर्म विषयक बोधजनक वाक्य नय है ऐसा नहीं कहा जा सकता क्यों कि धर्मी और धर्म दोनों स्वतन्त्र रूपसे नहीं रहते हैं। ४. सप्तमंगोंमें प्रमाण व नयका विभाग युक्त नहीं स. भ. त/R/हन च वीण्येव नयवास्यानि चत्वार्यत्र प्रमाणवाक्यानि ३. अनेक प्रकारसे सप्तभंगी प्रयोग १. एकान्त व अनेकान्तकी अपेक्षा रा. वा./04/६/३५/१७-२२ अनेकान्ते तदभावादव्याप्तिरिति चेत; न; तत्रापि तदुपपत्तेः ।६।...स्यादेकान्तः स्यादनेकान्तः इति । तत्कथमिति चेतः । -प्रश्न-अनेकान्तमें सप्तभंगीका अभाव होनेसे 'सप्तभंगीकी योजना सर्वत्र होती है। इस नियमका अभाव हो जायेगा। उत्तर-ऐसा नहीं है, अनेकान्तमें भी सप्तभंगीकी योजना होती है। ...यथा-'स्यादेकान्तः', स्यादनेकान्तः...इत्यादि'। क्योंकि (यदि अनेकान्त अनेकान्त ही होवे तो एकान्तका अभाव होनेसे अनेकान्तका अभाव हो जावेगा और यदि एकान्त ही होवे तो उसके अविनाभावि शेष धर्मोंका लोभ होनेसे सब लोप हो जावेगा। (दे. अनेकान्त/२/५)। स.भ../७५/१ सम्यगेकान्तसम्यगनेकान्तावाश्रित्य प्रमाणनयार्पणाभेदात, स्यादेकान्तः स्यादनेकान्तः...सप्तभङ्गी योज्या । तत्र नयार्पणादेकान्तो भवति, एकधर्मगोचरत्वान्नयस्य । प्रमाणादनेकान्तो भवति, अशेषधर्मनिश्च यात्मकत्वात्प्रमाणस्य ।- सम्यगेकान्त और सम्यगनेकान्तका आश्रय लेकर प्रमाण तथा नयके भेदकी योजनासे किसी अपेक्षासे एकान्त, किसी अपेक्षासे अनेकान्त.. (आदि)। इस रीतिसे सप्तभंगीकी योजना करनी चाहिए। उसमें नयकी योजनासे एकान्त पक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि नय एक धर्मको विषय करता है। और प्रमाण की योजनासे अनेकान्त सिद्ध होता है, क्योंकि प्रमाण सम्पूर्ण धर्मों को विषय करता है। २. स्व-पर चतुष्टयकी अपेक्षा पं. का./त. प्र./१४ तत्र स्वद्रव्यक्षेत्रकालभारादिष्टमस्ति द्रव्यं, परद्रव्यक्षेत्रकालभारादिष्टं नास्ति द्रव्यं...इति ।न चैतदनुपपन्नमः सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपादिना अशून्यत्वात्, पररूपादिना शून्यत्वात.. इति । - द्रव्य स्वद्रव्य क्षेत्र काल-भावसे कथन किया जानेपर 'अस्ति' है। द्रव्य परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे कथन किया जानेपर 'नास्ति' है.... जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी (आदि) यह उपरोक्त बात योग्य नहीं है, क्योंकि सर्व वस्तु स्वरूपादिसे अशून्य हैं, पररूपादिसे शून्य हैं... ( आदि ) | (प्र.सा./ .प्र./९९५) (. २/४.१.४५/२९३/४ ) और भी दे न /1/५/२) ३. सामान्य विशेषकी अपेक्षा रा.वा./४/४२/१३/२३-२५६२ मे ते सर्वसामान्येन तदभावेन च... आरमी अस्तीति सर्वप्रकारानाश्रयणादिच्छामशाद कल्पितेन सर्वसामान्येन वस्तुत्वेन अस्तीति प्रथमः । तत्प्रतिपक्षेणाभावसामान्येनावस्तुलेन मास्यात्मा इति द्वितीय: ।... विशिष्ट सामान्येन तदभावे च यथाश्रुत्वा श्रुत्युपासन आरमनेनाभिसंबन्धः ततश्चारमने अरवारमा इति प्रथमः यथाश्रुतमतियोगित्वात् अनात्मत्वेनैव नास्त्यात्मा इति द्वितीयः ।...... विशिष्टसामान्येन तदभावसामान्येन च यथासुतत्वात् आत्मत्वेने वास्तीति प्रथमः अभ्युपगमविरोधमा वस्वन्तरात्मना हिरमुदकज्वलनघटपटगुणकर्मादिना सर्वेण प्रकारेण सामान्यो नास्तीति द्वितीयः । विशिष्टसामान्येन तद्विशेषे च आत्मसामान्येनास्यात्मा । आत्मविशेषेण मनुष्यत्वेन नास्ति । ...... सामान्येन विशिष्टसामान्येन च - अविशेषरूपेण द्रव्यत्वेन अस्त्यात्मा । विशिष्टेन सामान्येन प्रतियोगिना नात्मत्वेन नास्त्यात्मा .....द्रव्यसामान्येन गुणसामान्येन च वस्तुनस्तथा तथा संभवात् तो तो विवक्षा माश्रित्य विशेषरूपेण द्रव्यत्वेनास्त्यात्मा, तत्प्रतियोगिनां विशेषरूपेण गुणत्वेन नास्यात्मा ......धर्मसमुदायेन सहपतिरेकेण पत्रकाराने सिद्धानादिधर्म समुदाय रूपेणात्मारितद्व तिरेकेण नास्त्यनुपलब्धेः । धर्म सामान्यसंबन्धेन सदभावेन च गुणरूपगत सामान्यसंबंधविनायो यस्य कस्यचिद धर्मस्य आश्रम न अस्यात्मा न तु कस्यचिदपि धर्मस्याश्रयो न भवतीति धर्मसामान्यानात्वेनास्यात्मा...धर्मविशेषसंबन्धेन तदभावेन अनेकधर्मणोऽन्यतमधर्मसंबन्धेन द्विपक्षेण वा विवक्षायास यथा अस्त्यात्मा नित्यत्वेन निरवयवत्वेन चेतनत्वेन वा तेषामेवान्यतमधर्मप्रतिपक्षेण नास्त्यात्मा । सप्त भंगीका निरूपण इस प्रकार होता है - १. सर्वसामान्य और तदभावसे 'आत्मा अस्ति' यहाँ सभी प्रकार - के अवान्तर भेदोंको विवक्षा न रहनेपर सर्व विशेष व्यापी सम्मात्रकी दृष्टिसे उसमें 'अस्ति' व्यवहार होता है और उसके प्रतिपक्ष अभाव सामान्यसे 'नास्ति' व्यवहार होता है । २. विशिष्ट सामान्य और तदभाव से आत्मा आत्मत्वरूप विशिष्ट सामान्यकी दृष्टिसे 'अस्ति' है और अनात्मत्व दृष्टिसे 'नास्ति' है ।... ३. विशिष्टसामान्य और तदभाव सामान्यसे । आत्मा 'आत्मत्व' रूपसे अस्ति है तथा पृथिवी जल, पट आदि सब प्रकार से अभाव सामान्य रूपसे 'नास्ति' है ।... ४. विशिष्ट सामान्य और तद्विशेषसे। आत्मा 'आत्मत्व' रूप से अस्ति है, और आत्म विशेष 'मनुष्यरूपसे' 'नास्ति' है । ५. सामान्य और विशिष्ट सामान्यसे । सामान्य दृष्टिसे द्रव्यश्व रूपसे आत्मा 'अस्ति' है और विशिष्ट सामान्य के अभावरूप अनात्मत्व से 'नास्ति' है । ६. द्रव्य सामान्य और गुण सामान्यसे । द्रव्यत्व रूपसे आत्मा 'अस्ति' है तथा प्रतियोगी गुणको दृष्टिसे 'नास्ति' है ७. धर्मसमुदाय और तद्वयतिरेकसे । त्रिकाल गोचर अनेक शक्ति तथा ज्ञानादि धर्म समुदाय रूपसे आत्मा 'अस्ति' है । तथा तदभाव रूपसे नास्ति है । ...८ - धर्म समुदाय सम्बन्ध से और उदभावसे । ज्ञानादि गुणोंके सामान्य सम्बन्ध की दृष्टिसे आत्मा 'अस्ति' है तथा किसी भी समय धर्म सामान्य सम्बन्धका अभाव नहीं होता अतः तदभावकी दृष्टिसे 'नारिय' है... धर्मविशेष सम्बन्ध और सदभावसे किसी विवक्षित धर्म के सम्बन्धकी दृष्टिसे आत्मा 'अस्ति' है तथा उसी के अभावरूपसे 'नास्ति' है । जैसे- आत्मा नित्यत्व या चेतनत्व किसी अमुक धर्म सम्बन्धसे 'अस्ति' है और विपक्षी धर्म से नास्ति है । सी.वा./२/१/६/२६/४६६/११)। , ४. अस्ति नास्ति भंग निर्देश स्या. म. / २३/२८२/७ यथा हि सदसत्वाभ्याम् एवं सामान्य विशेषाभ्यामपि देव स्यात् तथाहि स्यात्सामान्यस्, स्याह विशे...... इति । न चात्र विधिनिषेधप्रकारौ न स्त इति वाच्यम् । सामान्यस्य विधिरूपत्वाद विशेषस्य च व्यावृत्तिरूपतया निषेधात्मकत्वात् । अथवा प्रतिपक्षशब्दत्वाद् यदा सामान्यस्य प्राधान्यं तदा तस्य विधिरूपता विशेषस्य च निषेधरूपता । यदा विशेषस्य पुरस्कारस्तदा तस्य विधिरूपता इतरस्य च निषेधरूपता । जिस प्रकार सम्व अस की दृष्टिसे सप्त भंग होते हैं, उसी तरह सामान्य विशेषको अपेक्षा से भी स्यात् सामान्य स्यात् विशेष.....(आदि) सात भंग होते हैं। प्रश्न- सामान्य विशेषको सप्तभंगी में विधि और निषेध धर्मों की कल्पना कैसे बन सकती है 1 उत्तर- इसमें विधि निषेध धर्मोकी कल्पना बन सकती है। क्योंकि सामान्य विधि रूप है, और विशेष व्यवच्छेदक होनेसे निषेध रूप है। अथवा सामान्य और विशेष दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव जब सामान्यकी प्रधानता होती है उस समय सामान्यके विधिरूप होनेसे विशेष निषेध रूप कहा जाता है, और जब विशेषकी प्रधानता होती है, उस समय विशेषके विधिरूप होनेसे सामान्य निषेध रूप कहा जाता है । ४. नयकी अपेक्षा रा.वा./२/४२/१०/२६१/६ एते त्रयोऽर्थनया एकैकारमका संयुक्ताश्च सप्त वाक्प्रकारान् जनयन्ति । तत्राद्यः संग्रह एकः, द्वितीयो व्यवहार एकः, तृतीयः संग्रहव्यवहारावविभक्तौ चतुर्थ: संग्रहव्यवहारी समुचितौ, पञ्चमः संग्रहः संग्रहव्यवहारौ चाविभक्तौ । षष्ठो व्यवहारः संग्रव्यवहारी पाविभक्ती सप्तमः संग्रहव्यवहारी प्रचिती ती विभक्ती एष खुत्रेऽपि योज्यः । ये तीनों (संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र ) अर्थनय मिलकर तथा एकाकी रहकर सात प्रकारके भंगों को उत्पन्न करते हैं। पहला संग्रह, दूसरा व्यवहार, तीसरा अविभक्त (युगपत् विवक्षित संग्रह व्यवहार चौथा समुचित (कमभिमत समुदाय ) संग्रह व्यवहार, पाँचवाँ संग्रह और अविभक्त संग्रह व्यवहार छठा व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार तथा सातवाँ समुदित संग्रह व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार इसी प्रकार ऋजुसूत्र नय भी लगा लेनी चाहिए । 4 ५. अनन्त सप्त मंगियों की सम्भावना S स्पा. न./२३/२८२ / २ नच वाच्यमे वस्तुनि विधीयमाननिषिध्य मानानन्तधर्माभ्युपगमेनानन्तभङ्गी प्रसाद असते सप्तभङ्गीति । विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुनि अनन्तानामपि सप्तभङ्गीनामेव सम्भवात् । प्रश्न- यदि आप प्रत्येक वस्तुमें अनन्तधर्म मानते हो, तो अनन्त भंगोंकी कल्पना न करके वस्तुमें केवल सात ही भंगों की कल्पना क्यों करते हो 1 उत्तर- प्रत्येक वस्तुमें अनन्तधर्म होनेके कारण वस्तु अनन्त भंग होते हैं । परन्तु ये अनन्त भंग विधि और निषेधकी अपेक्षासे सात ही हो सकते हैं । दे. सप्तभंगी/१/७ [ अस्ति नास्तिकी भांति इसके निरय-अनिश्य, एकअनेक, वक्तव्य - अवक्तव्य आदि धर्मोंमें भी सप्त भंगीकी योजना कर नी चाहिए। ] ४. अस्ति नास्ति भंग निर्देश १. वस्तुकी सिद्धिमें इन दोनोंका प्रधान स्थान रा.वा./१/६/५/पृ.सं. सं. स्वपरात्मोपादानापोव्यवस्थापाय हि सुनो वस्तु यदि स्वस्मित पटाद्यात्मव्यतिरिमतिर्न स्यात सर्वात्मना घट इति व्यपदिश्येत । अथ परात्मना व्यावृत्तावपि, स्वात्मोपादानविपरिणतिर्न स्यात् खरविषाणवदवस्श्वेव स्यात (३३/-' (२१) । यदीतरात्मनापि घटः स्यात् विवक्षितात्मना वाघटः नामादि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी ४. अस्ति नास्ति भंग निर्देश व्यवहारोच्छेदः स्यात् (३३/२६) यदीतरात्मकः स्यातः एक घटमात्रप्रसङ्गः (३३/३०) यदि हि कुशलान्तकपालाद्यात्मनि घटः स्यात् घटावस्थायामपि तदुपलब्धिभंवेव (३४/१)। यदि हि पृथुबुध्नाद्यात्मनामपि घटो न स्यात् स एव न स्यात् । ३४/११) । यदि बा रसादिवद्रपमपि घट इति न गृह्यतः चक्षुर्विषयतास्य न स्यात (१४/१६)। यदि वा इतरव्यपेक्षयापि घटः स्यात्. पटादिष्वपि तरिक्रयाविरहितेषु तच्छन्दवृत्तिः स्यात (३४।२१) । इतरोऽसं निहितोऽपि यदि घटः स्याव; पटादीनामपि स्याद घटत्वप्रसङ्गः (३४/२७)। यदि ज्ञेयाकारेणाप्यघटः स्यातः तदाश्रयेतिकर्तव्यतानिरास: स्यात् । अथ हि ज्ञानाकारेणापि घटः स्यात; (३४/३४) उक्तैः प्रकाररर्पितं घटत्वमघटत्वं च परस्परतो न भिन्नम् । यदि भिद्यत; सामानाधिकरण्येन तद्ब्रुद्ध्य भिधानवृत्तिर्न स्यात् घटपटवत (३३/१) । १. स्वरूप ग्रहण और पररूप त्यागके द्वारा हो वस्तुकी वस्तुता स्थिर की जाती है। यदि पररूपकी व्यावृत्ति न हो तो सभी रूपोंसे घट व्यवहार होना चाहिए। और यदि स्वरूप ग्रहण न हो तो निःस्वरूपत्वका प्रसंग होनेसे यह खरविषाणकी तरह असत हो जायेगा। २. यदि अन्य रूपसे नष्ट हो जाये तो प्रतिनियत नामादि व्यवहारका उच्छेद हो जायेगा (३३/२६) ३. यदि इतर घटके आकारसे भी वह घट 'घट' रूप हो जाये तो सभी घड़े एक रूप हो जायेंगे ( ३३/३०) ४. यदि स्थास, कोस, कुशूल और कपाल आदि अवस्थाओं में घट है तो घट अवस्थामें भी उनकी उपलब्धि होवे। (३४/१) ५. यदि पृथुबुध्नोदर आकारसे भी घड़ा न हो तो घटका अभाव हो जायेगा (३४/११) ६. यदि रसादिकी तरह रूप भी स्वात्मा न हो तो वह चक्षुके द्वारा दिखाई हीन देगा ( ३४-१५)। ७. यदि इतर रूपसे भी घट कहा जाये तो घटन क्रिया रहित पट आदि में घट शब्द का व्यवहार होगा, (३४/२१)। यदि इतर के न होने पर भी घट कहा जाये तो पटादिमें भी घट व्यवहारका प्रसंग प्राप्त होगा (३४/२७) ८. यदि ज्ञयाकारसे घट न माना जाये तो घट व्यवहार निराधार हो जायेगा (३४/३४)। इस प्रकार उक्त रीतिसे सूचित घटत्व और अघटत्व दोनों धमों का आधार घड़ा ही होता है । यदि दोनों में भेद माना जाये तो घट में ही दोनों धर्मों के निमित्त से होने वाली बुद्धि और वचन प्रयोग नहीं हो सकेंगे। (स. म./१४/१७६/६:१७७/१७) । है क्योंकि प्रतीतियोंसे विरोध आ रहा है। (४२२/१४ )। स्वकीय कालमें वस्तु है परकीयकाल में नहीं। यह कथन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि अपने कालका ग्रहण करनेसे और दूसरे कालकी हानि करनेसे वस्तुका वस्तुपना सिद्ध हो रहा है। अन्यथा कालके संकर हो जानेका प्रसंग आता है। सभी कालोंमें सम्पूर्ण वस्तुओं के अभावका प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। दे. सप्तभंगी/१ [ ये दोनों भंगमूल हैं।] स्या. म./१२/१५५/२८ अन्यरूपनिषेधमन्तरेण तत्स्वरूपपरिच्छेदस्याप्य संपत्ते। स्या. म./१४/१७६/१४ सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात स्वरूपस्याप्यसंभवः । स्या. म./२३/२८०/१० स्यात्कथं चिद नास्त्येव कुम्भादिः स्वद्रव्यादिभिरिव परद्रव्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टौ हि प्रतिनियतस्वरूपाभावाद वस्तुप्रतिनियतिर्न स्यात् । न चास्तित्वैकान्तवादिभिरत्र नास्तित्वमसिद्ध मिति वक्तव्यम् । कथंचित् तस्य वस्तुनि युक्तिसिद्धस्वात:साधनवत् । -१. बिना किसी वस्तुका निषेध किये हुए विधिरूप ज्ञान नहीं हो सकता है । २, प्रत्येक वस्तु स्वरूपसे विद्यमान है, पर रूपसे विद्यमान नहीं है । यदि वस्तुको सर्वथा भावरूप स्वीकार किया जाये, तो एक वस्तुके सद्भावमें सम्पूर्ण वस्तुओंका सद्भाव मानना चाहिए, और यदि सर्वथा अभाव रूप माना जाये तो वस्तुको सर्वथा स्वभाव रहित मानना चाहिए । ३. घट आदि प्रत्येक वस्तु कथं चित् नास्ति रूप ही है। यदि पदार्थको स्व चतुष्टयकी तरह पर चतुष्टयसे भी अस्तिरूप माना जाये, तो पदार्थका कोई भी निश्चित स्वरूप सिद्ध नहीं हो सकता। सर्वथा अस्तित्ववादी भी वस्तुमें नास्तित्व धर्मका प्रतिषेध नहीं करते, क्योंकि जिस प्रकार एक ही साधनमें किसी अपेक्षासे अस्तित्व और किसी अपेक्षासे नास्तित्व सिद्ध होता है. उसी प्रकार अस्ति रूप वस्तुमें कथंचित नास्ति रूप भी युक्तिसे सिद्ध होता है। २. दोनों में अविनाभावी सापेक्षता न. च. वृ./३०४ अत्थितं णो मण्णदि पत्थिसहावस्स जो हु सावेक्वं । णत्थी विय तहदम्वे मूढी मूढो दु सव्वस्थ । जो अस्तित्वको नास्तित्वके सापेक्ष तथा नास्तित्वको अस्तित्वके सापेक्ष नहीं मानता है, तथा द्रव्यमें जो मूढ है वह सर्वत्र मूढ है।३०४।। भा. पा./टी./५७/२०४/१० एकस्य निषेधोऽपरस्य विधिः । एकका निषेध ही दूसरे की विधि है। पंध./पू/६५५ न कश्चिन्नयो हि निरपेक्षः सति च विधौ प्रतिषेधः, प्रतिषेधे सति विधेः प्रसिद्धत्वात् ।६५५१ कोई भी नय निरपेक्ष नहीं है किन्तु विधिके होनेपर प्रतिषेध और प्रतिषेधके होनेपर विधिकी प्रसिद्धि है।६५॥ स, भ. त./५३/६ अस्तित्व स्वभाव नास्तित्वेनाविनाभूतम् । विशेषणत्वात बैघर्म्यवत-अस्तित्व स्वभाव नास्तित्बसे व्याप्त है क्योकि वह विशेषण है जैसे वैधर्म्य । ३. दोनोंकी सापेक्षतामें हेतु रा.वा./४/४२/१५/२५४/१४ स्यादेतत्-यदस्ति तव स्वायत्तद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण भवति नेतरेण तस्याप्रस्तुतत्वात् । यथा घटो द्रव्यतः पाथिवत्वेन, क्षेत्रत इहत्यतया कालतो वर्तमानकालसंबन्धितया, भावतो रक्तवादिना, न परायत्तईब्यादिभिस्तेषामप्रसक्तस्वात इति ।.. यदि हि असो द्रव्यतः पार्थिवत्वेन तथोदकादित्वेनापि भवेत. ततोऽसी घट एव न स्यात् पृथिव्युदकदहनपवनादिषु वृत्तत्वाद द्रव्यत्ववत । तथा, यथा इहत्यतया अस्ति तथाविरोधिदिगन्तानियतदेशस्थतयापि यदि स्यात्तथा चासौ घट एव न स्यात विरोधिदिगन्तानियतसर्वदेशस्थस्वात आकाशक्त् । तथा, यथा वर्तमानघटकालतया अस्ति तथातीतशिवकाद्यनागतकपालादिकालतयापि स्याव तथा चासौ घट एव श्लो.वा./२/१/६/२२ पृष्ठ सं./पंक्ति सं. सर्व वस्तु स्वद्रव्येऽस्ति न परद्रव्य तस्य स्वपरद्रव्यस्वीकारतिरस्कारव्यवस्थितसाध्यत्वात्। स्वद्रव्यवत परद्रव्यस्य स्त्रीकारे द्रव्याद्वैतप्रसक्तेः स्वपरद्रव्यविभागाभावात्। तच्च विरुद्धम् । जीवपुद्गलादिद्रव्याण भिन्नलक्षणानां प्रसिद्ध (४२०/ १७) । तथा स्वक्षेत्रेऽस्ति परक्षेत्रे नास्तीत्यपि न विरुध्यते स्वपरक्षेत्रप्राप्तिपरिहाराभ्यां वस्तुनो वस्तुत्व सिद्ध रन्यथा क्षेत्रसंकरप्रसङ्गात् । सर्वस्याक्षेत्रत्वापत्तेश्च । न चैतत्साधीयः प्रतीतिविरोधात (४२२) १४) । तथा स्वकालेऽस्ति परकाले नास्तीत्यपि न विरुद्ध स्वपरकालग्रहणपरित्यागाभ्यां बस्तुनस्तत्त्वं प्रसिद्धरन्यथाकालसकर्यप्रसङ्गात् । सर्वदा सर्वस्थाभावप्रसङ्गाच्च (४२३/२३ ) । सम्पूर्ण वस्तु अपने द्रव्यमें है पर द्रव्यमें नहीं है क्योंकि वस्तुकी व्यवस्था स्वकीय द्रव्यके स्वीकार करनेसे और परकीय द्रव्यके तिरस्कार करनेसे साधी जाती है। यदि वस्तु स्व द्रव्यके समान परद्रव्यको भी स्वीकार करे तो संसारमें एक ही द्रव्य होनेका प्रसंग हो जायेगा। स्वद्रव्य व परद्रव्यका विभाग न हो सकेगा। किन्तु बद्र मुक्त आदिका विभाग न होना प्रतीतियोंसे विरुद्ध है क्योंकि जीव, पुद्गल भिन्न लक्षणवाले अनेक द्रव्य प्रसिद्ध हैं ।४२०/१७ । वस्तु स्वक्षेत्रमें है पर क्षेत्रमें नहीं है, यह कहना भी विरुद्ध नहीं है। क्योंकि स्वकीय क्षेत्रकी प्राप्तिसे परकीय क्षेत्रके परित्यागसे वस्तुका वस्तुपना सिद्ध हो रहा है। अन्यथा क्षेत्रोंके संकर होने का प्रसंग होगा। तथा सम्पूर्ण पदार्थोंको क्षेत्ररहितपनेकी आपत्ति हो जायेगी। किन्तु यह क्षेत्ररहितपना प्रशस्त नहीं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी ३२० ४. अस्ति नास्ति भंग निर्देश न स्यात् सर्वकालसंबन्धित्वात मृद्धद्रव्यवत् ।...तथा, यथा नवत्वेन तथा पुराणत्वेन, सर्व रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यासंस्थानादित्वेन वा स्यादः तथा चासौ घट एव न स्यात सर्वथा भावित्वात भवनवत् । जो अस्ति है वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे ही है, इतर द्रव्यादिसे नहीं, क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं। जैसे घड़ा पार्थिव रूपसे, इस क्षेत्रसे. इस कालकी दृष्टिसे तथा अपनी वर्तमान पर्यायोंसे अस्ति है अन्यसे नहीं, क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं।...यदि घड़ा पार्थिवत्वकी तरह जलादि रूपसे भी अस्ति हो जाये तो जलादि रूप भी होनेसे वह एक सामान्य द्रव्य बन जायेगा न कि घड़ा। यदि इस क्षेत्रकी तरह अन्य समस्त क्षेत्रों में भी घड़ा 'अस्ति' हो जाये तो वह घड़ानहीं रह पायेगा किन्तु आकाश बन जायेगा। यदि इस कालकी तरह अतीत अनागत कालसे भी वह 'अस्ति' हो तो भी घड़ा नहीं रह सकता किन्तु त्रिकालानुयायी होनेसे मृद द्रव्य बन जायेगा। इसी तरह जसे वह नया है उसी तरह पुराने या सभी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संस्थान आदिकी दृष्टिसे भी 'अस्ति' हो तो वह घड़ा नहीं रह जायेगा किन्तु सर्वव्यापी होनेसे महासत्ता बन जायेगा। ४. नास्तित्व मंगकी सिद्धि में हेतु श्लो, वा./२/१/६/१२/४१७/१७ कचिदस्तित्वसिद्धिसामर्थ्यात्तस्यान्यत्र नास्तित्वस्य सिद्धेर्न रूपान्तरस्वमिति चेत् व्याहतमेतत् । सिद्धौ सामर्थ्यसिद्धच न रूपान्तरं चेति कथमवधेयं कस्यचिव कचिन्नास्तिस्वसामर्थ्याच्चास्तित्वस्य सिद्धेस्ततो रूपान्तरत्वाभावप्रसगात् । - प्रश्न -अस्तित्व के सामर्थ्य से उसका दूसरे स्थलोंपर नास्तित्व अपने आप सिद्ध हो जाता है, अतः अस्तित्व और नास्तित्व ये दो भिन्न स्वरूप नहीं हैं। उत्तर-यह व्याघात दोष है कि एककी सिद्धिपर अन्यतरको सामर्थ्यसे सिद्धि कहना और फिर उनको - भिन्न स्वरूप न मानना । (स्या. म../१६/२००/१२)। पं.ध./पू./श्लोक सं. अस्तीति च वक्तव्यं यदि वा नास्तीति तत्त्व संसिद्ध्यै । नोपादान पृथगिह युक्तं तदनर्थकादिति चेव ।२६०॥ तन्ने यतः सर्वस्व तदुभयभावाध्यवसितमेवेति। अन्यतरस्य विलोपे तदितरभावस्य निह्नवापत्तेः ।२६१न पटाभावो हि घटो न पटाभावे घटस्य निष्पत्तिः । न घटाभावो हि पटः पटसर्गो वा घटव्ययादिति च ।२६७। तरिक व्यतिरेकस्य भावेन विनान्वयोऽपि नास्तीति ।२६८ तन्न यतः सदिति स्यादद्वैतं द्वैतभावभागपि च । तत्र विधौ विधिमात्र तदिह निषेधे निषेधमात्रं स्यात् ।२६१ प्रश्न-तत्त्व सिद्धिके अर्थ केवल अस्ति अथवा केवल नास्ति ही कहना चाहिए, क्योंकि दोनोंका मानना अनर्थक है अतः दोनोंका ग्रहण करना युक्त नहीं है।२६०। उत्तर--यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यका स्वरूप अस्ति नास्तिरूप भावसे युक्त है, इसलिए एकको माननेपर उससे भिन्नके लोपका प्रसंग प्राप्त होता है ।२६श प्रश्न-निश्चयसेन पटका अभाव घट है और न पटके अभावमें घटकी उत्पत्ति होती है। तथा न घटका अभाव पट है और न घट के नाशसे पटकी उत्पत्ति होती है ।२६७। तो फिर व्यतिरेकके सद्भाव बिना अन्वयको सिद्धि नहीं होती, यह कैसे ।२६। उत्तर-यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँपर सव द्वैत भावका धारण करनेवाला है तो भी अद्वैत ही है क्योंकि उस सत्र में विधि विवक्षित होनेपर वह सत केवल विधिरूप और निषेधमें केवल निषेध रूप प्रतीत होता है ।२६।। ५. नास्तित्व वस्तुका धर्म है तथा तद्गत शंका रा. वा./१/४/१५/२६/१५ कथमभावो निरूपाख्यो बस्तुनो लक्षणं भवति । अभावोऽपि वस्तुधर्मो हेत्वङ्गत्वादेः भाववत् । अतोऽसौ लक्षणं युज्यते। स हि वस्तुनो लक्षण न स्यात् सर्वसंकरः स्यात। प्रश्न-अभाव भी वस्तुका लक्षण कैसे होता है ? उत्तर-अभाव भी वस्तुका धर्म होता है जैसे कि विपक्षाभाव हेतुका स्वरूप है । यदि अभावको वस्तुका स्वरूप ने माना जाये तो सर्व सांकर्य हो जायेगा क्योकि प्रत्येक वस्तुमें स्वभिन्न पदार्थोंका अभाव होता ही है। (रा. वा./४/४२/११ २५६/४)। स. भ. त./पृ./4. सं. ननु पररूपेणासत्त्वं नाम पररूपासत्त्वमेव । न हि घटे पटस्वरूपाभावधटे नास्तीति वक्तुं शक्यम् । भूतले घटाभावे भूतले घटो नास्तीति वाक्यप्रवृत्तिवत घटे पटस्वरूपाभावे पटो नास्तीत्येव वक्तुमुचितत्वात | इति चेन्न-विचारासहत्वात् । घटादिषु पररूपासत्त्वं पटादिधर्मो घटधर्मो वा । नाद्यः, व्याघातात् । न हि पटरूपासत्त्वं पटेऽस्ति। पटस्य शून्यत्वापत्तेः । न च स्वधर्मः स्वस्मिन्नास्तीति वाच्यम्। तस्य स्वधर्मस्व विरोधाद। पटधर्मस्य घटाद्याधारकत्वायोगाच्च । अन्यथा वितानविवितानाकारस्यापि तदाधारकत्वप्रसंगाद । अन्त्यपक्षस्वीकारे तु विवादो विश्रान्तः। (८३/७) घटे पटरूपासत्त्वं नाम घटनिष्ठाभावप्रतियोगित्वम् । तच्च घटधर्मः। यथा भूतले घटो नास्तीत्यत्र भूतलनिष्ठाभावप्रतियोगित्वमेव भूतले नास्तित्वम् तच्च घटधर्मः। इति चेन्न; तथापि पटरूपाभावस्य घटधर्मत्वाविरोधात, घटाभावस्य भूतलधर्मत्ववत । तथा च घटस्य भावाभावात्मकत्वं सिद्धम् । कथं चित्तादात्म्यलक्षणसंबन्धेन संबन्धिन एव स्वधर्मत्वात (८४/३); नन्वेवं रीत्या घटस्य भावाभावात्मकत्वे सिद्धऽपि घटोऽस्ति पटो नास्तीत्येव वक्तव्यम् (८५/१); घटस्य भावाभावात्मकत्वे सिद्धेऽस्माकं विवादो विश्रान्तः समीहितसिद्धः। शब्दप्रयोगस्तु पूर्वपूर्वप्रयोगानुसारेण भविष्यति । न हि पदार्थ सत्ताधीनश्शब्दप्रयोगः (८५/७ ); घटादौ वर्तमानः पटरूपाभावो घटाद्भिन्नोऽभिन्नो वा । यदि भिन्नस्तस्यापि परत्वात्तदभावस्तन्न कल्पनीयः(८६/१) यद्यभिन्नस्तहि सिद्ध स्वस्मादभिन्नेन भावधर्मेण घटाकी सत्त्ववदभावधर्मेण तादृशेनासत्त्वमपि स्वीकरणीयमिति (८६/४);-प्रश्नपररूपसे असत्त्व नाम परकीय रूपका असत्व अर्थात दूसरे पट आदिका रूप घट में नहीं है। क्योंकि घटमें पट स्वरूपका अभाव होनेसे घट नहीं है ऐसा नहीं कह सकते किन्तु भूतल में घटका अभाव होनेपर भूतल में घट नहीं है, इस वाक्यकी प्रवृत्तिके समान घटमें पटके स्वरूपका अभाव होनेसे घट में पट नहीं है यह कथन उचित है ? उत्तर-नहीं, क्यों कि घट आदि पदार्थों में जो पट आदि रूपका असत्त्व है वह पट आदिका धर्म है अथवा घटका है, प्रथम पक्ष माननेपर पट रूपका ही व्याघात होगा, क्योंकि पटरूपका असत्त्व पट नहीं है। और स्वकीय धर्म अपने में ही नहीं है ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि तब तो स्वधर्मत्व इस कथनका ही विरोध हो जायेगा। और पटके धर्मका आधार घट आदि पदार्थ हो नहीं सकते, क्योंकि ऐसा माननेसे घट भी ताना-बाना का आधार हो जायेगा। पटरूप का असत्त्व भी 'घटका धर्म है ऐसा माननेपर तो विवादका ही विश्राम हो जायेगा (८३/७) । प्रश्न-घट में पटरूपके असत्त्वका अर्थ यह है कि घटमें रहनेवाला जो अन्य पदार्थोंका अभाव, उस अभावका प्रतियोगी रूप और यह घटधर्म रूप होगा। जैसे भूतलमें घट नहीं है यहाँपर भूतल में रहनेवाला जो अभाव उस अभावकी प्रतियोगिता ही भूतल में नास्तिता रूप पड़ती है और प्रतियोगिता वा नोस्तिता घटका धर्म है ? उत्तरनहीं, क्योंकि, पटरूपका जो अभाव उसके घट धर्म होनेसे कोई भी विरोध नहीं है । जैसे कि भूतल में घटाभाव भूतलका धर्म है। इस रीतिसे घटके भाव-अभाव उभयरूप सिद्ध हो गये। क्योंकि किसी अपेक्षासे तादात्म्य अर्थाद-अभेद सम्बन्धसे सम्बन्धी हीको स्वधर्मरूपता हो जाती है (८४/३); प्रश्न-पूर्वोक्त रीतिसे घटकी भाव-अभाव उभयरूपता सिद्ध होनेपर भी घट है पट नहीं है ऐसा ही प्रयोग करना चाहिए, न कि घट नहीं है ऐसा प्रयोग (८/१)। उत्तर-घटके भाव-अभाव उभय स्वरूप सिद्ध होनेसे हमारे विवाद की समाप्ति है, क्योंकि उभयरूपता माननेसे ही हमारे अभीष्ट की सिद्धि है। और शब्द प्रयोग तो पूर्व-पूर्व प्रयोगके अनुसार होगा। क्योंकि शब्द प्रयोग पदार्थ की सत्ताके वशीभूत नहीं है। (८५/७ ) और भी घट आदिमें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगो ५. अनेक प्रकारसे अस्तित्व नास्तित्व प्रयोग पररूपका जो अभाव है वह घटसे भिन्न है अथवा अभिन्न है। यदि घटसे भिन्न है तब तो उसके भी पट होनेसे वहाँ उसके अभाव हीकी कल्पना करनी चाहिए (८६/१); यदि पटरूपाभाव घटसे अभिन्न है तो हमारा अभीष्ट सिद्ध हो गया, क्योंकि अपनेसे अभिन्न भाव धर्मसे घट आदि में जैसे सत्त्वरूपता है ऐसे ही अपनेसे अभिन्न अभाव धर्म से असत्त्व रूपता भी घट आदिमें स्वीकार करनी चाहिए। ही, यदि उसमें हम विशिष्ट घटरूपता स्वीकार करना चाहते हैं तो वह पटादिकी ससाका निषेध करके ही आ सकती है। अन्यथा वह घट नहीं कहा जा सकता क्योंकि पटादि रूपोंकी व्यावृत्ति न होनेसे उसमें पटादिरूपता भी उसी तरह मौजूद है। (स्या, म./२३/२८०/ १०); ( स. भ. त./८३/५)। ५. अनेक प्रकारसे अस्तित्व नास्तित्व प्रयोग ६. उभयात्मक तृतीय भंगकी सिद्धि में हेतु रा. वा./४/४२/१५/२५५-२५६/६ इतश्च स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्वपरसत्ता भावाभावोभयाधीनत्वात जीवस्य । यदि परसत्तया अभावं स जीवं स्वात्मनि नापेक्षते, अतः स जीव एव न स्यात् सन्मानं स्यात नासौ जीवः सत्त्वे सति विशेषरूपेण अनवस्थितत्वात सामान्यवत् । तथा परसत्ताभावापेक्षायामपि जीवत्वे यदि स्वसत्तापरिणति नापेक्षते तथापि तस्य वस्तुत्वमेव न स्यात् जीवत्वं वा, सद्भावापरिणत्वे परभावमात्रत्वात् खपुष्पवत् । अतः पराभावोऽपि स्वसत्तापरिणत्यपेक्ष एव अस्तित्वस्वात्मवत ।...किं हि वस्तुसर्वात्मकं सर्वाभावरूपं वा दृष्टमिति ।...अभावः स्वसद्भावं भावाभावं च अपेक्षमाणः सिध्यति। भावोऽपि स्वसद्भावम् अभावाभावं चापेक्ष्य सिद्धिमुपयाति । यदि तु अभाव एकान्तेनास्ति इत्यभ्युपगम्येत ततः सर्वात्मनास्तित्वात स्वरूपवद्भावात्मनापि स्यात्, तथा च भावाभावरूपसं करादस्थितरूपत्वादुभयोरप्यभावः। अथ एकान्तेन नास्ति इत्यभ्युपगम्येत ततो यथा भावात्मना नास्ति तथा भावात्मनापि न स्यात्, ततश्च अभावस्याभावात् भावस्याप्रतिपक्ष त्वात् भावमात्रमेव स्यात् । तथा खपुष्पादयोऽपि भावा एव अभावभावरूपत्वात घटवत इति सर्वभावप्रसङ्गः ।...एवं स्वात्मनि घटादिवस्तु सिद्धौ च भावाभावयोः परस्परापेक्षत्वात् यदुच्यते "अति प्रकरणाद्वा घटे अप्रसक्तायाः पटादिसत्तायाः किमिति निषेधः क्रियते"। इति; तदयुक्तम् । किंच घटे अर्थत्वात अर्थसामान्यात पटादिसर्वार्थप्रसंगः संभवत्येव । तत्र विशिष्ट घटार्थत्वम् अभ्युपगम्यमानं पटादिसत्तारूपस्थार्थसामर्थ्य प्रापितस्य अर्थतत्त्वस्य निरासेनैव आत्मानं शक्नोति लन्धुम, इतरथा हि असौ घटार्थ एव न स्यात् पटाद्यर्थरूपेणानिवृत्तत्वात् पटाद्यर्थस्वरूपवत्, विपरीतो वा 1-१. स्वसद्भाव और परअभावके आधीन जीवका स्वरूप होनेसे वह उभयात्मक है। यदि जीव परसत्ताके अभावकी अपेक्षा न करे तो वह जीव न होकर सन्मात्र हो जायेगा। इसी तरह परसत्ताके अभावकी अपेक्षा होनेपर भी स्वसत्ताका सद्भाव न हो तो वह वस्तु ही नहीं हो सकेगा, जीव होनेकी बात तो दूर ही रही। अतः परका अभाव भी स्वसत्ता सद्भावसे ही वस्तुका स्वरूप बन सकता है ।...क्या कभी वस्तु सर्वाभावत्मक या सर्व-सत्तात्मक देखी गयी है !...इस तरह भावरूपता और अभावरूपता दोनों परस्पर सापेक्ष हैं अभाव अपने सद्भाव तथा भावके अभावकी अपेक्षा सिद्ध होता है तथा भाव स्वसद्भाव और अभावके अभावकी अपेक्षासे सिद्ध होता है । २. यदि अभावको एकान्तसे अस्ति स्वीकार किया जाये तो जैसे वह अभाव रूपसे अस्ति है उसी तरह भावरूपसे भी 'अस्ति' हो जानेके कारण भाव और अभावमें स्वरूप सांकर्य हो जायेगा। यदि अभावको सर्वथा 'नास्ति' माना जाये तो जैसे वह भावरूपसे नास्ति है उसी तरह अभावरूपसे भी नास्ति होनेसे अभावका सर्वथा लोप हो जानेके कारण भावमात्र ही जगत् रह जायेगा। और इस तरह खपुष्प आदि भी भावात्मक हो जायेंगे । अतः घटादिक भाव स्यादस्ति और स्याद्नास्ति हैं। इस तरह घटादि वस्तुओं में भाव और अभावको परस्पर सापेक्ष होनेसे प्रतिवादीका कथन यह है कि "अर्थ या प्रकरणसे जब घटमें पटादिकी सत्ताका प्रसंग ही नहीं है, तब उसका निषेध क्यों करते हो!" अयुक्त हो जाता है। किंच, अर्थ होनेके कारण सामान्य रूपसे घटमें पटादि अर्थों की सत्ताका प्रसग प्राप्त है १. स्वपा द्रव्य गुण पर्यायकी अपेक्षा रा. वा./२/६/५/पृ./पं. स. तत्र स्वात्मना स्याघट', परात्मना स्याद घटः । को वा घटस्य स्वात्मा को बा परात्मा। घटबुद्धयभिधानप्रवृत्तिलिङ्गः स्वात्मा, यत्र तयोरप्रवृत्तिः स परात्मा पटादिः ।...नामस्थापनाद्रव्यभावेषु यो विवक्षितः स स्वारमा, इतरः परात्मा । तत्र विवक्षितात्मना घटः, नेतरात्मना ।३३।२०। घटशब्दप्रयोगानन्तरमुत्पद्यमान उपयोगाकारःस्वात्मा...बाह्यो घटाकारः परात्मास घट उपयोगाकारेणास्ति नान्येन (...तत्र ज्ञेयाकारः स्वात्मा.."ज्ञानाकारः परात्मा 1३४।२४। -स्वात्मासे कथंचित घड़ा है, और परात्मासे कथचिव अघट है। प्रश्न-घड़ेके स्वात्मा और परात्मा क्या हैं ! उत्तरजिसमें घट बुद्धि और घट शब्दका व्यवहार है वह स्वात्मा तथा उससे भिन्न पटादि परात्मा हैं ।...नाम, स्थापना, द्रव्य और भावनिक्षेपोंका जो आधार होता है वह स्वात्मा तथा अन्य परात्मा है ३३।२०। घट शब्द प्रयोगके बाद उत्पन्न घट ज्ञानाकार स्वात्मा है...बाह्य घटाकर परात्मा है। अत: घड़ा उपयोगाकारसे है अन्यसे नहीं है ।.."याकार स्वात्मा है...और ज्ञानाकार परात्मा है। घ.६/४.१,४५/पृष्ठ सं./पं. सं. स्वरूपादिचतुष्टयेन अस्ति घटः, ...पररूपादिचतुष्टयेन नास्ति घटः, ...मृद्घटो मृघटरूपे अस्ति, न कल्याणादि घटरूपेण । (२१३।४) तत्परिणतरूपेणास्ति घटः, न नामादिघटरूपेण (२१४१) अथवोपयोगरूपेणास्ति घटः, नार्थाभिधानाभ्याम् ।...अथवोपयोगघटोऽपि वर्तमानरूपतयास्ति, नातीतानागतोपयोगघटै।। अथवा घटोपयोगघटः स्वरूपेणास्ति. न पटोपयोगादिरूपेण ।...इत्यादिप्रकारेण सकलार्थानामस्तित्व-नास्तित्वावक्तव्यभङ्गा योज्याः ! ( २१४६) -स्वरूपादि चतुष्टयके द्वारा घटं है...पररूपादि चतुष्टयसे 'घट नहीं है'...मिट्टी का घर मिट्टी के घट रूप से है. स्वर्ण के घट रूप से नहीं है। (२१३।४) अथवा घटरूप पर्यायसे परिणत स्वरूपसे घट है, नामादि रूपसे वह घट नहीं है (२१४।६) उपयोग रूपसे घट है और अर्थव अभिधानको अपेक्षा वह नहीं है...अथवा उपयोग घट भी वर्तमान रूपसे है, अतीत व अनागत उपयोग घटोंकी अपेक्षा वह नहीं है...अथवा घटोपयोग स्वरूपसे घट है, पटोपयोगादि स्वरूपसे नहीं है।...इत्यादि प्रकारसे सब पदार्योंके अस्तित्व, नास्तित्व व अवक्तव्य भंगोंको कहना चाहिए। स. सा./आ./परि./क. २५२-२५३ स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुर्ण सद्यः समुन्मज्जता, स्याद्वादी...२५२। स्याद्वादी तु समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तिताम् ।२५३। स्याद्वादी तो, आश्माको स्वद्रव्यरूपसे अस्तिपनेसे निपुणतया देखता है ।२५२। और स्याद्वादी तो, समस्त वस्तुओं में परद्रव्य स्वरूपसे नास्तित्वको जानता है ।२५३। स्या. म./२३/२७६/३० कुम्भो द्रव्यतः पार्थिवत्वेनास्ति। नाबादिरूपत्वेन । - घड़ा द्रव्यकी अपेक्षा पार्थिव रूपसे विद्यमान है जलरूपसे नहीं। २. स्व-पर क्षेत्रकी अपेक्षा रा. वा./१/६/५/पृष्ठ/पंक्ति अथवा, तत्र विवक्षितघटशब्दवाच्यसादृश्यसामान्यसंबन्धिषु कस्मिंश्चिद् घटविशेषे परिगृहीते प्रतिनियतो यः भा०४-४१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कीश Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी ३२२ ५. अनेक प्रकारसे अस्तित्व नास्तित्व प्रयोग संस्थानादिः स स्वात्मा, इतरः परात्मा। तत्र प्रतिनियतेन रूपेण घटः वेदी पुनः...|२५७) =स्याद्वादका ज्ञाता तो आत्माका निज कालसे नेतरेण (३३।२८)। परस्परोपकारवतिनि पृथुबुध्नाद्याकारः स्वात्मा, अस्तित्व जानता हुआ"।२५६१ स्याद्वादका ज्ञाता तो परकालसे इतरः परात्मा । तेन पृथुबुघ्नाद्याकारेण स घटोऽस्ति नेतरेण । (३४)। आरमाका नास्तित्व जानता (है)।२५८॥ = घट शब्दके वाच्य अनेक घड़ोंमें-से विवक्षित अमुक घटका जो स्या. म/२३/२७६/१ ( घटः) कालतः शै शिरत्वेन । न वासन्तिकादिआकार आदि है वह स्वात्मा, अन्य परात्मा है । सो प्रतिनियत रूपसे त्वेन । -( घटः) कालकी अपेक्षा शीत ऋतुकी दृष्टिसे है, बसन्त घट है, अन्य रूपसे नहीं (३३३२८)। (प्रत्युत्पन्न घट क्षणमें रूप, रस, ऋतुकी दृष्टिसे नहीं। गन्ध ) पृथुबुध्नोदराकार आदि अनेक गुण और पर्यायें हैं। अतः पं.ध/पू/१४६ अपि चैकस्मिन् समये यकाप्यवस्था भवेन्न साप्यन्या। घड़ा पृथुबुध्नोदराकारसे 'है' क्योंकि घट व्यवहार इसी आकारसे भवति च सापि तदन्या द्वितीयसमयोऽपि कालव्यतिरेकः ।१४।। होता है अन्यसे नहीं। -एक समयमें जो अवस्था होती है वह वह ही है अन्य नहीं। ध.६/४,१,४५/२१४/५ अर्पितसंस्थानघटः अस्तिस्त्ररूपेण, नापितसंस्थान- और दूसरे समय में भी जो अवस्था होती है वह भी उससे अन्य ही घटरूपेण । अथवापितक्षेत्रवृत्तिर्धटोऽस्ति स्वरूपेण नानर्पितक्षेत्र- होती है पहली नहीं ।१४६। (पं.ध./पू./१७२/४६७)। वृतैर्घटैः । -विवक्षित आकारयुक्त घट स्वरूपसे है, अविवक्षित ४. स्व-पर भावकी अपेक्षा आकार रूप घट स्वरूपसे नहीं है ।...अथवा विवक्षित क्षेत्र में रहनेवाला घट अपने स्वरूपसे है, अविवक्षित क्षेत्रमें रहनेवाले घटों की अपेक्षा वह रा. वा/१/६/२/३४/१४रूपमुखेन घटो गृह्यत इति रूपं स्वात्मा, रसादिः नहीं है। परात्मा। स घटो रूपेणास्ति नेतरेण रसादिना। ...तत्र घटनक्रिया स. सा./आ./२५४-२५५ स्त्रक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्याद्वादवेदी विषयकतभावः स्वात्मा, इतरः परात्मा। तत्राद्य'न घटः नेतरेण । पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्य नियतव्यापारशक्तिर्भवन् ।२५४॥ -घड़ेके रूपको आँखसे देखकर ही घटके अस्तित्वका व्यवहार स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तिता...॥२५॥ होता है अतः रूप स्वारमा है तथा रसादि परात्मा। क्योंकि घड़ा -स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रसे अस्तित्व के कारण जिसका वेग रुका हुआ रूपसे है अन्य रसादि रूपसे नहीं।...घटका घटनक्रियामें कर्ता रूपसे है, ऐसा होता हुआ, आत्मामें ही ज्ञेयोंमें निश्चित व्यापारकी उपयुक्त होने वाला स्वरूप स्वात्मा है और अन्य परात्मा। शक्तिवाला होकर, टिकता है ।२५४। स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमें रहता ध.६/४,१,४५४२१४/१ रूपघटो रूपघटरूपेणास्ति, न रसादिघटरूपेण । हुआ, परक्षेत्र में अपना नास्तित्व जानता ( है ) ।२५५॥ ...रक्तघटो रक्तघटरूपेणास्ति, न कृष्णादिघटरूपेण । “अथवा नवस्या. म./२३/२७१/१ क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकत्वेन । न कान्यकुब्जादित्वेन । घटो नवघटरूपेणास्ति, न पुराणादिषटरूपेण । -रूपघट रूपघट - (घट ) क्षेत्रकी अपेक्षा पटना नगरकी अपेक्षा मौजूद है, कन्नौजकी रूपसे है, रसादि घट रूपसे नहीं, ...रक्तघट रक्तघट रूपसें है कृष्णादि अपेक्षा नहीं। घट रूपसे नहीं है। ...अथवा नवीन घट नवीन घट स्वरूपसे है, पं.ध./पू./१४८ अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् । पुराने आदि घट स्वरूपसे नहीं। - तत्तत्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेकः । =जो एक देश स. सा./आ./परि./क. २५८-२५६ सर्वस्मानियतस्वभावभवनज्ञानाद्विजितने क्षेत्रको रोककर रहता है वह उस देश (द्रव्य ) का स्वक्षेत्र भक्तो भवत् स्याद्वादी...।२५८। स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति है । अन्य असका नहीं है, किन्तु दूसरा दूसरा हो है, पहला स्वस्य स्वभाव भरादारूढः परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः पहला ही। १२५६। = स्याद्वादी तो अपने नियत स्वभावके भवन स्वरूप ज्ञानके कारण सत्र (परभावों) से भिन्न वर्तता हुआ...।२५८॥ स्याद्वादी तो ३. स्व-पर कालकी अपेक्षा अपने स्वभावमें अत्यन्त आरूढ होता हुआ, परभाव रूप भवनके रा. वा./२/६/५/३३/३२ तस्मिन्नेत्र घट विशेषे कालान्तरावस्थायिनि अभावकी दृष्टिके कारण निष्कम्प वर्तता हुआ ।२५६) पूर्वोत्तरकुशलान्तकपालाद्यवस्थाकलापः परात्मा, तदन्तरालवर्ती स्या. म./२३२७४/२ (घटः) भावतः श्यामत्वेन । न रक्तादित्वेन । स्वात्मा। स तेनैव घटः तत्कर्म गुणव्यपदेशदर्शनात नेतरात्मना ।... -घट भावकी अपेक्षा काले रूपसे मौजूद है, लाल रूपसे नहीं। अथवा अजुसूत्रनयापेक्षया प्रत्युत्पन्नघटस्वभावः स्वात्मा, घटपर्याय ___ पं. ध/पू./१५० भवति गुणांशः कश्चित् स भवति नान्यो भवति न एवातीतोऽनागतश्च परात्मा। तेन प्रत्युत्पन्नस्वभावेन सता स घटः चाप्यन्यः । सोऽपि न भवति तदन्यो भवति तदन्योऽपि भावव्यतिनेतरेणासता। - अमुक घट भी द्रव्यदृष्टिसे अनेक क्षणस्थायी होता रेकः ।१५० =जो कोई एक गुणका अविभागी प्रतिच्छेद है वह है। अतः अन्वयी मृगद्रव्यकी अपेक्षा स्थास कोश कुशल घट कपाल वह ही होता है, अन्य नहीं हो सकता। और दूसरा भी पहला आदि पूर्वोत्तर अवस्थाओं में भी घट व्यवहार हो सकता है। इनमें नहीं हो सकता है। किन्तु उससे भिन्न है वह उससे भिन्न ही स्थास, कोश, कुशूल और कपाल आदि पूर्व और उत्तर अवस्थाएं रहता है ।१५० परात्मा हैं तथा मध्य क्षणवर्ती घट अवस्था स्वात्मा है ।...अथवा ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिसे एक क्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है, और अतीत ५. वस्तुके सामान्य विशेष धर्मोकी अपेक्षा अनागतकालीन उस घटकी पर्यायें परात्मा हैं। क्योंकि प्रत्युत्पन्न न्या.वि./मू./३/६६/३५० द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषप्रविभागतः। स्यास्वभावसे घट है, अन्यसे नहीं। द्विधिप्रतिषेधाम्यां सप्तभङ्गी प्रवतते। =द्रव्य अर्थात सामान्य और "ध.६/४.१,४५/२१४/६ तत्परिणतरूपेणास्ति घटः, न पिण्ड-कपालादिप्राक पर्याय अर्थात् विशेष; द्रव्य सामान्य व द्रव्य विशेष में तथा पर्याय प्रसाभावः विरोधात् ।...वर्तमानो घटो वर्तमानघटरूपेणास्ति, सामान्य व पर्याय विशेषमें कथं चित्र विधि प्रतिषेधके द्वारा तीन नातोतानागतघटैः। = घट पर्यायसे घट है, प्राग्भावरूप पिण्ड सप्तभंगी प्रवर्तती है। और प्रबंसाभावरूप कपाल पर्यायसे वह नहीं है, क्योंकि वैसा ध.६/४,१,४५/पृष्ठ/पंक्ति पर्यायघटः पर्यायघटरूपेणास्ति, न द्रव्यघटमाननेमें विरोध है ।...तमान घट वर्तमान रूपसे है, अतीत व रूपेण (२१५/७ ) अथवा व्यञ्जनपर्यायेणास्ति घटः नार्थपर्यायेण अनागत घटों की अपेक्षा बह नहीं है। (२१/३)। - पर्यायघट पर्यायघट रूपसे है, द्रव्य घट रूपसे स. सा. आ./परि./क. २५६-२५७ अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन नहीं (२१४/७ ) अथवा व्यजन पर्यायसे घट है, अर्थ पर्यायसे स्यावादवेदी पुनः ।२५६। नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन स्याद्वाद- नहीं हैं ( २१५/३)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी ३२३ ५. अनेक प्रकारसे अस्तित्व नास्तित्व प्रयोग पं. का./त. प्र./८/२२/६ महासत्तावान्तरसत्तारूपेणासत्तावान्तरसत्ता. च महासत्तारूपेणासत्तेत्यसत्ता सत्तायाः । महासत्ता अवान्तरसत्ता रूपसे असत्ता है और अवान्तर सत्ता महासत्ता रूपसे असत्ता है इसलिए सत्ता असत्ता है। (जो सामान्य विशेषात्मक सत्ता महासत्ता होनेसे 'सत्ता' है वही अवान्तर सत्ता रूप होनेसे असत्ता भी है)। पं. ध./पू./श्लो. सं. अयमर्थो वस्तु यदा सदिति महासत्तयावधार्येत । स्यात्तदवान्तरसत्तारूपेणाभाव एव न तु मूलात (२६७) अपि चावान्तरसत्तारूपेण यदावधार्यते वस्तु। अपरेण महासत्तारूपेणाभाव एव भवति तदा (२६८) अथ केवलं प्रदेशाव प्रदेशमात्रं यदेष्यते वस्तु । अस्ति स्वक्षेत्रतया तदंशमात्राविवक्षितत्वान्न १२७१। अथ केवलं तदंशात्तावन्मात्राद्यदेप्यते वस्तु । अस्त्यंशविवक्षितया नास्ति च देशाविवक्षितत्वाच्च ।२७२। सामान्य विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति बिशेषश्च । उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति (२७५) सामान्य विधिरेव हि शुद्धः प्रतिषेधकश्च निरपेक्षः। प्रतिषेधो हि विशेषः प्रतिषेध्यः सांशकश्च सापेक्षः ।२८। तस्मादिदमनवद्य सर्व सामान्यतो यदाप्यस्ति । शेषविशेषविवक्षाभावादिह तदैव तन्नास्ति १२८३। यदि वा सर्वमिदं यद्विवक्षितत्वाविशेषतोऽस्ति यदा। अविवक्षितसामान्यात्तदैव तन्नास्ति नययोगात (२८४ ) अपि चैवं प्रक्रियया नेतव्याः पञ्चशेषभङ्गाश्च । वर्णवदुक्तद्वयमिहापटवच्छेषास्तु तद्योगाव (२८७) नास्ति च तदिह विशेषैः सामान्यस्य विवक्षितायां वा । सामान्य रितरस्य च गौणत्वे सति भवति नास्ति नयः १७५७ -१. (द्रव्य) जिस समय बस्तु सत् हत्याकारक महा सत्ताके द्वारा अवधारित की जाती है उस समय उस उसकी अवान्तर सत्ता रूपसे उसका अभाव ही है किन्तु मूलसे नहीं है ।२६७। जिस समय वस्तु अवान्तर सत्ता रूपसे अवधारित की जाती है, उस समय दूसरी महासत्ता रूपसे उस वस्तुका अभाव ही विवक्षित होता । २६८१२. (क्षेत्र) जिस समय वस्तु केबल प्रदेशसे प्रदेशमात्र मानी जाती है, उस समय अपने क्षेत्रसे अस्ति रूप है, और उन-उन वस्तुओं के उन-उन अंशों की अविवक्षा होनेसे नास्ति रूप है ।२७१। और जिस समय वस्तु केवल अमुक द्रव्यके इतने प्रदेश है इत्यादि विशेष क्षेत्रकी विवक्षासे मानी जाती है उस समय विशेष अंशोंकी अपेक्षासे अस्ति रूप है, सामान्य प्रदेशको विवक्षा न होनेसे नास्ति रूप भी है । २७२ । ३. ( काल) विधि रूप बर्तन सामान्य काल है और निषेध स्वरूप विशेष काल है। इन दोनों में से एककी मुख्यता होनेसे अस्ति-नास्ति रूप विकल्प होते हैं। २७५ । ४. (भाव) सामान्य भाव विधि रूप शुद्ध विकल्पमात्रका प्रतिषेधक है तथा निरपेक्ष ही होता है तथा निश्चयसे विशेष रूप भाव निषेध रूप निषेध करने योग्य अंशकल्पना सहित और सापेक्ष होता है । २८१ । १. (सारांश) इसलिए सब कथन निर्दोष है कि जिस समय भी सामान्य रूपसे अस्तिरूप होता है उसी समय यहाँ पर विशेषों की विवक्षाके अभावसे वह सत् नास्तिरूप भी रहता है । २८३ । अथवा जिस समय जो यह सब विशेष रूपसे विवक्षित होनेसे अस्ति रूप होता है. उसी समय नय योगसे सामान्य अविवक्षित होनेसे वह नास्ति रूप भी होता है । २८४। विशेष यह है कि यहाँ पर इसी शैलीसे पटकी तरह अनुलोम क्रमसे तथा पटगत वर्णादि की तरह प्रतिलोम क्रमसे दो भंग कहे हैं और शेष पाँच भंग तो इनके मिलानेसे लगा लेने चाहिए । (२८७) वस्तु सामान्यकी विवक्षामें विशेष धर्मकी गौणता होने पर विशेष धौके द्वारा नास्ति रूप है अथवा विशेषकी विवक्षामें सामान्य धर्मोके द्वारा नहीं है। जो यह कथन है वह नास्तिनय है । ७५७ । ६. नयोंकी अपेक्षा ध.१/४,१,४५/२१५/४ ऋजुसूत्रनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घटः, न शब्दादिनयविषयी कृतपर्यायः ।...अथवा शब्दनयविषयीकलपर्यायरस्ति घटः, न शेषनयविषयी कृतपर्यायैः। .. अथवा समभिरूढनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घटः, न शेषनयविषयैः । - ऋजसूत्र नयसे विषय की गयी पर्यायोसे घट है, शब्दाभिनयोंसे विषय की गयी पर्यायोंसे बह नहीं है।...अथवा शब्द नयसै विषय की गयी पर्यायोंसे घट है शेष नयोंसे विषय की गयी पर्यायों से वह नहीं है।...समभिरूढनयसे विषय की गयी पर्यायोंसे घट है शेष नयोंसे विषय की गयी पर्यायोंसे वह नहीं है....अथवा एवम्भूत नयसे विषय की गयी पर्यायोंसे घट है, शेष नयोंसे विषय की गयी पर्यायोंसे यह नहीं है। ७. विरोधी धर्मोमें न. च. श्रुत./६५-६७ द्रव्यरूपेण नित्य.. स्यादस्तिअनित्य इति पर्याय रूपेणैव-- सामान्यरूपेणै कत्वम् स्यादनेक इति विशेषरूपेणैव...सदभूतव्यवहारेण भेद...स्यादभेद इति द्रव्याथिकेनैव.. स्याइभव्यः... स्वकीयस्वरूपेण भवनादिति-स्यादभव्य इति पररूपेणे व...स्यातचेतनः...चेतनस्वभावप्रधानत्वेनेति.. स्यादचेतन इति व्यवहारेण व... स्यान्मूर्तः असद्भूतव्यवहारेण.. स्यादमूर्त इति परमभावेनैव ... स्याकप्रदेशः भेदकल्पनानिरपेक्षेणेति...स्यादनेकप्रदेश इति व्यवहारेणैव स्याच्छुद्ध.. केवलस्वभावप्रधानत्वेनेति...स्यादशुद्ध इति मिश्रभावे...स्यादुपचरितः...स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचारादिति...स्यादनुपचरित इति निश्चयादेव ..। -द्रव्यरूप अभिप्रायसे नित्य है...कथं चिद् अनित्य है, यह पर्याय रूपसे ही समझना चाहिए ।... सामान्यरूप अभिप्रायसे एकरवपना है...कथं चिद अनेकरूप है, यह विशेष रूपसे ही जानना चाहिए...सभूत व्यवहारसे भेद है...द्रव्यार्थिक नयसे अभेद है...कथंचित् स्वकीय स्वरूपसे हो सकनेसे भव्य स्वरूप है...पररूपसे नहीं होनेसे अभव्य है...चेतन स्वभावकी प्रधानतासे कथंचित् चेतन है...व्यवहारनयसे अचेतन है...असदभूत व्यवहार नयमे मूर्त है...परमभाव अमूर्त है. भेदकल्पनानिरपेक्ष नयसे एक प्रदेशी है...व्यवहार भयसे अनेक प्रदेशी है.. केवल स्वभावकी प्रधानतासे कथंचित् शुद्ध है...मिश्र भावसे कथंचित अशुद्ध है...स्वभावके भी अन्यत्र उपचारसे कथंचित उपचरिल है... निश्चयसे अनुपचरित है । ( स. भ. त./७५/८७६/१०: ७६/३) स. सा. आ./क. २४८-२४६ बाह्यार्थः परिपीतमुज्झितनिज-प्रव्यक्तिरिक्तीभवद्-विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति। यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुन-दूरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्ण समुन्मज्जति ।२४८। विश्वं ज्ञानमिति प्रतवं सकलं दृष्ट्वा स्वतत्त्वाशया-भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते। यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुन-विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ।२४६ - बाह्य पदार्थोके द्वारा सम्पूर्णतया पिया गया, अपनी भक्ति छोड़ देनेसे रिक्त हुआ, सम्पूर्णतया पररूपमें ही विश्रान्त, ऐसे पशुका ज्ञान नाशको प्राप्त होता है, और स्याद्वादीका ज्ञान तो, जो सत है वह स्वरूपसे तव है, ऐसी मान्यताके कारण, अत्यन्त प्रकट हुए ज्ञानघन रूप स्वभावके भारसे सम्पूर्ण उदित होता है ।२४६ पशु ( सर्वथा एकान्तबादी) अज्ञानी 'विश्व ज्ञान है' ऐसा विचार कर सबको निजतत्त्वकी आशासे देखकर विश्वमय होकर, पशुको भाँति स्वच्छन्दतया चेष्टा करता है। और स्याद्वादी तो, यह मानता है कि 'जो तत है वह पररूपसे तत् नहीं है, इसलिए विश्वसे भिन्न ऐसे तथा विश्वसे रचित होनेपर भी विश्व रूप न होनेवाले ऐसे अपने तत्त्वका अनुभव करता है ।२४६। (पं. ध./पू./३३२) न्या. दी./३/६८२/१२६/६ द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्ण स्यादेकमेव, पर्यायाथिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव...। - द्रव्यार्थिक नयके अभिप्रायसे सोना कथंचित एकरूप ही है, पर्यायार्थिक नयके अभिप्रायसे कथंचित अनेक स्वरूप ही है । ( न्या. दी./३/8८५/१२८/११) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी ३२४ ६ अवक्तव्य भंग निर्देश ८. कालादिकी अपेक्षा वस्तुमें भेदाभेद श्लो. बा. २१/६/५४/४५२/१४ के पुनः कालादयः । कालः आत्मरूपं, अर्थः, संबन्धः, उपकारो, गुणिदेशः, संसर्गः शब्द इति । तत्र स्याज्जीवादि वस्तु अस्त्येव इत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानन्तधर्मा बस्तुन्येकडेति, तेषां कालेनाभेदवृत्तिः । यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्बमात्मरूपं तदेवान्यानन्तगुणानामपीत्यात्मरूपेणाभेदवृत्तिः। य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थनाभेदवृत्तिः । य एवाविष्वग्भावः कथंचित्तादाम्यलक्षणः संबन्धोऽस्तित्वस्य स एवाशेषविशेषाणामिति संबन्धेनाभेदवृत्तिः। य एव चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तकरणं स एव शेषरपि गुण रित्युपकारेणाभेदवृत्तिः। य एव च गुणिदेशोऽस्तित्वस्य स एवान्यगुणानामिति गुणिदेशेनाभेदवृत्तिः। य एव चैकवस्त्वात्मनास्तित्वस्य संसर्गः स एव शेषधर्माणामिति संसर्गेणाभेद वृत्तिः। य एवास्तीतिशब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एव शेषानन्तधर्मात्मकस्यापोति शब्देनाभेदवृत्तिः । पर्यायाथै गुणभावे द्रव्यार्थि करवप्राधान्यादुपपद्यते। श्लो. वा. २/१/६/५४/४५३/२७ द्रव्यार्थिकगुणभावेन पर्यायाथिकप्राधान्येन तु न गुणानां कालादिभिरभेदवृत्तिः अष्टधा संभवति । प्रति. क्षणमन्यतोपपत्तेभिन्नकालत्वात्। सकृदेकत्र नानागुणानामसंभवात संभवे वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदप्रसंगाव तेषामात्मरूपस्य च भिन्नत्वात् तदभेदे तद्भेदविरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात् अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् । संबन्धस्य च संबन्धिभेदेन भेददर्शनात नानासंबन्धिभिरेकत्रैकसंबन्धाघटनादात क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात् । गुणि देशस्य च प्रतिगुणं भेदात् तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाभेदप्रसंगात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गभेदात् । तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात । शब्दस्य च प्रतिविषय-नानात्वात् गुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेः शब्दान्तरवै फल्यात् । -वे कालादिक-काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द इस प्रकार आठ हैं । १. तहाँ जीवादिक वस्तु कथाचित हैं ही। इस प्रकार इस पहले भंगमें ही जो अस्तित्व का काल है, वस्तुमें शेष बचे हुए अनन्त धर्मोका भी वहीं काल है। इस प्रकार उन अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मोंकी कालकी अपेक्षासे अभेद वृत्ति हो रही है। २. जो ही उस वस्तुके गुण हो जाना अस्तित्वका अपना स्वरूप है, वहीं उस वस्तुके गुण हो जानापना अन्य अनन्तगुणोंका भी आत्मीय रूप है। इस प्रकार आत्मीय स्वरूप करके अनन्तधर्मोंकी परस्परमें अभेद वृत्ति है। ३. तथा जो ही आधार द्रव्य नामक अर्थ 'अस्तित्व'का है वहीं द्रव्य अन्य पर्यायोंका भी आश्रय है, इस प्रकार एक आधाररूप अर्थपनेसे सम्पूर्ण धर्मोके आधेयपनेकी बृत्ति हो रही है। ४. एवं जो ही पृथक्-पृथक नहीं किया जा सकना रूप कथंचित् तादात्म्य स्वरूप सम्बन्ध अस्तित्वका है वही अन्य धर्मोंका भी है। इस प्रकार धर्मोंका वस्तुके साथ अभेद वर्त्त रहा है। ५. और जो ही अपने अस्तित्वसे वस्तुको अपने अनुरूप रंग युक्त कर देना रूप उपकार अस्तित्व धर्म करके होता है, वे ही उपकार' बचे हुए अन्य गुणों करके भी किया जाता है। इस प्रकार उपकार करके सम्पूर्ण धर्मों का परस्परमें अभेद वर्त्त रहा है। ६. तथा जो ही गुणी द्रव्यका देश अस्तित्व गुणने घेर लिया है, वही गुणीका देश अन्य गुणोंका भी निवास स्थान है। इस प्रकार गुणिदेश करके एक वस्तु के अनेक धर्मों को अभेदवृत्ति है। ७.जो ही एक वस्तु स्वरूप करके अस्तित्व धर्मका संसर्ग है, वही शेष धौंका भी संसर्ग है। इस रीतिसे संसर्ग करके अभेद वृत्ति हो रही है। ८, तथा जो ही अस्ति यह शब्द अस्तित्व धर्म स्वरूप वस्तुका वाचक है वही शब्द बचे हुए अनन्त अनन्त धर्मोके साथ तादात्म्य रखनेवाली वस्तुका भी वाचक है। इस प्रकार शब्द के द्वारा सम्पूर्ण धर्मोंकी एक वस्तुम अभेद प्रवृत्ति हो रही है। यह अभेद व्यवस्था पर्यायस्वरूप अर्थको गौण करनेपर और गुणों के पिण्डरूप द्रव्य पदार्थको प्रधान करनेपर प्रमाण द्वारा बन जाती है। १. किन्तु द्रव्याथिकके गौण करनेपर और पर्यायाथिककी प्रधानता हो जानेपर तो गुणोंकी काल आदि करके आठ प्रकारको अभेदवृत्ति नहीं सम्भवती है क्योंकि प्रत्येक क्षणमें गुण भिन्न-भिन्न रूपसे परिणत हो जाते हैं अतः भिन्न-भिन्न धर्मोंका काल भिन्न-भिन्न है। अथवा एक समय एक वस्तुमें अनेक गुण नहीं पाये जा सकते हैं। यदि बलात्कारसे अनेक गुणोंका सम्भव मानोगे तो उन गुणोंके आश्रय वस्तुका उतने प्रकारसे भेद हो जानेका प्रसंग होगा। अतः कालकी अपेक्षा अभेद वृत्ति न हुई। २. पर्यायदृष्टिसे उन गुणोंका आत्मरूप भी भिन्न है अन्यथा उन गुणोंके भेद होनेका विरोध है। . ३. नाना धर्मोंका अपना-अपना आश्रय अर्थ भी नाना है अन्यथा एकको नाना गुणों के आश्रयपनका विरोध हो जाता है। ४. एवं सम्बन्धियों के भेदसे सम्बन्धका भी भेद देखा जाता है। अनेक सम्बन्धियों करके एक वस्तुमें एक सम्बन्ध होना नहीं घटता है। १. उन धर्मों करके किया गया उपकार भी वस्तुमें न्यारा-न्यारा नियत होकर अनेक स्वरूप है। ६. प्रत्येक गुणकी अपेक्षासे गुणीका देश भी भिन्न-भिन्न है। यदि गुणके भेदसे गुणवाले देशका भेद न मानाजायेगातोसर्वथाभिन्न दूसरे अर्थ के गुणों का भी गुणीदेश अभिन्न हो जायेगा। ७. संसर्ग तो प्रत्येक संसर्गवालेके भेदसे भिन्न ही माना जाता है। यदि अभेद माना जायेगा तो संसर्गियोंके भेद होनेका विरोध है। ८. प्रत्येक विषयकी अपेक्षासे वाचक शब्द नाना होते हैं, यदि सम्पूर्ण गुणोंका एक शब्द द्वारा ही वाच्य माना जायेगा, तब तो सम्पूर्ण अोंको भी एक शब्द द्वारा निरूपण किया जानेका प्रसंग होगा। ऐसी दशामें भिन्न-भिन्न पदार्थोके लिए न्यारे-न्यारे शब्दोंका बोलना व्यर्थ पड़ेगा । ( स्या. म./२३/२८४/१८); ( स. भ. त./३३/६) ९. मोक्षमार्गकी अपेक्षा पं. का./तं. प्र./१०६ मोक्षमार्गः.. सम्यक्त्वज्ञानयुक्तमेव नासम्यक्त्वज्ञान युक्तं चारित्रमेव नाचारित्रं, रागद्वेषपरिहीणमेव न रागद्वेषापरिहीणम्, मोक्षस्यैव न भावतो वन्धस्य, मार्ग एवं नामार्गः, भव्यानामेव नाभव्यानां, लब्धबुद्धीनामेव नालब्धबुद्धीनां, क्षीणकषायत्वे भवत्येव न कषायसहितत्वे भवतीत्यष्टधा नियमोऽत्र द्रष्टव्यः । - मोक्षमार्ग सम्यक्त्व और ज्ञानसे ही युक्त है न कि असम्यक्त्व औरअज्ञानसे युक्त। चारित्र ही है न कि अचारित्र, राग-द्वेष रहित हो ऐसा है-न कि राग-द्वेष सहित हो ऐसा, भावतः मोक्षका ही न कि अन्धका, मार्ग ही-न कि अमार्ग, भव्यों को ही-न कि अभव्योंको, लब्धबुद्धियोंको ही न कि अलब्ध बुद्धियों को, क्षीणकषायनेमें ही होता है--न कि कषाय सहितपने में होता है इस प्रकार आठ प्रकारसे नियम यहाँ देखना। ६. अवक्तव्य भंग निर्देश १. युगपत् अनेक अर्थ कहने की असमर्थता रा. वा./४/४२/१५/२५८/१३ अथवा वस्तुनि मुख्यप्रवृत्त्या तुल्यालयोः परस्पराभिधानप्रतिवन्धे सति इष्टविपरीतनिर्गुणत्वापत्तेः विवक्षितोभयगुणत्वेनाऽनभिधानात अवक्तव्यः। = शब्दमें वस्तुके तुल्य बल वाले दो धर्मों का मुख्य रूपसे युगपत् कथन करनेकी शक्यता न होनेसे या परस्पर शब्द प्रतिबन्ध होनेसे निगुणत्वका प्रसंग होनेसे तथा विवक्षित उभय धर्मोंका प्रतिपादन न होनेसे वस्तु अवक्तव्य है। (श्लो. वा. २/१/६/५६/४८२/१३) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी पं. ध. /उ. / ३६६ ततो वक्तुमशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य वस्तुनः । तदुल्लेख समाख्यानद्वारा निरूप्यते ३६६ निर्विवस्तुके कथनको अनिर्वचनीय होनेके कारण ज्ञानके द्वारा उन सामान्यात्मक गुणों का उल्लेख करके उन 'निरूपण किया जाता है। २. वह सर्वथा अवक्तव्य नहीं आप्त. मी./ ४६-५० अवक्तव्य चतुष्कोटिर्विकल्पोऽपि न कथ्यताम् । असर्वान्तमवस्तु स्यादविशेष्यविशेषणम् । ४६ । अवस्वनभिलाप्यं स्वाद सर्वान्तः परिवर्जितमस्येवस्तुस याति प्रक्रियाया विपर्यवाद ४८ सर्वान्धारचेदवक्तव्यास्तेषां कि बचनं पुनः। कृतिश्चैनमुपैषा परमार्थ विपर्ययात् ॥ ४६॥ अशनादनाकिम भावात्किमत्रोतः । आद्यन्तोक्तिद्वयं न स्यात् किं व्याजेनोच्यतारफुटम् । ५० । 'चार प्रकारका विकल्प अवक्तव्य है' ऐसा कहना युक्त नहीं, क्योंकि सर्वथा अवक्तव्य होनेसे विशेषण- विशेष्य भावका अभाव होगा। इस प्रकार सर्व वस्तुओंको अवस्तुनेका प्रसंग वेगा । ४६ । प्रश्न- यदि सर्व धर्मोंसे रहित वह अवस्तु अवक्तव्य है तो उसको आप अवस्तु भी कैसे कह सकते हैं 1 उत्तर- हमारे हाँ अवस्तु सर्वथा धर्मोसे रहित नहीं है, बल्कि वस्तुके धर्मोसे विपरीत धर्मोका कथन करनेपर अवस्तु स्वीकार की जाती है ।४८। जिनके मतमें सर्व धर्म सर्वथा अवक्तव्य हैं उनके हाँ तो स्त्रपक्ष साधन और पर पक्ष दूषणका वचन भी नहीं बनता है, तब उन्हें तो मौन ही रहना चाहिए। 'वचन तो व्यवहार प्रवृत्ति मात्रके लिए होता है,' ऐसा कहना भी युक्त नहीं है क्योंकि परमार्थसे विपरीत तथा उपचार मात्र कथन विपरीत होता है | हम तुमसे पूछते हैं कि वस्तु इसलिए अन है कि तुममें उसके कहनेकी सामर्थ्य नहीं है या इसलिए अवक्तव्य है कि उसका अभाव है, या इसलिए अवक्तव्य है कि तुम उसे जानते नहीं। तहाँ आदि और अन्त वाले दो पक्ष तो आप बौद्धोंके हाँ सम्भव नहीं है क्योंकि आप बुद्धको सर्वज्ञ मानते हैं। मध्यका पक्ष अर्थात् वस्तुका अभाव मानते हो तो बस पूर्वक घुमा-फिराकर क्यों कहते हो स्पष्ट कहिए । रा. वा. /४/४२/१५/२५८/१७ स च अवक्तव्यशब्देन अन्यैश्च षड् भिर्वचनैः पर्यायान्तरविवक्षया च वक्तव्यत्वात् स्यादवक्तव्यः । यदि सर्वथा अवक्तव्यः स्यात् अवक्तव्य इत्यपि चावक्तव्यः स्यात् कुतो बन्धमोक्षादिप्रक्रियाप्ररूपणविधिः । यह (वस्तु) अवक्तव्य शब्द के द्वारा अन्य छह भंगोंके द्वारा' वक्तव्य होनेसे 'स्यात्' अवक्तव्य है सर्वथा नहीं । यदि सर्वथा अवक्तव्य हो जाये तो 'अवक्तव्य शब्दके द्वारा भी उसका कथन नहीं हो सकता। ऐसी दशामें बन्ध मोक्षादिकी प्रक्रियाका निरूपण निरर्थक हो जायेगा (रा.वा./१/६/१०/४५/२६) ३२५ • बा २/९/६/६/पं सकलमाचकरहितत्वादवतव्यं वस्तु युगपदमा प्रधानभावापिताभ्यामाकान्तं व्यवतिष्ठते तच्च न सर्ववाक्यमेवाभ्याम्येनास्य मयादित्येके (४०० / २१) कथमिदानी अवाच्यैकान्तेऽभ्युक्तिर्माच्यमिति युज्यते" इ घटते सातत्येनेव सस्याद्य कैकधर्म समान्येनाध्य वाच्यत्वे वस्तुनो वाच्यत्वाभावधर्मेणाकान्तस्यावाच्यपदेनाभिधानं न युज्यते इति व्याख्यानात् (४८९ / २६) एक ही समय में प्रधानपनसे विक्षित किये गये सब और असत्य धर्मों करके चारों ओरसे विरो हुई वस्तु उपस्थित हो रही है। यह सम्पूर्ण वाचक शब्दोंसे रहित है । अतः अवक्तव्य है और वह सभी प्रकारोंसे अवक्तव्य ही हो यह नहीं समझना, क्योंकि अवक्तव्य शब्द करके ही इसका वाचन हो रहा है। श्री समन्तभद्र स्वामीका कहना कैसे घटित होगा कि "अवाच्यता ही यदि एकान्त माना जायेगा तो अवाच्य इस प्रकारका कथन भी युक्त नहीं होता है" ( आ. मी./५५) एक समय में हो रहे धर्मोसे आक्रान्तपने करके जैसे वस्तु अवाच्य है, उसी प्रकार सत्त्व, ६. अवक्तव्य भंग निर्देश असत्त्व आदिमेंसे एक-एक धर्म से आरूढपने करके भी वस्तुको यदि अवाच्य माना जायेगा तो वाच्यस्वाभाव नामके एक धर्म करके घिरी हुई वस्तुका अवाच्य पद करके कथन करना नहीं युक्त हो सकता है। (स्या. मं. / २३ / २८१/३); ( स. भं. त. / ६६ /१० ) सं.भं. त . / ७३ / ३ एवमत्रक्तव्यमेव वस्तुतत्त्वमित्यवक्तव्य त्वेकान्तोऽपि स्वमवनपातः सदामीनमसिफोऽहमिति णो यह कहते हैं कि सर्वथा अवक्तव्य रूप ही वस्तु स्वरूप है, उनका कथन स्ववचन विरोध है जैसे - मैं सदा मौनव्रत धारण करता हूँ । ३. कालादिकी अपेक्षा वस्तु धर्म अवतव्य है रा. वा./४/४२/९५/२५७/१२ 1 9 प्रतियोगियां गुणाभ्यामवधारणायुगपदेकस्मिन् काले ऐकेन शब्देन एकस्यार्थस्य कृत्स्नस्यैवाभेदरूपेणाभिधित्सा तदा अवाच्यः तद्विधार्थस्य वृत्तिः, न च तैरभेदोऽज संभवति के पुनस्ते कालादयः काल आरमरूपमर्थः संबन्धः उपकारो गुणिवेदशः संसर्गः शब्द इति तत्र येन कारणेन विरुद्धा भवन्ति गुणास्तेषामेकस्मिन् काले क्वचिदेकवस्तुनि वृत्तिर्न दृष्टा अतस्तयोर्नास्ति वाचकशब्दः तथावृत्त्यभावात् । अत एकस्मिन्नात्मनि तदसत्वे प्रविभक्ते असंसर्गात्मारूपे अनेकान्तरूपे न स्तः । एककाले येनात्मा तथोच्येत ताभ्यां विविक्तं च परस्परत आत्मरूपं गुणानां नान्योन्यात्मनि वर्तते यत उभाभ्यां युगपदभेदेनोच्येत । न च बिरुवात्सदसत्त्वादीनाम् एकान्तपक्षे गुणानामेकद्रव्याधारा वृत्तिरस्ति यतः अभिव्राधारखेनाभेदो युगपद्भावः स्याय, मेन केनचिय शब्देन या सदस उच्येयाताम् न च संभवतोऽभिज्ञता गुणानां संभवति भिन्नत्वात् संबन्धस्य । यथा छत्रदेवदत्तसंबन्धोऽन्यः दण्डदेवदत्तसंबन्धात् ।...न च गुणा उपकारेणाभिन्नाः यतो द्रव्यस्य गुणाधीन उपकारी नीलरक्ताद्य परञ्जनम्, ते च स्वरूपतो भिन्नाः ॥...न चैकान्तपक्षे गुणान संसृष्टमनेकात्मकं रूपमस्ति अवधृतै कान्तरूपत्वादसत्वासत्त्वादेर्गुणस्य । यदा शवलरूपव्यतिरिक्तौ शुक्लकृष्णौ गुणी असंसृष्टौ नैकस्मिन्नर्थे यह पतितु समय वाता ताभ्यां संसर्गाभावात् एकान्तपक्षे न युगपदभिधानमस्ति अर्थस्य तथा विभावादन चैकः शब्दो द्वयोर्गुणयोः सहवाचको स्ति यदि स्यात् छन्दः स्वादसदपि सद्र्यात असो ऽपि स्वार्थ सदपि असर न च तथा नोके संप्रत्ययोऽस्ति यो विशेषदत्वात् एवमुक्तात् कालादिभावाभाव शब्दस्य च एकस्य उभयार्थ वाचिनोऽनुपलब्धेः अवक्तव्य आत्मा । = जब दो प्रतियोगी गुणोंके द्वारा अवधारण रूपसे युगपत् एक कालमें एक शब्द से समस्त वस्तु के कहने की इच्छा होती है तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है क्योंकि पैसा शब्द और अर्थ नहीं है। गुणगावका अर्थ है कालादिकी से अमेदवृत्ति वे कालादि आठ - काल. आत्मरूप अर्थ, सम्बंन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द । जिस कारण गुण परस्पर विरुद्ध हैं अतः उनकी एक कालमें किसी एक वस्तु वृत्ति नहीं हो सकती अतः सत्त्व और असत्वका वाचक एक शब्द नहीं है एक वस्तुमें सत्त्व और असत्व परस्पर भिन्न (आत्म) रूपमें हैं उनका एक स्वरूप नहीं है जिससे वे एक शब्द के द्वारा युगपत् कहे जा सकें। परस्पर विरोधी सत्य और असत्त्वकी एक अर्थ में वृत्ति भी नहीं हो सकती जिससे अभिन्न आधार मानकर अमेद और युगभाव कहा जाये तथा किसी एक शन्दसेनका प्रतिपादन हो सके । सम्बन्धसे भी गुणों में अभिन्नताकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि सम्बन्ध भिन्न होता है । देवदत्त और दण्डका सम्बन्ध यज्ञदत और छत्र के सम्बन्ध से जुदा है ही ।... उपकार दृष्टिसे भी गुण अभिन्न नहीं हैं, क्योंकि द्रव्यमें अपना प्रत्यय या विशिष्ट व्यवहार कराना रूप उपकार प्रत्येक गुणका जुदा-जुदा है। जब शुबल और कृष्ण वर्ग परस्पर भिन्न है तब उनका संसृष्ट रूप एक नहीं हो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगा ३२६ समंतभद्र स्वहनो मालास्तत्त्वावक्तब्यतां श्रिताः। - वे एकान्तवादी जन उस स्वघाती दोषको दूर करनेके लिए असमर्थ हैं, आपसे द्वष रखते हैं, आत्मघाती है और उन्होंने तत्त्वकी अवक्तव्यताको आश्रित किया सकता जिससे एक शब्दसे कथन हो सके। कोई एक शब्द या पद दो गुणोंको युगपद नहीं हो सकता । यदि कहे तो 'सत्' शब्द सत्त्वकी तरह असत्त्वका भी कथन करेगा। तथा 'असत्' शब्द सत्का। पर ऐसी लोक प्रतीति नहीं है, क्योंकि प्रत्येकके वाचक शब्द जुदा-जुदा हैं। इस तरह कालादि दृष्टिसे युगपत भावकी सम्भावना नहीं है तथा उभय वाची कोई एक शब्द है नहीं अतः वस्तु अवक्तव्य है। श्लो. वा. २/१/६/५६/४७७/६) संभंत./पृष्ठ./पं. ननु कथमवक्तब्यो घटः, इति नमः। सर्वोऽपि शब्दः प्रधानतया न सत्त्वासत्त्वे युगपत्प्रतिपादयति तथा प्रतिपादने शब्दस्य शक्यभावाद, सर्वस्य पदस्यैकपदार्थविषत्व सिद्धेः (६६) सर्वेषां पदानामेकार्थत्वनियमे नानार्थकपदोच्छेदापत्तिः इति चेन्न.... सादृश्योपचारादेव तस्यैकत्वेन व्यवहरणात.. समभिरूढनयापेक्षया शब्दभेदाइधुवोऽर्थ भेदः ।...अन्यथा वाच्यवाचकनियमव्यवहारविलोपात् (६१/१) सेनाबनयुद्धपङ्क्तिमालापालकग्रामनगरादिशब्दा. नामनेकार्थप्रतिपादकत्वं दृष्टमिति चेन्न। करितुरगरथपदातिसमूहस्यैवैकस्य सेनाशब्देनाभिधानात (६४/१) वृक्षावितिपदं वृक्षद्वय. बोधक वृक्षा इति च बहुवृक्षबोधकम्...लुप्तावशिष्टशब्दयोः साम्याद वृक्षरूपार्थस्य समानत्वाच्चैकत्वोपचारासन्त्रैकशब्दप्रयोगोपपत्तिः । (६४/५) वृक्षपदेन वृक्ष रूपैकधर्मावच्छिन्नस्यैव बोधो नान्यधर्मा. वच्छिन्नस्य (६६/२) द्वन्द्वस्यापि क्रमेणैवार्थ द्वयप्रत्यायनसमर्थत्वेन गुणप्रधानभावस्य तत्रापि सत्त्वात् ।६८/३)। = प्रश्न-घट अवक्तव्य कैसे है ? उत्तर-सर्व ही शब्द एक काल में ही प्रधानतासे सत्त्व और असत्त्व दोनोंका युगपत् प्रतिपादन नहीं कर सकते, क्योंकि उस प्रकारसे प्रतिपादन करनेकी शब्द में शक्ति नहीं है क्योंकि सर्वही शब्दों में एक ही पदार्थको विषय करना सिद्ध है । प्रश्न-सर्व ही शब्दोंको एकार्थवाची माना जाये तो अनेकार्थवाची शब्दोंका अभाव हो जायेगा। उत्तर-नहीं. क्योंकि ऐसे शब्द वास्तबमें अनेक ही होते हैं परन्तु केवल सादृश्यके उपचार से ही उनमें एकपनेका व्यवहार होता है । समभिरूढ नयकी अपेक्षा शब्द भेद होनेपर अवश्य ही अर्थ का भेद हो जाता है अन्यथा वाच्य-वाचकपनेके नियमका व्यवहार नहीं हो सकता । प्रश्न-सेना, वन, युद्ध, पंक्ति, माला, तथा पालक इत्यादि शब्दोंकी अनेकार्थवाचकता इष्ट है । उत्तर-नहीं, क्योंकि हस्ति, अश्व, रथ व पयादोंके समूह रूप एक ही पदार्थ सेना शब्दसे कहा जाता है। प्रश्न-'वृक्षौ' कहनेसे दो वृक्षोंका तथा वृक्षाः कहनेसे बहुतसे वृक्षोंका ज्ञान कैसे हो सकेगा ! उत्तर-नहीं, क्योंकि वहाँ भी अनेक शब्दोंके द्वारा ही अनेक वृक्षोंका अभिधान होता है। किसी एक शब्दसे अनेकार्थका बोध नहीं होता। व्याकरणके नियमानुसार शेष शब्दोंका लोप करके केवल एक ही शब्द शेष रहता है । लुप्त शब्दों की अवशिष्ट शब्दके साथ समानता होनेसे उनमें एकत्वका उपचार मानकर एक ही शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है। तथा बहुवचनान्त वृक्ष पदसे भी वृक्षत्व रूप एक धर्मसे अवच्छिन्न एक-एक वृक्षका ही भाव होता है, किसी, अन्य धर्मसे अवच्छिन्न पदार्थका नहीं। प्रश्न-बहुवचनान्त पद बहुत्व और वृक्षत्व ऐसे अनेक धर्मोसे अवच्छिन्न वृक्षका ज्ञान होनेके कारण उपरोक्त भंग हो जाता है। उत्तर-यद्यपि आपका कहना ठीक है परन्तु यहाँ प्रथम वृक्ष शब्द एक वृक्षत्व रूप धर्मसे अवच्छिन्न अर्थ का ज्ञान कराता है और तत् पश्चात लिंग और संख्याका। इस प्रकार शब्द जन्य ज्ञान क्रमसे ही होता है। और इसलिए 'वृक्षाः' इत्यादि पदसे वृक्षत्व धर्मसे अंवच्छिन्न पदार्थ का बोध तो प्रधानतासे होता है, परन्तु लिंग तथा बहुत्व संख्याका गौणतासे । और इस प्रकार मुख्यता और गौणता द्वन्द्व समासमें भी विवक्षित है क्योंकि वह भी क्रमसे दो या अधिक पदार्थोंको बोध कराने में समर्थ है। ४. सर्वथा अवक्तव्य कहना मिथ्या है स्व. स्तो./१०० ते तं स्वघातिनं दोष शमीकमनीश्वराः। त्वद्विषः ५. वक्तव्य व अवक्तव्यका समन्वय स.भ.त./७०/७ अयं खलु तदर्थः सत्त्वाचे कैकधर्म मुखेन वाच्यमेव वस्तू युगपत्प्रधानभूतसत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नरवेनावाच्यम् । = सत्त्वादिधर्मों मेंसे किसी एक धर्मके द्वारा पदार्थ वाच्य है, वही सत्त्व, असत्त्व उभय धर्म से अवाच्य है। पं.ध./उ./६६३-६६५ तदभिज्ञानं हि यथा वक्तुमशक्यात समं नयस्य यतः। अपि तुर्यो नयगभस्तत्त्वावक्तव्यतां श्रितस्तस्मात् । ६६३ । न पुनर्वक्तुमशक्यं युगपद्धर्मद्वयं प्रमाणस्य क्रमवर्ती। केवल मिह नयः प्रमाण न तद्वदिह यस्मात् ६६४ा यत्किल पुनः प्रमाण वक्तुमलं वस्तुजातमिह यावत् । सदसदनेकैकमथो नित्यानित्यादिकं च युगपदिति ।६६जिस कारणसे दो धर्मोंको नय कहनेमें असमर्थ है, तिस कारण तत्त्वकी अवक्तव्यताको आश्रित करने वाला चौथा भी नय भग है।६६३। किन्तु प्रमाणको एक साथ दो धर्मोंका प्रतिपादन करना अशक्य नहीं .. है, क्योंकि यहाँ केवल नय क्रमवर्ती है किन्तु प्रमाण नहीं। और निश्चयसे प्रमाण सत्-असत, एक-अनेक और नित्य-अनित्य वगैरह सम्पूर्ण वस्तुके धौको एक साथ कहनेके लिए समर्थ है ।६६४-६६४ पं.ध/मु /३६६ ततो वक्तुमशक्यत्वात निर्विकल्पस्य वस्तुनः । तदुल्लेख समालेख्य ज्ञान द्वारा निरूप्यते ।३६६। इसलिए निर्विकल्पक वस्तुके कथनको अनिर्वचनीय होनेके कारण ज्ञानके द्वारा उन सामान्यात्मक गुणों का उपलेख करके उनका निरूपण किया जाता है। सप्तभंगो तरंगिनी-विमलदास (श्रावक) ( ई.श. १४-१५ ) कृत संस्कृत भाषाका न्याय विषयक ग्रन्थ । सप्त व्यसन-दे. व्यसन । सप्त व्यसन चारित्र-प.मनरंग लाल (ई.१८५० -१८६०) द्वारा रचित भाषा छन्द बद्ध कथा। सप्तांक-असंख्यात गुणवृद्धिको सप्तांक संज्ञा है। -दे. श्रुतज्ञान III/२/३ । सप्रतिपक्षी-सत् सदा अपने प्रतिपक्षीकी अपेक्षा रखता है। -दे. अनेकान्त।४। सप्रतिपक्षी प्रकृतियां-दे. प्रकृतिबन्ध/२। सप्रतिपक्षी हेत्वाभास-जिस हेतुका प्रतिपक्षी साधन मौजूद हों। समंतभद्र-शिलालेखों तथा शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर सी./२/ पृ. सं... आपको श्रुतके वलियों के समकक्ष/१७१। प्रथम जैन संस्कृत कवि एवं स्तुतिकार, बादी, बाग्मी, गमक, तार्किक/१५२ तथा युग संस्थापक माना गया है। १७४ । आप उरगपुर (त्रिचनापतली) के नागवंशी चोल नरेश कोलिक बर्मन के कनिष्ठ पुत्र शान्ति बर्मन होने क्षत्रियकुलोत्पन्न थे। १८३। श्रवणलबेगोल के शिलालेख नं. ५४, राजाबलिक थे. आराधना कथाकोष। १७६-१७७ । तथा प्रभाचन्द्र कृत कथाकोष के अनुसार आपको भस्मक व्याधि हो गई थी। धर्म तथा साहित्य को इनसे बहुत कुछ प्राप्त होने वाला है यह जानकर गुरु ने इन्हें समाधिमरण की आज्ञा न देकर लिंगछेद की आज्ञा दी। अतः आप पहले पुण्ड्रवर्द्धन नगर में बौद्ध भिक्षुक हुए, फिर दशपुर नगर में परिव्राजक हुए और अन्त में दक्षिण वेशस्थ काञ्ची नगर में शैव तापसी मनकर वहां के राजा शिवकोटि के शिवालय में रहते हुये शिव पर चढ़े नैवेद्यका भोग करने लगे। पकड़े जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समंतानुपात किया ३२७ समय जाने पर आपने स्वयम्भू स्तोत्र के पाठ द्वारा शिवलिंग में से चन्द्रप्रभु समन्वय-भिन्न-भिन्न विषयों के अनेकों विकल्पोंका परस्पर समभगवान की प्रतिमा प्रगट की जिससे प्रभावित होकर शैवराज शिव ___न्वय-दे. बह-वह विषय। कोटि दीक्षा धारण कर उनके शिष्य हो गए । १७७। समभिरूढ नय-दे. नय/III/9I आपकी रचनाओं में ११ प्रसिद्ध है-१. गृहत् स्वयम्भू स्तोत्र २. स्तुति विद्या (जिनशतक), ३. देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा). समय-१. समय सामान्यके लक्षण ४. युक्त्यनुशासन, तत्वानुशासन, ६. जीवसिहि ५. प्रमाण पदार्थ.८: कर्म प्राभृत टीका, ६. गन्धहस्तिमहाभाष्य, १०. रत्न १. कालके अर्थमें कण्डप्रावकाचार, ११. प्राकृतव्याकरण । १२. पटखंडागम के आध ति.प./४/२८५ परमाणुस्स णियट्ठिदगयणपदेसस्स दिकमणमेत्तो। जो पाच खंडों पर एक टीका भी बताई जाती है, परन्तु अधिकतर कालो अविभागी होदि पुढं समयणामा सो ।२८५४ -पुद्गल परमाणुविद्वान इसे प्रमाणित नहीं मानते (क. पा./५/प्र.६३/पं. महेन्द्र), का निकटमें स्थित आकाश प्रदेशके अतिक्रमण प्रमाण जो अविभागी (भ. आ./प्र.४/प्रेमी जी), (यु. अनु./प्र. ४४/पं. मुख्तार साहब), काल है वही समय नामसे प्रसिद्ध है। (ध.४/१,५.१/३१८/२); (ध. १/प्र. १०/H. L. Jain), (प. प्र./प्र. १२१/उपाध्ये.). (स. सि./प्र.- (न. च. बृ./१४०); (गो. जी./मू. ब. जी. प्र./५७३); (पं.का./ १७/प, महेन्द्र), (ह. पू./प्र.६/पं. पन्नालाल) इत्यादि । बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति के समकालीन बताकर डा. सतीशचन्द ता. वृ./२५); (पं. का./ता. वृ./५/५२/५) विद्याभूषण इन्हें ई. ६०० में स्थापित करते है।१५। रत्नक्रण्ड रा. वा./३/३८/७/२०८/३४ सर्वजघन्यपरिणतस्य परमाणोः स्वावगाढाश्रावकाचार के श्लोकको सिद्धसेन गणी कृत न्यायावतार में से वकाशप्रदेशव्यतिक्रमकालः परमनिषिद्धो निविभागः समयः । बागत बताकर श्वेताम्बर विद्वान पं. मुस्ख लाल जी इन्हें इसी समय -जघन्यगतिसे एक परमाणु सटे हुए द्वितीय परमाणु तक जितने में हुआ मानते है। प्रेमी जी तथा डा. हीरा लाल इन्हें ई. श. में काल में जाता है उसे समय कहते हैं। कम्पित करते है।१२। परन्तु नागवंशी चोल नरेश कीलिकबर्मन दे. काल/१ काल समय और अद्धा ये एकार्थवाची हैं। के अनुसार ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर डा. ज्योति प्रशाद घ. १३/५.१,५६/२६८/११ दोण परमाणूण तप्पाओग्गवेगेण उड्डमधो च इन्हें ई. १२०-१८५ में और मुख्तार साहम तथा डा. महेन्द्र कुमार गच्छताणं सरीरेहि अण्णोण्णफोसणकालो समओ णाम। -तप्रायोग है.श.२ में प्रतिष्ठित करते हैं । १३ । परन्तु ऐसा मानने पर श्रवण- ___ वेगसे एकके ऊपरकी ओर और दूसरेके नीचेकी ओर जानेवाले दो बेलगोल के शिलालेख नं.४० में इन्हें जो गृपिच्छ (उमास्वामी) परमाणुओंका उनके शरीर द्वारा स्पर्शन होनेमें लगनेवाला काल के प्रशिष्य और बलाक पिच्छ के शिष्य कहा गया है।१०। वह समय कहलाता है । (गो. जी./मू./५७३)। घटित नहीं हो सकता। (ती./२/पृष्ठ सं...")(व.इतिहास/७/१)। गो.जी./मू./५७३ अवरा पज्जायद्विवी खणमेतं होदितं च समओत्ति। -सम्पूर्ण द्रव्योंकी जघन्य पर्याय स्थिति एक समयमात्र होती है, समंतानुपात क्रिया-दे. क्रिया/३/३ । इसोको समय भी कहते हैं । सम-स. सा./आ/२ समयत एकत्वेन...।-समयत अर्थात एकरव २. आरमाके अर्थमें रूपसे । (स. सा./आ./३)। गी. क./जी, प्र./५४७/७१३/५ सम एकीभावेन। -सम अर्थात एकी. स. सा./आ./२ जीवनाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जाभावसे...1 नाति गच्छति चेति निरुक्तेः। -जीव नामक पदार्थ समय है। जो दे. सामायिक/१/२ घी संगत है अर्थात् धीके साथ एकीभूत है। एकत्व रूपसे एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ वह समय है। समकित चौबीसी व्रत-एक वर्ष पर्यन्त प्रत्येक चतुर्दशीको स.सा./आ./३ समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते। समयत उपवास करे। तथा 'ओं ह्रीं वृषभादि चतुर्विशतिजिनाय नमः' इस एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्तेः। -समय शब्दसे सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि व्युत्पत्तिके अनुसार मन्त्रका त्रिकाल जाप। कुल ४८ उपवास करे। 'समयते' अर्थात एकीभावसे अपने गुणपर्यायोंको प्राप्त होकर जो समकद्रिय-Concentric (ध./५/प्र. २८)। परिणमन करता है सो समय है। (स. सा./ता. वृ./१५१/२१४/१३) स. सा./ता. वृ./१५१/२१४/१३ सम्यगयः संशयादिरहितो बोधो ज्ञानं समचतुरस्त्र संस्थान-. संस्थान । यस्य भवति स समयः अथवा समित्येकत्वेन परमसमरसीभावेन समच्छिन्नक-Frustrum (ज./प्र./१०८)। स्वकीयशुद्धस्वरूपे अयनं गमनं परिणमनं समयः। -'सम्यगयः' समच्छेद-गणितकी भिन्न परिकाष्टक विधिमें अंशों और हरों अर्थात संशय आदि रहित ज्ञान जिसका होता है ऐसा जीव समय है। अथवा एकीभावरूपसे परमसमरसी भाव स्वरूप अपने शुद्ध को यथायोग्य गुणा करके सब राशियोंके हार समान करना। स्वरूपमें गमन करना, परिणमन करना सो समय है। विशेष-दे. गणित/11/९/१०।। स.सा./पं. जयचन्द/२ 'सम' उपसर्ग है, जिसका अर्थ 'एक साथ' है और समता-१.दे. सामायिक । २. समताके अपर नाम-दे. मोक्ष- 'अय गतौ' धातु है, जिसका अर्थ गमन और ज्ञान भी है, इसलिए मार्ग/२/१॥ एक साथ ही जानना और परिणमन करना, यह दोनों क्रियाएँ जिसमें हों वह समय है। यह जीव नामक पदार्थ एक ही समयमें परिणमन समतोया-भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-वे. मनुष्य/४ । भी करता है और जानता भी है इसलिए वह समय है। समवत्ति-दे. दान/१। ३. पदार्थसमूहके अर्थमें समद्विबाहु- Squaloidral (ज. पं./प्र. १०८ ) पं. का./पू./३ समवाओ पंचण्ह समउ ति जिणुप्तमेहि पण्णत्त ।...। -पाँच अस्तिकायका समभावपूर्वक निरूपण अथवा उनका समवाय समधारा-दे. गणित/II/R/21 वह समय है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय ३२८ समयप्रबद्ध दे. समय/१/२ समय शब्दसे सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं। ४. सिद्धान्तके अर्थ में स्या, म. ३०/३३५/१२ सम्यक् एति गच्छति शब्दोऽर्थ मनेन इति "पुन्नामिन घः" समयसंकेतः । यद्वा सम्यग् अवैपरीत्येन ईयन्ते ज्ञायन्ते जीवाजीवादयोऽथवा अनेन इति समयः सिद्धान्तः । अथवा सम्यग अयन्ते गच्छन्ति जीवादयः पदार्थाः स्वरूपे प्रतिष्ठा प्राप्नुवन्ति अस्मिन् इति समय आगमः ।.. उत्पादव्ययधौव्यप्रपञ्चः समयः । - जिससे शब्द का अर्थ ठीक-ठीक मालूम हो सो समय है अर्थात संकेत । यहाँ सम-इ धातुसे 'पुंन्नाम्नि घः' इस सूत्रसे समय शब्द बनता है। अथवा जिससे जीव, अजीव आदि पदार्थोंका भले प्रकारसे ज्ञान हो ऐसा सिद्धान्त समय है। अथवा जिसमें जीव आदिक पदार्थोंका ठीक-ठीक वर्णन हो ऐसा आगम समय है। अथवा उत्पाद व्यय और धौव्य के सिद्धान्तको समय कहते हैं। ५. सामायिकके अर्थ में दे. सामायिक/३/१/२ ज्ञानी पुरुष मुठी वा वस्त्र बाँधनेको, पलाठी मारने आदिको अथवा सामायिक करने योग्य समयको जानते हैं । प'. का./म. व ता. वृ./१६५ उत्थानिका-सूक्ष्मपरसमयस्वरूपाख्यानमेतत् । -अण्णाणदो णाणी जदि मण्ण दि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्रवमोक्रवं परसमयरदो हवदि जीवो ११६५। कश्चित्पुरुषो निर्विकारशुद्धारमभावनालक्षणे परमोपेक्षा संयमे स्थातुमीहते तत्राशक्तः सन् कामक्रोधाद्यशुद्धपरिणामवञ्चनार्थ संसारस्थितिछेदनार्थ वा यदा पञ्चपरमेष्ठिषु गुणस्तवनभक्ति करोति तदा सूक्ष्मपरसमयपरिणतः सन् सरागसम्यग्दृष्टिर्भवतीति, यदि पुनः शुद्धात्मभावनासमर्थोऽपि तां त्यक्त्वा शुभोपयोगादेव मोक्षो भवतीत्येकान्तेन मन्यते तदा स्थूलपरसमयपरिणामेनाज्ञानी मिथ्याष्टिभवति । ततः स्थितं अज्ञानेन जीवो नश्यतीति । यह सूक्ष्म परसमयके स्वरूपका कथन है। शुद्धसंप्रयोगसे दुरव मोक्ष होता है ऐसा यदि अज्ञानके कारण ज्ञानी माने तो बह परसमयरत जीव है।१६।। कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्म भावना है लक्षण जिसका ऐसे परमोपेक्षा संयममे स्थित होनेकी इच्छा करता है परन्तु अशक्त होता हुआ, जब काम-क्रोधादि अशुद्ध परिणामोसे बचनेके लिए तथा संसार स्थितिके विनाशके लिए पंचपरमेष्ठी के गुणस्तवन आदि रूप भक्ति करता है, तब सूक्ष्म परसमयसे परिणत होता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि होता है। और यदि शुद्धात्म भावनामें समर्थ होनेपर भी उसको छोड़ कर, शुभोपयोगसे ही मोक्ष होता है ऐसा मानता है, तब वह स्थूल परसमग रूप परिणामसे अज्ञानी व मिथ्या दृष्टि होता है । अतः सिद्ध हुआ कि अज्ञान से जीव का नाश होता है। , * परसमय निर्देश समयप्रबद्ध-१. समयप्रबद्ध सामान्य ध.१२/४,२,१४,२/४७८/७ समये प्रबध्यत इति समयप्रबद्धः । -एक समय में जो बाँधा जाता है वह समय-प्रबद्ध है। गो, जी./जी. प्र./२४५/५०६/४ समये समयेन वा प्रबध्यतेस्म कर्मनोकर्मरूपतया आत्मना संबध्यते स्म यः पुद्गलस्कन्धः स समयप्रबद्धः। -जो समय-समयमें कम-नोकर्म रूप पुदगल स्कन्धोंका आत्मसे सम्बन्ध किया जाता है वह समय प्रबद्ध है। २. समयमबद्ध विशेष कर्म-नोकर्म समयमबद्ध २. शब्द अर्थ व ज्ञान समय पं. का./त. प्र./३ तत्र च पञ्चानामस्तिकायानां समो मध्यस्थो रागद्वेषाभ्यनुपहतो वर्ण पदवाक्यसं निवेशविशिष्टः पाठो बादः शब्दसमय: शब्दागम इति यावत् । तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयोच्छेदे सति सम्यग्वायः परिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानागम इति यावत्। तेषामेवाभिधानप्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवायः संघातोऽर्थसमयः सर्वपदार्थसार्थ इति यावत् । =सम् अर्थात् मध्यस्थ यानी जो रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ, वाद अर्थात् वर्ण पद और वाक्यके समूहवाला पाठ। पाँच अस्तिकायका 'समवाय' अर्थात् मध्यस्थ पाठ बह शब्दसमय है अर्थाद शब्दागम वह शब्द समय है। मिथ्यादर्शनके उदयका नाश होनेपर, उस पंचास्तिकायका ही सम्यग् अवाय अर्थात सम्प्ररज्ञान वह ज्ञान समय है अर्थात ज्ञानागम वह ज्ञान समय है। कथनके निमित्तसे ज्ञात हुए उस पंचास्तिकायका ही वस्तु रूपसे समवाय अर्थात समूह ब्रह अर्थसमय है। ३. स्व व परसमय र. सा./मू./१४७ बहिरतरप्पभेयं परसमयं भण्णए जिणिदेहिं । परमप्पो सगसमयं तब्भेयं जाण गुणठाणे ।१४७१ = जिनेन्द्र देवने बहिरात्मा, अन्तरात्माको परसमय बतलाया है। तथा परमात्माको स्वसमय बतलाया है । इनके विशेष भेद गुणस्थानकी अपेक्षा समझने चाहिए। दे. मिथ्यादृष्टि/१/१ मिथ्यादृष्टि परसमय रत है। स. सा./मू./२ जीबो चरित्तदंसणणाण द्विउ तं हि ससमयं जाण । पुग्गल कम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं ।। = हे भव्य, जो जीब दर्शन, ज्ञान, चारित्रमें स्थित हो रहा है वह निश्चयसे स्वसमस जानो और जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित है उसे परसमय जानो। प्र. सा./मू./६४ जे पज्जयेसु गिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिहिट्ठा । आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदवा। - जो जीव पर्यायों में लीन हैं उन्हें परसमय कहा गया है (प्र. सा./मू./६३ ) जो आरम स्वभावमें लोन हैं वे स्वसमय जानने। पं. का./म./१५५ जीवो सहाबणियदो अणियदगुणपज्जोधपरसमओ । जदि कुण दि सगं समयं पभस्सदि कम्मबंधादो। -जीव (द्रव्य अपेक्षासे) स्वभाव नियत होनेपर भी, यदि अनियत गुणपर्यायवाला हो तो पर समय है। यदि वह (नियत गुणपर्यायसे परिणत होकर ) स्वसमयको करता है तो कर्मबन्ध करता है। गो.जी./जी.प्र/२४५/०६/४ सिद्वानन्तै कभागाभव्यराश्यनन्तप्रमिता. नन्तवर्गणाभिनियमेनै कसमयप्रबद्धो भवति । गो. जी./जी. प्र./२४६/५१०/११ सर्वतः स्तोकः औदारिकसमयप्रबद्धः । ...ततः श्रेण्यसंख्येयभागगुणितपरमाणुप्रमितो वैक्रियिकशरीरसमयप्रबद्धः । ततः संख्येयभागगुणितपरमाणुप्रमितः आहारकशरीरसमयप्रबद्धः। ...अग्रे तेजसशरीरसमयप्रबद्धोऽनन्तगुणपरमाणुप्रमितः । १. सिद्धोंके अनन्तवें भाग तथा अभव्योंसे अनन्तगुणे ऐसे मध्य अनन्तानन्त प्रमाण वर्गणाओंसे नियमसे एक समयप्रबद्ध होता है। २. औदारिक शरीरका समयप्रबद्ध सबसे कम है। इससे श्रेणीके असंख्यातवें भाग गुणित परमाणु प्रमाण समयप्रबद्ध वैक्रियक शरीरका है । और उससे भी श्रेणी के असंख्यातवें भागसे गुणित परमाणु प्रमाण समय-प्रबद्ध आहारक शरीरका है। इससे आगे तेजस व कार्मण शरीरका समयप्रबद्ध क्रमशः अनन्तगुणा अनन्तगुणा है। २. नवक समयप्रवद्ध गो. क./भाषा./५१४/६७३/१ जिनका बन्ध भये थोड़ा काल भया, संक्रमणादि व.रने योग्य जे निषेक न भये ऐसे नूतन समयप्रबद्धके निषेक तिनिका नाम नवकसमय प्रबद्ध है। - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयभूषण ३२९ समवसरण समयभूषण-आ.इन्द्रनन्दि ( ई. श. १०-११) को रचना। समय सत्य-दे, सत्य/१। समयसार-१. समयसार सामान्यका लक्षण न. च. वृ./३५५ सामण्णं, परिणामी जीवसहावं च परमसम्भाव । ज्झेयं गुन्भं परमं तहेव तच्चं समयसारं ।३५५॥ - सामान्य, परिणामी, जीवस्वभाव, परमस्वभाव, ध्येय, गुह्य, परम तथा तत्त्व ये सब समयसारके अपर नाम हैं ।३५५॥ २. कारण-कार्य समयसार निर्देश न. च. वृ./३६०-३६२ कारणकज्जसहावं समय काऊण होइ ज्झायव्वं । कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स ३६०। सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हू जीव सम्भावो । खय पुणु सहावझाणे तया तं कारणं झेयं ।३६१। किरियातीदो सत्थो अणतणाणाइस जुतो अप्पा। तह मज्झत्यो सुद्धो कज्जसहावो हवे समओ ।३६२। -कारण व कार्य समयसारको जानकर ध्यान करना चाहिए । कार्य समयसार शुद्धस्वरूप है तथा कारण, समयसार उसका साधन है ।३६०। शुद्ध तथा कर्मोंके क्षयसे कार्य समयसार होता है । कारणसमयसार जीबका स्वभाव है, स्वभावके ध्यान करनेसे कर्मोंका क्षय होता है। इसलिए कारणसमयसारका ध्यान करना चाहिए ।३६१। क्रियातीत, प्रशस्त, अनन्त ज्ञानादिसे संयुक्त मध्यस्थ तथा शुद्ध आत्मा, कार्य समयसार है । वही स्वभाव तथा समय है। प्र. सा./ता. पू./१२/१२४/१६ शुद्धात्मरूपपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूति रूपकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशे सति शुद्धात्मोपलम्भव्यक्तिरूपकार्यसमयसारस्योत्पादः । = शुद्धारमा रूप परिच्छित्ति, उस ही को निश्चल अनुभूति रूप जो कार्य समयसार पर्याय, उसका विनाश होनेपर, शुद्धात्मोपलब्धिकी व्यक्तिरूप कार्यसमयसारका उत्पाद है। द्र. सं./टी./२२/६४/५ केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपेण कार्यसमयसारस्योत्पादो निर्विकल्पसमाधिरूपकारणसमयसारस्य विनाश...-केवल ज्ञानादिकी प्रगटता रूप कार्यसमयसारका उत्पाद होता है उसी समय निर्विकल्प ध्यान रूप जो कारणसमयसार है उसका विनाश होता है। द्र. सं./टी./३७/१५४/8 निश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसाररूपो... आत्मनः परिणाम....चतुष्टयकर्मणो यः क्षयहेतुरिति। -निश्चय रत्नत्रयरूप कारणसमयसाररूप आत्म परिणाम...चारघातियाकर्मों के नाशका कारण है। जो श्रुतज्ञान होता है वह कारणसमयसार है और भाव नमस्कार कार्यसमयसार है। उसके आधारसे होनेवाला चार प्रकारका धर्मध्यान कारणसमयसार है, तथा तदनन्तर उत्पन्न होनेवाला बयालीस भेदरूप ( बयालीस व्यंजनोंमें संक्रान्ति करनेवाला), पराश्रित प्रथम शुक्लध्यान कार्यसमयसार है। उसके आश्रय से होनेवालाभेदज्ञानकारण समयसार है। उसके आश्रय मे होने वाला परोन्मुखाकार स्वसंवेदन रूप भेदज्ञान कार्य समयसार है ।स्वाश्रित स्वरूपका निरूपक,निराकार तथा भावात्मक, सम्यक् द्रव्यश्रुत कारणसमयसार है, तथा उससे उत्पन्न एकदेशसमर्थ भारत कार्यसमयसार है। उसके आगे स्वाश्रितरूपसे उपादेय भेदरत्नत्रय कारणसमयसार है और उस रत्नत्रयमें एकात्मक अवस्था कार्यसमयसार है। उसके आगे स्वाश्रित धर्मध्यान कारणसमयसार है और उससे होनेवाला भावात्मक प्रथम शुक्लध्यान कार्यसमय है। उसके आगे द्वितीय शुक्लध्यान संज्ञाको प्राप्त जो क्षीणकषाय गुणस्थानका द्विचरम समय. तहाँ पर्यत कार्य-परम्परागत कारण समयसार है। इस प्रकार अप्रमत्त गुणस्थानको आदि लेकर क्षीण कषाय गुणस्थान पर्यन्त समय समय प्रति कारण कार्य रूप जानना चाहिए। ( अर्थात् पूर्वपूर्व के भाव कारण समयसार हैं और उत्तर उत्तरके भाव कार्यसमयसार।) . . समयसार-आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६) कृत महान् आध्यात्मिक कृति । इसमें ४१५ प्राकृत गाथाएँ निबद्ध हैं। इस पर निम्न टीकाएँ उपलब्ध हैं-१. आ, अमृतचन्द्र (ई.०५-६५५ ) कृत आत्मख्याति । २. आ. जयसेन (ई.श.१२-१३ ) कृत तात्पर्यवृत्ति । ३. आ. प्रभाचन्द नं.१ (ई. ६५०-१०२०) कृत। ४. पं. जयचन्द छाबड़ा (ई. १८०७) कृत भाषा वचनिका । (ती./२/११३) । समयसार नाटक-पं. बनारसीदास (ई. १६३६ ) की अद्वितीय आध्यात्मिक रचना है। इसमें १५ अधिकार और ६१६ पद है। यह ग्रन्थ समयसारकी आरमख्याति टीकाके कलशों के आधारपर लिखा गया है। इसपर पं. सदासुखदास (ई.१७६५-१८६७) ने एक टीका भी लिखी है। (ती./४/२५२।। समवदान-दे. कर्म/११ समवसरण-अहंत भगवान् के उपदेश देनेकी सभाका नाम समबसरण है, जहाँ बैठ कर तिर्यंच मनुष्य व देव-पुरुष व स्त्रियाँ सब उनकी अमृतवाणीसे कर्ण तृप्त करते हैं। इसकी रचना विशेष प्रकारसे देव लोग करते हैं। इसकी प्रथम सात भूमियों में बड़ी आकर्षक रचनाएँ, नाट्यशालाएँ, पुष्प वाटिकाएँ, वापियाँ, चैत्य वृक्ष आदि होते हैं । मिथ्या दृष्टि अभव्यजन अधिकतर इसीके देखने में उलझ जाते हैं। अत्यन्त भावुक व श्रद्धालु व्यक्ति ही अष्टमभूमिमें प्रवेश कर साक्षात् भगवान के दर्शनोंसे तथा उनकी अमृतवाणीसे नेत्र, कान व जीवन सफल करते हैं। १. समवसरण का लक्षण ३. कारण-कार्य समयसारके उदाहरण न. च. वृ./३६८ चूलिका-सकलसमयसारार्थ परिगृह्य पराश्रितोपादेयबाच्यवाचकरूपं पञ्चपदाश्रितं श्रुतं कारण समयसारः । भावनमस्कार। रूपं कार्यसमयसारः । तदाधारेण चतुर्विधधर्मध्यानं कारणसमयसारः । सदनन्तरं प्रथमशुक्लध्यानं द्विचत्वारिंशभेदरूपं पराश्रितं कार्यसमयसारः। तदाश्रितभेदज्ञानं कारणसमयसारः । तदाधारीभूत परान्मुखाकारस्वसंवेदनभेदरू कार्य समयसारः ।...स्वाश्रितस्वरूपनिरूपक भावनिराकाररूप सम्यग्द्रव्यश्रुतं कारणसमयसारः । तदेकदेशसमर्थो भावश्रुतं कार्यसमयसारः । ततः स्वाश्रितोपादेयभेदरत्नत्रयं कारणसमयसारः । तेषामेकरवावस्था कार्यसमयसारः...ततः स्वाश्रितधर्म ध्यान कारणसमयसारः । ततः प्रथमशुक्लध्यान कार्य समयसारः । ततो द्वितीयशुक्लध्यानाभिधानकं क्षीणकषायस्य द्विचरमसमयपर्यन्त कार्यपरम्परा कारणसमयसारः । एवमप्रमत्तादि क्षीणकषायर्यतं समय समय प्रति कारण कार्यरूपं ज्ञातव्यम्। -आगमके आधारपर सकल समयसारके अर्थको ग्रहण करके, पराश्रितरूपसे उपादेयभूत तथा बाच्यवाचक रूपसे भेदको प्राप्त पंचपरमेष्ठीके वाचक शब्दों के आश्रित म. प्र./३३/७३ समेल्यावसरावेक्षास्तिष्ठन्त्यस्मिन सुरासुराः। इति तज्जैनिरुक्तं तत्सरण समवादिकम् ।७३। - इसमें समस्त मर और असुर आकर दिव्यध्वनि के अवसरकी प्रतीक्षा करते हुए बैठते हैं, इसलिए जानकार गणधरादि देवोंने इसका समवसरण ऐसा सार्थक नाम कहा है ७३॥ २. समवसरणमें अन्य केवली- आदिके उपदेश देनेका स्थान ह.पु./५७/८६-८१ ततः स्तम्भसहस्रस्थो मण्डपोऽस्ति महोदयः । नाम्ना मूर्तिमतिर्यत्र वर्तते श्रुतदेवता।६। तां कृत्वा दक्षिणे भागे धीरहु भा०४-४२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण ३३० तत्र तदर्धमाना श्चत्वारस्तरपरीवारमण्डपाः । आक्षेपण्यादयो येषु कथ्यन्ते कथकैः कथाकीर्ण कवासेषु विप्रेष्याचक्षते स्फुटयः स्वष्ट मर्थिभ्यः केवलादिमहर्द्धयः | [भवनभूमि नामकी सप्तम भूमिमें स्तूपोंसे आगे एक पताका लगी हुई है ] उसके आगे १००० खम्भोंपर खड़ा हुआ महोदय नामका मण्डप है, जिसमें मूर्तिमती देवता विद्यमान रहती है उस देवताको शहिने भागमें करके अद्भुतके धारक अनेक धीर वीर मुनियोंसे विरे बुतकेवली कल्याणकारी श्रुतका व्याख्यान करते हैं । ८७| महोदय मण्डपसे आ विस्तारवाले चार परिवार मण्डप और हैं, जिनमें कथा कहनेवाले पुरुष आक्षेपिणी आदि कथाएँ कहते रहते हैं इन मण्डपों के समीपमें नाना प्रकार के फुटकर स्थान भी बने रहते हैं, जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महाशुद्धियों के धारक ऋषि हरजनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओंका निरूपण करते हैं (हरिषेण कृत कथाकोष | कथा नं. ६० / श्लो. १५५ - १६० ) I २. मिध्यादृष्टि अमभ्य जन श्रीमण्डपके भीतर नहीं जाते ति प./४/१३२ मिच्दा अिभन्या मुमसणी न होंति कहआई तह - य अणज्भवसाया संदिद्धा विविहविवरीदा | १३२] - इन (बारह ) कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञो जीव कदापि नहीं होते तथा अनध्यवसाय से युक्त, सन्देहसे संयुक्त और विविध प्रकारकी विपरीतताओं सहित जीव भी नहीं होते हैं |१२ ३. पु./२०/१०४ मध्यकूटाया स्तुपा भामकुटास्ततोऽपरे। वानभम्या न पश्यन्ति प्रभावीकृतेक्षणा १०४ [भूमिमें अनेक स्तूप हैं। उनमें सर्वार्थसिद्धि नामके अनेकों स्तूप है।] नदी प्यमान शिखरों से युक्त भव्यकूट नामके स्तूप रहते हैं, जिन्हें अभव्य जी नहीं देख पाते। क्योंकि उनके प्रभाव से उनके नेत्र अन्धे हो जाते है ४. समवसरणका माहात्म्य ति./४/१२१-६२२ जिगवंदापट्टा पहला संखेज्जभागपरिमाणा । जीवा एक्केश्के समय सरणे १२१० को नेता जीववखेत्तं फलं असंखगुणं । होदून अट्ठ त्ति हु जिनमाहप्पेण ईति ॥१३०॥ संसेज्जोयणाणि मानयहूदी पसकिन्गमणे । अंतोमुहुत्तकाले जिण माहप्पेण गच्छति ||३१| आतंकरोगमरणुपीओ बेरकामचाधाओं । तण्हा वहपोडाओ जिनमापे ण हवं ति ||३३| - एक-एक समवसरण में पश्य के असंख्यातवें भागप्रमाण विविध प्रकार के जीव जिनदेवकी बन्दनामें प्रवृत्त होते हुए स्थित रहते हैं |२| कोठों क्षेत्र यद्यपि जीवोंका क्षेत्रफल असंख्यातगुना है. तथापि सम जीव जिनदेवके माहात्म्यसे एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं|३०| जिनमगमास्के माहात्म्यसे बालकप्रभृति जीन प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर संख्यातयोजन चले जाते हैं |१| इसके अतिरिक्त वहाँपर जिनभगवान्‌के माहात्म्य से आतंक, रोग, मरण, उत्पत्ति, बैर, कामबाधा तथा तृष्णा ( पिपासा ) और पाकी पीड़ाएं नहीं होती हैं |२३| ५. समवसरण देव कृत होता है ति. प. / ४ /७१० ताहे सक्काणाए जिणाण सबलाण समवसरणाणि । विकिरियाए घणो विरदि विलिरुहि [०१०] सौधर्म इन्द्रकी आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा सम्पूर्ण तीर्थ करके विचित्र रूप से रचता है ! ७१०। ६. समवसरणका स्वरूप पि./४/गा का भावार्थ- १. समवसरण के रूप में ३१ अधिकार हैसामान्य भूमि सोपान, विन्यास, बीपी भूमिशाल (प्रथमकोट ) चैत्यप्रासाद भूमियाँ, नृत्यशाला, मानस्तम्भ, बेदी, खातिकाभूमि, वेदी, लतामि, साल (वि. कोट), उपवनभूमि नृत्यशाला बेदी, मिसाल (कोट), कल्पभूमि नृत्यशाला बेदी भवन भूमि, स्तूप, साल (चतु. कोट), श्री मण्डप, ऋषि आदि गण, वेदी, पीठ, डि. पीठीय पीठ, और गन्धकुटी ०७१३२ समनसरणकी सामान्य भूमि गोल होती है । ७१६। ' उसकी प्रत्येक दिशामें आकाशमें स्थित मीरा-मोस हजार सोभान सीढ़ियाँ) है समवशरण २०४ इसमें चार कोट, पाँच मेदियों, इनके बीच में आठ भूमियों और सर्वत्र अन्तर भाग में तीन-तीन पीठ होते हैं। यह उसका विन्यास फोटो आदिका सामान्य निर्देश है १७२३। ( चित्र . १४३३२) ५. प्रत्येक दिशाने सोपानों से लेकर अष्टम भूमिके भीतर गन्धकुटीको प्रथम पीठ तक एक-एक बीधी (सड़क) होती है । ७२४ | बीथियोंके दोनों बाजुओं में बीथियों जितनी ही लम्बी दो बेदियाँ होती हैं |७२८ आठों भूमियोके इसमें बहुतसे तोरणद्वार होते है ७३१ ६ सर्वप्रथम विशाल नामक प्रथम कोट है । ७१३ | इसकी चारों दिशाओं में चार तोरण द्वार हैं । ( ७३४) । ( दे. चित्र सं. २ पृष्ठ ३.३३ ) प्रत्येक गोपुर (द्वार) के बाहर मंगल द्रव्य नवनिधि व धूप घट आदि युक्त पुतलियाँ स्थित हैं । ७३७ | प्रत्येक द्वारके मध्य दोनों बाजुओं में एक-एक नाट्यशाला है । ७४३) ( दे. चित्र सं ३ पृष्ठ ३३३ ) ज्योतिषदेव इन द्वारोंकी रक्षा करते हैं ingar ७. पूसिसास कोटके भीतर र प्रासाद भूमियों है (भोष से मुझ २०११ जहाँ पाँच-पाँच प्रासादोंके अन्तराल से एक-एक चैत्यालय स्थित हैं । ७५२। इस भूमिके भीतर पूर्वी चार बीवियोंके पार्श्वभागों में नाट्यशालाएं हैं। जिनमें ३२ रंगभूमियों है। प्रत्येक रंगभूमि १२ भवनवासी कन्याएँ दृश्य करती है।७३८-३६८. प्रथम चैत्यशसाद.) भूमिके बहुमध्य भागमें चारों वीथियोंके बीचोबीच गोल मानस्तम्भ भूमि हैं । ७६१श (विशेष दे मानस्तम्भ । चित्र सं. ४ पृष्ठ २२१) ६. इस प्रथम चेश्यप्रासादभूमि से आगे प्रथम बेदीं है, जिसका सम्पूर्ण कथन धूलिशालकोट वद जानना । ७६२-०६३ । १० इस बेदीसे आगे स्वातिका भूमि है।७१५२ जिसमें जलसे पूर्ण खातिकाए हैं । ७६६ । ११. इससे आगे पूर्व वेदिका सदृश ही द्वितीय वेदिका है | १२. इसके आगे लताभूमि है, जो अनेकों क्रीड़ा पर्वतों व भाषिकाओं आदि शोभित है ०० ०१ १३. इसके आगे दूसरा कोट है, जिसका वर्णन साल है. परन्तु यह यक्षदेवोंसे रक्षित है ।८०२ । १४. इसके आगे उपवन नामको चौभी भूमि है ।०३। जो अनेक प्रकारके वनों बापिकाओं य पेय वृक्षोंसे शोभित है। १२. सब मनके आत सब बीथियोंके दोनों पार्श्व भागों में दो-दो ( कुल १६ ) नाट्यशालाएँ होती हैं। आदिवासी वाहने भवनवासी देवकन्याएं और आगे की आउने कल्पवासी देवकन्याएं नृत्य करती हैं १६. इसके पूर्व ही तीसरी बेदी है जो महादेवोंसे रक्षित १७. इसके आगे ध्वज-भूमि है, जिसकी प्रत्येक दिशाम सिंह, गज आदि दस चिह्नोंसे चिह्नित ध्वजाए हैं। प्रत्येक चिह्नबजाए १०८ है और प्रत्येक वा अन्य १०से युक्त है। कुल ध्वजाए - ( १०x१०८x४ ) + (१०x१०८१०८x ४) ४७०८८० । १५. इसके आगे तृतीय कोट है जिसका समस्त वर्णन धूलिसाल कोटके सदृश है । ८२७। १६. इसके आगे छठी कल्पभूमि है जो दस प्रकारके कल्पवृक्षों से तथा अनेकों प्रासादों, सिद्धार्थ वृक्षों से है " जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण समवसरण ८३३। २०. कल्पभूमि के दोनों पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी के आश्रित पीठके ऊपर तीसरी पीठ है।८८४। जिसके चारों दिशाओं में आठचार-चार (कुल १६) नाट्यशालाएँ हैं ।८३८। यहाँ ज्योतिष आठ सोपान हैं।८८६३ ३१. तीसरी पीठके ऊपर एक गन्धकुटी है, कन्याए नृत्य करती हैं।८३६॥ २१. इसके आगे चौथी वेदी है, जो अनेक ध्वजाओंसे शोभित है।८८७-८८८। गन्धकुटीके मध्य में जो भवनवासी देवों द्वारा रक्षित है ।८४०। २२. इसके आगे पादपीठ सहित सिंहासन है। जिसपर भगवान् चार अंगुल के भवनभूमियाँ हैं, जिनमें ध्वजा-पताकायुक्त अनेकों भवन हैं।८४११ अन्तरालसे आकाशमें स्थित है ।८६५ह. पु./७/१-१६१)(ध-६/४, २३. इस भवनभूमिके पार्श्वभागोंमें प्रत्येक बीथीके मध्यमें १,४४/१०६-१९३) (म. ./२२/७७-३१२) ( चित्र सं.५, पृष्ठ ३३४) जिनप्रतिमाओंयुक्त नौ-नौ स्तुप (कुल ७२ स्तूप) है।८४४। * मानस्तम्भका स्वरूप व विस्तार-दे. मानस्तम्भ। २४. इसके आगे चतुर्थ कोट है जो कल्पवासी देवों द्वारा रक्षित है 1८४८-८४६, २५. इसके आगे अन्तिम श्रीमण्डप भूमि है।८५२॥ * चैत्य वृक्षका स्वरूप व विस्तार-दे. वृक्ष। इसमें कुल ६ दीवारें व उनके बीच १२ कोठे हैं 1८५३॥ २६. पूर्व (चित्र सं.६, पृष्ठ ३३४) दिशाको आदि करके इन १२ कोठोंमें क्रमसे गणधर आदि मुनिजन; कल्पवासी देवियाँ, आर्यिकाएं व श्राविकार, ज्योतिषी देवियाँ, व्यन्तर देवियाँ, भवनवासी देवियाँ, भवनवासीदेव, ७. समवसरणका विस्तार व्यन्तरदेव, ज्योतिषीदेव, कल्पवासीदेव, मनुष्य व तियंच मैठते ति.प./४/७१८ अवसप्पिणिए एवं भणिदं उस्स प्पिणीए विवरीदं । हैं।८५७-८६३॥ २७. इसके आगे पंचम वेदी है, जिसका वर्णन बारस जोयणमेत्ता सा सयल विदेहकत्ताण ७१८ =यह जो सामान्य चौथे कोटके सदृश है।६४। २८. इसके आगे प्रथम पीठ है, जिस- भूमिका प्रमाण बतलाया है (दे. आगे सारणी) वह अवसर्पिणीपर बारह कोठों व चारों वीथियोंके सन्मुख सोलह-सोलह सीढ़ियाँ कालका है। उत्सपिणी कालमें इससे विपरीत है। विदेह क्षेत्रके हैं।६५-८६६। इस पीठपर चारों दिशाओं में सरपर धर्मचक्र रखे सम्पूर्ण तीर्थ करोंके समवसरणकी भूमि मारह योजन प्रमाण ही चार यक्षेन्द्र स्थित हैं।८७०। पूर्वोक्त बारहके बारह गण इस पीठ- रहती है ।७१८॥ [ अवसर्पिणी काल में जिस प्रकार प्रथम तीर्थ से पर चढ़कर प्रदक्षिणा देते हैं।८७३। २६. प्रथम पीठके ऊपर द्वितीय अन्तिम तीर्थ तक भूमि आदिके विस्तार उत्तरोत्तर कम होते गये पीठ होता है ।८७५ जिसके चारों दिशाओं में सोपान हैं।७१। हैं उसी प्रकार उत्सर्पिणीकालमें वे उत्तरोत्तर बढ़ते होंगे। विदेह इस पीठपर सिंह, बैल आदि चिह्नोंवाली ध्वजाए हैं व अष्टमंगल क्षेत्रके सभी समवसरणों में ये विस्तार प्रथम तीर्थ करके समान द्रव्य, नवनिधि, धूपघट आदि शोभित हैं ।८८०-८८१०३०. द्वितीय जानने। प्रमाण-ति. प./४/गाथा सं. नोट-तीर्थंकरोंको ऊँचाईके लिए 1 दे. तीर्थकर/५/३/२.१६ ॥ संकेत-यो = योजन; को.-कोश: ध.-धनुष; अं.- अंगुल । प्रथम लम्बाई २२वें गाथा नाम चौड़ाई या / ऋषभदेवके । नेमिनाथ तक | पाश्वनाथके वर्धमानके समवसरणमें | क्रमिक हानि | समवसरण में समवसरण में सामान्य भूमि विस्तार १२ यो. २ को. (विशेष दे, तीर्थकर/५/३/४-३२) सोपान लम्बाई २४४२४ यो । २४ यो. | ट को. ४६ को, चौड़ाई व ऊँचाई १हाथx १हाथ १हाथ वीथी चौड़ाई सोपानवव লাই ३५३ को. | ३ को. | ४१ को. बीथीके दोनों बाजुओं में वेदी प्रथम कोट ऊँचाई स्व स्व तीर्थ करसे चौगुनी मूल में विस्तार हे को, । १९ को. | टेट को ७३ को. तोरण व गोपुर द्वार ऊँचाई कोटसे तोरण और उससे गोपुर अधिक-अधिक ऊँचे है। चैत्य व प्रासाद ऊँचाई स्व-स्व तीर्थकरसे १२ गुनी चैत्यप्रासाद भूमि विस्तार ३७ यो, | यो. | ट यो. ट यो. नाट्यशाला ऊँचाई स्व स्व तीर्थकरसे १२ गुनी प्रथम बेदी ऊंचाई व विस्तार प्रथम कोटवत् खातिका भूमि विस्तार → प्रथम चैत्यप्रासाद भूमिवद द्वि. वेदी विस्तार →प्रथम कोटसे दूना:ऊँचाई → प्रथम कोटवत् - लताभूमि विस्तार →चैत्यप्रासाद भूमिसे दूनाद्वि. कोट ऊँचाई प्रथम कोटवत् विस्तार प्रथम कोरसे दूना २४३ १/४ यो. १यो. ७२१ हरे को. ७२६ ७४७ ७५३ - जैनेन्द्र सिदान्त कोश Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण ३३२ समवसरण ३ २४ गाथा नाम लम्बाई चौड़ाई या ऊँचाई ८१४ २२३ प्रथम ऋषभदेवके | नेमिनाथ तक पार्श्वनाथके वर्धमानके समवसरण में । । क्रमिक हानि समवसरणमें | समवसरण में चैत्यप्रासाद भूमिसे दूना स्व स्व तीर्थकरसे १२ गुनी द्वितीय वेदोबत लता भूमिवत् स्व स्व तीर्थकरसे १२ गुना उपवन भूमि उपवनभूमिके भवन तृतीय वेदी ध्वज भूमि ध्वजस्तम्भ ८१३ ८१७ ८२६ ८२१ ८२२ विस्तार ऊँचाई विस्तार व ऊँचाई विस्तार ऊँचाई विस्तार विस्तार व ऊँचाई विस्तार विस्तार व ऊँचाई विस्तार विस्तार ऊँचाई ८२७ ८२८ ८४० तृतीय कोट कल्प भूमि चतुर्थ वेदी भवन भूमि भवनभूमिको भवन पंक्तियाँ स्तूप ८४३ द्वितीय कोटयत ध्वज भूमिवत् प्रथम वेदीवत ( कल्पभूमिवन् ।) प्रथम वेदीसे ११ गुणा चैत्य वृक्षवत् अर्थात् स्व-स्व तीर्थ करसे १२ गुणा (दे. वृक्ष) द को. स्टेट को.. स्व-स्व तीर्थकरसे १२ गुणी १४४ को | हैट को. चतुर्थ कोट सदृश मानस्तम्भके पीठबत् ८५० चतुर्थ कोट श्रीमण्डपके कोठे ८५३ विस्तार ऊँचाई विस्तार विस्तार ऊँचाई पंचम वेदी प्रथम पीठ oin (दे. मानस्तम्भ) ३६ को. पर को. २४ को. है को. विस्तार मेखला १३ ध. द्वि.पीठ ४ घ. ... ८८२ टे को. तृतीय पीठ विस्तार मेखला ऊँचाई विस्तार विस्तार ऊँचाई चाई १३० को । १ को. | २३५ को.. प्रथम पीठवत द्वितीय पौठवत प्रथम पीठसे चौथाई ६००ध, । २५ ध, १२५ ध, गन्धकुटी ५०ध. ७५ घ, सिंहासन स्व स्व तीर्थकरके योग्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण ८. समवशरण के नकाशे चित्र सं० १ : १ सामान्य भूमिः (दे. समवशरण ६) विजय द्वार वीथी = ८ श्री मण्डप भूमि = पीठत्रय मानस्तम्भ भूमि ७ भवन भूमि ८. श्री मण्डप - भूमि कोठा नं. १० कोठा न ११ कोड नं. १२ ६ कल्प भूमि नृत्यणाला २- एक दिशात्मक सामान्य भूमि (दे- समवशरण | ६) ५ म २ खातिका भूमि चैत्य प्रसाद भूमि ३. लताभूमि नृत्यशाला ४ उपवन भूमि नृत्यशाला ३सता भूमि नृत्यशाल २ खातिक भूमि १ चैत्य भूमि २०,००० रध्वजभूमि उपमभूमि ७ भवन कल्यभूमि २०,००० सीढी प्रथम पीठ मानसांभ विजय द्वार अपराजित द्वार २०,००० सीटी कोर्ट चतुवेदी 2:32 कोट तू वेदी वैजयन्त द्वार Hom 21*21 उत्तर + पूर्व पश्चिम द्विवेदी प्रथम वेदी पं. बेटी T कोठा नं. १ कोजन कोठा नं. ३ चतु-फाट चित्र सं० २ प्रथम कोट धुलि शाल चतुवेदी तृ-बोट तू व द्विवेदी जयत द्वार दी १- प्रथम कोट (श लिए सं. ३. ३धूलिशाल कोट व उसका तोरण द्वार) ४ वापिया दीथी. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ) वीथी 20,000 सीढ़ियां चित्र सं० ४ ४- मानस्तम्म भूमि:- (ति.प. १४७६१-७८८) क्रीडापुर व वापिसे क्रीड़ापुर व वन खण्ड 40407 बबबब नाट्यशास् ४ वापियां समवसरण न. पीठ हि पीठ प्र पीठ बबब हि. कोट द्वि-कोट प्रथम कोट கினி Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण व्रत ३३४ समवाय गन्धकुटी (तिपEg--३ चिन्न सं. ५ चित्र सं. ६ चैत्यवृक्ष भूमि:- ति.प.181८०५-८१० Ep Ka पीठ S नं ५ दिपीठ न कोठान कोठा नं. ४ पपीठ 4 कोठा नं कोठा नं. ३ बोटान १० : कोठा नं.१२ । UTTM कोठा नं.१ २ कोटाने.१५ प्रयनात समवसरण व्रत-एक वर्ष पर्यन्त प्रत्येक चतुर्दशीको एक उपवास करे । इस प्रकार २४ उपवास करे। तथा "ओं ह्रीं जगदापद्विनाशाय सकलगुणकरण्डाय श्री सर्वज्ञाय अर्हत्परमेष्ठिने नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (व्रत विधान सं./८५) समवाय-१. समवाय सम्बन्धका लक्षण पं. का./मू./५० समवत्ती समवाओ अपुधभूदो य अजुदसिद्धो य। तम्हा दवगुणाणं अजुदा सिद्धि त्ति णिहिट्ठा। -समवर्तीपन वह समवाय है। वही अपृथक्पना और अयुत सिद्धपना है इसलिए द्रव्य और गुणोंकी अयुक्तसिद्धि कही है। (रा. वा./२/१०/२२/५१/३१) घ. १/१,१.१/१८/१ समवाय-दव्यं णाम जं दवम्मि समवेदं ।...समवायणिमित्तं णाम गल-गंडा काणो कंडो इच्चेवमाइ। -जो द्रव्यमें समवेत हो अर्थात कथंचित तादात्म्य सम्बन्ध रखता हो उसे समबाय द्रव्य कहते हैं।...गलगण्ड, काना, कुबड़ा इत्यादि समवाय निमित्तक नाम हैं। ध. १५/२४/२ को समवाओ। एगत्तेण अजुबसिद्धाणं मेलणं । -अयुत सिद्ध पदार्थोंका एक रूपसे मिलनेका नाम समवाय है। स्या, म./७/५६/२६ अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिह प्रत्ययहेतुः संबन्धः समवायः। -अयुतसिद्ध ( एक दूसरेके बिना न रहनेवाले) आधार्य ( पट ) और आधार ( तंतु) पदार्थों का इह प्रत्यय हेतु ( इन तन्तुओंमें पट है ) संबंध ( वैशेषिक मान्य) समवाय सम्बन्ध है। * द्रव्यगुण पर्यायके समवाय सम्बन्धका निषेध -दे.द्रव्य/४। २. समवाय पदार्थके अस्तित्व सम्बन्धी तर्क-वितर्क रा. वा./२/१/१३.१६/६/८ स्यान्मतम-समवायो नामायुत सिद्धलक्षण: संबन्ध इहेदं बुद्धयभिधानप्रवृत्तिहेतुः तेनैकत्व मिव नीतानां व्यपदेशो भवति।...नास्ति तत्परिकल्पितः समवायः। कुतः। वृत्त्यन्तराभावात् । यथा गुणादीनां पदार्थानां द्रव्ये समवायसंबन्धावृत्तिरिष्टा तथा समवायः पदार्थान्तरं भूत्वा केन संभन्धेन द्रव्यादिषु वय॑ति समवायान्तराभावात । एक एव हि समवायः। न च संयोगेन वृत्तिः युतसिद्धयभावात युतसिद्धानामप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिसंयोगः । न चान्यः संबन्धसंयोगसमवायविलक्षणोऽस्ति येन समवायस्य द्रव्यादिषु वृत्तिः स्यात् । अतः समवायिभिरनभिसंबन्धात नास्ति ।...द्रव्यादीनि प्राप्तिमन्ति अतस्तेषां यया कयाचित प्राप्त्या भवितव्यम, समवायस्तु प्राप्तिनं प्राप्तिमान्, अतः प्राप्त्यन्तराभावेऽपि स्वत एव प्राप्नोतीति; तच्च न; कस्मात् । व्यभिचारात । यथा संयोगः प्राप्तिरपि सन् प्राप्त्यन्तरेण समवाये वर्तते तथा समवायस्यापि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ण पञ्च स्वादिति... यथा प्रदीपः प्रदोषान्तरमनपेक्षमाण आत्मानं प्रकाशयति घटादश्च तथा समवायः संवन्धान्तरापेामन्तरेणात्मनश्च द्रव्यादिषु वृत्तिहेतुर्द्रव्यादोनां च परस्परत इति; तन्नः कुतः । तत्परिमामादनन्यत्वसिद्ध यथा प्रदीपः स्वलक्षणत्रसिद्धी पटादिम्योन्यो नैवं समवायः स्वलक्षणप्रसिद्धः द्रव्यादन्योऽस्ति । =प्रश्नवैशेषिक समवाय नामका पृथक् पदार्थ मानते हैं, इससे अपृथक् सिद्ध पदार्थोंमें 'इह इदम् यह प्रत्यय होता है और इसीसे गुण गुणी में अभेदकी तरह भान होने लगता है ? उत्तर - समवाय नामका पृथक् पदार्थ भी सिद्ध नहीं होता। क्योंकि - १० जिस प्रकार गुणगुणी में समवाय सम्बन्धसे वृत्ति मानी जाती है उसी तरह समवायकी गुण और गुणीमें किस सम्बन्धसे वृद्धि होगो समवायान्तर से तो नहीं, क्योंकि समवाय पदार्थ एक ही स्वीकार किया गया है। संयोग से भी नहीं, क्योंकि दो पृथक सिद्ध द्रव्योंमें ही संयोग होता है।यदि कहा जाय कि - चूँकि समवाय 'सम्बन्ध' है अतः उसे स्वसम्बन्धियों में रहनेके लिए अन्य सम्बन्धकी आवश्यकता नहीं है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि संयोगसे व्यभिचार दूषण आता है। संयोग भी सम्बन्ध है पर उसे स्वसम्बन्धियों में समवायसे रहना पड़ता है । २. जिस प्रकार दीपक स्व-परप्रकाशी दोनों हैं उसी प्रकार समवाय भी अन्य सम्बन्धकी अपेक्षा किये बिना स्वतः ही द्रव्यादिकी परस्पर वृत्ति करा देगा तथा स्वयं भी उनमें रह जायेगा, यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से समवायको द्रव्यादिको पर्याय ही माननी पड़ेगी ।... दीपकका दृष्टान्त भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे दीपक घटादि प्रकाश्य पदार्थोंसे भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है उसी तरह समवायकी द्रव्यादिसे भिन्न अपनी स्वतन्त्रसत्ता नहीं है । क. पा. १/११/१२-१३ /४०/९ विसयीयसमवायमाणाभावादो अमुत्ते निरवयवे अव्बे इंदियस किरिसामावादी --- [च] 'इहेद' पचपसेकसमवाओ तहानिह ओवल भाभावादी, आहाराहेयभावेण ददरे चैव तदुभादो 'इह कमाले घडो वह [संह पढ़ो विउपमणो दोसह चि चे प घडावस्था खप्पराणं पडावत्थाए तंतूर्णं च अणुवलं भादो ।... णाणुमाणमजि तग्गा तदविणाभानिलिंगापलं भादोनच अत्या वत्तिगमो समवाओ अणुमाणपुधभूदत्थावत्तीए अभावादो। ण चागमभो; वादि पडिवादी पसिद्धे गागमाभावादो। ३. समवायको विषय करनेवाला प्रमाण नहीं पाया जाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण तो समयायको विषय कर नहीं सकता है, क्योंकि समवाय स्वयं अमूर्त है. निरवयव है और द्रव्य रूप नहीं है, इसलिए उसमें इन्द्र सत्रिकर्ष नहीं हो सकता है |... 'इहेदस्' प्रत्ययसे समवायका ग्रहण हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकारका प्रत्यय नहीं पाया जाता है, यदि पाया भी जाता है तो आधार-आधेय भावसे स्थित कुण्ड और बेरोंमें ही 'इस कुण्डमें ये देर है इस प्रकारका 'इहेदम् ' प्रत्यय पाया जाता है, अन्यत्र नहीं। प्रश्न - 'इन कपालों में घट है, इन तन्तुओं में पट है' इस प्रकार भी 'इहेदम् ' प्रत्यय उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है । उत्तर-नहीं; क्योंकि घट रूप अवस्था में कपालोंकी और पटरूप अवस्थामै तन्तुओंकी उपलब्धि नहीं होती । ( प्र . सा./त.प्र / ६८ ) ...यदि कहा जाय कि अनुमान प्रमाण समवायका ग्राहक है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि समवायका अविनाभावी कोई लिंग वहीँ पाया जाता है। यदि कहा जाय कि अर्थापत्ति प्रमाणसे समवायका ज्ञान हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थापत्ति अनुमान प्रमाणसे पृथक्भूत कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । यदि कहा जाय कि आगम प्रमाणसे समवायका ज्ञान होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिसे बादी और प्रति वादी दोनों मानते हों, ऐसा कोई आगम भी नहीं है। - क. पा. १/१.२०/३३२४/४/४ किम योगाभ्यास कियानि रोषाद न स क्षणिकोऽपि तत्र भावाभावाभ्यामर्थं क्रियाविरोधात् । .. समवायिनी किया नान्यत् आगच्छति, तत्परित्यक्ताशेषकार्याणामसत्वप्रसङ्गात् । नापरिआगच्छति निरवयवस्यापरित्यक्तपूर्व कार्यस्यागमनविरोधात् । न समवायः सावयवः, अनित्यतापत्तेः । न सोऽनित्यः, अनवस्थाभागाम्यां समुत्पतिप्रसादन नियः सर्वगोवा, निष्क्रियस्थ व्याझापोषदेवास्यागमनविरोधात नागतः समवायत्वप्रसङ्गाव नाम्मानीय अनवस्थापतेः न कार्योत्पत्तिप्रदेशे प्रागस्तिः संन्धिय बिनाविरोधातेनिरवस्योत्पतिविरोध क. पा. १/११/३३ / ४८/८ ण च अण्णत्य संतो आगच्छदिः किरियाए विरहियस्स आगमणाणुवमसीदो व च समयाओ किरियातो अनिरुपद्रव्यसम्पाद ४. यदि कहो कि वह नित्य है सो वह नित्य भी नहीं है, क्योंकि नित्य माननेसे ] उसमें क्रमसे अथवा एक साथ अर्थक्रियाके माननें में विरोध आता है । ५. उसी प्रकार समवाय क्षणिक भी नहीं है, क्योंकि क्षणिक पदार्थ में भाव और अभाव रूपसे अर्थ किया मानने में विशेष आता है। ६ अन्य क्रियाको छोड़कर उत्पन्न होनेवाले पदार्थ में समवाय आता है. ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेवर समवायके द्वारा छोड़े गये समस्त कार्योंको असत्त्वका प्रसंग प्राप्त होता है 1७, अन्य पदार्थको नहीं छोड़कर समवाय आता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो निरवयव है और जिसने पहले कार्यको नहीं छोड़ा है ऐसे समवाय का आगमन नहीं बन सकता है। ८. समवायको सावयव मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर उसे अनित्यपने की प्राप्ति होती है । ६. यदि कहा जाय कि समवाय अनित्य होता है तो हो जाओ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवायवादियों के मत में उत्पत्तिका अर्थ स्व कारणसत्ता समवाय माना है । अतः समवायकी भी उत्पत्ति दूसरे समवायकी अपेक्षा से होगी, और ऐसा माननेपर अनवस्था दोषका प्रसंग प्राप्त होता है ।...१०. उसकी उत्पत्ति स्वतः अर्थात समवायान्तर निरपेक्ष मानी जायेगी तो समवायका अभाव हो जानेसे उसकी उत्पत्ति नहीं बन सकती है। ११. समयको नित्य और सर्वगत कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जो क्रिया रहित है और जो समस्त देश में व्याप्त है उसका आगमन माननेमें विरोध आता है । १२. यदि असर्वगत माना जाय सो भी कहना ठीक नहीं है. क्योंकि ऐसा माननेपर समवायको महत्वका प्रसंग प्राप्त होता है। समवाय अन्यके द्वारा कार्य देशमें लाया जाता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा माननेपर अनवस्था दोषकी आपत्ति प्राप्त होती है (क. पा. ९/११/१३३/४६/९)--- १३. कार्यके उत्पत्ति देशमें समवाय पहलेसे रहता है; ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्बन्धियोंके बिना सम्बन्धका सप्त्व माननेमें विरोध आता है । (क. पा. १/११/१३३/४८ /७) १४. कार्य के उत्पत्ति देश में समवाय उत्पन्न होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय अपयम रहित है अर्थात नित्य है इसलिए उसकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । १५. यदि कहा जाय कि समवाय कार्योपत्ति के पहले अन्यत्र रहता है और कार्योत्पत्ति कालमें वहाँ आ जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय स्वयं क्रिया रहित है।... माननेपर उसे अनित्य द्रव्यत्वका प्रसंग प्राप्त होता है। समवाय द्रव्य दे /१ समवायि- १. समवाय व असमवायका लक्षण वैशेषिक द/भाषा/१०/२/३०३/० द्रव्य होने गुण और कर्म समवाय सम्बन्धसे रह सकते हैं...सपने ही समवावि कारण होता है। वैशेषिक/भाषा./१०/२/२/३०६ जो कारण और कार्यके सम्बन्धको एक ही में मिला दे वह असमवायी कारण है। समवायिनी क्रिया - दे. क्रिया / ३ | ----- ३३५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवृत्ति स्तूप समाचार सगबरगुरुणा विसज्जिओ संतो। अप्पच उत्थो तदिओ विदिओ वासो तदो णीदी ।१४७॥ [औधिक समाचारके इच्छाकारादि दश भेद हैं। उनके लक्षण देखो अगला शीर्षक ] जिस समय सूर्य उदय होता है, वहाँसे लेकर समस्त दिन रातकी परिपाटीमें मुनि लोग नियमादिकोंको निरन्तर आचरण करें सो यह प्रत्यक्ष रूप पद विभागी समाचार कहा है ।१३०। वीर्य आदिसे समर्थ कोई मुनि अपने गुरुसे सर्व शास्त्रोंको जानकर विनय सहित प्रणाम करके प्रमाद रहित हुआ गुरुसे पूछे ।१४। हे गुरो ! मैं तुम्हारे चरण प्रसादसे अन्य आचार्य के पास जाना चाहता हूँ। इस अवसरपर तीन वा पाँच वा छह बार तक पूछना चाहिए, करनेसे उत्साह व विनय मालूम होता है ।१४६। इस प्रकार अपने श्रेष्ठ गुरुसे पूछ कर उनसे आज्ञा लेता हुआ अपने साथ तीन, दो वा एक मुनिको साथ लेकर जावे अकेला न जावे ।१४७। [एकाकी बिहारकी विधि व निषेध सम्बन्धी-दे. एकल विहारी, विहार ] समवृत्तस्तूप-Circular Pyramid. (ज. प./प्र. १०८ ) -पं. का./त.प्र./५० द्रव्यगुणानामेकास्तित्व निवृत्तित्वादनादिरनिधना सहवृत्तिहि समवर्तित्वम् । - द्रव्य और गुण एक अस्तित्वसे रचित हैं, इसलिए उनकी जो अनादि अनंत सहवृत्ति ( एक साथ रहना) वह वास्तव में समवर्तीपना है। पं. का./ता, वृ./५०/६/९ समवृत्तिः सहवृत्तिगुणगुणिनोः कथंचिदे कत्वेनादितादात्म्यसंबन्ध इत्यर्थः । -समवृत्तिका अर्थ सहवृत्ति है, अर्थात् गुण-गुणीका एकत्व रूपसे अनादि तादात्म्य सम्बन्ध समवृत्ति है। . समान्तर श्रेणि-Arithematical Progression (ज.प./प्र.१०८) समान्तरानीक-Parallelepiped ( ज. प./प्र. १०८ ) समान्तरी गुणोत्तर श्रेणि-Arithematico-geometrical Progression ( ज. प./प्र. १०८) समाचार-१. समाचार सामान्यका लक्षण मू. आ./१२३ समदा समाचारो सम्माचारो समो व आचारो । सम्वेसिं हि समाणं समाचारो दु आचारो।१२३॥ = समता भाव समाचार है, अथवा सम्यक् अर्थात् अतिचार रहित जो मूलगुणोंका आचरण, अथवा समस्त मुनियों का समान अहिंसादि रूप जो आचरण, अथवा सर्व क्षेत्रों में हानिवृद्धि रहित कायोत्सर्गादिकर सदृश परिणामरूप आचरण वह समाचार है। न, च, वृ./३३८ लोगिगसद्धारहिओ चरणविहूणो तहेब अववादी। विवरीओ खलु तच्चे बज्जेव्वाते समायारे। जो श्रमण लौकिक हैं, श्रद्धाविहीन है, चारित्र रहित हैं, अपवादशील हैं और तत्त्वमें विपरीत हैं उनके साथ समाचार (संसर्ग ) नहीं करना चाहिए। समान आचारवाले साधुके साथ हो साधुको संसर्ग रखना चाहिए। ४. इच्छाकार आदिका विषय मू. आ./१२६-१२८ इठे इच्छाकारो मिच्छाकारो, तहेव अवराधे। पुडि सुणणह्मि तहत्ति य णिग्गमणे आसिया भणिया ।१२६। पविसंते अ णिसीही आपुच्छणिया सकज्जाआर भे। साधम्मिणा य गुरुणा पुवणिसिठ्ठह्मि पडिपुच्छा ।१२७। छंदण गहिदे दव्वे अगिहदव्वे णिमंतणा भणिदा। तुह्यमहत्ति गुरुकुले आदि णिसग्गो दु उवसंपा।१२। शुभ परिणामोंमें हर्ष होना इच्छाकार है। अतिचार होनेरूप अशुभ परिणामों में मिथ्या शब्द कहना मिथ्याकार है। सूत्रके अर्थ सुनने में 'तथेति' कहना तथाकार है। रहनेकी जगहसे पूछकर निकलना आसिका है। स्थान प्रवेशमें पूछकर प्रवेश करना निषेधिका है। पठनादि कार्यों में गुरु आदिकोंसे प्रश्न करना आपृच्छा है। साधर्मो अथवा गुरु आदिसे पहले दिये हुए उपकरणों को पूछकर ग्रहण करना प्रतिपृच्छा है। उपकरणोंको देने वाले के अभिप्रायके अनुकूल रखना सो छन्दन है। तथा अगृहीत द्रव्यकी याचना करना निमन्त्रणा है। और गुरुकुल में 'मैं आपका हूँ' ऐसा कहकर आचरण करना वह उपसंयत है। २. समाचारके भेद मू. आ./१२४-१२५. १३६,१४४ दुविहो समाचारो ओधो विय पदविभागिओ चेव । दसहा ओधो भणिओ अणेगहा पदविभागीय ।१२४॥ इच्छामिच्छाकारो तधाकारो य आसिआ णिसिही। आपुच्छा पडिपुच्छा छंदण सणिमंतणा य उपसंपा।१२॥ उवसंपया य णेया पंचविहा जिणवरेंहि णिहिट्टा । विणए खेत्ते मग्गे सुहदुक्खे चेय सुत्ते य।१३६। उपसंपया य सुत्ते तिविहा सुत्तत्थतदुभया चेव । एक्केका विय तिविहा लोइय वेदे तहा समये ।१४४। समाचार दो प्रकारका है-औधिक व पद विभागी। औधिकके दश भेद हैं और पदविभागीके अनेक भेद हैं ।१४। औधिक समाचारके दश भेद हैं-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छेदन, सनिमन्त्रणा और उपसंयत ।१२। गुरुजनोंके लिए आत्मसमर्पण करने वाला उपसंयत पाँच प्रकारका है--विनयमें, क्षेत्रमें, मार्गमें, सुख-दुरखमें, और सूत्रमें कहना चाहिए ।१३९। सूत्रोपसंयत तीन प्रकारका है-सूत्र अर्थ व तदुभय । यह एक-एक भी तीन तरहके हैं-लौकिक, वैदिक, व सामायिक । ३ औधिक व पदविभागी निर्देश मू, आ./१३०, १४५-१४७ उग्गमसूरप्पहुदी समणाहोरत्तमंडले कसिणे । जं अच्चरति सददं एसो भणिदो पद विभागी।१३०। कोइ सव्वसमत्थो सगुरुसुदं सब आगमित्ताणं । विणएणुवक्कमित्ता पुच्छइ सगुरु पयत्तेण ११४५॥ तुज्झ पादपसाएण अण्णमिच्छामि गंतुमायदणं । तिणि व पंच व छ वा पुच्छाओ एत्थ सो कुणइ ।१४६। एवं आपुच्छित्ता ५. इच्छाकार आदिका स्वरूप मू. आ./१३१-१३८ संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे । जोगग्गहणादीसु अ इच्छाकारो दु कादयो ।१३१। जं दुक्कडं तु मिच्छा तंणेच्छदि दुक्कडं पुणो कादु । भावेण य पडिकंतो तस्स भवे दुक्कडे मिच्छा ।१३२। वायण पडिच्छणाए उवदेसे सुत्तअस्थकहणाए। अवितहमेदत्ति पुणो पडिच्छणाए तधाकारो ॥१३३। कंदरपुलिणगुहादिसु पवेसकाले णिसिद्धिअं कुज्जा। तेहिंतो णिग्गमणे तहासिया होदि कायब्वा ।१३४॥ आदावणादिगहणे सण्णा उभामगादिगमणे वा। विणये णायरियादिसु आपुच्छा होदि कायठवा ॥१३॥ जं किंचि महाकज्जं करणीयं पुच्छिऊण गुरुआदि । पुणरवि पुच्छदि साधु तं जाणसु होदि पडिपुच्छा ।१३६। गहिदुवकरणे विणए वंदणसुत्तत्यपुच्छणादीसु । गणधरवसभादीणं अणुवृत्ति छंदणिच्छाए ।१३७। गुरुसाहम्मियदव्वं पोत्थयमण्णं च गेण्हिदु इच्छे। तेसिं विणयेण पुणो णिमंतणा होइ कायव्वा ।१३८-१. संयमके पीछी आदि उपकरणों में, ज्ञानके उपकरणों में अथवा अन्य भी तपादिके उपकरणों में तथा आतापनादि योगों में इच्छाकार अर्थात् मनको प्रवर्ताना ॥१३॥ २. जो व्रतादिमें मेरे अतिचार लगा हो वह मिथ्या होवे, ऐमे मिथ्या किये पापों को फिर करनेको इच्छा न करे, और अन्तरंग भावसे प्रतिक्रमण करता है उसीके दुष्कृतमें मिथ्याकार होता है ।१३२॥ ३. जीवादिकके व्याख्यानका सुनना, सिद्धान्त श्रवण, परम्परासे चला आया उपदेश और सूत्रादिका अर्थ-इनमें जो अहं तने कहा वह सत्य है, ऐसा समझना तथाकार है । १३३।४-५.कंदर,जलके मध्यप्रदेश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार काल रूप पुलिन, गुफा इत्यादि निर्जन्तु स्थानों में प्रवेश करने के समय निषेधिका करे और निकलने के समय आसिका करे ।१३४ ६. आतापनादि ग्रहणने बाहारादिकी इच्छाएँ तथा अन्य ग्रामादिको जानेमें नमस्कार पूर्वक पूछकर उनके अनुसार करना वह आपृच्छा है । १३५। ७. जो कुछ महान कार्य करना हो वह गुरु प्रवर्तक स्थवि - रादिकसे पूछकर करना चाहिए फिर अन्य साना मह है । २३६ किये हुए पुस्तकादि उपकरणोंमें विनयका बन्दना सूत्र के अर्थ को पूछना इत्यादिकमें आचार्य आदिकी इच्छा के अनुकूल वर्तना छन्दन है | १३७ ॥ ६. गुरु अथवा साधर्म पुस्तक व कमण्डलु आदिको लेना चाहे तो उनसे नवीभूत होकर याचना करे । उसे निमन्त्रणा कहते हैं । १३८ | १०. उपसंयतका स्वरूप - दे, अगला शीर्षक ] ६. उपसंयत सामान्य व विशेषका स्वरूप सू. आ./१४०-१४३ पाहुणबिणवचारो सेसि चावासभूमि संपृच्छा । दाणाव गादी विणये उपया या १४० संजनयगुणसीला जनयिमादी यजन्तिमिति उनि मासी लेते उपसंपा या | १४१| पाहुणवत्या अग्लो गागमणगमणपु उपसंपदाय मग्गे संजमतत्रणाणजोगजुत्ताणं । १४२ । सुहदुक्खे उवयारो वसही आहारभेसजादीहिं । तुह्म' अहंति वयणं सुहदुक्खुवसंपया णेया । १४३। अन्य संघसे आये हुए मुनियोंका अंग मर्दन प्रिय वचनरूप विनय करना, आसनादिपर बैठाना, इत्यादि उपचार करना, गुरुके विराजनेका स्थान पूछना, आगमनका रास्ता पूछना, संस्तर, पुस्तकादि उपकरणोंका देना, और उनके अनुकूल आचरणादिक करना वह विनयोपसंयत है । १४०| संयम तप व उपशमादि गुण व व्रत रक्षारूप शील तथा यम, नियम, इत्यादिक जिस स्थानमें रहने से बढ़ें, उस क्षेत्र में रहना वह क्षेत्रोपसंयत है । १४९। अपने संघ से आये मुनि, तथा अपने स्थानमें रहने वाले मुनियोंसे आपस में आनेजानेके विषय में कुशलका पूछना, वह संयम, तप, ज्ञान, योगगुणकर सहित मुनिराजोंके मागसंयत है ।१४२६] [सुख-दुःख युक्त पुरुषों को वसतिका, आहार, औषध आदिकर उपकार करना, तथा मैं और मेरी वस्तुए आपकी हैं, ऐसा वचन कहना होत है | १४३ | ( सूत्रोपसंयत के तीन भेद है-सूत्र, अर्थ, तदुभय। इन तीनोंके लौकिक, वैदिक व सामाजिक ये तीन-तीन भेद हैं । - दे. समाचार / २ ) । समाचार काल -- दे. काल / १/४ । समादान क्रिया/३/२० समावेश उद्दिष्ट आहारका एक भेददे उद्दि - समाधान - उत्तम परिणामों में चित्तका स्थिर रखना समाधान है। वे समाधि/१ समाधि - १. समाधि सामान्यका लक्षण नि. सा./मू./१२२-१३३ वयणोच्चारण किरियं परिचत्तं बीयरायभावेण । जो मायदि अप्पा परमसमाही हवे तस्स | १२२ ॥ संगमणियमतवेण दु धम्मज्काणेण सुक्ककाणेण । जो झायह अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स | १२३ | = वचनोच्चारणकी क्रिया परित्याग कर वीतराग भावसे जो आत्माको ध्याता है, उसे समाधि है । १२२ । संयम, नियम और तपसे तथा धर्मध्यान और शुक्ल ध्यानसे जो आत्माको ध्याता है, उसे परम समाधि है | १२३ १. / . / २ / ११० सवल बियप जो विल परम-समाहि भांति तेण सुहासुह- भावणा मुणि सयलवि मेन्लंति |१०| = जो समस्त भा० ४-४३ ३३७ समाधि feesोंका नाश होना, उसको परमसमाथि नहते हैं, इसी से सुनिराज समस्त शुभाशुभ विकल्पोंको छोड़ देते हैं । १६० रा. वा./६/१/१२/५०५/२७ युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमिरयनर्थान्तरम् योगका अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है। भ.आ./वि./६७/१६४/८ (समाधि) समेकीभावे वर्तते तथा च प्रयोग:संग संगतं घृतमित्यर्थं एकीभूतं ते एकीभूतं घृतमित्यर्थः । समाधान मनसः एकाग्रताकरणं शुभोपयोगे शुद्ध वा । मनको एकाग्र करना, सम शब्दका अर्थ एकरूप करना ऐसा है जैसे मृत संगत हुआ तेल संगत हुआ इत्यादि मनको शुभयोग अथवा शुद्धोपयोग में एकाग्र करना यह समाधि शब्दका अर्थ समझना । म.पु. / २१/२२६ यत्सम्यक् परिणामेषु चित्तस्याधानमञ्जसा । स समाधिरिति ज्ञेयः स्मृतिर्वा परमेष्ठिनाम् । २२६| उत्तम परिणामों में जो चित्तका स्थिर रखना है वही यथार्थ में समाधि या समाधान है अथवा पंच परमेष्ठियोंके स्मरणको समाधि कहते हैं। दे. उपयोग / II / २ / १ साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योगनिरोध, और शुद्धपयोग समाधि एकार्थवाची नाम हैं। दे. ध्यान / ४ / ३ ध्येय और ध्याताका एकीकरण रूप समरसी भाव ही समाधि है। सं. स्तो./टी./१६/२६ धर्मं शुक्लं च ध्यानं समाधिः । -धर्म और शुक्ल ध्यानको समाधि कहते हैं । स्वा. न./टी./९७/२२१/१८ महिरन्तपथ्यगत योगः चिरानिरोधलक्षणं समाधिः । = बहिर और अन्तर्जल्पके त्याग स्वरूप योग है । और स्वरूपमें चित्तका निरोध करना समाधि है । ३. अनुप्रेक्षा/९/११ सम्यग्दर्शनादिको निर्विघ्न अन्य भनमें साथ ले जाना समाधि है । २. साधु समाधि भावनाका लक्षण स. सि. / ६ / २४ / ३३६ / १ यथा भाण्डागारे दहने समुत्थिते तत्प्रशमनमनुष्ठीयते महूपकारणात्तथा कमलशील समृद्धस्य मुनेस्तपसः कृतरिचप्रत्यूहे समुपस्थिते तत्संधारणं समाधिः । = जैसे भाण्डागार में आग लग जानेपर बहुत उपकारी होनेसे आगको शान्त किया जाता है, उसी प्रकार अनेक प्रकार के व्रत और शीलोंसे समृद्ध मुनिके तप करते हुए किसी कारण से विघ्न के उत्पन्न होनेपर उसका संधारण करना शान्त करना समाधि है । ( रा. वा./६/२४/८/५३०/१); (चा. सा./ ५४/४) । " t ८/४/२०११ साहूणं समाहिसंधारणाएगा-चरितसम्भवद्वाणं समाही नाम सम्म साहणं धारणं संधारणं समाहीए संधारणं समाहिसंधारणं तस्स भावी समाहिसंधारणदा। ताए तिथयरणामकम्मं वदिति ण वि कारण पति समाहि दट्ठूण सम्मादिट्ठी पवयणवच्छलो पवयणप्पहावओ विणयसंपण्णी सोसवदादिचारवजिओ अरहंतादि भसो संतो जदि धारेदि सं समाहिसंधारणं । ... जगाद साधुओंकी समाधिसंधारणा से तीर्थंकर नामकर्म बाँधता है - दर्शन, ज्ञान व चारित्रमें सम्यक् अवस्थानका नाम समाधि है । सम्यक् प्रकारसे धारण या समाधिका नाम संधारण है। समाधिका संधारण समाधिसंधारण और उसके भावका नाम समाधि संधारणता है। उससे सीर्थंकर नाम-कर्म बेचता है। किसी भी कारण से गिरती हुई समाधिको देखकर सम्यग्दृष्टि, प्रवचनवत्सल, प्रवचन प्रभावक, विनय सम्पन्न, शीलताविचार वर्जित और अर्हन्तादिकों में भक्तिमान होकर चूँकि उसे धारण करता है इसलिए वह समाधि संधारण है । यह संधारण शब्द में दिये गये 'सं' शब्दसे जाना जाता है । भा. पा./टी./७७/२२१/१ टपको सम्यक प्रकार मुनिगणतपः संधारणं साधुसमाधिः । मुनिगण धारण करते है वह साधु समाधि है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिगुप्त ३३८ समिति ३. एक साधु समाधि भावनामें शेष १५ भावनाओंका अन्तर्भाव ध.८/३,४१/०८/६ ण च एत्थ सेसकारणाभावो, तदस्थित्तस्स दरि सिदत्तादो । एवमेदं नवमं कारणं । =इस (साधु समाधि संधारणता) में शेष कारणों का अभाव नहीं है, क्योंकि उनका अस्तित्व (किसी भी कारणसे गिरती हुई समाधिको देखकर सम्यग्दृष्टि, प्रवचनवत्सल, प्रवचन प्रभावक, विनयसम्पन्न,...आदि होकर उसे धारण करता है इसलिए वह समाधिसंधारणा है-दे, ऊपरवाला शीर्षक।) वहाँ दिखला ही चुके हैं। इस प्रकार वह तीर्थंकर नामकर्म बंधनेका नवम कारण है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. निर्विकल्प समाधि व शुक्लध्यानकी एकार्थता। -दे. पद्धति । २. परम समाधिके अपरनाम । -दे. मोक्षमार्ग/२/५। ३. अन्य मत मान्य समाधि ध्यान नहीं है। -दे, प्राणायाम | ४. एक ही भावनासे तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्भव । -दे. भावना/२। समाधिगृप्त-यह भाविकालीन अठारहवें तीर्थकर है।-दे. तीथ कर/५1 समाधितन्त्र-इसका दूसरा नाम समाधिशतक भी है। यह ग्रन्थ आचार्य पूज्यपाद (ई. श. १) कृत अध्यात्म विषयक १०५ संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है। इसपर आ. प्रभाचन्द्र (ई.६५०-१०२०) ने एक संस्कृत टीका लिखी है । (ती./२/२२६); (जै./२/१९६) समाधिमरण-दे. सल्लेखना। समान खंड-जैसे २ = १९६६ । समानगोल-Sphere. (ज. प./प्र. १०८) । समानाधिकरण--१. ...भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दानामकस्मिन्नर्थ वृत्ति : सामान्याधिकरण्यम् यथा तत् त्वमसि-भिन्न प्रवृत्ति में जो निमित्त है ऐसे विभिन्न शब्दों की एक ही अर्थ में वृत्ति होना सामान्याधिकरण्य है। जैसे 'तत त्वमसि' इस पद में 'तत' का अर्थ अशरीरी ब्रह्म और स्त्रम' का अर्थ शरीरी ब्रह्म या जीवारमा ये दोनों एक है. ऐसा इस पद का अर्थ है । २. लक्ष्य लक्षणमे सामानाधिकरण्य। -दे. लक्षण। समानुपात सिद्धान्त-Theory of Proportion.(ज.प./प्र५०८) १ समिति निर्देश समिति सामान्यका लक्षण। | समितिके भेद। समिति व सामायिक चारित्रमें अन्तर । -दे. सामायिक/४। समिति व सूक्ष्म साम्परायमें अन्तर । -दे. सूक्ष्मसाम्पराय। | समिति, गुप्ति, व दशधर्ममें अन्तर। -दे. गुप्ति/२ । संयम व समितिमें अन्तर। -दे, संयम/२। सयम और विरतिमें समिति सम्बन्धी विशेषता । -दे. संयम/२/१। ईर्या समिति निर्देश १. ईर्या समितिका लक्षण, २. ईर्यापथ शुद्धिका लक्षण, ३. ईर्या समितिकी विशेषताएं, ४.ईर्या समितिके अतिचार। भाषा समिति निर्देश १. भाषा समितिका लक्षण, २. वाक शुद्धिका लक्षण, ३. भाषा समितिके अतिचार । * | भाषा समिति व सत्यधर्ममें अन्तर। -दे. सत्य/२/८ । * धर्म हानिके अवसरपर बिना बुलाये बोले । -दे. वाद। ५ । एषणा समिति निर्देश १. एषणा समितिका लक्षण; २. एषणासमितिके अतिचार। आदान निक्षेपण समिति निर्देश १. आदान निक्षेपण, समितिका लक्षण, २. आदान निक्षेपण समितिके अतिचार। प्रतिष्ठापन समिति निर्देश १. प्रतिष्ठापन समितिका लक्षण, २. प्रतिष्ठापन शुद्धिका लक्षण, ३. प्रतिष्ठापन समितिके अतिचार। समारम्भ-म. सि./६/८/१२/३ साधनसमभ्यासीकरण समारम्भः । साधनों का जुटाना समारम्भ है। (रा. बा./६/८/३/५१३/३२) रा.वा./६/८/३/५१३, ३२ माध्याया' क्रियायाः साधनानां समभ्यासीकरणं समाहारः समारम्भ इत्याख्यायते। = साध्य के साधनों का इकट्ठा करना समारंभ है। (चा. सा./८/४) समास--जीव समास - दे. जीव समास। समाहार-१. रुचकपतानवासिनी दिक्कुमारी देवी।- दे. लोक/५/१३,२. स. भ.त/१/१० समाहारः समूह' । - समाहार अर्थात् निश्चय व्यवहार समिति समन्वय समितिमें सम्यग् विशेषणकी आवश्यकता । प्रमाद न होना ही सच्ची समिति है। समितिका उपदेश असमर्थ जनोंके लिए है। समितिका प्रयोजन अहिंसा व्रतको रक्षा। श्रावकको भी समितिके पालन सम्बन्धी। -दे,व्रत/२/४। समिति पालनेका फल। | समितिमें युगपत् आस्रव व संवरपना । -दे, संवर/२। सामात-चलने-फिरने में बोलने चालने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओंको उठाने-धरनेमे और मलमूत्र निक्षेपण करने में यत्न पूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवोंको रक्षा करना समिति है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति ३३९ १. समिति निर्देश १. समिति निर्देश १. समिति सामान्यका लक्षण १. निश्चय समिति रा. वा./8/५/२/५६३/३४ सम्यगितिः समितिरिति । -सम्यग् प्रकारसे प्रवृत्तिका नाम समिति है। नि, सा./ता. वृ./६१ अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परमधर्मिणमात्मानं सम्यग् इति परिणतिः समितिः । अथवा निजपरमतत्त्वनिरतसहजपरमबोधादिपरमधर्माणां संहतिः समितिः । म अभेद-अनुपचाररत्नत्रयरूपी मार्गपर परमधर्मी ऐसे ( अपने ) आत्माके प्रति सम्यग् 'इति'(गति) अर्थात परिणति वह समिति है, अथवा निज परम तत्त्वमें लीन सहज परम ज्ञानादिक परमधर्मोंको संहति (मिलन, संगठन ) वह समिति है। प्र. सा/ता. वृ./२४०/३३२/२१ निश्चयेन तु स्वस्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितः। -निश्चयसे तो अपने स्वरूपमें सम्यग् प्रकारसे गमन अर्थात परिणमन समिति है। द्र. सं./टी./३६/०१/३ निश्चयेनानन्तज्ञानादिस्वभावे मिजारमनि समसम्यक समस्तरागादिविभावपरित्यागेन तल्लीनतश्चिन्तनतन्मयत्वेन अयनं गमनं परिणमन समितिः। -निश्चय नयकी अपेक्षा अनन्तज्ञानादि स्वभावधारक निज आत्मा है, उसमें सम भले प्रकार अर्थात समस्त रागादि भावोंके त्याग द्वारा आत्मामें लीन होना, आत्माका चिन्तन करना, तन्मय होना आदि रूपसे जो अयन (गमन) अर्थात परिणमन सो समिति है। २. व्यवहार समिति स. सि./8/२/४०६/७ प्राणिपीडापरिहारार्थ सम्यगयन समितिः। प्राणि पीड़ाका परिहारके लिए सम्यक् प्रकारसे प्रवृत्ति करना समिति है। (रा. वा./६/२/२/५६१/३१) म. आ./वि./१६/११/१६ समिदीसु य सम्यगयनादिषु अयनं समितिः । सम्यक्श्रुतज्ञाननिरूपितक्रमेण गमनादिषु वृत्तिः समितिः । म. आ./वि./११५/२६७/१ प्राणिपीडापरिहारादरवतः सम्यगयनं समितिः। -गमनादि कार्यों में जैसी प्रवृत्ति आगममें कही है वैसी प्रवृत्ति करना समिति है। प्राणियों को पीड़ा न होवे ऐसा विचार कर दया भावसे अपनी सर्व गवृत्ति जो करना है, वह समिति है। प. सा./ता, वृ./२४०/६३२/२१ व्यवहारेण पञ्चसमितिभिः समितः संवृत्तः पञ्च समितः । व्यवहारसे ईर्यासमिति आदि पाँच समितियों के द्वारा सम्यक् प्रकार 'इत.' अर्थात प्रवृत्ति करना सो पंचसमिति है। १. सं टी/३/१०१/४ व्यवहारेण तदबहिरङ्गसहकारिकारणभूताचारादि चरणप्रन्थोक्ता समितिः । - व्यवहारसे उस निश्चय समिति के बहिरङ्ग सहकारि कारणभूत आचार चारित्र विषयक ग्रन्थों में कही हुई समिति है। २. समितिके भेद वा. पा./मू./३७ इरिया भासा एसण जा सा आदाण चैव णिवखेषो। संजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ। -ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापण ये पाँच समिति संयम शुद्धिके कारण कही गयी हैं। (मू. आ./१०, ३०१); (त. सू./६/५); ( स. सि /६/५/४११/६); (द्र. सं./टी./३५/१०१/५) ३. ईर्यासमिति निर्देश . १. ईर्यासमितिका लक्षण आ./११,३०२,३०३ फासुयमग्गेण दिवा जुवंतरप्पहेणा सकज्जेण ! जंतूण परिहर ति इरियासमिदी हवे गमणं ।११। मग्गुज्जोबुपओगालंबणसुद्री हि इरियदो मुणिणो । सुत्ताणुवीचि भणिया इरियास मिदी पवयणम्मि ३०२। इरियाबहपडिवण्णेणवलोगतेण होदि गंतव्वं । पुरदो जुगप्पमाण सयाप्पमत्तेण सत्तेण ।३०६ =१. प्रामुक मार्गसे (दे. बिहार/९/७) दिनमें चार हाथ प्रमाण देखकर अपने कार्य के लिए प्राणियोंको पीड़ा नहीं देते हुए संयमीका जो गमन है वह ईर्यासमिति है। (नि. सा./६१) । २. मार्ग, नेत्र, सूर्य का प्रकाश, ज्ञानादिमें यत्न, देवता आदि आलम्बन- इनकी शुद्धतासे तथा प्रायश्चित्तादि सूत्रोंके अनुसारसे गमन करते मुनिके ईर्यासमिति होती है ऐसा आगममें कहा है।३०। (भ. आ./भू./११६१) ३, कैलास गिरनार आदि यात्राके कारण गमन करना हो तो ईपिथसे आगेकी चार हाथ प्रमाण भूमिको सूर्यके प्रकाशसे देखता मुनि सावधानीसे हमेशा गमन करे ।३०३। (त. सा./६/७) रा.वा./६/५/३/५६४/१ विदितजीवस्थानादिविधेर्मुनेर्धार्थ प्रयतमानस्य सवितर्युदिते चक्षुषो विषयग्रहणसामर्थ्य उपजाते मनुष्यादिचरणपातोपहतावश्याय-प्रायमार्गे अनन्यमनसः शनैय॑स्तपादस्य संकुचितावयवस्ययुगमात्रपूर्व निरीक्षणाविहितकृष्टेः पृथिव्याद्यारम्भाभावात ईर्यासमितिरित्याख्यायते। -जीवस्थान आदिकी विधिको जाननेवाले, धर्मार्थ प्रयत्नशील साधुका सूर्योदय होनेपर चक्षुरिन्द्रियके द्वारा दिखने योग्य मनुष्य आदिके आवागमनके द्वारा कुहरा क्षुद्र जन्तु आदिसे रहित मार्गमें सावधान चित्त हो शरीर संकोच करके धीरेधीरे चार हाथ जमीन आगे देखकर पृथिवी आदिके आरम्भसे रहित गमग करना ईर्यासमिति है। (चा. सा./६६/२); (शा./१८/६-७); ( अन.ध./४/१६४/४६२) २. ईयर्यापथ शुद्धिका लक्षण रा. वा./8/६/१६/५६७/१३ ईर्यापथशुद्धिः नानाविधजीवस्थानयोन्याश्रयावबोधजनितप्रयत्नपरिहृतजन्तुपीड़ाज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाश निरीक्षितदेशगामिनी द्रुतविलम्बितसंभ्रान्तविस्मितलीलाविकारदिगन्तराबलोकनादिदोषविरहितगमना । तस्यां सत्यां संयमः प्रतिष्ठितो भवति विभव इव सुनीतौ। - अनेक प्रकारके' जीवस्थान योनिस्थान जीवाश्रय आदिके विशिष्ट ज्ञानपूर्वक प्रयत्नके द्वारा जिसमें जन्तु पीड़ाका बचाव किया जाता है, जिसमें ज्ञान, सूर्य प्रकाश, और इन्द्रिय प्रकाशसे अच्छी तरह देखकर गमन किया जाता है तथा जो शीघ्र, बिलम्बित, सम्भ्रान्त, विस्मित, लीला विकार अन्य दिशाओंकी ओर देखना आदि गमनके दोषोंसे रहित गतिवाली है वह ईर्यापथ शुद्धि है। (चा. सा/७६/७) ३. ईर्यासमितिकी विशेषताएँ भ. आ./वि./१५०/३४४/६ स्ववासदेशान्निर्गन्तुमिच्छता शीतलादुष्णाद्वा देशाच्छरीरप्रमार्जनं कार्य, तथा विशतापि । किमर्थ । शीतोष्ण जंतूनामावाधापरिहारार्थं अथवा श्वेतरत्तगुणासु भूमिषु अन्यस्या नि.क्रमेण अन्यस्याश्च प्रवेशने प्रमार्जनं करिप्रदेशादधः कार्य । अन्यथा विरुद्धयोनिसंक्रमेण पृथिवीकायिकानां तभूमिभागोल्पनानां त्रसानां चाबाधा स्यात् । तथा जलं प्रविशता सचित्ताचित्तरजसोः पदादिषु लग्नयोनिरासः। यावच्च पादौ शुष्यतस्तावन्न गच्छेज्जलान्तिक एव तिष्ठेत् । महतीनां नदीनां उत्तरणे आराभागे कृतसिद्धवन्दनः यावत्परकूलप्राप्तिस्तावन्मया सर्व शरीरभोजनमुपकरणं च परित्यक्तमिति गृहीतप्रत्याख्यानः समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत, परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेव । तदतिचारव्यपोहाथ । एवमिव महत् कान्तारस्य प्रवेश निःक्रमणयोः। -शीत और उष्ण जन्तुओंको बाधा न हो इसलिए शरीर प्रमार्जन करना चाहिए। तथा सफेद भूमि या लाल रंगकी भूमिमें प्रवेश करना हो अथवा एक भूमिमे निकलकर दूसरी भूमिमें प्रवेश करना हो तो करिप्रदेशसे नीचेतक सर्व अवयव पिच्छिकासे प्रमाजित करना चाहिए। ऐसी क्रिया न करनेसे विरुद्ध योनि संक्रमसे पृथ्वी कायिक जीव और त्रस कायिक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति ३४० १. समिति निर्देश जीवोंको बाधा होगी। जल में प्रवेश करनेके पूर्व साधु हाथ-पाँव वगैरह अवयवों में लगे हुए सचित्त और अचित्त धूलिको पीछीसे दूर करे । अनन्तर जल में प्रवेश करे । जलसे बाहर आनेपर जब तक पाँव न सूख जावें, तब तक जल के समीप ही खड़ा रहे । पाँव सूखनेपर विहार करे । बड़ी नदियों को उलांघनेका कभी अवसर आवे तो नदीके प्रथम तटपर सिद्ध वन्दना कर, समस्त वस्तुओं आदिका प्रत्याख्यान करे। मनमें एकाग्रता धारण कर नौका वगैरहपर आरूढ़ होवे। दूसरे तटपर पहुँचनेके अनन्तर उसके अतिचार नाशार्थ कायोत्सर्ग करे। प्रवेश करनेपर अथवा वहाँसे बाहर निकलनेपर यही आचार करना चाहिए। दे, भिक्षा/२/६ जो गीली है, हरे तृण आदिसे व्याप्त है, ऐसी पृथ्वीपर गमन नहीं करना चाहिए । भ. आ./वि./१२०६/१२०४/४ खरान्, करभात, बलीवच, गजास्तुररगान्महिषान्सारमेयान्कलहकारिणो या मनुष्यान्दूरतः परिहरेत् ।... मृदुना प्रतिलेखनेन कृतप्रमार्जनो गच्छेद्य दि निरन्तरसुसमाहितफलादिक वाग्रतो भवेत् मार्गान्तरमस्ति। भिण्णवर्णा वा भ्रमिं प्रविशंस्तवर्णभूभाग एब अङ्गप्रमार्ज- कुर्यात् । - मार्गमें गदहा, ऊँट, बैल, हाथी, घोड़ा, भैंसा, कुत्ता और कलह करनेवाले लोगोंको दूरसे ही त्याग करे ।.. रास्तेमें जमीनसे समान्तर फलक पत्थर वगैरह चीज होगी, अथवा दूसरे मार्गमें प्रवेश करना पड़े अथवा भिन्न वर्ण की - जमीन हो तो जहाँसे भिन्नवर्ण प्रारम्भ हुआ है वहाँ खड़े होकर प्रथम अपने सर्व अंगपरसे पिच्छी फिरानी चाहिए। (और भी-दे. संयम/१/७) २. ईर्यासमितिके अतिचार भ. आ./वि./१६/६२/४ ईसिमितेरतिचारः मन्दालोकगमनं. पदविन्यासदेशस्य सम्यगनालोचनम्, अन्यगतचित्तादिकम् । - सूर्य के मन्द प्रकाशमें गमन करना, जहाँ पॉव रखना हो वह जगह नेत्रसे अच्छी तरहसे न देखमा, इतर कार्य में मन लगाना इत्यादि । ज्ञा./१८/८-६ धूर्तकामुकक्रव्यादचौरचार्वाकसेविता । शङ्कासंकेतपापाट्या त्याज्या भाषा मनीषिभिः ।। दशदोषविनिर्मुक्ता सूत्रोक्ता साधुसंमताम् । गदतोऽस्य मुनेर्भाषां स्याभाषासमितिः परा 11 -धूर्त (मायावी), कामी, मांसभक्षी, चौर, नास्तिकमति,-चाक आदिसे व्यवहारमें लायी हुई भाषा तथा संदेह उपजानेवाली, व पापसंयुक्त हो ऐसी भाषा बुद्धिमानों को त्यागनी चाहिए।८। तथा वचनोंके दश दोष (दे.भाषा) रहित सूत्रानुसार साधुपुरुषोंको मान्य हों ऐसी भाषाको कहनेवाले मुनिके उत्कृष्ट भाषा समिति होती है । २. वाक शुद्धिका लक्षण मू. आ /८५३-८६१ भासं विणयविहणं. घम्मविरोही विवज्जये वयणं । पुच्छिदमपुच्छिदं वा णवि ते भासति सप्पुरिसा ।८५३। अच्छीहि य पेच्छता कण्णे हि य बहुबिहा य सुणमाणा। अत्यति भूयभूया ण ते करं ति हु लोइयकहाओ ।८५४। विकहाविसोत्तियाणं खणमवि हिदएण ते ण चितंति । धम्मे लद्धमदीया विकहा तिविहेण बज्जति।८५७। कुक्कुयकंदपाइय हास उवलावणं च खेडं च । मददप्पहत्यवट्टि ण करति मुणी ण कारेंति 1८५८ ते होंति णिनियारा थिमिदमदी पदिद्विदा जहा उदधी। णियमेसु दढव्यदिणो पारत्तरिमग्गया समणा 1८५६। जिणवयणभासिदत्थं पत्थं च हिदं च धम्मसंजुत्तं । समओवयारजुत्तं पारत्तहिदं कधं करेंति ।८६०। सत्ताधिया सप्पुरिसा मग्गं मण्णं ति बीदरागाणं । अणयारभावणाए भावति य णिच्चमप्पाणं १८६॥ - सत्पुरुष वे मुनि विनय रहित कठोर भाषाको तथा धर्मसे विरुद्ध वचनों को छोड़ देते हैं। और अन्य भी विरोध जनक वाक्यों को नहीं बोलते।८५३। वे नेत्रोंसे सब योग्य-अयोग्य देखते हैं और कानोंसे सब तरहके शब्द सुनते हैं परन्तु वे गंगेके समान तिष्ठते हैं, लौकिक कथा नहीं करते।६५४ा स्त्रीकथा आदि विकथा ( दे. कथा) और मिथ्या शास्त्र, इनको वे मुनि मनसे भी चिन्तवन नहीं करते। धर्म में प्राप्त बुद्धिवाले मुनि विकथाको मन वचन कायसे छोड़ देते हैं 1८५७। हृदय कंठसे अप्रगट शब्द करना, कामोत्पादक हास्य मिले वचन, हास्य वचन, चतुराई युक्त मीठे वचन, परको ठगने रूप वचन, मदके गर्व से हाथका ताड़ना, इनको वे न स्वयं करते हैं, न कराते हैं १८५८। वे निर्विकार उद्धत चेष्टा रहित, विचारवाले, समुद्रके समान निश्चल, गम्भीर छह आवश्यकादि नियमों में दृढ़ प्रतिज्ञावाले और परलोकके लिए उद्यमवाले होते हैं ।८५६। वीतरागके आगम द्वारा कथित अर्थवाली पथ्यकारी धर्मकर सहित आगमके विनयकर सहित परलोक में हित करनेवाली कथाको करते हैं ।८६०१ उपसर्ग सहनेसे अकंपपरिणामवाले ऐसे साधुजन वीतरागोंके सम्यग्दर्शनादि रूप मार्गको मानते हैं और अनगार भावनासे सदा आत्माका ही चितवन करते हैं ।८६॥ रा. वा./३/६/१६/५६८/१ वाक्यशुद्धिः पृथिवीकायिकारम्भादिप्रेरणरहिताः (ता) परुषनिष्ठुरादिपरपीडाकरप्रयोगनिरुत्सुका व्रतशीलदेशनादिप्रधानफला हितमितमधुरमनोहरा संयतस्य योग्या। तदधिष्ठाना हि सर्वसंपदः । - पृथिवीकायिक आदि सम्बन्धी आरम्भादिकी प्रेरणा जिसमें न हो तथा जो परुष, निष्ठुर और पर पीड़ाकारी प्रयोगोंसे रहित हो व्रतशील आदिका उपदेश देनेवाली हो, वह सर्वतः योग्य हित, मित, मधुर और मनोहर वाक्यशुद्धि है। वाक्य शुद्धि सभी सम्पदाओंका आश्रय है । (चा. सा./८१/४): (वसु. श्रा./२३०) २. भाषा समितिके अतिचार भ. आ,/बि./१६/६२/४ इदं वचनं मम गदितुं युक्तं न वेति अनालोच्य भाषणं अज्ञात्वा वा। अत एवोक्तं 'अपुट्ठो दु ण भासेज भासमाणस्स अंतरे' इति अपृष्टश्रुतधर्मतया मुनिः अपृष्ट इत्युच्यते। भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात इत्यर्थः। एवमादिको भासासमित्यति. ४. भाषासमिति निर्देश १. भाषासमितिका लक्षण मू. आ./१२,३०७ पेसुण्णहासकक्कसपरणिदाप्पप्पसंसविक हादी। वज्जित्ता सपरहिदं भासासमिदी हवे कहणं ।१२। सच्चं असञ्चमोसं अलियादीदोसवजमणवज्ज । वदमाणस्सणुवीची भासासमिदी हवे सुद्धा ।३०७१ -१. झूठ दोष लगाने रूप पैशुन्य, व्यर्थ हँसना, कठोर वचन, परनिंदा, अपनी प्रशंसा, और विकथा इत्यादि वचनोंको छोड़कर स्व-पर हितकारक वचन बोलना भाषा समिति है। (नि.सा/म. ६२) २. द्रव्यादि चतुष्टयको अपेक्षा सत्य वचन ( दे. सत्य), सामान्य वचन, मृषावादादि दोष रहित, पापोंसे रहित आगमके अनुसार बोलनेवालेके शुद्ध भाषासमिति होती है। (भ. आ./मू./११६२); (स. सा./६८) रा. वा./६/५/५/५६४/१७ मोक्ष पदप्रापणप्रधानफलं हितम् । तद्विधम्स्वहितं परहितं चेति । मितमनर्थ कालपनरहितम् । स्फुटार्थ व्यक्ताधर चासंदिग्धम् । एवंविधमभिधानं भाषासमितिः। तत्प्रपञ्चःमिथ्याभिधानासूयाप्रियसभेदात्पसारशङ्कितसंभ्रान्तकषायपरिहासा - युक्तासभ्यनिष्ठुरधर्मविरोध्यदेशकालालक्षणातिसंस्तवादिवाग्दोषवि - रहिताभिधानम् । = स्व और परको मोक्षकी ओर ले जानेवाले स्वपर हितकारक, निरर्थक बकवाद रहित मित स्फुटार्थ व्यक्ताक्षर और असन्दिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है। मिथ्याभिधान, असूया प्रियभेदक, अल्पसार, शंकित, संभ्रान्त, कषाय युक्त, परिहास युक्त, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्म विधायक, देशकाल विरोधी, और चापलूसी आदि वचन दोषोंसे रहित भाषण करना चाहिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति १. समिति निर्देश भिक्षु कहलाता है, यही आदान निक्षेपण समिति है ।३१।। (भ. आ./मू./११६८), (त. सा./६/१०) शीघतासे बिना देखे, अनादरसे, बहत कालसे रखे उपकरणोंका उठाना-रखना स्वरूप दोषों का जो त्याग करता है उसके आदान निक्षेपण समिति होती है ।३२० । रा. वा./8/1/७/५६४/२५ धर्माविरोधिना परानुपरोधिना द्रव्याणां ज्ञानादिसाधनानां ग्रहणे विसर्जने च निरीक्ष्य प्रमृज्य प्रवर्तनमादाननिक्षेपणा समितिः । धर्माविरोधी और परानपरोधी ज्ञान और संयमके साधक उपकरणों को देखकर और शोधकर रखना और उठाना आदाननिक्षेपण समिति है। (चा. सा./७४/२), (ज्ञा./१८/१२-१३), (अन. ध./४/१६८/४६६ )। २. आदान निक्षेपण समितिके अतिचार भ. आ./वि./१६/६२/- आदातव्यस्य, स्थाप्यस्य बा अनालोचन, किमत्र जन्तवः सन्ति न सन्ति वेति दुःप्रमार्जनं च आदाननिक्षेपणसमित्यतिचारः। =जो वस्तु लेनी है, अथवा रखनी है वह लेते समय अथवा रखते समय, इसमें जीव है या नहीं इसका ध्यान नहीं करना तथा अच्छी तरह जमीन वा वस्तु स्वच्छ न करना आदाननिक्षेपण समितिके अतिचार हैं। ७. प्रतिष्ठापन समिति निर्देश चारः। - यह वचन बोलना योग्य है अथवा नहीं, इसका विचार न कर बोलना, वस्तुका स्वरूप ज्ञान न होनेपर भी बोलना, ग्रन्थान्तरमें भी 'अपुट्ठो दुण भासेज भासमाणस्स अंतरे' कोई पुरुष बोल रहा है और अपने प्रकरणको, विषय मालूम नहीं है तो बीचमें बोलना अयोग्य है, जिसने धर्मका स्वरूप सुना नहीं अथवा धर्मके स्वरूपका ज्ञान नहीं ऐसे मुनिको अपृष्ट कहते हैं। भाषासमितिका क्रम जो जानता नहीं वह मौन धारण करे ऐसा अभिप्राय है, इस तरह भाषा समितिके अतिचार है। ५. एषणासमिति निर्देश १. एषणासमितिका लक्षण मू. आ./१३.३१८ छादालदोससुद्ध' कारणजुत्तं विसुद्धणवकोडी। सीदादी समभुत्ती परिसुद्धा एषणासमिदी।१३। उग्गमउप्पादणएसणेहिं पिंड च उवधि सज्जं च । सोधतस्स य मुणिणो परिसुज्झइ एसणासमिदी ।३१८ -१. उद्गमादि ४६ दोषों (दे. आहार/II/४ ) कर रहित, भूख आदि मेंटना व धर्म साधन आदि कर युक्त, कृत-कारित आदि नौ विकल्पों कर विशुद्ध ( रहित) ठडा-गरम आदि भोजनमे रागद्वेष रहित, समभाव कर भोजन करना, ऐसे आचरण करनेवालेके एषणासमिति है।१३। २. उद्गम, उत्पाद, अशन दोषोंसे आहार, पुस्तक, उपधि. बसतिकाको शोधनेवाले मुनिके शुद्ध एषणासमिति है ।३१८१ ( भ. आ/म् /१९६७): (त. सा./६/8) रा. वा./8/4/६/५६४/२१ अनगारस्य गुणरत्नसंचयसं वाहिशरीरशकटिसमाधिपत्तनं निनीषतोऽक्षम्रक्षणमिव शरीरधारणमौषधमिव जाठराग्निदाहोपशमनिमित्तमन्नाद्यनास्वादयो देशकालसामादिविशिष्टमगर्हितमभ्यवहरतः उद्गमोत्पादन षणासं योजनप्रमाणकारणाङ्गारधूमप्रत्ययनवकोटिपरिवर्जनमेषणासमितिरिति समारख्यायते।-गुणरत्नोंको ढोनेवाली शरीररूपी गाड़ीको समाधि नगरकी ओर ले जानेकी इच्छा रखनेवाले साधुका जठराग्निके दाहको शमन करने के लिए औषधिकी तरह या गाड़ी में आंगन देनेकी तरह अन्नादि आहारको बिना स्वादके ग्रहण करना एषणासमिति है। देश, काल और प्रत्यय इन नव कोटियोंसे रहित आहार ग्रहण किया जाता है ।(चा, सा./६७/३ ), (ज्ञा./१८/१०-११), (अन, ध./४/१६७) । २. एषणासमितिके अतिचार म. आ./वि./१६/१२/७ उद्गमादिदोषे गृहीतं भोजनमनुमननं वचसा, कायेन वा प्रशंसा, तैः सह वासः, क्रियासु प्रवर्तन वा एषणासमितेरतीचारः । -उद्गमादि दोषोंसे सहित आहार लेना, मनसे, वचनसे, ऐसे आहारको सम्मति देना, उराकी प्रशंसा करना, ऐसे आहारकी प्रशंसा करनेवालोंके साथ रहना, प्रशंसादि कार्य में दूसरोंको प्रवृत्त करना । एषणासमितिके अतिचार हैं। ६. आदान निक्षेपण समिति निर्देश १. आदान निक्षेपण समितिका लक्षण : आ./१४,३१६,३२० णाणुवहिं संजमुवहिं सौचुनहिं अण्णमप्पमुपहि वा। पयद गहणणिक्खेको समिदी आदाणणिवरनेवा ।१४। आदाणे णिक्खेवे पडिलेहिय चक्रखुणा पमज्जेज्जो। दव्वं च दवठाणं सजमलगीए सो भिक्खू ।३१। सहसाणा भोइददुष्पमज्जिदअपच्चुवेश्रवणा दोसा। परिहरमाणस्स हवे समिदी आदाणणियखेवा ॥३२॥ ८१. ज्ञानके उपकरण, संयमके उपकरण तथा शौचके उपकरण, व अन्य साथरे आदिके निमित्त उपकरण, इनका यत्नपूर्वक उठाना, रखना वह आदान निक्षेपण समिति है। (नि. सा./६४)। २. ग्रहग ओर रखने में पीथो, कमण्डलु आदि वस्तुको तया वस्तुके स्थानको अन्यो तरह देखकर पोछोसे जो शोधन करता है वह १. प्रतिष्ठापन समितिका लक्षण मू. आ./१५,३२१-३२५ एगते अच्चित्ते दूरे गूढे विसालमविरोहे। उच्चा रादिच्चाओ पदिठावणिया हवे समिदी ।१४ वणदाहकिसिमसिकदे थंडिललेणुपरोधे विस्थिण्णे । अवगदर्जतु विवित्त उपचारादी विसज्जेज्जो ।३२१। उच्चार पस्सवण्णं खेल सिंघाणयादिय दव्वं । अच्चित्तभूमिदेसे पडिले हित्ता विसज्जेज्जो ।३२२। रादो दु पमजित्ता पण्णसमणपैपिरवदम्मि ओगासे । आसं कवि सुदीए अपहत्थगफासणं कुज्जा ।३२३। जदित हवे असुद्ध' विदियं तदियं अणुण्णवे साह । लधुए अणिछायारे ण देज साधम्मिए गुरुयो ।३२४। पदिठवणासमिदी वि य तेणेव कमेण व पिणदा होदि । वोसरणिज्जं दव कुथं डिले वोसरत्तस्स ।३२५। -१. एकान्तस्थान, अचित्तस्थान, दूर, छिपा हुआ, बिल तथा छेदरहित चौड़ा, और जिसकी निन्दा व विरोध न करे ऐसे स्थानमें मूत्र, विष्ठा आदि देहके मल का क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति कही गयी है ।१५। (नि. सा./६५), (ज्ञा./१८/१४ । २. दावाग्निसे दग्धप्रदेश, हलकर जुता हुआ प्रदेश, मसान भूमिका प्रदेश, खार सहित भूमि, लोग जहाँ रोके नहीं, ऐसा स्थान, विशाल स्थान, त्रस जीवोंकर रहित स्थान, जनरहित स्थान-ऐसी जगह मूत्रादिका त्याग करे ।३२१॥ (भ.आ./मू./११६६), (त.सा./६/११), (अन. ध./४/१६६/४६७) ३. विष्ठा, मूत्र, कफ, नाकका मेल, आदिको हरे तृण आदिसे रहित प्रामुक भूमिमें अच्छी तरह देखकर निक्षेण्ण करे ।३२२। रात्रि में आचार्यके द्वारा देखे हुए स्थानको आप भी देखकर मूत्रादिका क्षेपण करे । यदि वहाँ सूक्ष्म जीवोंकी आशंका हो तो आशंकाकी विशुद्धिके लिए कोमल पोछोको लेकर हथेलीसे उस जगह को देखे ।३२३. यदि पहला स्थान अशुद्ध हो तो दूसरा, तीसरा आदि स्थान देखे। किसी समय रोग पीड़ित होके अथवा शीघ्रतासे अशुद्ध प्रदेश में मल छूट जाये तो उस धर्मात्मा साधुको प्रायश्चित्त न दे ।३२४॥ (अन. ध./४/१६६ ) उसी कहे हुए क्रमसे प्रतिष्ठापना समिति भी वर्णन की गयी है उसी क्रमसे त्यागने योग्य मल-मूत्रादिको उक्त स्थण्डिल स्थानमें निक्षेपण करें। उसी के प्रतिष्ठापना समिति शुद्ध है । ३२५॥ रा.बा./8/1/८/५६४/२८ स्थावराणां जनमानां च जीवादीनाम् अविरोधेनाङ्गमलनिहरणं शरीरस्य च स्थापनम् उत्सर्गसमिति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति २४२ रवगन्तव्या । जहाँ स्थावर या जंगम जीवोंको विराधना न हो ऐसे निर्जन्तु स्थान में मल-मूत्र आदिका विसर्जन करना और शरीरका रखना उत्सर्ग समिति है । (चा. सा./७४ /३) । २. प्रतिष्ठापना शुद्धिका लक्षण - रा.वा./६/६/१६/५६०/ ३२ प्रतिष्ठापनशुद्धिपरः संयतः नरोमाकनिष्ठीवन शुक्रोच्चारप्रखवणशोधने देहपरित्यागे च विदितदेशकालो जन्तुपरोधमन्तरेण प्रग्रतते । प्रतिष्ठापन शुद्धिमें तत्पर संयत देश और कालको जानकर नख, रोम, नाक, थूक, वीर्य, मल, मूत्र या देह परित्यागमें जन्तु बाधाका परिहार करके प्रवृत्ति करता है । ( चा. सा. / ५०/१) 1 ३. प्रतिष्ठापना समितिके अतिचार -भ. बा./वि./९६/६२/१ कायभूम्यशोधनं महादेशनिरूपणादि पवनसंनिवेशदिनकरादिमेण वृत्तिश्च प्रतिज्ञापनसमित्यतिचारः । -शरीर व जमीन पिकाननामा-सूत्रादिक जहाँ क्षेपण करना है वह स्थान न देखना इत्यादि प्रतिष्ठापना समितिके अतिचार हैं । २. निश्चय व्यवहार समिति समन्वय १. समितिमै सम्यग् विशेषणकी आवश्यकता । स.सि./१/५/४१९/६ सम्यग् इत्यनुवर्तते । रोनेर्याइयो विशेष्यन्ते । सम्यगीय सम्यभाषा इति यहाँ 'सम्यकू' इस परकी अनुवृत्ति होती है उससे ईर्ष्यादिक विशेष्यनेको प्राप्त होते हैंसम्यगीर्या सम्यग्भाषा इत्यादि। ( रा. वा. /६/५/१/५६३/३२) । भ.आ./वि / ११५/२६७/१ सम्यग्विषानिकायस्वरूपज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा प्रवृत्तिर्गृहीता । इस समितिके) लक्षण में जो समितिका सम्यक यह विशेषण है उसका भाव भेद और उनके स्वरूपके ज्ञानके साथ श्रद्धान गुण उठाना, रखना, गमन करना, बोलना इत्यादि प्रवृत्ति की जाती है। वहाँ सम्यक है। ऐसा है— जीवों के सहित जो पदार्थ भते पु. सि. उ. / २०३ सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथैषणा सम्यक् । सम्यग्दन निक्षेप सर्गः सम्यनिति समितिः ॥२०३॥ प्रकार गमन- आगमन, उत्तम हितमित रूप वचन, योग्य आहारका ग्रहण पदार्थोंका वस्नपूर्वक ग्रहण विसर्जन, भूमि देखकर मूत्रादिका मोचन नामका सम्यग्व्युत्सर्ग, ये पाँच समिति हैं । २. प्रमाद न होना ही सच्ची समिति है है। मो. मा. प्र. / ७ / ३३५ /१० बहुरि परजीवनिकी रक्षाके अर्थ यत्नाचार प्रवृत्ति सार्कों समिति मानें हैं। सो हिंसा के परिणामनितें तो पाप हो है, अर रक्षाके परिणामनितें संवर कहोगे, तौ पुण्यबंधका कारण कौन ठहरेगा। रिपपणासमिति विदोष वहाँ रक्षाका प्रयोजन है नाहीं तातै रक्षा ही अर्थ समिति नाहीं है तो समिति के हो हैन किंचित् राग भए गमनादि क्रिया हो है । तहाँ तिन क्रियानिविषै अति आसक्तता के अभाव प्रमादरूप प्रवृत्ति न हो है । बहुरि और जीवनिकौं दुखी करि अपना गमनादि प्रयोजन न साधै है । तार्तं स्वयमेव ही दया प है। ऐसे सोंची समिति है। ३. समितिका उपदेश असमर्थजनोंके लिए है स.सि./६/५/४१९/७ की उत्थानिका -- तत्राशक्तस्य मुनेर्निरवद्यप्रवृत्तिस्थापनार्थमाह- टिके पालन करनेमें बश मुनिके निर्दोष प्रवृत्तिकी प्रसिद्धिके लिए बागेका सूत्र कहते हैं। (रा. बा./६/६/२/२६४/१६) खा./८/८)। = समुद्घात ४. समितिका प्रयोजन अहिंसात्रतकी रक्षा ख. सि./१/५/४११/१० वा एताः पच समितयो विदितजीवस्थानादिविधेर्मुनेः प्राणिपीड़ापरिहाराभ्युपाया मेव्याः । - इस प्रकार कही गयी ये पाँच समितियाँ जीव स्थानादि विधिको जाननेवाले गुनिके प्राणियोंकी पीड़ा को दूर करनेके उपाय जानने चाहिए। ला. सं./५/१८५ यथा समितयः पञ्च सन्ति...। अहिंसावतरक्षार्थं कर्तव्या देशतोऽपि तैः । १८५१ = अहिंसा व्रतको रक्षा करनेके लिए श्रावकों को पाँच समितियों का पालन अवश्य करना चाहिए। ५. समिति पालनेका फल 1 भ.आ./सू./१२०१ पनप जहा उण तिष्यदि सिनेहगुणजुतं तह समिदीहि विप्न साधु कार हरियो | १२०१ = स्नेहगुणसे युक्त कमलका पत्र जलसे लिप्त होता नहीं है तद्वत् प्राणियों के शरीर में बिहार करनेवाला यतिराज समितियोंसे युक्त होनेसे पासे लिए होता नहीं। स.सि./६/५/४११/११ प्रवर्तमानस्यासंयमपरिणामनिमित्तकर्मास्रवात्समरो भवति। इस प्रकारसे ( समितिपूर्वक) प्रवृत्ति करनेवाले असंयम रूप परिणामोंके निमित्तसे जो कर्मोंका आसव होता है उसका संवर होता है। 3 - समीकरण - Equation. समुच्छिन क्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान दे समुत्पत्तिक बन्धस्थान दे शुक्लध्यान । समुद्घात - १. समुद्रात सामान्यका लक्षण रा.वा./१/२०/१२/०७/१२ हन्तेर्गमिक्रियात्वात संभूयात्मप्रदेशानां च बहिरुहननं समुद्घातः । = वेदना आदि निमित्तोंसे कुछ आत्मप्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकलना समुद्रात है (गो. जी./जी. प्र. / ५४३ / १३६ / ३ ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भ. १/१.१.६० / ३००/६ पातनं मातः स्थित्यनुभवविनाश इति यावत् । ... उपरि घातः उद्घातः, समीचीन उद्घातः समुद्घातः । = ( केवलि समुद्रात प्रकरण में घाटने रूप धर्मको पात कहते हैं, जिसका प्रकृतमें अर्थ कर्मों की स्थिति और अनुभागका विनाश होता है ।... उत्तरोत्तर होनेवाले घातको उद्धघात कहते हैं, और समीचीन उघातको समुद्रघात कहते हैं। गो. जी. ६० मूलसरीरमडिय उत्तर देहस्त जीवपिंडास निग्गम देहादो होदि सम्रग्वादणामं तु । ६६ । मूल शरीरको न छोड़कर तेजस कार्मण रूप उत्तर देहके साथ-साथ जीव प्रदेशों के शरीरसे बाहर निकलनेको समुदघात कहते हैं । (द्र.सं./टी./१०/२५ में उद्धृत ) Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ समुद्घात समुद्धात २. समुद्रातके भेद 4.सं./प्रा./१/१९६ वेयण कसाय वेउन्बिय मारणंतिओ समुग्धाओ। तेजाहारो छट्ठो सत्तमओ केवलीणं च ॥१६६ - वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तै जस, आहारक और केवलि समुद्घात; ये सात प्रकारके समुद्धात होते हैं। (रा. वा./१/२०/१२/७७/१२); (ध. ४/१,३,२/गा. ११/२६); (ध. ४/१,३,२/२६/५); (गो. जी././६६७/१११२); (बृ. द्र. सं./१०/२४/); (गो. जी./जी. प्र./५४३/१३६/१३); ( पं. सं./१/३३७ ) समुद्घातवशाद बहिनिःसृतानामात्मप्रदेशानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरोवधिो दिनु गमनमिष्टं श्रेणिगतित्वादात्मप्रदेशानाम् । आहारक और मारणान्तिक समुद्घात एक ही दिशा में होते हैं। (गो. जी./मू./६६६ ) क्योंकि आहारक शरीरकी रचनाके समय श्रेणि गति होनेके कारण एक ही दिशामें असंख्य आत्मप्रदेश निकलकर.. आहारक शरीरको बनाते हैं। मारणान्तिकमें जहाँ नरक आदिमें जीवको मरकर उत्पन्न होना है वहाँकी ही दिशामें आत्मप्रदेश निकलते हैं। शेष पाँच समुद्घात छहों दिशाओं में होते हैं । क्योंकि वेदना आदिके वशसे बाहर निकले हुए आत्मप्रदेश श्रेणीके अनुसार ऊपर, नीचे, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन छहों दिशाओं में * समुद्धात विशेष-दे, वह वह नाम । ३. गमनकी दिशा सम्बन्धी नियम दे. मरण/५/७ [मारणान्तिक समुद्घात निश्चयसे आगे जहाँ उत्पन्न होना है, ऐसे क्षेत्रकी दिशाके अभिमुख होता है, शेष समुद्घात दशों दिशाओंमें प्रतिबद्ध होते हैं।] रा. वा./१/२०/१२/७७/२१ आहारकमारणान्तिकसमुद्धातावेकदिक्की। यत आहारकशरीरमात्मा निर्वर्तयन् श्रेणिगतित्वात एकदिकानात्मदेशानसंख्यातान्निर्गमय्य आहारकशरीरमररिनमात्र निर्वर्तयति । अन्यक्षेत्रसमुद्घातकारणाभावात यत्रानेन नरकादाबुत्पत्तव्यं तत्रैव मारणान्तिकसमुद्घातेन आरमप्रदेशा एकदिक्काः समुदधन्यन्ते. अतस्तावेकदिक्कौ । शेषाः पञ्च समुद्घाताः षड्दिकाः। यतो वेदनादि ४. अवस्थान काल सम्बन्धी नियम रा. वा./१/२०/१२/७७/२६ वेदना-कषाय-मारणान्तिकतेजो-वै क्रियिकाहारकसमुद्घाताः षडसंख्येयसमयिकाः। केवलिसमुधातः अष्टसमयिकः । -वेदनादि छह समुद्धातोंका काल असंरख्यात समय है। और केवलिसमुद्घातका काल आठ समय है। [विशेष-दे. केवली/७/८] ५. समुद्धातोंके स्वामित्व विषयक ओघ आदेश प्ररूपणा (ध. ४/१,२,३-३/३८-४७) क्र. गुणस्थान •8/8/13 वेदना "K/8 कषाय ध. ४/पृ. ध.४/पृ. वै क्रियिक ध.४/पृ. तेजस ध.४/पृ. आहारक ध,४/पृ. केवली | - : :: : mail : | मारणान्तिक : : :: : :: मिथ्यादृष्टि सासादन मित्र असंयत संयतासंयत प्रमत्त अप्रमत्त अपूर्व.क, उप. . ., क्षपक ६-११ उप. १११-११क्षपक क्षीणकषाय १३ सयोगी १४ अयोगी : : : dones :: :: : : :: :: : : : : जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन -अक्ष संचार गणितमें अक्ष या भंगके नाम के आधारपर संख्या बताना समुद्दिष्ट है । विशेष-दे. गणित/II/३/१,२। समुद्देश-उद्दिष्ट आहारका एक भेद-दे. उद्दिष्ट । समुद्र-१. दे. सागर; २. मध्य लोकमें स्थित समुद्र-2, लोक/: ३. समुद्रके नकशे-दे. लोक/७। समुद्रगुप्त मगधदेशकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह गुप्तवंशी राजाओंका दूसरा राजा था। समय-वी. नि.८५६-६०१ (ई. ३३०३७५)-दे. इतिहास/३/४1 समुद्रविजय-ह. पु./सर्ग/श्लोक अन्धकवृष्णिका पुत्र था। तथा कृष्णके ताऊ थे। (१८/१२-१४) आदिनाथ भगवान के पिता थे (३८/६४८/४३-४४) अन्तमें दीक्षा धारण कर (६१/8) गिरनार पर्वतपर-से मोक्ष प्राप्त किया (६५/१६ )। सम्मेदाचल माहात्म्य-पं. मनरंगलाल (ई. १७६३-१८४३) द्वारा विरचित भाषा छन्द बद्ध कृति । सम्यक् स. सि./१/१/३/३ सम्यगित्यव्युत्पन्नः शब्दो व्युत्पन्नो वा। अञ्चतेः क्वौ समञ्च तीति सम्यगिति । अस्यार्थः प्रशंसा। - 'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढिक और व्युत्पन्न अर्थात व्याकरण सिद्ध है। 'सम्' उपसर्ग पूर्वक अञ्च धातुसे क्विप् प्रत्यय करनेपर 'सम्यक् ' शब्द बनता है। संस्कृतमें इसकी व्युत्पत्ति 'समञ्चति इति सम्यक' इस प्रकार होती है । इसका अर्थ प्रशंसा है। रा, वा./१/२/१/१९/४ सम्य गित्ययं निपातः प्रशंसार्थो वेदितव्यः सर्वेषां प्रशस्तरूपगतिजातिकुलायुविज्ञानादीनाम आभ्युदयिकानां मोक्षस्य च प्रधानकारणत्वात्। ... "सम्यगिष्टार्थ तस्वयोः" इति वचनात प्रशंसार्थाभाव इति; तन्नः अनेकार्थत्वान्निपातानाम् । अथवा, सम्यगिति तत्त्वार्थो निपातः,...अविपरीतार्थविषयं तत्त्वमित्युच्यते। अथवा व्यन्तोऽयं शब्दः समञ्चतोति सम्यक् । यथा अर्थोऽवस्थितस्तथैवावगच्छतीत्यर्थः । = सम्यक् यह प्रशंसार्थक शब्द (निपात) है। यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, आयु विज्ञानादि अभ्युदय और निःश्रेयसका प्रधान कारण होता है। 'सम्यगिष्टार्थतत्त्वयोः' इस प्रमाणके अनुसार सम्यक् शब्दका प्रयोग इष्टार्थ और तत्स्व अर्थमें होता है अतः इसका प्रशंसार्थ उचित नहीं है, इस शंकाका समाधान यह है कि निपात शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। अथवा 'सम्यक'का अर्थ तत्व भी किया जा सकता है ।...अथवा यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है । इसका अर्थ है जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जाननेवाला । सम्यक्चारित्र-दे. चारित्र । सम्यक्त्व-दे. सम्यग्दर्शन । सम्यक्त्व कौमुदी-आ. शुभचन्द्र (ई. १५१६-१५५६) द्वारा रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । सम्यक्त्व क्रिया-दे. क्रिया/३/२। सम्यक्त्व प्रकृति-दे, मोहनीय/२। (ई. १५१६-१५५६) द्वारा सम्यक्त्व लब्धि-दे, लब्धि/१/३ । सम्यक्त्ववाद-दे, श्रद्धानवाद। सम्यक्त्वाचरणचारित्र-दे. स्वरूपाचरणचारित्र । सम्यक नय-दे. नय/II । सम्यक् प्रकृति-दे. मोहनीय/२। सम्यक मिथ्यात्व गुणस्थान-दे, मिश्र । सम्यगनेकांत-दे. अनेकान्त/१ । सम्यगेकांत-दे. एकान्त/१ सम्यग्ज्ञान-दे. ज्ञान/IITH सम्यग्दर्शन--दुरभिनिवेश रहित पदार्थोका श्रद्धान अथवा स्वात्म प्रत्यक्षपूर्वक स्व-पर भेदका या कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक सम्यगदर्शन कहा जाता है। किन्हींको यह स्वभाव से ही होता है और किन्हींको उपदेशपूर्वक । आज्ञा आदिकी अपेक्षा यह दश प्रकारका तथा कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशमकी अपेक्षा तीन प्रकारका होता है। इनमें से पहले दो अत्यन्त निर्मल व निश्चल होते हैं, पर तीसरे में समल होने के कारण कदाचित कुछ अतिचार लगने सम्भव हैं। रागके सद्भाव व अभावकी अपेक्षा भी इसके सराग ब वीतराग दो भेद हैं। तहाँ सराग तो प्रशम, संवेग आदि गुणोंके द्वारा अनुमानगम्य है और वीतराग केवल स्वानुभवगम्य है। सभी भेद निःशंकित आदि आठ गुणोंसे भूषित होते हैं। सम्यक्त्व व ज्ञानमें महान् अन्तर होता है जो सूक्ष्म विचारके बिना पकड़में नहीं आता । जितनी भी विकल्पात्मक उपलब्धियाँ, श्रद्धा, अनुभव आदि हैं वे सब ज्ञानरूप हैं, सम्यग्दर्शन तो निर्विकल्प होनेके कारण अन्तरमें अभिप्राय या लब्धरूप अब स्थित मात्र रहा करता है। मोक्षमार्गमें इसका सर्वोच्च स्थान है, क्योंकि इसके बिनाका आगम ज्ञान, चारित्र, बत, तप आदि सब वृथा हैं। सम्यग्दर्शनके लक्षणों में भी स्वारम संवेदन सर्वप्रधान है, क्योंकि बिना इसके तत्त्वोंकी श्रद्धा आदि अकिंचित्कर है। ये सम्यग्दर्शन स्वतः या किसीके उपदेशसे, या जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन आदिके निमित्तसे काल पाकर भव्य जीवों को उत्पन्न होता है। इसको प्राप्त करने की योग्यता केवल संझी पर्याप्त जीवों में चारों ही गतियों में होती है। अनादि मिथ्यादृष्टिको सर्वप्रथम प्रथमोशम सम्यक्त्व होता है। वहाँसे नियमसे गिरकर वह पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है। पीछे कदाचित् बेदक-सम्यक्त्वको और तत्पूर्वक यथायोग्य गुणस्थानों में द्वितीयोपशम व क्षायिक हो जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन अत्यन्त अचल व अप्रतिपाती है, तथा केवलीके पाद मूलमें मनुष्योंको ही होना प्रारम्भ होता है। पीछे यदि मरण हो जाये तो चारों गतियों में पूर्ण होता है। सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश सम्यग्दर्शन सामान्यका लक्षण। -दे सम्य./II/१। सम्यग्दर्शनके भेद। सम्यक्त्वमार्गणाके भेद। -दे. सम्यग्दर्शन/IV/१N निसर्गज व अधिगमजके लक्षणादि । -दे. अधिगम । निश्चय व्यवहार व सराग वीतरागभेद । -दे, सभ्य /II | उपशमादि सम्यक्त्व। -दे. सम्य./IV I आशा आदि १० भेदोंके लक्षण । आशा सम्यक्त्वकी विशेषताएँ । सम्यग्दर्शनमें 'सम्यक' शब्दका महत्त्व । सम्यग्दर्शनमें दर्शन शब्दका अर्थ । १. सत्तामात्र अवलोकन इष्ट नहीं है। २. कथंचित सत्तामात्र अवलोकन इष्ट है। ३. व्यवहार लक्षणमें 'दर्शन' शब्द का अर्थ श्रद्धा है। ४. उपर्युक्त दोनों अर्थोंका समन्वय । श्रद्धान व अन्धश्रद्धान सम्बन्धी। -दे. श्रद्धान । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन सूचीपत्र * | मार्गणाओं व पर्याप्त अपर्याप्तमें सम्यग्दर्शनका स्वामित्व व तद्गत शंकाएँ। -दे, वह बह नाम । सम्यक्त्वके स्वामित्वमें मार्गणा गुणस्थान आदि २. प्ररूपणाएँ। -दे. सत्। सम्यक्त्व सम्बन्धी सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप ८प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम । सभी मार्गणाओंमें आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम। -दे. मार्गणा। प्रथम सम्यग्दर्शनके प्रारम्भ सम्बन्धी। -दे. सम्य./IV/२| सम्यग्दर्शनके अपर नाम । सम्यक्त्वकी पुनः-पुनः प्राप्ति व विराधना सम्बन्धी नियम। * | सम्यग्दर्शनमें कर्मोके बन्ध, उदय, सत्व सम्बन्धी। -दे. वह वह नाम। स्वात्मानुभूतिके ज्ञान व सम्यक्त्वरूप होने सम्बन्धी समन्वय। अनुभूति उपयोगरूप होती है और सम्यक्त्व लब्धरूप। सम्यग्दर्शनमें कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पता। -दे. विकल्प/३। सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें अन्तर। सम्यग्दर्शन कथंचित् सम्यग्ज्ञानसे पूर्ववर्ती है। -दे. ज्ञान/III/२/४ । * | सम्यग्दर्शनमें नय निक्षेपादिका स्थान ।। -दे, न्याय/१/३। सम्यग्दर्शनके साथ शान व वैराग्यका अविनाभावीपना। -दे. सम्यग्दृष्टि/२। सम्यक्त्वके साथ चारित्रका कथंचित् भेद-अभेद । सम्यग्दर्शन-शान-चारित्रमें-कथंचित् एकत्व अनेकत्व। -दे. मोक्षमार्ग/२,३ । मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शनकी प्रधानता सम्यग्दर्शनकी प्रधानताका निर्देश सम्यग्दर्शन ही सार, सुखनिधान, व मोक्षकी प्रथम सीढ़ी है इत्यादि महिमा। सम्यग्दृष्टि नीचकुल आदिमें नहीं जन्मता। --दे. जन्म/३/१॥ सम्यग्दर्शनकी प्रधानतामें हेतु। सम्यग्दर्शन के पश्चात् भव धारणकी सीमा । सम्यग्दर्शनके अंग व अतिचार आदि सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंके नाम । आठों अंगोंकी प्रधानता। | निश्चय व्यवहार अंगोंकी मुख्यता-गौणता। -दे. सम्य./IIII | सम्यग्दर्शनके अनेकों गुण । | सम्यग्दर्शनके अतिचार। शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्वमें अन्तर । -दे. संशय/1 सम्यग्दर्शनके २५ दोष । कारणवश सम्यक्त्वमें अतिचार लगनेकी सम्भावना। सम्यग्दर्शनकी प्रत्यक्षता-परोक्षता छमस्थोंका सम्यक्त्व भी सिद्धोंके समान है। सम्यग्दर्शनमें कथंचित् स्व-पर गम्यता। सम्यग्दृष्टिको अपने सम्यक्त्वके लिए किसीसे पूछनेकी आवश्यकता नहीं। -दे. अनुभव/४/३ । वास्तवमें सम्यग्दर्शन गुण नहीं बल्कि प्रशमादि गुण ही प्रत्यक्ष होते हैं। सम्यक्त्व वास्तवमें प्रत्यक्षशान गम्य है। सम्यक्त्वको सर्वथा केवलज्ञानगम्य कहना युक्त नहीं। | निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व लक्षण निर्देश सम्यग्दर्शनके दो भेद-निश्चय व्यवहार । व्यवहार सम्यग्दर्शनके लक्षण। १. देव शास्त्र व गुरु धर्मकी श्रद्धा। २. आप्त आगम व तत्त्वोंकी श्रद्धा । ३. तत्त्वार्थ या पदार्थों आदिका श्रद्धान । ४. पदार्थोंका विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान। १.यथाव स्थित पदार्थों का श्रद्धान। ६. तत्त्वों में हेय व उपादेय बुद्धि । ७. तत्व रुचि। प्रशमादि गुणोंकी अभिव्यक्ति। -दे. सम्य./II/R1 निश्चय सम्यग्दर्शनके लक्षण १. उपरोक्त पदार्थों का शुद्धात्मासे भिन्न दर्शन। २. शुद्धात्माकी रुचि। ३. अतीन्द्रिय सुखकी रुचि। ४. वीतराग सुरवस्वभाव ही 'मैं हूँ' ऐसा निश्चय । १.शुद्धात्मकी उपलब्धि आदि। स्वसंवेदन शान निर्देश। -दे अनुभव । सम्यग्दर्शन व आत्मामें कथंचित् एकत्व । -दे. मोक्षमार्ग/२/६ । सम्यक्त्वका ज्ञान व चारित्रके साथ भेद श्रद्धान आदि व आत्मानुभूति वस्तुतः सम्यक्त्व नहीं शानकी पर्याय हैं। प्रशम आदि शानरूप नहीं बल्कि सम्यक्त्वके कार्य हैं। ३ | प्रशमादि कथंचित् सम्यग्ज्ञानके भी शापक हैं। भा०४-४४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन सूचीपत्र | निश्चय व व्यवहार सम्यग्दर्शन ही वीतराग व सराग सम्यग्दर्शन है। -दे, सम्यग्दर्शन/118/२। लक्षणमें तत्त्व व अर्थ दोनों शब्द क्यों। व्यवहार लक्षणोंका समन्वय । निश्चय लक्षणोंका समन्वय । आत्मानुभूतिको सम्यग्दर्शन कहनेका कारण । -दे. सम्यग्दर्शन/I/४। | व्यवहार व निश्चय लक्षणोंका समन्वय । | निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शनोंकी कथंचित् मुख्यता गौणता स्वभाव भान बिना सम्यक्त्व नहीं। | निश्चय नयके आश्रयसे ही सम्यक्त्व होता है। -दे. नय/V/३/३॥ आत्माका जानना ही सर्व जिनशासनका जानना है। -दे. श्रुतकेवलो/२/६ । आत्मदर्शन रहित श्रद्धान सम्यग्दर्शन नहीं। -दे. अनुभव/३। आत्मानुभवीको ही आठों अंग होते हैं। आठों अंगोंमें निश्चय अंग ही प्रधान है। श्रद्धान आदि सब आत्माके परिणाम हैं। निश्चय सम्यक्त्वकी महिमा । श्रद्धानमात्र सम्यग्दर्शन नहीं है। | सम्यग्दृष्टिको अन्धश्रद्धानका विधि-निषेध । -दे. श्रद्धान/३ । | मिथ्यादृष्टिकी, श्रद्धा आदि यथार्थ नहीं। इन दोनों सम्यक्त्वों सम्बन्धी २५ दोषोंके लक्षणोंमें विशेषता। दोनोंमें कथंचित् एकत्व। इन दोनोंमें तात्त्विक भेद मानना भूल है। सराग सम्यग्दृष्टि भी कथंचित् वीतराग है । सराग व वीतराग कहनेका कारण प्रयोजन । | सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके निमित्त सम्यक्त्वके अन्तरंग व बाह्म निमित्तोंका निर्देश निसर्ग व अधिगम आदि। दर्शनमोहके उपशम आदि । लब्धि आदि। द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव रूप निमित्त । जाति स्मरण आदि। उपर्युक्त निमित्तोंमें अन्तरंग व बाह्य विभाग । कारणोंमें कथंचित् मुख्यता-गौणता व भेदअभेद कारणोंकी कथंचित् मुख्यता। कारणोंकी कथंचित् गौणता। कारोंका परस्परमें अन्तर्भाव । कारणोंमें परस्पर अन्तर। कारणोंका स्वामित्व व शंकाएँ चारों गतियोंमें यथासम्भव कारण । जिनबिम्बदर्शन सम्यक्त्वका कारण कैसे ? ऋषियों व तीर्थक्षेत्रों के दर्शनोंका निर्देश क्यों नहीं। नरकमें जातिस्मरण व वेदना सम्बन्धी। नरकोंमें धर्मश्रवण सम्बन्धी। मनुष्योंमें जिनमहिमा दर्शनके अभाव सम्बन्धी। देवोंमें जिनबिंब दर्शन क्यों नहीं। आनत आदिमें देवद्धिदर्शन क्यों नहीं। नववेयकोंमें जिनमहिमा व देवद्धिदर्शन क्यों नहीं ? नवग्रेवेयकोंमें धर्मश्रवण क्यों नहीं। | निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व समन्वय | नवतत्वोंकी श्रद्धाका अर्थ शुद्धात्मतत्त्वकी श्रद्धा ही है। व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्वमें केवल भाषाका भेद -दे. पद्धतिा । | व्यवहार सम्यक्त्व निश्चयका साधक है। | तत्त्रार्थश्रद्धानको सम्यक्त्व कहनेका कारण व प्रयोजन । | सम्यक्त्वके अंगोंको सम्यक्त्व कहनेका कारण । सराग वीतराग सम्यक्त्व निर्देश | सराग-वीतरागरूप मेद व लक्षण । | वीतराग व सराग सम्यक्त्वकी स्व-परगम्यता। -दे. सम्यग-/1/३। व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्वके साथ इन दोनोंकी एकार्थता। | सराग व वीतराग सम्यक्त्वका स्वामित्व । उपशमादि सम्यग्दर्शन उपशमादि सामान्य निर्देश सम्यक्त्व मार्गणाके उपशमादि भेद । मिथ्यात्वादिका सम्यक्त्व मार्गणामें ग्रहण क्यों। -दे. मार्गणा ७॥ तीनों सम्यक्त्वोंमें कथंचित् एकत्व । तीनों में कथंचित् अधिगमन व निसर्गजपना। -दे, सम्य/III/९/१। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ३४७ सूचीपत्र गतियों व गुणस्थानों आदिमें तीनोंके स्वामित्व व शंकाएँ। -दे. वह वह नाम। तीनोंके स्वामित्वमें मार्गणास्थान व गुणस्थान आदि रूप २० प्ररूपणाएँ। -दे. सद। तीनों सम्बन्धी सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। -दे, वह वह नाम । तीनोंके स्वामियोंको कोका बन्ध, उदय, सत्त्व । -दे..बह वह नाम । तीनों सम्यक्त्वोंमें यथासंभव मरण संबंधी। -दे. मरण/३। तीनों सम्यक्त्वोंमें यथासंभव जन्म संबंधी। -दे. जन्म/३। तीनों सम्यक्त्वोंके पश्चात् भव धारणकी सीमा । -दे. सम्य./I/४ | उपशम व वेदककी पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा। -दे. सम्य./I/१/७। प्रथमोपशम सम्यक्त्व निर्देश उपशम सामान्यका लक्षण। उपशम सम्यक्त्वकी अत्यन्त निर्मलता। -दे. सम्यग्दर्शन/IV/२/१॥ उपशम सम्यक्त्वका स्वामित्व। उपशम सम्यक्त्वके भेद व प्रथमोपशमका लक्षण । प्रथमोपशमका प्रतिष्ठापक। १. गति व जीव समासों की अपेक्षा। २. गुणस्थानोंकी अपेक्षा। ३. उपयोग योग व विशुद्धि आदिकी अपेक्षा । ४. कर्मों के स्थितिबन्ध व सत्त्वकी अपेक्षा। प्रथमोपशमका निष्ठापका -दे. सम्यग्दर्शन/IV/२/४/३। ५ | जन्मके पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति योग्य सर्व लघु काल । अनादि व सादि मिथ्यादृष्टिमें सम्यक्त्वप्राप्ति सम्बन्धी कुछ विशेषता। प्रथमोपशमसे च्युति सम्बन्धी नियम । | गिरकर किस गुणस्थानमें जावे। * | प्रथमोपशमसे सासादनकी प्राप्ति सम्बन्धी। -दे, सासादन । प्रथमोपशममें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका कथंचित् विधि-निषेध। -दे. उपशम/२ । पंच लब्धिपूर्वक होता है। दर्शनमोहकी उपशम विधि। -दे, उपशम/२। गति व गुणस्थानोंका स्वामित्व, सत् , संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मोके बन्ध आदि, मरण व जन्म तथा संसार स्थिति व पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा सम्बन्धी नियम । -दे. सम्यग्दर्शन/IV|१| * प्रथमोपशमका मनःपर्यय आदिके साथ विरोध । -दे. परिहार विशुद्धि। | प्रारम्भ करनेके पश्चात् अवश्य प्राप्त करता है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व निर्देश द्वितीयोपशमका लक्षण। द्वितीयोपशमका स्वामित्व । * द्वितीयोपशम आरोहण क्रम। -दे. उपशम/३ । द्वितीयोपशमका अवरोहण क्रम । द्वितीयोपशमसे सासादनकी प्राप्ति संबंधी। -दे. सासादन । श्रेणीसे नीचे आकर भी कुछ देर द्वितीयोपशमके साथ ही रहता है। गति व गुणस्थानोंका स्वामित्व, सत् , संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मोके बन्ध आदि, भरण व जन्म, संसारस्थिति व पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा सम्बन्धी नियम । -दे. सम्यग्दर्शन/IV/RI वेदक सम्यक्त्व निर्देश बेदक सम्यक्त्व सामान्यका लक्षण । १. क्षयोपशमको अपेक्षा। २. वेदककी अपेक्षा। x दोनों लक्षणोंका समन्वय । -दे.क्षयोपशम/२। कृतकृत्यवेदकका लक्षण। वेदक सम्यक्त्वके बाह्य चिह्न । वेदक सम्यक्त्वको मलिनताका निर्देश । वेदक सम्यक्त्वका स्वामित्व । १. गति व पर्याप्तिकी अपेक्षा । २. गुणस्थानोंकी अपेक्षा। ३. उपशम सम्यग्दृष्टि व सादि मिथ्या दृष्टिकी अपेक्षा। अनादि मिथ्यादृष्टिको सीधा प्राप्त नहीं होता। वेदक सम्यक्त्व आरोहण विधि। -दे.क्षयोपशम/३। सम्यक्त्वसे च्युत होनेवाले बहुत कम हैं। च्युत होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तसे पहले सम्यक्त्व पुनः प्राप्त नहीं होता। ऊपरके गुणस्थानों में इसका अभाव क्यों ? कृतकृत्यवेदक सम्बन्धी कुछ नियम | गतियों व गुणस्थानोंमें इसका स्वामित्व, सत् , संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मोके बन्ध आदि, मरण व जन्म, तथा संसारस्थिति व पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा सम्बन्धी नियम । -दे. सम्यग्दर्शन/IV/RI * सायिक सम्यक्त्व निर्देश क्षायिक सम्यग्दर्शनका लक्षण । *क्षायिक सम्यक्त्वकी निर्मलता। -दे. सम्यग्दर्शन/IV/AN जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ३४८ सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश क्षायिक सम्यक्त्वका स्वामित्व । १. गति व पर्याप्तिकी अपेक्षा। २. प्रस्थापक व निष्ठापककी अपेक्षा। ३. गुणस्थानोंकी अपेक्षा। ३ / तीर्थकर आदिके सद्भाव युक्त क्षेत्र व कालमें ही । सम्भव है। * तीर्थकर सत्कमिकको इसकी प्रतिष्ठापनाके लिए केवलीके पादमूल दरकार नहीं। -दे. तीर्थंकर/३/१३ । इसकी प्रतिष्ठापना अढ़ाई द्वीपसे बाहर संभव नहीं। | तथा तद्गत शंकाएँ। -दे. तियंच/२/११ । वेदक सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है। - दर्शनमोह क्षपण विधि। -दे.क्षय/२। | क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत होते हैं पर अत्यंत अल्प। | तीनों वेदोंमें क्षायिक सम्यक्त्वका कथंचित् विधिनिषेध । -दे. वेद/६ ॥ एकेन्द्रिय या निगोदसे आकर सीधे क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्बन्धी। -दे. जन्म/५ । गतियों व गुणस्थानों में इसका स्वामित्व, सत् , संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मोंके बन्ध आदि, मरण व जन्म व संसार स्थिति सम्बन्धी नियम। -दे. सम्यग्दर्शन/IV/ २. आज्ञा आदि १० भेदोंके लक्षण रा. बा./३/३६/२/२०१/१३ तत्र भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीताज्ञामात्रनिमित्तश्रद्धाना आज्ञारुचयः । निःसंगमोक्षमार्ग श्रवणमात्रजनितरुचयो मार्गरुचयः । तीर्थ करबलदेवादिशुभचरितोपदेशहेतुकश्रद्धाना उपदेशरुचयः। प्रवज्यामर्यादाप्ररूपणाचारसूत्रश्रवणमात्रसमुद्भूतसम्यग्दर्शनाः सूत्ररुचयः। बीजपदग्रहणपूर्व कसूक्ष्मार्थतत्त्वार्थश्रद्धाना वीजरुचयः। जीवादिपदार्थसमासंबोधनसमुद्भूतश्रद्धानाः संक्षेपरुचयः । अङ्गपूर्वविषयजीवाद्यर्थ विस्तारप्रमाणनयादिनिरूपणो पलन्धश्रद्धाना विस्ताररुचयः । वचनविस्तारविरहितार्थग्रहणजनितप्रसादा अर्थरुचयः । आचारादिद्वादशाङ्गाभिनिविष्टश्रद्धाना अवगाढरुचयः। परमावधिकेवलज्ञानदर्शनप्रकाशितजीवाद्यर्थविषयात्मप्रसादाः परमावगाढरुचयः। -भगवत अहंत सर्वज्ञकी आज्ञामात्रको मानकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए जीव आज्ञारुचि हैं। अपरिग्रही मोक्षमार्गके श्रवणमात्रसे सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए जीव मार्गरुचि है। तीर्थकर बलदेव आदि शुभचारित्रके उपदेशको सुनकर सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाले उपदेशरुचि हैं। दीक्षा आदिकके निरूपक आचारांगादिसूत्रोंके सुननेमात्रसे जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है, वे सूत्ररुचि है। बीजपदोंके ग्रहणपूर्वक सूक्ष्मार्थ तत्त्वार्य श्रद्धानको प्राप्त करनेवाले बीजरुचि हैं। जीवादि पदार्थों के संक्षेप कथनसे ही सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले संक्षेपरुचि है। अंगपूर्व के विषय, प्रमाण नय आदिके विस्तार कथनसे जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे विस्ताररुचि हैं। वचन विस्तारके बिना केवल अर्थ ग्रहणसे जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे अर्थरुचि हैं। आचारांग द्वादशांगमें जिनका श्रद्धान अतिदृढ़ है वे अवगाढरुचि हैं। परमावधि या केवलज्ञान दर्शनसे प्रकाशित जीवादि पदार्थविषयक प्रकाशसे जिनकी आत्मा विशुद्ध है वे परमावगाढरुचि हैं। आ. अनु./१२.१४ आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचित वीतरागाज्ञयैव, व्यक्तग्रन्थप्रपञ्च शिवममृतपर्थ श्रद्दधन्मोहशान्तेः। मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता, या संज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ॥१२॥ आकाचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रदधानः, सूक्तासौ सूत्रदृष्टि१रधिजमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः। कैश्चिज्जातोपलग्धेरसमशमवशाबीजदृष्टिः पदार्थाच, संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान साधु संक्षेपदृष्टिः ।१३॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृतरुचिरथ त विद्धि विस्तारदृष्टि, संजातात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा, कैवल्यालोकिताथै रुचिरिह परमावादिगादेति रूढा ।१४। -दर्शनमोहके उपशान्त होनेसे ग्रन्थश्रवणके मिना केवल वीतराग भगवान्की आज्ञासे ही जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है वह आज्ञासम्यक्त्व है। दर्शनमोहका उपशम होनेसे ग्रन्थ श्रवणके बिना जो कल्याणकारी मोक्षमार्गका श्रद्धान होता है उसे मार्ग सम्यग्दर्शन कहते हैं । तिरसठ शलाकापुरुषों के पुराण ( वृत्तान्त ) के उपदेशसे जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है उसे उपदेश सम्यग्दर्शन कहा है ।१२। मुनिके चारित्रानुष्ठानको सूचित करनेवाले आचारसुत्रको सुनकर जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे सूत्रसम्यग्दर्शन कहा गया है। जिन जीवादिपदार्थोके समूहका अथवा गणितादि विषयों का ज्ञान दुलभ है उनका किन्हीं बीजपदोंके द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेवाले भव्यजीवके जो दर्शनमोहनीयके असाधारण उपशमवश तत्त्वश्रद्धान होता है उसे बीजसम्यग्दर्शन कहते हैं। जो भव्यजीव पदार्थों के स्वरूपको संक्षेपसे ही जान करके तत्त्वश्रद्धानको प्राप्त हुआ है उसके उस सम्यग्दर्शनको संक्षेप सम्यग्दर्शन कहा जाता है।१३। जो भव्यजीव १२ अंगोंको सुनकर तत्वश्रद्धानी हो जाता है उसे विस्तार सम्यग्दर्शनसे युक्त जानो। अंग बाह्य आगमोंके पढ़नेके बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्तसे जो अर्थश्रद्धान होता है वह अर्थसम्यग्दर्शन कहलाता है। अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुतका अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढ़सम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञानके द्वारा देखे गये पदार्थों के विषय 1 सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश १. सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश १. सम्यग्दर्शनके भेद स. सि./१/७/२८/४ विधानं सामान्यादेकं सम्यग्दर्शनम् । द्वितय निसर्गजाधिगमजभेदात् । त्रितयं औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभेदात् । एवं संख्येया विकरूपतः शब्दतः । असंख्येया अनन्ताश्चभवन्ति श्रद्धातृश्रद्धातव्यभेदात् (अध्यवसायभेदात-रा. बा.)। -भेदको अपेक्षा सम्यग्दर्शन सामान्यसे एक है। निसर्गज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका है (त. सू.//३)। औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिकके भेदसे तीन प्रकारका है। (और भी दे. सम्यग्दर्शन/IV/१)। शब्दोंकी अपेक्षा संख्यात प्रकारका है, तथा श्रद्धान करनेवालेकी अपेक्षा असंख्यात प्रकारका है, और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों व अध्यवसायोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकारका है। (रा. वा./१/७/१४/४०/२८ ): (द. पा./टो./१२/१२/१२) । रा, वा./३/२६/२/२०१/१२ दर्शनार्या दशधा-आज्ञामार्गोपदेशसूत्रबीजसंक्षेपविस्ताराविगाळपरमाबगाढरुचिभेदात् । -आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, मीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अबगान और परमावगाढ रुचिके भेदसे दर्शनार्य दश प्रकार हैं। (आ. अनु./११); (अन. घ./२/६२/१८५) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ३४९ I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश में रुचि होती है वह यहाँ परमावगाढ सम्यग्दर्शन इस नाम से २. कथंचित् सत्तामात्राबलोकन भी इष्ट है प्रसिद्ध है ।१४। (द. पा./टी./१२/१२/२०)। रा, वा./२/७/६/११०/६ मिथ्यादर्शने अदर्शनस्यावरोधो भवति। निद्रा३. आज्ञा सम्यग्दर्शनकी विशेषताएँ निद्रादीमामपि दर्शनसामान्यावरणत्वात्तत्रैवान्तर्भावः। ननु च तत्त्वार्थाश्रद्धानं मिथ्यादर्शनमित्युक्तम्: सत्यमुक्तमः सामान्यनिर्देश गो. जी./जी, प्र./२७/५६/१२ यः अहंदाद्य पदिष्ट प्रवचनं आप्तागम विशेषान्तर्भावात, सोऽप्येको विशेषः । अयमपरो विशेषः-अदर्शनपदार्थ त्रयं श्रद्धाति रोचते. तेषु असदभाव अतत्त्वमपि स्वस्य विशेष मप्रतिपत्तिमिथ्यादर्शनमिति। -मिथ्यादर्शनमें दर्शनावरणके उदयज्ञानशून्यरवेन केवलगुरुनियोगात् अर्हदाद्याज्ञातः श्रद्धाति सोऽपि से होनेवाले अदर्शनका अन्तर्भाव हो जाता है । और दर्शनसामान्यको सम्यग्दृष्टिरेव भवति तदाज्ञाया अनतिक्रमात । जो व्यक्ति अहंत आवरण करनेवाले होनेके कारण (दे. दर्शन/४/६), निद्रानिद्रा आदिका आदिके उपदिष्ट प्रवचनकी या आप्त आगम व पदार्थ इन तीनोंकी भी यहाँ ही अन्तर्भाव होता है। प्रश्न-तत्त्वार्थ के अश्रद्धानको श्रद्धा करता है और विशेष ज्ञान शून्य होने के कारण केवल गुरु मिथ्यादर्शन कहा गया है ! उत्तर-वह ठीक ही कहा गया है, क्योंकि, नियोगसे या अहंतकी आज्ञासे अतत्त्वोंका भी श्रद्धान कर लेता है वह सामान्य निर्देशमें विशेषका अन्तर्भाव हो जाता है। तथा दूसरी बात भी सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि, उसने उनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं यह है कि अदर्शन नाम अप्रतिपत्तिका है और वही मिथ्यादर्शन है। किया है। (विशेष दे. श्रद्धान/३) । अर्थात् स्वपर स्वरूपका यथार्थ अबलोकन न होना ही मिथ्याअन. ध./२/६३/१८६ देवोऽहंन्नेव तस्यैव वचस्तथ्यं शिवप्रदः । धर्मस्तदुक्त दर्शन है। एवेति निबन्ध साधयेद् दृशम् ।६३। एक अर्हत ही देव है और दे. दर्शन/९/३ अन्तरंग चित्प्रकाशका नाम अथवा जाननेके प्रति आत्मउसका वचन ही सत्य है । उसका कहा गया धर्म ही मोक्षप्रद है। इस प्रयत्नका नाम दर्शनोपयोग है। अथवा स्वरूप संवेदनका नाम प्रकारका अभिनिवेश ही आज्ञासम्यक्त्वको सिद्ध करता है।६।। दर्शनोपयोग है। ध, १/१,१,१४४/गा. २१२/३६५ छप्पंचणव विहाणं अत्याणं जिणवरोब- दे. मोक्षमार्ग/३/६ दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीनों ही दर्शन व ज्ञानरूप इट्ठाणं । आणाए अहिगमेण व सहहणं होइ सम्मत्तं ।२१२-जिनेन्द्र- सामान्य व विशेष परिणति है। देवके द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नव पदार्थोंकी दे. आगे इसी शीर्षकका समन्वय-[ लौकिक जीवोंको दर्शनोपयोगसे आज्ञा अथवा अधिगमसे श्रद्धान करनेको सम्यक्त्व कहते हैं ।२१२१ बहिर्विषयों का सत्तावलोकन होता है और सम्यग्दृष्टियोंको उसी (ध.४/१,५.१/गा.६/३१६) दर्शनोपयोगसे आत्माका सत्तावलोकन होता है । दर्शन, श्रद्धा, रुचि ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।] ४. सम्यग्दर्शनमें 'सम्यक्' शब्दका महत्त्व ३. व्यवहार लक्षणमें दर्शनका अर्थ श्रद्धा इष्ट है स, सि./१/९/२/३१ सम्यगित्यव्युत्पन्नः शब्दो व्युत्पन्नो वा। अञ्चतेः स. सि./१/२/६/३ दृष्टेरालोकार्थत्वात श्रद्धार्थ गतिर्नोपपद्यते। धातूनामक्वौ समचतीति सम्यगिति । अस्यार्थ प्रशंसा। स प्रत्येक परिसमा नेकार्थत्वाददोष।। प्रसिद्धार्थ त्यागः कुत इति चेन्मोक्षमार्गप्रकरणात् । प्यते। सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमिति। भावानां तत्त्वार्थ श्रद्धानं ह्यात्मपरिणामो मोक्षसाधनं युज्यते, भव्यजीवयाथात्म्यप्रतिपत्तिविषयश्रद्धानसंग्रहार्थ दर्शनस्य सम्यग्विशेषणम् । विषयत्वात् । आलोकस्तु चक्षुरादिनिमित्तः सर्वसंसारिजीवसाधारण-'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढिक और व्युत्पन्न अर्थात त्वान्न मोक्षमार्गो युक्तः। =प्रश्न-दर्शन शब्द 'दृशि' धातु से बना है व्याकरण सिद्ध है। जब यह व्याकरणसे सिद्ध किया जाता है तब जिसका अर्थ आलोक है अतः इससे श्रद्धानरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो 'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'अब्च्' धातुसे क्विप् प्रत्यय करनेपर 'सम्यक् सकता ? उत्तर-धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं, अतः 'दृशि' धातुका शब्द बनता है। संस्कृतमें इसकी व्युत्पत्ति 'समञ्चति इति सम्यक् श्रद्धानरूप अर्थ करनेमें कोई दोष नहीं है। प्रश्न-यहाँ ( अर्थात इस प्रकार होती है। प्रकृतमें इसका अर्थ प्रशंसा है। सूत्रमें आये हुए 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग् है'-दे, सम्यग्दर्शन/II/१, इस प्रकरणमें) इस शब्दको दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें से प्रत्येक शन्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र । दृशि धातुका प्रसिद्ध अर्थ क्यों छोड़ दिया ! उत्तर-मोक्षमार्गका प्रकरण होनेसे।-तत्त्वार्थोंका श्रद्धानरूप जो आत्माका परिणाम पदार्थों के यथार्थ ज्ञान मूलके श्रद्धानका संग्रह करनेके लिए दर्शनके पहले सम्यक् विशेषण दिया है। (रा. वा./१/१/३५/१०/६) होता है वह तो मोक्षका साधन बन जाता है, क्योंकि वह भव्योंके ही पाया जाता है, किन्तु आलोक, चक्षु आदिके निमित्त से होता है पं.ध./उ./४१७ सम्यमिथ्याविशेषाभ्यां विना श्रद्धादिमात्रकाः। जो साधारणरूपसे सब संसारी जीवोंके पाया जाता है, अतः उसे सपक्षवद्विपक्षेऽपि वृत्तित्वाइव्यभिचारिणः ।४१७ - सम्यक् और मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं। (रा. वा./१/२/२-४/१६/१०); (श्लो. मिथ्या विशेषणों के बिना केवल श्रद्धा आदिकी, सपक्षके समान विपक्षमें भी वृत्ति रहने के कारण वे व्यभिचार दोषसे युक्त हैं। वा./२/१/२/२/४) नि. सा/ता. वृ./३ दर्शनमपि...जीवास्तिकायसमुजनितपरमश्रद्धानमेव भवति । ५. सम्यग्दर्शनमें दर्शन शब्दका अर्थ नि. सा./ता. वृ./१३ कारणदृष्टि: सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य १. सत्ता मात्र अवलोकन इष्ट नहीं है कारणसमयसारस्वरूपस्य स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव । =१. शुद्ध जीवा रितकायसे उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान वही दर्शन है। २. कारण द्र, सं./टी./४३/१८६/8 नेदमेव तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शन दृष्टि परमपारिणामिकभावरूप जिसका स्वभाव है, ऐसे कारणसमयवक्तव्यम् । कस्मादिति चेत्-तत्र श्रद्धानं विकल्परूपमिदं तु निर्विकल्पं मतः । - इस दर्शनको अर्थात सत्तावलोकनमात्र दर्शनोपयोगको सारस्वरूप आत्माके यथार्थ स्वरूप दानमात्र है। 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' इस सूत्रमें जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप प्र.सा./ता. वृ./८२/१०४/१६ तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा सम्यग्दर्शन कहा गया है, सो न कहना चाहिए। इसका तात्पर्य यह दर्शनशुद्धाः। है कि उपरोक्त श्रद्धान तो विकल्परूप है और यह (दर्शनोपयोग) प्र.सा./ता. व./२४०/३३३/१५ दर्शनशब्देन निजशुद्धात्मश्रद्धानरूपं निर्विकल्प है। (विशेष दे. सम्यग्दर्शन/II )। सम्यग्दर्शनं ग्राह्यम् । = १. तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षणरूप दर्शनसे शुद्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन हुआ दर्शन कहलाता है। २. दर्शन शब्द से निजशुद्धात्म भानरूप सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिए। ४. उपरोक्त दोनों अयका समन्वय पा.पा./मू./१८ सम्म पस्सदि जादि गाणेण दव्यंपजाया । सम्मेण यदि परिहरदि परितो यह आरमा सम्यग्दर्शनसे सत्तामात्र वस्तुको देखता है और सम्यग्ज्ञानले द्रव्य व पर्यायको जानता है । सम्यक्त्वके द्वारा द्रव्य पर्यायस्वरूप वस्तुका श्रद्धान करता हुआ चारित्रजनित दोषों को दूर करता है । दे. मोहनीय/२/१/ में प. /- १. दर्शन रुचि प्रत्यय श्रद्धा और स्पर्शन ये सन एकार्थवाचक नाम है (वे. मिश्र/१/१ में प./१/१६६) - २. या आत्मायें, बागम और पदार्थोंमें रुचि या श्रद्धाको दर्शन कहते हैं. घ. १/९.१.१३३ / २०४/४ अस्मपि न कदाचिदच्या मोपलभ्यत इति चेन तस्य महिरङ्गोपयोगावस्थायामन्तरोपयोगानुभाव - प्रश्न- अपने आपके संवेदनसे रहित आमाकी तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, बहिरंगपदार्थों की उपयोगरूप अवस्था में अन्तरंग पदार्थका उपयोग नहीं पाया जाता है। प. म./टी./२/११/१२०/८ तत्वार्थश्रद्धानरुचिरूपं सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गो भवति नास्ति दोषः पश्यति निर्विकल्परूपेणावलोकयति इत्येवं यदुक्तं तत्सत्तालोकदर्शन कथं मोक्षमार्गो भवति यदि भवति चेतर्हि तरसताव लोकदर्शनव्यानामपि विद्यते तेषामपि मोक्षो भवति स चागमविरोध इति परिहारमाह शेष निर्वित्तायलोकदर्शनं महिषिये विद्यते न चान्यन्तरशुरमविषये ↑ • प. प्र./टी./२/३४/१५४/१२ निजात्मा तस्य दर्शनमयलोकन दर्शनमिति व्याख्यातं भवद्भिरिदं तु सत्तावलोकदर्शनं मिथ्यादृष्टीनामप्यस्ति तेषामपि मोक्षो भवतु परिहारमाह। चतुरचतुरधिकेवलमेदेन चतुर्धा दर्शनम् । अत्र चतुष्टयमध्ये मानसमचक्षुर्दर्शनमात्मग्राहक भवति, तच मिध्यात्वादिसमवृत्युपशमक्षयोपक्षयनित स्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यक्त्वाभावात शुद्धात्मतत्वमेवोपादेयमिति श्रद्धानाभावे सति तेषां मिथ्यादृष्टीनां न भवत्येवेति भावार्थ: । - १. प्रश्न'तत्वार्थ श्रद्धा या तत्त्वार्थरुचिरूप सम्यग्दर्शन (दे. सम्यग्दर्शन /II / १ ) मोक्षमार्ग होता है' ऐसा कहनेमें दोष नहीं; परन्तु 'जो देखता है या निर्विकल्परूपसे अवलोकन करता है' ऐसा सत्तावलोकनरूप दर्शन जो आपने कहा है, वह मोक्षमार्ग कैसे हो सकता है। यदि 'हो तो है. ऐसा मानो तो वह सत्तावलोकनरूप दर्शन तो अमक्योंके भी होता है, उनको भी मोक्ष होना चाहिए और इस प्रकार आगम के साथ विरोध आता है उत्तर उनके निर्विकल्प सत्तावलोकरूप दर्शन बाह्य विषयोंमें ही होता है. अत्यन्त शुद्धात्म तत्त्वके विषय में नहीं । २. प्रश्न- निजात्मा के दर्शन या अवलोकनको आपने दर्शन कहा है, और वह सतावलोकरूप दर्शन मिध्यादृष्टियों के भी होता है। उनको भी मोक्ष होना चाहिए ! उत्तर - चक्षु. अचक्षु, अवधि और केवलके भेद से दर्शन चार प्रकारका है। इन चारोंमें से यहाँ मानस अचक्षु दर्शन आत्मग्राहक होता है । और वह मिथ्याखादि सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय और योपशम जनित तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणवाले सम्यग्दर्शनका अभाव होनेके कारण, 'शुद्धात्मतत्त्व ही उपादेय है' ऐसे श्रद्धानका अभाव है। इसलिए वह मोक्ष उन मिथ्यादृष्टियों के नहीं होता है। दे सम्यग्दर्शन /11 / 2 (सच्चा स्वार्थ गद्वान वास्तव आरमानुभव सापेक्ष ही होता है। ३५० I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश ६. सम्यग्दर्शन के अपर नाम म.पु./१/१२३ श्रद्धारुचिस्पत्याचेति पर्ययाः ॥ १२३॥ बद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय या प्रतीति ये सम्यग्दर्शनके पर्याय हैं । ( पं. ध० /उ. ४१११ ७. सम्यक्त्वकी विराधना व पुनः पुनः प्राप्ति सम्बन्धी नियम दे. सम्यग्दर्शन /1V/२/- [ मनुष्योंनें जन्म होनेके आठ वर्ष पश्चात् देव नारकियोंमें अन्तर्मुहूर्त पश्चात् और चोंको दिवस पृथत्व के पश्चात् प्रथम सम्यक्त्व होना सम्भव है, इससे पहला नहीं ।] ये सम्यग्दर्शन / IV/२/० [ उपशम सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त काल परचाद अवश्य छूट जाता है । ] दे. सम्यग्दर्शन / IV / ४ /७ [ वेदकसम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व से च्युत होते हैं पर अत्यन्त अल्प । ] दे. सम्यग्दर्शन / IV/५/९ [ क्षायिक सम्यग्दर्शन अप्रतिपाती है। ] ये सम्यग्दर्शन /1V/४/८ | एक बार गिरनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालसे पहले सम्यक्त्व पुनः प्राप्त नहीं होता । ] दे. आयु /६/८ [ वर्द्धमान देवायुवालेका सम्यक्त्व विराधित नहीं होता । ] 2 [ तीर्थंकर प्रकृति सत्कमिकका सम्यक् विराधित नहीं होता।] ३. श्या/२/१ [ शुभ वेश्याओं में सम्यक्प विराधित नहीं होता ।] दे. संयम / २ / १० [पशमिक व वेदक सम्यस्व व अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना पन्यके असंख्यातवें भाग बार विराधित हो सकते हैं, इससे आगे वे नियमले मुक्त होते हैं।] दे. श्रेणी/३ उपसमश्रेणी के साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व अधिक से अधिक चार बार विराधित होता है।] सम्यग्दर्शन /1/५/४ [ क्षायिक सम्यग्दृष्टि जपन्यसे भय और उत्कर्ष से ७-८ भवोंमें अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है । ] २. सम्यग्दर्शनके अंग अतिचार आदि १. सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का नाम = मू. अ. / २०१ णिस्सं किद णिक्कंखिद निव्विदगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवग्रहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ । २०११ - निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अनूढदृष्टि, उपग्रहन, स्थितिकरण, वाक्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के अंग या गुण जानने चाहिए | २०११ ( स. सि./६/२४/३३८/६ ); (रा. वा./६/२४/१/५२६/4); (४) (पं. . . / ४०१-४८०) २. आठों अंगों की प्रधानता २. क. श्रा./२१ नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसंततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरम्यूनो निहन्ति विषवेदनां ॥ २१ ॥ = जैसे एक दो अक्षररहित अशुद्ध मन्त्र विषकी वेदनाको नष्ट नहीं करता है, वैसे है अंगरहित सम्यग्दर्शन भी संसारकी स्थिति छेदनेको समर्थ नहीं है। (चा. सा./६/९) क.अ./मू./२२५ सिंका-यहूडि गुणा जह धम्मे तय देव गुरु तच्चे। जाणेहि जिणमयादो सम्मत्तविसोया एदे । २५ - ये निःशंकितादि आठ गुण जैसे धर्मके विषय कहे वैसे ही देव गुरु और तुस्वके विषय भी जैनागमसे जानने चाहिए ये आठों जंग सम्यग्दर्शनको विशुद्ध करते हैं (सु. श्रा./५०)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ३५१ I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश ३. सम्यग्दर्शनके अनेकों गुण ३. सम्यग्दर्शनकी प्रत्यक्षता व परोक्षता ( स. सा./प्रक्षेपक गा./१७७)-संवेओ णिव्वेओ जिंदा गरुहा य उवसमो १. छद्मस्थोंका सम्यक्त्व भी सिद्धोंके समान है भत्ती। वच्छलं अणुकंपा गुण? सम्मत्तजुत्तस्स ।-संवेग, निवेद, निन्दा, गो, उपशम, भक्ति, अनुकंपा, वात्सल्य ये आठ गुण सम्य- दे. देव/I/२/३ ( आचार्य, उपाध्याय व साधु इन तीनोंके रत्नत्रय भी क्व युक्त जीवके होते हैं। (चा. सा./4/२); ( वसु. श्रा./१६); (ध./ सिद्धों के समान हैं। उ./४६५ में उधृत)। दे. सम्यग्दर्शन/IV/१ ( उपशम, क्षायिक व क्षायोपशामिक इन तीनों ज्ञा./419 में उद्धत श्लो, सं. ४ एक प्रशमसंवेगदयास्तिक्या दिलक्षणम् । सम्यक्त्वों में यथार्थ श्रद्धानके प्रति कोई भेद नहीं है)। आत्मनः शुद्धिमात्रं स्यादितरच्च समन्ततः।४।-एक (सराग) पं. का./ता. वृ./१६०/२३१/१२ वीतरागसर्वज्ञप्रणीतजीवादिपदार्थ विषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयं गृहस्थतपोधनयोः समानं चारित्रं...। सम्यक्त्व तो प्रशम संवेग अनुकम्पा व आस्तिक्यसे चिह्नित है और वीतराग सर्वज्ञप्रणीत जीवादि पदार्थों के विषयमें सम्यक् श्रद्धान दूसरा ( वीतराग) समस्त प्रकारसे आरमाकी शुद्धिमात्र है। (पं.ध/ उ/४२४-२५); ( और भी दे. सम्यग्दर्शन/II/४/१)। व ज्ञान ये दोनों गृहस्थ व तपोधन साधुओंके समान ही होते हैं। परन्तु इनके चारित्रमें भेद है। म. पु./२१/१७ संवेगः प्रशमस्थैर्यम् असंमूढत्वमस्मयः । आस्तिक्यमनु मो. मा. प्र,/१/४७५/११ जैसे छद्मस्थके श्रृतज्ञानके अनुसार प्रतीति पाइए कम्पति ज्ञेयाः सम्यक्त्वभावना: 18-संवेग, प्रशम, स्थिरता, है...जैसा सप्ततत्वमिका श्रद्धान छद्मस्थ के भया था, तैसा ही केवली अमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये सात सम्यग्द सिद्ध भगवान के पाइए है । तातै ज्ञानादिकको हीनता अधिकता होते र्शनकी भावनाएँ जाननेके योग्य हैं ।१७। (म. पू/8/१२३)। भी तियं चादिक वा केवली सिद्ध भगवान्कै सम्यक्त्व गुण समान है। का, अ./मू./३१५ उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्टी हवे परमो ।३१५-जो उत्तम गुणोंको २. सम्यग्दर्शनमें कथंचित् स्व-परगम्यता ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है तथा साधर्मी जनोंसे अनुराग करता है वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है। श्लो. वा./२/१/२/श्लो. १२/२६ सरागे वीतरागे च तस्य संभवतोऽजसा। प्रशमादेरभिव्यक्तिः शुद्धिमात्रा च चेतसः ॥१२॥ दे, सम्यग्दृष्टि/२/ (सम्यक्वके साथ ज्ञान, वैराग्य व चारित्र अवश्य श्लो. वा. २/१/२/१२/पृष्ठ/पंक्ति-एतानि प्रत्येक समुदितानि वा म्भावी हैं)। स्वस्मिन् स्वसंविदितानि, परत्र कायवाग्व्यवहार विशेषलिङ्गानुमितानि दे. सम्यग्दर्शन/II/२(आत्मानुभव सम्यग्दर्शनका प्रधान चिह्न है)। सरागसम्यग्दर्शन' ज्ञापयन्ति, तदभावे मिथ्यादृष्टिस्वसंभवित्वात दे. सम्यग्दर्शन/II/१/१ ( देव गुरु शास्त्र धर्म आदिके प्रति भक्ति संभवे वा मिथ्यात्वायोगात । ( ३४/१७) । मिथ्यादृशामपि केषांचितत्त्वोंके प्रति श्रद्धा सम्यग्दर्शनके लक्षण हैं)। क्रोधाद्यनुद्रेकदर्शनात प्रशमोऽनै कान्तिक इति चेन्न. तेषामपि सर्वदे. सम्यग्दृष्टि/५ (सम्यग्दृष्टिमें अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण अवश्य थै कान्तेऽनन्तानुबन्धिनो मानस्योदयात् । स्वात्मनि चानेकान्तात्मनि होता है)। द्वेषोदयस्यावश्यंभावात् पृथिवीकायिकादिषु प्राणिषु हननदर्शनात । ( ३/५)। नन्वेवं यथा सरागेषु तत्त्वार्थश्रद्धानं प्रशमादिभिरनुमीयते ४. सम्यग्दर्शनके अतिचार यथा वीतरागेष्वपि तत्तैः किं नानुमीयते। इति चेन्न, तस्य स्वस्मि नात्मविशुद्धिमात्रत्वात सकलमोहाभावे समारोपानवतारात स्वसंवेदनात. सू./७/२३ शङ्काकासाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग- देव निश्चयोपपत्तेरनुमेयत्वाभावः। परत्र तु प्रशमादीनां तल्लिङ्गाना दृष्टेरतिचाराः १२३ = शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा सतामपि निश्चयोपायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामपि तदुपायाऔर अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दृष्टिके ५ अतिचार हैं। (भ. आ./वि./ नामभावात । (४४/१०)। कथमिदानीमप्रमत्तादिषु सूक्ष्मसाम्पराया१६/६२/१४, तथा ४८७/७०७/१ ) । न्तेषु सद्दर्शनं प्रशमादेरनुमातुं शक्यम् । तन्निर्ण योपायाना कायादिव्य बहारविशेषाणामभावादेव ।...सोऽप्यभिहितानभिज्ञः, सर्वेषु सरागेषु ५- सम्यग्दर्शनके २५ दोष सद्दर्शनं प्रशमादिभिरनुमीयत इत्यनभिधानात् । यथासंभवं सरागेषु वीतरागेषु च सद्दर्शनस्य तदनुमेयत्वमात्मविशुद्धिमात्रत्वं चेत्यभिहिज्ञा./६/८ में उद्धृत-मूढ़त्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ तत्वात् । (४५/३)। १. सराग व वीतराग दोनों में ही सम्यग्दर्शन शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ।-तीन मूढ़ता, आठ मद, सम्भव है। तहाँ सरागमें तो प्रशमादि लक्षणों के द्वारा उसकी छह अनायतन और शंकादि आठ दोष अर्थात् आठ अंगोंसे उलटे अभिव्यक्ति होती है और बीतरागमें वह केवल चित्तविशुद्धि द्वारा आठ दोष ये २५ दोष सम्यग्दर्शनके कहे गये हैं। (द्र.सं./टी,४१/ लक्षित होता है । श्लो १२ । ( अन. ध./२/५१/१७८)। २.. प्रशमादि गुण एक-एक करके या समुदित रूपसे अपनी आत्मामें तो स्वर वेदन गम्य हैं और दूसरोंमें काय व वचन व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक ६. कारणवश सम्यक्त्वमें अतिचार लगनेकी संभावना लिंगों द्वारा अनुमानगम्य हैं । इन प्रशमादि गुणों परसे सम्यग्दर्शन सम्बन्धी जान लिया जाता है। ( ३४/१७)-(पं. ध/उ./३८८); (और भी दे. अनुमान २/५); (चा. पा./पं. जयचन्द/१२/८५); (रा. वा./ स. सि./७/२२/३६४/८ तत्सम्यग्दर्शनं किं सापवाद निरपवादमिति । हि/१/२/२४ ) । ३. सम्यग्दर्शनके अभाव में वे प्रशमादि गुण मिथ्यादृष्टि उच्यते-कस्यचिन्मोहनीयावस्थाविशेषात्कदाचिदिमे भवन्त्य- जीवों में सम्भव नहीं हैं यदि वहाँ इनका होना माना जायेगा तो वहाँ पवादाः-1-प्रश्न-सम्यग्दर्शन सापवाद होता है या निरपवाद ! मिथ्यादृष्टिपना सम्भव न हो सकेगा। (३७/१८) । प्रश्न-किन्हीं. उत्तर-किसी जीवके मोहनीयकी अवस्था विशेषके कारण ये ( अगले किन्हीं मिथ्याष्टियों में भी क्रोधादिका तीव्र उदय नहीं पाया जाता सुत्रमें बताये गये शंका कांक्षा आदि) अपवाद या अतिचार होते हैं। है. इसलिए सम्यग्दर्शनको सिद्धिमे दिया गया उपरोक्त प्रशमादि गुणों दे. सम्यग्दर्शन /IV/४ (सम्यक्प्रकृतिके उदयसे चलमल आदि दोष होते वाला हेतु व्यभिचारी है ! उत्तर नहीं है, क्योंकि, उनके स्वमान्य * इससे सम्यक्त्वमें क्षति नहीं होती)। एकान्त मतोंमें अनन्तानुबन्धीजन्य तीव भाव पाया जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन अपरूप अनेकान्त उन्हें द्वेष होना अपश्यंभावी है। तथा पृथिवीकायिक आदिकोंको हिंसा करना भी उनमें पाया जाता है। (२५/५ ) (जैसे सम्यष्टिमें होते हैं जैसे प्रशमादि गुगनिया दृष्टि में नहीं पाये जाते- द. पा./पं. जयचन्द ) ( द. पा./पं. जयचन्द / २ / पृष्ठ ७ व १५) प्रश्न- ४. जिस प्रकार सराग सम्यग्दृष्टि में उसको अभिव्यक्ति प्रमादि गुणोंद्वारा अनुमानगम्य है, उसी प्रकार वीतराग सम्यग्दृष्टियों में भी उन्होंके द्वारा अनुमानगम्य क्यों नहीं ? उत्तर नहीं, क्योंकि वीतरागोंका तत्वार्थान अपने आत्मविशुद्धिरूप होता है। सकल मोहके अभाव में तहाँ समारोपको अर्थात् संशय आदिको अवकाश न होनेसे, उसका स्वसंवेदनसे ही निश्चय होता है, क्योंकि वह विशुद्धि अनुमानका विषय नहीं है ५. दूसरी बात यह भी है कि वीतराग जनमें सम्यग्दर्शनके ज्ञापक प्रशमादि गुणोंका तथा वचन व काय व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगका सद्भाव होते हुए भी, वे अति सक्ष्म होनेके कारण वे छद्मस्थोंके गोचर नहीं हो पाते, क्योंकि, छद्मस्थोंके पास उनको जानने का कोई साधन नहीं है। इसलिए ये गुण व लिंग वोराग सम्यग्दर्शन के अनुमानके उपाय नहीं हैं। (४४/१०)। प्रश्न-६.स अप्रमत्त सराग गुणस्थानों में सम्यग्दर्शनका अनुमान कैसे किया जा सकता है, क्योंकि उनमें उसके निर्णयके उपाय भूत, काय व वचन व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगोंका अभाव है ? उत्तर - तुम हमारे अभिप्रायको नहीं समझे सर्व ही सराग जीवोंके सम्यग्दर्शनका 1 अनुमान केवल इन गुणों व लिंगोंपरसे ही होता हो, ऐसा नियम नहीं किया गया है। बल्कि यथा सम्भव वीतराग व सराग दोनों में ही सम्यग्दर्शन की अनुमेयता आत्मविशुद्धि होती है, ऐसा हमारा अभिप्राय है अर्थात ४-६ वाले सराग प्रमत्त गुणस्थानों में तो प्रशमादि गुणों से तथा ७-१० तकके सराग अप्रमत्त गुणस्थानों में आत्मविशुद्धिसे उसकी अभिव्यक्ति होती है (४५३) अन ध./२/ ५२/९०१ ) दे. अनुभव आत्मानुभव स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है। मो. मा./प्र./७/३५७/८ द्रव्य लिंगीकै स्थूल तौ अन्यथापना है नाहीं, सूक्ष्म अन्यथापनी है, सो सम्बदृष्टिको भारी है। देप्रा३/९ (सहवास में रहकर दूसरोंके परिणामों का अनुमान किया जा सकता है। ) ३. वास्तव में सम्यग्दर्शन नहीं बल्कि प्रशमादि गुण ही प्रत्यक्ष होते हैं। श्लो. बा./२/१२/२/१२/३/१ ननु प्रशमादयो यदि स्वस्मिन् स्वसंवेद्या ज्ञानमपि न कि स्वसंवेद्य यतस्तेभ्योऽनुमीयते । स्वयं वेद्यस्वाविशेषेऽपि तैस्तदनुमीयते न पुनस्ते तस्मादिति ता न्यत्रापरीक्षकादिति चेत्, नैतत्सारम् दर्शनमोहोपशमादिविशिष्टा स्वरूपस्य तत्त्वार्थज्ञानस्य स्वसंवेद्यत्वा निश्चयात्। स्वसंवेद्य' पुनरास्तिक्यं तदभिप्रामसंवेगात् कथंचित्ततो भिन्नं तत्तस्माद रात एवं फलतद्वसोरमेदाियामास्तिक्यमेव सार्थ श्रद्धानमिति तस्य तद्वत्स्यसिद्धान्तदनुमेयत्वमपि न विरुध्यते प्रश्न यदि प्रशमादि गुण अपनी आत्मा स्वसंवेदनगम्य है वो तस्वार्थरूप ही स्वसंवेदन क्यों न हो जाय । क्यों उसे प्रशमादिके द्वारा अनुमान करनेकी आवश्यकता पड़े। क्योंकि, आत्मा के परिणाम पनेरूपसे दोनोंमें कोई भेद नहीं है । पहिले स्वसंवेदन से प्रशमादिको जानें और फिर उनपर से सम्यग्दर्शन का अनुमान करें, ऐसा व्यर्थका परस्पराश्रय क्यों कराया जाय ! उत्तर - यह कहना सार रहित है, क्योंकि दर्शनमोहके उपशमादि विशिष्ट आत्मस्वरूप तत्त्वार्थश्रज्ञानका स्वसंवेदन से निश्चय नहीं हो सकता। परन्तु प्रशम संवेग आदि गुणोंकी भाँति आस्तिक्य गुण स्वसंवेद्य होता हुआ उसका अभिव्यंजक हो जाता है। श्रद्धानके ३५२ I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश फलरूप होने के कारण ये चारों प्रशमादि गुण उस श्रद्धानसे कथंचित् भिन्न है। फल और फहवाकी अभेद विवक्षा करने पर यह आस्तिक्य गुण ही तत्त्वार्थ श्रद्धान है। इस प्रकार उस आस्तिक्यकी भांति उस तत्वार्थ श्रद्धानकी भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष सिद्धि हो जाती है। । ४. सम्यक्त्व वस्तुतः प्रत्यक्षज्ञान गम्य है। पंथ श्लो. सं सम्यवं वस्तुतः सूक्ष्मं केवल गोर स्वास्वान्तपर्ययज्ञानयोयोः न गोचरं मतिज्ञान-ज्ञानद्वयोर्मनाक् । नापि देशानधेस्तत्र विषयोऽनुपलब्धितः । ३७६ । सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् । तस्मात वक्तुं च श्रोतुं चनाधिकारी विधिक्रमात् ।४००| = सम्यक्त्व वास्तव में सूक्ष्म और केरल ज्ञानके गोचर है तथा अवधि और मन:पर्यय ज्ञानके भी गोचर है । [ क्योंकि अवधि ज्ञान भी जीवके औपशमिक आदि कर्म संयोगी भावको प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है (वे. अवधिज्ञान /- ) ] | ३७५ | परन्तु मति और श्रुत ज्ञान और देशावधि इनके द्वारा उसकी उपलब्धि सम्भव नहीं है । ३७६ । वास्तव में सम्यक्त्व सूक्ष्म है और वचनों के अत्यन्त अगोचर है, इसलिए कोई भी जीव उसके विधि पूर्वक कहने और सुननेका अधिकारी नहीं है |४०० दे. सम्यग्दर्शन / I / ४ [प्रशमादि गुण तथा आत्मानुभूति भी सम्यग्दर्शन नहीं ज्ञानकी पर्यायें हैं। अतः स्वसंवेद्य श्रुतज्ञान द्वारा भी वह प्रत्यक्ष नहीं है । ] ५. सम्यक्त्वको सर्वथा केवलज्ञानगम्य कहना युक्त नहीं है। -- द.पा. पं. जयचन्द /२/पृ. ८-प्रश्नई कहे है जो समयमस्य तो केवलोगम्य है या आपके सम्यक्त्व भयेका निश्चय नहीं होय, ता आपलं सम्यष्टि नहीं माननां उत्तर सी ऐसे सर्वथा एकान्त करि कहना तो मिथ्यादृष्टि है, सर्वथा ऐसें कहे व्यवहारका लोप होय, सर्वमुनि श्रावककी प्रवृत्ति मिथ्यात्वसहित ठहरै । तब सर्व ही मिध्यादृष्टि आपकं मानें, तब व्यवहार काहेका रह्या, ता परीक्षा भये पीछे ( दे. शीर्षक सं. २) यह श्रद्धान नाहीं राखणां जो मैं मिथ्यादृष्टि ही हूँ । ४. सम्यग्दर्शनका ज्ञान व चारित्रके साथ भेद १. श्रद्वान आदि व आत्मानुभूति वस्तुतः सम्यक्त्व नहीं ज्ञानकी पर्याय हैं न पं. ध. / उ / श्लो. सं. श्रद्धानादिगुणा बाह्यं लक्ष्म सम्यग्दृगात्मनः । सम्यदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्ययाः ॥ १८६॥ अपि चात्मानुभूतिश्च ज्ञानं ज्ञानस्य पर्ययात् अर्थात ज्ञानं न सम्यमस्ति बालक्ष " |३०| सत्यार्थाभिमुखी बुद्धिः श्रद्धा साम्यं रुचिस्तथा प्रतीतिस्तु तथेति स्यात्स्वीकारश्चरणं क्रिया । ४१२ | अर्थादाद्यत्रिकं ज्ञानं ज्ञानस्यैवात्र पर्ययाद चरण भावकायचेतोरि शुभकर्म |४१३। सम्यग्ष्टष्टि जीवके श्रद्धान आदि गुण ( लक्षण ) बाह्य लक्षण हैं, इसलिए केवल उन श्रद्धानादिकको ही सम्यक्त्व नहीं कह सकते हैं क्योंकि वे वास्तव में ज्ञान की पर्यायें है । ३८६ तथा आत्मानुभूति भी ज्ञान ही है, क्योंकि वह ज्ञानकी पर्याय है। इसलिए इसको भी ज्ञान हो कहना चाहिए सम्यक्त्व नहीं। यदि इसे सम्यक्त्वका लक्षण भी कहें तो बाह्य लक्षण ही कहें अन्तरंग नहीं | ३८७ ( ला. सं / ३ / ४१-४२ ) तत्वार्थोंके विषय में उन्मुख बुद्धि श्रद्धा कहलाती है तथा उनके विषय में तन्मयता रुचि कहलाती है; और 'यह ऐसे ही है' इस प्रकारका स्वीकार प्रतीति कहलाती है, तथा उसके अनुसार = जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ३५३ I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश आचरण करना चरण कहलाता है ।४१२। इन चारोंमें वास्तबमें आदि वाले श्रद्धादि तीन ज्ञानको ही पर्याय होनेसे ज्ञानरूप है तथा वचन, काय व मन से शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना चरण कहलाता है ।४१३। दे, अनुभव/४ ( आत्मानुभव स्वसंवेदन रूप ज्ञान है ) २. प्रशमादिक ज्ञानरूप नहीं बल्कि सम्यक्त्वके कार्य हैं श्लो.वा./२/१/२/१२/३९-४१ सम्यग्ज्ञानमेव हि सम्यग्दर्शन मिति केचिद्विप्रवदन्ते, तान् प्रतिज्ञानात भेदेन दर्शनं प्रशमादिभिः कार्यविशेषैः प्रकाश्यते । (३६) । ज्ञानकार्यत्वात्तेषां न तत्प्रकाशकत्वमिति चेन्न अज्ञाननिवृत्तिफलत्वात् ज्ञानस्य । साक्षादज्ञाननिवृत्तिानस्य फलं, परम्परया प्रशमादयो हानादिबुद्धिवदिति चेत, तर्हि हानादिबुद्धिवदेव ज्ञानादुत्तरकालं प्रशमादयोऽनुभूयेरन्, न चैवं ज्ञानसमकालं प्रशमाद्यनुभवनात् । (३६।२५) । सम्यग्दर्शनसमसमयमनुभूयमानत्वात् प्रशमादेस्तत्फलत्वमपि माभूत इति चेन्न, तस्य तदभिन्नफलत्वोपगमात्तत्समसमयवृत्तित्वाविरोधात, ततो दर्शनकार्यत्वाद्दर्शनस्य ज्ञापकाः प्रशमादयः।-प्रश्न-सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में सम्यग्दर्शन है ? उत्तर-प्रशम आदिक विशेष कार्योसे दर्शन व ज्ञानमें भेद है। प्रश्न-प्रशमादि क्रिया विशेष तो सम्यग्ज्ञानके कार्य हैं, अतः वे सम्यग्ज्ञानके ही ज्ञापक होंगे ? (३६/६) उत्तर-नहीं, क्योंकि ज्ञानका फल तो अज्ञान निवृत्ति है । प्रश्न-ज्ञानका अव्यवहित फल तो अज्ञान निवृत्ति है, किन्तु उसका परम्परा फल प्रशम आदि है जैसे कि हेय पदार्थ में त्याग बुद्धि होना उसका परम्परा फल है ? उत्तर--- यदि ऐसा है तो उस त्याग बुद्धिके समान ये प्रशमादि भी ज्ञानके उत्तर काल में ही अनुभवमें आने चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ज्ञानके समकाल में ही उनका अनुभव देखा जाता है। ( ३६/२५) प्रश्न-तब तो सम्यग्दर्शनके समकाल में ही अनुभव गोचर होनेके कारण वे सम्यग्दर्शनके भी फल न हो सकेंगे? उत्तर-नहीं, सम्यक्त्वके अभिन्न फलस्वरूप होनेके कारण प्रशमादिकी समकाल वृत्तिमें कोई विरोध नहीं है। इसलिए दर्शनके कार्य होनेसे वे प्रशमादि सम्यग्दर्शन के ज्ञापक हेतु हैं। गया है । ।३६६। उस सम्यग्दर्शनके लक्षण में भी जो आत्माका अनुभव है वह आत्माका विशेष ज्ञान है जो सम्यक्त्वके साथ अन्वय व्यतिरेकसे अविनाभावी है।४०२। इसलिए इन दोनों में व्याप्ति होनेके कारण वचनके अगोचर भी सम्यक्त्व वचन गोचर हो जाता है, इसलिए यदि शुद्धनयात्मिका हो तो वह स्वानुभूति सम्यक्त्व कहलाती है ।४०३। ५. अनुभूति उपयोगरूप होती है और सम्यक्त्व लब्ध रूप पं.ध/उ/श्लोक सं. किंचास्ति विषमव्याप्तिः सम्यक्त्वानुभवद्वयोः । नोपयोगे समव्याप्तिर स्ति लब्धिविधौ तु सा४०४। तथा स्वानुभूती वा तत्काले वा तदात्मनि । अस्त्यवश्यं हि सम्यक्त्वं यस्मात्सा न विनापि तत् ।४०५। यदि वा सति सम्यक्त्वे स स्याद्वा नोपयोगवान् । शुद्धानुभवस्तत्र लब्धिरूपोऽस्ति वस्तुनः ।४०६। हेतुस्तत्रास्ति सधीची सम्यक्त्वेनान्वयादिह। ज्ञानसंचेतनाल धिनित्या स्वावरणव्ययात ।८५२ साधं तेनोपयोगेन न स्याद्व्याप्तिर्द्वयोरपि। विना तेनापि सम्यक्त्वं तदास्ते सति स्याद्यतः ।८७५) आत्मनोऽन्यत्र कुत्रापि स्थिते ज्ञाने परात्मसु । ज्ञानसंचेतनायाः स्यारक्षतिः साधोयसी तदा ।१००। सत्यं चापि क्षतेरम्याः क्षतिः साध्यस्य न क्वचित। इयानात्मोपयोगस्य तस्यास्तत्राप्यहेतुतः ।६०१॥ साध्यं यद्दर्शनाद्धेतोनिर्जरा चाष्टकर्मणाम् । स्वतो हेतुवशाच्छक्तेन तद्ध'तुः स्वचेतना।०२। अनिघ्नन्निह सम्यक्त्वं रागोऽयं बुद्धिपूर्वकः । नूनं हन्तु क्षमो न स्याज्ज्ञानसंचेतनामिमाम् ।।१८सम्यग्दर्शन और स्वानुभव इन दोनोमें विषमव्याप्ति है क्योंकि ( अनुभूति उपयोग रूप है और सम्यक्त्व लब्धरूप) उपयोगरूप स्वानुभूतिके साथ सम्यक्त्वकी समव्याप्ति नहीं है किन्तु लब्धिरूप स्वानुभूतिके साथ ही उसकी समव्याप्ति है ।४०४। वह इस प्रकार कि स्वानुभवके होनेपर अथवा स्वानुभूतिके कालमे भी उस आत्मामें अवश्य ही ज्ञात होता है, क्योंकि उस सम्यग्दर्शनरूप कारणके बिना वह स्वानुभूतिरूप कार्य नहीं होता है।४०५॥ अथवा यों कहिए कि सम्यग्दर्शनके होनेपर वह आत्मा स्वानुभूतिके उपयोगसे सहित हो ही ऐसा कोई नियम नहीं, परन्तु स्वानुभूति यदि होती है तो सम्यक्त्व के रहनेपर ही होती है ।४०६। इसमें भी हेतु यह है कि सम्यक्त्वके अविनाभूत स्वानुभूति मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे समीचीन ज्ञानचेतनाकी लब्धि उसके सदैव पायी जाती है । ८५२१ परन्तु आत्मोपयोगके साथ सम्यक्त्व की व्याप्ति नहीं है, क्योंकि आत्माके उपयोगके न रहते हुए भी वह सम्यक्त्व रहता है और उपयोगके रहते हुए भी।८७५ प्रश्न-शुद्धात्माके सिवा किन्हीं अन्य पदार्थों में जब ज्ञानका उपयोग होता है तब ज्ञान चेतनाकी हानि अवश्य होती है 11६००। उत्तर- ठीक है कि तब ज्ञानचेतनाकी क्षति तो हो जाती है परन्तु उसकी साध्यभूत संवर निर्जराकी हानि नहीं होती है, क्योंकि, वह उपयोगरूप ज्ञानचेतना स्वर निर्जराके हेतु नहीं है ।१०१। स्वात्माको विषय करना हो उसका कार्य है, क्योंकि, सम्यग्दर्शन के निमित्त से आठों कर्मोकी निर्जरा होना जो साध्य है, वह स्वयं सम्यक्त्वकी शक्तिके कारण होता है, अतः ज्ञान चेतना उसमें कारण नहीं है ।१०२। यहाँपर यह बुद्धिपूर्वक औदयिक भावरूप राग सम्यक्त्वका घात नहीं करता है. इसलिए वह इस लब्धरूप ज्ञानचेतनाका घात करनेको समर्थ नहीं है ।११८) ६. सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें अन्तर रा.वा./१/१/६०/१६/४ ज्ञानदर्शनयोर्युगपत्प्रवृत्तेरेकत्वमिति चेत्, न; तत्त्वावायश्रद्धानभेदात तापप्रकाशवत। --प्रश्न-ज्ञान व दर्शनकी युगपत् प्रवृत्ति होने के कारण वे दोनों एक हैं ! उत्तर- नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार युगपत होते हुए भी अग्निका ताप व प्रकार ( अथवा दीपक व उसका प्रकाश-पु. सि. उ.) अपने-अपने लक्षणोंसे भेदको ३. प्रशमादि कथंचित् सम्यग्ज्ञानके भी ज्ञापक हैं श्लो.वा./२/१/२/१२/४१/६ प्रशमादयः सहचरकार्यत्वात्तु ज्ञानस्येत्यनवद्यम् । =सम्यग्ज्ञानरूप साध्य के साथ रहनेवाले सम्यग्दर्शनके कार्य हो जानेसे वे प्रशमादिक सम्यग्ज्ञान के भी ज्ञापक हेतु हो जाते हैं। ४. स्वानुभूत्तिके ज्ञान व सम्यक्त्वरूप होने सम्बन्धी समन्वय पं.ध./ड./श्लो. सं. नन्वात्मानुभव: साक्षात् सभ्यस्त्वं वस्तुतः स्वयम् । सर्वतः सर्वकालेऽस्य मिथ्यादृष्टेरसंभवात् ।३८६। नैवं यतोऽनभिज्ञोऽसि सत्सामान्यविशेषयोः। अप्यनाकारसाकारलिङ्गयोस्तद्यथोच्यते ।३६०1 ततो वक्तुमशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य वस्तुनः । तदुल्लेखं समालेख्य ज्ञानद्वारा निरूप्यते।३६६। तत्राप्यात्मानुभूतिः सा विशिष्टं ज्ञानमात्मनः। सम्यक्त्वेनाविनाभूतमन्वयाव्यतिरेकत: ।४०२॥ ततोऽस्ति योग्यता वक्तुं व्याप्तेः सद्भावतस्तयोः। सम्यक्त्वः स्वानुभूतिः स्यात्सा चेच्छुद्धनयात्मिका ।४०३ = प्रश्न- साक्षात् आत्माका अनुभव वास्तवमें स्वयं सम्यक्त्वस्वरूप है, क्योंकि, किसी भी क्षेत्र या काल में वह मिथ्यादृष्टि को प्राप्त नहीं हो सकता है ११३८ । उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सामान्य और विशेषके लक्षणभूत अनाकार और साकारके विषयमें भी तुम अनभिज्ञ हो ।३६० [ज्ञानके अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प व निराकार हैं (दे. गुण/२/१०) ] और निर्विकल्प वस्तु के कथनको, अनिर्वचनीय होने के कारण, ज्ञानके द्वारा उन सामान्यात्मक गुणोंका उल्लेख करके उनका निरूपण किया भा०४-४५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ३५४ I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश : प्राप्त हैं, उसी प्रकार युगपत् होते हुए भी ये दोनों अपने-अपने लक्षणोंसे भिन्न हैं। सम्यग्ज्ञानका लक्षा तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करना है और सम्यग्दर्शनका लक्षण उनपर श्रद्धान करना है। (पु. सि. उ./३२-३४), (छहढाला/४/१)। दे. सम्यग्दर्शन/1/१/५/३ (निर्विकल्प रूपसे देखना सम्यग्दर्शन है और विशेष रूपसे जानन। सम्यग्ज्ञान है)। द्र. सं. टी./४४/१६३/१ यत्तत्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं वस्तुविचाररूपं सम्यग्ज्ञानं तयो विशेषो न ज्ञायते। कस्मादिति चेत् । सम्यग्दर्शने पदार्थ निश्चयोऽस्ति, तथैव सम्यग्ज्ञाने च, को विशेष इति । अत्र परिहारः । अर्थ ग्रहणपरिच्छित्तिरूपः क्षयोपशमविशेषो ज्ञानं भण्यते, तत्रैव भेदनयेन वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मादितत्त्वेष्विदमेवेत्थमेवेति निश्चयसम्यक्त्वमिति । अविवल्परूपेणाभेदनयेन पुनर्यदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव सम्यक्त्व मिति । कस्मादिति चेव-अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिरदेवे देवबुद्धिधर्मे धर्मबुद्धिरित्यादिविपरीताभिनिवेशरहितस्य ज्ञानस्यैव सम्यग्विशेषणवाच्योऽवस्थाविशेषः सम्यक्त्वं भण्यते यतः कारणात । यदि भेदो नास्ति तहि कथमावरणद्वयमिति चेवतत्रोत्तरम् ।...भेदनयेनावरणभेदः । निश्चयनयेन पुनरभेद विवक्षायां कर्मत्वं प्रत्यावरणद्वयमप्यैकमेव विज्ञातव्यम्। द्र. सं./टी./५२/२१८/१० स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यग्दर्शनं ।...तस्यैव शुद्धारमनो.. मिथ्यात्वरागादिपरभाभ्यः पृथक्परिच्छेदन सम्यग्ज्ञानम् ।-प्रश्न-१."तत्त्वार्थका श्रद्धान करनेरूप सम्यग्दर्शन और पदार्थ का विचार करने स्वरूप सम्यग्ज्ञान है" इन दोनों में भेद नहीं जाना जाता, क्योंकि जो पदार्थ का निश्चय सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञानमें है। इसलिए इन दोनों में क्या भेद है ? उत्तर-पदार्थ के ग्रहण करने में जाननेरूप जो क्षयोपशम विशेष है, वह 'ज्ञान' कहलाता है। और ज्ञान में ही भेदनयसे जो वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव द्वारा कहे हुए शुद्धात्मा आदि तत्त्व हैं उनमें, 'यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है' इस प्रकारका जो निश्चय है, वह सम्यक्त्व है। २. और अभेद नयसे तो जो सम्यग्ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन है। कारण कि अतत्त्व में तत्त्वकी बुद्धि, अदेवमें देवकी बुद्धि और अधर्म में धर्मकी बुद्धि, इत्यादिरूप जो विपरीत अभिनिवेश है, उस विपरीताभिनिवेशसे रहित जो ज्ञान है। उसके 'सम्यक्' विशेषणसे कहे जानेवाली अवस्थाविशेष सम्यक्त्व कहलाता है। प्रश्न-३. जो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें भेद नहीं है, तो उन दोनों गुणोंके घातक ज्ञानावरणीय व मिथ्यात्व ये दो कर्म कैसे कहे गये। उत्तर-भेदनयसे आवरणका भेद है और अभेदकी विवक्षामें कर्मबके प्रति जो दो आवरण हैं, उन दोनोंको एक ही जानना चाहिए । ४. 'शुद्धान्मा ही उपादेय है', ऐसी रुचि होने रूप सम्यग्दर्शन है और उसी शुद्धात्माको रागादि परभावोंसे भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है । ( दे. उन-उनके लक्षण) ७. सम्यक्त्वके साथ चारित्रका कथंचित् भेद व अभेद द.पा./पं.जयचन्द/२२ जो कोऊ कहै सम्यक्त्वभए पीछे तो सर्व परद्रव्य संसारकू हेय जानिये है, ताळू छोड़े मुनि होय चारित्र आचरै तब सम्यक्रव भया जानिये, ताका समाधान रूप यह गाथा है, जो सर्व परद्रव्य हेय जानि निज स्वरूपकू उपादेय जान्यां श्रद्धान किया तब मिथ्या भाव तोन रहा परन्तु चारित्रमोह कर्मका उदय प्रबल होय जातें चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होय तेतै जेती सामर्थ्य होय तेता तौ करै तिस सिवायका श्रद्धान करै । (दे. श्रद्धान/१/३) दे. चारित्र/३/५ [ यद्यपि चारित्र सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सम्यक्त्व होते ही चारित्र प्रगट हो जाय । हाँ, सम्यक्त्व हो जानेके पश्चात् क्रमशः धीरे-धीरे वह यथाकाल प्रगट अवश्य हो जाता है।] ५. मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शनको प्रधानता १. सम्यग्दर्शनकी प्रधानताका निर्देश भ,आ./मू./७३६-७३६ णगरस्स जह दुबारं मुहस्स चवखू तरुस्स जह मूल । तह जाण सुसम्मत्तं णाणचरणवीरियतवाणं ७३६। ईसणभट्टो । भट्टो दंसणभट्टस्स णस्थि णिव्वाणं । सिझं ति चरियभट्टा ईसणभट्टा ण सिझति ७३८। दसण भट्टो भट्टो ण हु भट्टो होइ चरणभट्ठो छ। दंसणममुयत्तस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे ७३६१-१. नगरमे जिस प्रकार द्वार प्रधान है, मुख में जिस प्रकार चक्षु प्रधान है तथा वृक्ष में जिस प्रकार मूल प्रधान है, उसी प्रकार ज्ञान, चारित्र, वीर्य व तप इन चार आराधनाओं में एक सम्यक्त्व ही प्रधान है ।७६६ २. दर्शनभ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है क्योंकि दर्शनभ्रष्टको निर्वाण नहीं होता। चारित्र भ्रष्टको मोक्ष हो जाती है, पर दर्शनभ्रष्टको नहीं होती ।७३८॥ ( द.पा./मू./३) (बा.अ./१६) ३. दर्शनभ्रष्ट ही भ्रष्ट है, चारित्रभ्रष्ट वास्तवमें भ्रष्ट नहीं होता, क्योंकि, जिसका सम्यक्त्व नहीं छूटा है। ऐसा चारित्रभ्रष्ट संसारमें पतन नहीं करता ।७३६। मो.पा./मू./३६ दसणसुद्धो सुद्धो दसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । ईसणविहीण पुरिसो न लहइ त इच्छियं लाहं ।।दर्शन शुद्ध ही वास्तबमें शुद्ध है, क्योंकि दर्शनशुद्ध ही निर्वाणको प्राप्त करते है। दर्शन बिहीन पुरुष इष्टलाभ अर्थात् मोक्षको प्राप्त नहीं करते। (र. सा./३०) मो.पा./मू./८८ किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिझिहहिं जे वि भविया जातंणइ सम्ममाहप्पं १८८६- बहुत कहनेसे __क्या, जो प्रधान पुरुष अतीतकाल में सिद्ध हुए हैं या आगे सिद्ध होंगे वह सब सम्यक्त्वका माहात्म्य जानो । (बा.अ./१०) मो.पा./मू..२१ जहण वि लहदि हु लक्रवं रहिओ कंडस्स बेभय . विहीणो। तह ण वि लक्ख दि लबर्ख अण्णाणी मोवरखमग्गस्स ।२०-: जैसे बाण रहित बेधक धनुषके अभ्याससे रहित होता हुआ निशानेको प्राप्त नहीं करता है, वैसे ही अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोक्षमार्ग के लक्ष्यभूत परमात्म तत्त्वको प्राप्त नहीं करता है। भा.पा./मू./१४४ जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं ।। अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावय विहधम्माणं ।१४४-जिस प्रकार ताराओंमें चन्द्र और पशुओमें सिंह प्रधान है, उसी प्रकार मुनि व श्रावक दोनों प्रकारके धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है ।१४४। र.सा./४७ सम्मविणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण | तो रयणत्त यमज्झे सम्मगुणक्किट्ठमिदि जिणुद्दिट्ट ।४७- सम्यक्रवके बिना नियम से सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र नहीं होते हैं। रत्नत्रयमें एक यह सम्यक्त्व गुण ही प्रशंसनीय है ।४७१ (र. क. पा./३१-३२) स. सि./१/९/७/२ अल्पाक्षरादभ्यहितं पूर्व निपतति । कथमभ्यहितत्व ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् । अल्पाक्षरवाले शब्दसे पूज्य शग्य पहले रखा जाता है, इसलिए सूत्र में पहले ज्ञान शब्दको न रख कर दर्शन शब्दको रखा है। प्रश्न-सम्यग्दर्शन पूज्य क्यों है। उत्तर-क्योंकि सम्यग्दर्शनसे ज्ञान में समीचीनता आती है। (रा. वा./१/१/३१/६/२७). (और भी दे. ज्ञान/III/R) प्र, सा./त. प्र./२३८-२३६ बागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसं यतस्वयोगपद्यऽध्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।२३८। अत आरमज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यमप्य किञ्चित्करमेधा -ओगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और सयतत्वकी युगपत्ता होनेपर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्गका साधकतम सम्मत करना 1२३८।। आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान हेयतत्वकी युगपत्ता भी अकिंचित्कर ही है ।२३६ । हा./4/५४ चरणज्ञानयो/जं यमत्रशमजीवितम् । तपःश्रुतायधिष्ठान सद्भिः सद्दर्शनं मतम् ।१४। सत्पुरुषोंने सम्यग्दर्शनको चारित्र व जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ज्ञानका बीज, यम व प्रशमका जीवन तथा तप व स्वाध्यायका आश्रय माना है । नोट: -- [सम्यग्दर्शन विहीन धर्म, चारित्र, ज्ञान, तप आदि सब निरर्थक व अकिंचित्र हैं । और सम्यक्त्व सहित ही वे सब यथार्थताको प्राप्त होते हैं ।] (दे. धर्म / २ ); (दे. चारित्र / ३ ); ( दे ज्ञान / III / २ तथा IV / १); (दे. तप / ३ ) | २. सम्यग्दर्शन ही सार, सुखनिधान व मोक्षकी प्रथम सीढ़ी है इत्यादि महिमा भ.आ./मू/७३५ मा कासि तं पमादं सम्मते सव्वदुखणासयरे । यह सम्यग्दर्शन सर्व दुखों का नाश करनेवाला है, अतः इसमें प्रमादी मत बनो । चा.पा./मू./२० खजनख च संसारिमेरुमा सम्मतमनुचरता करंति दुक्खस्वयं धीरा [२०] सम्यक्त्वको आचरण करनेवाले धीर पुरुष संख्यात असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करते हैं तथा संसारी जीवोंकी मर्यादा रूप जो सर्व दुख उनका नाश करते हैं । द पा./मू./२१ एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढममोक्खस्स |२१| जिनप्रणीत सम्यग्दर्शनको अन्तरंग भावों से धारण करो, क्योंकि, यह सर्व गुणो में और रत्नत्रय में सार है तथा मोक्षमन्दिरकी प्रथम सीढ़ी है | २१ | २.सा./२४.१२० कामहि कम्पतरु' चितास्य रसायनं य स सो जसोल जाण तह सम्म ५४ सम्म जावद लभदे हि ताव सुही। सम्मदंसणसुद्ध जावण लभते हि ताव दुही । १५८। जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न और रसायनको प्राप्त कर मनोवांछित उत्तम सुखको प्राप्त होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनसे भव्य जीवोंको सर्व प्रकार के सर्वोत्कृष्ट सुख व समस्त प्रकारके भोगोपभोग स्वयमेव प्राप्त होते हैं। ॥५४॥ सम्यग्दर्शनको यह जीन जम प्राप्त हो जाता है तब परम सुखी हो जाता है और जब तक उसे प्राप्त नहीं करता तब तक दुःखी बना रहता है । १५८ र. क. श्र. / ३४, ३६ न सम्यक्त्वसमं किंचित काव्ये त्रिजगत्यपि । योऽवश्य निध्यात्समं नान्यसदृभृताम् ॥३४॥ ओजस्तेजोवधा वीर्यवृद्धि विजय विभवसनायाः महाकुलाम हाथ मानवलिका भवन्ति दर्शनपूताः ॥३६ तीन काल और तीन जग जीवोंका सम्यक्त्वके समान कुछ भी कल्याणकारी नहीं है, मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी नहीं है | ३४ | शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव कान्ति, प्रताप, विद्या वीर्य, यशोवृद्धि, विजय, विभाग, उच्चकुली, धर्म, अर्थ, काम, मोक्षके साधक तथा मनुष्यों में शिरोमणि होते हैं । ३६ । र. क.अ./२० सम्यग्दर्शनसम्पन्नममितदेह देवदुर्भ मढाकार रोज १८ गणधरादि देव सम्यग्दर्शन सहित चाण्डालको भी भस्मसे हकी हुई चिनगारीके समान देग कहते हैं |२८| पं./१/०० जति सुखनिधाम मोक्षवृकमी समजत दर्शन महिना स्पाद मतिरपि कुमतिर्मु दुश्चरित्र चरित्र भवति मनुजजन्म प्राप्तमप्राप्तमेव ॥७७॥ - जिस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान तो मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र हुआ करता है, महा स्थानभूत, मोक्षरूपी वृक्षका अद्वितीय बीजस्वरूप तथा समस्त दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन जयवन्त होता है। उसके बिना प्राप्त हुआ भी मनुष्य जन्म अप्राप्त हुएके समान है । " शा./६/२६ सुखनिधानं सर्वकल्याण मोजे, जननजलधियो भव्यसबै पात्रम् । दुरितरुकुठार पुण्यतीर्थ प्रधानं पिबत जितविपक्ष दर्शना सुधा ५१ तुम सम्यग्दर्शनरूपी अमृतका पान करो, क्योंकि यह अतुल सुखनिधान है, समस्त कल्याणका बीज है, संसारसागर तरनेको जहाज है, भव्यजीव ही इसका पात्र है, - ३५५ I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश पापवृक्षको काटने के लिए कुठार है, पुण्यतीर्थों में प्रधान है तथा विपक्षी जो मिथ्यादर्शन उसको जीतने वाला है 1 ज्ञा./६/५३ दर्शनमहारत्नं विश्वम् मुक्तिप दानदक्षं प्रकीर्तितम् ||३| यह सम्यग्दर्शन महारत्न समस्त लोकका आभूषण है और मोक्ष होने पर्यन्त आत्माको कल्याण देनेमें चतुर 2.11 आ. सा. / २ / ६८ मान्यः सद्दर्शनी ज्ञानी हीनोऽपि अपरसद्गुणैः । व रस्नमनिष्यन्नं शोभं कि नामर्हति ॥ अन्य गुणोंसे हीन भी सम्यग्दृष्टि सर्वमान्य है। क्या बिना शानपर चढ़ा रत्न शोभाको प्राप्त नहीं होता है । का. अ./मू./३२५-३२६ रयणाण महारयणं सव्वं जोयाण उत्तम जोयें । रिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सम्यसिद्धिपर | ३२५ | सम्मत्त गुण पहाणी दि गरिदिओ होदित ओवि स पावदि सम्म उत्तर्म विहं । ३२६] [] सम्यग्दर्शनस रानोंमें महारान है, सम योगो में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में महा ऋद्धि है। अधिक क्या, सम्यक्त्व सब सिद्धियोंका करनेवाला है |३२|| सम्यक्त्वगुणसे जीव देवोके इन्द्रोंसे तथा चक्रवर्ती आदिसे वन्दनीय होता है, और व्रत रहित होता हुआ भी नाना प्रकार के उत्तम स्वर्गसुखको पाता है । १२६ । अ. ग.भा./२/८३ अपारसंसारसमुद्रतारक मशीकृतं येन सुदर्शनं परम् । वशीकृतास्तेन जनेन संपद परेरा विपदानास्पद = - अपार संसारसमुद्र तारनेवाला और जिसमें विपदाओं स्थान नहीं, ऐसा यह सम्यग्दर्शन जिसने अपने वश किया है उस पुरुषने कोई अलभ्य सम्पदा ही वश करी है । सा. घ./१/४ नरयेऽपि पशुधन्ते मिध्यात्वग्रस्त चेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यत्तः चेतसः |४| मिथ्यात्व से ग्रस्त चित्वाला मनुष्य भी पशुके समान है। और सम्यक्त्वसे व्यक्त चित्तबाला पशु भी मनुष्य के समान है। 1 ३. सम्यग्दर्शन की प्रधानतामें हेतु द पा./मू./१५-१६ सम्म गाणं गाणादी सत्यभाव। उपस्थे सेवासे विद्यादि १३४ मासेयदि उ ददुस्सीस सीलवंतो वि सीसफलेभुदयं तत्तो पुणे शहर वि २१६। तो ज्ञान सम्यक होता है ( और भी थे. शीर्षक सं. १ में स. सि./१/१/७/२) । उन दोनोंसे सर्व पदार्थों या तत्त्वोंकी उपलब्धि होती है। पदार्थोंकी उपलब्धि होनेपर श्रेय व अका ज्ञान होता है । १५१ श्रेय व अश्रेयको जानकर वह पुरुष मिथ्यात्वको उड़ाकर तथा सम्य स्वभावयुक्त होकर अभ्युदय व तीर्थंकर आदि होता हुआ पीछे निर्वाण प्राप्त करता है । १६ दे. शीर्षक सं. १. ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रका बीज है ) । सम्यग्दर्शन के पश्चात् भय धारणकी सीमा संसार शेष रहता है इससे भ.आ./मू./गा. लभ्रूण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवईति । सिमसा भवदि संसारवासा ॥५३॥ जो जीव मुहूर्त काल पर्यन्त भी सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके अनन्तर छोड़ देते हैं, वे भी इस संसारमें अनन्तानन्त कालपर्यन्त नहीं रहते अर्थात् उनको अधिक से अधिक अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन कालमात्र ही अधिक नहीं दे. काल / ६ तथा अन्तर / ४ ] क. पी. / सुत्त / ११ / गा. ११३/६४१ खवणाए पट्ठबगो जम्मि भवे नियमदो ती अाधिचदितिणि भये समोहम्म स्वीमम्मि | २०६ - जो मनुष्य जिस भवमें दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थान करता है. यह दर्शनमोहके क्षीण होनेपर तीनभव नियमसे युक्त हो जाता है १२०३ | ( पं. सं. / प्रा. / १, २०३ ) | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन रा. वा./४/२/३/२४४/११ अप्रतिपतितसम्यग्दर्शनानां परीतविषयः सप्ताष्टानि भवग्रहणानि उत्कर्षेण वर्तन्ते, जघन्येन त्रिीणि अनुबन्ध्योच्छिद्यन्ते । प्रतिपतितसम्यक्त्वानां तु भाज्यम् । =-जो सम्यग्दर्शनसे पतित नहीं होते उनको उत्कष्टतः सात या आठ भवोंका ग्रहण होता है और जघन्यसे दो-तीन भवोंका। इतने भवोंके पश्चात् उनके संसारका उच्छेद हो जाता है। जो सम्यक्त्वसे च्युत हो गये हैं उनके लिए कोई नियम नहीं है । ( प. पु./१४/२२४) क्ष. सा./मू./१६५/२१८ दंसणमोहे ख विदे सिज्झदि तत्येव तदियतुरियभवे । णादिक्कति तुरियभवे ण विणस्सति सेससम्मेवा। -दर्शनमोहका क्षय हो जानेपर उस ही भवमे या तीसरे भव में अथवा मनुष्य तिर्यचकी पूर्व में आयु बाँध ली हो तो भोगभूमिकी अपेक्षा चौथे भवमें सिद्धि प्राप्त करते हैं। चौथे भवको उल्लंघन नहीं करते। औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी भाँति यह नाशको प्राप्त नहीं होता ।१६५। (गो. जी./जी. प्र./६४६/१०६७/२ पर उदधृत) वसु, श्रा./२६६ अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण । सत्तट्ठ भवेहि तओ कर ति कम्मक्खयं णियमा ।२६६। --कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्वको पुनः पुनः प्राप्त करके सात-आठ भवों के पश्चात् नियमसे कर्मक्षय करते हैं ।२६। II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन १. निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व लक्षण निर्देश १. सम्यग्दर्शनके दो भेद र. सा./४ सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणियं । तं जाणिज्जइ णिच्छयववहारसरूवदो भेदं ।४। सम्यग्दर्शन समस्त रत्नोंमें सारभूत रत्न है और मोक्षरूपी वृक्षका मूल है, इसके निश्चय व व्यवहार ऐसे दो भेद जानने चाहिए। निर्जरा व मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । ( द. पा./मू./२०); (मू. आ./२०३); (ध.१/१.१,४/१५१/२); (द्र.सं./मू./४१); (वसु. श्रा./१०) पं.का./मू./१०७ सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं [भावाः खलु कालकलित पञ्चास्तिकाय विकल्परूपा नव पदार्थाः। (त.प्र, टीका)] काल सहित पंचास्तिकायके भेदरूप नव पदार्थ वास्तवमें भाव हैं। उन भावों का श्रद्धान सो सम्यक्त्व है। द. पा./मू./१६ छह दब णव पयत्या पंचत्थी सत्त तच्च णिहिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेययो ।१६। = छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सप्त तत्त्व, ये जिनवचनमें कहे गये हैं। इनके स्वरूपका जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है। पं. स./प्रा /१/१५६ छप्पंचणवविहार्ण अस्थाणं जिणवरोवट्ठाण । आणाए अहिगमेण य सदहणं होइ सम्मत्तं । == जिनवरों के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नौ पदार्थोंका आज्ञा या अधिगमसे श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। (ध. १/१,१,४/गा.184/१५); (ध./१,१,१४४/गा. २१२/३६५); (गो. जी./मू./५६१/१००६) ४. पदार्थोका विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान पं.का./ता. वृ./१०७/१६६/२४ मिथ्यात्वोदयजनित विपरीताभिनिवेशरहितं श्रद्धानम् । केषां संबन्धि। पञ्चास्तिकायषड द्रव्यविकल्परूपं जीवाजीवद्रव्यं जीवपुद्गलसंयोगपरिणामोत्पन्नास्त्रवादिपदार्थ सप्तक चेत्युक्तलक्षणानां भावानां जीवादिनवपदार्थानाम् । इदं तु नवपदार्थविषयभूतं व्यवहारसम्यक्त्वम् । : =मिथ्यात्वोदयजनितविपरीत अभिनिवेश रहित, पंचास्तिकाय, षद्रव्य, जीवादि सात पदार्थ अथवा जीवादि नव पदार्थ, इनका जो श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है। (पु. सि. उ./२२); ( स. सा./बृ./१५५:२२०/६) ५, यथावस्थित पदार्थोंका श्रद्धान प. प्र./मू./२/१५ दवइँ जाणइ जह ठियई तह. जगि मण्णइ जो जि। अप्पह केरउ भावडउ अविचलु देसणु सो जि ।१५। -जो द्रव्यों को जैसा उनका स्वरूप है वैसा जाने और उसी तरह इस जगत में श्रद्धान करे, वही आत्माका चलमलिनअवगाढ दोष रहित निश्चल भाव है। वही आत्मभाव सम्यग्दर्शन है। (और भी दे. सम्यग्दर्शन/J/१/४); (दे. तत्त्व/१/१)। ६. तत्वोंमें हेय व उपादेय बुद्धि सू. पा./मू./५ सुत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहु विहं अत्थ । हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठीश-सूत्रमें जिनेन्द्र भगवान ने जीव अजीव आदि बहुत प्रकारके पदार्थ कहे हैं। उनको जो हेय और अहेयरूपसे जानता है ( अर्थात् जीव संवर निर्जरा व मोक्ष अहेय हैं और शेष तीन हेय । इस प्रकार जो जानता है ) वह सम्यग्दृष्टि है । ७. तत्व रुचि मो. पा./मू./३८ तच्चरुई सम्मत्तं । = तत्त्वरुचि सम्यग्दर्शन है। (ध. २. व्यवहार सम्यग्दर्शनके लक्षण १. देव शास्त्र गुरु व धर्मकी श्रद्धा मो. पा./मु./६० हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गथे पवयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।१०। -हिंसादि रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव. निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग व गुरु इनमें श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है ।१०। र. क. श्रा/ श्रद्वान परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग' सम्यग्दशनमस्मयम् ।४। सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु इन तीनोंका आठ अंग सहित, तोन मूढता और आठ मदरहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा जाता है। का. अ/मू./३१७ णिज्जि यदोसं देवं सब जिणाणं दयावरं धम्म । वजियगय च गुरु जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी।३१७१ =जो वीतराग अर्हन्तको देव, दयाको उत्कृष्ट धर्म और निम्रन्थको गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है। २. आप्त आगम व तत्वोंको श्रद्धा नि. सा./मू./५ अत्तागमतचाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं । आप्त आगम और तत्वों की श्रद्धासे सम्यक्त्व होता है। [ इनका सम्यक् श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व है--( इसी गाथाकी ता. वृ. टीका); (घ.१/ १.१४/१५१/४ ); ( वसु श्रा./६) । ३. तत्त्वार्थ या पदार्थों आदिका श्रद्धान त. सू./१/२,३ तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।२। जीवाजीवास्वबन्धसंबरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् ।३। - अपने-अपने स्वभावमें स्थित तत्त्वार्थ के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। जीव-अजीव आस्रव बन्ध संवर ३. निश्चय सम्यग्दर्शनके लक्षण १. उपरोक्त पदार्थोंका शुद्धात्मासे भिन्न दर्शन प्र. सा./त. प्र./२४२ ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण =ज्ञेय और ज्ञाता इन दोनों की यथारूप प्रतीति सम्यग्दर्शन का लक्षण है। स. सा./आ./३१४-३१५ स्वपरयोविभागदर्शनेन दर्शको भवति । - स्व व परके विभाग दर्शन से दर्शक होता है। स. सा./ता. वृ./१५५/२२०/११ अथवा तेषामेव भूतार्थेनाधिगतानां पदार्थानां शुद्धात्मनः सकाशात् भिन्नत्वेन सम्यगवलोकनं निश्चय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ३५७ II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन 'तत्त्वार्थश्रद्धान' के स्थानमें 'अर्थश्रद्धानम्' इतना कहना पर्याप्त है। उत्तर-इससे अर्थ शब्दके धन प्रयोजन अभिधेय आदि जितने भी अर्थ हैं उन सबके ग्रहण का प्रसंग आता है ? प्रश्न-तब 'तत्त्वश्रद्धानम्' केवल इतना ही कहना चाहिए ! उत्तर- इससे केवल भाव मात्रके ग्रणका प्रसंग प्राप्त होता है। कितने ही लोग (वैशेषिक ) तत्त्व पदसे सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मल इत्यादिका ग्रहण करते हैं। केवल 'तत्त्वश्रदानम्' ऐसा कहने पर इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। अथवा तत्व शब्द एकत्ववाची है, इसलिए केवल 'तत्त्व' शब्द का ब्रहण करनेसे 'सब एक है। इस प्रकारके स्वीकारका प्रसंग आता है। 'यह सव दृश्य व अदृश्य जगत पुरुषस्वरूप ही है' ऐसा किन्हींने माना है। इसलिए भी केवल 'तत्त्वश्रद्धान' कहना युक्त नहीं । क्योंकि ऐसा माननेपर प्रत्यक्ष व अनुमान दोनोंसे विरोध आता है। अतः इन सब दोषों के दूर करनेके लिए सूत्रमें 'तत्त्व' और 'अर्थ' इन दोनों पदों का ग्रहण किया है। (रा. वा./१/२/१७-२७/२०-२१); (श्लो. व./२/१/२/३-४/१६/४ )। सम्यक्त्वम् । = अथवा उन भूतार्थ रूपसे जाने गये जीवादि नौ पदार्थों का शुद्वारमासे भिन्न करके सम्यक अवलोकन करना निश्चय सम्यक्त्व है। २. शुद्धात्माकी रुनि स. सा. ता. वृ./३८/७२/६ शुद्धात्मैवोपादेय इति श्रद्धान सम्यक्त्वम् । 'शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा श्रदधान सम्यक्त्व है। (द्र. सं./टी./१४/४२/४ ) स सा./ता /बृ./२/८/१० विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजपरमात्मनि यद् चिरूप सम्यग्दर्शनम् । = विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावरूप निज परमात्मामें रुचिरूप सम्यग्दर्शन है। पं.का./ता././१०७/१७०/४ शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चय सम्यक्त्वस्य... = शुद्ध जीवास्तिकायकी रुचि निश्चयसम्यक्त्व है। दे. मोहनीय/२/१ में ध./६ (आप्त या आत्मामें रुचि या दधा दर्शन है। ३. अतीन्द्रिय सुखकी रुचि प्र. सा./ता. वृ./२/६/१६ रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्यसुखस्वभावः परमात्मेति भेदज्ञान, तथा स एव सर्वप्रकारोपादेय इति रुचिरूपं सम्यत्वम् ।-रागादिसे भिन्न यह जो स्वात्मासे उत्पन्न सुखरूप स्वभाव है वही परमात्मतत्त्व है। वही परमात्म तत्त्व सर्व प्रकार उपादेय है, ऐसी रुचि सम्यक्त्व है। द्र, सं/टो./४१/१७८/२ शुद्धोपयोगलक्षण निश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपरमा हादै करूपसुखामृतरसास्वादनमेवोपादेयमिन्द्रियसुखादिके च हेयमिति रुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधान निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति । = शुद्धोपयोगरूप निश्चय रत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न परम अह्लादरूप सुखामृत रसका आस्वादन ही उपादेय है, इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय हैं, ऐसी रुचि तथा जो वीतराग चारित्रके बिना नहीं होता ऐसा जो वीतराग सम्यक्त्व वह ही निश्चय सम्यक्त्व है। (द्र.सं/टी./२२/६७/१); (द्र. सं./टी./४५/१६४/१०); (प.प्र./२/१७/१३२/७)। ४. वीतराग सुखस्वभाव ही मैं हूँ, ऐसा निश्चय द्र. सं./टो.४०/१६३/१० रागादिविकल्पोपाधिरहितचिच्चमत्कारभावोत्पन्नमधुररसास्वादसुखोऽहमिति निश्चयरूपं सम्यग्दर्शनम् । 'रागादि विकल्प रहित चित चमत्कार भावनासे उत्पन्न मधुर रसके आस्वादरूप सुखका धारक मैं हूँ', इस प्रकार निश्चय रूप सम्यग्दर्शन है। ५. शुद्धात्मा की उपलब्धि आदि स. सा./मू./१४४ सम्मदर्दसणाणं एसो लहदित्ति णवरि ववदेसं । सबणयपक्रवरहिदो भणिदो जो सो समयसारो ।१४४।- जो सर्व नय पक्षोंसे रहित कहा गया है वह समयसार है। इसी समयसारकी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान संज्ञा है।१४४। (और भी दे. मोक्षमार्ग/३)। पं.ध./उ./२१५ न स्यादारमोपलब्धिर्वा सम्यग्दर्शनलक्षणम् । शुद्धा चेदस्ति सम्यक्त्वं न चेच्छुद्धा न सा सुदृक् । -केवल आत्माकी उपलब्धि सम्यग्दर्शनका लक्षण नहीं है । यदि वह शुद्ध है तो उसका लक्षण हो सकती है और यदि अशुद्ध है तो नहीं । १. लक्षण में तत्त्व व अर्थ दोनों शब्द क्यों स. सि./१२/६/७ अर्थ श्रद्धानमिति चेत्सर्वार्थ प्रसङ्गाः । तत्त्वश्रद्धान मिति चेद्भावमात्रप्रसङ्गे 'सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वकमत्वादि तत्त्वम्' इति कैश्चित्कलप्यत इति । तत्त्वमेकत्व मिति वा सर्व क्यग्रहणप्रसङ्गः । 'पुरुष एवेदं सर्वम्' इत्यादि कैश्चित्कलप्यत इति । एवं सति दृष्टेष्टविरोधः। तस्मादम्पभिचारार्थ मुभयोरुपादानम् । = प्रश्न-सूत्र में ५. व्यवहार लक्षणोंका समन्वय ध. १/१,१,४/१५१/२ प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षण सम्यकत्वम्। सत्येव असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाभावःस्यादिति चेत्सत्यमेतत शुद्धनये समाश्रीयमाणे । अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अस्य गमनिकोच्यते, आप्तागमपदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु श्रद्धानमनुरक्तता सम्यग्दर्शन मिति लक्ष्यनिर्देशः। कथं पौरस्त्येन लक्षणेनास्य न विरोधश्चेन्नैष दोषः, शुद्धाशुद्धसमाश्रयणात् । अथवा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वम् अशुद्धतरनग्रसमाश्रयणात् । -- १. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी प्रकटता ही जिसका लक्षण है उसको सम्यक्त्व कहते हैं । ( दे. सराग सम्यग्दर्शनका लक्षण)। प्रश्न-इस प्रकार सम्यक्त्वका लक्षण मान लेनेपर असं यत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानका अभाव हो जायेगा ? उत्तर-यह कहना शुद्धनिश्चयनयके आश्रय करनेपर ही सत्य कहा जा सकता है । २. अथवा, तत्त्वार्थ के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप्त आगम और पदार्थको तत्वार्थ कहते हैं। और इनके विषयमें श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं । यहाँ पर सम्यग्दर्शन लक्ष्य है, तथा आप्त आगम और पदार्थ का श्रद्धान लक्षण है। प्रश्न-पहिले कहे हुए (प्रशमादिकी अभिव्यक्तिरूप) सम्यक्त्व के लक्षणा के साथ इस लक्षण का विरोध क्यों न माना जाय ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है. क्योंकि शुद्ध और अशुद्ध नय की अपेक्षा से ये दोनों लक्षण कहे गये हैं। अर्थात पूर्वोक्त लक्षण शुद्ध नय की अपेक्षा से है और यह तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप लक्षण अशुद्ध नय की अपेक्षा से है । ३.-अथवा तत्त्वरुचि को सम्यक्त्व कहते हैं। यह लक्षण अशुद्धतर नय की अपेक्षा जानना चाहिए। ६. निश्चय लक्षणोंका समन्वय प. प्र./टो./२/१७/१३२/८ अत्राह प्रभाकरभट्टः । निजशुद्भधात्मैवोपादेय इति रुचि रूपं निश्चयसम्यक्त्वं भवतीति बहुधा व्यारव्यात पूर्व भवद्भिः, इदानीं पुनः वीतरागचारित्राविनाभूतं निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापर विरोधः कस्मादिति चेत् निजशुदधात्मैवोपाय इति रुचिरूपम् निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तीर्थकरपरमदेवभरतसगररामपाण्डवादोन विद्यते, न च तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोधः, अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतत्वं कथमिति पूर्वपक्षः। तत्र परिहारमाह। तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपम् निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते परं किंतु चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासं यताबा भण्यन्ते। शुद्धास्मभावनाच्युताः सन्तः भरतादयो...शुभरागयोगात सरागसम्यग्दृष्टयो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन Hi निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन भवन्ति । या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परंपरया साधकत्वादिति । वस्तुवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थः । प्रश्न-'निज शुधारमा ही उपादेय है' ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व होता है, ऐसा पहिले कई वार आपने कहा है, और अब 'वीतराग चारित्रका अविनाभूत निश्चय सम्यक्त्व है' ऐसा कह रहे हैं। दोनों में पूर्वापर विरोध है । वह ऐसे कि 'निज शुधात्मतत्त्व ही उपादेय है ऐसो रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व गृहस्थावस्थामें तीर्थकर परमदेव तथा भरत, सगर, राम, पाण्डव आदिको रहता है परन्तु उनको बीतराग चारित्र नहीं होता, इसलिए परस्पर विरोध है। यदि होता है ऐसा माने तो उनके असंयतपना कैसे हो सकता है ! उत्तर-उनके शुद्धात्माको उपादेयताकी भावनारूप निश्चय सम्यक्त्व रहता है, किन्तु चारित्रमोहके उदयके कारण स्थिरता नहीं है, बतकी प्रतिज्ञा भंग हो जाती है, इस कारण उनको असंयत कहा जाता है। शुधात्मभावनासे च्युत होकर शुभरागके योगसे वे सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं। उनके सम्यक्त्वको जो सम्यक्त्व कहा गया है, उसका कारण यह है कि वह वीतराग चारित्रके अविनाभूत निश्चयसम्यक्त्वका परम्परा साधक है। वस्तुतः तो वह सम्यक्त्व भी सरागसम्यक्त्व नामवाला व्यवहार सम्यक्रव ही है। ७. व्यवहार व निश्चय लक्षणोंका समन्वय मो. मा.प्र./8/पृष्ठ पक्ति प्रश्न-सात तत्त्वोंके श्रद्धानका नियम कहो हो सो बने नाहीं। जातें कहीं परतै भिन्न आपका श्रधान ही कौं सम्यक्त्व क हैं हैं...कहीं एक आत्माके निश्चय ही कौं सम्यक्त्व कहैं हैं।...तात जीव अजीव ही का वा केवल जीव ही का श्रद्धान भए सम्यक्त्व हो है ।५७७/१८० उत्तर-१. परतें भिन्न आपका श्रद्धान हो है सो आसपादिका श्रद्धानकरि रहित हो है कि सहित हो है । जो रहित हो है, तो मोक्षका श्रद्धान बिना किस प्रयोजनके अर्थि ऐसा उपाय करै है। ..तातै आस्वबादिकका श्रद्धान रहित आपापरका श्रद्धान करना सम्भव नाहीं। बहुरि जो आस्रवादिका श्रद्धान सहित हो है. तौ स्वयमेव सातौं तत्त्वनिके श्रद्धानका नियम भया। (४७८/८) । २. बहुरि केवल आत्माका निश्चय है, सो परका पररूप श्रद्धान भए बिना आत्माका श्रद्दधान न होय तातै अजीवका श्रद्धान भए ही जीवका श्रद्धान होय। ..तातें यहाँ भी सातौं तत्त्वनिके ही श्रद्धानका नियम जानना। बहुरि आखवादिकका श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान वा केवल आत्माका श्रधान साँचा होता नाहीं। जात आत्मा द्रब्य है, सो तौ शुद्ध अशुद्ध पर्याय लिये है।...सो शुद्ध अशुद्ध अवस्थाको पहिचान आस्रवादिककी पहिचानतें हो है। ( ४७८/१५) । -प्रश्न-३. जो ऐसे है, तो शास्त्रनिविर्षे...नव तत्त्वकी सन्तति छोड़ि हमारे एक आत्मा ही होहु. ऐसी कह्या । सो कैसे कह्या 1 ( स. सा./आ/१२/क ६) उत्तर-जाको साचा आपापरका श्रद्धान होय, ताको सातौं तत्त्वनिका श्रद्धान होय ही होय, बहुरि जाकै साँचा सात तत्त्वनिका श्रद्धान होय, ताके आपापरका वा आत्माका श्रदधान होय ही होय। ऐसा परस्पर अविनाभाषीपन जानि आपापरका श्रद्धानकौं या आत्मश्रद्धान होनकौं सम्यक्त्व कह्या है । ( ४७६/११) । प्रश्न-४. जो कहीं शास्त्रनिविर्षे अहंत देव निग्रन्थ गुरु हिंसारहित धर्मका श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है, सो कैसै है ( ४८०/२२ ) ? उत्तर-१. अर्हत देवादिकका श्रद्धान होनेते वा कुदेवादिकका श्रद्धान दूर होने करि गृहीत मिथ्यात्वका अभाव हो है, तिस अपेक्षा याकौ सम्यक्त्वो कह्या है। सर्वथा सम्यक्त्वका लक्षण नाहीं। (४८१/२) २. अहं तदेवादिकका श्रद्धान होते तो सम्यक्त्व होय वा न होस, परन्तु अर्हता दिकका श्रद्धान भए बिना तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्त्व कदाचित् न होय। तातै अहं तादिकके श्रद्धानकौं अन्वयरूपकारण पनि कारणविर्षे कार्यका उपचारकरि इस श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है। याहीत याका नाम व्यवहार सम्यक्त्व है । ३. अथवा जाकै तत्त्वार्थश्रद्धान होय, ताकै साँचा अर्हन्तादिकवे स्वरूपका श्रद्धान होप ही होय । (४८१/१०) ...जाकै साँचा अर्हतादिकके स्वरूपका श्रद्धान होय ताकै तत्त्वार्थ श्रदान होय ही होय । जाते अर्हन्तादिकका स्वरूप पहिचाने जीव अजीव आस्तव आदिककी पहिचानि हो है। ऐसे इनिको परस्पर अविनाभावी जानि, कहीं अर्हन्तादिकके श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है। ( ४८१/१५ ) । प्रश्न-५. जो केई जोव अई तादिकका श्रद्धान करें हैं तिनिके गुण पहचान हैं अर उनकै तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्रवन हो है । (४८२/१७ ) 1 उत्तर--जाते जोव अजीवकी जाति पहिचाने विना अरहन्तादिकके आत्माश्रित गुणनिकौं वा शरीराश्रित गुणनिको भिन्न-भिन्न न जानें । जो जानें तो अपने आत्माकौं परद्रव्यतै भिन्न कैसैं न मान ! (४८३/२) प्रश्न--६. अन्य-अन्य प्रकार लक्षण करनेका प्रयोजन कह्या (४८३/२१) ! उत्तर-साँची दृष्टिकरि एक लक्षण ग्रहण किये चारयों लक्षणका ग्रहण हो है। तथापि मुख्य प्रयोजन जुदा-जुदा विचारि अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं। १. जहाँ तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण कहा है, तहाँ तो यह प्रयोजन है, जो इनि तत्त्वनिकौं पहिचान, तौं यथार्थ वस्तुके स्वरूप वा अपने हित अहितका श्रदान करौं तब मोक्षमार्गविर्षे प्रवर्त। (४८४/१)। २. आपापरका भिन्न श्रद्धान भए परद्रव्यविषै रागादि न करनेका श्रद्धान हो है । ऐसें तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन आपापरका भिन्न श्रद्धानते सिद्ध होता जानि इस लक्षणकौं कहा है। (४८४/१०)। ३. बहुरि जहाँ आत्मश्रद्धान लक्षण कह्या है तहाँ आपापरका भिन्न श्रद्धानका प्रयोजन इतना ही है-आपको आप जानना। आपको आप जानें परका भी विकल्प कार्यकारी नाहीं। ऐसा मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानि आत्मश्रद्धानको मुख्य लक्षण कह्या है । (४८४/१३) ४. बहुरि जहाँ देवगुरुधर्मका श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ माह्य साधन की प्रधानता करी है। जाते अर्हन्तादिकका श्रद्धान साँचा तत्त्वार्थश्रद्धानकौं कारण है ।...ऐसे जुदे-जुदे प्रयोजनकी मुख्यता करि जुदे-जुदे लक्षण कहे हैं । (४८४/१७) । २. निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शनकी कथंचित् मुख्यता गौणता १. स्वभाव भान बिना सम्यक्त्व नहीं न.च.वृ./१८२ जे णयदि द्विविहीणा ताण ण वत्थूसहावउवलद्धी। वत्थुसहावविहूणा सम्माइट्ठी कहं हुंति ।१८।जो नयदृष्टिविहीन हैं उनके वस्तुस्वभावकी उपलब्धि नहीं होती है। और वस्तुस्वभावसे विहीन सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं। मो.मा.प्र./७/३२६/१२ वस्तुके भावका नाम तत्त्व कह्या। सो भाव भासे बिना तत्वार्थ श्रदान कैसें होय ! २. आत्मानुभवीको ही आठो अंग होते हैं का.अ./मू./४२४ जो ण कुणदि परतत्ति पुणु पुणु भावेदि सुद्रमप्पाणं । इंदियमणिरवेक्खो णिसंकाई गुणा तस्स । जो पुरुष परायी निन्दा नहीं करता और बारम्बार शुद्धात्माको भाता है, तथा इन्द्रिय सुखकी इच्छा नहीं करता, उसके निशंकित आदि गुण होते हैं। ३. आठों अंगोंमें निश्चय अंग ही प्रधान हैं। पं.घ./उ/श्लो सं. तद् द्विधाथ वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधान स्वात्मसंबन्धिगुणो यावत्परात्मनि ८०६। पूर्ववत्सोऽपि द्विविधः स्वान्यात्मभेदतः पुनः। तत्राद्यो वरमादेयः समादेयः परोऽभ्यतः ८१४/- वह वात्सल्य अंग भी स्व और परके विषयके भेदसे दो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन प्रकारका है, उनमें से स्वात्मसम्बन्धी प्रधान है तथा परात्मसम्बन्धी गौण है | ८०६) वह प्रभावना अंग भी वात्सल्यकी तरह स्त्र व परके भेदसे दो प्रकारका है । उनमेंसे पहला प्रधान रीतिसे आदेय है तथा दूसरी जो परप्रभावना है वह गौणरूप से उपादेय है।८१४ द.पा.पं./२/७/२४ ते चिह्न कौन सो लिखिए है हाँ मुख्य चिन्ह तो यह है जो उपाधि रहित शुद्ध ज्ञानचेतनास्वरूप आत्माकी अनुभूति है, सो यद्यपि यह अनुभूति ज्ञानका विशेष (दे. सम्यग्दर्शन/ १/२/१) तथापि सम्यक् भये होय है, खाते या बाह्य चिह्न कहिए है ।" ४. श्रद्धान आदि सब आत्मा के परिणाम हैं रा.मा./१/२/१/११/२० स्यादेतत्-वक्ष्यमाणनिर्देशादिसूत्र विवरणात् पुद्गल द्रव्यस्य संप्रत्ययः प्राप्नोतिः तन्नः किं कारणम् । आत्मपरिगामेऽपि तदुपपत्तेः । किं तस्मार्थश्रद्धानम् आत्मपरिणामः । वस्य । आत्मन इत्येवमादि | मोहनीय कर्मको प्रकृतियों में भी सम्यक्त्व नामकी कर्मप्रकृति है और 'निर्देश स्वामित्व आदि सूत्रके विवरण से भी ज्ञात होता है कि यहाँ सम्यक्त्व कर्मप्रकृतिका सम्यग्दर्शनसे ग्रहण है अतः सम्यक्त्वको कर्म पुद्गलरूप मानना चाहिए ? उत्तरयहाँ मोक्षके कारणोंका प्रकरण है, अतः उपादानभूत आत्मपरिणाम हो है (द्र.सं./मू./४१) - दे. भाव/२/२ ओपशमिकादि सम्यग्दर्शन भी सीधे आत्मपरिणाम स्वरूप है कर्मोंकी पर्यायरूप नहीं । ] ५. निश्चय सम्यक्त्वकी महिमा पं.वि./४/२३ तमतिप्रीतिचिसेन येन वापि हि भूता निश्चित स भवेद्भव्य भाविनिर्माणभाजनम् २३-उस आत्मतेजके प्रति मनमे प्रेमको धारण करके जिसने उसकी बात भी सुनी है. वह निश्चयसे भव्य है, व भविष्य में प्राप्त होनेवाली मुक्तिका पात्र है । ३५९ ६. श्रद्धान मात्र समम्यग्दर्शन नहीं है रा.मा./६/२/२६-२०/०२/२१ इच्छा श्रद्धानमित्यपरे |२६| तदयुक्तम् मिथ्यादृष्टेरपि प्रसङ्गात् ॥ २७॥ केवलिनि सम्यक्त्वाभावप्रसंगाच कोई बादी इच्छापूर्वक श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं : २६ उनका यह मत ठीक नहीं हैं, क्योंकि मिध्यादृष्टि (जैन शास्त्रोको पढ़कर) वैसा श्रद्धान तो कर लेते हैं । २७| दूसरी बात यह है कि ऐसा मानने से केवली भगवान्में सम्यक्का अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि, उनमें इच्छाका अभाव है ॥२८॥ श्लो. बा. २/१/२/२/३/३ पश्चालोचने स्थितिः प्रसिधा शिन प्रेक्षणे इति वचनात । तत्र सम्यक् पश्यत्यनेनेत्यादिकरणसाधनत्वादिव्यस्वायां दर्शनाय निरिक्षण सम्यग्दर्शनं न सम्यत एव ततः प्रशस्तालोचनमात्रस्य लब्धेः । न च तदेवेष्टमतित्र्यापित्वादभव्यस्य मिथ्यादृष्टेः प्रशस्तालोचनस्य सम्यग्दर्शनप्रसंगात् । प्रश्न-दृश धातुकी 'सामान्यसे देखना ऐसी व्युत्पत्ति जगत प्रसिध है। महाँ 'सम्यक् देखता है जिसके द्वारा ऐसा करण प्रत्यय करनेपर जो इष्ट लक्षण प्राप्त होता है वह आप स्याद्वादियों के यहाँ प्राप्त नहीं होता है । भले प्रकार देखना ऐसा भाव साधनरूप अर्थ भी नहीं मिलता है ? उत्तर - ऐसा अर्थ हम इष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष होगा। मिथ्यादृष्टि अभव्यके प्रशस्त देखना होनेके कारण सम्यग्दर्शन हो जानेका प्रसंग हो जायेगा । पं. ध. /उ. / ४१४ व्यस्ताश्चैते समस्ता वा सद्दृष्टेर्लक्षणं न वा । सपक्षे वा विपक्षे वा सन्ति यद्वा न सन्ति वा । ४१४ | = श्रधा रुचि प्रतीति और चरण, ये चारों पृथक्-पृथक् अथवा समस्तरूपसे भी सम्यग्दर्शनके वास्तविक लक्षण नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, सपक्ष और विपक्ष दोनों ही अवस्थाओं होते भी हैं और नहीं भी होते हैं। रहस्यपूर्ण II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन चिट्ठी पं. टोडरमल / मो.मा.प्र./५०६/६ जो आपापरका यथार्थ श्रद्धान नाहीं है, अर जनमत विषै कहे जे देव, गुरु, धर्म तिनि ही कूं मानें है, अन्य मत विहे देवादि या तत्वादि तिनको नाही माने है. तो ऐसे केवल व्यवहार सम्यक्त्व करि सम्यक्ली नाम पावै नाहीं । ७. मिध्यादृष्टिकी श्रद्धा आदि यथार्थ नहीं • दे धान /२/५ ( एक भारका ग्रहण किया हुआ पक्ष, मिध्यादृष्टि जीम सम्यक् उपदेश मिलनेपर भी नहीं छोड़ता । उसीकी हठ पकड़े रहता है।] पं. ध. /उ. ४१८ अर्थाच्छ्रधादयः सम्यग्दृष्टिश्रद्धादयो यतः । मिथ्या श्रद्धादयो मिथ्या नार्थाच्छ्रद्धादयो ततः । = - क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवके अनुधादिक वास्तव में अधा आदिक है और मिथ्यादृष्टि श्रद्धा आदिक मिथ्या है, इसलिए मिथ्यादृष्टिके श्रद्धा आदिक वास्तविक नहीं है ४१ · दे. मिध्यादृष्टि / २ / २ व ४/१ [ मिथ्यादृष्टि व्यक्ति यद्यपि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य आदि सभी अंगों का पालन करता है, परन्तु उसके वे सम अंग मिथ्या है, क्योंकि, ये सब भोगके निमित्त हो होते है मोक्षके निमित्त नहीं।] मो.मा. प्र./७/३३०/१६ व्यवहारालम्बीकी तत्त्वश्रद्धा ऐसी होती है, कि ] शास्त्र के अनुसारि जानितौ ले है । परन्तु आपको आप जानि परका अंश भी न मिलावना अर आपका अंश भी पर विषै न मिलावना, ऐसा सांचा श्रद्धान नाहीं करे है। ३. निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व समन्वय १. नव तरयोंका श्रद्धाका अर्थ शुद्धात्मकी अदा ही है रा.सा./न.आ./१३ भीमालीमा पुष्पा च आसवर जिरो मोटो य सम्मतं १३तिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुरात्मख्यातिलक्षणायाः संपयमानस्यादभूतार्थनयसे ज्ञात जीव, अजीब और पुण्य पाप तथा आसव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव तत्त्व सम्यक्त्व हैं | १३ | क्योंकि, नव तत्त्वों में एकत्व प्रकट करनेवाले सार्थयसे एकस्व प्राप्त करके धनय रूप से स्थापित आत्माकी अनुभूति - जिसका लक्षण आत्मख्याति है, वह प्राप्त होती है। (पं.प. / . /९८६) स.सा./आ./१३/८ चिरमिति नवतन्वच्छन्नमुन्नीयमानं', कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकला असततमिति श्यामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्मज्योति तिरुमान [८] इस प्रकार अनेक पर्यायोंमें बहुत समय से छिपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धधनय बाहर निकालकर प्रकट की गयी है, जैसे वर्णोंके समूहमें छिपे हुए एकाकार स्वर्णको बाहर निकालते हैं। इसलिए अब हे भव्यो ! इसे सदा अन्य द्रव्योंसे तथा उनसे होनेवाले (राग आदिक) नैमितिक भावोंसे भिन्न एकरूप देखो। यह ( ज्योति ), पद-पदपर अर्थात प्रत्येक पर्याय में एकरूप चिचमत्कारमात्र उद्योतमान है । स.सा./ता.वृ./१३/३९/१२ पदार्थेन ज्ञाताः सन्तः सम्यer भवन्तीत्युक्तं भवद्भिस्तरीभूतापरिज्ञानमिति पृष्टे प्रत्युतरमाह। द्यनिमपदार्थाः सवनानि प्राथमिकशिष्यापेक्षया भूतार्था भण्यन्ते तथाप्यभेदरत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधिकाले अभूतार्था असत्यार्थी शुद्धधात्मस्वरूपं न भवन्ति । तस्मिन् परमसमाधिकारी नवामध्ये पश्चिमेक एवं शुद्धधारमा प्रोते प्रकाशते प्रतीयते अनुभूत इति प्रश्नन पदार्थ यदि भूतार्थरूपने जाने गये हो तो सम्यग्दन रूप होते है ऐसा आपने कहा है। वह भूतार्थ परिज्ञान कैसा है उत्तर-मपि तीर्थप्रवृत्ति के निमित्त प्राथमिक शिष्यको अपेक्षा मे पदार्थ जाते है. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश = , Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायग्दर्शन TH निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन ४. सराग वीतराग सम्यग्दर्शन निर्देश १.सराग वीतराग रूप भेद व लक्षण (दे. नय/v/८/४ ) तथापि अभेद रत्नत्रयरूप निर्विकल्प समाधिकाल- में वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं, क्योंकि वे शुद्धात्मस्वरूप नहीं है। उस परम समाधिके काल में इन नवपदार्थों में से शुद्धनिश्चयनयसे एक शुधात्मा ही अर्थात नित्य निरंजन चित्स्वभाव ही द्योतित होता है, प्रकाशित होता है, प्रतीतिमें आता है, अनुभव किया जाता है। ( और भी दे. तत्त्व/३/४ ); ( स. सा./ता. वृ/६६/१५४/६) दे, अनुभव/३/३ [ आत्मानुभव सहित ही तत्त्वोंकी श्रद्धा या प्रतीति सम्यग्दर्शनका लक्षण है, बिना आत्मानुभवके नहीं। ] २. व्यवहार सम्यक्त्व निश्चयका साधक है द्र. सं/टी./४१/१७८/४ अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थं व्यारण्यातमिति चेद् व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकभावज्ञापनार्थ मिति । प्रश्न-यहाँ इस व्यवहार सम्यक्त्वके व्याख्यानमें निश्चय सम्यवत्वका वर्णन क्यों किया 1 उत्तर-व्यवहार सम्यक्त्वसे निश्चय सम्यक्त्व सिद्ध किया जाता है, इस साध्य-साधक भावको बतलानेके लिए किया गया है। पं. का./ता. वृ./१०७/१७०/८ इदं तु नवपदार्थ विषयभूत ठपयहारसम्य क्वं । कि विशिष्टम् । शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्रवस्य छद्मस्थावस्थामात्मविषयस्वसंवेदनज्ञानस्य परम्परयां बीजम् । - यह जो नवपदार्थ का विषयभूत व्यवहार सम्यक्त्व है, वह शुद्ध जीवास्तिकायकी रुचिरूप जो निश्चय सम्यक्त्व है उसका तथा छद्मस्थ अवस्थामें आत्मविषयक स्वसंवेदन ज्ञानका परम्परासे बोज है। ससि./९/२/१०/२ तद द्विविध, सरागवीतरागविषयभेदात ।" प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् । सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है-सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदिकी अभिव्यक्ति लक्षणवाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्माकी विशुद्धि मात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है। (रा. वा /१/२/२६-३१/ २२/६); (श्लो, वा, २/९/२/श्लो. १२/२६); (अन. ध./२/५१/१७८); (गो. जी./जी.प्र./५६१/१००६/१५ पर उद्धृत); (और भी दे. आगे शीर्षक नं.२)। रा. बा./१/२/३१/२२/१९ सप्तानां कर्मप्रकृतीनाम् आत्यन्तिकेऽपगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरद् वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते।-(दर्शनमोहनीयको) सातों प्रकृतियोंका आत्यन्तिक क्षय हो जानेपर जो आत्म विशुद्धिमात्र प्रकट होती है वह वीतराग सम्यक्त्व है। भ. आ./वि./११/१७/१८.२१ इह द्विविधं सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्व वीतरागसम्यक्त्वं चेति ।...तत्र प्रशस्तरागसहितानां श्रद्धानं सरागसम्यग्दर्शनम्। रागद्वयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतरागसम्यग्दर्शनम् । -सम्यक्त्व दो प्रकारका है-सरागसम्यमत्व और वीतराग सम्यत्त्व । तहाँ प्रशस्तराग सहित जीवोंका सम्यक्त्व सराग सम्यक्त्व है, और प्रशस्त व अप्रशस्त दोनों प्रकारके रागसे रहित ' क्षीणमोह वीतरागियोंका सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है। अ. ग. श्रा./२/६५-६६ वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा। बिरागं क्षायिकं तत्र सरागमपरद्वयम् ।६। संवेगप्रशमास्तिक्यकारुण्यव्यक्तलक्षणम् । सरागं पटुभियमुपेक्षालक्षणं परम 14-बीतराग और सरागके भेदसे सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है। तहाँ क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है और शेष दो अर्थात औपशमिक व क्षायोपशमिक सराग है 14 प्रशम, सवेग, आस्तिक और अनुकम्पा इन प्रगट लक्षणोंवाला सराग सम्यक्त्व जानना चाहिए । उपेक्षा अर्थात वीतरागता लक्षणवाला वीतराग सम्यक्त्व है।६६ स.सा./ता, वृ./१७/१२/१३ सरागसम्यग्दृष्टिः सन्नशुभकर्मकतृत्व मुञ्चति । निश्चयचारित्राविनाभाविवीतरागसभ्यग्दृष्टिभूत्वा शुभाशुभसर्वकर्मकर्तृत्वं च मुञ्चति । - सरागसम्यग्दृष्टि केवल अशुभ कर्मके कर्तापनेको छोड़ता है ( शुभकर्म के कर्तापनेको नहीं), जब कि निश्चय चारित्रके अविनाभूत वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर वह शुभ और अशुभसर्व प्रकारके कर्मों के कर्तापनेको छोड़ देता है । द्र. सं./टी./४१/१६८/२ त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्वप्रस्तावे। - त्रिगुप्तिरूप अवस्था हो वीरागसम्यक्त्वका लक्षण है। ३. तत्वार्थ श्रद्धानको सम्यक्त्व कहनेका कारण व प्रयोजन यो. सा./अ./१/२-४ जीवाजीवद्वयं त्यक्त्वा नापरं विद्यते यतः । तल्लक्षणं ततो ज्ञेयं स्वस्वभावबुभुत्सया ।२। यो जीवाजीवयोर्वेत्ति स्वरूप परमार्थतः । सोऽजीवपरिहारेण जीवतत्त्वे निलीयते ।३। जीवतत्त्वविलीनस्य रागद्वेषपरिक्षयः । ततः कर्माश्रयच्छेदस्ततो निर्वाणसंगमः।४। -संसारमें जीव व अजीव इन दोनोंके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसलिए अपने स्वरूपज्ञानकी अभिलाषासे इन दोनों के लक्षण जानने चाहिए। जो परमार्थ से इनके स्वरूपको जान जाता है वह अजीवको छोड़कर जीव तत्त्वमें लय हो जाता है। उससे रागद्वेषका क्षय और इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ।२-४। स. सा./ता. बृ./१७६/३५५/८ जीवादिनवपदार्थः श्रद्धानविषयः सम्यबस्वाश्रयत्वानिमित्तत्वाइ व्यवहारेण सम्यक्त्वं भवति। - जीवादि नव पदार्थ श्रद्धानके विषय हैं। वे सम्यक्स्वके आश्रय या निमित्त होनेके कारण व्यवहारसे सम्यक्त्व कहे जाते हैं। ( मो. मा. प्र./६/४८ ६/१६) प.प्र./टी./२/१३/१२०/२ तत्वार्थ श्रद्धानापेक्षया चलमलिनावगाढ़परिहारेण शुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपेण निश्चिनोति । - तत्त्वार्थ श्रद्धानकी अपेक्षा चलमलिन अगाढ इन दोषोंके परिहार द्वारा 'शुद्धात्मा ही उपादेय है ऐसी रुचिरूपसे निश्चय करता है। ४. सम्यक्त्वके अंगोंको सम्यक्त्व कहनेका कारण मो. मा. प्र./८/४०१/१५ निश्चय सम्यक्त्वका तौ व्यवहारविषै उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्त्वके कोई एक अंगविषै सम्पूर्ण व्यवहार सम्यक्त्वका उपचार किया, ऐसे उपचारकरि सम्यक्त्व भया कहिए।' रा. वा./हिं./१/२/२४ यह (प्रशम संवेगादि ) चार चिह्न सम्यग्दर्शनको जनावै हैं, तातै सम्यग्दर्शनके कार्य हैं। तातै कार्य करि कारणका अनुमान हो है। २. व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्वके साथ इन दोनोंकी एकार्थता द्र. सं./टी./४१/१७७/१२ शुद्धजीवादितत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम् ।...वीतरागचारित्राविनाभूत वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति ।-शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थीका श्रद्धानरूप सरागसम्यक्त्व व्यवहार जानना चाहिए और वीतराग चारित्रके बिना नहीं होनेवाला वीतराग सम्यक्त्व नामक निश्चयसम्यक्त्व जानना चाहिए। प.प्र./टी./२/१७/१३२/५ प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्त्वं भण्यते। तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति ।...वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्भधारमानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतम् । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यग्दर्शन II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन तदेव निश्चयसम्यवस्वमिति ।-प्रशय, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदिकी अभिव्यक्ति सराग सम्यक्त्वका लक्षण है (दे, शीर्षक नं.१)। वह ही व्यवहारसम्यक्त्व है। वीतराग सम्यक्त्व निजशुद्धारमानुभूति लक्षणवाला है और वीतराग चारित्रके अविना भावी है। वह ही निश्चय सम्यक्त्व है। पं. का./ता वृ./१५०-१५१/२१७/१५ सप्तप्रकृतीनामुपशमेन क्षयोपशमैन च सरागसम्यग्दृष्टिभूत्वा पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण... सात प्रकृतियों के उपशम या क्षयोपशमसे सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदिरूपसे ( परिणमित होता है। दे. समय-[पंचपरमेष्ठी आदिकी भक्ति रूप परिणत होनेके कारण सराग सम्यग्दृष्टि सूक्ष्म परसमय है ] । ३. सराग व वीतराग सम्यक्त्वका स्वामित्व भ. आ./वि./१६/६२/३ वीतरागसम्यक्त्वं नेह गृहीतम्। मोहप्रलयमन्तरेण वीतरागता नास्ति । -यहाँ वीतराग सम्यक्त्वका ग्रह्ण नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोहका क्षय हुए बिना वीतरागता नहीं होती। (दे. सम्यग्दर्शन/II/४/१)। दे. सम्यग्दर्शन/II/४/१ (क्षायिक सम्यग्दृष्टि वीतराग सम्यग्दृष्टि है और औपशमिक व क्षायोपशमिक सराग सम्यग्दृष्टि हैं ) दे, सम्यग्दर्शन/II/४/२/-पं. का)। दे. सम्यग्दर्शन/II/४/२ ( भक्ति आदि शुभ रागसे परिणत सराग सम्यग्दृष्टि है और वीतरागचारित्रका अविनाभावी वीतराग सम्यग्दृष्टि समस्तदोषायतनभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायरूपायतनानां परिहारेण केवलज्ञानाद्यनन्तगुणायतनभूते स्वशुद्धात्मनि निवास एवानायतनसेवापरिहार इति । - इन उपरोक्त लक्षणवाली तीन मूढ़ताओंको सराग सम्यग्दृष्टि अवस्थामै त्यागना चाहिए, और मन, वचन तथा कायकी गुप्तिरूप अवस्थावाले वीतराग सम्यक्त्वके प्रस्तावमें 'अपना निरंजन तथा निर्दोष परमात्मा ही देव है' ऐसी जो निश्चय बुद्धि है वही देवमूढ़तासे रहितता जानना चाहिए। तथा मिथ्यात्व राग आदि रूप जो मूढ़ भाव है, इनका त्याग करनेसे निजशुद्ध आत्मामें स्थितिका करना वही लोकमूढ़तासे रहितता है। तथा परमसमता भावसे उसी निज शुद्धात्मामें ही जो सम्यक् प्रकारसे अयन यानी गमन अथवा परिणमन है, उसको समयमूढ़ताका त्याग समझना चाहिए। उपरोक्त आठ मदोंका सराग सम्यग्दृष्टियोंको त्याग करना चाहिए। मान कषायसे उत्पन्न जो मद, मात्सर्य (ईया) आदि समस्त विकल्पोंके त्यागपूर्वक जो ममकार अहंकारसे रहित शुद्ध आत्मामें भावनाका करना है वही वीतराग सम्यग्दृष्टियों के आठ मदों का त्याग है। ये उपरोक्त छह अनायतन सराग सम्यग्दृष्टियोंको त्यागने चाहिए । और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव हैं उनके सम्पूर्ण दोषोंके स्थानभूत मिथ्यात्व, विषय तथा कषायरूप आयतनोंके त्यागपूर्षक केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंके स्थानभूत निजशुद्ध आत्मामें जो निवास करना है, वही अनायतनोंको सेवाका त्याग है। ५. दोनोंमें कथंचित् एकत्व श्लो.वा./पु.२/१/२/३-४/१६/२८ तत्त्वविशेषणे त्वर्थे श्रद्धानस्य न किंचिदबद्यदर्शनमोहरहितस्य पुरुषस्वरूपस्य वा 'तत्त्वार्थद्वानम् शब्देनाभिधानात सरागवीतरागसम्यग्दर्शनयोस्तस्य सद्भावादध्याप्तेः स्फुट विध्वंसनात । - तत्त्व विशेषण लगानेसे तत्त्व करके निति अर्थका श्रद्धान करना रूप लक्षण अनवद्य है। क्योंकि, दर्शनमोहनीय कर्म के उदयसे रहित हो रहे आत्माके 'तत्त्वार्थोंका श्रद्धान करना' इस शब्दसे कहा गया यह लक्षण, सराग और वीतराग दोनों ही सम्यग्दर्शनों में घटित हो जाता है। अतः अव्याप्ति दोषका सर्वथा नाश हो जाता है। दे. सम्यग्दर्शन/I/३/२/६ (चौथेसे छठे गुणस्थानतक स्थूल सराग सम्यग्दृष्टि हैं, क्योंकि, उनको पहिचान उनके काय आदि के व्यापारपरसे हो जाती है और सातवें से दसवें गुणस्थानतक सूक्ष्म सराग सम्यग्दृष्टि है, क्यों कि, उसकी पहिचान काय आदिके व्यापारपरसे या प्रशम आदि गुणोंपरसे नहीं होती है। यहाँ अपित्ति से बात जान ली जाती है कि बीतराग सम्यग्दृष्टि ११ वें से १४ वें गुणस्थान तक होते हैं। सकल मोहका अभाव हो जानेसे वे ही वास्तवमें वीतराग हैं या वीतराग चारित्रके धारक हैं)। १. इन दोनों सम्यक्त्वों सम्बन्धी २५ दोषोंके लक्षणोंकी विशेषता द्र. सं./टी./४११६६-१६६ का भावार्थ-[वीतराग सर्वज्ञको देव न मानकर क्षेत्रपाल आदिको देव मानना देवमूढ़ता है। गङ्गादि तीर्थों में स्नान करना पुण्य है, ऐसा मानना लोकमूढ़ता है । वीतराग निर्ग्रन्थ गुरुको न मानकर लौकिक चमत्कार दिखानेवाले कुलिंगियोंको गुरु मानना गुरुमूढ़ता है। विज्ञान ऐश्वर्य आदिका मद करना सो आठ मद हैं । कुदेव, कुगुरु, कुधर्म तथा इसके उपासक ये छह अनायतन हैं । व्यवहार निःशंकितादिक आठ अंगोंसे विपरीत आठ दोष हैं। ये २५ दोष हैं (विशेष दे. वह यह नाम)]। द्र.सं./टी./४१/पृष्ठ/पंक्ति-एवमुक्तलक्षणं मूढत्रयं सरागसम्यग्दृष्टयवस्था परिहरणीयमिति । त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्वप्रस्तावे पुननिजनिरङजननिर्दोषपरमात्मैव देव इति निश्चयबुद्धिर्देवमूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च मिथ्यारबरागादिरूपमूढभावत्यागेन स्व शुद्धात्मन्येवावस्थान लोकमूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च...परमसमरसीभावेन तस्मिन्नेव सम्यग्रूपेणायनं गमनं परिणमन समयमूवरहितत्व मोद्धव्यम् । (२६८/२)...मदाष्टकं सरागसम्यग्दृष्टिभिस्त्याज्यमिति । वीतरागसम्यग्दृष्टीना पुननिकषायादुत्पन्नमदमात्सर्यादिसमस्तविकल्पजालपरिहारेण ममकाराहंकाररहिते शुद्धात्मनि भावनैव मदाष्टत्याग इति । (१६८/8)। चेत्युक्तलक्षणमनायतनषटकं सरागसम्यग्दृष्टीनो त्याज्यं भवतीति। वीतरागसम्यग्दृष्टीना पुनः ६. इन दोनों में तात्त्विक भेद मानना भूल है पं.ध./उ/श्लो.नं, तत्रास्ति वीतरागस्य कस्यचिज्ज्ञानचेतना । सदृष्टेनिर्विकल्पस्य नेतरस्य कदाचन ।८२१ व्यावहारिकसदृष्टेः सविकल्पस्य रागिणः । प्रतीतिमात्रमेवास्ति कुतः स्यात् ज्ञानचेतना ।२६। इति प्रज्ञापराधेन ये बदन्ति दुराशयाः। तेषां यावत् श्रुताभ्यासः कायक्लेशाय केवलम् ।३०। बरौष्ण्यमिवात्मज्ञं पृथक्कतं त्वमहंसि । मा विभ्रमस्वदृष्ट्वापि चक्षुषाऽचक्षुषाशयोः ।३३॥ हेतोः परं प्रसिद्ध पैः स्थूल लक्ष्य रिति स्मृतम् । आप्रमत्तं च सम्यक्त्वं ज्ञानं वा सविकक्पकम् ।।१३। ततस्तूध्वं तु सम्यक्त्वं ज्ञानं वा निर्विकवपकम् । शुक्लध्यानं तदेवास्ति तत्रास्ति ज्ञान वितना1११४ प्रमत्तानी विकल्पत्वान्न स्यात्सा शुद्धचेतना। अस्तीति वासनोन्मेषः केचित्स न सन्निह ।।१५॥ यतः पराश्रितो दोषो गुणो वा नाश्रयेश्परम् । परो वा नाश्रयेद्दोष गुणं चापि पराश्रितम् ।।१६-१, उन दोनों में से एक वीतराग निर्विकल्प सम्यग्दृष्टिके ही ज्ञानचेतना होती है और दूसरे अति सविकल्प व सराग सम्यग्दृष्टिके वह नहीं होती है ।२८॥ किन्तु उस सविकल्प सरागी व्यवहार सम्यग्दृष्टिके केवल प्रतीति मात्र श्रद्धा होती है, इसलिए उसके ज्ञानचेतना के से हो सकती है ।।२६॥ बुद्धिके दोषसे जो दुराशय लोग ऐसा कहते हैं, उनका जितना भी शास्त्राध्ययन है वह सब केवल शरीरक्लेशके लिए ही समझना चाहिए 1८३०। भो आत्मज्ञ ! अग्निकी उष्णताके समान तुम्हें अपने स्वभाव. को पृथक करके देखना योग्य है। (स्त्रसंवेदन द्वारा उस वीतरार भा०४-४६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन तत्रको प्रत्यक्ष देख कर भी सराग रूप अदृष्टकी आशासे भ्रममें मत पढ़ो। ३३२. केवल रागरूप हेतुसे ही प्रजिनल दृष्टिया आचायने सम्ययल और छानको घंटे गुणस्थानक विकल्प और इससे ऊपर के गुणस्थानोंमें निर्विकल्प कहकर उसे शुक्ल ध्यान माना है तथा वहाँ ही शुद्ध ज्ञान चेतना मानते हुए नीचे के छठे गुणस्थान तक विकल्पका सद्भाब होनेसे ज्ञान चेतनाका न होना माना है, ऐसे किन्हीं किन्होंके वासनाका पक्ष होने के कारण वह ठीक नहीं है ६१३-६९११ क्योंकि जैसे अन्य के गुण-दोष अन्यके नहीं कहलाते उसी प्रकार अन्य के गुण दोष अन्यके गुण-दोषका आधय भी नहीं करते । ( अर्थात् चारित्र सम्बन्धी रागका दोष सम्यक्त्वमें लगाना योग्य नहीं ) |१६| ७. सराग सम्यग्दृष्टि भी कथंचित् वीतराग हैं ये मिष्याष्टि/४/१ (सम्पष्टि सदा अपना काल वैराग्य भाव से गमाता है | ) दे. राग. / ६ / ४ ( सम्यग्दृष्टिको ज्ञान व वैराग्यकी शक्ति अवश्य होती है) थे. जिन / ३ मिध्यात्व तथा रागादिको जीत लेने के कारण असंयत सष्ट भी एक देश जिन कहलाता है।) दे संवर/२ (सम्यग्दृष्टि जीनको प्रवृत्तिके साथ निवृत्तिका अंश भी अवश्य रहता है । ] दे. उपयोग /II/३/२ [ तहाँ उसे जितने अंशमें राग वर्तता है उसने अंशमें बन्ध है और जितने अंशमें राग नहीं है उतने अंशमें संवर निर्जरा है ] ३६२ ८. सराग व वीतराग कहनेका कारण प्रयोजन पं. ध. /उ. / ११२ विमृश्यैतत्परं कैश्चिदसद्भूतोपचारतः । रागवज्ज्ञानमत्रास्ति सम्यक्त्वं तद्वदीरितम् ११२ - ( ७-१० गुणस्थानतक अबुद्धिपूर्वकका सूक्ष्म राग होता है, जो इससे ऊपरके गुणस्थानों में नहीं होता-दे राग / ३) केवल यही विचार करके किन्हीं आचार्योंने असत उपचारनयसे जिसप्रकार छठे गुणस्थान तक ज्ञानको राम युक्त कहा है उसी प्रकार सम्यक्त्वको भी रागयुक्त कहा है । ६१२ | (दे. सम्यग्दर्शन / II / १/६ ) दे] सम्यग्दर्शन /11/३/२/विक्वारमक निचली भूमिकाओं में यद्यपि विषय कषाय वचनार्थ नव पदार्थ भूतार्थ हैं पर समाधि काल में एकमात्र शुद्धात्म तत्व ही भूतार्थ है। ऐसा अभिप्राय है । ] ( और भी दे, नय / I / ३ / १०) III सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके निमित्त १. सम्यक्त्वके अन्तरंग व बाह्य निमित्तोंका निर्देश १. निसर्ग व अधिगम आदि नि.सा./मू / ५३ / सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा । - सम्यग्दर्शनका निमित जिन सूत्र है, अथवा जिनसूत्रके जाननेवाले पुरुष हैं। - रा.सू /१/२ निसर्गादधिगम द्वा । यह सम्यग्दर्शन निसर्ग अर्थात परिणाममात्र से और अधिगम से अर्थात् उपवेश निमिरासे उत्पन्न होता है (अन घ. /२/४०/१०९) श्लो. वा. २/१/३ यथा ह्योपशमिकं दर्शन निसर्गादधिगमाच्चोत्पद्यते तथा क्षायोपशमिक क्षायिकं चेति सुप्रतीतम् । - जिस प्रकार औपशमिक सम्यग्दर्शन निसर्ग व अधिगम दोनोंसे होता है, उसी प्रकार क्षायोप शमिक व क्षायिक भी सम्यक्त्व दोनों प्रकारसे होते हुए भले प्रकार प्रतोस हो रहे हैं। XXX की उत्पत्तिनिमित्त न. च.वृ./ २४८ सामण्ण अह विसेसं दव्वे णाणं हवेइ अविरोहो । साहइ तं सम्मत्तं णहु पुण तं तस्स विवरीयं ॥ २४८ ॥ - द्रव्यका अविरुद्ध सामान्य व विशेष ज्ञान सम्यग्दर्शनको सिद्ध करता है क्योंकि वह उससे विपरीत नहीं होता । दे. स्वाध्याय /१/१० ( आगम ज्ञानके बिना स्व व परका ज्ञान नहीं होता तब सम्यक्त्व पूर्वक कर्मोंका क्षय कैसे हो सकता है। दे. लग्ध / ३ ( सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके उपदेशके निमित्त सम्बन्धी ) २. दर्शन मोहके उपशम आदि मि. सा./मू./१३ अंधरहेऊ भविदा दंसणमोहस्स ॥५३॥ - सम्यग्दर्शन के अन्तर गहेतु दर्शनमोहके क्षय उपशम व क्षयोपशम है 1 |= स. सि /१/७/२६/१ अभ्यन्तरं दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा | दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है (रा. वा. / ०/१४/४०/२६) (न. पु. / ६ / ११०) (अन. प./ २/४६/१०१) ३. लब्धि आदि म.प्र./१/१२५वेशनाकालादिवाहाकारणसंपदि अन्तःकरण सामग्री भव्यारमा स्याह विशु ।११६जन देशनावधि और काललब्धि आदि बहिरंगकारण तथा करणलब्धिरूप अन्तरंग कारण रूप सामग्रीकी प्राप्ति होती है, तभी यह भव्य प्राणी विशुद्धध सम्यग्दर्शनका धारक हो सकता है। न. च. वृ./३१५ काऊण करणलधी सम्यग्भावस्य कुणइ जं गहणं । उवसमखयमिस्सादो पयडीणं तं पि णियहेउं । ३१५१ - जिस करणलब्धिको करके सम्यकभावको तथा प्रकृतियों के उपशम क्षय व क्षयोपशमको ग्रहण करता है, वह करण लब्धि भी सम्यक्त्वमें हेतु है । दे. सम्यग्दर्शन / IV/२/१ (पंच सन्धिको प्राप्त करके ही प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है । ) दे, क्षय / २/३ ( क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए भी करण लब्धि निमित्त है । ) पंथ..००तादिसंस प्रत्यासन्मिपाकाद्वा जीवः सम्योग अथवा साद लब्धिकी प्राप्ति होनेपर अथवा संसार सागर के निक्ट होनेपर अथवा भव्यभावका विपाक होनेपर जीव सम्यक्स्त्रको प्राप्त करता है । ३७८ (विशेष दे. नियति / २ / १.३ ) ४. द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप निमित्त . स्लो वा ३/९/२/११/०२/२२ दर्शनमोहस्यापि संपोजिनेन्द्रादि द्रव्यं समवसरणादि क्षेत्र, कालश्चार्ध पुद्गल परिवर्तन विशेषादिर्भावस्वाधात्रवृत्तिकरणादिरिति निश्चीयते तदभावे तदुपशमादिप्रति पत्तेः, अन्यथा तदभावात् । ( विष आदिके नाशकी भाँति ) दर्शनमोहके नाशमें भी द्रव्य क्षेत्र, काल व भाव हेतु होते हैं। तहाँ जिनेन्द्र बिम्ब आदि तो द्रव्य हैं, समवसरण आदि क्षेत्र हैं, अर्ध गलपरिवर्तन विशेष है, प्रवृत्तिकरण आदि भाव हैं। उस मोहनीय कर्मका अभाव होनेपर ही उपशमादिकी प्रतिपत्ति होती है। दूसरे प्रकारोंसे उन उपशम आधिके होनेका अभाव है। घ. ६/११/२९४/५ 'राज्यविशुद्ध' चि पदस्थ पदर अरथो उच्च तं जधा - एत्थ पढमसम्मत्तपडिबज्जं तस्स अधापवत्तकरण- अपुषकरण अभियड़ीकरणभेदेग तिविहाओ विसोहीओ होंतिम सूत्र (दे. सम्यग्दर्शन IV/२/ उपशम सम्या स्वामि सर्व विशुद्ध' इस का अर्थ कहते हैं मह इस प्रकार है- महापर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन HII सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके निमित्त प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होने वाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करणके भेदसे तीन प्रकारकी विशुद्धियाँ होती है। (विशेष दे. करण/३-६) ल. सा/जी. प्र./२/११/११ विशुद्ध इत्यनेन शुभलेश्वरवं संगृहीत उदयप्रस्तावे स्त्यानगृध्यादित्रयोदयाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात जागरत्वमप्युक्तमेव । - गाथामें प्रयुक्त "विशुद्ध' इस शब्दसे यहाँ शुभलेश्याका संग्रह किया गया है। तथा आगे स्त्यानगृधि आदि तीन निद्राओंका अभाव कहेंगे जिससे 'जागृत अवस्थामें होता है' ऐसा भी कह दिया गया समझना चाहिए । ५. जाति स्मरण आदि स, सि./२/३/१५३/६ 'आदि' शब्देन जातिस्मरणादिः परिगृह्यते। स.सि /१/७/२६/२ बाह्य.. केषांचिज्जातिस्मरणं... 1 - 'आदि' शब्दसे जाति स्मरण आदिका अर्थात् जातिस्मरण, जिनमिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, जिनमहिमादर्शन, देवधिदर्शन व वेदना आदिका ग्रहण होता है। ये जातिस्मरण आदि बाह्य निमित्त हैं । (रा. वा./२/३/२/१०५/ ४) (और भी दे. शीर्षक न.४) न. च. बृ./३१६ तित्थयरकेवलिसमणभवसुमरणसत्यदेवमहिमादी। इच्चेवमाइ बहुगा बाहिरहेउ मुणेयव्वा ।३१६। - तीर्थकर, केवली, श्रमण, भवस्मरण, शास्त्र, देवमहिमा आदि बहुत प्रकारके बाह्य हेतु मानने चाहिए। देक्रिया/३ में सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया-(जिन पूजा आदिसे सम्यक्त्वमें वृद्धि होती है।) दे. सम्यग्दर्शन/III/३/१ ( चारों गतियोंमें पृथक-पृथक् जातिस्मरण आदि कारणोंकी यथा योग्य सम्भावना) ६. उपरोक्त निमित्तोंमें अन्तरंग व बाह्य विभाग रा. वा./१/9/१४/१०/२६ बाह्य चोपदेशादि । =सम्यग्दर्शनके बाह्य कारण उपदेश आदि हैं। दे. शीर्षक/नं. १,२ (नि, सा./गा. ५३ के अपरार्धमें दर्शनमोहके उपशमादिको अन्तरंग कारण कहा है। अतः पूर्वार्धमें कहे गये जिन सूत्र व उसके ज्ञायक पुरुष अर्थापत्तिसे ही माह्य निमित्त कहे गये सिद्ध होते हैं।) दे. शीर्षक/२ (दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमादि अन्तरंग कारण हैं।) दे. शीर्षक/३ ( देशना लब्धि व काल लब्धि माझ कारण है तथा करण लब्धि अन्तरंग कारण है।) दे. शीर्षक/४ (भावात्मक होने के कारण करण लब्धि व शुभ लेश्या आदि अन्तरंग कारण हैं)। २. कारणोंकी कथंचित् गौणता दे.सम्यग्दर्शन/III/३/ [ नारकी जीवों में केवल जाति स्मरण सम्यक्त्वका निमित्त नहीं है, बल्कि पूर्वभवकृत अनुष्ठानोंकी विफलताके दर्शन रूप उपयोग सहित जातिस्मरण कारण है ।। इसी प्रकार तहाँ केवल वेदना सामान्य कारण नहीं है, बल्कि 'यह वेदना अमुक मिथ्यात्व व असंयमका फल है' इस प्रकारके उपयोग सहित ही वह कारण है। दे. सम्यग्दर्शन/III/I/E [अवधिज्ञान द्वारा जिनमहिमा आदि देखते हुए भी अपनी वीतरागताके कारण ग्रैवेयक वासी देवोंको विस्मय उत्पन्न कराने में असमर्थ वे उन्हें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें कारण नहीं होते।] दे. सम्यग्दर्शन |III/२/४ [ मात्र देव ऋद्धि दर्शन सम्यक्त्वोत्पत्तिका कारण नहीं है बल्कि 'ये अमुक संयमके फल हैं अथवा बालतप आदिके कारण हम ऋद्धि हीन नीच देव रह गये' इत्यादि उपयोग सहित ही वे कारण हैं। ३. कारणोंका परस्परमें अन्तर्भाव दे. सम्यग्दर्शन/III/१ [नैसर्गिक सम्यकत्वका भी इन्हीं कारणों से उत्पन्न सम्यक्त्वमें अन्तर्भाव हो जाता है। ] दे. सम्यग्दर्शन/III/३/३ [ऋषियों व तीर्थक्षेत्रोंके दर्शनका जिनबिम्ब___ दर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है। ] दे. सम्यग्दर्शन/III/३/६७ [ जिनबिम्बदर्शन व जिन महिमादर्शनका एक दूसरेमें अन्तर्भाव हो जाता है।] दे. सम्यग्दर्शन/III/2/018 (धर्मोपदेश व देवद्धिसे उत्पन्न जातिस्मरणका धर्मोपदेश व देवद्धि में अन्तर्भाव हो जाता है।] ४. कारणोंमें परस्पर अन्तर ध,६/१,९.६,३७/४३३/५ देविद्धिदंसणं जाइसरणम्मि किण्ण पविस दि । ण पविसदि, अप्पणो अणिमादिरिद्धीओ दट ठूण एदाओ रिद्धीओ जिणपण्णत्तधम्माणुढाणादो जादाओ त्ति पढमसम्मत्तपडिबज्जणं जाइस्सरणणिमित्तं । सोहम्मिदादिदेवाणं महिड्ढीओ दट ठूण एदाओ सम्मइंसणसंजुत्तसंजमफलेण जादाओ, अहं पुण सम्मत्तविरहिद दब्बसंजमफलेण वाहणादिणीचदेवेसु उप्पण्णो त्ति णादूण पढमसम्मत्तगहणं देविद्धिदसणणिबधणं । तेण ण दोण्हमेयत्तमिदि। कि च जाहस्सरणमुप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहत्तकालभंतरे चेव होदि । देविद्भिदं सणं पुण कालंतरे चेत्र होदि, तेण ण दोण्हमेयत्तं । एसो अत्थो णेरइयाण जाइस्सरणवेयणाभिभवणाणं पि क्त्तव्यो।-प्रश्न-देवद्धिदर्शनका जातिस्मरणमें समावेश क्यों नहीं होता ? उत्तर-१. नहीं होता, क्योंकि, अपनी अणिमादिक ऋद्धियों को देखकर जब (देवोंको) ये विचार उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ जिनभगवान द्वारा उपदिष्ट धर्मके अनुष्ठानसे उत्पन्न हुई हैं, तब प्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्ति जातिस्मरणनिमित्तक होती है। किन्तु जब सौधर्मेन्द्रादिक देवों की महा ऋद्धियों को देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ सम्यग्दशनसे संयुक्त संयमके फल से प्राप्त हुई हैं, किन्तु मैं सम्यक्त्वसे रहित द्रव्यसंयमके फलसे बाहनादिक नीच देवों में उत्पन्न हुआ हूँ, तब प्रथमसम्यक्त्वका ग्रहण देवऋद्धिदर्शन निमित्तक होता है। इससे ये दोनों कारण एक नहीं हो सकते । २. तथा जातिस्मरण उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर ही होता है । किन्तु देवद्धिदर्शन, उत्पन्न होनेके समयसे अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात ही होता है। इसलिए भी उन दोनों कारणों में एकत्व नहीं है। -३. यही अर्थ नारकियोंके जातिस्मरण और वेदनाभिभवरूप कारणों में विवेकके लिए भी कहना चाहिए। दे. सम्यग्दर्शन/III/३/८/४ [धर्मोपदेशसे हुआ जातिरमरण और देवद्धिको देखकर हुआ जाति स्मरण ये दोनों जातिस्मरण रूपसे एक होते हुए भी भिन्न-भिन्न माने गये हैं।] २. कारणोंमें कथंचित् मुख्यता गौणता व भेदाभेद १. कारणोंकी कथंचित् मुख्यता रा.वा/१/३/१०/२४/६ यदि हि सर्वस्य कालो हेतुरिष्टः स्यात बाह्याभ्यन्तरकारण नियमस्य दृष्टेष्टस्य वा विरोधः स्याद-यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय ( अर्थात् केवल काललब्धिसे मुक्ति होना मान लिया जाये) तो बाह्य और आभ्यन्तर कारण सामग्रीका ही लोप हो जायेगा। ध.६/१/६६३०/४३०१णइसग्गियमवि पढमसम्मत्तं तच्च? उत्तं. तं हि एत्थेत्र दट्ठब, जाइस्सरण-जिण बिंबदसणे हि विणा उप्पज्जमाणणइ. सग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो। -तत्त्वार्थ सूत्रों में नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्वका भो कथन किया गया है. उसका भी पूर्वोक्तकरणोंसे उत्पन्न हुए सम्यक्त्वमें ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योंकि जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शनके बिना उत्पन्न होनेवाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व असम्भव है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ३६४ III सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके निमित्त ३. कारणोंका स्वामित्व व शंकाएँ १. चारों गतियोंमें यथासम्भव कारण (ष. खं/६/१/१,६-/सूत्र नं./४१६-४३६); (ति. प./अधि./गा. नं.); ( स. सि./१/७/२६/२ ); (रा. वा./२/३/२/१०५/३) पं. ख/सूत्र नं. मार्गणा जिनबिंब द. धर्मश्रवण जातिस्मरण वेदना ष. ख./सूत्र नं. मार्गणा जिनमहिमा द. धर्मश्रवण जातिस्मरण देवद्धि द, १. | नरक गतिः १. देवगति ६-६ | १-३ पृथिवी. , ३७-३८ भवनवासी " | " ति. प./२/३५६-३६० ति.प/३/२३६-२४० व्यंतर ति. प/२/३६१ ति.प/६/१०१ ज्योतिषी १०-१२ ४७ पृथि. २. तिथंच गतिः२१-२२ पंचे. संज्ञी. শর্মল, ति.प/७/३१७ सौधर्म-सहस्रार ति. प/५/३०१ ति.प/८/६७७-७८ ३६-४० | आनत आदि चार | " | " | " ति. प/५/३०८ [कर्मभूमिज] ३. मनुष्यगतिः२९-३०मनु. गर्भज. ____ x | ४२ नवग्रेवेयक " | " ति. ५/१/२६१६ X| " ति.प/८/६७६. x (कर्मभूमिज) ४३ । अनुदिश व अनुत्तर ति. प/५/२६५५ (पहिले से ही सम्यग्दृष्टि होते हैं) ति.प/८/६७६. २. जिनबिम्ब दर्शन सम्यक्त्वका कारण कैसे ध.६/१,६-६,२२/४२७/१कथं जिणबिंवदं सणं पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणं । जिणबिंबदसणेग णिवत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसगादो। -प्रश्न-जिनबिम्बदर्शन प्रथमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण किस कारणसे है ! उत्तर-जिनबिम्बके दर्शनसे निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलापका क्षय देखा जाता है । (विशेष-दे. पूजा/२/४) । ३. ऋषियों व तीर्थक्षेत्रोंके दर्शनोंका निर्देश क्यों नहीं ध.६/१,६-६,३०/४३०/६ लद्धिसंपण्ण रिसिदसणं पि पढमसम्मलप्पत्तीए कारणं होदि, तमेस्थ पुध किण्ण भण्णदे। ण, एदस्स वि जिणबिंबदंसणो अंतभावादो। उज्जंत-चंपा-पाषाणयरादिदंसणं पि एदेण घेत्तव्यं । कुदो। तस्थतण जिण बिंबदसण जिणणिबुझगमणक्हणेहि विणा पढमसम्मत्तगहणाभावा। -प्रश्न-लब्धिसम्पन्न ऋषियोंका दर्शन भी तो प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्तिका कारण होता है, अतएव इस कारणको यहाँ पृथक् रूपसे क्यों नहीं कहा ! उत्तर-नहीं कहा, क्योंकि, लब्धिसम्पन्न ऋषियों के दर्शनका भी जिन बिम्ब दर्शनमें ही अन्तर्भान हो जाता है।-ऊर्जयन्त पर्वत तथा चम्पापुर व पावापुर आदिके दर्शनका भी जिनबिम्बदर्शनके भीतर ही ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि, उक्त प्रदेशवर्ती जिनबिम्बों के दर्शन तथा जिनभगवान के निर्वाण गमन के कथनके बिना प्रथम सम्यक्त्वका ग्रहण नहीं हो सकता। ४. नरकमें जातिस्मरण व वेदना सम्बन्धी ध.६/१,६-६, ८/४२२/२ सव्वे गेरइया विभंगणाणेण एक्क-दो-तिण्णि आदिभवग्गणाणि जेण जाणंति तेण सब्वेसिं जाईभरत्तमस्थि त्ति सव्वणेरइएहि सम्मादिट्ठीहि होदवमिदि। ण एस दोसो, भवसामण्णसरणेण सम्मतुप्पत्तीए अणभुवगमादो । किं तु धम्मबुद्धीए पुव. भवम्हि कयाणुट्ठाणाणं विहवलत्तदंसणस्स पढमसम्मत्तप्पत्तीए कारणतमिच्छिज्जदे, तेण ण पुबुत्तदोसो हुक्कदि त्ति । ण च एवं विहा बुद्धी सब्बणेरइयाणं होदि, तिव्व मिच्छत्तीदएण औदृदणेरइयाणं जाणंताणं पि एवं विहउवजोगाभावादो, तम्हा जाइस्सरणं पढमसम्मत्तु - प्पत्तीए कारणं ।...वेयणाणुहवणं सम्मत्तुप्पत्तीए कारणं ण होदि, सपणेरझ्याणं साहारणत्तादो। जइ होइ तो सब्वे णेरड्या सम्माइटिणो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन होंति । ण चेवं, अणुवलंभा । परिहारो वुच्चदे--ण वेयणासामण्णं सम्म सुपक्षीय कारणं किंतु जेसिमेसा देणा एवम्हादो मियादो इमाद अजमादो (बा) उपपत्ति उपजोगो, जादो तेखि चैत्र देणा सम्मतम्पती कारणं, मावरजीवाणं बेयणा, सत्य एवं विजोगाभावा । प्रश्न- १. चूँ कि सभी नारकी जीव विभंगज्ञानके द्वारा एक, दो, या तीन आदि भवग्रहण जानते हैं (दे. नरक ), इसलिए सभी जातिस्मरण होता है। अतएव सारे नारकीय जीव सम्यग्दृष्टि होने चाहिए 1 उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सामान्य रूपसे भवस्मरणके द्वारा सम्यक नहीं होती। किन्तु धर्मबुद्धिसे पूर्वभव किये गये अनुमानोंकी विफलता के दर्शन से ही प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारणत्व इष्ट है, जिससे पूर्वोक्त दोष प्राप्त नहीं होता और इस प्रकारको बुद्धि सब नारकी जीवों होती नहीं है, क्योंकि सीम मिध्यात्वके उदयके वशीभूत नारकी जीवोंके पूर्व भव का स्मरण होते हुए भी उक्त प्रकारके उपयोगका अभाव है । इस प्रकार जातिस्मरण प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण है। प्रश्नवेदनाका अनुभव सम्यक्त्वोत्पत्तिका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि, यह अनुभव तो सब नारकियोंके साधारण होता है । यदि वह अनुभव सम्यक्त्वोत्पत्तिका कारण हो तो सब नारकी जीव सम्पति होंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि जैसा पाया नहीं जाता 1 उत्तर-पूर्वोक्त शंकाका परिहार कहते हैं । वेदना सामान्य सम्यक्त्वोपतिका कारण नहीं है, किन्तु जिन जीनोंके ऐसा उपयोग होता है, कि अमुक वेदना अमुक मिथ्यात्वके कारण या अमुक असंयमसे उत्पन्न हुई, उन्हीं जीवोंकी वेदना सम्यक्त्वोत्पत्तिका कारण होती है। अन्य जीवोंकी वेदना नरकों में सम्यक्त्वोत्पत्तिका कारण नहीं होती, क्योंकि उसमें उक्त प्रकार के उपयोगका अभाव होता है । ५. नरकोंमें धर्म श्रवण सम्बन्धी घ. ६/१-१-१/४२२/१ कई तेखि धम्मसंभवदि, तस्थ रिसीव गमनाभावा । ण सम्माइट्ठिदेवाणं पुव्वभव संबंधी धम्मपदुप्पा वावदाणं सयलवाधाविरहियाणं तत्थ गमणदंसणादो | ३६५ घ. ६/९६-६,९२/४२४/५ धम्मसपणादो पहमसम्मतस्स सत्य उप्पी णत्थि, देवाणं तत्थ गमनाभावा । तत्थ तणसग्माइद्विधम्मसबणादो पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ती किण्ण होदि त्ति वुत्ते ण होदि, तेसिं भवसंबंधेण पुव्यबेरसंबंधेन वा परोप्परविरुद्वाणं अणुगेयुग्गाव भावाणमसंभवादो। = प्रश्न- १. नारकी जीवोंके धर्म श्रवण किस प्रकार सम्भव है, क्योंकि, वहाँ तो ऋषियोंके गमनका अभाव है ! उत्तर - नहीं, क्योंकि, अपने पूर्व भव के सम्बन्धी जीवों के धर्म उत्पन्न कराने में प्रवृत्त और समस्त बाधाओंसे रहित सम्यग्दृष्टि देवोंका नरकोंमें गमन देखा जाता है। २. नोचेकी चार पृथिवियोंमें धर्मश्रावणके द्वारा प्रथम सम्यक्रयकी उत्पति नहीं होती, क्योंकि यहाँ देवों के गमनका अभाव है। प्रश्न- वहाँ ही विद्यमान सम्यग्दृष्टियों से धर्मश्रवणके द्वारा प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती ? उत्तर- ऐसा पूछनेर उत्तर देते हैं कि नहीं होती, क्योंकि, भव सम्बन्धसे या पूर्व वैर के सम्बन्धसे परस्पर विरोधी हुए नारकी tath अनुगृह्य अनुग्राहक भाव उत्पन्न होना असम्भव है । ६. मनुष्योंमें जिनमहिमा दर्शनके अभाव सम्बन्धी ध. ६/१,६-६,१०/४३०/१ जिणमहिमं दट्ठूण वि केई पढमसम्मतं पडिवज्जंता अस्थि तेण चदुहि कारणेहि पढमसम्मत्तं पडिवज्जति त्तिवत । ण एस दोसो, एदस्स जिणविबदसणे अंतभावादो | अथवा मधुसमिथ्या गयणगमविरहियाणं पिदेवणिकाएहि णंदीसर - जिणवर पडिमाणं कीरमाणमहामहिमावलोयणे संभवाभावा । मेरुरमहिमाओ विवाधरमिच्छादिद्वियो III सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके निमित्त पेच्छति त्ति एस अत्थो ण वत्तव्यओ त्ति केई भणति । तेण पुव्युत्तो चैव अत्थो घेत्तब्बो । प्रश्न-- जिनमहिमाको देखकर भी कितने ही मनुष्य प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं. इसलिए (सोनकी बजाय ) चार कारणों से मनुष्य प्रथम सम्यवत्वको प्राप्त करते हैं, ऐसा कहना चाहिए ? उत्तर-१, यह कोई दोष नहीं क्योंकि, जिनमहिमादर्शनका निम्न दर्शनमें अग्मन हो जाता है। २. अथवा मिथ्यादृष्टि मनुष्योंके आकाशमें गमन करनेकी शक्ति न होनेसे उनके चतुविध देवनिकायोंके द्वारा किये जानेवाले नन्दीश्वरद्वीपवर्ती जिनेन्द्र प्रतिमाओंके महामहोत्सवका देखना सम्भव नहीं है, इसलिए उनके जिनमहिमादर्शनरूप कारणका अभाव है । ३. किन्तु मेरुपर्वतपर किये जानेवाले जिनेन्द्र महोत्सवको घर देखते हैं, इसलिए उपर्युक्त अर्थ नहीं कहना चाहिए, ऐसा कितने ही आचार्य कहते है, अतएव पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना योग्य है । ७. देवोंमें जिनबिम्ब दर्शन क्यों नहीं प०६/१,१-६.३०/४३२/१० जिविस पडमसम्मसरस कारण से एथ किष्ण उत्तं । ण एस दोसो; जिनमहिमादंसणम्मि तस्स अंतम्भाबादो, - जिगबिबेण विणा जिणमहिमाए अणुववत्ती दो । सम्मोयरणजम्मा हिलेमा परिणिक्खमणजिनमहिमाओ जिणि मिणा कीरमाणीओ दिस्संति ति जिमिम समस्त अमिनाभावी गरि वि पाकतिर विभानिरसनसंभा अपना एवा महिमासु उत्पज्जमाणपढमसम्मत्तं ण जिण विवद सणनिमित्तं, किंतु जिगमित्तमिति प्रश्न यहाँ देवोंमें) जिन निम्नदर्शनको प्रथम सम्यक्त्वके कारणरूपसे क्यों नहीं कहा 1 उत्तर- १. यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिन बिम्बदर्शनका जिनमहिमादर्शन में हो अन्तर्भाव हो जाता है, कारण जिनबिम्बके बिना जिनमहिमाकी उपपत्ति बनती नहीं है। प्रश्न-स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमाएँ जिनके बिना ही को गयी देखी जाती है, इसलिए जिनमहिमा दर्शन में जिननिम्मदर्शनका अविनाभावी पता नहीं है। उत्तर- ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि स्वर्गावतरण, जग्गाभिषेक और परिनिष्क्रमण रूप जिनमहिमाओं में भी भावी जिनबिम्बका दर्शन पाया जाता है । २. अथवा इन महिमाओं में उत्पन्न होनेवाला प्रथम सम्यक्त्व जिनबिम्बदर्शननिमित नहीं है, किन्तु जिनगुण अण निमिशक है। ८. आनतादिमें देवऋद्धि दर्शन क्यों नहीं घ. ६/१६ - ६.४०/४३५/१ देविद्धिदंसणेणं चत्तारि कारणणि किण्ण तात्यि महिद्धिसं जुतुब रिमदेवाणमागमाभाषा सत्यद्विददेवानं महिद्धिदं परमसम्म यी विभितं भूयो स तत्य विन्याभावा सुक्कलेस्साए महिद्भिसमे से किसाभावादो वा। सोऊण जं जाइसरणं, देविद्धि दट्ठूण जं च जाइस्सरणं, वाणि दो दिनसम्म सुप्पत्ती जिमि होति तो मि सम्म जाइस्सरण निमित्त मिदि एण घेध्यदि वैविविणणाजाइस्सरणनिमित्तत्तादो किंतु सवण देवद्विदंसणपमित्तनिधि घेत्तव्त्रं । = प्रश्न- यहाँपर ( आनतादि चार स्वगमें) देवऋद्धिदर्शन सहित चार कारण क्यों नहीं कहे ? उत्तर-१, आनत आदि चार कल्पों में महर्षि से संयुक्त ऊपर के देवोंके आगमन नहीं होता, इसलिए यहाँ महद्विदर्शनपर रूप प्रथम सम्यस्यकी उत्पत्तिका कारण नहीं पाया जाता । २ और उन्हीं कल्पों में स्थित देवोंके महर्द्धिका दर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका निमित्त हो नहीं सकता, क्योंकि उसी ऋद्धिको बार-बार देखनेसे विस्मय नहीं होता । ३. अथवा उक्त कम्पोनें शुक्लेश्या सद्भाव के कारण महर्द्धिके दर्शन उन्हें कोई जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन IV उपशमादि सम्यग्दर्शन श्रद्धानानां कथं समानतेति चेद्भवतु विशेषणानां भेदो न विशेष्यस्य यथार्थश्रद्धानस्य । प्रश्न-सम्यक्त्वमें रहने वाला वह सामान्य क्या वस्तु है (जिससे कि इन भेदोंसे पृथक् एक सामान्य सम्यग्दृष्टि संज्ञक भेद ग्रहण कर लिया गया:) उत्तर-तीनों ही सम्यग्दर्शनों में जो साधारण धर्म है, वह सामान्य शब्दसे यहाँपर विवक्षित है। प्रश्न-क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनोंके परस्पर भिन्न भिन्न होनेपर सदृशता क्या वस्तु हो सकती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि उन तीनों सम्यग्दर्शनोंमें यथार्थ श्रद्धानके प्रति समानता पायी जाती है। प्रश्न-क्षय, क्षयोपशम और उपशम विशेषणसे युक्त यथार्थ श्रद्धानों में समानता कैसे हो सकती है ! उत्तर-विशेषणोंमें भेद भले ही रहा आवे, परन्तु इससे यथार्थ श्रद्धानरूप विशेष्यमें भेद नहीं पड़ता है। २. प्रथमोपशम सम्यक्त्व निर्देश संक्लेशभाव उत्पन्न नहीं होते। ४. धर्मोपदेश सुन कर जो जातिस्मरण होता है और देवद्धिको देख कर जो जातिस्मरण होता है. ये दोनों ही जातिस्मरण यद्यपि प्रथम सम्यक्त्वको उत्पत्तिके निमित्त होते हैं, तथापि उनसे उत्पन्न सम्यक्त्व वहाँ (आनत आदिमें) जाति स्मरण निमित्तक नहीं माना गया है, क्योंकि यहाँ देवद्धिके दर्शन व धर्मोपदेशके श्रवणके पश्चात ही उत्पन्न हुए जातिस्मरणका निमित्त प्राप्त हुआ है । अतएव यहाँ धर्मोपदेश श्रवण और देवद्धि दर्शनको ही निमित्त मानना चाहिए। ९. नववेयकोंमें जिनमहिमा व देवर्द्धि दर्शन क्यों नहीं घ.६१,६-६,४२/४३६/३ एत्य महिद्धिदसणं णत्थि, उवरिमदेवाणमागमाभावा । जिणमहिमदंसणं पिणस्थि, गंदीसरादिमहिमाणं तेसिमागमणाभावा। ओहिणाणेण तस्थढिया चेव जिणमहिमाओ पेच्छति त्ति जिणम हिमादसणं वि तेसिं सम्मत्तुप्पत्तीए णिमित्तमिदि किण्ण उच्चदे। ण तेसि बीयरायाणं जिणमहिमादसणेण विभयाभावा ।प्रश्न-नवगैवेयकों में महद्धिदर्शन नहीं है, क्योंकि यहाँ ऊपरके। देवोंके आगमनका अभाव है। यहाँ जिनमहिमादर्शन भी नहीं है, क्योंकि प्रैवेयकविमानवासी देव नन्दीश्वर आदिके महोत्सव देखने नहीं आते। प्रश्न-4 वेयक देव अपने विमानों में रहते हुए ही अवधिज्ञानसे जिनमहिमाओं को देखते तो हैं, अतएव जिनमहिमाका दर्शन भी उनके सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें निमित्त होता है ऐसा क्यों नहीं कहा 1 उत्तर-नहीं, क्योंकि, अवेयक विमानवासी देव वीतराग होते हैं अतएव जिनमहिमाके दर्शनसे उन्हें विस्मय उत्पन्न नहीं होता। १०. नववेयकमें धर्मश्रवण क्यों नहीं ध.६/१,६-६,४२/४३६६ कधं तेसि धम्मसुणणसंभवो। ण, ते सि अण्णोण्णसवलावे संते अहमिदत्तस्स विरोहाभावा। - प्रश्न-प्रबेयक विमानवासी देवोंके धर्म श्रवण किस प्रकार सम्भव होता है। उत्तरनहीं, क्योंकि उनमें परस्पर संलाप होनेपर अहमिन्द्रत्वसे विरोध नहीं होता। IV उपशमादि सम्यग्दर्शन १. उपशमादि सम्यग्दर्शन सामान्य १. सम्यक्त्व मार्गणाके उपशमादि भेद प. रवं./१/१,१/सूत्र १४४/१६५ सम्मत्ताणुवादेण अस्थि सम्माइट्ठी खय सम्माश्ट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उबसमसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइट्ठी चेदि ।१४४ सम्यक्त्व मार्गणाके अणुवादसे सामान्यकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि सामान्य और विशेषकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यगमिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं ।१४४| (द्र.सं/टी./१३/४०/१/); (गो.जी./जी.प्र./७०४/११४२/१)। शा./६/७ क्षीणप्रशान्त मिश्रासु मोहप्रकृतिषु क्रमात् । तव स्यादतव्यस्यादिसामग्र या पुसौ सदर्शनं त्रिधा -दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियों के क्षय उपशम और क्षयोपशमरूप होनेसे क्रमशः तीन प्रकारका सम्यक्त्व है-क्षायिक, औपशामिक व क्षायोपशमिक । २. तीनों सम्यक्त्वों में कथंचित् एकत्व ध.१/१.१.१४५/३६६/८ किं तत्सम्यक्त्वगतसामान्यमिति चेव त्रिष्वपि सम्यग्दर्शनेषु यः साधारणोंऽशस्तत्सामान्यम् । क्षायिकक्षायोपशमिकोपशमिकेषु परस्परतो भिन्नेषु किं सादृश्यमिति चेन्न, तत्र यथार्थ - श्रद्धानं प्रति साम्योपलम्भात् । क्षयक्षयोपशमविशिष्टानां यथार्थ १. उपशम सम्यक्त्व सामान्यका लक्षण प.स/प्रा./२/१६५-१६६ देवे अणण्णभावो विसयविरागो य तच्चसहहणं । दिट्ठीसु असम्मोहो सम्मत्तमणूणय जाणे।१६। दंसणमोहस्सुदए उवसंते सच्चभावसहहणं । उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णकलुसं जहा तोयं 1१६६। -उपशम सम्यक्त्वके होनेपर जीवके सत्यार्थ देवमें अनन्य भक्तिभाव, विषयोंसे विराग, तत्त्वोंका श्रधान और विविध मिथ्यादृष्टियों ( मतों) में असम्मोह प्रगट होता है। इसे क्षायिक सम्यक्त्व से कुछ भी कम नहीं जानना चाहिए।१६। जिस प्रकार पंकादि जनित कालुष्यके प्रशान्त होनेपर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शन मोहके उदयके उपशान्त होनेपर जो सत्यार्थ श्रदधान उत्पन्न होता है, उसे उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं ।१६६। घ.१/१.१.१४४/गा. २१६/३६६ दंसणमोहवसमदो उप्पज्जइ जं पयस्थ सदहणं । उस मसम्मतमिण पसण्णमलपंकतोयसमं । -दर्शनमोहनीयके उपशमसे, कीचड़के नीचे बैठ जानेसे निर्मल जलके समान, पदार्थोंका जो निर्मल श्रधान होता है, वह उपशम सम्यग्दर्शन है ।२१६॥ (गो.जी./मू /६५०/१०६६) स. सि./२/३/१५२/४ आसां सप्तानी प्रकृतीनामुवशमादौपश मिक सम्यक्त्वम्। -(अनन्तानुबन्धी चार और दर्शनमोहकी तीन) इन सात प्रकृतियों के उपशमसे औपशमिक सम्यवत्व होता है । (रा.वा./२/३/१/१०४/१७)। ध.१/१,१.१२/१७१/५ एदासि सत्तव्ह पयडीणमुवसमेण उवसमसम्माइट्ठी होइ ।...एरिसो चेय । पूर्वोक्त दर्शनमोहकी सात प्रकृतियों के उपशमसे उपशम सम्यग्दृष्टि होता है। यह भीक्षायिक जैसा ही निर्मल व सन्देह रहित होता है। २. उपशम सम्यक्त्वका स्वामित्व प, ख./१/१,१/सू.१४७/३६८ उवसमसम्माइट्ठी असंजदसम्माइटि.ठप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीयरायछमस्थात्ति। -उपशम सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं । ( विशेष दे. यह वह मार्गणा तथा 'सत्')। ३. उपशम सम्यक्रवके २ भेद व प्रथमोपशमका लक्षण गो.क./जी.प्र./५५०/७४२/३ तत्राद्य प्रथमद्वितीयभेदाद देधा। - उनमें से आदिका अर्थात उपशम सम्यक्त्व दो प्रकारका है--प्रथम व द्वितीय। ल.सा./भाषा/२/४१/१८ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानतें छुटि उपशम सम्यवत्व होइ ताका नाम (प्रथम) उपशम सम्यक्त्व है। (विशेष दे. सम्यग्दर्शन/IV/२/४/२) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ४. प्रथमोपशमका प्रतिष्ठापक १. गति व जीव समासोंकी अपेक्षा ष. नं. ६/१. ६-८ / सूत्र / २३८ उवसातो कम्हि उवसामेदि, चदुसु विगदीसु उपसादिदिगी उसमे पंचिदिए उनसामेो पंच उपसमेटियो एहदियविगतिवियेदविदिषस उसात सण्णी वसामेदि, णो असन्नीषु । सन्णीसु उवसामेतो गन्भोवर्कतिए उवसामेदि, णो सम्मुच्छि मेसु । गन्भोवक्कैतिर उवसामेंतो पज्जत्तए उवसामेदि, णो अपज्जत्तए । पज्जत्त एसु वसा तो संखेज्जवस्सा उग्गेसु वि उवसामेदि, असंखेज्जबसाउने बि ३६७ 1 ...६/१.१६/१-२३ / ४९८-४३१ पेरहवा पज्जतर उप्पादेति णो अप्पज्जन्त्तरसु 1१-३१ एवं जाव सत्तसु पुढत्रीसु णेरड्या |५| तिरिवख... पंचिदिए राणी.. गम्भीमक लिए सु... पण उपदेखि १२-१८ एवं जान सम्मदीवसमुद्र सु ॥२०॥ मनुस्सा... गन्धोषकं लिए... पनतर उप्पादेति ॥२३-२३॥ एवं जाय अड्डाइज्जीवसमुह २८ देवापज्जत्तेसु उप्पादेति । एवं जाव उवरिमवज्जविमाणवासियदेवाति । ३१-३५१ -१. दर्शनमोहनीय कर्मको उपशमाता हुआ यह जीव कहाँ उपशमाता है ! चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारों ही गतियों में पंचेन्द्रियों में उपशमाता है. एकेन्द्रियन्द्रियोंमें नहीं। पंचेन्द्रियोंमें उपशमाता हुआ संज्ञियोंमें उपशमाता है, असशियों में नहीं संक्षियोंमें उपशमाता हुआ गर्भीपाकों में उपमाता है सम्पूयोंमें नहीं, गर्मीप क्रान्तिकों ने उपशमाता हुआ यठकोंमें उपशमाता है अतकों में नहीं। पर्याप्त को उपशमाता हुआ संख्यातवर्षकी आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है और असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोंने भी उपशमाता है । । २. (विशेष रूपसे व्याख्यान करनेपर ) नरक गति में सातों ही पृथिवियोंमें पर्याप्तक ही उपशमाता है ।१-५१ तियंचगति में सर्व ही द्वीप समुद्रों में से पञ्चेन्द्रिय संज्ञी गर्भज पर्या ही उपमाते हैं । १३- २०१ मनुष्यगतिमें अड़ाई द्वीप समुद्रोंने गणपति ही उपमाते है २३-२५ देवगति भवनवासियों से लेकर उपरिम प्रवेयक पर्यंत पर्यटकही उपमा ३१-३३२ [ इनसे विपरीत अर्थात अपयश आदिमें नहीं उपशमाता है। (रा.वा./२/३/२/१०५/१) ध-१/१.६-८.४/२०६/- तस्य वि असण्गीण होदि ते विसि ठणाणासीदो सदो सो राणी चेन भी वे अछी नहीं होते, क्योंकि, असंही जीवोंमें विज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है। . क. पा. सुत्त/१०/गा. ६५-६६ / ६३० दंसणमोहस्सुवसामगो दु च वि गदी मोब पंचिदियो य सण्णी नियमा सो होई पज्यो ६५ सम्यगित्य-भवणे वीस गृह जोदिसि निमाणे अभियोग्य अभिजग्ग उवसामो होइ बोद्धव्यो ६६ - १. दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करनेवाला जीव चारों ही गतियोंमें जानना चाहिए। वह जीव नियमसे पंचेन्द्रिय संज्ञी और पर्याप्तक होता है | ६५ (पं. सं/प्रा./१/२०४), (४.६ / ९.६-२६ / गा.२ / २३६) (और भी दे, उपशीर्षक नं. २) २. क श्रेणीबद्ध आदि सर्व नरको में, सर्व प्रकार के भवनवासी देवों में, ( तियंचोंकी अपेक्षा ) सर्व द्वीपसमुद्रोंमें, (और मनुष्यों की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप समुद्रों में ), सर्व व्यन्तर देवोंमें, समस्त ज्योतिष देवो सोधर्म से लेकर सर्व अभियोग्य अर्थात वाहनादि रूप नीच देवोंमें, उनसे भिन्न किविवष आदि अनुत्तम तथा पारिषद आदि उत्तम देवदनमोहनीय कर्मका उपशम होता है 1841 (ध. ६ / ११-०६ / गा ३ / २२१) मणेष विशा पंचेन्द्रियों में मनके विना IV उपशमादि सम्यग्दर्शन २. गुणस्थानको अपक्षा ष. खं. ६/१,६-८ / सूत्र ४/२०६ सो पुण पंचिदिओ सण्णीमिच्छाइट्ठी पज्जत सम्वत्रिसुद्धो |४| ./१/१-१-३ नं. / ४१८- पेरामा तिरिक्ख मिच्छाइट्ठी... | १३ | मणुस्सा मिच्छाइट्ठी... १२३॥ देवा मिच्छाहट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेति । ३११ -१, वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करनेवाला जीव पचेन्द्रिय संज्ञी, मिध्यादृष्टि पर्याप्त बौर सर्व विशुद्ध होता है |४| (रा.वा./२/३/२/९०५/२६) (लसा./मू./२/ ४९) (गो..../२५० / ४४२ / १ में उमृत गाथा) २. नारकी, तिर्यश्च मनुष्य व देव ये चारों ही मिध्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं । १-३१ - घ. ६/१.१-५/२०५/१ सासमसम्माहट्टी सम्मामिच्याइटी वेदग सम्माट्ठी वा पढनसम्म पडिवज्जदि देसि तेन पाएन परिणमनसीए अभावादी उपसमसेटि मानवेदसम्मानि उवसमसम्मत्तं पडिवज्र्ज्जता अस्थि, किंतु ण तस्स पढमसम्मत्तववएसो कुरो सम्मन्ता तस्यसीए सदो तेण मिच्छा चैव होदयं । सासादनसम्म सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टि जोव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, इन जीवोंके उस प्रथमोपशम सम्यक्त्वस्वरूप पर्यायके द्वारा परिणमन होनेकी शक्तिका अभाव है। उपशम श्रेणी पर चढ़नेवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि उपशम सम्मको प्राप्त करनेवाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्वका 'प्रथमोपशम सम्यक्त्व ' यह नाम नहीं है, क्योंकि उस उपशम श्रेणीवालेके उपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति सम्यक्त्व से होती है। इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव मिध्यादृष्टि ही होना चाहिए । २. उपयोग, योग व विशुद्धि आदिकी अपेक्षा दे, उपशीर्षक नं. २ - ( वह सर्व विशुद्ध होना चाहिए ) । क. पा. सुत्त/ १० / गा / १८/६३२ सागारे पट्ठवगो मज्झिमो य भजियबो । लोगे अण्णवरह व जयगो तेउ तेस्साए || साधारोपयोग वर्तमान जीव ही दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमनका प्रस्थापक होता है किन्तु निष्ठापक और मध्यस्थानवर्ती जीव भजितव्य है। तीनों योगों में से किसी एक योगमें वर्तमान और तेजोलेश्याके जघन्य अंशको प्राप्त जीव दर्शनमोहका उपशमन करता है । ६८ (६.६/१.६८.६ / गा. ५ / २३६) : (ल. सा / मू/ १०१ / १३८) रा.वा./१/१/१२/२८०/२५ गृहीतुमारभमाणः शुभ परिणामाभिमुखः अन्तर्मुहुर्तमगुणवृधा गर्जमान विशुद्धिः अन्यतमेन मनोयोगेन... अन्यतमेन वाग्योगेन...अन्यतमेन काययोगेन वा समाविष्टः हीयमानान्यतमकपायः साकारोपयोगः, लेशविरहितः । - प्रथम सम्यक्त्वको प्रारम्भ करनेवाला जीव शुभपरिपाम अभिमुख होता है, अन्तर्मुहूर्त में अनन्तगुण वृद्धि द्वारा वर्धमान विशुद्धि वाला होता है। तीनों योगोंके सर्व उत्तर भेदोनसे ) अन्यतम मनोयोगवाला या अन्यतम वचनयोगवाला या अन्यतम काययोगवाला होता है । हीनमान अन्यतम कषायवाला होता है । साकारोपयोगी होता है। तीनों वेदों में से अन्यतम वेदवाला होता है और सक्सेसे रहित होता है (.८/१.१८,४/२००/४) ध. ६/९.१-५/२००६ अजदो मदिरागाहत । तत्थ अगागारुवजोगी परि तस्समये पती अभावादी श लेस्साणमण्णदर सेस्सी किंतु हीयमान अशुद्ध मा लेस्सो - ( वह प्रथमोपराम सम्यक्रम के अभिमुख जीव) असंयत होता है, नति व तज्ञान रूप साकारोपयोगी होता है. अनाकारोपयोगी नहीं होता, क्योंकि, अनाकार उपयोगको बाह्य अर्थको जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ३६८ IV उपशमादि सम्यग्दर्शन प्रवृत्तिका अभाव है। कृष्णादि छहों लेश्याओं से किसी एक लेश्या वाला हो, किन्तु यदि अशुभ लेश्या वाला हो तो हीयमान होना चाहिए, और यदि शुभ लेश्या हो तो वर्धमान होना चाहिए। ध.६/१,६-८,४/२१४/५ 'सबविसुद्धो' त्ति एदस्स पदस्स अत्थो उच्चदे। तं जधा-एत्थ पढमसम्मत्तं पडिवज्जंतस्स अधापवत्तकरण-अपुटवकरण-अणियट्टीकरणभेदेण तिविहाओ विसोहीओ होति। -अब सूत्रोक्त सर्व विशुद्ध' ( दे. इसी शीर्षकमें) इस पदका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-यहाँपर प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके भेदसे तीन प्रकारकी विशुद्धियाँ होती हैं। गो.जी./पू./६५२/११०० चदुगदिभवो सण्णी पज्जत्तो य सागारो। - जागारो सक्लेस्सो सलद्धिगो सम्ममुवगमई। -चारों में से किसी भी गतिवाला, भव्य, सैनी, पर्याप्त साकारोपयोगी, जागृत, शुभलेश्या वाला, तथा करण लब्धिरूप परिणमा जीव यथासम्भव सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। ल.सा./जी.प्र./२/११/१२ विशुद्ध इत्यनेन शुभलेश्यत्वं संगृहीतं उदयप्रस्तावे स्त्यानगृद्यादित्रयोदयाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात् जागरत्वमप्युक्तमेव । -गाथामें प्रयुक्त 'विशुद्ध' इस शब्द से शुभ लेश्याका ग्रहण हो जाता है और स्त्यानगृद्धि आदि तीनों प्रकृतियोंके उदयका अभाव आगे कहा जायेगा (दे, उदय/६), इसलिए जागृतपना भी कह ही दिया गया। दृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले अन्तर्मुहर्स से लगाकर अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उत्पन्न करते हैं, उससे नीचे नहीं। इस प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए ।१-१॥ तिर्यचमिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले जीव दिवसपृथवत्वसे लगाकर उपरिम कालमें उत्पन्न करते हैं, नीचेके काल में नहीं। इस प्रकार सर्व द्वीपसमुद्रोंमें जानना चाहिए ।१३-३०। मनुष्य मिथ्याष्टि पर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले जीव आठ वर्ष से लेकर ऊपर किसी समय भी उत्पन्न करते हैं, उससे नीचेके काल में नहीं। इस प्रकार अढाई द्वीपसमुद्रों में जानना चाहिए ।२३-२८१ देव मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले जीव अन्तर्मुहूर्त क.लसे लेकर ऊपर उत्पन्न करते हैं, उससे नीचेके काल में नहीं। इस प्रकार भवनवासीसे लेकर उपरिम उपरिम | वेयक बिमानवासी देवोंतक जानना चाहिए ।३१-३॥ (रा. वा./२/३/१/१०५/२,६,८,१२) घ. १३/५.४,३१/११९/१० छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदम्मि एक्को, विस्समणे विदियो, विसोहिआबूरणे तदियो मुहुत्तो । किमट्ठमेदे अवणिज्जते । ण, एदेसु सम्मत्तग्गहणाभावादो। - छह पर्याप्तियोंसे प्राप्त होनेका प्रथम अन्तर्मुहूर्त है, विश्राम करनेका दूसरा अन्तर्मुहूर्त है और विशुद्धिको पूरा करनेका तीसरा अन्तर्मुहूर्त है। प्रश्न-ये अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितियों मेंसे क्यों घटाये जाते है ! उत्तरनहीं, क्योंकि, (जन्म होनेके पश्चात् ) इन अन्तर्मुहूतोंके भीतर सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं होता है । ( अर्थात् ये तीन अन्तर्मुहूर्त बीत • जानेके पश्चात चौथे अन्तमहूर्त में ही सम्यक्त्वका ग्रहण सम्भव है, उससे पहले नहीं। पर ये चारों अन्तर्मुहर्त मिलकर भी एक अन्तर्मुहूर्त के कालको उल्लंघन नहीं कर पाते । ऐसे अन्तर्मुहूर्त द्वारा नारकी व देव प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं।) ४. कोंके स्थिति बन्ध व स्थिति सत्त्वकी अपेक्षा ष. वं.६/१,६-८ सूत्र ३.५/२०३,२२२ एदेसि चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिट्ठिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्त लभदि ।३। एदेसि चेर सबकम्माण जाधे अंतोकोडाकोडिििद ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणि ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि।। -इन ही सर्व कर्मोंकी अर्थात् आठों कर्मोंकी जम अन्तःकोडाकोड़ी स्थितिको बाँधता है, तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ।३। जिस समय इन ही सर्व कर्मोकी संख्यात हज़ार सागरोपमोसे हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है उस समय यह जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है ।। (ल.सा /मू/६/४७) ल. सा./मू./८/४६ जेठ्ठवरहिदिबंधे जेवरहिदितियाण सत्ते य । ण य पडिव जिदि पढनुव समसम्म मिच्छ जीवोह 1८1 संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में सम्भव ऐसे उस्कृष्ट स्थिति बन्ध और उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग व प्रदेश सत्त्व-तथा विशुद्ध क्षपक श्रेणी वालेके सम्भव ऐसे जघन्य स्थिति बन्ध और जघन्य स्थिति, अनुभाव व प्रदेश सत्त्व, इनके होते हुए जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं करता। नोट-[सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के स्थिति सत्त्व सम्बन्धी विशेषता (दे, सम्यग्दर्शन/IV/२/६ ] ६. अनादि व सादि मिथ्यादृष्टिमें सम्यक्त्व प्राप्ति सम्बन्धी कुछ विशेषता क. पा.सु./१०/गा, १०४/४३५ सम्मत्तपढमलंभो सव्योवसमेण तह वियट्टेण । भजियव्वो य अभिवरखं सव्वोवसमेण देसेण ।१०४। - जो सर्व प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, अर्थात अनादि मिथ्याष्टि जीव, उसके सम्यक्त्वका सर्वप्रथम लाभ सर्वोपशमनासे होता है । इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीवके, [अर्थात जिसने पहले कभी सम्यक्त्वको प्राप्त किया था किन्तु पश्चान मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहाँ सम्यक्रवप्रकृति एवं सम्यक्त्वमिथ्यात्वकर्मकी उद्वेलना कर बहुतकाल तक मिथ्यात्व सहित परिभ्रमण कर पुनः सम्यवत्वको प्राप्त किया है, अर्थाव अनादि तुल्य सादि मिथ्यादृष्टिके ( दे. आगे IV/४/५/३) प्रथमोपशम सम्यवत्वका लाभ भी सर्वोपशमसे होता है। किन्तु जो जीव सम्यक्त्वमे गिरकर जल्दी ही पुनः पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण करता है, अर्थात सादि मिथ्याष्टि जीव सर्वोपशम और देशोपशमसे भजनीय है । (तीनों प्रकृतियों के उदयाभावको सर्वोपशम कहते हैं। तथा सम्यक्त्वप्रकृति सम्बन्धी देशघातीके उदयको देशोपशमना कहते हैं।) (पं.सं./प्र./१/१७१ ): (ध.६/१,६-८६/गा,११/२४१); (रा.वा./१/१/१३/५८८/२३); (गो. क /जी. प्र./५५०/७४२/१२) ध.१,६,३८/३३/१० तसेसु अच्छि दूण जेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उठवे लिदाणि सो सागरोवम पुत्तण सम्मत्ससम्मामिच्छत्तहिदिसंतकम्मेण उसमसम्मत्तं पडिवज्ज दि एदम्हादो उवरिमासु द्विदीसु जदि सम्मत्तं गेहदि, तो णिच्छरण वेदगसम्मत्तमेव गेण्हदि । अध एई दिएसु जेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्वाणि उव्वेलिदाणि, सो पलिदोबमस्स असंखेज दिभागेणुण सागरोवममेत्ते समत्त-सम्मामिच्छत्ताण ठिदिसंतकम्मे सेसे तसे सुववज्जिय उवसमसम्मत्तं पडिवजदि । एदाहि द्विदीहि ऊणसेस कम्मट्ठिदिउव्वेलणकालो जेण पलिदोवमस्स असंखे. जदिभागो तेण सासणेगजीवजहणंतर पि पलिदोवमस्स असंखेज ५. जन्मके पश्चात् प्राप्ति योग्य सर्वलघु काल ष. खं/१,६-९/सूत्र नं/४११-४३१ जेरझ्या मिच्छाइट्ठी/.../१/ पज्ज त्तएसु उप्पादेंता अंतोमुहत्तप्पहुडि जाव तत्पाओग्गंतोमुहत्तं उबरिमुपादेंति, णो हेट्ठा ।४। एवं जाव सत्तसु पुढवी णेरइया ।। तिरिक्तमिच्छाइट्ठी...।१३। पज्जत्तएस उप्पादेंता दिवसपुधत्तप्पहुडि जावमुवरिमुप्पा-ति णो हेट्ठादो १६॥ एवं जान सबदीवसमुह सु ॥२०॥ मणुस्सा मिच्छादिट्ठी...।२३। पज्जत्तएसु उप्पादेंता अट्ठवारप्पहुडि. जाव उवरिमुप्पा-ति, णो हेट्ठादो ।२७। एवं जाव अड्ढाइज्जदीवसमुद्देसु ॥२८॥ देवा मिच्छाइट्ठी...१३१२ पज्जत्तएसु उपाएता अंतोमुहत्तप्पहुडि जाव उपरि उप्पाएंति, णो हेदो ।३४। एवं जाव उवरिम उवरिमगेवज्जबिमाणवासियदेवा त्ति ।३५॥ नारकी मिथ्या जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन दिभागमेत्तं होदि । - १. सजीवोंमें रहकर जिसने सम्यक्त्व और सम्बमियाल इन दो प्रकृतियोंका उद्वेलन किया है, वह जीन सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति सत्त्वस्वरूप सागरोपम पृथक्त्वके पश्चात् उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। यदि इससे ऊपरकी स्थिति रहने पर सम्यक्त्वको ग्रहण करता है, तो निश्चयसे वेदक सम्यक्त्वको ही प्राप्त होता है । २. और एकेन्द्रियों में जाकरके जिसने सम्यमत्व और सम्यग्मिध्यात्मको उद्वेलना की है, वह पत्योपमके असंख्यातवें भागसे कम सागरोपमकालमात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसएव अवशेष रहनेपर प्रस जीवोंनें उत्पन्न ह कर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है इन स्थितियोंसे कम शेष कर्मस्थिति, उद्वेलनकाल पृ कि पत्योपयके असंख्यातने भाग है (दे. संक्रमण ) इसलिए सासादन गुणस्थानका एक जीव सम्बन्धी जघन्य अन्तर भी ( प्रथमोपशमकी भाँति ) पत्योपमके असंख्यात भागमात्र ही होता है। विशेष अन्तर/२/६) . मो . / . /६१५/८२० उदधितं तु तसे पता संगमेयरले जाव य सम्मं मिस्स वेदगजोग्गो व उबसमरस्सतदो । - = सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इनकी पूर्वमद्ध सत्तारूप स्थिति इसके तो सागरोपम प्रमाण अवशेष रहनेपर और एकेन्द्रियों के पल्यका असंख्यातवाँ भाग हीन एक सागरोपम प्रमाण अवशेष रहने पर, तावत्काल वेदक योग्य काल माना गया है। और उससे भी हीन स्थितिसत्त्व हो जानेपर उपशम योग्य काल माना गया है । ३६९ गौ क./जी. प्र./५५०/०४२ / १२ सादिदि सम्यमिश्रप्रकृति स्वस्तदा कृतीः सदसयस्तदा सोऽप्यनादिरपि निष्याणानुन.. प्रशस्तोपशम विधानेन युगपदेवोपशम्यान्तर्मुहूर्त का प्रथमोपशमसम्यक्त्वं स्वीकुर्वन् । सादि मिथ्यादृष्टिके यदि सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इन दो प्रकृतियोंका सत्य हो तो उसके सात प्रकृतियों है और यदि इन दोनोंका सत्व नहीं है अर्थात इनकी उद्वेलना कर दी है तो उसके दर्शनमोहको पाँच प्रकृतियाँ है ऐसा जीव भी अनादि मिध्यादृष्टि हो है। यह भी मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन पाँच प्रकृतियोंको प्रशस्त उपशम या सर्वोपशम विधान के द्वारा युगपत् उपशमाकर, अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त उपशम सम्यको अंगीकार करता है (विशेष दें अन्तर /२/ ७. प्रथमोपशम से च्युति सम्बन्धी नियम क. पा. सुत/१०/गा. नं/६३२ मिच्छत्तवेदणीयं कम्मं उवसामगस्स बोद्धवं । उनसे आसा रोग पर हो |१| सम्मेदविरोसेि उन संता होंति तिग्णि कसा एक्कन्हिय अणुभाने पियमा सब्बे द्विदिविसेसा ॥१००॥ तो मुहुत्समद सब्बोवसमे हो उसंतो तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेक्कदरस्स कम्मस्स । १०३ | सम्मत्तपढमलं भस्स पदोपदी मिच्द संभस्स अण्ढमस्स भजियो पच्छिदो होदि ११०५॥ उपशामक के मिध्यात्व वेदनीयकर्मका उदय जानना चाहिए। किन्तु उपशान्त अवस्थाके विनाश होनेपर तदनन्तर उसका उदय भय है । ६ ( प ६/१.६-८,६/गा, ६/ २४०)। २ दर्शनमोहनीयके मिध्यात्व सम्यग्मिध्यास्त्र और सभ्य 1 भा० ४-४७ प्रकृति ये तीनों कर्माश, दर्शनमोहको उपशान्त अवस्थामें सर्वस्थितिविशेषोंके साथ उपशान्त रहते हैं, अर्थात उस समय तीनों प्रकृतियोंमें से किसी एककी भी किसी स्थितिका उदय नहीं रहता है तथा एक ही अनुभागों उन तीनों कर्माशोंके सभी स्थिति विशेष नियम अपस्थित रहते हैं । १००१ (ध. २/१.१-१ / गा. ७/२४० ) । ३. उपशमसम्यग्दृष्टि जीनके दर्शनमोहनीय कर्म अन्तर्मुहूर्त काल तक सर्वोपशम से उपशान्त रहता है। इसके पश्चात् नियमसे उसके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीन कर्मों में से किसी एक कर्मका उदय हो जाता है | १०१ (४. ६/९.३-८.१/ गा. IV उपशमादि सम्यग्दर्शन ६/२४०) (स. सा. / . / १०२ / १३६) ४. सम्यकी प्रथम वार प्राप्ति के अनन्तर और पश्चात् मिथ्यात्वका उदय होता है । किन्तु अप्रथम बार सम्यक्त्वकी प्राप्तिके पश्चात् वह भवितव्य है । १०५ | (पं. सं. / प्रा./१/९७२) ( . ६/९.६-८.६/गा. १२ / २४२) (अन घ / २/९/१२० परत एक श्लोक ) ८. गिरकर किस गुणस्थान में जाये ध. १ / १.१.१२/१७१ / ८ एरिसो चेव उवसमसम्माइट्ठी, किंतु परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गच्छह, सासणगुणं वि परिवज्जइ, सम्मामिच्छ पदसम्म पि समिलिय उपशम सम्यगष्टि यद्यपि क्षायिक निर्मत होता है, परन्तु परिणामों के निमित से उपशम सम्यक्त्वको छोड़कर मिथ्यात्वको जाता है, कभी सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त करता है, कभी सम्यग स्थानको भी पहुँच जाता है और कभी वेश् सम्यक्त्व से मेल कर लेता है। गो. जी / जी. प्र. ७०४/१९४१/१५ से अप्रमत्तस्य बिना जय एव तत्स यान्तर्मुहुर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन पासिमावशिष्टे अनन्ताय रोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्व विराधका न स्युः तदा सरकाने संपूर्णे जाते समय प्रकृत्ये दम्यामश्र खुद सम्यग्मिध्यायः मा मिध्यात्योदये मिथ्यादृश्यो भवन्ति । प [ प्रथमोशम सम्यक्त्व ४-७ तकके चार गुणस्थानों में होना सम्भव है ( दे, सत् ) ] तहाँ अप्रमत्तके बिना तीन गुणस्थानवर्ती जीव उस प्रथमोम के अन्तर्मुहूर्त मात्र कालमें से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वही शेष रह जानेपर अनन्तानुमन्धी चतुष्कमें से किसी एकके उदयसे सासादन होते हैं । अथवा वे चारों ही गुणस्थानवर्ती यदि भव्यतागुणकी विशेषतासे सम्यक्त्वकी विराधना नहीं करते हैं, तो सम्यक्त्व प्रकृति के उदयसे वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं । अथवा मिश्र प्रकृतिके उदयसे सम्यग्मिध्यादृष्टि या मिध्यात्वके उदयसे मिध्यादृष्टि हो जाते है। (और भी थे सम्यग्दर्शन / IV/४/५/३) । ९. पंच लब्धि पूर्वक होता है घ. ६/९.१ ८.२/२०४/२ तिकरमचरिमसमए सम्मम्पतीदो देन खओवसमलद्धी विसोहिलद्धी देसणलद्धी पाओग्गलद्बधी त्ति चत्तारि लधीओ परुविदो । तीनों करणोंके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी उपलब्धि होती है। इस सबके द्वारा क्षयोपशम सन्धि विशुद्दिष लब्धि, देशना सन्धि और प्रायोग्य लब्धि ये चारों लब्धियाँ प्ररूपण की गयी और भी दे /२/२ तथा उपशम / २ / २) (रा. सा./ ४२४१६) १०. प्रारम्भ किये पश्चात् अवश्य प्राप्त करता है क. पा./१०/६०/६१९ उवसामगोच सज्यो जिवाधादो तहा मिरासाओ || दर्शनमोहका उपशमन करनेवाला जीव उपद्रव व उपसर्ग आनेपर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता । (ध. ६/ १,६-८,१। गा ४/२३६ ); ( ल. सा. / मू/ ११ / १३६ ); ( और भी दे, अपूर्व करण / ४) । ३. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व निर्देश ६. द्वितीयोपशमका लक्षण जो स. सी. / भाषा/२/४२/१ उपशमश्रेणी पता क्षयोपशम सम्म उपशम सम्यक् (होता है) ताका नाम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है । ( और भी दे. सम्यग्दर्शन / IV/२/४/२ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन IV उपशमादि सम्यग्दर्शन २. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका स्वामित्व ध.६/१,६-८, १४/३३१/८ हंदि तिसु आउएमु एक्केण वि बद्धेण ण । सक्को कसाए उवसामेदं, तेण कारणेण णिरय-तिरिक्रख-मणुसगदीओ ण गच्छदि । -निश्चयतः नरकायु, तिर्यपायु, और मनुष्यायु, इन तीनों आयुमेंसे पूर्व में बाँधी गयी एक भी आयुसे कषायोंको उपशमानेके लिए समर्थ नहीं होता। इसी कारणसे वह नरक तिर्यच व ( मरकर ) मनुष्यगतिको प्राप्त नहीं होता । (विशेष दे. मरण/३/७) । गो. जी.//६६६, ७३१/११३२, १३२५ विदियुवसमसम्मत्तं अविरदसम्मादि संतमोहोत्ति ६६६ विदियुबसमसम्मत्तं सेढोदोदिण्णि अविरदादिसु ७३१०-१. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ४ थे से ११ वे गुण स्थान तक होता है।६६६ (विशेष दे. उपशम/२४) । २. श्रेणीसे उतरते हुए अविरतादि गुणस्थान होते हैं। (विशेष दे, शीर्षक नं. ३, ४)। गो, जी./जी. प्र/१५०/७४२/७ द्वितीयं पर्याप्तमनुष्यनिवृत्त्यपर्याप्तवैमानिकयोरेव ।-द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्य व निवृत्यपर्याप्त वैमानिक देवोंमे ही होता है। (दे. द्र. सं./टी./४१/१७६/8); (और भी दे. मरण/३/७), ३. द्वितीयोपशमका अवरोहण क्रम घ.६/१.६-८,१४/३३१/४ एदिस्सै उबसम्मत्ताए अभंतरादो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, छम आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज । -इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके काल के भीतर असंयमको भी प्राप्त हो सकता है. संयमासंयमको भी प्राप्त हो सकता है और छह आवलियों के शेष रहनेपर सासादनको भी प्राप्त हो सकता है। [सासादनको प्राप्त करने व न करनेके सम्बन्धमें दो मत हैं। (दे. सासादन) ] (ल.सा./मू./३४८/४३७)। गो. जी./मू./७३१/१३२५ विदिमुवसारसम्मत्तं रेढीदोदिण्णि अविर दादीसु । सगसगलेस्सा मरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे ।७३१॥ गो.जी./जी. प्र./७०४/११४१/१६ द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि वा उपशमश्रेणिमारुह्य उपशान्तकषायं गत्वा अन्तर्मुहृतं स्थित्वा क्रमेण अवतीर्य अप्रमत्तगुणस्थान प्राप्य प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि करोति। वा अधः देशसंयमो भूत्वा आस्ते वा असंयतो भूत्वा आस्ते वा मरणे देवासं यतः स्याव वा मिश्रप्रकुत्युदये मिश्रः स्यात् । अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं विराधयतीत्याचार्यपक्षे सासादनः स्यात् वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टिः स्यात् इति ।-द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर, उपशमश्रेणीपर आरोहण करके, उपशान्तकषाय गुणस्थानमें जाकर और वहाँ तत योग्य अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहकर क्रमसे नीचे गिरता हुआ अर्थात् क्रमपूर्वक १०,६,८ गुणस्थानोंमेंसे होता हुआ अप्रमत्तसं यत गुणस्थानको प्राप्त करता है। वहाँ प्रमत्त व अप्रमत्तमें हजारों बार उतरना गिरना करता है। अथवा नीचे देशसंयत होकर रहता है, अथवा असंयत होकर रहता है, या मरण करके असंयत देव (निवृत्त्य पर्याप्त ) होता है, अथवा मिश्र प्रकृतिके उदयसे मिश्रगुणस्थानधर्ती होता है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कमें से किसी एकका उदय आनेपर द्वितीयोपशमकी विराधना करके किन्हीं आचार्योंके मतसे सासादन भी हो जाता है (विशेष दे. सासादन), अथवा मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (और भी. दे, श्रेणी/३/३)। ४. श्रेणीसे नीचे आकर भी कुछ देर द्वितीयोपशमके साथ ही रहता है ध. ६/१,६-८, १४/३३१/१ उपसामगस्स पढमसमयअपुवकर.पहडि जात्र पडिवणमाणयस्स चरिमसमयअपुवकरणेत्ति तदो एत्तो संखेजगुगं कालं पडिणियत्ता अधारवत्तकरणेण उबसमसम्मत्तद्धमणुपाले दि । =उपशामकके श्रेणी चढ़ते समय अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर उतरते हुए अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक जो काल है, उससे संख्यातगुणे कालतक कषायोपशमनासे लौटता हुआ जीव अधःप्रवृत्तिकरण (७३ गुणस्थान ) के साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको पालता है । (ल. सा./मू./३४७/४३७): (और भी दे. मरण/३/७)। गो. जी./जो प्र./६६६/११३२/१२ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं असंयताद्य प शान्तकषायान्तं भवति । अप्रमत्ते उत्पाद्य उपरि उपशान्तकषायान्तं गत्वा अधोवतरणे असंयतान्तमपि तत्स भवात् ।-द्वितीयोपशमसम्यक्त्व असंयतादि उपशान्तकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है। अप्रमत्त गुणस्थानमें उत्पन्न करके, ऊपर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक जाकर, फिर नीचे उतरते हुए असंयत गुणस्थान तक भी सम्भव है । (गो. जी./जी. प्र७३१/१३२५/१३) ४. वेदक सम्यक्त्व निर्देश १. वेदक सामान्यका लक्षण १. क्षयोपशमकी अपेक्षा स. सि./२/५/१५७१६ अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्वसम्यङ्मिथ्यात्वयोश्चोदयक्षयात्सदुपशमाच्च सम्यक्त्वस्य देशघातिस्पर्धकस्योदये तत्त्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् । म चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशमसे, देशघाती स्पर्धकवाली सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयमें जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। (रा. बा/२/५/८/१०८/१); (विशेष दे. क्षयोपशम/१/१): (गो. जी./जी. प्र./२५/५०/१८) । २. वेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा ध. १/१.१,११४/गा, २१५/३६६ ईसणमोहूदयादो उपज्जई जे पयस्थ सदहण । चलमलिनमगाढं तं वेदगसम्मत्तमिह मुणहू ।- सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृतिके उदयसे पदार्थों का जो चल, मलिन और अगाढ़रूप श्रद्वान होता है उसको वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। (गो. जी./मू-/ ६४६/१०६६); (गो. जी./मू./२५/१०)। ध. १/१,१,१२/१७१/६ सम्मत्त-सण्णिद-दसणमोहणीयभेय-कम्मस्स __उदएण वेदयसम्माइट्ठी णाम। ध. १/१,१,१२/१७२/३ सम्मत्तदेसघाइ-वेदयसम्मत्त दएणुप्पण्ण वेदयसम्मत्तं खओवसमियं । -१. जिसको सम्यक्त्व संज्ञा है ऐसी दर्शनमोहनीय कर्मकी भेदरूप प्रकृतिके उदयसे यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है। (पं. सं/प्रा./१/१६४)। २. सम्यक्त्वका एक देशरूपसे वेदन करानेवाली सम्यक्रम प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाला वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है । ( विशेष दे. क्षयोपशम/१/१ । २. कृतकृत्य वेदकका लक्षण ध.६/१६-८,१२/२६२/१० चरिमे दिखंडए णिट्ठिदे कदकरणिज्जो त्ति भण्णदि। -दर्शन मोहनीयका क्षय करने वाला कोई जीव ७ वें गुणस्थानके अन्तिम सातिशय भागमें कर्मों की स्थितिका काण्डक घात करता है-दे. क्षय ) तहाँ अन्तिम स्थितिकाण्डकके समान होनेपर वह 'कृतकृत्यवेदक' कहलाता है । (ल.सा./मू./१४५) (विशेष दे. क्षय/२/५) ३. वेदक सम्यक्त्वके बाह्य चिह्न पं.सं./प्रा/१/१६३-१६४ बुद्धी महाणुबंधी सुइकम्मरओ सुए ये संवेगो। तच्चत्थे सद्दहणं पियधम्मे तिव्वणिव्वेदो १६३॥ इच्चेबमाइया जे वेदयमाणस्स होति ते य गुणा। वेदयसम्मत्तमिण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन IV उपशमादि सम्यग्दर्शन सम्मत्तु दरग जीवस्स ।१६।। -वेदक सम्यक्त्वके उत्पन्न होनेपर जीवकी बुद्धि शुभानुमन्धो या सुखानुबन्धी हो जाती है । शुचिकर्म में रति उत्पन्न होती है। श्रुतमें संवेग अर्थात प्रीति पैदा होती है। तत्त्वार्थ में श्रद्धान, प्रिय धर्म में अनुराग एवं संसारसे तीव्र निर्वेद अर्थात वैराग्य जागृत हो जाता है ।१६३। इन गुणोंको आदि लेकर इस प्रकारके जितने गुण हैं, वे सब वेदक सम्यक्त्वी जीवके प्रकट हो जाते हैं । सम्यक्त्व प्रकृति के उदयका वेदन करनेवाले जीवको वेदकसम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।१६४। ४. वेदक सम्यक्त्वकी मलिनताका निर्देश ध. १/१,१.१२/१७१/१० जो पुण वेश्यसम्माइट्ठी सो सिथिलसदहणो थेरस्स ल ठिग्गहणं व सिथिलग्गाहो कुहेउ-कुदि8 तेहि झडिदि विराहओ। =वेदक सम्यग्दृष्टि जीव शिथिल श्रद्धानी होता है, इसलिए वृद्ध पुरुष जिस प्रकार अपने हाथ में लकड़ीको शिथिलतापूर्वक पकड़ता है, उसी प्रकार वह भी तत्त्वार्थ के श्रद्धानमें शिथिलग्राही होता है। अतः कुहेतु और कुदृष्टान्तसे उसे सम्यक्त्वकी विराधना करने में देर नहीं लगती है। (और भी दे. अगाढ) घ.६/१६-१,२१/४०/१ अत्तागमपयत्यसखाए सिथिलतं सद्भाहाणी वि सम्मत्तलिंगं । -आप्त आगम और पदार्थोंकी श्रद्धामें शिथिलता और श्रद्राकी हीनता होना सम्यक्त्वप्रकृतिका चिह्न है। (दे मोहनीय/२/४) दे सम्य/I/२/६ [ दर्शनमोहके उदयसे (अर्थात सम्यवत्व-प्रकृतिके उदयसे) सम्यग्दर्शनमें शंका कांक्षा आदि अतिचार लगते हैं । दे, अनुभाग/४/६/३ [ सम्यक्त्व प्रकृति सम्यक्त्वके स्थिरता और निष्कांक्षता गुणोंका घात करती है। गो, जी./मू./२५/५० सम्मत्तदेसघादिस्मुदयादो वेदगं हवे सम्म । चलमलिनमगाढं तं णिच्चं कम्मक्रवत्रणहेदु ॥२४॥ - सम्यक्त्व नामकी देशघाती प्रकृतिके उदग्रसे सम्प्रक्त्व चल मलिन व अगाढ़ दोषसे युक्त हो जाता है, परन्तु नित्य ही वह कर्मक्षयका हेतु मना रहता है। (और भी दे. सम्यग्दर्शन/IV/४/१/२), (अन. ध /२/५६/१८२) दे. चल-(अपने व अन्य के द्वारा स्थापित जिनबिम्बों में मेरे तेरे की बुद्धि करता है. तथा कुछ मात्र काल स्थिर रह कर चलायमान हो जाता है।) दे. मल-[शंका आदि दोषोंसे दूषित हो जाना मल है।] मनुष्यगतिमें क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके मनुष्योंके होता है। मनुष्यणियों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु पर्याप्तक मनुष्यनी के ही होते हैं, अपर्याप्तक मनुष्यणीके नहीं। देवगतिमें पर्याप्तक, अपर्याप्तक दोनों प्रकारके देवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । विशेषरूपसे भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों के, इन तीनोंकी देवांगनाओके तथा सौधर्म और ऐशान कल्पमें उत्पन्न हुई देवांगनाओके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता शेष दो होते हैं, सो वे भी पर्याप्तक अवस्थामें ही होते हैं। (विशेष दे. वह-वह गति तथा सत) गो. जी./मू./१२८/३३६ हेट्ठिमछप्पुढवीणं जोइसिवणभवणसव्वइत्थीणं । पुण्णिदरे णहि सम्मो ण सासणो णारयापुणे ।१२८। -नरक गतिमें प्रथम पृथिवीके अतिरिक्त नीचेकी छह पृथिवीमें, देव गतिमें ज्योतिषी व्यन्तर व भवनवासी देव, सर्व ही प्रकारकी स्त्रियाँ, इन सबको पर्याप्त अवस्थामें ही सम्यक्त्व होता है अपर्याप्त अवस्थामें नहीं। इसके अतिरिक्त नारकियोंको अपर्याप्त अवस्थामें सासादन भी नहीं होता है। गो, जी./५५०/७४२/७ वेदकं चातुर्गतिपर्याप्त नित्यपर्याप्तेषु १७ -वेदक सम्यग्दर्शन चारों ही गतियों में पर्याप्त व निवृत्यपर्याप्त दोनों दशाओं में होता है। २. गुणस्थानों की अपेक्षा ष, खं. १/१,१/सूत्र १४६/३६७ वेदगसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी-पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति ।१४६। -वेदक सम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं। (विशेष दे. सत्) ५. वेदक सम्यक्त्वका स्वामित्व १. गति व पर्याप्ति आदिकी अपेक्षा स. सि /१/७/२२/६ गत्यनुवादेन नरकगती सर्वासु पृथिवीषु नारका पर्याप्तकानामौपशमिक क्षायोपश मिकं चास्ति । प्रथमायां पृथिव्यां पर्याप्तापर्याप्तकाना क्षायिक क्षायोपशमिक चास्ति। तिर्यग्गतो तिरश्चा...क्षायिक क्षायोपशमिकं च पर्याप्तापर्याप्तकानामस्ति। तिरश्चीनां क्षायिक नास्ति। क्षायोपशभिकं च पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । मनुष्यगतौ मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिक क्षायोपशमिक चास्ति। मानुषीणां त्रितयमप्यस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । देवगतौ देवानां पर्याप्तापर्याप्त कानां त्रितयमप्यस्ति ...विशेषेण भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च सौधर्मशान कल्पवासिनीनां च क्षायिकं नास्ति । तेषां पर्याप्त कानामौपशमिक क्षायोपशमिकं चास्ति । = गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियों में पर्याप्तक नारकियोंके औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । पहली पृथिवीमें पर्याप्तक और अपर्याप्तक नारकियों में क्षायिक व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। तिर्यचमतिमें क्षायिक और क्षायोपश मिक पर्याप्त और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके तिर्यंचोके होता है। तियं चिनीके क्षायिक नहीं होता क्षायोपशमिक पर्याप्त कके ही होता है, अपर्याप्तक तिर्यचिनीके नहीं। ३. उपशम सम्यग्दृष्टि व सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा गो. क./जी. प्र./५५०/७४४/१६ कर्मभूमिमनुष्यप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टयश्च स्वस्वान्तर्मुहूर्तकाले गते सम्यक्त्वप्रकृत्युदयावदकसम्यग्दृष्टयो जायन्ते। कर्मभूमिमनुष्यसादिमिथ्यादृष्टयः सम्यक्त्वप्रकृत्युदयेन मिथ्यात्वोदयनिषेकानुत्कृष्यासं यतादिचतुर्गणस्थानवेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा ।...नरकगतौ प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टयः स्वकालानन्तरसमयं प्राप्य सभ्यग्मिथ्यादृष्टिसादिमिथ्यादृष्टयः मिश्रमिथ्यात्वप्रकृत्युदय. निषेकानुत्कृष्य च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाव दकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा ।... कर्मभोगभूमितियंचो भोगभूमिमनुष्याश्च प्रथमोपशमसम्यवस्वं त्यक्त्वा सादिमिथ्यादृष्टितिर्यञ्चो मिथ्यात्त्रोदयनिषेकानुत्कृष्य च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयावदकसम्यग्दृष्टयो जायन्ते ।...भवनत्रयाइयुपरिमग्रैवेयकान्तसादिमिथ्यादृष्टयः करणत्रयमकृत्वा वा यथासंभवं सम्यवत्वप्रकृत्यान्मिथ्यात्वं त्यक्त्वा वेदक सम्यग्दृष्टयो भूत्वा तदेव बध्नन्ति । -कर्मभूमिज मनुष्य प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि अपने-अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त कालके बीत जानेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं । कर्मभूमिज मनुष्य सादि मिथ्यावृष्टि सम्यक्त्व प्रकृति के उदयसे उदयगत मिथ्यात्वके निषेकोंका अभाव करके असंयतादि चार गुणस्थानवी वेदक सम्यग्दृष्टि होकर... नरक गतिमें प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि जीव अपने काल के अनन्तर समयको प्राप्त करके, मिश्रगुणस्थानवर्ती या सादि मिथ्यावृष्टि हो, मिश्र ब । मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयगत निषेकोंको हटाकर सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। कर्मभूमिज तिथंच और भोगभूमिज मनुष्य प्रथमोपशमको छोड़ और सादि मिथ्याष्टि तियं च मिथ्यात्वके उदयगत निषकों का अभाव करके सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे वेदक-सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं । भवनत्रिकसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्तके सादि मिथ्यादृष्टि देव करणत्रयको करके अथवा यथासम्भव सम्यरत प्रकृतिके द्वारा मिथ्यात्वको छोड़कर वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। (इस प्रकार ये सभी जीव वेदक सम्यग्दृष्टि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन IV उपशमादि सम्यग्दर्शन होकर तीर्थंकर प्रकृतिको बाँधने के योग्य हो जाते हैं, ऐसा यहाँ प्रकरण है। ) ( और भी दे. सम्यग्दर्शन/IV/२/८) ६. अनादि मिथ्यादृष्टिको सीधा प्राप्त नहीं होता प्र.११,६,१२१/७३/५ एइंदिएसु दीहद्धमवट्ठिदस्स उठवेल्लिदसम्मत्तसम्मामिच्छत्तस्स तदुप्पायणे संभवाभावा । = एकेन्द्रियोंमें दीर्घकाल तक रहनेवाले और उद्वलना को है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी जिसने ऐसे जीवके वेदक सम्यक्त्वका उत्पन्न कराना सम्भव नहीं है। (ध.१/१,६,२८८/१३६/६) दे. सम्यग्दर्शन/IV/२/६ में अन्तिम सन्दर्भ-[उपरोक्त प्रकारका जीव अनादिमिथ्यादृष्टि ही होता है।) ७. सम्यक्त्वसे च्युत होनेवाले बहुत कम हैं ध. ३/१,२,१४/१२०/४ वेदगसम्माइट्ठीणमसंखेज्जदिभागो मिच्छत्तं गच्छदि । तस्स वि असंखेज्ज दिभागो सम्मामिच्छत्तं गच्छदि । - वेदक सम्यग्दृष्टियोंका असंख्यातवाँ भाग मिथ्यात्वको प्राप्त होता है और उसका भी असंख्यातवाँ भाग सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है। ८. च्युत होनेके पश्चात् अन्तमुहर्तसे पहले सम्यक्त्व पुनः प्राप्त नहीं होता। क. पा. ३/३-२२/६३६२/१६६/४ संकिलेसादो ओयरिय विसोहीए अंतोमुहत्तावट्ठाणेण विणा सम्मत्तस्स गणाणुववत्तीदो। मिथ्यात्वमें आकर और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत संक्लेशसे च्युत होकर, विशुद्धिको प्राप्त करके, जब तक उस विशुद्धिके साथ जीव मिथ्यात्वमें अन्तर्मुहूर्त कालतक नहीं ठहरता, तबतक उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। ( विशेष दे. अन्तर/)। ९. ऊपरके गुणस्थानोंमें न होनेमें हेतु घ. १/१,१,१४६/३६७/७ उपरितनगुणेषु किमिति वेदकसयक्त्वं नास्तीति चेन्न, अगाढसमल श्रद्धानेन सह क्षपकोपशमश्रेण्यारोहणानुपपत्तेः । प्रश्न-ऊपरके आठवें आदि गुणस्थानों में वेदकसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता है ? उत्तर-नहीं होता, क्योंकि, अगाढ़ आदि मलसहित श्रद्धानके साथ क्षपक और उपशम श्रेणीका चढ़ना नहीं बनता है। १०. कृतकृत्य वेदक सम्बन्धी कुछ नियम ध. ६/१,६-८,१२/२६३/१ कदकर णिज्जकालभतरे मरणं पि होज्ज, काउ-तेउ-पम्म-सुक्क-लेस्साणमण्णदराए लेस्साए वि परिणामेज्ज, संकिलिस्सदु वा विसुज्झदु बा, तो वि असंखेज्जगुणाए सेडीए जाव समयाहियावलिया सेसा ताव असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा, उक्कस्सिया वि उदीरणा उदयस्स असं खेज्जदिभागो । कृतकृत्यवेदककाल के भीतर उसका मरण भी हो (विशेष दे, मरण/३/८); कापोत तेज पद्म और शुक्ल इन लेश्याओंमें से किसी एक लेश्याके द्वारा भी परिणमित हो; संक्लेश को प्राप्त हो; अथवा विशुद्धिको प्राप्त हो तो भी असंख्यातगुणित श्रेणी के द्वारा जब तक एक समय अधिक आवलीकाल शेष रहता है, तबतक असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा होती रहती है। उत्कृष्ट भी उदीरणा उदयके असंख्यातवें भाग होती है। ५. क्षायिक सम्यक्त्व निर्देश १. क्षायिक सम्यग्दर्शनका लक्षण पं. सं./प्रा /१/१६०-१६२ रवीणे दंसणमोहे जं सद्दणं सुणिम्मल होइ । तखाइयसम्मत्तं णिच्चं कम्मवत्रण हेउं । १६० वयणेहिं वि हेऊ हि य इंदियभय जणणगेहिं रूवेहिं । वीभच्छ-दुगुंछेहि य णे तेल्लोक्केण चालिज्जा ।१६१॥ एवं विउला बुद्री ण य विभयमेदि किंचि दट ठूणं । पठविए सम्मत्ते खइए जीवस्स लद्धीए।१२। दर्शनमोहनीय कर्मके सर्वथा क्षय हो जानेपर जो निर्मल श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। वह सम्यक्त्व नित्य है और कर्मोके क्षय करनेका कारण है ।१६। श्रद्धानको भ्रष्ट करनेवाले वचनोंसे, तर्कोसे, इन्द्रियों को भय उत्पन्न करनेवाले रूपोंसे तथा वीभरस और जुगुप्सित पदार्थासे भी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहा जाय वह त्रैलोक्यके द्वारा भी चल-विचल नहीं होता।१६१ क्षायिक सम्यक्त्वके प्रारम्भ होनेपर अथवा प्राप्ति या निष्ठापन होनेपर, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवके ऐसी विशाल, गम्भीर एवं दृढ़ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह कुछ (असम्भव या अनहोनी घटनाएँ) देखकर भी विस्मय या क्षोभको प्राप्त नहीं होता ।१६२। (ध. १/१,१४४/गा. २१३-२१४ ); गो. जी./मू./६४६-६४७/१०६६ ) । स, सि./२/४/१५४/११ पूर्वोक्तानां सप्तानां प्रकृतीनामत्यन्तक्षयारक्षायिक सम्यक्त्वम् । -पूर्वोक्त ( दर्शनमोहनीयकी) सात प्रकृतियों के अत्यन्त विनाशसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है । (रा. वा./२/४/७/१०६/११)। ल, सा./मू./१६४/२१७ सत्तण्णं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्त । मेरु व णिप्पकंप सुणिम्मलं अक्खयमणतं ।१६४= सात प्रकृतियों के क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है। वह मेरुकी भाँति निष्प्रकम्प, निर्मल व अक्षय अनन्त है। प्र. प./टो./१/६९/६९/९ शुदात्मादिपदार्थ विषये विपरीताभिनिवेशरहितः परिणामः क्षायिकसम्यक्त्वमिति भण्यते ।-शुद्ध आरमा आदि पदार्थोके विषयमें विपरीत अभिनिवेश रहित परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व कहा जाता है । (द्र. सं./टी./१४/४२/५) ध.१/१,१,१२/१७१/४ एदासिं सत्तण्हं पिरवसेसखएण खइयसम्माइट्ठी उच्चइ।...वइयसम्माइट्ठीण कयाइ वि मिच्छत्तं गच्छइ, ण कुणइ सदेहं पि. मिच्छत्तुभव । दट्ठूण णो विम्यं जायदि । - सात प्रकृतियों के सर्वथा विनाशसे जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।...क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता, किसी प्रकारके सन्देहको भी नहीं करता, और मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मयको भी प्राप्त नहीं होता है। २. क्षायिक सम्यक्त्वका स्वामित्व १. गति व पर्याप्तिकी अपेक्षा दे. सम्यग्दर्शन/IV/४/५/१-[ नरक गतिमें केवल प्रथम पृथिवीमें होता अन्य पृथिवियों में नहीं। वहाँ पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों के होता है। तियंच गतिमें तियंचोंको पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों को होता है, पर तियचिनियोंको सर्वथा नहीं। मनुष्य गतिमें मनुष्योंको पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों को होता है, मनुष्यनीके केवल पर्याप्तकको होता है। देवों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनोंको होता है, पर भवनत्रिक व सर्व ही देवियों के सर्वथा नहीं होता है। विशेष दे. वह-वह गति)। गो. क./जो./प्र./५५०/७४२/६ क्षायिक धर्मानारकभोगभूमितिर्यग्भोगकर्मभूमिमनुष्यवैमानिकेष्वेव पर्याप्त पर्याप्तेषु । क्षायिक सम्यग्दर्शन धर्मानरक अर्थात प्रथम पृथिवीमें, भोगभूमिज तिर्यचोंमें, कर्म व भूमिज मनुष्यों में तथा वैमानिक देवोंमें पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं ( विशेष दे, वह-बह गति )। २. प्रस्थापक व निष्ठापककी अपेक्षा ष, खं. ६/१,६.८/सूत्र १२/२४७ णिवओ पुण चतुसु वि गदीसु णिठ्ठवे दि ११२-दर्शनमोहकी क्षपणाका निष्ठापक तो चारों ही गतियों में उसका निष्ठापन करता है। [पर इसका प्रस्थापन मनुष्यगतिमें ही सम्भव है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन क. ग. गुप्त / ११ / ११०-११९/६३६ सणमोहनलागो कम्म भूमिजादो दुनियमा मनुसमदीए मिट्ठवगो चावि सव्यथ । १९० मिच्छतवेदोकम्मे हिदम्म सम्मले समाएगी लेस्साए ।११११. नियम कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ बोर मनुष्यगतिने वर्तमान जीव ही दर्शनमोहक प्रस्थापक (प्रारम्भ करनेवाला) होता है। किन्तु उसका निष्ठापक (पूर्ण करने बाता) चारों गतियोंमें होता है ।११०१ (पं. सं./प्रा./१/२०२) (ध. ६/१.१८१९ / गा. १७/२४५ ) (गो. जी./६४८/१०१८); (दे. हिच /२/५ में स. सि.). २. मिथ्यावेदनीयके सम्यनस्व प्रकृति में अपतित अर्थात संक्रमित कर देनेपर जन दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कहलाता है। दर्शनमोहको क्षपणाके प्रस्थापकको जघन्यतेजोलेश्या वर्तमान होना चाहिए। १११। स. सा./मू./११०-११२/१४६ दसम मोहममणापत्रो कम्मभूमिजो मधुसो |... ११० पिठाने विमानभोगामी पन्ने य किकरणो च वि गदी उपज जम्हा । १११| दर्शनमोहकी क्षपणका प्रस्थापक कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है । ११० । परन्तु उसका निष्ठापक तो ( अमामुष्की अपेक्षा) उसी स्थानमें बर्बाद जहाँ प्रारम्भ किया था ऐसी उस मनुष्यगतिमें (और भद्र विमानदासी देवों भोगभूमिज मनुष्यों व विचोंमें और धर्मा नामक प्रथम नरक पृथिवीमें भी होता है, क्योंकि मायुक कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरकर चारों ही गतियों में उत्पन्न होता है ।१११। गोक/- जो./५५०/०४४/११) ३. गुणस्थानोंकी अपेक्षा /९/१.९/१४५/३६६ सम्माट्ठी सम्माट्ठी अम इट्रिट्ठ-प्पहूडि जाब अजोगिकेवलि त्ति | १४५ ॥ - सामान्य से सम्यग्दृष्टि और विशेष क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यष्टि गुणस्थान से लेकर अयोनिकेपली गुणस्थान तक होते हैं । १४३० मो.क./जो.प्र./५५०/०२२/११ प्रस्थापकोऽयमसंयताविचतुभ्यमी मनुष्य एव । = प्रस्थापक तो असंयत से अप्रमत्त पर्यन्तके चार गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही होते हैं । गो.जी./जी.प्र./००४/१९४१२९ क्षायिकसम्य तु असंयतादि चतुर्गुणस्थानमनुष्याणां असंयत देशसं यतोपचार महावतमानुषीणां च कर्मनिवेदकसम्यष्टीनामेव... सप्तम कृति निरवदोष मे भवति । क्षायिक सम्यक् तो असंयतादि अप्रमत्त पर्यन्तके चार गुणस्थानव मनुष्योंके, तथा असंयत, देशसंयत और उपचार से महाबली मनुष्पनियों, कर्मभूमिज वेदक सम्महष्टियों के ही सात प्रकृतियोंका निरवदोष क्षय हो जानेपर होता है। दे. २/४ साम्यिष्टि चि संयतासंयत नहीं होते ३. तीर्थंकर आदिके सद्भाव युक्त क्षेत्र व कालमें ही प्रतिष्ठापना सम्भव है। ३७३ ME . . ६/९.१-८/ सूत्र १२/२४३ सनमोहनीय कम्मं खमेमहतो कम्हि आढवेदि, अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्दसु पण्णासम्मभूमिसु जहि जिणा केली तित्थयरा तम्हि आढवेदि |११| दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण करनेके लिए आरम्भ करता हुआ यह जीव कहाँ पर आरम्भ करता है बड़ाई द्वीप समुद्रोंमें स्थित परब्रह कर्मभूमियों में जहाँ जिस कालमें जिन केपची और तीर्थकर होते हैं उस कात आरम्भ करता है |११| घ. ६/१.६-८, ११/२४६/१ दुस्सम ( दुस्समदुस्सम ) - सुस्समासुरसमासुसमा सुसमा दुस्समः कालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणट्ठ 'जम्हि जिना' ति बयणं जहि काले जिया संभवति तहि चै अग्नकाले...हि केमतिणाषियो बगाए पटुवली होदि. सम्यग्दृष्टि अस्थि... तित्थयरपादमूले... अधवा चोहसपुव्वहरा... एाणं तिह पि पादमूले दंसणमोहवखवणं पठवेंति त्ति । - दुःषमा, (दुःषमादुःषमा), सुषमासुषमा, सुषमा, और सुषमादुःषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्य दर्शनमोहका क्षपण निषेध करनेके लिए (उपरोस सूत्र में ) 'जहाँ जिन होते हैं' यह वचन कहा गया है। जिस कालमें जिन सम्भव हैं उस ही काल में दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है, अन्य काल में नहीं। अर्थाद जिस का ज्ञान होते हैं, या तीर्थंकर के पादमूलमें, अथवा चतुर्दश पूर्वघर होते हैं, इन तीनों के पादहमें कर्मभूमिज मनुष्यवर्णनमोवी क्षणाका प्रारम्भक होता है । ल. सा. / मू/ ११०/ १४६ तिरथयरपायमूले के लिसूद केवली मूले । ११० । तीर्थकरके पादमूल में अपना केली या केवीके पादसमें ही ( कर्मभूमि मनुष्य दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है। ) गो.जी./जी.१.००४/११४२/१३ के तिमी पादोपान्ते सप्तप्रकृतिनिरवशेषक्षये भवति केवली और सफेमली इन दोनों में से किसी के श्रीपादमूल के निकट सात प्रकृतियोंका निरवशेषक्षय होनेपर होता है। - ४. वेदक सम्बव पूर्वक ही होता है रा.वा./२/२/०/१००/२१ सम्यग्दर्शनस्य हि आदिपशमिको भावस्ततः क्षायोपशमिकस्ततः क्षायिक इति । सम्यग्दर्शनमें निश्चय से पहले औपशमिक भाव होता है, फिर क्षायोपशमिक होता है और तत्पश्चात् क्षायिक होता है । गो.जी./जी.प./००४/१९४१/२३ सम्पष्टिको ही होता है। वेदकसम्यग्टण्टीनामेव... वेदक ५. क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत होते हैं पर अल्प २/१८/१०/२५६ संजदासंगदाणे समरथोमा लक्ष्यसम्मा विट्ठी ॥११ ६.२/१.९.१८/२०१६ कुदी असहिदसम्मादिट्ठीकम दुसभादोच तिरिक्लेशु सयसम्मलेन सह संजमासंजमो लब्भदि, तत्थ मोहवणाभावा संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्पादृष्टि जीव सबसे कम हैं | क्योंकि १. अणुव्रत सहित क्षायिक सम्यहष्टियों का होना अत्यन्त दुर्लभ है तथा २ तिर्यञ्चों में क्षायिक सम्यक्त्वके साथ संयमासंयम पाया नहीं जाता, क्योंकि, तियंचोंमें दर्शनमोहकी क्षपणाका अभाव है (विशेष दे, तिच/२) । 1 , म.पु./२४/१६३-१६५ ततः सम्यक्त्वशुद्धि च व्रतशुद्धिं च पुष्कलाम् । निष्कारणो भेजे परमानन्द १६ स तेथे गुरुमाराध्य सम्यग्दर्शननायकाला मुक्त कण्ठिकामिय निर्मताथ |१६|| परम आनन्दको धारण करते हुए भरतने शरीरानुरागसे रहित भगवान् वृषभदेव से सम्यग्दर्शनकी शुद्धि और अणुव्रतोंकी परम विशुद्धिको प्राप्त किया | १६३ भरतने गुरुदेवको आराधना करके, जिसमें सम्यग्दर्शनरूपी प्रधान मणि लगा हुआ है और जो मुषि लक्ष्मी के निर्मल कण्ठहारके समान जान पड़ती थी ऐसी गत बर शीलोंकी (५ अणुव्रत और सात शीलवत, इस प्रकार श्रावकके १२ तौंकी ) निर्मल माला धारण की ॥१६५॥ सम्यग्दर्शन क्रियाये/२० - सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन युक्त जीवको सम्यग्दृष्टि कहते हैं जो चारों गतियों में होने सम्भव हैं। दृष्टिकी विचित्रता के कारण इनका विचारण व चिन्तवन सांसारिक लोगों से कुछ विभिन्न प्रकारका होता है, जिसे साधारण जन नहीं समझ सकते। सांसारिक लोग जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दृष्टि माहा जगदकी ओर दौड़ते हैं और वह अन्तरंग जगी और माह्यपदार्थक संयोग आदिको भी कुछ विचित्र ही प्रकार से प्रह करता है। इसी कारण बाहर में रागी व भोगी रहता हुआ भी वह अन्तरंग विरागी व योगी बना रहता है। यद्यपि कषायोद्रेक बा काय आदि भी करता है पर विवेक ज्योति खुसी रहने के कारण नित्य उनके प्रति निन्दन गर्हण वर्तता है। इसी से उसके कषाय युक्त भाव भी ज्ञानमयी व निरास्रव कहे जाते हैं । ५ १ १ ** २ ३ * ४ सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश सम्यग्दृष्टिका लक्षण | अन्य अनेकों लक्षण वैराग्य, गुण, निःशंकितादि अंग आदिका निर्देश - सम्यष्टि /५/४ भय व संशय आदिके अभाव सम्बन्धी - ७ ८ आकांक्षा व रागके अभाव सम्बन्धी सम्यग्दृष्टिका सुख अन्यानका विधि निषेध एक पारिणामिक भावका आय * २ २ सम्यग्दृष्टिकी महिमाका निर्देश सम्यग्दृष्टि एकदेवाजिन कहलाते हैं उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं। वह रागी भी विरागी है। वह सदा निरास्त्रव व अबन्ध है । कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं । विषय सेवता हुआ भी वह असेवक है - दे. राग / ६ । उसके सब कार्य निर्जराके निमित्त हैं। निकित दे, राग / ६ | - दे, मोक्षमार्ग / २ / ४ । सम्यग्दृष्टि दो तीन ही होते हैं - दे, संख्या/२/७ । सम्यग्दृष्टिको शानी कहने की विवक्षा ज्ञानी । सिद्धान्त या आगमको भी कथंचित् सम्यग्दृष्टिव्यपदेश - दे. मुख/२/७ - दे. श्रद्धान / ३ | ५ अनुपयुक्त दशामें भी उसे निर्जरा होती है। ६ उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है। * सम्यग्दृष्टिका दी शान प्रमाण है सम्बन्दृष्टिका आत्मानुभव व उसकी - दे. जिन / ३ । - दे. राग /९/१,४। कर्म करता हुआ भी वह अकर्ता है - दे, चेतना / ३ । उसके कुध्यान भी कुगतिके कारण नहीं । वह वर्तमान दी मुक्त है। सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्ठिके पुण्य व धर्ममें अन्तर - दे. मिथ्यादृष्टि / ४ । सम्वष्टिको ही सच्ची भक्ति होती है। - दे. भक्ति / ११ दे. प्रमाण /२/५.४ । मत्यता । - अनुभव / ४२। उसका कुशास्त्र ज्ञान भी सम्यक् है - ये ज्ञान / IIT / २ / ९० । मरकर उच्चकुल आदिकमें ही जन्मता है। - दे. जन्म/३। ३७४ ३ उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय मानो ज्ञानमयीपने सम्बन्धी । शुद्धाशुद्धोपयोग दोनों युगपत् होते हैं। ३ ५ 8 १ २ * ३ १ १ सूचीपत्र उसकी भवधारणा की सीमा दे. सम्यग्दर्शन / I / ५ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - दे. उपयोग / 1I / ३ - राग/ई। राग व विराग सम्बन्धी सदा निरासाय व अबन्ध होने सम्बन्धी सर्व कार्यों निरा सम्बन्धी ज्ञान चेतना सम्बन्धी। कर्तापने व अपने सम्बन्धी अशुभ ध्यानों सम्बन्धी । -दे, चेतना / ३१ सम्यग्दृष्टिकी विशेषताएँ सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिध्यात्वके भेदको यथार्थ जानता है। सम्यग्दृष्टि स्वव पर दोनोंके सम्यक्त्वको जानता है - दे. सम्यग्दर्शन / I / ३ सम्यग्दृष्टिको पक्षपात नहीं होता है। वह नयको जानता है पर उसका पक्ष नहीं करता - ये नय/1/३/५ - दे. वाद । सम्यग्दृष्टि वाद नहीं करता जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है। मह पुण्यको हेय जानता है पर विषय वचनार्थ उसका सेवन करता है - पुण्य / २२ सम्यग्दृष्टि व मिध्यादृटिकी मियाओं व कर्म अपणा अन्तर अविरत सम्यग्दृष्टि अविरत सम्यग्दृष्टिका सामान्य लक्षण उसके परिणाम अथः प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं वह सर्वथा अती नहीं । उस गुणस्थान में सम्भव भाव वेधक सम्यग्दृष्टि क्षायोपशमिक शंका अपने दोषोंके प्रति निन्दभ गर्हण करना उसका स्वाभाविक है। अविरत सम्यग्दृष्टिके अन्य बाह्य चिह्न । इस गुणस्थान में मार्गणा जीवसमास आदि रूप २० प्ररूपणाएँ ४ - दे, करण / ४ । - दे. भाव / २ / ६ । भाव सम्बन्धी - दे. क्षयोपशम / २ | - वे सद इस गुणस्थान में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाग व अल्पबहुत्व रूप आठ मरूपणाएँ - दे, वह वह नाम । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दृष्टि * * सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम -दे. मार्गणा। इस गुणस्थानमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्त्व -दे. वह वह नाम। अविरत सम्यग्दृष्टि व दर्शन प्रतिमामें अन्तर -दे. दर्शन प्रतिमा। अविरत सम्यग्दृष्टि और पाक्षिक श्रावकमें कथंचित् समानता -दे. श्रावक/३ । पुनः पुनः यह गुणस्थान प्राप्तिकी सीमा -दे. सम्यग्दर्शन/I/१/७॥ असंयत सम्यग्दृष्टि वन्ध नहीं -दे, विनय/४ । अविरत भी वह भोक्षमार्गी है -दे. सम्यग्दर्शन/I10 * १. सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश १. सम्यग्दृष्टिका लक्षण मो. पा./मू./१४ सद्दव्बरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ सो साहू। सम्मत्तपरिणदो उण ख वेह दुठ्ठठकम्माई।१४। - जो साधु अपनी आत्मामें रत है अर्थात रुचि सहित हैं वे सम्यग्दृष्टि है। सम्यक्त्व भावसे युक्त होते हुए वे दुष्ट अष्ट कोका क्षय करते हैं । (भा. वा././३१) प.प्र./मू./१/७६ अप्पि अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिवि हवेह । सम्माइट्ठिा जीवडउ लहु कम्मई मुच्चेइ १७६। अपनेको अपनेसे जानता हुआ यह जीव सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यग्दृष्टि होता हुआ शीघ्र ही कर्मोंसे छूट जाता है। दे. सम्यग्दर्शन/II/१/१/६ [ सूत्र प्रगीत जीव अजीव आदि पदार्थों को हेय व उपादेय बुद्धिसे जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है। ] दे. नियति/१/२ [ जो जन जहाँ जैसे होना होता है वह तब तहाँ ते से ही होता है, इस प्रकार जो मानता है यह सम्यग्दृष्टि है। दे. सम्यग्दृष्टि/(वैराग्य भक्ति आत्मनिन्दन युक्त होता) २. सिद्धान्त या आगमको भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश ध, १३/५.१,५०/११ सभ्यरहश्यन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्थाः ' अनया इति सम्यग्दृष्टिः श्रुतिः सम्यग्दृश्यन्ते अनया जीवादयः पदार्थाः इति सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दृष्टयविनाभाववद्वा सम्यग्दृष्टिः । - इसके द्वारा जीवादि पदार्थ सम्यक् प्रकारसे देखे जाते हैं अर्थात जाने जाते हैं, इसलिए इस (सिद्धान्त) का नाम सम्यग्दृष्टि या श्रुति है । इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकारसे देखे जाते है अर्थात श्रद्धान किये जाते हैं इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुतिका अविनाभात्र होनेसे उसका नाम सम्यग्दृष्टि है २. सम्यग्दृष्टिकी महिमाका निर्देश २. सम्यग्दृष्टिकी महिमाका निर्देश १. उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं स. सा./मू./१२८ णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायए भावो । जम्हा तम्हा णाणिस्स सब्वे भावाहुणाणमया। क्यों कि ज्ञानमय भावों मेंसे ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होते हैं, इसलिए ज्ञानियों के समस्त भाव वास्तबमें ज्ञानमय ही होते हैं । १२८ (स.सा./आ./१२८/क.६७); पं.ध./उ./२३१ यस्माज्ज्ञानमया भावा ज्ञानिना ज्ञान निवृताः। अज्ञानमयभावानां नाबकाशः सुदृष्टिषु ।२३१। -क्योंकि ज्ञानियों के सर्वभाव ज्ञानमयी होते हैं, इसलिए सम्यग्दृष्टियों में अज्ञानमयी भाव अवकाश नहीं पाते। २. वह सदा निरास्रव व अबन्ध है स, सा.मू./१०७ चउविह अणेयभेहं बंधते णाणदसणगुणे हिं। समए समए जम्हा तेण अबंधोत्ति णाणी दू । क्यों कि चार प्रकारके द्रव्याखव ज्ञानदर्शन गुणों के द्वारा समय-समय पर अनेक प्रकारका कर्म बाँधते हैं, इसलिए ज्ञानी तो अबन्ध है। (विशेष दे, सम्यग्दृष्टि/३/२) ३. कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं स. सा./मू./१६६, २१८ जह मज्ज पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दब्बुवभोगे अरदो णाणी विण बज्झदि तहेव ।१६६ गाणी रागप्पजहो सव्वदन्वेसु कम्ममझगदो। णे लिप्पदि रजएण दु कद्दममझे जहां कणयं ॥२१८० -१जैसे कोई पुरुष मदिराको अरति भावसे पीता हुआ मतवाला नहीं होता, इसी प्रकार ज्ञानी भी द्रव्यके उपभोगके प्रति अरत वर्तता हुआ अन्धको प्राप्त नहीं होता ।११६। २. ज्ञानी जो कि सर्व द्रव्यों के प्रति रागको छोड़नेवाला है, वह कर्मोके मध्यमें रहा हुआ हो तो भी कम रूपी रजसे लिप्त नहीं होता-जैसे सोना कीचड़के बीच पड़ा हुआ हो तो भी लिप्त नहीं होता ।२१८ भा पा./मू./१५४ जह सलिलेण ण लिप्पा कमलिणिपत्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पह कसायविस एहिं सप्पुरिसो।१५४। - जिस प्रकार जल में रहता हुआ भी कमलिनीपत्र अपने स्वभावसे ही जलसे लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष क्रोधादि कषाय और इन्द्रियोंके विषयों में संलग्न भी अपने भावोंसे उनके साथ लिप्त नहीं होता। यो. सा /अ./४/१६ ज्ञानी विषयसंगेऽपि विषयैनैव लिप्यते । कनके मलमध्येऽपि न मलै रुपलिप्यते ।१६। -जिस प्रकार स्वर्ण कीचड़के बीच रहता हुआ भी कीचड़से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी विषय भोग करता हुआ भी विषयों में लिप्त नहीं होता।१६ भा. पा./टी./१५२/२६६ पर उद्धृत-धात्री बालाऽसतीनाथपद्मिनीदलधारिषत् । दग्धरज्जुबदाभासं भुजम् राज्यं न पापभाक् ।। -जिस प्रकार पतिव्रता नहीं है ऐसी युवती धाम अपने पतिके साथ दिखावटी सम्बन्ध रखती है, जिस प्रकार कमलका पत्ता पानीके साथ दिखावटी सम्बन्ध रखता है. और जिस प्रकार जली हुई रज्जू मात्र देखने में ही रज्जू है, उसी प्रकार ज्ञानी राज्यको भोगता हुआ भी पापका भागी नहीं होता। ६.पा./टी./७/७/८ सम्यग्दृष्टेर्लग्नमपि पापं बन्ध न याति कौरघटस्थित रज इब नबन्ध याति । जिस प्रकार कोरे घड़ेपर पड़ी हुई रज उसके साथ बन्धको प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार पापके साथ लग्न भी सभ्यग्दृष्टि बन्धको प्राप्त नहीं होता। १. उसके सर्व कार्य निर्जराके निमित्त हैं स. सा./स./१६३ उबभोगमि दियेहि दवाणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिछी तं सव्व णिज्जर णिमित्तं ।१६३ - सम्यग्दृष्टि जैनेन्द्र सिदान्त कोश Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दाष्ट ३. उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय जीव जो इन्द्रियों के द्वारा अचेतन तथा चेतन द्रव्योंका उपभोग करताप.ध./उ./२३२ वैराग्यं परमोपेक्षाज्ञानं स्वानुभवः स्वयम् । तद्वयं है वह सर्व उसके लिए निर्जराका निमित्त है। शानिनो लक्ष्म जीवन्मुक्तः स एव च ।२३२।-परमोपेक्षारूप वैराग्य ज्ञा./३२/३८ अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिनः केन वर्यते। अज्ञानी बध्यते और आत्मप्रत्यक्ष रूप स्वसंवेद ज्ञान ही ज्ञानीके लक्षण हैं। जिसके ये यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते ।३८। -अहो, देखो ज्ञानी पुरुषों के इस दोनों होते हैं, वह ज्ञानी जीवन्मुक्त है। अलौकिक चारित्रका कौन वर्णन कर सकता है। जहाँ अज्ञानी अन्धको प्राप्त होता है, उसी आचरणसे ज्ञानी कर्मोंसे छूट जाता ३. उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय है।३८। (यो, सा./अ./६/१८) पं.ध./उ./२३० आस्ता न बन्धहेतुः स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा क्रिया। . भावाम ज्ञानमयापन सम्बन्धी चित्रं यत्पूर्व मद्धानां निर्जरायै च कर्मणाम् ।२३०। - ज्ञानियोंकी स. सा./पं. जयचन्द/१२८ ज्ञानीके सर्वभाव ज्ञान जातिका उल्लंघन न कर्मसे उत्पन्न होनेवाली क्रिया बन्धका कारण नहीं होती है, यह बात करनेसे ज्ञानमयी हैं। तो दूर रही, परन्तु आश्चर्य तो यह है कि उनकी जो भी क्रिया है वह सब पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जराके लिए ही कारण होती है ।२३०॥ २. सदा निरास्त्रव व अबन्ध होने सम्बन्धी ५. अनुपयुक्त दशामें भी उसे निर्जरा होती है स. सा./मू./१७७-१७८ रागो दोसो मोहो य आसवा णस्थि सम्मदि ठिस्स । तम्हा आसवभावेण बिणा हेदू ण पञ्चया होति ।१७७१ हेदू पं.ध./उ./८७८ आत्मन्येवोपयोग्यस्तु ज्ञानं वा स्यात परात्मनि । सत्सु चदुबियप्पो अठवियप्पस्स कारणं भणिदं । तेसि पि य रागादी सम्यक्त्वभावेषु सन्ति ते निर्जरादयः । =ज्ञान चाहे आत्मामें उपयुक्त तेसिमभावे ण बज्झति ।१७८-राग, द्वेष और मोह ये आस्रव हो अथवा कदाचित् परपदार्थों में उपयुक्त हो परन्तु सम्यक्त्व भावके सम्यग्दृष्टि के नहीं होते, इसलिए आसत्रभावके बिना द्रव्यप्रत्यय कर्महोनेपर वे निर्जरादिक अवश्य होते हैं।८७८॥ मन्धके कारण नहीं होते ।१७७१ मिथ्यात्व अविरति प्रमाद और ६. उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है कषाय ये चार प्रकारके हेतु, आठ प्रकारके कर्मोके कारण कहे गये है,' और उनके भी कारण रागादि भाव हैं। इसलिए उनके अभाव में पं. ध./उ./२७५ अस्ति तस्यापि सदृष्टेः कस्यचित्कर्म चेतना। अपि ज्ञानीको कर्म नहीं बँधते ॥१७॥ कर्मफले सा स्यादर्थतो ज्ञानचेतना।२७। - यद्यपि जघन्य भूमिकामें इ. उ./४४ अगच्छस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते। अज्ञाततद्विशेषस्तु किसी-किसी सम्यग्दृष्टिके कर्मचेतना और कर्मफलचेतना भी होती बध्यते न विमुच्यते ।४४।-स्वात्मतत्त्व में निष्ठ योगीकी जब पर है, पर वास्तव में वह ज्ञानचेतना ही है। पदार्थोसे निवृत्ति होती है, तब उनके अच्छे बुरे आदि विकल्पोंका उसे ७. उसके कुध्यान भी कुगतिके कारण नहीं अनुभव नहीं होता। तब वह योगी कमोसे भी नहीं बंधता, किन्तु कर्मोंसे छूटता ही है। द्र, स/टी./४८/२०१/३ चतुर्विधमार्तध्यानम् ।...यद्यपि मिथ्यादृष्टीनां स.सा./आ./१७०-१७१ ज्ञानी हि तावदासब-भावभावनाभिप्रायाभावान्नितिर्यग्गतिकारणं भवति तथापि बद्घायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनों न- रानव एव । यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्ययाः प्रतिसमयमनेकप्रकार पुदगलभवति ।...रौद्रध्यान...तच मिथ्यादृष्टीना मरकगतिकारणमपि । कर्म बध्नन्ति तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एव हेतुः ।१७०।...तस्यान्तर्मुहूर्तबधायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीना तत्कारणं न भवति ।-चार प्रकार विपरिणामित्वात पुनः पुनरन्यतमोऽस्ति परिणामः । स तु यथास्यातका आतध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवोंको तिर्यंचगतिका कारण होता चारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात बन्धहेतुरेव स्यात है तथापि बधायुष्कको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियोंको वह तियंच ।१७१। - ज्ञानी तो आस्वभावकी भावनाके अभिप्रायके अभावके गतिका कारण नहीं होता है । ( इसी प्रकार ) रौद्रध्यान भी मिथ्या- कारण निराखब ही है परन्तु जो उसे भी द्रव्यप्रत्यय प्रति दृष्टियोंको नरकगतिका कारण होता है, परन्तु बधायुष्कको छोड़कर समय अनेक प्रकारका पुद्गलकर्म माँधते हैं, वहाँ क्षायोपशमिक अन्य सम्यग्दृष्टियौंको वह नरकका कारण नहीं होता है। ज्ञानका परिणमन ही कारण है ।१७०। क्योंकि वह अन्तर्मुहूर्त८. वह वर्तमानमें ही मुक्त है परिणामी है। इसलिए यथाख्यात चारित्रअवस्थासे पहले उसे अवश्य स. सा./आ./३१८/क. १६८ ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म, जानाति ही रागभावका सद्भाव होनेसे, वह ज्ञान मन्धका कारण ही है। केवल मयं किल तत्स्वभावम्। जानन्परं करणवेदनयोरभावा स. सा/आ./१७२/क/११६ संन्यसन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं राग समनं स्वयं, च्छाधस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ।१६८-ज्ञानी कर्मको न तो वारंबारमबुद्धिपूर्वमपि ते जेतुं स्वशक्ति स्पृशन् । उच्छिन्दन्परवृकरता है और न भोगता है, वह कर्म के स्वभावको मात्र जानता ही त्तिमेव सकलो ज्ञानस्य पूर्णाभवन्नात्मा नित्यनिरास्त्रवो भवति हि है। इसप्रकार मात्र जानता हुआ करने और भोगनेके अभावके कारण, ज्ञानी यदा स्यात्तदा ।११६।-आत्मा जब ज्ञानी होता है, तम स्वयं शुद्ध स्वभावमें निश्चल ऐसा वह वास्तबमें मुक्त है। अपने समस्त बुद्धिपूर्वक रागको निरन्तर छोड़ता हुआ अर्थात् न ज्ञा./६/५७ मन्ये मुक्तः स पुण्यात्मा विशुद्ध यस्य दर्शनम् । यतस्तदेव करता हुआ, और जो अबुद्धिपूर्वक राग है उसे भी जीतनेके लिए मुक्त्यङ्गमग्रिमं परिकीर्तितम् ।५७१-- जिसको विशुद्ध सम्यग्दर्शन पारम्बार (ज्ञानानुभव रूप) स्वशक्तिको स्पर्श करता हुआ, और प्राप्त हुआ है वह पुण्यात्मा मुक्त है ऐसा मैं मानता हूँ। क्योंकि, (इस प्रकार ) समस्त प्रवृत्तिको-परपरिणतिको उखाड़ता हुआ, सम्यग्दर्शन ही मोक्षका मुख्य अंग कहा गया है। ज्ञानके पूर्ण भावरूप होता हुआ, वास्तबमें सदा निरालय है। नि. सा./ता. वृ./६९/क.८१ इत्थं बुवा परमसमिति मुक्तिकान्तासखी स. सा./आ.९७३-१७६ ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वमद्धाः सन्ति, यो, मुक्त्वा सङ्ग भवभयकर हेमरामात्मकं च । स्थित्वाऽपूर्व सहज- सन्तुः तथापि स तु निरासन एव, कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपविल सच्चिच्चमत्कारमात्रे, भेदाभावे समयति च यः सर्वदा मुक्त स्यात्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामबन्धहेतुरवात ।-ज्ञानीके यदि एव।८१४-इस प्रकार मुक्तिकान्ताकी सखी परम समितिको जानकर पूर्वमत द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं। तो भले रहें; तथापि वह तो जो जीव भवभपके करनेवाले कंचनकामिनीके संगको छोड़कर, अपूर्व निरासब ही है। क्योंकि, कर्मोदयका कार्य जो रागद्वेषमोहरूप सहज विलसते अभेद चैतन्य चमत्कार मात्र स्थित रहकर सम्यक आस्रवभाव है उसके अभावमें द्रव्य प्रत्यय बन्धका कारण नहीं है। 'इति' करते हैं अर्थात् सम्यक् रूपसे परिणमित होते हैं वे सर्वदा स.सा./ता. वृ./१७२/२३६/4 यथारख्यातचारित्राधस्तादम्तमहानन्तरं मुक्त ही हैं। निर्विकल्पसमाधौ स्थातुं न शक्यत इति भणितं पूर्व। एवं सति कथं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दृष्टि ३७७ ४. सम्यग्दृष्टिकी विशेषताएं ज्ञानी निराखब इति चेद, ज्ञानी तावदीहापूर्वरागादिविकल्पकरणाभावान्निराखब एव । किं तु सोऽपि यावत्काल परमसमाधेर नुष्ठानाभावे सति शुद्धात्मस्वरूपं द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वासमर्थः तावत्काल तस्यापि संबन्धि यद्दशनं ज्ञानं चारित्रं तज्जघन्यभावेन सकषायभावेन अनोहितवृत्त्या परिणमति, तेन कारणेन स तु भेदज्ञानी...विविधपुण्यकर्मणा बध्यते । प्रश्न-यथारख्यात चारित्रसे पहले अन्तमुहर्त के अनन्तर निर्विकल्प समाधिमें स्थित रहना शक्य नहीं है, ऐसा पहले कहा गया है। ऐसा होनेपर ज्ञानी निरालव कैसे हो सकता है। उत्तर-१. ज्ञानी क्योंकि ईहा पूर्वक अर्थात् अभिप्रायपूर्वक रागादि विकल्प नहीं करता है, इसलिए वह निरास्रव ही है। (अन, ध.144 ४/७३३) २. किन्तु जबतक परमसमाधिके अनुष्ठानके अभावमें वह भी शुद्धात्मस्वरूपको देखने-जानने व आचरण करने में असमर्थ रहता है, तब तक उसके भी तत्सम्बन्धी जो दर्शन ज्ञान चारित्र हैं वे जघन्यभावसे अर्थात कषायभावसे अनीहितवृत्तिसे स्वयं परिणमते हैं। उसके कारण वह भेदज्ञानी भी विविध प्रकारके पुण्यकर्मसे बंधता है। दे.उपयोग/11/३ [जितने अंशमें उसे राग है उतने अंशमें आस्रव व बन्ध है और जितने अंशमें रागका अभाव है, उतने अंशमें निरास्रव व अबन्ध है। ३. सर्व कार्यों में निर्जरा सम्बन्धी स. सा./म./१४४ दवे उवभंजते णियमा जायदि सुहेच दुवं बा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि १६४ा-वस्तु भोगने में आनेपर सुख अथवा दुःख नियमसे उत्पन्न होता है। उदयको प्राप्त उस सुखदुःखका अनुभव करता है तत्पश्चात वह (मुख-दुखरूपभाव) निर्जराको प्राप्त होता है। (इस प्रकार भाव निर्जराकी अपेक्षा समाधान है ) ।१६४॥ स. सा./आ./१६६-१६५ रागादिभावान सद्भावेन मिध्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बन्धनिमित्तमेव स्याव। स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेनिर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदयति ।१९३॥ अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति । स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टेः रागादिभावानां सद्भावेन बन्धनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोपजीर्णः सत् बन्ध एव स्यात् । सम्यग्दृष्टस्तु रागादिभावानामभावेन बन्धनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्ण: सन्निजर व स्यात् १६४-रागादि भावोंके सद्भावसे मिथ्यादृष्टिके जो अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग बन्धका निमित्त होता है। वही रागादिभावोंके अभावके कारण सम्यग्दृष्टि के लिए निर्जराका निमित्त होता है । इस प्रकार द्रव्य निर्जराका स्वरूप कहा ।१३। अम भाव निर्जराका स्वरूप कहते हैं-जब उस ( कर्मोदयजन्य सुखरूप अथवा दुःखरूप ) भावका वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टिको, रागादिभावोंके सद्भाबसे (नवीन ) बन्धका निमित्त होकर निर्जराको प्राप्त होता हुआ भी, निर्जरित न होता हुआ बन्ध ही होता है। किन्तु सम्यग्दृष्टिके रागादिभावोंके अभावसे बन्धका निमित्त हुए बिना केवल मात्र निर्जरित होनेसे, निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है ।१६४। स, सा./ता. वृ./११३/२६७/१४ अत्राह शिष्यः-रागद्वेषमोहाभावे सति निर्जराकारणं भणितं सम्यग्दृष्टस्तु रागादयः सन्ति, ततः कर्थ निर्जराकारणं भवतीति । अस्मिन्पूर्व पक्षे परिहारः-अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यादृष्टेग्रहण, यस्तु चतुर्थ गुणस्थानवतिसरागसम्यग्दृष्टयस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणं, तत्र तु परिहारः पूर्वमेव भणितः। कथमिति चेत् । मिथ्यादृष्टेः सकाशादसंयतसम्यग्दृष्टेः अनन्तानुबन्चिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वोदयजनिताः, श्रावकस्य च प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभोदयजनिता रागादयो न सन्तीत्यादि। किंच सम्यग्दृष्टेः संवरपूर्विका निर्जरा भवति, मिथ्यादृष्टेस्तु गजस्नानवत् बन्धपूर्षिका भवति । तेन कारणेन मिथ्यादृष्टयपेक्षया सम्यग्दृष्टिरबन्धक इति। एवं द्रव्यनिर्जराव्याख्यानरूपेण गाथा गता। -प्रश्न-राग-द्वेष व मोहका अभाव होनेपर भोग आदि निर्जराके कारण कहे गये हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टिके तो रागादि होते हैं, इसलिए उसे वे निर्जराके कारण कैसे हो सकते हैं ? उत्तर-१. इस घन्थमें वस्तु वृत्तिसे वीतराग सम्यग्दृष्टिका ग्रहण किया गया है, जो चौथै गुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टि है उसका गौण वृत्तिसे ग्रहण किया गया है । २. सराग सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी समाधान पहले ही दे दिया गया है । वह ऐसे कि मिथ्यादृष्टिको अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टिको अनन्तानुबन्धी चतुष्क और मिथ्यात्वोदयजन्य रागादिक तथा श्रावकको अप्रत्याख्यान चतुष्क जनित रागादि नहीं होते हैं । ३. सम्यग्दृष्टिकी निजरा संवरपूर्वक होती है और मिथ्यादृष्टिकी गजस्नानवत् बन्धपूर्वक होती है। इस कारण मिथ्याष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अबन्धक है। इस प्रकार द्रव्यनिर्जराके व्याख्यानरूप गाथा कही। ४. [ सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहोदयके वशीभूत होकर अरुचि पूर्वक सुख-दुःख आदिक अनुभव करता है और मिथ्यादृष्टि उपादेय बुद्धिसे करता है। इसलिए सन्यग्दृष्टिको भोगोंका भोगना निर्जराका निमित्त है । इस प्रकार भाव निर्जराकी अपेक्षा व्याख्यान जानना । ( दे. राग./६/६)] ४. ज्ञान चेतना-सम्बन्धी पं.ध./उ. २७६ चेतनायाः फलं बन्धस्तत्फले वाऽथ कर्मणि । रागाभावान्न बन्धोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना ।२७६। -कर्म व कर्मफलरूप चेतनाका फल कर्म बन्ध है, पर सम्यग्दृष्टिको रागका अभाव होनेसे मन्ध नहीं होता है, इसलिए उसकी वह कर्म व कर्मफल चेतना ज्ञानचेतना है ।२७६। ५, अशुभ ध्यानों सम्बन्धी इ. स./टी./४८/२०१/५ कस्मादिति चेत्-स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनाबलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति ।। प्रश्नआर्तध्यान सम्यग्दृष्टिको मिथ्याष्टिकी भाँति तिर्यच गतिका कारण कयों नहीं होता उत्तर-सम्यग्दृष्टि जीवों के 'निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है। ऐसी भावनाके कारण तियंचगतिका कारण रूप संक्लेश नहीं होता। [यही उत्तर रौद्रध्यानके लिए भी दिया गया है। ४. सम्यग्दृष्टिकी विशेषताएँ १. सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्वके भेदको यथार्थतः जानता है स.सा./पं. जयचन्द./२००/क. १३७ सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यालय सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं होता। ऐसे अन्तरको सम्यग्दृष्टि ही जानता है। पहले तो मिथ्यावृष्टिका आत्म शास्त्र में प्रवेश ही नहीं है, और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है--शुभभावको सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा अशुभभावों में प्रवर्तता है, अथवा निश्चयको भली भाँति जाने बिना व्यवहारसे हो ( शुभभावसे ही) मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्वमें मूढ़ रहता है। यदि कोई मिरला जीव स्याद्वाद न्यायसे सत्यार्थ को समझते तो उसे अवश्य ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है। २. सम्यग्दृष्टिको पक्षपात नहीं होता स्या, म./मू. श्लो. ३०/३३४ अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः। नयानशेषान विशेषमिच्छर न पक्षपाती समयस्तथा ते ।३० - आत्मवादी लोग परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भा०४-४८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दृष्टि ३७८ ५. अविरत सम्यग्दृष्टि निर्देश भाव रखने के कारण एक दूसरेसे ईर्ष्या करते हैं, परन्तु सम्पूर्ण नयौंको एक समान देखने वाले (दे. अनेकान्त/२) आपके शास्त्रों में पक्षपात नहीं है। ३. जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है मो.पा./मू./३१ जो सुत्तो बबहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे 1३१! -जो योगी व्यवहारमें सोता है वह अपने स्वरूपके कार्य में जागता है। और व्यवहारमें जागता है, वह अपने कार्य में सोता है।३१। ( स. श./७८) प. प्र./मू./२/४६ जा णिसि सयलहँ देहिय जोग्गिउ तहिं जग्गेइ । जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ४६ -जो सब संसारी जीवोंकी रात है. उसमें परम तपस्वी जागता है, और जिसमें सब संसारी जीव जाग रहे हैं, उस दशाको योगी रात मानकर योग निद्रामें सोता है। (ज्ञा./१०/३७ ) कषायका घटना चारित्रका अंश है...सर्वत्र असंयमकी समानता न जानना। ३. अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है का, अ./स./४ विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो जिंदण-गरहाहिसंजुत्तो। - सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशम भावसे युक्त, तथा अपनी निन्दा और गर्दा करनेवाले विरले जन हो पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं। प्र.सं./टी./१३/३३/8 निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियमुखादिपरद्रव्य हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधक भावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारण निमित्तं तलवरगृहीततस्करवदात्म निन्दासहितः सन्निन्द्रियमुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेल क्षणम । -निज परमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं, इसप्रकार सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय, व्यवहारको साध्य साधक भावसे मानता है, परन्तु भूमिकी रेखाके समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषायके उदयसे, मारनेके लिए कोतवालसे पकड़े हुए चोरकी भाँति आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवी है । (सा.ध./१/१३) पं.ध./3/४२७ दृङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्धः प्रशमो गुणः। तत्राभिव्याकं बाह्यान्निन्दनं चापि गहणम् ।४७२।-दर्शनमोहनीयके उदयके अभावसे प्रशम गुण उत्पन्न होता है और प्रशमके बाह्यरूप अभिव्यंजक निन्दा तथा गहीं ये दोनों होते हैं ।४७२। का. अ./पं. जयचन्द/३६१ इसके असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों में हिंसा होती है। तो भी मारनेका अभिमत नहीं है, कार्यका अभिप्राय है। वहाँ घात होता है, उसके लिए अपनी निन्दा गर्दा करता है। इसके त्रस हिंसा न करने के पक्ष मात्रसे पाक्षिक कहलाता है। यह अपत्याख्यानावरण कषायके मन्द परिणाम है, इसलिए अवती ही है। ५. अविरत सम्यग्दृष्टि निर्देश १. अविरति सम्यग्दृष्टिका सामान्य लक्षण पं. सं./प्रा./११ णो इं दियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सहहा जिणुतं सम्माइट्ठी अविरदो सो।११। जो पाँचों इन्द्रियों के विषयोंसे विरत नहीं है और न स तथा स्थावर जीवोंके घातसे ही विरक्त है, किन्तु केवल जिनोक्त तत्त्वका श्रद्धान करता है, वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि है ।१९। (ध. १/१,१,१२/गा. १९९/ १७३); (गो.जी./मू./२६/५), (और भी दे. असंयम) रा. वा./१/१/१५/५८६/२६ औपशामिकेन क्षायोपश मिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन समन्वितः चारित्रमोहोदयात अत्यन्तमविरतिपरिणामप्रवणोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरिति व्यपदिश्यते। -औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीनों में से किसी भी सम्यनरबसे समन्धित तथा चारित्रमोहके उदयसे जिसके परिणाम अत्यन्त अविरतिरूप रहते हैं, उसको 'असंयत सम्यग्दृष्टि' ऐसा कहा जाता है। घ. १/१,१.१२/१७१/१ समीचीनदृष्टिः श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टिः, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयतसम्यग्दष्टिः । सो वि सम्माइट्ठी तिविहो, वइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उसमसम्माइट्ठी चेदि। - जिसकी दृष्टि अर्थात श्रद्धा समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं, और संयम रहित [अर्थात इन्द्रिय भोग व जीव हिंसासे विरक्त न होना (दे. असंयम)] सम्यग्दृष्टिको असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं । वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकारके हैक्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और औपशमिक सम्यग्दृष्टि । २. अवत सम्यग्दृष्टि सर्वथा अग्रती नहीं थे. श्रावक/३/४ [ यद्यपि व्रतरूपसे कुछ भी अंगीकार नहीं करता, पर कुलाचाररूपसे अष्टमूलगुण धारण, स्थूल अणुबत पालन,स्थूल रूपेण रात्रि भोजन व सप्तव्यसन त्याग अवश्य करता है। क्योंकि ये सब क्रियाएँ व्रत न कहलाकर केवल कुल क्रिया कहलाती हैं, इसलिए वह अवती या असंयत कहलाता है। ये क्रियाएँ वती व अवती दोनोंको होती हैं । व्रतीको नियम बत रूपसे और अवतीको कुलाचार रूपसे ।] वे, सम्यग्दर्शन/U/१/4 [निश्चय सम्यक्त्व युक्त होनेपर भी चारित्र मोहोदयबेश उसे आत्मध्यानमें स्थिरता नहीं है तथा व्रत व प्रतिज्ञाएँ भंग भी हो जाती हैं, इसलिए असंयत कहा जाता है।] मो.मा.प्र./६/४६६/२२ कषायनिके असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं। तिनिविध सर्वत्र पूर्व स्थानतें उत्तरस्थानविर्षे मन्दता पाइए है ।... आदिके बहुत स्थान तौ असंयमरूप कहे, पीछे केतेक वेश संयमरूप कहे ।...तिनिविर्षे प्रथम गुणस्थानतें लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जे कषायके स्थान हो हैं, ते सर्व असंयम ही के हो है।...परमार्थत ४ अविरत सम्यग्दृष्टिके भन्य बाह्य चिह्न का. अ./मू./३१३-३२४ जो ण या कुब्व दि गवं पुत्तकलत्ताइसव्वअस्थेसु । उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमेत ३१३। उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो । ३१५। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सम्बपज्जाए । सो सहिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुदिट्ठी ।३२३। जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सहहणं । जंजिणवरेहि भणियं तं सबमहं समिच्छामि ।३२४।- वह सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों में गर्व नहीं करता, उपशमभावको भाता है और अपनेको तृणसमान मानता है ।३१३। जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओंको विनय करता है, तथा साधर्मी जनों से अनुराग करता है, वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।३१। इस प्रकार जो निश्चयसे सब द्रव्यों को और सम पर्यायोको जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्व में शंका करता है, वह मिथ्या'दृष्टि है ।३२३। जो तत्वों को नहीं जानता किन्तु जिनवचन में श्रद्धान करता है । दे. सम्यग्दर्शन/11१/२,३] कि जिनवर भगवान ने जो कुछ कहा है, वह सब मुझे पसन्द है । वह भी श्रद्धावान् है ।३२४॥ दे. सम्यग्दर्शन/I1/१ (देव, गुरु, धर्म, तत्त्व ब पदार्थों आदिकी श्रद्धा करता है, आत्मस्वभावकी रुचि रखता है।) दे, सम्यग्दर्शन/I/२ (निशंकितादि आठ अंगों को व प्रशम संवेग अनुकम्पा आस्तिक्य आदि गुणों को धारण करता है।) दे. सम्यग्दृष्टि/२. [सम्यग्दृष्टिको राग द्वेष व मोहका अभाव है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयोग केवली ३७९ 'सर्वतोभद्र व्रत द्र. सं./टी./४/१६४/१० शुद्धात्मभावनोत्पन्न निविकारबास्तवमुखामृत- मुपादेयं कृत्वा संसारशरीरभोगेषु योऽसौ हेयबुद्धिः सम्यग्दर्शनशुद्धः स चतुर्थ गुणस्थानी व्रतरहितो दर्शनिको भण्यते । - शुद्धात्म भावनासे उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृतको उपादेय करके संसार शरीर और भोगोंमें जो हेय बुद्धि है वह सम्यग्दर्शनसे शुद्ध चतुर्थगुणस्थानवाला बतरहित दर्शनिक है। (दे. सम्यग्दृष्टि/५-२); (और भी दे. राग/६)। पंध./३.१२६१,२७१ उपेक्षा सर्वभोगेषु सदृष्टेष्टरोगवत् । अवश्य तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गजः ॥२६॥ इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिनिजात्मक् । वैषयिके मुखे ज्ञाने राग-द्वेषौ परित्यजेत् ।३७१। -सम्यग्दृष्टिको सर्व प्रकारके भोगों में प्रत्यक्ष रोगकी तरह अरुचि होती है, क्योंकि, उस सम्यक्त्वरूप अवस्थाका, विषयोंमें अवश्य अरुचिका होना स्वतःसिद्ध स्वभाव है ।२६१। इसप्रकार तत्त्वोंको जाननेवाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञान में राग तथा द्वेषका परित्याग करे ।३७१।-दे, राग/६। सवंगतत्व-रा. बा./२/७/११/१२/२४ असर्वगतत्वमपि साधारण परमाग्वादीनामविभुत्वाद, धर्मादीनां च परिमितासंख्यासप्रदेशत्वात । कर्मोदयाद्यपेक्षाभावात्तदपि पारिणामिकम् । यदस्य कर्मोपात्तशरीरप्रमाणानुविधायित्वं तदसाधारणमपि सन्न पारिणामिकमः कर्मनिमित्त त्वात् । - 'असर्वगतत्व' यह साधारण धर्म है, क्योंकि, परमाणु आदि द्रव्य अव्यापी हैं और धर्म आदि द्रव्य परिमित असंख्यात प्रदेशी है। कर्मोदय आदिकी अपेक्षाका अभाव होनेसे यह धर्म पारिणामिक भी कहा जा सकता है। जीवके कर्मों के निमित्तसे जो शरीरप्रमाणपना पाया जाता है वह असाधारण धर्म होते हुए भी पारिणामिक नहीं है, क्योंकि, वह कोके निमित्तसे होता है। सर्वगत नय-दे, नय//५/४ । सयोग केवली-दे, केवली/११ सरःशोष कर्म-दे. सावद्य/५। सरल समीकरण-Simple equation. सरस्वती पूजा-दे. पूजा। सरस्वती यन्त्र-दे. यन्त्र । सरह-महायान सम्प्रदायके एक गूढ़वादी बौद्ध विद्वान् । समय- १००० ( प. प्र./प्र./१०३/A. N. Up.) सरहपा-बौद्धों के ८४ सिद्धों में से एक थे। इन्होंने हिन्दी दोहाबद्ध ग्रन्थोंकी रचना की है। समय-७६९-८०६ ( हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास ।पृ. २४। कामता प्रसाद)। सराग संयम-दे. चारित्र/१/१४ । सराग सम्यग्दर्शन-दे. सम्यग्दर्शन/II/४ | सरित-अपर विदेहका एक क्षेत्र तथा सुखावह वक्षारका एक कूट। -दे. लोक/१/२। सपिःस्रावो-दे, अद्धि । सर्व-रा. वा./२/७/२/५३५/१६ सरति गच्छति अशेषानवयवानिति सर्व इत्युच्यते । अवशेष अवयवोंको प्राप्त हो उसे सर्व कहते हैं। ध.१/३.१.४/४७ सर्व विश्वं कृत्स्नम् ।।...सरति गच्छति आकुश्चनविसर्पणादीनीति पुद्गलद्रव्यं सर्व-विश्व, कृत्स्न ये 'सर्व' शब्दके समानार्थक हैं। अत्रवा जो आकुंचन और विसर्पण आदिको प्राप्त हो वह पुदगलद्रव्य सर्व है। ध. १३/१,५,६६/३२३/८ सब केवलणाणं । सर्वका अर्थ केवलज्ञान है। सर्वगध-उत्तर अरुणाभास द्वीप और अरुणसागरका रक्षक व्यन्तर देव-दे, व्यं तर/४ । सर्वगत-केवलज्ञानसे सर्व लोकालोकको जाननेके कारण जीव सर्वगत या सर्वव्यापी है। सर्वगुप्त-भगवती आराधनाके रचयिता आ. शिवकोटिके गुरु थे।, तदनुसार इनका समय-ई. श. १ का पूर्वपाद । (भ. आ./प्र.२-३/ प्रेमी जी)1-दे.शिवकोटि। सर्वज्ञ-दे. केवलज्ञान। सर्वज्ञत्वशक्ति-स. सा./अ./परि/शक्ति नं. १० विश्वविश्वविशेषभावपरिणामात्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्तिः।- समस्त विश्व के विशेष भावों को जाननेरूपसे परिणमित ऐसे आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञस्व शक्ति। सर्वज्ञात्म मुनि-शंकराचार्य के शिष्य सुरेश्वरके शिष्य । समय ई. ६००-दे. वेदान्त/१/२। सर्वघाती प्रकृति-दे. अनुभाग/४ । सर्वघाती स्पर्धक-दे. स्पर्धक । Hinme_ सर्वचन्द्र-नन्दिसंघके देशीयगणकी गुर्वावली के अनुसार आप वसुनन्दिके शिष्य तथा दामनन्दिके गुरु थे। समय-वि. १७५-१००५ (ई. ११८-१४८); ( दे. इतिहास/७/५ )। सवंतंत्र-वे, सिद्धान्त। सर्वतोभद्रपूजा-दे. पूजा/१। सर्वतोभद्र यन्त्र-वे. यंत्र। सर्वतोभद्र व्रत-१. लघु विधि जोड़ xcc पंक्तिनं. दिखाये गये प्रस्तारमें से तकके अंक पक्तियों में इस प्रकार लिखे गये हैं कि ऊपर नीचे आड़े टेढ़े किसी भी प्रकार पंक्तिबदधसे जोड़नेपर १५ लब्ध आते हैं। पंक्ति नं. १ फिर पंक्ति नं २ आदिमें जितने जितने अंक लिखे हैं उतने१५/१५ | १५ | १५ | १५/ -७५ | उतने उपवास क्रमपूर्वक कुल ७५ करे। बीचके स्थानों में सर्वत्र एक-एक पारणा करे । त्रिकाल नमस्कार मन्त्रका जाप्य करे। (ह.पु./३४/५१-५९); (बत विधान संग्रह/पृ.६०)। *-ur-ca जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वतोभद्रा ३८० सल्लेखना mr02 पंक्ति। mor Gram Homcc-Gr २. बृहत् विधि -सप्त ऋषियों में से एक-दे, सप्त ऋषि । प्रस्तारमें १ से ७ सर्वस्थिति-दे. स्थिति/१/३। तकके अंक सात पंक्तियों में इस सर्वस्पर्श-दे. स्पर्श/९/५ । क्रमसे लिखे गये हैं कि ऊपर नीचे सर्वातिचार-दे. अतिचार/३ । आड़े टेढ़े किसी प्रकार भी जोड़ने सर्वानशन-दे. अनशन। पर २८ लब्ध आता है। प्रथम सर्वानुकम्पा-दे. अनुकम्पा। द्वितीय आदि पंक्ति में लिखे सर्वार्थपुर-विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । क्रमसे कुल १६६ २०२६/२०२८ उपवास करे। सर्वार्थसिद्धा-दे. विद्या। बीचके सब स्थानोंमें एक-एक पारणा करे। त्रिकाल नमस्कार मंत्रका जाप्य करे । (ह. पु./३४/५७-५८), (बत विधान संग्रह/पृ.६१) सर्वार्थसिद्धि विमान-१. अनुदिश तथा अनुत्तर स्वर्ग का सर्वतोभद्रा-नन्दीश्वर द्वीपकी उत्तर दिशामें स्थित एक वापी इन्द्रक -दे. स्वर्ग/२/३ । २. ये देव केवल एक भवावतारी होते हैं। -दे, स्वर्ग/२/१| (दे. लोक/५/११)। रा.वा./४/१६/२/२२४/२२ सर्वार्थानां सिद्धश्च । । सर्वथा-'सर्वथा' शब्दका सम्यक् व मिथ्या प्रयोग। रा.वा./४/२६/१/२४४/११ सर्वार्थ सिद्ध इत्यम्बर्थ निर्देशात् । -३. सर्व -दे. एकान्त/१/४ अर्थों की अर्थात सर्व प्रयोजनोंकी सिद्धि हो जानेसे उनकी 'सर्वार्थ सिद्धि' यह अन्वर्थ संज्ञा है। सर्वशित्व शक्ति-स. सा./आ./परि/शक्ति नं.:-विश्वविश्वसामान्यभावपरिणामात्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्तिः ।।। - समस्त सर्वार्थसिद्धि व्रत-सप्तमीको धारणाके दिन एकाशना करे। विश्वके सामान्य भावको देखने रूपसे (अर्थात् लोकालोकको सत्तामात्र ८-१९ तक ८ उपवास करे और पडिमाको पारणा करे। नमस्कारग्रहण करनेरूपसे) परिणमित ऐसे आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान संग्रह/पृ.८६) शक्ति है। सर्वार्थसिद्धि शास्त्र-आ. पूज्यपाद (ई. श./५) द्वारा विरचित सर्वधन-दे. गणित/II/५/३ । तत्त्वार्थ सूत्रकी विशद वृत्ति है। संस्कृतभाषामें लिखा गया है। इस सर्वधारा-दे. गणित/11/५/२६ पर निम्न टीकाएं उपलब्ध हैं-(१) आ. अकलंक भट्ट (ई. ६२० ६८०) कृत तत्त्वार्थ राजवार्तिक (२) आ, प्रभाचन्द्र'नं. ५(ई. ६५०सवनीद-काशी नरेश सिंहवर्माके समकालीन तथा प्राकृत गाथाबद्ध १०२०) कृत एक वृत्ति। (३) पं.जयचन्द छावड़ा (ई. १८०६) कृत लोक विभाग नामक ग्रन्थके रचयिता । इस ग्रन्थका संस्कृत रूपान्तर भाषा वचनिका । (जै./२/२८०) । पीछे श्री सिद्धनन्दि द्वारा ई.श. ११ में किया गया है। समयः सर्वावधि ज्ञान-दे. अवधिज्ञान/१! ई. ४५८ (श. ३८०); (ति. प./प्र.६ A. N. Up ) (जै./२/७)। सर्वप्रभ-भावीकालीन १वें तीर्थकर । अपर नाम सर्वात्मभूति व सवसिंख्यात-दे. असंख्यात । सर्वायुध । -दे. तीर्थकर/५ सर्वोषध ऋद्धि-दे, ऋद्धि/७॥ सर्वभद्र-यक्ष जातिके व्यंतरदेवीका एक भेद ।-दे. यक्ष । सर्षप फल-तोलका एक प्रमाण -दे. गणित//१।२। सर्वरक्षित-एक लौकान्तिक देव -दे. लौकान्तिक । सल्लेखना-अतिवृद्ध या असाध्य रोगग्रस्त हो जानेपर, अथवा सर्वरत्न-मानुषोत्तर व रुचक पर्वतपर स्थित एक-एक कूट-दे. अप्रतिकार्य उपसर्ग आ पड़नेपर अथवा दुर्भिक्ष आदिके होने पर साधक साम्य भाव पूर्वक अन्तरंग कषायों का सम्यक प्रकार दमन लोक/११ करते हुए, भोजन आदिका त्याग करके, धीरे-धीरे शरीरको कृश सर्वविद्याप्रकर्षिणी-दे, विद्या । करते हुए, इसका त्याग कर देते हैं। इसे ही सल्लेखना या समाधि मरण कहते हैं । सम्यग्दृष्टि जनोंको यथार्थतः सम्भव होनेसे इसे पण्डितसर्वविद्याविराजिता-दे, विद्या। मरण कहते हैं। शरीरके प्रति जो स्वभावसे ही उपेक्षित है, ऐसे श्रावक व साधुको ऐसे अवसरों पर अथवा आयु पूर्ण होनेपर इस ही सर्वव्यापी-दे. सर्वगत। प्रकारकी वीरतासे शरीरका त्याग योग्य है। इसे आत्म हत्या कहना अनभिज्ञताका सूचक है। सल्लेखनागत साधुको क्षपक कहते हैं । सर्वशून्य-दे. शून्य। पीड़ाओं के प्रकर्षकी सम्भावना होनेके कारण सल्लेखना विधिर्म सर्वसंक्रमण-दे, संक्रमण/६ । निर्यापकों, परिचारकों, वैयावृत्ति उपदेश आदिका प्रघान स्थाने है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना १ * २ ३ ४ ५ * १२ १३ ६ ७ ८ ९ सल्लेखना के अतिचार । १० सल्लेखनाका महत्व व फळ । ११ क्षपककी भवधारण सीमा सल्लेखना में सम्भन लेश्याएँ । Dr rm yog 9 १ २ ३ ४ १४ सल्लेखनाका स्वामित्व | १५ सभी व्रतियोंको सल्लेखना आवश्यक नहीं । १६ सल्लेखना के लिए हेमन्त ऋतु उपयुक्त है। * सल्लेखना तीन वेदनाओंकी सम्भावना | २ | सल्लेखनाके योग्य अवसर ५ ६ सल्लेखना सामान्य निर्देश सल्लेखना सामान्यका लक्षण । दीक्षा सल्लेखना आदिकाल बाह्य अभ्यन्तर सल्लेखना निर्देश । शरीर कृश करने का उपाय ८ * सल्लेखना आत्महत्या नहीं है। सल्लेखना जबरदस्ती नहीं करायी जाती । संयम रक्षार्थ या उपसर्ग आनेपर आत्महत्या तक ३ १ २ * करना न्याय है । - दे, मरण १/५ में विप्राणस मरण । पर संयम रक्षार्थ भी मरना सल्लेखना नहीं है । अभ्यन्तर सल्लेखनाकी प्रधानता । * ३ सल्लेखना धारनेकी क्या आवश्यकता । संस्तर धारण व मरण कालमें परस्पर सम्बन्ध । - दे, काल / ११ सल्लेखना योग्य शरीर क्षेत्र व काल । निर्यापकको उपलब्धिकी अपेक्षा - दे. लेखना /५/८1 योग्य कारणों के अभाव में धारनेका निषेध | अन्त समय भारने का निर्देश। अन्त समयकी प्रधानताका कारण ! 1 परन्तु केवल अन्त समयमें धरना अत्यन्त कठिन है। अतः इसका अभ्यास व भावना जीवन पर्यन्त करना योग्य है। अन्त समय व जीव पर्यन्तकी आराधनाका समय । मरणका संशय होने पर अथवा अकस्मात् मरण होनेपर अथवा रत्रकाल मरण होने पर क्या करे । -देसदेखना /२/१-१० भक्त प्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश सल्लेखनामरणके व विधि भेद । भक्त प्रत्याख्यान आदि तीनके लक्षण । तीनों आहारका त्याग सामान्य है । सोनका स्वामित्व | तीनकि योग्य संहनन काल व क्षेत्र | - दे. लेखन/३/२४ - दे. सल्लेखना / १ / १४ । ३८१ तीनोंके फल । ५ भक्तप्रत्याख्यानकी जघन्य व उत्कृष्ट अवधि | ६ साधुओंके लिए भक्त प्रत्याख्यानकी सामान्य विधि । समर्थ आवक के लिए भक्त प्रत्याख्यानकी सामान्य विधि | ७ असमर्थ श्रावक के लिए भक्त प्रत्याख्यानकी ८ सामान्य विधि | मृत्युका संशय या निश्चय होनेकी अपेक्षा भक्त प्रत्याख्यान विधि | १० सविचार व अविचार भक्त प्रत्याख्यानके ९ ११ १२ १३ ४ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ 4 ९ ५ १ सामान्य लक्षण व स्वामी । अविचार भक्त प्रत्याख्यान विधि | २ ३ ४ इंगिनीमरण विधि | प्रायोपगमन मरण विधि । सविचार भक्त प्रत्याख्यान विधि इस विषयक ४० अधिकार । सल्लेखना योग्य गि । - सिंग/९/४। सल्लेखनामें नग्नताका कारण व महत्त्व । - देश इन अधिकारोंका कपन क्रम आचार्य पदत्याग निधि । १० ११ १२ क्षपकके लिए उपयुक्त आहार सूचीपत्र सबसे क्षमा । परगणचर्या व इसका कारण । परगण द्वारा आगत मुनिका परीक्षा पूर्वक ग्रहण | - दे. विनय /२/१ उद्यत साधुके साह आदिका विचार आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण क्षपक योग्य वसतिका व संस्तर । क्षपणा, समता व ध्यान । कुछ विशेष भावनाओंका चिन्तवन मौन वृद्धि क्रम पूर्वक आहार व शरीरका त्याग । • - दे, वह वह नाम । श्रावक को घर या मन्दिर दोनों जगह संस्तरधारणको आशा - दे. सल्लेखना / ३ / ८ निर्यायाचार्य व उसका मार्ग -- दे. सल्लेखना / ५। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भक्त प्रत्याख्यान में निर्यापकका स्थान योग्य निर्यापक व उसकी प्रधानता । चारित्रहीन निर्यापकका आश्रय हानिकारक है । योग्य निर्वाका अन्नेषण एक निर्वापक एक ही क्षपकको ग्रहण करता है। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ३८२ १. सल्लेखना सामान्य निर्देश Fur 9 021 निर्यापकोंकी संख्याका प्रमाण । सर्व निर्यापकोंमें कर्तव्य विभाग। क्षपककी वैयावृत्ति करते हैं। आहार दिखाकर वैराग्य उत्पन्न कराना । कदाचित् क्षपकको उग्र वेदनाका उद्रेक । उपर्युक्त दशामें भी उसका त्याग नहीं करते। यथावसर उपदेश देते हैं। १. सामान्य निर्देश। २. वेदनाको उग्रतामें सारणात्मक उपदेश । ३. प्रतिज्ञाको कवच करनेके अर्थ उपदेश । लक्षणमें कषायौंको कृश करना तो अभ्यन्तर सल्लेरखना है और शरीरको कृश करना बाह्य सल्लेखना है। पं. का./ता,वृ./९७३/२५३/१७ आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थ मेव क्रोधादिकषायरहितामन्तज्ञानादिगुणलक्षणपरमात्मपदार्थ स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसरलेखना, तदर्थ कायक्लेशानुष्ठानं द्रव्यसल्लेखना, तदुभयाचरणं स सहलेखनाकालः । = आत्मसंस्कार (दे. काल/१/६) के अनन्तर उसके लिए ही क्रोधादि कषायरहित अनन्तज्ञानादि गुणलक्षण परमात्मपदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पोंका कृश करना भाव सल्लेखना है, और उस भाव सल्लेखनाके लिए कायक्लेशरूप अनुष्ठान करना अर्थात भोजन आदिका त्याग करके शरीरको कृश करना द्रव्य सल्लेखना है। इन दोनों रूप आचरण करना सल्लेखना काल है। मृत शरीरका विसर्जन व फल विचार शरीर क्षेपण योग्य निषयका। -दे. निषीधिका। संस्तर ग्रहण व मरणकालमें परस्पर सम्बन्ध दे. सग्लेखना/१/१३॥ शव विसर्जन विधि। शरीर विसर्जनके पश्चात् संघका कर्तव्य । फल विचार१.निषीधिकाकी दिशाओंपर से। २. शवके संस्तरपर से। ३. नक्षत्रोंपरसे। ४, शरीरके अंगोपांगोंपरसे। १. सल्लेखना सामान्य निर्देश १. सल्लेखना सामान्यका लक्षण स.सि/७/२२/३६३/१ सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेरखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना। -अच्छे प्रकारसे काय और कषायका लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। अर्थात् बाहरी शरीरका और भीतरी कषायोंका, उत्तरोत्तर काय और कषायको पुष्ट करनेवाले कारणोंको घटाते हुए भले प्रकारसे लेखन करना अर्थात कृश करना सल्लेखना है। (स.सि./७/२२/३/१९०/२३); (भ.आ./वि./१५०/ ३६६/१२)। दे. सल्लेरखना/२/१ [ दुर्भिक्ष आदिके उपस्थित होनेपर धर्म के अर्थ शरीरका त्याग करना सल्लेखना है। दे, निक्षेप//५/२ [कदलीघातके बिना बहिरंग और अन्तरंग परिग्रहका त्याग करके जीवन व मरणकी आशासे रहित छूटा हुआ शरीर त्यक्त शरीर कहलाता है, जो भक्तप्रत्याख्यान आदिकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। ३. शरीर कृश करनेका उपाय भ.आ./मू./२४६-२४६ उल्लीणोलीणे हि य अहवा एक्कतवडढमाणेहि। सलिहइ मुणी देहं आहारविधि पयशुगितो।२४६। अणुपुत्वेणाहार संबठ्ठ तो य सल्लिहइ देह । दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहण कुणइ ।२४७। विविहाहिं एसणाहिं य अवगहेहिं विविहेहि उग्गेहि । संजममविराहिंतो जहाबलं सल्लिहइ देहं ।२४८। सदि आउगे सदि बले जाओ विविधाओ भिक्खुपडिमाओ। ताओ वि ण बाधते जहाबलं सल्लिहंतस्स ।२४६॥ = क्रमसे अनशनादि तपको बढ़ाते हुए यतिराज अपने देहको कृश कर शरीर सल्लेखना करते हैं ।२४६॥ क्रमसे आहार कम करते करते क्षपक अपना देह कृश करता है। प्रतिदिन लिये गये नियमके अनुसार कभी उपवास और कभी बृत्तिसंख्यान, इस क्रमसे तपश्चरण कर क्षपक शरीर कृश करता है ।२४७१ नाना प्रकारके रसव जित, अल्प, रूक्ष ऐसे आचाम्ल भोजनोंसे अपने सामर्थ्य के अनुसार क्षपक मुनि देहको कृश करता है। नाना प्रकारके उग्र नियम ले ले कर संयमकी विराधना न करता हुआ स्व शक्ति अनुसार शरीरको कृश करता है ।२४८। यदि आयु व देहकी शक्ति अभी काफ़ी शेष हो तो शास्त्रोक्त बारह भिक्षुप्रतिमाओंको (दे. सल्लेखना/४) स्वीकार करके शरीरको कृश करता है। उन प्रतिमाओंसे इस क्षपकको पीड़ा नहीं होती। (विशेष दे. सल्लेखना/३,४)। ४. सल्लेखना आत्महत्या नहीं है स.सि./9/२२/३६३/५ स्यान्मतमात्मवधः प्राप्नोतिः स्वाभिसन्धिपूर्व कायुरादिनिवृत्तेः । नैष दोषः; अप्रमत्तत्वात् । 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्युक्तम् । न चास्य प्रमादयोगोऽस्ति । कुतः। रागाद्यभावात । रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्राद्य पकरणप्रयोगवशादारमान घ्नतः स्वघातो भवति। न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति ततो नात्मवधदोषः । = प्रश्न-चूकि सल्लेखनामें अपने अभिप्रायसे आयु आदिका त्याग किया जाता है, इसलिए यह आत्मघात हुआ । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखनामें प्रमादका अभाव है। 'प्रमत्तयोगसे प्राणोंका वध करना हिंसा है' यह पहले कहा जा चुका है (दे, हिंसा)। परन्तु इसके प्रमाद नहीं है, क्योंकि, इसके रागादिक नहीं पाये जाते। राग, द्वेष और मोहसे युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है उसे आत्मघातका दोष प्राप्त होता है (दे. मरण/४/१)। परन्तु सल्लेखनाको प्राप्त हुए जीवके रागादिक तो हैं नहीं, इसलिए इसे आत्मघातका दोष प्राप्त नहीं होता है। [कहा भी है-रागादिकका न होना ही अहिंसा है (दे. अहिंसा/२/१) और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है (दे. हिंसा/१/१); (रा.वा./७/२२/६-७/५६०/३३) (पु.सि, उ./१७७ -१७८); (सा.ध./८/८); (और भी दे. शीर्षक सं.)। २. बाह्य व अभ्यन्तर सल्लेखना निर्देश भ.आ./मू/२०६/४२३ सल्लेहणा य दुविहा अभंतरिया य बाहिरा चेव । अभंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे ।२०६। सल्लेखना दो प्रकारको है-अभ्यन्तर और बाह्य । तहाँ अभ्यन्तर सल्लेखना तो कषायों में होती है और बाह्य सल्लेखना शरीरमें। अर्थात उपरोक्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ५. सल्लेखना जबरदस्ती नहीं करायी जाती स. सि. १०/२२/३६३/४ न केवल मिह मेलनं परिगृह्यते । किं सहि प्रीत्यर्थोऽपि । यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न सल्लेखना कार्यते । सत्यां हि प्रीती स्वयमेव करोति । यहाँ पर ( सूत्रमें प्रयुक्त 'जोषिता' शब्दका ) केवल 'सेवन करना' अर्थ नहीं लिया गया है, क्योंकि प्रौतिके न रहनेपर बसपूर्वक सीखना नहीं करायी जाती। किन्तु प्रीति रहनेपर स्वयं ही ना करता है। (रा.ना/७/२२/४/ ५५०/२६) । ६. संयम रक्षार्थं मरना भी सल्लेखना नहीं - म. १/१.१.१/२५/९ संजम विनास भरण उस्सासगिरोह का मुद साहु सरीरकरच पिवददिग करता मुददेहस्स मंगलताभावादी । प्रश्न- संयम के विनाशके भयसे श्वासोच्छ्वासका निरोध करके मरे हुए साधुके शरीरका त्यहारी रके तीन भेदों ( भक्त प्रत्याख्यान आदि) में से क्सि भेदमें अन्तर्भाव होता है 1 उत्तर- ऐसे शरीरका त्यक्तके किसी भी भेद अन्तर्भाव नहीं होता है; क्योंकि, इस प्रकारसे मृत शरीरको गहना प्राप्त नहीं होता है। दे मरण / १/५ [ उपरोक्त प्रकारका मरण विप्राणसमरण कहलाता है । वहन अनुज्ञात है और न निषिद्ध । ] ७. अभ्यन्तर सल्लेखनाकी प्रधानता । भ.आ./मू/ग. एवं सरीर सल्लेहणाविहि बहुविहा वि फासेंतो । अज्भवसामविद्धि मनिओ २५६ अभावाविधी कसायकलुसीदस्स गरि प्तिं अवससायसा भविदा | २५०० अमवाणमधीए मज्जिदा जे तवं विगपि । व्यंति बहिन्लेस्सा न होइ सा केरला सुधी २३८| सम्लेमाविसुधा केई तह चेत्र विविहसंगेहि । संथारे विहरता वि संकिलट्ठति ॥९६०४ इस प्रकार अनेकविध शरीर सल्लेखनाविधिको करते हुए भी, क्षपक एक क्षण के लिए भी परिगामकी विधिको न छोड़े २५६। कषायसे कलुषित मनमें परिणामों की निशुद्धि नहीं होती और परिणामोंकी विद्धिही कषायसम्लेलना कही गयी है। २५६। परिणामोंकी विशुद्धिके बिना उत्कृष्ट भी तप करने वाले साधु ख्याति आदिके कारण ही तप करते हैं, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए उनके परिणामों की शुद्धि नहीं होती २७१ जो शा शरीरकी सपना तो निरतिचार कर रहे हैं, परन्तु उनके अन्तरंग में रागद्वेषादिरूप भाव परिग्रह निवास करता है. ये संस्तरास होते हुए भी परिणामोंकी ताकारण संसार में भ्रमण करते हैं । १६७४ | सा.भ./८/२३ सल्लेखनासंखितः कषायाशिष्फला रानो कायोगण्डयितुं कामायामेव दण्ड्यते | २३ | जो साधु कपायोंको कृश न करके केवल शरीरको ही कृश करता है, उसका वह शरीरको कृश करना निष्फल है, क्योंकि कषायोंको कृश करनेके लिए ही शरीरको कृश किया जाता है, केवल शरीरको कृश करनेके लिए नहीं। ८. सल्लेखना धारनेकी क्या आवश्यकता । स.सि./७/२२/३६४/१ किंच, मरणस्यानिष्टत्वाद्यथा वाणिजो विविधपण्यदानादानसं चयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्टः तद्विनाशकारणे च कुतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति परिहरति । दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा मसते एवं गृहस्थोऽपि प्रतशीसपण्यसंचये प्रवर्तमानः तदाश्रयस्य न पातमभिवाञ्छति । तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् । - ३८३ १. सल्लेखना सामान्य निर्देश मरण किसी को भी भी इष्ट नहीं है। जैसे नाना प्रकारकी विक्रेय वस्तुओंके देने, लेने और संचयमें लगे हुए किसी व्यापारीको अपने घरका नाश होना इष्ट नहीं है; फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाशके कारण आ उपस्थित हों तो यथाशक्ति वह उनको दूर करता है, इतनेपर भी यदि वे दूर होतो, जिससे वि वस्तुओं का नाश न हो, ऐसा प्रयत्न करता है। उसी प्रकार पण्य स्थानीय मत और शीश संचयमें जुटा हुआ गृहस्थ भी उनके आधारभूत आयु आदिका पतन नहीं चाहता । यदा कदाचित् उनके विनाशके कारण उपस्थित हो जायें तो जिससे अपने गुणोंमें बाधा नहीं पड़े, इसप्रकार उनको दूर करनेका प्रयत्न करता है। इतनेपर भी यदि वे दूर न हो तो, जिससे अपने गुणोंका नाश न हो इस प्रकार प्रयत्न करता है, इसलिए इसके आत्मघात नामका दोष कैसे हो सकता है । (रा.वा./१/२२/८/५५१/६); (आ. अनु. / २०५); (सा. च./८/६) ९. सल्लेखनाके अतिचार स.सू./७/२० जोति मरणाशंसाभित्रानुरागखानुबन्धनिदानानि । ३७१जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये सम्लेखमा पाँच अतिचार है। (र.क.आ./१२६): (चा.सा./४१/३) (सा.प./६/४६)। १०. सल्लेखनाका महत्त्व व फल भ.आ./मू./१६४२-९६४५ भोगे रे तो खुदा मासे इमिसं चताचरं ति जिनदेखिये धम्मं ११४२ सुकं समुदा जाणे वविदसंसारा सम्मुक्तम्मकमया समिति सिद्धि किलेसा ॥ १६४५|स्व अनुतर भोग भोगकर वे महाँसे चय उत्तम मनुष्यभवमें जन्म धारण कर सम्पूर्ण ऋद्धियोंको प्राप्त करते हैं। पीछे वे जिनधर्म अर्थात् मुनि धर्म व तप आदिका पालन करते हैं । १६४२ । शुक्ल लेश्याकी प्राप्ति कर वे आराधक शुक्लध्यान से संसारका नाश करते हैं, और धर्मरूपी कवचको फोड़ कर सम्पूर्ण क्लेशों का नाश कर मुक्त होते हैं । १६४६१ (विशेष दे, सम्तेखना / ३/४) । ८. क. आ. / १३० निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीर दुस्तर सुनिधि न ति पीतधर्मा सबै दु:खैरनालीढः | १३०| पिया है धर्मरूपी अमृत जिसने ऐसा सल्लेखनाधारी जीव समस्त प्रकारके दुःखों से रहित होता हुआ, अपार दुस्तर और उत्कृष्ट उदयवाले मोक्षरूपी सुखके समुद्रको पान करता है । प.पु./१४/२०३ गृहधर्ममिमं कृत्वा समाधिप्राप्तपञ्चतः । प्रपद्यते सुदेव च्युत्वा च सुमनुष्यताम् ॥२०३॥ - इस गृहस्थ धर्मका पालनकर जो समाधिपूर्वक मरण करता है, वह उत्तम देवपर्यायको प्राप्त होता है, और वहाँसे च्युत होकर उत्तम मनुष्यत्व प्राप्त करता है | २०३ ॥ [ पीछे आठ में मुक्ति प्राप्त करता है (दे. अगला शीर्षक) पू. सि. ४/१०१ नीयन्तेन कपाया हिंसाया तो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुर हिंसा प्रसिद्धयर्थम् | १७६ | क्योंकि इस संन्यास मरणमें हिंसा के हेतुभृत कषाय क्षोणताको प्राप्त होते हैं, तिस कारण से संन्यासको भी श्रीगुरु अहिंसाकी सिदि के लिए कहते हैं ॥१७६ दे. आ/अ.ग./२२४८-२२०१ [लेखनाकी अनेक प्रकार से स्तुति ] - ११. क्षपककी भवधारणकी सीमा भ.आ./मू/गा एक्कम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो ण सो हिंड दि बहुसो सत्तट्ठभवे पमोत्तूण । ६८२ ॥ णियमा सिज्मदि उक्करण वा सत्तमम्मि भवे । २०६६ । इय बालपंडिय: होदि मरणमरहंताणे दि १२००७१ एवं आराधिसा उनकस्सा राहण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना १. सल्लेखना सामान्य निर्देश न. चदुक्खध। कम्मरयविप्पमुक्का तेणेब भवेण सिझति १२१६०। आराधयित्तु धीरा मज्झिममाराहणं चदुक्खध । कम्मरयविप्पमुक्का संस्तरधारण मरणकालका तच्चेण भवेण सिझति ।२१६११ आराधयित्तु धीरा जहण्णमाराहणं कालका नक्षत्र समय चदुक्रबंध । कम्मरयविष्पमुक्का सत्तमजम्मेण सिझति ।२१६२ - नक्षत्र १. जो यति एक भवमें समाधिमरणसे मरण करता है वह अनेक भव धारण कर संसार में भ्रमण नहीं करता। उसको सात आठ भव १० मघा मघा या इससे अगला दिन धारण करनेके पश्चात् अवश्य मोक्षकी प्राप्ति होगी।६८२॥ (मू.आ/ ११ / पूर्व फाल्गुनी धनिष्ठा दिन १९८)। २. बालपंडित मरणसे मरण करनेवाला श्रावक (दे.मरण/१/४) उत्तर फाल्गुनी मूल सायं उत्कृष्टतासे सात भवों में नियमसे सिद्ध होता है ।२०८६-२०७४ |१३ भरणी दिन ३. चार प्रकारके इस ( दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप) आराधनाको १४ चित्रा । मृगशिर अर्धरात्रि जो उत्कृष्ट रूपसे आराधता है वह उसी भवमें मुक्त होता है, जो स्वाति रेवती प्रभात मध्यमरूपसे आराधता है वह तृतीय भवसे मुक्त होता है, और जो विशाखा आश्लेषा जघन्य रूपसे आराधता है वह सातवें भवमें सिद्ध होता है आश्लेषा पूर्वभाद्रपद दिन १२१६०-६२० । ज्येष्ठा प्रभात प.पु/१४/२०४ भावानामेवमष्टानामन्तः कृत्वानुवर्तनम् । रत्नत्रयस्य पूर्वाषाढ़ मृगशिर रातका निर्ग्रन्थो भूत्वा सिद्धिं समश्नुते ।२०४। -[जो गृहस्थधर्मका प्रारम्भ पालन कर समाधि पूर्वक मरण करता है-(दे. शीर्षक सं.१० में प. उत्तराषाढ़ उत्तराषाढ अथवा भाद्रपद अपराह पु./१४/२०३) ] ऐसा जीव अधिकसे अधिक आठ भवोंमें रत्नत्रयका श्रवण उत्तरभाद्रपद दिन पालनकर अन्तमें निर्ग्रन्थ हो सिद्धपदको प्राप्त होता है ।२०४। धनिष्ठा धनिष्ठा या उससे अगला दिन धर्मपरीक्षा/RE/R६ का भाषार्थ-जो सुधी पुरुष कषाय निदान और शतभिषज ज्येष्ठा सूर्यास्त मिथ्यात्व रहित होकर संन्यास विधिके धारणपूर्वक मरण करते हैं, पूर्वभाद्रपद पुनर्वसु रात वे मनुष्य देवलोकमें सुखोंको भोगकर २१ भवके भीतर मोक्षपदको उत्तर भाद्रपद उत्तरभाद्रपद दिन या रात प्राप्त होते हैं। रेवती मृगशिर १२. सल्लेखनामें सम्मव लेश्याएँ भ.आ./मू./१९१८-१९२१ सुक्काए लेस्साए उक्कस्सं अंसयं परिणमित्ता। जो मरदि सो हु णियमा उक्कस्साराधो होई ।१६१८। जे सेसा १४. सल्लेखनाका स्वामित्व मुक्काए दु अंसया जे य पम्मलेस्साए । तब्लेस्सापरिणामो दु मज्झिमाराधणा मरणे ।१९२०॥ तेजाए लेस्साए ये अंसा तेमु जो परिणमित्ता। रा.वा./७/२२/१४/५५२/३ अयं सग्लेखनाविधिः न श्रावकस्यैव दिग्विरकाल करे। तस्स हु जहणियाराधणा भणदि।१२१शुक्ललेश्या त्यादि शीलवतः । कि तहि । संयतस्यापीति अविशेषज्ञापमार्थ वाता के उत्कृष्ट अंश से परिणत होकर मरनेवालाक्षपक उत्कृष्ट आराधक है पृथगुपदेशः कृतः। -यह सरलेखनाविधि शीलवतधारी गृहस्थको ११९१८५ शुक्ल लेश्याके शेष मध्यम व जघन्य अंश और पालेश्याके ही नहीं है, किन्तु महावती साधुके भी होती है। इस सामान्य सर्व अंशोंसे परिणमित होकर मरनेवाला मध्यम आराधक है ।१६२०॥ नियमकी सूचना पृथक् सूत्र मनानेसे मिल जाती है। और पीत लेश्याके सर्व अंशोंसे परिणमित होकर मरनेवाला दे. सल्लेखना/२/१ में भ.आ./७४-[गृहस्थ व साधु दोनों ही भक्तप्रत्याजघन्य आराधक है। ख्यानके योग्य समझे जाते हैं।] दे. सक्लेखना/// [गृहस्थ भी व्रत और शीलोंकी रक्षा करनेके लिए १३. संस्तर धारण व मरणकाल में परस्पर सम्बन्ध सक्लेखना धारण करता है] भ.आ./अमितगति कृत प्रशस्ति/पृ.१८७५-- दे. सग्लेखना/२/४ [ श्रावक प्रीति पूर्वक मारणान्तिकी सन्लेखना धारण करता है। संस्तरधारण दे. सक्लेखना/२/७ में पु.सि.उ./१७६ [ 'मैं मरण कालमें अवश्य समाधिमरणकालका मरण करूगा' श्रावकको ऐसी भावना नित्य भानी चाहिए।] कालका समय नक्षत्र दे, मरण/१/४ [भक्त प्रत्याख्यान आदि पंडित मरण मुनियोको होता है। नक्षत्र १५. सभी बतियोंको सल्लेखना आवश्यक नहीं अश्विनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिर रात प्रभात मध्याह्न अर्धरात्रि स्वाति रेवती उत्तर फाल्गुनी श्रवण पूर्व फाल्गुनी उत्तरा या इससे अगला अश्विनी मृगशिर चित्रा आर्दा दिन अपराह्न रा.वा./७/२२/१२/१५१/३४ स्यादेतव-पूर्वसूत्रेण सह एक एव योगः कर्तव्यः लध्वर्थ इतिः तन्न; किं कारणम् । कदाचित् कस्यचिव ता प्रत्याभिमुरव्यज्ञापनार्थत्वात्। सप्ततपशीलवतः कदाचित् कस्यचिव गृहिणः सग्लेखनाभिमुख्यं न सर्वस्येति ।-प्रश्न-इस सूत्रको पहले सूत्रके साथ ही मिला देना योग्य था, क्योंकि. ऐसा करनेसे सूत्र छोटा हो जाता! उत्तर-नहीं, क्योंकि, कभी-कभी तथा किसी किसीको ही सग्लेखनाकी अभिमुखता होती है, यह मात बतानेके लिए पृथक सूत्र बनाया गया है। सात शील व्रतोंको धारनेवाला कोई एक आध गृहस्थ ही कदाचित सल्लेखनाके अभिमुख होता है, सब नहीं। पुनर्व पुष्य आश्लेषा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ३८५ २. सल्लेखनाके योग्य अक्सर दे. अथालंद-जो साधु बल, वीर्य, धैर्य व स्थिरतामें हीन होनेके कारण परिहार विधि या भक्त प्रत्याख्यान आदि विधियोंको धारण करने में समर्थ नहीं हैं, वे अथालंद विधिको धारण करते हैं।) १६. सल्लेखनाके लिए हेमन्त ऋतु उपयुक्त है भ.आ./मू./६३१/८३२ एवं वासारते फासेद्रण विविधं तवोकर्म । संथार पडिबज्जदि हेमंते सुहविह रंम्मि १६३१ - इस प्रकारसे वर्षाकाल में नाना प्रकार के तप कर वह क्षपक जिसमें अनशनादि करने पर भी महान् कष्टका अनुभव नहीं आता है, ऐसे हेमन्तकालमें संस्तरका आश्रय करता है ।६३१॥ २. निर्यापककी उपलब्धिकी अपेक्षा भ.आ./मू./७५/२०४ उस्सरह जस्स चिरमवि सुहेण सामण्णमणदिचार बा। णिज्जावया य सुलहा दुब्भिवखभयं च जदि णस्थि ।७५। भ.आ/वि./७५/२०५/१ इदानीमहं यदि न त्यागं कुर्या निर्यापकाः पुनर्न लप्स्यन्ते सूरयस्तदभावे नाहं पण्डितमरणमाराधयितुं शक्नोमि इति यदि भयमस्ति भक्तप्रत्याख्यानाह एव । -जिस मुनीश्वरका चारित्रपालन सुखपूर्वक व निरतिचार हो रहा है, तथा जिसका निर्यापक भी मुलभ हो और जिसे दुर्भिक्ष आदिका भी भय न हो, ऐसा मुनीश्वर यद्यपि भक्त प्रत्याख्यान के अयोग्य है ७॥ तो भी 'इस समय यदि मैं भक्तप्रत्याख्यान न करूं और आगे यदि निर्यापकाचार्य कदाचित् न मिले तो मैं पंडितमरण न साध सकंगा' ऐसा जिसको भय हो तो वह मुनि भक्त प्रत्याख्यानके योग्य ही है। ३. योग्य कारणों के अभावमें सल्लेखना धारनेका निषेध भ.आ./म./७६/२०५ तस्स ण कप्पदि भत्तपणं अणुवटिठ्ठदे भये पुरदो। सो मरणं पच्छिंतो होदि हु सामण्णणिविणो।७६- पूर्व में कहे गये सर्व भयोंके उपस्थित न होनेपर भी जो मुनि मरणकी इच्छा करेगा, वह मुनि चारित्रसे विरक्त है ऐसा समझना चाहिए। दे. शीर्षक नं.२-[ जिसका चारित्र निर्विघ्न पल रहा है और जिसे निर्यापक भी सुलभ हैं और दुर्भिक्ष आदिका भी भय नहीं है. वह भक्तप्रत्याख्यानके अयोग्य है।] २ सल्लेखनाके योग्य अवसर १. सल्लेखना योग्य शरीर क्षेत्र व काल भ आ./मू./७१-७४ वाहिन्न दुप्पसज्मा जरा य समण्णजोग्गहाणिकरी । उबसग्गा वा देवियमाणुसतेरिच्छया जस्स १७१३ अणुलोमा वा सल चारित्तविणासया हवे जस्स। दुभिक्खे वा गाढे अडवीए विप्पणट्ठो बा ।७२। चक्रवं वा दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुब्नलं जस्स। जंघावल परिहीणो जो ण समत्थो विहरिदु वा ।७३। अण्ण म्मि चावि एदारिसंम्मि आगाढकारणे जादे। अरिहो भत्तपइण्णाए होदि विरदो अविरदो बा ७४। -महाप्रयत्नसे चिकित्सा करने योग्य ऐसा कोई दुरुत्तर रोगहोनेपर, श्रामण्यकी हानि करनेवाली अतिशय वृद्धावस्था आने पर, अथवा निःप्रतिकार देव मनुष्य व तिर्यचकृत उपसर्ग आ पड़नेपर ७११ ( लोभ आदिके वशीभूत हुए ऐसे ) अनुकूल शत्रु जब चारित्रका नाश करनेको उद्य क्त हो जायें, भयंकर दुष्काल आ पड़नेपर, हिंसक पशुओंसे पूर्ण भयानक वनमें दिशाभूल जानेपर १७२। आँरत्र, कान व जंघा बल अत्यन्त क्षीण हो जानेपर १७३। तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी तत्सदृश कारणोंके होनेपर मुनि या गृहस्थ भक्त प्रत्याख्यान ( शरीर त्याग) के योग्य समझे जाते हैं ७४ क.श्रा /१२२ उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे। धर्माय सनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।१२२। -निष्प्रतिकार उपसर्ग आनेपर, दुर्भिक्ष होनेपर, बुढ़ापा आनेपर, और मृत्युदायक रोग होनेपर धमर्थ शरीर छोड़नेको सल्लेखना कहते हैं ।१२२॥ (चा.सा/ ४०/१) रा.पा./७/२२/११/१५१/२८/ जरारोगेन्द्रियहानिभिरावश्यकपरिक्ष्ये ॥११॥ -- जरा, रोग, इन्द्रिय व शरीर अलकी हानि तथा षडावश्यकका नाश होनेपर सल्लेखना होती है। सा.ध./८/९-१० कालेन बोपसर्गेण निश्चित्यायुः क्षयोन्मुखं । कृत्वा यथाविधि प्रायं तास्ताः सफलये क्रिया ।।। देहादिव कृतैः सम्यग्निमित्तेश्च सुनिश्चित्ते। मृत्यावाराधनामग्नयतेदूरे न तत्पदं ।१०। -स्वकाल पाकद्वारा अथवा उपसर्ग द्वारा निश्चित रूपसे आयुका क्षय सन्मुख होनेपर यथाविधि रूपसे संन्यासमरण धारकर सकल क्रियाओंको सफल करना चाहिए ।। जिनके होनेपर शरीर ठहर नहीं सकता ऐमे सुनिश्चित देहादि विकारों के होनेपर, अथवा उसके कारण उपस्थित हो जानेपर अथवा आयुका क्षय निश्चित हो जाने पर निश्चयसे आराधनाओंके चिन्तवन करने में मग्न होता है, उसे मोक्ष पद दूर नहीं ॥१०॥ दै. सग्लेखना/३/१० [स्व कालपाकवश आयु क्षय होनेपर सविचार भक्त प्रत्याख्यान धारा जाता है और अकस्माद आयुक्षय होने पर अविचार भक्त प्रत्याख्यान धारा जाता है। ४. अन्त समय में धारनेका निर्देश त.सू./७/२२ मारणान्तिकी सक्लेखना जोषिता ।२२। स.सि./७/२२/३६२/१२ 'अन्तग्रहणं' तद्भवमरणप्रतिपत्त्यर्थम् । मरण मन्तो मरणान्तः । स प्रयोजनमस्येति मारणान्तिकी। -तथा वह श्रावक मारणान्तिक सल्लेखनाका प्रीति पूर्वक सेवन करनेवाला होता है। उसी भवके मरणका ज्ञान कराने के लिए सूत्र में मरण शब्दके साथ अन्त पदका ग्रहण किया है,। मरण यही अन्त मरणान्त है और जिसका यह मरणान्त ही प्रयोजन है वह मारणान्तिकी कहलाती है । (रा.वा./७/२२/२/५५०/२१); (चा.सा./४७/५) दे. श्रावक/९/३/[अन्त समय समाधिमरण धरनेवाला श्रावक साधक कहलाता है। ५. अन्त समयकी प्रधानताका कारण भ.आ./मू./ गा. जो जाए परिणिमित्ता लेस्साए संजुदो कुणइ कालं । तल्लेत्सो उववज्जइतरलेस्से चेव सो सग्गे १६२२। जदि दा सुभाविदप्पा वि चरिमकालम्मि संकिलेसेण । परिवदि वेदणट्ठो खवओ संथारमारूढो ।१६४८। सुचिरम वि णिरदिच.र विहरिता जाणदसणचरित्ते। मरणे विराधयित्ता अणंतस सारिओ दिट्ठो ।१५ -जो जीव जिस लेश्यासे परिणत होकर मरणको प्राप्त होता है, वह उत्तर भवमें उसी लेश्याका धारक होकर स्वर्गमें उत्पन्न होता है ।१६२२ जिसने अत्माको आराधनाओंसे सुसंस्कृत किया था, तो भी मरणसमय संबलेशपरिणामों की उत्पत्ति होने से वह संस्तरपर आरूढ हुआ श्रमण सन्मार्गसे भ्रष्ट होता है ।१६४८। पूर्व में न आराधी गयी रत्नत्रयकी आराधनाको यदि अन्तकालमें कोई भाये तो वह जीव स्थानुके दृष्टान्तको प्राप्त होता है (अर्थात जैसे अन्धेको स्तम्भसे टकराकर नेत्र खुल जानेसे भाग्य वश वहाँसे रत्नप्राप्ति हो जाय ऐसे ही उसे समझना १२४) सा.घ./८/१६ आराद्धोऽपि चिरं धर्मो विराद्धो मरणे मुधा। सत्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्य पि चिराजितं १९६६ - चिर कालसे आराधन किया हुआ धर्म भी यदि मरनेके समय छोड़ दिया जाय वा उसकी भा०४-४९ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ३८६ ३. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश विराधना को जाय तो वह निष्फल हो जाता है। और यदि मरनेके समय उस धर्मकी आराधना की जाय तो वह चिर कालके उपाजित पापोंका भी नाश कर देता है। ६. परन्तु केवल अन्त समयमें धरना अत्यन्त कठिन है भ.आ./म.व, वि./२४/८३ चिरमभावितरत्नत्रयाणामन्तर्मुहर्तकाल भावनानां सिद्धिरिष्यते तम्कि चिरभावनयेत्यस्योत्तरमाचष्टे'पुरमभाविदजोग्गो आराधेज्ज मरणे जदि 'वि कोई। खण्णुगदिद्रुतो सो तं खु पमाणं ण सम्वत्य ।२४। = जिन्होंने बहुत कालपर्यंत रत्नत्रयका आराधन नहीं किया परन्तु केवल अंतमुहूर्त कालपर्यन्त ही आराधन किया है, उनको भी मोक्षलाभ हो गया है। • अतः चिरकाल पर्यन्त रत्नत्रयको भावना आवश्यक नहीं है। उत्तरपूर्व काल में जिस जीवने रत्नत्रयका कभी आराधन नहीं किया है, वह मरणसमय उसकी आराधना करले, ऐसा व्यक्ति स्थानुके दृष्टान्तको प्राप्त होता है । अर्थात बिलकुल उस अन्धे व्यक्तिकी भाँति है जो कि अकस्मात स्थानुसे सर टकरा जानेके कारण नेत्रवान हो गया है और साथ ही उस स्थानकी जड़में पड़े रत्नका लाभ भी जिसे हो गया हो ।२४ आराधक होता है ।१८४ तीर्थ क्षेत्र या निर्यापकके प्रति प्रारम्भ कर दिया है गमन जिसने, ऐसा व्यक्ति यदि मार्गमें मरणको प्राप्त हो जाये तो भी उस भावनाके कारण आराधक ही गिना जाता है, क्योंकि भावना भवनाशिनी होती है।३०। ८. अन्त समय व जीवन पर्यन्तकी आराधनाका समन्वय भ. आ./वि./१८/६८/६ मरणे या विराधना सा महती संसृतिमावहति । अन्यदा जातायामपि बिराधनाया मृतकाले रत्नत्रयोपगतौ संसारोच्छित्तिर्भवत्येव ततो मरणकाले प्रयत्नः कार्य इत्यस्माभिरुपन्यस्तम्। इतरकालवृत्तं तु रत्नत्रयं संबरनिजरयो तिकर्मण च क्षयकारणनिमित्त इतोष्यत एव । मरण समयमें रत्नत्रयकी विराधना करनेसे विराधकको दीर्घकालतक संसार में भ्रमण करना पड़ता है। परन्तु दीक्षा, शिक्षा आदि काल (दे. काल) में विराधना हो गयी हो तो भो मरणकाल में रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जानेसे संसारका नाश हो जाता है। अतः मरणकालमें रत्नत्रयमें परिणति करनी चाहिए। ऐसा हमारा अभिप्राय है। परन्तु इतर कालोंमें की गयी आगधना भी विफल नहीं होती, उससे कर्मका संवर व निर्जरा होती है, तथा घाती कर्मोंके क्षय करने में वह निमित्त होगी, ऐसा हम समझते हैं। ७. अतः सल्लेखनाकी भावना व अभ्यास जीवन पर्यन्त करना योग्य है भ. आ./भू./१८-२१ जदि पक्यणस्स सारो मरणे आराहणा हदि दिट्ठा। किं दाई सेसकाले जदि जददि तवे चरित य १८ आराहणाए कज्जे परियम्म सम्बदा वि य कायब्वं । परियम्मभाविदस्स हु सुहसज्झाराहणा होइ ।१६। जह रायकुलपसूओ जोरगं णिच्चमावि कुणह परिकम्मं । तो जिदकरणो जुइधे कम्मसमत्थो भविस्सदि हि २० इय सामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोगपरियम्म। तो जिद करणो मरणे माणसमत्यो भविस्संति।२१-प्रश्न -आगमकी सारभूत रत्नजयपरिणति मरणकालमें यदि होती हुई देखी जाती है तो उससे भिन्न कालमें चारित्र व तपश्चरण करने की क्या आवश्यकता है। ११८० उत्तर-मरण समयमें रत्नत्रयको सिद्धिके लिए सम्यग्दर्शनादि कारगकलाप सामग्रीकी अवश्य प्राप्ति कर लेना चाहिए, अर्थात् उसका सर्वदा अभ्यास करना योग्य है, क्योंकि ऐसा करनेवालेको मरण समय में सुखपूर्वक अर्थात बिना क्लेशके उस आराधनाकी सिद्धि हो जाती है ।१६। जेसे राजपुत्र शस्त्रविद्याका नित्य अभ्यास करता है और उसीसे वह युद्ध में उस प्रकारका कर्म करनेको समर्थ होता है .२०। इसी प्रकार साधु भी आराधनाके योग्य नित्य अभ्यास करता है, इसीसे वह जितेन्द्रिय होता हुआ मरण समय ध्यान करनेको समर्थ हो जाता है ।२१। पु. सि, उ /१७५-१७६ इयमे कैव समर्था धर्मस्व मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनोया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या। ।१७५१ मरणान्तेडवश्यमहं विधिना सल्लेखना करिष्यामि। इति भावनापरिणतो नागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥६७६। यह एक ही सक्लेखना मेरे धर्मरूपो धनको मेरे साथ ले चलनेको समर्थ है। इस प्रकार भक्ति करके मरणान्त सल्लेखनाको निरन्तर भावना वाहिए।१७। मैं मरण कालमें अवश्य ही शास्त्रोक्त विधिसे समाधिमरण करूगा इस प्रकार भावनारूप परिणति करके मरणकाल प्राप्त होनेके पहले ही यह सल्लेवनाबत पालना चाहिए।१७६ (सा. ध/७/१७) सा. ध./८/१८-३१ सम्यग्भावितमार्गोऽन्ते स्यादेवाराधको यदि। प्रति रोधि सुदुर' किंचिन्नोदेति दुष्कृतम् ।१८, प्रस्थितां यदि तीर्थाय म्रियते बान्तरे तदा । अस्त्येवाराधको यस्मादभावना भवनाशिनी ।३१। यदि कोई दुनिबार प्रतिरोधी कर्म उदयमें न आवे तो सम्यक् प्रकारसे पूर्व में भावित रत्नत्रयके कारण वह अन्तकालमें अवश्य हो ३. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश १. सल्लेखनामरणके व विधिके भेद दे. मरण/१/४.[पण्डितमरण तीन प्रकार है-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन । भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार है-सविचार व अविचार। अविचार तीन प्रकार है-निरुद्धतर व परम निरुद्ध । निरुद्ध दो प्रकार है-प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप) भ. आ./मू./१५५/३५२ किण्णु अधालंदविधी भत्तपइण्णे गिणी य परिहारो। पादोवगमण जिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो ।१५।अथालन्द विधि, भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनीमरण, परिहार विशुद्धि, चारित्र, पादोपगमन, मरण और जिनकल्पावस्था, इनमें से कौन-सी अवस्थाका आश्रय कर मैं रत्नत्रयमें विहार करू ऐसा विचार करके साधुको, धारण करने योग्य अवस्थाको धारण करके समाधिमरण करना चाहिए। २. भक्त प्रत्याख्यान आदि तीनके लक्षण ध. १/१,१,१/२३/४ तत्रारमपरोपकारनिरपेक्ष प्रायोपगमनम्। आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं इंगिनीमरणम् । आत्मपर पकारसम्यपेझ भक्तप्रत्याख्यानमिति ।-[भोजनका क्रमिक त्याग करके शरीरको कृश करनेको अपेक्षा तीनों समान हैं। अन्तर है शरीरके प्रति उपेक्षा भावमें] तहाँ अपने और परके उपकारकी अपेक्षा रहित समाधिमरणको प्रायोपगमन विधान कहते हैं। जिस संन्यासमें: अपने द्वारा किये गये उपकारकी अपेक्षा रहती है किन्तु दूसरेके द्वारा किये गये वैयावृत्त्य आदि उपकारकी अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनी समाधि कहते हैं । जिस संन्यासमें अपने और दूसरे दोनों के द्वारा किये गये उपकारको अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान संन्यास कहते हैं । (भ. आ/वि/२०६४/१४६१): (गो.क /./६१/५७) (चा. सा./१५४/४); (भा. पा./टी/३२/११६/१४) भ, आ./वि./२६/११३/८ पादाम्यामुपगमनं ढोकन तेन प्रवर्तितं मरणं पादोपगमनमरणम् । इतरमरणयोरपि पादाभ्यामुपगमनमस्तीति त्रवि ध्यानुपपत्तिरिति चेन्न, मरणविषे वक्ष्यमाणलक्षणं रूढिरूपेणाय प्रवतं ते...... अथवा पाउग्गगमणमरणं इति पाठः। भवान्तकरणप्रायोग्यं संहननं संस्थान च इह प्रायोग्यशब्देनोच्यते। अस्य गमन प्राप्तिः, तेन कारणभूतेन यन्निवर्त्य करणं तदुच्यते पाउग्गगमणन जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना | मरणमिति । भज्ये सेव्यते इति भक्तं, तस्थ पइण्णा त्यागो भत्तपण्णा । इतरयोरपि भक्तप्रत्याख्यान संभवेऽपि रूढिवशान्मरणविशेषे दो रंगिनीदेन गितमात्मनो भण्यते स्वामि प्राधानुसारेण स्थित्वा वर्तमानं मरणं इंगिनी मरण - पादोपगमन इसका शब्दार्थ, 'अपने पाँव के द्वारा संघसे निकलकर और योग्य प्रदेशमें जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन मरण है । इतर मरणों में भी यद्यपि अपने पाँव से चलकर मरण करना समान है, परन्तु यहाँ रूढिका आश्रय लेकर मरण विशेष में ही यह लक्षण पटित किया है, इसलिये मरणके तीन मेदॉकी अनुपपत्ति नहीं बनती है । अथवा गाथा में 'पाओग्गगमणमरणं' ऐसा भी पाठ है। उसका ऐसा अभिप्राय है कि भरका अन्त करने योग्य ऐसे संस्थान और संहननको प्रायोग्य कहते हैं। इनकी प्राप्ति होना प्रायोग्यगमन है। अर्थात् विशिष्ट संस्थान व विशिष्ट संहनन वाले ही प्रायोग्य अंगीकार करते हैं। भक्त शब्दका अर्थ आहार है और प्रतिज्ञा शब्दका अर्थ त्याग होता है । अर्थात् आहारका त्याग करके मरण करना वह भक्तप्रत्याख्यान है । यद्यपि आहारका त्याग इतर दोनों मरणों में भी होता है, तो भी इस लक्षणका प्रयोग रूढ़िवश मरण विशेष में ही कहा गया है । स्व अभिप्रायको इंगित कहते हैं। अपने अभिप्रायके अनुमार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुए जो मरण होता है उसी कोई गिनोमरण कहते हैं। ३. तीनोंके योग्य संहनन काल व क्षेत्र भ.आ./वि./६४ / ११०/- मरणं सा चेन भक्तप्रत्याख्यानमृतिरेव एवं हि काले... संहननविशेषसमानतरणयं संहननविशेषाः ऋषभनाराचादयः अद्यत्वेऽमुष्मिक्षेत्रे सन्ति गणानां ॥... यदि ते वर्तयितुं इदानीतनानामसामर्थ्यं किं तदुपदेशेनेति चेत् स्वरूपपरिज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं । 1 . ३८७ भ, आ. मि. / २०४९/१००६/१० बायेषु त्रिषु संहननेषु अन्यतमः शुभ स्थानोऽभेद्यकवच जिसकरण जिनि मिस ग्र - १. भक्तप्रत्याख्यान मरण ही इस कालमें उपयुक्त है । इतर दो अर्थात् इंगिनी व प्रायोपगमनमरण संहनन विशेष वालोंके ही होते हैं । वज्रऋषभ आदि वे संहनन विशेष इस पंचमकाल में इस भरत क्षेत्र में मनुष्योंमें होते नहीं हैं। यद्यपि गिनी प्रायोपगमनकी सामर्थ्य इस काल में नहीं है, फिर भी उनके स्वरूपका परिज्ञान करानेके लिए उनका उपदेश दिया गया है । २. इंगिनीमरणके धारक मुनि पहिले तीन (अर्थात् वज्रऋषभ नाराच, वज्रनाराच और नाराच) सहननोमेंसे कोई एक संहननके धारक रहते हैं। उनका शुभ संस्थान रहता है। वे निद्राको जीतते हैं। महाबल व शूर रहते हैं । ४. तीनों के फल 1 भ.आ./मू./गा. यरिसमाराधनमपाले केवली भरिया लोगन सिहरवासी हवं ति सिद्धा कलेसा | ११६२६ मा राधणमणुपालित्ता सरीरयं हिच्चा हुति अणुत्तरवासी देवा सुविसुलेस्सा य १६३३ | दंसणणाणचरिते उक्किट्ठा उत्तमोपधाणा य । हरियावह पविणा हवंति लवसत्तमा देवा । १६३४ । जे विहु उलेसमाराहणं मंति से सिहति देवा ण हेठिल्ला | १६४०) एवमधक्वादविधि साधित्ता इंगिण पुए किलेसा। सिर्फ ईहत देवामा २०६१। = इस प्रकार भक्तप्रत्याख्यानकी उत्कृष्ट आराधनाका पालन कर ज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं। सम्पूर्ण कर्मले मुक्त होकर लोका शिखरवासी सिद्ध परमेष्ठी होते हैं । १६२६| उसी भक्तप्रत्याख्यानकी मध्यम आराधनाका पालन कर शरीरका त्याग करनेवाले मुनिराज विशुद्ध लेश्याको धारण कर अर्थात् उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या के स्वामी बनकर अनुत्तरवासी देवों होते हैं । ९६३३] सम्यग्दर्शन-ज्ञान ३. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश चारित्र पालने में पूर्ण दक्ष, उत्कृष्ट तप ध्यान वग़ैरह नियमों के धारक, पथको जिन्होंने प्राप्त किया है अर्थात् कल्पवासी देवत्वकी प्राप्ति योग्य शुभावको जो प्राप्त हो गये हैं ऐसे मुनिराज लवसत्तम देव होते हैं अर्थात् मरकर नवबेक अनुदिश विमानमें रहनेवाले देव हो जाते हैं | १६३४) तेजोलेश्याके धारक ऐसे क्षपककी भक्तप्रत्याख्यान आराधनाको जघन्य आराधना कहते हैं । इस आराधनाके आराधक क्षपक सौधर्मादिक स्वर्गीमें देव होते हैं । इन देवोंसे हीन देवों में इनका जन्म नहीं होता ।१६४०। यहाँ तक जो इंगिनी मरकी विधि कही है, उसको सिद्ध करके कोई मुनि सम्पूर्ण कर्मवशको दूर करके मुक्त होते हैं और कोई वैमानिक होते हैं । २०६१ ५. भक्त प्रत्याख्यानकी जघन्य व उत्कृष्ट कालावधि भ.आ./मू. २५२/४७४ उक्कस्सेण भत्तपइण्णाकालो जिणेहिं णिद्दिट्ठो । कासम्म संप भारसमरियाणि पुष्णानि । २५२२ - आयुष्काल अधिक होने पर अर्थात भक्त प्रतिज्ञाका उत्कृष्ट कालप्रमाण जिनेन्द्र भगवान् ने बारह वर्ष प्रमाण कहा है | २५२ | घ. १/१.१.२/२४ / ९ वत्र भावानं प्रिविधं जयग्योत्कृष्टमध्यमभेदात् । जघन्यमन्तर्मुहूर्त प्रमाणम् । उत्कृष्टभक्तप्रत्याख्यानं द्वादशवर्षप्रणाम् । मध्यमेतयोरन्तरालमिति । - भक्तप्रत्याख्यान विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारकी है। जघन्यका प्रमाण अन्तर्मुहूर्तमात्र है। उत्कृष्टका बारह वर्ष है। इन दोनोंके अन्तरालवर्ती सर्व कालप्रमाण मध्यम भक्तप्रत्याख्यानका है । (गो. क./मू./५६-६०/५०); (चा.सा./१२४/४); (अन, भ./०/१०९/०२६ ) - ६. साधुओंके लिए भक्त प्रत्याख्यानकी सामान्य विधि मू. आ./ १०६ - १११ सव्वं पाणारं भं पञ्चवक्खामि अलीयवयणं च । सव्वमदत्तादाण मेण परिचैव ॥ १०६ सम्म मे सम्मभूम ण ण वि । आसाए बोसरित्ताणं समाधि पडिवज्जइ । ११० । सव्यं आहार विहिं सण्णाओ आसाए कसाए य । सब्वं चेय ममत्ति जहामि सव्वं खमावेमि । १११ | संक्षेपसे प्रत्याख्यान करनेवाला ऐसी प्रतिज्ञा करता है, कि मैं सर्व प्रथम हिंसादि पांचों पापोंका त्याग करता हूँ । १०६ । मेरे सब जीवों में समता भाव है, किसीके साथ भी मेरा देर नहीं है इसलिए में सर्व आकांक्षाओंको छोड़कर समाधि (शुद्ध) परिणामको प्राप्त होता हूँ । ११०। मैं सब अन्नपान आदि आहारकी अवधिको आहार संज्ञाको सम्पूर्ण आशाओंका कषायों का और सर्व पदार्थों में ममत्व भावका त्याग करता हूँ । १११ । ( दे. संस्कार / २ में ३१वीं क्रिया ) " दे. सल्लेखना / ३ / ६ [ जीवितका सन्देह होने पर तो 'उपसर्ग टलने पर पारणा कर लूँगा ऐसा आहारत्याग करता है, और मरण निश्चित होने पर सर्वथा आहारका त्याग करता है । ] ७. समर्थ श्रावकों के लिए भक्त प्रत्याख्यानकी सामान्य विधि र. क. श्रा./१२४-१२८ स्नेहं वैरं संगं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियवचनैः | १२४ | आलोच्य सर्वनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजं । आरोपयेन्महावत मामरणस्थानिशेष १९२३ शोभाले कालुष्यमरतिमपि हिरवी च मनः प्रसाथ ते १२० आहार परिहास्य कमशः स्निग्धं विवर्द्धमेत्सनं स्निग्ध हाला खरपानं पूरयेत्क्रमशः | १२७) खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पञ्च नमस्कार मनास्तनुं त्यजेत्सर्वं यत्नेन । १२८ | = [सल्लेखना धारण करनेवाला शीत उष्ण में हर्ष विषाद न करे - ( चा. सा. )] स्नेह र परिछोड़कर शुद्ध होता हुआ कि वचनों से अपने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ३८८ ३. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश कुटुम्बियों और चाकरोंसे भी क्षमा करावे और आप भी सत्रको क्षमा करे ।१२४। छलकपट रहित और कृत कारित अनुमोदना सहित किये हुए समस्त पापोंकी आलोचना करके मरण पर्यन्त रहनेवाले समस्त महावतोंको धारण करे ।१२। शोक, भय, विषाद, राग कलुषता और अरतिको त्याग करके तथा अपने बल और उत्साहको प्रगट करके संसारके दुख रूपी संतापको दूर करनेवाले अमृतरूप शास्त्रों के श्रवणसे मनको प्रसन्न करे ।१२६ क्रम क्रमसे आहारको छोड़कर दुग्ध वा छाछको बढ़ावे और पीछे दुग्धादिकको छोड़कर कांजी और गरम जलको बढ़ावे ।१२७। तत्पश्चात् उष्ण जलपानका भी त्याग करके और शक्त्यनुसार उपवास करके पंचनमस्कार मन्त्रको मनमें धारण करता हुआ शरीरको छोड़े।१२। (चा. सा./४८/२); (सा. घ./८/१७.६४.६५,६७); ( विशेष दे. सल्लेखना/४)। ८. असमर्थ श्रावकोंके लिए भक्तप्रत्याख्यानकी सामान्य विधि वसु. श्रा./२७१-२७२ धरिऊण वत्थमेत्तं परिगह छडिऊण अवसेसं । सगिहे जिणालए बा ति विहाहारस्स बोसरणं ।२७१। जं कुणइ गुरुसयासम्मि सम्ममालोइऊण तिविहेण । सल्लेखणं चउत्थं मुत्ते सिक्वावयं भणियं ।२७२।-[उपरोक्त दोनों शीर्षकोंमें कथित राग द्वेषका त्याग, समता धारण और परिजनों आदिसे क्षमा आदिकी यहाँ भी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए ] वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रहको छोड़कर अपने ही घरमें अथवा जिनालयमें रहकर जो श्रात्रक गुरुके समीपमें मन वचन कायसे अपनी भले प्रकार आलोचना करके पानके सिवाय शेष तीन प्रकारके आहारका (खाद्य, स्वाद्य और लेह्य इन तीनका) त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में सल्लेखना नामका चौथा शिक्षाबत कहा गया है ।२७१-२७२। सा, ध./८/६६-ज्याध्याद्यवेक्षयाम्भो वा समाध्यर्थ विकल्पयेत् । भृशं शक्तिक्षये जह्यात्तदप्यासन्नमृत्युकः ६६ व्याधि आदिकी अपेक्षासे समाधिमें निश्चल होनेके लिए उस क्षपकको गुरुकी आज्ञानुसार केवल पानी पीनेकी प्रतिज्ञा रख लेनी चाहिए। और मृत्युका समय निकट आनेपर जम शरीरकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाय तब उसे जलका भी स्याग कर देना चाहिए ।६६ ( और भी दे. सग्लेखना/४/११३) । दे. मरण/१/४ [ बिना सबलेख ना धारण किये अपने घर में ही संस्तरारूढ हो साम्यता पूर्वक शरीरको त्यागना बालपण्डित मरण है ] । १०. सविचार व अविचार भक्त प्रत्याख्यानके सामान्य लक्षण व स्वामी भ. आ./वि./६५/१६२/६ द्विविधमेव भक्त प्रत्यारण्यानं । सविचारमध अविचार इति । विचरणं नानागमन विचारः। विचारेण वर्तते इति सविचारं एतदुक्तं भवति। वक्ष्यमाणाह लिङ्गादि विकल्पेन सहित भक्तप्रत्याख्यान इति । अविचार वक्ष्यमाणा दिनानाप्रकाररहित । भवतु द्विविधं । सविचारभक्तप्रत्याख्यान कस्य भवति इत्यस्योत्तरं। सविचार भक्तप्रत्याख्यानं अणागाढे सहसा अनुपस्थिते मरणे चिरकालभाविनि मरणे इति यावत् । सपरक्कमस्स सह पराक्रमेण वर्तते इति सपराक्रमस्तस्य भवे भवेत् । पराक्रमः उत्साहः एतेनैव सहसोपस्थिते मरणे पराक्रमरहितस्य अविचारभक्तप्रत्याख्यानं भवतीति लभ्यते यतो विचारभक्तप्रत्याख्यानं अस्य अस्मिन्काले इति सूत्रे नोक्त। -भक्तपश्याख्यानमरणके सविचार व अविचार ऐसे दो भेद हैं। तहाँ नाना प्रकारसे चारित्र पालना, चारित्रमें विहार करना विचार है । इस विचारके अर्ह, लिंग आदि ४० अधिकार हैं जिनका विवेचन आगे करेंगे (दे. सरलेखना/४) उस विचारके साथ जो वर्तता है वह सविचार है और जो उन अह लिंगादि रूप विचारके विकल्पोंके साथ नहीं वर्तता सो अविचार है। तहाँ जो गृहस्थ अथवा मुनि उत्साह व बलयुक्त है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है अर्थात जिसका मरण दीर्घकालके अनन्तर प्राप्त होगा ऐसे साधुके मरणको सविचारभक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। जिसको सामर्थ्य नहीं है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित हुआ है ऐसे पराक्रमरहित साधुके मरणको अविचारभक्त प्रत्याख्यान कहते हैं। [तहाँ सविचार विधि तो आगे सल्लेखना/४ के अन्तर्गत पृथक्से सविस्तार दी गयी है और अविचार विधि निम्न प्रकार है।] ११. अविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि भ. आ./मू./२०११-२०२४ तस्य अविचारभत्तपइण्णा मरणमिम होइ आगाढो । अपरक्कमस्स मुणिणो कालम्मि असं पुहत्तम्मि ।२०११तत्थ पढमं णिरुद्धं णिरुद्धतरयं तहा हवे विदियं । तदियं परमणिरुद्धं एवं तिविधं अवीचार ।२०१२। तस्स णिरुद्ध भणिदं रोगादंकेहिं जो समभिभूयो । जंघाबलपरिहीणो परगणगमणम्मि ण समत्थो ।२०१३।। इय सण्णिरुद्वमरणं मणिय अणिहारिमं अवीचारं । सा चेन जधाजोग्गं पुब्वुत्तविधी हव दि तस्स ।२०१५। दुविहं तं पि अणीहारिमं पयासं च अप्पगासं च । जणणादं च पगासं इदरं च जणेण अण्णादं ।२०१६। खवयस्स चित्तसारं वित्तं कालं पडुच्च सजणं बा। अण्णम्मि य । तारिसयम्मि कारणे अप्पगासं तु ।२०१७ बालग्गिवग्घम हिसगयरिंछ पडिणीय तेण मेच्छेहि। मुच्छाविसूचियादीहि होज्ज सज्जो हु वावत्ती॥२०१८। जाव ण बाया खिप्पदि बलं च विरियं च जाव कायम्मि । तिव्वाए वेदणाए जाव य चित्तं ण विक्रवत्तं ।१२१६। णच्चा संवटिज तमाउगं सिग्धमेव तो भिक्खू । गणियादीणं सण्णिहिदाणं आलोचए सम्म ।२०२०। एवं णिरुद्धदरयं विदियं अणिहारिमं अवीचार। सो चेव जधाजोग्गे पुटवुत्तविधी हवदि तस्स ।२०२१॥ बालादिएहिं जइया अक्वित्ता होज्ज भिक्खुणो वाया। तइया', परमणिरुद्वधं भणिदं मरणं अवीचारं ।२०२२। णचा संवट्टिर्ज तमाउन सिग्धमेव तो भिक्खू । अरहंतसिद्धसाहूण अंतिगे सिग्धमालोचे ।२०२३॥ आराधणाविधी जो पुर्व उववण्णिदो सविस्थारो। सो चेक जुज्जमाणो एत्य विही होदि णादब्यो ।२०२४। - पराक्रमरहित मुनिको सहसा मरण उपस्थित होनेपर अविचारभक्त प्रत्या ख्यान करना योग्य है ।२०१२। वह तीन प्रकारका है-निरुद्ध, निरुद्धतर व परमनिरुद्धतर व परमनिरुद्ध ।२०१२। रोगोंसे पीड़ित होनेके कारण जिसका जंघाचल क्षीण हो गया है और जो परमणर्मेन जानेको समर्थ नहीं है, वह मुनि निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान ९. मृत्युका संशय या निश्चय होनेकी अपेक्षा भक्तप्रत्याख्यान विधि मू. आ./११२-११४ एदम्हि देसयाले उबस्कमो जीविदस्स, जदि मज्झ । एवं पच्चक्खाणं णित्यिण्णे पारणा होज्जं ।११। सवं आहारविहि पवक्रवामी य पाणयं वज्ज । उवहिं च बोसरामि य दुविहे ति विहेण सावज्ज ११३। जो कोइ मज्झ उवधी सम्भंतरवाहिरो य हवे। आहार च सरीरं जाबाजीव य बोसरे ।११४।-जीवितमें सन्देह होने की अवस्थामें ऐसा विचार करे कि इस देशमें इस काल में मेरा जीनेका सद्भाव रहेगा तो ऐसा त्याग है कि जब तक उपसर्ग रहेगा तब तक आहारादिकका त्याग है । उपसर्ग दूर होनेके पश्चात् यदि जीवित रहा तो फिर पारणा करूगा ।११२१ ( पर जहाँ निश्चय हो जाय कि इस उपसर्गादिमें मैं नहीं जी सकूँगा वहाँ ऐसा त्याग करे ।] मैं जलको छोड़ अन्य तीन प्रकारके आहारका त्याग करता हूँ। बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहको तथा मन वचन कायकी पाप क्रियाओंको छोड़ता हूँ।११३। जो कुछ मेरे अभ्यन्तर बाह्य परिग्रह है उसे तथा चारों प्रकारके आहारोंको और अपने शरीरको यावज्जीवन छोड़ता हूँ। यही उत्तमार्थ त्याग है ।११४॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ३८९ ४. भक्त प्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश करते हैं । २०१३। यह मुान परगण में न जाकर स्वगण में ही रहता हुआ यथायोग्य पूर्वोक्त अर्थात् सविचार भक्तात्यारख्यान वाली विधिका पालन करता है । २०१५। इसके दो भेद हैं--प्रकाश और अप्रकाश । जो अन्य जनों के द्वारा जाना जाय वह प्रकाशरूप है और जो दूसरों के द्वारा न जाना जाय वह अप्रकाशरूप है ।२०१६। क्षपकका मनोबल अर्थात् धैर्य, क्षेत्र, काल, उसके बान्धव आदि कारणोंका विचार करके क्षपकके उस निरुद्धाविचार भक्तप्रत्याख्यानको प्रगट करते हैं अथवा अप्रगट करते हैं । अर्थात् अनुकूल कारणों के होनेपर तो वह मरण प्रगट कर दिया जाता है और प्रतिकूल कारणोंके होने पर प्रगट नहीं किया जाता ।२०१७। सर्प, अग्नि, व्याघ, भैंसा, हाथी.रीछ, शत्रु, चोर, म्लेच्छ, मुच्छा, तीन शूलरोग इत्यादिसे तत्काल मरणका प्रसंग प्राप्त होनेपर २०१८ जन तक बचन व कायबल शेष रहता है और जब तक तब वेदनासे चित्त आकुलित नहीं होता।२०१६। तब तक आयुष्यको प्रतिक्षण क्षीण होता जानकर शीघ्र ही अपने गणके आचार्य आदिके पास अपने पूर्व दोषोंकी आलोचना करनी चाहिए ।२०२०। इस प्रकार निरुद्धतर नामके दूसरे अविचार भक्त प्रत्याख्यानका स्वरूप है। इसमें भी यथा योग्य पूर्वोक्त अर्थात सविचार भक्त प्रत्याख्यानबाली सर्व विधि ( दे. सहलेखना/४) होती है ।२०२१। व्याघ्रादि उपरोक्त कारणोंसे पीडित साधु के शरीरका बल और बचन बल यदि क्षीण हो जाय तो परमनिरुद्ध नामका मरण प्राप्त होता है ।२०२२। अपने आयुष्यको शीघ्र ही क्षीण होता जान वह मुनि शीच ही मनमें अर्हन्त व सिद्ध परमेष्ठीको धारण करके उनसे अपने दोषोंकी आलोचना करे ।२०२३। आराधना विधिका जो पूर्व में सविस्तार वर्णन किया है अर्थात सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि ( दे. सालेखना/) उसोको ही यहाँ भी यथायोग्य रूपसे योजना करनी चाहिए ।२०२४। माहारयचारणरवीरासबादिलद्धीसु । तवसा उप्पण्णामु वि बिरागभा. वेण सेवदि सो।२०५८। मोणाभिगहणिरिदो रोगादंकादिवेदणाहेदु। ण कुणदि पडिकारं सो तहेव तण्हाहादीणं ।२०५६। उबएसो पुण आइरियाण इंगिणिगदो विछिण्णकधो। देबेहिं माणुसे हिं व पुट ठो धम्म कधेदित्ति।२०६० भक्त प्रतिज्ञामें जो प्रयोगविधि कही है (दे. सल्लेखना/४) वही यथा सम्भव इस इंगिनीमरणमें भी समझनी चाहिए ।२०३०। अपने गणको साधुआचरण के योग्य बनाकर इंगिनी मरण साधनेके लिए परिणत होता हुआ, पूर्व दोषोंकी आलोचना करता है, तथा संघका त्याग करनेसे पहिले अपने स्थानमें दूसरे आचार्यको स्थापना करता है। तत्पश्चात् बाल वृद्ध आदि सभी गणसे क्षमाके लिए प्रार्थना करता है ।२०३२-२०३३ । स्वगणसे निकलकर अन्दर बाहरसे समान ऊँचे व ठोस स्थ डिलका आश्रय लेता है। वह स्य डिल निर्जन्तुक पृथिवी या शिलामयी होना चाहिए ।२०३५॥ ग्राम आदिसे याचना करके लाये हुए तृण उस पूर्वोक्त स्थंडिल पर यत्नपूर्वक बिछा कर संस्तर तयार करे जिसका सिराहना पूर्व या उत्तर दिशाकी ओर रखे ।२०३६। तदनन्तर अर्हन्त आदिकोंके समीप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें लगे दोषोंकी आलोचना करके रत्नत्रयको शुद्ध करे ।२०३८। सम्पूर्ण आहारों के विकल्पोंका तथा बाह्य भ्यन्तर परिग्रहका यावजीवन त्याग करे ।२०३६॥ कायोत्सर्गसे खड़े होकर, अथवा बैठकर अथवा लेट कर एक कवटपर पड़े हुए वे मुनिराज स्वयं ही अपने शरीरको क्रिया करते हैं ।२०४१। शौच व प्रतिलेखन आदि क्रियाएँ स्वयं ही करते हैं ।२०४२। जगत् के सम्पूर्ण पुदगल दुःखरूप या सुख रूप परिणमित होकर उनको दुःखी सुखी करनेको उद्यत हो तो भी उनका मन ध्यानसे च्युत नहीं होता ।२०४७-२०१८। वे मुनि याचना पृच्छना परिवर्तन और धर्मोपदेश इन सभों का त्याग करके सूत्रार्थ का अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं ।२०५२। इस प्रकार आठों पहरोंमें निद्राका परित्याग करके वे एकाग्र मनसे तत्वोंका विचार करते हैं। यदि बलात निद्रा आ गयी तो निद्रा लेते हैं ।२०५३। स्वाध्याय काल और शुद्धि वगैरह क्रियाएँ उनको नहीं है । श्मशानमें भी उनको ध्यान करना निषिद्ध नहीं है ।२०५४। यथाकाल षडावश्यक कर्म नियमित रूपसे करते हैं। सूर्योदय व सूर्यास्तमें प्रयत्न पूर्वक उपकरणोंकी प्रतिलेखना करते हैं ।२०५५॥ पैरों में काँटा चुभने और नेत्रमें रजकण पड़ जानेपर वे उसे स्वयं नहीं निकालते। दूसरों के द्वारा निकाला जानेपर मौन धारण करते हैं ।२०५७। तपके प्रभावसे प्रगटी वैक्रियक आदि ऋद्धियोंका उपयोग नहीं करते ।२०५८। मौन पूर्वक रहते हैं। रोगादिकोंका प्रतिकार नहीं करते ।२०५६। किन्हीं आचार्योके अनुसार वे कदाचित उपदेश भी देते हैं ।२०६०। दे. अगला शीर्षक/अतिम गाथा-[ कोई मुनि कायोत्सर्गसे और कोई दीर्घ उपवाससे शरीरका त्याग करते ? १२. इंगिनी मरण विधि भ.आ./मू./२०३०-२०६१/१७७३ जो भत्तपदिण्णाए उबक्कमो वण्णिदो सवित्थारो। सो चेत्र जधाजोग्गो उवक्कमो इंगिणीए वि।२०६०। णिप्पादित्ता सगणं इंगिणि विधिसाधणाए परिणमिया ।।२०३२। परियाइगमालो चिय अणुजाणित्ता दिस महजणस्स। तिविधेण रखमावित्ता सबालबुड्ढाउलं गच्छ ।२०३३। एवं च णिक्कमित्ता अंतो बाहिं च थंडिले जोगे। पुढचौसिलामए वा अप्पाणं णिज्जवे एक्को १२०३५। पुटवुताणि तणाणि य जाचित्ता थडिल म्मि पुव्वुत्ते । जद. गाए संथरित्ता उत्तरसिरमधव पुवसिर ।२०३६। अरहादिअंतिगं तो किच्चा आलोचणं सुपरिसुद्धं । दसणणाणचरित्तं परिसारदूण णिस्सेसं ।२०३८। सव्वं आहारविधि जावज्जीवाय वोसरित्ताण । वोसरिदूण असेसं अम्भतरबाहिरे गथे ।२०३६। ठिच्चा णिसिदित्ता वा तुवट्टिदूणव सकायपडिचरण । सयमैव णिरुवसंग्गे कुणादि विहारम्मि सो भयबं । ।२०४१। सयमेव अप्पणो सो करेदि आउंटगादि किरियाओ। उच्चारादीणि तथा सयमेव विकिंचिदे विधिणा १२०४२। सब्यो पोग्गलकाओ दुक्रवत्ताए जदि तमुवणमेज । तधषि य तस्स ण जायदि ज्माणस्स विसोत्तिया को वि।२०४७५ सम्वो पोरगलकाओ सोक्रवत्ताए जदि वि तमुवणमेज । तध वि हू तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोतिया को वि।२०४८। वायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोत्तूण तधय धम्मथुदि । सुत्तच्छपोरिसीसु वि सरेदि सुत्तत्यमेय. मणों ।२०५२। एवं अछवि जामे अनबट्टो तह झादि एयमणो । जदि आधचा णिहा हविज्ज सो तस्थ अरदिण्णो ।२०५३। सज्झायकालपडिलेहणादिकाओ ण संति किरियाओ। जम्हा सुसाणमज्झे तस्स यमाणं अपडिसिधं ।२०५४। आवासगं च कुणदे उवधोकाल म्मि जं जहिं कमदि। उपकरणं पिपडिलिहा उधोकाल म्मि जदणाए ।२०५५। पादे कंटयमादि अच्छिम्मि रजादियं जदावेज्ज। गच्छदि अधाविधि सो परिणीहरणे य तुसिणीओ ।२०५७। वेउवण १३. प्रायोपगमन सरण विधि भ. आ./मू./२०६३-२०७१/१९७० पाओवगमणमरणस्स होदि सो चेव बुवकमो सको। बुत्तो इंगिणीमरणस्मुक्कमो जो सविस्थारो।२०६३ •णबरि तणसथारोपाओबगदस्स होदि पडिसिद्घो। आदपरपओगेण य पडिसिद्ध सवपरियम्मं ।२०६४। सो सल्ले हिददेही जम्हा पाओवगमणमुवजादि । उच्चारादिविकिंचणमवि णस्थि पबोगदो तम्हा १२०६५। पुढत्री आउतेऊवणप्फदितसेसु जदि वि साहरिदो। बोसट्च त्तदेहो अधाउग पालए तत्य ।२०६६। मज्जणयगंधपुप्फोवयारपडिचारणे विरते। वोसट्टचत्तदेहो अधाउगं पालए तधवि ।२०६७। बोसट्टचत्तदेहो दुणिविवेज्जो जहिं जधा अंग । जावज्जीवं तु सयं तहिं तमंग ण चालेज्ज (२०६८ एवं णिपडियम भणं ति पाओवगमणमरहंता। णियमा अणिहारं तं सया णीहारमुबसग्गे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ४. सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि लक्षण (भ. आ./वि./६७-७०) | ३ | शिक्षा १२०६६। उबसग्गेण य साहरिदो सो अण्णस्य कुण दि जं कालं । तम्हा वृत्तं णीहारमदो अण्णं अणीहार ।२०७०। पडिमापडिवण्णा बि हु सं. नाम करति पाओवगमणमप्पेगे ।२०७१। -इंगिनीमरणमें जो सविस्तार विधि कही है वही प्रायोपगमनमें भी समझनी चाहिए ।२०६३। इतनी विशेषता है कि यहाँ तृणके संस्तरका निषेध है, क्योंकि यहाँ स्व व पर दोनोंके प्रयोगका अर्थात् शुश्रूषा आदिका निषेध है ।२०६४। || लिंग ये मुनि अपने मूत्र व विष्ठा तकका भी निराकरण न स्वयं करते हैं । | और न अन्यसे. कराते हैं ।२०६५। सचित्त, पृथिवी, अग्नि, जल, ३ वनस्पति व त्रस जीवनिकायों में यदि किसी ने उनको फेंक दिया तो |४| विनय | समाधि वे शरीरसे ममत्व छोड़ कर अपनी आयु समाप्ति होने तक वहाँ ही ६ अनियत विहार निश्चल रहते हैं ।२०६६। इसी प्रकार यदि कोई उनका अभिषेक करे परिणाम या गंध पुष्पादिसे उनकी पूजा करे तो वे न उनके ऊपर क्रोध करते उपधिा त्याग श्रिति है, न प्रसन्न होते हैं और न ही उनका निराकरण करते है ।२०६७। जिसके ऊपर इन मुनिने अपना अंग रख दिया है, उसपरसे यावज्जीव মাননা सरलेखना वे उस अंगको बिलकुल हिलाते नहीं है ।२०६८। इस प्रकार स्व व पर | दिशा दोनों के प्रतिकारसे रहित इस मरणको प्रायोपगमनमरण कहते हैं। | क्षमणा निश्चयसे यद्यपि यह मरण अनोहार अर्थात् अचल है परन्तु उपसर्गकी अनुशिष्टि अपेक्षा इसको चल भी माना जाता है ।२०६६ उपसर्ग के वश होनेपर १५ परगणचर्या मार्गण अर्थात किसी देव आदिके द्वारा उठाकर अन्यत्र ले जाये जानेपर सुस्थित स्वस्थानके अतिरिक्त यदि अन्यस्थानमें मरण होता है तो उसको नीहारप्रायोपगमन मरण कहते हैं और जो उपसर्ग के अभावमें १८ उपसंपदा स्वस्थानमें ही होता है उसको अनौहार कहते हैं ।२०७०। कायोत्सर्ग | परीक्षा को धारण कर कोई मुनि प्रायोपगमन मरण करते हैं, और कोई 20 प्रतिलेखन दीर्घकालतक उपवास कर इस मरणसे शरीरका त्याग करते हैं। या निरूपण इसी प्रकार इंगिनी मरणके भी भेद समझने चाहिए ।२०७१। २१/ पृच्छा २२, एक संग्रह अगले अधिकारोंको धारण करनेके योग्य व्यक्ति । शिक्षा विनय आदि रूप साधन सामग्रीके चिह्न। ज्ञानोपार्जन ज्ञानादिके प्रति विनय होना मनकी एकाग्रता अनियत स्थानोंमें रहना कर्तव्य परायणता बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग शुभ परिणामोंकी उत्तरोत्तर उन्नति । उत्तरोत्तर उत्तम भावनाओंका अभ्यास कषाय व शरीरका कृश करना अपने स्थानपर स्थापित करने योग्य बालाचार्य। अन्योन्य क्षमाकी याचना करना। आगमानुसार उपदेश करना। अपना संघ छोड़कर अन्य संघ जाना। समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्यकी खोज। परोपकार तथा आचार्य पद योग्य कार्य करने में प्रवीण गुरु। आचार्यके चरणमूल में गमन करना। उत्साह, अभिलाषा, परिचारक गण आदिकी परीक्षा करना। राज्य देश आदिका शुभाशुभ अवलोकन । २६ ३० ३१ संग्रहसे अनुग्रहकी अनुज्ञा प्राप्त करना। प्रतिचारक मुनियोंकी स्वीकृति पूर्वक एक आराधकका ग्रहण। गुरुके आगे अपने अपराध कहना । आलोचनाके गुण दोषोंका वर्णन । आराधक योग्य वसतिका। आराधक योग्य शय्या। सहायक आचार्य आदि । अन्तिम आहारको दिखाना। क्रमसे आहारका त्याग। जल के अतिरिक्त तीन प्रकार के आहारका त्याग। आचार्य आदिसे क्षमाकी याचना। प्रतिक्रमण आदि द्वारा कोका क्षय । आचार्य द्वारा उद्यत मुनिको उपदेश । दुःख पीड़ित मोह ग्रस्त साधुको सचेत करना। क्षपकको वैराग्योत्पादक उपदेश देना। जीवन मरण लाभ अलाभके प्रति उपेक्षा। एकाग्रचिन्तानिरोध । कषायानुरजित योग प्रवृत्ति । आराधनासे प्राप्त फल । आराधकका शरीर त्याग। ३२ आलोचना गुण दोष शय्या संस्तर निर्यापक प्रकाशन हानि प्रत्याख्यान क्षमण क्षपणा अनुशिष्टि सारणा कवच समता ध्यान लेश्या फल शरीर त्याग ४. सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि १. इस विषयके ४० अधिकार भ. आ./मू./६६-७०/१६३ सविचारभत्तपच्चवखाणस्सिणमो उबक्कमो होइ । तत्थ य मुत्तपदाई चत्तालं होंति णेयाई ६६। अरिहे लिंगे सिक्वा विणय समाधो य अणियदविहारे। परिणामोवधिजहणा सिदी य तह भावणाओ य ६१ सल्लेहणा दिसा खामणा य अणुसिट्ठि परगणे चरिया। मग्गण सुटिम उवसंपया य पडिछा य पडिलेहा 1६८ आपुच्छा य पडिच्छण मेगस्सालोयणा य गुणदोसा। सेज्जा संथारो विय णिज्जवग पयासणा हाणी।। पच्चक्रवाणं खामण खमणं अणुसहिसारणाकवचे। समदाझाणे लेस्सा फलं विजहणा य णेयाई ७० - सविचार भक्तप्रत्याख्यानके वर्णन करनेमें चालीस सूत्र या अधिकार जानने चाहिए।६६। [जिनके नाम व संक्षिप्त लक्षण निम्न प्रकार हैं । ३३ ३४ ३६ ४० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना २. इन अधिकारोंका कथन क्रम नोट- उपरोक्त ४० अधिकारोंमें सलेखना धारने की विधिका कम व्याख्यान किया गया है। तहाँ नं० १-११, १७, १८, २०, २१, ब २४ ये अधिकार अन्वर्थक होनेसे सरल है । नं० १२, १३, १४, २३, २६.३०, ३१, ३२, ३६, ३७ इनका कथन सल्लेखना / ४ में किया गया है । नं० १६, २२, २७, २८, ३४ व ३५ का कथन सल्लेखना / ५ में ; नं० ३८ का सल्लेखना /१ में और नं० ३६ व ४० का सक्लेखना / ६ में किया गया है।] ३. आचार्य पदव्याग विधि भ.आ./मू./२७२-२७४ सम्लेहणं करेंतो जदि आयरिओ हवेज्ज तो तेण ताए वि अवस्थाए चितेदव्वं गणस्स हियं । २७२॥ कालं संभावित्तदिच नाहरिय सोमतिहिकरण मंगल गासे | २७३ | गच्छाणुपालनत्यं आहोइय अत्तगुणसमं भिक्खू । तो सम्म गर्ग अनकहाए कृणदि धीरो | २७४ - सलेखना करने के लिए प्रयुक्त हुआ सपक यदि आचार्य पदवीका धारक होगा तो उसको क्षपकको अवस्थामें भी अर्थात् जमतक आयुका अन्त निष्ट न आवे तभतक अपने गमके हितकी चिन्ता करनी चाहिए (२७३१ अपनी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर तदनन्तर अपने शिष्य समुदायको और अपने स्थानमें जिसकी स्थापना की है. ऐसे बालाचार्य को बुलाकर, सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र और सनके समय, शुभप्रदेश २७३। अपने गुणके समान जिसके गुण हैं ऐसा वह बालाचार्य गच्छका पालन करनेके लिए योग्य है, ऐसा विचारकर उसपर अपने गणको विसर्जित करते हैं, और उस समय उसे थोड़ा सा उपदेश भी देते हैं। २०४८ (भ.आ./पू./१००/१५) (दे. संस्कार / २ मे २१वी क्रिपाका लक्षण )। ४. सबसे क्षमा 8. ३९१ भ.आ./ /गा आमंतेण गणि गच्छमि तं गणि वेदून। तिविहेग समावेदि साल २०६॥ जं दीहकास संगसवार ममकारणेहरागेण कडुतपरु भनिया तमहं व् खमावेमि । २७७ ॥ अन्भहियजादहासो मत्थम्मि कदंजली कदपणामो । खामेसम्म संवेगं जमानी ।७११| मणकाहिं पूरा कदकारिदे अणुमदे वा । सब्वे अवराधपदे एस खमावेमि णिस्सलो |७१२। उस नवीन आचार्यको बुलाकर उसको गणके बीच में स्थापित कर और स्वयं अलग होकर माल व वृद्ध आदि मुनियोंसे पूर्ण ऐसे गणसे मन वचन कायसे वह आचार्य क्षमा माँगते हैं । हे मुनिगण ! तुम्हारे साथ मेरा दीर्घकाल तक सहवास हुआ है। मैंने ममत्व, स्नेहसे. द्वेषसे, आपको कटु और कठोर वाक्य कहे होंगे। इसलिए आप सब मेरे ऊपर क्षमा करेंगे ऐसी आशा है । २७७ ( आयुका अन्त निकट आनेपर ) वह क्षपक अपने मस्तकपर दो हाथ रखकर सर्व संघको नमस्कार करता है और साधर्मिकों में अनुराग उत्पन्न करता हुआ क्षमा ग्रहण कराता है । ७१२ । मन, वचन और शरीर के द्वारा जो-जो अपराध मैंने किये हैं, उनके लिए आप लोग मुझे क्षमा करो। मैं राज्य रहित हुआ हूँ |०१२ (मू.आ./५८)। ५. परगणचर्या व इसका कारण भ.आ./मू./१८४४०० एवं उस्थित सगर्भ वग्भुज्जवं परिहरतो आराधनाणिमित्तं परगणगमणे महं कुणदि । ३८४ । सगणे आणाकोवो फरुसं कलहपरिदावणादो य। निग्भय सिणेह कालुगणकाविरघ य असमाधी । ३८५। परगनवासी व पुणो अम्मावारो गणी हनदि तेसु । पत्थिय असमाहा आणाको वि कदम |८०| कलहपरिदावणादि दोसेवा जमा करते गोवेजगणे ममति ४. सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि दोसेण असमाधी । ३१० तम्हादिसु सहणिजे वि सगगम्मि णिन्भओ संतो| जाएज्ज व सेएज्ज य अकप्पिदं किं पि वीसत्थो ||३२| एदे दोसा गणिणो विसेसदो होंति सगणवासिस्स । भिवखुस्स वि तारिसयस्स होंति पाएण ते दोसा | ३६६ । एदे सब्बे दोसा ण होति परगण निवासियो गणियो । तम्हा सगणं पहिय वयदि सो परगण समाधी ३१० संविज्भीरुस्स पादसम्म तरस विहरतो । जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी |४००| इस प्रकार अपने गणसे पूछकर अपने रत्नत्रय में अतिशय प्रयत्नसे प्रवृत्ति करनेवाले ने आचार्य आराधना निमित्त परगणाने गमन करनेकी इच्छा मनमें धारण करते हैं । ३८४| स्वसंघमें रहने से आज्ञाकोप, कठोरवचन कलह, दुःख, विवाद, खेद वर निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यानविघ्न और असमाधि ये दोष उत्पन्न होते हैं । ३८५० जब आचार्य परगण में जाकर रहते हैं तब उस गणस्थ मुनियोंको वे उपदेश बाला करते नहीं, जिससे उनके द्वारा आज्ञाभंगका प्रसंग आता नहीं। और यदि कदाचित् आज्ञाभंग हो भी जाय तो भी 'इनपर तो मैंने कोई उपकार किया नहीं है, जो कि ये मेरी आज्ञा समाधि दोष उत्पन्न नहीं " मानें ऐसा विचारकर उनको यहाँ होता है। ३०० अब अपने में झुलकारि मुनि कलह, शोक, सन्तापादि परस्पर में करते हुए देखकर आचार्यकी अपने गर ममता होने से चित्तको एकाग्रता नष्ट हो जायेगी । ३६० | समाधिमरगोश आचार्यको भूख-प्यास वगैरहका दुःख सहन करना चाहिए। परन्तु वे अपने संघमें रहकर निर्भय होकर आहार जल वगैरह पदार्थोंकी याचना करेंगे अथवा स्वयं आहारादिका सेवन करेंगे और जा रहित होकर छोड़ी हुई अयोग्य वस्तुओंका भी ग्रहण करेंगे | ३६२ स्वगण में रहनेवाले जाचायोंको में दोष होंगे तथा जो आचार्य के समान उपाध्याय तथा प्रवर्तक मुनि हैं उन्हें भी स्वगण में रहने से ये दोष होंगे । ३६६ । परगण निवासी गणी. को ये दोष नहीं होते हैं। इसलिए स्वगण को छोड़कर परगण में जाते हैं । ३६७, संसारमी, पापभीरु और आगमके ज्ञाता आचार्यके चरणमूलमें ही अहमति समाधिमरणोचमी होकर आराधनाको सिद्धि करता है 18001 1 ६. उद्यत साधुके उत्साह आदिका विचार भ.आ./मू./१२-२२६ वो तस्स उत्तम करगुच्चाहं परिवि निरहू खीरोदयुमदुपार समाधीष ४१५ स्ववयरव पणस्सं तस्स आराधणा अविक्खेव । दिव्वेण णिमित्तेण य पहिलेहृदि अप्पमत्त सो ।५१६। यह क्षपक रत्नत्रयाराधनकी क्रिया करने में उत्साही है या नहीं, इसको परीक्षा करके अथवा मित्र बाहारोंमें यह अभिलषित है। विरत, इसकी परीक्षा करके हो आचार्य उसे अनुशा देश निर्णय करते हैं।७१५० हमारे संपका इस पकने समाधिके लिए आश्रय लिया है। इसकी समाधि निर्विघ्न समाप्त होगी या नहीं, इस विषयका भी आचार्य शुभाशुभ निमितों से निर्णय कर लेते हैं। यह भी एक परीक्षा है । ५१६। ७. आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण भ.आ./मू./गा. इय पयविभागियाए व ओघियाए व सल्लमुद्धरिय । सम्यगुणसोधियंत्री मुरूमएस' समायरह | ६१४ आलोय सुनिता तितो भयो उवायेग जदि उज्जुगोति निज जहाकर्द पटुवेद ६१० पादचारे जदि आप जहाक सध्ये कुब्वति तहो सोधि आगमववहारिणो तस्स | ६२श सो कदसामाचारी सोज्यं कटुं विधिणा गुरुसयासे । विहरदि सुविसुद्धप्पा अब्भुज्जदचरणगुण कवी | ६३०|- विशेषालोचना करके अथवा सामान्यालोचना करके मायाशज्यको हृदयसे निकाल कर दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणों में शुद्धिकी अभिलाषा रखता हुआ गुरुके द्वारा कहा हुआ प्रायश्चित्त, रोष, दीनता और अश्रद्धानका त्यागकर क्षपक ग्रहण करता है । सम्पूर्ण आलोचना सुनकर गुरु क्षपकको तीन बार जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लखना ३९२ ४. सविचार भक्त प्रत्याख्यान विधि उपायसहित पूछते हैं। तब यदि यह क्षपक सरल परिणामका है, ऐसा गुरुके अनुभवमें आ जाय तो उसको प्रायश्चित्त देते हैं अन्यथा नहीं।६१७। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आश्रयसे हुए सम्पूर्ण दोष क्षपक अनुक्रमसे कहेगा तो प्रायश्चित्त दान कुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं ।६२१३ जिसका आचार निर्दोष है ऐसा वह क्षपक प्रायश्चित्त लेकर शास्त्रकथित विधि के अनुसार गुरु समीप रहकर अपनेको निर्मल चारित्रयुक्त बनाता हुआ रत्नत्रयमें प्रवृत्ति करता है. तथा समाधिमरणके लिए जिस विशिष्ट आचरणको स्वीकार किया है, उसमें उन्नतिकी इच्छा करता है ।६३० (विशेष दे. 'आलोचना' व 'प्रायश्चित्त'); (मू. आ./५५-५६) ८.क्षपणा, समता व ध्यान म. आ./म./गा. एवं पडिक्कमणाए काउसग्गे य विणयसज्झाए । अणुपेहासु य जुत्तो संथारगओ धुणदि कम्मं ७१६॥ एवं अधियासें तो सम्म खबओ परीसहे एदे। सव्वत्थ अपडि उवेदि सवत्थ समभाव । १६८३। मित्तेमुयणादीसु य सिस्से साधम्मिए कुले चावि । राग वा दोसं वा पुवं जायं पि सो जहइ ।१६८६। इठेसु अणिठेसु य सद्दफरिसरसरूवगंधेस । इहपरलोए जीविदमरणे माणावमाणे च ।१६८८। सम्वत्थ णिबिसेसो होदि तदो रागरोसरहिदप्पा। खवयस्स रागदोसा हु उत्तम विराधेति ।१६८१। सेज्जा संथारं पाणयं च उवधि तहा सरीरं च । विज्जावच्चकरा विय बोसरह समत्तमारूढा ।१६६३। एवं सम्बत्थेसु वि समभावं उवगओ विसुद्धप्पा। मित्ती करुण मुदिदमुवेखं खवओ पुण उवेदि ।१६६५। एवं कसायजुद्ध मि हवदि खवयस्स आउध' झाणं । ज्माणविहूणो खवओ जुद्धव णिरावुधो होदि ।१८६२) १. उक्त क्रमसे संस्तरारूढ जो क्षपक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा इनमें एकाग्र होकर कर्मका क्षय करता है ।७१६। २. इस प्रकार समस्त परीषहोंको अव्याकुलतासे सहन करनेवाला यह क्षपक शरीर, वसतिका, गण और परिचारक मुनि इन सर्व वस्तुओंमें ममत्वरहित होता है। रागद्वषोंको छोड़कर समताभावमें तत्पर होता है ।१६८३। मित्र, बन्धु, माता, पिता, गुरु वगैरह, शिष्य और साधर्मिक इनके ऊपर दीक्षा ग्रहणके पूर्व में अथवा कवचसे अनुगृहीत होनेके पूर्व जो राग-द्वेष उत्पन्न हुए थे, क्षपक उनका त्याग करता है ।१६८६। इष्ट और अनिष्ट ऐसे शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श, रूप विषयों में, इहलोक और परलोकमें, जीवित और मरणमें, मान और अपमानमें यह क्षपक समानभाव धारण करता है। ये राग-द्वेष रत्नत्रय, उत्तमध्यान और समाधिमरणका नाश करते हैं, इसलिए क्षेपक अपने हृदयसे इनको दूर करता है ।१६८८-१६८१। सम्पूर्ण रत्नत्रयपर आरूढ होकर यह क्षपक वसतिका, तृणादिका संस्तर, पानाहार अर्थात् जल पान, पिच्छ, शरीर और वैयावृत्त्य करनेवाले परिचारक मुनि, इनका निर्मोह होकर त्याग करता है।१६६३। इस प्रकार सम्पूर्ण वस्तुओंमें समताभाव धारण कर यह क्षपक अन्तःकरणको निर्मल बनाता है। उसमें मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओं को स्थान देता है ।१६६५। ३. कषायोंके साथ युद्ध करते समय ध्यान मुनिको शस्त्रके समान उपयोगी होता है। जैसे शस्त्र रहित वीर पुरुष युद्ध में शत्रुका नाश नहीं कर सकता है, वैसे ही ध्यानके बिना कर्म शत्रुको मुनि नहीं जीत सकता है । १८६२। (विशेष दे. ध्यान/२/8)। ९. कुछ विशेष भावनाओंका चिन्तवन भ. आ./मू./गा, जावं तु केइ संगा उदोरया होति रागदोसाण । ते वज्जितो जिणदि हु राग दोसं च णिस्संगो।१७८। एदाओ पंच वज्जिय इणमो छट्ठीए विहरदे धीरो। पंचसमिदो तिगुत्तो णिस्संगो सब्यसंगेसु ।१८६। तवभावणा य सुदसत्तभावणेगत्तभावणे चेव । धिदिबलविभावणाविय असं कि लिट्ठावि पंचविह।।१८७५-जितना कुछ भी परिग्रह है वह सब राग और द्वेषको उत्पन्न करनेवाला है। और निःसंग होकर अर्थात परिग्रहको छोड़नेसे क्षपक राग द्वेषको भी जीत लेता है ।१७८। इन कन्दी आदि पाँच कुत्सित भावनाओंका (दे, भावना/३) त्यागकर जो धीर मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालनकर सम्पूर्ण परिग्रहों से निस्पृह रहते हैं वे ही छठी भावनाके आश्रयसे रत्नत्रयमें प्रवृत्त होते हैं ।१६। तप, श्रुताभ्यास, भयरहित होना, एकत्व, धृतिबल, ये पाँच प्रकारको असं क्लिष्ट भावनाएँ हैं, जिन्हें क्षपकको भाना चाहिए ।१८१ मू. आ./७५-८२ उडमधो तिरियम्हि दु कदाणि बालमरणाणि बहुगाणि । दसणणाणसहगदो पडियमरणं अणुमरिस्से ।७। जइ उप्पज्जह दुक्रवं। तो दट्ठयो सभावदो णिरये । कदम मए ण पत्तं संसारे संसरं तेण ७८० संसारचक्कवाल म्मि मए सम्बेपि पोग्गला बहुसो। आहारिदा य परिणामिदा ण य मे गदा तित्ती ७४ा आहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छति सत्तमी पुढवि । सच्चित्तो आहारोण कप्पदि मणसावि पत्थे, ८२। -ऊर्ध्व अधो व तिर्यक लोकमें मैंने बालमरण बहुत किये हैं, अब दर्शन ज्ञानमयी होकर संन्यासपूर्वक पण्डित मरण करू गा ।७५। यदि संन्यासके समय क्षुधादिकी वेदना उपजे तो नरकके स्वरूपका चिन्तवन करना चाहिए तथा जन्म, जरा, मरणरूप संसारमें मैंने कौनसे दुःख नहीं उठाये ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।७८। चतुर्गतिरूप संसारमें भ्रमण करते हुए मैंने सभी पुद्गल बहुत बार भक्षण किये है, और खल रस रूपसे परिणमित किये हैं परन्तु आज तक मेरी इनसे तृप्ति नहीं हुई है ७६। आहारके कारण ही तन्दुल मत्स्य सातवें नरक जाता है। इसलिए जीवधातसे उत्पन्न सचित्त आहार मनसे भी याचना करने योग्य नहीं है ।। १०. मौन वृत्ति भ. आ./मू./१७४/३६१ गणिणा सह संलाओ कज्ज पर सेसएहि साहूहिं। मोणं से मिच्छजणे भज्जं सण्णीसु सजणे य ।१७४।-क्षपकको संघमें आचार्यके साथ तो बोलना चाहिए, पर अन्य साधुओं के साथ अल्प मात्र ही भाषण करना चाहिए अधिक नहीं। मिथ्यादृष्टि जनों के साथ बिलकुल मौनसे रहे तथा विवेकी जनों या स्वजनों के साथ थोड़ाबहुत बोले अथवा बिलकुल न बोले ।१७४। ११.क्रम पूर्वक आहार व शरीरका त्याग १. १२ वर्षों का कार्य क्रम भ, आ./मू./२५३-२५४ जोगेहिं विचित्तेहिं दु खवेइ संवच्छराणि चत्तारि। वियडी णिज्जूहित्ता चत्तारि पुणो वि सोसेदि ।२५३। आयंबिल णिव्वियडीहिं दोणि आयंबिलेण एक्कं च । अद्धं. णादिविगठे हिं अदो अद्धं विगठेहिं ।२५४।[भक्त प्रत्याख्यानका उत्कृष्ट काल १२ वर्ष प्रमाण है--(दे. सरलेखना/३/५)। इन बारह वर्षोंका कार्यक्रम निम्न प्रकार हैं। ] प्रथम चार वर्ष अनेक प्रकारके कायक्लेशों द्वारा बिताये, आगे के चार वर्षों में दूध, दही, घी, गुड़ आदि रसोंका त्याग करके शरीरको कृश करता है। इस तरह आठ वर्ष व्यतीत होते हैं ।२५३॥ दो वर्ष तक आचाम्ल व निर्विकृति भोजन ग्रहण करके रहता है। (दे, वह वह नाम )। एक वर्ष केवल आचाम्ल भोजन ग्रहण करता है। छह महीने तक मध्यम तपों द्वारा शरीरको क्षीण करता है और अन्तके छह महीनों में उत्कृष्ट तपों द्वारा शरीरको क्षीण करता है ।२५४॥ (दे. आगे उपशीर्षक नं.४)।। २. आहारत्यागकी १२ प्रतिमाएँ दे, सल्लेखना/९/३ [यदि आयु व देहकी शक्ति अभी बहुत शेष है तो शास्त्रोक्त १२ भिक्षु प्रतिमाओंको ग्रहण करे, जिससे कि क्षपकको पीड़ा न हो। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना भ.आ./ ताराधना टीका/२४१/४०२/४ ईदयामाहार यदि मासाम्यन्तरे सभेऽहं ततो भोजनं करोमि नान्यथेति । तस्य मासस्यान्तिमे दिने प्रतिमायोगमास्ते! सा एका भिक्षुप्रतिमा एवं पूर्वोक्ताहाराच्छतगुणेनोत्कृष्टदुर्लभान्यान्याभ्यवहारस्यावग्रहं गृह्णाति । यावदुद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्तमासाः 'सर्वत्रान्तिमदिनकृतप्रतिमायोगाः एताः सप्त भिक्षुप्रतिमाः । पुनः पूर्वाहाराच्छतगुणोत्कृष्टस्य दुर्लभस्य अन्यान्याहारस्य सप्त सप्त दिनानि वारत्रयं तं गृह्णाति । पतास्तिो भिक्षुप्रतिमाः । ततो रात्रिदिनं प्रतिमायोगेन स्थित्वा पश्चाद्रात्रिप्रतिमायोगमास्ते । द्वे भिक्षुप्रति । पूर्वमवधिमन:पर्ययज्ञाने प्राप्य पश्चात्सूर्योदये केवलज्ञान प्राप्नोति एवं द्वादशभिनलिमाः १. मुनि स्वयं ठहरे हुए देशमें उत्कृष्ट और दुर्लभ आहारका मत प्रहण करता है। अर्याद उत्कृष्ट और दुर्लभ इस प्रकारका आहार यदि एक महीने के भीतरभीतर मिल गया तो मैं आहार करूगा अन्यथा नहीं। ऐसी प्रतिज्ञा करके उस महीने के अन्तिम दिनमें वह प्रतिमा-योग धारण करता है । यह एक भिक्षु प्रतिमा हुई (२०) पूर्वोक्त, आहारते शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहारका व्रत वह क्षपक ग्रहण करता है यह व्रत क्रमसे दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात मास तकके लिए ग्रहण करता है। प्रत्येक अवधिके अन्तिम दिन में प्रतिमायोग धारण करता है। ये कुल मिलकर सात भिक्षु प्रतिमाएँ हुई । - ( ८-१० ) पुनः सात-सात दिनोंमें पूर्व आहारकी अपेक्षासे वातगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न भिन्न आहार तो दफा लेनेकी प्रतिज्ञा करता है। आहारकी प्राप्त होनेपर तीन, दो और एक ग्रास लेता है। ये तीन भिक्षु प्रतिमाएँ हैं । (११-१२ ) तदनन्तर रात्रि और दिन भर प्रतिमायोगसे खड़ा रहकर अनन्तर प्रतिमायोगसे पानस्थ रहता है। ये दो प्रतिमाएं हुई प्रथम अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानकी प्राप्ति होती है। अनन्तर सूर्योदय होनेपर भइ झपक केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है। इस रीतिले १२ भिक्षु प्रतिमाएं होती है। २. शकी अपेक्षा तीन प्रकारके अथवा चारों प्रकारके आहारका त्याग भ.आ./मू./७०–७०८ वमयं पच्चस्त्रावेदि तदो सव्वं च चदुविधाहा संघसमवायम के सागारं गुरुजिओगे 101 अहवा समाधिहे कायoat पाणयस्य आहारो । तो पाणयंपि पच्छा बोसरिद जहाकाले |७०८ | = तदनन्तर संघके समुदाय में सविकल्पक प्रत्याख्यान अद चार प्रकारके आहारोंका निर्यापकाचार्य लपकको त्याग कराते हैं, और इतर प्रत्याख्यान भी गुरुकी आज्ञासे वह क्षपक करता है 1909 | अथवा क्षपकके चित्तकी एकाग्रताके लिए पानकके अतिरिक्त अशन खाद्य और स्वाद्य ऐसे तीन प्रकारके आहारोंका त्याग कराना चाहिए। जब क्षपककी शक्ति अतिशय कम होती है तब पानकका भी स्याग करना चाहिए अर्थात् परीचह सहन करने में खून समर्थ है उसको चार प्रकारके आहारका और असमर्थ साधुको तीन प्रकारके आहारका त्याग कराना चाहिए। (और भी दे. सल्लेखना / ३ / ७-१) | ४. आहार त्यागका सामान्य क्रम .बा./ /२१८-१११ अणुसज्जमाण पुरा समाधिकामस्स सम्महरिय एमकेक्स हार्मो उवेदि पौराणमाहारे ४१ अनुमेय ठविदो सब दूण सव्यमाहारं । पाणयपरिक्कमेण तु पच्छा भावेदि अप्पा | ६६६| संथारत्थो खबओ जहया खोणी हवेज्ज तो तश्या । बोसरिदव्य पुत्र विधिणेत्र सोपाणगाहारो | १४६२ - निर्यापकाचार्य के द्वारा आहाराभिलाषाके दोष बतानेपर भी क्षपक उस आहार में यदि प्रेमयुक्त ही रहा तो समाधिमरणको इच्छा रखनेवाले उस के सम्पूर्ण आहारों में से एक-एक बाहारको घटाते हैं, अर्था क्षपकसे एक-एक आहारका क्रमसे त्याग कराते हैं । ६६८| आचार्य STO ४-५० ३९३ ५. भक्तप्रत्याख्यान में निर्यापकका स्थान उपर्युक्त क्रमसे मिष्टाहारका त्याग कराकर क्षपकको सादे भोजन में स्थिर करते हैं । तब वह क्षपक भात वगैरह अशन और अपूप वगैरह खाद्य पदार्थोंको क्रमसे कम करता हुआ पानकाहार करनेमें अपनेको करता है । ( पानकके अनेकों भेद हैं- दे. पानक ) |६| संस्तरपर सोया हुआ क्षपक जब क्षीण होगा तब पानकके विकल्पका भी उपरोक्त सूत्रों के अनुसार त्याग करना चाहिए । १४६२ ( और भी 2. //-ε) | १२. क्षपकके लिए उपयुक्त आहार भ.आ./मू./गा. सल्लेहणासरीरे तवोगुणविधी अणेगहा भणिदा | आयंबिलं महेसी तत्थ दु उक्कत्सयं विति । २५०१ छट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं भहि अदिविकट्ठेहि मिदल आहार करेदि जामिल बहुसो | २५१ | आयंबिलेण सिंभं खोयदि पित्तं च उबसमं जादि । वादस्सरण एत्य पपत्तं तु कादब ७०१ अगमतितयमणं विसंग अकसायमलवणं मधुरं अभिरस मदुगंध अच्छमह अगदी १४० पाणगम सिमलं परिपूर्ण खोणस्स तस्स दादव्वं । जह वा पच्छे खवयस्स तस्स तह होइ दायव्वं । १४६११ - शरीर लेखनाके लिए जो पोंके अनेक विकल्प गाथाओं में कहे हैं. उनमें आचाम्ल भोजन करना उत्कृष्ट विकल्प है, ऐसा महर्षि गण कहते हैं | २५० दो दिनका उपवास, तीन दिनका उपवास, चार दिनका उपवास, पाँच दिनका उपवास ऐसे उत्कृष्ट उपवास होनेके अनन्तरमित और हलका ऐसा कांजी भोजन ही क्षपक बहुशः करता है | २६१| आचाम्ल से कफका क्षय होता है, पित्तका उपशम होता है। और वातका रक्षण होता है, अर्थात् बातका प्रकोप नहीं होता । इसलिए आचाम्ल में प्रयत्न करना चाहिए । ७०१ । जो आहार कटुक, तिक्त, आम्ल, कसायला, नमकीन, मधुर, विरस, दुर्गन्ध, अस्वच्छ, उष्ण और शीत नहीं है. ऐसा आहार क्षपकको देना चाहिए अर्थात मध्यम रसोंका आहार देना चाहिए | ११६०| जो पेय पदार्थ क्षीण क्षपकको दिया जाता है, वह कफको उत्पन्न करनेवाला नहीं होना चाहिए और स्वच्छ होना चाहिए। क्षपकको जो देनेसे पथ्यहिटकर होगा ऐसा ही पालक देने योग्य है। भक्ष्याभक्ष्य // शरीरको प्रकृति तथा क्षेत्र कालके अनुसार देना चाहिए] | ५. भक्तप्रत्याख्यानमें निर्यापकका स्थान १. योग्य निर्वापक व उसकी प्रधानता भ.आ./ए./गा. पंचविधे आचारे समुज्जो सम्बमिवडाओ सो उज्जमेदिखवयं पंचविधे सुट्ठु आयारे | ४२३ । आयारत्थो पुण से दोसे सब्वे वि ते विवज्जेदि । तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि बारि ४२] [पकको सम्लेखना धारण करानेवाला आचार्य आचारवाद, आधारवाद व्यवहारवाद, कर्ता, आमापादनोद्योत और उत्नीक होता है। इनके अतिरिक्त वह अपरिसावी, निर्वाचक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान, और निर्यापकके गुणोंसे पूर्ण होना चाहिए - (दे. आचार्य/१/२)] जो आचार्य स्वयं पंचाचार में तत्पर रहते हैं, अपनी सम पेटा जो समितियों के अनुसार ही करते हैं मे हो क्षपकको निर्दोष -- तथा पंचाचार में प्रवृत्ति करा सकते हैं |४२३| आचारवत्व गुणको धारण करनेवाले आचार्य ऊपर लिखे हुए दोषोंका (दे. अगला शीर्षक ) त्याग करते हैं, इसलिए गुणोंमें प्रवृत्त होनेवाले दोषों से रहित ऐसे आचार्य निर्यापक समझने चाहिए।४२ ( और भी दे. आगे शीर्षक नं. 1)" भ.आ./मू./गा. गोवत्यपाद होति गुणा एवमादिया बहूगाण य होइ संकिलेसो ण चाबि उप्पज्जदि विक्त्ती |४४७| खबओ किला जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ५. भक्तप्रत्याख्यानमें निर्यापकका स्थान मिदंगो पडिचरय गुणेण णिब्बुदि लहइ । तम्हा णिघिसिदव्यं खबएण पकुत्रयसयासे ।४५८। धिदिबलकरमाद हदं महुरं कण्णाहुदि जदि ण देह । सिद्रिसुहमावहती चत्ता साराहणा होइ ॥५०॥ इय णिववओ खवयस्स होइ णिज्जावओ सदायरिओ। होइ य कित्ती पधिदा ' एदेहि गुणेहि जुत्तस्स ।५०६।जो आचार्य सूत्रार्थज्ञ है उसके पाद मूल में जो क्षपक समाध्यर्थ रहेगा, उसको उपर्युक्त अनेक गुणोंकी प्राप्ति होती है, उसके संक्लेश परिणाम नहीं होते, न ही रत्नत्रयमें कोई बाधा होती है। इसलिए आधारगुणयुक्त आचार्यका आश्रय लेना ही क्षपकके लिए योग्य है ।४४७१ रोगसे प्रसित क्षपक आचार्य के द्वारा की गयी शुश्रूषासे सुखो होता है, इसलिए प्रकुर्वी गुणके धारक आचार्य के के पास ही रहना श्रेयस्कर है।४५८। निर्यापकाचार्यकी वाणी धैर्य उत्पन्न करती है, वह आत्माके हितका वर्णन करती है, मधुर और कर्णाहादक होती है। यदि ऐसो वाणोका प्रयोग न करें तो क्षपक आराधनाओंका त्याग करेगा 1५०५। इस प्रकारसे क्षपकका मन आह्लादित करनेवाले आचार्य निर्यापक हो सकते हैं अर्थात निर्वापकत्व गुणधारक आचार्य क्षपकका समाधिमरण करा सकता है। इन आचारवत्वादि गुणोंसे परिपूर्ण आचार्यको जगत्में कीर्ति होती है।०६। ३. योग्य निर्यापकका अन्वेषण भ. आ./मू./गा. पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि या गंतूं। णिज्जावगमण्णेसदि समाधिकामो अणुण्णादं ।४०१। एक्कं व दो व तिणि य वारसवरिसाणि वा अपरिदतो। जिणवयणमणुण्णाद गवेसदि समाधिकामो दु।४०२। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झझा। अज्जवमद्दवलाघवतुट्ठी पाहादणं च गुणा 1४०६। --जिसको समाधिमरणकी इच्छा है ऐसा मुनि ५००,६००,७०० अथवा इससे भी अधिक योजन तक विहारकर शास्त्रोक्त निर्यापकका शोध करता है । ४०१। वह एक, दो, तीन वर्षसे लेकर बारह वर्ष तक खेदयुक्त न होता हुआ जिनागमसे निर्णीत निर्यापकाचार्यका अन्वेषण करता है।४०२। निर्यापकत्वकी शोध करनेके लिए विहार करनेसे क्षपकको आचारशास्त्र, जीतशास्त्र और कल्पशास्त्र इनके गुणों का प्रकाशन होता है। आत्माकी शुद्धि होती है, संक्लेश परिणाम नष्ट होते हैं। आर्जव, मार्दव, लाघव (लोभरहितता) सन्तुष्टी, आहाद आदि गुण प्रगट होते हैं ।४०६॥ ४. एक निर्यापक एक ही क्षपकको ग्रहण करता है भ. आ./म् /५१६-५२० एगो संथारगदो जजइ सरीर जिणोवदेसेण । एगो सलिलहदि मुणी उग्गेहि तवोविहाणेहि ।।१६। तदिओ णाणुण्णादो जजमाणस्स हु हवेज्ज वाघादो। पडिदेसु दोसु तीस य समाधिकरणाणि हायन्ति ।५२०॥ भ. आ./वि./५२०/७३६/१६ तृतीयो यतिन नुज्ञातः तीर्थकृद्भिः एकेन निर्यापकेनानुग्राह्यस्वेन -एक क्षपक जिनेश्वरके उपदेशानुसार संस्तरपर चढ़कर शरीरका त्याग करता है अर्थात समाधिमरणका साधन करता है और एक मुनि उन अनशनादि तपोंके द्वारा शरीरको शुष्क करता है ।५११। इन दोनों के अतिरिक्त तृतीय यति निर्यापकाचार्यके द्वारा अनुग्राह्य नहीं होता है। दो या तीन मुनि यदि संस्तरारूढ़ हो जायेंगे तो उनको धर्म में स्थित रखनेका कार्य, विनय वैयावृत्त्य आदि कार्य यथायोग्य नहीं हो सकेंगे, जिससे उनके मनको संक्लेश होगा। अत: एक ही क्षपक संस्तरारूढ़ हो सकता है। ।२०। २. चारित्रहीन निर्यापकका आश्रय हानिकारक है भ. आ./मू./४२४-४२६ सेज्जोवधिसंथार भत्तं पाणं च चयणकप्पगदो। उवकप्पिज्ज असुद्ध' पडिचरए वा असं विग्गे।४२४॥ सल्लेहण पयासेज्ज गंध मल्लं च समणुजाणिज्जा। अप्पाउग्गव कथं करिज्ज सहर व जंपिज्ज ।४२५ ण करेज्ज सारण वारणं च खमयस्स चयणकप्पगदो। उहज्ज वा महलं खवयस्स किंचणारं भं ।४२६। -पंचाचारसे भ्रष्ट आचार्य क्षपकको वसतिका, उपकरण, संस्तर, भक्त, पान, उदगमादि दोष सहित देगा । वह वैराग्य रहित मुनियोंको उसकी शुश्रूषाके लिए नियुक्त करेगा, जिनसे क्षपकका आत्महित होना अशक्य है ।४२४। वह क्षपककी सरलेखनाको लोकमें प्रगट कर देगा, उसके लिए लोगोंको पुष्पादि लानेको कहेगा, उसके सामने परिणामोंको बिगाड़नेवाली कथाएँ कहेगा, अथवा योग्यायोग्यका विचार किये बिना कुछ भी बकने लगेगा।४२ वह न तो क्षपकको रत्नत्रयमें करने योग्य उपदेश देगा और न उसे रत्नत्रयसे च्युत होनेसे रोक सकेगा। उसके निमित्त पट्टकशाला, पूजा, विमान आदिके अनेक आरम्भ लोगोंसे करायेगा, इसलिए ऐसे आचार्यके सहवासमें क्षपकका हित होना शक्य नहीं ।४२६॥ ५. निर्यापकोंकी संख्याका प्रमाण भ. आ./मू./(उपोद्धात-क्षपकस्य चतुरङ्ग कथमगृहीतार्थो नाशयतीत्यारेकायामित्यमसौ नाशयतीति दर्शयति)-सम्' सुदिमलहंतो दीहृद्ध मुत्तिमुवगमित्ता वि। परिवडह मरणकाले अकदाधारस्स पासम्मि ४३३। सक्का बंसी छत्तं तत्तो उक्कडिओ पुणो दुवं । श्य संजमस्स वि मणो विसए सुक्कड्ढि, दुवखं ।४३४१ पढमेण व दोवेण व वाहिज्जंतस्स तस्स खवयस्स । ण कुणदि उवदेसादि समाधिकरण अगोदत्थो।४३१- प्रश्न-चतुरंगको न जाननेवाला आचार्य क्षपकका नाश कैसे करता है। उत्तर --[ अनादि संसार चक्रमें उत्तम देश, कुल आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। - गा. ४३०-४३२] योग्य कार्य में प्रवृत्ति करनेवाली स्मृति प्राप्त होनेपर भी और चिरकाल तक संयम पालन कर लेनेपर भी अल्पज्ञ आचार्य के आश्रयसे मरणकाल में क्षपक संयम छोड़ देता है ।४३३। जिस प्रकार बाँसके समूहमें से एक छोटे बाँसको उखाड़ना बहुत कठिन है उसी प्रकार मन विषयोंसे निकालकर संयममें स्थापित करना अत्यन्त कठिन है ।४३४। अगीतार्थ आचार्य क्षुधा और तृषासे पीडित क्षपकको उपदेशादिक नहीं करता इसलिए उसके आश्रयसे उसको समाधि मरण लाभ नहीं होता।४३७॥ भ. आ./मु./गा, कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणुज्जदा सुदरहस्सा। गीदस्था भयबंता अडदालीस तु णिज्जवया।६४८१.... कालम्मि संकिलिट्ठमि जाव चत्तारि साधेति ।६७२। णिज्जावया य दोण्णि घि होति जहण्णेण कालसंसयणा। एक्को णिज्जाक्यो होइ कच्या वि जिणसुत्ते ।६७३। एगो जाणिज्जवओ अप्पा चत्तो परोयवयणं च। बसणमसमाधिमरणं बड्डाहो दुग्गदी चाथि ६७४।योग्यायोग्य आहारको जानने में कुशल, क्षपकके चित्तका समाधान करनेवाले, प्रायश्चित्त प्रन्थ के रहस्यको जाननेवाले, आगमज्ञ, स्वब परका उपकार करने में तत्पर निर्यापक या परिचारक उत्कृष्टतः४५ होते हैं।६४८। संक्लेश परिणामयुक्त काल में वे चार तक भी होते है।६७२। और अतिशय संक्लिष्ट कालमैं दो निर्यापक भीक्षपकके कार्यको साध सकते हैं। परन्तु जिनागममें एक निर्यापकका किसी भी कालमें उल्लेख नहीं है ।६७३। यदि एक ही निर्यापक होगा तो उसमें आत्मत्याग, क्षपकका त्याग और प्रवचनका भी त्याग हो जाता है। एक निर्यापक से दुःख उत्पन्न होता है और रश्नत्रयमें एकाग्रताके विना मरण हो जाता है। धर्मदूषण और दुर्गति भी होती है। (विशेष दे. भ. आ./मू./६७५-६७१) । नि. सा./ता. ७/१२ इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीना सालेखनासमये हि द्विचत्वारिंशद्भिराचार्यदत्तोत्तमार्थप्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मा व्यवहारेण -जिनेश्वरके मार्ग में मुनियों की सहलेखनाके समय जैनेन्द्र सिवान्त कोश Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ३९५ ५. भक्तप्रत्याख्यानमें निर्यापकका स्थान मयालीस आचार्यों द्वारा, जिसका नाम उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है वह . ८. आहार दिखाकर बैराग्य उत्पन्न कराना दिया जानेके कारण देहत्याग व्यवहारसे धर्म है। भ, आ./मू./६८१-६६५ दवपयासमकिच्चा जइ कीरह तस्स तिबिह६. सब निर्यापकोंमें कर्तव्य विभाग वोसरणं । कम्हिवि भत्तबिसेसं मि उस्सुगो होज्ज सो खबओ।६८। तम्हा तिविहं बोसरिहिदित्ति उक्कस्सयाणि दठबाणि । सोसित्ता भ. आ./मू./६४६-६७० का भावार्थ [१. चार परिचारक सावधानी संविरलिय चरिमाहारं पायासेज्ज ।६०। पासित्तु कोइ तादी तीर पूर्वक क्षपकके हाथ पाँव दबाना, चलने-फिरनेमें सहारा देना, पत्तस्सिमेहिं कि मेत्ति । वेरगमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि ६६१॥ मुलाना, मैठाना, खड़ा करना. करवट दिलाना, पाँव पसारमा व 148 देसं भोच्चा हा हा तीर...६६३। सव्वं भोच्चा धिद्धी सिकोड़ना आदि उपकार करते हैं।६४-६५०। २. चार मुनि विक तीरं...६६४ कोई तमादयित्ता मणुण्णरसवेदणाए संविद्धो। तं चेवथाओंका त्यागकर क्षफ्कको असन्दिग्ध, मधुर, हृदयस्पर्शी. मुखकर. णुबंधेज्ज हु सव्वं देस'च गिद्धोए।६-क्षपकको आहार न दिखातथा हितप्रद धमोपदेश देते हैं । ६५१-६५३॥ ३, भिक्षा लब्धि युक्त कर ही यदि तीन प्रकारके आहारोंका त्याग कराया जायेगा तो वह चार मुनि याचनाके प्रति ग्लानिका त्याग करके क्षपकके लिए उसकी क्षपक किसी आहार विशेषमें उत्सुक होगा 1६८१। इसलिए अच्छेरुचि व प्रकृतिके अनुसार उद्गमादि दोषों रहित आहार मांगकर अच्छे आहारके पदार्थ बरतनोंमें पृथक् परोसकर उस क्षपकके समीप लाते हैं।६। (दे. अपवाद/३/३) ४ चार मुनि उसके लिए लाकर उसे दिखाना चाहिए।१६०। ऐसे उत्कृष्ट आहारको देखकर पीने योग्य पदार्थ माँगकर लाते है ।६६३। ( दे. अपवाद। कोई क्षपक 'मैं तो अब इस भवके दूसरे किनारेको प्राप्त हुआ हूँ, इन ३/३)। १. चार मुनि उस मांगकर लाये हुए आहार व पानके आहारोंकी अब मुझको कोई आवश्यकता नहीं है ऐसा मनमें समझपदार्थोकी चूहों आदिसे रक्षा करते हैं।६६४। (दे. अपवाद/३/३)। कर भोगसे विरक्त व संसारसे भययुक्त होकर आहारका त्याग कर ६. चार मुनि क्षपकको मलमूत्र करानेका तथा उसकी वसतिका देता है।६४ कोई उसमें से थोड़ा सा खाकर ६६३. और कोई सम्पूर्णसंस्तर व उपकरणोंको शोधनेका कार्य करते हैं।६६१७. चार मुनि का भक्षण करके उपरोक्त प्रकार ही विचारता हुआ उसका त्याग क्षपककी वसतिकाके द्वारका रक्षण करते हैं ताकि असंयतजन वहाँ कर देता है।६६४। परन्तु कोई क्षपक दिखाया हुआ भक्षण कर उसके प्रवेश न कर सके14441८. तथा चार मुनि धर्मोपदेश देनेके मंडपके स्वादिष्ट रसमें लुब्ध होकर उस सम्पूर्ण आहारको बारम्बार भक्षण द्वारकी रक्षा करते हैं।६६६६ १. चार मुनि क्षपकके पास रातको करनेकी इच्छा रखता है अथवा उसमें किसी एक पदार्थको बारम्बार जागरण करते हैं।६६७४ १०. और चार मुनि उस नगर या देशकी खानेकी अभिलाषा रखता है। [ ऐसा क्षपक कदाचित निर्याशुभाशुभ वार्ताका निरीक्षण करते हैं ।६६७। ११. चार मुनि आग पकका उपदेश सुनकर उससे विरक्त होता है (दे. शीर्षक सं०११) न्तुक श्रोताओं को सभामण्डपमें आक्षेपणी आदि कथाओंका तथा स्व और इसपर भी विरक्त न हो तो धीरे-धीरे क्रमपूर्वक उसका प्ररयाव पर मतका सावधानी पूर्वक उपदेश देते है, ताकि क्षपक उसे न ख्यान कराया जाता है। (वे. सल्लेखना/४/११)] सुन सके ।६५८। १२. चार वादी मुनि धर्मकथा करने वाले उपरोक्त मुनियोकी रक्षार्थ सभामें इधर-उधर घूमते हैं ।६६।। ९. कदाचित् क्षपकको उग्र वेदनाका उद्रेक ७. क्षपककी वैयावृत्ति करते हैं भ. आ./पू./१५०१-१५१० अहवा तण्हादिपरसिहेहिं खवओ हविज्ज भ. आ./मू./गा. तो पाणएण परिभाविदस्स उदरमलसोधणिच्छाए । अभिभूदो। उवसग्गेहिंव खवओ अचेदणो होज्ज अभिभूयो ।१५०१। मधुरं पज्जेदव्यो मंडं व विरेयणं खवयो।७०२। आणाहवत्तियादीहि तो वेदणावसठ्ठी वालिदो वा परीसहादीहिं । खवओ अणप्पवसिओ वा वि कादवमुदरसोधणयं । वेदणमुप्पादेज्ज हु करिसं अस्थतयं सो विप्पलवेज्ज जं कि पि ।१५०२। उन्भासेज्ज व गुणसेढीदो उदउदरे ७०३ वेज्जावच्चस्स गुणा जे पुव्वं विच्छरेण अक्खादा। तेसिं रणबुद्धिओ ववओ। छठें दोच्चं पढ़मं वसिया कुटिलिदपदमिफिडिओ सो होइ जो उवेक्खेज्ज त खवयं ।१४६६। तो तस्स च्छतो ।१५०३। चेयंतोपि य कम्मोदएण कोह पर सहपरखो। तिगिछा जाणएण खवयस्स सव्वसत्तीए । विज्जादेसैण बसे पडिकम्म उन्भासेज्ज वउक्कावेज्ज व भिदेज्ज व पदिण्णं ।१५१०-भूख-प्यास होइ कायव्यं ।१४६)-पानक पदार्थ का सेवन करनेवाले क्षपकको इत्यादि परिषहोंसे पीड़ित हो कर क्षपक निश्चेत होगा अथवा भ्रान्त पेटके मलकी शुद्धि करनेके लिए मॉडके समान मधुर रेचक औषध होगा, अथवा मूच्छित होगा ।१५०१॥ वेदनाकी असह्यतासे दुःखी देना चाहिए ।७०२। उसके पेटको सेंकना चाहिए तथा सेंधा नमक होकर, परिषह और उपसर्गसे व्याकुल होकर क्षपक आपेमें नहीं आदि पदार्थोकी बत्तो बनाकर उसकी गुदामें प्रवेश कराना चाहिए। रहेगा. जिससे वह बड़-बड़ करेगा ।१५०२॥ अयोग्य भाषण मोलेगा, ऐसा करनेसे उसके उदरका मल निकल जाता है ।७०३। वैयावृत्त्यके संयमसे गिरनेको बुद्धि करेगा। रात्रिको भोजन-पान करनेका अथवा गुणोंका विस्तारसे पूर्व में वर्णन किया गया है (दे. वैयावृत्त्य ) । दिनमें प्रथम भोजन करनेका विचार उसके मनमें उत्पन्न होगा जो निर्यापक क्षपककी उपेक्षा करता है वह उन गुणोंसे भ्रष्ट होता ११५०३। कोई क्षपक सावध होकर कर्मोदयसे परिषहोंसे व्याकुल होकर है।१४६६। रोगका निदान जानने वाले मुनिको वैद्यके उपदेशानुसार जो कुछ भी उचित-अनुचित भाषण करेगा। अथवा ली हुई प्रतिअपनी सर्व शक्तिसे क्षपकके रोगका परिहार करना चाहिए।१४६७। ज्ञाओंका भंग करेगा ।१५१०। दे. सल्लेखना/५/६ [क्षपकके हाथ-पाँव दमाना, उसे उठाना, बैठाना, चलाना, सुलाना, करवट दिलाना, मल-मूत्र कराना, उसके लिए आहारादि मांग कर लाना इत्यादि कार्य निर्यापक व परिचारक १०. उपरोक्त दशामें भी उसका त्याग नहीं करते नित्य करते हैं।] दे. अपवाद/३/४-५ [ जीभ और कानोंकी सामर्थ्य के लिए क्षपकको कई म.आ./मू./१११ण हु सो कडुवं फरस व भाणिदव्यो ण खोसिदब्बो मार तेल व कषायले पदार्थोके कुलले कराने चाहिए। उदरमें मलका य। ण य वित्तासेदव्यो ण य वट्टदि हीलणं कादु' ।१५१११ प्रतिज्ञा शोधन करने के लिए निमा करना, सर्दी में उष्णोपचार और गरमी- भंग करने पर भी निर्यापकाचार्य उसे कड़वे और कठोर शब्द न बोले, में शीतोपचार करना तथा अंग मर्दन आदि रूपसे उसकी सेवा उसकी भर्सना न करे, उसको भय न दिखावे अथवा उसका अपकरते हैं। मान न करे।९५९१३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना ६. मृत शरीरका विसर्जन व फलविचार १६५७ जिहापर आनेके समय ही आहार मुखदायक प्रतीत होता है, पीछे तो दुःखदायक ही है ।१६६०। वह मुख अत्यन्त क्षणस्थायी है।१६६२। तलवारकी धार एक भवमें ही नाशका कारण है पर अयोग्य आहार सैकड़ों भवों में हानिकारक है ।१६६६। अब तू इस शरीरकी ममताको छोड़।१६६७। निःसंगत्वकी भावनासे अब इस मोहको क्षीण कर ।१६७१। मरण समय संक्लेश परिणाम होनेपर ये संस्तर आदि बाह्य कारण तेरी सल्लेखनामें निमित्त न हो सकेंगे १६७२। (दे. सल्लेखना/१/७)। यद्यपि अब यह श्रम तुझे दुष्कर प्रतीत होता है परन्तु यह स्वर्ग व मोक्षका कारण है, इसलिए हे क्षपक ! इसे तू मत छोड़ ।१६७। जैसे अभेद्य कवच धारण करके योद्धा रणमें शत्रुको जीत लेता है, वैसे ही इस उपदेशरूपी कवचसे युक्त होकर क्षपक परीषहोंको जीत लेता है।१६८१-१६५२। ११. यथावसर उपदेश देते हैं १. सामान्य निर्देश दे. उपदेश/३/४ (आक्षेपिणी, संवेजनी. और निजनी ये तीन कथाएँ क्षपकको सुनाने योग्य हैं। पर विक्षेपणी कथा नहीं। (भ.आ./मू./ ६५५, १६०८). भ. आ./मू./गा. सं० का भावार्थ-[हे क्षपक ! तुम सुख-स्वभावका त्याग करके चारित्रको धारण करो ५२२। इन्द्रिय व कषायोंको जीतो।२३ हे क्षपक !तू मिथ्यात्वका वमन कर सम्यग्दर्शन, पचपरमेष्ठी की भक्ति व ज्ञानोपयोगमें सदा प्रवृत्ति कर ७२२, ७२ पंच महावतोंका रक्षण कर, कषायोंका दमन कर, इन्द्रियोंको वश कर १७२३। (मू. आ./८३-१४)। २. वेदनाकी उग्रतामें सारणात्मक उपदेश भ, आ./म./गा. सं० का भावार्थ-वधादिसे पीड़ित होनेपर, वे आधारवान् निर्यापकाचार्य क्षपककी मधुर व हितकर उपदेश द्वारा आतध्यानसे रक्षा करते हैं ।४४॥ हे मुनि ! यदि परिचारकोंने तेरा त्याग भी कर दिया है, तब भी तू कोई भय मत कर ऐसा कहकर उसे निर्भय करते हैं । ४३। शिक्षावचन रूप आहार देकर उसकी भूखप्यास शान्त करते हैं ।४४५॥ आचार्य क्षपकको आहारकी गृद्धिसे संयमकी हानि व असंयमकी वृद्धि दर्शाते हैं ।६६ जिसे सुनकर वह सम्पूर्ण अभिलाषाका त्याग करके बैराग मुक्त व संसारसे भययुक्त हो जाता है।६६७) पूर्वाचरणका स्मरण करानेके लिए आचार्य उस क्षपकको निम्न प्रकार पूछते हैं, जिससे कि उसको लेश्या निर्मल हो जाती है ।१५०४॥ हे मुने ! तुम कोन हो. तुम्हारा क्या नाम है, कहाँ रहते हो. अब कौनसा काल है अर्थात दिन है या रात, तुम क्या कार्य करते हो, कैसे रहते हो । मेरा क्या नाम है ११११०॥ ऐसा सुनकर कोई क्षपक स्मरणको प्राप्त हो जाता है कि मैंने यह अकाल में भोजन करनेकी इच्छा की थी। यह आचरण अयोग्य है, और अनुचित आचरणसे निवृत्त हो जाता है ।१५०८१ (मू. आ./६५-१०२)। ३. प्रतिशाको कवच करनेके अर्थ उपदेश भ. आ./ /गा, सं० का भावार्थ-प्रतिज्ञा भंग करनेको उद्यत हुए क्षपकको निर्यापकाचार्य प्रतिज्ञा भंगसे निवृत्त करनेके लिए कवच करते हैं ।१५१३। अर्थात् मधुर व हृदयस्पर्शी उपदेश देते हैं ।१५१४॥ हेक्षपक! तू दीनताको छोड़कर मोहका त्याग कर । वेदना व चारित्रके शत्रु जो राग व कोप उनको जीत ।१५१३ तूने शत्रुको पराजित करनेकी प्रतिज्ञा की है, उसे याद कर। कौन कुलीन व स्वाभिमानी शत्रु समक्ष आनेपर पलायन करता है ।१५१८। हे क्षपक! तूने चारों गतियों में जो-जो दुःख सहन किये हैं उनको याद कर ।१५६१३ [विशेष दे. बह-बह गति अथवा भ.आ./मू./१५६२-१६०१)] उस अनन्त दुःखके सामने यह दुःख तो ना के बराबर है ।१६०२। अनन्त बार तुम्हें तीव्र भूख व प्यास सहन करनी पड़ी है।१६०५१६०७। तुम संवेजनी आदि तीन प्रकार कथाए सुनो, जिससे कि तुम्हारा बल बढ़े।१६०८। कर्मोंका उदय होनेपर औषधि आदि भी असमर्थ हो जाती हैं ।१६१०१ मरण तो केवल उस भवमें ही होता है परन्तु असंयमसे सैकड़ों भवोंका नाश होता है ।१६१४॥ असाताका उदय आने पर देव भी दुःख दूर करनेको समर्थ नहीं।१६१७-१६१६। अतः वह दुर्निवार है।१३२२। प्रतिज्ञा भंग करनेसे तो मरना भला है।१६३३ ( दे. बत/१/७)। आहारकी लम्पटता पाँचौ पापोंकी जननी है ।१६४२॥ हे क्षपक ! यदि तेरी आहारको अभिलाषा इस अन्तिम समयमें भी शान्त नहीं हुई हो तो अवश्य ही तू अनन्त संसारमें भ्रमण करनेवाला है ।१६५२॥ हे क्षपक ! आज तक अनन्त बार तूने चारों प्रकारका आहार भक्षण किया है, पर तू तृप्त नहीं हुआ ६. मृत शरीरका विसर्जन व फल विचार १. शव विसर्जन विधि भ, आ./मू./गा. जे वेलं कालगदो भिक्खू तं वेलमेव णीहरणं । जग्गणबंधणछेदणविधी अबेलाए कादवा १९७४। गीदत्था...रमिज्जबाधेज्ज ।१९७६-७७ ( दे. अपवाद/३/६)। उयसय पडिदावण्णं....पि तो होज्ज ।१९७८-७१। (दे. अपवाद/३/३)। तेण पर संठाविय संथारगदं च तत्थ बंधित्ता। उठेतरवणठं गामं तत्तो सिर किच्चा (१९८० पुबाभोगिय मग्गेण आसु गच्छति तं समादाय । अद्विदमणियत्तता य पीट्टदो ते अणिभंता १९६१। तेण कुसमुट्ठिधाराए अब्बोच्छिणाए समणिपादाए। संथारो कादब्बो सव्वस्थ समो सगि तत्थ ।१९८३ जत्थ ण होज्ज तणाई चुण्णेहि वि तस्थ केस रेहिं वा । संघरिदव्वा लेहा सव्वस्थ समा अवोच्छिण्णा १६८४। जत्तो दिसाए गामो तत्तो सीस करित्त सोवधियं । उठेतररवण? वोस रिदव्व सरीरं तं १६ जो वि विराधिय दंसणमंते काल करित्तु होज्ज सुरो। सो वि विबुज्झदि दळूण सदेह सोवधि सज्जो १६८७। गणरक्वत्थं तम्हा तणमयपडिविवयं खु कादूण । एक्कं तु समे खेत्ते दिवढखेत्ते दुवे देज्ज ।१९६०ा तट्ठाणसावणं चिय तिवखुत्तो ठविय मडयपासम्मि। विदियवियप्पिय भिक्खू कुज्जा तह विदियतदियाणं ।१६६११ असदि तणे चुण्णेहिं च केसरच्छारिट्टियादिचुण्णेहिं । कादब्बोथ ककारो उबरि हिट्ठा यकारी से।१६६२। -जिस समय भिक्षुका मरण हुआ होगा, उसी वेलामें उसका प्रेत ले जाना चाहिए। अवेलामें मर जानेपर जागरण, अथवा छेदन करना चाहिए।१६७४। [ पराक्रमी मुनि उस शवके हाथ और पाँव तथा अंगूठा इनके कुछ भाग बाँधते हैं अथवा छेदते हैं। यदि ऐसा न करे तो किसी भूत या पिशाचके उस शरीर में प्रवेश कर जानेकी सम्भावना है, जिसको लेकर बह शव अनेक प्रकारकी क्रीड़ाओं द्वारा संघको क्षोभ उत्पन्न करेगा ।१९७६-१९७७ (दे.अपवाद/३/६)।-गृहस्थों से माँगकर लाये गये थाली आदि उपकरणोंको गृहस्थोंको वापस दे देने चाहिए । यदि सर्व जनोंको विदित किसी आर्यिका या क्षुल्लकने सग्लेखना मरण किया है तो उसके शवको किसी पालकी या विमानमें स्थापित करके गृहस्थजन उसे ग्रामसे बाहर ले जायें ।१९७८-११७६(दे. अपवाद/३/३) शिविकामें बिछानेके साथ उस शवको बाँधकर उसका मस्तक ग्रामकी ओर करना चाहिए। क्योंकि कदाचित् उसका मुख ग्रामकी तरफ न होनेसे वह ग्राममें प्रवेश नहीं करेगा। अन्यथा ग्राममें प्रवेश करनेका भय है ।१६८०। पूर्व में देखे गये मार्ग से उस शवको शीघ्र ले जाना चाहिए। मार्ग में नं खड़े होना चाहिए और न पीछे मुड़कर देखना १६६१। जिसने निषद्यका स्थान पहले देखा हो वह मनुष्य आगे ही वहाँ जाकर दर्भमुष्टिकी समानधारासे सर्वत्र सम ऐसा संस्तर करे १६८३६ दर्भ जैनेन्द्र सिवान्त कोश Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना सवर्णकारिणी तृणके अभावमें प्रामुक तण्डुल मसूर की दाल इत्यादिकोंके चूर्णसे, कमल केशर वगैरहसे मस्तकसे लेकर पावतक बिना टूटी हुई रेखाएँ खेंचे ।१९८४॥ अन ग्रामकी दिशामें मस्तककर पीछीके साथ उस शवको उस स्थानपर रखे ।१६६६। जिसने सभ्यग्दर्शनकी विराधनासे मरणकर देवपर्याय पाया है, वह भी पीछीके साथ अपना देह देखकर 'मैं पूर्व जन्म में मुनि था' ऐसा जान सकेगा ।१९८७। गणके रक्षण के हेतु मध्यम नक्षत्र में तृणका एक या दो प्रतिबिम्ब बनाकर उसके पास रखना चाहिए।१६801 उन्हें वहाँ स्थापनकर जोरसे बोलकर ऐसा कहें कि मैंने यह एक अथवा दो क्षपक तेरे अर्पण किये हैं। यहाँ रहकर यै चिरकाल पर्यन्त तप करें।१६। यदि तृण न हों तो तण्डल चूर्ण, पुष्प केसर, भस्म आदि जो कुछ भी उपलब्ध हो उससे ही वहाँ 'काय' ऐसा शब्द लिखकर उसके ऊपर क्षपकको स्थापन करे ।१६६२। २. शरीर विसर्जनके पश्चात् संघका कर्तव्य भ. आ./मू./१६६३-१६६६ उवगहिदं उबकरणं हवेज अंतस्थ पाडिहरियं तु। पडिमोधित्ता सम्म अप्पेदव्वं तयं तेसिं १९६३। आराधणपत्तीयं काउसग्गं करेदि तो संघो। अधिउत्ताए इच्छागारं खबयस्स बसधीए REE४. सगणत्थे कालगदे खमणमसज्झाइयं च तदिवसं। सज्झाइ परगणत्थे भयणिज्ज खमण करणं पि१६६श एवं पडिट्ठवित्ता पूणो वितदियदिवसे उवेक्वंति। संघस्स सुहविहारं तस्स गदी चेव णा९जे १६६६-मृतकको निषीधिकाके पास ले जानेके समय जो कुछ वस्त्र काष्ठादिक उपकरण गृहस्थों से याचना करके लाया गया था उसमें जो कुछ लौटाकर देने योग्य होगा वह गृहस्थोंको समझाकर देना चाहिए १६६३. चार आराधनाओंकी प्राप्ति हमको होवे ऐसी इच्छासे संघको एक कायोत्सर्ग करना चाहिए। क्षपककी बसतिकाका जो अधिष्ठान देवता है उसके प्रति 'यहाँ संघ बैठना चाहता है' ऐसा इच्छाकार करना चाहिए १६६४। अपने गणका मुनि मरणको प्राप्त होवे तो उपवास करना चाहिए और उस दिन स्वाध्याय नहीं करनी चाहिए। यदि परगणके मुनिकी मृत्यु हुई हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपवास करे अथवा न करे ।१९६५उपर्युक्त क्रमसे क्षपकके शरीरको स्थापना कर पुनः तीसरे दिन वहाँ जाकर देखते हैं कि संघका सुख से विहार होगा या नहीं और क्षपकको कौनसी गति हुई है। [ये बातें जाननेके लिए, पक्षियों द्वारा इधरउधर ले जाकर डाले गये, शबके अंगोपांगोंको देखकर विचारते हैं। ( दे. अगला शीर्षक)] १६६६) ३. फल विचार . १. निषीधिकाको दिशाऑपरसे भ. आ./मू-१९७१-११७३ जा अवरदक्षिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए । वसधीदो वणिज्जदि णिसीधिया सा पसस्थत्ति १६७०। सव्वसमाधी पढ़माए दक्विणाए दु भत्तगं सुलभं । अवराए सुहविहारो होदि य उवधिस्स लाभो य ।११७१२ जद सेसिं माघादो दट्ठबा पुबदक्विणा होइ। अवरुत्तरा य पुव्वा उदीचिपुव्वुत्तरा कमसो १६७२। एदासु फलं कमसो जाणेज्ज तुमंतुमा य कलहो य । भेदोय गिलाणं पि य चरिमा पुण कड्दे अण्णं ।१९७३ वह निषीधिका क्षपककी वसतिकासे नैऋत्य दिशामें, दक्षिण दिशामें, अथवा पश्चिम दिशामें होनी चाहिए। इन दिशाओं में निषीधिकाकी रचना करना प्रशस्त माना गया है।१७। नैऋत्य दिशाकी निषोधिका सर्वसंघके लिए समाधिकी कारण है। अर्थात वह सघका हित करनेवाली है। दक्षिण दिशाको निषी धिकासे सघको आहार सुलभतासे मिलता है। पश्चिम दिशामें निषोधिका होनेसे संघका सुत्रसे विहार होता रहेगा, और उनकी पुस्तक आदि उपकरणोंका Shri लाभ होता रहेगा।१७१। यदि उपरोक्त तीन दिशाओं में निषोधिका बनवाने में कुछ बाधा उपस्थित होती है तो १. आग्नेय, २. वायव्य, ३. ऐशान्य, ४. उत्तर दिशाओं में से भी किसी एक दिशामें बनवानी चाहिए ।१९७२। इन दिशाओंका फल क्रमसे-१. संधौ ‘मैं ऐसा हूँ, तू ऐसा है' इस प्रकारकी स्पर्धा, २. संधमें कलह, फूट, व्याधि, परस्पर खेंचातानी और मुनिमरण समझना चाहिए ।१६७३। २. शवके संस्तरपरसे भ, आ./म./१६८५ जदि विसमो संथारो उवरि मज्झे व होज्ज हेटा वा। मरण व गिलाणं वा गणिवसभजदीण गायब १६८५१- यदि तन्दुल चूर्ण आदिसे अंकित संस्तरमें रेखाएँ ऊपर नीचे व मध्यमें विषम हैं तो वह अनिष्ट सूचक है। ऊपरकी रेखाओंके विषम होनेपर आचार्यका मरण अथवा व्याधि, मध्यकी रेखाएँ विषम होनेपर एलाचार्यका मरण अथवा व्याधि, और नीचेकी रेखाओंके विषम होनेपर सामान्य यतिका मरण अथवा व्याधिको सूचना मिलती है ।१६८५ ३. नक्षत्रों परसे भ. आ./मू./१६८८-१९८६ णत्ता भाए रिक्खे जदि कालगदो सिवंतु सब्वेसिं । एको दु समे खेत्ते दिड्ढखेत्ते मरं ति दुवे ।१९८८ सदभिसभरणा अदा सादा असलेस्स) जि अवखरा। रोहिणि विसाहपुणव्वसुत्ति उत्तरा मज्झिमा सेसा REVI -जो नक्षत्र १५ मुहूर्त के रहते हैं उनको जघन्य नक्षत्र कहते हैं । शतभिषक, भरणी, बार्दा, स्वाती, आश्लेषा इन छह नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र पर अथवा उसके अंशपर यदि क्षपकका मरण होगा तो सर्व संघका क्षेम होगा। ३० मुहूर्त के नक्षत्रोंको मध्यम नक्षत्र कहते हैं। अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा. पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा और रेवती इन १५ नक्षत्रोंपर अथवा इनके अंशोंपर क्षपकका मरण होनेसे, और भी एक मुनिका मरण होता है । ४५ मुहूर्त के नक्षत्र उत्कृष्ट हैं-उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदं, पुनर्वसु, रोहिणी इन छहमें से किसी नक्षत्रपर अथवा उसके अंशपर क्षपकका मरण होनेसे और भी दो मुनियों का मरण होता है। ४. शरीरके अंगोपांगोंपरसे भ.आ./मू./१६६७ जदिदिवसे संचिठ्ठदि तमणालद्धच अवखदं भडयं । तदिवसिसाणि मुभिवं खेमसि तम्हि रज्जम्मि १६६७ जं वा दिवसमुवणीदं सरोरयं खगचदुप्पदगणेहिं । खेमं सिर्व सुभिक्खं बिहरिज्जो तं दिसं संघो ।१६६८। जदि तस्स उत्तमंगं दिस्सदि दंता च उवरिगिरिसिहरे । कम्ममलविप्पमुक्को सिद्धि पत्तोत्ति णादव्यो 1१६६६। वेमाणिओ थलगदो समम्मि जो दिसि य धाण वितरओ। गड्डाए भवणवासी एस गदी से समासणे ।२०००।-जितने दिन तक वृकादि पशु-पक्षियोंके द्वारा वह क्षपक शरीर स्पर्शित नहीं होगा और अक्षत रहेगा उतने वर्षतक उस राज्यमें क्षेम रहेगा ।१६६७। पक्षी अथवा चतुष्पद प्राणी जिस दिशामें उस क्षपकका शरीर ले गये होंगे, उस दिशामें संघ विहार करे, क्योंकि ये अंग उस दिशामें क्षेमके सूचक हैं ।१६६८क्षपकका मस्तक अथवा दन्तपंक्ति पर्वतके शिखरपर दीख पड़ेगी तो यह क्षपक कर्ममलसे पृथक् होकर मुक्त हो गया है, ऐसा समझना चाहिए |१६|क्षपकका मस्तक उच्च स्थल में दोखनेपर वह वैमानिक देव हुआ है, समभूमिमें दीखने पर ज्योतिष्क देव अथबा व्यन्तर देव और गड्ढे में दीखनेपर भवनवासी देव हुआ समझना चाहिए ।२००० . सवरी गुह्यगृहन-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे. व्युत्सर्ग १ । सवर्णकारिणी-दे. विद्या । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविचार सविचार - दे. विचार । सविपाक विक ससिक्थ - -भ. आं./वि./७००/८८२ / ७ ससित्थगं सित्थसहितं । - जिसमें भात के सिक्थ हों ऐसा पानक या माँड । सहकारी - का. अ. / . / २९८ दवा जो उबयारो हवेह अग्गोष्णं । सो चिय कारणभाव हवदिहु सहकारिभावेण । २१८-सभी द्रव्य पर स्पर में जो उपकार करते है यह सहकारी कारण के रूपमें ही करते हैं। (विशेष दे. कारण / 111/२/५-६ ) । III/ सहचर दे. हेतु । सहज स्वाभाविक दे. नि. सा./ता.वृ./१५) - सहज दुःख दे. दुःख । सहज विपर्ययदे विपर्यय । ३९८ पुत्र था। सहदेव पां. पु. / सर्ग / श्लो - रानी माद्रीसे पाण्डुका (८/१०४ - १०५) भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य धनुर्विद्या सीखी। (८ / २०८-२१४ ) | ( विशेष दे. पाण्डव ) । अन्तमें दीक्षा धारण की। (२५/१२)। घोर तप किया। ( २५/१७-११) । दुर्योधनके भानजे द्वारा शत्रुञ्जयगिरिपर पोर उपसर्ग होनेते साम्यता पूर्वक देह त्यागकर सर्वार्थ सिद्धि गये । ( २५/५२ - १३६) । पूर्वभव सं० २ में मिश्री ब्राह्मणी थे (२३/८२) तथा पूर्वभव सं० १ में अच्युत स्वर्ग में देव हुए। ( २१ / ११४ ) और वर्तमान भव में सहदेव हुए। ( २४/७७ ) । सहदेवी - प. पु. / सर्ग / श्लोक - सुकौशल मुनिकी माता थी । ( २१/ १५६) पुत्र कालके मुनि हो जानेपर उसके वियोग में मरकर सिंहनी हुई (२२/४६) पूर्वके क्रोधनदा सुकौशलको खा लिया। (२२/ अन्तमें मुलके पिता कीर्तिधरले पूर्वभव जानकर पश्चात्ताप पूर्वक देह त्याग स्वर्ग में गयी । (२२/६७ ) सहनानी -गणित में किसी प्रक्रिया के लिए कल्पित किया गया कोई चिन्ह, अक्षर, अंक आदि - दे. गणित / I/ २-४ । 1 सहभाव - १. अविनाभावका एक भेद दे. अविनाभान १. गुणद्रव्यका स्वभावी विशेष है - दे. गुण / ३ / २० सहभू दे. सहभाव । सहवृत्ति - पं. का./ता.वृ./५०/११/५ समवृत्तिः सहवृत्तिर्गुणगुणिनोः कथं चिदेकत्वेनादितादात्म्यसम्बन्ध इत्यर्थः समवृत्ति अर्थात गुण और गुणोका साथ-साथ रहना अर्थात् उनका कथंचित् एकव अर्थात् तादात्म्य सम्बन्ध । सहसातिचार दे. अतिचार/३ । सहसा निक्षेपाधिकरण अधिक सहस्रनयन - १/५/७६ सगर चक्रवर्तीका साना तथा लोचनाका पुत्र । सहस्रनाम स्तव आशाधर (ई. ११०१-१२४३) द्वारा रचित संस्कृत छन्दबद्ध ग्रन्थ जिसमें १००८ नामों द्वारा भगवान्का स्तवन किया गया है। इसपर आ. श्रुतसागर (ई. १४७३-१५३३ ) ने एक टीका लिखी है। विशेष. अर्हन्त सहस्रपर्वा देवा सहस्ररश्मि - १. पु. / १० / श्लोक - माहिष्मती नगरीका राजा था । ६७॥ रावण की पूजा में बाधा डालने के कारण |११| युद्ध में । ११४ | रावण द्वारा । सांख्य पकड़ा गयो । १३१। अन्तमें पिता शतबाहुकी प्रार्थनापर छोड़ा जाकर दीक्षा धारण कर ली ।१४७, १६८ सहस्रायुध - म. / ११ / श्लोक-वज्रायुधका पुत्र था ।४५० मुनि पिहितास्रवसे दीक्षा लेकर, पिताका भोग समाप्त होनेपर उसके पास जाकर घोर तप किया । संन्यासमरण कर अधोग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुआ ।१३८-१४१) सहस्रार - १ बार स्वर्ग-दे, स्वर्ग/२/२०२०५५/०/१४रथनूपुरका राजा था। इसके पुत्र इन्द्रने रावणके दादा 'माली' को मारा था। पीछे रावण द्वारा युद्धमें परास्त किया गया। सहानवस्था दे, विरोध । सह्य-मतयगिरिके समीप में स्थित एक पर्वत मनुष्य / ४ | सांख्य- १. सामान्य परिचय स. म. / परिघ / पृ. ४२१ आत्माके तत्त्वज्ञानको अथवा सम्यग्दर्शन प्रतिपादक शास्त्रको सांख्य कहते हैं। इनको ही प्रधानता देनेके कारण इस मतका नाम सांख्य है । अथवा २५ तत्त्वों का वर्णन करनेके कारण संख्यि कहा जाता है। २. प्रवर्तक साहित्य व समय सम/पर/पृ. ४२३१. इसके गुल प्रणेता महर्षि कपिल थे, जिन्हें क्षत्रिय पुत्र बताया जाता है और उपनिषदों आदिमें जिसे अवतार माना गया है। कृतियाँ - सांख्य प्रवचन सूत्र, तथा तत्व समास । समय - भगवान् वीर व बुद्ध से पूर्व । २. कपिलके साक्षात् शिष्य आतुर हुए समय ई.पू. ५०० १० आरिके शिष्य पंचशिल थे । इन्होंने इस मतका बहुत विस्तार किया। कृतियाँ - तत्त्वसमास पर व्याख्या । समय-गार्वे के अनुसार ई. श. १ । ४. वार्षगण्य भी इसी गुरु परम्परा में हुए । समय ई. २३०-३०० । वार्षगण्य के शिष्य विन्ध्यवासी थे। जिनका असली नाम रुद्रित था । समय-ई. २५०३२० । ५. ईश्वर कृष्ण बड़े प्रसिद्ध टीकाकार हुए हैं। कृतियाँ-षष्टितन्त्र के आधारपर रचित सांख्यकारिका या सांख्य सप्तति । समय - एक मान्यता के अनुसार ई श. २ तथा दूसरी मान्यतासे ई. २४० ३८० । ६. सांख्य कारिकापर माठर और गौडपादने टीकाएँ लिखी हैं । ७, वाचस्पति मिश्र ( ई. ५४० ) ने न्याय वैशेषिक दर्शनोंकी तरह सांख्यकारिकापर सांख्यकौमुदी और व्यास भाष्यपर वैशारदी नामक टीकाएँ लिखी ८ विज्ञानभिक्षु एक प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। इन्होंने पूर्वके विस्तृत ईश्वरवादका पुनः उद्धार किया। कृतियाँ - सांख्यसूत्रोंपर सांख्य प्रवचन भाष्य तथा सांख्यसार, पातजलभाष्य वार्तिक, ब्रह्म सूत्रके ऊपर विज्ञानामृत भाष्य आदि ग्रन्थोंकी रचना को । १. इनके अतिरिक्त भी - भार्गव, बाल्मीकि, हारीति, देवल, सनक, नन्द, सनातन, सनत्कुमार, अंगिरा आदि सांख्य विचारक हुए। २. तरच विचार ( षड् दर्शन समुच्चय / ३४ - ४२ / ३२-३७ ) ( भारतीय दर्शन ) 1 १. मूल पदार्थ दो हैं पुरुष व प्रकृति। २. पुरुष चैतन तत्व है। वह एक निष्क्रिय, निर्गुण, निर्दिष्ठ, सूक्ष्म व इन्द्रियातीत है २. प्रकृति जड़ है । वह दो प्रकार है- परा व अपरा परा प्रकृतिको प्रधान मूला या अव्यक्त तथा अपरा प्रकृतिको व्यक्त कहते हैं । अव्यक्त प्रकृति तीन गुणोंकी साम्यावस्था स्वरूप है, तथा वह एक है । व्यक्तप्रकृति अनिरथ, अव्यापक क्रियाशील तथा सगुण है। यह सूक्ष्मसे स्कूल पर्यन्त क्रम २३ मेव रूप है-महत् या बुद्धि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रिय पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच तन्मात्राएँ पाँच ४. सम रज व तम तीन गुण हैं। सत्त्व, प्रकाशस्वरूप 'रज' क्रियाशील, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य और 'तम' अन्धकार व अवरोधक स्वरूप है । यह तीनों गुण अपनी साम्यावस्था में सदृश परिणामी होनेसे अव्यक्त रहते हैं और वैसा दृश्य होनेपर व्यक्त हैं, क्योंकि तब कभी तो सत्त्व गुण प्रधान हो जाता है और कभी रज या तमोगुण । उस समय अन्य गुणोंकी शक्ति हीन रहने से वे अप्रवान होते हैं । ५. रजो गुणके कारण व्यक्त व अव्यक्त दोनों ही प्रकृति नित्य परिणमन करती रहती हैं। वह परिणमन तीन प्रकारका है- धर्म, लक्षण व अवस्था । धर्मोका आविर्भाव न तिरोभाव होना धर्मपरिणाम है, जैसे मनुष्यसे देव होना प्रतिक्षण होनेवाली सुक्ष्म विलक्षणता लक्षण परिणाम है और एक ही रूपसे टिके हुए अवस्था बदलना अवस्था परिणाम है जैसे मच्चेसे जुड़ा होना। इन तीन गुणोंकी प्रधानता होनेसे बुद्धि आदि ३३ तत्त्व भी तीन प्रकार हो जाते हैं- सात्त्विक, राजसिक, तामसिक जैसे ज्ञान वैराग्य पूर्ण बुद्धि साबिक है, विषय विलासी राजसिक है और अधर्म हिंसा आदिमें प्रवृत तामसिक हैइत्यादि ६. च. आदि ज्ञानेन्द्रिय है हाथ पॉन, वचन, गुदा न जननेद्रिय कर्मेन्द्रिय है, ज्ञानेन्द्रियोंके विषयभूत रूप आदि पाँच तन्मात्राएँ है और उनके स्थूल विषयभूत पृथ्वी आदि भूत कहलाते हैं । व ३९९ ४. ईश्वर व सुख-दुःख विचार दर्शन समुच्चय (२५-३६/२२-१३ ) ( भारतीय दर्शन) १. ये लोग ईश्वर तथा यज्ञ-याग आदि क्रियाकाण्डको स्वीकार नहीं करते । २. सवादि गुणोंकी विषमता कारण ही सुख-दुख उत्पन्न होते हैं। वे दोन प्रकारके हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक । ३. आध्यात्मिक दो प्रकार हैं-कायिक व मानसिक । मनुष्य, पशु आदि कृत आधिभौतिक और यक्ष, राक्षस आदि या ट । ५. सृष्टि, प्रलय व मोक्ष विचार पदर्शन समुच्चय (४४ /३८); (भारतीय दर्शन) १ यद्यपि पुरुष तव रूपसे एक है। प्रकृतिकी विकृतिसे चेतन प्रतिबिम्ब रूप जो बुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं - वे अनेक हैं। जड़ होते हुए भी यह बुद्धि चेतनवत् दीखती है। इसे ही बद्ध पुरुष या जीवात्मा कहते हैं । त्रिगुणधारी होने के कारण यह परिणामी है। २. महद, अकार ग्यारह इन्द्रियाँ न पाँच तन्मात्राएँ, प्राण व अपान इन सत्तरह तत्वोंसे मिलकर सूक्ष्म शरीर बनता है जिसे लिंग शरीर भी कहते हैं । वह इस स्थूल शरीर के भीतर रहता है, सूक्ष्म है और इसका मूल कारण है। यह स्वयं निरूपण योग्य है, पर नटकी भाँति नाना शरीरोंको धारण करता है । ३. जीवात्मा अपने अदृष्टके साथ परा प्रकृतिमें तय रहता है। जब उसका अदृष्ट पाकोन्मुख होता है राय तमो गुणका प्रभाव हट जाता है । पुरुषका प्रतिबिम्ब उस प्रकृतिपर पड़ता है, जिससे उसमें क्षोभ या चंचलता उत्पन्न होती है और I स्वतः परिणमन करती हुई महत आदि २३ विकारोंको उत्पन्न करती है उससे सूक्ष्म शरीर और उससे स्थूल शरीर बनता है यही सृष्टि है । ४. अदृष्टके विषय समाप्त हो जानेपर ये सब पुनः उलटे क्रमसे पूर्वोक्त प्रकृति में लय होकर साम्यावस्थामें स्थित हो जाते हैं । यही प्रलय है । ५. अनादि कालसे इस जीवात्माको अपने वास्तविक स्वरूपका ज्ञान नहीं है । २५ तत्वोंके ज्ञानसे उसे अपने स्वरूपका भान होता है तब उसके राजसिक व तामसिक गुणोंका अभाव हो जाता है। एक ज्ञानमात्र रह जाता है, वही कैवल्यकी प्राप्ति है। इसे ही मोक्ष कहते हैं । ६. वह मुक्तात्मा जब तक शरीर में रहता है तब तक जीवन्मुक्त कहलाता है और शरीर छूट जानेपर विदेह मुक्त कहलाता है । ७. पुरुष व मुक्त जीव में यह अन्तर है कि पुरुष तो एक है और सांख्य और मुक्तात्माएँ अपने अपने सत्व गुणोंकी पृथक्ताके कारण अनेक हैं । पुरुष, अनादि व नित्य है और मुक्तात्मा सादिव नित्य । ६. कारण कार्य विचार (भारतीय दर्शन) ये लोक सरकार्यवादी हैं। अर्थात इनके अनुसार कार्य सदा अपने मस्त पदार्थ में विद्यमान रहता है। कार्य हाम पूर्व वह अव्यक्त रहता है। उसकी व्यक्ति ही कार्य है। वस्तुतः न कुछ उत्पन्न होता है न नष्ट । ७. प्रमाण विचार 1 ( भारतीय दर्शन ) प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम तीन प्रमाण मानता है । अनुमान व आगम नैयायिक है 'बुद्धि' अहंकार व मनको साथ लेकर बाहर निकल जाती है। और इन्द्रिय विशेषके द्वारा उसके तदाकार हो जाती है। बुद्धिका प्रतिनियत विषयको ग्रहण करके विषयाकार होना ही प्रत्यक्ष है।. * अन्य सम्बन्धित विषय १. वैदिक अन्य दर्शनोंका क्रमिक विकास- दे. दर्शन । २. साधु तथा साधना योगदर्शन ३. सांख्य व योगदर्शनकी तुलना योगदर्शन f ८. जैन बौद्ध व सांख्यदर्शन की तुलना - स्याम. १.४२०१ जैन व बौद्धकी तरह सांस्य भी वेद, ईश्वर, याज्ञिक क्रियाकाण्ड, व जाति भेदको स्वीकार नहीं करता । नोंकी भाँति ही बहु आत्मवाद तथा जीवका मोक्ष होना मानता है। जैन व बौकी भाँति परिणामवादको स्वीकार करता है। अपने तीर्थंकर कपितको क्षत्रियोंनें उत्पन्न हुआ मानता है। वैदिक देवी-देवताओं पर विश्वास नहीं करता और वैदिक ऋचाओंपर कटाक्ष करता है । तत्त्वज्ञान, संन्यास, व तपश्चरणको प्रधानता देता है । ब्रह्मचर्यको यर्थार्थ यज्ञ मानता है। गृहस्थ धर्मकी अपेक्षा संन्यास धर्मको अधिक महत्त्व देता है। [self ] २. सांख्योंकी भाँति जैन भी किसी न किसी रूप में २५ उत्त्रको स्वीकार करते हैं तथा परम भावग्राही इम्याधिक नयसे स्वीकार किया गया एक व्यापक, नित्य, चैतन्यमात्र, जीव तत्त्व ही पुरुष है । संग्रह नयसे स्वीकार किया गया एक, व्यापक, नित्य, अजीव तत्त्व ही अव्यक्त प्रकृति है । द्रव्य व भावकर्म व्यक्त प्रकृति है । शुद्ध निश्चय नयसे जिसे उपरोक्त प्रकृतिका कार्य, विकार तथा जड़माया कहा गया है, ऐसा ज्ञानका क्षयोपशम सामान्य महत् या बुद्धि तत्त्व है, मोहजनित सर्व भावअहंकार तत्त्व हैं, संकल्प विकल्प रूप भावमन मनतत्त्व है, पाँचों भावेन्द्रिय ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। व्यवहार नयसे भेद करके देखा जाये तो शरीरके अत्रयवभूत वाकू, पाणि, पाद आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी पृथत है। शुद्ध निश्चय नयसे ये सभी तत्व चिदाभास है, यही प्रकृतिपर पुरुषका प्रतिबिम्ब है । यह तो चेतन जगत्का विश्लेषण हुआ। जड़ जगत्की तरफ भी इसी प्रकार शुद्ध कारण परमाणु व्यक्त प्रकृति है । शुद्ध ऋजुसूत्र या पर्यायार्थिक दृष्टिसे भिन्न माने गये स्पर्श रस आदि उस परमाणुके गुणोंके स्वलक्षणभूत अविभाग प्रतिच्छेद ही तन्मात्राएँ हैं । नैगम व व्यवहार नयसे अविभाग प्रतिच्छेदोंसे युक्त परमाणु और परमाणुओं के बन्धसे पृथिवी आदि पाँचौकी उत्पत्ति होती है असद्भूत व्यवहार नयसे द्रव्यकर्मरूप कामेंग शरीर और अशुद्ध निश्चयनय औवारिक म क्षायोपशमिक भावरूप कार्मग शरीर हो जीवका सूक्ष्म शरीर है जिसके कारण उसके स्थूल शरीरका निर्माण होता है और जिसके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतिर निरन्तर वगंगा विनाशसे उसका मोक्ष होता है। सृष्टि मोक्षकी यही प्रक्रिया सांख्यमतको मान्य है । शुद्ध पारिणामिक भावरूप पुरुष व अव्यक्त प्रकृतिको ही तरूपसे देखते हुए अन्य सत्र भेदोंको उसीमें लय कर देना शुद्ध पार्थिक दृष्टि है। वही परमार्थ ज्ञान या विवेकख्याति है। तथा वही एक मात्र साक्षात् मोक्षका कारण है। इस प्रकार सांख्य व जैन तुश्य हैं परन्तु दूसरी ओर जैन तो उपरोक्त सर्व नयोंके विरोधी भी नयोंके विषयोंको स्वीकार करते हुए अनेकान्तवादी हैं और सांख्य उन्हें न स्वीकार करते हुए एकान्तवादी हैं। यथा संग्रह से जो पुरुष व प्रकृति तत्त्व एक-एक व सर्व व्यापक हैं वही व्यवहार नयसे अनेक अव्यापक भी हैं। शुद्ध निश्चय नयसे जो पुरुष नित्य है अशुद्ध निश्चय नयसे अनित्य भी है। शुद्ध निश्चय मयसे जो बुद्धि, अहंकार, मनाने प्रकृतिविकार है अ निश्चय नयसे वहो जीवकी स्वभावभूत पर्यायें हैं। इत्यादि । इस प्रकार दोनों दर्शनोंमें भेद है । ] सांतर निरन्तर वर्गणा - दे. वर्गणा / १ । सांतरबन्धी प्रकृति---दे, प्रकृति बन्ध / २ । सांतर मार्गणा मार्गगा सांतर स्थिति - दे, स्थिति / १ ।. सांद्र -- नियमित सान्द्र - Regular Solid ( जं. प / प्र.१०७ ) । सांपराय -- दे. संपराय । सांपरायिक आलव १२ सांप्रति अशोकका दादा व चन्द्रगुप्त मौर्यका पुत्र था। "सम्राट् मगधका जैनधर्मानुयायी राजा था। मौर्य वंशकी वंशावली के अनुसार इसका समय जैन मान्यतानुसार ई. पू. ३६४-३२४ तथा वर्तमान इतिहासके अनुसार ई. पू. २२ आता है। वे इतिहास / २/३ (आ. हेमचन्द्र रचित परिशिष्ट पर्व १८-१० ।। सांप्रतिक कृष्टि - दे. कृष्टि । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष १४ सांशयिक मिथ्यात्व - दे. संशय । - " साकांक्ष अनशन देन साकार - चेतनकी विकल्पात्मक वृत्ति अर्थात् ज्ञान-दे, आकार । साकारमन्त्रभेदस सि./७/२६/३६६/११ अर्थप्रकरणाङ्गविकारधूविक्षेपादिभिः पराङ्गतमुक्तम्यदाविष्करणमय्यादिनिमित्तं यत्तत्साकारमन्त्रभेद इति कथ्यते । अर्थवश, प्रकरणवश, शरीरके विकारवश या धूप आदिके कारण दूसरे अभिप्रायको जानकर डाहसे उसका प्रगट कर देना साकारमन्त्रभेद है । (रा. वा. /७/२६/५/ २२४/९) । साकेतभरत क्षेत्रका एक नगर । अपर नाम अयोध्या । दे. मनुष्य / ४ | सागर- मध्यलोक द्वीपोंके हित करते हुए एकके पीछे एक करके असंख्यात सागर स्थित हैं- दे. लोक /२/१११२. मान्यवान् गजदन्तपर स्थित एक कूट तथा नन्दनवन का एक कूट- दे. लोक / ५ /१४ १ ३. भूतकालीन द्वितीय तीर्थंकर - दे. तीर्थंकर /५ । ४. कालका एक प्रमाण - दे. गणित / II/७/५ । ४०.० सागर बुद्धि-वरांग चरित्र / १४ /७१ - ललितपुरका एक वणिक तथा रांगका धर्म पिता । सागरोपम कालका एक प्रमाण- दे, गणित / 1 /१/५ । सागार चा. पा./मू./२१, २३ सायारं सग्गंथे...|२१| पंचेवाणुव्वयाई गुणव्वयाई हवं ति तह तिणि। सिवखावय चत्तारिय संजमचरणं च साधार |२३|| सागार संयमाचरण परिग्रहसहित श्रावक के होता है ॥२१॥ अणुमत पाँच गुणवत तीन और शिक्षामत चार ऐसे १२ प्रकार संयमा चरण चारित्र सो सागार है विशेष दे मत प्रतिमा (सा. ध. /१/ १२ ) । - : प.नि./१/१३ आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिकः प्रीतिरुच्चैः पात्रेभ्यो दानमापनिहत्तजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया । तत्त्वाभ्यासः स्वकमतर तिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं गार्हस्थ्यं बुधानामितरदि पुनः दो मोहपाशः १३॥ एकादश स्थानानीति गृहिन व्य नितात्यागस्तदाद्यः स्मृत' | १४| जिस गृहस्थ अवस्थामें जिनेन्द्रकी आराधना की जाती है, निर्मन्थ गुरुयोंके प्रति विनय, धर्मात्माओंके प्रति प्रीति व वात्सल्य, पात्रोंको दान, आपत्ति प्रस्त पुरुषोंको दया बुद्धिसे दान, तरोंका परिशीलन, मतों व गृहस्थ धर्म से प्रेम तथा निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करना, ये सब किया जाता है वह गृहस्थ अवस्था विद्वानोंके लिए पूजनेके योग्य है अन्यथा दुःखरूप है। श्रावक धर्म में ग्यारह प्रतिमाएँ निर्दिष्ट की गयी हैं। उस सबके आदि में तादि व्यसनोंका त्याग स्मरण किया गया है ।१४ ( विशेष दे. श्रावक ) 1 सा. ध / १/२ अनाद्यविद्यादोषोत्थचतुः संज्ञाज्वरासुराः । शश्वत्स्वज्ञानविमुखाः सागारा विषयन्मुखाः २१ अनादिकालीन अविद्यारूपी वात पित्त कफसे उत्पन्न आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञारूपी ज्जरों से दुखी और सदा अपने आत्मज्ञानसे विमुख तथा पंचेन्द्रियके विषयोंके उन्मुख, ऐसे सागार होते हैं। अर्थात सकल परिग्रह सहित घरमें रहनेवाले सागार होते हैं। सागारधर्मामृत - आशावर (ई. ११०३-१२४३) द्वारा रचित संस्कृत श्लोक बद्ध श्रावकाचार विषयक विस्तृत ग्रन्थ। इसमें आठ अध्याय और ४७७ श्लोक हैं । (ती./४/४५) । सादृश्य सातकर्णी त्वं गौतमीपुत्र शालिवाहनका दूसरा नाम समय --- वी. नि. ६००-६४६ ( ई. ७४-१२० ) - दे. इतिहास / ३ / ४ | सातगारवदे, गारव । साततस्व व्यसन आदि दे सातत्य Continuum ( ध. ५/प्र. २८ ) । साता-दे, बेदनीय' सातिप्रयोग — मायाके एक भेद - दे. माया / २ | सातिरेक - Excess - ( जं. प्र. / प्र.१०६ ) 1 // सातिशय अप्रमत्त दे. सं/२/४ सातिशय मिध्यादृष्टि सात्यकि पुत्र - ११ वें रुद्र - दे. शलाका पुरुष / ७ । सात्त्विक दान दे दान /१/५ । • GIGA जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सादि - दे. अनादि । सादृश्य-स. भ. त./७४ /४ - तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वं सादृश्यम् । यथा चन्द्रमित्ये सति चन्द्रगाहारस्यादि मु Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादृश्य प्रत्यभिज्ञान ४०१ साधारण चन्द्रसादृश्यम् । = उससे भिन्न हो तथा उसमें रहनेवाले धर्म पदार्थ में पपत्तेः साधर्म्य वै धर्म्य समौ ।रा-निदर्शनं क्रियावानात्म' द्रव्यरय हों, यही सादृश्य है। जैसे चन्द्रमासे भिन्न रहते चन्द्रगत आह्वादकरत्व क्रियाहेतुगुणयोगात् । द्रव्यं लोष्टः क्रियाहेतुगुणयुक्तः क्रियावान् तथा वर्तुलाकार युक्तत्व यह चन्द्रसादृश्य मुख में है। चास्मा तस्मारिक्रयावानिति। एवं उपसंहृतेः परः साधम्र्येणैव प्रत्यसादृश्य प्रत्यभिज्ञान-दे. प्रत्यभिज्ञान | वतिष्ठते निष्क्रिय आत्मा विभुनो द्रव्यस्य निष्क्रियत्वाइ विभु चाकाशं निष्क्रियं च तथा चात्मा तस्मानिष्क्रिय इति 1.. विशेषसादृश्यास्तित्व-दे. अस्तित्व । हेत्वभावात्साधर्म्यसमः प्रतिषेधो भवति। विशेषहेत्वभावात्साधर्म्यसाधक श्रावक-दे. श्रावक//३। समः प्रतिषेधो भवति। अथ वैधर्म्यसमः क्रियाहेतुगुणयुक्तो लोष्टः परिच्छिन्नो दृष्टो न च तथात्मा तस्मान्न लोष्टवत् क्रियावानिति ।... साधन-१.लक्षण विशेषहेत्वभावाद्वैधर्म्यसमः। वैधम्र्येण चोपसंहारे निष्क्रिय आत्मा १. हेतुके अर्थमें विभुत्वात क्रियावद् द्रव्यमविभु दृष्टं यथा लोष्टो न च तथात्मा श्लो. वा./३/१/१३/श्लो. १२२/२६६ अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र तस्मानिष्क्रिय इति वैधhण प्रत्यवस्था निष्क्रिय द्रव्यमाकाशं साधनं । अन्यथा अनुपपत्ति ही एक जिसका लक्षण है, वह साधन क्रियाहेतुगुणरहितं दृष्टं न तथात्मा तस्मान्न निष्क्रिय इति ।... है। (सि.वि./वृ./५/२२/३५६/७); (और भी दे. हेतु/१/१)। विशेषहेत्वभावाद्वैधर्म्यसमा क्रियावान लोष्टः क्रियाहेतुगुणयुक्तो दृष्टः न्या. दी./३/१६/६६ निश्चितसाध्यान्यथानृपपत्तिकं साधनम्। यस्य तथा चात्मा तस्मात् क्रियावानिति ।-विशेष हेत्वभावात्साधर्म्यसाध्याभावासंभवनियमरूपा व्याप्त्यविनाभावाद्यपरपर्याया साध्या समः।-१. वादी द्वारा साधर्म्यकी तरफसे हेतुका पक्षमें उपसंहार कर न्यथानुपपत्तिस्तख्येिन प्रमाणेन निर्णीता तत्साधनमित्यर्थः । चुकनेपर उस साधर्म्य के विपर्यय धर्मकी उपपत्ति करनेसे जो वहाँ तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकैः-"अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिङ्ग- दूषण उठाया जाता है वह साधर्म्यसम प्रतिषेध माना गया है। मङ्गयते" [वादन्याय-] इति ।-जिसकी साध्यके साथ अन्यथा २. और इसी तरह बादी द्वारा वैधर्म्यकी तरफसे पक्षमें हेतुका नुपपत्ति निश्चित है उसे साधन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसकी उपसंहार कर चुकनेपर पुनः प्रतिवाद द्वारा साध्य धर्मके विपर्ययकी साध्यके अभावमें नहीं होने रूप व्याप्ति, अविनाभाव आदि नामों उपपत्ति हो जानेसे वैधH या साधर्म्यकी अंरसे प्रत्यवस्थान दिया वाली साध्यानुपपत्ति- साध्यके होनेपर ही होना और साध्यके जाता है वह वैधर्म्यसमा जाति इष्ट की गयी है। ३. साधर्म्यसमाका अभावमें नहीं होना - तर्क नामके प्रमाण द्वारा निर्णीत है वह साधन उदाहरण-आत्मा क्रियावान् है क्योंकि यह एक द्रव्य है, और द्रव्य है। श्री कुमारनन्दि भट्टारकने भी कहा है-"अन्यथानुपपत्तिमात्र क्रिया हेतु गुणसे युक्त होनेके कारण क्रियावाच हुआ करता है। जिसका लक्षण है उसे लिंग कहा गया है।"--(और भी दे. जैसे लोष्ट नामका द्रव्य क्रियाहेतु गुणसे युक्त होने के कारण क्रियावान् हेतु/१/१)। है। इसप्रकार वादी द्वारा साधर्म्य की तरफसे उपसंहार किया जा चुकनेपर प्रतिवादी इसके विपर्ययमें यों कह रहा है कि आत्मा २. चारित्रके अर्थमें निष्क्रिय है, क्योंकि, यह विभु है और विभुद्रव्य निष्क्रिय हुआ भ. आ./वि./२/१४/२१ उपयोगान्तरेणान्तहिताना दर्शनादिपरिणामान करता है, जैसे कि आकाश । विशेष हेतुके अभावमें 'साधर्म्यसमा निष्पादनं साधनं । अन्य कार्य के प्रति ज्ञानोपयोग लगनेसे प्रतिषेध होता है। वैधर्म्य समाका उदाहरण-क्रियाहेतुगुणसे युक्त तिरोहित हुए दर्शनादिपरिणामों को उत्पन्न करना, अर्थात नित्य व लोष्ट तो परिच्छिन्न अर्थात अव्यापक देखा जाता है, परमात्मा आत्मा नैमित्तिक कार्य करने में चित्त लगनेसे तिरोहित हुए सम्यग्दर्शना तो वैसा नहीं है, इस लिए वह लोष्ट की भाँति क्रियावान् भी नहीं दिकोंमेंसे, किसी एकको पुनः उपायोंके प्रयोगसे सम्पूर्ण करना साधन है। विशेष हेतुके अभाव में यह वैधर्म्यसमा जाति है। ४. अथवा कहलाता है। वैधर्यको तरफसे उपसंहार किया जाने पर दोनों के उदाहरण ऐसे दे,श्रावक/१/१/४ [ मरण समय आहार व मन वचन कायके व्यापारका हैं-आत्मा निष्क्रिय है, क्योंकि वह विभु है । लोष्ट की भाँति अविभु त्याग करके आत्म शुद्धि करना साधन है। उसको करनेवाला श्रावक द्रव्य ही क्रियावान देखा जाता है, परन्तु आत्मा वैसा नहीं है, साधक श्रावक कहलाता है।] इसलिए वह निष्क्रिय है, इस प्रकार वैधय॑की तरफसे उपसंहार किया जा चुकनेपर प्रतिवादी वैधय॑के द्वारा ही प्रत्यवस्थान देता है * अन्य सम्बन्धित विषय कि निष्क्रिय आकाश द्रव्य ही क्रियाहेतु गुणसे रहित देखा जाता १. कारणके अर्थमें साधन-दे. कारण/I/१/११ है, परन्तु आत्मा वैसा नहीं है, इसलिए वह निष्क्रिय नहीं है। विशेष २. साधन साध्य संबन्ध-दे. संबन्ध । हेतुके अभाबमें यह वैधर्म्यसमा जाति है। क्रियावान लोष्ट द्रव्य ही ३. निश्चय व्यवहार में साध्य साधन भाव-दे. सम्यग्दर्शन आदि वह क्रियाहेतु गुणसे युक्त देखा जाता है और क्यों कि आत्मा भी वैसा ही वह नाम। है, इसलिए बह क्रियावान् है । विशेष हेतुके अभावमें यह साधर्म्यसमा जाति है। (श्लो.वा./४/१/३३/न्या. ३२५/४६३/५ तथा न्या./३२६/ साधनमन्त्र-दे. मन्त्र/१/६ ॥ 850/9) साधन विकल-दे. दृष्टान्त/१/८1 साधारण-१. साधारणत्वका लक्षण साधन व्यभिचार-दे. नय/III/६/८॥ स.भ.त./७८/६ अनेकव्यक्तिवृत्तित्वमेव हि साधारणत्यम् । अनेक साधम्र्य-स. भ. त./१३/२ साधय नाम साध्याधिकरणवृत्तित्वेन व्यक्तियों में अनुगतरूपसे होनेवाला वृत्तित्व ही साधारणत्व है। निश्चितत्वम् ।-साध्यके आधारोंमें जिसकी वृत्तिता निश्चित हो (विशेष दे. सामान्य )। उसको साधर्म्य कहते हैं। साधयं उदाहरण दे. दृष्टान्त/१/३॥ २. साधारणासाधारण शक्ति साधर्म्य समा स.सा./आ./परि/शक्ति नं. २६ स्वपरसमानासमानसमानासमानत्रिन्या. सू. व भाष्य/४/१/२ साधर्म्यवैधाभ्यामुपसंहारे तद्धर्मविपर्ययो- विधभावधारणात्मिका साधारणासाधारणसाधारणासाधारणधर्मत्व भा०४-५१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधारणीकृत ४०२ साधु ४ शक्तिः ।स्व व परके समान, अपमान और समानासमान ऐसे तीन प्रकारके भावोंकी धारणास्वरूप साधारण, असाधारण और साधारणासाधारण धर्मत्व शक्ति है। ३. साधारण व असाधारण हेत्वाभास श्लो. वा./४/भाषाकार/१/३३/न्या./२७३/४२५/१३.१८ यः सपक्षे विपक्षे च भवेत् साधारणस्तु सः ।...यस्तुभयस्माद्वयावृत्तः स वसाधारणो मतः । व्यभिचारी हेत्वाभास तीन प्रकारका है-साधारण, असाधारण और अनुपसंहारी। तहाँ जो हेतु सपक्ष व विपक्ष दोनों में रह जाता है वह साधारण है, और जो हेतु सपक्ष और विपक्ष दोनोंमें नहीं ठहरता वह असाधारण है। ४. अन्य सम्बन्धित विषय १. साधारण व असाधारण गुण, निमित्त व पारिणामिक भाव -दे. वह वह नाम। २, वसतिकाका एक दोष-दे. वसतिका ३. साधारण नामकर्म व साधारण वनस्पति-दे. वनस्पति/४। साधारणीकृत-Generalization. (ध.५/प्र. २८)। साधु-पंच महावत पंच समिति आदि २८ मूलगुणों रूप सकल चारित्रको पालनेवाला निग्रन्थ मुनि ही साधु संज्ञाको प्राप्त है । परन्तु उसमें भी आरम शुद्धि प्रधान है, जिसके बिना वह नग्न होते हुए भी साधु नहीं कहा जा सकता। पुलाक बकुश आदि पाँच भेद ऐसे ही कुछ भ्रष्ट साधुओंका परिचय देते हैं। आचार्य, उपाध्याय व साधु तीनों ही साधुपनेकी अपेक्षा समान हैं। अन्तर केवल संघकृत उपाधिके कारण है। व्यवहार साधुके १० स्थिति कल्प । सल्लेखनागत साधुकी १२ प्रतिमा -दे. सल्लेखना/४/११/२। आहार, विहार, भिक्षा, प्रव्रज्या, वसतिका, संस्तर आदि।-दे. वह वह नाम। दीक्षासे निर्वाण पर्यन्तको चर्या-दे, संस्कार/२ । अन्य कर्तव्य। साधुकी दिनचर्या-दे. कृतिकर्म/।। एक करवटसे अत्यन्त अल्प निद्रा-दे. निद्रा। मूलगुणोंके मूल्यपर उत्तर गुणोंकी रक्षा योग्य नहीं। मूलगुणोंका अखण्ड पालना आवश्यक है। शरीर संस्कारका कड़ा निषेध । साधुके लिए कुछ निषिद्ध कार्य । परिग्रह व अन्य अपवाद जनक क्रियाएँ तथा उनका समन्वय।-दे. अपवाद/३,४ । प्रमादवश लगनेवाले दोषोंकी व उसकी शुभ क्रियाओंकी सीमा-दे, संयत/३ । साधु व गृहस्थ धर्ममें अन्तर-दे. संयम/१/६। । निश्चय साधु निर्देश - www " निश्चयावलम्बी साधुका लक्षण । निश्चयसाधुको पहिचान। भाव लिंग-दे. लिंग। साधुमें सम्यक्त्वकी प्रधानता। निश्चय लक्षणकी प्रधानता। | स्व वश योगी जीवन्मुक्त व जिनेश्वरका लघु नन्दन है-दे, जिन। २८ मूलगुणोंकी मुख्यता गौणता। | निश्चय व्यवहार साधुका समन्वय । | सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिके व्यवहारधर्ममें अन्तर -दे.मिथ्यावृष्टि/ * | पंचमकालमें भी भाव लिंग संभव है -दे.संयम/२/1 * * * साधु सामान्य निर्देश साधु सामान्यका लक्षण । साधुके अनेकों सामान्य गुण । साधुके अपर नाम। साधुके अनेकों भेद । यति, मुनि, ऋषि, श्रमण, गुरु, एकलविहारी, जिनकल्प आदि-दे. वह वह नाम।। प्रत्येक तीर्थकरके कालमें साधुओंका प्रमाण । -दे, तीथंकर। पंचम कालमें भी संभव है-दे. संयम/२/८। साधुकी बिनय व परीक्षा सम्बन्धी-दे. विनय/४,५ । साधुकी पूजा सम्बन्धी-दे. पूजा/३।। साधुका उत्कृष्ट व जघन्य ज्ञान-दे. श्रुतकेवलो/२ । ऐसे साधु ही गुरु हैं। -दे. गुरु/१ । 'द्रव्य लिंग भाव लिंग -दे. लिंग । व्यवहार साधु निर्देश व्यवहारावलम्बी साधुका लक्षण। व्यवहार साधुके मूल व उत्तर गुण । मूल गुणके भेदोंके लक्षण आदि-दे. वह वह नाम। शुभोपयोगी साधु भव्य जनोंको तार देते हैं - दे. धर्म/१२। * * * ४ | अयथार्थसाधु सामान्य * * | अयथार्थ साधुकी पहिचान । द्रव्य लिंग-दे. लिंग। | अयथार्थ साधु श्रावकसे भो हीन है। | अयथार्थ साधु दुःखका पात्र है। अयथार्थ साधुसे यथार्थ श्रावक श्रेष्ठ है। लाखों अयथार्थ साधुओंसे एक यथार्थ साधु श्रेष्ठ है। -दे. शीर्षक/नं.४। * * जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु ४०३ १. साधु सामान्य निर्देश पुलाक व पार्श्वस्यादि साधु पुलाकादि व पावस्थादिका नाम निर्देश -दे, साधु/१/४/३। पुलाकादि व पावस्थादिके लक्षण-दे. वह वह नाम । पुलाकादिमें संयम श्रुतादिकी प्ररूपणा । पुलकादिमें संयम लब्धिस्थान । पुलाकादि पाँचों निर्ग्रन्थ हैं। पुलाकादिके निर्ग्रन्थ होने सम्बन्धी शंकाएँ। ५ । निर्ग्रन्थ होते हुए भी इनमें कृष्णलेश्या क्यों । पार्श्वस्थादि मुनि भ्रष्टाचारी हैं। पाँचोंके भ्रष्टाचारको प्ररूपणा । | पावस्यादिको संगतिका निषेध । प्र. सा./त.प्र./२०३ विरतिप्रवृत्तिसमानात्मरूपश्रामण्यत्वात श्रमणम् । __-विरतिकी प्रवृत्तिके समान ऐसे श्रामण्यपनेके कारण श्रमण हैं। पं.ध./उ./६७१ वैराग्यस्य परां काष्ठामधिरूढोऽधिकप्रभः। दिगम्बरो यथाजातरूपधारी दयापरः।६७१४-वैराग्यकी पराकाष्ठाको प्राप्त होकर प्रभावशाली दिगम्बर यथाजात रूपको धारण करनेवाले तथा दयापरायण ऐसे साधु होते हैं। २. साधुके अनेकों सामान्य गुण ध.१/१.१.१/गा. ३३/५१ सोह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सूरूवहिमंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर-सरिसा परम-पय-विमरगया साहू ॥३३॥ - सिंहके समान पराक्रमी, गजके समान स्वाभिमानी या उन्नत, बैल के समान भद्रप्रकृति, मृगके समान सरल, पशुके समान निरीह गोचरी वृत्ति करनेवाले, पवनके समान नि:संग या सब जगह बे-रोकटोक विचरनेवाले, सूर्यके समान तेजस्वी या सकल तत्त्वोंके प्रकाशक, सागरके समान गम्भीर, मेरु सम अकम्प व अडोल, चन्द्रमाके समान शान्तिदायक, मणिके समान प्रभाजयुक्त, क्षितिके समान सर्व प्रकारकी बाधाओंको सहनेवाले, सर्प के समान अनियत वसतिकामें रहनेवाले, आकाशके समान निरालम्बी व निलेप और सदाकाल परमपदका अन्वेषण करनेवाले साधु होते हैं ।३३।। दे. तपस्वी- [विषयोंकी आशासे अतीत, निरारम्भ, अपरिग्रही तथा ज्ञान-ध्यानमें रत रहनेवाले ही प्रशस्त तपस्वी हैं । वही सच्चे गुरु हैं। (और भी दे. साधु/३/१)। ३. साधुके अपर नाम दे. अनगार-[श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त व यति उसके नाम हैं। दे, श्रमण-श्रमणको यति मुनि वे अनगार भी कहते हैं। आचार्य उपाध्याय व साधु | आचार्य, उपाध्याय, साधुके लक्षण-दे. बह वह नाम । चारित्रादिकी अपेक्षा तीनों एक हैं। | चत्तारिदण्डक में 'साधु' शब्दसे तीनोंका ग्रहण -दे, मन्त्र/२। | तीनों एक ही आत्माकी पर्याय हैं। ३ तीनोंमें कथंचित् भेद । | श्रेणी आदि आरोहणके समय इन आधियोंका त्याग ।। १. साधु सामान्य निर्देश १. साधु सामान्यका लक्षण मू. आ./५१२ णिबाणसाधर जोगे सदा जुजति साधवो। समा सम्बेसु भूदेसु तम्हा ते सवसाधको १५१२। मोक्षको प्राप्ति करानेवाले मूलगुणादिक तपश्चरणोंको जो साधु सर्वकाल अपने आत्मासे जोड़े और सर्व जीवों में समभावको प्राप्त हो इसलिए वे सर्वसाधु कहलाते हैं ।५१२॥ स. सि./६/२४/४४२/१० चिरप्रवजितः साधुः।-[तपस्वी शैक्षादिमें भेद दरशाते हुए] जो चिरकालसे प्रवजित होता है उसे साधु कहते हैं। (रा. वा./६/२४/११/६२३/२४); (चा. सा./१५१/४)। द्र. सं./मू./५४/२२१ दसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं । साधयदि णिच्चसुद्ध साहू स मुणो णमो तस्स ।५४ =जो दर्शन और ज्ञानसे पूर्ण मोक्षके मार्गभूत सदाशुद्ध चारित्रको प्रकटरूपसे साधते हैं वे मुनि साधु परमेष्ठी हैं। उनको मेरा नमस्कार हो।४। (पं.ध। उ./६६७)। क्रियाकलाप/सामायिक दण्डककी टी./३/१/१/१४३ ये व्याख्यायन्ति न शास्त्रं न ददाति दोक्षादिकं च शिष्याणाम्। कर्मोन्मूलनशक्ता ध्यानरतास्तेऽत्र साधवी ज्ञेयाः ।जो न शास्त्रों की व्याख्या करते हैं और न शिष्योंको दीक्षादि देते हैं। कर्मों के उन्मूलन करनेको समर्थ ऐसे ध्यानमें जो रत रहते हैं वे साधु जानने चाहिए। (पं.ध./उ./६७०)। ४. साधुके अनेकों भेद १. यथार्थ व अयथार्थ दो भेद दे. श्रमण-[ श्रमण सम्यक् भी होते हैं और मिथ्या भी।] २. यथार्थ साधुके भेद प्र. सा./मू./२४५ समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुता य होंति समयम्हि । तेसु वि सुदधुबजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ।२५४।-शास्त्रों में ऐसा कहा है कि श्रमण शुद्धोपयोगी भी होते हैं और शुभोपयोगी भी। उनमें शुद्धोपयोगी (वोतराग) निरास्त्रव हैं और शुभोपयोगी ( सराग) सास्रव हैं । (दे, श्रमण ) म. आ./१४८ गिहिदत्थेय विहारो विदिओऽगिहिदत्थसं सिदो चेव । एत्तो तदियविहारो णाण्णुण्णादो जिणवरेहि १४८- जिसने जीवादि तत्त्व अच्छी तरह जान लिये हैं ऐसा एकलविहारी और दूसरा अगृहीतार्थ अर्थात जिसने तत्त्वों को अच्छी तरह ग्रहण नहीं किया है. इन दोके अतिरिक्त तीसरा विहार जिनेन्द्रदेव ने नहीं कहा है। इनमें से एकलविहारी देशान्तरमें जाकर चारित्रका अनुष्ठान करता है और अगृहीतार्थ साधुओं के संघमें रहकर साधन करता है। चा, सा.४६/४ भिक्षवो जिनरूपधारिणस्ते बहुधा भवन्ति अनगारा यतव्यो मुनय ऋषयश्चेति । = जिन रूप धारी भिक्षु, अनगार, यति, मुनि, ऋषि आदिके भेदसे बहुत प्रकारके हैं । (ओर भी दे. साधु/१/३); (प्र.सा./ता.वृ./२४६/११); (और भी दे. संघ)। दे. सल्लेखना/३/१ [ जिनकल्पविधिधारी क्षपकका निर्देश किया गया है। ] दे. छेदोपस्थापना/६ [भगवान् वीरके तीर्थ से पहले जिनकल्पी साधु भी सम्भव थे पर अब पंचमकाल में केवल स्थविरकल्पी ही होते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साँधु ४०४ [आचार्य, उपाध्याय सपली कुल ग्लान संघ, साधु और मनोज्ञ इन दश भेदोंको अपेक्षा वैयावृत्य १० प्रकार की है । ] सा.भ./२/१४ का फुटनोटमाभवन्यासरचतुर्विधाः । भवन्ति मुनयः सर्वे दानमानादिकर्मसु । दान, मान आदि क्रियाओंके करने के लिए वे सब मुनि नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन निक्षेपके से चार प्रकारके हैं। १. पुलाकादिकी अपेक्षा भेद स.सू./६/२६ शकुशीत निनाका निर्मन्थाः पुजाक मकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पाँच निर्ग्रन्थ हैं। (विशेष दे. वह वह नाम ) । ४. भ्रष्टाचारी साधुओं के भेद मू आ. / ५९३ सत्यो य कुसीलो संसत्तोसण्ण मिगच रित्तो य । दंसणणाचरि णिउता मंदरायेगा। ३१३ - पार्श्वस्थ, कुशीत, संसक्त, अवसन्न, और मृगचारित्र ये पॉच साधु दर्शन ज्ञान चारित्र में युक्त नहीं है और धर्मादिमें हर्ष रहित हैं इसलिए बन्दने योग्य नहीं है। (भ.आ./ / ९४६); (भ.आ./वि./२३/५४६/११); (चासा./ १४३/३ ) | २. व्यवहार साधु निर्देश १. व्यवहारावलम्बी साधुका लक्षण घ. १/१,१,१/५१ / २ पञ्च महाव्रतधरास्त्रिगुप्तिगुप्ताः अष्टादशशील सहस्रधराश्चतुरशीतिशतसहस्र गुणधराश्च साधनः जो पाँच महानतोंको धारण करते हैं. तीन गुझियोंसे सुरक्षित है. १०००० झोलके भेदोंको धारण करते हैं और ८४०००.०० उत्तरगुणों का पालन करते हैं वे साधु परमेष्ठी होते हैं । दे. संयम / १/२ । न च वृ./ ३३०-३३१ दंसणसुंद्धिविशुद्धो मूलाहगुणेहि संजुओ तय ।... ३३०| असुहेण रामरहिओ क्याड्रायेण जो हु संजुत्ता। सो इह भणिय सरागो-२३३११ दर्शन से जो निशुद्ध है तथा मूलादि गुणोंसे संयुक्त है | ३२० अशुभ रागसे रहित है, यत आदिके रागसे सयुक्त है वह सराग भ्रमण है । ३३१| = त. सा./१/५ श्रद्वानः परद्रव्यं बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमाणश्च उपमहारी स्मृतो मुनि 12 साल तत्वोंका भेदरूपसे श्रद्धान करता है, वैसे ही भेदरूपसे उसे जानता है तथा वैसे ही भेदरूपसे उसे उपेक्षित करता है अर्थात विकल्पात्मक भेद रत्नत्रयकी साधना करता है वह मुनि पारावतम्भी है || प्र. सा./त.प्र./२४६ शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोग पारि 1४६|शुद्धात्माका अनुराग युक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है। २. व्यवहार साधुके मूल व उत्तर गुण प्र. स. पू. /२०८-२०१] समिदिदियरोध कायमपेल मण्डा खिदिसयणमदतधोवगं ठिदिभोयणमेगभत्तं च । २० । एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता |... २०११ पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियोंका रोध, केशलोंच पद आवश्यक अलक अस्नान, भूमिशयन अदन्तथोवन खड़े खड़े भोजन, एक वार आहार, ये वास्तव में श्रमणोंके २८ मूलगुण जिनवरोंने कहे हैं।. ।२०८-२०१। (मु. आ./२-३) ( न च वृ./२२५) (पं. ध. / उ ०४५-१४६ । ब्रह्मचर्य / १/६ [ (तोन प्रकारकी अचेतन स्त्रियाँ x मन वचन व कायx कृत कारित अनुमोदना इन्द्रियार कषाय ७२० ) + (तीन २. व्यवहार साधु निर्देश = इस प्रकारकी चेतन स्त्रियमन वचन का कारित अनुमोदन पाँच इन्द्रियाँ चार संज्ञा सोलह कषाय - १७२८० ); १८००० ] प्रकार ये ब्रह्मचर्यको विराधनाके १८००० अंग हैं । इनके त्यागसे साधुको १८००० शील गुण कहे जाते हैं। अथवा [ मन वचन कायकी शुभ क्रिया रूप तीन योगxइन्होंकी शुभकी प्रवृत्तिरूप तीन करणचार सापच इन्द्रियपृथियो आदि दस प्रकार के जीवस धर्म - इस प्रकार साधुके १८००० शील कहे जाते हैं । ] । द. पा./टी./१/८/१८ का भावार्थ पाँच पाप, चार पाय सा भय, रति, अरति ये १३ दोष हैं + मन वचन कायकी दुष्टता ये ३+ मिथ्यात्व प्रमाद, पिशुनत्व, अज्ञान, पाँच इन्द्रियोंका निग्रह ये पाँच - इन २१ दोषोंका त्याग २१ गुण हैं ।) ये उपरोक्त २१ गुण x अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार ये चार पृथिवी आदि १०० जीवसमास १० शोल विराधना (दे. २/४) १० आलोचना दोष देना) १० धर्म - ४०००,०० उत्तरगुण होते हैं।) ३. व्यवहार साधुके १० स्थितिकल्प भ.आ./मू./४२१ आचेलक्कुछ सिय सेज्जाहररायपिंड कि रियम्मे । जेठपाम मा जोसमा ४२११ २. उद्दिष्ट भोजनका त्याग, ३ शय्याग्रह अर्थात् वसतिका बनवाने या सुधरवानेवाले आहारका त्याग, ४. राजपिंड अर्थात् अमीरों के भोजनका त्याग ५. कृतिकर्म अर्थात् साधुओं को विनय आदि करना, ६. व्रत अर्थात् जिसे व्रतका स्वरूप मालूम है उसे ही व्रत देना; ७. ज्येष्ठ अर्थात् अपने से अधिकका योग्य विनय करना, ८ प्रतिक्रमण अर्थात् नित्य लगे दोषोंका शोधन, ६ मासैकवासता अर्थात् छहों ऋतुओं में से एक मास पर्यन्त एकत्र मुनियोंका निवास और १० पद्य अर्थात् वर्षाकाल में चार मास पर्यन्त एक स्थानपर निवास - ये साधुके १० स्थिति कहे जाते हैं ( पू. आ./ १०१) । ४. अन्य कर्तव्य ! भा. पा/टी./७/२२६/११ त्रयोदशक्रिया भावय त्वं त्रिविधेन त्रिकरणशुद्रा व्यनमस्कारा, पडावश्यकानि चैत्यालयमध्ये प्रविशता निसिहो निसिद्धी निसिद्धी इति वारचयं द्वचार्यते जनमामन्दनाभक्ति कृष्णा वहिर्निर्गच्छता भव्यजीवन अमिही असिही असही इति वास्त्रयं रचा इति प्रयोदशक्रिया है भव्य एवं भावय । ... अथवा पञ्चमहावतानि पञ्चसमितयस्तिस्रो गुप्तयश्चेति त्रयोदशक्रियास्त्रयोदशविधं चारित्रं हे भव्यवरपुण्डरीकमुने! त्वं भावय । - हे भव्य, तू मन वचन व कायकी शुद्धि पूर्वक १३ क्रियाओकी भावना कर । वे १३ क्रियाएँ ये हैं - १. पंच नमस्कार, षड् आवश्यक, चैत्यालय में प्रवेश करते समय तीन बार 'निसही' शब्दका उच्चारण और चैत्यालय से बाहर निकलते समय तीन बार 'असही' शब्दका उच्चारण । ( अन ध./८/१३०/-४१ ) २. अथवा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन पुति सैरप्रकारका चारित्र ही तेरह क्रियाएँ हैं। (दे, चारित्र / १/४ ) । संयत// [अदादिकी भक्ति ज्ञानियोंमें बारसम्म श्रमणों के प्रति वन्दन, अभ्युत्थान, अनुगमन, व वैयावृत्त्य करना, आहार व नीहार, तत्त्व विचार, धर्मोपदेश, पर्व के दिनों में उपवास, चातुर्मास योग, शिरोमति व आवर्त आदि कृतिकर्म सहित प्रतिदिन देव वन्दना आचार्य वन्दना, स्वाध्याय, रात्रियोग धारण, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि, ये सब क्रियाएँ शुभोपयोगी साधुको प्रमत्त अवस्थामें होती हैं ।] दे. संयम/१/६ वीतरागी साधु स्वयं हटकर तथा अन्य साधु पक्षीसे जीवों को हटाकर उनकी रक्षा करते हैं । ] जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु ५. मूलगुणोंके मूल्यपर उत्तरगुणोंकी रक्षा योग्य नहीं पं. वि. / १/४० मुक्त्वा मूलगुणान् यतेर्विदधतः शेषेषु यत्नं परं दण्डो मूलहरो भवत्यविरत' पूजादिकं वाञ्छतः । एकं प्राप्तमरेः प्रहारमतुलं हिला शिरश्छेदकं रक्षतिकोटिण्डनकर बोयो र बुद्धि मात्] [४०] लोंको छोड़कर केवल शेष उत्तरगुणों के परिपालनमें ही प्रयत्न करनेवाले तथा निरन्तर पूजा आदिकी इच्छा रखनेवाले साधुका यह प्रयत्न मूलघातक होगा। कारण कि उत्तरगुणों में दृढ़ता उन मूलगुणोंके निमित्तसे ही प्राप्त होती है। इसीलिए यह उसका प्रयत्न इस प्रकारका है जिस प्रकार कि युद्धमें कोई मूर्ख सुभट अपने शिरका छेदन करनेवाले शत्रुके अनुपम प्रहारकी परवाह न करके केवल अंगुली अग्रभागको खण्डित करनेवाले प्रहारसे ही अपनी रक्षा करनेका प्रयत्न करता है |४०| ४०५ ६. मूलगुणोंका अखण्ड पालन आवश्यक है। पं.प.व./०१३-०४४ यतेनाश्चाष्टाविंशतिर्मूलयतः। नात्राप्यन्यतमेनोना नातिरिक्ताः कदाचन । ०४३। सर्वे रेभिः समस्तैश्व सिद्ध यावन्मुनित्रतम् । न व्यस्त व्यस्तमात्रं तु यावदं शनयादपि । ७४४ | -वृक्षकी जड़के समान मुनिके २८ गुण होते हैं। किसी भी समय मुनियों ने न एक कम होता है, ने एक अधिक ७४३ सम्पूर्ण मुनिमत इन समस्त जों ही सिद्ध होता है, किन्तु केवल अंशको ही विषय करनेवाले किसी एक नयकी अपेक्षासे भी असमस्त मूलगुणोंके द्वारा एक देशरूप मुनित्रत सिद्ध नहीं होता । ७४४ | ७. शरीर संस्कारका कड़ा निषेध सू.आ./हबंधा विण्नेहा अप्पको सरीरम्मि ण करंति किंचि साहू परिमं ठप्पं सरोरम्मि ।८३६ | मुहणायणढोणा संचारिमपसरीरसंठावर्ण |३७|धूषणमण विरेयण अंजण अभंगलेवणं चेव । णत्युयवfreकम्मं सिखेज् अप्पणी सव्वं : ८३८ पुत्र स्त्री आदिमें जिन्होंने प्रेमरूपी बन्धन काट दिया है और जो अपने शरीर में भी ममता रहित हैं, ऐसे साधु शरीरमें कुछ भी संस्कार नहीं करते हैं । ८३६ । मुख नेत्र और दाँतों का धोना शोधना पखारना, उबटन करना, पैर धोना, अंगमर्दन करना, मुट्ठीसे शरीरका ताइन करना, काठके यन्त्र से शरीरका पीड़ना, ये सब शरीरके संस्कार हैं |३७| धूपसे शरीरका संस्कार करना, कण्ठशुद्धिके लिए वमन करना, औषध आदिसे दस्त लेना, अंजन लगाना, सुगन्ध तेल मर्दन करना, चन्दन, कस्तुरीका लेप करना, रालाई बसी आदि नासिका व वस्तिकर्म (इनेमा) करना नसों से लोहीका निकालना ये सब संस्कार अपने शरीरमें साधुजन नहीं करते |३८| ८. साधुके लिए कुछ निषिद्ध कार्य मू. आ./गा. पिंडोवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो । मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो | ११६ । किं तस्स ठाणमोर्ण कि काइदि अन्भवगासमादायो मेतिविहूको समणो सिम्झदिन सिद्धि | २४| टोचतो मंदो तह साहू पुमंसपि वीगारो दुरासओ होदि सो समणो १६५॥ दर्भ परपरिवाद पिसुणत्तण पावसुत्त पडिसेवं । चिरपत्रइदपि मुणी बाजु ण से विज्न जो मुनि आहार, उपकरण, खावास इनको न सोधकर सेवन करता है वह मुनि गृहस्थपनेको प्राप्त होता है और लोक युनियनेसे होन कहलाता है । ६१६। उस सुनिके कायोत्सर्ग मौन और अभ्रावकाश योग, आतापन योग क्या कर २. व्यवहार साधु निर्देश ण सकता है। जो साधु मैत्री भाव रहित है वह मोक्षका चाहनेवाला होनेपर भी मोक्षको नहीं पा सकता । ६२४| जो अत्यन्त क्रोधी हो, चंचल स्वभाववाला हो, चारित्रमें आलसी पीधे दोष कहनेवाला विशुम हो, गुरुता कपाय बहुत रखता हो ऐसा सानु सेवने योग्य नहीं । ६५५ । जो ठगनेवाला हो, दूसरोंको पीड़ा देनेवाला हो, झूठे दोष को ग्रहण करनेवाला हो, मारण आदि मन्यशास्त्र अथवा हिसापोषक शास्त्रोंका सेवनेवाला हो, आरम्भ सहित हो, ऐसे बहुत काल से भी दीक्षित मुनिको सदाचरणी नहीं सेवे ॥१५७॥ रसा / १०० का विप्पमुस्को आहाफम्मानिरहिओ पाणी ॥१००॥ -यतीश्वर विक्या करनेसे युक्त तथा आधाकर्मादि सहित चर्यात रहित है। निष. कथा / ७ तथा आहार/11/५)। भा.पा./मू./६६ अवसान भागणेण य किं ते नगे पायमतिणेण । पेणहासमा रमायाले सयपेण ॥ ६६- पैशुन्य, हास्य, मसर माया आदिकी बहुलतायुक्त अथवा उसके नरमपनेसे क्या साध्य है । वह तो अपयशका भाजन है | ६ | लि.पा./मू./१२०दि गायदि तानं माय बापदि लिंगरूपेण सो पायमोहिमदी तिरिमखजोगी सो समय 12 वा आ विरूपं बहुमानगविवओ लिंगी वयदि गरयं पाओ करमाणो लिंगवेण |६| कंदप्पाइय वट्टछ करमाणी भोयणेसु रसगिद्धि । मायी लिंग वियाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो । १२ उपदि पदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण । इरियावह धारतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो । १५३ रागो करेदि णिच्चं महिलावरगं परं व से इंसणणाणविहीनो विक्सिजोणी न सो समणो हि हि सासम्मि महदे बहुसो आयार विषयहीणो तिरिक्खोणी ण सो समणो ११८ | दंसणणाणचरिते महिलावरगम्मि देहि बीस हो । पात्थ विहु जियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो | २० | = जो साधुका लिंग ग्रहण करके नृत्य करता है, गाता है, बाजा बजाता है, || बहु मानसे गर्वित होकर निरन्तर कलह व वाद करता है ( दे. वाद / ७ ); द्यूतक्रीड़ा करता है । ६ । कन्दर्पादि भावनाओं में वर्तता है ( दे. भावना / १/३) तथा भोजनमें रसगृद्धि करता है (दे. आहार / II / २); मायाचारो व व्यभिचारका सेवन करता है (दे. १) १२ ईर्याथ सोधे बिना दौड़ते हुए अथवा उछलते हुए चलता है, गिर पड़ता है और फिर उठकर दौड़ता है |१२| महिला वर्गने निश्वराम करता है, और दूसरोंमें दोष निकालता है |१| गृहस्थों व शिष्योंपर स्नेह रखता है ।११ स्त्रियों पर विश्वास करके उनको दर्शन ज्ञान चारित्र प्रदान करता है, मह तिर्यग्योनि है, नरकका पात्र है, भाबोंसे विनष्ट हुआ यह पार्श्वस्थ है साधु नहीं |२०| पं. ध. /उ. / ६५७ यद्वा मोहात् प्रमादाद्वा कुर्याद् यो लौकिकी क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चान्तव ताच्च्युतः । जो मोहमे अथवा प्रमादसे जितने काल तक लौकिक क्रिया करता रहता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अन्तरंग में जसो च्युरा भी है। देवा आदि शुभक्रियाएँ करते हुए पट् कायके tant बाधा नहीं पहुँचानी चाहिए ) । दे, विहार / १/१ [ स्वच्छन्द व एकल विहार करना इस काल में fire) दे धर्म / ६ / ० [ अधिक शुभोपयोग क्योंकृित्यादि शुभ कार्य को गौण] दे, मन्त्र / १ / ३-४ [ मन्त्र तन्त्र, ज्योतिष, वैद्यक, वशीकरण, उच्चाटन आदि करना, मन्त्र सिद्धि, शस्त्र अंजन सर्प आदिकी सिद्धि करना तथा आजीविका करना साहुके लिए बर्जित है। ] संगतिदुर्जन, सौकिक जन, तरुण जन, स्त्री 1 ची मपुंसक पशु आदिकी संगति करना निषिद्ध है । आर्थिकासे भी सात हाथ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश वर्तन करना साधुको योग्य नहीं गृहस्थों को प्रधान हैं और साधुओं Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु ३. निश्चय साधु निर्देश दूर रहना योग्य है। पावस्थादि भ्रष्ट मुनियों की संगति वर्जनीय है। " दे, भिक्षा/२-३ भिक्षार्थ वृत्ति करते समय गृहस्थके घरमें अभिमत स्थानसे आगे न जावे, छिद्रों मेंसे झाँककर न देखे, अत्यन्त तंग व अन्धकारयुक्त प्रदेशमें प्रवेश न करे । ब्यस्त व शोक युक्त घरमें, विवाह व यज्ञशाला आदिमें प्रवेश न करे। बहु जन संसक्त प्रदेशमें प्रवेश न करे। विधर्मी, नीच कुलीन, अति दरिद्री, तथा राजा आदिका आहार ग्रहण न करे। दे. आहार/II/२ [ मात्रासे अधिक, पौष्टिक व गृद्धता पूर्वक गृहस्थपर भार डालकर भोजन ग्रहण न करे।] दे. साधु/४/१ तथा ६/७ [इतने कार्य करे वह साधु सच्चा नहीं। ब्धिवन्मुनिः।६६। नादेशं नोपदेश वा नादिकत् स मनागपि । स्वपिवर्गमार्गस्य तद्विपक्षस्य किं पुनः १६७०। वैराग्यस्य परी काष्ठामधिरूढोऽधिकप्रभः...६७१। निर्ग्रन्थोन्तर्बहिर्मोहग्रन्थेरग्रन्थको यमी।...६७। परीषहोपसर्गाधरजय्यो जितमन्मथः ।...६७३। इत्याद्यनेकधानेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः। नमस्य' श्रेयसेऽवश्य नेतरो विदुषां महात् ।६७४। -यह साधु कुछ नहीं बोले । हाथ पाँव आदिके इशारेसे कुछ न दर्शावे, आत्मस्थ होकर मनसे भी कुछ चिन्तवन न करे ।६६८। केवल शुद्धात्मामें लीन होता हुआ वह अन्तरंग व माह्य बाग्व्यापारसे रहित निस्तरंग समुद्र की तरह शान्त रहता है।६६६। जब वह मोक्षमागके विषय में ही किंचिद भी उपदेश या आदेश नहीं करता है, तब उससे विपरीत लौकिक मार्गके उपदेशादि कैसे कर सकता है ।६७०। वह वैराग्यकी परम पराकाष्ठाको प्राप्त होकर अधिक प्रभावशाली हो जाता है ।६७१। अन्तरंग बहिरंग मोहकी ग्रन्थिको खोलनेवाला वह यमी होता है ।६७२। परीषहों व उपसर्गोके द्वारा वह पराजित नहीं होता, और कामरूप शत्रुको जीतनेवाला होता है १६७३। इत्यादि अनेक प्रकारके गुणोंसे युक्त बह पूज्य साधु ही मोक्षकी प्राप्तिके लिए तत्त्वज्ञानियोंके द्वारा अवश्य नमस्कार किये जाने योग्य है, किन्तु उनसे रहित अन्य साधु नहीं।६७४। ३. निश्चय साधु निर्देश १. निश्चय साधुका लक्षण प्र. सा./मू./२४१ समसत्तुबंधुवग्गो सममुहंदुक्खो पंससणिदसमो। समलोठुकंचणो पुण जावितमरणे समो समणो ।२४११ -जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग समान है, सुख दुःख समान है, प्रशंसा और निन्दाके प्रति जिसको समता है, जिसे लोष्ठ ( ढेला) और सुवर्ण समान है, तथा जीवन मरणके प्रति जिसको समता है, वह श्रमण है। (मू. आ./५२१) नि. सा./मू.७५ वावारविष्पमुक्का चउबिहाराहणासयारत्ता । णिग्गंथा। णिम्मोहा साहू एदेरिसा होति ७५॥ = काय व वचनके व्यापारसे मुक्त, चतुर्विध आराधनामें सदा रक्त, निर्ग्रन्थ और निर्मोह-ऐसे साधु होते हैं। म. आ./१००० णिस्संगो णिरार'भो भिक्रवाचरियाए सुद्धभावो। य एगागी ज्माणरदो सव्वगुड्ढो हवे समणो ।१०००।-जो निष्परिग्रही व निरारम्भ है, भिक्षाचर्याम शुद्धभाव रखता है, एकाकी ध्यानमें लीन होता है, और सब गुणोंसे परिपूर्ण होता है वह श्रमण है ।१०००। (और भी दे. तपस्वी तथा लिंग/१/२) ध, १/१,१.१/११/१ अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः । -जो अनन्त ज्ञानादिस्वरूप शुद्धात्माकी साधना करते हैं उन्हें साधना कहते हैं। ध.८/३,४१/८७/४ अणतणाणदसणवीरियविरइरखइयसम्मत्तादीणं साहया साहू णाम । -अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति और क्षार्थिक सम्यक्त्वादि गुणों के जो साधक हैं वे साधु कहलाते हैं। न. च. वृ./३३०-३३१.... मुहदुःखाइसमाणो झाणे लीणो हवे समणो ३३०॥...... मुक्कं दोहणं पि खलु इयरो।३३१ -सुख दुःखमें जो समान है और ध्यान में लीन है, वह श्रमण होता है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके रागसे मुक्त वीतराग श्रमण है। त. सा./६/६ स्वद्रव्यं श्रद्धानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः।६। जो निजात्माको ही श्रद्धानरूप व ज्ञान रूप बना लेता है और उपेक्षारूप ही जिसकी आत्माकी प्रवृत्ति हो जाती है, अर्थात जो निश्चय व अभेद रत्नत्रयकी साधना करता है वह श्रेष्ठ मुनि निश्चयावलम्बी माना जाता है।६। प्र, सा./ता.व./२५२/३४५/१६ रत्नत्रयभावनया स्वारमान साधयतीति साधुः। -रत्नत्रयकी भावनारूपसे जो स्वात्माको साधता है वह साधु है। (प.प्र./टी /19/१४/७); (प.घ./उ./६६७) ३. साधुमें सम्यक्त्वकी प्रधानता प्र. सा/मू./गा, सत्तासंबद्धेदे सविसे से जो हिणेत्र सामण्णे। सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदिशण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सहहदि ण अत्ये आदपधाणे जिणखदे ।२६४ जे अजधागहिदत्या एदे तश्च त्ति णिच्छिदा समये। अच्चंतफल समिद्धं भमंति ते तो पर काल ।२७१। जो श्रमणावस्थामें इन सत्ता संयुक्त सविशेष (नव) पदार्थोंकी श्रद्धा नहीं करता वह श्रमण नहीं है उससे धर्मका उद्भव नहीं होता ।११। सूत्र, संयम और तपसे संयुक्त होनेपर भी यदि जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थोंका प्रदान नहीं करता तो वह श्रमण नहीं है ऐसा कहा है ।२६४। भले ही द्रव्यलिंगीके रूपमें 'जिनमत के अनुसार हो तथापि वे 'यह तत्त्व है (वस्तुस्वरूप ऐसा ही है ), इस प्रकार निश्चयपना वर्तते हुए पदार्थोंको अयथार्थ तया ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं हैं वैसे समझते हैं) वे अत्यन्तफलसमृद्ध आगामी काल में परिभ्रमण करेंगे।२७१। र. सा./१२७ वयगुणसीलपरीसयजयं च चरियं च तब षडावसयं । झाणज्झयण सब सम्मविणा जाण भवनीय। -बिना सम्यग्दर्शनके बत, २८ मूलगुण, ८४०,००,०० उत्तरगुण, १८००० शील, २२ परीषहों का जीतना, १३ प्रकारका चारित्र, १२ प्रकार तप, षडावश्यक, ध्यान व अध्ययन ये सब संसारके बीज हैं। (और भी दे. चारित्र, तप आदि वह-वह नाम) मो. पा./मू./१७ बहिरसंगविमुक्को णा वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गयो। कि तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसम्मभावं ।। -माह्य परिग्रहसे रहित होने पर भी मिथ्याभावसे निर्ग्रन्थ लिंग धारण करनेके कारण वह परिग्रह रहित नहीं है। उसके कायोत्सर्ग और मौन धारनेसे क्या साध्य है। प्र.सा./त. प्र./२६४ आगमज्ञोऽपि...श्रमणाभासो भवति । (दे. ऊपर प्र. सा./मू./२६४ का अर्थ ) इतना कुछ होनेपर भी वह श्रमणाभास है। दे, कां/३/१३ [आरमाको परद्रव्योंका कर्ता देखने वाले भले ही लोकोत्तर हों अर्थात् श्रमण हों पर वे लौकिकपनेको उनलंघन नहीं. करते।] २. निश्चय साधुकी पहचान पं. घ./उ./६६८-६७४ नोच्याच्चायं यमी किंचिद्धस्तपादादिसंशया। न किंचिद्दर्शयेत स्वस्थो मनसापि न चिन्तयेत् ।६६८। आस्ते स शुद्ध- मात्मानमास्तिनुवानश्च परम् । स्तिमितान्तर्बहिर्जल्पो निस्तरङ्गा दे. लिंग/२/२ [ सम्यग्दर्शन युक्त ही नग्नरूपको निर्ग्रन्थ संज्ञा प्राप्त है।] ४. निश्चय लक्षणकी प्रधानता भ. आ. म./१३४७/१३०४ घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अभंतरम्मि कुधिदस्स । बाहिरकरणं किं से काहिदि मगणिहूदकरणस्स ।१३४७। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु ४०७ ४. अयथार्थ साधु सामान्य निर्देश - बगुलेको चेष्टाके समान, अन्तरंगमें कषायसे मलिन साधु की बाह्य क्रिया किस कामकी ! वह तो घोड़ेकी लीदके समान है, जो ऊपरसे चिकनी अन्दरसे दुर्गन्धी युक्त होती है। नि. सा././१२४ कि काहदि बनवासो कायकलेसो विचित्तउववासी। अझयणमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ।१२४। - वनवास, कायक्लेशरूप अनेकप्रकारके उपवास, अध्ययन, मौन आदि, ये सब समता रहित श्रमणको क्या कर सकते हैं। मू.आ./६८२. अकसायं तु चारित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि । उवसमदि जम्हि काले तकाले संजदो होदि १८२१ - अकषायपनेको चारित्र कहते हैं। कषायके वश होनेवाला असंयत है। जिस काल में कषाय नहीं करता उसी काल में संयत है। (प.प्र./मू./२/४१) सू. पा./मू-/१५ अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माइ करेइ णिरवसेसाई। तह वि ण पाव दि सिद्धिं संसारस्थो पुण भणिदो ।१५॥ सर्व धर्मोंको निरवशेषरूपसे पालता हुआ भी जो आत्माकी इच्छा नहीं करता वह सिद्धिको प्राप्त नहीं होता बल्कि संसारमें ही भ्रमण करता है ।१५॥ भा. पा. १२२ जे के वि दब्बसमणा इंदियसुहाउला ण छिदं ति। छिदंति भावसमणा झाण कुठारे हिं भवरुवरखं ।१२२। - इन्द्रिय विषयों के प्रति व्याकुल रहनेवाले द्रव्य श्रमण भववृक्षका छेदन नहीं करते, ध्यानरूपी कुठारके द्वारा भाव श्रमण ही भववृक्षका छेदन करते हैं। (दे, चारित्र./४/३ तथा लिंग/२/२) दे, चारित्र/४/३ [ मोहादिसे रहित व उपशम भाव सहित किये गये ही व्रत, समिति, गुप्ति, तप, परीषह जय आदि मूलगुण व उत्तरगुण संसारछेदके कारण हैं, अन्यथा नहीं।] दे. ध्यान /२/१० [ महावत, समिति, गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त आदि सब एक आत्मध्यानमें अन्तर्भूत हैं । ] दे. अनुभव // [निश्चय धर्मध्यान मुनिको ही होता है गृहस्थको नहीं।] प्र. सा/त.प्र/गा. एक एव हि स्वद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकत्वेन माजि तोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनं, तस्माद्भावादेव परिपूर्णश्रामण्यम् ।२१४। न चै काग्रयमन्तरेण श्रामण्यं सिद्धयेत् ।२३। एक स्वद्रव्य-प्रतिबन्ध हो, उपयोगको शुद्ध करनेवाला होनेसे शुद्ध उपयोगरूप श्रामण्यकी पूर्णताका आयतन है, क्योंकि उसके सदभावसे परिपूर्ण श्रामण्य होता है ।२१४। एकाग्रताके बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता ॥२३॥ प्र. सा/त.प्र/२४५ ये खलु श्रामण्यपरिणति प्रतिज्ञायापि जीवितकषायकणतया समस्तपरद्रव्यनिवृत्तिप्रवृत्तिप्रवृत्त सुविशुद्भदृशिज्ञप्तिस्वभावात्मतत्त्ववृत्तिरूपा शुद्धोपयोगभूमिकामधिरोढुं न क्षमन्ते ते तदुपकण्ठनिविष्टाः कषायकुण्ठीकृतशक्तयो नितान्तमुत्कण्ठुलमनस: श्रमणा: किं भवेयुर्न वेत्यत्राभिधीयते। 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो। पावदि णियाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छ भोपयोगस्य धर्मेण सहकार्थसमवायः । ततः शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसभावाभवेयुः श्रमणाः किंतु तेषां शुद्रोपयोगिभिः समं समकाष्ठत्वं न भवेत, यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्तसमस्तकषायत्वादनासवा एव । इमे पुनरनवकीर्ण कषायकणत्वात्सालवा एव । प्रश्न-जो वास्तव में श्रामण्यपरिणतिकी प्रतिज्ञा करके भी, कषायकणके जीवित होने से समस्त परद्रव्यसे निवृत्तिसे प्रवर्त्तमान जो सुविशुद्ध दर्शनज्ञान स्वभाव आत्मतत्वमें परिणतिरूप शुद्धोपयोग भूमिका उसमें आरोहण करनेको असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी ) जीव-जो कि शुद्रोपयोगभूमिकाके उपकण्ठ (तलहटीमें) निवास कर रहे हैं, और कषायने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित मनवाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं। ? उत्तर(आचार्यने इसी ग्रन्थकी ११वीं गाथामें) स्वयं ऐसा कहा है कि धर्मसे परिणमित स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्धोपयोगमें युक्त हो तो मोक्ष सुखको प्राप्त करता है, और यदि शुभोपयोगवाला हो तो स्वर्ग सुखको प्राप्त करता है ।११। इसलिए शुभोपयोगका धर्म के साथ एकार्थ समवाय है । इसलिए शुभोपयोगी भी उनके धर्मका सद्भाव होनेसे श्रमण है। किन्तु वे शुद्धोपयोगियोंके साथ समान कोटिके नहीं है। क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायोंके निरस्त किया होनेसे निरासप ही हैं, और ये शुभोपयोगी तो कषायकणके विनष्ट न होनेसे सासव ही हैं। प्रसा/त.प्र/२५२ यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्तेः श्रमणस्य तत्प्रच्या वनहेतोः कस्याप्युपसर्गस्योपनिपातः स्यात् स शुभोपयोगिनः स्वशक्त्या प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकालः। इतरस्तु स्वयं शुद्धारमवृत्त समधिगमनाय केवल निवृत्तिकाल एव । जब शुद्धात्म परिणतिको प्राप्त श्रमणको, उससे च्युत करनेवाले कारण-कोई उपसर्ग आ जाय, तब वह काल, शुद्धोपयोगीको अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिकार करनेकी इच्छारूपप्रवृत्तिकाल है। और उसके अतिरिक्त का काल अपनी शुद्धात्मपरिणतिकी प्राप्तिके लिए केवल निवृत्तिका काल है। ४. अयथार्थ साधु सामान्य निर्देश १. अयथार्थ साधुकी पहचान भ. आ/मु२६०-२६३ एसा गणधरमेरा आयारस्थाण वणिया मुत्ते। लोगसुहागुरदाण अप्पच्छंदो जहिच्छए ।२६० सीदावेह विहार सुहसीलगुणेहिंजो अबुद्धीओ। सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ।२६१। पिंडं उवधि सेजामविसोधिय जो खु भुंजमाणो हु। मूलट्ठाण पत्तो बालोत्तिय णो समणबालो ।२६२। कुलगामणयररज्ज पयहिय तेसु कुणइ दुममत्ति जो। सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिरसारो।२६३. जो लोकोंका अनुसरण करते हैं और सुखकी इच्छा करते हैं उनका आचरण मर्यादा स्वरूप माना नहीं जाता है। उनमें अनुरक्त साधु स्वेच्छासे प्रवर्तते हैं ऐसा समझना चाहिए ।२६०। यथेष्ट आहारादि सुखोंमें तल्लीन होकर जो मूर्ख मुनि रत्नत्रयमें अपनी प्रवृत्ति शिथिल करता है वह द्रव्य लिंगी है ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि, वह इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयमसे निःसार है।२६१ उद्गमादि दोषोंसे युक्त आहार, उपकरण, वसतिका, इनका जो साधु ग्रहण करता है। जिसको प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम है हो नहीं, वह साधु मूलस्थान-प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है (दे. ५. निश्चय व्यवहार साधुका समन्वय र. सा/११,६१ दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। झाणाझयणं मुक्खं जइधम्म ण तं विणा तहा सो वि।११॥ तच्चवियारणसीलो मोक्खपहाराणसहावजुदो। अणवरयं धम्मकहापसंगादो होइ मुणिराओ ।। =दान व पूजा ये श्रावकके मुख्य धर्म हैं। इनके बिना श्रावक नहीं होता। परन्तु साधुओंको ध्यान व अध्ययन प्रधान हैं। इनके बिना यतिधर्म नहीं होता।१श जो मुनिराज सदा तत्त्वविचारमें लीन रहते हैं, मोक्षमार्ग ( रत्नत्रय) का आराधन करना जिनका स्वभाव है और जो निरन्तर धर्मकथामें लीन रहते हैं अर्थात यथा अवकाश रत्नत्रयकी आराधना व धर्मोपदेशादि रूप दोनों प्रकारकी क्रियाएँ करते हैं वे यथार्थ मुनि हैं ।। प्र. सा/मू/२१४ चरदि णिबद्रो णिच्चं समणो णाणम्मि देसणमुहम्मि । पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो । - जो श्रमण ( अन्तरंग में तो) सदा ज्ञान व दर्शन आदिमें प्रतिबद्ध रहता है और (बाह्यमें ) मूलगुणोंमे प्रयत्नशील विचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रामण्यवान है ।२१४। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु प्रायश्चित /४/२)। वे अज्ञानी हैं, केवल नग्न हैं, वह पति भी नहीं है और न आचार्य है | २२| जो मुनि कुल, गाँव, नगर और राज्यको छोड़कर उनमें पुनः प्रेम करता है अर्थात उनमें मेरेपनेकी बुद्धि करता है, वह केवल नग्न है, संयमसे रहित है | २६३ | ( भ आ / मू. । १११६ - १३२५ ) र. सा/ १०६ ९९४ देहादिसु अपुरता विश्वासत्ता कसायसंजुत्ता। 1 = सहावे सुता ते साहू सम्मपरिचता १०६ संघविरोहकुसीला सदा रहियगुरुकुला मृदा माइया ते विधम्मविराहिया साहू [१०] सति वरवति अप्पा अप्पमाह । जिम्म निमिषं कुति ते साहू सम्म उम्मुक्का ॥ ११४॥ जो मुनि शरीर भोग व सांसारिक कार्योंमें अनुरक्त रहते हैं, जो विषयोंके सदा अधीन रहते हैं, कषायों को धारण करते हैं, आत्मस्वभाव में हैं. वे साधु सम्यक्व रहित है । १०६ । (भ. आ // १२१६-१२४०) जो संघसे विरोध करता है, कुशील सेवन करता है, स्वच्छन्द रहता है, गुरुकुल में नहीं रहता, राजा आदिकी सेवा करता है वह अज्ञानी है, जिनधर्म का विराधक है | १०८ | जो दूसरेके ऐश्वर्य व अभिमानको सहन नहीं करता, अपनी महिमा आप प्रगट करता है और वह भी केवल स्वादिष्ट भोजनकी प्राप्ति के लिए वह साधु सम्यक्त्व रहित है ११४ 1 दे. मंत्र / १/३ [ मंत्र, तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, उच्चाटन, वशीकरण आदि करनेवाला साधु नहीं है । ] दे. श्रुतवली / १/३ [ विद्यानुवादके समाप्त होनेपर आयी हुई रोहिणी आदि विद्याओंके द्वारा दिखाये गये प्रसोधनमें जो नहीं आते हैं ये अभिन्न दश पूर्वी है और होमको प्राप्त हो जानेवाले भिन्न हैं। दे साधु /५/०] [] पार्श्वस्यादि मुनियोंका आचार ] २. अयथार्थ साधु श्रावकसे भी होन है। भाषा // ९५४ सेनिय भणामि हे जे सयासी जमगुणेहिं । महुदोसाणावास सुमतिचितो व सावयसमो सो ॥१५३ 50 और संयम की कहासे पूर्व है उसीको हम मुनि कहते हैं परन्तु जो बहुत दोषों का आवास है तथा मलिन चित्त है वह श्रावकके समान भी नहीं है। दे. निदा/६ [ मिध्यादृष्टि न स्वच्छन्द पलिंगी साधुओंको, पाच श्रमण, नट श्रमण, पाप जीव, तिर्यंचयोनि, नारद, लौकिक, अभव्य, राजवल्लभ, नौकर आदि निन्दनीय नाम दिये गये हैं । ] ३. अवधार्थ साधु दुःखका पात्र भा. पा // १०० पार्वति आवमा पर पराई सोमलाई दुखाई दवसवणार तिरियकुदेवजोणीए । १००१ - भावश्रमण तो कल्याणकी परम्परा रूप सुखको पाता है और द्रव्य श्रमण तिथंच मनुष्य व कुदेव योनियों में दुख पाता है । ९००० ४. अयथार्थं साधु से यथार्थ श्रावक श्रेष्ठ है भ. / / ३५४/५५६ वासरथसदसहस्यादो विसीलो वरं तु एक्को वि । जं संसिदस्स सीलं दंसणणाणचरणाणि वद्वंति | ३५४ | [पासस्य सदसहस्सादों व पार्श्वस्थ ग्रह चारित्रद्रोपलक्षणार्थं । (वि. टोका) ] यहाँ पार्थस्य शब्दले चारिथहीन मुनियाँका ग्रहण समझना चाहिए अर्थात् चारित्रहीन मुनि संज्ञामधि हो तो भी एक सुशीख मुनि उनसे समझना चाहिए। कारण कि सुशील मुनीश्वर के आश्रयसे शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्र बढ़ते हैं।" र. क. श्रा / २३ - गृहस्थी मोक्षमार्गस्थ निर्मोही नै मोहबाद अनगारों गृही याच निर्मोही मोहिनी मुनेः ३३| दर्शनमोहरहित गृहस्थ भी मोक्षमार्ग में स्थित है किन्तु मोहबाद मुनि भी मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। इस कारण मोही मुनिसे निर्मोही सम्प]ि गृहस्थ श्रेष्ठ है। ** ५. पुलाक व पार्श्वस्थ आदि साधु दे. विनय / ५ / ३ [ इस निकृष्ट कालके श्रावकोंमें तो किसी प्रकार श्रावकपना बन भी जाता है पर अयथार्थ मुनियोंमें किसी प्रकार भी मुनिपना सम्भव नहीं । ] ५. पुलाक व पार्श्वस्थ आदि साधु १. पुलाकादिमें संयम श्रुतादिकी प्ररूपणा प्रमाण - (स.सि./१/४०/४६२/- ) ( रा. बा./२/४०/४/६३० / ३२); (चा, सा / १०३ /२) । संकेत - ← = इसके समान : सा. सामायिक संयमः छेद छेदोपस्थाप] संयम परि परिहार विशुद्धि संयमः सूक्ष्मसूक्ष्म साम्प्राय संयम । अनुयोग संयम gat उत्कृष्ट जघन्थ तीर्थ लिए भाव द्रव्य सेश्या उपपाद उत्कृष्ट जघन्य पुलाक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सामायिक व छेदो १० पूर्व आचार अष्ट प्रवचन माता वस्तु प्रति सेवना बलात्कार उपकरणों- उत्तर वश महा की आकांक्षा गुणों में (विराधना ) व्रतों तथा व शरीर- कदारात्रिभुक्ति संस्कार चिय में कदाचित सब तीर्थ बाँके तीर्थ में वकुश 1 ↑ कुशीत यहाँ सहस्रार अच्युत सौधर्म प्रति सेवना ↑ सा., छेद यथाख्यात परि, सूक्ष्म. ← १४ पूर्व ← कषाय ↑ ↑ ↓ X ← ↑ निर्ग्रन्थ THE सर्वार्थ सिद्धि T X भावलिंग परस्पर भेद है - कोई आहार करे, कोई तप करे, कोई उपदेश करे, कोई अध्ययन करे, कोई तीर्थ विहार करे, कोई अनेक आसन करे, किसीको दोष लगे, कोई प्रायश्चित से, किसीको दोष नहीं लगे, कोई आचार्य है. कोई उपाय है, कोई है, कोई निर्यापक है, कोई वैयावृत्त्य करे, कोई ध्यानकर श्रेणी मांडे, कोई केवलज्ञान जाने किसी को बड़ी विकृति व महिमा होय इत्यादि माहा प्रवृत्तिकी अपेक्षा लिंग भेद हैं ( रा. वा. / हि.) । तीन शुभ ← अन्तिम शुक्ल ४- (सूक्ष्म - सांप के केवल (शुक्र) T स्नातक T T • केवलज्ञान x T ↑ मोक्ष Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु २. पुलाकादिमें संयम लब्धिस्थान (स.सि./६/४७/४६२/१२); ( रा. वा./१/४७/४/६३८/१६): ( चा. सा./९०६ / ९) संकेत- असं असंख्यात स्थान प्र. असं. स्थान द्वि. असं स्थान तृ. असं स्थान चतु असं स्थान पंच. असं. स्थान षष्ठ. असं, स्थान अन्तिम १ स्थान स्वामि ताक व कषाय कुशीत । केवल कषाय कुशील | कषाय व प्रतिसेवना कुशीत और मकुश कषाय व प्रतिसेवना कुशील । केवल कषाय कुशील । निर्मन्थों के अकषाय स्थान । स्नातकों का अकषाय स्थान । २. पुलाक आदि पाँचों निग्ध है स.सि./१/४६/४६०/१२ - एते च निर्यथाः । चारित्रपरिणामस्य कप मे सत्यपि नेगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेऽपि ते निर्मन्या इत्युच्यन्तेये पाँचों ही निर्बन्ध होते हैं। इसमें चारित्ररूप परिणामोंको न्यूनाधिकता के कारण भेद होनेपर भी मेगम और संग्रह आदि (व्यार्थिक ) नयाँकी अपेक्षा वे सब निर्ग्रन्य कहलाते हैं। (पा. सा/१०९/१ ) ४. पुलाकादि के निर्ग्रन्थ होने सम्बन्धी शंका समाधान + रा. बा/६/०६/६-१२/६३०/१- यथा गृहस्थश्चारित्र मेरा प्रियव्ययदेशभाग् न भवति तथा पुलाकादीनामपि प्रकृष्टाप्रकृष्टमध्यचारित्रमेनोपपद्यते। ६न दोषः कृतः यथा जात्या चारित्राध्ययनादिभेदेन भिन्नेषु ब्राह्मणशब्दोऽवशिष्ट वर्तते तथा निर्धन्यशब्दोऽपि इति [७] विषयद्यपि निश्चयनयापेक्षया प्रवर्तते तथापि संग्रहव्यवहारनय- विवक्षावशात् सकलविशेषसंग्रहो भवति । किंच दृष्टिरूपसामान्यात् || भग्नवते वृचातिप्रसंग इति चेन्न रूपाभावाद ॥१०॥ अन्यस्मिन् पेऽतिप्रसंग इति चैव नः दृष्टमभावात् ॥ १११... किमर्थ: पुढाका दिव्यपदेशः ... वारिजगुणस्योत्तरोत्तरप्रकर्षे वृतिविम्यापनार्थः कायुपदेशः क्रियते ।१२ प्रश्न जैसे गृहस्थ चारित्रभेद होनेके कारण निर्ग्रन्थ नहीं कहा जाता, वैसे ही पुलाकादि को भी उत्कृष्ट मध्यम जघन्य आदि चारित्र भेद होनेपर भी निर्ग्रन्थ नहीं कहना चाहिये ! - उत्तर १- जैसे चारित्र व अध्ययन आदि का भेद होनेपर भी सभी ब्राह्मणोंमें जाति की दृष्टिसे ब्राह्मण शब्दका प्रयोग समानरूपसे होता है, उसी प्रकार पूजाक आदिमें भी निर्मन्थ शब्दका प्रयोग हो जाता है । २- यद्यपि निश्चय नय से गुणहीनों में निर्ग्रन्थ शब्द नहीं प्रवर्तता परन्तु संग्रह और उपहार नमकी अपेक्षा वहाँ भी उस शब्दका प्रयोग सर्वसंग्रहार्थ कर लिया जाता है। ३- सम्यग्दर्शन और नग्न रूप की अपेक्षा भी वे सब समान हैं । प्रश्न- यदि व्रतोंका भंग हो जानेपर भी आप इनमें निर्ग्रन्थ शब्द की वृति मानते हैं तब तो गृहस्थोंमें भी इसकी वृत्ति होनेका प्रसंग प्राप्त होता है ? उत्तर - नहीं होता, क्योंकि वे नग्नरूपधारी नहीं हैं। प्रश्न - तत्र जिस किसी भी नग्नरूपधारी मिथ्यादृष्टिमें उसकी वृद्धिका प्रसंग मात्र हो जायगा उत्तर-नहीं, क्योंकि मा० ४-५२ — ४०९ ५. पुलाक व पार्श्वस्थ आदि साधु उनमें सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता [ और सम्यग्दर्शन युक्त हो नग्न रूपको निर्ग्रन्थ संज्ञा प्राप्त है- ( दे, लिंग /२/१)] प्रश्नफिर उसमें पुलाक आदि भेदोंका व्यपदेश ही क्यों किया उत्तर- पारिगुणका क्रमिक विकास और कम दिलाने लिए इनकी चर्चा की है। ५. निर्ब्रन्थ होते हुए भी इनमें कृष्ण लेश्या क्योंस. सि/१/४७/४६२/ फुटनोट में अन्य पुस्तक से उपलब्ध पाठ - "कृष्ण. लेश्वास्त्रियं तयोः कथमिति चेदुपते तयोरुपकरणास विभवादार्तध्यानं कदाचित्संभवति वार्तध्यानेन च कृष्णादिश्यातिप संभवतीति । प्रश्न- मकुश और प्रतिसेवना कुशील ( यदि निर्ग्रन्थ हैं तो ) इन दोनोंके कृष्ण नील कापोत ये तीन लेश्याएँ कैसे हो सकती हैं उत्तर- उनमें उपकरणों के प्रति आसक्ति भावकी संभावना होनेसे कदाचित आध्यान सम्भव है और आर्त ध्यान में कृष्णादि तीनों लेश्याओं का होना सम्भव है (./१/४०/६१६/२९) त. वृ/६/४०/३१६/२३ मतान्तरम् परिग्रहसंस्काराकाङ्क्षायां स्वमेयोतरगुण विराधनायामार्त संभवादार्ताविनाभावि च लेश्याषट्कम् । पुलाकस्यार्त कारणाभावान्न पह लेश्याः । दूसरे मतकी अपेक्षा परिग्रह और शरीर संस्कारकी आकांक्षामें स्वयमेव उत्तर गुणों की विराधना होती है, जिससे कि आध्यान सम्भव है और उसके होनेपर उसकी अविनाभावी यहाँ देश्याएं भी सम्भव हैं। पुलाक साधु के आर्त के उन कारणों का अभाव होनेसे यह लेश्या नहीं है। ६. पार्श्वस्थादि मुनि भ्रष्टाचारी हैं भ. बा // ११०६-१३९२- दूरे सासस्य डियसो उपश्रेण पलादि । सेवदि कुसील पडिसेवणाओ जो सुत्तदिट्ठाओ | १३०६. इं दियकसायगुरुगतणेण चरणं तणं व पस्संतो । णिधसो भवित्ता यदि कुसीसेवाओ | १२०७] सो होदि साधु सस्था जिग्दो जो हु भये जाणंदी उत्तम तो | १३१० इय एदे पंचविधा जिणेहिं सबणा दुगु च्छिदा सुत्ते । इंदियकसाय गुरुयत्तणेण णिच्चपि पडिकुद्धा | १३१५१ = भ्रष्टमुनि दूरसे ही साघुसार्थका त्याग करके उन्मार्ग पलायन करता है तथा आगम में कहे हुए कुशील नामक मुनिके दोषोंका आचरण करते हैं ११०६ इन्द्रियों तथा कषायके तीन परिणामों में सरपर हुए चारित्रको समझते हुए निर्लज्ज होकर कुशीलका सेवन करते हैं । १३०७॥ जो मुनि साधुसार्थका त्यागकर स्वतंत्र हुआ है, जो स्वेच्छाचारी बनकर आगमविरुद्ध और पूर्वाचार्योंके द्वारा न कहे हुए आचारों की कल्पना करता है, उसे स्वच्छन्द नामका भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए । १३१०। इन पाँच तरह के भ्रष्ट मुनियोंकी जिनेश्वरोंने आगम में निन्दा की है। ये पाँचों इन्द्रिय व कषायके गुरुत्व से सिद्धान्तानुसार आचरण करनेवाले मुनियोंके प्रतिपक्षी सा./१४४ / २ एते च श्रमणाजिनधर्ममाझा जिनधर्ममाा है (भा. पा/टी./१४/११०/२३) ये प्रायश्चित्त / ४/२/- हम पाँचों मुनियोंको मृतच्छेद नामका प्रायश्चिन्त दिया जाता है । ] जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 1 ७. पाँचोंके भ्रष्टाचारकी प्ररूपणा भ.आ./मू./१६५२-१९५७ सुहसादा किंमज्झा गुणसायी पावसुत्तपडिसेवी । विसयासापविद्धा गारवगुरुया पमाइला | १६५२॥ समिदीस यगुती व अभाविदा सोसजन गुणे परती पसचा जणा हिश भावशुद्धी [१६५३१ गंधायिता महमोहा समससेवणासेवी । सहरसरूत्रगंधे फासेसु य मुच्छिदा घडिदा । १६५४ | पर लोग ये पाँचों पुनि Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु ४१० ६. आचार्य, उपाध्याय व साधु णिपिवासा इहलोगे चेव जे सुपडिबद्धा। सज्झायादीसु य जे अणुट्टिदा संकिलिङ्कमदी ।१९५५॥ सव्वेसु य मूलुत्सरगुणेसु तह ते सदा अइचरता। ण लहंति खवोषसमं चरित्तमोहस्स कम्मस्स ।१९५६। एवं मूढमदीया अवंतदोसा करें ति जे कालं । ते देवदुम्भगतं मायामोसेण पावति ।१६५७। -ये पाँचों मुनि सुखस्वभावी होते हैं। इसलिए 'मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं' यह विचारकर संघके सब कार्यसे उदासीन हो जाते हैं। सम्यग्दर्शनादि गुणों के प्रति निरुत्साही हो जाते हैं। नीति, वैद्यक, सामुद्रिक आदि पाप शास्त्रों का आदर करते हैं। इष्ट विषयोंकी आशासे बंधे हुए हैं। तीन गारवसे सदा युक्त और पन्द्रह प्रमादोंसे पूर्ण हैं ।१६५२। समिति गुप्तिको भावनाओं से दूर रहते हैं। संयमके भेदरूप जो उत्तरगुण व शील वगैरह इनसे भी दूर रहते हैं। दूसरों के कार्यों की चिन्तामें लगे रहते हैं । आत्मकल्याणके कार्योंसे कोसों दूर हैं, इसलिए इनमें रत्नत्रयकी शुद्धि नहीं रहती ।१६५३। परिग्रहमें सदा तृष्णा, अधिक मोह व अज्ञान, गृहस्थों सरीखे आरम्भ करना, शब्द रस गन्ध रूप और स्पर्श इन विषयों में आसक्ति ।१६५४। परलोकके विषयमें निस्पृह, ऐहिक कार्यों में सदा तत्पर, स्वाध्याय आदि कार्यों में मन न लगना, संक्लेश परिणाम ॥१६॥ मूल व उत्तर गुणोंमें सदा अतिचार युक्तता, चारित्रमोहका क्षयोपशम न होना 1१६५६। ये सब उन अबसन्नादि मुनियों के दोष हैं, जिन्हें नहीं हटाते हुए वे अपना सर्व आयुष्य व्यतीत कर देते हैं। जिससे कि इन मायावी मुनियों को देव दुर्गति अर्थात् नीच देवयोनिकी प्राप्ति होती है ।१६५७ ८. पावस्थादिकी संगतिका निषेध भ. आ./३३६, ३४१ पासत्थादीपणयं णिच्च वजह सबधा तुम्हे । हंदि हु गेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्मयदा ।३३६। संविग्गस्सपि संसग्गीए पीदी तदो य वीसंभो। सदि वीसंभे य रदी होइ रदीए वि तम्मयदा ।३४१६ - पावस्थादि पाँच भ्रष्ट मुनियों का तुम दूरसे त्याग करो, क्योंकि उनके संसर्गसे तुम भी वैसे ही हो जाओगे 1३३६। वह ऐसे कि संसारभययुक्त मुनि भी इनका सहवास करनेसे, पहले तो प्रीतियुक्त हो जाता है और तदनन्तर उनके विषयमें मनमें विश्वास होता है, अनन्तर उनमें चित्त विश्रान्ति पाता है अर्थ त आसक्त होता है और तदनन्तर पावस्थादिमय बन जाता है ।३४॥ मोक्षस्य सदृष्टिनिं चारित्रमात्मनः । रत्नत्रयं समं तेषामपि चान्तर्बहिःस्थितम् ।६४२। ध्याता ध्यानं च ध्येयं च ज्ञाता ज्ञानं च ज्ञेयसात् । चतुर्धाराधना चापि तुल्या क्रोधादिजिष्णुता १६४३। किंवात्र बहुनोक्तेन तद्विशेषोऽवशिष्यते । विशेषाच्छेषनिःशेषो न्यायादस्त्यविशेषभाक् ।६४४। -उन आचार्यादिक तीनौका एक ही प्रयोजन है, क्रिया भी एक है, बाह्य वेष, बारह प्रकारका तप और पंच महावत भी एक हैं ।६३१। तेरह प्रकारका चारित्र, समता, मूल तथा उत्तर गुण, संयम ६४०। परीषह और उपसर्गोंका सहन, आहारादिकी विधि, चर्या, शय्या, आसन ।६४१। मोक्षमार्ग रूप आत्मके सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र-इस प्रकार ये अन्तरंग और बहिरंग रत्नत्रय ।६४२। ध्याता ध्यान व ध्येय, ज्ञाता, झंयाधीन ज्ञान, चार प्रकार आराधना तथा क्रोध आदिका जीतना ये सब समान व एक हैं।६४३। अधिक कहाँ तक कहा जाय उन तीनोंकी सब ही विषयों में समानता है ।६४४। (और भी दे. आचार्य व उपाध्यायके लक्षण), दे, देव ।[१/४-५ [रत्नत्रयकी अपेक्षा तीनोंमें कुछ भो भेद न होनेसे तीनों ही देवत्वको प्राप्त है।) दे. ध्येय/३/४ [ रत्नत्रयसे सम्पन्न होनेके कारण तीनों ही ध्येय हैं। २. तीनों एक ही आत्माकी पर्यायें हैं मो. पा./५ /१०४ अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहू पंचपरमेट्ठी। ते विहु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हू मे सरणं। - अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच एक आत्मामें ही चेष्टारूप हैं, इसलिए मुझको एक आत्माका ही शरण है। ३. तीनोंमें कथंचित् भेद पं.ध./उ./६३८ आचार्यः स्यादुपाध्यायः साधुश्चेति त्रिधा गतिः । स्युविशिष्टपदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुञ्जराः ।६३८-आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकार उस गुरुकी तीन अवस्थाएँ होती है, क्योंकि ये तीनों मुनि कुंजर आचार्य आदि विशेष-विशेष पदमें आरूढ माने जाते हैं ।६३८॥ दे. उपाध्याय/ध, १/१,१,१/पृ. ५०/१ [ संग्रह अनुग्रहको छोड़कर शेष बातों में आचार्य व उपाध्याय समान हैं।] (विशेष दे. उस उसके लक्षण।) ४. श्रेणी आदि आरोहणके समय इन उपाधियोंका त्याग पं.ध./उ./७०६-७१३ किंचास्ति यौगिकी रूढिः प्रसिद्धा परमागमे । बिना साधुपदं न स्यारकेवलोत्पत्तिरब्जसा ७०६। तत्र चोक्तमिदं सम्यक् साक्षात्सर्वार्थसाक्षिणा। क्षणमस्ति स्वतः श्रेण्यामधिरूढस्य तत्पदम् ।७१०॥ यतोऽवश्यं स सूरिर्वा पाठकः श्रेण्यनेहसि । कृरस्नचिन्तानिरोधात्मलक्षणं ध्यानमाश्रयेत् १७११। ततः सिद्धमनायासात्तत्पदत्वं तयोरिह । नूनं वाह्योपयोगस्य नावकाशोऽस्ति यत्र तत ७१२। न पुनश्चरणं तत्र छेदोपस्थापना वरम् । प्रागादाय क्षणं पश्चात्सूरिः साधुनदं श्रयेत ७१३३ - परमागममें यह अन्वर्थ रूढि प्रसिद्ध है कि वास्तवमें साधु पदके ग्रहण किये बिना किसीको भी केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है 1७०६। तथा वहाँ प्रत्यक्ष ज्ञाता सर्वज्ञ देवने यह अच्छी तरह कहा है कि श्रेणी पर अधिरूढ आचार्य आदिको क्षण भरमें वह साधु पद स्वयं प्राप्त हो जाता है ।७१० क्योंकि, वह आचार्य और उपाध्याय श्रेणी चढ़नेके कालमें सम्पूर्ण चिन्ताओंके निरोधरूप ध्यान को अवश्य ही धारण करते हैं 1७११॥ इसलिए सिद्ध होता है कि श्रेणी कालमें उनको अनायास ही वह साधुपद प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वहाँपर निश्चयसे बाह्य उपयोगके ६. आचार्य, उपाध्याय व साधु १. चारित्रादिकी अपेक्षा तीनों एक हैं प्र. सा./त. प्र./२ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारयुक्तरवात्संभावितपरमशुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्यायसाधुत्व विशिष्टात् श्रमणाश्च प्रणमामि । -ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारयुक्त होनेसे जिन्होंने शुद्धोपयोग भूमिकाको प्राप्त किया है, ऐसे श्रमणोंको-जो कि आचार्यत्र उपाध्यायत्व और साधुत्वरूप विशेषोंसे विशिष्ट हैं, उन्हें-नमस्कार करता हूँ। प्र. सा./ता. व./२/४/२० श्रमणशब्दवाच्यानाचार्योपाध्यायसाधुश्च । - आचार्य, उपाध्याय व साधु ये तीनों श्रमण शब्दके वाच्य हैं। (और भी दे. मन्त्र/२/५)। पं.ध./उ/६३६-६४४ एको हेतुः क्रियाप्येका वेषश्चैको बहिः समः। तपो द्वादशधा चैक व्रतं चैकं च पञ्चधा ।६३६॥ त्रयोदविधं चैकं चारित्र समतैकधा । मूलोत्तरगुगैश्चैके संयमोऽप्येकधा मतः ६४० परोषहोपसर्गाणां सहन च समं स्मृतम् । आहारादिविधिश्चै कश्च स्थानासनादयः ६४१॥ मार्गो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु ४११ लिए विशकुल अवकाश नहीं मिलता ।७१२। किन्तु ऐसा नहीं है कि आचार्य श्रेणी के आरोहण काल पहिले छेदोपस्थापनारूप चारित्रको ग्रहण करके पीछे साधुपदको ग्रहण करते हो ।७१३८ दे, सल्लेखना / ४/६ संस्तर धारण से पूर्व आचार्य संपकी व्यवस्थाका कार्य भार बालाचार्यको सौंपकर स्वयं उस पदसे निवृत्त हो जाते हैं ।] साधु प्रासुक परित्यक्तता - ६. ध्यान /३ साधु संघ साधु समाधि - देसमाथि दे. संघ व इतिहास / ५ - साध्य - दे, पक्ष । -- साध्य विकल्प/ साध्य विरुद्ध दे विरुद्ध । साध्य समन्या. सू./मू./२/८ साध्याविशिष्टः साध्यत्वात्साध्यसमः = साध्य होनेके कारण साध्यसे जो अभिन्न है ऐसे हेतुको साध्यसमत्वाभास कहते हैं जैसे पर्वत महिमा है, क्योंकि यह महिमा है ] ( श्लो. वा. ४/१/३३ / न्या./२७२/४२८/२५) साध्यसमा न्या. सू. /भाष्य /५/१/४/२८८ / २३ - [ मूलसूत्र दे. वर्ण्यसमा] क्रियागुणयुकं किचिहगुरु यथा लोष्ठः किचिन्तषु यथा वायुरेवं क्रियाहेतुगुणयुक्त किंचित्क्रियावत्स्याद् यथा लोष्टः किंचिदक्रियं यथात्मा विशेषो वा वाच्य इति । हेत्याद्यवयव सामर्थ्ययोगी धर्मः साध्यस्तं दृष्टान्ते प्रसज्ञ्जतः साध्यसमः । यदि यथा लोष्टस्तथारमा प्राप्तस्तर्हि यथात्मा तथा लोष्ट इति । साध्यश्चायमात्मा क्रियावानिति कामं लोष्टोऽपि साध्यः । अथ नैवं तर्हि यथा लोष्ट : तथात्मा एतेषामुत्तर क्रिया हेतुगुणसे युक्त पदार्थ कुछ भारी भी होता है जैसे लोष्ट, कुछ हलका भी होता है जैसे वायु, कुछ क्रियावाला होता है, जैसे लोष्ट और कुछ क्रियारहित भी होता है। जैसे आत्मा । कुछ और विशेष हो तो कहिए। हेतु आदि अवयव की सामर्थ्यको जोड़नेवाला धर्म साध्य होता है। उसको दृष्टान्तमें प्रसंग करानेवालेको साध्यसम कहते हैं। उदाहरणार्थ जैसा लोट है वैसा ही आत्मा है, तब प्राप्त हुआ कि जैसा आत्मा है ऐसा ही नोट है। यदि आमाका किपाबादपना साध्य है तो निस्सन्देह लोहका भी कियाापना भी साध्य है यदि ऐसा नहीं है तो 'जैसा लोष्ट वैसा आत्मा' ऐसा नहीं कहा जा सकता । ( श्लो. वा. ४/ १/३६/या ३३०/४०३/१०) | ! । साध्य साधक सम्बन्ध सम्बन्ध साध्य साधन भाव -- ( दे. निश्चय व्यवहार नय या धर्म या चारित्र आदि) । सदानन्द वेदान्तसार नामक प्रत्यके रचयिता समय ई. श. १७ (दे. वेदान्त / १/२ ।) सान. १३/२२.३० / २४२/३ स्वति चिनति हन्ति विनाशयति अध्यवसायमित्यवग्रहः सामए जो अनध्यवसायको छेदता है, नष्ट करता है, वह अवग्रहका तीसरा नाम सान है। । सान्निपातिक भाव दे सापेक्ष/२.२ सापेक्ष मात्रा - Relative mass - ( जं. प / प्र.१०६) । सामानिक--- ति प./३/६५ सामाणिया कलत्तसमा । ६५। कलत्रके समान होते हैं। (त्रि सा/२२४) । सामानिक देव इन्द्रके सामान्य स.सि./३/११/२१८/६ समाने स्थाने भवाः सामानिकाः । स.सि./४/४/२३१/२ आश्वर्यव जिस यरस्थानादुपरिवारभोग. प भोगादि तत्समानं, तत्समाने भवाः सामानिकाः महत्तराः पितृगुरूपाध्यायतुल्याः । = १. समान स्थान या पदमें जो होते हैं सो सामायिक कहलाते हैं। (रावा./३/११/३/१८३/३१) २. बा और ऐश्वर्य अतिरिक्त जो आयु बौर्य, परिवार, भोग और उपभोग हैं वे समान कहलाते हैं। उस समानमें जो होते हैं वे सामानिक कहलाते हैं । ये पिता, गुरु और उपाध्यायके समान सबसे बड़े हैं । (रा.मा./४/४/२/२१२/१७) । - म.पू. / २२/२४ पितृमातृगुरूप्रख्याः संभतास्ते रेशिमा भन्ते सममिन्द्रश्व सरकार मान्यतोचितम्। २४ मे सामानिक जातिके देव इन्द्रोंके पिता माता और गुरुके तुल्य होते हैं तथा ये अपनी मान्यता के अनुसार इन्द्रोंके समान ही सत्कार प्राप्त करते हैं | २४| प.प./११/३०६ सामानिया वि देवा अग्रसरिसा लोगवाला - सामानिक देव भी वैभव आदिमें लोकपालोंके सदृश होते हैं । अन्य सम्बन्धित विषय १. सामानिक देवोंकी देवियाँ - ( दे. स्वर्ग / ३ / ७) २. इन्द्रोंके परिवार में सामानिक देवोंका प्रमाण दें, भवन, व्यन्तर ज्योतिषी और स्वर्ग। - सामान्य - १. 'सामान्य सामान्यके लक्षण दे, द्रव्य /१/७ [ द्रव्य, सामान्य, उत्सर्ग, अनुवृत्ति, सत्ता, सत्त्व, सत, अन्य वस्तु अर्थ विधि अविशेष ये सब एकार्थवाचक शब्द है।] दे. नय./1/५/४-[ द्रव्यका सामान्यांश हारके डोरे सर्व पर्यायोंमें अनुस्यूत एक भाव है । ] दे. निक्षेप /२/७ [ द्रव्यकी प्रारम्भसे लेकर अन्त तककी सब पर्यायें मिलकर एक द्रव्य बनता है। वही सामान्य द्रव्यार्थिक नयका विषय है ] ( और भी दे. नय / IV/१/२)। । दे दर्शन / ४ / २-४ [ यह काला है या नीला इस प्रकार भेद किये बिना सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों का सामान्य रूपसे ग्रहण करनेके कारण आत्मा ही सामान्य है और मही दर्शनोपयोगका विषय है । ] ग्या./वि././१/१२९/४५० समानभावः सामान्यं समान अर्थात् एकता का भाव सामान्य है । न्या. वि./वृ./१/४/१२१/१० अनुवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात्सामान्यम् ।-अनुवृत्ति अर्थात् एकताकी बुद्धिका कारण होनेसे सामान्य है। (प.मु./२/२) न.च.वृ./६३ सामण्णसहावदो सव्वे । = सब द्रव्यों में होना सामान्यका स्वभाव है। सम./२/१०/१२ स्वभाव एवं ह्ययं सर्वभावानां यदनुवृत्ति...तथाहि । घट एव तावत् पृथुबनोद कारवान् प्रतीतिविषयीभवन् सन्नन्यानपि तदाकृतिभृतः पदार्था पटरूपतया घरे शब्दबाध्यताच प्रत्याय सामान्यास्य सभते स्वयं ही सर्व भावों को अनुवृतिरूपसे ज्ञान करानेवाला ऐसा रूम प्रव्योंका स्वभाव ही है। उदाहरणार्थमोटा गोल उदर आदि आकारवाला घड़ा स्वयं ही उसी आकृतिके अन्य पदार्थों को भी घटरूपसे और घटशब्दरूपसे जानता हुआ 'सामान्य' कहा जाता है । द्र.सं./टी./६/१८/२ सामान्यमिति कोऽर्थः संसारिजीवयुक्तजीव विवक्षा नास्ति अपना शुद्धाशुदर्शनमिक्षा नारित रादपि कथमिति विवक्षायाः अभावः सामान्यलक्षणमिति वचनाव | यहाँ 'सामान्य जीव' इस कथनका यह तात्पर्य है कि इस ( जीवके ) लक्षण में संसारी तथा मुक्त जीवकी विवक्षा नहीं है अथवा वृद्ध अशुद्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य । ज्ञान दर्शनको भी विवक्षा नहीं है सामान्यका लक्षण है' ऐसा कहा है न्या. दी./३/१०६/११०/२ तत्र सामान्यमनुवृत्तिस्वरूप पृथुलोदराकारः गोरममिति साम्रादिमत्यमेव गी' इस प्रकारके अनुगत व्यवहारके विषयधूरा सहया 'घटत्व' 'गोरख' आदि अनुगत स्वरूपको सामान्य कहते हैं। वह 'घटत्व' स्थूल कम्बुग्रीवादि स्वरूप तथा 'गोरख' साना आदि स्वरूप ही है । राद्धि पट घट घट' 'गी परिणामात्मक ४१२ कि 'विवझाका अभाव ही ( स.सा./ता.वृ./११०/२०४७) । י' पं. /उ./२ बहुव्यापकमेवे तत्सामान्यं सहइत्यतः २-सहता जो बहुत देशमें व्यापक रहता है उसीको सामान्य कहते हैं । ६. ६० / १-२ / ३,४ सामान्यं विशेष इति बुद्धयपेक्षम् ॥ ३॥ भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुरबाद सामान्यमेव ॥४। सामान्य और विशेष बुद्धिकी अपेक्षासे लिये जाते हैं | ३| जैसे अनुवृत्ति अर्थात् बार बार लौटकर प्रत्येक बस्तुके मिलने से यह विदित होता है कि भाव अर्थात सत्ता है। - २. सामान्यके भेद व उनके लक्षण . . /४/३५ सामान्यं द्वधा तिर्यगूर्ध्वताभेशय । सहप्राणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गौरववत |४| परापरव्यायिता - मृदिव स्थासादिषु || सामान्य दो प्रकारका है-एक तिर्यक् सामान्य, दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य |३| तहाँ सामान्य परिणामको तिर्यक सामान्य कहते हैं, जैसे गोरव सामान्य, क्योंकि खाण्डी मुण्डी आदि जीवोंनें गोरख सामान्यरूपये रहता है तथा पूर्वोत्तर पर्यायों में रहनेवाले द्रव्यको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे में मिट्टी क्योंकि, स्थास, कोश, कुशूल आदि जितनी भी एक घड़ेकी पूर्वोत्तर पर्यायें है उन सबमें मिट्टी अनुगत रूपसे रहती है 1 विशेष दे क्रम/६) स्पा // ६६ / ९४ तदनुप्रयहेतुः सामान्य तच्च द्विविधं परमपरं च तत्र पर सत्ता मानो महासामान्यमिति चोच्यते । उपवाद्यवान्तरसामान्यापेक्षया महाविषयत्वात् अपर सामान्य प द्रव्यत्वादि । एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते । अनुवृत्ति प्रत्ययका कारण सामान्य है । वह दो प्रकारका है— पर सामान्य और अपर सामान्य । पर सामान्यको सत्ता, भाव, और महासामान्य भी कहते हैं क्योंकि, यह द्रव्यत्व आदि अपर सामान्य की अपेक्षा महान् विषय वाला है । द्रव्यत्व केवल द्रव्यमें ही रहता है और परसामान्य द्रव्य गुण व कर्म तीनों में रहता है । द्रव्यत्वादि अपर सामान्य हैं। इसे सामान्य विशेष भी कहते हैं । ( और भी दे. 'अस्तिम' नम /11/४/२/१) ३. सर्वथा स्वतन्त्र सामान्य या विशेष कुछ नहीं सि. वि. / / २ / १२ / १४३ न पश्यामः क्वचित् किंचित् सामान्यं वा स्वलक्षणम् जायन्तरं तु पश्यामः ततो नेकान्स हेतयः । कोई किंचित भी विशेष मात्र या सामान्य मात्र देखने में नहीं आता । हाँ सामान्य विशेषात्मक एक जात्यन्तर भाव अवश्य देखा जाता है इसलिए 'सामान्य' अनेकान्त हेतुक है अर्थात् अनेकान्तके द्वारा ही सिद्ध हो सकता है। सि./वृ/१/०/१५९/७ पर उड़त ( प्रमाण बार्तिक / २ / १२६) एकत्र दृष्टभेदो हि क्वचिन्नान्यत्र दृश्यते । न तस्माद्भिन्नमस्त्यन्यत्सामान्यं बुद्धयभेदतः । - किसी एक स्थान पर देखा गया भेद किसी भी प्रकार अन्यत्र नहीं देखा जाता इस लिए बुद्धिके अभेदसे वह सामान्य कथं चित् भिन्न व अन्य नहीं है । आ.नं. निर्विशे हि सामान्यं भवेश्वर विषाणयत सामान्यह रविशेषस्तदेव हि विदोषोंसे रहित सामान्य और इसी प्रकार सामान्यसे रहित विशेष । कुछ गधेके सींग के समान असत होते हैं। सामान्य ४. वस्तु स्वयं सामान्य विशेषात्मक है श्लो. रखो २/४/२/१३/६०/२४३ / ९६ सर्वस्य वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकवाद-सर्व ही वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक है। दे प्रमाण / २ / ५. [सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाणका विशेष है।] क. पा/१/१-२०/१३२४/३५६/२ ततः स्वयमेवैकत्वापत्तिरिति स्थितम् । सामान्य विशेषोभयानुभयकान्यतिरित्या जात्यन्तरं वस्त्विति स्थितम् - इसका (दे. अगशीर्ष) यह अभिप्राय है कि वस्तु न सामान्य रूप है, न विशेषरूप है, न सर्वथा उभयरूप है और न अनुभयरूप है किन्तु जात्यन्तररूप ही वस्तु है, ऐसा सिद्ध होता ई (क. पा/१/१-२/३३३/४१/२) ७. सामान्य व विशेषकी स्वतन्त्र सत्ता न माननेमें हेतु क. पा /१/१-२०/१३२२ / ३५३/३ ण ताव सामण्णमत्थि; विसेसवदिरि ताणं सम्भावसारियल पर सामणाणम एव भादो समागच याणमुत्पत्ती अग्गहावयचीदो अस्थि सामग्यमिदि बो गुरु अगासमाणाविवेगसमागमेग जच्चतरी भूपचयाणं मुपन्ति सणादण सामगवदिरितो विसेस व अस्थि: सामागुविद्धमेव मिसेसस्वतं भादो श प एसो सामण्ण-विसेसाणं संजोगो..." क. पा /९/१-२०/१३२३/३५४/१ म सामण्ण-विसेसा संबंध वधु१- केवल सामान्य तो है नहीं, क्योंकि अपने विशेषको छोड़कर केवल तद्भाव सामान्य और सादृश्यलक्षण सामान्य नहीं पाये जाते हैं । २- यदि कहा जाय कि सामान्यके सर्वत्र समान प्रत्यय और एक प्रत्यय की उपपत्ति बन नहीं सकती है इसलिए सामान्य नामका स्वतन्त्र पदार्थ है, सो कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि अनेक का ग्रहण असमानानुविद्ध होता है और एक का ग्रहण समानानुविद्ध होता है । ३ - अतः सामान्य विशेषात्मक वस्तुको विषय करनेवाले जात्यन्तरभूत ज्ञानों की ही उत्पत्ति देखी जाती है। ४ तथा सामान्य से सर्वथा भिन्न विशेष नामका भी कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि सामान्यसे अनुविद्ध होकर ही विशेषकी उपलब्धि होती है । ५यदि कहा जाय कि स्वतन्त्र रहते हुए भी उनके संयोगका ही परिज्ञान एक ज्ञानके द्वारा होता है. सो भी कहना ठीक नहीं( विशेष दे. द्रव्य / ५ / ३ ) । ६ - सामान्य और विशेषके सम्बन्धको अर्थात् समवाय सम्बन्धको स्वतन्त्र वस्तु कहना भी ठीक नहीं(दे. समवाय ) । ६. सामान्य व विशेषमें कथंचिद् भेद ध. १३/५/५/३५ / २३४/६ विसेसा दो सामण्णस्स कथंचिद पृधभूदस्स भादो । तं जहा - सामण्णमेय संखं विसेसो अणेयसंखो । वदियो बिसेस अण्णयस्वर्ण सामणं, आहारो विसेस आहेयो सामण्णं णिचचं सामण्णं अणिच्चो विसेसो । तम्हा सामाण-विसे रथ यत्तमिदि । = विशेषसे सामान्य में कथंचित् भेद पाया जाता है । यथा - सामान्य एक संख्या वाला होता है और विशेष अनेक संख्या वाला होता है. विशेष व्यतिरेक लक्षण वाला होता है और सामान्य अन्वय लक्षणवाला होता है, विशेष आधार होता है और सामान्य आधेय होता है, सामान्य नित्य होता है और विशेष अनित्य होता है । इसलिए सामान्य और विशेष एक नहीं हो सकते । पं. ध.पू./२०५ सामान्यं विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च ।... २७५ | - विधिरूप वर्तना सामान्य काल कहलाता है और निषेध स्वरूप विशेष काल कहलाता है। (वे. सप्तभंगी/३/१-स. म. ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य गुण सामायिक सामायिक सामान्य निर्देश समता व साम्यताका लक्षण । वास्तवमें कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं।-दे. राग/२/४ समताका महत्त्व। -दे. सामायिक/३/७॥ सामायिक सामान्यका व्युत्पत्ति अर्थ । सामायिक सामान्यके लक्षण । १. समता, २. रागद्वेष निवृत्ति, ३. आत्मस्थिरता, ४. सावद्ययोग निवृत्ति, ५. संयम तप आदिका एकत्व ६.नित्य-नै मित्तिक कर्म व शास्त्र । द्रव्यश्रुतका प्रथम अंग बाह्य सामायिक है। दे. श्रुतज्ञान/III/१। प्रतिक्रमण व सामायिकमें अन्तर । -दे. प्रतिक्रमण/३/१। ४ | द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामायिकोंके लक्षण । नियत व अनियतकाल सामायिक । -दे, सामायिक/४/२।। ७. सामान्य विशेषके भेदाभेदका समन्वय आप्त. मी./३४-३६ सामान्यात्तु सर्वैक्यं पृथग्द्रव्यादिभेदतः । भेदाभेदव्यवस्थायामसाधारणहेतुबत् ॥३४॥ विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येsनन्तधर्मिणी। यतो विशेषणस्यात्र नासतस्तैस्तदर्थिभिः ॥३५॥ प्रमाणगोचरी सन्तौ भेदाभेदौ न संवृती। तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया ।३६। - सामान्यरूपसे देखने पर सब द्रव्य गुण कर्म आदि कोंमें एकत्व है और उनका भेद देखनेपर उनमें भेद है। तहाँ अभेद विवक्षामें सामान्य और भेद विवक्षामें 'विशेष' ये असाधारण हेतु हैं ।३४। अनन्त धर्मोंका आधारभूत जो विशेष्य उसमें सवरूप विशेषणकी ही विवक्षा होती है, असवरूपकी नहीं। और यह विवक्षा वक्ताकी इच्छापर निर्भर है ।३। इसलिए वस्तुमें भेद व अभेद दोनों ही प्रमाण गोचर होनेसे प्रमार्थभूत हैं । मुख्य व गौणकी विवक्षासे ये दोनों स्याद्वाद मतमें अविरुद्ध हैं ।३६। पं.ध./पू./२७५ उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति ।२७५॥ - इन दोनों में से किसी एककी मुख्य विवक्षा होनेसे कालकृत अस्ति व नास्ति ये दो विकल्प पैदा होते हैं । सामान्य गुण-दे. गुण/१ । सामान्य ग्राहक दर्शन दे. दर्शन/१ । सामान्य छल-दे. छल। सामान्यतोदृष्ट-दे. अनुमान/५/६ । सामान्य नय:-दे. नय/I/५/४ । सामान्याधिकरणभिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दानामेकस्मिन्नर्थे वृत्तिः सामान्याधिकरण्यम् । यथा 'तव त्वमसि'। = भिन्न-भिन्न अर्थों की प्रवृत्तिमें निमित्तभूत जो शब्द उनकी एक ही अर्थ में वृत्ति होना सामान्याधिकरण्य है । जैसे 'तत्त्वमसि' इस पदमें 'तत' का अर्थ अशरीरी ब्रह्म और त्वम्' का अर्थ शरीरी ब्रह्म अर्थात् जीवात्मा। ये दोनों एक हैं, ऐसे इस पदका अर्थ है । २. लक्ष्य लक्षण में सामानाधिकरण्य। -दे, लक्षण । सामान्यावलोकन-दे. दर्शन/१,२। २ सामायिक विधि निर्देश * NA १ सामायिक विधिके सात अधिकार । सामायिक योग्य काल। | सामायिक विधि। सामायिक में आसन मुद्रा क्षेत्र आदि । | सामायिक मन, वचन, काय शुद्धि। -दे. शुद्धि।। सामायिक योग्य ध्येय। उपसर्ग आदिमें अचल रहना चाहिए। सामायिककी सिद्धिका उपाय अभ्यास है। -दे. अभ्यास । * ३ सामायिक व्रत व प्रतिमा निर्देश सामायिक व्रतके लक्षण। १. समता व आर्त रौद्र परिणामोंका त्याग । २. सावद्ययोग निवृत्ति। सामायिक-सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, इष्ट-अनिष्ट आदि विषमताओं में राग-द्वेष न करना बल्कि साक्षी भाव से उनका ज्ञाता द्रष्टा बने हुए समतास्वभावी आत्मामें स्थित रहना, अथवा सर्व सावद्य योगसे निवृत्ति सो सामायिक है । आवश्यक, चारित्र, व्रत व प्रतिमा चारों एक ही प्रकारके लक्षण हैं । अन्तर केवल इतना है कि श्रावक उस सामायिकको नियतकालका नियतकाल पर्यन्त धारकर अभ्यास करता है और साधु का जीवन ही समतामय बन जाता है। श्रावक की उस सामायिकको व्रत या प्रतिमा कहते हैं और साधु की उस सार्वकालिक समताको सामायिक चारित्र कहते हैं। rm".१v * सामायिक प्रतिमाका लक्षण । सामायिक व्रत व प्रतिमामें अन्तर । सामायिकके समय गृहस्थ भी साधु तुल्य है। साधु तुल्य होते हुए भी वह संयत नहीं है। सामायिक व्रतका प्रयोजन । सामायिक व्रतका महत्त्व। सामायिक व्रतके अतिचार। स्मृत्यनुपस्थान व मनःदुष्प्रणिधानमें अन्तर । -दे.स्मृत्यनुपस्थान । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक १. सामायिक सामान्य निर्देश सामायिकचारित्र निर्देश सामायिक चारित्रका लक्षण । नियत व अनियत काल सामायिक निर्देश । सामायिक चारित्रमें संयमके सम्पूर्ण अंग। सामायिककी अपेक्षा एक है पर छेदोपस्थापनाको अपेक्षा अनेक रूप है। -दे. छेदोपस्थापना/२ । प्रथम व अन्तिम तीर्थमें ही इसकी प्रधानता थी। -दे छेदोपस्थापना/२। इसीलिए मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं। सामायिकचारित्रका स्वामित्व । -दे. छेदोपस्थापना/५-७॥ सामायिक चारित्रमें सम्भव भाव। -दे. संयत/२ । सामायिक चारित्र व गुप्तिमें अन्तर । सामायिक चारित्र व समितिमें अन्तर । सभी मार्गणाओंमें आयके अनुसार व्यय । -दे. मार्गणा। सामायिक चारित्रके स्वामियोंकी गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि २० प्ररूपणाएँ । -दे. सत् । सामायिक चारित्र सम्बन्धी सत्. संख्या क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ । -दे. वह वह नाम । * | सामायिक चारित्रमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्व । -दे. वह वह नाम । सामायिक चारित्रमें क्षायोपशमिक भाव कैसे। -दे. संयत/२। पर्यायोंसे भिन्नस्वरूप निश्चय करता है उसी काल साम्यभाव उत्पन्न होता है ।१७१ कोधी, निर्दय, क्रूरकर्मो, मद्य, मांस, मधु व परस्त्रियोंमें लुब्ध, अत्यन्त पापी, देव गुरु शास्त्रादिकी निन्दा करनेवाले ऐसे नास्तिकों में तथा अपनी प्रशंसा करनेवालों में माध्यस्थ्य भावका होना उपेक्षा कही गयी है ।१३-१४॥ प्र. सा./ता. वृ./४२/३३५/१० अथ यदेव संयततपोधनस्य साम्यलक्षणं भणित तदेव श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो भण्यते। -[शत्रु-मित्र व बन्धु वर्गमें, सुख-दुःख में, प्रशंसा-निन्दामें, लोष्ट व सुवर्ण में, जीवन और मरणमें जिसे समान भाव है वह श्रमण है ।२४१। ( दे. साधु। ३/१) ऐसा जो संयत तपोधनका 'साम्य' लक्षण किया गया है वही श्रामण्यका अपर नाम, 'मोक्षमार्ग' कहा जाता है। मो. पा./टी./५०/३४२/१२ आत्मसु सर्वजीवेषु समभावः समतापरिणामः, यादृशो मोक्षस्थाने सिद्धो वर्तते तादृश एव ममात्मा गुबबुद्ध कस्वभावः सिद्धपरमेश्वरसमानः, यादृशोऽहं केवलज्ञानस्वभावस्तादृश एव सर्वोऽपि जीवराशिरत्र भेदो न कर्त्तव्यः1-अपने आत्मामें तथा सर्व जीवों में समभाव अर्थात समता परिणाम ऐसा होता है'मोक्षस्थानमें जेसे सिद्ध भगवान हैं वैसे ही मेरा आत्मा भी सिद्ध परमेश्वर के समान शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी है। और जैसा केवलज्ञानस्वभावी मैं हूँ वैसी ही सर्व जीव राशि है। यहाँ भेद नहीं करना चाहिए। दे. धर्म/१/१/१ [ मोह क्षोभ हीन परिणामको साम्य कहते हैं। दे. मोक्षमार्ग/२/५ [परमसाम्य मोक्षमार्गका अपर नाम है।] दे. उपेक्षा-[माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निःस्पृहता, वैतृष्ण्य, परम शान्ति, ये सब एकार्थवाची नाम है।) दे. उपयोग/II/२/१ [ साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध, शुद्धोपयोग, ये सब एकार्थवाची शब्द है। किसी प्रकारकी भी आकृति अक्षर वर्णका विकल्प न करके जहाँ केवल एक शुद्ध चैतन्य मात्रमें स्थिति होती है, वह साम्य है।] १. सामायिक सामान्य निर्देश १. समता व साम्यका लक्षण ज्ञा./२४/श्लो. नं.चिदचिल्लक्षणैर्भावरिष्टानिष्टतया स्थितैः। न मुह्यति मनो यस्य तस्य साम्ये स्थिति वेद ।२। आशाः सद्यो विपद्यन्ते यान्त्यविद्याः क्षयं क्षणात। म्रियते चित्तभोगीन्द्रो यस्य सा साम्यभावना ।१० अंशेषपरपर्यायैरन्यद्रव्यै विलक्षणम्। निश्चिनोति यदात्मानं तदा साम्ये स्थितिवेत ।१७॥ ज्ञा./२७/१३-१४ क्रोधविद्वेषु सत्त्वेषु निस्त्रिशकूरकर्मसु । मधुमांससुराम्यस्त्रीलुब्धेष्वत्यन्तपापिषु ।१३। देवागमयतिनातनिन्दकेष्वारमशंसिषु । नास्तिकेषु च माध्यस्थ्यं यत्सोपेक्षा प्रकीर्तिता।१४ -- जिस पुरुषका मन चिव (पुत्र-मित्र-कलत्रादि ) और अचित (धनधान्यादि) इष्ट-अनिष्ट पदार्थोके द्वारा मोहको प्राप्त नहीं होता उस पुरुषके ही साम्यभाव में स्थिति होती है ।२। जिस पुरुषके समभाव की भावना है, उसके आशाएँ तो तत्काल नाश हो जाती हैं, अविद्या क्षणभरमें क्षय हो जाती है, उसी प्रकार चित्तरूपी सर्प भी मर जाता है।११। जिस समय यह आत्मा अपनेको समस्त परद्रव्यों व उनकी २. सामायिक सामान्यका व्युत्पत्ति अर्थ स. सि /७/२१/३६०/७ समेकीभावे वर्तते । तद्यथा संगतं घृतं संगत तैल मित्युच्यते एकीभूत मिति गम्यते । एकत्वेन अयन गमन समयः, समय एव सामायिकम् । समयः प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य सामायिकम् । -१. 'सम' उपसर्गका अर्थ एक रूप है । जैसे घी संगत है, तेल संगत है', जब यह कहा जाता है तब संगतका अर्थ एकीभूत होता है । सामायिकमें मूल शब्द 'समय' है जिसका अर्थ है एक साथ जानना व गमन करना अर्थात आत्मा ( दे. समय)-वह समय ही सामायिक है। २. अथवा समय अर्थात एकरूप हो जाना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है। (रा. वा./७/२१/७/५४८/३); (गो. क./जी. प्र./५४७/७१३/१८) रा. वा./8/१८/१/६१६/२५ आयन्तीत्यायाः अनर्थाः सत्त्वव्यपरोपणहेतवः, संगताः आयाः समायाः, सम्यग्बा आयाः समायास्तेषु ते वा प्रयोजनमस्येति सामायिकमवस्थानम्। -आय अर्थात अनर्थ अर्थात् प्राणियों की हिंसाके हेतुभूत परिणाम। उस आय या अनर्थका सम्यक् प्रकारसे नष्ट हो जाना सी समाय है। अथवा सम्यक् आय अर्थात आत्माके साथ एकीभूत होना सो समाय है। उस समायमें हो या वह समाय ही है प्रयोजन जिसका सो सामायिक है। तात्पर्य यह कि हिंसादि अनोंसे सतर्क रहना सामायिक है। चा. सा./१६/१ सम्यगेकत्वेनायनं गमनं समयः स्वविषयेभ्यो विनिवृत्त्य कायवाङ्मनःकर्मणामात्मना सह बर्तनाद्रव्यार्थेनात्मनः एकरवगमनमित्यर्थः। समय एव सामायिक, समयः प्रयोजनमस्येति वा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक १. सामायिक सामान्य निर्देश सामायिकम् । - अच्छी तरह प्राप्त होना अर्थात एकान्त रूपसे आत्मामें तल्लीन हो जाना समय है। मन, वचन, कायकी क्रियाओंका अपने-अपने विषयसे हटकर आत्माके साथ तल्लीन होनेसे द्रव्य तथा अर्थ दोनोंसे आत्माके साथ एकरूप हो जाना ही समयका अभिप्राय है। समयको ही सामायिक कहते हैं। अथवा समय ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है। गो.जी./जी, प्र./३६७/७८६/१० समम् एकत्वेन आत्मनि आयः आगमनं परद्रव्येभ्यो निवृत्त्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्तिः समायः, अयमह ज्ञाता द्रष्टा चेति आत्मविषयोपयोग इत्यर्थः, आत्मनः एकस्यैव शेयज्ञायकत्वसभवात् । अथवा सं समे रागद्वेषाभ्यामनुपहते मध्यस्थे आत्मनि आय: उपयोगस्य प्रवृत्तिः समायः स प्रयोजनमस्येति सामायिक। -१. 'सं' अर्थात् एकत्वपनेसे 'आय' अर्थात आगमन । अर्थात् परद्रव्योंसे निवृत्त होकर उपयोगकी आत्मामें प्रवृत्ति होना। 'यह मैं ज्ञाता द्रष्टा हूँ' ऐसा आत्मामें जो उपयोग सो सामायिक है। एक ही आत्मा स्वयं ही ज्ञेय है और स्वयं ही ज्ञाता है, इसलिए अपनेको ज्ञाता द्रष्टारूप अनुभव कर सकता है। २. अथवा 'सम' का अर्थ राग-द्वेष रहित मध्यस्थ आत्मा है। उसमें आय अर्थात उपयोगकी प्रवृत्ति सो समाय है। वह समाय ही जिसका प्रयोजन है, उसे सामायिक कहते हैं । (अन. घ/८/११/७४२) ३. सामायिक सामान्यके लक्षण १. समता मू. आ./५२११५२२,५२६ जं च समो अप्पाणं परं यमाय सबमहिलासु । अम्पियपियमाणादिसु तो समणो सो य सामाइयं १५२१॥ जो जाणइ समवायं दवाण गुणाण पज्जयाण च। सम्भावं ते सिद्धं सामाइयं उत्तम जाणे ।।२२। जो समो सबभ्रदेसु तसेसु थावरेसु य । जस्स रागो य दोसो य वियडिं ण जाणं ति दु ।५२६। =स्व व परमें राग व द्वेष रहित होना, सब स्त्रियों को माताके समान देखना, शत्रु-मित्र, मान-अपमान आदिमें सम भाव रखना, ये सब श्रमणके लक्षण हैं। उसे ही सामायिक भी जानना ।।२१। जो द्रव्यों, गुणों और पर्यायोंके सादृश्यको तथा उनके एक जगह स्वतः सिद्ध रहनेको जानता है, वह उत्तम सामायिक है ।५२२। बस स्थावररूप सर्व प्राणियों में समान परिणाम होना [अर्थात सबको सिद्ध समान शुद्ध जानना दे. सामायिक/१/१] तथा राग-द्वेषादि भावोंके कारण आत्मामें विकार उत्पन्न न होना, वही परम सामायिक है ।५२६। घ. ८/३,४१/०४/१ सत्तु-मित्त-मणि-पाहाण-सुवण्ण-मट्टियासु राग-देसाभावो समदा णाम। - शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण और सुवर्ण-मृतिकामें राग-द्वेषके अभावको समता कहते हैं । (चा.सा./५६/१) अ. ग. श्रा./८/३१ जीवितमरणे योगे वियोगे विप्रिये प्रिये । शत्रौ मित्रे सुखे दुःखे साम्यं सामायिकं विदुः ।३॥ -जीवन व मरणमें, संयोग व वियोगमें, अप्रिय व प्रियमें, शत्रु व मित्रमें, सुख व दुःख में समभावको सामायिक कहते हैं ।३१॥ भा. पा./टी./७७/२२१/१३ सामायिक सर्वजीवेषु समत्वम् । -सर्व जीवों में समान भाव रखना सामायिक है । (विशेष दे. सामायिक/१/१)। २. राग-द्वेषका त्याग मू. आ./५२३ रागदोसो णिरोहित्ता समदा सम्बकम्मसु । मुत्तेसु अ परिणामो सामाइयमुत्तमं जाणे ।।२३। सब कार्यों में राग-द्वेषको छोड़कर समभाव होना और द्वादशांग सूत्रोंमें श्रद्धान होना उत्तम सामायिक है।२३। यो. सा./अ./५/४७ यत्सर्वद्रव्यसंदर्भे रागद्वेषव्यपोहनम् । आत्मतत्त्वनिविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते ।४७ -सर्वद्रव्योंमें रागद्वेषका अभाव तथा आत्मस्वरूपमें लीनता सामायिक कही जाती है। ( अन.ध./८/२६/७४८) . ३. आत्मस्थिरता नि. सा./५ /१४७ आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुण दि थिरभाव। तेण दु सामण्णगुणं संपुण्ण होदि जीवस्स १४७ -यदि तू आवश्यकको चाहता है, तो आत्म-स्वभावमें स्थिरभाव कर, जिससे कि जीवोंको सामायिक गुण सम्पूर्ण होता है ।१४७।। रा. वा./4/२४/११/५३०/१२ चित्तस्यैकत्वेन ज्ञानेन प्रणिधान बा । -एक ज्ञानके द्वारा चित्तको निश्चल रखना सामायिक है। (चा. सा./५/४)। ४. सावद्ययोग निवृत्ति नि. सा./म./१२५ विरदो सब्वसावज्जो तिगुत्तो पिहिदिदिओ। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।१२५॥ -जो सर्व सावष्य में विरत है, जो तीन गुप्तिवाला है, और जिसने इन्द्रियोंको मन्द किया है, उसे सामायिक स्थायी है ।१२५॥ (मू.आ./५२४)। । रा. वा./६/२४/११/५३०/११ तत्र सामायिक सर्वसाबद्ययोगनिवृत्तिलक्षणं । -सर्व सावद्य योग निवृत्ति ही सामायिकका लक्षण है। (चा. सा./१५/४)। ५. संयम तप आदिके साथ एकता मू. आ./५१६, १२५ सम्मत्तणाणसंजमतवेहि जंत पसत्यसमगमण । समयंतु तं तु भणिदं तमेव सामाझ्यं जाणे ।।१६। जस्स सणि हिदो अप्पा संजमे णियमे तवे। तस्स सामायिय ठादि इदि केवलिसासणे १५२५॥ - सम्यवस्व ज्ञान संयम तप इनके द्वारा जीवकी प्रशस्त प्राप्ति अथवा उनके साथ जीवकी एकता, वह समय है। उसीको सामायिक कहते हैं ।५१६५ (अन. प.14/२०/७४५) जिसका आत्मा संयम, नियम व तपमें लीन है, उसके सामायिक तिष्ठती है ।५२॥ ६. नित्य नैमित्तिक कर्म व शास्त्र क.पा/१/१,९/८/EEL तीस वि संझासु पक्रवमाससंधिदिणेमु का सगिच्छिदवेलासु वा मज्झंतरंगासेसत्येसु संपरायणिरोहो वा सामाइय णाम। -तीनों ही सन्ध्याओं में या पक्ष और मासके सन्धिदिनोंमें या अपने इच्छित समयमें बाह्य और अन्तरंग समस्त पदार्थो कषायका निरोध करना सामायिक है। गो. जी./जी. प्र./३६७/७८६/१२ नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं तत्प्रतिपादक शास्त्रं वा सामायिकमित्यर्थः। -नित्य-नैमित्तिक क्रिया विशेष तथा सामायिकका प्रतिपादक शास्त्र भी सामायिक कहलाता है। ४. द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामायिकोंके लक्षण क. पा. १/१-१/१/१७/४ सामाइयं चउबिह, दव्वसामाइयं खेत्तसामाइयं कालसामाइयं भावसामाइयं चेदि। तत्थ सचित्तचित्तरागदोसणिरोहो दबसामाइयं णामा णयर-खेट-कव्वड-मडंव-पट्टणदोणमुह-जणवदादिसु रागदोसणिरोहो सगावासविसयसंपरायणिरोहो वा खेत्तसामाइयं णाम। छउदुविसयसपरायणिरोहो कालसामाश्य । णिरुद्धासेसकसायस्स बंतमिच्छचस्स णयणिउणस्स छदव्व विसओ नोहो बाहविवजिमो माक्सामाइयं णाम ।-द्रव्यसामायिक, क्षेत्रसामायिक, कारसामायिक और भावसामायिकके भेदसे सामायिक चार प्रकारका है। उनमेसे सचित्त और अचित्त द्रव्योंमें राग और द्वेषका निरोष करना प्रव्यसामोयिक है। ग्राम, नगर, खेट, कर्वट. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक ४१६ २. सामायिक विधि निर्देश भाव मेरे भाव नहीं हैं; क्योकि मुझसे अन्य हैं। अतएव एक चिच्चमत्कार मात्र स्वरूपवाला मैं इनमें रागद्वेषादिको कैसे प्राप्त हो सकता हूँ।२६। जोवन-मरण में, लाभ-अलाभमें, संयोग-वियोगमें, मित्रशंत्र में, सुख-दुःख में इन सबमें मैं साम्यभाव धारण करता हूँ।२७॥ सम्पूर्ण प्राणियों में मेरा मैत्रीभाव हो, किसीसे भी मुझे वैर न हो। मैं सम्पूर्ण सावद्यसे निवृत्त हूँ। इस प्रकारके भावोंको धारण करके भावसामायिक पर आरूढ़ होना चाहिए ।३५॥ गो, जो./जी. प्र./३६७/७८६/१३ तच्च नामस्थापनाद्रप्रक्षेत्रकालभावभेदात्षड्विधम् । तत्र इष्टानिष्टनामसु रागद्वेषनिवृत्तिः सामायिकमित्यभिधानं वा नामसामायिकम् । मनोज्ञामनोज्ञासु स्त्रीपुरुषाद्याकाराम काष्ठलेप्यचित्रादिप्रतिमासु रागद्वेषनिवृत्ति इदं सामायिकमिति स्थाप्यमानं यत् किंचिद्वस्तु वा स्थापनासामायिकम् । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके भेदसे सामायिक छह प्रकारकी है। तहाँ इष्ट व अनिष्ट नामोंमें रागद्वेषको निवृत्ति अथवा 'सामायिक' ऐसा नाम कहना सो नामसामायिक है। मनोज्ञ व अमनोज्ञ स्त्रीपुरुष आदिकके आकारोंमें अथवा उनकी काष्ठ, लेप्य, चित्र आदि प्रतिमाओंमें रागद्वेषकी निवृत्ति स्थापना सामायिक है। अथवा 'यह सामायिक है' इस प्रकारसे स्थापी गयी कोई वस्तु स्थापना सामायिक है। [ काल द्रव्य व भार सामायिकके लक्षण सन्दर्भ नं. १वद हैं। मडम्ब, पट्टन, द्रोणमुख, और जनपद आदिमें राग और द्वेषका निरोध करना अथवा अपने निवासस्थानमें कषायका निरोध करना क्षेत्रसामायिक है । वसन्त आदि छःऋतुविषयक कषायका निरोध करना अर्थात किसी भी ऋतुमें इष्ट-अनिष्ट बुद्धि न करना कालसामायिक है। जिसने समस्त कषायोंका निरोध कर दिया है तथा मिथ्यात्वका वमन कर दिया है और जो नयोंमें निपुण है ऐसे पुरुषको बाधा रहित और अस्खलित जो छह द्रव्यविषयक ज्ञान होता है वह भावसामायिक है । (गो. जी./जी. प्र./३६७/७८६/१५)। भ. आ./वि./११६/२७४/पंक्ति-तत्र सामायिकं नाम चतुर्विध नामस्थापनाद्रव्यभावभेदेन ।१७।...चारित्रमोहनीयाख्यं कर्म परिप्राप्तक्षयोपशमावस्थ नोआगमद्रव्यतद्वयतिरिक्तकर्म । सामायिक नाम प्रत्ययसामायिक। नोआगमभावसामायिकं नाम सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिपरिणामः । अयमिह गृहीतः १२४ - सामायिक चार प्रकारकी हैनामसामायिक, स्थापनासामायिक, द्रव्यसामायिक, भावसामायिक । [इन सबके लक्षण निक्षेपोंवत जानने। विशेषता यह है कि ] क्षयोपशमरूप अवस्थाको प्राप्त हुए चारित्रमोहनीय कर्मको जो कि सामायिकके प्रति कारण है वह नोआगमद्रव्य तद्वयतिरिक्त सामायिक है। सम्पूर्ण सावध योगोंसे विरक्त ऐसे आत्माके परिणामको नो आगमभावसामायिक कहते हैं। यही सामायिक प्रकृत विषयमें ग्राह्य है। अन, ध./८/१८-३४/७४२ नामस्थापनयोद्रव्यक्षेत्रयोः कालभावयोः । पृथग्निक्षिप्य विधिवत्साध्याः सामायिकादयः ॥१८॥ शुभेऽशुभे वा केनापि प्रयुक्ते नाम्नि मोहतः । स्त्रमवाग्लक्षणं पश्यन्न रतिं यामि नारतिम् ॥२१॥ यदिदं स्मरयत्यर्चा न तदप्यस्मि कि पुनः। इदं तदस्यां सुस्थति धोरसुस्थेति वा न मे ।२२। साम्यागमज्ञतहदेही तद्विपक्षौ च यादृशौ। तादृशौ स्ता परद्रव्ये को मे स्वद्रव्यवग्रहः ।२३। राजधानीति न प्रये नारण्यनीति चोद्विजे । देशो हि रम्योऽरम्यो वा नात्मरामस्य कोऽपि मे ।२४। नामूर्तत्वाद्धिमाद्यात्मा कालः किं तहि पुद्गलः । क्षयोपचर्यते मूर्तस्तस्य स्पृश्यो न जात्वहम् ॥२५॥ सर्वे वैभाविका भावा मत्तोऽन्ये तेष्वतः कथम् । चिच्चमत्कारमात्रात्मा प्रीत्यप्रीती तनोम्यहम् ॥२६॥ जीविते मरणे लाभेलाभे योगे विपर्यये । बन्धावरौ सुखे दुःखे साम्यमेवाभ्युपैम्यहम् ।२७। मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केन चित् । सर्वसावद्यविरतोऽस्मीति सामायिकं श्रयेत् ॥३५॥ नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह निक्षेपोंपर सामायिकादि षट आवश्यकोंको घटित करके व्याख्यान करना चाहिए ।१८। किसी भी शुभ या अशुभ नाममें अथवा यदि कोई मेरे विषयमें ऐसे शब्दोंका प्रयोग करे तो उनमें रति या अरति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि शब्द मेरा स्वरूप या लक्षण नहीं है ।२। यह जो सामने वाली प्रतिमा मुझे जिस अर्हन्तादिरूपका स्मरण करा रही है, मैं उस मूर्तिरूप नहीं हूँ, क्योंकि मेरा साम्यानुभव न तो इस मूर्तिमें ठहरा हुआ है और न ही इससे विपरीत है । (यह स्थापना सामायिक है)।२२। सामायिक शास्त्रका ज्ञाता अनुपयुक्त आत्मा और उसका शरीर तथा इनसे विपक्ष (अर्थात् आगम नोआगम भाविनोआगम व तद्वयतिरिक्त आदि) जैसे कुछ भी शुभ या अशुभ है, रहें, मुझे इनसे क्या; क्योंकि ये परद्रव्य हैं। इनमें मुझे स्वद्रव्यकी तरह अभिनिवेश कैसे हो सकता है। (यह द्रव्य सामायिक है)।२३। यह राजधानी है, इसलिए मुझे इससे प्रेम हो और यह अरण्य है इसलिए मुझे इससे द्वेष हो-ऐसा' नहीं है। क्योंकि मेरा रमणीय स्थान आत्मस्वरूप है। इसलिए मुझे कोई भी बाह्यस्यान मनोज्ञ या अमनोज्ञ नहीं हो सकता। (यह क्षेवसामायिक है)।२४। काल द्रव्य तो अमूर्त है, इसलिए हेमन्तादि ऋतु ये काल नहीं हो सकते, बल्कि पुद्गलको उन-उन पर्यायों में काल का उपचार किया जाता है। मैं कभी भी उसका स्पर्य नहीं हो सकता क्योंकि मैं अमूर्त व चित्स्वरूप हूँ। ( यह कालसामायिक है। ) १२५ औदयिकादि तथा जीवन मरण आदि ये सब वैभाविक २. सामायिक विधि निर्देश १. सामायिक विधिके सात अधिकार का, अ./मू./३१२ सामाइयस्स करणे खेतं कालं च आसणं विलओ। मण-वयण-काय-सुद्धी णायव्वा हुँति सत्तेव । सामायिक करने के लिए क्षेत्र, काल, आसन, विलय, मनः शुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि, ये सात बातें जाननी चाहिए ( और भी दे. शीर्षक नं. ३)। २. सामायिक योग्य काल का. अ./मू./३५४ पुवण्हे मज्झण्हे अवरण्हे तिहि वि णालिया-छक्को। सामाइयस्स कालो सविणय-णिस्सेस णिद्दिठो ३५४।-विनय संयुक्त गणधरदेव आदिने पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न इन तीनों कालोंमें छह छह घटो सामायिकका काल कहा है ।३५४। (और भी दे. सामायिक/२/३ तथा ३/२)। ३. सामायिक विधि र, क. श्रा./१३६ चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामस्थितो यथाजातः । सामायिको द्विनिषद्यास्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी १३६-जो चार दिशाओं में तीन-तीन आवर्त करता है, चार दिशाओं में चार प्रणाम करता है, कायोत्सर्ग में स्थित रहता है, अन्तरंग बहिरंग परिग्रहकी चिन्तासे परे रहता है, खड्गासन और पद्मासन इन दो आसनोंमेंसे कोई एक आसन लगाता है, मन वचन कायके व्यापारको शुद्ध रखता है और त्रिकाल (पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराल) बन्दना करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी है ।१३।। (का. अ./मू./३७) (चा. सा./३७/२) वसु. श्रा./२७४-२७५ होऊण सुई चेड्य गिहम्मि सगिहे व चेइयाहिमुहो। अण्णस्थ सुइपएसे पुबमुहो उत्तरमुहो वा ।२७४। जिणवयणधम्म-चेइय-परमे छि-जिणालाण णिचंपि। जं वंदणं तियाल कीरई सामाइयं तं तु ॥२७५ स्नान आदिसे शुद्ध होकर चैत्यालयमें अथवा अपने ही घर में प्रतिमाके सम्मुख होकर, अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्वमुख या उत्तर मुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिन-" बिम्ब, पंच परमेष्ठी और कृत्रिम अकृत्रिम जिनालयोंकी जो नित्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक ४१७ ३. सामायिक व्रत व प्रतिमा निर्देश त्रिकाल बन्दना की जाती है वह सामायिक नामका तीसरा प्रतिमा स्थान है। दे, सामायिक/३/१/२ [ केश, हाथकी मुट्ठी व वस्त्रादिको बाँधकर, क्षेत्र व काल को सोमा करके, सर्वसापद्यसे निवृत्त होना सामायिक प्रतिमा है।] ३. सामायिक व्रत व प्रतिमा निर्देश १. सामायिक व्रतके लक्षण १. समता धारण व आर्तरौद्र परिणामोंका त्याग पं.वि..६/८ समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना आर्त रौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं बतम् ।। = सब प्राणियों में समता भाव (दे. सामायिक/ १/१) धारण करना, संयमके विषय में शुभ विचार रखना, तथा आर्त एवं रौद्र ध्यानोंका त्याग करना, इसे सामायिक व्रत माना है। १. सामायिक योग्य आसन मुद्रा क्षेत्रादि दे. कृतिकर्म/३ पल्यंकासन या कायोत्सर्ग आसन इन दो आसनोंसे की जाती है। कमर सीधी व निश्चय रहे, नासाग्र दृष्टि हो, अपनी गोद में बायें हाथके ऊपर दाहिना हाथ रखा हो, नेत्र न अधिक खुले होंन मुंदे, निद्रा-आलस्य रहित प्रसन्न वदन हो, ऐसी मुद्रा सहित करे। शुद्ध, निर्जीव व छिद्र रहित भूमि, शिला अथवा तरखते मयी पीठपर करे। गिरिकी गुफा, वृक्षको कोटर, नदीका पुल, श्मशान, जीर्णोद्यान, शुन्यागार, पर्वतका शिखर, सिद्ध क्षेत्र, चैत्यालय आदि शान्त व उपद्रव रहित क्षेत्रमें करे। वह क्षेत्र क्षुद जीवोंकी अथवा गरमी सर्दी आदिकी बाधाओंसे रहित होना चाहिए। स्त्री, पाखण्डी, तिथंच, भूत, वैताल आदि, व्याघ्र, सिंह आदि तथा अधिक जन संसर्गसे दूर होना चाहिए । निराकुल होना चाहिए। पूर्व या उत्तर दिशाकी ओर मुख करके करनी चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावकी तथा मन वचन कायको शुद्धि सहित करनी चाहिए। (और भी दे, सामायिक/२/३)। २. अवधृत कालपर्यन्त सर्व सावद्य निवृत्ति र. क, श्रा./१७-१८ आसमयमुक्तिमुक्तं पञ्चाधानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामायिक नाम शंसन्ति । मूर्धरुहमुष्टिवासोबन्ध पर्यकबन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः TEEL - मन, वचन, काय, तथा कृत कारित अनुमोदना ऐसे नवकोटिसे की हुई मर्यादाके भीतर या बाहर भी किसी नियत समय ( अन्तर्मुहूर्त) पर्यन्त पाँचों पापोंका त्याग करनेको सामायिक कहते हैं ।१७। ज्ञानी पुरुष चोटी के बाल मुट्ठी व वस्त्रके बाँधनेको तथा पर्यडक आसनसे या कायोत्सर्ग आसनसे सामायिक करनेको स्थान व उपवेशनको अथवा सामायिक करने योग्य समयको जानते हैं ।१८। (विशेष दे, सामायिक ।२। व सामायिक ३३४); (चा. सा./१६/३); (सा. ध /१/२८)। स.सि./७/१/३४३/६ सर्वसावद्यनिवृत्तिलक्षणसामायिक। -सर्व सावद्य की निवृत्ति ही है लक्षण जिसका ऐसा सामायिक व्रत ( यद्यपि सामायिकको अपेक्षा एक है पर छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा ५ है। दे.छेदोपस्थापना )। ५. सामायिक योग्य ध्येय र. के. श्रा./१०४ अशरणमशुभम नित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवं । मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ।१०४। = मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दुःखमय और पररूप संसारमें निवास करता हूँ। और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिकमें ध्यान करना चाहिए 1१०४ ( और भी दे. ध्येय)। २. सामायिक प्रतिमाका लक्षण का. अ./म./३७२ चितंतो ससरूवं जिणबिंब अहव अक्खरं परमं । झायदि कम्म विवायं तस्स वयं होदि सामइयं ॥३७२। = अपने स्वरूपका अथवा जिन बिम्बका, अथवा पंच परमेष्ठीके वाचक अक्षरोंका अथवा कर्मविपाकका (अथवा पदार्थों के यथावस्थित स्वरूपका, तीनों लोकका और अशरण आदि वैराग्य भावनाओंका) चिन्तवन करते हुए ध्यान करता है उसके सामायिक प्रतिमा होती है । ३७२। (विशेष दे, ध्येय)। वसु. श्रा./२७६-२७८ काउसग्गम्हि ठिओ लाहालाहं च सत्तु मित्तं च। संयोय-विपजोयं तिणकंचणं चंदणं वासिं।२७६। जो पस्सइ समभावं मणम्मि धरिऊण पंचणवयारं । वरअठ्ठपाडिहरे हि संजुयं जिणसरूवं च ।२७७१ सिद्धसरूवं झायइ बहवा माणुत्तमं ससंवेयं । खणमेक्कमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स ।२८७१ =जो श्रावक कायोत्सर्गमें स्थित होकर लाभ-अलाभको, शत्रु-मित्रको, इष्टवियोग व अनिष्टसंयोगको, तृण-कंचणको, चन्दन और कुठारको समभावसे देखता है, और मन में पंच नमस्कार मन्त्रको धारण कर उत्तम अष्ट प्रातिहार्योसे संयुक्त अर्हन्तजिनके स्वरूपको और सिद्ध भगवान्के स्वरूपको ध्यान करता है, अथवा संवेग सहित अविचल अंग होकर एक क्षणको भी उत्तम ध्यान करता है उसको उत्तम सामायिक होती है ।२७६ २७८। ( विशेष दे. सामायिक/२/३ ) । द्र.सं/टी./४/१६५/५ त्रिकालसामायिके प्रवृत्तः तृतीयः । जब (पूर्वाह्न, मध्याह्नव अपराह्न) ऐसी त्रिकाल सामायिक में प्रवृत्त होता है तब तीसरी ( सामायिक) प्रतिमाधारी होता है। दे, सामायिक/२/३ [ जिनवाणी, जिनबिम्ब, जिनधर्म, पंच परमेष्ठी तथा कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयका भी ध्यान किया जाता है। ] दे. सामायिक/३/२ [पंच नमस्कार मन्त्रका, प्रातिहार्य सहित अर्हन्तके स्वरूपका तथा सिद्धके स्वरूपका ध्यान करता है। ६. उपसर्ग आदिमें अचल रहना चाहिए र. क. पा./१०३ शीतोष्णदंशमशकपरिषहमुपसर्गमपि च मौनधराः । सामायिक प्रतिपन्ना अधिकुऊरन्नचलयोगाः 1१०३ = सामायिकको प्राप्त होनेवाले मौनधारी अचलयोग होते हुए शीत उष्ण डांस मच्छर आदिकी परीषहको और उपसर्गको भी सहन करते हैं।१०३। (चा. सा./१६/३)। सा.ध./७१ सुदृग्मूलोत्तरगुणग्रामाभ्यासविशुद्धधीः। भजस्त्रिसन्ध्यं कृच्छ्रऽपि साम्यं सामायिकीभवेत् । -जिस श्रावककी बुद्धि निरतिचार सम्यग्दर्शन, निरतिचार मूल गुण और निरतिचार उत्तर गुणों के समूहके अभ्याससे विशुद्ध है, ऐसा श्रावक पूर्वाह्न, मध्याह्न व अपराह्न इन तीनों कालों में परीषह उपसर्ग उपस्थित होने पर भी साम्य परिणामको धारण करता है, वह सामायिक प्रतिमाधारी है।। भा०४-५३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक ३. सामायिक व्रत व प्रतिमा निर्देश दे. सामायिक/२/३ [ आवर्त, व नमस्कार आदि योग्य कृतिकर्म युक्त १. सामायिकके समय गृहस्थ भी साधु तुल्य होता है। होकर पूर्वाह्न, मध्याह्न, व अपराह्न इन तीन सन्ध्याओंमें क्षेत्र व कालकी सीमा बाँधकर जो पंच परमेष्ठी आदिका या आत्मस्वरूपका मू.आ./५३१ सामाइम्हि दु कदे समयौ विसावओ हवदि जम्हा। एदेण चिन्तबन करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी है। ] कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा। सामायिक करता हुआ श्रावक भी संयमी मुनिके समान हो जाता है, इसलिए बहुत करके चा सा./३७/१ सामायिकः सन्ध्यात्रयेऽपि भुवनत्रयस्वामिनं वन्दमानो सामायिक करनी चाहिए ॥५३११ वक्ष्यमाणव्युत्सर्गतपसि कथितक्रमण। -सामायिक सवेरे दोपहर र. क, श्रा./१०२ सामायिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । और शाम तीनों समय करना चाहिए और वह तीनों लोकों के स्वामी चेलोपसृष्टमु निरिव गृही तदा याति यतिभावं ।१०२१ सामायिकमें भगवान जिनेन्द्रदेवको नमस्कारकर. आगे जो व्युत्सर्ग नामका आरम्भ सहितके सब ही प्रकार नहीं होते हैं, इस कारण उस समय तपश्चरण कहेगे उसमें कहे हुए क्रमके अनुसार अर्थात कायोत्सर्ग गृहस्थ भी उस मुनिके तुल्य हो जाता है जिसे कि उपसर्गके रूपमें करते हुए करना चाहिए। वस्त्र ओढ़ा दिया गया हो ।१०२। ३. सामायिक व्रत व प्रतिमामें अन्तर स.सि./७/२१/३६०/६ इयति देशे एतावति काले इत्यवधारिते सामायिके स्थितस्य महाबतत्वं पूर्ववद्वेदितव्यम् । कुतः। अणुस्थूल कृत हिंसादिचा. सा. । ३७/३ अस्य सामायिकस्यानन्तरोक्तशीलसप्तकान्तर्गत निवृत्त। -इतने देशमें और इतने काल तक इस प्रकार निश्चित सामायिकवतं शीलं भवतीति ।-पहिले व्रत प्रतिमामें १२ व्रतों के की गयी सीमामे, सामायिकमें स्थित पुरुषके पहिले के समान ( दे. अन्तर्गत सात शीलवतों में सामायिक नामका व्रत कहा है (दे. शिक्षा दिग्बत ) महाबत जानना चाहिए, क्योंकि इसके सूक्ष्म और स्थूल बत) वही सामायिक इस सामायिक प्रतिमा पालन करनेवाले दोनों प्रकारके हिंसा आदि पापोंका त्याग हो जाता है। (रा.वा./0/ श्रावकके व्रत हो जाता है जब कि दूसरी प्रतिमावालेके बही शील रूप २१/२३/५४६/२२); (गो.क./गो.प्र.५४७/७१२/१)।। (अर्थात् अभ्यासरूपसे ) रहता है । (सा. ध //६) । पु.सि.उ./१५० सामायिकश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात । भवति चा. पा./टी./२५/४५/१५ दिन प्रति एकवार द्विवार त्रिवार वा व्रतप्रति- महानतमेषामुदयेऽपि चारित्रमोहस्य। -इन सामायिक दशाको मायां सामायिकं भवति । यत्त सामायिकप्रतिमायां सामायिक प्रोक्तं प्राप्त हुए श्रावकोंके चारित्र मोहके उदय होते भी समस्त पापके तस्वीन बारान् निश्चयेन करणीयमिति ज्ञातव्यं । व्रत प्रतिमामें योगों के परिहारसे महावत होता है ।१५० एकबार दोबार अथवा तीनबार सामायिक होती है ( कोई नियम चा.सा./१६/४ हिंसादिभ्यो विषयकषायेभ्यश्च विनिवृत्त्य सामायिके नहीं है ) जब कि सामायिक प्रतिमाम निश्चयसे तीनबार सामायिक ___ वर्तमानो महानती भवति। -विषय और कषायोंसे निवृत्त होकर करने योग्य है ऐसा जानना चाहिए। सामायिकमें वर्तमान गृहस्थ महावती होता है। ला.सं./9/४.८ ननु बतप्रतियायामेतत्सामायिकवतम् । तदेवात्र तृतीयायां का. अ./३५५-३५७ बंधित्ता पज्जंकं अहवा उड्ढेण उभओ ठिच्चा। प्रतिमायां तु कि पुनः ।४। सत्यं किन्तु विशेषोऽस्ति प्रसिद्धः कालपमाणं किच्चा इंदिय-बावार-वज्जिदो होउं १३५५। जिणवयणेपरमागमे। सातिचारं तु तत्र स्यादत्रातीचारविव जितम् ॥५॥ किंच यग्ग-मणो संबुड-काओ य अंजलिं किच्चा । स-सरूवे संलीणो वंदणतत्र त्रिकालस्य नियमो नास्ति देहिनाम् । अत्र त्रिकाल नियमो अत्य' विचितंतो ।३५६। किच्चा देसपमाणं सर्व सावज्ज-वज्जिदो मुनेर्मूलगुणादिवत् ।६। तत्र हेतुबशात्कवापि कुर्याकुर्यान्न वा क्वचित् । होउ। जो कुव्बदि सामइयं सो मुणि-सरिसो हवे ताव ।३५७/सातिचारवतत्वाद्वा तथापि न ब्रतक्षतिः ।७। अनावश्यं त्रिकालेऽपि पर्यक आसनको बाँधकर अथवा सीधा खड़ा होकर, काल का प्रमाण कार्यसामायिकं जगत् । अन्यथा तहानिः स्यादतीचारस्य का कथा करके (दे, सामायिक/३/१) इन्द्रियोके व्यापारको छोड़नेके लिए 1-प्रश्न-यह सामायिक नामका बत बतप्रतिमामें कहा है, और जिनवचनमें मनको एकाग्र करके, कायको संकोचकर, हाथकी अंजलि वही व्रत इस तीसरी प्रतिमामें बतलाया है। सो इसमें क्या विशेषता करके, अपने स्वरूप में लीन हुआ अथवा वन्दना पाठके अर्थका है ।।४। उत्तर-ठीक है, जो 'सामायिक' व्रत प्रतिमामें है वही चिन्तवन करता हुआ, क्षेत्रका प्रमाण करके और समस्त सावध तीसरी प्रतिमामें है, परन्तु उन दोनों में जो विशेषता है, वह आगममें योगको छोड़ कर जो श्रावक सामायिक करता है वह मुनिके समान प्रसिद्ध है। वह विशेषता यह है कि १. व्रतप्रतिमाकी सामायिक है ।३५५-३५७१ सातिचार है और सामायिक प्रतिमाकी निरतिचार ।। (दे, आगे ५. साधु तुल्य होते हुए भी वह संयत नहीं इस क्सके अतिचार)। २. दूसरी बात यह भी है कि व्रत प्रतिमा तीनों काल सामायिक करनेका नियम नहीं, जब कि सामायिक स. सि./७/२१/३६०/१० संयमप्रसङ्ग इति चेत; न; तद्धातिकर्मोदयप्रतिमामें मुनियों के मूलगुण आदिकी भाँति तीनों काल करनेका सद्भावात् । महावताभाव इति चेत् । तन्न, उपचाराद राजकुले सवंगतनियम है ।६। ३. व्रत प्रतिमावाला कभी सामायिक करता है और चैत्राभिधानवत् । -प्रश्न-यदि ऐसा है (अर्थात् यदि सामायिक कारणवश कभी नहीं भी करता है, फिर भी उसका बत भंग नहीं में स्थित गृहस्थ भी महाव्रतो कहा जायेगा) तो सामायिकमें होता, क्योंकि वह इस व्रतको सातिचार पालन करता है 100 परन्तु स्थित हुए पुरुषके सकल संयमका प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तरतीसरी प्रतिमामें श्रावक को तीनों काल सामायिक करना आवश्यक नहीं, क्योंकि, इसके संयमका घात करनेवाले कर्मों का उदय पाया है. अन्यथा उसके बतकी क्षति हो जाती है, तब अतिचारकी तो जाता है। प्रश्न-तो फिर इसके महावतका अभाव प्राप्त होता बात ही क्या ? है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, जैसे राजकुलमें चैत्रको सर्वगत उपचारसे कहा जाता है उसी प्रकार यहाँ महाव्रत उपचारसे जानना चाहिए। दे.सामायिक/३/१,२ [ सामायिक व्रतका लक्षण करते हुए केवल उसका (रा. वा./७/२१/२४-२५/५४६/२४); (चा. सा./१६/४); (गो. क./ स्वरूप ही बताया है, जबकि सामायिक प्रतिमाका लक्षण करते हुए जी.प्र./५४७/७१४/१)। उसे तीन बार अवश्य करनेका निर्देश किया गया। दे.सामायिक/२/३ [ आवर्त आदि कृति कर्म सहित सामायिक करनेका । ६. सामायिक व्रतका प्रयोजन निर्देश सर्वत्र सामायिक प्रतिमाके प्रकरण में किया है, सामायिक र. क. श्रा./१०१ सामायिक प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यं । व्रतनामक शिक्षा व्रतके प्रकरण में नहीं। पञ्चकपरिपूर्ण कारणमवधानयुक्तेन ११०११ - सामायिक पाँच महावतों के जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक परिपूर्ण करनेका कारण है. इसलिए उसे प्रतिदिन ही आलस्यरहित और एकाग्रचित्त से यथानियम करना चाहिए । दे. सामायिक / ३/४ - [ सामायिक व्रतसे मुनि की शिक्षाका अभ्यास होता है । ] ७. सामायिक व्रतका महत्व ज्ञा./२४/रतो. साम्यभाषितभावानां स्यारसुखं यन्मनीषिणाम्। तन्मन्ये ज्ञानसाम्राज्यसमत्वमवलम्बते | १४ | शाम्यन्ति जन्तवः क्रूरा बद्धवैराः परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभावतः | २०| क्षुभ्यन्ति ग्रहयक्ष किन्नरनरास्तुष्यन्ति नाकेश्वराः, मुञ्चन्ति द्विपदेश्य सिंहशरभव्यालादयः क्रूरताम् । रुग्वैरप्रतिबन्धविभ्रमभयभ्रष्टं जगज्जायते, स्याद्योगीन्द्रसमत्व साध्यमथवा किं किं न सद्यो भुवि | २४| -साम्यभारसे पदार्थोंका विचार करने वाले बुद्धिमाद पुरुषों के जो सुख होता है सो मैं ऐसा मानता हूँ कि वह ज्ञानसाम्राज्य ( केवलज्ञान ) की समताको अवलम्बन करता है अर्थात् उसके समान है | १४ | इस साम्यके प्रभाव से अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनिके निकट परस्पर वैर करनेवाले क्रूर जीव भी साम्यभावको प्राप्त हो जाते हैं | २०| समभावयुक्त योगीश्वरों के प्रभावसे ग्रह यक्ष किन्नर मनुष्य ये सब क्षोभको प्राप्त नहीं होते हैं और इन्द्रगण हर्षित होते हैं । शत्रु, देश्य, सिंह, अष्टापद सर्प इत्यादि क्रूर प्राणी अपनी क्रूरताको छोड़ देते हैं, और यह जगत रोग, बेर, प्रतिबन्ध विग, भय आदिकसे रहित हो जाता है। इस पृथिवोमें ऐसा कौन-सा कार्य है, जो योगीश्वरोंके समभावों से साध्य न हो |२४| दे, सामाजिक/३/४ [ सामायिक होता है । ] दे, सामायिक / ४ / ३ [ एक सामायिकमें सकल व्रत गर्भित हैं । ] ८. सामायिक व्रतके अतिचार कासमें गृहस्थ भी साधु तुभ्य त. सू. /७/३३ योगदुष्प्रणिवानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि । ३३॥ = काययोगदुष्ट विधान वचनयोगप्रणिधान मनोयोगप्रविधान अनादर और स्मृतिका अनुपस्थान मे सामायिक अटके पाँच अतिचार हैं | ३३ | ( र. क. श्रा./१०५); (चा. सा./२० / ३ ); (सा. घ./५/३१) । ४. सामायिक चारित्र निर्देश १. सामायिक चारित्रका लक्षण १. रागद्वेषादि से निवृत्ति व समता यो. सा. / यो / ६६ - १०० सत्वे जीवा णाणमया जो समभाव मुणेइ । सो सामाइय जाणि फुडु जिगवर एम भणेइ || रायरोस वि परिहरिवि जो समभाउ मुणेइ । सो सामाइय जाणि फुडु केवलि एक भणेइ | १०० = समस्त जीवराशिको ज्ञानमयी जानते हुए उसमें समता भाव रखना ( अर्थात् सबको सिद्ध समान शुद्ध जानना - दे, सामावि/१/१) अथवा रागद्वेषको छोड़कर जो समभाव होता है, वह निश्चयसे सामायिक है । ६६-१००१ (द्र.सं./टी./३५/१४७/४) द्र.सं./टी./३५/१४७/७ स्त्रशुद्धात्मानुभूतिबलेनार्त रौद्रपरित्यागरूपं वा समस्तमुखदुःखादि मध्यस्थरूपं वा स्व शुद्धात्माकी अनुभूतिके बलसे आर्त रौद्रके परित्यागरूप अथवा समस्त सुख दुःख आदिमें मध्यस्थभाव रखनेरूप है । २. रत्नत्रयमें एकाग्रता स. सा. // १५४ सम्यग्दर्शनज्ञानचा स्विभाव परमार्थ भूतज्ञानभवनमात्रे का क्षण समयसारभूतं सामायिक प्रतिज्ञायाचि] [...]-]] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र स्वभावमाता परमार्थभूत जो ज्ञान, उसकी ४. सामायिक चारित्र निर्देश भवनमात्र अर्थात् परिणमन होनेमात्र जो एकाग्रता, वह ही जिसका लक्षण है, ऐसी समय-सारस्वरूप सामायिककी प्रतिज्ञा लेकरके भी... ३. सर्व साय निवृत्ति रूप सकल संयम पं.सं./प्रा./१/१२६ संगहिय-सयल संजममेयजमणुत्तरं दुरवगमं । जीवो समुपतो सामान्य जदो हो । १९२६ - जिसमें सकल संयम संगहोत हैं, ऐसे सर्व सावद्य के त्यागरूप एकमात्र अनुत्तर एवं दुःखगम्य अभेद संयमको धारण करना, सो सामायिकसंयम है और उसे धारण करनेवाला सामायिक संयत कहलाता है। . १/१. १. १२३ / गो १८७/३७२ ) ; ( रा. वा./६/१८/२/६१६/२८ ) ३६६ / २ ) ; ( गो. जी./मू./४७०/८०६) । स.सि./६/१८/४३६/५ सामाविमुक्तक्य 'दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक' - इत्यत्र -सामायिक चारित्रका कथन पहिले दिग्देश आदि व्रतोंके अन्तर्गत सामायिक व्रतके नामसे कर दिया गया है कि [सर्व सामय योगकी निवृत्ति सामायिक है- ( दे. सामायिक/ 9/8)] 1 ( ध १/१, १, १२३ / २. नियत व अनियतकाल सामायिक निर्देश स.सि./१/१८/४३६/२ तह द्विविधं नियतकालमनियतकाले च स्वाध्या यपद नियतकालम् । ईर्यापथाद्यनियतकालम् । १- वह सामायिक चारित्र दो प्रकारका है-नियतकाल में अनियतकाल (व. सा./ ६/४५ ) ; ( चा. सा./११/२) । २ - स्वाध्याय आदि [ कृतिकर्म पूर्वक आसन आदि लगाकर पंच परमेष्ठी आदिके स्वरूपका या निजामाका चिन्तन करना (दे, सामाजिक / २)] नियतकाल सामायिक है और ईर्याय आदि अनियतकाल सामायिक है। रा.वा./१/१८/२/६१६/२८ सर्वस्य सावद्ययोगस्याभेदेन प्रत्याख्यानमवसमय प्रवृत्तमयभूतकालं वा सामायिकमित्याख्यायते । - सर्व सावद्य योगों का अभेदरूपसे सार्वकालिक त्याग करना अनियत काल सामायिक है और नियत समयतक त्याग करना सो नियतकाल सामायिक है। नोट - [ यद्यपि चा, सा. में व्रतके प्रकरण में सामायिकके ये दो भेद किये हैं. पर यहाँ लक्षण निकाल सामायिकका ही दिया है, अनियत काल सामाविकका नहीं। इसलिए दो भेद सामायिक चारित्र के ही है, सामायिके नहीं, क्योंकि अभ्यस्त दशा में रहनेके कारण गृहस्थ या अणुवती श्रावक सार्वकालिक समता या सर्व सावध से निवृत्ति करने को समर्थ नहीं है । ] ३. सामायिक चारित्रमें संयमके सम्पूर्ण अंग समा जाते हैं घ. १ / १,१.१२३/३६६/५ आक्षिप्ताशेषरूपमिदं सामान्यमिति कुतोऽवसीयत इति चेत्सर्ववयोगोपादानात नोकस्मित सर्वशब्दः विरोधास्वाविशेषसंयमवि कथमः सामायिकशुद्धिसंधन इति यावत्तानामेकत्वमापाद्य एकमो पादाना व्याधियः । प्रश्न- यह सामान्य संयम अपने सम्पूर्ण भेदोंका संग्रह करनेवाला है, यह कैसे जाना जाता है ! उत्तर- 'सर्वसाधयोग' पदके ग्रहण करनेसे ही, यहाँपर अपने सम्पूर्ण भेदों ग्रह कर लिया गया है, यह बात जानी जाती है । यदि यहाँपर सयमके किसी एक भेदकी ही मुख्यता होती तो 'सर्व' शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता था, क्योंकि, ऐसे स्थल पर 'सई' शब्द प्रयोग करनेमें विरोध जाता है। इस कथनसे यह के सिद्ध हुआ कि जिसने सम्पूर्ण संयम के भेदों (यत समिति गुठि बादिको अपने अन्तर्गत कर लिया है ऐसे अनेदरूपसे एक यमको धारण करनेवाला जीव सामायिक शुद्धि-संयत कहलाता है। उसी में दो तीन आदि भेद डालना छेदोपस्थापना चारित्र कहलाता है ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक पाठ ४२० सावध अत्र मानिवृत्तिपरक होतकर नहीं. क्योंकि सानपूर्ण निवृत्तिरूप सम्पूर्ण व्रताको सामान्यकी अपेक्षा एक मानकर एक यमको ग्रहण सारसमुच्चय-आ, कुलभद्र (ई. १३७) द्वारा रचित ३२८ श्लोक करनेवाला होनेसे यह द्रव्यार्थिक नयका विषय है। (विशेष दे, बद्ध एक तत्त्व प्रतिपादक ग्रन्थ । (दे. कुलभद्र)। छेदोपस्थापना)। सारस्वत-१. लौकान्तिक देवोंका एक भेद -दे,लौकान्तिक; ४. इसीलिए मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं २. भरतक्षेत्र पश्चिम आर्यखण्डका एक देश-दे. मनुष्य/४। ध. १६/१.१,१२३/३६६/२ सर्वसावद्ययोगाद् विरतोऽस्मीति सकलसावध सारस्वत यन्त्र-दे, यन्त्र । योगविरतिः सामायिकशुद्धिसंयमो द्रव्यार्थिकत्वात। एवं विधैकवतो मिथ्याष्टिः किं न स्यादिति चेन्न, आक्षिप्ताशेषविशेषसामान्याथिनो सारीपुत्र-'महावग्ग' नामक बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार, ये महात्मा नयस्य सम्यग्दृष्टित्वाविरोधात् । = 'मैं सर्व सावद्ययोगसे विरत हूँ' बुद्धके प्रधान शिष्य थे। पहले जैन साधु थे, 'संजय' नामक एक इस प्रकार द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सकल सावद्ययोगके त्यागको परिव्राजकने इन्हें बुद्धका शिष्य बननेसे मना किया था। (द, सा./ सामायिक-शुद्धि-संयम कहते हैं। प्रश्न-इस प्रकार एक व्रतका पृ. २७/पं. नाथूराम प्रेमी)। नियमवाज्ञा जीव मिथ्यादृष्टि क्यों नहीं हो जायेगा ! उत्तर- साधद्वय प्रज्ञाप्त-आचार्य अमितगति(ई.१८३-१०२३) कृत संस्कृत नहीं, क्योंकि, जिसमें सम्पूर्ण चारित्रके भेदोंका संग्रह होता है, श्लोकबद्ध, अढाई द्वीप प्ररूपक एक रचना -दे, अमितगति । ऐसे सामान्यग्राही द्रव्यार्थिक नयको समीचीन दृष्टि माननेमें सालवमल्लि राय-मग्लिभूपालका अपर नाम । (मो, मा.प्र./ कोई विरोध नहीं आता है। २३। पं. परमानन्द शास्त्री )।५. सामायिक चारित्र व गुप्तिमें अन्तर सालिवाहन-भट्टारक जगभूषण शिष्य'जैन कधि वि. १६६५ में रा. वा./६/१८/३/६१७/१ स्यादेतत्-निवृत्तिपरत्वात-सामायिकस्य हरिवंश पुराण रचा।-हिन्दी जैन साहित्य इतिहास ॥१०॥ गुप्तिप्रसंग इति । तन्नः किं कारणम । मानसप्रवृत्तिभावात् । सावध-हिंसा जनक मन वचन कायके व्यापारको सावद्य कहते हैं। अत्र मानसीप्रवृत्तिरस्ति निवृत्तिलक्षण त्वाद गुप्तेरित्यस्ति भेदः। पूजा, ब्रह्मचर्य आदि भी यद्यपि कथं चित् सावध हैं, परन्तु धर्मके -प्रश्न-निवृत्तिपरक होनेके कारण सामायिक चारित्रके गुप्ति सहकारी व अधिक पुण्योत्पादक होनेसे ग्राह्य है। पर खर कर्म आदि होनेका प्रसंग आता है। उत्तर-नहीं. क्योंकि सामायिक चारित्रमें अन्य लौकिक सावध व्यापार त्याज्य है। मानसी प्रवृत्तिका सद्भाव होता है, जब कि गुप्ति पूर्ण निवृत्तिरूप 1. सावद्ययोग सामान्यका लक्षण होती है। यह दोनों में भेद है। पं.घ./उ./७५०-७५१ सर्वशब्देन तत्रान्तर्बहिर्वृत्तिर्यदर्थतः । प्राणच्छेदो ६. सामायिक चारित्र व समितिमें अन्तर हि सावध सैव हिंसा प्रकीर्तिता।७५० योगस्तत्रोपयोगो वा बुद्धिपूर्वः स उच्यते। सूक्ष्मश्चाबुद्धिपूर्वो यः स स्मृतो योग इत्यपि १७५१॥ रा. वा./६/१८/४/६१७/४ स्यान्मतम् -यदि प्रवृत्तिरूपं सामायिक - सर्वसावद्ययोग' इस पदमें अर्थकी अपेक्षा 'सर्व' शब्दसे अन्तरंग समितिलक्षणं प्राप्त मिति; तन्नः किं कारणम् । तत्र यतस्य प्रवृत्त्यु और बहिरंग प्रवृति अर्थात् मन वचन काय तीनोंकी प्रवृत्ति है। पदेशात् । सामायिके हि चारित्रे यतस्य समितिषु प्रवृत्तिरुपदिश्यते। तथा निश्चयसे 'सायद्य' शब्द का अर्थ प्राणच्छेद है। और वही हिंसा अतः कार्यकारणभेदादस्ति विशेषः । -प्रश्न-यदि सामायिक कही जाती है ।७५०। उस हिंसामें जो बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्तिरूप है (दे. शीर्षक सं.५) तो इसको समितिका लक्षण प्राप्त स्थूल या सूक्ष्म उपयोग होता है वह भी योग शब्दका अर्थ है ।७५१॥ होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, सामायिक चारित्रमें समर्थ व्यक्ति * सावध वचनका लक्षण दे, वचन/१/३ । को हो समितियों में प्रवृत्तिका उपदेश है। अतः सामायिक चारित्र कारण है और समिति इसका कार्य । २. सावध कर्मके भेद सामायिक पाठ-१. आ. अमित गति द्वि. (ई. १८३-१०२३) कृत. १. असि, मसि आदि रूप आजीविकाकी अपेक्षा १२० संस्कृत पद्यों में मद्ध, सामायिक के स्वरूप तथा विधि का प्रतिपादक ग्रन्थ । (ती./२/४०२)। २. अमितगति ई. १८३-१०२३) कृत रा. वा./३/३६/२/२००/३२ कर्मास्त्रेिधा-सावद्यकर्याि अल्पसावद्य कार्या असावद्यकश्चेिति । सावद्यकार्याः षोढा-असि-मसि३२ संस्कृत पद्यबद्ध, समताभावोत्पादक ललित पाठ । कृषि-विद्या-शिल्प-वणिक्कर्मभेदात। - कार्य तीन प्रकारके हैंसामीप्यरा . वा./४/१८/१/२२३/१२ तुल्यजातीयेनाव्यवधान सावद्यकर्यि, अल्पसावद्यकर्यि और असावद्यकर्यि। तहाँ भी सामीप्यम् । =तुत्य जातीयोंके बीच में दूसरे पदार्थों का न आना सावद्यकर्यि असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वणिक्कर्म के सामीप्य है। भेदसे छह प्रकारके हैं। - साम्य-दे. सामायिक/१/१ । म. पु./१६/१७१ असिमषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणी मानि षोढा स्युः प्रजाजीवन हेतवः ।१७६१ = असि, मषि, कृषि, विद्या, सायणाचार्य-ई.१३६० के न्यायसूत्रके भाष्यकार अपर नाम् वाणिज्य, और शिल्प ये छह कार्य प्रजाकी आजीविकाके कारण माधवाचार्य (सि. वि./प्र.८० पं. महेन्द्र)। हैं ।१७६॥ सार २. खरकर्म (क्रूर व्यापार ) और उनके १५ अतिचार नि. सा./मू./३ विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं । -- (नियम शब्द का अर्थ नियमसे करने योग्य रत्नत्रय है) तहाँ विप सा. ध./५/२१-२३ व्रतयेत्खरकर्मात्र मलान् पञ्चदश त्यजेत् । वृत्ति रीतका परिहार करनेके लिए 'सार' ऐसा वचन कहा है। वनाग्न्यनस्स्फोटभाटकैर्यन्त्रपीडनम् ।२१। निर्लान्छनासतीपोषौ सर:स. सा/ता. वृ./२/१२/१५ सारः शुद्धावस्था।सार अर्थात शुद्ध अवस्था। शोषं दबप्रदाम् । विषलाक्षादन्तकेशरसवाणिज्यमङ्गिरुक ।२२। इति केचिन्न तच्चारु लोके सावद्यकर्मणाम् । अगण्यत्वात्प्रणेयं वा तदप्यतिसार निवह-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर। जडान प्रति ।२३। = श्रावकोंको प्राणियोंको दुःख देनेवाले खर कर्म सारसंग्रह-आ. पूज्यपाद ( ई. श. ५) की एक संस्कृत छन्दबद्ध अर्थात क्रूर व्यापार सब छोड़ देने चाहिए, तथा उनके पन्द्रह अतिचार रचना। (जै./२/२८०) । (दे. पूज्यपाद )। भी छोड़ने चाहिए। वे १५ कर्म ये हैं-१. वनजीविका, २. अग्निजैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावध सविद्य जीविका, ३. अनोजीविका (शकटजीविका), ४. स्फोटजीविका, ___ बाह्यजीवघातहेतुत्वेन गुग्गुलिकाया धातकीपुष्पत्वचश्च मद्यहेतुत्वेन ५. भाटजीविका, ६. यन्त्रपीडन, ७. निर्लाञ्छन, ८. असतीपोष, तद्विक्रयस्य पापाश्रयत्वात्। दन्तवाणिज्यं हस्त्यादिदन्ताद्यवयवाना ६. सरःशोष, १०. दवप्रद, ११. विषवाणिज्य, १२. लाक्षावाणिज्य, पुलिन्दादिषु द्रव्यदानेन तदुत्पत्तिस्थाने वाणिज्यार्थं ग्रहणम् ।... १३. दन्तवाणिज्य, १४. केशवाणिज्य और १५. रस वाणिज्य ।२१-२३॥ अनाकारे तु दन्तादिक्रयविक्रये न दोषः । केशवाणिज्यं द्विपदादि विक्रयः । रसवाणिज्यं नवनीता दिविक्रयः। मधुवसामद्यादौ तु ३. असि, मसि आदि कर्मोके लक्षण जन्तुघातोद्भवत्वम् । प्राणियोंको पीड़ा उत्पन्न करनेवाले व्यापाररा.वा /३/३६/२/२०१/१ असिधनुरादिप्रहरणप्रयोगकुशला असिकार्याः । को खरकर्म अर्थात् क्रूरकर्म कहते हैं । वे पन्द्रह प्रकारके हैं-१. स्वयं द्रव्यायव्ययादिलेखननिपुणा मषीकार्याः। हलकुलिदन्तालकादि- टूटे हुए अथवा तोड़कर वृक्ष आदि वनस्पतिका बेचना अथवा गेहूँ कृष्युपकरणविधानविदः कृषीबलाः कृषिकर्माः । आलेख्यगणितादि- आदि धान्योंका पीस-कूटकर व्यापार करना बनजीविका है। द्विसप्ततिकलावदाता विद्याकार्याः चतुषष्टिगुण सपन्नाश्च । रजक- २. कोसला तैयार करना अग्निजीविका है। ३. स्वयं गाड़ी, रथ नापितायस्कारकुलालसुवर्ण कारादयः शिल्पकार्याः। चन्दनादि- तथा उसके चक्र वगैरह बनाना अथवा दूसरोंसे बनवाना, गाड़ी गन्धघृतादिरसशाल्यादिधान्यकासाद्याछादनमुक्तादिनानाद्रव्य - जोतनेका व्यापार स्वयं करना अथवा दूसरोंसे करवाना, गाड़ी संग्रहकारिणो बहुविधा वणिक्कार्याः। -- तलवार, धनुषादि शस्त्र- आदिके बेचनेका व्यापार करना अनोजीविका है। ४. पटाखे व विद्यामें निपुण असिकार्य हैं । द्रव्य अर्थात रुपये-पैसे की आमदनी आतिशबाजी आदि बारूदकी चीजोंसे आजीविका करना स्फोट खर्च आदिके लेखनमें निपुण अर्थात मुनीमीका कार्य करनेवाले जीविका है। ५. गाड़ी, घोड़ा आदिसे बोझा ढोकर जो भाड़ेकी मषिकार्य हैं। हल, कुलि, दान्ती आदिसे कृषि करनेवाले कृषि- आजीविका की जाती है, वह भाटक जीविका कहलाती है। ६. तेल कार्य हैं। चित्र खेंचना या गणित आदि ७२ कलाओं में निपुण निकालने के लिए कोल्हू चलाना या सरसों तिल आदिको कोल्हमें विद्याकर्यि हैं। अथवा ६४ गुण या ऋद्धियोंसे सम्पन्न विद्याकर्म पिलवाना, तिल वगैरह देकर उनके बदले तेल लेना आदि यन्त्रआर्य हैं। धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार, सुनार आदि शिल्प कार्य पीडन जीविका है। ७.बैल आदि पशुओंके नाक आदि छेदनेका हैं। चन्दनादि सुगन्ध पदार्थोंका, घी आदिका अथवा रस व धन्धा करना अथवा शरीरके अवयव छेदनेको निर्लाञ्छन कर्म धान्यादिका तथा कपास, वस्त्र, मोती आदि नाना प्रकारके द्रव्योंका कहते हैं। ८. हिंसक प्राणियोंका पालन-पोषण करना और किसी संग्रह करनेवाले अनेक प्रकारके वणिक कार्य हैं (म. पू./१६/ प्रकारके भाड़ेकी उत्पत्तिके लिए दास और दासियोंका पोषण करना १८१-१८२) असतीपोष कहलाता है। ६. अनाज बोनेके लिए जलाशयोंसे नाली खोदकर पानी निकालना सरःशोष कहलाता है। १०. वनमें घास ४. सावध अल्पसावध व असावध कर्मायके लक्षण वगैरहको जलानेके लिए आग लगाना दवप्रद कहलाता है। यह दो प्रकारका है-एक व्यसनज और दूसरा पुण्य बुद्धिज । बिना प्रयोजनरा. वा./३/३६/२/२०१/६ षडप्येते अविरतिप्रवणत्वात साक्द्यकार्याः, के भीलों द्वारा वनमें आग लगवाना व्यसनज दवप्रद है, और पुण्यअल्पसावद्यकार्याः श्रावकाः श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात्, बुद्धिसे दीपोंमें अग्नि प्रज्वलित करायी जाना पुण्य बुद्धिज दवप्रदा असावध कार्याः संयताः, कर्मक्षयार्थोद्यतविरतिपरिणतत्वात् । -- ये है। तथा अच्छी उपज होनेकी बुद्धिसे घास आदि जलवाना दवप्रदा उपरोक्त असि, मषि आदि छह सावद्यकर्म करनेवाले सावध कार्य है। ११. विषका प्राणिघातक व्यापार करना विषवाणिज्य है। हैं, क्योंकि वे अविरति प्रधानी हैं। विरति, अविरति दोनों रूपसे १२. लकड़ीके कीड़े जिन छोटे-छोटे पत्तोंपर बैठते हैं. तथा उनमें परिणत होनेके कारण श्रावक और श्राविकाएँ अल्प सावध कार्य जो सूक्ष्म त्रस होते हैं उनके घातके बिना लाख पैदा ही नहीं होती। हैं । कर्म क्षयको उद्यत तथा विरति रूप परिणत होनेके कारण मुनि अतः लाखका और इसी प्रकार टाकनखार, मनसिल, गूगल, धायके व्रत धारी संयत असावध कार्य हैं। फूल व छाल जिससे मद्य बनता है आदि पदार्थों का व्यापार लाक्षा ५. पन्द्रह खरकोंके लक्षण वाणिज्यमें गर्भित है। १३. भीलों आदिसे हाथी दाँत आदि खरीद करना दन्तवाणिज्य है । जहाँ दाँत आदिका उत्पत्ति स्थान नहीं है सा.ध./१२१-२३ की टीका-खरकम खरं क्रूर प्राणिबाधक कर्म व्यापार । वहाँ इस व्यापारका निषेध नहीं है। १४. दासी दास और पशुओंके ...तत्र वनजीविका छिन्नस्याच्छिन्नस्य वा वनस्पतिसमूहादेविक्रयेण व्यापारको केश वाणिज्या कहते हैं। १५. मक्खन, मधु, चरबी, मद्य, तथा गोधूमादि धान्यानां "पेषणेन दलनेन वा वर्तनम् । अग्निजीविका आदिका व्यापार रस वाणिज्य है। अङ्गारजीविकारख्या ।...अनोजीविका शकटजीविका शकटरथतच्चक्रादीनां स्वयं परेण वा निष्पादनम् वाहनेन विक्रयणेन वृत्तिबहु- ६. कृषिको लोकमें सर्वोत्तम उद्यम माना जाता है। भूतग्रामोपमर्दिका गवादीनां च बन्धादिहेतुः। स्फोटजीविका उडादिकर्मणा पृथिवीकायिकाद्य पमर्द हेतुना जीवनम् । भाटक कुरल काव्य/१०४/१ नरो गच्छतु कुत्रापि सर्वत्रान्नमपेक्षते । तत्सिद्धिश्च जीविका शकटादिभारवाहनमूल्येन जीवनम् । यन्त्रपीडाकर्म कृषस्तस्मात् सुभिसेऽपि हिताय सा ११ आदमी जहाँ चाहे घूमें, तिलयन्त्रादिपीडनं तिलादिकं च दत्वा तैलादिप्रतिग्रहणम् ।... पर अन्त में अपने भोजनके लिए उसे हलका सहारा लेना ही पड़ेगा। नि छन नि छनकर्म वृषभादेन सावधादिना जीविका । इसलिए हर तरहकी सस्ती होनेपर भी कृषि सर्वोत्तम उद्यम है ।। निन्छिन नितरी लाञ्छनमगावयवच्छेदः । असतीपोषः प्राणिधन- , प्राणिपोषोभाटिग्रहणार्थ दासपोषं च । सरःशोषो धान्यवपनाद्यर्थ ७. दान, पूजा, शील, उपवास भी कथंचित् सावध है वितरणं तच्च फलनिरपेक्षतात्पद्विनेचरैवह्निज्वालनं व्यसनज- क. पा. १/१,१/८२/१००/२ दाणं पूजा सीलमुबवासो चेदि चउबिहो मुच्यते। पुण्यबुद्धिजं तु यथा तृणदाहे सति नवतृणाकुरोद्भवाइ- सावयधम्मो। एसो चउनिहो वि छज्जीवविराहओ; पयणगावश्चरन्तीति वा क्षेत्रं वा सस्यसंपत्तिवृद्धयेऽग्निज्वालनम् । ""विष. पायणग्गिसूधुकण-जालण-सूदि-सूदाणादिवावारेहि जीवविराहणाए वाणिज्य जीवघ्नवस्तुविक्रयः। लाक्षावाणिज्यं लाक्षाविक्रयणम् । विणा दाणाणुववत्तीदो। तरुवरछिदण-छिदावणिट्टपादण-पादावणलाक्षायाः सूक्ष्मत्रसजन्तुघातानन्तकायिकप्रवालजालोपमर्दाविना- तद्दहण-दहावणादिवाबारेण छज्जीवविराहणहेउणा विणा जिणभवणभाविना स्वयोनिवृक्षादुद्धरणेन टङ्गगमनःशिलासकूमालिप्रभृतीनां करणकराधणण्णहाणुववत्तीदो। रहवणौवलेण-संमज्जण-छहावण-पु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासादन ४२२ सूचीपत्र (फुल्लारोवण-धूबदहणादिवावारेहि जोवबहाविणाभावी हि विणा पूजकरणाणुववत्तीदो । कथं सोलरक्खणं सावज्जं । ण; सदारपीडाए विणा सीलपरिवालणाणुववत्तीदो। कधमुबवासो सावजो। ण; सपोट्टत्थपाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो। = दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकोंके धर्म हैं। ये चारों ही प्रकारका श्रावक धर्म छह कायके जीवोंकी विराधनाका कारण है। क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरेसे पकवाना, अग्निका सुलगाना, अग्निका जलाना, अग्निका खूतना और खुतबाना आदि व्यापारोंसे होनेवाली जीव विराधनाके बिना दान नहीं बन सकता है। उसी प्रकार वृक्षका काटना और कटवाना, इंटका गिराना और गिरवाना, तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह कायके जीवोंकी विराधनाके कारणभूत व्यापारके बिना जिनभवनका निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है। तथा अभिषेक करना, अबलेप करना, सम्मान करना, चन्दन लगाना, फूल चढ़ाना और धूपका जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारी के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है। अपनी स्त्रीको पीड़ा दिये बिना शीलका परिपालन नहीं हो सकता है, इसलिए शीलकी रक्षा भी साबध है । अपने पेटमें स्थित प्राणियोंको पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है, इस लिए उपवास भी सावध है। * सावध होते हुए भी पूजा करना इष्ट है-दे. धर्म/१२। ८. साधुओंको सावध योगका निषेध व समन्वय मू. आ./७६८-८०१ वसुधम्मिवि विहरता पीडं ण करेंति कस्सइ कयाई । जीवेसु दयाववण्णा माया जह पुत्तभंडेसु १७६८। तणरुक्खहरिच्छेदणतयपत्तपवालकंदमूलाई। फलपुप्फत्रीयघाद ण करिति मुणी ण कारिति ।०१-सब जीवों में दयाको प्राप्त सब साधु पृथिवीपर बिहार करते हुए भी किसी जीवको कभी भी पीड़ा नहीं करते हैं। जैसे माता पुत्र के ऊपर हित ही करती है उसी तरह सब का हित ही चाहते हैं ।७६८। मुनिराज तृण वृक्ष हरित इनका छेदन, वल्कल पत्ता कोंपल कन्द मूल इनका छेदन तथा फल, पुष्प, बीज इनका घात न तो आप करते हैं और न दूसरे से कराते हैं।८०१॥ प्र. सा./मू./२५० जदि कुणदि कायखेदं वेजावच्चत्थमुज्जदो समणो । ण हव दि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ।२५०। प्र. सा./ता. वृ./२५०/३४४/१३ इदमत्र तात्पर्यम् - योऽसौ स्वपोषणार्थ शिष्यादिमोहेन वा सावद्य' नेच्छति तस्येदं व्याख्यान शोभते यदि पुनरन्यत्र साबद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयाबस्थायोग्ये धर्म कार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्ति । - यदि (श्रमण ) वैयावृत्तिके लिए उद्यमी वर्तता हूआ छह कायको पीडित करता है तो वह श्रमण नहीं है, गृहस्थ है; क्योंकि, वह श्रावकोंका धर्म है ।२५०। इसका यह तात्पर्य है कि--जो अपने पोषणके लिए या शिष्यादिके मोहसे सावधकी इच्छा नहीं करता उसको तो यह उपरोक्त व्याख्यान शोभा देता है, परन्तु यदि अन्य कार्यों में तो सावद्यकी इच्छा करे और अपनी-अपनी भूमिकानुसार वैयावृत्ति आदि धर्मकार्योकी इच्छा न करे तो उसके सम्यक्त्य ही नहीं है। * श्रावकको सावध योगका निषेध-दे. सावध/२/२। सासादन-प्रथमोपशम सम्यक्त्वके काल में छह आवली शेष रहनेपर जीव सम्यक्त्वसे गिर कर उतने मात्र कालके लिए जिस गुण. स्थानको प्राप्त होता है उसे सासादन कहते हैं, अगले ही क्षण वह अवश्य मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है। मिथ्यात्वका उदय न होनेसे उसे सम्यग्दृष्टि कह देते हैं। मिथ्यात्वका उदय उपशम व क्षय तीनों ही नहीं हैं,इसलिए इसे पारिणामिक भाव कहा जाता है। || सासादन सामान्य निर्देश सासादन सम्यग्दृष्टिका लक्षण । मिथ्यादृष्टि आदिसे पृथक सासादनदृष्टि क्या। सासादनको सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों। सासादन में तीनों ज्ञान अज्ञान क्यों । सासादन अनन्तानुबन्धीके उदयसे होता है। सासादन पारिणामिक भाव कैसे। अनन्तानुबन्धीके उदयसे औदायिक क्यों नहीं । इसे कथचित् औदयिक भी कहा जा सकता है। ९ सासादन गुणस्थानका स्वामित्व । एके. विक. व असंशियोंमें सासादन गुणस्थानकी उत्पत्ति अनुत्पत्ति सम्बन्धी चर्चा । -दे. जन्म/४। सासादन गुणस्थानमें मारणान्तिक समुद्घात सम्बन्धी कुछ नियम । | सासादनके रवामियों में जीवसमास मार्गणास्थान आदि बीस प्ररूपणाएँ। - स. सासादन जीवों सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम । मार्गणाओंमें सासादनके अस्तित्व सम्बन्धी शंकासमाधान। -दे. वह वह नाम । सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम । -दे. मार्गणा। इस गुणस्थानमें कर्म प्रकृतियोंका बन्ध उदय सत्त। -दे. वह वह नाम। सासादनके आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी उपशम सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है। प्रथमोपशमके कालमें कुछ अवशेष रहनेपर होता है। उपशममें शेष बचा काल ही सासादनका काल है। उक्त कालसे हीन या अधिक शेष रहने पर सासादनको प्राप्त नहीं होता। सासादन गुणस्थानमें मरण सम्बन्धी। -दे. मरण/३। द्वितीयोपशमसे साप्तादनकी प्राप्ति अप्राप्ति सम्बन्धी दो मत । द्वितीयोपशम पूर्वक होनेमें काल आदिके सर्व नियम पूर्ववत् हैं। -दे. सासादन/२/५। द्वितीयोपशमसे दो बार सासादनकी प्राप्ति सम्भव ___ नहीं। -दे. अन्तर/२/४ | ६ सासादनसे अवश्य मिथ्यात्वकी प्राप्ति । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासादन ४२३ १. सासादन सामान्य निर्देश १. सासादन सामान्य निर्देश १. सासादन सम्यग्दृष्टिका लक्षण पं. स./प्रा./१/६,१६८ सम्मत्तरयणपत्रयसिहरादो मिच्छभावसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्यो।हाण य मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो हु परिवडिओ। सो सासणो त्ति णेओ सादियपरिणामिओ भावो ।१६। -१. सम्यक्त्वरूप रत्नपर्वतके शिरवरसे च्युत, मिथ्यात्वरूप भूमिके सम्मुख और सम्यक्त्वके नाशको प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नामवाला जामना चाहिए ।। (ध, १/१,१,१०/गा. १०८/१६६), (गो. जी./मू./२०/४६)। २. उपशम सम्यक्त्वसे परिपतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं हुआ है तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।१६८ (ध.१/१,१,१०/१६३/५), (गो.जी./मू./६५४/११०२), (द्र, सं/टी./१३/३३/१)। रा. वा./१/१/१३/५८६/१८ अत एवास्यान्वर्थसंज्ञा-आसादतं विराधनम, सहासादनेन । वर्तत इति सासादना, सासादना सम्यग्दृष्टियस्य सोऽयं सासादनसम्यग्दृष्टिरिति । अतएव 'सासादन' यह अन्वर्थ संज्ञा है । आसादनका अर्थ विराधना है। आसादनके साथ रहे वह सासादन । आसादन सहित समीचीन दृष्टि जिसके वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। (ध, १/१,१,१०/१५३/५+१६६/१); (गो. जो./जी.प्र./१०/३१/४)। जाता है, इसलिए उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं। केवल सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं। प्रश्न-ऊपरके कथनानुसार जब वह मिथ्यादृष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गयी है। उत्तरऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थानको स्वतन्त्र कहनेसे अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंकी द्विस्वभावताका कथन सिद्ध हो जाता है । दे. अनन्तानुबन्धी-दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है-(दे. सासादन/१/६ ) जिससे कि इस गुणस्थानको मिथ्यावृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिध्यादृष्टि कहा जाता। तथा जिस अनन्तानुबन्धीके उदयसे दूसरे गुणस्थानमें जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीयका भेद न होकर चारित्रका आवरण करनेवाला होनेसे चारित्रमोहनीयका भेद है। इसलिए दूसरे गुणस्थानको मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है। (और भी दे. सासादन/१/७,८) २. मिथ्यादृष्टि आदिसे पृथक् सासादन दृष्टि क्या ध, १/१,९,१०/१६३/७ अथ स्यान्न मिथ्यावृष्टिरयं मिथ्यात्वकर्मण उदयाभावात्, न सम्यग्दृष्टिः सम्यग्रुचेरभावाद, न सम्यग्मिथ्यादृष्टिरुभयविषयरुचेरभावात् । न च चतुर्थी दृष्टिर स्ति सम्यगसम्य. गुभयदृष्टयालम्बनवस्तुव्यतिरिक्तवस्त्वनुपलम्भात् । अतोऽसत् एष गुण इति न, विपरीताभिनिवेशतोऽसदृष्टित्वात् । सहि मिथ्यादृष्टिभवत्वयं नास्य सासादनव्यपदेश इति चेन्न, सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिबन्ध्यनन्तानुबन्ध्युदयोत्पादितविपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्त्वाद्भवति मिथ्यावृष्टिरपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेशः, किन्तु सासादन इति व्यपदिश्यते। किमिति मिथ्यादृष्टिरिति न व्यपदिश्यते चेन्न, अनन्तानुबन्धिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात । न च दर्शनमोहनीयस्योदयादुपशमात्क्षयोपशमाद्वा सासादनपरिणामः प्राणिनामुपजायते येन मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति चोच्यते। यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनन्तानुबन्धिनो, न तदर्शनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात् । -प्रश्न-सासादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्वका उदय न होनेसे मिथ्यादृष्टि नहीं है, समीचीन रुचिका अभाव होनेसे सम्यग्दृष्टि भी नहीं है। दोनोंको विषय करनेवाली सम्यग्मिथ्यात्वरूप रुचिका अभाव होनेसे सम्यग्मिध्यादृष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि है नहीं, क्योंकि, समीचीन असमीचीन और उभयरूप दृष्टिके आलम्बनभूत वस्तुके अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु पायी नहीं जाती है। इसलिए सासावन गुणस्थान असत्स्वरूप है 1 उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें विपरीत अभिप्राय रहता है, इस लिए उसे असददृष्टि ही समझना चाहिए। प्रश्न-यदि ऐसा है तो इसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए, सासादन संज्ञा देना उचित नहीं है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरण चारित्रका प्रतिबन्ध करनेवाली अनन्तानुबन्धी कषायके उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थानमें पाया जाता है, इसलिए द्वितोय गुणस्थानवी जीव मिथ्यादृष्टि है किन्तु मिथ्यात्वकर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश यहाँ नहीं पाया ३. सासादनको सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों ध. १/१,१,१०/१६६/१ विपरीताभिनिवेशदूषितस्य तस्य कथं सम्यग्दृष्टित्वमिति चेन्न, भूतपूर्वगत्या तस्य तद्वयपदेशोपपत्ते रिति। - प्रश्नसासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्रायसे दूषित है (दे. शीर्षक सं. २), इसलिए इसके सम्यग्दृष्टिपना कैसे बनता है : उत्तर-नहीं, क्योंकि, पहले वह सम्यग्दृष्टि था [अर्थात प्रथमोपशमसे गिरकर ही सासादन होनेका नियम है- (दे. सासादन/२) ] इसलिए भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। (गो.जी./ जी. प्र./१०/३१/५) ४. सासादनमें तीनों ज्ञान अज्ञान क्यों रा. वा./६/१/१३/५८६/१६ तस्य मिथ्यादर्शनोदयाभावेऽपि अनन्तानुबन्ध्युदयात त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानानि एव भवन्ति । -मिथ्यात्वका उदय न होनेपर भी इसके तीनों मति, श्रुत और अवधिज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं । ( दे, सत्) ध. १/१,१,११६/३६१/३ मिथ्यादृष्टेः द्वेऽप्यज्ञाने भवतां नाम तत्र मिथ्यास्वोदयस्य सत्त्वात् । मिथ्यात्वोदयस्यासत्त्वान्न सासादने तयोः सत्त्वमिति न, मिथ्यात्वं नाम विपरीताभिनिवेशः स च मिथ्यास्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते। समस्ति च सासादनस्यानन्तानुबन्ध्युदय इति । -प्रश्न-मिथ्यादृष्टि जीवोंके भले ही दोनों (मति व भूत) अज्ञान होवें, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यात्वका उदय पाया जाता है, परन्तु सासादनमें मिथ्यात्वका उदय नहीं पाया जाता है, इसलिए वहाँ पर वे दोनों ज्ञान अज्ञानरूप नहीं होना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योंकि, विपरीताभिनिवेशको मिथ्यात्व कहते हैं। और मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनोंके निमित्तसे उत्पन्न होता है । सासादन गुणस्थानवालेके अनन्तानुबन्धीका उदय तो पाया ही जाता है ( दे. शीर्षक नं.२), इसलिए वहाँ पर भी दोनों अज्ञान सम्भव हैं। ५. सासादन अनन्तानुबन्धीके उदयसे होता है रा, वा./8/१/१३/५८८/२० तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये निवृत्तं अनन्तानमन्धिकषायोदयकलुषीकृतान्तरात्मा जीवः सासादनसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते। -मिथ्यादर्शनके उदयका अभाव होने पर भी जिनका आरमा अनन्तानुबन्धीके उदयसे कलुषित हो रहा है वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। ल. सा./जी.प्र./88/१३६/१६ तदुपशमनकाले अनन्तानुमन्ध्युदयाभावेन सासादनगुणप्राप्तेरभावात् । -दर्शनमोहके उपशमनकालमें अनन्तानुबन्धीके उदयका अभाव होनेसे सासादनकी प्राप्तिका अभाव है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासादन ४२४ १. सासादन सामान्य निर्देश दे. सासादन/१/२ [ यहाँ यद्यपि मिथ्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेश पाया नहीं जाता, परन्तु अनन्तानुबन्धीजन्य विपरीताभिनिवेश अवश्य पाया जाता है। दै. सासादन/१/४ [अनन्तानुबन्धीके उदयके कारण ही इसके ज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं। दे. सासादन/२/२ [ उपशम सम्यक्त्वके कालमें छह आवली शेष रह जाने पर अनन्तानुबन्धीका उदय आ जानेसे सासादन होता है। ] ६. सासादन पारिणामिक भाव कैसे ष. खं.१/१,७/सूत्र ३/१६६ सासणसम्मादि ट्ठि त्ति को भाको, पारिणामिओ भावो ।२-सासादन सम्यग्दृष्टि यह कौन सा भाव है। पारिगामिक भाव है। (ष. खं. ७/२.५/सूत्र ७७/१०६); (पं.सं.. प्रा./१/१६८); (ध. १/१,१,१०/गा, १०८/१६६); (गो.जो/मू./२०/४६) ध.५/१,७,३/१९६/७ एत्थ चोदओ भणदि-भावो पारिणामिओ त्ति णेदं घडदे, अण्णे हितो अणुप्पणस्स परिणामस्स अस्थित्तविरोहा। अह अण्णेहितो उप्पत्तो इच्छिज्ज दि ण सो पारिणामिओ, णिक्कारणस्स सकारणत्त विरोहा इति । परिहारो उच्चते। तं जहा-जो कम्माणमुदय-उवसम-खइय-खओवसमे हि विणा अण्णे हितो उप्पणो परिणामो सो पारिणामिओ भण्णदि, ण णिक्कारणो कारणमंतरेणुप्पणपरिणामाभावा । सत्त-पमेयत्तादओ भावा णिवकारणा उपलभंतीदि चे ण, विसेससत्तादिसरूवेण अपरिणमंतसत्तादिसामण्णाणुवलंभा... तदो अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा ण हादि ति णिक्कारणसासणसम्मत्तं । अदो चेव पारिणामियत्तं पि। अणेण णाएण सवभावाणं पारिणामिपत्तं पसज्जदीदि च होदु, ण कोइ दोसो, पिरोहाभावा। अपणभावेसु पारिणामियववहारा किण्ण कीरदे । ण, सासणसम्मत्त मोत्तूण अप्पिद कम्मादो णुप्पण्णस्स अण्णस्स भावस्स अणुवलंभा। -प्रश्न-१. 'यह पारिणामिक भाव है' यह मात घटित नहीं होती, क्योंकि दूसरोंसे नहीं उत्पन्न होने वाले परिणामके अस्तित्वका अभाव है। यदि अन्यसे उत्पत्ति मानी जाये तो पारिणामिक नहीं रह सकता है, क्यों कि. निष्कारण वस्तुके सकारणत्वका विरोध है। (अर्थात स्वतः सिद्ध व अहेतुक त्रिकाली स्वभावको पारिणामिक भाव कहते हैं, पर सासादन तो अनन्तानुबन्धीके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण सहेतुक है। इसलिए वह पारिणामिक नहीं हो सकता)? उत्तर-जो कर्मोक उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशमके बिना अन्य कारणोंसे उत्पन्न हुआ परिणाम है वह पारिणामिक कहा जाता है, न कि निष्कारण भावको पारिणामिक कहते हैं, क्योंकि, कारणके बिना उत्पन्न होने वाले परिणामका अभाव है । प्रश्न -सत्त्व, प्रमेयत्व आदिक भाव कारणके बिना भी उत्पन्न होनेवाले पाये जाते हैं ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, विशेष सत्त्व आदिके स्वरूपसे नहीं परिणत होनेवाले सत्त्वादि सामान्य नहीं पाये जाते हैं।-२. विवक्षित दर्शन मोहनीयकर्म के उदयसे, उपशमसे, क्षयसे अथवा क्षयोपशमसे नहीं होता है अतः यह सासादन सम्यक्त्व निष्कारण है और इसी लिए इसके पारिणामिकपना भी है। (ध. १/१,१०/१६५/६); । प्रश्न-३, इस न्यायके अनुसार तो सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसग प्राप्त होता है [ क्योंकि कोई भी भाव ऐसा नहीं जिसमें किसी एक या अधिक कर्मोके उदय आदिका अभाव न हो। उत्तर-इसमें कोई दोष नहीं है, क्योकि इसमें कोई विरोध नहीं आता। (दे. पारिणामिक ) । प्रश्न-यदि ऐसा है तो फिर अन्य भावोंमें पारिणामिकपनेका व्यवहार क्यों नहीं किया जाता ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, सासादनसम्यक्त्वको छोड़कर विवक्षित कर्मसे नहीं होनेवाला अन्य कोई भाव नहीं पाया जाता है। ध.७/२.१,७७/१०६/६ एसो सासणपरिणामो खईओ ण होदि, दसणमोह खएणाणुप्पत्तोदो। ण ख ओवस मिओ वि, देसघादिफद्दयाणमुदएण अणुप्पत्तीए । उवसमिओ वि ण हो दि, दंसणमोहुवसमेणाणुप्पत्तीदो। ओदइओ वि ण होदि, दंसणमोहस्सुदएणाणुप्पत्तीदो। परिसेसादो परिणामिएण भावेण सासणी होदि। - यह सासादन परिणाम क्षायिक नहीं होता, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके क्षयसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती । यह क्षायोपशमिक भी नहीं है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके देशघातो स्पर्धकों के उदयसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती। औपशमिक भी नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उपशमसे उसकी उत्पत्ति नहीं होतो वह औदयिक भी नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहनीयके उदयसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती। अतएव परिशेष न्यायसे पारिणामिक भावसे हो सासादन परिणाम होता है। ७. अनन्तानुबन्धीके उदयसे औदयिक क्यों नहीं ध.७/२,७७/१०६/६ अणंताणुबंधीणमुदएण सासणगुणस्सुवलंभादो ओदइओ भावो किण्ण उच्चदे। ण दंसणमोहणीयस्स उदय-उवसम-वयखओवसमेहि विणा उप्पज्जदि त्ति सासण गुणस्स कारणं चरित्तमोहणीयं तस्स दंसणमोहणीयत्तविरोहत्तादो। अणताणुबन्धीचदुक्क तदुभयमोहणं च । होदु णाम, किंतु णेदमेत्य विवक्खियं । अणंताणुबंधीचदुक्कं चरित्तमोहणीयं चेवेत्ति विवक्खाए सासणगुणो पारिणमिओ त्ति भणिदो। प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषायोंके उदयसे सासादन गुणस्थान पाया जाता है, अतः उसे औदयिक भाव क्यों नहीं कहते : उत्तर-नहीं कहते, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशमके बिना उत्पन्न होनेसे सासादन, गुणस्थानका कारण चारित्र मोहनीय कर्म ही हो सकता है और चारित्र मोहनीयके दर्शन मोहनीय माननेमें विरोध आता है। प्रश्न-अनन्तानुबन्धी तो दर्शन और चारित्र दोनों में मोह उत्पन्न करनेवाला है ? उत्तर- भले ही वह उभयमोहनीय हो, किन्तु यहाँ वैसी विवक्षा नहीं है। अनन्तानुबन्धी चारित्र मोहनीय ही है, इसी विवक्षासे सासादन गुणस्थानको पारिणामिक कहा है। ध./१.७,३/१६७/४ आदिमचदुगुणट्ठाणभावपरूपणाए दसणमोहवदिरित्तसेसकम्मेसु विवक्रवाभावा । -आदिके चार गुणस्थानोंसम्बन्धी भावोंको प्ररूपणा दर्शनमोहनीय कर्मके सिवाय शेष कर्मोके उदयकी विवक्षाका अभाव है । (गो. जी./म्. ब. जी. प्र./१२/३५) । ८. इसे कथंचित् औदयिक भी कहा जा सकता है गो. जी./जी./प्र./१२/३/१४ अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदयविवक्षया तु औदयिकभावोऽपि भवेत् । अनन्तानुबन्धी चतुष्टयमें से अन्यतमका उदय होनेकी अपेक्षा सासादन गुणस्थान औदयिक भाव भी होता है। ९. सासादन गुणस्थानका स्वामित्व देनरक/४/२,३ [ सातों ही पृथिवियों में सम्भव है परन्तु केवल पर्याप्त ही होते हैं अपर्याप्तं नहीं। दे. तिथंच/२/१,२ [पंचेन्द्रिय तियंच व योनिमति दोनोंके पर्याप्त व अपर्याप्तमें होना सम्भव है। ] दे. मनुष्य/३/१,२ [ मनुष्य व मनुष्यनियाँ दोनोंके पर्याप्त व अपर्याप्तमें होना सम्भव है।] दे. देव/३/१/२ [भवनबासीसे उपरिम अवेयक पर्यन्तके सभी देवों व देवियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओंमें सम्भव है।] दे. इन्द्रिय/४/४ [ एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियों में नहीं होता, संज्ञी पंचेन्द्रियों में ही सम्भव है। यहाँ इतनी विशेषता है कि-(दे. अगला सन्दर्भ)] दे, जन्म/४ [ नरकमें सर्वथा जन्म नहीं लेता, कर्म व भोगभूमि दोनों के गर्भज संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचों में ही जन्मता है इनसे विपरीतमें नहीं । इतनी विशेषता है कि असंज्ञियों में केवल अपर्याप्त दशामें ही जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासादन २. सासादनके आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी होता है और संज्ञियों की अपर्याप्त व पर्याप्त दोनों दशाओं में द्वितीयोपशमकी अपेक्षा संज्ञी, संज्ञियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों तथा देवों में केवल अपर्याप्त दशामें ही सम्भव है। एकेन्द्रिय व विकले. न्द्रियों में यदि होते हैं तो केवल निवृत्त्यपर्याप्त दशामें ही सम्भव है। वहाँ भी केवल बादर पृथिवी अप व प्रत्येक वनस्पति इन तीन कायों में ही सम्भव है अन्य कायों में नहीं। वास्तवमें एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते, बक्कि बहाँ मारणान्तिक समुद्भात करते हैं।] दे, जन्म/४/१० [सासादन प्राप्तिके द्वितीय समयसे लेकर आवली/असं. कालतक मरनेपर नियमसे देव गतिमें जन्मता है। इसके ऊपर आ./ असं. काल मनुष्यों में जन्मने योग्य है। इसी प्रकार आगे क्रमसे संझी, असंज्ञी, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय व एकेन्द्रियों में जन्मने योग्य काल होता है। दै. संयत/१/६ [ सासादन निवृत्त्यपर्याप्त या पर्याप्त ही होता है लब्धि अपर्याप्त नहीं। १०. मारणान्तिक समुद्धात सम्बन्धी ध.४/१,४,४/४/१६४/२ तेसिं सासणगुणपाहम्मेण लोगणालीए बाहिरमुपजणसहावाभावादो।लोगणालीए अन्भंतरे मारणं तियं करता वि भवणवासियजगमूलादोवरि चेत्र देव-तिरिक्खसासणसम्मादिठिणो मारणं तियं करेंति, णो हेठा, कुदो । सासणगुणपाहम्मादो चेत्र ।- [सासादन सम्यग्दृष्टिदेव ऐकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, परन्तु उनके सासादन गुणस्थान की प्रधानतासे लोक नाली के बाहर उत्पन्न होनेके स्वभावका अभाव है। और लोकनाली के भीतर मारणान्तिक समुद्धातको करते हुए भी भवनवासी लोकके मूलभागसे ऊपर ही देव या तिथंच सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मारणान्तिक समुद्धातको करते हैं । इससे नीचे नहीं, क्योंकि, उनमें सांसाद नगुणस्थानकी ही प्रधानता है। ध.४/१,४,४११६४/७ ईसिपब्भारपुढवीदो उवरि सासणाणमाउकाइएसु मारण तियसंभवादो, अट्ठमपुढवीए एगरन्तुपदरभंतर सयमावूरिय दिदाए तेसिं मारणं तियकरणं पडि विरोहाभावादो च । ईषत्प्राभार पृथित्रीसे ऊपर सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अपकायिक जीवों में मारणांतिक समुद्धात सम्भव है, तथा एक रज्जूपतरके भीतर सर्व क्षेत्रको व्याप्त करके स्थित आठवीं पृथिवीमें उन जीवोंके मारणातिक समुद्धात करनेके प्रति कोई विरोध भी नहीं है। दे. मरण/१/४-[ मेरुतकसे अधोभागवर्ती एकेन्द्रिय जीवों में व मारणा न्तिक समुद्धात नहीं करते। दे. जन्म/४/११-[सासादन सम्यग्दृष्टि जीव वायुकायिकों में मारणा न्तिक समुद्धात नहीं करते।] २. सासादनके आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी १. उपशमसम्यक्त्व पूर्वक ही होता है घ.५/१,८,१२/२५०७ सासणगुणमुवसमसम्मादिविणो चेव पडिवज्जति । -सासादनगुणस्थानको उपशमसम्यग्दृष्टि ही प्राप्त होते हैं। २. प्रथमोपशमके कालमें कुछ अवशेष रहनेपर होता है रा.वा./६/१/१३/५८६/१६ जघन्येन एकसमये उत्कर्षेणाबलिकाषट्केऽवशिष्टे यदा अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभमन्यतमस्योदयो भवति तदा सासादनसम्यग्दृष्टिरित्युच्यते । -प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त कालमें जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली अवशेष रहनेपर, जब अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया व लोभ इन चारोंमेंमें किसी एकका उदय होता है, तब वह जीव सासादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। (गो. जी./मू./११/४४); (ल. सा./मू /१००/१३७ ); (गो. जी./जो, प्र./७०४/११४१/१५); (गो. क./जी.प्र./५४८/७१८/१७) ३. उपशममें शेष बचा काल ही सासादनका काल है ष, ख, ७/२,२/सू. २००-२०२/१८२ सासणसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होदि १२००। जहण्णण एयसमओ ।२०१। उक्कस्सेण छाबलियाओ ।२०२। सासादन सम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं 11२००। जघन्य एक समय ।२०११ और उत्कृष्ट छह आवली कालतक रहते हैं।२०२। ( ष. खं. ४/९/सूत्र ७-८); (ध.४१,८,१२/२५०/२) ध.४/१.५,७/गा, ३१/३४१ उबसमसम्मत्तद्धा जत्तियमेत्ताह होइ अवसिट्ठा। पडिवज्जता साणं तत्तियमेत्ता य तस्सद्धा।३१। - जितना प्रमाण उपशम सम्यक्त्वका काल अवशिष्ट रहता है, उस समय सासाद नगुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवका भी उतने प्रमाण ही काल होता है ।३१॥ घ.७/२,२,२०१/१८२/६ उवसमसम्मत्तदाए एगसमयावसे से सासणं गदस्स सासणगुणस्स एगसमयकालोवलंभादो। जेत्तिया उवसमसम्मत्तद्धा एगसमयादि कादूण जावुक्कस्सेण छावलियाओ त्ति अवसेसा अस्थि तत्तिया चेव सासणगुणद्धावियप्पा होति। -क्योंकि, उपशम सम्यक्त्वके काल में एकसमयशेषरहनेपर सासादनगुणस्थानमेंजानेवाले जीवके सासादनगुणस्थानका एक समय काल पाया जाता है। एक समयसे प्रारम्भ कर अधिकसे अधिक छह आवलियोंतक जितना उपशम सम्यक्त्वका काल शेष रहता है, उतने ही सासादनगुणस्थानके विकल्प होते हैं। ४. उक्त कालसे हीन या अधिक शेष रहनेपर सासादनको प्राप्त नहीं होता क. पा. सुत्त/१०/गा. १७/६३१ उवसामगो च सम्बो...णिरासाणो। उवसंते भजियव्वो भीरासणो य खीणम्मि 189) जबतक दर्शनमोहका उपशम कर रहा है तबतक वह सासादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं होता है। उसका उपशम हो जाने पर भजितव्य है, अर्थात सासादनको प्राप्त हो भी जाता है और नहीं भी। [प्रथमोपशम कालमें एक समयसे छह आवलीतक शेष रहनेपर तो कदाचित् प्राप्त हो जाता है। परन्तु] उस उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त हो जानेपर प्राप्त नहीं होता है। (ध. ६/९.६-८,६/गा. ४/२३६); (ल, सा./म./१४/१३६) ध. ४/१,५,६/गा. ३२/३४२ उवसमसम्पत्तद्धा जइ छावलिया हवेज्ज अवसिट्ठा। तो सासणं पवज्जइ णो हे ठुकट्ठकालेसु ॥३२॥ - उपशम सम्यक्त्वका छह आवली प्रमाण अवशिष्ट होवे तो जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है, यदि इससे अधिक काल अवशिष्ट रहे तो नहीं प्राप्त होता है ।३२१ ध.७/२,२,२०१/१८२/८ उवसम्मत्तकालं संपुण्णमच्छिदो सासणगुणं ण पडिबज्जदित्ति कधं णबदे। एवम्हादो चेव सुत्तादो, आइरियपरंपरागदुबदेसादौ वा ।-प्रश्न-जो जीव उपशमसम्यवत्वके सम्पूर्ण कालतक उपशमसम्यक्त्व में रहा है, वह सासादन गुणस्थानमें नहीं जाता, यह कैसे जाना 1 उत्तर-प्रस्तुत सूत्रसे (दे. शीर्षक नं.३) हो तथा आचार्य परम्परागत उपदेशसे भी पूर्वोक्त मात जानी जाती है। ल.,सा./जी.प्र/88/१३६/१६ उपशान्ते दर्शनमोहे अन्तरायाम वर्तमानः प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिः सासादनगुणस्थानप्राप्त्या भक्तव्यो विकल्पनीयः। कस्यचित्प्रथमोशमसम्यक्त्वकाले एकसमयादिषडावलिकान्तावशेषे सासादनगुणत्वसंभवात् । उपशमसम्यवस्वकाले क्षीणे' समाप्ते सति निरासादन एव तदा नियमेन निथ्यात्वाद्यन्यतमोदयसंभवात। -दर्शनमोहके उपशान्त हो जानेपर उस प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अन्तरायाममें वर्तमान प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादनगुणस्थानकी प्राप्तिके लिए भजनीय हैअर्थात प्राप्त भा०४-५४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहसगति ४२६ सिंहनदि करे अथवा न भी करे। तहाँ किसी जीवके प्रथमोपशमके कालमें एक समयसे छह आवली पर्यन्त काल शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानका होना सम्भव है। परन्तु उपशम सम्यक्त्वका काल क्षीण हो जानेपर निरासादन ही है अर्थात सासादनको मिलकुल प्राप्त नहीं हो सकता। तब मिथ्यादि (मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमिथ्यात्व या सम्यकप्रकृति इन तीनोंमेंसे किसी एकका उदय सम्भव है।) दे.सम्यग्दर्शन/IV/२/- [प्रथमोपशमसे गिरकर अपनी-अपनी योग्यताके अनुसार मिथ्यादृष्टि सासादन, सम्यग्मिध्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टिमें से किसी भी गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है।] ५. द्वितीयोपशमसे सासादनकी प्राप्ति अप्राप्ति सम्बन्धी दो मत ध.६/१६-८,१४/३३१/४ एदिस्से उसमसम्मत्तद्धाए अन्तरादो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज ।...एसो पाहूडचण्णिमुत्ताभियाओ। भूदबलिभयवंतस्सुवएसेण उसमसेडीदो ओदिण्णो ण सासणत्तं पडिवज्जदि । -१. द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकालके भीतर असंयमको भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयमको भी प्राप्त हो सकता है और छह आवलियोंके शेष रहनेपर सासादनको भी प्राप्त हो सकता है।... यह कषायप्राभृत चूर्णिसूत्र ( यतिवृषभाचार्य) का अभिप्राय है। (ल. सा./मू./३४८); (गो. जी /जी. प्र./१६/४५/१); (वे. सम्यग्दर्शन/IV/३/३ में गो. जी./जी. प्र./७०४ ) । २. किन्तु भगवान् भूतबलिके उपदेशानुसार उपशमश्रेणीसे उतरता हुआ सासादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं करता । (ल. सा./मू./३५१) ध.१,६,७/११/२ उवसमसेडोदो ओदिण्णाणं सासणगमणाभावादो। तं पि कुदो णवदे। एदम्हादो चैव भूदमलीयवयणादो। -उपशम श्रेणीसे उतरनेवाले जीवोंके सासादन गुणस्थानमें गमन करनेका अभाव है। प्रश्न-यह कैसे जाना : उत्तर-भूतबली आचार्य के इसी वचनसे जाना [कि सासादन गुणस्थानका जघन्य अन्त एक जीवकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भाग है-सुत्र ७, पृ.१]। गो. क./जी. प्र./५४८/७१८/१७ अमी प्रथमद्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टयः स्वभव चरमे स्वसम्यक्त्वकाले जघन्येनै कसमये उत्कृष्टेन षडावलिमात्रेऽवशिष्टेऽनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदयेन सासादना भूत्वा...। -ये प्रथमोपशम व द्वितीयोपशम दोनों सम्यग्दृष्टि अपने भवके चरमसमयमें अपने-अपने सम्यक्त्वके काल में जघन्य एक समय और उस्कृष्ट छह आवली मात्र अवशेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी चतुष्कर्मेसे किसी एक प्रकृतिके उदयसे सासादन होकर (मरते हैं, तब देवगतिको प्राप्त करते हैं।) १. सासादनसे अवश्य मिथ्यात्वकी प्राप्ति रा, पा./8/१/१३/५८६/२१ स हि मिथ्यादर्शनोदयफलमापादयन् मिथ्यादानमेव प्रवेशयति । - यह (अनन्तानुबन्धी कषाय) मिथ्यादर्शनके फलोंको उत्पन्न करती है, अतः मिथ्यादर्शनको उदयमें आनेका रास्ता खोल देती है। गो. क./जी.प्र./५४८/७१८/२० सासादनकाल मतीत्य मिथ्यादृष्टय एवं भूत्वा । -सासादनका काल बीतनेपर नियमसे मिथ्यावृष्टि होकर.... साहसगात-राजा चक्राकका पुत्र था। सुग्रीवकी स्त्रीको प्राप्त करनेके अर्थ इसने विद्या सिद्ध की थी। (प. पु./१०/४,१८) । साहसी-स्या. म./१८/२४१/४ सहसा अविमर्शात्मकेन बलेन वर्तते साहसिकः ।-आगे आनेवाले कष्टोंको विचारे बिना ही अपनी शिरजोरीसे जो सहसा प्रवृत्त हो उसको साहसी कहते हैं । र-मध्य लोकके अन्तसे चौदहवाँ द्वीप व सागर-दे. लोक/५/१। सिधु-१-भरत क्षेत्रको प्रसिद्ध नदी-दे. मनुष्य/४; लोक/३/११२ भरत क्षेत्रस्थ एक कुण्ड जिसमें से सिन्धु नदी निकलती है-दे. लोक/३/१०३- हिमवान् पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/५/४:४- सिन्धु कूट सिन्धु कुण्डकी स्वामिनी देवी-दे. लोक३/१०-१-भरत क्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे. मनुष्य/४, ६-वर्तमान सिन्ध देश । कराची राजधानी है । (म. पु./प्र. ५० पन्नालाल )। सिंधु कक्ष-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । सिंह-एक ग्रह-दे, ग्रह। सिंहनिष्क्रीडित व्रत-यह व्रत जघन्य, मध्यम व उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारका है। निम्न प्रस्तार के अनुसार क्रमशः १,२ आदि उपवास करते हुए ६० उपवास पूरे करें। बीचके २० स्थानों में पारणा करे। प्रस्तार-जघन्य प्रस्तारमें मध्यका अंक है। पहलेके अंकोंमें दोदो अंकोंकी सहायतासे एक-एक बढ़ाता जाये और घटाता जाये। जैसे-१,२(२-१-१), (२+१-३), (३-१-२), (३+१४), (४-१-३), (४+१-), (५-१ ४); [५+१-६ यह विकल्प मध्यवाले पाँच अंकों को उल्लंघन कर जानेके कारण ग्राह्य नहीं। अतः यहाँ६ की बजाय का अंक ही रखना ] यहाँ तक प्रस्तारका मध्य आया। इसके आगे उलटा क्रम चलाइए अर्थात् १,४,५,३,४,२,३,१, २.१ । इस प्रकार जघन्य सिंहनिष्क्रीडित का प्रस्तार है।-१, २, १, ३,२,४, ३, ५,४, ५,४,५, ३, ४, २, ३,१,२, १-६०। जाप-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (ह. पू./३४/७७-७८) (बत विधान सं./१६) (किशनसिंह क्रियाकोष) विधि जघन्य वव है, प्रस्तार में कुछ अन्तर है जो नीचे दिया जाता है। मध्यम-प्रस्तार निकालनेकी विधि जघन्यबतही है। केवल मध्यमका अंक ५ की बजाय हहै। अर्थात् १, २, १, ३,२,४, ३.१.४, ६.५,७,६,८,७,८,६,८,७,८,६,७,५,६,४,५,३, ४, २, ३.१,२,११५३) नोट-व्रत विधान संग्रहमें निशान वाला आठका अंक नहीं है। १५३ की बजाय १४५ उपवास है। (ह.पु./ ३४/७४-५०) (बत विधान सं-1५७) (किशनसिंह क्रियाकोष) उत्कृष्ट प्रस्तार विधान जघन्यबत जानना । अन्तर केवल इतना है कि यहाँमध्यका अंक ५ की बजाय १६ है। शेष सर्व विधि जघन्यवत है। प्रस्तार-१,२, १, ३, २.४, ३, ५,४,६,५,७,६,८,७,६, ८.१०, ६,११,१०, १२, ११.१३. १२, १४, १३, १५, १४, १५, १६:१५, १४, १५, १३, १४, १२, १३, ११, १२, १०, ११, ६,१०,८,६.७८,६, ७,५,६,४,४, ५, ३, १, २,१-४६६ : स्थान ६१।। सिंहध्वज-विजयाईकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । सिंहनंदि-१. ई. ११२९ के दो शिलालेखों के अनुसार भानुनन्दि के शिल्य आ. सिद्धनन्दि योगीन्द्र गंग राजवंश की स्थापना में सहायक हुए थे। समय-ई. श.२। (ती./२/४४५) ।२. नन्दि संधमलास्कारगण में भाभूनम्दि के शिष्य और मसुनन्दि के गुरु । समय-शक ५०८-५२५ (ई. १८६-१९३)। (दे. इतिहास/७/२)। ३. सर्वनन्दि कृत 'लोक विभाग के संस्कृत रूपान्तर के रचयिता। (ति.प./प्र. १२/H.L. Jain) ४-गंगवशीय राजमलके गुरु के गुरु थे। तथा उनके मन्त्री चामुण्डरायके गुरु अजितसेनाचार्य के गुरु थे। राजा मल के अनुसार इनका समय-वि.सं. १०१०-१०१० ( ई.६५३-६७३) आता है । (बाहुबलि परित/श्लो. ६६११)१. नन्दि संघ बलात्कारगण की सूरत शाखा में मल्लिषेण के शिष्य और ब. नेमिदत्त के गुरु । लक्ष्मी चन्द (ई. १५१८) के समय में मालवा के भट्टारक थे। आपकी प्रार्थना पर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहपुर ही भट्टारक श्रुतसागर ने यशस्तिलक चन्द्रिका नामक टीका लिखी थी समय व १००-१५०५ (ई. १४९१-१३१०) (दे. इतिहास ७ / ४); ( यशस्तिलक चम्पू टीका की अन्तिम प्रशस्ति का अन्त) । - दे. इतिहास / ७ / ४ । ६. पंच नमस्कार मन्त्र माहात्म्य के कर्ता । समय - वि. श. १६ (ई. श. १६) । सोच/२ 1 सिंहपुर - विजयार्थी उत्तर अंगीका एक नगर दे. विद्याधर । सिंहपुरी - अपर विदेहस्थ सुपद्म क्षेत्रकी प्रधान नगरी सिंहरथ-बदेशी मुसीमा नगरीका राजा था। संयमी होकर १९ अंगोंका अध्ययन कर, सोलह भावनाओंका चिन्तन किया । तथा तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया । समाधिमरण कर सर्वार्थसिद्धिमें ब्रहमण्ड हुए (म. पु. ६०/२-१०) यह कुन्ध नाथ भगवान् का पूर्वका दूसरा भय है दे कुम्थुनाथ २सौदास का पुत्र था। सौदासके नरमांसाहारी होनेपर इसको राज्य दिया गया। ( प. पु. / २२ / १४४ - १४५ ) सिंहली महाबली के अनुसार राजा मुंज व भतृहरिके पिता थे। मालवा ( मगध ) के राजा थे। मुंजके अनुसार इनका समय ई. १०० - १४० आता है - दे. इतिहास / ३ / १ । का राजा था। सर्वम सिंहवर्मा इसके राज्यले २२३ वर्ष में 'लोक विभाग' नामका एक प्राकृत ग्रन्थ बनाया था। समय२०. ४३८) । (ति. १/प्र./१२ डॉ. हीरालाल ) । सिंहसूरि- ० परिशिष्ट सिंहसेन - १ - पुन्नाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप सुधर्म सेन के शिष्य तथा सुनन्दिषेणके गुरु थे। दे. इतिहास /५/८ । २(म. पु. / ५६ / श्लो, भरत क्षेत्र में सिंहपुरका राजा था (१४६) इनके मन्त्रीने वैरसे सर्प बनकर इसको खा लिया ( ११३ ) यह मरकर सक्कीममें हाथी हुआ (१६०) यह संजयन्त मुनिका पूर्वका सातवी भव है। 'संजय' सिकन्दर यूनानके बादशाह फिलिप्सका पुत्र था। मकदूनिया इसकी राजधानी थी। अरस्तूका शिष्य था। बड़ा पराक्रमी था । थोड़ी-सी आयु अफगानिस्तान, बलोचिस्तान, पंजाब आदि देशों को जीत लिया था। ई. पू. ३५६ में इसका जन्म हुआ । २० वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठा, बैठते ही देशोंपर विजय प्राप्त करनी प्रारम्भ कर दी। यूनान लौटते समय मार्ग में ही ई. पू. ३२३ में इसकी मृत्यु हो गयी। समय - ई. पू. २५६-३२३/ सिक्तानम सिक्तिनो असुरकुमार ( भवनवासीदेव ) - दे. असुर । भरत आर्य खण्डकी एक नदी - दे. मनुष्य / ४ | सिक्थ - दे. ससिक्थ | सितपट चौरासी पं. हेमराज (वि. श. १७ - १८) कृत भाषा छन्द बद्ध रचना है। जो श्वेताम्बराचार्य यशोविजयके दिग्पट चौरासी बोलके उत्तर में की गयी थी। इसमें श्वेताम्बर मतपर चौरासी आक्षेप किये गये हैं। (दे. हेमराज पाण्डे सिद्ध - दे. मोक्ष / ३ | - सिद्धय परिशिष्ट । सिद्ध केवली - दे. केवली / १/३ । सिद्धचक्र यन्त्र दे सिद्धचक्र विधान सिद्धचक्राष्टक पूजा ४२७ पाठ पूजापाठ सिद्धत्व-१ । घ. १९४२ सरस्यः पुंसोऽथान्तरं पृथक्। ज्ञानदर्शनसम्यगुणात्मकद ११४२३- आत्माकी सम्पूर्ण कर्मोंसे रहित ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व वीर्य आदि आठ गुण स्वरूप शुद्ध अवस्थाका होना ही सिद्धत्व है। २-जीवका पारिणामिक भाव हैदे पारिणामिक स्वभाव व्यंजन पर्याय है. पर्याय /२/१ सिद्ध पक्षाभास दे. 'पक्ष'। ---- सिद्धविनो | भगवान् महावीरकी शासक क्षण तीर्थकर /५/३ । सिद्धसाधन हेत्वाभास अि सिद्धसेन इस नाम के तीन आचार्य प्राप्त होते है-सिद्धसेन दिवाकर, सिद्धसेन गणी और सिद्धसेन । १. सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर तथा स्वेताम्बर दोनों आम्नायों में प्रसिद्ध हैं। कृषिसम्मति सूत्र, कल्याण मन्दिर स्तोत्र और कुछ द्वात्रिंशिकायें । समय - लगभग वि ६२५ । (दे, परिशिष्ट) । २. सिद्धसेन गणी यद्यपि श्वेताम्बर है परन्तु किसी कारण इन्हें क्योंकि दिगम्बर संघ का संसर्ग प्राप्त हो गया था इसलिए कुछ दिगम्बर संस्कार भी इनमें पाए जाते हैं कृतित्वृद्धि आचारसंग सूत्र वृत्ति, न्यायावतार, द्वात्रिंशिकायें। समय- बि. शन्दे, परिशिष्ट. पुनार संघ की गुर्वावली के अनुसार अभयसेन के शिष्य और अभयसेन द्वि. के गुरु । (वे. इतिहास / ७ / ८) । सिद्धहेम शब्दानुशासन शब्दकोश सिद्धान्त सिद्धान्त १. सिद्धान्त सामान्य निर्देश दे, प्रवचने/१ आगम, सिद्धान्त और प्रवचन एकार्थक हैं । ध. १ / १.१.१/७६/४ अपौरुषेयत्वतोऽनादिः सिद्धान्तः । अपौरुषेय होनेसे सिद्धान्त अनादि है। २. भेद व लक्षण न्या. सू./मू.टी./९/९/२८-३१ सम्प्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थितिः सिद्धान्त २६ सर्वतन्त्रप्रतितन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थिस्यर्थान्तरभावात् ॥ २७ ॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश यथा - सर्वतन्त्रविरुद्धस्तऽसि माणादीनीणिगादय इन्द्रियार्थाः पृथिव्यादीनि भूतानि प्रमाणैरर्थस्य ग्रहणमिति । समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः | २ | यसिद्धावन्यप्रकरणसिद्धिः सोऽधिकरणसिद्धान्तः |३०| यथा देहेन्द्रियव्यतिरिक्तो ज्ञाता । - अपरीक्षिताभ्युपगमात्तद्विशेषपरीक्षणमभ्युपगम सिद्धान्तः । १११ शास्त्र के अर्थकी संस्थिति किये गये अर्थको सिद्धान्त कहते हैं। उक्त सिद्धान्त चार प्रकारका है। सर्वतन्त्र सिद्धान्त, प्रतितन्त्र सिद्धान्त अधिकरण सिद्धान्त अभ्युपगम सिद्धान्त २६-२०११. उनमें से जो अर्थ सम शाखों में अविरुद्धतासे माना गया है उसे सर्वतन्त्र सिद्धान्त वहते हैं । अर्थात् जिस बात को सर्व शास्त्रकार मानते हैं जैसे घाण आदि पाँच इन्द्रिय, गन्ध आदि उनके विषय तथा पृथ्वी आदि पाँच भूत और प्रमाण द्वारा पदार्थोंका ग्रहण करना इत्यादि सब ही शास्त्रकार मानते हैं। १२८| २. जो बात एक शास्त्रमें सिद्ध हो, और दूसरेमें असिद्ध हो उसे 'प्रतितन्त्रसिद्धान्त' कहते हैं । २१ । ३. जिस अर्थ के सिद्ध होनेसे अन्य अर्थ भी नियमसे सिद्ध हो उसे अधिकरणसिद्धान्त कहते हैं । जैसे देह और इन्द्रियों भिन्न कोई जाने वाला है जिसे आत्मा कहते है ३० ४. बिना परीक्षा किये किसी पदार्थको मानकर उस पार्थकी विशेष परीक्षा करनेको अभ्युपगम सिद्धान्त कहते हैं |१| 1 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसागर ४२८ सुन्दरी *तर्क व सिद्धान्त रूप कथन पद्धति-दे. पद्धति । सिद्धान्तसार-१. भावसेन त्रैविद्य (ई. श. १३ मध्य) कृत ७०० श्लोक प्रमाण ग्रन्ध जिस पर प्रभाचन्द नं.६ (ई. श.१३ उस)कृत एक कन्नड़ टीका है। (ती./१/४५१)। २. जिनचन्द्र (वि. १५०७१५७१) कृत ७६ गाथा प्रमाण, जीवकाण्ड जिस पर ज्ञानभूषण (बि. १५३४-१५६१) कृत भाष्य है। (.११४९३)। सिद्धान्तसारसंग्रह-आ. नरेन्द्रसेन (ई. १०६८) द्वारा विरचित तत्त्वार्थ प्ररूपक संस्कृत छन्द बद्ध ग्रन्थ है। इसमें २२ अधिकार हैं तथा कुल १९२४ श्लोक प्रमाण है। (ती./२/४३३) । सिद्धान्तसेन-द्रविडसंघकी गुवविलीके अनुसार यह गोणसेनके गुरु तथा अनन्तवीर्यके दादा गुरु थे । ( समय. ई.६४०-१०००)-दे. इतिहास/६/३। सिद्धाभदेव भूतकालीन आठवें तीर्थकर-दे. तीर्थंकर/५ । सिद्धायतन कूट-वर्षधर पर्वत, गजदन्त, वक्षारगिरि आदि पर्वतोंमें प्रत्येक पर एक-एक सिद्धांयतन कूट है, जिसपर एक-एक जिनमन्दिर स्थित है।-दे. लोकाश। सिद्धाथ-१.अपर नाम सिद्वायतन-दे सिद्धायतन । २. विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर । ३. मानुषोत्तर पर्वतस्थ अब्जनमूलकूटका स्वामी भवनवासी सुपर्ण कुमार देव-दै. लोक/१०. ४.म.पू./६६/श्लो. कौशाम्बी नगरीके राजा पार्थिवके पुत्र थे। (४) अन्तमें दीक्षा ले तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया (१२-१५) तथा समाधिमरणकर अपराजित विमानमें अहमिन्द्र हुआ (१६) यह नमिनाथ भगवानका पूर्वका दूसरा भव है।-दे, नमिनाथ। ५. ह. पु./ सर्ग./श्लो. मलदेव (कृष्णका भाई ) का छोटा भाई था। यदि मैं देव हुआ तो तुम्हें सम्बोधूगा मलदेवसे यह प्रतिज्ञा कर दीक्षा ग्रहण की (६९/४१) स्ववचनानुसार स्वर्गसे आकर कृष्ण की मृत्युपर मलदेवको सम्बोधा (६३/६१-७१) ६. भगवान महावीर के पिता-दे सीर्थ कर। ७. एक क्षुल्लक था जिसने लब व कुशको शिक्षा दी थी (प.पू./१००/ ७. तावतार की पट्टावली के अनुसार आप नागसेन के शिष्य और धृतिषण के गुरु थे। ११ ग तथा १० पूर्वधारी थे। समयबी. नि. २४७-२८४ । तृतीय दृष्टि से पी. नि. ३०७-३२४ (दे. सिद्धार्था-एक विद्या-दे. 'विद्या'। इतिहास/४/४)। सिद्धि-सि वि./म./१२/६/सिद्धिश्चेदुपलब्धिमात्रम् । - उपलब्धि मात्रको सिद्धि कहते हैं। सिद्धिप्रिय स्तोत्र-बा- पूज्यपाद (ई. श. ५) कृत, २६ संस्कृत पदों मैं बद्ध चतुर्विशतिस्तव । (जै./२/२८०)। सिद्धिविनिश्चय-आ. अकलंक भट्ट (ई. ६२००६८०) कृत यह न्यायविषयक ग्रन्थ संस्कृत पद्य बद्ध है। इसपर रचयिता कृत ही एक स्वोपज्ञ वृत्ति है। इसमें १२ अधिकार हैं। मूल ग्रन्थमें कुल २८ श्लोक हैं । इस ग्रन्थ पर आ. अनन्तबीय (ई.१०५. १०२५) कृत एक संस्कृत टीका है । यह सर्व गद्य पद्य व टीका मिलकर २०४३०-८ साइज़के मुद्रित ६५० पृष्ठ प्रमाण है। (ती./२/३०६) सिरा-औदारिक शरीरमें सिराओं का प्रमाण-दे औदारिक//७)। सिरिपाल चरिउ-१. कवि राधु(दि.१४५७-१४५८) कृत श्रीपाल मैना सुन्दरी आख्याना अपभ्रंश काव्यं । (ती./४/२03) ब्रह्म दामोदर (वि. स. १६ उत्तरार्ध) कृत अपभ्रंश काव्य । (ती./ ४/१६६)। साता-१. विदेह क्षेत्रकी प्रधान नदी-दे. लोक/१/११ । २. विदेह क्षेत्रस्थ एक कुण्ड जिसमें से सीता नदी निकलती है-दे, लोक; 11/१०।३नील पर्वतस्थ एक कूट-दे.लोक/५/४। ४.सीता कुण्ड व सीता कूटकीस्वामिनीदेवी-दे.लोक/३/१०:५. माल्यवान् पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/१/४६.रुचक पर्वत निवासिनीदिवकुमारी देवी -दे. लोक/५/१३ । ७. वर्तमान पामीर प्रदेशके पूर्व से निकली हुई यारकन्द नदी है। चातुर्तीपक भूगोलके अनुसार यह मेरुके पूर्ववर्ती भद्राश्व महाद्वीपकी नदी है। चीनी लोग इसे अब तक सोतो कहते हैं। यह काराकोरमके शीतान नामक स्कन्धसे निकल कर पामीरके पूर्व की ओर चीनी तुर्किस्तान में चली गयी है । उक्त शीतान पुराणोंकी शीतान्त है। तकलामकोनकी मरुभूमिमें से होती हुई एक आध और नदियोंके मिल जाने पर 'तारीम' नाम धारण करके लोपनूप नामक खारी झीलमें जिसका विस्तार आजसे कहीं अधिक था जा गिरती है। इसका वर्णन वायु पुराणमें लिखा है-'कृत्वा द्विधा सिंधुमरून सीतागात पश्चिमोदधिम् (४७, ४३) सिन्धुमरु तकलामकानके लिए उपयुक्त नाम है। क्योंकि इसका बालू समुद्रवत् दीखता है। पश्चिमोदधिसे लोनपुर झीलका तात्पर्य है । (ज.प./प्र. १४० A N.Upadhye; H.L.Jain) सीता-प.पु./सर्ग./श्लोक-राजा जनककी पुत्री (२६/१२१) स्वयंवरमें रामके द्वारा वरी गयी ( २८/२४६) वनवासमें रामके संग गयी ( ३१/१६१ ) वहाँपर राम लक्ष्मणकी अनुपस्थितिमें रावण इसे हरकर ले गया (४४/८३-८४)। रावणके द्वारा अनेकों भय देनेपर अपने शीलसे तनिक भी विचलित न होना (४६/८२) रावणके मारे जाने पर सीता रामसे मिली (६/४६) । अयोध्या लौटने पर लोकापवादसे राम द्वारा सीताका परित्याग (१७/१०८१)। सीताकी अग्नि परीक्षा होना (१०५/२६)। विरक्त हो दीक्षित हो गयी। १२ वर्ष पर्यन्त तपकर समाधिमरण किया। तथा सोलहवें स्वर्गमें देवेन्द्र हुई (१०६/१७-१८)। सीतोदा-१. विदेह क्षेत्रकी प्रसिद्ध नदी-दे. लोक/३/११/२. विदेह क्षेत्रस्थ एक कुण्ड जिसमेंसे सीतोदा नदी निकलती है-दे.लोक/३/१०। ३. सीतोदा कूट व सीतोदा कुण्डकीस्वामिनी देवी-दे. लोक/२/१०% ४. विद्य प्रभविजयाका एक कूट-दे, लोक/१/४५.अपर विदेहस्थ एक विभंगा नदी-दे. लोका। सादियाचतीपके भद्राश्व व उत्तरकुरु और सोदिया एक ही मात है । (ज.प./प्र. १४० A.N up; H.L.Jain सोमकरभूतकालीन पञ्चम कुलकर-दे, शलाकापुरुष/४ । सीमंतक- प्रथम नरकका प्रथम पटल-दे. नरक/तयारत्न प्रभा। सीमंधर-भूतकालीन छठे कुलकर-दे, शलाकापुरुष/६ । सीमा-Boundary, (ध ५/प्र. २८)। सीमातीतसंख्या -Transfinite number (ध.५/प्र. २८)। गयुन-एक चीनी यात्री था। ई. ५२० में इसने भारतकी यात्रा __ की थी। (ति. ५/प्र. १४ हीरालाल )। सुन्दर-कुण्डल पर्वतस्थ स्फटिक कूटका स्वामी नागेन्द्र-देव. दे, लोक/५/१२ सुन्दरदास-इनको सन्त सुन्दरदास कहते थे। पं. बनारसीदास इनकी बहुत प्रशंसा करते हैं। समय-वि. १६५३-१७४६ । (हि. जै. सा.१/११७/कामता)। सुन्दरी-भगवान ऋषभदेवकी पुत्री थी। विरक्त होकर कुवारीने दीक्षा ग्रहण की। (ह.पु/१२/४२)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकक्ष ४२९ सुख * * GM सुकक्ष-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर--दे. विद्याधर । सुकच्छ -पूर्व विदेहका एक क्षेत्र -दे, लोक/१/२ । सुकच्छविजय-पूर्व विदेहस्थ चित्रकूट वक्षारगिरिका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक/५/४ | सुकुमाल चरित्र-आ सकल कीर्ति (ई. १४०६- १४४२) कृत संस्कृत पद्य बद्ध ग्रन्थ । (ती./३/३३२) सुकेतु-म.प्र./५६/श्लो, नं. श्रावस्ती नगरीका राजा था (७२)। जुए में सर्वस्व हारनेपर दीक्षा ग्रहणकर कठिन तप किया । (८२-८३) कला, चतुरता आदि गुणों का निदान कर लान्तव स्वर्ग में देव हुआ (८५) यह धर्म नारायणका पूर्वका दूसरा भव है -दे. धर्म । सुकौशल-१. मध्यप्रदेश। अपरनाम महाकौसल । (म. पु./प्र.४८ पन्नालाल)। २. प. पु./सर्ग/श्लोक राजा कीर्तिधरका पुत्र था। ( २२/१५६)। मुनि ( अपने पिता) की धर्मवाणी श्रवण कर दीक्षा ग्रहण कर ली (२२/४०)। तपश्चरण करते हुए को माताने शेरनी बन कर खा लिया (२२/१०)। जीवनके अन्तिम क्षणमें निर्वाण प्राप्त किया ( २२/६८)। सुख-सुख दो प्रकारका होता है-लौकिक व अलौकिक । लौकिक सुख विषय जनित होनेसे सर्वपरिचित है पर अलौकिक सुख इन्द्रियातीत होनेसे केवल विरागीजनोंको ही होता है। उसके सामने लौकिक सुख दुःख रूप ही भासता है। मोक्षमें विकल्पात्मक ज्ञान व इन्द्रियों का अभाव हो जानेके कारण यद्यपि सुखके भी अभावकी आशंका होती है, परन्तु केवलज्ञान द्वारा लोकालोकको युगपत जानने रूप परमज्ञाता द्रष्टा भाव रहनेसे वहाँ सुखकी सत्ता अवश्य स्वीकरणीय है, क्योंकि निर्विकल्प ज्ञान ही वास्तव में सुख है। अलौकिक सुखका कारण वेदनीय या आठों कर्मका अभाव। -दे. मोक्ष/३/३ ॥ अव्याबाथ सुखके अवरोधक कर्म। -दे, मोक्ष/३/३ । | सुख वहाँ है जहाँ दुःख न हो। शान ही वास्तव में सुख है। अलौकिक सुखमें लौकिकसे अनन्तपनेकी कल्पना । छमस्थ अवरथामें भी अलौकिक सुखका वेदन होता है। सिद्धोंके अनन्त सुखका सद्भाव । मोक्षमें अनन्त सुख अवश्य प्रकट होता है। -दे. मोक्ष/६/२। सिद्धोंका सुख दुःखाभाव मात्र नहीं है। सिद्धोंमें सुखके अस्तित्वको सिद्धि । कर्मों के अभावमें सुख भी नष्ट क्यों नहीं होता। इन्द्रियोंके बिना सुख कैसे सम्भव है। अलौकिक सुखकी श्रेष्ठता। अलौकिक सुखकी प्राप्तिका उपाय । दोनों सुखोंका भोग एकान्तमें होता है। -दे. भोग/७॥ १. सामान्य व लौकिक सुख निर्देश १. सुखके भेदोंका निर्देश | सामान्य व लौकिक सुख निर्देश सुखके भेदोंका निर्देश। लौकिक सुखका लक्षण । ३ लौकिक सुख वास्तवमें दुःख है। लौकिक सुखको दुख कहनेका कारण । ५ । लौकिक सुख शत्रु है। ६ | विषयोंमें सुख-दुःखकी कल्पना रुचिके अधीन है। सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिके सुखानुभवमें अन्तर । -दे. मिथ्यादृष्टि/४/१। मुक्त जीवोंको लौकिक सुख दुःख नहीं होता। लौकिक सुख बतानेका प्रयोजन । सुखमें सम्यग्दर्शनका स्थान । -दे, सम्यग्दर्शन//५। लौकिक सुख दुःखमें वेदनीय कर्मका स्थान । -वेदनीय/३। ९ सुख व दुःसमें कथंचित् क्रम व अक्रम । न. च. वृ./३६८ इंदियमणस्स पसमज आदत्यं तहय सोख चउभेयं । ।३६८। -सुख चार प्रकारका है-इन्द्रियज, मनोत्पन्न. प्रशमसे उत्पन्न और आत्मोत्पन्न । ने. च. वृ./१४ पर फुटनोट-इन्द्रियजमतीन्द्रियं चेति सुखस्य द्वौ भेदो। = इन्द्रियज और अतीन्द्रियज ऐसे सुखके दो भेद हैं। त. सा./८/४७ लोके चतुबिहार्येषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च।४१ - जगत में सुख शब्दके चार अर्थ माने जाते हैं-विषय, वेदनाका अभाव, पुण्यकर्मका फल प्राप्त होना, मुक्त हो जाना। २. लौकिक सुखका लक्षण अलौकिक सुख निर्देश अलौकिक सुखका लक्षण । अव्यायाध सुखका लक्षण । अतीन्द्रिय सुखसे क्या तात्पर्य । स. सि./४/२०/२५१/८. सुखमिन्द्रियार्थानुभवः । स. सि./५/२०/२८८/१२ सदसद्वेद्योदयेऽन्तरङ्गहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशातुत्पद्यमानः प्रोतिपरितापरूपः परिणाम. सुखदु खमित्यारल्यायते। इन्द्रियों के विषयों के अनुभव करनेको सुख कहते हैं (रा. वा./४/२०/३/२३५/१५) साता और असाता रूप अन्तरंग परिणाम के रहते हुए बाह्य द्रव्यादिके परिपाकके निमित्तसे जो प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं वे सुख और दुःख कहे जाते हैं। (रा. वा./५/२०/१/४७४/२२); (गो.जी./जी.प्र./६०६/ १०६२/१५)। न्या. वि./वृ./१/११५/४२८/२० पर उधृत-सुखमालादनाकारम् । -सुख आह्वाद रूप होता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख ४३० ध. १३/५,४,२४/५१/४ किलक्खणमेत्यसुहं । सयलबाहाविरहलक्खणं । - सर्व प्रकारको बाधाओंका दूर होना, यही प्रकृतने (ईयपथ आसव के प्रकरण में ) उसका ( सुखका ) लक्षण है । १२/५२६३/३/४ १ गमो हि गाम इष्ट अर्थ के समागम और अनिष्ट अर्थ के वियोगका नाम सुख है । उ.सा./८/४६४६ खाकःखभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ।४८ । पुण्यकर्म विपाकाच्च सुखनिष्टेन्द्रियार्थ..४६ - शीत ऋतु अग्निका स्पर्श और ग्रीष्म ऋतु हवाका स्पर्श सुखकर होता है । २. प्रथम किसी प्रकारका दुःख अथवा क्लेश हो रहा हो फिर उस दुःखका थोड़े समय के लिए अभाव हो जाये तो जीव मानता है मैं सुखो हो गया ।४८। ३ पुण्यकर्म विपाकसे इष्ट विषयको प्राप्ति होनेसे जो सुखका संकल्प होता है, वह सुखका तीसरा अर्थ है | ४ | दे. वेदनीय / वेदनाका उपशान्त होना, अथवा उत्पन्न न होना, अथमा दुःखान्तिके द्रव्योंकी उपलब्धि होना सुख है। २. लौकिक सुख वास्तव में दुःख है भ.आ./मू./१२४८-१२४१ भोगोभोग भोगणा सम्मि । एदेसु भोगणासे जातं दुक्खं पडिविसि । १२४८ ॥ देहे छुहादिमहिदे चलेय सत्तस्स होज्ज कह सोक्खं । दुक्खस्स य पडियारो रहस्सणं चैव सोक्खं खु । १२४६ | =भोगसाधनात्मक इन का वियोग होने से जो दुःख उत्पन्न होता है तथा भोगोपभोग से जो सुख मिलता है, इन दोनोंमें दुःख ही अधिक समझना । १२४८ ॥ यह देह भूख प्यास, शीत, उष्ण और रोगोंसे पीड़ित होता है, तथा अनित्य भी ऐसे देह में आसक्त होनेसे कितना सुख प्राप्त होगा । अन्य सुख की प्राप्ति होगी। दुःख निवारण होना अथवा दुःखकी कमी होना ही सुख है, ऐसा संसार में माना जाता है | १२४६ | प्र. सा./मू./६४, ७६ - जैसि विसयेसु रदी तेसि दुक्खं बियाण सम्भावं । जइतं ण हि सम्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥६४॥ सपरं बाधासहिय विच्छिणं अंधकारणं विसमं । जं इंदियेंहि लद्ध तं सोक्वं दुक्खमेव तहा ॥७६॥ [ जिन्हें विषयोंमें रति है उन्हें दुख स्वाभाविक जानो, क्योंकि यदि वह दुख स्वभाव न हो तो विषयार्थ में व्यापार न हो | ६४ | जो इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह सुख परसम्बन्धयुक्त, बाधासहित विच्छिन्न, बन्धका कारण और विषम है, इस प्रकार वह दुःख ही है (यो, सा, अ./१/३४) (पं. ध./ख./२४५)। स्व. स्तो. / ३ शतह्रदोन्मेषचलं हि सौख्यं -: तृष्णामयाप्यायन-मात्रहेतुः । तुष्णाभिवृद्धिरच उपरयन' सापस्तदायादः ॥ आपने पीडित जगत्को उसके दुःखका निदान बताया है किइन्द्रिय विषय बिजली की चमक के समान चंचल है. तृष्णा रूपी रोगकी वृद्धिका एकमात्र हेतु है, तृष्णाकी अभिवृद्धि निरन्तर ताप उत्पन्न करती है, और वह ताप जगत्‌को अनेक दुःख परम्परासे पीड़ित करता है । ( स्व. स्तो. / २०,३१,८२ ) । .../६ बासनामात्रमेतत्सुखं दुःखं च देहिनाम्। तथा शुद्धजयन्ये भोगा रोगा इवापदि । ६। संसारी जीवोंका इन्द्रिय सुख वासना मात्र से जनित होनेके कारण दुःखरूप ही है, क्योंकि आपत्ति काल में रोग जिस प्रकार चित्तमें उद्वेग उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार भोग भी उद्वेग करनेवाले हैं | ६ | प्र. साम / १९.१३ शिखिनोपपुरुषो दादुमय स्वर्ग११ दुःखमसमानानां उपाधिसम्पा मुपगतेषु रम्येषु विषयेषु रतिरुपजायते। ततो व्याधि स्थानीयवा दिन्द्रियाणां व्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च छद्मस्थानां न पारमार्थिक सौख्यम् ॥ ६३॥ जैसे अग्निसे गर्म किया हुआ वो किसी मनुष्य पर गिर जाये तो यह उसकी जनसे दुखी होता है, उसी प्रकार स्त्रर्ग के सुखरूप बन्धको प्राप्त होता है। अर्थात् स्वर्ग ऐन्द्रियक १. सामान्य व लौकिक सुख सुख-दुःख ही है । ११। दुःखके वेगको सहन न कर सकनेके कारण उन्हें (संसारी जीवों को ) रम्य विषयोंमें रति उत्पन्न होती है । इसलिए इन्द्रियाधिके समान होनेसे और विषय व्याधि प्रतिकार के समान होनेसे छद्मस्थोंके पारमार्थिक सुख नहीं है | ६३ | . मैन यो सा./अ/३/३६ सांसारिकं सुखं सर्वं दुखतो न विशिष्यते । यो यूद्धः स चारित्री न भव्यते ॥३६॥ सांसारिक सुख-दुःख ही हैं, सांसारिक सुख व दुःखमें कोई विशेषता नहीं है किन्तु मू प्राणी इसमें भेद मानता है वह चारित्र स्वरूप नहीं कहा जाता | ३६ | ( पं. वि. /४/७३) । का.अ././६९ देवापि सर्व मगहर बिसहि कीरदे दिहि | विसय वसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि । ६१| देवोंका सुख मनोहर विषयोंसे उत्पन्न होता है, तो जो सुख विषयोंके अधीन है वह दुःखका भी कारण है । ६१ । ये परिग्रह /३/३ परिग्रह दुःख व दुःखका कारण है। पं. ध. / २३८ ऐहिकं यत्सुखं नाम सर्व वैषयिकं स्मृतम् । न तत्सुखं लाभासं किंतु दुःखमसंशय ॥२३॥ जो लौकिक सुख है, अह सब इन्द्रिय विषयक माना जाता है, इसलिए वह सब केवल सुखाभास ही नहीं है, किन्तु निस्सन्देह दुःखरूप भी है । २३८ | निर्देश ४. लौकिक सुखको दुःख कहनेका कारण स. सि. / ७ /१०/३४९ / ३ ननु च तत्सर्वं न दुःखमेव; विषयरतिसुखसद्भावाद न रखः वेदनाप्रतीकारायनमत । - प्रश्न - ये हिंसादि सबके सब केवल दुःखरूप ही हैं, यह बात नहीं है, क्योंकि विषयोंके सेवन में सुख उपलब्ध होता है ! उत्तरविषयोंके सेवन से जो सुखाभास होता है वह सुख नहीं है, किन्तु दादको खुजलाने समान केवल बेदनाका प्रतिकारमात्र है। ५. लौकिक सुख शत्रु हैं 1 भ.आ./मू./१२०१ सर्व उत्पादिता पुरिसा पुरिसस्स होदि यदि सत् अदिस कदमाना भीगा सतू किए ती ।१२७१। = दुःख उत्पन्न करनेसे यदि पुरुष पुरुषके शत्रु के समान होते हैं, तो अतिशय दुःख देनेवाले इन्द्रिय सुख क्यों न शत्रु माने जायेंगे ! ( अर्थात् लौकिक सुख तो शत्रु हैं हो ) । ६. विषयोंमें सुख-दुःखकी कल्पना रुचिके अधीन है तिक्ता च शीतलं तोयं निम्बक्षीरं ज्वरार्तस्य संगह ममहाराज उजु - क. पा./१/१,१३-१४ / १२२०/गा. १२०/२७२ पुत्रादिर्मुद्रिका (डोका) फतम् । नीरोगस्य गुडादयः । १२० । क. पा./१/१.१३-१४/२२२ / सूत्र / २०७४ सुदस्स च सव्वं दव्वं पेज्जं । जं किंचि दव्वं नाम तं सव्वं पेज्जं चैत्र; कस्स वि जीवस्स कम्हि वि काले सव्वदव्वाणं पेज्जभावेण बट्टामाणामुन भादो से जहा विसं पिवजीवा कोडिया मरणमारमिचाणं हिंद-सह- पियकारणताो एवं पत्थरहा महासंभवेण पेहमानो मतव्य... विवेकमाणा हरिसुप्याययेत् परमाणुम्मि ) पि पेजभावसंभादो १. पित्त उवर मालेको कुटी हित म है, प्यासेको ठण्डा पानी सुख रूप है, किसीको पुत्रादि प्रिय द्रव्य पीड़ित रोगीको मोम हिठ और प्रिय इव्य है. दूध सुख और प्रिय द्रव्य है तथा नीरोग मनुष्यको गृह आदिक हित, सुख और प्रिय द्रव्य हैं । १२० । २. संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र की अपेक्षा समस्त द्रव्य पेज्जरूप हैं । जगमें जो कुछ भी पदार्थ हैं वे सत्र पेज्ज ही हैं, क्योंकि किसी न किसी जीवके किसी न किसी काल में सभी द्रव्य पेज्जरूप पाये जाते हैं । उसका स्पष्टी - करण इस प्रकार है - विष भी पेज है, क्योंकि विषमें उत्पन्न हुए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख ४३१ २. अलौकिक सुख निर्देश न. च. वृ./३६८...... अनुभवनं भवत्यात्मार्थम् ॥३६८१ = आत्मार्थ मुख आत्मानुभव रूप है । ( स्या, म./८/८६/१)। त. सा./८/४६ कर्मक्लेशविमोक्षाच मोक्षे सखमनुत्तमम् । कर्म जन्य क्लेशोंसे छूट जानेके कारण मोक्ष अवस्थामै जो सुख होता है, वह अनुपम सुख है। यो, सा, यो./१७ बज्जिय सयल-वियप्पई परम-समाहि लहति । जं विदहि साणंदु क वि सो सिव-सुक्ख भणति ।१७) = जो समस्त विकल्पोंसे रहित होकर परम समाधिको प्राप्त करते हैं, वे आनन्द का अनुभव करते हैं, वह मोक्ष सुख कहा जाता है ।। ज्ञा./२०/२४ अपास्य करणं ग्रामं यदारमन्यात्मना स्वयम् । सेव्यते योगिभिस्तद्धि सुखमाध्यात्मिक मतम् ।२४। जो इन्द्रियों के विषयों के बिना ही अपने आत्मामें आत्मासे ही सेवन करने में आता है उसको ही योगीश्वरों ने आध्यात्मिक सुख कहा है ।२४। २. अव्याबाध सुखका लक्षण द्र, सं./टो./१४/४३/५ सहजशुद्धस्वरूपानुभवसमुत्पन्नरागादिविभाव रहितसुखामृतस्य यदेकदेशसंवेदनं कृतं पूर्व तस्यैव फलभूतमव्यामाघसुख भण्यते। स्वाभाविक शुद्ध आत्म स्वरूपके अनुभवसे उत्पन्न तथा रागादि विभावोसे रहित सुखरूपी अमृतका जो एक देश अनुभव पहले किया था, उसीके फलस्वरूप अव्यायाध अनन्तसुख गुण सिद्धों में कहा गया है। जीवोंके, कोढ़ी मनुष्योंके और मरने तथा मारने की इच्छा रखने बाले जीवोंके विष क्रमसे हित, सुख और प्रिय भावका कारण देखा जाता है। इसो प्रकार पत्थरे, घास, ईधन, अग्नि और सुधा आदिमें जहाँ जिस प्रकार पेज्ज भाव घटित हो वहाँ उस प्रकारसे पेज्ज भावका कथन कर लेना चाहिए । ...परमाणुको विशेष रूपसे जानने वाले पुरुषों के परमाणु हर्ष का उत्पादक है। दे. राग/२/५ मोहके कारण हो पदार्थ इष्ट अनिष्ट है । पं, ध./पू./५५३ सत्यं वैषयिकमिदं परमिह तदपि न परत्र सापेक्षम् । सति बहिरर्थेऽपि यतः किल के चिदमुखादिहेतुत्वाव।५८३ =यहाँ पर यह संसारी सुख केवल वैषयिक है, तो भी पर विषयमें सापेक्ष नहीं है, क्योंकि निश्चयसे बाह्य पदार्थों के होते हुए भी किन्हींको वे असुखादिके कारण होते हैं ।५८३। ७. मुक्त जीवोंको लौकिक सुख-दु:ख नहीं होते प्र. सा./मू./२० सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स गरिथ देहगदं। जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु त णेयं ।२०। केवलज्ञानीके शरीर सम्बन्धी सुख या दुःख नहीं है, क्योंकि अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है, इसलिए ऐसा जानना चाहिए ।२०।। ध.१/१,१,३३/गा.१४०/२४८ ण वि इंदिय-करण-जुदा अवगहादीहि गाहया अत्थे । णेव य इंदिय-सोक्खा अणि दियाणतणाण-सुहा ।१४०। - वे सिद्ध जीव इन्द्रियों के व्यापारसे युक्त नहीं हैं, और अवग्रहादि क्षायोपशामिक ज्ञानके द्वारा पदाथोंका ग्रहण नहीं करते; उनके इन्द्रिय सुख भी नहीं है। क्योंकि उनका अनन्त ज्ञान व मुख अनिन्द्रिय है ।१४०। (गो, जी./भू./१७४) । स्या. म./८/६/३ मोक्षावस्थायाम, सुखं तु वैषयिकं तत्र नास्ति । -मोक्ष अवस्थामें वैषयिक सुख भी नहीं है। ८. लौकिक सुख बतानेका प्रयोजन द्र. सं./टी./६/२३/१० अत्र यस्यैव स्वाभाविकसुखामृतस्य भोजनाभावादिन्द्रियसुखं भुञ्जानः सन् संसारे परिभ्रमति तदेवातीन्द्रियसुखं सर्वप्रकारेणोपादेयमित्यभिप्रायः। यहाँ पर जिस स्वाभाविक सुखामृतके भोजनके अभावसे आत्मा इन्द्रियों के सुखोंको भोगता हुआ संसारमें भ्रमण करता है, वही अतीन्द्रिय सुख सब प्रकारसे ग्रहण करने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है। ९. सुख व दुःखमें कथंचित् क्रम व अक्रम प.ध./उ./३३३-३३५ न चैकतः सुखव्यक्तिरेकतो दुःखमस्ति तत् । एकस्यैकपदे सिद्धमित्यनेकान्तवादिनाम ।३३३। अनेकान्तः प्रमाण स्थादर्थादेकत्र वस्तुनि। गुणपर्याययोद्वैताद गुणमुख्यव्यवस्थया ।३३४। अभिव्यक्तिस्तु पर्यायरूपा स्यात्सुखदुखयोः। तदात्वे तन्न तदद्वैतं द्वैत चेद् द्रव्यतः क्वचित् ।३३५॥ यह कहना ठीक नहीं कि एक आत्माके एक ही पदमें अनेकान्तवादियों के अंगीकृत किसी एक दृष्टिसे सुखकी व्यक्ति और किसी एक दृष्टिसे दुःख भी रहता है ।३३३। वास्तवमें एक वस्तुमें गौण और मुख्यकी व्यवस्थासे गुण पर्यायोंमें द्वैत होनेके कारण अनेकान्त प्रमाण है।३३४। परन्तु सुख और दुःखको अभिव्यक्ति पर्यायरूप होती है इसलिए उस सुख और दुःखको अवस्थामें वे दोनों युगपत् नहीं रह सकते। यदि उनमें युगपत द्वैत रहता है तो दो भिन्न द्रव्यों में रह सकता है पर्यायोंमें नहीं ॥३३॥ २. अलौकिक सुख निर्देश १. अलौकिक सुखका लक्षण म. पु./४२/११६...मनसो निवृति सौख्यम् उशन्तीह विचक्षणाः ॥११॥ - पण्डित जन मनकी निराकुलताको ही सुख कहते हैं । (प्र. सा/ त,प्र./५१) । ३. अतीन्द्रिय सुखसे क्या तात्पर्य स.सा./आ /४१५/५१०/७ हे भगवन् ! अतीन्द्रियसुख निरन्तर व्याख्यात भवद्भिस्तच्च जनैर्न ज्ञायते। भगवानाह-कोऽपि देवदत्तः स्त्रीसेवनाप्रभृतिपञ्चेन्द्रियविषयव्यापाररहितप्रस्तावे निव्र्याकुलचित्तः तिष्ठति, स केनापि पृष्टः भो देवदत्त ! सुखेन तिष्ठसि त्वमिति । तेनोक्त सुखमस्तीति तत्सुखमतीन्द्रियम् ।...यत्पुनः...समस्तविकल्पजालरहिताना समाधिस्थपरमयोगिना स्वसवेदनगम्यमतीन्द्रियसुख तद्विशेषेणेति। यच्च मुक्तात्मनामतीन्द्रियसुखं तदनुमानगम्यमागमगम्यं च । -प्रश्न-हे भगवन ! आपने निरन्तर अतीन्द्रिय ऐसे मोक्ष सुखका वर्णन किया है, सो ये जगत्के प्राणी अतीन्द्रिय सुखको नहीं जानते हैं ! इन्द्रिय सुखको ही सुख मानते हैं। उत्तर --जैसे कोई एक देवदत्त नामक व्यक्ति, स्त्री सेवन आदि पंचेन्द्रिय व्यापारसे रहित, व्याकुल रहित चित्त अकेला स्थित है उस समय उससे किसीने पूछा कि हे देवदत्त, तुम मुखी हो, तब उसने कहा कि हाँ सुखसे हूँ। सो यह सुख अतीन्द्रिय है। (क्योंकि उस समय कोई भी इन्द्रिय विषय भोगा नहीं जा रहा है।) ...और जो समस्त विकल्प जालसे रहित परम समाधिमें स्थित परम योगियों के निर्विकल्प स्वसंवेदनगम्य वह अतीन्द्रिय सुख विशेषतासे होता है। और जो मुक्त आत्माके अतोन्द्रिय सुख होता है, वह अनुमानसे तथा आगमसे जाना जाता है। (प.प्र./टी./२/81 ४. सुख वहाँ है जहाँ दुःख न हो आ. अनु./४६ स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् । ...४६ -धर्म वह है जिसके होने पर अधर्म न हो, सुख वह है जिसके होने पर दुःख न हो...। पं.ध./उ./२२४ नैवं यतः सुखं नैतत् तत्सुखं यत्र नासुखम् । स धर्मो यत्र नाधर्मस्तच्छभं यत्र नाशुभम् ॥२४४-ऐहिक सुख नहीं है, क्योंकि वास्तवमें वही सुख है, जहाँ दुःख नहीं, वही धर्म है जहाँ अधर्म नहीं है, वही शुभ है जहाँ पर अशुभ नहीं है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख ४३२ २. अलौकिक सुख निर्देश ५. ज्ञान ही वास्तवमें सुख है 'न. च. वृ./४०३ सोक्खं च परागसोक्वं जीवे चारित्तसंजुदे दिट्ठ। बढइ तं. जइवग्गे अणवरयं भावणालीणे ।४०३ -चारित्रसे संयुक्त प्र. सा./मू./६० जं केवलं ति णाणं तं सोक्वं परिणामं च सो चेव।। तथा भावना लीन यतिवर्गमें निरन्तर परम सुख देखा जाता है। खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ।६० =जो केवल पं.वि./२३/३ एकत्वस्थितये मतिर्यनिशं संजायते मे तयाप्यानन्दः नामका ज्ञान है, वह सुख है, परिणाम भी वही है। उसे खेद नहीं परमात्मसंनिधिगतः किंचित्समुन्मीलति । किंचिरकालमवाप्य सैव कहा गया है, क्योंकि घाती कर्म क्षयको प्राप्त हुए हैं 101 सकले: शीलैर्गुणैराश्रितां। तामानन्दकलां विशालविलसदबोधी स. सि./१०/४/४६८/१३ ज्ञानमयत्वाच्च सुखस्येति। -मुख ज्ञानमय करिष्यत्यसौ।३। - एकत्व की स्थितिके लिए जो मेरी निरन्तर बुद्धि होता है। होती है, उसके निमित्तसे परमात्माकी समीपताको प्राप्त हुआ आनन्द ६. अलौकिक सुखमें लौकिकसे अनन्तपने की कल्पना कुछ थोड़ा सा प्रकट होता है। वही बुद्धि कुछ काल प्राप्त होकर भ. आ./मू./२१४८-२१५१ देविंदचकवट्टी इंदियसोक्खं च जं अणुवहति । समस्त शीलों और गुणों के आधारभूत एवं प्रक्ट हुए उस विपुल सहरसरूवगंधफरिसप्पयमुत्तमं लोए ।२१४८। अव्याबाधं च सुह ज्ञानसे सम्पन्न आनन्दकलाको उत्पन्न करेगी।३।। स्या, म./01८७/२५ इहापि विषयनिवृत्तिज सुखमनुभवसिद्धमेव । - सिद्धाजं अणुहवंति लोगग्गे । तस्स ह अणं तभागो इंदियसोखं तयं होज्ज ।२१४६। जं सब्वे देवगणा अच्छरसहिया सुहं अणुहवं ति। संसार अवस्थामें भी विषयों की निवृत्तिसे उत्पन्न होने वाला सुख तत्तो वि अणतगुणं अव्वाबाहं सुहं तस्स ।२१५०। तिम वि कालेसु अनुभवसे सिद्ध है। प.प्र./टी./२/११८ दीक्षाकाले...स्वशुद्धात्मानुभवने यत्सुखं भवति मुहाणि जाणि माणुसतिरिक्रब देवाणं । सव्वाणि ताणि ण समाणि जिनवराणां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतौ जीवस्तत्सुखं लभत इति । तस्स खणमित्तसोबखेण १२१५१॥ =स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द इत्यादिकोंसे जो सुख देवेन्द्र चक्रवर्ती वगैरहको प्राप्त होता है, जो -दीक्षाके समय तीर्थंकर देव निज शुद्ध आत्माको अनुभवते हुए जो कि इस लोक में श्रेष्ठ माना जाता है, वह सुख सिद्धोंके सुखका निर्विकल्प सुखको पाते हैं, वही सुख रागादि रहित निर्विकल्प अनन्तयाँ हिस्सा है, सिद्धोंका सुख बाधा रहित है, वह उनको समाधिमें लीन विरक्त मुनि पाते हैं । (और भी दे. सुख/२/१०) लोकाग्रमें प्राप्त होता है ।२१४८-२१४६। अप्सराओंके साथ जिस ८. सिद्धोंके अनन्त सुखका सद्भाव है सुखका देवगण अनुभव करते हैं, सिद्धोंका सुख उससे अनन्त गुणित है, और बाधा रहित है ।२१५०) तीन कालमें मनुष्य, तिर्यंच और रा.वा./१०/४/१०/६४३/१८ यस्य हि मूर्तिरस्ति तस्य तत्पूर्व कः प्रीतिपरिदेवोंको जो सुख मिलता है वे सब मिलकर भी सिद्धके एक क्षणके तापसंबन्धः स्यात, न चामूर्तानां मुक्तानां जन्ममरणद्वन्द्वोपनिपातसुखको भी बराबरी नहीं करते ।२१५१। (ज्ञा./४२/६४-६८) व्याबाधास्ति, अतो नियबाधत्वात् परमसुखिनस्ते। -मूर्त मू. आ./११४४ जं च काममुहं लोए जं च दिब्वमहामुहं । वीतराग अवस्थामें ही प्रीति और परितापकी सम्भावना थी। परन्तु अमूर्त मुहस्सेदे पंतभागंपि णग्घई ।११४४। - लोकमें विषयोंसे जो उत्पन्न ऐसे मुक्त जीवोंके जन्म, मरण आदि द्वन्द्वोंकी बाधा नहीं है। पर सुख है, और जो स्वर्गमें महा सुख है, वे सब वीतराग सुखके अनन्तवें सिद्ध अवस्था होनेसे वे परम सुखी हैं। भागकी भी समानता नहीं कर सकते हैं ।११४४। (ध. १३/५,४,२४/ ध. १/१,१,१/गा, ४६/५८ अदिसयमाद-समुत्थ विसयादीदं अणोक्मगा.५/५१) मणतं । अन्वुच्छिण्णं च सुहं सुधुवजोगो य सिद्धाणं ।४६। अतिप. प्र.//१/११७ जं मुणि लहइ अणं त-सुहु णिय अप्पा झायतु । तं शय रूप आत्मासे उत्पन्न हुआ, विषयोंसे रहित, अनुपम, अनन्त मुह इंद वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु ।११७। -अपनी आत्मा और विच्छेद रहित सुख तथा शुद्धोपयोग सिद्धोंके होता है ।४६॥ को ध्यावता परम मुनि जो अनन्तसुख पाता है, उस सुखको इन्द्र भी ध.१/१,१,३३/गा, १४०/२४८ णेव य इंदियसोक्खा अणि दियाणंतकरोड़ देवियों के साथ रहता हुआ नहीं पाता ।११७) णाण-सहा ।१४०।-सिद्ध जीवों के इन्द्रिय सुख भी नहीं है, क्योकि ज्ञा./२१/३ यत्सुखं वीतरागस्य मुनेः प्रशमपूर्वकम्। न तस्यानन्तभागोऽपि उनका अनन्त ज्ञान और अनन्त मुख अनिन्द्रिय है। (गो. जी./ प्राप्यते त्रिदशेश्वरैः ।३। =जो मुख वीतराग मुनिके प्रशमरूप भू./१७४) विशुद्धता पूर्वक है उसका अनन्तवाँ भाग भी इन्द्रको प्राप्त नहीं त. सा./5/४५ संसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अव्यावाधहोता है ।। मिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ।४॥-सिद्धोंका सुख संसारके विषयोंत्रि, सा./५६० चक्किकुरुफणिसुंरिंददेवहमिदे जं सुहं तिकालभवं । तत्तो से अतीत. स्वाधीन, तथा अव्यय होता है । उस अविनाशी सुखको अणंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि ।।६० - चक्रवर्ती, भोगभूमिज, अव्यायाध कहते हैं ।४५॥ धरणेन्द्र, देवेन्द्र और अहमिन्द्रके; इनके क्रमशः अनन्तगुणा अनन्तगुण स्था.म./८/८६/३ पर उधृत श्लोक-सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीसुख है । इन सबका त्रिकाल में होने वाला अनन्त सुख एकत्रित करने न्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीया दुष्प्रापमकृतात्मभिः। -जिस पर भी सिद्धोंके एक क्षण में होने वाला सुख अनन्त गुणा है ।५६०। अवस्थामें इन्द्रियोंसे बाहा केवल बुद्धिसे ग्रहण करने योग्य आत्यन्तिक (बो. पा./टी./१२/८२ पर उदधृत) सुख विद्यमान है वही मोक्ष है। स्या. म./4/08/४ मोक्षे निरतिशयक्षयमनपेक्षममन्तं च सुखं तद वाढं ७. छद्मस्थ अवस्थामें भी अलौकिक सुखका वेदन विद्यते। -निरतिशय, अक्षय और अनन्त सुख मोक्षमें विद्यमान है। होता है ९. सिद्धोंका सुख दुःखाभाव मात्र नहीं है दे. अनुभव/४/३ आत्मरत होने पर तेरे अवश्यमेव वचनके अगोचर अनन्त सुख होगा। ध. १३/५,५,१६/२०८/८ किमेत्य सुहमिदि घेव्पदे । दुक्खुवसमो मुहं प.प्र./न./१/११८ अप्पा दंसणि जिणवरह जं सुहु होइ अणंतु । तं सुहु णाम । दुक्खक्खओ मुहमिदि किण्ण घेपदे । ण, तस्स कम्मक्ख एणुलहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु ॥११८। - शुद्धारमाके दर्शनमें प्पज्जमाणस्स जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो।-प्रश्न-प्रकृतजो अनन्त सुख जिनेश्वर देवोंके होता है, वह सुख वीतराग भावनासे में ( वेदनीयकर्म जन्य सुख प्रकरणमें) सुख शब्दका क्या अर्थ लिया परिणत हुआ मुनिराज निजशुद्धात्मस्वभावको तथा रागादि रहित गया है । उत्तर-प्रकृतमें दुःखके उपशम रूप मुख लिया गया है। शान्त भावको जानता हुआ पाता है ।११८। प्रश्न-दुःस्वका क्षय मुख है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? उत्तर-नहीं, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख क्योंकि, वह कर्मके क्षयसे उत्पन्न होता है। तथा वह जीवका स्वभाव है, अतः उसे कर्म जनित मानने में विरोध आता है। स्या, म./८/८६/न चायं सुखशब्दो दुःखाभावमात्रे वर्तते। मुख्यसुखवाच्यतायां बाधकाभावाद। अयं रोगाद विप्रमुक्तः सुरखी जात इत्यादिवाक्येषु च सुखीति प्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसङ्गाच्च । दुःखाभावमात्रस्य रोगाद विप्रमुक्त इतीयतैव गतत्वात् । न च भवदुदीरितो मोक्षः पुंसामुपादेयतया संमतः । को हि नाम शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुं यतेत । दुःखसंवेदनरूपत्वादस्य सुखदुःखयोरेकस्याभावेऽपरस्यावश्यभावात् । अत एव त्वदुपहासः श्रूयतेवरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्ट्टत्वमभिवाडिछतम् । न तु वैशेषिकी मुक्ति गौतमो गन्तुमिच्छति। यहाँ पर (मोक्षमें ) मुखका अर्थ केवल दुःखका अभाव ही नहीं है। यदि सुखका अर्थ केवल दुःखका अभाव ही किया जाये, तो 'यह रोगी रोग रहित होकर सुखी हुआ है' आदि वाक्योंमें पुनरुक्ति दोष आना चाहिए। क्योंकि उक्त सम्पूर्ण वाक्य न कहकर 'यह रोगी रोग रहित हुआ है. इतना कहनेसे ही काम चल जाता है। तथा शिलाके समान सम्पूर्ण सुखोंके संवेदनसे रहित वैशेषिकोंकी मुक्तिको प्राप्त करनेका कौन प्रयत्न करेगा। क्योंकि वैशेषिकों के अनुसार पाषाणकी तरह मुक्त जीव भी मुखके अनुभवसे रहित होते हैं । अतएष सुखका इच्छुक कोई भी प्राणी वैशेषिकोंकी मुक्तिकी इच्छा न करेगा। तथा यदि मोक्षमें मुखका अभाव हो, तो मोक्ष दुःख रूप होना चाहिए। क्योंकि सुख और दुःख में एकका अभाव होने पर दूसरेका सद्भाव अवश्य रहता है। कुछ लोगोंने वैशेषिकोंकी मुक्तिका उपहास करते हुए कहा है, "गौतम ऋषि वैशेषिकों की मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा वृन्दावनमें शृगाल होकर रहना अच्छा समझते हैं।" रा.वा./१०/६/१४/उद्धत श्लो० २४-२६/६१० "स्यादेतदशरीरस्य जन्तोर्नष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्यत्र मे शृणु ।२४।। लोके चतुविहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते। विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च १२५॥ सुखो वह्निः सुखो वायुविषयेष्विह कथ्यते । दुखाभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ।२६। पुण्यकर्म विपाकाच्च सुख मिष्टेन्द्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षाच्च मोक्षे सुखमनुत्तमम् ॥२७॥ सुषुप्तावस्थया तुल्या केचिदिच्छन्ति निर्वृतिम् । तदयुक्त क्रियावत्त्वात सुखानुशयतस्तथा ।२८श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात । महोत्पत्तिविपाकाच्च दर्शनध्नस्य कर्मणः। -प्रश्न-अशरीरी नष्ट अष्टकर्मा मुक्त जीवके कैसे क्या सुख होता होगा ! उत्तर-लोकमें सुख शब्दका प्रयोग विषय वेदना का अभाव, विपाक, कर्मफल और मोक्ष इन चार अर्थों में देखा जाता है । 'अग्नि मुखकर है, वायु सुखकारी है।' इत्यादिमें सुख शब्द विषयार्थक है। रोग आदि दुःखोंके अभावमें भी पुरुष 'मैं सुखी हूँ' यह समझता है। पुण्य कर्मके विपाकमे इष्ट इन्द्रिय विषयोंसे मुखानुभूति होती है और क्लेश के विमोक्षसे मोक्ष का अनुपम सुख प्राप्त होता है ।२३-२७। कोई इस मुखको सुषुप्त अवस्थाके समान मानते हैं, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें सुखानुभव रूप क्रिया होती है और सुषुप्त अवस्था तो दर्शनावरणी कर्मके उदयसे श्रम, क्लम, मद, व्याधि, काम आदि निमित्तोंसे उत्पन्न होती है और मोह विकार रूप है ।२८-२६ । १०. सिद्धोंमें सुखके अस्तित्व की सिद्धि आ, अनु./२६७ स्वाधीन्याददुःखमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम् । स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धाः सुखिनः कथम् - तपस्वी जो स्वाधीनता पूर्वक कायक्लेश आदिके कष्टको सहते हैं वह भी जब उनको सुखकर प्रतीत होता है, तब फिर जो सिद्ध स्वाधीन सुखसे सम्पन्न हैं वे सुखी कैसे न होंगे अर्थात अवश्य होंगे। दे. सुख/२/३ इन्द्रिय व्यापारसे रहित समाधिमें स्थित योगियों को २. अलौकिक सुख निर्देश वर्तमानमें सुख अनुभव होता है और सिद्धोंको सुख अनुमान और आगमसे जाना जाता है। पं. ध/३०/३४८ अस्ति शुद्ध सुखं ज्ञानं सर्वतः कस्यचिद्यथा। देशतोऽप्यस्मदादीनां स्वादुमात्र बत द्वयोः ।३४८/mजैसे किसी जीवके सर्वथा सुरव और ज्ञान होने चाहिए क्योंकि खेद है कि हम लोगोंके भी उन शुद्ध सुख तथा ज्ञानका एकदेश रूपसे अनुभव मात्र पाया जाता है। (अर्थात जब हम लोगोंमें शुद्ध सुख का स्वादमात्र पाया जाता है तो अनुमान है किसीमें इनकी पूर्णता अवश्य होनी चाहिए ) ३४८ ११. कोंके अभावमें सुख भी नष्ट क्यों नहीं होता ध.६/३५-३६/४ सुह दुक्खाई कम्मे हितो होति, तो कम्मेसु विणठेसु सुह-दुवरखवज्जएण जीवेण होदव्वं ।...जं किं पि दुवं णाम तं असादावेदणीयादो होदि, तस्स जीवसरूवत्ताभावा ।...मुहं पुण ण कम्मादो उप्पज्ज दि,...ण सादावेदणीयाभावो वि, दुक्खुवसमहेउसुदव्वसंपादणे तस्स बाबारादो। -प्रश्न-यदि सुख और दुःख कर्मोसे होते हैं तो कर्मोके विनष्ट हो जाने पर जीवको मुख और दुःखसे रहित हो जाना चाहिए ! उत्तर-दुःख नामकी जो कोई भी वस्तु है वह असाता वेदनीय कर्मके उदयसे होती है, क्योंकि वह जीवका स्वरूप नहीं है।...किन्तु सुख कर्म से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि वह जीवका स्वभाव है ।...सुखको जीवका स्वभाव मानने पर साता वेदनीय कर्म का अभाव भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, दुःख उपशमन के कारणभूत सुद्रव्योंके सम्पादनमें साता वेदनीय कर्म का व्यापार होता है । १२. इन्द्रियोंके बिना सुख कैसे सम्भव है द्र. सं./टी./३७/१५५/४ इन्द्रियसुखमेव सुख, मुक्तात्मनामिन्द्रियशरीराभावे पूर्वोक्तमतीन्द्रियसुखं कथं घटत इति। सांसारिक सुख तावत खीसेवनादि पञ्चेन्द्रियविषयप्रभवमेव, यत्पुनः पञ्चेन्द्रियविषयव्यापाररहिताना निर्व्याकुलचित्तानो पुरुषाणां मुखं तदतीन्द्रियसुखमत्रैव दृश्यते ।...निर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिना रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्वशेषेणातीन्द्रियम् । -प्रश्न-जो इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है वही सुख है, सिद्ध जीवोंके इन्द्रियों तथा शरीरका अभाव है, इस लिए पूर्वोक्त अतीन्द्रिय सुख सिद्धोंके कैसे हो सकता है। उत्तर-संसारी सुख तो स्त्रीसेवनादि पाँचों इन्द्रियोंसे ही उत्पन्न होता है, किन्तु पाँचौ इन्द्रियों के व्यापारसे रहित तथा निर्व्याकुल चित्त बाले पुरुषों को जो उत्तम सुख है वह अतीन्द्रिय है। वह इस लोकमें भी देखा जाता है ।...निर्विकल्प ध्यानमें स्थित परम योगियों के रागादिके अभावसे जो स्वसंवेद्य आत्मिक सुख है, वह विशेष रूपसे अतीन्द्रिय है। प्र. सा./मू./६५ पप्पा इठे विसये फासेहि समस्सिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहोश-स्पर्शादिक इन्द्रियाँ जिसका आश्रय लेती हैं, ऐसे इष्ट विषयोंको पाकर ( अपने अशुद्ध) स्वभावसे परिणमन करता हुआ आत्मा स्वयं ही सुख रूप होता है। देह सुख रूप नहीं होती। (त. सा./८/४२-४५) दे. प्रत्यक्ष/२/४ में.प्र. सा. यह आरमा स्वयमेव अनाकुलता लक्षण मुख होकर परिणमित होता है। यह आस्माका स्वभाव ही है। त, अनु०/२४१-२४६ ननु चाास्तदर्थानामनु भोक्तुः सुखं भवेत् । अतीन्द्रियेषु मुक्तेषु मोक्षे तरकीदृशं सुखम् ।२४०। इति चेन्मन्यसे मोहात्तन्न श्रेयो मतं यतः। नाद्यापि वत्स ! त्वं वेरिस स्वरूप सुखदुःखयोः ।२४१॥ आरमायत्तं निराबाधमतीन्द्रियमनश्वरम् । घातिकर्मक्षयोदभूतं यत्तन्मोक्षसुखं विदुः ।२४२॥ तन्मोहस्यैव माहात्म्य विषयेभ्योऽपि यत्सुखम् । यत्पटोलमपि स्वादु श्लेष्मणस्तद्विज म्भितम् ।२७। यदत्र चक्रिणा सौख्यं यच्च स्वर्गे दिवौकसाम् । कलयापि न तत्तुल्य भा०४-५५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंध सुखस्य परमात्मनाम् ।२४६। प्रश्न-सुख तो इन्द्रियोंके द्वारा उनके विषय भोगनेवालेके होता है, इन्द्रियोंसे रहित मुक्त जीवोंके बह सुख कैसे ? उत्तर-हे वत्स, तू जो मोहसे ऐसा मानता है वह तेरी मान्यता ठीक अथवा कल्याणकारी नहीं है क्योंकि तूने अभी तक (वास्तवमें) सुख-दुःखके स्वरूपको ही नहीं समझा है । (२४०-२४१) जो घातिया कर्मोंके क्षयसे प्रादुर्भूत हुआ है, स्वात्माघीन है, मिराबाध है, अतीन्द्रिय है, और अनश्वर है, उसको मोक्ष सुख कहते हैं।२४२। इन्द्रिय विषयों से जो सुख माना जाता है वह मोहका ही माहात्म्य है। पटोल ( कटु वस्तु) भी जिसे मधुर माल्लम होती है तो वह उसके श्लेष्मा (कफ) का माहात्म्य है। ऐसा समझना चाहिए ।२४३। जो सुख यहाँ चक्रों को प्राप्त है और जो सुख देवों को प्राप्त है वह परमात्माओंके सुखकी एक कलाके (बहुत छोटे अंशके ) बराबर भी नहीं है ।२४४ त्रि. सा./५१६ एयं सत्थं सव्वं वा सम्ममत्थं जाणता। तिव्वं तुस्संति णरा किण्ण समत्थस्थतच्चाह ।५५६॥ एक शास्त्र को सम्यक् प्रकार जानते हुए इस लोकमें मनुष्य तीन सन्तोष को प्राप्त करते हैं, तो समस्त तत्व स्वरूपके ज्ञायक सिद्ध भगवन्त के से सन्तोष नहीं पावेंगे ? अर्थात पाते ही हैं १५५६। (बो. पा./टी./१२/८२ पर उद्धृत) पं.ध./उ./श्लोक नं. ननु देहेन्द्रियाभावः प्रसिद्धपरमात्मनि । तदभावे सुखं ज्ञान सिद्धिमुन्नीयते कथम् ।३४६। ज्ञानानन्दौ चितो धर्मो नित्यौ द्रव्योपजीविनौ। देहेन्द्रियाद्यभावेऽपि नाभावस्तइद्वयोरिति ।।४।। ततः सिद्ध शरीरस्य पञ्चाक्षाणां तदर्थ सात् । अस्त्यकिंचित्करत्वं तच्चित्तो ज्ञानं सुखं प्रति ।३५६-प्रश्न-यदि परमात्मामें देह और इन्द्रियोंका अभाव प्रसिद्ध है तो फिर परमात्माके शरीर तथा इन्द्रियों के अभाव में सुख और ज्ञान कैसे कहे जा सकते हैं।३४६। उत्तर-आत्माके ज्ञान और सुख नित्य तथा द्रब्यके अनुजीवी गुण हैं, इसलिए परमात्माके देह और इन्द्रिय के अभावमें भी दोनों (ज्ञान और सुख ) का अभाव नहीं कहा जा सकता है ।३४६। इसलिए सिद्ध होता है कि आत्माके इन्द्रियजन्य ज्ञान और सबके प्रति शरीरको पाँचों ही इन्द्रियोंको तथा इन्द्रियविषयौंको अकिंचित्करत्व विपर्ययः ११८७। -इष्ट वस्तुकी हानिसे शोक और फिर उससे दुःख होता है तथा उसके लाभसे राग और फिर उससे सुख होता है। इसलिए बुद्धिमान् मनुष्यको इष्टकी हानिमें शोकसे रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिए ।१८६। जो प्राणी इस लोकमें मुखी है, वह परलोकमें सुखको प्राप्त होता है. जो इस लोकमें दुःखी है वह परलोकमें दुःखको प्राप्त होता है। कारण कि समस्त इन्द्रिय विषयों से विरक्त हो जानेका नाम सुख और उनमें आसक्त होनेका नाम ही दुःख है ।१८७१ दे. सुख/२/३ वीतराग भावमें स्थिति पानेसे साम्यरस रूप अतीन्द्रिय सुखका वेदन होता है। सुखकारण व्रत-जिस-किसी मासमें प्रारम्भ करके एक उपवास पारणा क्रमसे ४३ महीने तक ६८ उपवास करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (व्रत विधान संग्रह/पृ. ८४); (किशन सिंह क्रियाकोष) सुखदुःखोपसंयत-दे. समाचार । सुखबोध-पं.योगदेव भट्टारक (वि. श.१६-१७) कृत तत्त्वार्थ सूत्र वृत्ति जो सर्वार्थ सिद्धि का संक्षिप्तीकरण मात्र है। (जै./२/३६८)। सुखमा काल-दे. काल/४ । सुख शक्ति-स.सा./आ./परि/शक्ति५ अनाकुलत्वलक्षणा सुख शक्तिः । - आकुलतासे रहितपना जिसका लक्षण है, ऐसी मुख शक्ति है। सखसंपत्ति व्रत-इस व्रतकी विधि तीन प्रकारसे कही है-उत्तम, मध्यम व जघन्य । उत्तमविधि-१५ महीने तक १पडिमा, २ दोज, ३ तीज, ४ चौथ, ५ पंचमी, छठ, ७ सप्तमी, ८ अष्टमी, नवमी, १० दशमी, ११ एकादशी, १२ द्वादशी, १३ त्रयोदशी, १४ चतुर्दशी, १५ पूर्णिमा, १५ अमावस्या; इस प्रकार कुल १३५ दिनके लगातार १३५ उपवास उन तिथियों में पूरे करे। (व्रत. वि.सं.में १३५ के बजाय १२० उपवास बताये हैं, क्योंकि वहाँ पन्द्रहका विकल्प एक बार लिया है। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (वसु. श्रा,/३६५-३७२ ); (बत विधान सं./पृ. ६६) (किशनसिंह क्रियाकोष) मध्यमविधि-उपरोक्त ही १२० उपवास तिथियोंसे निरपेक्ष पाँच वर्ष में केवल प्रतिमासकी पूर्णिमा और अमावस्याको पूरे करे। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (बत विधान सं./६७); (किशनसिह क्रियाकोष) जघन्य विधि-जिस किसी भी मासकी कृ.१ से शु.१तक १६ उपवास लगातार करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य। (व्रतविधान सं./पृ. ६७); (किशनसिंह क्रियाकोष)। सुखानुबंध-स, सि./७/३७/३७२/६ अनुभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्धः । = अनुभवमें आये हुए विविध सुखोंका पुन:पुनः स्मरण करना सुखानुबन्ध है । (रा. वा./७/३७/६/५५६/७) रा. वा./हि./७/३७/५८१ पूर्व सुख भोगे थे तिनि सुप्रीति विशेषके निमित्त ते बार-बार याद करना तथा वर्तमान में सुख ही चाहना सो सुरवानुबन्ध है। सुखावह अपर विदेहस्थ एक वक्षार, उसका एक कूट तथा उस कूटका स्वामी देव-दे. लोक./५/३ । सुखासन-दे. आसन। सुखोदय क्रिया-दे. संस्कार/२। सुगंध-१. दक्षिण अरुणाभास द्वीपका रक्षक देव-दे, व्यन्तर/४/७; २.अरुण समुद्रका रक्षक व्यन्तर देव-दे. व्यन्तर/४/७ । १३. अलौकिक सुखकी श्रेष्ठता भ. आ././१२६६-१२७०/१२२५ अप्पायत्ता अझपरदी भांगरमण परायतं। भोगरदीए चइदो होदि ण अज्झप्परमणेण ।१२६६। भोगरदीए णासो णियदो विग्धा य होति अदिबहगा। अज्झप्परदीए सुभाविदाए णासो ण विग्धो वा ।१२७०। -स्वात्मानुभव में रति करनेके लिए अन्य द्रव्यकी अपेक्षा नहीं रहती है, भोग रतिमें अन्य पदार्थों का आश्रय लेना पड़ता है। अतः इन दोनों रतियों में साम्य नहीं है। भोगरतिसे आत्मा च्युत होनेपर भी अध्यात्म रतिसे भ्रष्ट नहीं होता, अतः इस हेतुसे भी अध्यात्म रति भोग रतिसे श्रेष्ठ है ११२६१। भोगरतिका सेवन करनेसे नियमसे आत्माका नाश होता है, तथा इस रतिमें अनेक विघ्न भी आते हैं। परन्तु अध्यात्म रतिका उत्कृष्ट अभ्यास करनेपर आत्मा नाश भी नहीं होता और विघ्न भी नहीं आते। अथवा भोगरति नश्वर तथा विघ्नों से युक्त है, पर अध्यात्म रति अविनश्वर और निर्विघ्न है। १४. अलौकिक सुख प्राप्तिका उपाय स.श./मू./४१ आरम विभ्रमजं दुःख मात्मज्ञानात्प्रशाम्यति । शरीरादिमें आत्मबुद्धिसे उत्पन्न दुःख आत्मस्वरूपके अनुभव करनेसे शान्त हो जाता है। आ. अनु./१८६-१८७ हानेः शोकस्ततो दुःख लाभाद्रागस्ततः सुखम् । तेन हानावशोकः सन् सुरखो स्यात्सर्वदा सुधीः १८६। सुखी सुख- मिहान्यत्र दुःखी दुःखं समश्नुते । सुखं सकलसंन्यासो दुःखं तस्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंध दशमी व्रत सुप्रभ सुगंधित सुगंधदशमी व्रत-१० वर्षतक भाद्रपद शु. १० को उपवास तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप। (व्रतविधान संग्रह/पृ.८७); (किशनसिंह क्रियाकोष)। सुगधा-अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र । अपरनाम वगु/-दे. लोक तो-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर सुगत-स. श./टी./२/२२३/२ शोभनं गतं ज्ञानं यस्यासौ सुगतः, सुष्ठु वा अपुनरावर्त्य गतिं गतं, सम्पूर्ण वा अनन्तचतुष्टयं गतः प्राप्तः सुगतः । = जिसका ज्ञान शोभाको प्राप्त हुआ है वह सुगत है । अथवा जो उत्तम मोक्ष गतिको प्राप्त हुआ है, अथवा जिसमें सम्पूर्ण अनन्त चतुष्टय प्राप्त हुए हैं, वह सुगत है । (द्र. सं./टी./१४/४७)। सुगात्र-वरांगका पुत्र (वरांग चरित्र/२८/५)। सुग्रीव-(प. पु./सर्ग/श्लोक...किष्किन्ध पुरके राजा सूर्यरजका पुत्र था तथा बालीका छोटा भाई था। (१/१०) आयुके अन्त में दीक्षित हो गया। (११६/३६) सुचक्षु-१. उत्तर मानुषोत्तर पर्वतका रक्षक व्यन्तर देव-दे. व्यन्तर/४/७। २. बाह्य पुष्कराधका रक्षक व्यन्तर देव-दे. व्यन्तर/४/७। सुचरित मिश्र-मीमांस दर्शनके टीकाकार।-दे.मीमांसा दर्शन। सुतारा-सुग्रीवकी पत्नी थी। साहसगति नामक विद्याधर उसको चाहता था। (प. पू./१०/५-११) सुदर्शन-१.विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधरः २. सुमेरु पर्वतका अपर नाम- दे. सुमेरुः ३. मानुषोत्तर पर्वतस्थ स्फटिक कूट का स्वामी भवनवासी सुपर्ण कुमार देव-दे. लोक/५/२०% ४. रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे.लोक ६/१३:५. नव वेयक स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक--दे स्वर्ग/३६, भगवान वीरके तीर्थ में अन्तकृत केवली हुए-दे. अंतकृत; ७. पूर्वभव नं.२ में वीतशोका पुरीका राजा था। पूर्व भवमें सहसार स्वर्गमें देव हुआ। वर्तमान भवमैं पंचम बलभद्र हुए हैं। (म. पु./६१/६६-६१) विशेष-दे. शलाका पुरुष/३ ८. चम्पा नगरीके राजा वृषभदासका पुत्र था। महारानी अभयमती इनके ऊपर मोहित हो गयीं. परन्तु ये ब्रह्मचर्य में पढ़ रहे । रानीने क्रुद्ध होकर इनको सूलीकी सजा दिलायी, परन्तु इनके शीलके प्रभावसे एक व्यन्तरने सूलीको सिंहासन बना दिया। तब इन्होंने विरक्त हो दीक्षा ग्रहण कर ली। इतने पर भी छलसे रानीने इनको पडगाह कर तीन दिन तक कुचेष्टा की। परन्तु आप ब्रह्मचर्य में अडिग रहे। फिर पीछे बनमै घोर तप किया। उस समय रानीने वैरसे क्यन्तरी बनकर घोर उपसर्ग किया। ये उपसर्गको जीत कर मोक्ष धाम पधारे। (सुदर्शन चरित्र ) सदर्शन चरित्र-१, आ, नयनन्दि (ई. ११३-१०४३) कृत अपभ्रंश काव्य (ती./३/२२५) । २. सकल कीर्ति (ई.१४०६-१४४) कृत १०० श्लोक प्रमाण संस्कृत ग्रन्थ (ती./३/३३३)। ३.विधानन्दि भट्टारक (मि. १५३८) कृत संस्कृत ग्रन्थ । (सी./३/४०५) । सुदर्शन व्रत-दे. दर्शन विशुद्धि । सुवास-यह वैवस्वतयमकी ५२वीं पीढ़ी में इक्ष्वाकु वंशी राजा था। वेदों में इसकी बड़ी प्रशंसा की जाती है जबकि जैनागममें इसकी निन्दा की गयी है। समय-ई.पू. २२०० (रामा कृष्ण द्वारा संशोधित इक्ष्वाकु वंशावली) सुधर्म-भूतावतारकी पट्टावली के अनुसार आप भगवान् वीरके पश्चाव दूसरे केबली हुए। अपर नाम लोहार्य था । समय-बी. नि. १२-१४ (ई.पू. ५१५.५०३)-दे. इतिहास/४/४५ सुधर्म सेन-पुन्नाट संघको गुर्वावलीके अनुसार आप धरसेन (श्रुतावतारसे भिन्न ) के शिष्य तथा सिंहसेनके गुरु थे। -दे. इतिहास/9/८ । सुधमा-सौधर्म इन्द्रकी सभा । विशेष-दे. सौधर्म । सुनंदिषण-१.पुन्नाट संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप सिंहसेन के शिष्य तथा ईश्वरसेनके गुरु थे। दे. इतिहास/9/८, २. पुन्नाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप ईश्वरसेनके शिष्य तथा अभयसेन के गुरु थे। - दे. इतिहास/१८ । सुनक्षत्र-महावीरके तीर्थ में अनुत्तरोपपादक--दे. अनुत्तरोपपादक । सुनपथ-प्रवाससे लौटनेपर अर्जुन इसमें रहने लगा (पा, पु./१६/६) क्योंकि यह कुरुक्षेत्रके निकट है अत: वर्तमान सोनीपत ही सुनपथ है। सुपना-१. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र-दे. लोक ५/२१२. श्रद्धावाद वक्षारका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक/१/४। सुपण-ध. १३/५४५,१४०/३६१/८ सुपर्णा नाम शुभपक्षाकारविकरणक्रिया। - शुभ पक्षों के आकार रूप विक्रय करने में अनुराग रखनेवाले सुपर्ण कहलाते हैं। सुपणं कुमार--१, भवनबासी देवोंका एक भेद-दे. भवन/१/४, २. सुपर्ण कुमार देवोंका लोकमें अवस्थान--दे. भवन/४ । सुपार्श्वनाथ-१. पूर्वभव नं.२ में धातकी खण्डके क्षेमपुर नगरमें नन्दीषण राजा था। पूर्व भवमें मध्य प्रेवेयकमें अहमिन्द्र । वर्तमान भवमें सप्तम तीर्थकर हुए हैं (म. पु./५३/२-१५) विशेष-दे. तीर्थंकर/५। २. भाविकालीन तीसरे तीर्थकर। अपर नाम सप्रभु। -दे, तीर्थंकर/।। सपाश्र्वनाथ स्तोत्र-आ. विद्यानन्दि (ई.७७५-८४०) द्वारा रंचित संस्कृत छन्द बद्ध स्तोत्र है । इसमें तीस श्लोक हैं। सुप्त-दे, निद्रा। सप्रकीर्ण-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे, लोक/२/१३। सुप्रणिधि-रुचक पर्वत निवासिनी दियकुमारी देवी-दे. लोक:/९३ सप्रतिष्ठ-१. रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे.लोक१३५२.हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्र का पुत्र था। दीक्षा लेकर ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया। तथा सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया। समाधिमरण कर अनुत्तर विमानमें अहमिन्द्र पद पाया। (म. पु./७०/५१-५६) यह नेमिनाथ भगवानका पूर्वका दूसरा भव है। --दे. नेमिनाथ। ३. यह पंचम रुद्र थे-दे, शलाका पुरुष/७1 सप्रबंध-रुचक पर्वतस्थ एक कूट--दे. लोक/५/१३ ॥ सुप्रबुद्ध-१. मानुषोत्तर पर्वतस्थ प्रवाल कूट व उसका स्वामी भवनवासी सुपर्ण कुमार देव-दै. लोक।१०:२. नवग्रे वेयकका तृतीय पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/२/३ । सुप्रबुद्धा-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी--दे, लोक/१३ । सुप्रभ-१. कुण्डल पर्वतस्थ एक कूट--दे. लोक/५/१२:२. दक्षिण धृतबर द्वीपका रक्षक देव---दे. व्यं तर/४/७। ३. उत्तर अरुणीवर द्वीपका रक्षक देव-दे. व्यंतर/४/७। ४. पूर्व भव नं.२ में पूर्व विदेह के नन्दन नगरमें महाबल नामक राजा था। पूर्व भम सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ। वर्तमान भवमें चौथे बलदेव थे । (म.पू/६०/५८-- ६३) । विशेष परिचय--दे. शलाका पुरुष/३ । जनेन्द्र सिवान्त कोश Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रभा सुप्रभा लोक / ५ /११ । सुप्रयोग - भरत क्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी -- दे. मनुष्य / ४ ॥ सुप्रीति क्रिया दे संस्कार/२ सुभग- १. सुभग व दुर्मंग नामकर्मके लक्षण नन्दीश्वर द्वीपको उत्तर दिशा में स्थित एक वापी स. सि / ८ /११/३६१/११ यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत्सुभगनाम । यदुदयावागित्रीतिकरस्त दुर्भगनाम जिसके उदयसे अन्य जन प्रीतिकर अवस्था होती है वह सुभग नामकर्म है। जिसके उदय रूपादि गुणोंसे युक्त होकर भी अनीतिक अवस्था होती है यह दुग नामकर्म है (रा. ना. /-/ १२ / २१-२४/५००/३९) (गो. क. at, 5/23/20/8/8k)! - ध. ६/१,६-१,२८/६५/१ स्थी-पुरिमाणं सोहग्गणिव्वत्तयं सुभगं णाम । खिचेन भाविव्यथयं दृवं गामश्री और पुरुषोंके सौभाग्यको उत्पन्न करने वाला सुभग' नामकर्म है। उन स्त्री पुरुषो के ही दुर्भग भाव अर्थात् दौर्भाग्यको उत्पन्न करने वाला दुर्भग नामकर्म है । (ध. १३/५, ५, १०९ / ३६५ /१४) । ૪૬. २. एकेन्द्रियोंमें दुर्मंग भाव कैसे जाना जाये घ. ६/११-१२०/६/२ ९६ दिवादिसुम चेट्ठे कथं सुब-दुभावा णज्जंते । ण, तत्थ तं समव्वत्ताणमागमेण अत्थित्तसिद्धीदो । - प्रश्न - अव्यक्त चेष्टा वाले एकेन्द्रियादि जीवों में सुभग और दुर्भग भाव कैसे जाने जाते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि एकेन्द्रिय आदिमें अव्यक्त रूपसे विद्यमान उन भावोंका अस्तित्व आगमसे सिद्ध है । सुभट वर्मा - भोजवंशी राजा था। भोजवंशकी वंशावलीके अनुसार यह राजा वर्मा (विजयवर्मा) के पुत्र और अर्जु पिता था। मालवा देशका राजा था और उज्जैनी व धारा राजधानी भी समय वि १२७-१२६४ ई. १२००-१२०० विशेष- ३, इतिहास /३/११ • सुभद्र - १. यक्ष जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद - दे. यक्ष, २. नव बेकका पाँच पटक दे. स्वर्ग २/३३. अरुणीवर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव - दे. व्यन्तर / ४ /७ 1४. नन्दीश्वर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव - दे. व्यन्तर / ४ /७ । ५. रुचक पर्बतस्थ एक कूट- दे. लोक ५/१३१६. श्रुतावतारकी पट्टावली के अनुसार आप भगवान् वीर के पश्चात मूल गुरु परम्परामें दश अंगधारी अथवा दूसरी मान्यतानुसार केवल आचारांग धारी थे। समय-वी. नि. ४६८-४७४ ई. पू. ५६६३ - इतिहास / ४/४ । सुभद्रा -पा. पु. / १६ / श्लोक - कृष्णकी बहन थी । (१६/३६) अर्जुनने हरण कर ( १६ / ३६ ) इसके साथ विवाह किया ( १६ / ५६ ) इससे अभिमन्युकी उत्पत्ति हुई (१६/१०१) अन्तम दीक्षा ले (२३/१५) घोर तप कर सोलहवें स्वर्ग गयी (२५ / १४१ ) । सुभाषितरत्न संदोह - १. आ. योगेन्दुदेव ( ई. श. ६) कृत सुभाषिततन्त्र' नामक आध्यात्मिक ग्रन्थ (दे, योगेन्दु) । २. आ. अमितगति द्वारा वि. १०५० (ई. १६३) में लिखा गया ६२२ संस्कृत श्लोक प्रमाण आध्यात्मिक ग्रन्थ (जै./१/३८०) । सुभाषितरत्नावली- आ.भन्द्र (ई. १६१६-१६६६) द्वारा रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ दे, शुभचन्द्र । सुभाषितार्णव आ. शुभचन्द्र (ई. १५१६-१२१६) द्वारा रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ | सुभीम-राक्षसोंका इन्द्र । इसने सगर चक्रवर्ती के प्रतिद्वन्द्वी पुत्र सुमेरु वाहनको अजितनाथ भगवान के समवसरण में अभयदानार्थ संकाका राज्य दिया था। ( प. पु. / ५ / १६०) । सुभौम-पूर्व भव नं. २ में भरत क्षेत्रमें भूपाल नामक राजा था। पूर्व में महाशुक्र स्वर्ग देव हुआ। वर्तमान भवनें अष्टम चक्रवर्ती हुआ (म. पु. ६०/६१-५३) विशेष परिचय दे शलाका पुरुष / २ सुमति - पूर्व भवनं २ में घातकी मण्डमें पुष्कलावती देशका राजा था। पूर्व में वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुआ। वर्तमान भवनें पंचम तीर्थंकर थे (म. पु. / ५१/२-११) विशेष परिचय दे तीर्थंकर / ५ । २. आप मल्लवादी नं. १ के शिष्य थे। समय- वि. ४३६ (ई. १८३ ) . (सि. वि. / प्र.३४०. महेन्द्र ) । सुमतिकीर्तिमाकारी गुरुपरम्परा • नन्द विद्यानन्दमचन्द्र वरचन्दनभूषण सुमतिकीर्ति कृतिये पंचसंग्रह की संस्कृत वृति ज्ञानभूषण के साथ मिलकर 'कर्म प्रकृति' की टीका । समय-- पंचसंग्रह वृत्ति का रचनाकाल वि. १६२० अतः वि. १६९१-९६३० (जै./१/४२४, ४५७): (ती./३/२७८.तिहास /०/४) सुमनस-नव ग्रैवेयकका पाँचवाँ पटल व इन्द्रक - दे. स्वर्ग /५/३/ सुमागधी- पूर्वी मध्य आर्य खण्डकी एक नदी -- दे. मनुष्य / ४ | सुमाली - रामका दशदा था। इन्द्र नामक विद्याधरसे हारकर पाताल लंका में रहने लगा था ( प. पु. / ७ /१३३) । सुमित्र - म.पु. / ६१ / श्लोक - राजगृह नगरका राजा बहुत बड़ा मल्ल था (५७-५८) राजसिंह नामक मल्लसे हारने पर (५६-६० ) निर्वेद पूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली (६२)। बड़ा राजा बनने का निदान कर स्वर्ग में देव हुआ (६१-६२) यह पुरुषसिंह नारायणका पूर्वका दूसरा भय है। वे पुरुषसिंह सुमुख. पृ./१४/ श्लोक बरसदेशकी कौशाम्बी नगरीका राजा था (६) एक समय वनमाला नामक स्त्रीपर मोहित होकर (३२-३३) दूती भेजकर उसे अपने घर बुलाकर भोग किया (६४१०७) आहारदानसे भोगभूमिकी आयुका बन्ध किया । वज्रपात गिरने से मरकर विद्याधर हुआ ( १५ / १२-१८ ) यह आर्य विद्याधरका पूर्वका भव है । - दे. आर्य I सुमुखी - विजयार्थी दक्षिणी नगर विद्यार सुमेधा - सुमेरु पर्वतके नन्दन वनमें स्थित निषधकूटकी दिक्कुमारी देवी-दे. सो०/२/२ सुमेरु- - मध्यलोकका सर्व प्रधान पर्वत है । विदेह क्षेत्रके बहुमध्य भागमें स्थित स्वर्णवर्ण व कूटाकार पर्वत है यह ज एक घातकी लण्डने दो, पुष्करार्थ द्वीपमें दो पर्वत हैं. इस प्रकार कुल ५ सुमेरु हैं । इसमें से प्रत्येक पर १६ - १६ चैत्यालय हैं। इस प्रकार पाँचों मेरुके कुल ८० चैत । विशेष /३/६ १. सुमेरुका व्युत्पत्ति अर्थ रा.मा./३/१०/११/१८१/६ सो विनासीति मेरुः इति। तीनों छोकों का मानदण्ड है, इसलिए इसे मेरु कहते हैं। २. इसके अनेक अपर नाम ह. पृ./५/३७३-३७६ वज्रमूलः सबै डूर्य चूलिको मणिभिश्चितः । विचित्राश्चर्य संकीर्णः स्वर्णमध्यः सुरालयः ॥ ३७३ ॥ मेरुश्चैव सुमेरुश्च महामेरुः सुदर्शनः । मन्दरः शैलराजश्च वसन्तः प्रियदर्शनः ॥ ३७४ ॥ रत्नोच्यो दिशामादिलो कनाभिर्मनोरमः । लोकमध्यो दिशामन्त्यो दिशामुत्तर एव च ॥ ३७५॥ सूर्याचरणविख्यातिः सूर्यावर्तः स्वयंप्रभः । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोषा Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयश ४३७ सुषमा काल इत्थं सुरगिरिश्चेति लब्धवणेः स वर्णितः ५३७६ -वज्रमूल, सुरेश्वर-शंकराचार्य के शिष्य । समय-ई. ८२०-दे. वेदान्त/९/२। सवैडूर्य चूलिक, मणिचित, विचित्राश्चर्यकीर्ण, स्वर्णमध्य, सुरालय, मेरु, सुमेरु, महामेरु, सुदर्शन, मन्दर, शैलराज, वसन्त, प्रियदर्शन, सुलस-देवकुरुके १० द्रहोंमेंसे दो का नाम-दे. लोक रत्नोच्चय, दिशामादि, लोकनाभि, मनोरम, लोकमध्य, दिशा- सुलसा-चारण युगलकी पुत्री थी। सगर चक्रीने षड्यन्त्र रचकर मन्त्य, दिशामुत्तर, सूर्याचरण, सूर्यावर्त, स्वयंप्रभ, और सूरगिरि- - इसको विवाहा था। अन्तमें महाकाल द्वारा रचे हिंसायज्ञमें यह इस प्रकार विद्वानोंने अनेकों नामों के द्वारा सुमेरु पर्वतका वर्णन होमी गयी थी। (म. पु./६७/२१४-३६३)। किया है ।३७३-३७६ । सलोचन-बिहायसतिलक नगरका राजा । सगरचक्रीका ससुर (प. * सुमेरु पर्वतका स्वरूप-दे. लोक/३/६ । पु./५/७७-७८)। ३. वर्तमान विद्वानोंकी अपेक्षा सुमेरु सलोचना-म.पू./सर्ग/श्लोक...पूर्वभव नं.४ में रतिवेगा नामक सेठ सुता थी ( ४६/१०५,८७) तीसरेमें रतिषणा कबूतरी (४६/८६) ज. प./प्र. १३६,१४१ A.N. up,H.LJain वर्तमान भूगोलका पामीर दूसरे में प्रभावती (४६१४८) पूर्व भव में स्वर्गमें देव थी (४६/२५०) प्रदेश वही पौराणिक मेरु है। जिसके पूर्व से यारकंद नदी (सीता) वर्तमान भवमें काशी राजाके अकम्पनकी पुत्री थी (४३/१३५) । निकलती है और पश्चिम सितोदसरसे आमू दरिया निकलता है। भरतचक्रीके सेनापति जयसेनसे विवाही गयी (४३/२२६-२९६) । इसके दक्षिणमें दरद ( काश्मीरमें बहनेवाली कृष्णगंगा नदी) है। भरतसुत अर्ककीर्तिने इसके लिए जयसेनसे युद्ध किया। परन्तु इसके इसके उत्तरमें थियानसानके अंचलमें बसा हुआ देश ( उत्तरकुरु), अनशनके प्रभावसे युद्ध समाप्त हो गया (४५/२-७) तम जयसेनने पूर्व में मुजताग (मूंज ) एवं शीतान (शीतान्त) पर्वत, पश्चिममें इसको अपनी पटरानी बनाया (४५/१८१) एक समय देवी द्वारा मंदख्शा (वैदूर्य) पर्वत, और पश्चिम-दक्षिणा में हिंदूकुश (निषध) पतिके शील की परीक्षा करनेपर इसने उस देवीको भगा दिया (४७/पर्बत स्थित है ।१३। पुराणोंके अनुसार मेरुकी शरावाकृति है । इधर २६८-२७३ ) । अन्तमें पतिके दीक्षा लेनेपर शोकचित्त हो स्वयं भी वर्तमान भूगोलके अनुसार 'पामीर देश' चारों हिन्दुकुश, कारा दीक्षा ले ली। तथा घोर तपकर अच्युत स्वर्गमें जन्म लिया। कोरम, काशार और अन्ताई पर्वतसे घिरा होनेके कारण शरावाकार आगामी पर्यायसे मोक्ष होगा। (४७/२८६-२८६।। हो गया है । इसी पामीर देशको मेरु कहते हैं। पामीरमें शब्द आश्लिष्ट है, क्योंकि यह शब्द सपादमेरुका जन्य है । मेरुके सम्बन्ध- सुर्वक्षु-इसके कई रूप मिलते हैं यथा-सुचक्षु, सुवक्षु, एवं सपक्षु । में भी सपाद मेह' मेरुके महापादका व्यवहार प्रायः हुआ है । अतः इसकी उत्पत्ति मेरुके पश्चिमी सर सितोदसे कही गयी है, यह व्युत्पत्ति अशंकनीय है। इसी प्रकार काश्मीर शब्द भी मेरुका जहाँसे निकलकर 'नानाम्लेच्छगणैर्युक्तः' केतुमाल महाद्वीपसे महती अंग जान पड़ता है, क्योंकि काश्मीर शब्द कश्यपमेरुका अपभ्रंश । हुई, यह पश्चिम समुद्र में चली गयी है। वर्तमान आमू दरिया वा है। नीलमत पुराणके भी अनुसार काशमीर कश्यपका क्षेत्र है। और आक्शस हो सुवक्षु है, यह निर्विवाद है। इसके मंगोलियन नाम तैत्तिरीय आरण्यक/१/७ में कहा गया है कि महामेरुको अरण्यक अक्शू और बक्श, तिब्बती नाम पक्शू, तथा चीनो नाम पो-स वा नहीं छोड़ता। फो-रसू, तथा आधुनिक स्थानिक नाम बखिश बखश और बखा उक्त संस्कृत नामोंसे निकले हैं। प्राचीन कालसे अभी थोड़े दिन सुयश-मानुषोत्तर पर्वतस्थ सौगन्धिक कूटका स्वामी भवनवासी पहले तक पामोरके पश्चिमी भागवाली सिरीकोल फील (विक्टोरिया सुपर्णकुमार देव-दे. लोक/७॥ लेक) उसका उद्गम मानी जाती थी, जो पौराणिक सितोद सर सुर-ध. १३/५,५,१४०/३६९/७ तत्र अहिंसाद्यनुष्ठानरतयः सुरा नाम । हुई। इन दिनों यह आराल में गिरती है. किन्तु पहले कैस्पियनमैं -जिनकी अहिंसा आदिके अनुष्ठानमें रति है वे सुर कहलाते हैं। गिरती थी। यही चतुर्तीपी भूगोलका पश्चिम समुद्र है। (ज. प/प्र. १४० A.N. up, H.L. Jain) | सुरगिरि-सुमेरु पर्वतका अपर नाम--दे. सुमेरु । सुवत्सा-१.सौमनस गजदन्तके कनक कूटकी स्वामिनी दिक्कुमारी सुरदेव-भाविकालीन दूसरे तीर्थंकर-दे. तीर्थकर । देवी-दे. लोक/१४। सुरपतिकान्त-विजयार्घकी उत्तर श्रेणीका एक नगर। सुवत्सा -२.पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे. लोक ५/२:२. पूर्व विदेहस्थ -दे. विद्याधर। निकूट वक्षारका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक/१/४ । सरमन्यु- सप्त ऋषियों में से एक-दे. सप्तऋषि । सुवप्र-१. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र -दे. लोक/५/२१२. चन्द्रगिरि वक्षारका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक/१/४॥ सुरलोक-दे. स्वर्ग/५॥ सबल्गु-१. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र । अपर नाम सुगन्धा-दे. सरस-ब्रह्म स्वर्गका द्वितीय परल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/५/३ । लोक /२१२. नागगिरि वक्षारका एक कूट व उसका स्वामी देवसरा-१.हिमवाव पर्वतपर स्थित एक कूट व उसकी स्वामिनीवेवी। दे. लोक/81 -दे. लोक/४१२. रुचक पर्वत बासिनी दियकुमारी। सविधि-म, पु./सर्ग/श्लो. महावत्स देशके सुदृष्टि राजाका पुत्र । -दे, लोक/२/१३ । (१०/१२१-१२२ ) पुत्र केशवके मोहसे दीक्षा न लेकर श्रावकके उत्कृष्ट TAINEES राणाका पुत्र । सुरालय-सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे. सुमेरु। वत ले कठिन तप किया (१०/१५८)। अन्त में दिगम्बर हो समाधि मरण पूर्वक अच्युत स्वर्ग में देव हुआ। (१०/१६६)। यह ऋषभदेवका सुराष्ट्र-१. मालवाका पश्चिम प्रदेश, सुराष्ट्र या सौराष्ट्र या काठियावाड़ कहते हैं। (म.पू./प्र.४६ पन्नालाल । २. भरतक्षेत्रस्थ पूर्वका चौथा भव है।-दे, ऋषभदेव । पश्चिम आर्यखण्डका एक देश । अपर नाम सोरठ-दे. सोरठ। सुविशाल-नव ग्रैवेयकका तृतीय पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/५/३ । सरेन्द्र यन्त्र-दे. यन्त्र/१/६ । सुषमा काल-दे. काल/४ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषिर प्रायोगिक शब्द सुविर प्रायोगिक शब्द शब्द/ सुषेण- १. वरांग चरित्र / सर्ग / श्लोक वरांगका सौतेला भाई था । (११/८५) । वरांगको राज्य मिलनेपर कुपित हो, वरोगको छलसे राज्यसे दूर भेज स्वयं राज्य प्राप्त किया (२०/० ) । फिर किसी शत्रुसे युद्ध होनेपर स्वयं डरकर भाग गया (२० / ११) । २. म. पु. / ५८ / श्लोक कनकपुर नगरचा राजा था (११) गुणमंजरी नृत्यकारिणीके अर्थ भाई विन्ध्यशक्ति युद्ध किया युद्धमें हार जानेपर नृत्यकारिणी इससे बलात्कारपूर्वक छीन ली गयी (७३) । मानभंगसे दुःखित हो दीक्षा लेकर कठिन तप किया। अन्त में बैर पूर्वक मरकर प्राण स्वर्ग में देव हुआ (७८-७९) । यह द्विपृष्ठ नारायणका पूर्वका दूसरा भव है । दे द्विपृष्ठ । सुसीमा पूर्व विदेहस्थ मत्सदेशकी मुख्य नगरी-दे, लोक/२/२ सुस्थित १. मुद्रा रक्षक व्यन्तरदेव-देव्यन्तर / ४ । सुस्थिता- रुचक पर्वत बासिनी दिक्कुमारी । दे. लोक / ५ / १३ । सुस्वर स्वर सुहस्ति - रुचक पर्वतस्थ स्वस्तिक कूटका स्वामी देव - दे. लोक/७ । सुह्य २. भरक्षेत्र आर्य खण्डका एक देश, मनुष्य / ४ २. जिस देश में कपिशा ( कोलिया) नदी बहती है। ताम्रलिपी राजधानी थी। सुकरिका - भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी - दे. मनुष्य ४ । सूक्ष्म-जो किसी द्वारा स्वयं नाधित न हों और न दूसरेको ही कोई बाधा पहुंचायें वे पदार्थ या जीव सूक्ष्म है और इनसे विपरीत स्थूल या मादर इन्द्रियग्राह्य पदार्थको स्थूल और इन्द्रियग्राको सूक्ष्म कहना व्यवहार है परमार्थ नहीं सूक्ष्म व मादरपने में न अवगाहनाकी हीनाधिकता कारण है न प्रदेशोंकी, बल्कि नामकर्म ही कारण है। सूक्ष्म स्कन्ध व जीव लोकमें सर्वत्र भरे हुए हैं, पर स्थूल आधारके बिना नहीं रह सकनेके कारण त्रस नालीके यथायोग्य स्थानों में ही पाये जाते हैं। १. सूक्ष्मके भेद व लक्षण * सूक्ष्म जीवोंका निर्देश - इन्द्रिय काय, समास । १. सूक्ष्म सामान्यका लक्षण १. बाधा रहित ४३८ स.सि./५/१५/२००/१२/ न ते परस्परेण वादश्च व्याहन्यन्त इति । - वे (सूक्ष्म जीव ) परस्परमें और बादरोंके साथ व्याघातको नहीं प्राप्त होते हैं। (रा.वा./२/१४/२/०६/१९)" - ध. ३/१,२.८७/३३१/२ अण्णेहि पोग्गलेहिं अपडिहम्ममाणसरीरो जीवो सुमो त्ति घेत्तव्वं । जिनका शरीर अन्य पुद्गलोंसे प्रतिघात रहित है ये सूक्ष्म जीव हैं, यह अर्थ यहाँ पर सूक्ष्म शब्दसे सेना । घ. १३/५-३,२२/२३/१२ परिसंतपरमा गुस्स परमाणु परिमंदिराहुमस्स हुहूमेण चादर घेण वा पधिकरणावतीदो प्रवेश करनेवाले परमाणुको दूसरा परमाणु प्रतिबन्ध नहीं करता है, क्योंकि सूक्ष्मका दूसरे सूक्ष्म स्कन्धके द्वारा या नरके द्वारा प्रतिमन्ध करनेका कोई कारण नहीं पाया जाता है। = का.अ./मू./१२७ ण य तैसि जेर्सि पडिललण पुढवी तोहि अग्ि वाएहिं । ते जाण सुहुम- काया इयरा पुण थूलकाया य ॥ १२७॥ - जिन जीवोंका पृथ्वीसे, जलसे, आगसे और वामुसे प्रतिघात नहीं होता, उन्हें सूक्ष्मायिक जानो १२० सूक्ष्म गो.जी./जी./१८४/४१६/१४ आधारानपेक्षितशरीराः जीवाः सूक्ष्मा भवन्ति । जलस्थलरूपाधारेण तेषां शरीरगतिप्रतिघातो नास्ति । अत्यन्तम परिणामत्वाचे जीवाः सूक्ष्मा भवन्ति - आधारकी अपेक्षा रहित जिनका शरीर है वे सूक्ष्म जीव हैं जिनकी गतिका जल, स्थल आधारोंके द्वारा प्रतिघात नहीं होता है । और अत्यन्त सूक्ष्म परिणमनके कारण वे जीव सूक्ष्म कहे हैं। 1 २. इन्द्रिय अमाथ को स.सि./५/२८/२६६ /१ सूक्ष्मपरिणामस्य स्कन्धस्य भेदी सौक्ष्म्यापरियायावचानुषत्वमेव सूक्ष्म परिणामनाले स्कन्धका भेद होनेपर वह अपनी सूक्ष्मताको नहीं छोड़ता, इसलिए उसमें अचानुपना ही रहता है। (रा.मा./५/२०/- ( ४१४/१० ) रा.वा./५/२४/१/४८५/११ लिङ्गेन आत्मानं सूचयति, सूच्यतेऽसौ सूच्यतेऽनेन सुचनमात्रं मा सूक्ष्मः सूक्ष्मस्य भावः कर्म वा सौक्ष्म्य जो लिंग के द्वारा अपने स्वरूपको सूचित करता है या जिसके द्वारा सूचित किया जाता है या सूचन मात्र है, वह सूक्ष्म है। सूक्ष्म भाव वा कर्मको सौक्ष्म्य कहते हैं । प्र.सा./ता.वृ./१६८/२३०/१३ इन्द्रियाग्रहणयोग्यैः सूक्ष्मैः । = जो इन्द्रियोंके ग्रहण के अयोग्य हैं वे सूक्ष्म हैं । पं. ध. /उ. ४०३ अति सूक्ष्मत्वमेतेषां लिङ्गस्याक्षैरदर्शनाद 1४८३१इसके साधक साधनका इन्द्रियोंके द्वारा दर्शन नहीं होता, इसलिए इसमें (धर्मादिमें) सूक्ष्मपना है। १. सूक्ष्म दूरस्यमें सूक्ष्मका लक्षण १२/२२.२१/२९३/३ किमेत्य सुहुम युगेज्मतं सूक्ष्म शब्दका क्या अर्थ है ? उत्तर- जिसका ग्रहण सूक्ष्म कहलाता है । प्रश्न- यहाँ कठिन हो वह द्र सं./टी./५०/२१३/११/परचेतोवृत्तयः परमाण्वादयश्च सूक्ष्मपदार्थाः । पर पुरुषों के चित्तोंके विकल्प और परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ.... न्या. दी./२/१२२/४१/१० सूक्ष्माः स्वभावविप्रकृष्टाः परमाण्वादयः । - सूक्ष्म पदार्थ 'वे हैं जो स्वभावसे विप्रकृष्ट हैं- दूर हैं जैसे परमाणु आदि । रहस्यपूर्ण चिट्ठी / ५१३ जो आप भी न जाने केवली भगवान् ही जाने सो ऐसे भावका कथन सूक्ष्म जानना । २. सूक्ष्मके भेद व उनके लक्षण स.सि./५/२४/२६५/१० सौक्ष्म्यं द्विविधं अन्य्यमापेक्षिकं च तत्रान्यं परमाना आपेक्षिक विश्यामलक मदरादीनाम् सूक्ष्मता के दो भेद है अन्य और आपेक्षिक परमाणुओं में अन्य सूक्ष्मत्व है तथा मेल, ऑनला, और बेर आदिमें आपेक्षिक सुक्ष्म है।. (रा.वा./५/२४/१०/४८८/३० ) ३. सूक्ष्म नामकर्मका लक्षण स.सि./१/१९/१२/९ मशरीर निर्वर्तक सूक्ष्मनाम । सूक्ष्म शरीर का निर्वर्तक कर्म सूक्ष्म नामकर्म है। रा.वा./८/११/२६/५७६/७ यदुदयादन्यजीवानुपग्रहोपघातायोग्य सूक्ष्मशरीरनिवृतिर्भवति तत्सूक्ष्मनाम -जिसके उदयसे अन्य जीवों के अनुग्रह या उपघातके अयोग्य सूक्ष्म शरीरकी प्राप्ति हो वह सूक्ष्म है। ( गो ./जी./ जो प्र. / ३३/२०/१३ ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश = = घ. ८/१.१ १.२८/६२/१] जस्स कम्मर उदरण जीव समविजदि तस्स कम्मस्स सुममिदि सण्णा । जिस कर्मके उदयसे जीव (एकेन्द्रिय घ. १३) सूक्ष्मताको प्राप्त होता है उस कर्मकी यह सूक्ष्म संज्ञा है । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म ४. सिद्धोंके सूक्ष्मत्व गुणका लक्षण प्र.सं./टी./१४/४२/१२ सूक्ष्मातीन्द्रिय ज्ञानविषयस्यासिद्धस्वरूपस्य सूक्ष्मत्वं भण्यरी सूक्ष्म अतीन्द्रिय केवलज्ञानका विषय होनेके कारण सिद्धोंके स्वरूपको अतीन्द्रिय कहा है । प. प्र./टी./१/६१/६२/२] अतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वम् तीय । अतीन्द्रिय ज्ञानका होने है। २. बादरके भेद व लक्षण ● बादर जीवोंका निर्देश * दे, । इद्रिय काय, समास ४३९ - १. बादर व स्थूल सामान्यका लक्षण १. सप्रतिघात स.सि./१/१२/२००/१० वादरास्तावत्सतिरीरामादर जीवों का शरीर दो प्रतिषात सहित होता है (रा. बा./५/१५/३/४५८/१०) ध. १/१.१,४५/२०६/७ बादरः स्थूलः सप्रतिघातः कायो येषां ते बादरकायाः । - जिन जीवोंका शरीर बादर, स्थूल अर्थात प्रतिघात सहित होता है उन्हें नादर काय कहते हैं। घ. ३/२.२ ८०/३३९/१ तदो पहियमाणसरीरो बादरी जिनका शरीर प्रतिघात युक्त है वे बादर हैं । गो. जी./मू./१८३...घादसरीरं थूलं । जो दूसरोंको रोके, तथा दूसरों से स्वयं रुके सो स्थूल कहलाता है । २. इन्द्रिय ग्रा स.सि./२/२०/२१/९० सौम्यपरिणामोचर मे स्योन्योती बाष भवति । - ( सूक्ष्म स्कन्धमें से) सूक्ष्मपना निकल कर स्थूलपनेकी उत्पत्ति हो जाती है और इसलिए वह चाटुप हो जाता है। रा.मा./५/२४/१/४८५/१२ स्थूलते परिगृहयति, स्थूण्यतेऽसौ स्थूलतेऽनेन, स्थूलनमात्रं वा स्थूलः स्थूलस्य भावः कर्म वा स्वीच्यम् । - जो स्थूल होता है, बढ़ता है या जिसके द्वारा स्थूलन होता है या स्थूलन मात्रको स्थूल कहते हैं। स्थूलका भाव या कर्म स्थौल्य है । प्र.सा./ता./२६८/२३०/१४ योग्य मंदिर जो इन्द्रियोंके = ग्रहके योग्य होते हैं वे मादर है। ३. स्थूल के भेद व उनके लक्षण स.सि./५/२४/२६४/११ स्वीयमिदि द्विविधमन्यापेक्षिकं ि रात्रान्यं जगह पापिनि महास्कन्धे आपेक्षिकं भादराम कवितालादिषु । स्थोग्य भी दो प्रकार का है- अन्त्य और आपेक्षिक । जगव्यापी महास्कन्ध में अन्त्य स्थोग्य है। तथा बेर, आँवला, और बेताल आदिमें आपेक्षिक स्थोग्य है । (रा. वा./१/२४/११/४८८/३३) । ४. बादर नामकर्मका लक्षण स.सि./ ८ / ११ / २१२ / २ अन्यवाधाकरशरीरकारणं नादरनाम - अन्य बाघाकर शरोरका निर्वर्तक कर्म मादर नामकर्म है। (रा.वा./८/ ११/२०/५०१ / १०) (गो.क./जी.प्र./१३/३० /१३)। घ. १/१.११.२०६२/- जस्स कम्मस्य उदरण जीवो नारे उप्पाद तस्स कम्मरस बादरमिदि सण्णा । - जिस कर्मके उदयसे जीव बादर काय बालोंमें उत्पन्न होता है। उस कर्म की 'बादर' यह संज्ञा है । (ध. १३/५.५,१०१/३६५/६ ) । ५. बादर कथनका लक्षण रहस्य पूर्ण चिट्ठी । अपने तथा अन्धके जाननेमें आ सके ऐसे भावका कथन स्थूल है । · ३. सूक्ष्मत्व व वादरत्व निर्देश ३. सूक्ष्मत्व व बादरत्व निर्देश १. सूक्ष्म व बादर में प्रतिघात सम्बन्धी विचार t स.सि./२/४०/९६२/६ स नास्त्यनयोरित्यप्रतिघाते; सूक्ष्मपरिगामात पिण्डे तेजोऽनुप्रवेशवतेजकार्मणोर्नास्तिमपट लादिषु व्याघातः । इन दोनों ( कार्मण व तैजस) शरीरोंका इस प्रकारका प्रतिघात नहीं होता इसलिए वे प्रतिघात रहित हैं। जिस प्रकार सूक्ष्म होनेसे अग्नि ( लोहे के गोले में ) प्रवेश कर जाती है उसी प्रकार तैजस और कार्मण शरीरका वज्रपटलादिकमें भी व्याघात नहीं होता रामा / २/४०/९४१ / ६)। रा.वा./२/१४/२/५/१४ कर्ष सशरीरस्यात्मनोऽपि तत्वमिति व दृष्टादश्यते हि कोटिमात्र छिद्ररहिते मनमहासमितितले वज्रमयकपाटे बहिः समन्तात् वज्रलेपलिप्ते अपवरके देवदत्तस्य मृतस्य मूर्तिमन् नावरणादिकर्मले सकार्मणशरीरसंबधिरवेऽपि गृहमभिस्यैव निर्गमनम् तथा सूक्ष्मनिगोदानामप्यप्रतिघातित्व वेदितव्यम् । प्रश्न- शरीर सहित आत्माके अप्रतिघातपना कैसे है ! उत्तर- यह मात अनुभव सिद्ध है। निश्द्रि सोहके मकानरी जिसमें बचके किवाड़ लगे हों और यचशेप भी जिसमें किया गया हो, मर कर जीव कार्मणशरीरके साथ निकल जाता है। यह कार्मण वशरीर मूर्तिमान् ज्ञानावरणादि कर्मोंका पिण्ड है। तेजस् शरीर भी इसके साथ सदा रहता है। मरण कालमें इन दोनों शरीरोंके साथ जीव वज्रमय कमरे से निकल जाता है । और कमरे में छेद नहीं होता। इस तरह सुक्ष्म निगोद जीवों का शरीर भी अतिपाती है। २. सूक्ष्म व बादरमें चाक्षुषत्व सम्बन्धी विचार ६. १९/९.१.२४/२४१-२६०/६ भादराद स्थूलपर्यायः स्थूलत्वं पानियतस् ततो न ज्ञायते के स्थलाकृति चारचे अचा स्थूतानां सूक्ष्मतो अक्षुर्याह्माणामपि बादरले सूक्ष्मवादराणामविशेषः स्यादिति । २४ | स्थूलाश्च भवन्ति चक्षुर्ग्राह्याश्च न भवन्ति, को विरोधः स्यात् । प्रश्न- जो चक्षु इन्द्रियके द्वारा ग्रहण करने योग्य हैं, वे स्थूल हैं । यदि ऐसा कहा जावे सो भी नहीं बनता है, क्योंकि ऐसा माननेपर जो भी इन्द्रियके द्वारा प्रह करने योग्य नहीं हैं उन्हें सूक्ष्मपनेको शप्ति हो जायेगी और जिनका चक्षु इन्द्रियसे ग्रहण नहीं हो सकता है ऐसे जीवोंको मादर मान लेनेपर सूक्ष्म और बादरोंमें कोई भेद नहीं रह जाता उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि स्थूल तो हों और पक्षुसे ग्रहण करने योग्य न हों, इस कथन में क्या विरोध है 1 ( अर्थात् कुछ नहीं ) । ३. सूक्ष्म व बादरमें अवगाहना सम्बन्धी विचार घ. १/१,१.२४/२०-२५१/४ सूक्ष्मजीवशरीरादसंख्येवर्ण शरीरं मदर तो जीवाश्च मोदराः । ततोऽसंख्येयगुणहीनं शरीर सूक्ष्मस्तद्वन्तो जीवाश्च सुहमा उपचारादिव्यपि कल्पना ना सर्वजधन्यबादराङ्गात्सूक्ष्म कर्म निर्वर्तितस्य सूक्ष्मशरीरस्यासंख्येयगुणतोऽनेकान्तात् । २५० तस्मात् (सूक्ष्मात् ) अन्य संख्येयगुणदीनस्य मादरकर्म नितितस्य शरीरस्योपलम्भात् प्रश्न--- सूक्ष्म शरीरसे असंख्यात गुणी अधिक अवगाहनानाले शरीरको मादर कहते है. और उस शरीर से युक्त जीवोंको उपचारसे बादर जीव कहते हैं। अथवा मादर शरीरसे असंख्यात गुणी होन अनगाहनानाले शरीरको सूक्ष्म कहते हैं और उस शरीरसे युक्त जोनको उपचार से सूक्ष्म जीव कहते हैं : उत्तर - यह कल्पना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, सबसे जघन्य बादर शरीरसे सूक्ष्म नामकर्मके द्वारा निर्मित सूक्ष्म शरीरकी अवगाहना असंख्यातगुनी होनेसे ऊपर के कथनमें दोष आता है | २५० सूक्ष्म शरीर से भी असंख्यात गुणी हीन अवगाहनावाले और बादर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ३. बादरत्व व सूक्ष्मत्व निर्देश नाम कर्मके उदघसे उत्पन्न हुए बादर शरीरकी उपलब्धि होती है ।२५१। और भो-दे. अवगाहना/२ । ध.१२/४ २,१३,२१४/४४३/१३ ण च मुहमयोगाहणाए बादरोगाहणा सरिसा ऊणा वा हो दि किं तु असंखेज्जगुणा चेव होदि । -बादर जीवकी अवगाहना सूक्ष्म जीवकी अवगाहनाके बराबर या उससे हीन नहीं होती है, किन्तु वह उससे असंख्पातगुणी ही होती है। ध. १३४५,३,२१/२४/२ सुहुमं णाम सणं, ण अपडिहण्णमाणमिदि चे --ण, आयासादीणं सुहमत्ता भावप्पसंगादो। प्रश्न-सूक्ष्मका अर्थ बारीक है। दूसरेके द्वारा नहीं रोका जाना, यह उसका अर्थ नहीं है। उत्तर--नहीं, क्योंकि सूक्ष्मका यह अर्थ करनेपर महान आकाश आदि सूक्ष्म नहीं ठहरेंगे। गो. जी./जी. प्र./१८४/४१६/१५ यद्यपि बादरापर्याप्तवायुकायिकादीनां जवन्यशरीरावगाहनमवपम् । ततोऽसंख्येयगुणत्वेन सूक्ष्मपर्याप्तकवायुकायिका दिपृथ्वीकायिकावसानजीवानां जघन्योत्कृष्टशरीरावगाहनानि महान्ति तथापि सूक्ष्मनामकर्मोदयसामर्थ्याव अन्यतरतेषां प्रतिघाताभावात् निष्क्रम्य गच्छन्ति श्वश्णवस्त्रनिष्क्रान्तजलबिन्दुवत। बादराणां पुनरपशरीरत्वेऽपि मादरनामकर्मोदयवशादन्येन प्रतिघातो भवत्येव श्लक्ष्णवस्त्रानिष्क्रान्तसर्षपवत् । य ( द्यपि) द्यवं ऋद्धिप्राप्तानां स्थूलशरीरस्य वज्रशिलादिनिष्क्रान्तिरस्ति सा कथं। इति चेत् तपोऽतिशयमाहात्म्येनेति व मः, अचिन्त्यं हि तपोविद्यामणिमन्त्रौषधिशक्त्यतिशयमाहात्म्यं दृष्टस्वभावत्वाद। 'स्वभावोऽतर्कगोचरः' इति समस्तवादिसंमतत्वात् । अतिशयरहितवस्तुविचारे पूर्वोक्तशास्त्रमार्ग एव बादरसूक्ष्माणां सिद्धः । यद्यपि बादर अपर्याप्त वायुकायिकादि जीवोंकी अवगाहना स्तोक है और इससे लेकर सूक्ष्म पर्याप्त वायुकायिकादिक पृथिवीकाधिक पर्यन्त जीवों की जघन्य बा उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुणी है, तो भी सूक्ष्म नामकर्मकी सामर्थ्य से अन्य पर्वतादिकसे भी इनका प्रतिधात नहीं होता है, उनमें वे निकलकर चले जाते हैं। जैसे-जल की बूद वस्त्रसे रुकती नहीं है निकल जाती है वैसे सूक्ष्म शरीर जानना । बादर नामकर्म कर्मके उदयसे अल्प शरीर होनेपर भी दूसरों के द्वारा प्रतिघात होता है जैसे सरसों वस्त्रसे निकलती नहीं है तैसे ही बादर शरीर जानना । यद्यपि ऋद्धिप्राप्त मुनियोंका शरीर बांदर है तो भी वज्र पर्वत आदिकमेंसे निकल जाता है, रुकता नहीं है सो यह तपजनित अतिशय को हो महिमा है। क्योंकि तप, विद्या, मणि, मन्त्र, औषधिकी शक्तिके अतिशयका माहात्म्य ही प्रगट होता है, ऐसा ही द्रव्यका स्वभाव है। स्वभाव तर्कके अगोचर है, ऐसा समस्त वादी मानते हैं। यहाँ पर अतिशयवानोंका ग्रहण नहीं है, इसलिए अतिशय रहित वस्तुके विचारमें पूर्वोक्त शास्त्रका उपदेश ही बादर सूक्ष्म जीवोंका सिद्ध हुआ। ४. सूक्ष्म व बादर में प्रदेशों सम्बन्धी विचार दे. शरीर/१/४,५ औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण ये पाँचों शरीर यद्यपि उत्तरोत्तर सुक्ष्म हैं परन्तु प्रदेशका प्रमाण उत्तरोत्तर असंख्यात व अनन्तगुणा है। स.सि./२/३८/१६२/१० याब, परम्पर' (शरीर) महापरिमाणं प्राप्नोति । नै यमः बन्धविशेषात्परिमाणभेदाभावस्तूल निचयायःपिण्डवत् । - प्रश्न-यदि ऐसा है तो उत्तरोत्तर एक शरीरसे दूसरा शरीर महापरिमाणवाला प्राप्त होता है : उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बन्ध-विशेषके कारण परिमाण में भेद नहीं होता । जैसे, रूईका ढेर और लोहेका गोला । (रा. वा./२/३८/५/१४८/८) . . रा. वा./२/३९/६/१४८/३१ स्यादेतत्-बहुद्रव्योपचितत्वात तैजसकार्मणयोरुपलब्धिः प्राप्नोतीति । तन्नः किं कारणम् । उक्तमेतह-प्रचयविशेषात् सूक्ष्मपरिणाम इति । - प्रश्न-बहुत परमाणुबालें होनेके कारण तैजस और कार्मण शरीरकी उपलब्धि ( दृष्टिगोचर.) होना प्राप्त है। उत्तर-नहीं, पहले कहा जा चुका है कि उनका अति सघन . और सूक्ष्म परिणमन होनेसे इन्द्रियोंके द्वारा उपलब्धि नहीं हो सकती। ध, १३/५,४,२४/१०/४ ण च थूलेण बहुसंखेण चेव होदव्वमिदि णियमो अस्थि । थूलेरंडरुक्खादो सहलोहगोलएगरूवत्तण्णहाणुववत्तिबलेण पदेसबहुत्तुवल भादो। = स्थूल बहुत संख्यावाला ही होना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है क्योंकि स्थूल एरण्ड वृक्षसे, सूक्ष्म लोहेके गोलेमें एकरूपता अन्यथा बन नहीं सकती, इस युक्तिके बलसे प्रदेशबहुत्व देखा जाता है। ५. सूक्ष्म व बादरमें नामकर्म सम्बन्धी विचार ध. ११,१,३४/२४६-२५१/६ न बादरशब्दोऽयं स्थूलपर्यायः, अपितु बादरनाम्नः कर्मणो वाचकः । तदुदयसहचरितत्वाज्जीवोऽपि मादरः ॥२४॥ कोऽनयोः (बादर-सूक्ष्म )कर्मणोरुदययो.दश्चेन्मूर्तेरन्यैः प्रतिहन्यमानशरीरनिर्वतको बादरकर्मोदय; अप्रतिहन्यमानशरीरनिर्वर्तकः सूक्ष्मकर्मोदय इति तयोर्भेदः। सूक्ष्मत्वात्सूक्ष्मजीवानां शरीरमन्यैर्न मूर्तद्रव्यैरभिहन्यते ततो न तदप्रतिघातः सूक्ष्मकर्मणो विपाकादिति चेन्न, अन्यैरप्रतिहन्यमानत्वेन प्रतिलब्धसूक्ष्मव्यपदेशभाजः सूक्ष्मशरीरादसंख्येयगुणहीनस्य बादरकर्मोदयतः प्राप्तबादरव्यपदेशस्य सूक्ष्मत्वप्रत्यविशेषतोऽप्रतिधाततापत्तेः । -बादर शब्द स्थूलका पर्यायवाची नहीं है, किन्तु बादर नामक नामकर्मका वाचक है, इसलिए उस बादर नामकर्मके उदयके सम्बन्धसे जीव भी बादर कहा जाता है । प्रश्न-सूक्ष्म नामकमके उदय. और बादर नामकर्म के उदयमें क्या भेद है 1 उत्तर-बादर नामकर्म का उदय दूसरे मूर्त पदार्थोंसे आघात करने योग्य शरीरको उत्पन्न करता है । और सूक्ष्म नामकर्म का उदय दूसरे मूर्त पदार्थों के द्वारा आघात नहीं करने योग्य शरीरको उत्पन्न करता है। यही उन दोनों में भेद है। प्रश्न-सूक्ष्म जीवोंका शरीर सूक्ष्म होनेसे ही अन्य मूर्त द्रव्यों के द्वारा आपातको प्राप्त नहीं होता है, इसलिए मूर्त द्रव्यों के साथ प्रतिघातका नहीं होना सूक्ष्म नामकर्म के उदयसे नहीं मानना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर दूसरे मूर्त पदार्थोके द्वारा आघातको नहीं प्राप्त होनेसे सुक्ष्म संज्ञाको प्राप्त होने वाले सूक्ष्मशरीरसे असंख्मात गुणी हीन अवगाहनावाले और नामकर्म के उदयसे बादर संज्ञाको प्राप्त होनेवाले भादर शरीरको सूक्ष्मताके प्रति कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अतएव उसका भी मूर्त पदार्थों से प्रतिघात नहीं होगा, ऐसी आपत्ति आयेगी। ६. बादर जीव आश्रय से ही रहते हैं ध. ७/२.६,४८/३३६/१ पुढवीओ चेवस्सिदूण बादराणमवट्ठाणादो। -पृथिवियोंका आश्रय करके ही बादर जीवोंका अवस्थान है। (ध.४/१,३,२४/१००/१०) (गो. जी./मू./१८४/४१६) ( का. अ./ टी./१२२) ७. सूक्ष्म व बादर जीवोंका लोको अवस्थान म. आ./१२०२ एइंदिया य जीवा पंचविधा वादरा ये सहमा य । सेहि बादरा खलु सुहमैहि णिरतरो लोओ ।१२०२। - एकेन्द्रिय जीव प्रथिवीकायादि पाँच प्रकारके हैं और वे प्रत्येक बादर सूक्ष्म है, बादर जीव लोकके एक देश में हैं तथा सूक्ष्म जीवोंसे सब लोक ठसाठस भरा हुआ है ।१२०२। (और भी दे. क्षेत्र) * अन्य सम्बन्धित विषय १. बादर वनस्पति कायिक जीवोंका लोकमें अवस्थान । -दे, वनस्पति/२/१०। जैनेन्द्र सिद्धान्त श Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय सूक्ष्म सांपराय २.पावर तैजस कायिकादिकोंका लोकमें अवस्थान। २. सूक्ष्म साम्पराय चारित्रका स्वामित्व -दे. काय/२/५। प.ख. १/१.१/सू. १२७/३७६ सुहम-सांपराइयसुद्धिसंजदा एमम्मि ३. स्थूल परसे सूक्ष्मका अनुमान । दे. अनुमान/२/५ । चैव सुहुम-सापराइय सुद्धिसंजदट्ठाणे ।१२७। - सूक्ष्म साम्पराय शुद्धि ४. सूक्ष्म व स्थूल दृष्टि । -दे. परमाणु/१।६। संयत जीव एक सूक्ष्म-साम्पराय-शुद्धि-संयत गुणस्थानमें ही होते है।१२७१ (गो.जी./मू./४६७); (गो. जी./जी.प्र./७०४/१४०/११); ५. सूक्ष्म व बादर जीवों सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास, (द्र. सं./३५/१४८) मार्गणा स्थान आदि २० प्ररूपप्पाएँ। -दे. सत् । ६. सूक्ष्म बादर जीवोंकी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, . ३. जघन्य उत्कृष्ट स्थानोंका स्वामित्व अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम। प. खं, ७/२.११/सू. १७२-१७३ ब, टी./५६८ सुहुमसापरायसुद्धि७. सूक्ष्म बादर जीवोंमें कोका बन्ध उदय सत्त्व । संजमस्स जहणिया चरित्तलदी... १७२।' उबसमसेडीदो ओयरमाण परिमसमयसहुमसापराइयस्स। 'तस्सेब उक्कसिया चरित्तलखो... -दे.बह-वह नाम। ।१७३॥ चरिमसमयसुहुमसपिराइयखवगस्स । - सूक्ष्मसाम्परायिक८. स्कन्धके सूक्ष्म स्थूल आदि मेद। -दे. स्कन्ध/३। शुद्धि संयमकी जघन्य चरित्र लन्धि... १७२। 'उपशम श्रेणीसे उतरने वाले अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके होती है । 'उसी ही सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय-वे. नय/III/५ । सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धि संयमकी उत्कृष्ट चारित्र लन्धि... १७३।' अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिक क्षपकके होती है। सूक्ष्म कृष्टि-थे. कृष्टि। सूक्ष्म किया अप्रतिपत्ति शुक्लध्यान-दे. शुक्लध्यान/११७ । ४. सूक्ष्म साम्पराय चारित्र व गुप्ति समिति में अन्तर सूक्ष्मजीव-वे. इन्द्रिय, काय, जीव समास । रा. वा./९/१८/१०/६१७/२६ स्यान्मतम्-गुप्तिसमित्योरभ्यतरत्रान्तर्भव तीदं चारित्रं प्रवृत्तिनिरोधात सम्यगयनाच्चेतिः तन्नः किं कारणम् । सूक्ष्म सांपराय सद्भावेऽपि गुणविशेषनिमित्ताश्रयणात् । लोभसंज्वलनारख्यः साम्प रायः सूक्ष्मो भवतीत्ययं विशेष आश्रितः। -प्रश्न-यह चारित्र १. सूक्ष्म साम्पराय चारित्रका लक्षण प्रवृत्ति निरोध या सम्यक् प्रवृत्ति रूप होनेसे गुप्ति और समितिमें स. सि./४/१८/४३६/६ अतिसूक्ष्मकषायत्वात्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रम् । अन्तर्भूत होता है ! उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि यह उनसे आगे -जिस चारित्रमें कषाय अति सूक्ष्म हो वह सूक्ष्म साम्पराय चारित्र बढ़कर है। यह दसवें गुणस्थानमें, जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ टिमटिमाता है। (रा.पा./६/१८/६/६१७/२१); (ध. १/१,१.१२३/३७५/३); है, होता है, अतः यह पृथक् रूपसे निर्वि है। (गो.डी./जो. प्र./१४७/७१४/७) पं.सं./प्रा./१/१२२ अणुलोह वेयंतो जीओ उबसामगोपखवगो बा। सो ६. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानका लक्षण मुहमसंपराजो अहवाएणूणो किंचि ॥१३२। -मोहकर्मका उपशमन पं.सं./प्रा./१/२२-२३ कोसुंभो जिह राओ अभंतरदो य सुडमरत्तो या क्षपण करते हुए सूक्ष्म लोभका वेदन करना सूक्ष्मसाम्पराय य। एवं मुहुमसराओ मुहुमकसाओ त्ति णायव्वो ।२२। पुवापुठ्वसंयम है, और उसका धारक सूक्ष्मसाम्पराय संयत कहलाता है । यह फडुयअणुभागाओ अणंतगुणहीणे। लोहाणुम्मि य द्विअओ हदि संयम यथारम्यात संयमसे कुछ ही कम होता है। (ध.१/१,१.१२३/ मुहमसंपराओ य ।२३। जिस प्रकार कुसमली रंग भीतरसे सूक्ष्म गा. १९०/३७३); (गो.जी./मू./४७४/८८२); (त. सा./६/४८) रक्त अर्थात अत्यन्त कम लालिमा वाला होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म रा. वा./३/१८/१/६९७/२१ सूक्ष्मस्थूलसत्त्ववधपरिहाराप्रमत्तत्वाय अनु- राग सहित जीवको सूक्ष्मकषाय वा सूक्ष्म साम्पराय जानना पहतोत्साहस्य अखण्डितक्रियाविशेषस्य ... कषायविषाकुरस्य चाहिए ।२२। लोभाणु अर्थात् सक्ष्म लोभमें स्थित सूक्ष्मअपचयाभिमुखासीनस्तोकमोहमीजस्य सप्त एव परिप्राप्तान्वर्थसूक्ष्म- साम्परायसंयत की कषाय पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकके अनुभाग साम्परायशुधिसंयतस्य सूक्ष्मसाम्परायचारित्रमाख्यायते। - शक्तिसे अनन्तगुणों हीन होती है ।२३। (गो. जी./मू./५८-18 ); सूक्ष्म-स्थूल प्राणियोंके धधके परिहारमें जो पूरी तरह अप्रमत्त है, (ध.२/१, १, १८/गा. १२१/१८८)। अत्यन्त निधि उत्साहशील, अखण्डितचारित्र...जिसने कषायके रा. वा./१/१/२१/५६०/१७ साम्परायः कषायः, स यत्र सूक्ष्मभावेनोविषांकुरोंको खोंट दिया है, सूक्ष्म मोहनीय कर्मके बीजको भी पशान्ति क्षयं च आपद्यते तो सूक्ष्मसाम्परायो वेदितव्यो ।जिसने नाशके मुखमें ढकेल दिया है, उस परम सूक्ष्म लोभवाले साम्पराय-कषायोंको सूक्ष्म रूपसे भी उपशम या क्षय करने वाला साधुके सूक्ष्म साम्पराय चारित्र होता है । (चा. सा./८४/२) सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक क्षपक है। यो, सा. यो./१०३ सहभहें लोहहें जो मिलउ जो सुहुमु वि परिणामु। घ.१/१,१.१८/१८७/३ सूक्ष्मश्चासौ साम्परायश्च सूक्ष्मसाम्परायः। तं सो सहम वि चारित्त मुणि सो सासय-सुह-धामु । - सूक्ष्म लोभका प्रविष्टा शुद्धिर्येषां संयताना ते सूक्ष्मसाम्परायप्रविष्टशुद्धिसयता। . नाश होनेसे जो सूक्ष्मपरिणामाँका शेष रह जाना है, वह सूक्ष्म .ध.११.१.२७/२/१४/३ तदो जंतर-समए मुहमकिठिसरूवं लोभ वेदंतों चारित्र है, वह शाश्वत सुखका स्थान है। अणियदिठ-सण्णो बहुमसापराओ होदि । -सूक्ष्म कषायको, इ.सं./टी./३१/१४८/४ सूक्ष्मातीन्द्रियनिजशुद्धात्मसंवित्तिमलेन सूक्ष्म- सूक्ष्म साम्पराय कहते हैं उनमें जिन संयतोंकी शुद्धिने प्रवेश किया है सोभाभिधानसाम्परायस्य कषायस्य यत्र निरवशेषोपशमनं क्षपणं वा उन्हें सूक्ष्म-साम्पराय-प्रविष्ट-शुद्धि संयत कहते है। २. इसके अनन्तर तत्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रमिति। - सूक्ष्म अतीन्द्रिय निजशुद्धामा- समयमें जो सूक्ष्म कृष्टिगत लोभका अनुभव करता है और जिसने के मलसे सूक्ष्म लोभ नामक साम्पराय कषायका पूर्ण रूपसे उपशमन अनिवृत्तिकरण इस संज्ञाको नष्ट कर दिया है, ऐसा जीव सूक्ष्मवा क्षपण सो सक्ष्म साम्पराय चारित्र है। साम्पराय संयम वाला होता है। भा०४-५६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म स्कध ४४२ सूतक द्र. सं./टी./१३/३५/५ सूक्ष्म परमात्मतत्त्वभावनाबलेन सूक्ष्मकृष्टिगतलोभकषायस्योपशमकाः क्षपकाश्च दशमगुणस्थानवतिनो भवन्ति । --सूक्ष्म परमात्म तत्त्व भावनाके बलसे जो सक्ष्म कृष्टिरूप लोभ कषायके उपशमक और क्षपक हैं, वे दशम गुणस्थानवर्ती हैं। * अन्य सम्बन्धित विषय १. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम। २. इस गुणस्थान सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प-बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम। ३. इस गुणस्थानमें कर्मप्रकृतियोंका बन्ध, उदय, व सत्त्व प्ररूपणाएँ। --दे. वह वह नाम। ४. सभी गुणस्थानों व मार्गणास्थानोंमें आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम । -दे. मार्गणा। ५. इस गुणस्थानमें कषाय योगके सद्भाव सम्बन्धी। -दे. वह यह नाम। ६, इस गुणस्थानमें औपशमिक व क्षायिक भाव सम्बन्धी। -दे.अनिवृत्तिकरण । ७. सूक्ष्म कृष्टिकरण सम्बन्धी । --दे. कृष्टि। ८. उपशम व क्षपक श्रेणी। -दे, श्रेणी। ९. पुनः पुनः यह गुणस्थान पानेकी सीमा। -दे. संयम/२ । १०. सूक्ष्मसाम्पराय व छेदोपस्थापनामें मेदामेद । -दे. छेदोपस्थापना/४। लोक व्यवहार शोधनार्थ सूतक आदिका निवारण करने के लिए जो लौकिकी जुगुप्सा की जाती है वह छोड़ने योग्य है, और परमार्थ या लोकोत्तर जुगुप्सा करनी योग्य है। (और भी देखो निर्विचिकित्सा)। २. भोजन शुद्धि में सूतक पातकके विवेकका निर्देश भ, आ./वि./२३०/४४४/२० मृतजातसूतकयुक्तगृहिजनेन.. दीयमाना वसतिर्दायकदुष्टा! -जिसको मरणाशीच अथवा जननाशौच है, ऐसे दोषसे युक्त गृहस्थ के द्वारा यदि वसतिका दी गयी हो तो वह दायक दोषसे दुष्ट है। त्रि.सा./१२४ ...असूचिसूदग"। कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेस जायते ॥२४॥ अपवित्रतासे अथवा मृतादिकका सूतको संयुक्त जो कुपात्रों में दान करता है वह जीव कुमनुष्यों में उत्पड़ होता है ।१४। अन, ध.५/३४ शवादिनापि "दत्तं दायकदोषभाक ।२४। उक्तं चसूती शौण्डी तथा रोगी शवः षण्डः पिशाचवाच । पतिप्तोचारनग्नाच रक्ता वेश्या च लिविनी। -शवको श्मशानमें छोड़कर आये हुए मृतक सुतफसे युक्त पुरुषों द्वारा दत्त थाहार वायक पोषसे दूषित समझना चाहिए ।३४ -जिसके सन्तान उत्पन्न हुई हो...। मो. पा./टी./४/११२ पर उधृत-दीनस्य सूतिकायाश्च...। -दीम अर्थात दरिद्री, सूतक वालीखीके घरका विशेष रूपसे (साधु आहार ग्रहण न करें । खा. सं./५/२५१ सूतकं पासकं चापि यथोक्त जैनशासने । एषणाशुद्धिसिधथं वर्ष येच्छापकाप्रणीः ।२३१॥ -अणुप्रती भावकों को अपने भोजनको शुद्धि बनाये रखनेके लिए अथवा एषणा शुद्धिके सिर यथोक्त सूतक पातकका भी त्याग कर देना चाहिए । भावार्थकिसीके सुतक पातकमें भोजन नहीं करना चाहिए । चर्चा समाधान/५३/पृ.५० मुनि आहारार्थ" सूतक व दुखित ऐसे शुद्ध कुलमें भी प्रवेश न करे। । सूक्ष्म स्कंध-दे. स्कन्ध । सूक्ष्मा वाणी-दे. भाषा। सूची-Width (ज. प./प्र. १०६) । २. ( Diameter or radius व्यास या बाण 1) । ३. सूची निकालनेको प्रक्रिया । -दे. गणित/II/I ४. ध. ३/१,२.१७/१३३/५ अंगुलवग्गमूले विकलं भसई हवदि। तं किं भूदमिति बुत्से विदियवग्गमूलगुणणेण उबलक्खियं । - सूच्यं गुलके प्रथम वर्गमूलमें ( अर्थात सूच्यंगुलका आश्रय लेकर विष्कंभसूची होती है। वह सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल किस रूप है, ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलके गुणाकार से उपलक्षित है । अर्थात् सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको उसीके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित कर देने पर सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कम्भ सूची होती है । उदाहरण-सूच्यंगुल २४२; 3 विष्कम्भसूची २; सूच्यं गुलका वर सूच्यं गुलका द्वितीय वर्गमूल २३ । विष्कम्भसूची। २४२-२ -क्षेत्र प्रमाणका एक भेद-दे. गणित/११/३ । सतक-१. सूतक पातक विषयक जुगुप्सा हेय है म. आ./टी./६४६ जुगुप्सा गहीं द्विविधा द्विप्रकारा-लौकिकी लोकोत्तरा च। लोकव्यवहारशोधनार्थ सूतकादिनिवारणाय लौकिकी जुगुप्सा परिहरणीया तथा परमार्थ लोकोत्तरा च कर्तव्येति। -जुगुप्सा या गीं दो प्रकारको है-लौकिकी व लोकोत्तर । ३. सूतक पातक किसको व कहाँ नहीं लगता प्रतिष्ठापाठ जयसेन/२५८ यदश्यतीर्थकर भिम्भमुदीर्य संस्थामुल्या तदीयकुलगोत्रजनिप्रवेशात् । संवृत्तगोप्रचरणप्रतिपातयोगादाशीचमावहतु नोधभव प्रशस्तम् ।२५८ -जिस वंश बाला यजमान विम्ब प्रतिष्ठा करा रहा है, उसके वंश, कुल, गोत्रमें उस दिमसे अशौच नहीं माना जाता अर्थात जिस दिन नान्दी अभिषेक हो गया उस दिनसे यजमानके कुल में सूतक तथा सूवा नही लगता ।२५६) प्रायश्चित्त संग्रह/३५३ बालत्रणथरत्वाज्ज्वलनादिप्रदेशे दीक्षितः । अनशनप्रदेशेषु च मृतकानां खलु सूतकं नास्ति । -तीन दिनका बालक, युममें मरणको प्राप्त, अग्नि आदिके द्वारा मरणको प्राप्त जिन दीक्षित, अनशन करके मरणको प्राप्त; इनका मरणसूतक नहीं होता। ४. सूतक पातक शुद्धि काल प्रमाण म. पु./३८/80-६१ बहिर्यानं ततो द्वित्रैः मासै स्त्रिचतुरैरुत । यथानुकूल मिष्टेऽह्नि कार्यतूर्यादिमङ्गलैः । ततः प्रभृत्यभीष्टं हि शिशोः प्रसववेश्मनः । बहिःप्रणयनं माता धात्र्युत्सङ्गगतस्य वा १६१। -तदनन्तर (प्रसूतिके ) दो-तीन अथवा तीन चार माहके बाद किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजों के साथ-साथ अपनी अनुकूलताके अनुसार बहिर्यान क्रिया करनी चाहिए। जिस दिन यह क्रिया की जाये उसी दिनसे माता अथवा धायकी गोदमें बैठे हुए बालकका प्रसूति गृहसे बाहर ले जाना सम्मत है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र प्रायश्चित्त संग्रह / ९५३ दिने सुचन्त पञ्चभि: दश-द्वादशभिः पञ्चादश वा संख्याप्रयोगतः । १५३। ब्राह्मण पाँच दिनमें क्षत्रिय दश दिनमें, वैश्य बारह दिनमें, और शुद्र पन्द्रह दिनों में पातक के दोष से शुद्ध होते हैं। ४. व्यवहार गत सूतक पातक शुद्धिका काल प्रमाण अक्सर ३ पीढ़ी तक १० दिन १२ दिन १ महीने तक के बालक ४ 33 ८ वर्ष तकका बालक ५ ३ मास तकका गर्भपात 95 ११ 11 19 11 जन्म मरण 14 १० ६ ४ ३ " 3 २ 33 ६ 14 पुत्री, दासी, दास (अपने घर में ) गाय भैंस आदि (अपने घर में ) अनाचारी स्त्री सदा पुरुषके घर " १० ६ ४ "3 ३ पहर पहर गृह त्यागी, संन्यासी 13 २ गृहस्थी परदेशमै मरे तो ३ दिन "" १ 10 12 सदा इसके पश्चात् जितने मासका गर्भपात हो " अपघात मृत्यु - ४४३ मरण सूत्र -१, वे आगम / Pormula. (४/२/२०) सूत्रकृतांग ज्ञान / III | ३ उतने उतने दिन १ दिन १ दिनसूत्रोपसंयत समाचार । ३ 11 खबर आनेके ५. रजस्वला स्त्रीका स्पर्श करना योग्य नहीं अन. घ० / ५ / ३५ में उद्धृत - रक्ता वेश्या च लिङ्गिनी । जो मासिक धर्मसे युक्त हो, वेश्या तथा आर्थिक आदिके आहारको दायक दोषसे दुष्ट समझना चाहिए। (अन. ध. / ५ / ३४ ) - " त्रि, सा./ १२४...पु-फई...] कपदामा विकुरते जीवा कुमरे जायंते २४ पुष्पवती स्त्रीया संसर्ग कर जो कृपा में दान देता है, वह कुमानुषों में होता है। सा. ध. /४/३१--। स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकम् । ती गृहस्थ रजस्वला स्त्री, सूखा चमड़ा, हड्डी. कुत्ता आदि के स्पर्श हो जानेपर भोजन छोड़ दें ।) पीछे शेष दिन ३ माह ६. रजस्वला स्त्रीकी शुद्धिका काल प्रमाण म.पू. /३० /०० आधानं नाम गर्भादौ संस्कारो मन्त्रपूर्वक पत्नी मृतुमत स्नातां पुरस्कृत्यार्ह दिज्यया । ७०| चतुर्थ स्नानके द्वारा शुद्ध हुई रजस्वला पत्नीको आगे कर गर्भाधान के पूर्व अर्हन्तदेव की पूजा के द्वारा मन्त्रपूर्वक जो संस्कार किया जाता है उसे आधान क्रिया कहते हैं । * अन्य सम्बन्धित विषय १. नीचादिका अथवा रजस्वलाका स्पर्श होनेपर साबु जल धारा से शुद्धि करते हैं। - दे. भिक्षा / ३ । सेनसंघ • सूत्रपाहुड़ा. कुकुन्द (ई. १२७-१७१) व शास्त्रज्ञान या सम्यग्ज्ञान विषयक २७ प्राकृत गाथाओंबद्ध ग्रन्थ है । इसपर आ. श्रुतसागर (ई. १४७३-१५३३ ) कृत संस्कृत टीका और पं. जयचन्द छाबड़ा (ई. १८६७ ) कृत भाषा वचनिका उपलब्ध है । सूत्रमणि - रुचक पर्वतके चक नित्योद्योत विद्य कुमारी देवी-दे. लोक /५/१३ । सूत्रसम द्रव्य निक्षेप - निक्षेप // टपर रहनेवाली सूत्र सम्यक्त्व ये सम्यग्दर्शन/१ "दे. सूना मू. आ. / ६२६ कंडणी पोसणी चुल्ली उदकुंभं - ओखीची, चूडि जल रखनेका स्थान, बुहारी दोष कहलाते हैं (अन ध /४/१२५) श्रुतके दृष्टिप्रवाद अंगका दूसरा भेद - दे. श्रुत - सूरसेन - भरत क्षेत्र मध्य आर्य खण्डका एक देश - दे. मनुष्य / ४ । सूर्पार भरतक्षेत्र पश्चिम आर्य खण्डका एक देश । —दे, मनुष्य ४ । सूर्य- १. इस सम्बन्धी विषय ज्योतिष/११. कृष्णका म पुत्र- इतिहास१०/१० १. अपर विदेहस्थ नागगिरि बक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव - दे. लोक /५/४ | सूर्यगिरि — सूर्यपतन- वर्तमान सूरत। (म. पु. / प्र, ४६ पं. पन्नालाल ) । सूर्यपुर- विजया की दक्षिण श्रेणीका नगर - दे. विद्याधर -- - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश . सूर्यप्रज्ञप्ति - अंग श्रुतका एक भेद-दे, श्रुतज्ञान / III | सूर्यरज--म. पु./सर्ग / श्लोक सुग्रीवका पिता था (१/१) बालीको राज्य दे स्वयं दीक्षित हो गया था ( ६/१६) । पमज्जणी । पाँच सुना | अपरविदेहस्थ एक वक्षार । - दे. लोक / ५ / ३ | सूर्यवंश इतिहास१०/१६ । सूर्यह्रद - देव कुरु के दस द्रहों में से दोका नाम--दे. लोक/७ । सूर्याचरणपर्वतका अपर नाम-दे, सुमेरु । सूर्याभ—- १. लौकान्तिक . १. सौकान्तिक देका एक भेद-दे, लौकान्तिक; २. विजयार्ध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर- दे, विद्याधर । सूर्यावर्त पर्वका अपर नाम सुमेरु । सृष्टा - दे. कर्म / ३ /१ 1 सृष्टि १. अन्य मत मान्य सृष्टि व प्रलय-दे, वैशेषिक व सांख्य दर्शन दे. २. प्रलय । सेज्जाघर - १. भ. आ. / वि / ४२९/६१३/१३ सेप्जाधरशब्देन त्रयो भण्यन्ते वसति यः करोति । कृतां वा वसति परेण भग्नां पतिर्तक देशां वा संस्करोति । यदि वा न करोति न संस्कारयति केवलं प्रयच्छत्यत्रास्वेति । =जो वसतिकाको बनाता है वह बनायी हुई बसतिकाका संस्कार करनेवाला अथवा गिरी हुई वसतिकाको सुधारनेवाला, किवा उसका एक भाग गिर गया हो उसको सुधारनेवाला वह एक, जो बनवाता नहीं है, और संस्कार भी नहीं करता है परन्तु यहाँ आप निवास करो ऐसा कहता है वह ऐसे तीनोंको सेज्जाघर कहते हैं। २. नाघरके हाथका आहार ग्रहण करनेका निषेध-दे. भिक्षा/२३/२ सेनसंघ - दे. इतिहास /५/२८ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेना सोलसा सेना-१. सेनाका लक्षण प. पू./१६/३-८ अष्टाविमे गताः ख्याति प्रकारा गणनाकृताः। चतुर्णा भेदमङ्गानां कीर्यमान विबोध्यताम् ।३। पतिः प्रथमभेदोऽत्र तथा सेना प्रकीर्तिता। सेनामुखं ततो गुलमं वाहिनी पृतना चमूः।४। अष्टमोऽनीकनीसंज्ञस्तत्र भेदो बुधैः स्मृतः। यथा भवन्त्यमी भेदास्तथेदानी वदामि ते एको रथो गजश्चैकस्तथा पञ्च पदातयः। त्रयस्तुरङ्गमाः सैषा पत्तिरित्यभिधीयते। पत्तिस्त्रिगुणिता सेना तिस्रः सेनामुखं च ताः। सेनामुखानि च त्रीणि गुल्ममित्यनुकीय॑ते ।। बाहिनी त्रीणि गुल्मानि पृतना वाहिनीत्रयम् । चमूस्त्रिपृतना ज्ञेया चमूत्रयमनीकिनीम् ।८। -हाथी, घोड़ा, रथ और पयादे ये सेनाके चार अंग कहे गये हैं। इनकी गणना करने के नीचे लिखे आठ भेद प्रसिद्ध हैं ।३। प्रथम भेद पत्ति, दूसरा भेद सेना, तीसरा सेनामुख, चौथा गुल्म, पाँचवाँ वाहिनी, छठा पृतना, सातवाँ चमू और आठवाँ अनीकिनी। अब उक्त चार अंगों में ये जिस प्रकार होते हैं उनका कथन करता हूँ।४-५। जिसमें एक रथ, एक हाथी, पाँच पयादे और तीन घोड़े होते हैं वह पत्ति कहलाता है।६। तीन पत्तिकी सेना होती है, तीन सेनाऔंका एक सेनामुख होता है, तीन सेनामुखों का एक गुरुम कहलाता है। तीन गुग्मोंकी एक वाहिनी होती है, तीन वाहिनियोंकी एक पृतना होती है, तीन पृतनाओंकी एक चमू होती है और तीन चमूकी एक अनीकिनी होती है 1८1 वस अनीकिनीकी एक अक्षौहिणी होती है। कुल अक्षौहिणीका प्रमाण-दे. अक्षौहिणी। *सेनाकी १८ श्रेणियाँ-दे.श्रेणी/१/२ । सेनापति-१.सेनापति कहिए सेनाका नायक । (त्रि. सा./टी./ ६८३):२. चक्रवर्तीके चौदह रत्नोंमेंसे एक-दे. शलाकापुरुष/२ । सेनामुख-सेनाका एक अंग-दे. सेना। सेमर-नरकमें होनेवाला एक वृक्ष विशेष ( छहढाला/१। सेवा-प्र.सा./ता. वृ./२६२/३५४/१२ उपासनं शुद्धात्मभावना सहकारिकारणनिमित्तं सेवा। -शुद्धात्मभावनाकी सहकारीकारण उपासना सेवा है। संघव-भरत क्षेत्रका एक देश । अपर नाम सिन्धु ।-दे. मनुष्य/४। सैतव-भरत क्षेत्रके मध्य आर्य खण्डका एक देश-दे. मनुष्य/४। सैद्धांतिकदेव-नन्दिसंघके देशीय गण नं. २ की गुर्वावलीके अनुसार आप शुभचन्द्र नं. २ के शिष्य थे। समय-वि. १०७२११०३ ई. १०१५-१०४५ (पं.सं./प्रा./प्र./घ, H. L.Jain)-दे. इतिहास/१४। सोमदत्त-इन्होंने जिनदत्त सेठसे आकाशगामिनी विद्याको सिद्ध करनेका उपाय प्राप्त किया। परन्तु अस्थिर चित्तके कारण सिद्ध न कर सके। फिर उसको विद्य च्चर चोरने सिद्ध किया। (बृहद कथा कोश । कथा ४)। सोमदेव-१महातार्किक तथा राजनैतिक-धर्माचार्य । यशोदेव के प्रशिष्य, नेमिदेव के शिष्य और महेन्द्र देव के लघु सधर्मा । कर्णाटक देश में चालुक्य राज के पुत्र वाघराज से रक्षित । कृति-नौति वाक्यामृत, यशस्तिलक चम्पू, अध्यात्म तरंगिनी, स्याद्वोदोपनिषद षण्ण प्रतिप्रकरण, त्रिवर्ग महेन्द्र मालिजम्प, युक्तिचिन्तामणिस्तब योगमार्ग । समय-यशस्तिलक का रचनाकाल शक तदनुसार वि.१०००-१०२५ (ई..६४३-६६८)। (ती./३/७१-७३), (जै./१/४२७) । २. बृहद कथा सरित सागर के रचयिता एक भट्टारक । समयई. १०६१-१०८१ । (जीवन्धर चम्पू/प्र. १८/A.N.Up.)। ३. एक जिन निम्न प्रतिष्ठाचार्य गृहस्थ, कृति-श्रुतमुनि कृत आत्रब त्रिभंगी का गुजराती भाष्य । समय-वि.श. १५-१६ । (जै./१/४६९-४६३)। सोमनाथ-कल्याणकारक' के रचयिता एक कन्नड़ आयुर्वेदिक विद्वान् । समय-ई. १९५० । (ती./४/३११)। सोमप्रभ-म.पु./सर्ग./श्लोक...श्रेयान्स राजाका भाई था । भगवान् ऋषभदेवको सर्व प्रथम आहार दिया (२०/८८)। अन्तमें भगवान के समवशरणमें दीक्षा ग्रहणकर (२४/१७४) मुक्ति प्राप्त की (४३/८६)। सोमयश-बाहुबलीका पुत्र था। इसीसे सोमवंशकी उत्पत्ति हुई थी। (ह. पु./१३/१-२): (प. पु./५१४)।-दे. इतिहास/१०/२ । सोमवंश-दे.इतिहास/१०/१७। सोमशर्मा-१. जातिका ब्राह्मण था। जैन मुनिसे प्रभावित होकर दीक्षा ग्रहण कर ली। परन्तु वर्ण का ठीक उच्चारण न होनेसे अन्य किसी आचार्य के पास जाकर चार आराधनाओंका आराधन कर स्वर्गमें देव हुआ। (बृ.क.को कथा नं. २) २. पुष्पा भजलका पुत्र था। मित्र मुनि बारिषेणको आहार दानके पीछे उनको संघमें पहुँचाने गया। वहाँ अनिच्छक वृत्तिसे दीक्षा धारण कर ली। बहुत समय पश्चात् बारिषेण मुनिने इनको पदविचलित जान कर अपनी शुगारित १०० सौ रानियोंको दिखाकर इसका स्थितिकरण किया। (बृ.क. को./कथा १०)। ३. विष्णुशर्मा द्वारा व्यापारार्थ प्रदत्त धनको डाकुओं द्वारा लूट लिया जानेपर दीक्षा ग्रहण कर ली। विष्णुशर्माके धनके लिए जिद करनेपर तपके प्रभावसे उसका धन चुका दिया। तब विष्णुदत्त भी दीक्षित हो गया। (बृ. क.को/कथा १६)। सोमश्रेणी-राजा भोजके समय मालवा केआश्रमनगरमें सोम श्रेणी के लिए नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक देवने द्रव्यसंग्रह रचा। समय_ वि. श. ११-१२ (ई.११ का उत्तरार्ध)-दे. नेमिचन्द्र । सोमसेन-सेनगणपुष्करगच्छ गुणभद्र भट्टारक के शिष्य, अभय पंडित के गुरु । कृति-राम पुराण, त्रिवर्णाचार (धर्म रसिक.), शब्द रश्न प्रदीप (संस्कृत कोष)। समय-ग्रन्थों का रचना काल वि. १६६१६६७ । (ती./३/४४३); (दे. इतिहास/१६) । सोमिल-भगवान् वीरके तीर्थ में अन्तकृत केवली हुए थे। दे. अन्तकृत। सोमेश्वर-धारवाडके राजा थे। इन्होंने धर्मगुरु गोवर्धन देवको सम्यक्त्व रत्नाकर चैत्यालय के लिए कुछ दान दिया था। समय ई. १०४५ (सि.वि./७५ शिलालेख) सोरठ-भरत क्षेत्रका एक देश । अपर नाम सौराष्ट्र-दे. मनुष्य/४। सोलसा-भगवान धर्मनाथको शासक यक्षिणी-दे.तीर्थ कर/५/३ । सोपक्रमकाल-दे. काल/१/६। साम-भद्रशाल वनस्थ पद्मोत्तर दिग्गजेन्द्रका स्वामी देव-दे, लोक/३/६.४ । सोमकायिक-१. लोकपाल देवौंका एक देव-दे. लोकपालः २. आकाशोपपन्न देव-दे. देव/11/१/३। सोमकीति-काष्ठासंघकी नन्दितट शाखा में भीससेनके शिष्य थे। कृति-प्रद्युम्न चरित्र, चारुदत्त चरित्र, यशोधर परित्र, सप्तव्यसन कथा। समय-वि. १५१८-१५४० (ई. १४६१-१४८३) । (ती/३/३४४)। जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोल्व ४४५ स्कंध सोल्व-भरत क्षेत्रस्थ मध्य आर्य खण्डका एक देश--दे. मनुष्य/४ सोकर-विजयाकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । सौगन्ध-मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट--दे. लोक/१०॥ सौगन्धिक-मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक१० । सौत्रान्तिक-दे. बौद्धदर्शन । सौदामिनी-रुचक पर्वत वासिनी दिक्कुमारी। -दे. लोक/५/१३ । सादास-प.पू./२२/श्लोक-इक्ष्वाकु वंशी नघुषका पुत्र था (१३१) नरमांसभक्षी होने के कारण राज्यसे च्युत कर दिया गया (१४४) । दैवयोगसे महापुर नगरका राज्य प्राप्त हुआ। इसके अनन्तर युद्ध में अपने पुत्र को जीत लिया । अन्त में दीक्षित हो गया (१४८-१५२) । सौधर्म-1. सौधर्मका लक्षण स.सि./४/११/२४६/७ सुधर्मा नाम सभा, सास्मिन्नस्तीति सौधर्मः कल्पः । तदस्मिन्नस्तोति अण । तत्कषपसाहचर्यादिन्द्रोऽपि सौधर्मः। -सुधर्मा नामको सभा है वह जहाँ है उस कम्पका नाम सौधर्म है। यहाँ तदस्मिन्नस्ति' इससे अण, प्रत्यय हुआ है। और इस कल्पके सम्बन्धसे वहाँका इन्द्र भी सौधर्म कहलाता है। १४००० और १६००० आसन हैं। और त्रयस्त्रिशद देवों के ३३ आसन नेऋतदिशामें हो हैं । ५१७१ सेना नायकोंके सात आसन पश्चिम दिशामें, सामानिक देवों के वायु और ईशान दिशामें हैं। इनमें चौरासी हजार सामानिकके आसनों में ४२००० तो वायु दिशामें, ४२००० ईशान दिशामें जानने । अंगरक्षक देवोंके भद्रासन चारों दिशाओं में हैं तहाँ सौधर्म के पूर्वादि एक-एक दिशामें ८४००० आसन जानने ।५१८। इस मण्डपके आगे एक योजन चौड़ा, छत्तीस योजन ऊँचा, पीठसे युक्त वज्रमय एक-एक कोश विस्तार वाली १२ धाराओंसे युक्त एक मानस्तम्भ है 1५१६। तिस मानस्तम्भमें चौथाई कोश चौड़े, एक कोश लम्बे तीर्थकर देवके आभरणों से भरे हुए रत्नोंकी सांकल में लटके हुए पिटारे हैं। मानस्तम्भ छत्तीस योजन ऊंचा है। उसमें नीचेसे पौने छह योजन ऊँचाई तक पिटारे नहीं हैं। बीचमें २४ योजनकी ऊँचाईमें पिटारे है, और फिर ऊपर सवा छह योजन की ऊँचाईमें पिटारे नहीं हैं। सौधर्म द्विकमें के मानस्तम्भ भरत ऐरावतके तीर्थकर सम्बन्धी हैं ।।२०-५२१३ सनत्कुमार युगल सम्बन्धी मानस्तम्भों के पिटारों में पूर्व पश्चिम विदेहके तीर्थकरों के आभूषण स्थापित करके देवों के द्वारा पूजनीय हैं । ५२२॥ * अन्य सम्बन्धित विषय १. कल्पवासी देवोंका एक मेद निर्देश --दे. स्वर्ग/३" २. कल्पवासी देवोंका अवस्थान --दे. स्वर्ग ३. कल्प स्वर्गीका प्रथम कल्प है --दे. स्वर्ग/१२। २. सुधर्मा सभाका अवस्थान व विस्तार ति.प./८/४०७-१०८ सक्कस्स मंदिरादो ईसाण दिसे सुधम्मणामसभा। तिसहस्सकोसउदया चउसयदीहा तददवित्थारा ।४०७। तीए दुवारछेहो कोसा चउसहि तद्दलं रु'दो। सेसाओ वण्णाओ सक्कप्पासादसरिसाओ १४०८) सौधर्म इन्द्र के मन्दिरसे ईशान दिशामें तीन हजार (तीन सौ) कोश ऊँची, चार सौ कोश लम्बी और इससे आधी विस्तार वाली सुधर्मा नामक सभा है।४०७। सुधर्मा सभाके द्वारोंकी ऊंचाई चौसठ कोश और विस्तार इससे आधा है। शेष वर्णन सौधर्म इन्द्रके प्रासादके सदृश है।४०८॥ त्रि.सा/५१५-१६ अमरावदिपुरमज्झे भगिहीसाणदो सुधम्मक्ख । अट्ठाणमण्डवं सयतद्दलदीहदु तदुभयदल उदयं ॥५१॥ पुवुत्तरदक्विणदिस सद्दारा अट्ठवास सोलुदया ।...1५१६ - अमरावती नामका इन्द्रका पुर है उसके मध्य इन्द्रके रहनेके मन्दिरसे ईशान विदिशामें सुधर्मा नाम सभा स्थान है। वह स्थान सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा और पचहत्तर योजन ऊंचा है।५९॥ इस सभा स्थानके पूर्व, उत्तर, व दक्षिण विदिशामें तीन द्वार हैं, उस एक द्वार की ऊँचाई सोलह योजन और चौड़ाई आठ योजन है ।५१६। ३. सुधर्मा सभा का स्वरूप त्रि.सा./५१६-५२२ मझे हरिसिंहासण परदेवीणासणं पुरदो ॥१६॥ तव्वाहिं पुठ्वादिसु सलोयवालाणतुणेरिदिए ।५१७। सेणावईणमवरे समाणियाणं तु पवणईसाणे। तणुरक्खाणं भद्दासणाणि चउदिसगयाणि बहिं ।।१८। तस्सग्गे इगिबासो छत्तीसुदओ सबीढ बज्जमओ। माणत्थंभो गोरुदवित्थारय बारकोडिजुदो ।।१६। चिट्ठति तस्थ गोरुदचरस्थ वित्थारकोसदीहजुदा । तित्थयरा भरणचिदा करडया रयण सिक्कधिया ।५२०॥ तुरियजुदविजुदछज्जोयणाणि उवरि अधोविण करण्डा। सोहम्मदुगे भरहेरावदतिस्थयरपडिबद्धा १५२१॥ साणक्कुमारजुगले पुबवर विदेह तित्थयर घूसा । ठविच्चिदा सुरेहिं कोडी परिणाह वारंसो १५२२१ - सुधर्मा सभाके मध्य में इन्द्रका सिंहासन है। और उस सिंहासनके आगे आठ पटदेवियोंके आठ सिंहासन है ।१६। पटदेवियोंके आसनको पूर्वादि दिशाओं में चारों लोकपालोंके चार आसन है। इन्द्र के आसनसे आग्नेय, यम और नैति दिशाओं में तीन जातिके परिषदोंके क्रमसे १२०००, सौभाग्यदशमी व्रत-भादौ सुदी दशमी दिन ठान, दश सुहागिनों भोजन दान । (व्रत विधान सं./१२६) ( नवल साहकृत ववमान पुराण)। सोमनस-१, विदेह क्षेत्रस्थ एक गजदन्त पर्वत -दे. लोक/५/३: २. विजयाधको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर; ३. सौमनस गजदम्तका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे, लोक/४४४. सुमेरु पर्वतका तृतीय वन, इसमें चार चैत्यालय है।-दे. लोक३/६.रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/४१३६. नव ग्रैवेयकका आठवाँ पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/५/३॥ सौम्या वाचना-दे. वाँचना । सौराष्ट्रा-दे, सुराष्ट्र। सौवीर-१.भरत क्षेत्रस्थ उत्तर आर्य खण्डका एक देश।-दे. मनुष्य 123; २. सिन्ध देशका एक भाग । (म. पु./प्र. २० पं. पन्नालाल )। सौवीरभुक्ति व्रत- प्रारम्भ करनेके दिनसे पहिले दिन एक लठाना ( केवल एक बार परोसे हुए भोजनको सन्तोष पूर्वक खाना ), अगले दिन एक उपवास करे। पश्चात एक ग्रास वृद्धि क्रमसे एकसे लेकर १० ग्रास पर्यन्त दस दिन तक भात व इमलीका भोजन करे। पुनः उससे अगले दिनसे एक हानि क्रमसे दसवें दिन १ ग्रास ग्रहण करे । अन्तिम दोपहर पश्चात उपरोक्तवत् एकलठाना करे। चारित्रसारमें इसीको आचाम्लवर्धनके नामसे कहा है । स्कंदगुप्त-मगधदेशकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह गुप्त वंशका चौथा राजा था। इसके समयमें हूणवंशी सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होने अक्रमण भी किया था, जिसे इनने पोछे फेर दिया था। समय-ई. ४१३-४३५-दे. इतिहास/३/४ । स्कं ध-Molecule (ज.प./प्र. १०६) स्कंध-परमाणुओं में स्वाभाविक रूपसे उनके स्निग्ध व रूक्ष गुणोंसें हानि वृद्धि होती रहती है। विशेष अनुपातवाले गुणों को प्राप्त होनेपर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कंध १. स्कंध निर्देश वे परस्परमें बंध जाते हैं, जिसके कारण सूक्ष्मतमसे स्थूलतम तक अनेक प्रकारके स्कन्ध उत्पन्न हो जाते हैं। पृथिवी, अप् , प्रकाश, छाया आदि सभी पुद्गल स्कन्ध है। लोकके सर्वद्वीप, चन्द्र, सूर्य आदि महान पृथिवियाँमिलकर एक महास्कन्ध होता है, क्योंकि पृथक्-पृथक् रहते हुए भी ये सभी मध्यवर्ती सूक्ष्म स्कन्धोंके द्वारा परस्परमें बंधकर एक हैं। १. स्कन्ध निर्देश १.स्कन्ध सामान्यका लक्षण स. सि./५/२५/२६७/७ स्थूलभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारस्कन्धनारस्कन्धा इति संज्ञायन्ते। जिनमें स्थूल रूपसे पकड़ना, रखना आदि व्यापारका सकन्धन अर्थात संघटना होती है वे स्कन्ध कहे जाते हैं। (रा. वा./५/२५/२/४६१/१६)। रा.पा./५/२६/१६/४६३/६ बन्धो वक्ष्यते, तं परिप्राप्ताः येऽणवः ते स्कन्धा इति व्यपदेशमर्हन्ति । -जिन परमाणुओंने परस्पर बन्ध कर लिया है वे स्कन्ध कहलाते हैं। * पुद्गल वर्गणा रूप स्कन्ध-दे, वर्गणा। २. स्कन्ध देशादिके भेद व लक्षण पं. का./म./७५ खधं सयलसमत्थं तस्स दु, अब भणं ति देसो त्ति। अबद्धःच पदेसो परमाणू चेव अविभागी।७। सकल-समस्त (पुदगल पिण्डात्मक सम्पूर्ण वस्तु) वह स्कन्ध है, उसके अर्धको देश कहते हैं, अर्धका अर्ध वह प्रदेश है और अविभागी वह सचमुच परमाणु है ।७॥ (मू. आ./२३१); (ति. प./१/१५); (ध. १३/१,३, १२/गा. ३/१३); (गो.जी./मू.६०४/१०५६); (यो. सा.अ./२/१९)। रा.वा./५/२५/१६/४६३/७ ते (स्कन्धाः ) त्रिविधाः स्कन्धाःस्कन्धदेशा: स्कन्धप्रदेशाश्चेति । अनन्तानन्तपरमाणुबन्धविशेषः स्कन्धः । तदधं देशः । अधिं प्रदेशः । तदभेदाः पृथिव्यप्तेजोवायवः स्पर्शादिशम्दादिपर्यायाः। -वे स्कन्ध तीन प्रकारके हैं-स्कन्ध, स्कन्धदेश और स्कन्ध प्रदेश। अनन्तानन्त परमाणुओका बन्ध विशेष स्कन्ध है। उसके आधेको देश कहते हैं और आधेके भी आधेको प्रदेश । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि उसीके भेद हैं। स्पर्शादि और स्कन्धादि उसकी पर्याय हैं। ध.३/१,२,१/गा, २/३ पुढवी-जलं च छाया चउरिदियविसय-कम्मपरमाणू । छव्विह भेयं भणियं जिणवरेंहि ।। - पृथिवी, जल, छाया, नेत्र इन्द्रियके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियोंके विषय, कर्म और परमाणु, इस प्रकार पुदगल द्रव्य छह प्रकारका कहा है। (पं. का./प्रक्षेपक/७३-१/१३०); (न. च, वृ/३२): (गो. जी./न./६०२/ १०५८); (नि. सा./ता. वृ./२०)। म. पु./२४/१५०-१५३ शब्दः स्पर्शो रसो गन्धः सूक्ष्मस्थूलो निगद्यते। अचाक्षुषत्वे सत्येषाम् इन्द्रियग्राह्यतेक्षणात् ।१५१० स्थूलसूक्ष्माः पुनईयाश्छायाज्योत्स्नातपादयः । चाक्षुषत्वेऽप्यसंहार्य रूपत्वाद विधातकाः । ।१५२। द्रवद्रव्यं जलादि स्यात स्थूलभेद निदर्शनम्। स्थूलस्थूलः पृथिव्यादि द्यः स्कन्धः प्रकीर्तितः ।१५३ = शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श सूक्ष्मस्थूल कहलाते हैं, क्योंकि यद्यपि इनका चक्षु इन्द्रियके द्वारा ज्ञान नहीं होता, इसलिए ये सूक्ष्म हैं परन्तु अपनी-अपनी कर्ण आदि इन्द्रियों के द्वारा इनका ग्रहण हो जाता है इसलिए ये स्थूल भी कहलाते हैं ।११। छाया, चाँदनी और आतप आदि स्थूल-सूक्ष्म कहलाते हैं क्योंकि चक्षु इन्द्रियके द्वारा दिखाई देनेके कारण यह स्थूल हैं, परन्तु इनके रूपका संहरण नहीं हो सकता, इसलिए विधात रहित होनेके कारण सूक्ष्म भी हैं । १५२। पानी आदि तरल पदार्थ जो कि पृथक् करनेपर भी मिल जाते हैं स्थूल भेदके उदाहरण हैं और पृथिवी आदि स्कन्ध जो कि भेद किये जानेपर फिर मिल न सकें स्थूल-स्थूल कहलाते हैं ।१५३। । का/त.प्र./७६ तत्र छिन्नाः स्वयं संधानासमर्था काष्ठपाषाणादयो मादरमादराः। छिन्नाः स्वयं संधानसमर्थाः क्षीरघृततैलतोयरसप्रभृतयो बादराः। स्थूलोपलम्भा अपि छेत्तुं भेत्तुमादातुमशक्या छायातपतमोज्योत्स्नादयो बादरसूक्ष्माः । सूक्ष्मत्वेऽपि स्थूलोपलम्भाः स्पर्शरसगन्धशब्दाः सूक्ष्मवादराः । सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्याः कर्मवर्गणादयः सूक्ष्माः। अत्यन्तसूक्ष्माः कर्मवर्गणाभ्योऽधो मणुकस्कन्धपर्यन्ताः सूक्ष्मसूक्ष्मा इति । काष्ठ पाषाणादिक जो कि छेदन करनेपर स्वयं नहीं जुड़ सकते वे ( घन पदार्थ) बादरमादर हैं। दूध, घी, तेल, रस आदि जो कि छेदन करनेपर स्वयं जुड़ जाते हैं वे (प्रवाही पदार्थ ) बादर हैं। छाया, धूप, अन्धकार, चाँदनी आदि (स्कन्ध ) जो कि स्थूल ज्ञात होनेपर भी जिनका छेदन, भेदन, अथवा ( हस्तादि द्वारा) ग्रहण नहीं किया जा सकता बे बादर-सूक्ष्म हैं। स्पर्श-रस-गंध-शब्द जो कि सूक्ष्म होनेपर भी स्थूल ज्ञात होते हैं (जो चक्षुके अतिरिक्त अन्य चार इन्द्रियोंसे ज्ञात होते हैं। वे सूक्ष्म बादर हैं। कर्म वर्गणादि कि जिन्हें सूक्ष्मपना है तथा जो इन्द्रियोंसे ज्ञात न हों ऐसे हैं वे सूक्ष्म हैं। कर्म वर्गणासे नीचेके द्विअणुक स्कंध तकके जो कि अत्यन्त सूक्ष्म हैं वे सूक्ष्मसूक्ष्म हैं । (गो.जी./जी. प्र./६०३/१०५६ ) । ४. महास्कन्ध निर्देश ष. ख./१४/५.६/सू. ६४१/४६४ अटु पुढवीओ टंकाणि कूडाणि भवणाणि विमाणाणि विमाणिदियाणि विमाणपत्थडाणि णिरइंदियाणि णिरयपत्थडाणि गच्छाणि गुम्माणि वल्लीणि लदाणि तणवणप्फदि आदीहि ।६४१ -आठ पृथिवियाँ, टेक, कूट, भवन, विमान, विमानेन्द्रक, विमानप्रस्तर नरक, नरकेन्द्रक, नरकप्रस्तर, गच्छ, गुल्म, बल्ली, लता और तृण बनस्पति आदि महास्कन्ध स्थान हैं ।६४१॥ गो. जी./जी.प्र./६००/१०५२/४ महास्कन्धवर्गणा वर्तमानकाले एका सा तु भवन विमानाष्टपृथ्वीमेरुकुलशैलादीनामेकीभावरूपा । कथं संख्यातासंख्यातयोजनान्तरितानामेकत्वं । एकमन्धनबद्धसूक्ष्मपुदगलस्कन्धैः समवेतानामन्तराभावात् । -महास्कन्ध वर्गणा वर्तमान कालमें जगत्में एक ही है सो भवनवासियोंके भवन, देवियों के विमान, आठ पृथिवी, मेरुगिरि, कुलाचल इत्यादिका एक स्कन्ध ३. स्थूल सूक्ष्मकी अपेक्षा स्कन्धके भेद व लक्षण नि, सा./मू./२१-२४ अइथूलथूलथूल थूलमुहुमं च मुहुमथूलं च सुहुमं अहमुहुम इदि धरादियं होदि छब्भेयं ।२१। भूपम्बदमानिया भणिदा अइथूलथूलमिदि बंधा । धूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेलमादीया। ।२२। छायातक्मादीया थूलेदरखधमिदि बियाणाहि। मुहमथूले दि भणिया बंधा चउरक्ख विसया य ।२३। मुहमा हवं ति खंधा पावोग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो। तविबरीया खंधा अइसहुमा इदि परूवेंदि । ।२४ - १. भेद-अतिस्थूलस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म ऐसे पृथिवी आदि स्कन्धोंके छह भेद हैं।२१॥ (म. पू./२४/२४६); (पं. का./त.प्र./७६); (यो, सा.अ./२/२०); (गो.जी./मू./६०३/१०५६);२. लक्षण-भूमि, पर्वत आदि अतिस्थूलस्थूल स्कन्ध कह गये हैं, घी जल तेल आदि स्थूलस्कन्ध जानना। ।२२। छाया, आतप आदि स्थूल-सूक्ष्मस्कन्ध जानना और चार इन्द्रियके विषयभूत स्कन्धोंको सूक्ष्म-स्थूल कहा गया है ।२३। और कर्म वर्गणाके योग्य स्कन्ध सूक्ष्म हैं, उनसे विपरीत (अर्थात कर्म वर्गणाके अयोग्य ) स्कन्ध अतिसूक्ष्म कहे जाते हैं ।२४। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कंध ४४७ २. पुद्गल बन्ध निर्देश रूप ही है। प्रश्न-जिनके संख्यात असंख्यात योजनका अन्तर है, अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायसे निष्पन्न होकर भी को। तिनका एक स्कन्ध कैसे संभवता है। उत्तर-जो मध्यमें सूक्ष्म स्कन्ध चाक्षुष होता है और कोई अचाक्षुष। उसमें जो अचाक्षुष परमाणू हैं, सो वे विमान आदि और सूक्ष्म परमाणू इन सबका एक स्कन्ध है वह चाक्षुष कैसे होता है इसी मातके मतलानेके लिए बंधान है, इसलिए अन्तर नहीं है एक स्कन्ध है । इरा एक स्कन्ध- यह कहा है कि भेद और संघातसे चाक्षुष स्कन्ध होता है, का नाम महास्कन्ध है। केवल भेदसे नहीं, यह सूत्रका अभिप्राय है। प्रश्न -इसका क्या द्र. सं./टी./२/चूलिका/७/२ पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कन्धापेक्षया कारण है। उत्तर-आगे उसी कारणको कहते हैं--सूक्ष्म परिणामवाले सर्वगत', दोषपुगतापेक्षया सर्वगतं न भवति। -पुदगल द्रव्य लोक स्कन्धका भेद होनेपर वह अपनी सूक्ष्मताको नहीं छोड़ता व्यापक महा स्कन्धकी अपेक्षा सर्वगत हैं और शेष पुद्गलोकी अपेक्षा इसलिए उसमें अचाक्षुषपना ही रहता है। एक दूसरा सूक्ष्म परिणाम असर्वगत हैं। वाला स्कन्ध है जिसका यद्यपि भेद हुआ तथापि उसका दूसरे दे. परमाणु /२/७ ( महास्कन्धमें कुछ परमाणु त्रिकाल अचल हैं) संघातसे संयोग हो गया अतः सूक्ष्मपना निकलकर उसमें स्थूल पनेकी दे. वर्गणा/२/२ (जघन्य वर्गणासे लेकर महास्कन्ध पर्यन्त वर्गणाओंकी उत्पत्ति हो जाती है और इसलिए वह चाक्षुष हो जाता है । (रा. क्रमिक वृद्धि) वा./५/२८/- /RR) * वनस्पति स्कन्ध निर्देश-दे. वनस्पति/३१७ । * परमाणुओंकी हीनाधिकतासे स्कन्ध मोटा व छोटा नहीं होता। -दे. सूक्ष्म/३/४ । ५. स्कन्धोंकी उत्पत्तिका कारण * स्कन्धके प्रदेशोंमें गुणों सम्बन्धी । -दे, पुदगल । त. सु./५/२६ भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते ।२६॥ स. सि./५/२६/२६८/५ भेदारसंघाताइभेदसंघाताभ्यां च उत्पद्यन्त ७. शब्द गन्ध आदि भेद स्कन्धके हैं परमाणुके नहीं इति । तद्यथा-द्वयोः परमाण्वोः संघाताद द्विप्रदेशः स्कन्ध उत्पद्यते। द्विप्रदेशस्याणोश्च त्रयाणा वा अणूनी संघातान्त्रिप्रदेशः । रा. वा./५/२४/२४/४६०/२५ शब्दादयस्तु स्कन्धानामेव व्यक्तिरूपेण द्वयोर्बिप्रदेशयोस्त्रिप्रदेशस्याणोश्च चतुर्णा वा अणून संघाताश्चतुः- भवन्ति सौम्यवा इत्येतस्य विशेषस्य प्रतिपत्त्यर्थ पृथग्योगकरणम्। प्रदेशः। एवं संख्येयासंख्येयानन्तानामनन्तानन्तानां च संघाता -शब्द आदि (अर्थात शब्द बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, त्तावत्प्रदेशः । एषामेव भेदात्तावद् द्विप्रदेशपर्यन्ताः स्कन्धा उत्प- तम, और छाया व आतप उद्योत ये सब) व्यक्त रूपसे स्कन्धोंके ही द्यन्ते । एवं भेदसंघाताभ्यामेकसमयिकाभ्यां द्विप्रदेशादयः स्कन्धा होते है सौक्षम्यको छोड़कर, इस विशेषताको बतानेके लिए पृथक उत्पद्यन्ते। अन्यतो भेदेनान्यस्य संघातेनेति । एवं स्कन्धानामु- सूत्र बनाया है। पत्तिहेतुरुक्तः। भेदसे, संघातसे तथा भेद और संघात दोनोंसे ८. कर्म स्कन्ध सूक्ष्म है स्थूल नहीं स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। प्रश्न-भेद और संघात दो हैं। इसलिए सूत्रमें द्विवचन होना चाहिए ? उत्तर-दो परमाणुओंके संघातसे स.सि./८/२४/४०२/११ कर्मग्रहण...योग्याः पुद्गलाः सूक्ष्माःन स्थूलाः दो प्रदेशबाला स्कन्ध उत्पन्न होता है। दो प्रदेशवाले स्कन्ध और इति =कर्म रूपसे ग्रहण योग्य पुद्गल सूक्ष्म होते हैं स्थूल नहीं होते। अणुके संघातसे या तीन अणुओंके संघातसे तीन प्रदेशवाला स्कन्ध (रा. वा./८/२४/४/१८५/१७) उत्पन्न होता है। दो प्रदेशवाले दो स्कन्धोंके संघातसे, तीन प्रदेशवाले * एक जातिके स्कन्ध दूसरी जाति रूप परिणमन नहीं स्कन्ध और अणुके संघातसे या चार अणुओंके स्कन्धोंके संघातसे. चार प्रदेशवाला स्कन्ध उत्पन्न होता है । इस प्रकार संख्यात, करते । -दे. वर्गणा/२/८ । असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त अणुओंके संघातसे उतने- * अनन्तों स्कन्धोंका लोक अवस्थान व अवगाह । उतने प्रदेशोंवाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। तथा इन्हीं संख्यात आदि परमाणुवाले स्कन्धोंके भेदसे दो प्रदेशवाले स्कन्ध तकं -दे. आकाश/३/ स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार एक समयमें होनेवाले भेद और संघात इन दोनोंसे दो प्रदेशवाले आदि स्कन्ध उत्पन्न होते २. पुद्गल बन्ध निर्देश हैं। तात्पर्य यह है कि जब अन्य स्कन्धसे भेद होता है और अन्यका संघात, तब एक साथ भेद और संघात इन दोनोंसे भी स्कन्धकी १. पुद्गल बन्धका लक्षण उत्पत्ति होती है। इस प्रकार स्कन्धोंकी उत्पत्तिका कारण कहा। रा.वा./२/१०/२/१२४/२४ द्रव्यबन्धः कर्मनोकर्मपरिणत: प्रद्धगलद्रव्य(रा. वा./५/२६/२-१/४६३/२६)। विषयः । नोकर्म रूपसे परिणत पुगलकर्म रूप द्रव्यबन्ध है। दे, वर्गणा/२/३,८,९ (ऊपरको वर्गणाओंके भेदसे तथा नीचेकी वर्गणाओं ध. १३/५.१,८२/३४७/६,१२ दो तिग्णि आदि पोग्गलाणं जो समवाओ के संघातसे उत्पन्न होनेका स्पष्टीकरण ) सो पोग्गलबंधो णाम ।। जेण गिद्धहुक्खादिगुणेण पोग्गलाणे बंधो ६. स्कंधोंमें चाक्षुष अचाक्षुष विभाग व उनकी उत्पत्ति होदि सो पोग्गलबंधो णाम।-दो, तीन आदि पुदगलों का जो समवाय सम्बन्ध होता है वह पुदगल बुध कहलाता है ।...जिस स्निग्ध और स.सू./५/२८ भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः/२८ । रूक्ष आदि गुणके कारण पुद्गलोंका बन्ध होता है उसकी पुदगलबन्ध स.सि./५/२८/२६६/७ अनन्तानन्तपरमाणुसमुदयनिष्पाद्योऽपि कश्चि. संज्ञा है। च्चाक्षुषः कश्चिदचाक्षुषः । तत्र योऽचाक्षुषः स कथं चाक्षुषो भवतीतिप्र.सा./त.प्र./१७७ यस्तावदत्र कर्मणा स्निग्ध रूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकस्वचेदुच्यते-भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः । न भेदिति । कात्रोपपत्तिरिति परिणामः स केवलपुदगलमन्धः। -कर्मोका जो स्निग्धतारूक्षता रूप चेत् । ब्रमः सूक्ष्मपरिणामस्य स्कन्धस्य भेदे सौम्यापरित्यागाद- स्पर्शविशेषों के साथ एकत्व परिणाम है सो केवल पुदगल बन्ध है। चाक्षुषत्वमेव । सौम्यपरिणतः पुनरपरः सत्यपि तदभेदेऽन्य- द्र.सं./टी./१६/५२/१२ मृरिपण्डादिरूपेण योऽसौ महधामन्धः स केवल: संघातान्तरसंयोगात्सौम्यपरिणामोपरमे स्थौग्योस्पती चाक्षुषो पुदगलगन्धः। -मिट्टी आदिके पिण्ड रूप जो मष्तृत प्रकारका बन्ध भवति । -भेद और संघातसे चाक्षुष स्कन्ध उत्पन्न होता है ।२८। है वह तो केवल पुगलबन्ध है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कंध फर्म पं. उ. ४० पौगलिकः पिण्डो बन्दस्तच्या रूप पौगलिक पिंडका अथवा कर्मको शहिका ही नाम द्रव्य बन्ध है |४| २. बन्धका कारण स्निग्ध रूक्षता त. सू./२/१३ स्निग्धः स.सि./५/३३/३०४/८ स्निग्धोरण्योः परस्परश्लेयलक्षणे अन्धे सन्धि भति एवं संख्यासं रूपेयानन्तप्रदेशः स्कन्धो योज्यः । = स्निग्धव और रूहत्व से बन्ध होता है |३३| स्निग्ध और गुणमा दो परमाणुओं का परस्पर संश्लेष लक्षण बन्ध होनेपर द्वणुक नामका स्कन्ध बनता है । इसी प्रकार संख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। (गो.जो. / घ. / ६०१ / १०६४) ३. स्निग्ध व रूक्ष में परस्पर बन्ध होने सम्बन्धी नियम नं. १४/५/२४.३६/२१.१२ यो यति वासना |४| द्विस्स णिवेग दुराहिएण हुक्वस्स बहुत्रखेण दुरा हिरण । णिद्धस्स यो जिसमे समे या ३६॥ स्नग्ध पृहगत स्निग्ध टुगलों के साथ नहीं रूस रूक्ष गलोंके साथ नहीं वैधते किन्तु सरश और विसदृश ऐसे स्निग्ध और रूक्ष पुगल परस्पर बँधते हैं | ३४ | स्निग्ध पुद्गलकह दो गुरु अधिक स्निग्ध हुनसके साथ और दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध होता है। तथा स्निग्ध गलका मलका रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुणके सिवा विषम अथवा सम गुग रहनेपर बग्ध होता है | ३६ | (प्र. सा./त.प्र./ १६६ में उद्धृत ) ; (गो, जो../६१०, २०/९०६०) प्र. स. १६६ सिग गुणो चद्गुगनिवेदि या तिगुणि अणुदि पंचो | ९६६॥ स्निग्ध रूपसे दो अंशवाला परमाणु चार अंशवाले स्निग्ध परमाणुके साथ बन्धको अनुभव करता है अथवा रूपरूपसे तीन अंशवाला परमाणु पॉच अंशवाले के साथ युक्त होता हुआ बँधता है । त सू. / ५ / ३४ ३६ न जवन्धगुणानाम् | १४ | गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥३५॥ ॥३६॥ गुणवाले पृढगलों का बन्ध नहीं होता | ३ ४ | समान शक्यंश होनेपर तुल्य जातिवालोंका बन्ध नहीं होता । ३५। दो अधिक आदि शक्त्यंशवालोंका तो बन्ध होता है | ३६ | न.च.वृ./१० पारी हे सरिस सिम वा । बज्झदि दोगुणअहिओ परमाणु जहणगुणरहिओ 12 जघन्य गुणसे रहित तथा दो गुण अधिक होनेपर स्निग्धका स्निग्ध के साथ, रूपका रूपके साथ, स्निग्धका रूपके साथ, और रूक्षका स्निग्धके साथ परमाणुओं का बन्ध होता है । ★ स्कन्धों में परमाणुओंका एक देश व सर्वदेश समागम ३ ४. पुद्गल बंध सम्बन्धी नियममें दृष्टि भेद सकेत-सहंश स्निग्ध + स्विग्ध याख् + रूक्ष । विसदृश स्निग्ध+ रूक्ष या रूप + स्निग्ध । S ૪૪૮ दृष्टि नं. १. ( . खं. १२ / मु. व टी./५, ६/सू. ३२-३६ / ३०-३२ ) । दृष्टि नं. २. (स.सि./२/१८/३०४-२००) (रा. वा./२/२४-३६/गो जो../६१२-६१८/१०६०) । नं. १ | समान गुणधारी २ असमान गुणधारी गुणांश ३ जघन्य + जघन्य ४ ५ ६ ७ ८ जघन्य + जघन्येतर जघन्येतर + सम जघन्येतर जघन्येतर + एकाधिक जर जघन्येतर + द्वयधिक जघन्येतर जघन्येतर + व्यापि अधिक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश जघन्येतर दृष्टि २०१ the the to the सदृश बिसदृश सदृश विसदृश नहीं हाँ The theater the नहीं स्तनक दृष्टि नं० २ नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं e and = = = etv काळ = = = ११ है ५. बद्ध परमाणुओंके गुणोंमें परिणमन त. सू. /५/३७ बन्धेऽधिको पारिणामिको च ॥ ३७॥ स.सि./५/३० / २०० / ९९ यया को गुडोऽधिकमधुररसः परीतान रेवादीनां स्वगुणापादनाय परिणामिक तथाऽन्योऽन्यमिव गुणाः अल्पीयसः पारिणामिक इति कृष्णा द्विगुणादिस्निग्धस्तु गंगादिस्मिन्रूतः पारिणामिको भवति ततः पूर्वावस्थाप्रच्यवनपूर्वकं तार्तीयकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते । इतरथा हि शुक्तन्तु संयोगे परिविति रूपेणे वावतिष्ठेत् । - बन्धके समय दो अधिक गुणवाला परिणमन करानेवाला होता है | ६७| जैसे अधिक मीठे रमवाला गीला गुड़ उसपर पड़ी हुई प्रतिको अपने गुणरूपसे परिणमानेके कारण पारिणामिक होता है उसी प्रकार अधिक गुणवाला अन्य भी अल्प गुणवालेका पारिणामिक होता है। इस व्यवस्थाके अनुसार दो शक्त्यंशवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुका चार शक्त्यंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु पारिणामिक होता है। इससे पूर्व अवस्थाओंका त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है। अतः उनमें एकरूपता आ जाती है अन्यथा सफेद और काले तन्तुके समान संयोग होनेपर भी पारिणामिक न होनेसे सब अलग-अलग ही स्थित रहेगा । गो.जो./मू./११/२००४ जिबीदरगुणा बहिया होणं परिणामयति बंधम्म | संखेज्जा संखेज्जाणं तपसाण खंधाण । संख्यात अस्थात अनम्यप्रदेशमा स्कन्धोंमें स्निग्ध या रूक्षके अधिक गुणवाले परमाणु या स्कन्ध अपनेसे हीन गुणवाले परमाणु या स्कन्धोंको अपने रूप परिणमाते हैं। ( जैसे एक हज़ार स्निग्ध या रूक्ष गुणके अंशोंसे युक्त परमाणु या स्कन्धको एक हजार दो अंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु या स्कन्ध परणमाता है | ) ★ गुणोंका परिणमन स्वजातिको सीमाका लंघन नहीं कर सकता - दे० गुण /२/७१ स्कंधशाली महोरण नामा जातिय व्यन्तरदेवोंका एक भेददे० महोरग । स्तंभन यंत्र यंत्र - स्तंभावष्टंभ - कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग / १ । नहीं नहीं स्तनक- दूसरे नरकका प्रथम पटल अथवा ( त्रि.सा. की अपेक्षा ) द्वितीय नरकका द्वितीय पटल दे० नरक/५/१९ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तनदृष्टि ४४९ स्त्री स्तनदृष्टि--कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । स्तनलोला-दूसरे नरकका ११वा पटल-दे० नरक/५/११॥ स्तनलोलुक-दूसरे नरकका ११वा पटल-दे० नरक/१/११ स्तनित-१. भवनवासी देवोंका एक भेद-दे० भवन/१४२.स्तनित कुमार देवोंका लोकमै अवस्थान-दे० भवन/४ । स्तब्ध-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/९ । स्तव-दे० भक्ति/३। स्तिवुक संक्रमण-दे० संक्रमण/१० । -१ पूर्व व पश्चात स्तुति नामक आहारका एक दोष --दे० आहार/11/४।२. स्तुति सम्बन्धी विषय-देभक्ति/३।३. न्या.द./टी. २/१/६४/१००/२५ विधेः फलवादलक्षणा या प्रशंसा सा स्तुतिः संप्रत्ययाथं स्तूयमानं श्रद्दधीतेति । प्रवत्तिका च फलश्रवणात् प्रवतन्ते सर्वजिता वै देवाः सर्व मजयन् सर्वस्वाप्त्यै सर्वस्य जित्यै सर्वमेवैतेनाप्नोति सर्व जयतीत्येवमादि । -विधि वाक्यके फल कहनेसे जो प्रशंसा है, उसे स्तुति कहते हैं क्योंकि फलकी प्रशंसा सुननेसे प्रवृत्ति होती है। उदाहरण, जैसे--देवोंने इस यज्ञको करके यज्ञको जीता, इस यज्ञके करनेसे सब कुछ प्राप्त होता है इत्यादि । स्तूप-१. म.पु./२२/२६४ जनानुरागास्ताद्रूप्यम आपन्ना इव ते बभुः। सिद्धार्हत्प्रतिबिम्बोधैः अभितश्चित्रमूर्तयः । अर्हन्त सिद्ध भगवान की प्रतिमाओंसे वे स्तूप चारों ओरसे चित्रविचित्रहोरहेथे और सुशोभित हो रहे थे मानो मनुष्योंका अनुराग ही स्तूपों रूप हो रहा हो । २६४ । सवशरण स्थिति स्तूप-दे० समशरण २. Pyramid. (ज.प./प्र.(१०८) स्तनप्रयोग-स.सि /७/२७/३६७/३ मुष्णन्त स्वयमेव वा प्रयुङ्क्तेऽन्येन वा प्रयोजयति प्रयुक्तमनुमन्यते वा यतः स स्तेनप्रयोगः । किसीको चोरीके लिए स्वयं प्रेरित करना, या दूसरेके द्वारा प्रेरणा दिलाना या प्रयुक्त किये हुए की अनुमोदना करना स्तेन प्रयोग है। (रा. वा./७/२७/१/५५४/६)। स्तेनित -कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१। स्तय-१.त. स.19/१५ (प्रमत्तयोगात ) अदत्तादानं स्तेयम् ।१० स. सि./9/१५/३५२/१२ आदानं ग्रामदत्तस्यादानमदत्तादानं स्तेयमित्युच्यते ।...दानादाने यत्र सभवतस्तत्रैव स्तेयव्यवहारः । बिना दी हुई वस्तुका लेना स्तेय है । १५ । आदान शब्दका अर्थ ग्रहण है। बिना दी हुई वस्तुका लेना अदत्तादान है और यहो स्तेय चोरी कहलाता है...जहाँ देना और लेना सम्भव हैं वहीं स्तेयका व्यवहार होता है। (रा.वा./७/१५/२/५४२/१५) २. स्तेय सम्बन्धी विषय-दे० अस्तेय । स्तेयानन्दी रौद्रध्यान-दे रौद्रध्यान। स्तोक-कालका प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/१/४। स्तोत्र-भिन्न-भिन्न आचार्योंने अनेकों स्तोत्र रचे हैं-१, आ. समन्तभद्र (ई. श. २) कृत देवागम स्तोत्र, स्वयंभूस्तोत्र व जिनस्तुतिशतक । २. आ० पूज्यपाद (ई. श. ५) कृत शान्त्यष्टकमें शान्तिनाथ भगवान का स्तोत्र है। ३. श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन दिवाकर (ई.५५५) कृत कल्याणमन्दिर स्तोत्र व शाश्वत जिन स्तुति । ४. आ० पात्रकेशरी (ई.श.६-७) कृत जिनेन्द्र स्तुति या पात्रकेशरी स्तोत्र । ५. आ० अकलंक भट्ट (ई. ६४०-६८०) कृत अकलंक स्तोत्र । ६. आ. विद्यानन्दि ( ई.७७५-८४०) कृत सुपार्श्वनाथ स्तोत्र । ७. आ० वादिराज (ई. १०००-१०४०) कृत एकीभावस्तोत्र । ८. आ० वसुनन्दि (ई. १०४३-१०५३) कृत जिनशतक स्तोत्र | ह. आ० मानतुंग (ई. १०२१-१०२५) कृत भक्तामर स्तोत्र । १०. श्वे० आ० हेमचन्द्र (ई. १०८८-११८३) कृत वीतराग स्तोत्र। ११. पं. आशाधर ( १९७३-१२४३) कृत सहस्रनाम स्तव । १२. आ० पद्मनन्दि (ई. १३२८-१३६८) कृत जरापल्लीपार्श्वनाथ स्तोत्र । १३. जिनसहस्रनाम स्तोत्र-दे० अर्हन्त स्त्यानगृद्धि-दे. निद्रा। स्त्री-धर्मपत्नी, भोगपत्नी, दासोपत्नी, परस्त्री, वेश्यादि भेदसे स्त्रियाँ कई प्रकारकी कही गयी हैं। ब्रह्मचर्यधर्म के पालनार्थ यथाभूमिका इनके त्यागका उपदेश है। आगममें जो स्त्रियों की इतनी निन्दा की गयी है, वह केवल इनके भौतिक रूपपर ग्लानि उत्पन्न करानेके लिए लिए ही जानना अन्यथा तो अनेकों सतियाँ भी हुई हैं जो पूज्य हैं। १. स्त्री सामान्य व लक्षण प.सं./प्रा /१/१०५ छादयति सयं दोसेण जदो छादयदि पर पि दोसेण । छादणसीला णियदं तम्हा सा वणिया इत्थी। जो मिथ्यात्व आदि दोषोंसे अपने आपको आच्छादित करे और मधुर संभाषण आदिके द्वारा दूसरोंको भी दोषसे आच्छादित करे, वह निश्चयसे यतः आच्छादन स्वभाववाली है अतः 'स्त्री' इस नामसे वर्णित की गयी है। (ध. १/१,९,१०१/गा. १७०/३४१); (गो. जी./मू./२७४/ ५६५); (पं.सं./सं/१/१६६) । ध. १/१,१,१०१/३४०/६ दोषैरात्मानं परं च स्तृणाति छादयतीति स्त्री, स्त्री चासौ वेदश्च स्त्रीवेदः। अथवा पुरुष स्तृणाति आकाङ्क्षतीति स्त्री पुरुषकाक्षेत्यर्थः। स्त्रियं विन्दतीति स्त्रीवेदः अथवा वेदन वेदः, स्त्रियो वेदः स्त्रीवेदः।-१. जो दोषों से स्वयं अपनेको और दूसरोंको आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं। (ध. ६/१,६-१, २४/४६/८); ( गो. जी./जो. प्र./२७४/५६६/४) और स्त्री रूप जो वेद है उसे स्त्रीवेद कहते हैं । २. अथवा जो पुरुषकी आकांक्षा करती है उसे स्त्री कहते हैं, जिसका अर्थ पुरुषकी चाह करनेवाली होता है, जो अपनेको स्त्री रूप अनुभव करती है उसे स्त्रीवेद कहते हैं। ३. अथवा वेदन करनेको वेद कहते हैं और स्त्री रूप वेदको स्त्रीवेद कहते हैं। २. स्त्रीवेदकर्मका लक्षण स.सि./4/8/३८६/२ यदुदयास्त्रैणान्भावान्प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः। -जिसके उदयसे स्त्री सम्बन्धी भावों को प्राप्त होता वह स्त्री वेद है। (रा. वा./5/8/५७४/२०); (पं.ध./उ./१०८१)। घ, ६/१६-१:२४/४७/१ जेसि कम्मरबंधाणमुद एण पुरुसम्मि आकंवा उप्पज्जइ तेसिमित्यिवेदो त्ति सण्णा |--जिन कम स्कन्धोंके उदयसे पुरुषमें आकांक्षा उत्पन्न होती है उन कर्मस्कन्धोंकी 'स्त्रीवेद' यह संज्ञा है। (ध. १३/५,५,६६/३६१/६)। * स्त्रीवेदके बन्ध योग्य परिणाम.दे, मोहनीय/३/६। ३. स्त्रीके अनेकों पर्यायवाची शब्दोंके लक्षण भ, आ./म./९७७-१८१/१०४५ पुरिसं वधमुवणे दित्ति होदि बहुँगा णिरुत्तिवादम्मि । दोसे संघादिदि य होदि य इत्थी मणुस्सस्स ।१७७। तारिसओ णत्थि अरी परस्स अण्णेत्ति उच्चदे णारी। पुरिसं सदा पमत्तं कुण दि त्तिय उच्चदे पमदाराह७८ गलए लायदि पुरिसस्स अणत्थं जेण तेण विलया सा। जोजेदि णरं दुक्खेण तेण जुवदी य जोसा भा०४-५७ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री स्त्री या। अब लत्ति होदि जं से ण दढं हिदयम्मि धिदिवल अत्थि। कुमरणोपायं जं जणयदि तो उच्चदि हि कुमारी।६८० आलं जाणेदि पुरिसस्स महल्लं जेण तेण महिला सा । एवं महिला णामाणि होति असुभाणि सव्वाणि (१८१। = स्त्री पुरुषको मारती है इस बास्ते उसको वधू कहते हैं। पुरुषमें यह दोषों का समुदाय संचित करती है इस वास्ते इसका 'स्त्री' यह नाम है।६७७१ मनुष्यको इसके समान दूसरा शत्रु नहीं है अतः इसको नारी कहते हैं। यह पुरुषको प्रमत्त अर्थात उन्मत्त बनाती है इसलिए इसको 'प्रमदा कहते हैं ।१७८। पुरुषके गले में यह अनर्थोंको बाँधती है अथवा पुरुषको देखकर उसमें लीन हो जाती है अत: इसको विलया कहते हैं। यह स्त्रो पुरुषको दु.ख से संयुक्त करती है अतः युवति और योषा ऐसे दो नाम इसके हैं ।१७। इसके हृदयमें धैर्य रूपी बल दृढ रहता नहीं अतः इसको साबला कहते हैं। कुत्सित ऐसा मरणका उपाय उत्पन्न करती है, इस लिए इसको कुमारी कहते हैं ।१६०। यह पुरुषके ऊपर दोषारोपण करती है इसलिए उसको महिला कहते हैं। ऐसे जितने स्त्रियों के नाम हैं वे सत्र अशुभ है ।१८) ४. द्रव्य व मावस्त्रीके लक्षण स. सि./२/१२/२००/६ स्त्रीवेदोदयात् स्त्यायस्त्यस्यां गर्भ इति स्त्री। - स्त्रीवेदके उदयसे जिसमें गर्भ रहता है वह (द्रव्य ) स्त्री है। (रा. वा./२/५२/१/१७/४)। गो. जी./जी. प्र./५७१/५६१/१७ स्त्रीवेदोदयेन पुरुषाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवः भावस्त्री भवति । स्त्रीवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन निर्लोममुग्वस्तनयोन्यादिलिङ्गलक्षितशरीरयुक्तो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्य(स्त्री) भवति । -स्त्रीवेदके उदयसे पुरुषकी अभिलाषा रूप . मैथुन संज्ञाकाधारक जीवभावस्त्री होता है ।...निर्माण नामकर्मके उदयसे युक्त स्त्रीवेद रूप आकार विशेष लिये, अंगोपांग नामकर्मके उदयसे रोम रहित मुख, स्तन, यो नि इत्यादि चिह्न संयुक्त शरीरका धारक जीव, सो पर्यायके प्रथम समयसे लगाकर अन्तसमध पयंत द्रव्यस्त्री होता है। नोट-(और भी देखो भावस्त्रोका लक्षण स्त्री/१,२) । नृपादिभिर्गृहीतत्वान्नीतिमार्गानतिक्रमात् ।२०३। विख्यातो नीतिमार्गोऽयं स्वामी स्याज्जगता नृपः । वस्तुतो यस्य न स्वामी तस्य स्वामी महीपतिः।२०४॥ तन्मतेषु गृहीता सा पित्राद्यैरावृतापिया। यस्याः संसर्गतो भीतिर्जायते न नृपादितः ।२०५॥ तन्मते द्विधैय स्वैरी गृहीतागृहीतभेदतः । सामान्यवनिता या स्याद्गृहीतान्तभवितः ।२०६।- स्वस्त्रो-देवशास्त्र गुरुको नमस्कारकर तथा अपने भाई बन्धुओं की साक्षी पूर्वक जिस कन्याके साथ विवाह किया जाता है वह विवाहिता स्त्री कहलाती है. ऐसी विवाहिता स्त्रियों के सिवाय अन्य सब पत्नियाँ दासियाँ कहलाती हैं ।१८। विवाहिता पत्नी दो प्रकारकी होती है। एक तो कर्मभूमिमें रूढिसे चली आयी अपनी जातिकी कन्याके साथ विवाह करना और दूसरी अन्य जातिकी कन्याके साथ विवाह करना ।१७१। अपनी जातिकी जिस कन्याके साथ विवाह किया जाता है वह धर्मपत्नी कहलाती है। वह ही यज्ञपूजा प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्यों में व प्रत्येक धर्म कार्यों में साथ रहती है ।१८०। उस धर्मपत्नीसे उत्पन्न पुत्र ही पिताके धर्मका अधिकारी होता है और गोत्रकी रक्षा करने रूप कार्यमें वह ही समस्त लोकका अविरोधी पुत्र है। अन्य जातिकी विवाहिता कन्या रूप पत्नीसे उत्पन्न पुत्रको उपरोक्त कार्यों का अधिकार नहीं है ।१२। जो पिताकी साक्षीपूर्वक अन्य जातिकी कन्याके साथ विवाह किया जाता है वह भोगपत्नी कहलाती है, क्योंकि वह केवल भोगोपभोग सेवन करने के काम आती है, अन्य कामों में नहीं।१८३। अपनी जाति तथा पर जातिके भेदसे स्त्रियाँ दो प्रकारकी हैं तथा जिसके साथ विवाह नहीं हुआ है ऐसी स्त्री दासी वा चेटो कहलाती है, ऐसी दासी केवल भोगाभिलाषिणी है ।१८४ा दासी और भोगपत्नी केवल भोगोपभोगके ही काम आती हैं। लौकिक दृष्टिसे यद्यपि उनमें थोड़ा भेद है पर परमार्थ से कोई भेद नहीं है ।१८ परस्त्री भी दो प्रकारकी हैं, एक दुसरेके अधीन रहनेवाली और दूसरी स्वतन्त्र रहनेवाली जिनको गृहीता और अगृहीता कहते हैं। इनके सिवाय तीसरी वेश्या भी परस्त्री कहलाती है ।१६८। गृहीता या विवाहिता स्त्री दो प्रकारको हैं एक ऐसी स्त्रियाँ जिनका पति जोता है तथा दूसरी ऐसी जिनका पति तो मर गया हो परन्तु माता, पिता अथवा जेठ देवरके यहाँ रहती हों ।१६। इसके सिवाय जो दासीके नामसे प्रसिद्ध हो और उसका पति ही घरका स्वामी हो वह भी गृहीता कहलाती है। यदि वह दासी किसोकी रक्खी हुई न हो, स्वतन्त्र हो तो वह गृहीता " दासी के समान ही अगृहीता कहलाती है ।२००। जिसके भाई बन्धु जीते हों परन्तु पति मर गया हो ऐसी विधवा स्त्रीको भी गृहीता कहते हैं। ऐसी विधवा स्त्रीके यदि भाई बन्धु सब मर जायें तो अगृहीता कहलाती है ।२०१। ऐसी स्त्रियों के साथ संसर्ग करते समय कोई शत्रु राजाको खबर कर दे तो अपराधके बदले राज्यकी ओरसे भी कठोर दण्ड मिलता है ।२०२। कोई यह भी कहते हैं कि जिस स्त्रीका पति और भाई बन्धु सब मर जायें तो भी अगृहीता नहीं कहलाती किन्तु गृहीता ही कहलाती है, क्यों कि गृहीता लक्षण उसमें घटित होता है क्योंकि नीतिमार्गका उल्लंघन न करते हुए राजाओंके द्वारा ग्रहण की जाती हैं इसलिए गृहीता ही कहलाती हैं ।२०३। संसारमें यह नीतिमार्ग प्रसिद्ध है कि संसार भरका स्वामी राजा होता है। वास्तवमें देखा जाये तो जिसका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा ही होता है ।२०४। जो इस नीतिको मानते हैं, उनके अनुसार उसको गृहोता ही मानना चाहिए, चाहे वह माता पिताके साथ रहती हो, चाहे अकेली रहती हो। उनके मतानुसार अगृहीता उसको समझना चाहिए जिसके साथ संसर्ग करनेपर राजाका डर न हो ।२०५॥ ऐसे लोगोंके मतानुसार रहनेवाली ( कुलटा) स्त्रियाँ दो प्रकार ही समझनी चाहिए। एक गृहीता दूसरी अगृहीता। जो सामान्य स्त्रियाँ हैं वे सब गृहीतामें अन्तर्भूत कर लेना चाहिए ( तथा वेश्याएँ अगृहीता समझनी चाहिए)।२०६। ५. गृहीता आदि स्त्रियोंके भेद व लक्षण ला, सं/२/१७८-२०६ देव शास्त्रगुरूनत्या बन्धुवर्गात्मसाक्षिकम् । पत्नी पाणिगृहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता ।१७। तत्र पाणिगृहीता या सा द्विधा लक्षणाद्यथा। आत्म-ज्ञातिः परज्ञातिः कर्मभृरूढिसाधनात ।१७६। परिणीतात्मज्ञातिश्च धर्मपत्नीति सैव च । धर्मकार्ये हि सधीची यागादौ शुभकर्मणि ।१८०1 सः सूनुः कर्मकार्येऽपि गोत्ररक्षादिलक्षणे । सर्वलोकाविरुदत्वादधिकारी न चेतरः।१८२। परिणीतानात्मज्ञातिर्या पितृसाक्षिपूर्वकम् । भोगपत्नीति सा ज्ञया भोगमात्रैकसाधनात् १८३। आत्मज्ञातिः परज्ञातिः सामान्यव निता तु या। पाणिग्रहणशून्या चेच्चेटिका सुरतप्रिया ।१८४। चेटिका भोगपत्नीच द्वयोर्भागाङ्गमात्रतः । लौकिकोक्तिविशेषोऽपि न भेदः पारमार्थिकः ।१८। विशेषोऽस्ति मिथश्चात्र-परत्वैकत्वतोऽपि च । गृहीताचागृहीता च तृतीया नगराङ्गना १९८। गृहीतापि द्विधा तत्र यथाद्या जोवभतृ का । सत्सु पित्रादिवर्गेषु द्वितीया मृतभत का ।१३। चेटिका या च विरूपाता पतिस्तस्याः स एव हि । गृहीता सापि विख्याता । स्यादगृहीता च तद्वत् ।२००। जीवत्सु बन्धुवर्गेषु रण्डा स्यान्मृतभर्तृ का। मृतेषु तेषु सैव स्यादगृहीता च स्वैरिणी ।२०१। अस्याः ससर्गवेजायामिङ्गिते नरि वैरिभिः। सापराधतया दण्डो नृपादिभ्यो भवेध वम् ।२०२। केचिज्जैना बदन्त्येव गृहोतेषां स्वलक्षणात् । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री ४५१ स्त्री ६.चेतनाचेतन स्त्रियाँ चा. सा./१/२ तिर्यग्मनुष्यदेवाचेतनभेदाच्चतुर्विधा स्त्री... - तियंच, __ मनुष्य, देव और अचेतनके भेदसे चार प्रकारकी स्त्रियाँ होती हैं । (बो. पा./टी./११८/२६७/२०) बो. पा./टी./११८/२६७/१६ काष्ठ-पाषाण-लेपकृतास्त्रियो। -काष्ठ पाषाण और लेप की हुई ये तीन प्रकारकी अचेतन स्त्रियाँ होती हैं। ७. स्त्रीकी निन्दा भ. आ./मू./गाथा नं. बग्घविसचोरअग्गीजलमत्तगयकण्हसप्पसत्तूस् । सो वीसभं गच्छदि वीसभदि जो महिलियो सु ।।५२॥ पाउसकालणदीवोष ताओ णिचंपि कलुसहिदयाओ। धणहरणकदमदीओ चोरोव्व सकज्जगुरुयाओ।१४। आगास भूमि उदधी जल मेरूवाउणो वि परिमाण । मादु सक्का ण पुणो सक्का इत्थीण चित्ताई १६३। जो जाणिऊण रत्तं पुरिसं चम्मट्ठिमंसपरिसैसं । उद्दाहं ति य बडिसामिसलग्गमच्छ व ।१७। चंदो हविज्ज उण्हो सीदो सूरो वि थडमागासं । ण य होज्ज अदोसा भहिया वि कुलबालिया महिला।६६01 -जो पुरुष स्त्रियोंपर विश्वास करता है वह बाघ, विष, चोर, आग. जल प्रवाह, मदवाला हाथी, कृष्णसर्प, और शत्रु इनके ऊपर विश्वास करता है ऐसा समझना चाहिए १६५२६ वर्षा कालकी नदीका मध्य प्रदेश मलिन पानीसे भरा रहता है और स्त्रियोंका चित्त भी राग, द्वेष, मोह, असूया आदि दुष्ट भावोंसे मलिन है। चोर जैसा मनमें इन लोगोंका धन किस उपायसे ग्रहण किया जावे ऐसा विचार करता है, वैसे ही स्त्रियाँ भी ( रति क्रीड़ा द्वारा) धन हरण करनेमें चतुर होती है।६५४। आकाश, जमीन, समुद्र, पानी, मेरु और वायु इन पदार्थोंका कुछ परिमाण है, परन्तु स्त्री के चित्तका अर्थात् उनके मनमें उत्पन्न होने वाले विकल्पों का परिमाण जान लेना अशक्य है ।६६३।अपनेपर आसक्त हुआ पुरुष चर्म, हड्डी, और मांस ही शेष बचा हुआ है ऐसा देखकर गलको लगे हुए मत्स्यके समान उसको मार देती है, अथवा घरसे निकाल देती है ।१७१। चन्द्र कदाचित शीतलताको त्यागकर उष्ण बनेगा, सूर्य भी ठंडा होगा, आकाश भी लोह पिण्डके समान धन होगा, परन्तु कुलीन वंशको भी स्त्री कल्याणकारिणी और सरल स्वभावकी धारक न होगी। (विशेष दे भ. आ./मू./१३८-१०३०) ज्ञा./१२/४४,५० भेत्तं शूलमसि छेत्तुं कर्तितुं क्रकचं दृढम् । नरान्पीडयितुं यन्त्रं वेधसा विहिताः स्त्रियः ।४४। यदि मूर्त्ताः प्रजायन्ते स्त्रीणां दोषाः कथंचन । पूरयेयुस्तदा नूनं नि शेष भुबनोदरम् ।१०। ब्रह्माने स्त्रियाँ बनायी हैं वे मनुष्योंको बेधने के लिए शूली, काटनेके लिए तलवार, कतरनेके लिए करीत अथवा पेलनेके लिए मानो यन्त्र ही अनाये हैं।४४। आचार्य कहते हैं कि स्त्रियोंके दोष यदि किसी प्रकारसे मूर्तिमान हो जाये तो मैं समझता हूँ कि उन दोषोंसे निश्चय करके समस्त त्रिलोको परिपूर्ण भर जायेगो ।१०। ( विशेष विस्तार दे. ज्ञा./१२९-१५५) * स्त्रीकी निन्दाका कारण उसकी दोषप्रचुरता -दे. स्त्री/ह। ८. स्त्री प्रशंसा योग्य भी है भ. आ./मू./६६५-१००० किं पुण गुणसहिदाओ इच्छीओ अस्थि विस्थ डजसाओ । णरलोगदेवदाओ देवे हि वि वंदणिज्जाओ।६। तिस्थयर चक्कधर वासुदेवबलदेवगणधरवराणं । जणणीओ महिलाओ सुरणरचरहिं महियाओ ६६६। एगपदिब्वाइकण्णा वयाणि धारिति कित्तिमहिलाओ। वेधव तिव्बदुववं आजीव णिति काओ वि 18६७ सीलवदीवो सुचंति महीयले पत्तपाडिहेराओ। सावाणुगहसमत्थाओ विय काओव महिलाओ ६६८। उग्घेण ण बूढाओ जलंतघोरग्गिणा ण दड्ढाओ । सप्पेहि सावज्जे हि वि हरिदा खद्धाण काओ वि IEEEN सब गुणसमग्गाण साहूर्ण पुरिसपवरसीहाण। चरमाण जणणित्तं पत्ता। हवं ति काओ वि १०००। - जगत में कोई कोई स्त्रियाँ गुणातिशयसे शोभा युक्त होनेसे मुनियों के द्वारा भी स्तुति योग्य हुई हैं। उनका यश जगतमें फैला है, ऐसी स्त्रियाँ मनुष्य लोकमें देवताके समान पूज्य हुई हैं, देव उनको नमस्कार करते हैं, तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र और गणधरादिकोको प्रसवने वाली स्त्रियाँ देव, और मनुष्यों में प्रधान व्यक्ति हैं । उनसे वन्दनीय हो गयी हैं । कितनेक स्त्रियाँ एक पतिव्रत धारण करती हैं, कितनेक स्त्रियाँ आजन्म अविवाहित रहकर निर्मल ब्रह्मचर्य वत धारण करती हैं। कितनेक स्त्रियाँ वैधव्यका तीव दुःख आजन्म धारण करती हैं |81-E७ शील व्रत धारण करनेसे कितनेक स्त्रियों में शाप देना और अनुग्रह करनेकी शक्ति भी प्राप्त हुई थी। ऐसा शास्त्रों में वर्णन है। देवताओं के द्वारा ऐसा स्त्रियोंका अनेक प्रकारसे माहात्म्य भी दिखाया गया है या ऐसी शीलवती स्त्रियोंको जलप्रवाह भी बहानेमें असमर्थ है। अग्नि भी उनको नहीं जला सकती है, वह शीतल होती हैं, ऐसी स्त्रियों को सर्प व्याघ्रादिक प्राणी नहीं खा सकते हैं अथवा मुहमें लेकर अन्यस्थानमें नहीं फेंक देते हैं । सम्पूर्ण गुणोंसे परिपूर्ण, श्रेष्ठ पुरुषों में भी श्रेष्ठ, तद्भव मोक्षगामी ऐसे पुरुषों को कितनेक शीलवती स्त्रियों ने जन्म दिया है ।१०००। कुरल./६/५.८ सर्वदेवान् परित्यज्य पतिदेव नमस्यति। प्रातरुस्थाय या नारी ततश्या वारिदाः स्वयम् ।। प्रसूते या शुभं पुत्रं लोकमान्य विदांवरम् । स्तुवन्ति देवता नित्यं स्वर्गस्था अपि ता मुदा।। -- जो स्त्री दूसरे देवताओंकी पूजा नहीं करती किन्तु बिछौनेसे उठते ही अपने पतिदेवको पूजती है, जलसे भरे हुए बादल भी उसका कहना मानते हैं। जो महिला लोकमान्य और विद्वान् पुत्रको जन्म • देती है स्वर्गलोकके देवता भी उसकी स्तुति करते हैं ।८। ज्ञा./१२/५७-५८ ननु सन्ति जीवलोके काश्चिच्छमशीलसंयमोपेताः । निजवंशतिलकभूता श्रुतसत्यसमन्विता नार्यः ॥५॥ सतीत्वेन महत्त्वेन वृत्तेन विनयेन च। विवेकेन स्त्रियः काश्चिद भूषयन्ति धरातलम १५८। - अहो। इस जगत में अनेक स्त्रियाँ ऐसी भी हैं जो समभाव और शील संयमसे भूषित हैं, तथा अपने वश में तिलकभूत हैं, और शास्त्र तथा सत्य वचन करके सहित भी हैं ।५७॥ अनेक स्त्रियाँ ऐसी हैं जो पतिव्रतपनसे, महत्त्वसे, चारित्रसे, विनयसे, विवेकसे इस पृथिवी तलको भूषित करती हैं ।५८० ९. स्त्रियोंकी निन्दा व प्रशंसाका समन्वय भ. आ./म्./१००१-१००२/१०५१ मोहोदयेण जीवो सम्बो दुस्सीलमइलिदो होदि। सो पुण सम्बो महिला पुरिसाणं होइ सामण्णा ।१००११ तस्मा सा पल्लवणा पउरा महिलाण होदि अधिकिच्चा । सीलवदीओ भणिदे दोसे किह णाम पावं ति ।१००२। -मोहोदयसे जीव कुशील बनते हैं, मलिन स्वभावके धारक बनते हैं। यह मोहोदय सर्व स्त्रियों और पुरुषों में समान हैं। जो पीछे स्त्रियो के दोष (दे स्त्री/७) का विस्तारसे वर्णन किया है वह श्रेष्ठ शीलवती स्त्रियोंके साथ सम्बन्ध नहीं रखता अर्थात् वह सब वर्णन कुशील स्त्रियों के विषयमें समझना चाहिए । क्योंकि शीलवती स्त्रियाँ गुणोंका धुंजस्वरूप ही हैं। उनको दोष कैसे छू सकते हैं ।१००१-१००२। ज्ञा./१२/18 निविण्णर्भवसक्रमाच्छू तधरै रेकान्ततो निस्पृहैर्यो यद्यपि दूषिताः शमधनै ब्रह्मवताल बिभिः । निन्द्यन्ते न तथापि निर्मलयमस्वाध्यायवृत्ताङ्किता-निर्वेदप्रशमादिपुण्यचरिताः शुद्धिभूता भुवि ।५।। - जो संसार परिभ्रमणसे विरक्त हैं, शास्त्रोंके परगामी और स्त्रियोंसे सर्वथा निस्पृह हैं तथा उपशम भाव ही है धन जिनके ऐसे ब्रह्मचर्यावलम्बी मुनिगणोने यद्यपि स्त्रियों की निन्दा की जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीकथा २ स्थान है तथापि जो स्त्रियाँ निर्मल हैं और पवित्र यम, नियम, स्वाध्याय, तिरछी नजरों से देखना, हँसना, मदभरी धीमी चालसे चलना और चारित्रादिमे विभूषित हैं और वैराग्य-उपशमादि पवित्राचरणोंसे । कामबाण मारना आदिको विफल कर दिया है उसके स्त्री बाधा परीषह पवित्र हैं वे निन्दा करने योग्य नहीं हैं। क्योंकि निन्दा दोषोंकी जय समझनी चाहिए। (रा. वा./६//१३/६१०/७); (चा, सा./ की जाती है, किन्तु गुणोंकी निन्दा नहीं की जाती ॥१॥ ११६/१)। गो. जो./जी.प्र./२७४/५६६/४ यद्यपि तीर्थ करजनन्यादीना कासाचित् स्त्रीवेद-दे. स्त्री। सम्यग्दृष्टीना एतदुक्तदोषाभावः, तथापि तासां दुर्लभत्वेन सर्वत्र सुलभ स्त्री संगति-दे. सगति । प्राचुर्यव्यवहारापेक्षया स्त्रोलक्षणं निरुक्तिपूर्वकमुक्तम् । यद्यपि तोर्थ ङ्करकी माता आदि सम्यग्दृष्टिणी स्त्रियों में दोष नहीं है तथापि स्थपति-चक्रवर्तीके चौदह रत्नों में से एक-दे. शलाकापुरुष/२। वे स्त्रो थोड़ी हैं और पूर्वोक्त दोषों से युक्त स्त्री घनी है, इसलिए प्रचुर । स्थलगता चूलिका-अंगश्रुतज्ञानका एक भेद-दे. श्रुतज्ञान/III. व्यवहारकी अपेक्षा स्त्रीका ऐसा लक्षण कहा। स्थविर कल्प-गो, जी./जी. प्र./५४७/७१४/६ पञ्चमकालस्थविर* मोक्षमार्गमें स्त्रीत्वका स्थान-दे. वेद/६,७। करपालपसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तं। पंचमकाल में स्थविरकल्पी १०. स्त्रियोंके कर्तव्य होन संहननके धारी साधुको तेरह प्रकारका चारित्र कहा है। स्थविरवादी मत-दे.बौद्धदर्शन। कुरल./६/१,६,७ यस्यामस्ति सुपत्नीत्वं सैवास्ति गृहिणी सती। गृहस्यायमनालोच्य व्ययते न पतिवता आहता पतिसेवाया रक्षणे स्थान-१. स्थान सामान्यका लक्षण कीर्तिधर्मयोः। अद्वितीया सतां मान्या पत्नी सा पतिदेवता । १. अनुभागके अर्थमें गुप्तस्थाननिवासेन स्त्रीणां नैव सुरक्षणम् । अक्षाणां निग्रहस्तासा केवलो धर्मरक्षकः 11वही उत्तम सहसमिणी है, जिसमें सुपत्नीत्वके ध.५१,७,१/१८६/१ किं ठाणं 1 उत्पत्ति हेऊ द्वाणं । - भावकी उत्पत्तिके सब गुण वर्तमान हो और जो अपने पतिकी सामर्थ्य से अधिक व्यय कारणको स्थान कहते हैं। नहीं करती।१। वही उत्तम सहधर्मिणी है जो अपने धर्म और यशकी ध.६/१,६-२.१/७६/३ तिष्ठत्यस्यां संख्यायामस्मिन् वा अवस्थाविशेषे रक्षा करती है, तथा प्रेमपूर्वक अपने पतिदेव की आराधना करती है प्रकृत्तयः इति स्थानम् । ठाणं ठिदी अवट्ठाणमिदि एयट्ठो। -जिसमें ६। चार दिवारीके अन्दर पर्देके साथ रहनेसे क्या लाभ ? स्त्रोके धर्म संख्या, अथवा जिस अवस्था विशेषमें प्रकृतियाँ ठहरती हैं, उसे स्थान का सर्वोत्तम रक्षक उसका इन्द्रिय निग्रह है। कहते हैं। स्थान, स्थिति और अवस्थान तीनों एकार्थक हैं। घ. १२/४,२,७,२००/१११/१२ एगजीवम्मि एक्कम्हि समए जो दीसदि ११. स्त्री पुरुषकी अपेक्षा कनिष्ठ मानी गयी है कम्माणुभागो तं ठाणं णाम । = एक जीवमें एक समयमें जो कर्मानभ, आ./वि/४२१/६१५/६ पर उद्धृत-जेणिच्छी लघुसिगा परप्पसज्झा भाग दिखता है उसे स्थान कहते हैं। य पच्छणिज्जा य। भीरु पररक्खणज्जेत्ति तेण पुरिसो भवदि __ गो.क./जी. प्र./२२६/२७२/१० अविभागप्रतिच्छेदसमूहो वर्गः, वर्गसमूहो जेट्ठो। -स्त्रियाँ पुरुषसे कनिष्ठ मानी गयी हैं, वे अपनी रक्षा स्वयं वर्गणा। वर्गणासमूहः स्पर्धकं । स्पर्धकसमूहो गुणहानिः । गुणहानिनहीं कर सकतीं, दूसरोंसे इच्छो जाती हैं। उनमें स्वभावतः भय समूहः स्थान मिति ज्ञातव्यम् । = अविभाग प्रतिच्छेदोंका समूह वर्ग, रहता है, कमजोरी रहती है, ऐसा पुरुष नहीं है अतः वह ज्येष्ठ है। वर्गका समूह वर्गणा, वर्गणाका समूह स्पर्धक, स्पर्धकका समूह गुण __ हानि और गुणहानिका समूह स्थान है। १२. धर्मपत्नीके अतिरिक्त अन्य स्त्रियोंका निषेध ल. सा./भाषा./२८५/२३६/१२ एक जीक एक कालविरे (प्रकृति बन्ध, अनुभाग बन्ध आदि) संभ ताका नाम स्थान है। ला सं./२ श्लोक नं. भोगपत्नी निषिद्धा स्यात सर्वतो धर्मवेदिनाम् । २. जगह विशेषके अर्थमें ग्रहणस्याविशेषेऽपि दोषो भेदस्य संभवात् ।१८७। एतत्सर्व परिज्ञाय स्वानुभूतिसमक्षता। पराङ्गनासु नादेया बुद्धि(धनशालिभिः१२०७४ ध. १३/५,५,६४/३३६/३ समुद्रावरुद्धः व्रजः स्थानं नाम निम्नगावरुद्धं =भागपत्नीके सेवन से अनेक प्रकारके दोष होते हैं, जिनको भगवान् वा। समुद्रसे अवरुद्ध अथवा नदीसे अवरुद्ध ब्रजका नाम स्थान है। सर्वज्ञ ही जानते हैं। भोगपत्नीको दासीके समान बताया है। अतः अन, ध./3/८४ स्थीयते येन तत्स्थानं वन्दनायां द्विधा मतम् । उद्भीदासीके सेवन करने के समान भोगात्तीके भोग करनेसे भी वज्रके लेप भावो निषद्या च तत्प्रयोज्यं यथाबलम् ।८४। -(वन्दना प्रकरणमें) समान पापोंका संचय होता है ।१८७१ अपने अनुभव और प्रत्यक्षसे इन वन्दना करनेवाला शरीरकी जिस आकृति अथवा क्रिया द्वारा एक ही. सब परस्त्रियोंके भेदों को समझकर बुद्धिमानोंको परस्त्री में अपनी बुद्धि जगहपर स्थित रहे उसको स्थान कहते हैं...।८।। कभी नहीं लगानी चाहिए ।२०७। २. स्थानके भेद-१. अध्यात्म स्थानादि *स्त्री सेवन निषेध-दे. ब्रह्मचर्य ३। स. सा /मू./५२-५५ ....णो अज्झप्पट्ठाणा व य अणुभायठाणाणि ॥५२॥ स्त्रीकथा-दे. कथा । जीवस्स णस्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा-वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणठाणया केई।५३ णो ठिदिबंधाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा स्त्री परिषह-स. सि./६/६/४२२/११ एकान्तेष्वारामभवनादिप्रदे- वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमल द्धिठाणा वा ५४। णेव य शेषु नवयौवनमदविभ्रममदिरापानप्रमत्तासु प्रमदासु बाधमानासु कूर्म- जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। जेण. दु एदे सव्वे वत्संवृतेन्द्रियहृदयविकारस्य ललितस्मितमृदुकथितसविलासवीक्षण- पुग्गल दव्वस्स परिणामा।। -जीवके अध्यात्म स्थान भी नहीं हैं प्रहसनमदमन्थरगमनमन्मथशरव्यापारविफलीकरणस्य स्त्रीबाधापरि- और अनुभाग स्थान भी नहीं है ।१२। जीवके योगस्थान भी नहीं, बहसहनमवगन्तव्यम् । =एकान्त ऐसे बगीचा तथा भवनादि स्थानों बंधस्थान भी नहीं, उदयस्थान भी नहीं, कोई मार्गणास्थान भी पर नवयौवन, मदविभ्रम और मदिरापानसे प्रमत्त हुई स्त्रियों के द्वारा नहीं है ।५३। स्थितिबन्धस्थान भी नहीं, अथवा संवलेश स्थान भी बाधा पहुँचाने पर करके समान जिसने इन्द्रिय और हृदयके विकार- नहीं, विशुद्धि स्थान भी नहीं, अथवा संयम लब्धि स्थान भी नहीं है को रोक लिया है तथा जिसने मन्द मुसकान, कोमल सम्भाषण, ११४। और जीवके जीव स्थान भी नहीं अथवा गुणस्थान भी नहीं है, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्यके परिणाम हैं । ५५। अर्थात् आगम में निम्न नामके स्थानों का उल्लेख यत्रतत्र मिलता है ।) २. निक्षेप रूप स्थान नोट-नाम स्थापना आदि भेद निक्षेप १२/२ (१०/४.२.४. १०५ / ४३४/८ ) । 1 सचित्त 1 | बाह्य | ध्रुव अध्रुव वर्ण / अभ्यन्तर 1 T सकोच तडीन विकोचात्मक 1 तद्वयतिरिक्त I अचित्त बाह्य 1 गंभ (व इनके उसर भेड़ ) भाव निक्षेप रूपभेद-दे, भाव । 1 ( लोकाकाश ) रूपी 1 धर्म बच अधर्म बाह्य 1 1 T I एक संख्यात असंख्यात अनंत इत्यादि जहद्वृत्तिक प्रदेशी प्रदेशी प्रदेशी प्रदेशी T 1 के आकाश प्रदेश I अभ्यन्तर } मिश्र 1 काल धर्म अधर्म काल का निज अब स्थान * अम्य सम्बन्धित विषय १. अध्यात्म आदि स्थानोंके लक्षण २. जीव स्थान ३. स्वस्थान रवस्थान व विहारवत्स्व-स्वस्थान 1 ४५३ अरूपी 1 - अभ्यन्तर 1 1 1 1 / रस [प] मूर्ति वर्णादि उपयोग इत्यादि हीनता २. निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण ध. १०/२,४,४,१७५/४३४/१० जं तं धुवं तं सिद्वाण मोगाहणट ठाणं । कुदो। सिमोगाइगाए बहिणीसमभावेण विरामादो। मधु चिद् तं संसारा जीवाणमोहगाहमा दो। तत्थ वड्ढिहाणीणमुत्र भादो ...ज तं संकोच विकोचणप्पयमब्भंतरसचित्तट्ठाणं तं सव्वेसि सजोगजीवाणं जीवदन । जं तं तव्त्रिहोगमन्तर सचिवाला गणराज अमोडिदि बंध परिणयानं सिद्धाअ जो गिकेवली या जीवद जो ध्रुव सचित्त स्थान है वह सिद्धाँका अनास्थानक वृद्धि हानिका प्रभाव होने से उनकी अवगाहना स्थिर स्वरूपसे अवस्थित है । जो अध्रुव सचित्तस्थान है वह संसारी जीवोंकी अवगाहना है, क्योंकि उनमें वृद्धि और हानि पायी जाती है।... संकोच विकचात्मक अभ्यन्तर सचित्त स्थान है वह योग युक्त सब जीवोंका जीव द्रव्य है । जो द्विहीन अभ्यन्तर सचित्त स्थान है यह केवलज्ञान व केवलदर्शनको धारण करनेवाले एव मोक्ष व स्थितिबन्धसे परिणत ऐसे सिद्धों अथवा अयोगत्र लियोंका जीव द्रव्य है । नोट- शेष निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण--दे, निक्षेप अजवृत्तिक - दे. वह वह नाम । - दे. समास । - -३.शेज/१। स्थानकवासी दे, श्वेताम्बर । स्थानांगका राग स्थाना पद्धति - Place Value (ज. प. / प्र.१०६ ) | स्थापना - १. दे. धारणा / १ धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा एकार्थबाची हैं । ध. १३/५.५. ४/२४३ / ११ स्थाप्यते अनया निर्णीतरूपेण अर्थ इति स्थापना। जिसके द्वारा निर्णीत रूपसे अर्थ स्थापित किया जाता है वह स्थापना है । २. पूजा में स्थापनाका विधि निषेध - दे. पूजा / ५ स्थापनाअक्षर दे, अक्षर 1 स्थापना नयन स्थापना निक्षेप - दे. निक्षेप /४ - स्थापना सत्य दे. सत्य / १ । स्थापित स्थावर १. आहारका एक दोष- दे. आहार / IT / ४४ । २. वसएक दोष स्थावर - वर्धमान भगवान्का पूर्वका १८ वाँ भय- दे. वर्धमान । स्थावर - पृथिवी अप आदि कायके एकेन्द्रिय जीव अपने स्थान पर स्थित रहने के कारण अथवा स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर कहलाते हैं। ये जीव सूक्ष्म व बादर दोनों प्रकार के होते हुए सर्व लोक में पाये जाते हैं। - श्रुतज्ञान[III । notation system. १. स्थावर जीवोंका लक्षण स.सि./२/१२/१७१/४ स्थावरनामकर्मोदयवशवर्तिनः स्थावराः । =स्थामर नामकर्मके उदयसे जीवाते हैं। (रा. ना./२/१२/ १२६/२८) । ध. २/१.१.३३/गा. १३३/२११ दिपदि जदि मेदि परिसदिरण एचकेण । कुणदि य तस्सामित्तं थारु एवं दिओ तेण ११३५ । स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है | १३६| १/१.१.३६/२६१/६ एते चापि स्थावरा स्थावरमामकमदयजनितविशेषत्वात् । =स्थावर नामकर्म के उदयमे उत्पन्न हुई विशेषता के कारण ये पाँचों ही स्थावर कहलाते हैं। २. स्थावर नामकर्मका लक्षण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश स.सि./८/१२/०१/१० मत नाम । प्रादुर्भावस्तत्स्थावर-जिसके उदयसे एकेन्द्रियों मे उम्पत्ति होती है वह स्थावर नामकर्म है। (रा.वा./१/११/२२/७/१६) (गो.... १३ १०/१७) । ध. ६ / १६६-१.२८/६१/६ जस्स कम्मम्स उदरण जीवी थावरतं पडिवज्जदि तस्स कम्मरंग थावरण | जदि थावरणामकम्मं ण होज्ज, तो थावरजीवाणमभावो हाउज । ण च एवं तेसिगुवलंभा । = जिस कर्मके उदयसे स्थापनेको प्राप्त होता है, उस कर्मकी स्थावर यह संज्ञा है । यदि स्थावर नाग न हो, तो स्थावर जीवोंका अभाव हो जायेगा। दन्तु ऐसा नहीं है । (ध. १२/१५,१०१/३६५ / ४) । * स्थावर नामकर्मके असंख्यातों भेद सम्भव हैं नाम ★ स्थावर नामकर्मकी बन्ध उदय व सत्व प्ररूपणाएँ दे. वह वह नाम । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थावर ३. स्थावर जीवोंके भेद - पं.का./मू./ ११० वी व उदगमगणी माणदि जीवसंसिदा काया १११०] पृथ्वीकाय. अकाय अग्निकाय, बाकाय और वनस्पतिकाय यह कार्ये जीव सहित हैं ।११० ( . आ. १०५) (न.च.मु./१२३); (का.अ. १९२४); (प्र.सं./मू./११) (स्वा.म. २६ / ३२६/२३/ ४. स्थावर जीव एकेन्द्रिय ही होते हैं। पं.का./मू./११० देति खलु मोहबहुलं फार्स बहुगा वि ते तैसि । ११० । ( पाँचों स्थावर जीवोंकी अवान्तर जातियों की अपेक्षा ) उनकी भारी संख्या होनेपर भी वे सभी उनमें रहनेवाले जीवको वास्तव में अत्यन्त मोहले संयुक्तस्पर्श देती है (अर्थात् स्पर्श ज्ञानमें निमित्त होती है।) घ. १/१,१.३३ / गा. १३५/२३६ जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि पस्सिदिएण एक् । कुणदि य तस्सामित्तं थावरु एइंदिओ तेण ११३५। क्योंकि स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा गया है । १३५ । ५. स्थावर जीवोंमें जीवत्वकी सिद्धि पं.का./.../ ११३ मत्था माणूसा य सुरागया। जारिया तारिया जीमा एदिया पेया ॥११३॥ एकेन्द्रियाणां चैतन्यास्रिये रातोपन्यः सोऽयम् अण्डमानां गर्भ स्थानों, हितानां च बुद्धिपूर्वक व्यापारादर्शनेऽपि येन प्रकारेण जो निश्चीयते, तेन प्रकारेण के न्द्रियाणामपि उभयेषामपि बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनस्य समानस्यादिति में वृद्धि पानेवाले प्राणी, गर्भ में रहे हुए प्राणी और प्राप्त मनुष्य जैसे हैं, जैसे एय जब जानना | ११३ | यह एकेन्द्रियोंको चैतम्या अस्तित्व होने सम्बन्धी दृष्टान्तका कथन है । अण्डे में रहे हुए प्राणी, गर्भ में रहे हुए और मुर्च्छा पाये हुएके का उन्हें बुद्धिपूर्वक व्यापार नहीं देखा जाता तथापि, जिस प्रकार निश्चय किया जाता है, उसी प्रकार एकेन्द्रियों के जीवश्वका भी निश्चय किया जाता है; क्योंकि दोनोंमें बुद्धि पूर्वक व्यापारका अदर्शन है। रा.मा./१/४/१५-१६/२६/१७ यद्य वं वनस्परमादीनामजीयस्वं प्राप्नोति भावादज्ञानादी प्रवृत्ति उपलब्धिः न च तेषां तत्का प्रवृतिरस्ति हिताविपरिवर्जनात् कियां इष्ट्या स्वदेहेऽन्यत्रतग्रहाद मम्यते बुद्धिमान येषु न तेषु धीः । [ सन्ताना. सि. श्लो. ] इति नैष दोषः तेषामपि ज्ञानादयः सन्ति सर्व इतरेषानागमगम्याः आहारताभालाभयोः पुष्टिम्ानादिदर्शनेन तिगम्यारथ गर्भस्थ चितादिषु सत्यपि जीवत्येतत्पूर्वक प्रवृत्त्यभावाद हेतुव्यभि चारः । - प्रश्न - ( जिसमें चेतनता न पायी जाये सो अजीब है ) यदि ऐसा है तो वनस्पति आदिकों में अजीवनकी प्राप्ति होती है। क्योंकि उनमें चेतनताका अभाव है। ज्ञानादिकी प्रवृत्ति से ही उसकी उपलब्धि होती है । परन्तु वनस्पति आदिमें बुद्धि पूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, क्योंकि उनमें हितके ग्रहण व अहितके त्यागका अभाव है। कहा भी है-अपने शरीर में बुद्धि क्रिया बुद्धिके रहते ही देखी जाती है, वैसी क्रिया यदि अन्यन्त्र हो तो वहाँ भी बुद्धिका सान मानना चाहिए, अन्यथा नहीं ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वनस्पति आदि ज्ञानादिका सद्भाव है इसको सर्वतो अपने प्रत्यक्ष ज्ञानसे जानते हैं और हम लोग आगमसे । खान पान आदिके मिलने पर पुष्टि और न मिलने पर मलिनता देखकर उनमें चैतन्यका अनुमान भी होता है। गर्भस्थ जीव मूच्छित और ४५४ स्थावर अण्डस्थ जीव बुद्धिपूर्वकस्थत क्रिया भी दिखाई नहीं देखी, अतः न दीखने मात्र से अभाव नहीं किया जा सकता । अर्शोऽङ्कुर स्या. म. / २६ / ३३० / १० पृथिव्यादीनां पुनर्जीवत्वमित्थं साधनीयम् । यथासामा मिसिलाविरुण पृथिवी समानधारयाना, भौममम्भोऽपि सात्मकम् क्षतभूसजातीयस्य सभावस्य संभवात् शाजूरवत् । आन्तरिक्षमपि सात्मकम्, अभ्रादिभिकारे स्वतः संपाताद मत्स्यादिमत् तेजोऽपि सारमकर, आहारोपादानेन वृद्धचादिविकारोपलम्भाद पुरुषाद वायुरपि सात्मकः अपरप्रेरित तिर्यग्गतिमवाद गोयद वनस्पतिरपि सात्मकः छेदादिभिम्लन्यादिदर्शनात् पुरुषाङ्गवत् । केषांचित् कसरतम्याद वा सर्वेष स्वापाङ्गलोपश्लेयादिविकाराय सात्मकत्व सिद्धिः । आप्तवचनाच्च । त्रसेषु च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिषु न केषांचिद साम्यकरले विगानमिति । १. गंगा पाषाणादि रूप पृथिवी सजीव है, क्योंकि डाभके अंकुरकी तरह पृथिवीके काटनेपर वह फिरसे ऊग आती है । २. पृथिवीका जल सजीव है, क्योंकि मैककी तरह जलका स्वभाव खोदी हुई पृथिवीके समान है। आकाशका जल भी सजीव है, क्योंकि मछली की तरह बादल के विकार होने पर वह स्वतः ही उत्पन्न होता है । ३. अग्नि भी सजीव है, क्योंकि पुरुषके अंगों की तरह आहार आदिके ग्रहण करनेसे उसमें वृद्धि होती है । ४, बायुमें भी जीव है, क्योंकि गौकी तरह वह दूसरे से प्रेरित होकर गमन करती है । ५. वनस्पति में भी कि पुरुषके अंगोंकी तरह बने उसमें मलिनता देखी जाती है । कुछ वनस्पतियों में स्त्रियोंके पादाघात आदिसे विकार होता है, इसलिए भो वनस्पतिमें जीव है । अथवा जिन जीवोंमें चेतना घटती हुई देखी जाती है, वे सब सजीव है। सर्वज्ञ भगवा पृथिवी आदिको जीव कहा है । ६, कृमि, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्य आदि प्रस जीवोंमें सभी लोगोंने जीव माना है। है ६. स्थावरोंमें कथंचित् श्रसपना पं.का./.../१९९९ तिरथावरजोगा अणिलागतकाध्याय ते [तसा] [१९१ अथ व्यवहारेणाग्निमातकायिकामा प्रस दर्शयति पृथिव्यनस्पतयखयः स्थावर काययोगासंबन्धात्स्यायरा भण्यन्ते अनामिकायिका रोषु पञ्चस्थान रेषु मध्ये चलन क्रियां रष्ट्रा व्यवहारेण त्रसाभण्यन्ते । अत्र व्यवहारसे अग्नि और बातकायिकों के सत्व दर्शाते हैं -- पृथिवी, अप और वनस्पति ये तीन तो स्थावर अर्थात स्थिर योग सम्बन्धके कारण स्थावर कहे जाते हैं । परन्तु अग्नि व वायुकायिक उन पाँच स्थावरोंमें ऐसे हैं जिनमें चलन किया देखकर व्यवहारसे उस भी कह देते हैं। ७. स्थावरके लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान रा.वा./२/१२/४-३/१२७/१ स्थादेतत्-सिष्ठन्तीरयेनं शीलाः स्थावरा इति सम्म किं कारणम् बाजादीनामस्थावरसंगात वायुतेजोऽम्भसां हि देशान्तरमाविर्शनादस्थावरावं स्यात् कथं तस्य निष्पत्तिः स्थानशीलाः स्थावरा" इति एवं विशेषतखाभात् क्वचिदेव वर्तते [४] अथ मतमेतद् इमेव वाय्वादीनामस्थावरस्वमितिः सन्नः किं कारणम् समयायमिवोधात् एवं हि समयोऽपस्थितः सत्प्ररूपणाय कायानुवाद “सा नाम जीन्द्रियादारभ्य वा अयोगिकेवलिनः प ११९०१ सु. ४४/१७५) । तस्मान्न चलनाचलनापेक्ष सस्थावरवं कर्मोदयापेक्षनेवेति स्थितम्। प्रश्न जो ठहरे खो, स्थावर ऐसा क्यों नहीं कहते ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, वायु आदिकोंमें अस्थावरत्वका प्रसंग आता है। वायु अग्नि और जलकी देशान्तर प्राप्ति देखी जाती है। इससे वे अस्थावर समझे जायेंगे। प्रश्न-- फिर इस स्थावर शब्द की 'जो ठहरे सो स्थावर ऐसी निष्पत्ति कैसे हो सकती है 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश B4 - Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थावर स्थिति दे, काय/२/५ बादर, अर. तेज व बनस्पति कायिक जीव अधोलोककी आठों पृथिवियों व भवनवासियों के विमानों में भी पाये जाते हैं। स्थित द्रव्य निक्षेप-दे, निक्षेप १८। स्थिात-अवस्थान काल का नाम स्थिति है। बन्ध कालसे लेकर प्रतिसमय एक एक करके कर्म उदयमें आ आकर खिरते रहते हैं। इस प्रकार जब तक उस समयमें बन्धा सर्व द्रव्य समाप्त हो, उतना उतना काल उस कर्म की स्थिति है। और प्रतिसमय वह खिरनेबाला द्रव्य निषेक कहलाता है। सम्पूर्ण स्थितिमें एक एकके पीछे एक स्थित रहता है। सबसे पहिले निषेकमें सबसे अधिक द्रव्य हैं, पीछे क्रम पूर्वक घटते घटते अन्तिम निषेकमें सर्वत्र स्तोक द्रव्य होता है। इसलिए स्थिति प्रकरणमें कर्म निषेकों का यह त्रिकोण यन्त्र बन जाता है। कवाय आदिको तीव्रताके कारण संक्लेश परिणामोंसे अधिक और विशुद्ध परिणामोंसे हीन स्थिति बन्धती है। उत्तर--यह तो रूढि विशेषके बलसे क्वचित् देखने में आता है। प्रश्न-वायु आदिक अस्थावर होते हैं तो हो जाओ, क्योंकि यह तो हमें इष्ट है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि आगम के साथ विरोध आता है। षटू खण्डागम सत्प्ररूपणाके कायानुबादमें ऐसा वचन अवस्थित है कि 'दोन्द्रियसे लेकर अयोग केवलि तक जीवों को त्रस कहते हैं।" अतः वायु आदिकों को स्थावरकी कोटिसे निकालकर प्रस कोटिमें लाना उचित नहीं है। इसलिए वचन और चलनकी अपेक्षा त्रस और स्थावर नहीं किया जा सकता। (स. सि./२/१२/१७२/४) (ध.१११,१,३६/२६५/६ ) ध, १/१,१.१४/२७६/१ स्थावरकर्मणः किं कार्यमिति चेदेकस्थानावस्थापकत्वम्। तेजोवारबकाया चलनात्मकानां तथा सत्यस्थावरत्वं स्थादिति चेन्न. स्थास्नूनां प्रयोगतश्चजच्छिन्नपानामिव गतिपर्यायपरिणतसमीरणाव्यतिरिक्त शरीरत्वतस्तेषां गमनाविरोधात् । --प्रश्न-स्थावर कर्म का क्या कार्य है। उत्तर-एक स्थानपर अब स्थित रखना स्थाबर कर्म का कार्य है । प्रश्न-ऐसा मानने पर, गमन स्वभाववाले अग्निकायिक वायुकायिक और जलकायिक जीवोंको अस्थावरपना प्राप्त हो जायगा ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार वृक्षमें लगे हुए पत्ते वायुसे हिला करते हैं और टूटनेपर इधरउधर उड़ जाते हैं. उसी प्रकार अग्नि कायिक और जलकायिकके प्रयोगसे गमन मानने में कोई विरोध नहीं आता है। तथा वायुके गति पर्यायसे परिणत शरीरको छोड़कर कोई दूसरा शरीर नहीं पाया जाता है इसलिए उसके गमन करन में भी कोई विरोध नहीं आता है। ८. त्रसव स्थावरमें भेद बतानेका प्रयोजन द्र. सं./टी./११/२६/६ अयमत्रार्थ:-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपर. मात्मस्वरूपभावनोत्पन्न पारमार्थिकसुरखमलभमाना इन्द्रियसुखासक्ता एकेन्द्रियादिजीवानां बधं कृत्वा त्रसस्थावरा भवन्तीत्युक्तं पूर्व तस्मात्त्रसस्थावरोत्पत्तिविनाशाथ तत्रैव परमात्मनि भावना कर्तव्येति । सारांश यह है कि निर्मल, ज्ञान, दर्शन स्वभाव निज परमात्म स्वरूपकी भावनासे उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख है उसकों न पाकर जीव इन्द्रियों के सुखमें आसक्त होकर जो एकेन्द्रियादि जीवोंकी हिंसा करते हैं उससे त्रस तथा स्थावर होते हैं, ऐसा पहले कह चुके हैं. इस कारण उस स्थावरोंमें उत्पत्ति होती है, सबकी मिटाने के लिए उसी पूर्वोक्त प्रकारसे परमात्माकी भावना करनी चाहिए। * स्थावरोको सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाए-दे. बह वह नाम । * स्थावरोंमें गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थानोंके स्वामित्व विषयक २० प्ररूपणाएँ--दे. सत् । * मार्गणा प्रकरणमें भाव मार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ आय व व्ययका संतुलन--दे, मार्गणा। *स्थावर जीवों में प्राणोंका स्वामित्व--दे, प्राण १। ९. स्थावर लोक निर्देश ति. प./५/५ जा जीवपोग्गलाणं धम्माधम्मप्पबद्ध आयासे । होति हु गदागदाणि ताब ह थावरा लोओ। धर्म व अधर्म द्रव्यसे सम्बन्धित जितने आकाशमें जीव और पुद्गलौका जाना आना रहता है उतना स्थावर लोक है ।। का, अ./मू./१२२ एइं दिएहि भरिदो पंच-पयारेहिं सव्वदो लोओ।...। १२२। - यह लोक पाँच प्रकारके एकेन्द्रियों से सर्वत्र भरा हुआ है। भेद व लक्षण स्थिति सामान्यका लक्षण ! स्थिति बन्धका लक्षण। स्थिति बन्ध अध्यवसाय स्थान । -दे, अध्यवसाय । उत्कृष्ट व सर्व स्थितिके लक्षण। | उत्कृष्ट व सर्व स्थिति आदिमें अन्तर। -- दे. अनुयोग/३/२॥ अग्र व उपरितन स्थितिके लक्षण । सान्तर व निरन्तर स्थिति के लक्षण । प्रथम व द्वितीय स्थितिके लक्षण । | सादि अनादि स्थितिके लक्षण । ८ । विचार स्थानका लक्षण जीवोंकी स्थिति। -दे आयु। स्थितिबन्ध निर्देश १ स्थितिबन्धमें चार अनुयोग द्वार। २ | भवस्थिति व कास्थितिमें अन्तर । एकसमयिक बन्धको बन्ध नहीं कहते। स्थिति व अनुभाग वन्धकी प्रधानता। * | स्थितिबन्धका कारण कषाय है। -दे. बन्ध५/१। * | स्थिति (काल) की ओघ आदेश प्ररूपणा। -दे. काल/५,६ । निषेक रचना निषेक रचना ही कर्मोकी स्थिति है। स्थितिबन्धमें निषेकोंकी त्रिकोण रचना सम्बन्धी। निषेकोंकी त्रिकोण रचनाका आकार ।-दे, उदय/३ । ३ | कर्म व नोकर्मकी निषेक रचना सम्बन्धी विशेष सूची। उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धी नियम * जधन्य स्थितिमें निषेक प्रधान हैं और उत्कृष्ट स्थितिमें काल। -दे. सत्त्व/२/५।। मरण समय उत्कृष्ट बन्ध सम्भव नहीं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति ફ્ ३ ४ ५ ६ ७ * ८ ५ १ २ ३ स्थितिजन्य संक्या विशुद्ध परिणामका स्थान । मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्धक कौन । उत्कृष्ट अनुभागके साथ उत्कृष्ट स्थिति बन्धको व्याप्ति । स्थिति व प्रदेश बन्धमें अन्तर - दे. प्रदेश बन्ध । उत्कृष्ट स्थिति बन्धका अन्तरकाल । २ जघन्य स्थितिबन्ध गुणहानि सम्भव नहीं । खाता न तीर्थंकर प्रतियोंका न सम्बन्धी दृष्टि मेद ईर्यापथ कर्मकी स्थिति सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति सत्त्वके स्वामी उ स्थितियन्य - दे ईर्यायथ । -दे, सव/२ | अनुभागके साथ अनुष्ट स्थिति कैसे। स्थितिबन्ध सम्बन्धी शंका समाधान साताके जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धो । उत्कृष्ट अनुभाग के साथ अनुत्कृष्ट स्थितिवन्ध कैसे । विग्रह गति में नारको संक्षोका सुजगार स्थितिबन्ध कैसे ? ६ स्थितिबन्ध प्ररूपणा १ मूलोत्तर प्रकृतियोंकी जयन्योत्कृष्ट आबाधा व स्थिति तथा उनका स्वामित्व । इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षाकृतियों की उ. ज. रिथतिकी सारणी | उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति, प्रदेश व अनुभाग के 'बन्धोंकी प्ररूपणा । १. भेद व लक्षण १. स्थिति सामान्यका लक्षण अन्य प्ररूपणाओं सम्बन्धी सूची । मूलोत्तर प्रकृतिकी स्थितिबन्ध व वन्धकों समन्धी संख्या क्षेत्र वन, काल, अन्तर, भाव व अवदुत्व रूप आठ मरूपणाएँ । - दे. वह वह नाम । १. स्पितिका अर्थ गमनरहितता रा. वा //१०/२/४१० / २४ तद्विपरीता स्थितिः । द्रव्यस्य स्वदेशादप्रधयन हेतुर्गतिनिवृत्तिरूप स्थितिगन्तव्य गतिविपरीत स्थिति होती है। वर्षा गतिनिवृत्ति रूप स्वदेश से अतिको स्थिति कहते हैं । (स.सि./५/१७/२८१/१२/ रा. या /५/९/१६/४४१/१२ जीवप्ररेशानाम् उदनियतपरिस्पन्स्थाप्रवृत्तिको स्थिति तथा उथलपृथल न होनेको स्थिति कहते हैं । ४५६ २. स्थितिका अकाल स.सि./१/७/२२/४ स्थितिः कालपरिच्छेदः । - जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है (रा. मा./१/०/-/ १००३) रावा./१/८/६/४२/३ स्थितिमोऽधिपरिच्छेदार्थकोपादानम् ॥६॥ = किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थकी काल मयार्दा निश्चय करना काल (स्थिति) है। क. पा. ३/३३५८ / १६२ / ६ कम्मसरुवेण परिणदाणं कम्मइयपोग्गलक्खंधाण कम्मभावमछंडिय अच्छाणकालो द्विदीणाम । कर्म रूपसे परिणत हुए कर्मोंके कर्मपनेको न छोड़कर रहनेके बालको स्थिति कहते हैं। क. पा. ३/३-२२/६३९४/२१२/२ सलयियकालमा अावेद सपल णिसेगहाणा द्विदित्ति । सर्व निषेकगत काल प्रधान अद्धाहोता है और सर्वनिषेक प्रदान स्थिति होती है। गो. जी. /भाषा/ पृ. ३१०/२ अन्य काय तै आकर तेजसकाय विषै जीव उपज्या तहाँ उत्कृष्टपने जेते काल और काय न धरे. तेजस कायनिकों धराकरै तिस काल के समयनिका प्रमाण ( तेजसकायिककी स्थिति ) जानना । १३. २. स्थिति का अर्थ आयु १. भेद व लक्षण स. सि. ४/२०/२५१/० स्वोपात्तस्याम उपाभिने दशरीरेण सहायस्थानं स्थितिः । - अपने द्वारा प्राप्त हुई आयुके उदयसे उस भवमें शरीर के साथ रहना स्थिति कहलाती है (रा. २१.२४/२०/१/२३७/१२) २. स्थिति बन्धका लक्षण स. सि. /८/३/३७६/४ तत्स्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । यथा-अजागोमहिष्यादिक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । तथा ज्ञानावरणादीनामर्थावगमादित्यभावादवच्युतिः स्थिति जिसका जो स्वभाव है उससे च्युत न होना स्थिति है। जिस प्रकार बक्री, गाय और भैंस आदि दूधका माधुर्य स्वभावसे न होना स्थिति है। उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मोंका अर्थका ज्ञान न होने देना आदि स्तन होता स्थिति है (पं. सं. वा./२/५१४-२१२१ (रा.वा./३/५/५६७/७) (प्र. सं. / टी. / ३२/१३/५) (पं. सं/से, /४/१६६-१६७) ६/९.६२ १४६ / १ जोगबसे कम्मररुवेग परिणदा पोग्गल - घानं कायमसे जीने कालो द्विदी नामयोगके शसे कर्मस्वरूप परिणता कमायके से जीवमें एक स्वरूपसे रहने के कालको स्थिति कहते हैं । ३. उत्कृष्ट व सर्व स्थितिके लक्षण क. पा. ३/३-२२/१२०/२५/२ 'तत्यतणसम्वणिसेयाणं समूहों सदी नाम । = (बद्ध कर्म के ) समस्त निषेकोंके या समस्त निषेकों के प्रदेशों के कालको उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं। ये स्थिति /९/६ वहाँ पर उत्कृष्ट स्थिति रहनेवाले (बद्ध कर्म के ) सम्पूर्ण निषेकका जो समूह वह सर्व स्थिति है । क. पा. ३/३-२२/२०/१५ पर विशेषार्थ - (द्ध कर्म के) अन्तिम निषेकका जो काल है वह ( उस कर्मको) उत्कृष्ट स्थिति है। इसमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तककी सब स्थितियों का ग्रहण किया है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर जो प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तक निषेक रचना होती है वह सर्व स्थिति है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति २. स्थितिबन्ध निर्देश .. अग्रव उपरितन स्थितिके लक्षण ८. विचार स्थानका लक्षण १. अग्र स्थिति ध. १४/५.६.३२०/३६७/४ जहण्णणिबत्तीए चरिमणिसे ओ अग्गं णाम । तस्स द्विदी जहणिया अग्गद्विदि त्ति घेत्तव्वा । जहण्णणिव्वत्ति त्ति भणिदं होदि। -जघन्य निवृतिके अन्तिम निषेककी अग्रसंज्ञा है। उसकी स्थिति जघन्य अपस्थिति है ।...जघन्य निवृत्ति (जघन्य आयुषन्ध) यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ध,६/१६-4,६/९५० पर उदाहरण वीचारस्थान-(उत्कृष्ट स्थिति-जघन्य स्थिति) या अबाधाके भेद-१ तहाँ अवाधाके भेद-( उत्कृष्ट स्थति-जधन्यस्थिति+१) आबाधा काण्डक अबाधा काण्डक- उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट आबाधा जैसे यदि उत्कृष्ट स्थिति-१४; जघन्य स्थिति-४५. उत्कृष्ट आधाधा १६: आबाधा काण्डक-३४-४ तो ६४-६१ तक ४ स्थिति भेदों का एक आबाधा काण्डक (ii) ६०-५७ , " " " " " . (iii)५६-५३, , . , . . " " (iv) १२-४६.. " " " " " " २. उपरितन स्थिति मो. जी./भाषा,/६७/१७६/१० वर्तमान समय तै लगाइ उदयावलीका काल, ताकै पीछे गुण श्रेणी आयाम काल, ताके पीछे अवशेष सर्व स्थिति काल, अन्त विषै अतिस्थापनावली मिना सो उपरितन स्थितिका काल, तिनिके निषेक पूर्व थे तिनि विष मिलाइए है। सो यह मिलाया हुआ द्रव्यपूर्व निषेकनिके साथ उदय होइ निर्जर है, ऐसा भाव जानना । (ल. सा./भाषा./६६/१०४ )। गो. जो./अर्थ संदृष्टि/पृ. २४ ताके ( उदयावली तथा गुण श्रेणीके ) ऊपर (बहुत काल तक उदय आने योग्य ) के जे निषेक तिनिका समूह सो तो उपरितन स्थिति है। यहाँ आमाधा काण्डक-१: आवाधा काण्डक आयाम-४ आमाधाके भेद =x४-२० वीचार स्थान-२०-१-१६ या ६४-४५-१६ ५. सान्तर निरन्तर स्थितिके लक्षण गो. क./भाषा./६४५.६४६/२०५४-२०५५ सान्तरस्थिति उत्कृष्ट स्थिति तै लगाय-जघन्य स्थिप्ति पर्यन्त एक-एक समय धाटिका अनक्रम लिये जो निरन्तर स्थितिके भेद...(१४५/२०१४)। सान्तर स्थितिमान्तर कहिए एक समय घाटिके नियम करि रहित ऐसे स्थिति २. स्थितिबन्ध निर्देश १. स्थितिबन्धमें चार अनुयोग द्वार परख११/४,२,६/सू. ३६/१४० एत्तो मूलपयडिदिदिबंधे पुव्वं गमणिज्जे तत्थ इमाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि द्विदिबंधाणप्ररूवणा णिसेयपरूवणा आवाधाकंडयपरूवणा अप्पाबहए ति।३६-आगे मूल प्रकृति स्थितिमन्ध पूर्वमें ज्ञातव्य है। उसमें ये चार अनुयोगद्वार हैं-स्थिति बन्धस्थान प्ररूपणा, निषेक-प्ररूपणा, आबाधा काण्डक प्ररूपणा, और अस्प बहुत्व। क्ष. सा./भाषा/५८३/६६/१६ गुण श्रेणि आयामके ऊपरवर्ती जिनि प्रदेशनिका पूर्व अभाव किया था तिनिका प्रमाण रूप अन्तरस्थिति है। २. भवस्थिति व कायस्थितिमें अन्तर रा. वा./३/३६/६/२१०/३ एकभव विषया भवस्थितिः। कायस्थितिरेककायापरित्यागेन नानाभवग्रहणविषया ।-एक भवकी स्थिति भवस्थिति कहलाती है और एक कायका परित्याग किये बिना अनेक भवविषयक कायस्थिति होती है। १. प्रथम व द्वितीय स्थितिके लक्षण क्ष. सा./भाषा./५८३/६६/१७ ताके उपरिवर्ती । अन्तर स्थितिके उपरिवर्ती ) अवशेष सर्व स्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है। दे. अन्तरकरण/१/२ अन्तरकरणसे नीचेकी अन्तर्मुहर्तमित स्थितिको प्रथम स्थिति कहते हैं और अन्तरकरणसे ऊपरकी स्थितिको द्वितीयस्थिति कहते हैं। ३. एकसमयिक बन्धको बन्ध नहीं कहते ध. १३/५,४.२४/५४/५ ठिदि-अणुभागबंधाभावेण मुक्ककुडू परिवत्तवा. लुबमुठ्ठि व्व जीवसंबंधविदियसमए चेव णिवदंतस्स बंधववएसविरोहादो। स्थिति और अनुभाग बन्धके बिना शुष्क भीतपर फैकी गयी मुट्ठीभर बालुकाके समान जीवसे सम्बन्ध होनेके दूसरे समयमें ही पतित हुए सातावेदनीय कर्मको बन्ध संज्ञा देनेमें विरोध आता है। ७. सादि अनादि स्थितिके लक्षण पं.स./प्रा./टी./४/३६०/२४३/१६ सादिस्थितिबन्धः यः अबन्ध स्थितिमन्ध बध्नाति स सादिबन्धः। अनादिस्थितिबन्धः, जीवकर्मणोरनादिबन्धः स्यात् ।-विवक्षित कर्मकी स्थितिके बन्धका अभाव होकर पुनः उसके बंधनेको सादि स्थितिमन्ध कहते हैं। गुणस्थानों में बन्ध व्युच्छित्तिके पूर्वतक अनादि कालसे होनेवाले स्थितिबन्ध को अनादिस्थितिबन्ध कहते हैं। १. स्थिति व अनुभाग बन्धकी प्रधानता रा. वा./4/३/७/५०७/३१ अनुभागबन्धो हि प्रधानभूतः तन्निमित्तत्वाव सुखदुःखविपाकस्य । - अनुभागबन्ध प्रधान है, वही सुख-दुःख रूप फलका निमित्त होता है। भा०४-५८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति ४५८ ४. उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धी नियम ४. उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धी नियम गो. क./जी.प्र./000/898/- ऐतेषु षट्सु सत्सु जीवो ज्ञानदर्शनावरणद्वयं भूयो बध्नाति-प्रचुरवृत्त्या स्थित्त्यनुभागौ बध्नातीत्यर्थः । इन छह (प्रत्यनीक आदि ) कार्योंके होते जीव ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मको अधिक बाँधता है अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्मकी स्थिति व अनुभागको प्रचुरता लिये बाँधे हैं। पं.ध./उ ||३७ स्वार्थ क्रियासमर्थोऽत्र बन्धः स्याद रससंज्ञिकः। शेषबन्धत्रि को ऽप्येष न कार्यकरणक्षमः ॥६३७१ =केवल अनुभाग नामक बन्ध ही बाँधने रूप अपनी क्रियामें समर्थ है। तथा शेषके तीनों बन्ध आरमाको बाँधने रूप कार्य करने में समर्थ नहीं हैं। १. मरण समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं ध. १२/४.२,१३.६/३७८/१२ चरिमसमये उक्कस्सद्विदिबंधाभावादो। =(नारक जीवके) अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अभाव है। ३. निषेक रचना १. निषेक रचना ही कर्मोकी स्थिति है ध,६/१,६-७,४३/२००/१० ठिदिबंधे णिसेयविरयणा परूबिदा। ण सा पदेसेहि विणा संभव दि, पिरोहादो। तदो तत्तो चेव पदेसबंधो वि सिद्धो।-स्थिति अन्धमें निषेकोंकी रचना प्ररूपण की गयी है। वह निषेक रचना प्रदेशों के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि, प्रदेशोंके बिना निषेक रचना माननेमें विरोध अाता है। इसलिए निषेक रचनासे प्रदेश बन्ध भी सिद्ध होता है। २. स्थितिबन्धमें संक्लेश विशुद्ध परिणामोंका स्थान पं.स./प्रा./४/४२५ सम्बढ़िदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंविलेसेण । बिबरीओ दु जहण्णो आउगतिगं बज्ज सेसाणं ॥४२॥-आयुत्रिकको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंकी स्थितियोंका उत्कृष्ट बन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है और उनका जघन्य स्थितिबन्ध विपरीत अर्थात सक्लेशके कम होनेसे होता है। यहाँपर आयुत्रिकसे अभिप्राय नरकायुके मिना शेष तीन आयुसे है। (गो. क /मू./१३४/१३२); (६. सं./सं./४/२३६); (ल. सा./भाषा/१०/३). गो.क./जी.प्र./१३४४१३२/१७ तत्त्रयस्य तु उत्कृष्टं उत्कृष्ट विशुद्धपरिणामैन जघन्यं तद्विपरीतेन भवति। -तीन आसु (तिर्यग्, मनुष्य व देवायु) का उत्कृष्ट स्थितिमम्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से और जघन्य स्थितिबन्ध उससे विपरीत अर्थात कम संपलेश परिणामसे होता है। २. स्थिति बन्धमें निषेकोंका त्रिकोण रचना सम्बन्धी नियम ३. मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्धक कौन क.पा.३/३-२२/६२२/१६/५ तत्थ ओघेण उपकस्सटिदी कस्स । अण्णदरस्स. जो चउट्ठाणिय जबमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिं बंधतो अच्छियो उपकस्ससंकिलेस गदो। तदो उपकस्सहिदी पबद्धा तस्त उक्कस्सयं होदि। -जो च सुस्थानीय यबमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिको बाधता हुआ स्थित है और अनन्तर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्ट उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है, ऐसे किसी भी जीवके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। गो. क./मू./१२०-१२१/११०४ ओबाह बोलाविय पढमणिसेगम्मि देय बहुगं तु । तत्तो विसैसहीणं विदियस्सादिमणिसेऔत्ति ।।२०। बिदिये विदियाणसेगे हाणी पुषितहाणि अर्धा तु । एवं गुणहाणि पडि हाणी अदचर्य होदि २१-कमौकी स्थितिमें आयाधा कालके पीछे पहले समय प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेक में महूत द्रव्य दिया जाता है। उसके ऊपर दूसरी गुणहानिका प्रथम निषेक पर्यत एक-एक चय घटता-घटता द्रव्य दिया जाता है ।२०। दूसरी गुणहानिके दूसरे निषेकउस हीके पहले निषेकसे एक चय घटता द्रव्य जानना। जो पहिली गुणहानिमें निषेक-निषेक प्रति हानि रूपचय था, तिसते दूसरी गुणहानिमें हानि रूप चयका प्रमाण आधा जानना । इस प्रकार ऊपर ऊपर गुणहानि प्रति हानिरूप चयका प्रमाण आधा-आधा जानना। गो, क./मु./१४०/११३६ उक्कास छिदिबधे सयजावाहा छ सब ठिदिरयणा। तकाले दीसदि तो धोधो बंधद्विदीर्ण च। -विवक्षित प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होनेपर उसी काल में उत्कृष्ट स्थितिकी आबाधा और सब स्थितिकी रचना भी देखी जाती है। इस कारण उस स्थितिके अन्तके निषेकसे नीचे-नीचे प्रथम निषेक पर्यंत स्थिति बन्ध रूप स्थितियोंकी एक-एक समय हीनता देखनी चाहिए। ४. उत्कृष्ट अनुमागके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी व्याप्ति ध. १२/४,२,१३,३१/३६०/१३ जदि उक्कस्सट्ठिदीए सह उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्स विसेसपच्चएण उक्करसाणुभागो परतो तो कालवेयणाए सह भावो वि उनकस्सो होदि। उक्कस्सविसेसपच्चयाभावे अणुक्कस्सामो चेव । यदि उत्कृष्ट स्थितिके साथ उत्कृष्ट विशेष प्रत्ययरूप उत्कृष्ट संबलेशके द्वारा उत्कृष्ट अनुभाग बाँधा गया है तो काल वेदना (स्थितिबग्य) के साथ भाव ( अनुभागी) भी उत्कृष्ट होता है । और (अगृभाग सम्बन्धी) उस्कृष्ट विदोष प्रत्ययके अभाव में भाव (अनुभाग) अनुत्कृष्ट ही होता है। (ध. १२/ ४,२,१३,४०/३६३/४)। ध, १२/४,२.१३.४०/३६३/६ उक्कस्स!णुभाग बंधमाणो णिच्छएण उक्कस्सियं चैव हिदि बंधदि, उक्कर ससंकिले सेण विणा उनकस्णुभागबंधाभावादो। = उत्कृष्ट अनुभागको बाँधनेवाला जीव निश्चयसे उत्कृष्ट स्थितिको ही बाँधता है, क्योंकि उस्कृष्ट संकिलेशके बिना उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध नहीं होता है। १. कर्म व नोकर्मकी निषेक रचना सम्बन्धी विशेष सूची १. चौदह जीवसमासोंमें मूल प्रकृतियोंकी अन्तरोपनिधा परम्परोपनिधाकी अपेक्षा पूर्णस्थितिमें निषेक रचना =म. बं. २/५-१६/६-१२) । २. उपरोक्त विषय उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा (म.बं. २/१६-२८/२२८-२२६) । ३. नोकर्मके निषकों की समुत्कीर्तना (ष,खं २/१६/सू./२४६-२४८/३३१)। ५. उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल क पा./१/३-२२/६५३८/३१६/३ कम्माणमुक्कस्सट्ठिदिबंधुवलंभादौ । दोण्हमुहस्सट्ठिीणं विच्चालिमअणुकस्सट्ठिदिबंधकालो तासिमंतर' जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति ति भणिदं होदि । एपसमओ जहणणं तरं किण्ण होदि । ण उक्काम्सट्रिट्ठदि बंधिय पsिहग्गस्स पुणो अंतोमुहुत्तेण विणा उक्कस्सदिदिबधासंभवादो। = कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला जीव अनुत्कृष्ट" स्थितिका कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्ध करता है। उसके अन्तर्मुहूर्त के बाद पुनः पूर्वीकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध पाया जाता है। प्रश्न- जघन्य अन्तर एक समय क्यों नहीं होता 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर उससे च्युत हुए फोनः अन्त कालके बिना उत्कृष्ट स्थितिकाम नहीं होता, अतः जधन्य अन्तर एक समय नहीं है । ६. जघन्य स्थितिबन्धमें गुणहानि सम्भव नहीं घ. ६/१.६-७,३/१८३/१ एत्थ गुगहाणीओ णत्थि पलिदोषमस्स असंदिमागमे दीए विणा गुणहाणीए असंभवाशे इस जयस्थिति गुणानियाँ नहीं होती है, क्योंकि परयोमके असंख्यातवें भागमात्र स्थिति विना गुणहानिका होना अस म्भव है। ७. साता व तीर्थंकर प्रकृतियोंकी व्र. उ. स्थितिबन्ध सम्बन्धी दृष्टिभेद ४५९ घ. १२/४.२.१,१०१/३२९/६ उपरिणामहानिससागाओ सेडिछेदमाहिती बहुगाओ त्ति के वि आइरिया भणति । तेसिमाइरियागमहिप्पारण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता जीवा उवरि तप्पा ओगाहामी होति एवं वक्त्राने अशोष्णम्भरथमिस्स परिदोषस्स अलेज्जदिभागवतं भादो ( साता वेदनीयके द्वि स्थानिक यब मध्यसे तथा असातावेदनीयके चतुस्थानिक यब मध्यसे ऊपरकी स्थितियों में जीवोंकी ) 'नाना गुणहानि शाकाएँ] श्रेणिके अर्थों महुत है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। उन आचार्योंके अभिप्राय से श्रेणिके अस्पातले भाग प्रमाण जीव आगे तत्प्रायोग्य असंख्यात गुणहानियाँ जाकर हैं । परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि इस व्याख्यानमें अन्योन्याभ्यस्त राशि पत्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण पायी जाती है। I घ. १२/४.२.१४.३०/४१४/१२ आदिमं तिमदोहि पहि गोकोडी सादरेयससागरोत्तातिर समयटूट्ठदा होदित्ति के वि आइरिया भणति । तण घडदे । कुदो । आहाररस पासमेतादित्ययरस्स सादिरेयतेत्तीसागरीयममेता समयपणद्वदा होति सि सुखाभावादी आदि और अन्सके दो वर्ष पृथक्वोंसे रहित तथा दो पूर्व कोटि अधिक तीर्थंकर प्रकृतिफी] तेतीस सागरोपम मात्र समय प्रमद्धार्थता होती है. ऐसा किसने हो बाचार्य महते हैं परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, आहारकद्विकको संरुपात वर्ष मात्र और शंकर प्रकृति साधिक तीस सागरोगम प्रमाण समर्थ है, ऐसा कोई सूत्र नहीं है। ५. स्थितिबन्ध सम्बन्धी शंका-समाधान १. साताके जघन्य स्थिति बन्ध सम्बन्धी ६/१६-०२/२०६/२ तीसियस्स समामरणीयास तो धिमा सीयमेवमेवरस सादावेद ५. स्थितिबन्ध सम्बन्धी शंका-समाधान णीयरस पण्णारससागरोवमकोडाकोडी उक्वस्सटिट्ठदिअस्स वधं वारसमुहुत्तिय जहणट्ठिदि बंधदे ण दंसणावरणादो सुहस्स सादावेदणीयस्स विसोधीदो मुट्ठु ट्ठिदिबंधोषणाभावा । = तीस कोको सागको उत्कृष्ट स्थितिवाले दर्शनावरणीय कर्मकी अन्तर्मुहूर्त मात्र जघन्य स्थितिको बाँधनेत्राला सूक्ष्म साम्पराय संयत टीस कोहाकोड़ी सागरोपमको उत्कृष्ट स्थिति पानीक भेदस्वरूप पन्द्रह कोड़ाकोडी सामरोपम प्रति उत्कृष्ट स्थितिमाले सातावेदनीय कर्म की बारह मुहूर्त वाली जघन्य स्थितिको कैसे बाँधा है उत्तर नहीं, क्योंकि, दर्शनावरणीय कर्मकी अपेक्षा शुभ प्रकृतिरूप] सातावेदनीय कर्मको विशुद्धिके द्वारा स्थितिबन्धकी अधिक अपवर्तनाका अभाव है। २. उ. अनुभागके साथ अनुत्कृष्ट स्थिति बन्ध कैसे ध.१२/४,२,१३,४०/३१३/६ उक्कस्साणुभागं बंधमाणो णिच्छरण उक्कसिम दिदि बंदि उक्तस्स किलेसेग बिना उक्करसाणुभागाभावाद एवं संतेाभागे जिसमे अस्स ट्रिट्ठदीए संभवोति । ण एस दोसो, उक्कस्साणुभागेण सह उक्करसदिउर्दि बंधिय पडिमग्गस्स अट्ठदिगलगाए दो समऊगादिनिय भाग अदिदिगणार मादो अस्थि, सरिसनिय परमापूर्ण तर भादो...पभग्गसमजाव अंतकालीन गोलाब अनुभागलं'ड्यघादाभावादो। प्रश्न- चूँकि उत्कृष्ट अनुभागको बाँधनेवाला जीव निश्चयसे उत्कृष्ट स्थितिको ही बाँधता है, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेशके बिना उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता; अतएव ऐसी स्थिति अनुभागको विवक्षामें अनुष्कृष्ट स्थितिकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग के साथ उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्न हुए जीन के अधःस्थिति गलने से उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय हीन आदि स्थिति विकल्प पाये जाते हैं। और अधःस्थितिके गलने से अनुभागका घात कुछ नहीं होता है, क्योंकि, समान धनवाले परमाणु वहाँ पाये जाते हैं।प्रतिभग्न होनेके प्रथम समय लेकर जब तक अन्तर्मुहूर्त काल नहीं बीत जाता है तब तक अनुभाग काण्डक घात सम्भव नहीं है। 1 ३. विग्रह गति में नारकी संज्ञीका भुजगार स्थितिबन्ध कैसे - क. पा. ४/३-२२/११/२७/७ संकिलेसवखरण विणा तदियसमए कधं सनि दिउदि बंदिदमा सविचिदियजादि मरिसडीए उपसंभादो प्रश्नलेश क्षय बिना (विग्रहगति के तीसरे समय में वह ( नरक गतिको प्राप्त करने बाला) जीव संज्ञीकी ( भुजगार) स्थितिको कैसे बाँधता है ? उत्तर- क्योंकि संक्लेशके बिना संज्ञी पंचेन्द्रिय जातिके निमित्त से उसके स्थिबन्ध पायी जाती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति ६. स्थितिबन्ध प्ररूपणा १. मूलोत्तर प्रकृतियोंकी जघन्योत्कृष्ट भाबाधा, व स्थिति तथा उनका स्वामित्व-त.स./८/१४-३०), (मू. आ./१२३७-१२३६), (पं.सं./प्रा./४/३६९-४४०),(पं.सं./सं./४/ १९९-२५७), (शतक/५४-६४), (ध.६/१५६-१९८), (ध.१२/४१०-४१७), (म.ब. २/२४/१७), (गो, क./१२८-१३३, १३६-१४०, १२६-१३२.१४०-१४१), (गो. क./जी.प्र./२५२/५१६/२), (त. सा./५/४३-४६) संकेत- * = पत्य/असं. से हीन । उत्कृष्ट जघन्य स्वामित्व काल काल स्वामित्व प्रकृति क. घ.६/पृ. | ध. १२/पृ. आवाधा स्थिति 4.सं./प्रा/गा गुण स्थान विवरण ध. ६. स्थिति गोम्मटसार, आबाधा | मूलाचार | घ. ६. पं.स/प्रा./गा विवरण सहस्र वर्ष को.को.सागरी (१)/ ज्ञानावरणीय मूल ४८६ । ३ । ३० ४३२|१| चारों गति उत. व मध्य ।। संक्लेश , अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त ४३३ सूक्ष्म साम्पराय १-१ पाँचों . १४६ ४८६ सू. सा.क्षपकका अन्तिम समय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (२) दर्शनावरणीय ४५६ सूक्ष्म साम्पराय सर्व विशुद्ध बादर एकेन्द्रि. पर्याप्त ३/७ सा* १८४,४३४ निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला सत्या. गृद्धि. निद्रा प्रचला चक्षु. द. अचक्षु, द. अवधि केवल द, अन्तम हृत ४३३ सु.सा.क्षपकका अन्तिम समय AND Mnmx com (३) वेदनीय ६. स्थितिबन्ध प्ररूपणा १ साता २ असाता १५८४८७ १४६ १८६४३३ ३/७ सा.* १८४|४३४ सू. सा.क्षपकका अन्तिम समय सर्व विशुद्ध वा. एकेन्द्रि, पर्याप्त Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्य स्थिति काल स्वामित्व प्रकृति काल स्वामित्व ध,4/. ध.१२/पृ.| आत्राधा स्थिति पं.सं./प्रा./गा गुण स्थान विवरण | गोमट्टसार । आवाधा | स्थिति 5 मूलाचार ध,६/पृ. 11/IF/ विवरण मोहनीय | सहस्र वर्ष का.का.सा. ७० ४३२१ (विशेष दे, स्थिति/४/३) | अन्तर्मुहूर्त | अन्तर्मुहूर्त | ४३४) अनिवृत्तिकरण नादर साम्पराय दर्शनमोहनीयमिथ्यात्व प्र. १६०० चारों गतिमें उ. व म. संक्लेश १/७ सा.* १८४४३४ सर्वविशुद्ध बा. एकेन्द्रिय प. " सत्त्व १८७ सम्यक्त्व प्र. सम्य.मि. चारित्र मोहनीय ल सा २२८/२७६ ४६० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १-४ अन. चतु. १६० ... अन्तर्मुहूर्त | ४/७ सा. १८८, सब विशुद्ध मा. एकेन्द्रि .प. चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश अनिवृत्ति करण क्षपक १२ प्रत्या. चतु. १३ | सं. क्रोध १४. सं.मान १५ | सं. माया ९६ | सं.लोभ नोकषायहास्य रति २ मास १मास १पक्ष अन्तर्मुहूर्त १८३ . (सूक्ष्म साम्पराय म्. आ.) २/७ सा* १९२ सर्व विशुद्ध बा. एकेन्द्रि, प.. अति शोक ६. स्थितिबन्ध प्ररूपणा भय जुगुप्सा Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कुष्ट जघन्य स्थिति काल प्रकृति क स्वामित्व . काल स्वामित्व ध.६/. घ. १२/पृ. पं.सं./प्रा./गा गुण स्थान ध./. II/IB/F - आमाधा स्थिति विवरण गोम्मटसार आबाधा | स्थिति विवरण मुलाचार सहस्र वर्ष | को.को.सा. ४३२१ चारों गतिके उत्तम मध्यम संक्लेश १६० अन्तर्मुहूर्त | २/७ सा.* १९२४३४ सर्व विशुद्ध मा, एकेन्द्रिय प. १८६ गो/१४० ८ वर्ष अनिवृत्तिकरण क्षपक | २/७ सा.* १६:३४ सर्व विशुद्ध बा. एकेन्द्रिय प. ४६० ७] स्री वेद १५८/ ८ पुरुष वेद १६२ | नपुंसक वेद १६३ - २० (२) आयु गोम्मटसार मूलाचार १/३ पू. को. ३३ ४३२ १ नरकायु १६६ मनुष्य व संज्ञी प. पंचें. १६३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अन्तर्मुहत ४३४ कर्म भूमिज मनुष्य तिर्यञ्च ११००० वर्ष ११३ . मि. संज्ञी पंचें. ति. संक्लेश परिणत या सर्व विशुद्ध संज्ञी पंचें, पर्याप्त। क्षुद्रभव ४३४ कर्मभूमिया मनुष्य व तियंच संम्लेश युक्त २] तियंचायु १६ ३ पत्य ३. मनुष्यायु ४. देवायु १६६ ३३ सा. ४२७६ प्रमत्त संयत , १०,००० वर्ष (१९३४३४ संज्ञी व असंज्ञी तियंच ४४०सर्व विशुद्ध असंज्ञी तियंच या संम्लेशयुक्त संज्ञी पर्याप्त - (६) नाम | २० १ गति ६. स्थितिबन्ध प्ररूपणा नरक । १२ । २ । २०४३१.. मनु. व ति. संज्ञी पं. पंचें. २/७ सा.* १६४/४३४ संमलेशयुक्त असंज्ञी पंचें. प. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट जघन्य स्थिति काल स्वामित्व प्रकृति काल स्वामित्व क्र. ध. ६/प्र. ध. १२/पृ. आबाधा । स्थिति पं.सं./प्रा./४ गुण स्थान विवरण ध.६/पृ. गोम्मटसार आबाधा स्थिति मूलाचार ध. ६/पृ. पं.सं./प्रा.गा, विवरण स. वर्ष को.को. सा. तियंच १६३ ४६२ अन्तर्मुहूर्त | २/७ सा. १६२४३४ सर्व विशुद्ध वा. एकेन्द्रिय. पर्याप्त मनुष्य २०४३११ देव, नारकी १५४३२ . चारों गतिके उत्तम मध्यम संक्लेश .. १० ४३९ .. | मनु. व ति. संज्ञो पं. प. " १६४/४३४ सर्व विशुद्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय | देव | २ | जाति| एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय |, सर्व विशुद्ध बा. एकेन्द्रिय प. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४३१, ईशान देव ,मनु.,ति. पं. पर्याप्त १९७२/ ४६३ ४६३ त्रीन्द्रिय | चतुरिन्द्रिय -- - पंचेन्द्रिय ९६३ ४६२ ४३२/ चारों गतिके उत्तम मध्यम संक्लेश ३ शरीर बन्धन संघात औदारिक १६२ . ". " वैक्रियक | २ | २०४३१२ देव,नारकी .. ४३११ मनु. व ति. संज्ञी पं. प. अन्त. अन्तर्मुहूर्त ४२७७ | अप्रमत्त आहारक १७४ ४६५ १६० गो/१४० , १६४४३४| सर्व विशुद्ध असंज्ञी पंचे. अर अन्तर्मुहूर्त अन्त को.को.१६७४३३ अपूर्वकरण क्षपकके १-७ भाग तक २/७ सा.* १६२४३४ सर्व विशुद्ध बा. एकेन्द्रिय प. सागरः | तैजस १६३, ४६२ २० ४३२१| चारों गतिके उ.म. संक्लेश ६.स्थितिबन्ध प्ररूपणा कामण Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्य उत्कृष्ट स्थिति स्वामित्व काल स्वामित्व काल क्र. प्रकृति ध.६/पृ. ध.१२/पृ. आबाधा स्थिति .सं./प्रा गा. गुण स्थान विवरण ध.६/. गोमट्टसार. आबाधा स्थिति | मूलाचार ध,६/प्र. प.स /प्रा.गा, विवरण |४|अंगोपांग औदारिक वैक्रियक १९० २०४३११ देव,नारकी " ""मनु. व ति. संज्ञी पं.प. न्तर्मुहूर्त ४२७७ अप्रमत्त १६४/ अन्तर्महुर्त | २/७ सा.* १९२४३४/ सर्वविशुद्ध मा एकेन्द्रि. प. १९४४३४ सर्व विशुद्ध असंज्ञी पंचे. अन्तः को.को. १६७४३३ अपूर्वकरण क्षपकके १-७ भाग तक सागर |२/७ सा.*१९२४३४/ सर्व विशुद्ध बादर एकेन्द्रि, प.. १७४/गो.मू. आ. अन्त. १६७ आहारक ५ निर्माण -- १६३, ४६२ - २ २०४३२१| चारों गतिके उ.म. संक्लेश १६० ६ बन्धन । । " शरीरवद शरीरवत |७| संघात जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश |८|संस्थान - - अन्तर्मुहूर्त २/७ सा.* १९२४३३| सर्व विशुद्ध ना. एकेन्द्रिय. प. १० : " समचतुरस्त्र १६२ ४६३ न्यग्रोध परि. १७७ ४६३ : | स्वाति : कुम्जक 9E .. : " RSairat वामन : : संहनन बज्र ऋषभ ना. १६२ ४६३ : ६. स्थितिबन्ध प्ररूपणा वज्रनाराच १७७ ii. . ॥ नाराच १७८ : Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवन्य स्थिति काल स्वामित्व काल प्रकृति भा० ४-५९ स्वामित्व घ. १२/पृ. आबाधा स्थिति पं.सं./प्रा.गा. गुणस्थान विवरण 5 गोमट्टसार मूलाचार, आबाधा । स्थिति ध.धा. पं.सं./.गा. विवरण अर्ध नाराच १७६) ४१३ १६४३२१ चारों गतिके उ. म,संक्लेश महत | २/७ सा.* १४२४३४ सर्व विशुद्ध मा. एकेन्द्रिय प. कोलित १७२ ४६३ देव,नारकी चारों गतिके उ. म. संक्लेश असंप्राप्त सू. १६३४६२ १० स्पर्श (बाठों) रस (पाचों) गन्ध (दोनों) वर्ण (पाँचों) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश आनुपा नरक अन्तर्मुहूर्त २० सा. १९४|४३४ संक्लेश युक्त असंज्ञी पंचे, प. । सर्व विशुद्ध ना. एके. प. तिर्यच मनु. व ति, संझी पं. ५ |- |- | देव,नारकी ४३२, चारों गतिके उ.म. संक्लेश ४३११ मनु, व ति. संज्ञी पं. प. मनुष्य देव १ ६२/ " १९४४३४/ सर्व विशुद्ध असंत्री पंचे. प. अगुरुलधु- १६३, ४६२ ४३२१ चारों गतिके उ.म. संक्लेश " | " , बा. एकेन्द्रिय प. | उपधात : १७ परघात : आतप ४३१/., ईशान देव : ६.स्थितिबन्ध प्ररूपणा १६ | उद्योत ... | देव,नारको चारों गति के उ. म. संक्लेश : २० उच्छवास : Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्य स्थिति काल स्वामित्व काल क. प्रकृति स्वामित्व ध./पृ. । | घ.१२/पृ. आबाधा स्थिति पं.सं./प्रा.गा. गुणस्थान विवरण घ.६/पृ. गोम्मटसार आबाधा | स्थिति मूलाचार घ.६/पृ. 4.सं./प्रा.गा. विवरण २१ विहायोगति | प्रशस्त १६२, ४६३ १०४३२१| चारों गतिके उ. म.संक्लेश १६० अन्तर्मुहूर्त। २० सा. १६२४३४ सर्व विशुद्ध मा. एकेन्द्रिय प. .. अप्रशस्त १६३ ४६२ २० " २२ प्रत्येक २३ साधारण १७२ ४६३ ४३१ १ | मनु. व ति. संज्ञो पं.प. २४ त्रस १६३, ४१२ २०४३२१ चारों गतिके उ.म. संक्लेश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २५ | स्थावर ४३१ १ ईशान देव २६ सुभग ४३२ . चारों गतिके उ. म. संक्लेश भग १६३ ४१२ २८ सुस्वर REदुःस्वर १६३, ४६२ ३० शुभ १६२ ४६३ ४६२ ३१ अशुभ ३२, सूक्ष्म १७२ ४६३ १८४३११ | मनु. व संज्ञी ति. प, २०४३२१ चारों गतिके उ.म. संक्लेश १६३/ ४६२ ३३ | बादर ४ पर्याप्त ३५ अपर्याप्त ६. स्थितिबन्ध प्ररूपणा २/७ सा.* |" १७२ ४६३ १८४३१, मनु. व ति. संज्ञी पंचे. प. Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३६ स्थिर ३० अस्थिर ३८) आदेय २६) अनादेय १ प्रकृति २ गोत्र - मूल उच्च नीच ४० यशःफीति १६२ ४६३ ४१ अयशःकीर्ति १८३ ४१२ ४२ सीधकरण १७४ ४६५ अन्तराय ध. ६/पृ. मूल पाँचों घ. १२/पू. ९६२ ४६३ १६२४६२ १६२ ४६३ १८२४६२ १६२४० १६३/ ४८६ काल आबाधा सहस्र वर्ष को. को, सा. १ |१४६ संकेतपय असं से होन * २ १ अन्तः २ ३ स्थिति ३ १० २० १० २० १० २० १० २० उत्कृष्ट ३० ३० प.सं./प्रा.गा. गुण स्थान २० अन्तर्मुहूर्त (४२७४ | ४३२१ 11 " יי "1 13 | ४३२ १ 14 33 स्वामित्व विवरण चारों गतिके उसम म. संक्लेश 11 अविरत सम्यग्दृष्टि चारों गति के उ. म. संक्लेश 33 घ. ६/पृ. = १६० १६८ | १६० ११० अन्तर्मुहूर्त २/० सा. * १६३ ४२४ १८२ आबाधा : काल : : स्थिति जघन्य ८ मुहूर्त घ. ६/१० प सं . / प्रा.गा. " मुहूर्त २/७ सा. १९२४२ अन्तर्मुहूर्त 11 17 अन्त, कोको, ११७४१२ सागर 35 | १६८ ४३३ | १८६,४३३ * २/७ सा. १६०२४२ १८३ स्वामित्व विवरण सर्व विशुद्ध ना. एके प. 19 सू. सा. क्षपकका अन्तिम समय सर्ववा. एके प अपू. क्षपकका १-5 भाग तक सू. सा. क्षपकका अन्तिम समय सर्व वा. एके प सू. सा. क्षपकका अन्तिमसमय स्थिति ४६७ ६. स्थितिबन्ध प्ररूपणा Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १ া চম 20 २ ३ ५ ८ २. इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा प्रकृतियोंका उ. ज. स्थितिकी सारणी (रा. भा./८/१४-२० ) ( म. म. २ /२४ / ९७-२६) (. ६/११६) प्रकृति ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय कषाय नोकषाय ११ उत्कृष्ट आयु नाम गोत्र अन्तराय सागर दर्शन मोहनीय १ | " : १ १- पल्य / असं. ३/७ ४/७ २/७ २/७ एकेन्द्रिय ३/७ जघन्य सागर ७/०७/०८. १- पण्य/जर्स M 9 २५ --पत्य / असं.७५/७ -पन्य/अर्स. "" : उत्कृष्ट -"/" सागर २५ १००/७ ५०/७ । коло ७५/७ · डीन्द्रिय जघन्य सागर २५- पवय / असं. ७५ 19 - पन्य / अस. 1ত -1/1 02-10 "" श्रीवि उत्कृष्ट सागर 40 १५०/७ 19 ५० २५-१क्य अस १०० २००/० " molo जघन्य २०- पय/ असं. १५० १००/७ " १५०/७ सागर ३०. पय/अर्स, २०० ७ देखो आयु १०० ७ "1 ७ १०० /७ २०० / १५० " - पश्य /.. उत्कृष्ट १०० "" ४००/७ २००/० चतुरिन्द्रिय सागर १०० ३००/७ - २००/७ " ३००/७ जघन्य १०० पल्प / असं. 아침 이상 이상이 이영호 सागर ३०० "" १०० / असं ܕܕ ܐ ܕܕ "/", - असंज्ञी पंचेन्द्रिय " उत्कृष्ट सागर १००० २०००/० """ २०००/७ "" - पश्य / असं. ३०००/७ जघन्य सागर १००० १००० / असं ४०००/७ २०००/७ 11| 1| 1| 1| 1| १०००क्य असं ३० को. को "" 1/ उत्कृष्ट जघन्य संज्ञी पंचेन्द्रिय 6 सागर अन्तर्मुहूर्त ७० को. को ४० --/ 20. 11 : 1 " / " २० को. को, ११. १२ १ ?? - ८ १ स्थिति ४६८ ६. स्थितिबन्ध प्ररूपणा Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति ३. उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति, प्रदेश व अनुभाग के बन्धककी प्ररूपणा - १. सारणी में प्रयुक्त संकेतोंका अर्थ १. मारणान्तिक समुद्धात रहित सप्तम पृथिवी की ५०० धनुष अवगाहनावाला अन्तिम समयवर्ती गुणित कर्माशिक नारकी । २. सप्तम पृथिवो के प्रति मारणान्तिक समुद्धात गत महामत्स्य । ३. सूक्ष्म साम्पराय के अन्तिम समय तथा आगे के सर्वस्थान । ४. द्विचरम वा त्रिरम समयके पहले अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित सप्तम पृथिवीका मिथ्यादृष्टि नारको। पूर्ण समुदात ५. सी ६. पूर्वको टिके त्रिभाग प्रमाण आयुकी आबाधा करके सप्तम नरकको आयु बाँधनेवाला महामत्स्य । ७. उत्कृष्ट मनुष्यायु सहित आयु बन्धके प्रथम समय गत प्रमत्त संयत / ७-१९ गुणस्थान, मनुष्य यदि पूर्व कोटिके वि त्रिभाग में देवायु क्र. प्रकृति १ हानावरणी दर्शनावरणी वेदनीय मोहनीय अयु नाम गोत्र अन्तराय प्रकृति अष्ट कर्म प्रमाण २००-४४६ ३६५ २६६-४४६ ३६५ ४०५ ४०४ ४०४ ३६५ मूल वा उत्तर द्रव्य प्रदेश बन्ध मुल उत्तर ध. १२/४, २, १३, ७/पृ. सं. ज. उ w: aw or or १० ६ १३ ११ " ६ विषय १ ४६९ १ ६ १ 91 ४. अन्य प्ररूपणाओं सम्बन्धी सूची - ( म.पू.सं.सं.) सन्निकर्ष ३८१ 19 २१५ ३१७ ३६५ ८ ४०५ ४०४ ४०४ ३६५ मंग विषय सन्निकर्ष को बाँधे । ८. जिसमवर्ती आहारक व उद्भवस्थ होनेके तृतीय समय में वर्तमान जघन्य योगवाला सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त जीव । १. क्षपित कर्माशिक क्षीणकयागी १२ गुणस्थानके अन्तिम समयमत संयत । क्षेत्र बन्धक जीव की अवगाहना प्रमाण ज. १०. चरम समयवर्ती क्षपित कर्माशिक अयोग केवली । ११. चरम समयवर्ती सामान्य कर्माशिक अयोग केवली । १२. असातावेदनीयके उदय सहित क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ अन्तिम समयवर्ती अयोग केवली । ३/ १३. संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, ५०० धनुष अवगाहनावाला यदि तिर्यंच आयु बाँधे, नारकी जीव तेतीस सागर के भीतर असं - गुणहानियोंको गलाकर दीपशिखाकार स्थित (६.१२ / ४६२/१७)। 1 १४. तिचा बाँधनेवाला अपर्याप्त । १२. क्षति १६. बादर तेज व वायुकायिक पर्याप्त । २/ ३/ ८ 2 99 " 11 17 ज. उ. " १२६-१०४ ७७-८३ १-१४१ १-१०२ उ. १३५-१४० 44 ४४२-४४८ ३ २०२-२०४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 11 ११ २ ३८७ ११ ३६५ 19 ५ ४०१ ११ 11 २ ३६५ ह १ ५ ४०६ १० ४०४ ११ ४०४ काल बन्धकी स्थिति २ ३६५ सर्वविशुद्ध सूक्ष्म निगोद त्रि परमसमय स्थित । प्रमाण भिन्न-भिन्न पदोंकी अपेक्षा प्रमाण स्थिति 15 ज m ३८ " ह २६६-३०१ २ /-,, ९५७-१५६ उ 34.00 १६१ १ 99 ६. स्थितिबन्ध प्ररूपणा 67 भुजगारादि पद १ 31 प्रमाण ज. ३६१ ३६५ ४०२ ३६५ ४११ ४०४ ४०४ ३६५ भाव अनुभाग ૧/ m = ∞ w 20 x १२ १४ १५ १६ ६ भंगविचय नोट - साता असता के द्वित्रिचतु स्थानीय अनुभाग बन्धक जीवों की अपेक्षा ज. उ. स्थिति बन्धका स्वामित्व व उनका अल्पबहुत्व - (ध. ११ / ३१६-३३२ ) _३८३-३८५__ ११५ ६१४-११५ ३-४४५-४४६ उ ४ 11 संख्यात भागादि वृद्धि ३ ४ ७ . ३ ११ ४ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिकरण स्थितिकरण – १ स्थितिकरण अंगका लक्षण १. निश्चय स.सा./मू./२३४म्म सपि मग्गे ठमेदि जो चैवा सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो । जो चेतयिता उन्मार्ग में जाते हुए अपने आमाको भी मार्ग में स्थापित करता है वह स्थिति करण युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। उपस्थि कषायोदय रा.वा./६/२४/९/२२१/१४ कपायोदयादिषु धर्मपरिकार तेष्वात्मनो धर्माप्रच्यवनं परिपालनं स्थितिकरणम् । आदिसे धर्म भ्रष्ट होने के कारण उपस्थित होनेपर भी अपने धर्मसे परिच्युत नहीं होना, उसका बराबर पालन करना स्थितिकरण है । पू. सि. उ. / २० कामक्रोधमादिषु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । तमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ॥२०॥ क्रोध, मद, लोभादिक भावोंके होनेपर न्याय मार्ग से च्युत करनेको प्रगट होते हुए अपने आत्मा को... जिस किस प्रकार धर्म में स्थित करना भी कर्तव्य है । ( पं. ध. /उ. / ७६५) काम, ४७० क.अ./मू./४२० धम्मादो चलमा जो अयं संवेदि धम्मम्मि । अप्पा पि दिपदि ठिदिकरण होदि उस्सेव] [४२०] जो धर्म से चलायमान ... अपनेको धर्म में दृढ करता है उसीके स्थितिकरण गुण होता है। प्र से टी/४१/१०५/० निश्चयेन पुनस्तेनेव व्यवहारेण स्थितिकरणगुणेन धर्म जाते सति रागादिविकल्पलत्यागेन निजपरमात्मस्वभावभावन परमानन्दे मुखामृतरसास्वादेन तलयतन्मयपरमसमरसीभावेन चित्तस्थिरीकरणमेव स्थितिकरणमिति । - उपहार स्थिति करण गुणसे धर्म में रडता होने पर... रागादि विकल्पों के त्याग द्वारा निज परमात्म स्वभाव भावकी भावनासे उत्पन्न परम आनन्द सुखामृत के आस्वाद रूप परमात्मामें लीन अथवा परमात्म स्वरूप में समरसी भावसे चित्तका स्थिर करना, निश्चयसे स्थितिकरण है । • २. व्यवहार यू.आ./२६२ दंसणपरषभट्ठे जीने द धम्मबुद्धीए हिदमिदमहि ते खप्तत्तोणियत्तेइ | २६२॥ सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रसे भ्रष्ट हुए जीवों को देख धर्म बुद्धिकर सुखके निमित्त हितमित वचनों से उनके दोषों को दूर करके धर्म एवं करता है यह शुद्धसम्ययस्वी स्थितिकरण गुणवाला है। : र. क. भा. / ९६ दर्शनाच्चरणाद्वापि चलता धर्मवत्सलेः । प्रत्यवस्थापन प्राज्ञः स्थितिरते |१६|दर्शन व चारित्रसे डिगते हुए पुरुषको जो उसी में स्थिर कर देना है सो विद्वानोंके द्वारा स्थितिकरण अंग कहा गया है । का. अ./मू./२२० धम्मादो चसमा जो बण्णं संठवेदि धम्मम्मि ।... ठिदि करणं होदि तस्सेव ॥४२०| जो धर्मसे चलायमान अन्य जीवको धर्ममें स्थिर करता है।...उसी के स्थितिकारण गुण होता है। प्र.सं./टी./४१/१०२/३ मध्ये या कोऽपि दर्शनचारित्रमहोदयेन दर्शन हा चारित्रं वा परित्य वान्छति तदागमावि रोधेन यथाशक्त्या धर्मश्रवणेन वा अर्थेन वा सामर्थ्येन वा केनाप्युपायेन यद्धर्मे स्थिरत्वं क्रियते तद्व्यवहारेण स्थितिकरणमिति । - चार प्रकारके से यदि कोई दर्शन मोहनीयके उदयसे दर्शन ज्ञानको या चारित्र मोहनीयके उदयसे चारित्रको छोड़नेकी इच्छा करे तो यथाशक्ति शास्त्रानुकूल धर्मोपदेशसे, धनसे या सामर्थ्य से या अन्य किसी उपायसे उसको धर्म रिवर कर देना, यह व्यवहार स्थितिकरण है। स्थिर पं. घ /उ. / ८०२ सुस्थितिकरणं' नाम परेषां सदनुग्रहात भ्रष्टानां स्वपदात्तत्र स्थापनं तत्पदे पुनः । ८०२ ॥ स्वव पर स्थितिकरणों में अपने पदसे भ्रष्ट हुए अन्य जीवोंको जो उत्तम दया भावसे उनके पदमें फिरसे स्थापित करना है वह परिस्थितिकरण है । ८०२ | २. स्वधर्मबाधक परका स्थितिकरण करना योग्य नहीं पं. ध. /उ./८४ धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्तव्योऽनुग्रहः परे । नात्मवतं विहायास्तु तत्परः पररक्षणे । ८०२॥ धर्मके आदेश वा उपदेश से ही दूसरे जीवोंपर अनुग्रह करना चाहिए। किन्तु अपने मतको छोड़कर दूसरोंके व्रतोंकी रक्षा नहीं करनी चाहिए |८०२ | स्थितिकल्प साधुके १०/२/३ स्थितिकांडक घात - अपकर्षण/ स्थितिबंधापसरण / स्थितिबंधोत्सरण स्थितिभोजन- साधुका एक मूलगुण-दे, साधु / २ / २ । स्थितिसत्त्वा पसरण - दे. अपकर्षण / ३ । स्थिर कुण्डल पर्वतस्थ अंक कूटका स्वामी देव - दे. लोक /५/१२ ॥ स्थिर - १. स्थिर व अस्थिर नामकर्मका लक्षण स.सि./१/११/२६२ / २ स्थिरभावस्य निर्वर्तक स्थिरनाम राद्विपरीतमस्थिरनाम - स्थिर भावका निर्वर्तक कर्म स्थिर नामकर्म है, इससे विपरीत अस्थिर नामकर्म है। रा. बा. ९/११/२४-२५/५०६/२२ वयात दुष्करोपवासादितपरकरणेऽपि अङ्गोपाङ्गानां स्थिरवं जायते तत् स्थिरनाम ३४ यदावासादिकरणात् स्वल्पणादिसंयम्याच अपहानि कृशीभवन्ति तदस्थिरनाम। जिसके उदयसे दुष्कर उपवास आदि तप करनेवर भी अंग-उन आदि स्थिर भने रहते हैं. कृश नहीं होते वह स्थिर नामकर्म है। तथा जिससे एक उपवाससे या साधारण शीत उष्ण आदिसे ही शरीर में अस्थिरता आ जाय, कृश हो जाय वह अस्थिर नामकर्म है। ध. १३/५,५,१०१/३६५/१० जस्स कम्मस्सुदरण रसादीणं सगसरूवेण केपि कालमवाणं होदितं विरणामं जस्स कम्मरसुदरण रसायनरमधादुवेग परिणामी होदितमथिरणामं जिस कर्मके उदयसे रसादिक धातुओंका अपने रूपसे कितने ही कालतक अवस्थान होता है वह स्थिर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे रसादिकों का आगेकी धातुओं स्वरूप परिणमन होता है वह अस्थिर नामकर्म है। (ध. ६ / १.६-१.२८/६३/३); (गो, जी./जी.प्र./३३/३०/३) । २. सप्त धातु रहित विग्रह गतिमें स्थिर नामकर्मका क्या कार्य है = ६/९.२-१. २०६४/६ सत्तधा विरहिदविग्गहगदीए वि विराधिराणदादो दासि तस्य यावारो ति णासंकणि जोगि परवादस्य रथ यत्तोदरण अपवादो प्रश्न धातुओंसे रहित विग्रहगति में भी स्थिर और अस्थिर प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है, इसलिए इनका वहाँ पर व्यापार नहीं मानना चाहिए 1 उत्तर- ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सयोगकेवली भगवान परथात प्रकृति के समान विग्रहपतिमें उन प्रकृतियोंका अभ्यक्त उदयरूपसे अवस्थान रहता है। ★ स्थिर नामकर्मकी बम्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी शंका समाधान दे, वह वह नाम । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश TAM 4 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूणा स्थूणा - औदारिक शरीरमें स्थूणाओंका प्रमाण- दे. औदारिक १/७ । स्थूल - दे. सूक्ष्म । स्थूलभद्र - आचार्य भद्रबाहु प्रथम ( पंचम श्रुतकेवली ) के शिष्य थे १२ वर्षीय दुर्भिक्षके अवसरपर आपने उनको भातको अस्वीकार करके दक्षिणकी ओर बिहार न किया और उज्जैनी में हो रह गये। दुर्मि वानेवर उनके संपमें शिथिताचार आया और वे 'अर्ध फालक (दे. श्वेताम्बर बन गये भद्रवाह स्वामीकी दक्षिण में ही समाधि हो गयी, परन्तु दुर्भिक्षके समाप्त होनेपर उनके शिष्य विशाखाचार्य आदि लौटकर पुनः उज्जैनी में आये । उस समय आप (स्थूल (भद्र ) ने अपने संघको शिथिलाचार छोड़ पुनः शुद्धाचरण अपनानेको कहा। इसपर संघने रुष्ट होकर इन्हें जानसे मार दिया। ये एक व्यन्तर बनकर संघ पर उपद्रव करने लगे। जिसे शान्त करनेके लिए संघने कुलदेवताके रूपमें इनकी पूजा करनी प्रारम्भ कर दी । इनके अपर नाम स्थूलाचार्य व रामन्य भी थे। इस कथाके अनुसार इनका समय भद्रबाहु तृतीयसे लेकर विशाखाचार्य के कुछ काल पश्चात् तक बी. नि १३३-१६० (ई.पू. २६४-३६०) जाता है । दे. श्वेताम्बर। 7 स्थूलाचार्य - अपर नाम स्थूलभद्र - दे. स्थूलभद्र । स्नातक- १. स्नातक साधुका लक्षण स.सि./१/४६/४६०/११प्रक्षीणघातिकर्माणः केवलिनो द्विविधाः स्नातकाः । - जिन्होंने चार घातिया कर्मोंका नाश कर दिया है, ऐसे दोनों प्रकारके केवली स्नातक कहलाते हैं । ( रा. वा./६/४६/५/६३६/३ । ); (चा. सा./१०२/२) । व. सा. २४ ततः क्षीयतुमावास्यातसंयम बोजगन्धननिर्मुक्तः स्नातकः पारों पातिया कर्म नष्ट होते ही यथास्यात संयमकी प्राप्ति होती हैं। बीजके समान बन्धनका निर्मूल नाश होनेसे बन्धन रहित हुए योगी स्नातक कहाने लगते हैं । ★ स्नातक साधु सम्बन्धी विषयदे साधु स्नान - अस्नान मूलगुणका लक्षण .आ./३१ ण्ह णादिवज्जणेण य विलित्तजलमग्लसेदसव्वं । अण्हाणं पोरगुणं संजमदुगपायं मुषिणो ॥२१॥ जलसे नहाना रूप स्नानादि क्रियाओंके छोड़ देनेसे जन्तमन्त स्वेद रूप देहके मैलकर लिप्त हो गया है सब अंग जिसमें ऐसा अस्नान नामक महागुण साधुके होता है। अन. ध. // न ब्रह्मचारिणामर्थो विशेषादात्मदर्शिनाम् । जलशुद्धयाथवा याद्दोष सापि मतार्हतः । ब्रह्मचारी तथा विशेषकर आत्मदर्शियोंको जो कि स्वयं पवित्र है उनके लिए स्नान किस प्रयोजनका किन्तु अस्पर्श्य दोष होनेपर उसकी शुद्धिके लिए उसकी आवश्यकता है । २. साधुके अस्नान गुण सम्बन्धी शंका समाधान भ. जा./वि./१३/२२६-२१०/२० स्नानमनेकप्रकार शिरोमात्रप्राशनं शिरो मुक्त्वा अन्यस्य वा गात्रस्य, समस्तस्यै वा । तन्न शीतोदकेन क्रियते स्थावराणां प्रसानां च बाधा माभूदिति । ... उष्णोदकेन स्नायादिति चेन्न तत्र सस्थावरबाधावस्थितैव ।...न चास्ति प्रयोजनं स्नानेन धातुमस्य देहस्य न शुचिता क्या करें तो न शौचप्रयोजनं । न रोगापडतये रोगपरी पहसहनाभावप्रसंगात न हि षायै विरागस्वाद तसादिभिरभ्यञ्जनमपि न करोति प्रयोजनाभावादुलेन प्रकारेण घृतादिना क्षारेण स्पृष्टा भूम्यादिजन्तवो बाध्यन्ते । त्रसाश्च तत्रावलग्नाः । - स्नान अनेक प्रकार है- जलसे केवल मस्तक धोना, अथवा मस्तक छोड़कर अन्य अवयवोंको धोना अथवा समस्त अत्रयोंको धोना, परन्तु त्रस और स्थावर जीवोंको बाधा न होवे । Fai " स्निग्ध इसलिए मुनि शीतल जलसे स्नान नहीं करते हैं।... प्रश्न - ठंडे जलसे स्नान नहीं करते तो गरम पानीसे क्यों नहीं करते हैं । उत्तर- नहीं, गरम जलसे स्नान करनेसे भी त्रस स्थावर जीवोंको बाधा होती ही है।...मुनियाँको जलस्नानको आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि, जल स्नानसे सप्त धातुमय देह पवित्र नहीं होता। इस वास्ते - शुचिता के लिए स्नान करना भी योग्य नहीं है, रोग परिहार के लिए भी स्नानकी आवश्यकता नहीं है, यदि वे स्नान करेंगे तो रोग परीष सहन करना व्यर्थ होगा। शरीर सौन्दर्य युक्त होनेके लिए भी वे स्नान नहीं करते, क्योंकि वे वीतराग हैं। मुनि, घी, सेल इत्यादिकों से अभ्यंगस्नान भो कुछ प्रयोजन न होनेसे करते नहीं हैं। घृतादि क्षार पदार्थोंका स्पर्श होनेसे भूमि वगैरह में रहने वाले जन्तुओं को पीड़ा होती है, भूमिपर चिपके हुए जीव इधर उधर होते है, गिरते हैं, तब उनको एक स्थानसे दूसरे स्थान पर जाते समय बाधा पहुँचती है। ४७१ २. स्नान के भेद साथ /२/३४ पर फुटनोट- पादानुकटिपीवाशिरत्पर्वतसंश्रयं । स्नानं पञ्चविधं ज्ञयं यथा दोषं शरीरिणा स्नान पाँच प्रकारका मानना चाहिए केवल पाँव धोना, घुटने तक धोना, कमर तक धोना, कण्ठ तक धोना और शिर तक स्नान करना ४. गृहस्थ व साधुकी स्नान विधि " 1 सा. घ. /२/३४ स्प्पारम्भसेवा क्लिष्टः स्नात्वा वण्ठमधाशिरः म यजेत ह स्पादानस्मातोऽन्येन यामेव स्त्री सेवन और खेती आदि करनेसे दूषित है मन जिसका ऐसा गृहस्थ कण्ठ पर्यन्त अथवा शिरपर्यन्त स्नान कर अर्हन्त देवके चरणोंको पूजे और अस्नात व्यक्ति दूसरे स्नात व्यक्तिसे पूजा करावे । सा. भ./२/१३.३४ पर फुटनोट- नित्यं स्नानं गृहस्थस्य देवार्चन परि यस्य नियतारम्भकर्मणः। यद्वाहा भवेत्स्ना नमन्त्यमन्यस्य तु द्वयम् । जिन पूजा आदि करनेको गृहस्थको नित्य स्नान करना चाहिए। जो ब्रह्मचारी हैं, और जो खेती आदि आरम्भसे निवृत्त है उनको पाँचों इच्छानुसार स्नान कर लेना चाहिए परन्तु गृहस्थों को कण्ठ तक वा शिर तक दो ही स्नान करना चाहिए। ५. जलाशय में डुबकी लगाकर स्नान करनेका निर्देश सा. ध. / २ / ३४ पर फुटनोट- वातातपादिसंस्पृष्टे भूरितोर्ये जलाशये । अवगाह्याचरेन्नानमयोऽगासितं जे जिस जलायमें पानी बहुत हो और उसपरसे भारी पवनका झकोरा निकल गया हो अथवा धूप पड़ रही हो तो उसमें डुबकी मारकर स्नान करना चाहिए। यदि ऐसे जलाशय न मिलें तो छने हुए पानी से स्नान करना चाहिए । I - * शूद्रसे छूनेपर साधुकी स्नान विधि। दे, भिक्षा /३/३ ६. आत्म स्नान ही यथार्थ स्नान है। प्र. सं./टी./१०/९०६/२२ विशुद्धात्मनदी स्नानमेव परमशुचित्वकारणं न सात स्नानादिकम् आत्मा नदी संयमतापूर्णा सत्यावगाहाशीलतादयोर्मिः । तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुध्यति चान्तरात्मा । विशुद्ध आत्मा रूपी शुद्ध नदीमें स्नान करना ही परम पवित्रताका कारण है, लौकिक गंगा आदि तीर्थोंमें स्नानका करना शुचिका कारण नहीं है। संयम रूपी जलसे भरी, सत्य रूपी प्रवाह, शील रूप तट और दयामय तरङ्गोंकी धारक तो आत्मा रूपी नदी है। औदारिक शरीरमें इनका प्रमाण वें. बौदारिक/१/७ स्नायु स्निग्ध स.सि./५/३३/३०४/५ वाह्याभ्यन्तर कारणवशात् स्नेहपविस्मेति स्निग्धः ।... स्निग्धवं चिक्कणगुणलक्षणः पर्यायः । - - बाह्य और आभ्यन्तर कारणसे जो स्नेह पर्याय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नेहा विचार उत्पन्न होती है उससे पुद्गल स्निग्ध कहलाता है। ... स्निग्ध पुद्गलका धर्म स्निग्धस्व है । स्नेहातिचार - दे. अतिचार / ३ | स्पर्धक — कर्म स्कन्धमें उसके, अनुभाग में, जीवके कषाय व योग में तथा इसी प्रकार अन्यत्र भी स्पर्धक संज्ञाका ग्रहण किया जाता है । किसी भी यके प्रदेशों में अथमा उसको शक्तिके अंशोंमें जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त जो क्रमिक वृद्धि या हानि होती है उसीसे यह स्पर्धक उत्पन्न होते हैं । जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त समान अविभाग प्रतिच्छेदों के समूहसे एक वर्ग बनता है। ( दे. वर्ग ) समान अविभाग प्रतिच्छेद बा वर्गीक समूहले एक वर्गणा बनती है (दे. वर्गणा) इस प्रकार जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद के अन्तरसे वर्गणाएँ प्राप्त होती है, इनके समूहको स्पर्धक कहते हैं। वहाँ भी विशेषता यह है कि जहाँ तक एक एक अविभाग प्रतिच्छेद के अन्तर से प्राप्त होतो ती जायें तहाँ तक प्रथम स्पर्धक है। प्रथम स्पर्धकसे दुगुने अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होनेपर द्वितीय स्पर्धक और तृतीय आदि प्राप्त होनेगर तृतीय आदि स्पर्धक बनते हैं इसीका विशेष रूपसे स्पष्टीकरण यहाँ किया गया है। 1 ४७२ 1 १. स्पर्धक सामान्यका लक्षण रा.वा./२/२/४/१००/११ः कृता यावदेका विभागप्रतिच्छेदाि कलाभ सरला अन्तरं भवति । एवमेतारा पद्धतीनां विशेष हीनानां क्रमवृद्धिमानानां समुदयः स्पर्धकमित्युच्यते उपरि द्वित्रिचतुःसंख्येयासंख्येयगुणरसा न लभ्यन्ते अनन्तगुणरसा एव । तत्रैकप्रदेशो जघन्यगुणः परिगृहीतः, तस्य चानुभागाविभागप्रतिच्छेदः पूर्वकृत एवं समगुणा वर्गाः समुदिता वा भवति। एकाविभाति दाक्षिकाः पूर्व वर्गा वर्गणाश्च भवन्ति यावदन्तरं भवति तावदेकं स्पर्धकं भवति । एवमनेन क्रमेण विभागे क्रियमाणेऽभव्यानामनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागमानि स्पर्धकानि भवन्ति। पहले देवर्ग व वर्गणा) इस तरह एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ा कर वर्ग और वर्गणा समूह रूप वर्गणाएँ राम वनानी चाहिए जब तक अधिक अभिभा मिलता जाये। इन क्रम हानि और क्रम वृद्धि वाली वर्गणाओं के समुदायको स्पर्धक कहते हैं। इसके बाद दो तीन चार संख्यात और असंख्यात गुण अधिक अविभागप्रतिच्छेद नहीं मिलते किन्तु अनन्तगुण अधिक माहीते हैं। फिर उनमें से पुक कमसे समगुण वाले वर्गोंके समुदाय रूप वर्गणा बनाना चाहिए। इस तरह जहाँ तक १९- अधिक अविभाग प्रतिच्छेद कालाभ हो वहाँ तक की वर्ग गाओं के समूहका दूसरा स्पर्धक बनता है। इसके आगे दो, तीन, चार संख्यात असंख्यात गुण अधिक अविभाग प्रतिच्छेद नहीं मिलते हैं। इस तरह सम गुणवाले वर्गों के समुदाय रूप वर्ग णाओंके समूह रूप स्पधक एक उदय स्थान में अभव्यों से अनन्तगुणे तथा सिद्धोंके अनन्त भाग प्रमाण होते है । ( ध. १२ / ४.२,७,२०४ / १४५ / ६ ); ( ध. १४/५, ६.५०६/४३३/६); (गो. जी. / भाषा /५१ / ९५५/६ ): (गो. क. / भाषा/२२६/३१२) क. पा. ३/४-२२/२०१३-४०२/३४४-३४५/१२ एवं दोअविभागपच्छेिइतर चार पंच सत्तादि अविभाग सिमेण अतिपरमाणू स्तूप रादशुभागस्स पण काउग अभवसिद्धिएहिं अनंतागुणं सिद्धाणमणंतभागमे त्तवग्गणाओं उप्पाइय उबरि उवरि रचेदब्बाओ । एवमेत्तियाहि वग्गणाहि एवं फद्दयं होदि विभाग हि कममडीए एगेगपंति पट्ट अहि सादो उपरिमाणू अविभागपच्छेिदसंखं पे महागीए अभावेण विरुद्धाभिगच्छेदसंखादी मा ३७३ पु म फचरिगणा भाहिती एगविभागपहिलो गभागपडिवेवेत्तर परमाणू गरिथ, किंतु सम स्पर्धक जीवेहि अगुवा विभाग अहिवरपरमाणू तत्थ चिरंतणपुज्जे अस्थि । ते घेसूण पढमफद्दयउप्पादकमेण विदियफद्दयनए एवं तदियादिकमेण अभवसिद्धिएहि अनंतगुणं सिद्धागमणं भागमेताणि फट्याणि उप्पादव्याणि एवमेतियकयसण मणिगोजणाशुभाष्ट्ठा होदि पहले देखो द = ( वर्ग वर्गणा) इस प्रकार दो अविभाग प्रतिच्छेद अधिक तीन, चार, पाँच, छह और सात आदि अविभाग प्रतिच्छे अधिक के क्रमसे अवस्थित अनन्त परमाणुओं को लेकर उनके अनुभागका बुद्धिके द्वारा छेदन करके अभय राशिसे अनन्तगुणी और सिद्ध राशिके अनन्त भाग प्रमाण वर्गणाओंको उत्पन्न करके उन्हें ऊपर ऊपर स्थापित करो । इस प्रकार इतनी वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है, क्योंकि वहाँ अविभाग प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा एक एक पंक्तिके प्रति क्रमवृद्धि अवस्थित रूपसे पायी जाती है, अथवा ऊपरके परमाणुओं में अनिभाग प्रतिच्छेदों की संख्याको देखते हुए वहाँ क्रम हानिका अभाव होनेसे इसके विरुद्ध अविभाग प्रतिपेदों की संख्या पायी जाती है। पुनः प्रथम स्पधर्क अन्तिम वर्गणाके एक वर्ग के अविभाग प्रतिच्छेदोंसे एक अभिभाग प्रसव अधिक वाला परमाणु आगे नहीं है, किन्तु सब जीवों से अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद अधिक वाले परमाणु उस चिरंतन परमाणु में मौजूद हैं। उन्हें लेकर जिस क्रमसे प्रथम स्पर्धकको रचना की थी उसी क्रमसे दूसरा स्पर्धक उत्पन्न करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरे आदि स्पर्धा कोंके क्रमसे अभव्य राशि से अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र स्पर्धक उत्पन्न करने चाहिए । इस प्रकार इतने स्पर्धकसमूहसे सूक्ष्म निगोदिया जीवका जघन्य अनुभाग स्थान बनता है। क.पा./५/२-२२/१५०४/२४५ पर विशेषार्थ एक परमाणुमे रहनेवाले उन विभाग प्रतिको वर्ग कहते हैं अर्थात प्रत्येक परमाणु एक एक वर्ग है । उसमें पाये जाने वाले अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण संदृष्टिके लिए कल्पना करना चाहिए। पुनः पुनः उन परमाणुओं में से प्रथम परमाणु के समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले दूसरे परमाणुको लो और पूर्वोक्त वर्ग के दक्षिण भागमें उसकी स्थापना कर देनी चाहिए 1 ऐसा तब तक करना चाहिए जब तक जघन्य गुणवाले सब परमाणु समाप्त न हों। ऐसा करने पर भी अभव्य राशिसे अनन्तगुणे और सिद्ध राशिके अनन्त भाग प्रमाण वर्ग प्राप्त होते हैं। उनका प्रमाण संदृष्टि रूपमें इस प्रकार है- द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा इन सभी वर्गों की वर्मा संज्ञा है, क्योंकि वोंक समूहको वर्गमा कहते हैं। तत्पश्चात् फिर एक परमाणु लो जिसमें एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद पाया जाता है उसका प्रमाण संदृष्टिमें है । इस क्रम से उस ह परमाणु के समान अविभाग प्रतिच्छेदवाले जितने परमाणु पाये जायें, उनका प्रमाण इस प्रकार है - ६६६ | यह दूसरी वर्गणा है। इसको प्रथम वर्गणा के आगे स्थापित करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवी आदि वर्गणाएँ, जो कि एक एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेदको लिये हुए है उस करनी चाहिए। इन वर्गाका प्रमाण अभय शक्षिसे अनन्तगुणा और सिद्ध राशिके अनन्दले भाग प्रमाण है। इन सब वर्गणाओंका एक जघन्य स्पर्धक होता है, क्योंकि परमाणुओं के समूहको स्पर्धक कहते हैं। इस प्रथम स्पर्धकको पृथ स्थापित करके परमाणु से एक परमाणुको लेकर बुद्धिके द्वारा उसका छेदन करनेपर द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके प्रथम वर्ग उत्पन्न होता है। इस वर्ग में पाये जाने वाले अविभाग प्रतिच्छेदोंका प्रमाण संदृष्टि रूप से १६ है । इस क्रमसे अभव्य राशिसे अनन्त गुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले परमाणुओं को लेकर उतने ही वर्ग उत्पन्न होते हैं। इन वर्गोंका समुदाय दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणा कहलाता है, इस प्रथम वर्गणाको प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके आगे अन्तराल देकर स्थापित करना चाहिए। इस क्रमसे वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकको जानकर तब उनकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्धक स्पर्श प्रथमस्प. द्वि-स्प. तृ. स्प.)चतु-स्प. पं. रूप., प.स्प. उत्पत्ति करनी चाहिए जबतक पूर्वोक्त परमाणु ओंका प्रमाण समाप्त गोत्र इन चार अघातियाका अनुभाग जघन्य देशघातीसे उत्कृष्ट नहीं होता है । इस प्रकार स्पर्धकोंकी रचना करने पर अभव्यराशिसे सर्वघाती पर्यन्त जघन्य लता भागसे उत्कृष्ट शैल भाग पर्यन्त अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धक और रहता है। वर्गणाएँ उत्पन्न होती है। इनमेंसे अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा- म. सा./४६६/५४२ चारित्रमोहकी क्षपणा विधिमें सभी प्रकृतियों के के एक परमाणु में जो अनुभाग पाया जाता है उसे ही जघन्य स्थान द्रव्यमें से कुछ निकों के अनुभागको अपकर्षण द्वारा घटाकर अनन्त कहते हैं। इसकी संदृष्टि इस प्रकार है गुणा घटता करै है। अर्थात उन उनके योग्य पूर्व स्पर्धकोंमें जो सर्व जघन्य अनुभागके स्पर्धक संसार' अवस्था विष पहिले थे। उनसे भी अनन्तगुणा घटता ( अनुभाग जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था) सहित अपूर्व स्पर्धकको रचना करै है। तहाँ पूर्व स्पर्धकनिकी जघन्य वर्गणासे भी अपूर्व स्पर्धककी उत्कृष्ट वर्गणा विषे अनुभाग अनन्त प्र० वर्गणा भाग मात्र है। ऐसे अपूर्व स्पर्धकोंका प्रमाण अनन्त होता है। तहाँ अपूर्व स्पर्धकोंमें भी जघन्य अनुभागमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा द्वि० वर्गणा है। अश्वकर्ण करण के प्रथम समयसे लगाय उसके अन्तिम समय पर्यन्त बराबर यह अपूर्व स्पर्धक बनानेका कार्य चलता रहता है। तृ० वर्गणा अर्थात अश्वकर्णका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल ही इसकी विधिका काल है। इसके ऊपर कृष्टिकरणका काल प्रारम्भ होता है । (क्ष. सा./४८७) । च० वर्गणा * योग स्पर्धकका लक्षण-दे. योगा। * स्पर्धक व कृष्टिमें अन्तर-दे. कृष्टि । २. स्पर्धकके भेद स्पर्श-स्पर्शनका अर्थ स्पर्श करना या छूना है। यहाँ इस स्पर्शानुरा.वा./२/५/३/१०६/३० द्विविध स्पर्धकम्-देशघातिस्पर्धकं सर्वधाति- योग द्वारमें जीवोंके स्पर्शका वर्णन किया गया है अर्थात कौन-कौन स्पर्धकं चेति । - स्पर्धक दो प्रकार के होते हैं-देशघाति स्पर्धक और मार्गणा स्थानगत पर्याप्त या अपर्याप्त जीव किस-किस गुणस्थानमें सर्वघाति स्पर्धक । ( इसके अतिरिक्त जघन्य स्पर्धक व द्वितीय कितने आकाश क्षेत्रको स्पर्श करता है। स्पर्धक (गो.जी./भाषा/५६/१५५/६) पूर्वस्पर्धक तथा अपूर्व स्पर्धकका निर्देश आगममें यत्र तत्र पाया जाता है।) भेद व लक्षण ३. देशघाति व सर्वघाति स्पर्धकका लक्षण स्पर्श गुणका लक्षण। द्र.स/टो./३४/१/४ सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिकाः कर्मशक्तयः स्पर्श नाम कर्मका लक्षण । सर्वघातिस्पर्द्ध कानि भण्यन्ते, विवक्षितैकदेशेनात्मगुणप्रच्छादिकाः | स्पर्शनानुयोग द्वारका लक्षण। शक्तयो देशघातिस्पर्द्ध कानि भण्यन्ते। -सर्व प्रकारसे आरमाके ४ स्पर्शके मेद गुणोंको आच्छादन करनेवाली जो कोंकी शक्तियाँ हैं उनको सर्वघाति स्पर्द्धक कहते हैं। और विवक्षित एक देशसे जो आत्माके १. स्पर्श गुण व स्पर्श नामकर्म के भेद । गुणोंका आच्छादन करनेवाली कर्मशक्तियाँ हैं वे देशघातिस्पर्द्धक २. निक्षेपों की अपेक्षा भेद दृष्टि नं.१व दृष्टि नं.२।। कहलाती हैं। निक्षेप रूप मेदोंके लक्षण । ४. पूर्व व अपूर्व स्पर्धकके लक्षण | अग्नि आदि सभीमें स्पर्श गुणा --दे. पुदगल/१०। क्ष. सा./भाषा./४६४/५४०/१६ संसार अवस्था देशवाति व सर्वघाति प्रकुतियोंका जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त जो अनुभाग रहता है, उससे स्पर्शन नामकर्म कास्पर्श हेतुत्व। युक्त स्पर्धक पूर्वस्पर्धक कहलाते हैं।-जैसे मोहनीयमें सम्यक् --दे. वर्ण ।। प्रकृतिका अनुभाग केवल देशघाति होनेके कारण जघन्य लता भागसे * स्पर्श नामकर्मको बन्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ । दारु भाग के असंख्यात पर्यन्त हो । तातै ऊपर मिश्र मोहनीयका -दे.बह वह नाम । अनुभाग जघन्यसै उत्कृष्व पर्यन्त मध्यम दारु भावरूप ही रहता है। और इससे भी ऊपर मिथ्यात्वका अनुभाग अपर दारुसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्श सामान्य निर्देश शैल भागतक रहता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीयकी केवल ३ व ४ से रहित संज्वलन चतुष्क, नव नोकषाय, पाँच अन्तराय, इन , परमाणुओंमें परस्पर एकदेश व सर्वदेश स्पर्श २५ प्रकृतियोका अनुभाग जघन्यसे लेकर उस्कृष्ट देशघाती पर्यन्त तो -दे. परमाणु/३। लता भागसं दारु के असं.भाग पर्यन्त और जघन्य सर्वधातीसे लेकर १. अमूर्तसे मूर्तका स्पर्श कैसे सम्भव है। उत्कृष्ट सर्वघाती पर्यन्त दारु के असं.भाग से उत्कृष्ट शैल भाग पर्यन्त वत है। केवल ज्ञानावरण, केवल दर्शनावरण, पाँच निद्रा और क्षेत्र व कालका अन्तर्भाव द्रव्य स्पर्शमें क्यों प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, अनन्तानुबन्धीकी १२ इन १६ सर्वघाती नहीं होता। प्रकृतियोंका अनुभाग जघन्य सर्वधातीसे उत्कृष्ट सर्वघाती पर्यन्त वारु के असं.भाग से उत्कृष्ट शैल भागपर्यन्त है । वेदनीय, आयु, नाम व * क्षेत्र व स्पर्शमें अन्तर। -दे. क्षेत्र/२/२ । भा०४-६० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्श ३ स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ स्पर्शन प्ररूपणा सम्बन्धी नियम । - पै. क्षेत्र/३। सारनियोंमें प्रयुक्त संकेत सूची । जीवोंके वर्तमान काल स्पर्शकी ओष प्ररूपणा । जीव अतीत कालीन स्पर्शकी ओष प्ररूपणा । जीवक अतीत कालीन स्पर्शकी आदेश प्ररूपणा । अष्टकमक चतुबन्धकोंकी ओप आदेश प्ररूपणा । ६ मोहनीय सत्कार्मिक बन्धकों की ओव आदेश प्ररूप० । अन्य प्ररूपणाओंकी सूची । ५ १ २ ३ ४ १. भेद व लक्षण १. स्पर्श गुणका क्षण स.सि./५/२३/२६३/९९ स्पर्शनमा मा स्पर्शः । स.सि./२/२०/९०८/१ स्पृश्यत इति स्पर्शः प्राधान्यविवक्षाय भावनिर्देशः पर्याप १. जो स्पर्शन किया जाता है उसे या स्पर्धानमात्रको स्पर्श कहते हैं। २. द्रव्यको अपेक्षा होनेपर कर्म निर्देश होता है। जैसे जो स्पर्श किया जाता है सो स्पर्श है। ...तथा जहाँ पर्यायकी विवक्षा प्रधान रहती है तब भाव निर्देश होता है जैसे स्पर्शन स्पर्श है । (रा. वा./२/२०/१/१३२/३१) । घ. १/१.३३/२३०/० यदा वस्तुप्राधान्येन विवक्षितं तदा द्रये वस्त्वेव विषयीकृतं भवेद् वस्तुव्यतिरिक्तस्पर्शाद्यभावात् । एतस्मां विवक्षायां स्पृश्यत इति स्पर्शो वस्तु यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विमतिस्तदा तस्य ततो भेदोपपत्तेरीदासीश्यामस्थिभावकथनाद्भावसाधनत्वमप्यविरुद्धम् । यथा स्पर्श इति । - जिस समय द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा प्रधानतासे वस्तु ही विवक्षित होती है, उस समय इन्द्रियके द्वारा वस्तुका ही ग्रहण होता है, क्योंकि वस्तुको छोड़कर स्पर्शादि धर्म पाये नहीं आते हैं इसलिए इस विवक्षायें जो स्पर्धा किया जाता है उसे स्पर्धा कहते हैं, और वह स्पर्श वस्तु रूप ही पड़ता है। तथा जिस समय पर्यायार्थिक नयकी प्रधानता से पर्याय विवक्षित होती है, उस समय पर्यायका द्रव्यसे भेद होनेके कारण उदासीन रूपसे अवस्थित भावका कथन किया जाता है। इसलिए स्पर्श में भाव साधन भी बन जाता है। जैसे स्पर्शन ही स्पर्श है। २ स्पर्श नामकर्मका लक्षण 1 1 स.सि./८/१९/३१०/८ यस्योदयात्स्वादुर्भावस्तस्पर्शनाम। जिसके उदयसे स्पर्शकी उत्पत्ति होती है वह स्पर्श नामकर्म है (रा.वा./ ८११/१०/२०७/१४) (. १/४.१.१०२ / ३६४/८); (गो.क./जी. प्र ३३/२१/१५) । घ. ६/११-१२०/२५/६ जस्स कम्मर उदरण जीवसरीरे जाइपयिदो पासो उप्पज्जदि तस्स कम्मक्खंधस्स पाससण्णा कारणे कज्जुवयारादो । - जिस कर्मस्कन्धके उदयसे जीवके शरीर में जाति ४७४ १. भेद व लक्षण प्रतिनियत स्पर्श उत्पन्न होता है, उस कर्म स्कन्धकी कारण में कार्यके उपचारसे रूप यह संज्ञा है। ३. स्पर्शनानुयोग द्वारका लक्षण स.सि./१/८/२६/७ सदेव स्पर्शनं त्रिकालमोचरम् त्रिकाल विषयक निवासको स्पर्श कहते हैं । ( रा. वा /१/८/५/४१/३० ) ध. १/१.१.७ /गा./१०२ / १५८ अस्थिन्तं पुण संतं अस्थिन्तस्स य तहेब परिमाणं पप अप पुस । १०२ ॥ ५. १/१.१०७/१७ सेडियो समागतानं अदीव-कालविकास परुवेदि फोसमागम १ अस्तित्वका प्रतिपादन करनेवाली को सप्ररूपणाहते है। जिन पदार्थोके अ - का ज्ञान हो गया है ऐसे पदार्थों के परिमाणका कथन करनेवाली संख्या प्ररूपणा है. वर्तमान क्षेत्रका वर्णन करनेवाली क्षेत्र प्ररूपणा है। अतीस स्पर्श और वर्तमान स्पर्शका वर्णन करनेवाली स्पर्शन प्ररूपणा है । १०२२. उक्त सोनों अनुयोगों द्वारा जाने हुए सद संख्या और क्षेत्ररूप द्रव्यों के अतीतकाल विशिष्ट वर्तमान स्पर्शका स्पर्शनानुयोग वर्णन करता है । SURE का घ. ४/१२९/१४४ / अस्पर्शि] स्पृश्यत इति स्पर्शन जो स्पर्श किया है और वर्तमान में स्पर्श किया जा रहा है यह स्पर्शन कहलाता है । ४. स्पर्शके भेद १. स्पर्शगुण व स्पर्श नामकर्मके भेद घ. नं. ६/१,६,१/ सू. ४०/७५ जं तं पासणामकम्मं तं अट्ठविहं, कपखडशाम मणा गुरुअाम सहुअणाम शिक्षणाम सुखमा सीपणाम उणणामं चेदि |४०| - जो स्पर्श नामकर्म है वह आठ प्रकारका - कर्कानामकर्म, मृदुकनामकर्म, गुरुकनामकर्म, सकनामकर्म, स्निग्धनामकर्म, रूक्षनामकर्म, शीतनामकर्म और उष्णनामकर्म | (१३/२०/ ११३/३००); (स.सि./०/९९/२०/-); (पं. सं./प्रा./२/४/टी./४०/२) (रा. वा /८/११/१०/१००/१४) (गो. / uft, #/33/38/tk) 1 स.सि./५/२३/२३/११ सोऽष्टविधः; मृदुकठिन गुरुलघुशीतोष्ण स्निग्धरूक्षभेदात् । कोमल, कठोर, भारी. हलका, ठंडा, गरम, स्निग्ध और रूक्षके भेदसे वह स्पर्श आठ प्रकारका है। (रा.वा./५/२३/०/ ४४) (गो की. जी. ९) (सं./टी./०/११) (५.२. / टी./१/१६)। २. निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद दृष्टि नं. १ नोट - ( नाम, स्थापना आदि भेददे, निक्षेप ) | प. ४/१.४.२/१४३ /२ मिसम्मको घण्टं दब्यान संजोए पूणसहिमेयभिन्न मिश्रस्यस्पर्शर्शन चेतन अचेतन स्वरूप यहाँ द्रव्यों के संयोग से उनसठ भेदवाला होता है । = विशेषार्थ मिश्र पर नागमद्रव्य स्पर्धा के सचिव अचित रूप छह द्रव्योंके ६५ संयोगी भंग निम्न प्रकार हैं। एक संयोगी भंग ज्योंका पृथ-पृथ ग्रहण करनेसे -६ दिसंयोगी (६५) + (१४२) - १०/२ - १५ । त्रिसंयोगी भंग - ( Ex५x४ ) + ( १x२४३} - १२०/६ = २० । चतुसंयोगी भंग- ( १२३०४ ) - १६० / २४-१ पंच संयोगीभंग (२)+(१२३४३ ) - ७२० / ९२० - । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्श यह संयोगी भंग (4x४३१ + १२xxxx -०२० / ०२०-१ | - १॥ जीवके साथ जीव के स्पर्श रूप बन्ध का भंग' गसके साथ युगल के स्पर्श रूप भाग (मो. क. सु. ००) कुल भंग स्पर्श द्वय एकक्षेत्र अनन्तरक्षेत्र देश कर्मस्पर्श त्वक्स्पर्श स्पर्श स्पर्श सर्वस्पर्श बन्धस्पर्श भव्य स्पर्श भावस्पर्श ।} ।।। ३. निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद दृष्टि नं. २ ष, खं. १३/५,३ / सू. ४-३३ / पृ. ३-३६ १/३ Jeblika पाँच शरीरोंके पर स्पर संयोगी भंग ३१- पुनरुक्त भंग १७- १४ ०६/ आठ कम क | परस्पर संयोगी भंग ६४- पुनरुक्त • २८३६ ३८/३ दे. निक्षेप २) में दिये गये सर्व भेद नोआगम आगम M = ६५ कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण इन स्पर्शक २४/२४ । ( संयोगी भंग = २५५ भंग ६३ अधर्म, धर्म, आकाश व काल इन छह द्रव्यों जीव, पुद्गल, के परस्पर संयोगी ४७५ प. ९३/४.३.२४/२/२ एरच केचि आइरिया कडा विकासानं पहाणीकयाणं एवादिसंजोगेहि फासभंगे उप्पायंति, तण्ण घडदे गुणाणं निस्सहावणं गुणेहि फासाभावादो ... अधवा सुत्तस्स देसामा सिय ते.... सगंतो से संतराणमदृष्णं फासाणं संजोए पंचवं चासभंगा उप्पारयन्वा । - यहाँ कितने ही आचार्य प्रधानताको प्राप्त हुए ककश आदि स्पर्शोके एक आदि संयोगों द्वारा स्पर्श ग उत्पन्न कराते हैं; परन्तु वे बनते नहीं; क्योंकि गुण निस्वभाव होते हैं, इसलिए उनका अन्य गुणोंके साथ स्पर्श नहीं बन सकता ।... अथवा सूत्रदेशामर्शक होता है। अतएव अपने भीतर जितने विशेष प्राप्त होते हैं, उन सबके साथ आठ स्पर्शोके संयोग से दो सौ पचपन भंग उत्पन्न कराने चाहिए । पुसदि ५. निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण पघला टी./९६/५१/ नं./१.नंद सो सम्वोदव्व फासो णाम । (१२/११)' 'जं दव्वमेवखेत्तेण पुसद सो सव्बो एक्वत्तफासो णाम ( १४ / १६ ) ' एक्कम्हि आगासपदेसे दिवाणसनवारण संजोग वा जो फासो - एक्सफासो नाम बहुवाणं दव्वाणं अक्षमेण एतण दुवारेण वा एयक्स्खेत्तफासो वत्तव्वो । 'जं दव्वमणं तरवखेत्तेण पुसदि सो सब्त्री अनंतर खेत्तफासो णाम (१६/१७) दुपदेसट्ठिददव्वाणमण्येहि दो आगासपदेस दहि जो फासो सो असरसफासो गाम...एवं संत समागमारा जो फासो सो एयन्त फासो काम असमानोगाहा को फासो सो सरसफासो णाम । कधमणंतरत्तं । समाणासमाणवखेत्ताणमंतरे खेत्तंतराभावादो । एवमणं तरखेत्तफा सपरूत्रणा गदा । - 'जं दव्वदेसं देसेण पुसदि सो सबो देसफासो णाम (१८/१८) एगस्स दव्वरस देसं अवयवं जदि [ देसेण] [] अणदम्यदेश अप्पलो अवश्येग प्रसदि तो देसफासो ि दयोदयं वा गोवा पुसदि सो यो तयफासो गाम (२०/१६) एसो तमासा अंतभावं कि ग ण, तय-गोतयाणं खंधम्हि समवेदाणं पुध दव्वत्ताभावादो। संध-तयगोतयाणं समूहो दव्त्रं । ण च एक्कम्हि दब्बे दबफासो अस्थि, विरोहादो !... तयफासो देसफासे किण्ण पविसदि । ण णाणदव्वविसए देसफासे एमदसियरस तयफासरस पवेसविरोहादो १. भेद व लक्षण द स वे फुर्सद सहा परमाणुव्यमिदि सोसयो फासो णाम । (२२/२१)' 'सो अट्ठविहो- कक्खडफासो मउवफासो गरुबफासो लहमकास गिफासो पासो सीपकासोउफासो सो फासफासो नाम (२४ / २४ ) स्पृश्यत इति स्पर्शः कर्क शादिः स्पृश्यत्यनेनेति स्पर्शस्लमिन्द्रियं तयोर्द्वयोः स्पर्शयोः स्पर्शः स्पर्शस्पर्शः ॥ सी अट्ठविहीणागावरणीय दंसणावरणीय वेणीय मोहणीय-आउअ णामा गोद - अंतराइय-कम्मफासो । सो सम्पो कम्मफासो नाम (२६/२६) अट्ठकम्माणं जीवेण विस्सासोचहिय शोकम्मे हि य जो फासो सो दफा पददिति एथ ण बुच्चदे, कम्भाणं कम्मे हिजो फासो सो कम्मफासो ति एथ घे तन्त्र । - ' सो पंचविहो- ओरालि यसरीरबंधफासो एवं वेउब्वियआहार - तेया कम्मइयसरीरबंधफासो । सो सवो बंधकासो णाम । (२८/३०)' बनातीति बन्धः । औदारिकशरीरमेव बन्धः औदारिकशरीरबन्धः । तस्स बंधस्स फासो ओरालियसरीरवंधफासो णाम । एवं समासरीनं धफासा पति-पंजरकंदय- वग्गुरादीणि कत्तारो समोद्दियारो य भवियो फुसणदाए जो य पुण ताव तं फुसदि सो सव्वो भवियफासो नाम ( ३० / ३४ ) ' 'उदो पाहुजाण सोसम्बी भायफासो णाम (२२ / ३५) १. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य स्पर्शको प्राप्त होता है वह राम अयस्पर्श है | १२ | २. जो द्रव्य एक क्षेत्रके साथ स्पर्श करता है वह सब एक क्षेत्रस्पर्श है | १४ | एक आकाश प्रदेशमें स्थित अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धों का समवाय सम्बन्ध या संयोग सम्बन्ध द्वारा जो स्पर्श होता है वह एक क्षेत्रस्पर्श कहलाता है । अथवा बहुत द्रव्योंका युगपत् एक क्षेत्रके स्पर्शन द्वारा एक क्षेत्र स्पर्श कहना चाहिए। ३. जो द्रव्य अनन्तर द्रव्य के साथ स्पर्श करता है वह सब अनन्तरक्षेत्र स्पर्श है | १६ | दो प्रदेशों में स्थित द्रव्योंका दो आकाशके प्रदेशोंमें स्थित अन्य द्रव्यों के साथ जो स्पर्श होता है वह अनन्तर क्षेत्रस्पर्श है ।.... इस स्थिति में ( एक शब्द संख्यावाची नहीं समानवाची हैं ) समान अवगाहना वाले स्कन्धोंका जो स्पर्श होता है वह एक क्षेत्रस्पर्श है। और असमान अवगाहना वाले स्कन्धोंका जो स्पर्श होता है वह अनन्तरक्षेत्र स्पर्श है । क्योंकि समान और असमान क्षेत्रोंके मध्य में अन्य क्षेत्र नहीं उपलब्ध होता, इसलिए इसे अनन्तरपना प्राप्त है । ४. जो द्रव्य एक देश एक देश के साथ स्पर्धा करता है वह सब देशस्पर्श - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्श ४७६ है | १८ | एक द्रव्यका देश अर्थात् अवयव यदि अन्य द्रव्य के देश अर्थात उसके अवयव के साथ स्पर्धा करता है तो वह देश जानना चाहिए। दो परमाणुओंका दो प्रदेशावगाही स्कन्ध बननेमें जो स्पर्श होता है वही देशस्पर्श है । ) ५. जो द्रव्य त्वचा या नोत्वचा को स्पर्श करता है यह सब त्यस्पर्श है ।२० प्रश्न- यह स्पर्श द्रव्य स्पर्शमें क्यों नहीं अन्तर्भाविको प्राप्त होता उत्तर--नहीं, क्योंकि स्वचा और नोत्वचा स्कन्ध में समवेत है, अतः उन्हें पृथक् द्रव्य नहीं माना जा सकता । स्कन्ध, त्वचा और नोखचाका समुदाय द्रव्य है । पर एक द्रव्य में इम्पस्पर्श नहीं बनता, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। प्रश्न स्पर्धा देशस्पर्शमें क्यों नहीं अन्तर्भूत होता है उत्तर नहीं, क्योंकि माना क्योंको विषय करनेवाले देश स्पर्शमें एक द्रव्यको विषय करनेवाले त्वक् स्पर्शका अन्तर्भाव माननेमें विरोध आता है । ६, जो द्रव्य सबका सब सर्वात्मना स्पर्श करता है परमाणु द्रव्य, वह सम सर्वस्पर्श है | २२|७. प आठ प्रकारका है---कर्मशस्थ मृदुप, गुरुस्पर्श, स्पर्श, स्निग्धस्पर्श, रूक्षस्पर्श, शीतस्पर्श और उष्ण स्पर्श है वह सम स्पर्शस्पर्श है । २४ । जो स्पर्श किया जाता है वह स्पर्श है, यथा कर्कश आदि । जिसके द्वारा स्पर्श किया जाय वह स्पर्श है, यथा त्वचा इन्द्रिय इन दोनों पक्षोंका स्पर्श स्पर्शस्पर्श कहलाता है। प्रकारका है--ज्ञानावरणीय कर्मस्पर्श, दर्शनावरणीय वेदनीय कर्मस्पर्श, मोहनीय कर्मस्पर्श, आयुकर्मस्पर्श, गोत्र कर्मस्पर्श और अन्तराय कर्म स्पर्श वह सभ कर्मस्पर्श है । २६ । आठ कर्मोका जीवके ग्राम, विसोपचयोंके साथ और नोकमोंके साथ जो स्पर्श होता है यह सब ग्ररूप स्पर्श में अन्तर्भूत होता है इसलिए वह यहाँ नहीं कहा गया है । किन्तु कर्मोंका कर्मों के साथ जो स्पर्श होता है वह कर्मस्पर्श है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । १. वह पाँच प्रकारका है- औदारिक शरीर बन्धस्पर्श इसी प्रकार बैंकिक आहारक तेजस और कार्मण शरीर बन्धस्पर्श । वह सब बन्ध-स्पर्श है |२| जो बाँधता है वह बन्ध कहलाता है, औदारिक शरीर औदारिक शरीर बन्ध है, उस बन्धका स्पर्श औदारिकशरीरबन्धस्पर्श है। इसी प्रकार सर्व शरीरबन्ध स्पर्शोका भी कथन करना चाहिए । १०. विष, कूट, यन्त्र, पिंजरा, कन्दक और पशुको बाँधनेका जाल आदि तथा इनके करनेवाले और इन्हें इच्छित स्थानों में रखनेवाले स्पयन के योग्य होंगे परन्तु अभी उन्हें स्पर्श नहीं करते; वह सब भव्य स्पर्श है |३०| ११, जो स्पर्श प्राभृतका ज्ञाता उसमें उपयुक्त है वह सम भाव स्पर्श है ॥३२॥ 1 बन्ध . वह आठ कर्मस्प घ. ४/१, ४.९/१४३-१४४ / १.२ से सव्वाणमागमसेण सह संजोओ खेतफो/१४३/३/ काल हिजो संजोओ सो कालको स णाम । = १२, शेष द्रव्योंका आकाश द्रव्यके साथ जो संयोग है, वह क्षेत्र स्पर्शन कहलाता है । १३. कालद्रव्यका जो अन्य द्रव्योंके साथ संयोग है उसका नाम कालपर्शन है। २. स्पर्श सामान्य निर्देश १. अमूर्तसे मूर्तका स्पर्श कैसे सम्भव है ध. ४/१,४,१/१४३/३ अमुत्तेण आगासेण सह सेसदव्वाणं मुप्ताणममुत्ताणं वा कई पोसो न एस दोस्रो, अयगेल्यावगाहमावरमेव उमारण फासवबएसादो, सत्त पमेयत्तादिणा अण्णोष्णसमाणतणेण वा ।... अनुशेष कालदव्येण सेस अदि वि पासो परिणाम माणाणि मेादन्यानि परिणक्षेण कालेन पुसिदागि ति उपयारेण कालफोसणं बुच्चदे । - प्रश्न- अमूर्त आकाश के साथ शेष अमूर्त और सूर्त द्रव्योंका स्पर्धा कैसे सम्भव है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अनगाहा अनगाहक भामको ही उपचार स्पर्श संज्ञाप्राप्त है, अथवा सत्त्व प्रमेयत्व आदिके द्वारा मूर्त द्रव्यके साथ अमूर्त द्रव्यकी परस्पर समानता होने से भी स्पर्शका व्यवहार बन जाता है ।... यद्यपि अमूर्तकाव्य के साथ शेष द्रव्योंका स्पर्शन नहीं है. तथापि परिणमित होने वाले शेष द्रव्य परिणामत्व की अपेक्षा काल से स्पर्शित है. इस प्रकारले उपचारसे काल स्पर्शन कहा जाता है। + x २.४/१.४.१/१४४/४ खेतकामपोसणा दिव्यफोन म्हि डि पर्व तिति बुसे ण पदंति, दबादी दवेगवेसस्स कथंचि भेदुबलं भादो । प्रश्नक्षेत्रस्पर्शन और कालस्पर्शन ये दोनों स्पर्शन, द्रव्य स्पर्शनमें क्यों नहीं अन्यभूत होते हैं उत्तर- अन्तर्भूत नहीं होते हैं, क्योंकि, असे अध्यके एकदेशका कथंचिह्न भेद पाया जाता है। ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ १. सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची / भाग S २. क्षेत्र व काल स्पर्शका अन्तर्मान इम्य स्पर्शमें क्यों नहीं ८/१४/सोक लोकका ८/१४ भाग अपर्याप्त असंख्यात अप. असं. थ, ज. प्र.. fa. f. डि. प. पृ. मा. म. म. सर्व. सं. सं.प. सा. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ भाग गुणा किंचिदूण लोक (मनुष्य लोक रहित सर्व लोक ) जगावर तिर्म लोक त्रिलोक या सर्व लोक व अथो मे दो लोक पर्याप्त पृथिवी भादर मनुष्य लोक (बाप) वनस्पति सर्व लोक ( ३४३ घन राजू ) संख्यात संख्यात घनांगुल सामान्य --- Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण स्पर्श गुणस्थान स्थान |स्वस्थान स्वस्थान | विहारक्त स्वस्थान बेदना कषाय समुद्धात वैक्रियिक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद । तैजस आहारक व केवलि समुद्रात जीवोंके वर्तमान काल स्पर्शकी ओघ प्ररूपणा-(ध.४/१.४.२-१०/१४५-१७३) १४ | मियादृष्टि । | सर्व | त्रि./असं.. ति./स.. सर्व मारणान्तिकवव त्रि./असं., ति./सं. मरअसं. मरअसं. १४६॥ सासादन २ च./असं., म. असं. च./असं., मरअसं. च./असं., मझअसं, च./असं, मअसं. च./असे., मरअसं. सम्यग्मिध्यादृष्टि ६६ असंयत सम्यग्दृष्टि ४ । त्रि./असं., त्रि./असं.,ति./सं., | त्रि./असं , ति./सं. | त्रि./असं., वि./सं.. ति./सं., मरअसं. | मरअसं. मरअसं. मरअसं. त्रि./असं., ति./सं.. मारणान्तिकवत मरअसं. संयतासंक्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १७० प्रमत्त संयत ६ च./असं.,म./सं. | च./असं., म./सं. | च./असं., म./सं. | च./असं., म./सं. च./असं.,मरअसं. ... तेजस - च./असं., म./सं. बाहारक - अप्रमत्त संयत उपशामक । क्षपक ७२ सयोगकेवली च./असं., म./सं. ... दण्ड-- च./असं., मरअसं. कपाटकायोत्सर्ग- ४५००,००० योज.प्र. उपविष्ट १०००.००० योx१ज.प्र. प्रतर - वातवलय रहित सर्व लोकपूरण सर्व ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएं १७२ अयोगकेवलो । १४ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण .४/पृ. १४८ १४६. सासादन १६२ १६५ गुणस्थान १६६- सम्यग्मिध्यादृष्टि १६७ १७१ २. जीवोंके अतीत कालीन स्पर्शकी ओष प्ररूपणा ( ४. ४/१. ४, १-१०/९४५-१०३ ) सर्व [5] टोक सर्व लोक लोक for fois मxअसं. ::: मिध्यादृष्टि १६५ संयतासंयत १७२ १७२ असंयत सम्यग्दृष्टि प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत उपशामक क्षपक सयोग केवली गुणस्थान जयोग केवली १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८-११ ८-१२ १३ स्वस्थानस्वस्थान १४ 11 19 विहारवत् स्वस्थान असं.. म./स. च. / असं., म./सं. "" वेदना कषाय समुद्घात च. असं... म./स. = 17 n S मअर्स. मध् च. / असं. म. /सं. म.स. सर्व मनुष्य शोक त्रि. / असं..ति./सं., त्रि. असं ति./सं त्रि./असं ति./सं त्रि./असं ति./सं. 5 मxअसं. च. / असं., म./सं. क्रियिक समुद्घात लोक लोक # 5 मारणान्तिक समुद्रघात सर्व 20 लोक लोक लोक च. / असं, मxअसं. 21 मारणान्तिकवत ११ S उपपाद S १४ w 120 : ... लोक सोक आहारक तेजस आहारक व केवली समुदघात सेजस सर्व मनुष्य लोक 3 ... 19 ... दण्ड = च / असं असं. कपाट कायोत्सर्ग - ४५००,००० यो १ ज. प्र उपनि १०००,००० यो ४९.प्र. प्रतरघातवलय राहेत सर्व लोकपूरण - सर्व स्पर्श ४७८ ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जीवोंके अतीत कालीन स्पर्शकी आदेश प्ररूपणा १-(प. वं. ४/१, ४, सूत्र ११-१८५/ १७३-३०६): २-(पं. वं. ७/२, ७, सू.१-२७६/३६७-४६१ ) स्पर्श प्रमाण मार्गणा गुण | स्वस्थान स्वस्थान | विहारवत् स्वस्थान स्थान वेदना कषाय समुद्धात | बैंक्रियिक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद तैजस-आहारक व केवली समुद्धात १. गति मार्गणा १. नरक गति३६८ सामान्य ३७० प्रथम पृथिवो ३७३ २.७ पृथिवी ति./असं. ति./असं. च./असं., मरअसं.। च/असं., म असं. च/असं., मरअसं. च/असं., मरअसं. सर्व/असं. - - च/असं., मरअसं. संख्यात सहस्र-६/१४ योजन मारणान्तिकबत् च/असं., मरअसं. त्रिअसं.ति/सं.मxअसं सर्व/असं. (कुछ कम टपट लोक) च असं., मxअसं. सामान्य १ च./असं., मरअसं. | च/असं..म असं. | च/असं , मरअसं. प्रथम पृथिवी च/असं, मरअसं. मारणान्तिकवत् त्रिअसं, ति/सं., मरअसं, च/असं, मरअसं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मारणान्तिकवत् २-६ पृथिवो च/असं., म. असं. क्रमेणार १४ लोक वों पृथिवी च/असं., मरअसं लोक मारणान्तिकवत् २. तिर्यचगति३७५ सामान्य पंचेन्द्रियतिर्य. प. मारणान्तिकवत् त्रि असं, ति/सं., म असं त्रि./असं.. तिसं., | त्रि./अस,, ति/सं.. मरअसं. मरअसं. सर्व त्रिअसं., तिसं., म असं. त्रि/असं., द्विxअसं. त्रि/असं., ति/सं., मरअसं. " " ३७८ ,, योनिमति , तिर्य.अप, सामान्य ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ २ बिअसं ति/सं, म असं. त्रि./असं., ति/सं. त्रिअसं., ति/सं., मरअसं. । मरअसं. त्रि असं.,तिसं., मरअसं. त्रि/असं.,ति/सं. मरअसं. सव लोक (पृ. २०४) तलाक त्रि/असं..तिसं., म असं.. ०२) Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजस, आहारक प्रमाण स्पर्श मार्गणा स्वस्थान स्वस्थान विहारवत् स्वस्थान वेदना व कषाय समुद्धात वैक्रियिक समुद्रात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद स्थान सन.२ केवनी समुद्रात सामान्य तिर्यच | ३ | त्रिअसं., ति/सं. | बिअसं.,ति/सं. मरअसं. मरअसं. त्रिअसं., तिसं. मरअसं. त्रि/असं., ति/सं. मरअसं. २०७/ अिसं., ति/सं, मरअसं ११ पंचेन्द्रियतिथंच प. मारणान्तिकवत लोक र लोक लोकवि /असं., तिसं., म असं. पंचें.तिर्य.योनिमति १-३ पंचेन्द्रिय तियं च पर्याप्तवत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सर्व (पृ. २१६) सर्व (पृ. २१६) .78 पंचें, तिर्य. अप, | त्रि असं., विसं. त्रि/असं., ति/सं. - मरअसं. मरअसं. ३. मनुष्य गतिः३८० सामान्य व पर्याप्त असं.म/सं. | कुछ कम मनुष्य लोक | कुछ कम मनुष्य लोक | कुछ कम मनुष्य लोक मनुष्यणी " ३८१, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य व पर्याप्त । १ । असं, मसं, असं., मसं. | चअसं.. म/सं. | च असं., मासं. सर्व मारणान्तिकवत मूलओघवत लोकत्रि /असं,ति/सं, मेरअसं. २२० Arm त्रि असं. लिसं.,मअसं च/असं., मरअसं. मारणान्तिकात २२२/ २२३/ मूलोघवत् मनुष्य पर्याप्तवत् मनुष्यणी २९६ २२१ २२३ I: ।। ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ मूलोघवत् ७-१४ मनुष्य अप. च/असं, म/सं. च असं., मसं. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्श मार्गणा .स.२ पृ. स्थान स्वस्थान-स्वस्थान | बिहारक्त स्वस्थान बेदना कषाय समुद्वात वक्रियिक-समधात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद तैजस आहारक व केवली समुद्धात भा०४-६१ ४. देव गति ३८२ सामान्य लोक लोक ३८५ भवनवासी लोक त्रि/असं., ति.सं... लोक लोक लोक मरअसं. |च./असं., ति./सं.. स्वनिमित्तक २६ लोक स्वनिमि.-5 लोक स्वनिमि.- मअसं. परनिमित्तक-sh. परनिमि.-50. परनिमि.-5 दोनों अपेक्षा , दोनों अपेक्षा , दोनों अपेक्षा च./असं., मxअसं. क्रमेण . क्रमण : क्रमेण : लोक लोक . । त्रि./असं., ति./सं., मरअसं. DIRE |-व्यन्तर ज्योतिषी ३८८ सौधर्म ईशान 5. लोक लोक लोक a जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश. ३८६/ सनत्कुमार-सहस्रार पाँच युगलोंमें प्रत्येक an | क्रमेण : 5 ४८१ wala n लोक ३६१ आनत-अच्युत । (२ युगलोंमें प्रत्येक | सर्व.(असं. लोक लोक लोक . ३६२ नवग्रैवेयक-अपराजित च./असं.. मरअसं. च./असं , मरअसं. च./असं., मरअसं, च./असं., मरअसं. च./असं., म असं. च./असं., मरअसं, . | सर्वार्थसिद्धि . २२४ सामान्य १ त्रि./असं.. ति./स.. मरअसं. लोक लोक . ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ . न लोक लोक .. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण स्पर्श मार्गणा गुण- | स्वस्थान स्वस्थान स्थान विहारवर स्वस्थान | वेदना कषाय समुद्घात वैक्रियिक समुद्रात उपपाद सं.सं.२ मारणान्तिक समुद्धात तैजस आहारक व केवली समुपात भवनवासी , लोक च./असं..ति./सं., स्वनिमित्तक मरअसं. परनिमित्तक दोनों अपेक्षा लोक स्वनिमि.-5 परनिमि.-5 , दोनों अपेक्षा लोक स्वनिमि.-5 लोक स्वनिमि.-5 २ लोक परनिमि.-5 दोनों अपेक्षा त्रि./असं., ति./सं.. मरअसं. दोनों अपेक्षा वैक्रियकवद ई लोक २२८ व्यन्तर ज्योतिषी |त्रि./असं., ति./सं.. मरअसं. : . pr दोनों अपेक्षा वैक्रियक बद | 5 लोक २३४ . सौधर्म ईशान लोक लोक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Piuni ४८२. S सनत्कुमार-सहस्रार १.२.४ स्व ओघवद स्व ओघवद लोक आरण-अच्युत | १-२ लोक च./असं., ति./सं., मxअसं. 5 लोक com " लोक च./असं., ति./सं., मरअसं. लोक । क्रमेण : ६.३१, Sलोके त्रि./असं.,ति:/सं.. त्रि./असं..ति./सं., मरअसं. मरअसं. ६ ते नवग्रे वेयक | १-२ | त्रि./असं.,ति./सं... त्रि./असं., ति./सं., | त्रि./असं,, ति/सं., मरअसं. म असं. मरअस. त्रि./असं., ति/सं., मरअसं. त्रि./असं.,ति..सं., त्रि./असं.,ति./सं., मxअसं. मxअसं. च./असं., मरअसं.च./असं., मरअसं. ४ च./असं, मरअसं. च./असं., मरअसं. , च /असं., मरअसं. | च./असं., मरअसं. अनुदिशसे अपराजित सर्वार्थ सिद्धि ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ म./सं. म./सं. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण सं. १ सं. २ पृ. पृ. २. इन्द्रिय मार्गणा ३६३ एकेन्द्रिय सा. प. अप. सू. प. अप. बा. प. अप. " २४० २४२ २४२ २४३ २४४ RND २४६. मागंदा ३६५ त्रिकलेन्द्रिय सा. प. अप ३६६ पंचेन्द्रिय सा. प. • ३६६ अप. 11 כי एकेन्द्रियके सर्व विकल्प ि 39 २. काय मार्गणा " पंचेन्द्रिय सा. प. पंचेद्रिय अप ४०१] पृ. अप, वायु. सा. व सू. प. अप. तेज सू. अप तेज. सा. व सू. प. 31 ४०४ पृ. अप तेज वा. प अप. ४०६ वायु. बा. प. अप. ४१० वन निगोद सा. सू. प. अप. वन, निगोद बा. प. अप, बन. अप्रतिष्ठित प. अप. गुणस्थान १ २-१४ स्वस्थान स्वस्थान सर्व /सं. fs./faxer.. मxअस. त्रि /असं ति./सं, मस 111 सर्व " त्रि. / असं., ति./सं., म०कसं. "3 सर्व त्रि./असं..ति./सं. मर्स विहारवत् स्वस्थान त्रि. / असं., ति./सं., म. असं. १४ लोक S वेदना व कषाय समुद्दनात सम 11 त्रि. / सं., ति. असं.. म•x असं. जि./अ. सि. सं., म अर्स, 5. त्रि. / असं, ति / सं., म•x असं. स्व ओघवत् स्व ओघव स्व ओघवत मुतोषक्त स्वद सर्व त्रि. / असं., ति./सं.. म.x असं. :: वैक्रियिक समुद्घात सर्व / सं. त्रि./सं., ति.xअसं.. म. x असं, $ १८ लोक त्रि. / असं., ति./स... मन्त्रअर्स त्रि.अ. ति./सं.. म असं. :: मारणान्तिक समुद्रघात सर्व " ブラ 95 " If । । । सर्व " 12 उपपाद सर्व 19 33 49 1 11 1 सर्व 12 17 तेजस आहारक व केवली समुद्रात ⠀⠀⠀ !!! । 1 1 ।।। ... स्पर्श ४८३ ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण स्पर्श मागमा गुण । विहारवतस्वस्थान वेदना कषाय समुद्घात वैक्रियिक समुद्धात स्थान मारणान्तिक समुद्घात उपपाद तेजस, आहारक व केवली समुद्घात पंचेन्द्रियवाद सर्व त्रसकाय प. अप. पृ.अप.सा.सू.प.अप वायु " " तेज , " " पृ. अप, बा. अप. २४० २४६ वायु बा. अप. त्रि असं, तिरसं, मरअसं १ त्रिसं., तिxअसं, मरअसं १ | त्रिअसं, तिसं, मरअसं. त्रि असं, तिसं.. मरअसं विसं., तिरअसं मरअसं. त्रिअसं., तिरसं, मर असं. तेज बा. अप. २५० पृ. अप. बा. प. तेज बा. प. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 828 त्रि/असं, तिसं, मxअसं, अिसं तिरसं.. मरअसं. वायु बा. प. १ त्रिसं, ति असं मरअसं वन. निगोद सू. अप. १ सर्व वन निगोद सू. प. १ सर्व वन . बा. अप. १ त्रिअसं, तिरसं. मरअसं विसं., ति असं मxअस., सर्व त्रि/असं,तिसं.. मरअसं., २५० वन अप्रति प्रत्येक अप १ | बस अपर्याप्त १ त्रिअसं, तिनसं. मरअसं क्रिअसं, ति/सं. मरअसं., र लोक मूलोघवत ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ त्रस पर्याप्त S लोक Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्श प्रमाण मागणा गुण स्थान स्वस्थानस्वस्थान | विहारवतस्वस्थान वेदना कषाय समुद्घात वैक्रियिक समुद्धात मारणान्तिक समुद्घात उपपाद तेजस, आहारक व केबली समुद्धात सिं.१.स.२ | लोक केवल तै., आ.मूलोघवद मूलोधवत केवल समु. मूलोधवत नाका | ४. योग मार्गणा४१२/पाँचों मन वचन योग अिसं, तिसं, | लोक लोक मरअसं. १४१३/ काय योग सामान्य सर्व सर्व ४१४ औदारिक काय योग त्रिअसं, तिसं, मरअसं जिअसं, तिसं, मरअसं (४१३ मिश्र , ४१५ वैक्रियिक काय योग त्रि/असं, तिसं, लोक लोक | लोक म. असं४१७ वे क्रियिकामिश्र , स्वस्थान वव (नारकियों में)| (४१८ आहारक काय योग च असं; मांसं. असं, मसं. च/असं, मसं ४१६ , मिश्र .. ४२० कार्माण , २५५ पाँचों मन वचन योग १ | त्रि./असं, सिं., लोक Smलोक लोक मरअसं. - च/असं,म/सं. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सर्व ४८५ लोक लोक मूलोधवत काय योग सामान्य १ लोक मूलोधवत् औदारिक काययोग | सर्व त्रि/असं, ति./सं, सर्व . निअसं, लिसं., मरअसं मरअसं. २ | त्रिअसं, लिसं., त्रिअसं, तिसं, मरअसं त्रिअसं, ति/सं, मरअसं त्रिअसं, ति/सं, मरअसं मरअसं ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ मूलोधवत् Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण सं.१ सं. २ पृ. पृ. २६ REE २६२/ औदारिकमिश्रयोग १ २४ २ २६८| २६६ 19 २७० 13 " मार्गणा २७१ वैकियो मिश्र योग गुण स्थान आहारक काय योग मिश्र योग कार्माणका योग ४ १३ १ ३ ४ १-२ ४ ६ १ २ oc १३ स्वस्थानस्वस्थान सर्व त्रि./असं, ति / सं असं. त्रि. / असं ति/सं मxअसं f./, fald, मxअस च thef सर्व ⠀⠀ विहारपदस्वस्थान : 5 5 लोक १४ כן 13 पर्स/सं. ... :: ... ... वेदना कषाय समुद्रघात स असं मिस कि/असं, ति/सं S म असं. मxअसं. प/अर्स मध्य अन/सं. सर्व : वैकिमिसमुद्रपात S : 23 13 मारणान्तिक समुद्दधात s 5 5 स !!! : ::: लोक अमवसं :: सोक उपपाद सर्व त्रि./असं ति./सं. मxअसं. त्रि. / असं., ति./सं. मज ⠀⠀⠀ त्रि./असं ति./सं मxअसं. !! सर्व लोक लोक तेजस, आहारक व केवली समुद्घात :. केवसी समुद ⠀⠀⠀⠀ *** प्रतर व लोकपूरण लाव स्पर्श ४८६ ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण स्पर्श मागणा गुण स्वस्थान-स्वस्थान विहारवत-स्वस्थान स. सं.२ | वेदना कषाय व समुद्धात वैक्रियिक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद तैजस-आहारक व केवली समुद्धात स्थान E ५. वेदमार्गणा ४२०/ खोवेद (देवीप्रधान) त्रि./असं..ति. . लोक लोक लोक सर्व या मxअसं. लोक त्रि/असं , ति/सं... ६.लोक । तै. व आ. मूलोघवद पुरुषवेद ( देव.,,)। ४३३, नपुंसक वेद सर्वत्रि /असं, ति/सं, मxअसं. सर्व त्रि/असं.ति/सं, मxअसं वायुकायिक- लोक ४२४/ अपगत वेद त्रि./असं..म/सं. | त्रि/असं., म/सं., च/असं.,मxअसं. केवल समुद्रात ओघवत् खी वेद लोक सर्व त्रि./असं ति./सं. मxअसं. | लोक लोक 15 लोक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Almain : cm लो 028 ५ त्रि./असं.,ति./सं., त्रि/असं, ति/सं., मxअसं मxअसं. च/असं, मांसं. च/असं..म/सं. त्रि/असं , ति/सं., मxअसं. च/असं., म/सं. त्रि/असं, ति/सं.. मxअसं. । च/असं, म/सं. च/असं., मxअसं. २७६२७६ पुरुष वेद खोवेद बत स्त्रीवेद बत तैजस व आहा. ओघवत स्वी वेदवत् सर्व नपुंसक वेद सर्व त्रि/असं, ति/सं., मxअसं सर्व १३ त्रि./अर्स.. ति/सं., मxअसं या र लोक त्रि./असं., ति /सं. मxअसं. त्रि/असं., ति/सं. मxअसं. लोक | त्रि/असं.. ति/सं., मxअसं. १४ ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ लोक च/असं., म असं Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण | स्पर्श मार्गणा स्वस्थान स्वस्थान | बिहारवत् स्वस्थान वेदना कषाय समुद्धात वैक्रियिक समुद्धात मारणान्तिक समुद्घात उपपाद तैजस आहारक व | केलि समुद्धात पृ.स.१ पृ.सं.२ ६-६ च./असं., म/सं.. म. लोक म. लोक म. लोक च./असं . म असं. अपगत वेद |१०-१४ मूलोधवत् | ६. कषायमार्गणा ४२५॥ चारों कषाय त्रि असं, ति/सं..मरअसं. सर्व सर्व सर्व तै. व आ. ओघवत् लोक अपगतवेदीबत अकषाय चारों कषाय मूलोधवत मूलोधवद अकषाय ११.१४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ७. शानमार्गणा४२६, मतिश्रुत अज्ञान ४२० विभंग ज्ञान ४८८ लोक सर्व ई लोक सर्व | त्रि./असं., तिसं.. मरअसं. १४ देवनारको लोक तियं मनुष्य सर्व 5 लोक | च/असं., म. असं. लोकते. आ. ओघवत च असं., मरअसं. | च./असं, मरअसं. | च/असं., मरअसं. BRE/मति, श्रुत अवधिज्ञान ४३० मन पर्यय ज्ञान ४३९ केवलज्ञान २८१ मतिश्रुत अज्ञान १ | २ च./असं., मरअसं. अपगत वेदवत् लोक सर्व लोक सर्व । सर्व त्रि./असं., ति/सं. मxअसं. Entin १४ लाक लोक लोक लोक लोक १४ विभंग ज्ञान लोक 55 लोक लोक लोक मति श्रुत अवधि | ४-१२ मन.पर्यय ज्ञान ६ केवल ज्ञान १३-१४ A मूलोघबत मूलोघवत मूलाघवत् ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण स्पर्श सं.१सं.२ मार्गणा गुण | स्थान स्वस्थान स्वस्थान बिहारवत् स्वस्थान बेदना कषाय समुहृवात | वै क्रियिक समुद्धात मारणान्तिक समुदवात उपपाद तेजस आहार व केवली समुद्धात भा०४-६२ ८. संयम मार्गणा ४३१) संयम सामान्य त्रिबसं., म/सं. त्रिअसं.. म/सं. त्रिअसं., मसं. त्रिअसं., मांसं. च/असं., म असं. मूलोघवत् ते. आ. मूलोधवत् च/असं., माअसं. | च/असं., म असं. | च/असं., म असं. | असं., म/असं च असं., म.असं. सामायिक छेदो. परिहार विशुद्धि सूक्ष्म साम्पराय ४३२संयतासंयत. । त्रि. असं.,तिसं. म. असं. वि.सं.,ति./सं, मरअसं. अिसं..ति/सं. मरअसं. त्रि असं., लिसं. मxअसं. ४३४ असंयत नपुंसक वेदवत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४८९ संयम सामान्य मूलोषवद २८ | सामायिक छेदोप.48 मूलोघवद परिहार विशुद्धि स्व ओघवत स्व बोधवव सूक्ष्म साम्पराय मूलोधवव यथारख्यात मूलोघवव ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएं संयतासंयत मूलोघवत् असंयत मुलोधवत Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण सं १. सं. २ ९. दर्शन मार्गणा ४३४ चश्च दर्शन REC RFE ४३७ अचक्षु दर्शन [४२] अवधि दर्शन केवल दर्शन चक्षु दर्शन RE अच् दर्शन अवधि दर्शन दर्शन १०. लेश्या मार्गा मार्गणा 11 | ४३६ | कृष्ण नील कापोत २३६ तेज २६० ४४१ पद्म ४४३ शुक्ल कृष्ण नील कापोत २६१ २६४ कृष्ण नील गुण स्थान १ २-१२ १-१२. ४-१२ १३-१४ ३ ४ ४ स्वस्थान स्वस्थान विहारवतस्वस्थान त्रि. / असं..ति./सं.. मxअसं. त्रि. असं ति./सं. म असं. 12 20 सव == 5 लोक "1 5 असं. म त्रि.अ.ति./संच असं असं मx असं. 5. क लोक त्रि. / असं.. ति./सं... „ वेदना व कषाय समुद्धात 5 नपुंसक वेदवत अवधि ज्ञानवद केवल ज्ञानवत् स्व ओघवत मूलोघवद मुलोधन्द अबधि ज्ञानवत केवल ज्ञानवद नपुंसक वेदवत् १४ लोक S लोक सर्व च/अर्स मरअर्स. ::: " S $ किमुद्धात १४ लोक // लोक लोक त्रि... सिं.... मन्यसं. "4 मारणान्तिक समुद्धात S S सर्व | | | | | │ I w 120 १४ लोक तोड लोक १४. सर्व क्रमशः ऽ ४ १४ १४ लोक り उपपाद (की अपेक्षा तेजस न आहारक ओघवद १२. लोक व सर्व १४ S S | | | | | 11 111 11 लो लोक Animalx लोक लोक १४ सव तेजस आहारक व केवली समुद्धात मारणान्तिकवत च. / असं मxअसं. मारणान्तिकवत : । मूलोघवद :. ⠀⠀⠀ स्पर्श ४९० ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण पृ. पृ. २६५ 11 " २६ २६ 17 RES 11 २६६ 11 १ ३००| मार्गणा काफोल तेज पद्म शुक्र गुग स्थान ४ १-२ ३ coc ६-७ १-२ ३ ४ ५. ६-७ १-२ ३ ४ ५ ६-१४ स्वस्थान- स्वस्थान विहारयद् स्वस्थान त्रि./असं..ति/सं मास त्रि. / असं, ति / सं मअर्स त्रि/असं., ति./सं असं त्रि. / असं, ति./सं. मx असं. त्रि./असं..ति/सं.. मxअसं. त्रि./असं ति/सं मध्असं.. "" त्रि. / असं, ति./स. मासं, च./असं., मxअसं. S 21 21 लोक लोक त्रि./असं ति/सं.. म- असं. S 5 लोक १४ " त्रि. / असं, ति./सं., मxअसं. लोक १४ त्रि. / असं, ति / सं अस वेदना व कषाय समुद्धात च. / असं, म असं., १४. लोक 5 लोक त्रि./अ./वि./सं.. मxअसं. लघवत S लोक १४ त्रि. / असं ति / सं., मx असं. S शोषमद -लोक त्रि./असं ति./सं मxअसं. मनोद वैक्रियिक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद त्रि. / असं ति./स. मxअसं. S 5 त्रि./असं ति/सं... मxअसं. 17 लोक लोक जोक त्रि./असं ति./सं.. म असं. 17 ४ लोक S १४ त्रि./असं.. ति./सं. मx असं. त्रि./असं ति./सं मन्जर्स, S i S W whe S लोक / ।। लोक • लोक लोक S sk लोक १४ ocom | त्रि.अ.ति./सं मजस ६ १४ ६ लोक १४ S or S लोक :~~: al! S 22: 1 लोक : लोक लोक लोक च / असं मxअसं. -लोक मारणान्तिकवत तेजस आहारक ब केसी समुद्रात 1 : 1: स्पर्श ४९१ ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण सं. १ स. २ पृ. पृ. [T ११. भव्य मार्गणा १४४५| भव्य अभव्य भव्य अभव्य १२. सम्यक्त्व मार्गणा ४४३ सामान्य (देणपेक्षया) ३०१ " 19 ३०२ मन. हि अपेक्षा) ४५०) क्षायिक (देव नारकी) ४४६ (मनु. तियं ) ४५२ वेदक १४५३ उपशम ४५५ सासादन मागणा १३०३ | १३०४| 11 17 ४५८ सम्य मिथ्यात्व मिथ्यादृष्टि सामान्य क्षायिक वेदक गुण स्थान १-१४ : ४-१४ ४ ५ ६-१४ ४-७ स्वस्थान स्वस्थान सत्र सर्व असं.. ति./सं.. मअर्स.. li जि./अ.... मxअसं., असं... 11 विहारवदस्वस्थान S लोक लोक 14120 : लोक लोक लोक असं बहुभाग वेदना व कषाय समुद्धात सर्व सूतोवद सर्व त्रि. / असं., ति./सं., असं 5. क त्रि. / असं., ति / सं., म<असं. s 5 लोक १४ लोक S क्रियिक समुद्रात मारणान्तिक समुद्रान त्रि / असं, ति./सं., मरअर्स, इन स्थानोंकी प्रधानता नहीं नपुंसक वेदवत् मूलोघवत् 5. लोक १४ S लोक लोक १४ त्रि./असं.. ति./सं.. असं S लोक १४ त्रि./असे. ति./सं. मxअस. S लोक 5. लोक सर्व : । सर्व 5. लोक 'लोक S १४ S लोक १४ त्रि./असं, ति./सं. असं. 5 लोक १४ च/असं.. मxअसं. સો १२ लोक १४ लोक लोक असं बहुभाग असं सं बहुधा कर मुलोममत मृतोपत 11 उपपाद सर्व 59 : 1 सर्व च असं मxअसं. मारणान्तिक वत् त्रि. / असं• ति./सं.. मासे, मारणान्तिकम च/असं., मअसं. च असं., असं. तियंच में उत्पन्न नारकी १४. ।। १४ | 1 देव त्रि. / असं ति./सं., मxअसं तेजस आहारक व केवली समुद्धात मूलोधवत :: मूलद मूलोघवत् तेजस व आहारक ओषत् : ।। : ।। स्पर्श ४९२ ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण स्पर्श गुण मार्गणा For स्वस्थान-स्वस्थान | विहारवत-स्वस्थान वेदना कषाय समुद्घात | वै क्रियिक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद तैजस आहारक व केवली समुद्घात ३०४ उपशम -लाक त्रि./असं.../सं., लोक S ,लोक च./असं., मस. मारणान्तिकवत मरअसं. त्रि./असं., ति./स... त्रि./असं., ति./सं.. | त्रि /असं , ति/सं.. | ति./असं., ति /सं., च./असं., म.सं. मरअसं. | म असं. मरअसं. मरअसं. मूलोघवत् ०६१ सासादन सम्यग्मिथ्यात्व | मिथ्यादर्शन १३. संशी मार्गणा ४५६ संज्ञो । ... लोक लोक लोक मूलोधवत त्रि./असं., ति./सं... मxअसं. E संज्ञीसे असंही- मारणान्तिकवत् 5 . लोक असंज्ञीसे संज्ञो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४६१ असंज्ञो ३०६ संज्ञी ३०७ । असंज्ञी नपुंसक वेदवत स्व ओघवत मूलोघवत् ४९३ ।।। . २-१४ ति./सं., सव ति./असं., मxअसं. । । १४. आहारक मार्गणा ४६१/ आहारक सर्व , लोक त्रि./असं., ति./सं., म असं. मूलोधवत केवली=मूलोधवत अनाहारक आहारक मूलोधवत लोक त्रि/असं.,ति./ | मरअसं. 12 | लोक व लोक व त्रि./असं..ति./सं., | मरअसं. त्रि./असं., ति./सं., | मरअसं. ... sulate १ ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ ति./स., Kal |ति/असं., ति /सं., त्रि./असं., ति./सं., म असं. म.xअसं. त्रि./असं.. ति/सं., त्रि./असं., मरअसं.. म.असं. मूलोघवत् Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण गुण मार्गणा स्वस्थान-स्वस्थान | विहारवत स्वस्थान वेदना व कषाय समुद्घात वक्रियिक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद तैजस आहारक व केवल समुद्धात स्थान अनाहारक सा Cm प्रतर व लोकपूरण मूलोधवत सर्व अस. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पद विशेष प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेश मूल प्रकृति उत्तर प्रकृति । मूल प्रकृति उत्तर प्रकृति | मूल प्रकृति उत्तर प्रकृति मूल प्रकृति उत्तर प्रकृति ५. अष्टकर्मोंके चतु. बन्धकोंकी भोघ आरेश प्ररूपणा-(म, ब./पु./.../पृ....) ज. उ. पद | १/२६२-३३९/१६१-२३१ । २/१७०-१८८/१०१-११० | २/४७८-५२१/२१७-२४३ | ४/२०८-२२६/११-१०६ ३४८-४०४/१५१-२११ २ भुजगारादि पद २/३१०-३१७/१५३-१६६ | ३/७७५-७६४/३६७-३७६/४/२६०-२६७/१३४-१३७ | १/५१३-५३६/२८६-३०६/१३३|३| वृद्धि हानि | २/३६१४००/१६-२०१ | ३/६३३-६५६/४५५-४७३ | ४/१६४/१६५ १/६२१/३६५-३६६ १३६/७१-७३/ १११ rom ६. मोहनीय सत्कर्मिक बन्धकोंकी ओघ आदेश प्ररूपणा-कपा/प..../.../प....) १ | दोष व पेज | ११३८४-३८/१६६-४०४॥ | २/२४,२८ आदि स्थान । २/२६२-६६६/३२६-३३४ सत्ता असत्ताके३ ज.उ. पद २/८१-८०/६०-७१ २/१७६-१८२/१६५-१७१ / ३/११६-१४१/६८-८० ।३/६२२-१४७/३६८-३८७ ४ भुजगारादि पद २४४५४-४५६/०६-४१४ ३/२०६-२१२/११७-१२०४/११८-१२५/६०-६७ |५| वृद्धि हानि | २/५१८-५२४/४६५-४७०1३/३०८-३१८/१६६-१७५/४/३७५-४००/२३२-२५० । ७. अन्य प्ररूपणाओंकी सूची१। पाँच शरीरके योग्य पुद्गल स्कन्धों की ज. उ. संघातन परिशातन कृतिके स्वामियों की अपेक्षा-दे. ध.१/३७०-३८० । २. पाँच शरीरके स्वामियों के २,३,४ आदि भंगोंकी अपेक्षा -दे. ध. १४/२५६-२६७ । ३/२३ प्रकार वर्गणाओका जघन्य स्पर्श -दे.ध. १४/१४६/२०। /१०३-१२१/१५-७७ १ १६/१०३-१०४ १८१/१२१-१२२ ३/३५६-३६७/२२७-२३२ १/४६७-५००/२६१-२६३ ५/१४-५५७/३२१-३२४ ३. स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शन इन्द्रिय स्मृत्यनुपस्थानानि स्पर्शन इन्द्रिय-दे. इन्द्रिय। स्पर्शन क्रिया-दे. क्रिया/३/३ । स्पष्ट-न्या, वि./टी./८५-८६/८१६ किं पुनरिदं स्पष्टत्वं नाम । साक्षात्करणमिति चेत् (८५/८) ततो निर्मलप्रतिभासत्वमेव स्पष्टत्वम् । साक्षात् रूपसे देखना स्पष्टत्व है।८५/41 निर्मल प्रतिभासका नाम स्पष्टत्व है। होता हो। इसके अभावसे साध्यकी सिद्धिका अभाव है। अतः शब्द ध्वनि रूप ही है और नित्यानिध्यात्मक है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। (सि. वि./टी./११/५/७०२/२२); (न्या. वि./टी./३/४६/ ३२८/३२); ( क. पा. १/११३,१४/६२१६/२६६/४ ) स्फोट कर्म-दे. सावद्या५ । स्फोटित-गणितको व्यकलन विधिमें मूल राशिमें ऋण राशि करि स्फोटित कहा जाता है। -दे. गणित/08/४ | स्पृहा- न्या. सू./टी./टी./४/१/३/२३०/१२ अस्वपरस्वादानेच्छा स्पृहा। -धर्मसे अविरुद्ध किसी पदार्थ के पानेकी इच्छा करनी स्पृहा कहलाती है। स्फटिक-१. सौधर्म स्वर्गका १८वौं पटल व इन्द्रक - दे. स्वर्ग५/३; २. गन्धमादन विजयाईका एक कूट -दे. लोक ५/४,३. मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-- दे. लोक५/१०: ४. कुण्डलपर्वतस्थ एक कूट -दे. लोक/२/१२; १. रुचक पर्वतस्थ एक कट-दे. लोक/५/१३ 1 स्फटिकप्रभ-कुण्डल पर्वतस्थ एक कूट -दे. लोक/१/१२॥ स्फोट-१. मीमांसक माभ्य एक व्यापक तत्व जिसके द्वारा ध्वन्यात्मक शब्द में अर्थ प्रकाशन की सामर्थ्य अभिव्यक्त होती है। २. रा. वा./५/२४/५/४८६/१ अपरे मन्यन्ते ऽवनयः क्षणिकाः क्रमजन्मानः स्वरूपप्रतिपादनादेवोपक्षीणशक्तिका नार्थान्तरमबोधयितुमलम् । यदि समर्थाः स्युः पदेन इव पदार्थेषु प्रतिवर्ण वर्णार्थेषु प्रत्ययः स्यात् । एकेन चार्थे कृते वर्णान्तरोपादानमनर्थकं स्यात् । नापि क्रमजन्मना सहभावः संघातोऽस्ति योऽर्थेन युज्यते। अतस्तेभ्योऽर्थप्रतिपादने समर्थ शब्दात्मा अमूर्तो नित्योऽतीन्द्रियो निरवयवो निष्क्रियो ध्वनिभिरभिव्यङ्ग्य इत्यभ्युपगन्तव्य इतिः । एतच्चानुपपन्नमः कुतः । व्यङ्ग्यव्यजकभावानुपपत्तेः । ...किंच स इत्र निर्व्यउजकस्फोटस्य वा उपकारं कुर्यात, श्रोत्रस्य, उभयस्य वा। ...किंच, न ध्वनयः स्फोटाभिव्यक्तिहेतवो भवन्ति उत्पत्तिक्षणादूर्वमनवस्थानात् उत्पत्तिक्षणे चासत्त्वात् । ...किंच, स्फोटध्वनेरन्यो वा स्यात, अनन्यो वा ।...किंच व्यङ्ग्यत्वे सति अनित्यत्वं स्याव स्फोटस्य घटादिवत विज्ञानेन व्यङ्ग्यत्वात् ।...महदादिवत् इति चेत्ः न साध्यसमत्वात् ।-न चामूर्तः कश्चिन्नित्यो निरवयवो मूर्तिमतानित्येन सावयवेन व्यङ्ग्यो दृष्ट, तद्भावात साध्यसिद्धय- . भावः । =स्फोटवादी मीमांसकों का मत है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं, क्रमशः उत्पन्न होती हैं और अनन्तर क्षणमें विनष्ट हो जाती हैं। वे स्वरूपके बोध कराने में ही क्षीणशक्ति हो जाती हैं अतः अर्थान्तरका ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। यदि ध्वनियाँ ही समर्थ होती हैं तो पदोंसे पदार्थों की तरह प्रत्येक वर्णसे अर्थबोध होना चाहिए । एक वर्ण के द्वारा अर्थबोध होनेपर वर्णान्तरका उपादान निरर्थक है। क्रमसे उत्पन्न होने वाली ध्वनियोंका सहभावरूप संघात भी सम्भव नहीं है, जिससे अर्थबोध हो सके । अतः उन ध्वनियों से अभिव्यक्त होने वाला अर्थ प्रतिपादनमें समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय, निरवयव और निष्क्रिय । शब्दस्फोट स्वीकार करना चाहिए। उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्यव्यञ्जक भाव नहीं बन सकता। ...किंच धनियाँ स्फोटकी व्यञ्जक होती हैं तो वे स्फोटका उपकार करेंगी या श्रोत्रका या दोनों का।...किंच, जब ध्वनियाँ उत्पत्तिके बाद ही नष्ट हो जाती हैं तब वे स्फोटको अभिव्यक्ति कैसे करेंगी! ...किंच, स्फोट यदि ध्वनियोंसे अभिन्न है :...किंच, यदि स्फोटको व्यंग्य मानते हो तो उसमें घटादिकी तरह अनित्यता भी आ जानी चाहिए।.. महान् अहंकार आदि सारख्यमत तत्वोंका दृष्टान्त देना ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्फोटकी व्यंग्यता असिद्ध है उस तरह उन तत्वोंको भो।...फिर ऐसा कोई.दृष्टान्त नहीं मिलता जो अमृत नित्य और निरवयत्र होकर मूर्त अनित्य, और साबयत्रसे व्यंग्य स्मरणाभास-प.प्र./६/ अतस्मिस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासमः जिनदत्ते स देवदत्तो यथा। देखे व सुने पदार्थको कालान्तरमें उसका स्मरण न होकर उसकी जगह दूसरेका स्मरण होना स्मरणाभास है । जिस प्रकार पूर्व अनुभूत जिनदत्तकी जगह देवदत्तका स्मरण स्मरणाभास है। स्मृति-१.दे, मतिज्ञान/१/२, मति, स्मृति, चिन्ता, संज्ञा और अभिनियोध ये एकार्थवाची हैं। स. सि./१/१३/१०६/४ स्मरणं स्मृतिः। -स्मरण करना स्मृति है। (ध १३/५४,४१/२४४/३) ध. १३/५,५,६३/३३३/४ दिट्ठ-सुदाणुभूदविसयणाणविसे सिदजीवो सदी णाम । - दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थको विषय करनेवाले ज्ञानसे विशेषित जीवका नाम स्मृति है। म.पु./२१/२२६ स्मृतिर्जीवादितत्त्वानां याथात्म्यानुस्मृतिः स्मृता। गुणानुस्मरणं वा स्याद सिद्धार्हत्परमेष्ठिनाम् । -जीवादि तत्त्वोंका अथवा अर्ह सिद्धका गुणस्मरण स्मृति है।। प. मु./३/३-४ संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः।३। स देवदत्तो यथा ।४। -पूर्व संस्कारकी प्रक्टतासे 'बह देवदत्त' इस प्रकारके स्मरणको स्मृतिज्ञान कहते हैं ।३-४ (न्या. दी./३/६४/५३/8); ( स. म./२८/३२१/२२) न्या. दी./३/8/१६/३ तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मरणम् । = बह' का उल्लेखी ज्ञान स्मरण है। २. स्मृति व प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर-दे. मतिज्ञान/३ । ३. स्मृति आदि ज्ञानोंकी उत्पत्तिका क्रम व स्मृति आदि भेदोंकी सार्थकताकी सिद्धि-दे, मतिज्ञान/३ । स्मृत्यन्तराधान-१. रा. वा./७/३०/८/५/३० अननु स्मरणं स्मृत्यन्तराधानम् ।८। अनुस्मरणम् परामर्शनं प्रत्यवेक्षणमित्यनर्थान्तरम्, इदमिदं मया योजनादिभिरभिज्ञान' कृतमिति, तदभावः समृत्यन्तराधानम् । = मर्यादाका स्मरण न रखना स्मृत्यन्तराधान है। (स. सि./७/३१/३६६/६ ) अनुस्मरण, परामर्शन और प्रत्यवेक्षण ये एकार्थवाची हैं । यह यह मैंने योजनादिका प्रमाण किया था, उसका भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है। २. दिग्वतका एक अतिचार है।-दे. दिग्व्रत। स्मत्यनुपस्थानानि-१. सामायिक व्रतका एक अतिचार -दे. सामायिक; २. प्रोषधोपवास व्रतका एक अतिचार -दे. प्रोषधोपवास । ३. स. सि./७/३३/३७०/६ अनै काय स्मृत्यनुपस्थान । रा. वा./७/३३/४-५/५१७/१३ अन कायमसमाहितमनस्कृता स्मृत्यनुपस्थानमित्याख्यायते।। स्यादेतद-रमृत्यनुपस्थानं तन्मनोदुःप्रणिधानमेवेति तस्य ग्रहणमनर्थ कमिति: तन्नः किं कारणम्। तत्रान्याचिन्तनात् । तत्र हि अन्यत् किंचित अचिन्तयतश्चिन्तयत एवाविषये क्रोधाद्यावेशः औदासीन्येन वावस्थानं मनसा, इह पुनः परिस्पन्दनाव चिन्ताया ऐकाग्येणावस्थान मिति विस्पष्टमन्यत्वम् । रात्रिन्दिवीयरय वा प्रमादाधिकस्य सचित्यानुपस्थानम् । = चित्तकी एकाग्रता न होना और मनमें समाधिरूपताका न होना स्मृत्यनुपस्थान है। प्रश्न-स्मृत्यनुपस्थान तो मनदुष्प्रणिधान ही है, इसलिए इसका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यन्दन स्याद्वाद कथन करना व्यर्थ है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, मनोदुष्पणि- धानमें अन्य विचार नहीं आता, जिस विषयका विचार किया जाता है, उसमें भी क्रोधादिका आवेश आ जाता है, किन्तु स्मृत्यनुपस्थानमें चिन्ताके विकल्प चलते रहते हैं और चित्त में एकाग्रता नहीं आती। अथवा रात्रि और दिनकी नित्य क्रियाओं को ही प्रमादकी अधिकतासे भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। (चा. सा./२०/५) स. भ. त./२३/१ न च निपातानां द्योतकत्वादेवकारस्य वाचकत्वं न संभवतीति वाच्यम् । निपातानां द्योतकत्वपक्षस्य वाचकत्वपक्षस्य च शास्त्रे दर्शनात् । 'द्योतकाश्च भवन्ति निपाताः' इत्यत्र च शब्दावाचकाश्च इति व्यारूपानात् । = कदाचित् यह कहो कि निपातोंको द्योतकता है कि वाचकताका सम्भव है। सो ऐसा नहीं है, क्योंकि निपातोंका द्योतकत्व तथा वाचकत्व दोनों शास्त्रों में देखे गये हैं। 'द्योत काश्च भवन्ति निपाताः' निपात द्योतक भी होते हैं इस वाक्यमें च शब्दसे वाचकताका भी व्याख्यान किया गया है। ३. स्यात् शब्दकी अर्थे विवक्षा स.भ.त./३०/१ स्याच्छब्दस्य चाने कान्तविधिविचारादिषु बहुवर्थेषु संभवत्सु इह विवक्षावशादनेकान्तार्थो गृह्यते । यद्यपि अनेकान्त, विधि, विचार आदि अनेक अर्थ स्यात्कारके सम्भव हैं तथापि यहाँ वक्ताको विशेष इच्छासे अनेकान्तार्थ वाचक ही स्यात्कार शब्दका ग्रहण है। ४. स्यात् शब्दका अर्थ अनियमितता ध. १३/५,४,२६/७८/१० तम्हि चेव अत्थे गुणस्स पज्जायस्स वा संकमदि । पुठिवल्लजोगादो जोगंतरं पि सिया संकमदि।- (पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लध्यान अन्तर्मुहूर्त तक एक ही अर्थको ध्यानेके पश्चात् ) अर्थान्तरपर नियमसे संक्रामित होता है। और पूर्व योगसे स्यात ( अनियमित रूपसे ) योगान्तरपर संक्रमित होता है। * स्यात् शब्दकी प्रयोग विधि व उसका महत्त्व . -दे. स्याद्वाद/४ । स्यन्दन-ध. १४/५,६,४२/३६/१ चक्कट्टि-बलदेवाणं चडणजोग्गा सध्याउहाबुण्णा णिमणपवणवेगा अच्छे भंगे वि चक्कघडणगुणेण अपडिहयगमणा संदणा णाम । - जो चक्रवर्ती और बलदेवोंके चढ़ने योग्य होते हैं, जो सर्व आयुधोंसे परिपूर्ण होते हैं, जो पवनके समान वेगवाले होते हैं और धुरके टूट जानेपर भी जिनके चक्कों की इस प्रकारकी रचना होती है जिस गुणके कारण जिनके गमनागमनमें बाधा नहीं पड़ती वे स्यन्दन कहलाते हैं। स्यात्-१. स्यात् शब्दका लक्षण रा. वा./४/१२/१५/२५३/११ तेनेतरनिवृत्तिप्रसङ्गे तत्संभवप्रदर्शनार्थः स्याच्छब्दप्रयोगः, स च लिङन्तप्रतिरूपको निपातः। तस्यानेकान्तविधिविचारादिषु बहुवर्थेषु संभवत्सु इह विवक्षावशात अनेकान्तार्थो गृह्यते।...अथवा, स्याच्छब्दोऽयमनेकान्तार्थस्य द्योतकः । द्योतकश्च वाचकप्रयोगसन्निधिमन्तरेणाभिप्रेताविद्योतनाय नाल मिति तद्द्योत्यधर्माधारार्थाभिधानायेतरपदप्रयोगः क्रियते । अथ केनोपात्तोऽनेकान्तार्थः अनेन द्योत्यते । उक्तमेतत्-अभेदवृत्त्या अभेदोपचारेण वा प्रयुक्तशब्दवाच्यतामेवास्कन्दन्ति इतरे धर्मा इति । इससे इतर धमौकी निवृत्तिका प्रसंग होता है, अतः उन धर्मों का सद्भाव द्योतन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया गया है। स्यात् शब्द लिङन्त प्रतिरूपक निपात है। इसके अनेकान्त विधि विचार आदि अनेक अर्थ हो सकते हैं। परन्तु विवक्षावश यहाँ अनेकान्त अर्थ लिया गया है ।...अथवा स्यात शब्द अनेकान्तका द्योतक होता है। जो द्योतक होता है वह किसी वाचक शब्दके द्वारा कहे गये अर्थका ही द्योतन कर सकता है अतः उसके द्वारा प्रकाश्य धर्म की सूचनाके लिए इतर शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्रश्न-इसके द्वारा किस कारणसे अनेकान्तार्थ का द्योतन होता है। उत्तर-यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि अभेद वृत्ति वा अभेदोपचारके द्वारा प्रयुक्त शब्दोंकी वाच्यता हो इतने धर्मों का ग्रहण करती है। (स, भ.त./ ३१/१०) श्लो. वा./२/१/६/५५/४५६/१ स्यादिति निपातोऽयमनेकान्तविधिवि चारादिषु बहुष्वर्थेषु वर्तते । स्यात यह तिडतप्रतिरूपक निपात 'अनेकान्त, विधि, विचार, और विद्या आदि बहुत अर्थों में वर्त रहता है । ( विशेष दे. स्याद्वाद/५/२) । अष्टसहस्री/टिप्पणी/पृ. २८६ विधि-आदिष्वर्थेषु अपि लिङ्लकारस्य स्यादिति क्रियारूपं पदं सिद्वयति। परन्तु नायं स शब्द: निपात इति विशेष्योक्तत्वात् । स्यात् शब्द विधि आदि अर्थो में लिङ् लकारकी क्रिया रूप पदको सिद्ध करता है, परन्तु यह स्यात शब्द निपात नहीं है। क्योंकि विशेषता पहले कह दी गयी है। स्याद्वाद-आ. शुभभद्र (ई. १५१६-१५५६) द्वारा रचित एक न्याय विषयक ग्रन्थ । स्याद्वाद-अनेकान्तमयी वस्तु (दे. अनेकान्त ) का कथन करनेकी पद्धति स्याद्वाद है। किसी भी एक शब्द या वाक्यके द्वारा सारीकी सारी वस्तुका युगपत् कथन करना अशक्य होनेसे प्रयोजनवश कभी एक धर्मको मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरेको। मुख्य धर्मको सुनते हुए श्रोताको अन्य धर्म भी गौण रूपसे स्वीकार होते रहें उनका निषेध न होने पावे इस प्रयोजनसे अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्यके साथ स्यात् या कथंचित शब्दका प्रयोग करता है। ror स्याद्वाद निर्देश स्याद्वादका लक्षण। विवक्षाका ठीक-ठीक स्वीकार ही स्यादादकी सत्यता है। स्याद्वादके प्रामाण्यमें हेतु । स्यात् पद का अर्थ । -दे. स्यात् । अपेक्षा निर्देश सापेक्ष व निरपेक्षका अर्थ । विवक्षा एक ही अंश पर लागू होती है अनेकपर नहीं। विवक्षाकी प्रयोग विधि। २. स्यात् नामक निपात शब्द द्योतक व वाचक दोनों है आप्त. मी./भाषा/१/१४/२३ (सप्त भंगी में ) सत् आदि शब्द है ते तो अनेकान्तके वाचक है और कथंचित शब्द है सो अनेकान्तका द्योतक है । बहुरि इसके आगे एवकार शब्द है सो अवधारण कहिये नियम के अर्थि होइ है । बहुरि यह कथं चित शब्द है सो याका पर्याय शब्द स्यात् है। * arr जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद ४९७ १. स्याद्वाद निर्देश स्व. स्तो./म्./१०२-१०३ (सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ।१०२। अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्नयाद ॥१०॥ विवक्षाको प्रयोग विधि प्रदर्शक सारणी। । वस्तुमें अनेकों विरोधी धर्म व उनमें कथंचित् अविरोध -दे, अनेकान्त//५। अनेकों अपेक्षासे वस्तुमें भेदाभेद -दे, सप्तभंगी।५। भेद व अभेदका समन्वय -दे. द्रव्य/४। नित्यानित्यत्वका समन्वय -दे. उत्पाद/२। अपेक्षा प्रयोगका कारण वस्तुका जटिल स्वरूप । एक अंशका लोप होनेपर सबका लोप हो जाता है। अपेक्षा प्रयोगका प्रयोजन । | मुख्य गौग व्यवस्था मुख्य व गौणके लक्षण मुख्य गौण व्यवस्थासे ही वस्तु स्वरूपकी सिद्धि है।' सप्तभंगीमें मुख्य गौण व्यवस्था । विवक्षा वश मुख्यता व गौणता होती है। गौणका अर्थ निषेध करना नहीं। स्यात् व कथंचित् शब्द प्रयोग विधि स्यात्कारका सम्यक् प्रयोग ही कार्यकारी है। | व्यवहारके साथ ही स्यात्कार आवश्यक है निश्चयके साथ नहीं। स्यात्कारका सच्चा प्रयोग प्रमाण ज्ञानके पश्चात् ही सम्यक् होता है -दे. नय/II/१०। स्यात्कारका प्रयोग धर्मोमें होता है गुणोंमें नहीं। स्यात्कार भावमें आवश्यक है शब्दमें नहीं। स्यात् शब्दकी प्रयोग विधि -दे. सप्तभंगी/२/३:५। कथंचित् शब्दके प्रयोग। स. सा./ता. वृ./स्याद्वाद अधिकार/५१६/११/ पर उद्धत-धर्मिणोऽनन्तरूपत्वं धर्माणां न कथंचन । अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इति जैनमतं ततः । --१. सर्वथा रूपसे-सत ही है, असत् ही है इत्यादि रूपसे प्रतिपादन के नियमका त्यागी और यथादृष्टको-जिस प्रकार से वरतु प्रमाण प्रतिपन्न है उसको अपेक्षामें रखनेवाला जो स्यात शब्द है वह आपके न्याय ( मत ) में है । दूसरों के न्यायमें नहीं है जो कि आपके वैरी हैं ।१०२। आपके मतमें अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनोंको लिये हुए अनेकान्त स्वरूप है, प्रमाणकी दृष्टि से अनेकान्त स्वरूप दृष्टिगत होता है और विवक्षित नयकी अपेक्षासे अनेकान्तमें एकान्त रूप सिद्ध होता है ।१०३। (स. सा स्याद्वाद अधिकार/ता. वृ./ ५१६/९) । २. धर्मी अनेकान्त रूप है क्योंकि वह अनेक धर्मोका समूह है परन्तु धर्म अनेकान्त रूप कदाचिद भी नहीं क्योंकि एक धर्म के आश्रय अन्य धर्म नहीं पाया जाता (इस प्रकार अनेकान्त भी अनेकान्त रूप है अर्थात अनेकान्तात्मक वस्तु अनेकान्त रूप भी है और एकान्तरूप भी है। स. सा./ता. वृ. स्याद्वाद अधिकार/२१३/१७ स्यात्कथंचित् विवक्षितप्रकारेणानेकान्तरूपेण वदनं वादो जल्पः कथनं प्रतिपादनमिति स्याद्वादः । =स्यात् अर्थात् कथं चिद या विवक्षित प्रकारसे अनेकान्त रूपसे बदना, वाद करना, जल्प करना, कहना प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। स्यात्कारका कारण व प्रयोजन स्यात्कार प्रयोगका प्रयोजन एकान्त निषेध । स्यात् शब्दसे ही नय सम्यक् होती हैं। स्यात्कार प्रयोगके अन्य प्रयोजन। स्याद्वादका प्रयोजन हेयोपादेय बुद्धि -दे. अनेकान्त/३/२। सप्त भंगीमें स्यात् शब्द प्रयोगका फल । एवकार व स्यात्कारका समन्वय । स्व, स्तो./टी./१३४/२६४ उत्पाद्यत उत्पाद्यते येनासौ वादः, स्यादिति वादो वाचकः शब्दो यस्यानेकान्तवादस्यादौ स्याद्वादः । = 'उत्पाद्यते' अर्थात जिसके द्वारा प्रतिपादन किया जाये वह वाट कहलाता है। स्याद्वादका अर्थ है वह वाद जिसका वाचक शब्द 'स्याव हो अर्थात अनेकान्तवाद है। २. विवक्षाका ठीक-ठीक स्वीकार ही स्याद्वादकी सत्यता है स. सा./पं. जयचन्द/३४४/४७३ आत्माके कर्तृत्व-अकर्तृत्वकी विवक्षाको यथार्थ मानना हो स्याद्वादको यथार्थ मानना है। , १. स्याद्वाद निर्देश १. स्याद्वादका लक्षण न. च. वृ./२५१ णियमणिसेहणसीलो णिपादणादो य जोहु खलु सिद्धो। सो सियसद्दो भणियो जो सावेव पसाहेदि ।२५११ - जो नियमका निषेध करनेवाला है, निपातसे जिसकी सिद्धि होती है, जो सापेक्षता की सिद्धि करता है वह स्यात शब्द कहा गया है। ३. स्याद्वादके प्रामाण्यमें हेतु। न्या.बि./३/०४/३६४ स्याद्वादः श्रवण ज्ञानहेतुत्वाच्चक्षुरादिवत । प्रमा प्रमितिहेतुत्वात्प्रामाण्यमुपगम्यते ।८१) शब्द को सुननेका कार्य वाच्य पदार्थका ज्ञान है उसके कारण ही स्याद्वाद की स्थिति है। इस लिए भगवत्प्रवचन रूप शाब्दिक स्याद्वाद उपचारसे प्रमाण है पर तजनित ज्ञान रूप स्याद्वाद पशु आदि ज्ञानवत् मुख्यतः प्रमाण है, क्योंकि उसकी हेतु प्रमाकी प्रमिति है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०४-६३ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद २. अपेक्षा निर्देश १. सापेक्ष व निरपेक्षका अर्थ न. च. वृ./ २५० अवरोप्परसावेक्खं जयविसयं अह पमाण विसयं वा । ताण विवरीयं । प्रमाण व नयके अपेक्षा करके हैं अथवा एक नयका अपेक्षा करता है, इसीको सापेक्ष तत्त्व तं सावेक्खं तत्त' णिरवेक्खं विषय परस्पर एक-दूसरेको विषय दूसरी नयके विषय की कहते हैं। निरपेक्ष तत्व इससे विपरीत है। २. विवक्षा एक ही अंशपर लागू होती है अनेकपर नहीं - पं. घ. पू. ३०० नहि किचिद्विधिरूपं किंचिच्छेो निषेधशिस् बास्तो] साधनमस्मिनाम न निर्विशेषत्वात् २००१ कुछ विधि रूप और उस विधि से शेष रहा कुछ निषेध रूप नहीं है तथा ऐसे निरपेक्ष विधि निषेध रूप सत्के साध्य करने में हेतुका मिलना तो दूर, विशेषता न रहनेसे द्वैत भी सिद्ध नहीं हो सकता है। ४९८ २. विवक्षाकी प्रयोग विधि 1 रा.वा./२/१६/१/१३९/- स्पर्शनादीनां करणसाधनत्वं पारतयात् कर्तृसाघनखं च स्वातन्त्र्याद् बहुलवचनात् । कुतः पारतन्त्र्यात् । इन्द्रियाणां हि लोके पारतन्त्र्येण विवक्षा विद्यते, आत्मनः स्वातन्त्र्यविवक्षायां यथा यने चतुषा सुष्ठु पश्यामि अनेन कर्णेन सुष्ठु शृणोमि' इति । ...कतृ साधनं च भवति स्वातन्त्र्यविवक्षायाम् । ... यथा इदं मेऽक्षि सुष्ठु पश्यति, अयं मे कर्णः सुष्ठु शृणोतीति । - सर्शन आदिक इन्द्रियोंका परतन्त्र विवक्षासे करण साधनत्व और स्वतन्त्र विवक्षा कर्तृ' साधनत्व दोनों निष्पन्न होते हैं |१| कैसे सो ही बताते हैं-इन्द्रियोंको लोकपरतन्त्रताके द्वारा विवक्षा होती है और अपने में स्वतन्त्र विवक्षा होनेसे जैसे- 'इस चक्षुके द्वारा मैं अच्छा देखता हूँ और इस कर्ण द्वारा मैं अच्छा सुनता हूँ । स्वतन्त्र विवक्षा साधन भी होता है जैसे यह मेरी आँख अच्छा देखती है, यह मेरे कान अच्छा सुनते हैं इस प्रकार । (स.सि./२/११७०१३ ) पं.का./ता.वृ./१०/२०/१० जैनमते पुनरनेकस्वभावं वस्तु तेन कारपेन द्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यरूपेण नित्यत्वं घटते पर्यायार्थिकनयेन पर्यायरूपेणानि च घटते। तौ च द्रव्यपययौ परस्परं सापेक्षौ । जैन में वस्तु अनेकस्वभावी है इसलिए इम्याधिक नयसे द्रव्यरूपसे नित्यत्व घटित होता है, पर्यायार्थिक नयसे पर्याय रूपसे अनिल घटित होता है। दोनों ही पार्थिक व पर्यायार्थिक नय परस्पर सापेक्ष हैं (दे, उत्पाद/२) = 1 दे द्रव्य / ३ / ५ धर्मादिक चार शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्यायके अभाव से अरिणामी या नित्य कहलाते हैं, परन्तु अर्थ पर्यायी अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी कहलाते हैं और व्यंजन पर्याय होनेके कारण जीव 'व पुद्गल नित्य भी । 1 ४. विवक्षाको प्रयोग विधि प्रदर्शक सारणी न. प. गद्य/पृ. ६६-६७ अपेक्षा सं. १ स्यादस्ति २ ३ स्यादेकत्व स्यादनेकरव ४ स्यादभेदस्य ५ स्यानास्ति स्यान्नित्यत्व स्यादनित्यत्व ७ स्यादभेदस्व स्यादभव्यत्व स्यादभव्यस्व ६ स्याच्चेतन स्यादचेतन स्यान्मूर्त स्वादपूर्त ८स्यात्परम स्यादपरम स्वादनेक प्रदेशत्व १० स्याच्छुद्ध इति व्यवहारेणैव असद्दभूत व्यव हारेणेति इति परमभावेनेव पारिणामिक स्वभावत्वेनेति विभाव इति कर्मज रूपेव यादे दनानि स्यादशुद्धत्व ११ स्थापचरित प्रयोग स्वरूपेणास्ि इति पररूपेण व रूपेण निरति इति पर्यायरूपेणैव मिति सामान्यरूपेणेति इति विशेष जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - सद्भूत व्यवहार रूपेणेति इतिद्रव्यार्थिकेनैव स्वकीयरूपेण भवनादि इति पररूपेणैव कुर्यात चेतनस्वभाव प्रधानत्वेन सत्येनेति इतिव्यमहारे व केवल स्वभाव प्रधानत्वेनेति इति मिश्रभावेनेव स्वभावस्याप्य न्यत्रोपचारादिति स्यानुपचारित इति निश्रयादेव २. अपेक्षा निर्देश प्रयोजन अनेकस्वभावाराघत्व संस्कारादिदोषरहितव चिरकाल स्थायित्व निज हेतुओंके द्वारा स्वभावी कर्म का ग्रहण त्याग होता है । सामान्यपने में समर्थ है। अनेक स्वभाव दर्शकम व्यवहारकी सिद्धि परमार्थ सिद्धि स्वपर्याय परिणामित्व पर्याय त्यागिन कर्म की हानि कर्मका ग्रहण कर्म बन्ध स्वभावका अपरित्याग स्वभाव अचलचि स्वभाव में विकृति निश्चयसे एकध्व अनेक कार्यकारित्व स्वभाव प्राप्ति तद्विपरीत पर (भाव) को जानना सद्विपरीत नोट- मे तथा अन्य भी अनेकों विधिनिषेधात्मक अपेक्षाएँ एक ही पदार्थ में उसके किसी एक ही गुण या पर्यायके साथ अनेकों भिन्न दृष्टियों से लागू की जानी सम्भव है। ऐसा करते हुए उनमें विरोध भी नहीं आता। ५. अपेक्षा प्रयोगका कारण वस्तुका जटिल स्वरूप न... इदि त्ता धम्मा सियावेक्खा न गेहनाए जो हु सोहू मिच्छाइट्ठी णायवो पवयणे भणिओ । ७४| इस प्रकार पूर्वोक्त धर्मोंको जो सापेक्ष रूपसे ग्रहण नहीं करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानो। ऐसा आगममें कहा है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद ३. मुख्य गौण व्यवस्था का. अ./मू./२६१ जं वत्थु अणेयंत एयंतं तं पि होदि सविपेक्वं । कल्पतः ।६२॥ --विधि और निषेध दोनों कथंचित इष्ट हैं। विवक्षासुय-णाणेण णएहि य णिरवेक्वं दीसदे णेव ।२६। जी वस्तु से उनमें मुख्य गौणकी व्यवस्था होती है ।२५। जिस प्रकार एक-एक अनेकान्त रूप है वही सापेक्ष दृष्टिसे एकान्त भी है। श्रुतज्ञानकी कारक शेष अन्यको अपना सहायक रूप कारक अपेक्षित करके अर्थअपेक्षा अनेकान्त रूप है और नयकी अपेक्षा एकान्त रूप है। बिना की सिद्धि के लिए समर्थ होता है उसी प्रकार आपके मतमें सामान्य अपेक्षाके वस्तुका स्वरूप नहीं देखा जा सकता। और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले जो नय हैं वे मुख्य और गौणकी दे. अनेकान्त/१/४ वस्तु एक नयसे देखनेपर एक प्रकार दिखाई देती है, कल्पनासे इष्ट हैं ।६२॥ और दूसरी नयसे देखनेपर दूसरी प्रकार। प.ध./पू /६५५ नैवमसंभवदोषाधतो न कश्चिन्नयो हि निरपेक्षः। ३. सप्तभंगीमें मुख्य गौण व्यवस्था सति च विधौ प्रतिषेधः प्रतिषेधे सति विधेः प्रसिद्धत्वात् ।६५५॥ रा. वा./४/४२/१४२५३/२१-२६ गुणप्राधान्यव्यवस्थाविशेषप्रतिपादनार्थ- असम्भव दोषके आनेसे इस प्रकार कहना ठीक नहीं (कि केबल त्वात् सर्वेषां भड्गानां प्रयोगोऽर्थवान् । तद्यथा, द्रव्यार्थिकस्य निश्चय नयसे काम चल जावेगा) क्योंकि निश्चयसे कोई भी नय प्राधान्ये पर्यायगुणभावे च प्रथमः । पर्यायार्थिकस्य प्राधान्य द्रव्यगुणनिरपेक्ष नहीं है। परन्तु विधि होने में प्रतिषेध और प्रतिषेध होने में भावे च द्वितीयः। तत्र प्राधान्यं शब्देन 'विवक्षितत्वाच्छन्दाधीनम्। विधिको प्रसिद्धि है। शब्देनानुपात्तस्यार्थ तो गम्यमानस्याप्राधान्यम् । तृतीये तु युगपद्भावे १. एक अंशका लोप होनेपर सबका लोप हो जाता है उभयस्याप्राधान्यं शब्देनाभिधेयतयानुपात्तत्वात् । चतुर्थ स्तूभय प्रधानः क्रमेण उभयस्यास्त्यादिशब्देन उपात्तत्वात्। तथोत्तरे च स्व. स्तो./२२ अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि भगा वक्ष्यन्ते। गौण और मुख्य विवक्षासे सभी भंगोंकी सार्थसत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपा कता है। द्रव्यार्थिककी प्रधानता तथा पर्यायार्थिककी गौणतामें ख्यम् ।२२। -यह सुयुक्तिनीत वस्तुतत्व भेदाभेद ज्ञानका विषय प्रथम भंग सार्थक है और द्रव्याथिककी गौणता और पर्यायार्थिकहै और अनेक तथा एक रूप है। और यह वस्तुको भेद-अभेद की प्रधानतामें द्वितीय भंग। यहाँ प्रधानता केवल शब्द प्रयोगकी रूपसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान ही सत्य है। जो लोग इनमें से एकको है, वस्तु तो सभी भंगों में पूरी ही ग्रहण की जाती है। जो शब्दसे ही सत्य मानकर दूसरे में उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या कहा नहीं गया है अर्थात गम्य हुआ है वह यहाँ अप्रधान है। तृतीय है क्योंकि दोनों में से एकका अभाव माननेपर दूसरेका भी अभाव भंगमें युगपत विवक्षा होनेसे दोनों ही अप्रधान हो जाते है क्योंकि हो जाता है, दोनों का अभाव हो जानेसे वस्तुतत्त्व अनुपाख्य दोनोंको प्रधान भावसे कहनेवाला कोई शब्द नहीं है। चौथे भंगमें निःस्वभाव हो जाता है। क्रमशः उभय प्रधान होते हैं। पं.ध./पू./१६ तन्न यतो द्रव्यार्थिकपर्यायाथिकनयात्मकं वस्तु। अन्यतरस्य वितोपे शेषस्यापोह लोप इति दोषः ।१६। यह ठीक नहीं ४. विवक्षावश मुख्य व गौणता होती है (कि एक नयसे सत्ताकी सिद्धि हो जाती है ) क्योंकि वस्तु द्रव्यार्थिक पं. का./ता. वृ./१८/११/१८ द्रव्यार्थिकपर्यायाथिकनययोः परस्परगौणऔर पर्यायार्थिक, इन दोनोंके विषय मय है। इनमें से किसी एकका मुख्यभावव्याख्यानादेकदेवदत्तस्य जन्यजनकादिभावंवक्ष एकस्यापि लोप होनेपर दूसरे नयका भी लोप हो जायेगा। यह दोष आवेगा। द्रव्यस्य नित्यानित्यत्वं घटते नास्ति विरोध इति । ७. अपेक्षा प्रयोगका प्रयोजन पं. का/ता. वृ./१/४१/१ स एव नित्यः स एवानित्यः कथं घटत इति चेत् । यथै कस्य देवदत्तस्य पुत्र विवक्षाकाले पितृविवक्षा गौणा पितका. अ/मू./२६४ णाणाधम्मयुदं पि य, एयं धम्म पि वुच्चदे अस्थ । विवक्षाकाले पुत्रविवक्षा गौणा, तथ.कस्य जीवस्य जीवद्रव्यस्य वा तस्सेयविवरवादी णस्थि विववखादा हु सेसाणं ।२६४।-अनेक धर्मोंसे द्रव्याथिकन येन नित्यत्वविचक्षाकाले पर्यायरूपेणानित्यत्वं गौणं युक्त पदार्थ है, तो भी उन्हें एक धर्म युक्त कहता है, क्योंकि जहाँ पर्यायरूपेणानित्यत्व विवक्षाकाले द्रव्यरूपेण नित्यत्वं गौण । कस्मात् एक धर्म की विवक्षा करते हैं वहाँ उसी धर्मको कहते हैं शेष धर्मोंकी विवक्षितो मुख्य इति वचनात् । = द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक विवक्षा नहीं कर सकते हैं। इन दोनों नयों में परस्पर गौण और मुख्य भावका व्याख्यान होनेसे एक ही देवदत्त के पुत्र व पिताके भावकी भाँति एक ही द्रव्यके ३. मुख्य गोण व्यवस्था नित्यत्व व अनित्यत्व ये दोनों घटित होते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है। प्रश्न-वह ही नित्य और वही अनित्य यह कैसे धस्ति होता १. मुख्य व गौणके लक्षण है। उत्तर-जिस प्रकार एक ही देवदत्त के पुत्रविवक्षाके समय पितृस्व. स्तो./३ विवक्षितो मुख्यं इतोष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो। जो विवक्षा गौण होती है और पितृविवक्षाके समय पुत्रविवक्षा गौण विवक्षित होता है वह मुख्य कहलाता है, दूसरा जो अविवक्षित होता होती है, उसी प्रकार एक ही जीवके वा जीव द्रव्य के द्रव्यार्थिक नयसे है वह गौण कहलाता है । (स्व. स्तो./२५) नित्यत्वकी विवक्षाके समय पर्यायरूप अनित्यत्व गौण होता है, और स्या. म./७/६३।२२ अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च । पर्यायरूप अनित्यत्वकी विवक्षाके समय द्रव्यरूप नित्यत्व गौण होता विपरीतो गौणोऽर्थः सति मुख्ये धीः कथं गौणे । = अव्यभिचारी, है। क्योंकि 'विवक्षा मुख्य होती है। ऐसा वचन है। अविकल, असाधारण और अन्तरंग अर्थको मुख्य कहते हैं और उससे पं.का./ता.वृ./१०६/१६६/२२ विवक्षितो मुख्य इति वचनात् । - "विवक्षा विपरीतको गौण कहते हैं। मुख्य अर्थके रहनेपर गौण बुद्धि नहीं , मुख्य होती है। ऐसा वचन है। हो सकती। ५. गौणका अर्थ निषेध करना नहीं २. मुख्य गौण व्यवस्थासे ही वस्तु स्वरूपकी सिद्धि है __ स्व. स्तो./मू./२३ सतः कथंचित्तदसत्त्वशक्तिः--खे नास्ति पुष्पं तरुषु स्व. स्तो./२५-६२ विधिनिषेधश्च कथंचिदिष्टौ विवक्षया मुख्य-गुण- प्रसिद्धम् । -जो सत् है उसके कथंचित असत्त्व शक्ति भी है-जैसे । व्यवस्था ॥२५॥ यथै कशः कारकमर्थ-सिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहाय- पुष्प वृक्षोंपर तो अस्तित्वको लिये हुए है परन्तु आकाशपर उसका कारकम् । तथैव सामान्य-विशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुण-मुख्य अस्तित्व नहीं है, आकाशकी अपेक्षा वह असत् रूप है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद ५०० ४. स्यात् व कथंचित् शब्द प्रयोग विधि दे. एकांत/३/३ कोई एक धर्म विवक्षित होनेपर अन्य धर्म विवक्षित नहीं होते। स. भ. त./8/- प्रथमभङ्गादायसत्त्वादीनां गुणभावमात्रं, न तु प्रति. षेधः। प्रथम भङ्ग 'स्यादस्त्येव घटः' आदिसे लेकर कई भंगोंमें जो असत्त्व आदिका भान होता है वह उनकी गौणता है न कि निषेध । ४. स्यात् व कथंचित् शब्द प्रयोग विधि १. स्यात्कारका सम्यक् प्रयोग ही कार्यकारी है प्र. सा./त. प्र./१९५ सप्तभङ्गिकैवकारविश्रान्तमश्रान्तसमुच्चार्यमाणस्यात्कारामोघमन्त्रपदेन समस्तमपि विप्रतिषेधविषमोहमुदस्यति। - सप्तभंगी सतत सम्यक्तया उच्चारित करनेपर स्यातकाररूपी अमोध मन्त्र पद के द्वारा 'एव' कार में रहनेवाले समस्त विरोध विषके मोहको दूर करती है। २. व्यवहार नयके साथ ही स्यात्कार आवश्यक है निश्चयके साथ नहीं न. च./श्रुत/३१-३६ स्याच्छब्दरहितत्वेऽपि न चास्य निश्चयाभासत्वमुपनयरहितत्वात्। कथमुपनयाभावे स्याच्छब्दस्याभाव इति चेत, स्याच्छब्दप्रधानत्वेनोपनयो हि व्यवहारस्य जनकत्वात् । यदा तु .. निश्चयनयेनोपनयः प्रलये नीयते तदा निश्चय एष प्रकाशते ।... किमर्थ व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थ सदरत्नत्रयसिध्यर्थं च ।... निश्चयं गृह्णन्नपि अन्ययोगव्यवछेदनं करोति ।३१। (यथा) भेदेन अन्यत्रोपचारात उपचारेण स्याच्छन्दमपेक्षते तथा व्यवहारेऽपि । सर्वथा भेदे तयोर्द्रव्याभावः। अभेदे तु व्यवहारविलोपः तथोपचारेऽपि सकरादिदोषसंभवात् । अन्यथा कर्तृत्वादिकारकरूपाणामनुस्पत्तितः स्यादेवं व्यवहारविलोपापत्तिः।३६॥ --१, स्यात् पदसे रहित होनेपर भी इसके निश्चयाभासपना नहीं है। क्योंकि यह उपनयसे रहित है। उपनयके अभावसे 'स्याद' पदका अभाव किस तरह हो सकता है ? इस प्रकार कोई पूछे तो उत्तर यह है कि स्य व पदकी प्रधानताके द्वारा उपनय ही व्यवहारका जनक है। किन्तु जब निश्चय नयके द्वारा उपनय प्रलयको प्राप्त करा दिया जाता है तब निश्चय ही प्रकाशित होता है।...प्रश्न-यदि ऐसा है तो अर्थका व्यवहार किस लिए होता है ? उत्तर-असत् कल्पना निवारण करने के लिए और सम्यग् रत्नत्रयकी सिद्धिके लिए अर्थका व्यवहार होता है।...निश्चयको ग्रहण करते हुए भी अन्यके मतका निषेध नहीं करता । २, अन्यत्र भेदके द्वारा उपचार होनेसे उपचारसे स्यात् शब्दकी अपेक्षा करता है। उसी प्रकार व्यवहार करने योग्यमें भी सर्वथा भेद माननेपर उन दोनों के द्रव्यपनेका अभाव होता है। इतना विशेष है कि सर्वथा अभेद मान लेनेपर व्यवहारके माननेपर भी संकर वगैरह दोष सम्भव है। ऐसा न माननेपर कर्ता कारक वगै रहकी उत्पत्ति नहीं होती है इस प्रकार व्यवहार लोपका प्रसंग आता है। ३. स्यास्कारका प्रयोग धर्मों में होता है गुणोंमें नहीं स्या. म./२/२६५ स्यान्निशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्य सदसत्तदेव । विपश्चिता नाथ निपीततत्त्वसुधोगतोगारपरम्परेयम् ।२५।- हे विद्वद्-शिरोमणि ! आपने अनेकान्त रूपी अमृतको पीकर प्रत्येक वस्तुको कथंचित् अनित्य, कथ चित नित्य, कथंचित सामान्य, कथंचित् विशेष, ' कथंचित वाच्य, कथंचित् अवाच्य, कथं चित सत और कथंचित् असतका प्रतिपादन किया है ।२५। तथा इसी प्रकार सर्वत्र ही 'स्यारकार'का प्रयोग धर्मों के साथ किया है, कहीं भी अनुजोवी गुणों के साथ नहीं किया गया है (दे. सप्तभंगी)। श्लो. वा. २/भाषा/१/६/५६/४६३/१३ स्याद्वाद प्रक्रिया आपेक्षिक धर्मों में प्रवर्तती है । अनुजीवी गुणों में नहीं। ४. स्यात्कार भावमें आवश्यक है शब्दमें नहीं यु. अनु./४४ तथा प्रतिज्ञाशयतोऽप्रयोग:४४ = स्यात् शब्द के प्रयोगकी प्रतिज्ञाका अभिप्राय रहनेसे 'स्यात्' शब्दका अप्रयोग देखा जाता है। क. पा. १/१,१३-१४/६२७२/३०८/५ दवम्मि अवुत्तासेसधम्माण घडावणठ सियासहो जोजेयव्वो। सुत्ते किमिदि ण पउत्तो। ण; तहापईजासयस्स पओआभावे वि सदरथावगमो अस्थि त्ति दोसाभावादो। उत्तं च-तथाप्रतिज्ञाशयतोऽप्रयोगः ।१२६। द्रव्य में अनुक्त समस्त धोके घटित करनेके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करना चाहिए। प्रश्न-'रसकसाओ' इत्यादि सूत्रमें स्यात् शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया है। उत्तर-नहीं, क्योंकि स्यात् शब्दके प्रयोगका अभिप्राय रखनेवाला वक्ता यदि स्याव शब्द का प्रयोग न भी करे तो भी उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है अतएव स्यात् शब्द का प्रयोग नहीं करनेपर भी कोई दोष नहीं है, कहा भी है- स्यात् शब्दके प्रयोगकी प्रतिज्ञाका अभिप्राय रखनेसे 'स्यात' शब्दका अप्रयोग देखा जाता है। ध.१/४,१,४५/१८३/हन चैतेषु सप्तस्वपि वाक्येषु स्याच्छब्दप्रयोगनियमः, तथा पतिज्ञाशयादप्रयोगोपलम्भान् । सातों ही वाक्यों में (सप्तभंगी सम्बन्धी) 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका नियम नहीं है, क्योंकि वैसी प्रतिज्ञाका आशय होनेसे अप्रयोग पाया जाता है । दे. स्याद्वाद/४/२ स्याद पदसे रहित होनेपर भी निश्चय नयके निश्चयाभासपना नहीं है क्योंकि यह उपनयसे रहित है। श्लो. वा. २/१/६/ श्लो. ५६/४५७ सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः सर्वत्रार्थात्प्र. तीयते। तथैवकारो योगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः ॥५६॥ = स्यात् शब्द प्रत्येक वाक्य या पद में नहीं बोला गया भी सभी स्थलोंपर स्याद्वादको जाननेवाले पुरुषों करके प्रकरण आदिकी सामर्थ्य से प्रतीत कर लिया जाता है। जैसे कि अयोग अन्ययोग और अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करना है प्रयोजन जिसका ऐसा एवकार बिना कहे भी प्रकरणवश समझ लिया जाता है। (स्या. म./२३/२७६/E), (स. भ.त. ३१/२ पर उधृत)। ५. कथंचित् शब्दके प्रयोग स्व. स्तो./मू./४२ तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात् तथा प्रतीतेस्तव तत्कथ चित ॥ नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विधेनिषेधस्य च शून्यदोषात ।४२। आपका वह तत्त्व कथं चित् तद्रूप ( सद्रूप) है और कथाचित तद्रूप नहीं है. क्योंकि वैसी ही सत-असत रूपकी प्रतीति होती है। स्वरूपादि-चतुष्टय रूप विधि और पररूपादि चतुष्टय रूप निषेधके परस्पर में अत्यन्त भिन्नता तथा अभिन्नता नहीं है क्योंकि सर्वथा ऐसा माननेपर शून्य दोष आता है ।४२। रा. वा./२/८/१८/१२२/१५ सर्वस्य वागर्थस्य विधिप्रतिषेधात्मकत्यात, न हि किचिद्वस्तु सर्वनिषेधगम्यमस्ति । अस्ति त्वेतत उभयात्मकम्. यथा कुरकका रक्तश्वेतव्युदासेऽपि नावर्णा भवन्ति नापि रक्ता एव श्वेता एव वा प्रतिषिद्धत्वात। एवं वस्त्वपि परात्मना नास्तीति प्रतिषेधेऽपि स्वात्मना अस्तीति सिद्धः । तथा चोक्तम्-अस्तित्यमुपलब्धिश्च कथं चिदसतः समृतेः । नास्तितानुपलब्धिश्च कथं चित्सत एव ते ।। सर्वथैव सतो नेमौ धौं सर्वात्मदोषतः । सर्वथैवासतो नेमी वाचां गोचरताप्रत्ययात् ।। =जितने भी पदार्थ शब्दगोचर हैं वे सब विधि-निषेधात्मक हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा निषेध गम्य नहीं होती। जैसे कुरवक पुष्प लाल और सफेद दोनों रंगोंका होता है। न केवल रक्त ही होता है, न केवल श्वेत ही होता है और न ही वह वर्ण शून्य है। इस तरह परकी अपेक्षासे वस्तुमे नास्तित्व होनेपर भी स्व दृष्टि से उसका अस्तित्व प्रसिद्ध ही है। कहा भी है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वाद ५. स्यात्कारका कारण व प्रयोजन कथंचित् असतकी भी उपलब्धि और अस्तित्व है और कथं चित् दे. स्याद्वाद/१/१ नियमका निषेध करना तथा सापेक्षताको सिद्धि करना सत्की भी अनुपलब्धि और नास्तित्व। यदि सर्वथा अस्तित्व स्याद्वादका प्रयोजन है। और उपलब्धि मानी जाये तो घटकी पटादि रूपसे भी उपलब्धि श्लो. वा. २/१/६/५४/४५४/४ तत्त्वतोऽस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवमभेदहोनेसे सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायेंगे और यदि परकी तरह स्व वृतेरसंभवे कालादिभिभिन्नात्मनामभेदोपचारः क्रियते । तदेवाभ्यामरूपसे भी असत्त्व माना जाये तो पदार्थका ही अभाव हो जायेगा भेदवृत्त्यभेदोपचाराभ्यामेकेन शब्देनै कस्य जीवादिवस्तुनोऽनन्त. और वह शब्दका विषय न हो सकेगा। धर्मात्मकस्योपात्तस्य स्यात्कारो द्योतक: समवतिष्ठते। प्र.सा./त.प्र./३५,१०६ सर्वऽर्था ज्ञानवर्तिन एव कथंचिद् भवन्ति ।३५॥ श्लो. वा.२/१/६/५५/४५ स्याच्छब्दादप्यनेकान्तसामान्यस्यावबोधने ।... अतएव च सत्ताद्रव्ययोः कथंचिदनन्तरत्वेऽपि सर्वथै करवं न ॥५॥ -१. जब कि वास्तविक रूपसे अस्तित्व, नास्तित्व आदि शङ्कनीयम्। १. समस्त पदार्थ कथाचित ज्ञानवर्ती ही हैं। २. यद्यपि सत्ता द्रव्यके कथंचित अनर्थान्तरत्व है तथा उनके धर्मोकी एक वस्तुमें इस प्रकार अभेद वृत्तिका होना असम्भव है तो अत्र काल, आत्मरूप आदि करके भिन्न-भिन्न स्वरूप हो रहे धोका सर्वथा एकत्व होगा ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। अभेद रूपसे उपचार किया जाता है। तिस कारण इन अभेद वृत्ति स. सा./आ./३३१/क. २०४ कर्मैव प्रक्तिय॑कत हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृताम् । कत्मैिष कथं चिदित्यचलिता कैश्चिळू तिः कोपिता । और अभेदोपचारसे एक शब्द करके ग्रहण किये गये अनन्तधर्मात्मक - कोई आत्म घातक कर्मको ही कर्ता विचार कर आत्माके कर्तृत्व एक जोव आदि वस्तुका कथन किया गया है। उन अनेक धोका को उड़ाकर, यह आत्मा कथाचित् कर्ता है' ऐसी कहनेवाली द्योतक स्यात्कार निपात भले प्रकार व्यवस्थित हो रहा है । २. स्याव शब्दसे भी सामान्य रूपसे अनेक धर्मोंका द्योतन होकर ज्ञान हो अचलित श्रुतिको कोपित करते हैं। जाता है ।५॥ प्र. सा./ता. वृ./२७/३७/६ यदि पुनरेकान्तेन ज्ञानमात्मेति भण्यते तदा ध. १२/४,२,६,२/२९४/१० सिया सहा दोणि-एक्को किरियाए वाययो, ज्ञानगुणमात्र एवात्मा प्राप्तः सुखादिधर्माणामवकाशो नास्ति ।... तस्मात्कथंचिज्ज्ञानमात्मा न सर्वथेति ।यदि एकान्तसे ज्ञानको अबरोणइवादियो।...सब्बहाणियमपरिहारेण सो सम्बत्थ परूवओ, पमाणाणुसारित्तादो। स्यात् शब्द दो हैं-एक क्रियावाचक व दूसरा हो आत्मा कहते हैं तो तब ज्ञान गुण मात्र ही आत्मा प्राप्त होती है अनेकान्त वाचक ......उक्त स्यात् शब्द 'सर्वथा' नियमको छोड़कर सुखादि धर्मोको अवकाश नहीं है ।...इसलिए कथं चित ज्ञानमात्र सर्वत्र अर्थको प्ररूपणा करनेवाला है, क्योंकि वह प्रमाणका अनुसरण आत्मा है सर्वथा नहीं। करता है। पं.ध./पू./११ द्रव्यं ततः कथं चित्केनचिदुत्पद्यते हि भावेन । व्यति तदन्येन पुनर्नेतद् द्वितयं हि वस्तुतया 11 =निश्चयसे द्रव्य न. च. वृ./२५१ पर उद्धृत-सिद्धमन्तो यथा लोके एकोऽनेकार्थ दायकः । कथंचित् किसी अवस्था रूपसे उत्पन्न होता है और किसी अन्य स्याच्छब्दोऽपि तथा ज्ञेय एकोऽनेकार्थसाधकः । जिस प्रकार लोकमें अवस्थासे नष्ट होता है किन्तु परमार्थ से निश्चय करके ये दोनों ही सिद्ध किया गया मन्त्र एक व अनेक पदार्थों को देनेवाला होता है, उसी प्रकार 'स्यात' शब्दको एक तथा अनेक अर्थोंका साधक जानना चाहिए। न. च श्रुत./६५स्याच्छब्देन किं । यथा द्रव्यरूपेण नित्यत्वंतथा पर्याय रूपेण ५. स्यात्कारका कारण व प्रयोजन नित्यत्व'मा भूदिति स्याच्छब्दः, स्यादस्ति स्यादनित्य इति अनित्यत्व १. स्यात्कार प्रयोगका प्रयोजन एकान्त निषेध इति पर्यायरूपेणैव कुर्यात् ।...तहि स्याच्छब्देन किं यथा सद्भूत व्यवहारेण भेदस्तथा द्रव्याथिकेनापि माभूदिति स्याच्छब्दः । आप्त, मी./१०३-१०४ वाक्येष्बनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् । -प्रश्न-स्यात शब्दसे यहाँ क्या प्रयोजन है ! उत्तर-जिस प्रकार स्थान्निपातोऽर्थयोगित्वात तब केवलिनामपि ।१०३स्याद्वादः सर्व द्रव्य रूपसे नित्य है, उसी प्रकार पर्याय रूपसे नित्य न हो यह थैकान्तत्यागारिक चिद्विधिः। सप्तभड़ गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः स्यात् शब्दका प्रयोजन है । स्यात् शब्द स्यादस्ति स्यादनित्य इस ११०४। स्यात् ऐसा शब्द है यह निपात या अव्यय है। वाक्यों में प्रकारसे होता है। अनित्यता पर्याय रूपसे समझना चाहिए ।... प्रयुक्त यह शब्द अनेकान्त द्योतक वस्तुके स्वरूपका विशेषण है।१०३। प्रश्न-यहाँ स्यात् शब्दसे क्या प्रयोजन है ? उत्तर-जिस प्रकार स्याद्वाद अर्थात् सर्वथा एकान्तका त्याग होनेसे किंचित् ऐसा अर्थ सदभूत व्यवहार नयसे भेद है, उसी प्रकार द्रव्याथिक नयसे भेद न बतानेवाला है। सप्त भंगरूप नयको अपेक्षावाला तथा हेय व उपादेय हो, यह स्थान पदका यहाँ प्रयोजन है। का भेद करनेवाला है ।१०४। रा. वा./8/४२/१/२६०/२६ ननु च सामान्यार्थाविच्छेदेन विशेषण पं. का./त. प्र./१४ अत्र सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तद्योतकः कथं चिदर्थे विशेष्यसंबन्धावद्योतनार्थे एवकारे सति तदवधारणादितरेषा स्याच्छब्दो निपातः। - यहाँ । सप्तभंगी में ) सर्वथापनेका निषेधक, निवृत्तिः प्राप्नोति। नैष दोषः, अत्राप्यत एव स्याच्छब्दप्रयोगः अनेकान्तका द्योतक 'स्यात्' शब्द कथंचित ऐसे अर्थमें अव्यय रूपसे कर्तव्यः स्यादस्त्येव जीवः' इत्यादि। कोऽर्थः । एवकारेणेतरनि प्रयुक्त हुआ है । (स.भ.त./३०/१०)। . वृत्तिप्रसङ्ग स्वात्मलोपात सकलो लोपो मा विज्ञायीति वस्तुनि यथावस्थितं विवक्षितधर्मस्वरूपं तथैव द्योतयति स्याच्छब्दः । २. स्यात्कार प्रयोगके अन्य प्रयोजन 'विवक्षितार्थवागम्' इति बचनाव। -प्रश्न-जन आप विशेषण- 'स्व, स्तो./मू.४४ अनेकमेकं च पदस्य वाच्य, वृक्षा इति प्रत्ययव. विशेष्यके नियमनको एवकार देते हो तब अर्थात ही इतरकी त्प्रकृत्या। आकासिणः स्यादिति वै निपातो गुणानपेक्षे नियमेऽपवादः निवृत्ति हो जाती है ! उदासीनता कहाँ रही ? उत्तर-इस लिए शेष १४४ा पद (शब्द) का वाच्य प्रकृतिसे एक और अनेक दोनों धर्मोंके सद्भावको द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया रूप है। 'वृक्षाः' इस पद ज्ञानको तरह । अनेकान्तात्मक वस्तुके जाता है। एबकारसे जब इतर निवृत्तिका प्रसंग प्रस्तुत होता है तो अस्तित्वादि किसी एक धर्म का प्रतिपादन करनेपर उस समय गौणसकल लोप न हो जाय इसलिए 'स्यान्' शब्द विवक्षित धर्म के साथ ही भूत नास्तित्वादि दूसरे धर्म के प्रतिपादन में जिसकी आकांक्षा है, ऐसी साथ अन्य धर्मों के सद्भावको सूचना दे देता है। आकांक्षा (स्याद्वादी) का स्यात यह निपात गौणको अपेक्षा न रखनेदे, स्याव/१ स्यात शब्द अनेकान्तका द्योतक होता है। वाले नियममें निश्चय रूपसे बाधक होता है।४४॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद स्याद्वादवदनविदारण न. च. श्रुत./६५ यथा स्वरूपेणास्तित्वं तथा पररूपेणाप्यस्तित्व माभू- दिति स्याच्छब्दः ।...यथा द्रव्यरूपेण नित्यत्वं तथा पर्यायरूपेण व नित्यत्वं माभूदिति स्याच्छब्दः । = जिस प्रकार स्वस्वरूपसे है उसी प्रकार परस्वरूपसे भी है, इसी प्रकारकी आपत्तिका निवारण करना स्याव शब्द का प्रयोजन है।...जिस प्रकार द्रव्य रूपसे नित्य है उसी प्रकार पर्याय रूपसे नित्य न हो यह स्यात शब्दका प्रयोजन है । स्या. म./१६/२९४/३ यथावस्थितपदार्थ प्रतिपादनोपयिकं नान्यदिति ज्ञापनार्थम् । अनन्तधर्मात्मकस्य सर्वस्य वस्तुनः सर्वनयात्मकेन स्याद्वादेन विना यथावद्गृहीतुमशक्यत्वात् । - यथाव स्थित पदार्थका प्रतिपादन करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है ।...क्योंकि प्रत्येक बस्तुमें अनन्तस्वभाव हैं, अतएव सम्पूर्ण नय स्वरूपं स्याद्वादके बिना किसी भी वस्तुका ठीक-ठीक प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। ३. सप्तमंगीमें 'स्यात्' शब्द प्रयोगका फल क. पा. १/१.१३-१४/६२७३/३०८/८ सिया कसाओ, सियाओ एत्थतणसियासहो [णोकसायं ] कसायं कसायणोकसायविसय अत्थपज्जाए च दवम्मि घडावेइ । सिया अवत्तव्वं 'कसायणोकसायविसयअस्थपज्जाय सरूवेण, एत्थतण-सिया-सद्दो कषायणो कसायविसयवंजण'पज्जाए ढोएइ। सिया कसाओ च णोकसाओ च' एत्थतण-सियासहो कसाय-णोकसायविसयअत्थपज्जाए दवेण सह ढोएइ । 'सिया कसाओ च अवत्तबओ च एत्यतण सियासदो णोकसायत्तं घडावे।' सिया णोकसाओ च अवतचओ च' एत्थतण सियासहो कसायत्तं घडावे । 'सिया कसाओ च णोकसाओ च अवत्तबओ च' एत्थतणसियासदो कषायणोकषाय-अवत्तब्बधम्माणं तिह पि कमेण भण्णमाणाणं दधम्मि अक्कमउत्ति.सूचेदि । १. द्रव्य स्यात कषाय रूप है, (यहाँ कषायका प्रकरण है) २. द्रव्य स्यात् अकषाय रूप है। इन दोनों भंगों में विद्यमान स्यात् शब्द क्रमसे नोकषाय और कषायको तथा कषाय और नोकषाय विषयक अर्थपर्यायौंको द्रव्यमें घटित करता है। ३. कषाय और नोकषाय विषयक अर्थ पर्याय रूपसे द्रव्य स्याद अबक्तव्य है। इस भंगमें विद्यमान स्यात शब्द कषाय और नोकषाय विषयक व्यञ्जन पर्यायोंको द्रव्यमें घटित करता है। ४. द्रव्य स्यात् कषाय रूप और अकषाय रूप है। इस चौथे भंगमें विद्यमान स्यात् शब्द कषाय और नोकषाय विषयक अर्थ पर्यायों में घटित करता है। ५. द्रव्य स्यात कषाय रूप और अबक्तव्य है। इस पाँचवें भंगमें विद्यमान स्पात शन्द द्रव्यमें, नोकषायपनेको घटित करता है। ६.'द्रव्य स्याच अकषाय रूप और अवक्तव्य है। इस छठे भंगमें विद्यमान स्थात् शब्द द्रव्यमें कषायपनेको घटित करता है । ७. द्रव्य स्यात् कषाय रूप, अकषाय रूप, और अवक्तव्य है। इस सातवें भंगमें विद्यमान स्यात् शब्द क्रमसे कहे जानेवाले कषाय, नोकषाय और अवक्तव्य रूप तीनों धर्मोकी द्रव्य में अक्रम वृत्तिको सूचित करता है। क. पा./१/१,१३-१४/१२७१-२७२/३०६/६ सुत्तण अउत्तो सियासहो कथमेत्थ उच्चदे । णा; सियासद्दपओएण विणा सव्वपओआणं अउत्ततुल्लत्तप्पसंगादो। ते जहा, कसायसद्दो पडिबक्खत्थं सगत्थादो ओसारिय सगत्थं चेव भणदि पईबो व दुस्सहावत्तादो। अत्रोपयोगिनौ श्लोको-अन्तर्भूतैवकारार्थाः गिरः सर्वाः स्वभावतः । एवकारप्रयोगोऽयमिष्टतो नियमाय सः।१२३। निरस्यन्ती परस्यार्थ स्वार्थ कथयति श्रुतिः । तमो विधुन्वती भास्य यथा भासयति प्रभा ।१२४॥ एवं चेव होदु चे; ण; एक्कम्मि चेत्र माहुलिंगफले तित्त-कडवं बिलमधुर-रसाणं रूव-गंध-फास संठाणाईणमभावप्पसंगादो। एदं पिहोउ चे; ण; दव्बलक्रवणाभावेण दव्वस्स अभावप्पसंगादो। प्रश्न'स्यात' शब्द सूत्र में नहीं कहा है फिर यहाँ क्यों कहा है ? उत्तरक्योंकि यदि 'स्यात् शब्दका प्रयोग न किया जाय तो सभी वचनोंके व्यवहारको अनुक्त तुल्यत्वका प्रसंग प्राप्त होता है । जैसे-यदि कषाय शब्द के साथ स्यात् शब्दका प्रयोग न किया जाय तो यह कषाय शब्द अपने वाच्यभूत अर्थसे प्रतिपक्षी अर्थोंका निराकरण करके अपने अर्थको ही कहेगा, क्योंकि वह दीपक की तरह दो स्वभाववाला है (अर्थात् स्वप्रकाशक व प्रतिपक्षी अन्धकार विनाशक स्वभाववाला) इस विषयमें दो उपयोगी श्लोक दिये जाते हैं। जितने भी शब्द हैं उनमें स्वभावसे हो एवकारका अर्थ छिपा हुआ रहता है, इसलिए जहाँ भी एक्कारका प्रयोग किया जाता है वहाँ वह इष्टके अवधारण के लिए किया जाता है ।१२३। जिस प्रकार प्रभा अन्धकारका नाश करती है उसीप्रकार शब्द दूसरेके अर्थ का निराकरण करता है और अपने अर्थको कहता है ।१२४। (तात्पर्य यह है कि 'स्यात्' शब्दसे रहित केवल कषाय शब्दका प्रयोग करनेपर उसका वाच्य भूत द्रव्य केवल कषाय रसवाला ही फलित होता है ) प्रश्न-ऐसा होता है तो होओ 1 उत्तर-नहीं क्योंकि ऐसा मान लिया जाये तो एक ही बिजौरेके फलमें पाये जानेवाले कषाय रसके प्रतिपक्षी तीते, कड़ए, खट्टे और मीठे रसके अभावका तथा रूप, गन्ध, स्पर्श और आकार आदिके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न होता है तो होओ ! उत्तर-नहीं, क्योंकि वस्तुमें विवक्षित स्वभावको छोड़कर शोष स्वभावोंका अभाव, माननेपर द्रव्यके लक्षणका अभाव हो जाता है। उसके अभाव हो जानेसे द्रव्यके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। स्था.म./२३/२७४/५ वाक्येऽवधारणं तावद निष्टार्थ निवृत्तये। कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात तस्य कुत्रचित् । प्रति नियतस्वरूपानुपपत्तिः स्यात् । तत्प्रतिपत्तये स्याद् इति शब्दप्रयुज्यते । -किसी वाक्यमें 'एब' का प्रयोग अनिष्ट अभिप्रायके निराकरणके लिए किया जाता है, अन्यथा अविवक्षित अर्थ स्वीकार करना पड़े।...वस्तु स्वचतुष्टयकी अपेक्षा ही कथंचित् अस्ति रूप है, परचतुष्टयकी अपेक्षा नहीं, इसी भावको स्पष्ट करनेके लिए 'स्यात' शब्द का प्रयोग किया गया है। स्याद्वादभूषण-आ, अकलंक (ई. ६२०६८०) कृत लघीय स्त्रयपर आ. अभयचन्द्र (ई. श. १३) कृत वृत्ति । -दे. अभयचन्द्रा स्याद्वावमंजरी-हेमचन्द्र सुरि ( ई.१०८८-११७३) कृत अयोग व्यवच्छेद नामक ग्रन्थकी टीका रूपमें आ, मसिलपेण सं. ३१ ई. १२६२) द्वारा रचित एक न्याय विषयक ग्रन्थ ।-दे. हेमचन्द्र। स्थाद्वावमंजूषा-- श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (ई. १६३८-१६८८) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्याय विषयक ग्रन्थ । -दे. यशोविजय। स्याद्वादरत्नाकर-दे. प्रमाणनय तत्त्वालंकार । स्याद्वादवदनविदारण- आ. शुभचन्द्र (ई. १५१६-१५५६ ) द्वारा रचित न्यायविषयक ग्रन्थ । -दे. शुभचन्द्र । १. एवकार व स्यात्कारका समन्वय श्लो.वा. २/१/६/ श्लो.५३-५४/४३१, ४४८ वाक्येऽवधारण तावदनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ॥५३। सर्वथा तत्प्रयोगेऽपि सरवादिप्राप्सिविच्छिदे । स्यात्कारः संप्रयुज्येतानेकान्तद्योतकत्वतः १५४१ - वाक्य में एत्रकार ही ऐसा जो नियम किया जाता है, वह तो अवश्य अनिष्ट अर्थकी निवृत्तिके लिए करना ही चाहिए। अन्यथा कहीं-कहीं वह वाक्य नहीं कहा गया सरीखा समझा जाता है।५३। उस एचकारके प्रयोग करनेपर भी सभी प्रकारसे सत्व आदिकी प्राप्तिका विच्छेद करनेके लिए वाक्यमें स्यात्कार शब्द का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि वह स्याव शब्द अनेकान्तका द्योतक है ।।४। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादसिद्धि ५०३. स्वनिमित्त स्याद्वादसिद्धि-आ. वादीभसिंह ( ई०११०३ ) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्यायविषयक ग्रन्थ है। -दे. वादीभसिंह । स्याद्वादोपनिषद्-आ. सोमदेव (ई. १४३-६६८) कृत स्याद्वाद न्यायका प्ररूपक संस्कृत भाषामें रचित ग्रन्थ । -दे.सोमदेव । स्व क्षेत्र-दे.क्षेत्र/१। स्वगणानुस्थापनप्रायश्चित्त-दे. परिहार । स्वगुरु वापि किया-दे. संस्कार/२ । स्वचतुष्टय-दे. चतुष्टय। स्वचारित्र-दे. चारित्र १ । हुआ और स्वेच्छ। कल्पित पदार्थोंका स्वरूप कहते हैं उनको यथाछन्द मुनि कहते हैं । वर्षाकाल में जो पानी गिरता है उसको धारण करना वह असंयम है। उस्तरा और कैंचीसे केश निकालना ही योग्य है। केशलोंच करनेसे आत्म-विराधना होती है। सचित्त तृषापुंजपर बैठनेसे भी भूमि शय्या मूल गुण पाला जाता है। तृणपर बैठने से भी जीवोंको बाधा नहीं पहुँचती। उद्देशादि दोष सहित भोजन करना दोषास्पद नहीं है। आहारके लिए सब ग्राम में घूमनेसे जीवोंकी विराधना होती है । घरमें (वसतिका) में ही भोजन करना अच्छा है। हाथमें आहार लेकर भोजन करनेसे जीवोंको बाधा पहुँचती है। ऐसा वे उत्सुत्र कहते हैं। इस काल में यथोक्त आचरण करनेवाले मुनि कोई नहीं हैं। ऐसा कथन करना इत्यादि प्रकारसे विरुद्ध भाषण करनेवाले मुनियोंको यथाछन्द अर्थात स्वच्छन्दमुनि कहते हैं। चा. सा./१४४/२ त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्द विहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्र: स्वच्छन्द इति वा । जो अकेले ही स्वच्छन्द रीतिसे विहार करते हैं और जिनेन्द्र देवके वचनोंको दूषित करनेवाले हैं उनको मृगचारित्र अथवा स्वच्छन्द कहते है। (भा. पा./ टी./१४/१३७/२२)। स्वच्छेद-१.स्वच्छंद परिग्रह ग्रहण का निराकरण-दे, अपवाद/४; २. स्वच्छन्द आहार ग्रहणका निराकरण-दे. आहार/nI/२/७ । स्वच्छंद साधु स्वच्छत्वशक्ति-स.सा./आ/परि./शक्ति ११ नीरूपात्मप्रदेशप्रकाशमानलोकालोकाकारमेचकोपयोगलक्षणा स्वच्छत्वशक्तिः । - अमूर्तिक आत्मप्रदेशों में प्रकाशमान लोकालोकके आकारोंसे मेचक ( अर्थात् अनेक--आकाररूप) ऐसा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसा स्वच्छत्व शक्ति। (जैसे दर्पण की स्वच्छत्व शक्तिसे उसकी पर्यायमें घट पटादि प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार आत्माकी स्वच्छत्व शक्तिसे उपयोगमें लोकालोकके आकार प्रकाशित होते हैं। स्वच्छाहार-भ.आ./वि./७००/८८२/६ स्वच्छम् एकं पानक उष्णो दकं सौवीरकम् । स्वच्छ यह एक पानकका प्रकार है। गरम पानी, वगैरहको स्वच्छ कहते हैं। १. स्वच्छन्द साधुका लक्षण भ. आ./मू.१३०८-१३१२ सिद्धिपुरमुवल्लीणा वि केइ इंदियकसायचो रेहिं । पबिलुत्तचरणभंडा उवहदमाणा णिवीति ।१३०८। तो ते सीलदरिदा दुखमणतं सदा वि पार्वति ।...१३०६। सो होदि साधुसत्यादु णिग्गदो जो भवे जधा/दो। उस्सुत्तमणुव दिट्ट च जधिज्छार विकापतो ।१३१० जो होदि जधाछंदी हु तस्स धणिदं पि संजमितस्स । णस्थि. दुचरणं चरणं खु होदि सम्यत्तसहचारी ११३११। इंदियकसायगुरुगत्तणेण सुत्तं पमाणमकरंतो। परिमाणे दि जिणुत्ते अत्थे सच्छ ददो चेव ११३१२। मोक्ष मगरके समीप जाकर भी कितनेक मुनि इन्द्रिय और कषाय रूपी चोरों से जिनका चारित्र रूपी भांडबल लूटा गया है तथा संयमका अभिमान जिनका नष्ट हुआ है ऐसे होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं ।१३०८। बे शील दरिद्री मुनि हमेशा तीव दुःखको प्राप्त होते हैं ।१३०६। जो मुनि साधु सार्थको छोड़कर स्वतन्त्र हुआ है। जो स्वेच्छाचारी बनकर आगम विरुद्र और पूर्वाचार्य अकथित आचारोंकी कल्पना करता है वह स्वच्छन्द नामक भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए ।१३१०॥ यथेष्ट प्रवृत्ति करनेवाले उस भ्रष्ट मुनिने यद्यपि घोर संयम किया होगा तथापि सम्यक्त्व न होनेसे उसका संयम चारित्र नहीं कहा जाता है ।१३११॥ इन्द्रिय और कषायों में आधीन होनेसे यह भ्रष्टमुनि जिनप्रणीत सिद्धान्तको प्रमाण नहीं मानता है और स्वच्छन्दाचारी बनकर सिद्धान्तका स्वरूप अन्यथा समझता है तथा अन्यथा विचार में लाता है ।१३१२। भ. आ./वि./१९५०/१७२३/१ स्वच्छन्दसंपत्स्वियमपि स्वच्छन्दवृत्तिः। यथाच्छन्दो निरूप्यते-उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छाविकल्पित यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाच्छन्द इति । तद्यथा वर्षे पतत जलधारणमसंयमः । क्षुर कतरिकादिभिः केशापनयनप्रशंसनम आत्मविराधनान्यथा भवतीति । भूमिशय्यातृणपुजे वसतः अवस्थितानामाबाधेति, उद्देशिकादिके भोजनेऽदोषः ग्राम सकल पर्यटतो महती जीवनिकाय विराधनेति, गृहामत्रेषु भोजनमदोष इति कथनं, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, संप्रति यथोक्तकारी विद्यत इति च भाषणं एवमादिनिरूपणापराः स्वच्छन्दा इत्युच्यन्ते। '-स्वच्छन्द मुनिके संसर्गसे मुनि स्वच्छन्द बनते हैं। यथाच्छन्द मुनिका वर्णन करते हैं--जो मुनि आगमके विरुद्ध आगममें न कहा स्वजातिउपचार-दे, उपचार/१। ' स्वतन्त्रता-१ द्रव्यकी स्वतन्त्रता-दे. द्रव्य/५। २. गुणोंकी स्वतन्त्रता-दे. गुण/२/७; ३. पर्यायकी स्वतन्त्रता--दे. पर्याय/२/४: ४. आत्मद्रव्य अनीश्वर नयसे स्वतन्त्रता भोगने वाला है। हिरणको स्वतन्त्रता पूर्वक पकड़कर खा जानेवाले सिंहकी भाँति-दे. नय/11 स्वधर्म व्यापकत्व शक्ति-स.सा./आ./परिशक्ति/२५ । स्वशरीरैकस्वरूपारिमका स्वधर्मव्यापकत्वशक्तिः ॥२५॥ - सर्व शरीरों में एक स्वरूपात्मक ऐसी स्वधर्मव्यापकत्व शक्ति ( शरीरके धर्मरूप न होकर अपने-अपने धर्मो में व्यापने रूप शक्ति ) सो स्वधर्म व्यापकत्व शक्ति है। स्वदारसन्तोषव्रत-दे. ब्रह्मचर्य/१/३ । स्वद्रव्य-मो.पा./मू./१८ दुद्रुकम्मरहियं अणोयम जाणविरगहणिच्च । सुधं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवइ सहब्ब १८ - दुष्ट कर्मोंसे रहित हैं, तथा अनुपम ज्ञान ही है शरीर जिसके ऐसी अविनाशी, बिकार रहित केवलज्ञानमयी आत्मा जिन भगवान्ने कही है सो स्व द्रव्य है। स्वनिमित्त-दे. निमित्त/१/५ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न स्वप्न ५०४ १. भेद व लक्षण म.पु. / ४९/५६- ६१ तेच स्वप्ना द्विधाम्नाताः स्वस्थास्वस्थात्मगोचराः । समैस्तु धातुभिः स्वस्था विषमैरितरे मताः | ५ | तथ्याः स्युः स्वस्य दृष्टा मिथ्या स्वप्ना विपर्ययात् । जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्न|| स्वप्नानां द्वैमस्त्यन्यदोषदेवदोषप्रकोपजा मिथ्या तथ्याः स्युर्देवसंभवाः । ६१ । स्वप्न दो प्रकारके हैं - स्वस्थ अवस्थावाले, अस्वस्थ अवस्थावाले। जो धातुओं की समानता रहते दीखते हैं वे स्वस्थ अवस्थावाले हैं, और जो धातुओंकी असमानता से दीखते हैं वे अस्वस्थ अवस्थावाले हैं |५|| स्वस्थ अवस्थामें दीखनेवाले स्वप्न सत्य और अस्वस्थ अवस्था में दीखनेवाले स्वप्न असत्य होते हैं । ६० स्वप्नोंके और भी दो भेद हैं--एक दैव से उत्पन्न होने वाले, दूसरे दोषसे उत्पन्न होने वाले । दैवसे उत्पन्न होनेवाले स्वप्न सत्य तथा दोषसे उत्पन्न होने वाले असत्य हुआ करते है । ६१॥ दे. निमित/२/२ (बात पित्तादिके प्रकोपसे रहित व्यक्ति सूर्य चन्द्रमा आदिको देखता है व शुभस्वप्न तथा गर्दभ, ऊँट आदि पर चढ़ना, व प्रदेश गमनादि देखता है वह अशुभ स्वप्न है। इसके फलरूप सुख-दुःखादिको बताना स्वनिमित्त है। स्थाने हाथी आदिका दर्शन मात्र चिह्न स्वप्न हैं । और पूर्वापर सम्बन्ध रखने वाको माला स्वप्न कहते है । २. स्वप्न के निमित्त स्या. म./९६/२१५-२१६/३० स्वप्नज्ञानमप्यनुभूतार्थविषयान निरालम्बनम् तथाच महाभाष्यकारः-बहुविचितिय सुपयनियारदेवारा सुगिणस्स निमित्ताई पुष्पा पा भावो । = स्वप्न में भी जाग्रत् दशा में अनुभूत पदार्थों का ही ज्ञान होता है, इसलिए स्वप्न ज्ञान भी सर्वथा निर्विषय नहीं है। जिनभगणिमाने कहा है- "अनुभव किये हुए देखे हुए, विचारे क्षमाश्रमणने हुए सुने हुए पदार्थ, वात, पित्त आदि प्रकृतिके विकार, दैनिक और जल प्रधान प्रदेश स्वप्न में कारण होते हैं । सुख निद्रा आनेसे पुण्य रूप और सुख निद्रा न आने से पाप रूप स्वप्न दिखाई देते हैं। वास्तवमें स्वप्न सर्वथा अवरतु नहीं हैं । ३. तीर्थंकरकी माताके १६ स्वप्न म.पू./१२/१५६-१६९ देखि महाद पुत्रो भाग समस्तभुवनज्यैष्ठी महादर्शनात् १२३४ सिहेनानवमीयset दाम्ना सद्धर्मतो वृद्ध भासी मेरो ॥१५६॥ पूर्णेन्दुना जनादी भास्वता भारतरणतिः । कुम्भाभ्यां निधिभागी स्यात् सुखी मत्स्ययुगेक्षणात् । १५७१ सरसा लक्षणोद्भासी सोऽन्धिना केवली भवेद । सिंहासनेन साम्राज्यम् अवाप्स्यति जगदगुरु १९६१ मानवलोकेन स्वतरिष्यति। फशीभवतालोकात् सोऽधिज्ञानलोचनः । १५६ गुणानामाकर प्रोद्यइनराशिनियामनाथ । कर्मे धनधनदेव निघूमने वृषभाकारमादाय भवत्यास्य प्रवेशनात् । त्वद्गर्भे वृषभो देव' स्वमाधोति निर्मले । १६१६ ( नाभिराम मरदेवी से कहते है ) हे देवी! सुन, १. हाथो के देखनेसे उत्तम पुत्र होगा, २. उत्तम बैल के देखने से समस्त लोक में ज्येष्ठ, ३, सिंह के देखनेसे अनन्त बल से युक्त, ४. मालाओंके देखने से समीचीन धर्मका प्रवर्तक देखनेसे सुमेरु पर्वत मस्तक पर देवोंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त, ६. पूर्ण चन्द्रमाको देखने से लोगों को आनन्द देनेवाला, ७. सूर्यको देखनेसे देदीप्यमान प्रभाका धारक; ८. दो कलश युगल देखनेसे अनेक निधिको प्राप्त, और ६. मछलियों का युगल देखनेसे सुखी होगा । १५३-१५७ १०, सरोवरको देखनेसे अनेक लक्षणोंसे शोभित ११ समुद्रको देखने से केवली और, १२. सिहासन देखने से जगद्गुरु होकर साम्राज्य प्राप्त करेगा । १६८ । १३. देवोंका विमान देखने से स्वर्ग मे अवतीर्ण, १४ नागेन्द्रका भवन देखनेसे अज्ञान युक्त, १५. चमकते रत्नोंकी राशि देखने से खान, १६. निम अग्नि देखनेसे कर्मरूपी ईंधनको जलाने वाला होगा ।१११-१६०॥ सुम्हारे मुखमें वृषभने प्रवेश किया है इसलिए तुम्हारे गर्भ में वृषभदेव प्रवेश करेंगे । ६६१३ स्वप्न ४. चक्रवर्तीकी माता के ६ स्वप्नोंका फल म.पू./१५/१२३-१२६ देवि पुत्रमास गिरीन्द्राय चक्रवर्तिनम्। तस्य प्रतापितामर्क शास्तीः कान्तिसंपदम् १२३॥ सरोजा असौ पङ्कजवासिनीम् । वोढा व्यूढोरसा पुण्यलक्षणाङ्कितविग्रहः ॥ १२४॥ महीनतः कृत्स्नां महीं सागरवास प्रतिपालयता देखि विश्वरा तव पुत्रकः | १२३ | सागराचरमाशोऽसी तरिता जन्मसागरम्। ज्यायान्पुत्रशतस्यायम् इक्ष्वाकुकुलनन्दनः । १२६ । = ( भगवान् ऋषभ देव यशस्वती के स्वप्नोंका फल कहते है ) हे देवी! सुमेरु पर्वत देखने से तेरे चक्रवर्ती पुत्र होगा। सूर्य उसके प्रतापको और चन्द्रमा उसकी कान्तिको सूचित कर रहा है । १२३ । सरोबरके देखनेसे पवित्र लक्षणों से युक्त शरीर वाला होकर अपने विस्तृत वक्षस्थल पर लक्ष्मीको धारण करेगा | १२४ । पृथ्वीका ग्रसा जाना देखनेसे चक्रवर्ती होकर समस्त पृथ्वीका पालन करेगा । १२५ । और समुद्र देखनेसे चरमवारीरी होवर संसार समुद्रको पार करेगा। इसके अतिरिक्तवंशको आनन्द देनेवाला वह पुत्र तेरे १०० पुत्रो मे ज्येष्ठ होगा । १२६ । ५. नारायणकी माताके सात स्वप्न ह. ३५/१२-१२वालामुच्चे सुरध्वर्ज रममरीचि चक्रम् । मृगाधिपं चाननमादिशन्तं निशाम्य सौम्या बुबुधे कम्पा १३ अपूर्व विलोकनासा सविस्मया दृष्टतनूरुहाता। जगौ प्रभाते कृतमङ्गलाङ्गा समेत्य पत्येऽभिदधे स विद्वान् | १४ | प्रतापविध्वस्तरिपुः शुतस्ते प्रियोऽतिसौभाग्यसुतोऽभिषेक दिनो तोर्यातिरुषिः स्थिरोऽभविष्यति क्षिप्रमिनो जगत्याः ॥ १३३ (सुदेव अपनी रानी देवकीसे कृष्णा के गर्भ से पूर्व ले गये स्वा फल कहते हैं ) - हे प्रिये। जो समस्त पृथ्वीका स्वामी होगा ऐसा तेरे पुत्र होगा। १ सूर्य देखनेसे शत्रु विध्वसक प्रतापसे युक्त होगा, २. चन्द्रमाको देखने से सबका प्रिय होगा, ३. दिग्गजों द्वारा लक्ष्मीका अभिषेक देखने सीमावासी एवं राज्याभिषेकसे युक्त होगा, ४. आकाशसे नीचे आता विमान देखने से होगा, ५. देदीप्यमान अग्नि देखनेसे अत्यन्त कान्ति से युक्त होगा, ६. रत्नराशिकी किरण प्रकृतिका होगा ७ मुखमें प्रवेश करता सिंह देखने से निर्भय होगा । १२-१६॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न स्वभाव ६. भरत चक्रवर्तीके १६ स्वप्नम.पु./११/६३-७६ । प्रमाण श्लो.सं. स्वप्न फल यह फल प्रकट होता है कि जिसका सुमेरु पर अभिषेक हुआ है, ऐसा देव ( ऋषभ भगवान् ) अवश्य आज हमारे घरमें आवेगा ।४०। और ये अन्य स्वप्न भी उन्हींके गुणों को सूचित करते हैं ।४१॥ स्वप्नातिचार-दे. अतिचार/३ । स्वभाव-वस्तुके स्वयंसिद्ध, तर्कागोचर, नित्य शुद्ध अंशका नाम स्वभाव है । वह दो प्रकारके होते हैं-वस्तुभूत और आपेक्षिक । तहाँ वस्तुभूत स्वभाव दो प्रकार के हैं-सामान्य व विशेष । सहभावी गुण सामान्य स्वभाव है और क्रमभावी पर्याय, विशेष स्वभाव है। आपेक्षिक स्वभाव अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि विरोधी धर्मों के रूपमें अनन्त हैं, जिनकी सिद्धि स्याद्वाद रूप सप्तभंगी द्वारा होती है। इन्हींके कारण वस्तु अनेकान्त स्वरूप है। समूह " पर्वत पर २३ सिंह वीरके अतिरिक्त २३ तीर्थ करोंके समय दुष्ट नयोंकी उत्पत्तिका अभाव | सिंहके साथ हिरणों का | वोरके तीर्थ में अनेकों कुलि गियोंकी उत्पत्ति बड़े बोझसे झुकी पीठवाला | पंचम कालमें तपश्चरणके घोड़ा समस्त गुणोंसे रहित साधु होंगे शुष्क पत्ते खानेवाले बकरों- आगामी कालमें दुराचारी का समूह मनुष्यों की उत्पत्ति हाथीके ऊपर बैठे बानर क्षत्रिय वंश नष्ट हो जायेंगे अन्य पक्षियों द्वारा त्रास धर्मको इच्छासे मनुष्य अन्य किया हुआ उलूक मतके साधुओं के पास जायेंगे आनन्द करते भूत व्यन्तर देवों की पूजा होगी मध्य भाग में सूखा हुआ | आर्य खण्डमें धर्म का अभाव तालाब मलिन रत्नराशि ऋद्धि धारी मुनियों का अभाव कुत्तका नैवेद्य आदिसे गुणी पात्रोंके समान अवती सत्कार करना ब्राह्मणोंका सत्कार होगा जवान बैल तरुण अवस्थामें ही मुनिपद होगा मण्डलसे युक्त चन्द्रमा अवधि व मनःपर्यय ज्ञानका अभाव होगा शोभा नष्ट दो बैल एकाकी विहारका अभाव होगा मेघोंसे आवृत सूर्य केवलज्ञानका अभाव होगा | छाया रहित सूखा वृक्ष खो-पुरुषोंका चारित्र भ्रष्ट होगा | जीर्ण पत्तोंका समूह महौषधियोंका रस नष्ट होगा * * * स्वभावके भेद लक्षण व विभाजन स्वभाव सामान्यका लक्षण । १.स्वभावका निरुक्तयर्थ । २. स्वभावका अर्थ अन्तरंग भाव । ३. स्वभावका लक्षण गुण पर्यायों में अन्वय परिणाम । ४. स्त्रभाव व शक्तिके एकार्थवाची नाम । स्वभाव सामान्यके भेद । सामान्य व विशेष स्वभावोंके भेद । प्रत्येक द्रव्यके स्वभाव -दे, वह-वह द्रव्य। जीव पुद्गलका ऊर्ध्व अधोगति स्वभाव -दे. गति/१/३-६॥ वस्तुमें अनेकों विरोधी धर्मोंका निर्देश -दे. अनेकान्त/४। * | जीवके क्षायोपशमिकादि स्वभाव -दे, भाव तथा वह-वह नाम । वस्तुमें अनन्तों धर्म होते हैं -दे,गुण/३/९-११ । उपचरित स्वभावके भेद व लक्षण । प्रत्येक द्रव्यमें स्वभावोंका निर्देश । वस्तुमें कल्पित व वरतुभूत धर्मोका निर्देश स्वभाव व शक्ति निर्देश स्वभाव परकी अपेक्षा नहीं रखता। स्वभावमें तर्क नहीं चलता। शक्ति व व्यक्तिकी परोक्षता प्रत्यक्षता । शक्तिका व्यक्त होना आवश्यक नहीं-दे. भव्य/३/३ । अशुद्ध अवस्थामें स्वभावकी शक्तिका अभाव रहता है -दे. अगुरुलधु। स्वभाव या धर्म अपेक्षाकृत होते हैं। गुणको स्वभाव कह सकते हैं पर स्वभावको गुण नहीं। धर्मोंकी सापेक्षताको न माने सो अज्ञानी । स्वभाव अनन्त चतुष्टय -दे, चतुष्टय। स्वभाव विभाव सम्बन्धी -दे, विभाव। खभाव व विभाव पर्याय -दे. पर्याय/३। वस्तु स्वभावके भानका सम्यग्दर्शनमें स्थान -दे. सम्यग्दर्शन/II/३1 m * * ७. राजा श्रेयांसके सात स्वप्न म. पु./२०/३४-४० सुमेरुमैक्षतोत्तुङ्ग हिरण्मयमहातनुम् । कल्पद्रुमं च शाखाग्रलम्बि भूषणभूषितम् ॥३४॥ सिहं संहारसन्ध्याभकेसरोदधुरकन्धरम् । शृङ्गाग्रलग्नमृत्स्नं च वृषभं कूलमुद्रुजम् ॥३५॥ सूर्येन्दू भुवनस्यैव नयने प्रस्फुरदय ती। सरस्वन्तमपि प्रोच्चैरूचि रत्नाचितार्ण सम् ।३६। अष्टमङ्गलधारीणि भूतरूपाणि चाग्रतः। सोऽपश्यद् भगवत्पाददर्शन कफलानिमार ३७१ सप्रश्रयमासाद्य प्रभाते प्रीतमानसः । सोमप्रभाय तान् स्वप्नान् यथादृष्टं न्यवेदयत् ३८। ततः पुरोधाः कल्याण' फलं तेषामभाषत। प्रसरहशनज्योत्स्नाप्रधौतककुबन्तरः।३१। मेरुसंदर्शना वो यो मेरुरिव सुन्नतः। मेरौ प्राप्ताभिषेकः स गृहमेष्यति नः स्फुटम् ॥४०॥ - राजा श्रेयांसने भगवान्को आहारदानसे पूर्व प्रथम स्वप्न में सुमेरु पर्वत देखा। फिर क्रमसे आभूषणोंसे सुशोभित कल्पवृक्ष, किनारा उखाड़ता हुआ बैल, सूर्य-चन्द्रमा, लहरों और रत्नोंसे सुशोभित समुद्र, और सातवें स्वप्नमें अष्ट मंगल द्रव्य लिये हुए व्यन्तर देवोंकी मूर्तियाँ देखी ३४-३७। मेरुके देख नेसे * * * * भा०४-६४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव १. स्वभावके भेद लक्षण व विभाजन १. स्वभाव सामान्यका लक्षण १. सभाका निरुक्ति अर्थ रा.मा./७/१२/२/५३६/८ स्वेनात्मना असाधारणेन धर्मेन भवनं स्वभाव इत्युच्यते । स्व अर्थात् अपने असाधारण धर्मके द्वारा होना सो स्वभाव कहा जाता है। स. सा. / आ./७१ स्वस्य भवनं तु स्वभावः । 'स्व' का भवन अर्थात् होना वह स्वभाव है। का. अ./ /४०८ घम्मी मरसहायो यस्तु स्वभावको धर्म कहते हैं। भाव संग्रह / ३७३) स. अनु. २३ वस्तुस्वरूपं हि प्राहु हो महर्षियोंने धर्म कहा है। स.श./टी./१/२२६/१८ स्वसंवेद्यो निरुपाधिकं हि रूपं वस्तुतः स्वमानोऽभिधीयते। स्वसंवेद्य निरुपाधिक हो वस्तुका स्वरूप है. वही वस्तुका स्वभाव है । २. स्वभावका लक्षण अन्तरंग भाव क. पा. १ / ४,२२ / ६६२३ / ३८७/३ को सहावो । = अन्तरंग कारणको स्वभाव कहते हैं । महर्षयः ॥५३॥ रूपको - अन्तरङ्गकारणं । घ. ७/२,४,४ / २३८ /७ को सहावो णाम । अभंतरभावो । = आभ्यन्तर भावको स्वभाव कहते हैं (अर्थात वस्तु या वस्तुस्थितिकी उस अवस्थाको उसका स्वभाव कहते हैं जो उसका भीतरी गुण है और माह्य परिस्थिति पर अवलम्बित नहीं है) ३. स्वभावका लक्षण गुण पर्यायोंमें अन्वय परिणाम प्र. सा./त.प्र./१२.११ स्वभावोऽस्तिस्वसामान्यान्यथः २६५० स्वभावस्तु द्रव्यस्य धौव्योत्पादोच्छेदे क्यात्मक परिणामः ॥ द्रव्यका स्वभाव वह अस्तित्व सामान्य रूप अन्वय है | १५| स्वभाव द्रव्यका धौव्यउत्पादविनाशकी एकता स्वरूप परिणाम है | हा प्र. सा./ता.वृ./८७/११०/१२ द्रव्यस्य कः स्वभाव इति पृष्टे गुणपर्यायाणामात्मा एव स्वभाव इति । प्रश्न- द्रव्यका क्या स्वभाव है ! उत्तर- गुण पर्यायोंकी आत्मा ही स्वभाव है । ४. स्वभाव व शक्ति के कार्यवाची नाम - दे. तत्व/१/१ तत्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, परमपरम, ध्येय, शुद्ध और परम ये सब एकार्थवाची हैं। दे. प्रकृति बन्ध १/१ प्रकृति, शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण तथा शील व आकृति एकार्थ वापी हैं। २. स्वभाव सामान्यके भेद न. च. बृ / ५६ को उत्थानका स्वभावाद्विविधाः -- सामान्या विशेषाश्च । भाव दो प्रकार है- सामान्य, विशेष (पं. ध. पू. /२००) १. स्वभावके भेद लक्षण व विभाजन ५०६ का. अ./३१२ पं. जयचन्द - वे धर्म (स्वभाव) अस्तित्व, नास्तित्व, एकरव अनेकर, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदव, अभेदत्व, अपेक्षाव, अनपेक्षत्व, साध्यख पौषसाध्यत्व हेतुसाल आगम साध्यत्व अन्तर गरम बहिरंगर, इत्यादि तो सामान्य है। बहूरियन पर्यायव जीवरण, अजीवत्व स्पर्शत्व, रसस्य, गन्धर, वर्ण, शदश्य, शुद्ध अमूर्त अमूर्त व संसारित्व सिद्धत्व अवगाहत्य गति हेतुत्व, स्थिति हेतुत्व, वर्तनादेस्य इस्यादि विशेष धर्म है। , " ३. सामान्य व विशेष स्वभावोंके भेद " न. . ./५१-६० अथिति परिचिचं अश्विमे बगेगमेदिदर भव्वा भव्वं परमं सामण्णं सव्वदव्वाणं | ५६| चेदणमचेदणं पिहु मुत्तममुत्तं च एगबहुदे । सुद्वासुद्वविभावं उवयरियं होइ कस्सेव |६०1- अस्तित्व नास्तित्व, नित्य, अनिष्य, एक, अनेक, भेद, मेद, भव्य, अभव्य और परम । ये ११ सर्व द्रव्यों के सामान्य स्वभाव चेतन अचेतन सूर्त, अमूर्त एकप्रदेशी, बहुप्रवेशी, शुद्ध, अशुद्ध, विभाव और उपचरित ये १० स्वभाव द्रव्योंके विशेष स्वभाव हैं । [ इस प्रकार कुल २१ सामान्य व विशेष स्वभाव हैं । (न.च.वृ./ ७० ) ] ( १/४), (न../६१) " ४. उपचरित स्वभावके भेद व लक्षण , आ. प. ६ स्वभावस्याप्यश्यत्रोपचारादुपचरितस्वभावः स द्वेधा-कर्मअस्वाभाविकभेदात् यथा जीवस्य मूर्तश्यमचे सभ्यत्वं यथा सिद्धामी परशता परदर्शकत्वं च एवमितरेषां द्रव्याणामुपचारो यथासंभयो ज्ञेयः । = स्वभावका भी अन्यत्र उपचार करनेसे उपचारित स्वभाव होता है वह उपचरित स्वभाव कर्म और स्वाभाविक भेदसे दो प्रकारका है। जैसे जीवका मूर्तत्व और अचेतनत्व कर्मजस्वभाव है। और fatar vrat देखना, परको जानना स्वाभाविक स्वभाव है । इस प्रकार दूसरे द्रव्योंका उपचार भी यथासम्भव जानना चाहिए । दे. पारिणामिक / २ अस्तित्व, अन्यस्व कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व अनादिसन्तति मन्धर, प्रदेशवस्य अरूप नित्यश्व , , आदि भाव च शब्दसे समुच्चय किये गये हैं । स.सा.///४० शक्तियाँ जीव द्रव्यमें ४० शक्तियों का नाम निर्देश किया गया है, यथा-१, जीवख २. चितिशक्ति, ३. दृशिशक्ति, ४ ज्ञानशक्ति, ५. सुखशक्ति, ६. दीर्यशक्ति, ७ प्रभुत्व, विधुव १. सर्वदक्षिण १०. सर्वज्ञव, ११. स्वच्छत्व १२. प्रकाशशक्ति, १३. असंकुचितविकाशत्व १४. अकार्यकारण, १५. परिणम्य. परिणामकरण १६. त्यागोपादानशून्यत्व, १७. अगुरुलघुख, १८. उत्पादन १६. परिणाम २०. अमूर्त २१. अ. २२. अभोक्तृत्व, २३. निष्क्रियत्व, २४, नियतप्रदेशत्व, २५. सर्वधर्म२४. साधारणासाधारणधर्मत्व २०. अधर्म २८ विरुद्धधर्म २१ १० ३९.३२. अनेकत्व, २३ भावशक्ति ३४ अभामशक्ति २५. भाषाभागशक्ति, ३६. अभावभावशक्ति, ३७. भावभावशक्ति, ३८. अभावभावशक्ति, २१. भावशक्ति, ४० कियक्ति ४१ कर्माति ४२. शक्ति, ४२. करणशक्ति ४४ सम्प्रदानशक्ति ४५ अपादानशक्ति, ४६ अधिकरणशक्ति, ४७ सम्बन्धशक्ति । " " 1 " ५. प्रत्येक द्रव्य में स्वभावों का निर्देश न च बृ./७० इगवीसं तु सहावा दोण्डं तिण्डं तु सोडसा भणिया । पंचदसा पुर्ण काले दव्वसहावा य णायव्वा ॥७०॥ = जीवपुद्गल के २१ स्वभाव हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यके १६ स्वभाव कहे गये हैं। तथा काल द्रव्यके १५ स्वभाव जानना चाहिए। 1 स. सा. / पं. जयचन्द / आ./क. २ वस्तुमें अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशस्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तिकरव, अमूर्तिकत्व इत्यादि तो गुण हैं।...एक अनेकरम, नित्य, अभियस्य मेदरव अभेदल शुद्धत्व अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं। वे सामान्य रूप तो बचन के गोचर हैं, किन्तु अन्य विशेष रूप धर्म वचनके विषय नहीं है। किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं। आत्मा भी एक वस्तु है उसमें भी अनन्त धर्म है। स. सा. / पं. जयचन्द / ४०४ आत्मामें अनन्तधर्म है, कितने तो छद्मस्थ के अनुभव गोचर ही नहीं है. कितने ही धर्म अनुभव गोचर हैं। कितने हो तो अस्तित्व, वस्तुरन प्रमेयस्यादि तो अन्य द्रव्योंके साथ सामान्य और कितने ही पर द्रव्यके निमित्तसे हुए हैं । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव स्वयंबुद्ध दे. स्वभाव/१/६ सप्तभंगीके विषयभूत अस्तित्व नास्तित्व आदि धर्म वस्तु में कल्पित हैं। ६. वस्तुमें कल्पित व वस्तुभूत धर्मोंका निर्देश श्लो. वा. २/१/७/६/२६/२७ कल्पितानां वस्तुभूतानां च धर्माणां वस्तुनि यथाप्रमाणोपपन्नत्वात्। वस्तुमें प्रमाणों की उत्पत्तिका अतिक्रम नहीं करके कतिपत, अस्ति, नास्ति आदि सप्तभंगीके विषयभूत धर्मोंकी और वस्तुभूत वस्तुत्व, द्रव्यत्व, ज्ञान, सुख, रूप, रस आदि धर्मों की सिद्धि हो रही है। २. स्वभाव व शक्ति निर्देश १. स्वभाव परकी अपेक्षा नहीं रखता न्या. वि/टी./१/१३६/४८८ पर प्रमाण वार्तिकसे उधृत-अर्थान्तरानपेक्षत्वा स स्वभावोऽनुवर्णितः।-दूसरे पदार्थ की अपेक्षा न होनेसे वह स्वभाव कहा गया है। स. सा. आ./११६ न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्त मन्येन पार्यते ।...न हि बस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते। - (वस्तुमें) जो शक्ति स्वतन हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। वस्तुकी शक्तियाँ परकी अपेक्षा नहीं रखती। प्र. सा./त. प्र./१६,६६,६८ स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वात ११६। स्वभावः तत्पुनरन्यसाधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततया हेतुकयैकरूपया ...1६६। सर्व द्रव्याणां स्वभाव सिद्धत्वात् स्वभाव सिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनवात् । अनादि निधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते॥१८-स्वभावपरसे अनपेक्ष है ॥१६॥ स्वभाव अन्य साधनसे निरपेक्ष होनेके कारण अनादि अनन्त होनेसे तथा अहेतुक, एकरूप वृत्तिसे... हि६। वास्तव में सर्व द्रव्य स्वभाव सिद्ध हैं । स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनतासे है, क्योंकि अनादिनिधन साधनान्तरकी अपेक्षा नहीं रखता १८ २. स्वभावमें तर्क नहीं चलता ध. १/१,१,२२/१६६/२ न हि स्वभावाः परपर्यानुयोगाः । -स्वभाव दूसरोंके प्रश्नों के योग्य नहीं हुआ करते हैं । (ध.४/४,१,४४/१२१/२), (और भी दे. आगम/६/३)। ध.१/१,६,७८/५६/७ ण च सहावे जुत्तिवादस्स पवेसो अस्थि । -स्वभावमें युक्तिवादका प्रवेश नहीं है। गो. जी /जी. प्र./१८४/४१६/२० स्वभावोऽतर्कगोचरः इति समस्त वादिसं मतत्वात् । स्वभावमें तर्क नहीं चलता. ऐसा समस्तवादी मानते हैं (श्लो. वा. २/भाषा/१/६/३८/३६३/१२); (पं.ध/3/५३,४८८)। ३. शक्ति व व्यक्तिकी परोक्षता प्रत्यक्षता न्या. वि./वृ./२/१८/३७ पर उधृत-शक्तिः कार्यानुमेया हि व्यक्तिदर्शनहेतुका । शक्तिका कार्य परसे अनुमान किया जाता है और व्यक्तिका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। ४. स्वभाव या धर्म अपेक्षा कृत होते हैं स्था. म./२४/२८६/२१ नन्वेते धर्माः परस्पर विरुद्धाः तत्कथमेकत्र वस्तुन्यैषा समावेशः संभवति ।...उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकाराः तेषां भेदो नानात्वम्, तेनोपहितमपितम् । असत्त्वस्य विशेषणमेतत् । उपाधिभेदोपहितं सदर्थेष्वसत्त्वं न विरुद्धम् । - प्रश्न--अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव ये किसी वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते। उत्तर--वास्तव में अस्तित्वादिमें विरोध नहीं है। क्योंकि अस्तित्वादि किसी अपेक्षासे स्वीकार किये गये हैं। पदार्थों में अस्तित्व, नास्तित्वादि नानाधर्म विद्यमान हैं। जिस समय हम पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध करते हैं, उस समय अस्तित्व धर्मकी प्रधानता और अन्य धर्म की गौणता रहती है। अतएव अस्तित्व, नास्तित्व धर्म में परस्पर विरोध नहीं है। ५. गुणको स्वभाव कह सकते हैं पर स्वभावको गुण नहीं आ.प./६ धमपिक्षया स्वभावा गुणा न भवन्ति । स्वद्रव्यचतुष्टयापेक्षया परस्परं गुणा; स्वभावा भवन्ति । धर्मों की अपेक्षा स्वभाव गुण नहीं होते हैं। परन्तु स्व द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा परस्पर गुण स्वभाव होते हैं। ६. धर्मोकी सापेक्षताको न माने सो अज्ञानी न. च. बृ./७४ इति पुन्बुत्ता धम्मा सियसावेवखा ण गेहए जो हु। सो इह मिच्छाइट्ठी णायवो पत्रयणे भणिओ।७४। -जो पूर्वमें कहे हुए धर्मोंको कथंचित् परस्परमें सापेक्ष ग्रहण नहीं करता है वह मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। ऐसा वचनमें कहा है 1७४। स्वभाव नय-दे. नय/I/५/४। स्वभाववाद-मो. क./F/८८३ को करइ कंटयाणं तिक्खत्तं मियविहंगमादीणं विविहत्तं तु सहाओ इदि सब पि य सहाओत्ति 1८८३। काँटेको आदि लेकर जो तीक्ष्ण वस्तु हैं उनके तीक्ष्ण पना 'कौन करता है। तथा मृग और पक्षी आदिकों के अनेकपना कोन करता है। इस प्रश्नका उत्तर मिलता है कि सबमें स्वभाव ही है। ऐसे सबको कारणके बिना स्वभावसे ही मानना (मिथ्या) स्वभाववादका अर्थ है। नि. सा./ता. वृ./१७० ज्ञानं तावज्जीवस्वरूपं भवति, ततो हेतोरखण्डाद्वैतस्वभावनिरतं निरतिशयपरमभावनासनाथ मुक्तिसुन्दरीनाथ बहियवृतकौतूहल निजपरमात्मानं जानाति कश्चिदात्मा भव्यजव इति अयं खलु स्वभाववादः । ज्ञान वास्तवमें जीवका स्वरूप है, उस हेतुसे जो अरवण्ड अद्वैत स्वभावमें लीन है, जो निरतिशय परम भावना सहित है, जो मुक्ति सुन्दरीका नाथ है और माह्यमें जिसने कौतूहल व्यावृत किया है ऐसे निज परमात्माको कोई आरमा-भव्य जीव जानता है। ऐसा वास्तव में (निश्चय) स्वभाववाद है। स्वभावविरुद्धानुपलब्धिहेतु-दे. हेतु । स्वभावानित्य पर्यायाथिक नय-दे, नय/IV/४ | स्वमुखोदय-दे, उदय/१। स्वयंप्रभ-१. भाविकालीन चोथे तीर्थकर-दे. तीर्थंकर/ 1 २.म. पु./सर्ग/श्लोक ऐशान स्वर्गका एक देव था। (8/१८६) यह श्रेयांस राजाका पूर्व का छठा भव है। --दे. श्रेयांस। ३. सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे. सुमेरु । ४. रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/१/१३। स्वयंप्रभा-म. पु./सर्ग/श्लोक स्वर्गमें ललितांगदेव (ऋषभदेवके नवमें भव) की अति प्रिय देवी थी (१/२८६)। यह ललितांगदेयके 'स्वर्गसे च्युत होनेपर अति दुस्खी हुई (६/५०) । अन्तमें पंचपरमेष्ठीके स्मरण पूर्वक स्वर्गसे च्युत हुई (६/५६-५७)। यह श्रेयांस राजाका पूर्वका पाँचवाँ भव है-दे. श्रेयांस । स्वयबुद्ध-१. इस सम्बन्धी विषय--दे. बुद्ध। २.म.पु./सर्ग। श्लोक यह राजा महाबल (ऋषभदेवका पूर्वका नवमा भव) का मन्त्री था (४/१६१) इसने तीन मिथ्यावृष्टि मन्त्रियों द्वारा मिथ्यावादोंकी स्थापना करनेपर उनका खण्डनकर आस्तिक्यभावकी स्थापना की (४६)। एक समय मेरुकी वन्दनार्थ गया (५/१६९) पदहा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंभू ५०८ स्वरूप विपर्यय वहाँ मुनियोंसे राजाको दसवें भवमें मुक्ति जानकर हर्षित हुआ (५/१६८-२००) । आयुका अन्त जानकर राजाका समाधि पूर्वक मरण कराया। (४२२३) अन्तम राजाके वियोगसे दीक्षा ग्रहण कर ली। तथा समाधिपूर्वक स्वर्गमें रत्नचूल देव हुआ (४/१०६)। स्वयंभू-१. म. पु./११/श्लोक पूर्व भव सं. २ में पश्चिम विदेहमें मित्रनन्दी राजा था (६३) पूर्व भवमें अनुत्तर विमानमें अहमिन्द्र था (७०)। वर्तमान भवमें तृतीय नारायण हुए हैं। विशेष परिचय ---दे. शलाकापुरुष/४। २. भाविकालीन उन्नीसवें तीर्थकर हैं। --दे. तीर्थकर/५। ३. योगदर्शनके आद्य प्रवर्तक हिरण्यगर्भका अपर नाम--दे, योगदर्शन । ४. अपभ्रंशके प्रथम कवि हैं। इनके पिताका नाम मारुत देव, और माताका नाम पद्मिनी था। आपका निवास स्थान कर्णाटक अथवा कन्नौज। सेठ धनब्जय अथवा धवलश्या द्वारा रक्षित। कृतिय-पउम चरिउ, रिट्ठणेमि चरिउ स्वयम्भूछन्द, स्वयम्भू व्याकरण, चमि चरिउ, हरिवंश पुराण। समय-ई. ७३८-८४० । (ती./४/६५) । स्वयंभू-१. स्वयंभूका लक्षण निक्षेप/// आचार्यों की अपेक्षा न करके संयमसे उत्पन्न हुए श्रुत ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे स्वयंबुद्ध होते हैं। पं. का./ता. बृ./१५२/२२०/१२ तथा चोक्तम्-श्रीपूज्यपादस्वामिभिनिश्चयध्येयव्याख्यानम् । आत्मानमात्मा आत्मन्येवात्मनासौ क्षणमुपजनयन्सन स्वयंभूः प्रवृत्तः। = श्रीपूज्यपाद स्वामीने भी निश्चय ध्येयका व्याख्यान किया है कि-आत्मा आत्माको आत्मामें आत्माके द्वारा उस आत्माको एक क्षण धारण करता हुआ स्वयं हो जाता है। प्र. सा./त.प्र./१६ स्वयमेव षट् कारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिउग्रपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नधातिकर्माण्यपास्य स्वमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते। -स्वयं ही षट्कारक रूप होता है, इसलिए वह स्वयंभू कहलाता है। अथवा अनादि कालसे अतिदृढ बँधे हुए द्रव्य तथा भाव घाति कमाँको नष्ट करके स्वयमेव आविर्भत हुआ है, अर्थात किसीकी सहायताके बिना अपने आप ही स्वयं प्रगट हुआ इसलिए स्वयंभू कहलाता है। स्या. म./१/९/३ स्वयम्-आत्मनैव, परोपदेशनिरपेक्षतयावगततत्त्वो भवतितीति स्वयंभूः-स्वयंसंबुद्धः। -जिसने दूसरेके उपदेशके विना स्वयं ही तत्त्वोंको जान लिया है. वह स्वयभू कहलाता है। स्व. स्तो./टी./१ स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमबबुद्धय अनुष्ठाय वा अनन्तं भवतीति स्वयंभूः । स्वयं ही बिना किसी दूसरेके उपदेशके मोक्षमार्गको जानकर तथा उसका अनुष्ठान करके आत्मविकासको प्राप्त हुए थे, इसलिए स्वयम्भू थे। *जीवको स्वयम्भू कहनेकी विवक्षा-दे, जीव/१/३। स्वयंभू छन्द-कवि स्वयम्भू (ई ७३४-८४०)कृत ८ अध्यायों वाला अपभ्रंश छन्द शास्त्र । (ती./४/१०१)। स्वयंभूरमण--१. मध्यलोकका अन्तिम सागर व द्वीप-दे, लोक /४/८। २. स्वयम्भूरमण द्वीप व समुदका लोकमें अरस्थान व विस्तार-दे. लोक/२/११। ३. इस द्वीप व समुद्रमें काल वर्तन आदि सम्बन्धी विशेषताएं-दे. काल/४/१५ । स्वयंभूस्तोत्र-आ, समन्तभद्र (ई. श.२) कृत यह ग्रन्थ संस्कृत छन्दोंमें रचा गया है। इसमें २४ तीर्थंकरोंका स्तवन किया है, और बह भी न्यायपूर्वक अनेकान्तकी स्थापना करते हुए । २, ३ के अतिरिक्त सभी तीर्थंकरों के स्तवनमें ५,५ श्लोक हैं । कुल श्लोक १४३ हैं। स्वयंशोधातिचार-दे, अतिचार/३ । स्वर-१. स्वरनामकर्म निर्देश स. सि./८/११/३११/१२ यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत्सुस्वरनाम । तद्विपरीत दुःस्वरनाम। -जिसके निमित्तसे मनोज्ञ स्वरकी रचना होती है वह सुस्वर नामकर्म है। इससे विपरीत दुःस्वर नामकर्म है। (रा.वा./८/१२२५-२६/५७६/१); (ध ६/१.६-१,२८/६५/३); (गो क./जी.प्र/३३/३०/६)। घ. १३/५ ५.१०१/३६६/१ जस्स कम्मस्मुदएण कण्णसुहो सरो होदित सुस्सरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण खरोट्टाणं व कण्णमूहो सरोण होदि तं दुस्सरणामं ।-जिस कर्म के उदयसे कानों को प्यारा लगनेवाला स्वर होता है वह सुस्वर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे गधा एवं ऊँटके समान कोंको प्रिय लगनेवाला स्वर नहीं होता है वह दुःस्वर नामकर्म है। २. षड्ज आदि स्वर निर्देश का. अ./टी./१८६/१२३/१ निषादर्ष भगान्धारषड्जमध्यमधैवताः । पञ्चमश्चै ति सप्तैते तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः ।। कण्ठदेशे स्थितः षड्जः शिरःस्थ ऋषभस्तथा। नासिकायां च गान्धारो हृदये मध्यमो भवेत् ।। पञ्चमश्च मुखे ज्ञेयस्तालुदेशे तु धैवतः। निषादः सर्वगात्रे च ज्ञयाः सप्तस्वरा इति ।। निषादं कुब्जरो वक्ति ते गौ ऋषभं तथा। अजा वदति गान्धारं षड्ज व ते भुजङ्गभुक् ।४। ब्रवीति मध्यमं क्रौठचो धैवतं च तुरंगमः। पुष्पसंधारणे काले पिकः कूजति पञ्चमम् ॥ -निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम ये सात स्वर तन्त्री रूप कण्ठसे उत्पन्न होते हैं ।१। जो स्वर कण्ठ देशमें स्थित होता है, उसे षड्ज कहते हैं । जो स्वर शिरोदेशमें स्थित होता है उसे ऋषभ कहते हैं । जो स्वर नासिका देशमें स्थित होता है उसे गान्धार कहते हैं। जो स्वर हृदय देशमें स्थित होता है उसे मध्यम कहते हैं ।२। मुख देशमें स्थित स्वरको पंचम कहते हैं। तालु देश में स्थित स्वरको धैवत कहते हैं और सर्व शरीरमें स्थित स्वरको निषाद कहते हैं। इस तरह ये सात स्वर जानने चाहिए।३। हाथीका स्वर निषाद है। गौका स्वर वृषभ है। बकरीका स्वर गान्धार है और गरुड़का स्वर षड्ज है । क्रौंच पक्षीका शब्द मध्यम है। अश्वका स्वर धैवत है और वसन्त ऋतुमें कोयल पंचम स्वरसे कूजती हैं। * अन्य सम्बन्धित विषय १. स्वरोंकी अपेक्षा अक्षरके भेद-प्रभेद । -दे. अक्षर। २. सुस्त्रर दु:स्वर नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियम व शंकासमाधानादि। -दे. वह वह नाम । ३. विकलेन्द्रियमें दुःस्वर ही होता है तथा तत्सम्बन्धी शंका-समाधान। -दे. उदय/५/४। स्वर निमित्त ज्ञान-दे. निमित्त/२ । स्वरूप-भूत जातिके व्यन्तर देवोंकाइन्द्र । दे. भूत व्यन्तर/२/१ । स्वरूप यक्ष-यक्ष जातिके व्यन्तर देवौंका एक भेद-दे, यक्ष । स्वरूप विपर्यय विपर्यय। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूप संबोधन ५०९ स्वरूप संबोधन-१. आ अकलंक भट्ट (ई. ६२०-६८०) कृत २५ श्लोक प्रमाण आध्यात्मिक ग्रन्थ, जिस पर नयसेन के शिष्य महासेन (वि.श ७-८)। (जै/२/१८)। २. शुभचन्द्र (ई. १५१६-१५५६) कृत। (दे. शुभचन्द्र)। स्वरूपाचरण चारित्र--असंयतादि गुणस्थानों में सम्यक्त्वके कारण परिणामों में जो निर्मलता या आंशिक साम्यता जागृत होती है, उसीको आगममें स्वरूपाचरण या सम्यक्त्व चारित्र कहते हैं। मोक्षमार्ग में इसका प्रधान स्थान है। व्रतादि रूप चारित्रमें इसके साथ वर्तते हुए ही सार्थक है अन्यथा नही। स्वर्ग- देवोंके चार भेदोंमें एक वैमानिक देव नामका भेद है। ये लोग ऊप्रलोकके स्वर्ग विमानों में रहते हैं तथा बड़ी विभूति व ऋद्धि आदिको धारण करनेवाले होते हैं । स्वर्गके दो विभाग हैं- कल्प व कल्पातीत । इन्द्र सामानिक आदि रूप कल्पना भेद युक्त देव जहाँ तक रहते हैं उसे कल्प कहते हैं । वे १६ हैं। इनमें रहनेवाले देव कल्पवासी कहलाते हैं । इसके ऊपर इन सत्र कलानाओंसे अतीत, समान ऐश्वर्य आदि प्राप्त अहमिन्द संज्ञावाले देव रहते हैं। वह कल्पातीत है। उनके रहनेका सब स्थान स्वर्ग कहलाता है। इसमें इन्द्रक व. श्रेणी. बद्ध आदि विमानोंकी रचना है। इनके अतिरिक्त भी उनके पास घूमने फिरनेको विमान है, इसीलिए वैमानिक संज्ञा भी प्राप्त है। बहुत अधिक पुण्यशाली जीव वहाँ जन्म लेते हैं, और सागरोंकी आयु पर्यन्त दुर्लभ भोग भोगते हैं। 7 १. स्वरूपाचरण चारित्र निर्देश चा. पा./मू./८ तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय। जं चरइ णाणजुत्तं पढ़मं सम्मत्तचरणचारित्तं । =निःशंकित आदि गुणोंसे विशुद्र अरहन्त जिनदेवकी श्राद्ध होकर, यथार्थ ज्ञान सहित आचरण कर सो प्रथम स्वरूपाचरण चारित्र है। सो यह मोक्षमार्ग में कारण है ।। पं. ध./उ./७६४ कर्मादानक्रियारोधः स्वरूपाचरणं च यत् । धर्म: शुद्धोपयोगः स्यात्सैष चारित्रसंज्ञकः ७६४। - जो कर्मों की आसव रूप क्रियाका रोधक है वही स्वरूपाचरण है, वही चारित्र नामधारी है, शुद्धोपयोग है, वही धर्म है। (ला. सं./४/२६३ ) । m * * * * * * २. चारित्रका उदय स्वरूपाचरणमें बाधक नहीं पं.ध./उ./६६०-६६२ कार्य चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मनः । नात्मदृष्टस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत् ।६६०। यथा चक्षुः प्रसन्न वै कस्यचिदैवयोगतः। इतरत्राक्षतापेऽपि दृष्टाध्यक्षन्न तक्षतिः ।६६१। कषायाणामनद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि । नानुद्रेकः कषायाणां चारित्राच्युतिरात्मनः १६६२न्यायसे तो चारित्रसे आत्माको च्युत करना ही चारित्र मोहका कार्य है किन्तु इतरकी दृष्टिके समान शुद्धात्मानुभवसे च्युत करना चारित्र मोहका कार्य नहीं है। जैसे प्रत्यक्षमें दैवयोगसे किसोको आँख में पीड़ा होनेपर भी किसी दूसरे की आँख प्रसन्न भी रह सकती है। वैसे हो चारित्रमोहसे चारित्रगुणमें विकार होनेपर भी शुद्धारमानुभवकी क्षति नहीं।६६१। निश्चयसे जितना कषायोंका अभाव है उतना ही चारित्र है और जो कषायौंका उदय है वही चारित्रसे च्युत होता है।६६२। * * १ । वैमानिक देवोंके भेद व लक्षण वैमानिक व कल्पके लक्षण । कल्प व कल्पातीत रूप मेद व उनके लक्षण । कल्पातीत देव सभी अहमिन्द्र होते हैं। सौधर्म ईशान आदि भेद। -दे. स्वर्ग/१/२। वैमानिक देव सामान्य निर्देश मोक्ष जानेकी योग्यता सम्बन्धी नियम । * मार्गणा व गुणरथान आदि २० प्ररूपणाएँ-दे. सद। | सत् संख्या क्षेत्र आदि आठ प्ररूपणाएँ। -दे. बह-वह नाम । * | अवगाहना व आयु। -दे. बह-वह नाम । सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति। -दे. वह-वह नाम । सम्भव कोका बन्ध उदय सत्व। -दे. वह-वह नाम । जन्म, शरीर, आहार, सुख, दुःख आदि। -दे. देव/II/२। | कहाँ जन्मे और क्या गुण प्राप्त करे। -दे. जन्म/६। ३ / वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश | नाम व संख्या आदिका निर्देश । २ दक्षिण व उत्तर इन्द्रोंका विभाग। ३ | इन्द्रों व देवोंके आहार व श्वासका अन्तराल । * विमानोंके भेद-वैत्रि.यक व स्वाभाविक -दे. विमान। ४ इन्द्रोंके चिह्न व यान विमान । ५ | इन्द्रों व देवोंकी शक्ति व विक्रिया । वैमानिक इन्द्रोंका परिवार । । १. सामानिक आदि देवोंकी अपेक्षा । २. देवियों की अपेक्षा। इन्द्रोंके परिवार देवोंकी देवियों। इन्द्रोंके परिवार, देवोंका परिवार विमान आदि । वैमानिक दवियोंका निर्देश इन्द्रोंकी प्रधान देवियों के नाम । देवियोंकी उत्पत्ति व गमनागमन सम्बन्धी नियम । * * * अन्य सम्बन्धित विषय १. अल्प भूमिकामें भी कथंचित् शुद्धोपयोग रूप स्वरूपाचरण चारित्र अवश्य होता है। -दे. अनुभव/५ । २. निन्दन गर्हण ही अविरत सम्यग्दृष्टिके स्वरूपाचरण चारित्रका चिह्न है। -दे. सम्यग्दृष्टि/५ । ३. स्वरूपाचरण चारित्र ही मोक्षका प्रधान कारण है। -वे चारित्र/२/२६ ४ लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टिको शान चेतना रहती है। -दे. सम्यग्दृष्टि/२। tư . स्वरूपाभाव-दे. अभाव। स्वरूपासिद्ध-दे. असिद्ध । स्वरूपास्तित्व-दे, अस्तित्व। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग ३. वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश उत्तर-नहीं, क्योंकि, पहिले ही कहा जा चुका है कि इन्द्रादि दश प्रकार की कल्पनाके सद्भाबसे ही करप कहलाते हैं। नव प्रैवेयकादिकमें इन्द्रादिकी कल्पना नहीं है, क्योंकि, वे अहमिन्द्र हैं। स्वर्गलोकका निर्देश | स्वर्गलोक सामान्य निर्देश। कल्प व कल्पातीत विभाग निर्देश। स्वर्गामें स्थित पटलोंके नाम व उनमें स्थित इन्द्रक व श्रेणीबद्ध। | श्रेणीबद्धोंके नाम। स्वमें विमानोंकी संख्या । १. बारह इन्द्रोंकी अपेक्षा। २.चौदह इन्द्रों की अपेक्षा। ६ विमानोंके वर्ण व उनका अवस्थान । दक्षिण व उत्तर कल्पोंमें विमानोंका विभाग। दक्षिण व उत्तर इन्द्रोका निश्चित निवास स्थान । इन्द्रोंके निवासभूत विमानोंका परिचय । कल्पविमानों व इन्द्र भवनोंके विस्तारादि । इन्द्र नगरोंका विस्तार आदि । ब्रह्म स्वर्गका लौकान्तिक लोक। --(दे. लौकान्तिक)। (उपरो, अन्वर्थसंज्ञाय सिद्धिप्रसंग २. वैमानिक देव सामान्य निर्देश १. वैमानिक देवों में मोक्षकी योग्यता सम्बन्धी नियम त. सू/४/२६ विजयादिषु द्विचरमाः।२६-विजयादिकमें अर्थात् विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामके अनुत्तर विमानवासी देव द्विचरम देही होते हैं। [ अर्थात् एक मनुष्य व एक देव ऐसे दो भव बीच में लेकर तीसरे भव मोक्ष जायेंगे (दे. चरम)]। स, सि/४/२६/२५७/१ सर्वार्थसिद्धिप्रसंग इति चेत् । न; तेषां परमोत्कृष्टत्वात, अन्वर्थसंज्ञात एकचमरमत्व सिद्धेः। प्रश्न- इस (उपरोक्त सूत्रसे) सर्वार्थसिद्धिका भी ग्रहण प्राप्त होता है ? उत्तरनहीं, क्योंकि, वे परम उत्कृष्ट हैं, उनका सर्वार्थ सिद्धि यह सार्थक नाम है, इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं। अर्थात् अगले भवसे मोक्ष जायेंगे। (रा. वा./४/२६/१/२४४/१८)। दे.लौकान्तिक-[सब लौकान्तिक देव एक भवावतारी हैं। ति. प/८/६७५-६७६ कम्पादीदा दुचरमदेहा हवंति केई सुरा। सक्को सहग्गमहिसी सलोयबालो य दक्षिणा इंदा।६७५। सव्वट्ठसिद्धिवासी लोयंतियणामधेयसबसुरा। णियमा दुचरिमदेहा सेसेसु णत्थि णियमो य।६७६६ - कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरमशरीरी अर्थात् आगामी भवमें मोक्ष प्राप्त करनेवाले हैं। अग्रमहिषी और लोकपालोंसे सहित सौधर्म इन्द्र, सभी दक्षिणेन्द्र, सर्वार्थसिद्धिवासी तथा लौकान्तिक नामक सब देव नियमसे द्विचरम शरीरी हैं। शेष देवों में नियम नहीं है ।६७५-६७६। ३. वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश १. वैमानिक देवोंके भेद व लक्षण १. वैमानिकका लक्षण स. सि/४/१६/२४८/४ विमानेषु भवा वैमानिकाः। = जो विमानों में होते हैं वे वैमानिक हैं । (रा. वा./४/१६/१/२२२/२६)। २. कल्पका लक्षण स सि./४/३/२३८/६ इन्द्रादयः प्रकारा दश एतेषु कल्पयन्त इति कल्पाः । भवनवासिषु तत्कल्पनासंभवेऽपि रूढिवशाद्वैमानिकेष्वेव वर्तते कल्पशब्दः। -जिनमें इन्द्र आदि दस प्रकार कल्पे जाते हैं वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इन्द्रादिकी कल्पना ही कल्प सज्ञाका कारण है। यद्यपि इन्द्रादिकी कल्पना भवनवासियों में भी सम्भव है, फिर भी रूढ़िसे कल्प शब्दका व्यवहार वैमानिकोंमें ही किया जाता है। (रा. वा./४/३/३२१२/८)। ३. कल्प व कल्पातीत रूप भेद व लक्षण त सू/४/१७ कल्पोपपन्नाः करपातीताश्च ॥१७॥ -वे दो प्रकारके हैं कल्पोपपन्न और करपातीत। (विशेष दे, स्वर्ग/३)। स. सि/४/१७/२४८/९ कल्पेषूपपन्नाः कल्पोपपन्नाः कल्पानतीताः कल्पातीताश्च । - जो कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं और जो कल्पोंके परे हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं । (रा. वा/४/१०//२२३/२)। ४. कल्पातीत देव सभी अहमिन्द्र हैं रा. वा/४/१७/१/२२३/४ स्यान्मतम् नवग्रैवेयका नवानुदिशाः पञ्चानत्तराः इति च कल्पनासंभवात तेषामपि च कल्पत्वप्रसङ्ग इति; तन्न कि कारणम् । उक्तत्वात । उक्तमेतव-इन्द्रादिदशतयकल्पनासद्भावाद करपा इति। नवग्रैवेयकादिषु इन्द्रादिकल्पना नास्ति तेषामहमिन्द्रत्वात्। -प्रश्न-नवग्रैवेयक, नव अनुदिश और पंच अनुत्तर इस प्रकार संख्याकृत कल्पना होनेसे उनमें कतपत्वका प्रसंग आता है। १. चैमानिक इन्द्रोंके नाम व संख्या आदिका निर्देश स. सि./११/२५०/३ प्रथमौ सौधर्मेशानकापौ, तयोरुपरि सनत्कुमारमाहेन्द्रौ, तयोरुपरि ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरौ, तयोरुपरि लान्तवकापिष्ठी, तयोरुपरि शुक्रमहाशुक्रौ, तयोरुपरि शतारसहस्रारौ, तयोरुपरि आनतप्राणतो, तयोरुपरि आरणाच्युतौ। अध उपरि च प्रत्येक मिन्द्रसंबन्धो वेदितव्यः। मध्ये तु प्रतिद्वयम् । सौधर्म शानसानत्कुमारमाहेन्द्राणां चतुर्णां चत्वार इन्द्राः । ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोरेको ब्रह्मा नाम । लान्तवकापिष्ठयोरेको लान्तवारव्यः । शुक्रमहाशुक्रयोरेकः शुक्रसञ्ज्ञः। शतारसहस्रारयोरेको शतारनामा। आनतप्राणतारणाच्युतानां चतुणां चत्वारः। एवं कल्पवासिना द्वादश इन्द्रा भवन्ति । -सर्वप्रथम सौधर्म और ऐशान कल्प युगल है। इनके ऊपर क्रमसेसनत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, और आरण अच्युतः ऐसे १६ स्वर्गोके कुल आठ युगल हैं। नीचे और ऊपरके चार-चार कल्पों में प्रत्येकमें एक-एक इन्द्र, मध्यके चार युगलों में दो-दो कल्पोंके अर्थात एक-एक युगलके एक-एक इन्द्र हैं। तात्पर्य यह है, कि सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र इन चार कल्पोके चार इन्द्र हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तर इन दो कल्पोंका एक ब्रह्म नामक इन्द्र है। लान्तव और कापिष्ठ इन दो कल्पोंमें एक लान्तव नामक इन्द्र है। शुक्र और महाशुक्रमें एक शुक्र नामक इन्द्र है। शतार और सहस्रार इन दो कल्पों में एक शतार नामक इन्द्र है। तथा आनत, प्राणत, आरण, अच्युत इन चार कल्पोंके चार इन्द्र हैं। इस प्रकार कल्पवासियोंके १२ इन्द्र होते हैं। (रा. वा./४/१६/६-७/२२६/४); (त्रि. सा./४५२४५४ ): (और भी दे. स्वर्ग/५/२) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग ३. वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश ति.प./८/४५० इदाणं चिण्हाणि पत्ते के ताव जा सहस्सारं । आणद आरणजुगले चोदसठाणेसु बोचछामि ।४५० सौधर्म से लेकर सहस्रार पर्यन्तके १२ कल्पों में प्रत्येक का एक-एक इन्द्र है। तथा आनत, प्राणत और आरण-अच्युत इन दो युगलोंके एक-एक इन्द्र हैं। इस प्रकार चौदह स्थानों में अर्थात चौदह इन्द्रोंके चिह्नोंको कहते है। रा. वा./४/१६/२३३/२१- त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेन्द्रा उक्ताः । इह द्वादशेष्यन्ते पूर्वोक्तेन क्रमेण ब्रह्मोत्तरकापिष्ठमहाशुक्रसहस्रा. रेन्द्राणां दक्षिणेन्द्रानुवृत्तित्वात आनतप्राणतकल्पयोश्च एकैकेन्द्रत्वात् । = ये सब १४ इन्द्र ( दे. स्वर्ग/शह में रा. वा.) लोकानुयोगके उपदेशसे कहे गये हैं। परन्तु यहाँ ( तत्त्वार्थ सूत्रमें) १२ इन्द्र अपेक्षित हैं। क्योंकि १४ इन्द्रोंमें जिनका पृथक् ग्रहण किया गया है ऐसे ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और सहस्रार ये चार इन्द्र अपने-अपने दक्षिणेन्द्रों के अर्थात् ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र और शतारके अनुवर्ती हैं। तथा १४ इन्द्रोंमें युगलरूप ग्रहण करके जिनके केवल दो.इन्द्र माने गये हैं ऐसे आनतादि चार कल्पोंके पृथक्-पृथक् चार इन्द्र हैं। { इस प्रकार १४ इन्द्र व १२ इन्द्र इन दोनों मान्यताओं का समन्वय हो जाता है। २. वैमानिक इन्द्रोंमें दक्षिण व उत्तर इन्द्रोंका विभाग दे. स्वर्ग// में-(ति. प./८/३३६-३५१), (रा.वा./४/१४/८/पृष्ठ/. पंक्ति), (ह. पु./६/१०१-१०२), (ति. सा./४८३) -- १२ इन्द्रों की अपेक्षा १२इन्द्रोंकी अपेक्षा! १४ इन्द्रोंकी अपेक्षा क्र. ति प.व त्रि. सा. दक्षिण उत्तर | ह.पु. रा.वा. दक्षिण | उत्तर दक्षिण । उत्तर ममिददिगिंदे सोमम्मि जयम्मि भोयणावसरो। सामाणियाण ताणं पत्तेक्क पंचवीसदल दिवसा ५५५। - जो देव जितने सांगरोपम काल तक जीवित रहता है उसके उतने ही हजार वर्षों में आहार होता है। पल्य प्रमाण काल तक जीवित रहनेवाले देवके पाँच दिनमें आहार होता है ।५५२। प्रतीन्द्र, सामानिक और त्रयखिंश देवोंके आहारकालका प्रमाण अपने-अपने इन्द्रोंके सदृश है ।५५३इन्द्र आदि चारकी देवियों के भोजनका जो समय है उसके प्रमाणके निरूपणका उपदेश नष्ट हो गया है।५५४। सौधर्म इन्द्रके दिक्पालोंमेंसे सोम व यमके तथा उनके सामानिकों मेंसे प्रत्येकके भोजनका अवसर १२२ दिन है ।५५३॥ दे. देव/II/२-(सभी देवोंको अमृतमयी दिव्य आहार होता है।) ४. इन्द्रोंके चिह्न व यान विमान ति.प./५/८४-१७ का भावार्थ - ( नन्दीश्वरद्वोपकी वन्दनार्थ सौधर्मादिक इन्द्र निम्न प्रकारके यानोंपर आरूढ़ होकर आते हैं। सौधर्मेन्द्र = हाथो; ईशानेन्द्र-वृषभ ; सनत्कुमार-सिह; माहेन्द्रअश्व; ब्रह्मेन्द्र हंस; ब्रह्मोत्तर-क्रौंच; शुक्रन्द्र-चक्रवाक; महाशुक्रेन्द्र तोता; शतारेन्द्र - कोयल; सहस्रारेन्द्र गरुड़ा आनतेन्द्रगरुड़ प्राणतेन्द्र - पद्म विमान; आरणेन्द्र कुमुद विमान; अच्युतेन्द्र - मयूर ।) ति. प./८/४३८-४४० का भावार्थ-[ इन्द्रोंके यान विमान निम्न प्रकार हैं-सौधर्म-बालुका ईशान-पुष्पक; सनत्कुमार-सौमनस; माहेन्द्र-श्रीवृक्षः ब्रह्म सर्वतोभद्र; लान्तव-प्रीतिकर; शुक्र रम्यक शतार मनोहर; आनत-लक्ष्मी; प्राणत मादिन्ति (1); आरणविमल; अच्युत- विमल ] ति. प./८/४४८-४५० का भावार्थ-[१४ इन्द्रवाती मान्यताको अपेक्षा प्रत्येक इन्द्र के क्रमसे निम्न प्रकार मुकुटों में नौ चिह्न हैं जिनसे कि वे पहिचाने जाते हैं-शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, भेक (मेंढक); सर्प, छागल, वृषभ व कल्पतरु ।] ति. प./८/४५१ का भावार्थ-[ दूसरो दृष्टिसे उन्हीं १४ इन्द्रों में क्रमसेशूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, कूर्म, भेक ( मेंढक ), हय, हाथी, चन्द्र, सर्प, गत्रय, छगल, वृषभ और कल्पतरु ये १४ चिह्न मुकुटोंमें होते हैं । (त्रि. सा./४८६-४८७) ५. इन्द्रों व देवोंकी शक्ति व विक्रिया ति.प./८/६६७-६६६ एकपलिदोबमाऊ उप्पाडेदं धराए छक्रवंडे । तग्गद णरतिरियजणे मारे, पोसेदु सक्को ६९७ उब हिउवमाणजीवी पल्लट्ट दुच जंबुदीवं हि। तग्गदणरतिरियाणं मारेदु पोसिदु सक्को ६६८ सोहम्मिदो णियमा जंबुदी समुक्खिवदि एवं । केई आइरिया इय सत्तिसहावं परूवंति ६६६) एक पत्योपम प्रमाण आयुवाला देव पृथिवीके छह खण्डोंको उखाड़नेके लिए और उनमें स्थित मनुष्यों व तियंचोंको मारने अथवा पोषनेके लिए समर्थ हैं।६६७। सागरोपम प्रमाण काल तक जीवित रहनेवाला देव जम्बूद्वीपको भी पलटने के लिए और उसमें स्थित तियंचों व मनुष्यों को मारने अथवा पोषने लिए समर्थ है 1६६८। सौधर्म इन्द्र नियमसे जम्बूद्वीपको फेंक सकता है, इस प्रकार कोई आचार्य शक्ति स्वभावका निरूपण करते हैं । । त्रि. सा./५२७ दुसु-दुसु तिचक्के मु य णवचोद्दसगे विगुब्बणा सत्ती। पढमरिखदीदो सत्तमखिदिपेरतो त्ति अवही य ५२७। -दो स्वर्गोमें दूसरी नरक पृथिवी पर्यन्त चार स्वर्गों में तीसरी पर्यन्त, चार स्वर्गो में, चौथी पर्यन्त, चार स्वर्गोमें पाँचवी पर्यन्त, नवग्रे वेयकों में छठी पर्यन्त और अनुदिश अनुत्तर विमानों में सातवीं पर्यन्त, इस प्रकार देवों में क्रमसे विक्रिया शक्ति व अवधि ज्ञानसे जाननेकी शक्ति है (विशेष-दे. अवधिज्ञान/8)। सौधर्म सनत्कु. ब्रह्म लान्तव ईशान । सौधर्म | सौधर्म ইহান। माहेन्द्र | सनरकु. माहेन्द्र सनत्कु. माहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव कापिष्ठ महाशुक्र महाशुक्र ४ महाशुक्र सहस्रार शतार । सहसार प्राणत आनत प्राणत अच्युत | आरण अच्युत आरण | अच्युत शुक्र आनत आरण ३. वैमानिक इन्द्रों व देवों के आहार व श्वासका अन्तराल मू. आ /११४५ जदि सागरोपमाऊ तदि वाससह स्सियादु आहारो।। पक्खे हि दु उस्सासो सागरसमये हिं चेव भवे ।११४५। जितने सागरकी आयु है उतने ही हजार वर्ष के बाद देवों के आहार है और उतने हो पक्ष बीतने पर श्वासोच्छ्वास है। ये सब सागरके समयोंकर होता है। (त्रि. सा./५४४); (ज. प./११/३५०) ति. प./८/५५२-५५५-जेत्तियजल णिहि उवमा जो जीवदि तस्स तेत्ति एहिं च । बरिससहस्सेहि हवे आहारो पणुदिणाणि पल्लमिदे।५५२। पडिईदाणं सामाणियाण तेत्तीस सुरमरण । भोयणकालपमाणं णियणिय-इंदाण सारिच्छ ।५५३। इंदप्पहुदिचउक्के देवीणं भोयणम्मि जो समओ। तस्स पमाणपरूवणउवएसो संपाहि पणट्ठो।५५४। सोह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग ५१२ ३. वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश ६. वैमानिक इन्द्रोंका परिवार १. सामानिक आदि देवोंकी अपेक्षा (ति. प./८/२१८-२४६), (रा. वा./४/१४/८/२२५-२३५), (त्रि. सा./४६४,४६५,४६८), (ज.पं./१६/२३६-२४२, २७०-२७८) । पारिषद् सप्त अनीक* इन्द्रोंके नाम | प्रतीन्द्र | सामानिक अभ्यन्तर मध्य आत्मरक्ष प्रत्येक कुल समिति । समिति समिति अनीक अनीक वायस्त्रिंश लोकपाल बाह्य सहस्र ७४६७६ ८४००० १४००० or सौधर्म ईशान सनत्कु. माहेन्द्र ब्रह्म १६००० १४००० १२००० सहस्त्र १०६६८ १०१६० ६१४४ १२००० १०००० ८००० १२००० १०००० ८००० ६००० ४००० २००० ७१९२० ६४००८ & & ८८४० ६००० ३३६००० ३२००० २५८००० २८०००० २४०००० २००००० १६०००० १२०००० ८०००० & ७६२० ६३५० लान्तव & ८०००० ७२००० ७०००० ६०००० ५०००० ४०००० ३०००० २०००० २०,००० २०००० २०.००० १००० ६२२३० ५३३४० ४४४५० ३५५६० s १७७८० & महाशुक्र सहसार ५०८० ४००० २००० १००० ५०० १६००० ४००० २००० १००० १००० १००० ८०० ३८१० २५४० आनत २५० & ० प्राणत ० २५० ५०० : ८००० ccc ० : आरण अच्युत १२५ ५०० १००० ८०००० : नोट-[वृषभ तुरंग आदि सात अनीक सेना है। प्रत्येक सेनामें सात-सात कक्षा है। प्रथम कक्षा अपने सामानिक प्रमाण है । द्वितीयादि कक्षाएँ उत्तरोत्तर द्वनी-दूनी हैं। अतः एक अनीकका प्रमाण - सामानिकका प्रमाण x १७ । कुल सातों अनीकोंका प्रमाण = एक अनीकx(दे. अनीक ); (ति. प./८/२३५-२३७)] - - २. देवियोंकी अपेक्षा (ति.प.//३०६-३१५ + ३७६-६८५); (रा. वा./४/१६/-/२२५-२३५): त्रि. सा./५०६-५१३) । इन्द्रका नाम ज्येष्ठ देवियाँ प्रत्येक ज्येष्ठ देवीकी परि वार देवियाँ वल्लभिका अग्र देवियाँ प्रत्येक देवीके वैक्रियक रूप ६६००० १६००० ८००० ३२००० ३२००० ८००० ८००० २००० ८००० ४००० सौधर्म ईशान सनत्कु, माहेन्द्र ब्रह्म लान्तव महाशुक्र सहस्रार आनत प्राणत आरण अच्युत 36. Gax aur : १६०,००० १६०,००० ७२,००० ७२,००० ३४,००० १६५०० ८२५० ४१२५ २०६३ १६००० १६०००. ३२००० ३२००० ६४००० १२८००० २५६००० ५१२००० १०२४००० २००० १००० ५०० vur जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग ३. वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश ७. वैमानिक इन्द्रोंके परिवार देवोंकी देवियाँ (ति. प./८/३१६-३३० ); (रा. बा./४/१६/८/२२५-२३५ ) । कल्प इन्द्रोंके नाम परिवार देव देवीका पद सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र लान्तव कापिष्ठ शुक्र शतार महाशुक। सहस्रार आनत-प्राणत आरण-अच्युत ब्रह्मोत्तर प्रतीन्द्र सामानिक त्रायस्त्रिश अग्र देवी परिवारदेवी अपने इन्द्रों के समान १००० २००० अग्र देवी प्रत्येक(लोकपाल अभ्यन्तर पारिषद २०० ३०० ४०० ४ २०० ३०० ६०० ६०० बाह्य , अनीक मह अनौकआत्मरक्ष २०० . ज्येष्ठ " वल्लभा" उपदेशनष्ट प्रकीर्णक आदि ४. वैमानिक देवियोंका निर्देश १. वैमानिक इन्द्रों की प्रधान देवियोंके नाम ८. वैमानिक इन्द्रोंके परिवार, देवोंका परिवार व विमान आदि ति.प./१२८६-३०४ का भावार्थ-प्रतीन्द्र, सामानिक व प्रायस्त्रिंशमें प्रत्यैकके १० प्रकारके परिवार अपने-अपने इन्द्रों के समान हैं ।२८६ सौधर्मादि १२ इन्द्रोंके लोकपालों में प्रत्येक सामन्त क्रमसे ४०००, ४०००,१०००,१०००, ५००,४००, ३००, २००,१००, १००,१००,१०० है १२८७-२८८। समस्त दक्षिणेन्द्रों में प्रत्येकके सोम व यम लोकपालके अभ्यन्तर आदि तीनों पारिषदके देव क्रमसे ५०,४०० व ५०० हैं ।२८६। वरुणके ६०,५००.६०० है तथा कुबेरके ७०, ६००,७०० हैं ।२६०॥ उत्तरेन्द्रों में इससे विपरीत क्रम करना चाहिए ।२६० सोम आदि लोकपालोंकी सात सेनाओं में प्रत्येककी प्रथम कक्षा २८००० और द्वितीय आदि ६ कक्षाओं में उत्तरोत्तर दुगुनी है। इस प्रकार वृषभादि सेनाओं में से प्रत्येक सेनाका कुल प्रमाण २८०००४१२७४३५५६००० है ।२६४। और सातों सेनाओंका कुल प्रमाण ३४५६०००४७-२४८६२००० है।६सौधर्म सनत्कुमार व ब्रह्म इन्द्रों के धार-चार लोकपालों में से प्रत्येकके विमानों की संख्या ६६६६६६ है। शेषकी संख्या उपलब्ध नहीं है.।२६७,२६६,३०२। सौधर्म के सोमादि चारों लोकपालोंके प्रधान विमानों के नाम क्रमसे स्वयंप्रभ, अरिष्ट, चलप्रभ और वलगुप्रभ हैं ।२६ शेष दक्षिणेन्द्रों में सोमादि उन लोकपालोंके प्रधान विमानोंके नाम क्रमसे स्वयंप्रभ, वरज्येष्ठ, अंजन और बलगु है।३००। उत्तरेन्द्रों के लोकपालोंके प्रधान विमानोंके नाम क्रमसे सोम (सम), सर्वतोभद्र, सुभद्र और अमित हैं ।३०१। दक्षिणेन्द्रोंके सौम और यम समान ऋद्धिवाले हैं; उनसे अधिक वरुण और उससे भी अधिक कुबेर है।३०३। उत्तरेन्द्रोंके सोम और यम समान ऋद्धिवाले हैं। उनसे अधिक कुबेर और उससे अधिक वरुण होता है ।३०४। ति.प./८/३०६-३०७,३१६-३१८ अलमाणा अच्चिणिया ताओ सबिदसरिसणामाओ। एक्केक्कउत्तरिंदे तम्मेत्ता जेठ्ठदेवीओ।३०६। विण्हा या ये पुराई रामावइरामरक्खिदा वसुका। वसुमित्ता वसुधम्मा वसंघरा सवईद समणामा ।३०७ विणयसिरिकणयमालापउमाणंदासुसीमजिणदत्ता । एक्वेकदक्विणिदे एक्के का पाणवल्लयिा।३१६। एववेकउत्तरिदे एक्वेका होदि हेममाला य। पिलुप्पलविस्सुदया णदावइलवखणादो जिणदासी ।३१७१ सयलिंदवल्लभाणं चत्तारि महत्तरीओ पत्तेवक कामा कामिणिआओ पंकयगंधा यल बुणामा य ।३१८। सभी दक्षिणेन्द्रोंकी ८ ज्येष्ठ देवियों के नाम समान होते हुए कमसे पद्मा, शिवा, शची, अंजुका, रोहिणी, नवमी, बला और अचिनिका ये हैं और सभी उत्तरेन्द्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम, मेघराजी, रामापति, रामरक्षिता, वसुका, वसुमित्रा, वसुधर्मा और वसुन्धरा ये हैं ।३०६-३०७। छह दक्षिणेन्द्रों की प्रधान वल्लभाओके नाम क्रमसे विनयश्री, कनकमाला, पद्मा, नन्दा, सुसीमा, और जिनदत्ता ये हैं ।३१६। छह उत्तरेन्द्रों की प्रधान वल्लभाओंके नाम 'हेममाला, नीलोत्पला, विश्रुता, नन्दा, वैलक्षणा और जिनदासी ये हैं।३९७। इन वल्लभाओं में से प्रत्येकके कामा, कामिनिका, पंकजगन्धा और अलम्वु नामकी चार महत्तरिका होती हैं ।३१८।। त्रि.सा./५०६,५१०-१११ ताओ चउरो सम्गे कामा कामिणि य पउमगंधा य। तो होदि अलंबुसा सविद पुराणमेस कमो ।०६। सचि पउम सिब सियामा कालिंदीसुलसअज्जुकाणामा भाणुत्ति जेठदेवी सत्वेसि दक्खिणिदाणं ।५१० सिरिमति रामा सुसीमापभावदि जयसैण णाम य भा०४-६५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. स्वर्गलोक निर्देश . सनत्कुमार आदि कल्प सम्बन्धी स्त्रियोकी सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें उत्पत्ति होती है। सुसेणा। वसुमित वसंधर वरदेवीओ उत्तरदाणं ।।११।- सौधर्मादि स्वर्ग में कामा, कामिनी, पद्मगन्धा, अलंबुसा ऐसी नामवाली चार प्रधान गणिका हैं ।५०६। छह दक्षिणेन्द्रोंकी आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रमसे शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिन्दी, सुलसा, अज्जुका और भानु ये हैं ।५१०। छहों उत्तरेन्द्रोंकी आठ-आठ ज्येष्ठ देवियाँके नाम क्रमसे श्रीमती, रामा, सुसीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, वसुमित्रा, और वसुन्धरा ये हैं ।५११। २. देवियों की उत्पत्ति व गमनागमन सम्बन्धी नियम म. आ./११३१-११३२ आईसाणा कप्पा उववादो होइ देवदेवीणं । तत्तो परंतु णियमा उववादो होइ देवाणं ।११३१। जावदु आरण-अच्युद गमणागमणं च होइ देवीणं । तत्तो परंतु णियमा देवीण स्थिसे गमगं ।११३२।-[भवनबासीसे लेकर ] ईशान स्वर्ग पर्यन्त देव व देवी दोनोंको उत्पत्ति होती है। इससे आगे नियमसे देव ही उत्पन्न होते हैं, देवियाँ नहीं।११३१॥ आरण अच्युत स्वर्ग तक देवियोंका गमनागमन है, इससे आगे नियमसे उनका गमनागमन नहीं है।११३२(ति. ५/५६५) । ५. स्वर्ग लोक निर्देश १. स्वर्ग लोक सामान्य निर्देश ति. प./८/६-१० उत्तरकुरुमणुवाणं एक्केणेणं तह य बालेणं । पणवीसुत्तरचउसहकोसयदंडेहि विहीणेणं ।६। इगिसट्ठीअहिएणं लक्खेणं जोयणेण ऊणाओ। रज्जूओ सत गयणे उड़ दडढं णाकपडलाणि । कणयदिचूलिउवरि उत्तरकुरुमणुवएकबालस्स । परिमाणेणंतरिदो चेट ठेदि हुईदओ पढमो।८। लोयसिहरादु हेट्ठा चउसय पणचीसं चाबमाणाणि । इगिवीस जोयणाणि गंदणं इंदओ चरिमोह। सेसा य एकसठ्ठी एदाणं इंदयाण विच्चाले । सम्वे अणादिणिहणा रयणमया इंदया होति ।१०। उत्तरकुरुमें स्थित मनुष्यों के एक माल हीन चार सौ पचीस धनुष और एक लाख इकसठ योजनोंसे रहित सात राजू प्रमाण आकाशमें ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित है।६-७॥ मेरुकी चूलिकाके ऊपर उत्तरकुरु क्षेत्रवर्ती मनुष्यके एक मालमात्रके अन्तरसे प्रथम इन्द्रक स्थित है ।८। लोक शिखरके नीचे ४२५ धनुष और २१ योजन मात्र जाकर अन्तिम इन्द्रक स्थित है ।। शेष इकसठ इन्द्रक इन दोनों इन्द्रकोंके बीच में हैं। ये सब रत्नमय इन्द्रक विमान अनादिनिधन है ।१०। (स, सि./१/१६/२५१/१), (ह. पु./६/३५), (ध.४/१, ३, १/६/२); (त्रि. सा./४७०) । २. कल्प व कल्पातीत विभाग निर्देश ति, प./८/गा. सोहम्मीसाणेसु उप्पज्जते हु सव्वदेवीओ। उवरिमकप्पे ताणं उप्पत्ती णस्थि कइया बि ।३३१॥ तेसं उप्पणाओ देवीओ भिण्ण ओहिणाणेहि। णादूर्ण णियकप्पे गति हु देवा सरागमणा ॥३३३॥ णवरि विसेसो एसो सोहम्मीसाणजाददेवीणं । वच्चंति मूलदेहा णियणियकप्पामराण पासम्मि ५६41-सब (कल्पवासिनी) देवियाँ सौधर्म और ईशान कल्पों में ही उत्पन्न होती हैं, इससे उपरिम कल्पों में उनको उत्पत्ति नहीं होती ।३१। उन कल्पों में उत्पन्न हुई देवियोंको भिन्न अवधिज्ञानसे जानकर सराग मनवाले देव अपने कल्पों में ले जाते हैं ।३३४. विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्पमें उत्पन्न हुई देवियों के मूल शरीर अपने-अपने कल्पोंके देवोंके पास जाते हैं।६६। ह. पु./६/११६-१२१ दक्षिणाशारणान्तानां देव्यः सौधर्ममेव तु । निजागारेषु जायन्ते नीयन्ते च निजास्पदम् ।११६। उत्तराशाच्युतान्तानां देवानां दिव्यमूर्तयः। ऐशानकल्पसंभूता देव्यो यान्ति निजाश्रयम् ।१२०। शुद्धदेवीयुतान्याहुर्विमानानि मुनीश्वराः। षट् लक्षास्तु चतुल क्षाः सौधर्मशानकल्पयोः ॥१२१४-आरण स्वर्ग पर्यन्त दक्षिण * दिशाके देवोंको देवियाँ सौधर्म स्वर्गमें ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती हैं और नियोगी देवोंके द्वारा यथा स्थान ले जायी जाती हैं।११। तथा अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्तर दिशाके देवोंकी सुन्दर देवियाँ ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं, एवं अपने-अपने नियोगी देवोंके स्थानपर जाती है ।१२० सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें शुद्ध देवियोंसे युक्त विमानों की संख्या क्रमसे ६००,००० और ४००,००० बतायी हैं। अर्थात् इतने उनके उपपाद स्थान है ।१२१॥ (त्रि. सा./५२४-५२५); (त. सा./२/८१)। ति.प./८/१९५-१२८ कप्पाकप्पातीदं इदि दुविहं होदि ।११४। पारस कप्पा केह केइ सोलस वदंति आइरिया। तिविहाणि भासिदाणि कप्पातीदाणि पडलाणि ॥११॥ हेट्ठिम मझे उवरि पत्तेवक ताण होति चत्तारि । एवं बारसकप्पा सोलस उड् ढुड्ढमट्ठ जुगलाणि ॥११॥ गेवज्जमणुद्दिसयं अणुत्तरं इय हवं ति तिविहप्पा । कपातीदा पडला गेवज्ज णवविहं तेम १११ सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिदरम्हलंतवया । महमुक्कसहस्सारा आणदपाणदयआरणच्चुदया । ।१२० एवं भारस कप्पा कप्पातीदेमणव य गेवेज्जा ।।१२११ आइचइंदयस्स य पुवादिसु"चत्तारो वरविमीणाई ११२३६ पण्णयाणि य चत्तारो तस्स गादब्वा ।१२४। बिजयंत...पुवावरदविखणुत्तरदिसाए ।१२। सोहम्मो ईसाणो सणक्कुमारो तहेब माहिंदो। बम्हाबम्हत्तरयं लतवकापिट्ठसुक्कमहसुक्का 1१२७५ सदरसहस्साराणदपाणदारणयअच्चुदा णामा । श्य सोलस कप्पाणि मण्णं ते केइ आइरिया ।१२८१ -१. स्वर्ग में दो प्रकारके पटल हैं- कल्प और कल्पातीत ११४॥ कल्प पटलोंके सम्बन्धमें दृष्टिभेद है। कोई १२ कहता है और कोई सोलह, कापातीत पटल तीन हैं।११ १२ कल्पकी मान्यताके अनुसार अधो, मध्यम व उपरिम भागमें चार-चार कल्प हैं (दे, स्वर्ग/३/१) और १६ कल्पोंकी मान्यताके अनुसार ऊपर-ऊपर आठ युगलों में १६ कल्प हैं।११६। प्रैवेयक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन कल्पातीत पटल हैं।९१७। सौधर्म, ईशान, सामत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र, सहसार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये बारह कल्प हैं। इनसे ऊपर कल्पातीत विमान हैं। जिनमें नव ग्रेवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं ।१२०-१२। (त. सू./४/१६-१८,२३)+ (स्वर्ग/३/९) । २. सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहसार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक ये १६ कल्प हैं, ऐसा कोई आचार्य मानते हैं । १२७-१२८। (त. सू./४/१६), (ह. पु./६/३६-३७)। (दे. अगले पृष्ठ पर चित्र सं.६) ध १/१,१,६८/३३८/२ सनत्कुमारादुपरि न स्त्रियः समुत्पद्यन्ते सौधर्मा दाविव तदुत्पत्त्यप्रतिपादनात । तत्र स्त्रीणामभावे कथं तेषां देवानामनुपशान्ततत्संतापानां सुख मिति चेन्न, तत्स्त्रीणां सौधर्मकल्पोपपत्तेः । -प्रश्न-सनत्कुमार स्वर्गसे लेकर ऊपर स्त्रियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, क्योंकि सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें देवांगनाओंके उत्पन्न होनेका जिस प्रकार कथन किया गया है, उसी प्रकार आगेके स्वोंमें उनकी उत्पत्तिका कथन नहीं किया गया है इसलिए वहाँ खियोंका अभाव होनेपर, जिनका स्त्री सम्बन्धी सन्ताप शान्त नहीं हुआ है, ऐसे देवोंके उनके 'बिना मुख कैसे हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्ध्व लोक सिद्ध लोक ४५०००००० आनत प्राणल कल्प नव अनुदिश, नवग्रे-के ऊर्ध्व ग्रैवेयक/ १२ मध्यम शैवेयक/ १ अधो ग्रैवेयक शतार सहसार कल्प अनुतर शुक महा शुक कल्प ///// आरण अच्युत//३ अच्युत /////////// २ आरण HUA शावकर MIIHITA लांस कापिष्ठ Ww ३ पुष्पक १२ प्राणत 1 आनत, सहसार लालव उत्साहद ५१५ ब्रह्म ब्रह्मोत्तर ||४ बह्योत्तर किल्ला बन AHIMMUNIMA सदस १ राजू नित्कुमार माहेन्द चक्र ६ बलभ ५ लागलं गरुड नाग १२ वनमाल MMMMMR अजन अरिष्ट H चित्र सं०६ शतार / सोधर्म स्थान शि प्रभापटल कल्प मृजु पडल एक बाल का असर - २१ यो० + ४२५ धनुष पश्चिम लाखो योजन अंतराल ARHITE लाखो योजन उपतराल कक्षण लानो व्योजन अतराल यूसित सूफ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश लाखो रोजन अंतराल लाखो योजन उदराल He लाखो योजन अंतराल लाखो योजन अतराल लाखो योजन अनराल ऊपर. नीचे ५. स्वर्गलोक निर्देश उत्तर Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ण ५. स्वर्गलोक निर्देश ३. स्वगमें स्थित पटलोंके नाम व उनमें स्थित इन्द्रक कोष्ठक सं. १-४ ( ति. प./८/१२-१७ ); ( रा. वा. /४/११/०/पृ४/पंक्ति - २२५/१४ + २२०/३० २२१/९४२३०/१२+२३१/०+२३१/व श्रेणीबद्ध ३६+२३३/३० ); (ह. पु. / ६ / ४४-५४ ); (त्रि, सा. / ४६४-४६६ ) । दे. स्वर्ग/२/१ (मेरुकी वृतिकासे लेकर ऊपर लोकके अन्त तक ऊपरऊपर ६३ पटल या इन्द्रक स्थित हैं । ) ति.प./८/१९ एक्वेक्क इंदयस्स य विश्चालमसंखजोयणाण समं । एदाण णामाणि वोच्छोमो आणुपुब्बीए ।१११ = एक-एक इन्द्रकका अन्तराल असंख्यात योजन प्रमाण है । अब इनके नामको अनुक्रमसे कहते हैं |११| दे, आगे कोक) । रा. वा. /४/११/८/२२५/१५ उयोरेकशि विमानप्रस्ताराः सौधर्म व ईशान कल्पोंके ३१ विमान प्रस्तार हैं। ( अर्थात् जो इन्द्रक का नाम हो वही पटलका नाम है ।) क्र. २ (१) सौधर्म ईशान युगल में ३१ १ ऋ ४ मन्गु वीर अरुण नन्दन नलिन कंचन रुधिर (रोहित) ११ चंचत् | १२ मरुत १९३ ऋजीश १४ बैडूर्य रुचक ५ ६ ७ ६ १ ति, प. १० 224 विमल चन्द्र ९६ रुचिर १७ अंक १८ स्फटिक १६ तपनीय २० मेघ प्रत्येक स्वर्ग के इन्द्रक या पटल २ ३ रा. वा. ह. पु. चन्द्र विमल लोहित कांचन वंचन विमल चन्द्र ↓ ↓ कांचन रोहित चंचवल अर्क -उन न ५१६ ४ त्रि. सा. विमल चन्द्र कांचन रोहित चंचल अंक कोष्ठक सं. ६-७ ( ति प /८/८२-८५); ( रा. वा. /४/१६/८/१४/पंक्ति २२५/१० + २२०/२१ २२/१४२२०/१२+२३९/१+२३९१/२५+१२/२८).पू. /६/४३) (त्रि, सा०/४०३-४०४)। नोट- (ह. पू. में ६२ की बजाय ६२ श्रेणीमसे धारम्भ किया है।) कोठक नं. ०११) त्रि. सा./४०२)। S संकेत इस ओर वाला नाम - में इन्द्रक प्रत्येक पटल १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ६२ ६१ ६० ५६ ६ ७ प्रति दिशा कुल योग ५७ ५६ ५५ १४ ५३ ५२ ५१ पीड ५० ४६ ४८ ४७ ४६ ४५ ४४ ४३ ← २४८ २४४ २४० २२६ २३२ २२८ २२४ २२० २१६ २१२ २०८ २०४ २०० १६६ १६२ १८८ १८४ १८० १०६ १७२ ८ इन्द्रकों का विस्तार योजन योजन ४५००००० ४४२९०३२७६ ४३५८०६४३६ ४२८७०९६३ ४२१६१२९ ३९३२२५८३५ ३८६१२९०९६ 〃 4 ४१४५१६१ उ” ४०७४१९३ उप ४००३२२५३ " " " ३७९०३२२ ३७१९३५४३६ ३६४८३८७ प ३५७७४१९ वे " ३५०६४५१ ई ૨૪૧૪૮૩૩” ३३६४५१६३१ ” ३२९३५४८३३ ३२२२५८०३१ ३१५१६१२35 〃 ע " وا " " " در " Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग ५१७ ५. स्वर्गलोक निर्देश प्रत्येक स्वर्गके इन्द्रक या पटल श्रेणीबद्ध प्रत्येक पटल रा. वा. त्रि.सा. इन्द्रक विस्तार योजन प्रति दिशा कुल योग २१ हरित पद्म पद्म पद्य १६० लोहिताक्ष लोहिताक्ष लोहित अभ्र हारिद्र पद्ममाल लोहित वज्र नन्द्यावर्त प्रभंकर पृष्ठक १५२ १४८ ३०८०६४५३५ योजना ३००९६७७०३ , २९३८७०९३१ । २८६७७४१३६, २७९६७७४३६ . २७२५८०६३१, २६५४८३८३३ . २५८३८७०३१ - २५१२९०३४ , २४४१९६७३३, २३७०९६७३३" १४४ पिष्टक प्रष्टक गज १४० १३६ १३२ मित्र मस्तक मित्र प्रभ चित्रप्रभा (दे० चित्र सं.७) चित्र सं.७ प्रत्येक पटल मेंइन्द्रकव श्रेणीबद नोट-यही विदिशाओ में (दे स्वर्गा मेणीवच्छ नही है येथन 16 अनुविश पटल (दे स्वर्ग IMA अनुसर पटल MorerahkO /.अपंटल): '.:: प्रसनाली में ऊपर की जोर से देखने पर Oसौम्य 0A ०००१२००० (इ)०००६२००० जयंत . Oविजय प्रति अटस्थ सर्वार्थ सिदि O OF ००० वैजयंत सानत्कुमार माहेन्द्र युगल में ७ अंजन वनमाल नाग गरुड़ 1111111 1111 111 २३००००० योजन २२२९०३२३ » २१५८०६४ . २०८७०९६३३ । २०१६१२९१ . १९४५१६१७ . १८७४१९३३१ . लांगल बलभद्र चक - - - - - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग ५१८ ५. स्वर्गलोक निर्देश प्रत्येक स्वर्ग के इन्द्रक या पटल श्रेणीबद्ध प्रत्येक पटल-1 प्रति दिशा कुल योग इन्द्रक विस्तार योजन ब्रह्म ब्रह्मोत्तर युगल में ४ अरिष्ट सुरसमिति देवसमिति ब्रह्म ब्रह्मोत्तर १८०३२२५३योजन १७३२२५८ॐ ॥ १६६१२९०३१ " १५९०३२२३६ , - लांतत्र कापिष्ठ युगल में २ ब्रह्मदय १५१९३५४३६ . १४४८३८७ॐ , लांतव १३७७४१९३३ " शुक्र महाशुक्र युगल में ३५) महाशुक्र - शतार सहस्रार युगल में १ सहस्रार - आनतादि चार में ६ १३०६४५१३६ ॥ आनत प्राणत पुष्पक १२३५४८३३१ . ११६४५१६ ॥ १०९३५४८३३ १०२२५८०३० " ९५१६१२२६ , ८८०६४५३ " शान्तकर आरण अच्युत नव ग्रैवेयक में ९ . सुदर्शन अमोष 11111111111111 यशोधर सुभद्र सुविशाल ८०९६७७३३ " ७३८७०९३१ " ६६७७४१३६ ॥ ५९६७७४३६ , ५२५८०६३१ , ४५४८३८३२ , ३८३८७०३ , ३१२९०३७५ २४१९३५३५ , सुमनस सौमनस प्रीतिकर सब अनुदिश व पंचअनुत्तर में १ आदित्य सर्वार्थसि. १७०९६७३३ . १००००० . जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग ५. स्वर्गलोक निर्देश १. श्रेणी बद्धोंके नाम निर्देश च । पुवावरद क्विण उत्तरेण आदिच्चदो होति।३३८। विजयं च वेजयंतं जयंतमपराजियं च णामेण । सव्वट्टस्स दु एवे चदुसु वि य दिसामु चत्तारि ३४० =अचि, अचिमालिनी, दिव्य, वैरोचन और प्रभास ये चार विमान आदित्य पटल के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरमें हैं ।३३८। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थ पटलकी चारों ही दिशाओं में स्थित है।३४०। ___ सौधर्म युगल के ३१ पटल ' (पटलों के नामों में अन्तर-दे-स्वर्ग/५॥३) चित्र सं. पर सिनत्कुमार माहेन्द्रकल्प उन्तराल ति. प./८/८७-१०० णियणियमाणि सेढिमधेसु । पढमेसुं पहमज्झिमबावत्तविसिद्वजुत्ताणि हा उड्डईदयपुवादी सेढिगया जे हुवंति बासट्ठी। ताणं विदियादीणं एक्कदिसाए भणामो णामाई 101 संठियणामा सिरिवच्छवट्टणामा य कुसुमजावाणि । छत्तंजणकलसा... 1१६। एवं चउसु दिसासु णामेस दक्विणादियदिसामु । सैढिगदाणं णामा पीदिकर इंदयं जाव।६८ आइच्चइंदययस्स य पुव्वादिसु लच्छिलच्छिमालिणिया। वइरावइरावणिया चत्तारो वरविमाणाणि 1881 विजयंतबहजयंत जयंतमपराजिदं च चत्तारो। पुवादिसु माणाणि ठिदाणि सबसिद्धिस्स । १००। १. ऋतु आदि सर्व इन्द्रकोंकी चारों दिशाओं में स्थित श्रेणी बद्धों में से प्रथम चारका नाम उस-उस इन्द्र के नामके साथ प्रभ, मध्यम. आवर्त व विशिष्ट ये चार शब्द जोड़ देनेसे बन जाते हैं । जैसे-ऋतुप्रभ, ऋतु मध्यम, ऋतु आवर्त और ऋतु विशिष्ट । २. ऋतु इन्द्र के पूर्वादि दिशाओं में स्थित, शेष द्वितीय आदि ६१-६९ विमानों के नाम इस प्रकार हैं। एक दिशाके ६१ विमानोंके नाम-संस्थित, श्रीवत्स, वृत्त, कुसुम, चाप, छत्र, अंजन, कलश आदि हैं। शेष तीन दिशाओंके नाम बनानेके लिए इन नामोंके साथ 'मध्यम', 'आवर्त' और 'विशिष्ट ये तीन शब्द जोड़ने चाहिए। इस प्रकार नबग्रैबेयकके अन्तिम प्रीतिकर विमानतकके श्रेणी बद्धों के नाम प्राप्त होते हैं। ३. आदित्य इन्द्रककी पूर्वादि दिशाओं में लक्ष्मी, लक्ष्मीमालिनी, वज्र और वज्रावनि ये चार विमान है। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थ सिद्धिकी पूर्वादि दिशाओं में हैं। ह.पु./६/६३-६५ अचिराद्य परं ख्यातमचिमालिग्यभिख्यया। बज्र' वैरोचनं चैव सौम्यं स्यात्सौम्यरूप्यकम् ।६३। अङ्क च स्फुटिक चेति दिशास्वनुदिशानि तु। आदित्याख्यस्य वर्तन्ते प्राच्याः प्रभृति सक्रमम् ६४ा विजयं वैजयन्तं च जयन्तमपराजितम् । दिक्षु सर्वार्थसिद्धेस्तु विमानानि स्थितानि वै ।६।। - अनुदिशोंमें आदित्य नामका विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि दिशाओं तथा विदिशाओं में क्रमसे-अर्चि, अचिमालिनी, वज्र, वैरोचन, सौम्य, सौम्यरूपक, अंक और स्फटिक ये आठ विमान हैं। अनुत्तर विमानों में सर्वार्थ सिद्धि विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि चार दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार विमान स्थित हैं। PILANNINNIN ३०. मित्र |ANILINAI NALIA INR गज/ VIRAIMANI/२८. पृष्ठक NISANNILIA VINTITMITR८ . प्रमंकर ITIWARI MITA २६.नंद्यावत VINALYAHALA२५. वज़MINIMIHINI VIMANIMA२४ लोहित/WWMINIMIMIMMIN NAMA२३. पनमाल INDIA Vilm २२. हारिद/IANNUINALAAIIA KULLULINE.तपनीयMANTRA viltime. स्फटिकTIVALIMILAIYA VIRYG. उसक/ALI NIA Vi६. रुचिरHIMIMILIANIA ViWIK५ रुचक/INTINI N VIWINIK. वैडूर्य WINNIYAMITA VIIMS ऋदीश/INHWINIHIN VIVINAR. मरुतMINIVA VIIINAY. चंचत|| MINIAWIA VINAO रुधि LINITIAN PUTINE कंचन | AIMINAIA VINE नलिन VING.नन्दन MAHARANAM VIHIE.अरुण HINA५. वीर THANIINIA VIR बल्गु W/३ चन्त H UITM २ . विमला ज. प./११/३३८-३४० अच्ची य अच्चिमालिणी दिवं वइरोयणं पभासं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग ५२० ५. स्वर्गलोक निर्देश ५. स्वर्गों में विमानोंकी संख्या १.१२ इन्द्रोंकी अपेक्षा (ति. प/८/१४६-१७७+ १८६): (रा. वा/४/१६/८/-२२/२६+२३३/२४); (त्रि. सा/४५६-४६२+ ४७३-४७६)। ६.विमानोंके वर्ण व उनका अवस्थान (ति.प./८/२०३-२०७); (रा. वा/४/१/१२३४/३), (ह. पु/६/85 १००); (त्रि. सा./४८१-४८२)। कल्पका नाम | इन्द्र क श्रेणीबद्ध प्रकीर्णक कुल योग, सं. व असं "योजन युक्त नाम ईशान . " १ सौधर्म २. ईशान ३/ सनत्कुमार ४ माहेन्द्र ३१ | ४३७१ ३१६५५६८ ३२ लाख १४५७, २७६८५४३ २८ लाख ५८८ | ११६६४०५ ९२ लाख ७६६८०४ ८लाख ३६६६३६ | ४ लाख ४६८४२ ५०,००० ३६१२७ १४०,००० १६३१ ६,००० com mmu an an_marwa | 6 |" कल्पका वर्ण । आधार कपका वर्ण । आधार सौधर्म , पंच वर्ण, महाशुक्र, श्वेत व जल व घन वात सहसार, हरितवायु । दोनों सनत्कु., कृष्ण ) केबल- आनतादि) ). शुद्ध माहेन्द्र रहित ४ । पवन । चार श्वेत आकाश जलवा कृ. नील वायु ग्रैवेयक लान्तव, रहित ३ | दोनों | आदि " " , ६ लान्तव ७महाशुक्र ८ सहस्रार ६ आनतादि चार १० अधो गै. ११ मध्य प्रै. १२ ऊर्ध्व प्रै. १३ अनुदिश १४ अनुत्तर सर्व राशिके पाँचवें भाग प्रमाण संख्यात योजन विस्तार । युक्त है और शेष असंख्यात योजन विस्तार युक्त। ३७० cex ह. पु/६/६९ सर्वश्रेणीविमानानामर्धमुर्ध्व मितोऽपरम् । अन्येषां स्वविमानाचं स्वयंभूरमणोदधेः ।११। -समस्त श्रेणीबद्ध विमानोंकी जो संख्या है, उसका आधा भाग तो स्वयम्भू रमण समुद्र के. ऊपर है और आधा अन्य समस्त द्वीप समुद्रोंके ऊपर फैला हुआ है। त्रि. सा/४७४ उडुसेढीबद्धदलं सयंभुरमणुदहिपणिधिभागम्हि । आइल्लतिण्णि दीवे तिणि समुद्दे य सेसा हु ।४७४i -सौधर्म के प्रथम ऋतु इन्द्रक सम्बन्धी श्रेणीबद्धोंका एक दिशा सम्बन्धी प्रमाण ६२ है, उसके आधे अर्थात ३१ श्रेणीबद्ध तो स्वयम्भूरमण समुद्रके उपरिमभागमें स्थित हैं और अवशेष विमानोंमेंसे १५ स्वयम्भूरमण द्वीपके ऊपर आठ अपनेसे लगते समुद्रके ऊपर, ४ अपनेसे लगते वोपके ऊपर, २ अपनेसे लगते समुद्र के ऊपर, १ अपनेसे लगते द्वीपके ऊपर तथा अन्तिम १ अपनेसे लगते अनेक द्वीपसमुद्रोंके ऊपर है। ७. दक्षिण व उत्तर कल्पोंमें विमानोंका विभाग २.१४ इन्द्रोंकी अपेक्षा १. (ति. पं./८/१७८-१८५); (ह. पु./६/४४-६२+६६-८८) । कल्पका नाम | इन्द्रक श्रेणीबद्ध प्रकीर्णका कुल योग संख्यात. यो. युक्त ३२ लाख १. सौधर्म ईशान ३ सनत्कुमार ४ माहेन्द्र २८ ... ! ६४०,००० ५०८,००० २४०,००० १६०,००० २६६००० १०४००० १८०,००० ति, प/८/१३७-१४८ का भावार्थ-जिनके पृथक्-पृथक् इन्द्र है ऐसे पहिले व पिछले चार-चार कल्पों में सौधर्म, सनत्कुमार, आनत व आरण ये चार दक्षिण कल्प हैं। ईशान, माहेन्द्र, प्राणत व अच्युत ये चार उत्तर विमान है, क्योंकि, जैसा कि निम्न प्ररूपणासे विदित है इनमें क्रमसे दक्षिण व उत्तर दिशाके श्रेणीबद्ध सम्मिलित हैं। तहाँ सभी दक्षिण कल्पों में उस-उस युगल सम्बन्धी सर्व इन्द्रक, पूर्व, पश्चिम व दक्षिण दिशाके श्रेणीबद्ध और नैऋत्य व अग्नि दिशाके प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। सभी उत्तर कल्पों में उत्तर दिशाके श्रेणीबद्ध तथा वायु व ईशान दिशाके प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। बीचके ब्रह्म आदि चार युगल जिनका एक-एक हो इन्द्र माना गया है, उनमें दक्षिण व उत्तरका विभाग न करके सभी इन्द्रक, सभी श्रेणीबद व सभी प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। (त्रि. सा/४७६ ); (ज. प/११/२/३-२१८)। २५०४२ २४६५८ २००२० १६६८० ३०१६ ४००० __३००० कुल राशिमसे इन्द्रक व श्रेणीबद्धकी संख्या घटा कर जो शेष बचे १२०० २६८१ है १२०० ६ ब्रह्मोत्तर ७ लान्तब ८ कापिष्ठ, शुक्र १० महाशुक्र ११ शतार १२ सहस्रार १३ आनत-प्राणत १४ आरण 1 अन्युत १५ अधो ग्रे. १६ मध्य }. १७ उपरि है. १८ अनुदिश १६ अनुत्तर २६० ८. दक्षिण व उत्तर इन्द्रोंका निश्चित निवास स्थान ति. प/८/३५१ छज्जुगलसे सरस अट्ठारसमम्मि से ढिबधेसु । दोहीण कम दक्विण उत्तरभागम्मि होति देविंदा ।३५१॥ -- छह युगलों और शेष कल्पों में यथाक्रमसे प्रथम युगल में अपने अन्तिम इन्द्रकसे सम्बद्ध अठारहवें श्रेणीबद्ध में, तथा इससे आगे दो हीन क्रमसे अर्थात् १६वें, १४वे, १२, १०३, वें और ठे श्रेणीबद्ध में, दक्षिण भागमें दक्षिण इन्द्र और उत्तर भागमें उत्तर इन्द्र स्थित है ।३५११, (त्रि. सा/४८३)। ति.प//३३६-३५० का भावार्थ-[अपने-अपने पटल के अन्तिम इन्द्रक__ को दक्षिण दिशाबाले श्रेणीबद्धों में से १८३, १६३, १४३, १२वें, ईठे, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग ५२१ ५. स्वर्गलोक निर्देश ति. प /८/९६८-२०२ ह. पु/६/६२-६३ त्रि. सा./४८० और पुनः ६ श्रेणीबद्ध विमानमें क्रमसे सौधर्म, सानत्कुमार, १०.कल्प विमानों व इन्द्र भवनोंके विस्तार आदि ब्रह्म, लांतव, आनत और आरण ये छह इन्द्र स्थित हैं। उन्हीं नोट-सभी प्रमाण योजनों में बताये गये। इन्द्रकोंकी उत्तर दिशावाले श्रेणीबद्धोंमेंसे १८, १६, १०३, ८वें, ठे और पुनः ६ श्रेणीबद्धों में क्रमसे, ईशान, माहेन्द्र, महाशुक्र, कल्प विमान, इन्द्रोंके भवन सहस्रार, प्राणत और अच्युत ये छह इन्द्र रहते हैं।] (ह. पु/६/ देवियोंके भवन १०१-१०२) नोट-[ह. पु. में लान्तबके स्थानपर शुक्र और महाशुक्रके स्थानपर लान्तव दिया है। इस प्रकार वहाँ शुक्रको दक्षिणेन्द्र और इन्द्रोंके नाम ति. प./८/३७२-३७३ ति.प./८/४१४-४१७ लान्तवको उत्तरेन्द्र कहा है। ] +४५५-४५६ रा. वा/४/११/// पंक्तिका भावार्थ-सौधर्म युगलके अन्तिम इन्द्रककी ह. पु./4/६४-६६ दक्षिण दिशावाले श्रेणीबद्धोंमेसे १८ में सौधर्मन्द्र (२२५/२१) । उसीके उत्तर दिशावाले १वें श्रेणीबद्ध में ईशानेन्द्र ( २२७/६)। सनत्कुमार युगलके अन्तिम इन्द्रककी दक्षिण दिशावाले १६३ श्रेणी मोटाई लम्बाई चौड़ाई ऊँचाई लम्बाई मद्धमें सनत्कुमारेन्द्र ( २२७/३२ )। और उसीकी उत्तर दिशावाले १६ वें श्रेणीबद्ध में माहेन्द्र ( २२८/२५) । ब्रह्मयुगल के अन्तिम इन्द्रककी दक्षिण दिशावाले १२वें श्रेणीबद्धमें ब्रह्मन्द्र ( २२६/१७) । और उसी- | सौधर्म यु. ११२१ की उत्तर दिशावाले १२वें श्रेणीबद्धमें ब्रह्मोत्तरेन्द्र (२३०/३) । लान्तव सनत. यु. १०२२ युगल के अन्तिम इन्द्रककी दक्षिण दिशावाले हवें श्रेणीबद्ध में लान्त मा यु. । १२३ वेन्द्र ( २३०/१२) और उसीकी उत्तर दिशावाले वें श्रेणीबद्ध में कापिष्ठेन्द्र ( २३०/३४) । शुक्र युगलके एक ही इन्द्रककी दक्षिण लान्तब यु. दिशावाले १२खें श्रेणीबदमें शुक्रन्द्र (२३१/८ ) और उसीकी उत्तर महाशुक्रयु. ७२५ दिशावाले १२३ श्रेणीबद्ध में महाशुक्रेन्द्र ( २३१/२६ ) । शतार युगलके सहस्रार यु. ६२६ एक ही सहस्रार इन्द्रककी दक्षिण दिशावाले हवे श्रेणीबद्ध में शतारेन्द्र आनतादि४५२७ ( २३१/३६ ) और उसीकी उत्तर दिशावाले वे श्रेणीमरमें सह- | अधो ग्रे. ४२८ सारेन्द्र (२३२/१८)। आनतादि चार कम्पोंके आरण इन्द्रककी | मध्य प्रै. | दक्षिण दिशावाले ठे श्रेणीबद्ध में आरणेन्द्र ( २३२/३१) और | उपरि प्रे. अच्युत इन्द्रककी उत्तर दिशाबाले ६ठे श्रेणीबद्ध में अच्युतेन्द्र हम अच्युतन्द्र अनुदिश (२३३/१४ ) । इस प्रकार ये १४ इन्द्र क्रमसे स्थित हैं। अनुत्तर ८२४ १२१ ९. इन्द्रोंके निवासभूत विमानोंका परिचय ११. इन्द्र नगरोंका विस्तार आदि ति प./८/गा. का भावार्थ-१.इन्द्र क श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इन तीनों नोट-सभी प्रमाण योजनों में जानने प्रकारके विमानोंके ऊपर समचतुष्कोण व दीर्घ विविध प्रकारके प्रासाद स्थित हैं।२०। ये सब प्रासाद सात-आठ-नौ-दस भूमियोंसे नगर नगरकोट नगर द्वार भूषित हैं। आसनशाला, नाट्यशाला व क्रीड़नशाला आदिकोंसे त्रि.सा./ त्रि.सा./ शोभायमान है। सिंहासन, गजासन, मकरासन आदिसे परिपूर्ण हैं। त्रि. सा/४८६ मणिमय शय्याओंसे कमनीय हैं। अनादिनिधन व अकृत्रिम विरा ४६०-४६१ । ४६२-४६३ इन्द्रोंके नाम जमान हैं।२०४-२१३३ २. प्रधान प्रासादके पूर्व दिशाभाग आदिमें चार मोटाई संख्या चार प्रासाद होते हैं ।३६६। दक्षिण इन्द्रों में वैडूर्य, रजत, अशोक और मृषत्कसार तथा उत्तर इन्द्रों में रुचक, मन्दर, अशोक और सप्तच्छद लम्बाई चौड़ाई | ऊँचाई व वचौड़ाई नीवं ऊँचाई ये चार-चार प्रासाद होते हैं ।३६७। (त्रि. सा./४८४-४८५)। ३. सौधर्म व सनत्कुमार युगल के ग्रहों के आगे स्तम्भ होते हैं, जिनपर तीर्थकर मालकों के वस्त्राभरणोंके पिटारे लटके रहते हैं।३६८-४०४। सभी HER९४०४ासभा सौधर्म ८४००० ८४००० इन्द्र मन्दिरोंके सामने चैत्य वृक्ष होते हैं ।४०५-४०६० सौधर्म इन्द्रके ইহান प्रासादके ईशान दिशामें सुधर्मा सभा, उपपाद सभा और जिनमन्दिर ८०००० ८०००० है।४०७-४१११ (इस प्रकार अनेक प्रासाद व पुष्प वाटिकाओं आदिसे. सनत्कुमार ७२००० ७२००० युक्त वे इन्द्रोंके नगरोंमें ) एकके पीछे एक ऊँची-ऊँची पाँच वेदियाँ माहेन्द्र ७०,००० ७०००० होती है। प्रथम वेदीके बाहर चारों दिशाओंमें देवियोंके भवन, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर ६०,००० ६०००० द्वितीयके माहर चारों दिशाओं में पारिषद, तृतीयके बाहर सामानिक लान्तव कापिष्ठ और चौथी के बाहर अभियोग्य आदि रहते हैं ।४१३-४२८। पाँचवीं बेदी के बाहर वन हैं और उनसे भी आगे दिशाओं में लोकपालोंके शुक्र महाशुक्र ।४२८-४३३। और विदिशाओं में गणिका महत्तरियोंके नगर है | शतार सहस्रार | ३०,००० ३०००० ।४३५। इसी प्रकार कल्पातीतोंके भी विविध प्रकारके प्रासाद, | आनतादि ४, २०,००० उपपाद सभा, जिनभवन आदि होते हैं ।४५१-४५४। भा०४-६६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ण स्वर्ण १. तोलका प्रमाण विशेष । अपरनाम कंस - दे. गणित / I / १ ) : २. विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । स्वर्णकूला १ र क्षेत्रकी एक नहीं दे सक/३/१०:२. - · लोक/३/१०३ स्वर्णा कुण्डकी हैरण्यवद क्षेत्रस्थ एक कुण्ड स्वामिनी देवी दे. लोक/३/१० - स्वर्णनाभ - विजयार्ध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । विजयार्ध पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक देव - दे. स्वर्णभद्रलोक/01 • स्वर्ण मध्य सुमेरु पर्वतका अपर नाम - दे. सुमेरु । स्वर्णरेखा सौराष्ट्र देशमें गिरनार पर्वतसे निकली है। इसके रेत में सोनेका सूक्ष्म अंश अब भी पाया जाता है। सुवरणा नामसे प्रसिद्ध है । ( नेमिचरित प्रस्तावना/प्रेमीजी) | स्वर्णवती - भरतक्षेत्र के वरुण पर्वतस्थ एक नदी - दे. मनुष्य ४ । स्ववचन बाधित - दे. बाधित स्ववचन विरोध - दे. विरोध स्ववशमि. सा./पू./१४६ परिचत्ता परभावं पाकादि निम्म सहाय अप्पयसो सो होदि हू तस्स टु कम्मं भणति आवासे । १४६॥ * जो परभावको त्यागकर निर्मलस्वभाव वाले आत्माको ध्याता है, वह वास्तव में आत्मवश है और उसे आवश्यक कर्म (जिन) कहते हैं । भ. जा./वि./८४/२१० / सम्यस्थ सर्वस्मिन्देवो आत्ममशता स्वा - 1 आस्ते गच्छति ऐसे ना इहासनादिकरणे इदं मम विनश्यति दिति तदनुरोधता परतता नास्ति संयतस्य सर्वश्र आयता परिह के स्थानसे संयतके यह गुण भी प्राप्त होता है। मुनिके पास कोई परिग्रह न होनेसे में स्वेच्छा से बैठते हैं. जाते हैं. सोते हैं। बैठने उठने में मेरी अमुक वस्तु नष्ट हुई, अमुक वस्तु मेरेको चाहिए इस प्रकारकी चिन्ता उनके नहीं होती । - ५२२ स्वसंवेदन दे अनुभव । स्व समय--१. दे. समय २. स्व-समय और पर समय के स्वाध्यायका क्रम - दे. उपदेश / ३ / ४-५१ - स्वस्तिक- १. विदेह क्षेत्रमें स्थित भद्रशाल वनमें एक दिग्गजेन्द्र पर्यंत लोक/२/३२. विद्य भगवन्तस्थ एक फूट. /५/४१ कुण्ड पर्यंतस्थ मनिप्रभ कूटका स्वामी नागेन्द्र देव -- दे. लोक/५/१२८४. रुचक पर्वतस्थ एक कूट- - दे. लोक / ५ / १३१ स्वस्तिमतितप. पु. /११ / लोक क्षीरकदम्बकी स्त्री पर्वत वसुव नारदको गुरुमाता थी (१४) इसनेटका विपरीत समर्थन करनेके लिए राजाको प्रेरित किया था (२६)। स्वस्त्र - दे. स्त्री / ५ १/४ स्वस्थान अप्रमत्त. स्वस्थान सरवदे, सत्त्व/१ 1 स्वस्थान सन्निकर्ष - दे. सन्निकर्ष । स्वहस्त क्रियाया/३/२ स्वाति १. एक नक्षत्र - दे. नक्षत्र २ मानुषोत्तर पर्वतस्थ तपनीय कुटका स्वामी भवनवासी गरुड कुमार देव सोक/५/१०१ स्वाति संस्थान के संस्थान | स्वात्मनि क्रिया विरोध - दे, विरोध । स्वाद्य. आ./६४४ सारंति सादियं भणिर्य 1६४४॥ मुखका स्वाद किया जाये, इलायची आदि स्वाद्य कहा है। अन ध./७/१३ स्वाय' ताम्बूलादि पान गुपारी, इलायची आदि तथा अनार, सन्तरा, ककड़ी आदि भक्ष्य पदार्थ स्वाद्य हैं। 2004 जिससे ला. सं/२/१६ स्वयं तु भोगार्थ ताम्बूलादि यथागमाद...१६के लिए आगमानुकूल ताम्बूल आदि पदार्थ स्थाय कहलाते हैं। स्वाध्याय-सत्शास्त्रका वाचना, मनन करना, या उपदेश देना आदि स्वाध्याय कहा जाता है जो सर्वोत्तम तप माना गया है । मोक्ष मार्ग में इसका बहुत ऊँचा स्थान है । यथा विधि यथा काल ही स्वाध्याय करना योग्य है । सूर्यग्रहण आदि काल स्वाध्यायके लिए अयोग्य समझे जाते हैं । १ २ ४ ७ * ८ ९ स्वाध्यायमें विनयका महत्र । --दे, विनय /२/५१ प्रयोजन व अप्रयोजनभूत विषय । ६. चारों अनुयोगोंकी स्वाध्यायका क्रम । निश्चय व व्यवहार विषयक स्वाध्यायका क्रम । - उपदेश/१/४-५। स्वपर समय विषयक स्वाध्यायका क्रम । -दे, उपदेश / ३ /४-५ । १० १ २ ३ ४ स्वाध्याय निर्देश स्वाध्याय सामान्यका लक्षण । निश्चय स्वाध्यायके अपर नाम दे मार्ग/२/५ स्वाध्याय के भेद | स्वाध्याय में सम्यक्त्वकी प्रधानता । स्तुति आदि परिवर्तन रूप भी स्वाध्याय है। स्वाध्याय स्वाध्याय सर्वोत्तम तप है । स्वाध्यायकी अपेक्षा वैयावृत्यकी प्रधानता । --दे स्वाध्यायका लौकिक व अलौकिक फल । स्वाध्यायका फल गुणश्रेणी निर्जरा व संत्रर । स्वाध्यायमें फलेच्छा का निषेध । --दे, राग /४/५-६ । स्वाध्यायका प्रयोजन व महत्त्व । पठित ज्ञान के संस्कार साथ जाते हैं। वे संस्कार /१/२ स्वाध्याय विधि स्वाध्यायमें द्रम्य क्षेत्रादि शुद्धिका निर्देश सुखि स्वाध्याय योग्य काल व उसका विभाजन । स्वाध्याय योग्य कालमें कुछ अपवाद । स्वाध्यायके अयोग्य द्रव्य क्षेत्र काल । अयोग्य द्रव्यादिमें स्वाध्याय करने से हानि । ५ स्वाध्याय प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि। स्वाध्याय प्रकरण में कायोत्सर्गका काल प्रमाण । -- सर्ग १ । स्वाध्याय से शेष बचे समय में क्या करे । I -- दे. कृतिकर्म /४/११ ६ विशेष शास्त्रोंके प्रारम्भ व समाप्ति आदिपर उपवासादिका निर्देश । नियमित व अनियमित विधि युक्त पढ़े जाने योग्य कुछ ग्रन्थ । शास्त्र अवण व पठनके योग्यायोग्य पात्रता कैसे व्यक्तिको कैसा शास्त्र पढ़ना चाहिए। कैसे जीवको कैसा उपदेश दे। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश श्रोता --दे, उपदेश / ३ । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय १. स्वाध्याय निर्देश १. स्वाध्याय निर्देश ४. स्तुति आदि परिवर्तन रूप मी स्वाध्याय है १.स्वाध्याय सामान्यका लक्षण अन.ध./9/8२ अर्ह यानपरस्याहन शं वो दिश्यात्सदारतु वः । शान्ति रियादिरूपोऽपि स्वाध्यायः श्रेयसे मतः १RI -जो साधु निरन्तर १. निश्चय अर्हन्त भगवान के ध्यानमें लीन रहता है उसके 'अर्हन शं वो दिश्यात' स. सि./६/२०/४३६/७ ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः ।-आलस्य अर्थात् अर्हन्त भगवान् तुम्हारा कल्याण करें। तथा 'सदास्तु वः त्यागकर ज्ञानकी आराधना करना स्वाध्याय तप है। शान्तिः' अर्थात मुझे सदा शान्ति बनी रहे इत्यादि वचनोंको भी चा. सा./१५२/५ स्वस्मै हितोऽध्यायः स्वाध्यायः । - अपने आत्माका स्वाध्याय ही कहना चाहिए। क्योंकि पूर्वाचार्योंने इसके द्वारा भी हित करनेवाला अध्ययन करना स्वाध्याय है । कल्याण और परम्परा मोक्षकी सिद्धि मानी है। दे. स्वाध्याय/१/२ ये पाँच प्रकारका स्वाध्याय मुनि देव बन्दना मंगल २. व्यवहार सहित करना चाहिए। मू. आ./५११ बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथित बुधे 1-1 -बारह अंग चौदहपूर्व जो जिनदेवने कहे हैं उनको पण्डितजन स्वाध्याय ५. प्रयोजन व अप्रयोजन भूत विषय . कहते हैं। मो. मा. प्र./9/३१७/२१ मोक्षमार्ग विषै देव, गुरु, धर्म व जीवादि तत्त्व ध. १३/५,४,२६/६४/१ अंगंगबाहिरआगमवायणपुच्छणाणुपेहा - परि वा बन्ध मोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं ।...द्वीप समुद्रादिका कथन यण-धम्मकहाओ सज्झायो णाम | - अंग और अंगबाह्य आगम- अप्रयोजनभूत है। की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तन और धर्म कथा करना ६.चारों अनुयोगोंके स्वाध्यायका क्रम स्वाध्याय नामका तप है (अन. ध./६/४)। मो. मा. प्र./७/३४७/१८ पहला सच्चा तत्त्व ज्ञान हो (द्रव्यानुयोग), चा, सा./४४/३ स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च। . पीछे पुण्य पापके फल को जाने (प्रथमानुयोग) शुद्धोपयोगसे मोक्ष -तत्त्वज्ञानको पढना, पढ़ाना, स्मरण करना आदि स्वाध्याय है। माने (चरणानुयोग ) और गुणस्थानादि जीवका व्यवहार निरूपण का. ब/म./४६२ पूयादिसु हिरवेक्खो जिण-सत्थं जो पढेइ भत्ती, जाने ( करणानुयोग ) इत्यादि जैसे हैं वैसे श्रद्धान करके उसका अर्थात कम्म-मल -सोहण सुय-लाहो सुह्यरो तस्स =जो मुनि अपनी (आगमका) अभ्यास करे तो सम्यक ज्ञान होय। पूजादिसे निरपेक्ष, केवल कर्म मल शोधनके अर्थ जिन शास्त्रोंको मो. मा. प्र./८/पृ./पंक्ति सं. करणानुयोग विषै भी किसी ठिकाने उपभक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ सुखकारी है। देश की मुख्यता पूर्वक व्याख्यान होता है। उसे सर्वथा वैसा ही न मानना (४०७/२) मुख्यपने तो निचली दशामें द्रव्यानुयोग कार्यकारी २. स्वाध्यायके भेद है। गौणपने जाकौं मोक्षमार्गकी प्राप्ति होति न जानियें ताकौं पहले मू आ./३६३ परियट्टणाय वायण पडिच्छणाणुपेहया य धम्मकहा। कोई व्रतादिका उपदेश दीजिए है। ताते ऊँची दशा वालोंको यु तिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होइ सज्झाओ ।३६३।- पढ़े हुए ग्रन्थका अध्यात्म अभ्यास योग्य है । ( ४३१/७) पाठ करना, वाचन-व्याख्यान करना, पृच्छना-शास्त्रोंके अर्थको ७. स्वाध्याय सर्वोत्तम तप है किसी दूसरेसे पूछना, अनुप्रेक्षा-बारम्बार शास्त्रका मनन करना, धमकथा-शठ शलाका पुरुषोंका चारित्र पढ़ना ये पाँच प्रकारका भ, आ./मू./१०७-१०६ बारसविहम्मि य तवे सब्भतरमाहिरे कुसलस्वाध्याय मुनि देव वन्दना मंगल सहित करना चाहिए ।३६३। (दे. दिठे । ण वि अस्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्म। ऊपरवाले शीर्ष कमें ध./१३), (अन. ध./७) । ।१०७ जं अण्णाणीकम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तणाणीत. सू./६/२५ वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षम्नायधर्मोपदेशाः ॥२५॥ वाचना, तिहिं गुत्तो खवेदि अंतोमुहत्तण ।१०८ छहट्ठमदसमदुबालसे हि अण्णापृच्छना,अनुप्रेक्षा, आम्नाय, और धर्मोपदेश यह पाँच प्रकारका णियस्स जा सोही। तत्तो बहुगुणदरिया होज्ज हु जिमिदस्स णाणिस्स । स्वाध्याय है ।।२५। (चा. सा./१५२/५); (अन, ध.७/८३-८७) । 1१०६।१. सर्वज्ञ देवकर उपदेशे हुए अभ्यन्तर और बाह्य भेद सहित बारह प्रकारके तपमेंसे स्वाध्याय तपके समान अन्य कोई न तो है दे. वाचना चार प्रकार है-नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या। और न होगा ।१०७१ ( आ./४०६,६७०) २. सम्यग्ज्ञानसे रहित जीव लक्षावधि कोटि भवोंमें जितने कमौके क्षय करने में समर्थ ३. स्वाध्याय में सम्यक्त्वकी प्रधानता होता है, ज्ञानी जीव गुप्तिगुप्त होकर उतने कोका क्षय अन्तर्मुहर्त में भा.पा./मू./८४ सयलोणाणज्म यणो णिरत्यओ भावरहियाणं । -भाव कर देता है ।१०८५ (प्र. सा./मू./२३८): (ध.६/५,५,५०/गा.२३/२८१) रहित श्रमणों का सकल ध्यान और अध्ययन निरर्थक हैं। एक, दो, तीन, चार वा पाँच, अथवा पक्षोपवास व मासोपवास करने वाले सम्यग्ज्ञान रहित जीवसे भोजन करनेवाला स्वाध्यायमें तत्पर ध. १/४.१.१/६/३ ण च सम्मत्तेण विरहियाण णाणमाणाणमसंखेज्ज. सम्यग्दृष्टि परिणामोंकी ज्यादा विशुद्धि कर लेता है ।१०। गुण सेडीकम्मणिज्जराए अणिमित्ताणं णाण झाणववएसो पारमत्थिओ अस्थि, अवगयट्ठ सहणणाणे...तव्यवएसब्भुवगमे संते अइप्प- ८. स्वाध्यायका लौकिक व अलौकिक फल स गादो । सम्यक्त्व से रहित ज्ञान ध्यानके असंख्यात गुणी श्रेणी ति. ५/१/३५-४२ दुविहो हवेदि हेदू तिलोयपण्ण तिर्गथयज्झयणे । रूप कर्म निर्जराके कारण न होनेसे 'ज्ञानध्यान' यह संज्ञा वास्तविक जिणवरक्यणु विट्ठोपच्चश्व परोक्खभेएहि ।३५॥ सक्खापच्चरखपरंपञ्चनहीं है। क्योंकि अर्थ श्रद्वानसे रहित ज्ञान...में वह संज्ञा स्वीकार क्वा दोण्णि होदि पचचरखा। अण्णाणस्स विणासं णाणदिवायरस्स करने में अतिप्रसंग दोष आता है। उप्पत्ती।३६। देवमणुस्सादी हिं संततमभच्चणप्पयाराणि । पडिसमययो. सा. अ./७/४४ संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मर हिताना ४४-- जो मसंखेज गुणसे दिकम्मणिज्जरणं १३७४ इय सक्खापच्चक्खं पच्चवरख विद्वान हैं-शास्त्रों का अक्षराभ्यास तो कर चुके हैं परन्तु आत्म- पर परं च णादव्वं । सिस्सपडिसिस्सपहूदीहिं सददमभच्चणयार ध्यानसे शून्य हैं उनका संसार शास्त्र है। 1३८ दोभेदं च परोक्वं अभुदयसोपखाई मोगरवसोपखाई जैनेन्द्र सिवन्त कोश Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय ५२४ १. स्वाध्याय निर्देश ध, ६/४.१,१/३१ उस हसेणादिगणहरदेवे हि विरइयसहरयणादो दव्वसुत्तादो तप्पढण-गुणणकिरियावावदाणं सध्यजीवाणं पडिसमयमसंखेवेज्जगुणसेढोए पुव्वसचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति। वृषभसेनादि गणधर देवों द्वारा जिनकी शब्द रचना की गयी है, ऐसे द्रव्य सूत्रोंसे उनके पदने और मनन करने रूप क्रियामें प्रवृत्त हुए सब जीवोंके प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणीसे पूर्व संचित कमौकी निर्जरा होती है। ध,६/५.६.१०/२८२/३ किमर्थं सर्वकाल व्याख्यायते । श्रोताख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्म निर्जरणहेतुत्वात् । प्रश्न- इसका सर्वकाल किस लिए व्याख्यान करते हैं -उत्तर-क्योंकि वह व्यारव्याता और श्रोताके असंख्यात गुणी श्रेणी रूपसे होनेवाली कर्म निर्जराका कारण है। सादादिविविहन्तु रसत्यकम्मतिवाणुभागउदएहिं ।३। इंदपडि ददिगिदय तेत्तीसामररसमाणपदिसुहं । राजाहिराजमहराजद्धमंडलिमंडलयाण ४० महमंडलियाणं अद्धचक्किचक्कहरितित्ययरसोक्वं । अट्ठारसमेत्ताणं सामी सेसाणं भत्तिजुताणं ।४। वररयण मउडधारी सेवयमाणाण वत्ति तह अहूँ। देता हवेति राजा जितसत्तू समरसंघठे।४। -त्रिलोक प्रज्ञप्तिग्रन्थके अध्ययनमें, जिनेन्द्रदेवके वचनोंसे उपदिष्ट हेतु, प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है ॥३५॥ १. प्रत्यक्ष हेतु साक्षात् और परम्पराके भेदसे दो प्रकारका है। अज्ञानका विनाश, ज्ञानरूपी दिवाकरको उत्पत्ति, देव और मनुष्यादिकोंके द्वारा निरन्तर की जानेवाली विविध प्रकारकी अभ्यर्थना, और प्रत्येक समयमें होनेवाली असंख्यात गुणी रूपसे कर्मोंकी निर्जरा, इसे साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु समझना चाहिए। और शिष्य-प्रशिष्य आदिके द्वारा निरन्तर अनेक प्रकारसे की जानेवाली पूजाको परम्परा परोक्ष हेतु समझना चाहिए।३६-३८। २. परोक्ष हेतु भी दो प्रकारका है--एक अभ्युदय और दूसरा मोक्ष सुख । सातावेदनीय आदि सुप्रशस्त कमों के तीव्र अनुभागके उदयसे प्राप्त हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र, त्रायस्त्रिश, व सामानिक आदि देवोंका सुख तथा राजा, अधिराज, महाराज, मण्डलीक, अर्धमण्ड. लोक, महामण्डलीक, अर्धचक्री, चक्रवर्ती और तीर्थकर इनका सुख अभ्युदय सुख है। जो भक्तियुक्त अठारह प्रकारकी सेनाओंका स्वामी है, उत्कृष्ट रत्नोंके मुकुटको धारण करनेवाला है, सेवकजनोंको वृत्ति अर्थात भूमि तथा अर्थ (धन) प्रदान करनेवाला है, और समरके संघर्ष में शत्रुओंको जीत चुका है, वह राजा है।३६-४२। (ध. १/१, १,१/५६/१)। घ. १/१,१,१/गा ४७-५१/१६ भविय-सिद्धांताणं दिणयर कर-णिम्मलं हवइ णाणं । सिसिर-यर कर सिच्छ हवइ चरित्तं स-वस चित्तं ॥४७॥ मेरु व णिक्कंप णठ्ठठ्ठ मलं तिमुढ उम्मुक्कं । सम्मदसणमणुवमसमुप्पज्जइ पवयणभासा ।४८। तत्तो चेव सुहाई सबलाई देवमणुयखयराणं । उम्मूलियछ कम्म फुड सिद्ध-सुहं पि पवयणदो। ४६ जियमोहिंधण-जलणो अण्णाण तमंधयार-दिणयरओ। कम्ममलकलुसपुसओ जिणवयण मित्रोवही सुहओ ।। अण्णाण-तिमिरहरणं सुभविय-हिययारविंद-जोहणयं । उज्जोइय-सयल बद्ध सिद्धतदिवायरं भजह ॥५१॥ -जिन्होंने सिद्धान्तका उत्तम प्रकारसे अभ्यास किया है ऐसे पुरुषों का ज्ञान सूर्य की किरणों के समान निर्मल होता है और जिसने अपने चित्तको स्वाधीन कर लिया है ऐसा चन्द्रमाकी किरणोंके,समान निर्मल चरित्र होता है ।४७ प्रवचनके अभ्याससे मेरुके समान निष्कम्प, आठ मल रहित, तीन मूढता रहित सम्यग्दर्शन होता है।४८। देव, मनुष्य और विद्याधरों के सुख प्राप्त होते हैं और आठ कर्मोके उन्मूलित होनेपर प्रवचनके अभ्याससे विशद सिद्ध सुख भी प्राप्त होता है ।४। जिनागम जीवों के मोहरूपी इंधनको अग्निके समान, अज्ञानरूप अन्धकारके विनाशके लिए सूर्य के समान और द्रव्य व भाव कम के मार्जनके लिए समुद्र के समान है ।५० अज्ञानरूपी अन्धकारके विनाशक भव्यजीवोंके हृदयको विकसित करनेवाले, मोक्षपथको प्रकाशित करनेवाले सिद्धान्तको भजो ॥११॥ १०. स्वाध्यायका प्रयोजन व महत्त्व भ. आ./मू./१०४-१०६ सज्झायं कुबंतो पंचिदियसंवुडो तिगुत्तोय। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू ।१०४॥ जह जह सुदमोग्गाहदि अदिसयरसपसरमसुदपुव्वं तु। तह तह पाहादिज्जदि नवनवसंवेगसड्ढाए ।१०। आयापायविदण्ह दसणणाणतवसंजमें ठिच्चा। विहरदि विसुज्झमाणो जावज्जीव दुणिवकपो ।१०६। -जो साधु स्वाध्याय करता है वह पाँचों इन्द्रियों का संवर करता है, मन आदि गुप्तियों को भी पालनेवाला होता है और एकाग्रचित हुआ विनयकर संयुक्त होता है ।१०४। (मू. आ./४१०) जिसमें अतिशय रसका प्रसार है और जो अश्रुतपूर्व है ऐसे श्रुतका वह जैसे-जैसे अवगाहन करता है वैसे ही वैसे अतिशय नवीन धर्म श्रद्धासे संयुक्त होता हुआ परम आनन्दका अनुभव करता है। (ध, १३/५४५५५०/गा.२१.२२/ २८१) स्वाध्यायसे प्राप्त आत्म विशुद्धिके द्वारा निष्कम्प तथा हेयोपादेयमें विचक्षण बुद्धि होकर यावज्जीवन रत्नत्रयमार्ग में प्रवर्तता है ।१०६। प्र.सा. मू./६, २३२-२३७ जिणसरथादो अढे पञ्चवरवादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्यं समधिदब्वं ।८६ एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ।२३। आगमहीणो समणो णेवप्पाणं पर वियाणादि । अविजाणं तो अछे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ।२३३. आगमचक्रवू साह इंदियचक्खूणि सबभूदाणि । देवा य ओहिचकरबू सिद्धा पुण सबंदो चक्खु ।२३४। सव्वे आगमसिद्धा अत्या गुणपज्जए हिं चित्तेहिं । जाणति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ॥२३॥ आगमपुवा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स। णस्थीदि भणदि सुत्तं असंजदोहोदि किध समणो ।२३६। ण हि आगमेण सिझदि सहहणं जदि विणस्थि अत्येसु ।२३७। =जिन शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वालेके नियमसे मोह समूह क्षय हो जाता है इसलिए शास्त्रका सम्यकप्रकारसे अध्ययन करना चाहिए।८६। (न.च. वृ./३१७ पर उद्धृत)। श्रमण एकाग्रताको प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थोंके निश्चयवान् के होती है, निश्चय आगम द्वारा होता है, इसलिए आगमके व्यापार मुख्य हैं ।२३२। आगमहीन श्रमण आत्माको और परको नहीं जानता, पदार्थों को नहीं जानता हुआ भिक्षु कर्मोको किस प्रकार क्षय करे ।।२३३। साधु आगम चक्षु हैं, सर्वप्राणी इन्द्रिय चक्षुवाले हैं, देव अवधि चक्षु वाले हैं और सिद्ध सर्वतः चक्षु हैं ।२३४। समस्त पदार्थ विचित्र गुण पर्यायों सहित आगम सिद्ध हैं उन्हें भी वे श्रमण आगम द्वारा बास्तबमें देखकर जानते हैं ।२३५॥ (यो.सा.अ./६/१६-१७) । इस लोक में जिसकी आगम पूर्वक दृष्टि नहीं है उसके संयम नहीं है इस प्रकार सूत्र कहता है, और असं यत वह श्रमण कैसे हो सकता है ।२३६। आगमसे यदि पदार्थोंका श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती।२३७॥ ९. स्वाध्यायका फल गुणश्रेणी निर्जरा व संवर ध. १/१,१,१/१६/३ कर्मणामसंख्यातगुण श्रेणिनिर्जरा केषां प्रत्यक्षेति चेन्न, अवधिमनःपर्ययज्ञानिनां सूत्रमधीयानानां तत्प्रत्यक्षतायाः समुप- । लम्भात् । - प्रश्न-कौंकी असंख्यातगुणित-श्रेणी रूपसे निजरा होती है, यह किनको प्रत्यक्ष है। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, सूत्रका अध्ययन करनेवालोंकी असंख्यात गुणित श्रेणी रूपसे प्रतिसमय कर्म निर्जरा होती है, यह बात अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानियों को प्रत्यक्ष रूपसे उपलब्ध होती है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय २. स्वाध्याय विधि र. सा./६१,६५ पवयण सारभास परमप्पाज्झाणकारणं जाणं । कम्म- पखवणणि गित्तं कम्मरखवणेहि मोक्रवसोक्वं हि ।। अज्झयणमेव माणं प चेदियणि हं कसायं पि। तत्ते पंचमकाले पक्यणसारन्भासमेव कुज्जा हो।१५। -प्रवचनके सारका अभ्यास ही परब्रह्म परमात्माके ध्यान का कारण है। विशुद्ध आत्माके स्वरूपका ध्यान हो कर्मोंका नाश व मोक्षसुख की प्राप्तिका प्रधान कारण है ।११। प्रवचनसार (जिनागम) का अभ्यास पठन-पाठन और वस्तुविचार ही ध्यान है। उसीसे इन्द्रियोंका निग्रह, मनका वशीकरण व कषायोंका उपशम होता है। इस पचम काल में जिनागमका अभ्यास करना ही जिनागम द.पा./म् /१७ जिगबयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं । जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्य दुक्खाण । -यह जिनवचन रूप औषधि इन्द्रिय विषयसे उत्पन्न सुखको दूर करनेवाला है। तथा जन्म-मरण रूप रोगको दूर करनेके लिए अमृत सदृश है और सर्व दुःखोंके क्षयका कारण है ।११ सू.पा./न./३ सत्तुम्गि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि । सूई जहा समुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि ।३। -जो पुरुष सूत्रका जानकार है वह भवका नाश करता है, जैसे राई डोरे सहित हो तो नष्ट नहीं होती, यदि डोरेसे रहित हो तो नष्ट हो जाती है। स.सि./६२५/४४३/६ प्रज्ञातिशयः प्रशस्ताध्यवसायः परमसंवेगस्तपो वृद्धिरतिचारविशुद्धिरित्येवमाद्यर्थः। -प्रज्ञामें अतिशय लानेके लिए, अध्यवसायको प्रशस्त करनेके लिए, परम संवेगके लिए, तप वृद्धि व अतिचार शुद्धिके लिए, (संशयोच्छेद व परवादियोंकी शंकाका अभाव रा.वा.) आदिके लिए स्वाध्याय तप आवश्यक है। ( रा.वा./६/२५/६/६२४/२०) । ति.प./१/५१ कणयधराधरधीरं मूढत्तयविर हिदं हयमलं । जायदि पवयणपढणे सम्मदसणमणुवसाणं ॥५१॥ - प्रवचन अर्थात् परमागमके पढनेपर सुमेरु पर्वतके समान निश्चल लोय मूढता, देवमूढता. गुरुमूढतासे रहित, शंका आदि आठ दोषोंसे युक्त अनुपम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। दे. स्वाध्याय/१/- में ध./१ जिनागम जीवोंके मोहरूपी ईधनके जलानेके लिए अग्निके समान, अज्ञानको विनाशके लिए सूर्यके समान, तथा कर्मोके मार्जनके लिए समुद्र के समान है। न.च.व./३६४ पर उद्धृत व ३४८ दध्वसुयादो भाव भावदो होइ सव्वसण्णाणं । संवेयणसं वित्ति केवलणाणं तदो भणियो ।। गहिओ सो सुदणाणे पच्छा संवेगणेण झायव्यो। जो णहू सुदमधलंबई सो मुज्झह अप्पसभावे ।३४८-द्रव्यश्रुतसे भावशूत होता है फिर क्रमसे सम्यग्ज्ञान, संवेदन, आत्म संवित्ति, तथा केबलज्ञान होते हैं, ऐसा कहा गया है। (न.च./२६७) श्रुतज्ञानको ग्रहण करके पश्चात् आत्म-संवेदनले ध्याना चाहिए। जो श्रुतज्ञानका अवलम्बन नहीं लेता वह आत्म सद्भावमे मोह करता है ।३४८। स.सा./आ./२७४ स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य द्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानम् । -जो भिन्न बस्तु भूत ज्ञानमय आत्माका ज्ञान वह शाख पठनका गुण है। आ.अनु./१७० अनेकान्तात्मार्थ प्रसवफलभारातिबिनते वचःपर्णाकीर्ण विपुलनयशाखाशतयुते । समुत्तुड्गे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिन श्रुतस्कन्धे धीमान रमयतु मनोमर्कटममुम् ॥१७०। - जो श्रुतस्कन्ध रूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थ रूप फूल एवं फलोंके भारसे अतिशय झुका हुआ है. वचनों रूपी पत्तोंसे व्याप्त है, विस्तृत नयों रूप सैकड़ों शाखाओंसे युक्त है, उन्नत है, तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञान रूप जड़से स्थिर है, उस श्रुत स्कन्ध रूप वृक्षके ऊपर बुद्धिमान साधुके लिए अपने मनरूपी बन्दरको सदा रमाना चाहिए। प.प्र./टी./२/१६१ निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मत्वा तत्परिज्ञानसाधक च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति । - जो निज शुद्धात्माको उपादेय जानकर, ...ज्ञानकी प्राप्तिका उपाय जो शास्त्र, उनको पढ़ता है, तो परम्परा मोक्षका साधक होता है। २. स्वाध्याय विधि १. स्वाध्याय योग्य काल व उसका विभाजन दे कृतिकर्म/४/१ प्रात' का स्वाध्याय सूर्योदयसे दो घड़ी पश्चात प्रारम्भ करके मध्याह्नमें दो घड़ी बाको रहनेपर समाप्त कर देना चाहिए। अपरालका स्वाध्याय मध्याह्नके दो घड़ी पश्चातसे प्रारम्भर सूर्यास्तसे दो घड़ी पूर्व समाप्त कर देना चाहिए। यही क्रम पूर्व रात्रिक ब वैरात्रिक स्वाध्यायमें अपनाना चाहिए। ध.६/४,१,५४/गा. १११-११४/२५८ प्रतिपद्यकः पादो ज्येष्ठा मूलस्य पौर्णमास्यां तु। सा वाचना विमोक्षे छाया पूर्वाह्नवेलायाम् ॥११॥ सैवापराह्नकाले वेला स्याद्वाचनाविधौ विहिता। सप्तपदी पूर्वाद्वापराहयोर्ग्रहण-मोक्षेषु ।११२। ज्येष्ठामूलात्परतोऽप्यापौषादद्वयङगुला हि वृद्धिः स्यात् । मासे मासे विहिता क्रमेण सा वाचनाछाया ।११३॥ एवं क्रमप्रवृद्धचा पादद्वयमत्र होयते पश्चाद। पौषादाज्येष्ठान्ताद द्वचङ्गुलमेवेति विज्ञेयम् ।११४। - ज्येष्ठ मासकी प्रतिपदा एवं पूर्णमासीको पूर्वाह्नकालमें वाचनाकी समाप्तिमें एक पाद अर्थात् एक वितस्ति प्रमाण (जाँघोंकी) वह छाया कही गयी है अर्थात् इस समय पूर्वाह्न काल में बारह अंगुल प्रमाण छायाके रह जानेपर अध्ययन समाप्त कर देना चाहिए।११११ वही समय अपराह्न कालमें वाचना प्रारम्भ करने में कहा गया है। पूर्वाह्न काल में बाचना प्रारम्भ करके अपराह्न कालमें उसे छोड़ने में सात पाद प्रमाण छाया कही गयी है १११२ ज्येष्ठ माससे आगे पौष मास तक प्रत्येक मासमें दो अंगुल प्रमाण वृद्धि होती है, यह कमसे वाचना समाप्त करनेकी छायाका प्रमाण कहा गया है ।११३। इस प्रकार क्रमसे वृद्धि होनेपर पौष मास तक दो पाद हो जाते हैं। पश्चात् पौष माससे ज्येष्ठ मास तक दो अंगुल ही क्रमशः कम होते जाते हैं, ऐसा जानना चाहिए ।११४॥ (और भी दे.काल/१/१०)। २. स्वाध्याय योग्य काल में कुछ अपवाद भ.आ./म./२०५२/१७८४ वायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोसूण तध य धम्मथुर्दि। सुत्तस्स पोरिसीसि बि सरेदि मुत्तत्थ मेयमणो ।२०५२। - ( सल्लखना गत साधु ) वाचना, पृच्छना, परिवर्तना व धर्मोपदेशको छोड़कर सूत्र और अर्थका एकाग्रतासे स्मरण करते हैं। अथवा दिनका पूर्व, मध्य, अन्त तथा अर्धरात्रि ऐसे चार समयों में तीर्थकरोंको दिव्य ध्वनि विरती है। ये काल स्वाध्यायके नहीं हैं, परन्तु ऐसे समयों में भी वे अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं। ३. स्वाध्यायके अयोग्य द्रव्य क्षेत्र काल ध.६४,१.५४/गा.६६-१९४/२५५-२५७ यमपटहरयश्रवणे रुधिरसावे - ऽङ्गतोऽतिचारे च । दातृष्वशुद्धकायेषु भुक्तवति चापि नाध्येयम् ।६६। तिल पलल-पृथुकलाजापूपादिस्निग्धसुरभिगन्धेषु । भुक्तेषु भोजनेषु च दवाग्निधूमे च नाध्येयम् ।१७। योजनमण्डलमात्रे संन्यासविधौ महोपवासे च । आवश्यकक्रिया केशेषु च लुच्यमानेषु ।। सप्तदिनान्यध्ययन प्रतिषिद्ध' स्वर्गगते श्रमण सूरी। योजनमात्रे दिवसत्रितयं वंतिदूरतो दिवसम् ।। प्राणिनि च तीबदुःखाम्रियमाणे स्फुरति चातिवेदनया । एक निवर्तनमात्रे तिर्यच चरम च न पाठ्यम् (१००। तावन्मात्रे स्थावरकायक्षयकर्मणि प्रवृत्ते च। क्षेत्राशुद्धौ दुर्गन्धे बातिकुण पे वा ।१०१। विगतार्थागमने वा स्व शरीरे शुद्धिवृत्तिविरहे वा। नाध्येयः सिद्धान्तः शिवसुरवफलमिच्छता प्रतिना ।१०२१ । प्रमिति-व्यन्तरभेरीताडन-तत्पूजासकटे कपणे वा / संरक्षण-समाजनसमीपचाण्डाल बालेषु ।१०५॥ अग्निजलरुधिरदीप मांसास्थिप्रजनने तु जीवानाम् । क्षेत्रविशुद्धिर्न स्याद्यथोदितं सर्वभावः ।१०६। युक्त्या जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ स्वाध्याय - स्वामित्व • समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशन् स्वाङ्गम् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुत वाचनां मुञ्चेत् ।१०८। तपसि द्वादशसंख्ये स्वाध्यायः श्रेष्ठ उच्यते सद्भिः । अस्वाध्यायदिनानि ज्ञेयानि ततोऽत्र विद्वद्भिः ॥१०६। पर्वसु नन्दीश्वरवरमहिमादिवसेषु चोपरागेषु । सूर्याचन्द्रमसोरपि नाध्येयं जानता वतिना १९१०। अष्टम्यामध्ययनं गुरुशिष्यद्वयवियोगमावहति । कलह तु पौर्णमास्यां करोति विघ्नं चतुर्दश्याम् ॥१११॥ कृष्णचतुर्दश्यां यद्यधीयते साधनो ह्यमावस्याम् । विद्योपत्रासविधयो विनाशवृत्ति प्रयान्त्यशेषं सर्वे ॥११२। मध्याह्न जिनरूपं नाशयति करोति संध्योाधिम् । तुष्यन्तोऽप्यप्रियतां मध्यमरात्री समपयान्ति ।११३। अतितीवदुःखितानां रुदतां सदर्शने समीपे च । स्तनयित्नुविद्य दभ्रेष्वतिवृष्ट्या उल्कनिर्घाते ।११४। = द्रव्य-यम पटहका शब्द सुननेपर, अंगसे रक्तस्रावके होनेपर, अतिचारके होनेपर तथा दाताओंके अशुद्धकाय होते हुए भोजन कर लेनेपर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।६६। तिलमोदक, चिउड़ा, लाई और पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनोंके खानेपर तथा दाबानलका धुंआ होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिए ।१७। एक योजनके घेरे में संन्यास विधि, महोपवास विधि, आवश्यकक्रिया एवं केशों का लोंच होनेपर तथा आचार्यका स्वर्गवास होनेपर सात दिन तक अध्ययन करने का प्रतिषेध है। उक्त घटनाओंके एक योजन मात्रमें होनेपर तीन दिन तक तथा अत्यन्त दूर होने पर एक दिन तक अध्ययन नहीं करना चाहिए।८-६६प्राणीके तीव्र दुःखसे मरणासन्न होनेपर या अत्यन्त वेदनासे तड़फड़ानेपर तथा एक निवर्तन (एक बीघा) मात्रमें तिर्यचौंका संचार होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिए।१००। २. क्षेत्र-उतने मात्र स्थावर काय जीवोंके घात रूप कार्य में प्रवृत्त होनेपर, क्षेत्रकी अशुद्धि होनेपर, दूरसे दुर्गन्ध आनेपर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्धके आनेपर, ठीक अर्थ समझमें न आनेपर (1) अथवा अपने शरीरसे शुद्धिसे रहित होनेपर मोक्ष सुखके चाहनेवाले व्रती पुरुषको सिद्धान्तका अध्ययन नहीं करना चाहिए ।१०१-१०२। व्यन्तरोंके द्वारा भेरी ताड़न करनेपर, उनकी पूजाका संकट आनेपर, कर्षणके होनेपर, चाण्डाल बालकों के समीप झाड़ा-बुहारी करनेपर, अग्नि, जल व रुधिरकी तीव्रता होनेपर, तथा जीवोंके मांस व हड्डियों के निकाले जानेपर क्षेत्रकी विशुद्धि नहीं होती ।१०५-१०६। ३. काल--साधु पुरुषोंने बारह प्रकारके तपमें स्वाध्यायको श्रेष्ठ कहा है। इसलिए विद्वानों को स्वाध्याय न करने के दिनों को जानना चाहिए ।१०।। पर्वदिनों, नन्दीश्वरके श्रेष्ठ महिम दिवसों और सूर्य, चन्द्र ग्रहण होनेपर विद्वान् वतीको अध्ययन नहीं करना चाहिए ।११०। अष्टमी में अध्ययन गुरु और शिष्य दोनों का वियोग करनेवाला होता है। पूर्णमासीके दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशीके दिन किया गया अध्ययन विघ्नको करता है ।१०। यदि साधुजन कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्याके दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवास विधि सब विनाशवृत्तिको प्राप्त होते हैं ।१०८ मध्याह्न कालमें किया गया अध्ययन जिन रूपको नष्ट करता है, दोनों सन्ध्या कालोंमें किया गया अध्ययन ब्याधिको करता है, तथा मध्यम रात्रिमें किये गये अध्ययनसे अनुरक्त जन भी द्वेषको प्राप्त होते हैं ।११३। अतिशय तीव दु.खसे युक्त और रोते हुए प्राणियोंका देखने या समीपमें होने पर, मेधोंकी गर्जना व बिजली के चमकनेपर और अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होनेपर (अध्ययन नहीं करना चाहिए)।११४। (और भी दे. काल/१/१०)। ४: अयोग्य द्रव्यादिमें स्वाध्याय करनेले हानि घ.६/४,१,५४/गा, ११६/२५६ दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तरथसिक्खलोहेण । असमाहिमसज्झायं कलहं वाहि वियोगं च ।११३। = सूत्र और अर्थ की शिक्षा लोभस किया गया द्रव्यादिका अतिक्रमण असमाधि अर्थात् सम्यक्त्वादिको विराघना, अस्वाध्याय अर्थात अलाभ, कलह, व्याधि और वियोगको करता है ।११।। ५. स्वाध्याय प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि ध १/४,१,५४/गा. १०७-१०८/२५६ क्षेत्रं संशोध्य पुनः स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमनाः। प्राशुकदेशावस्थो गृह्णीयाद् वाचन पश्चात ।१०७१ युक्त्या समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशत् स्वाङ्गम् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुतं वाचनां मुञ्चेत् ।१०८। क्षेत्रकी शुद्धि करनेके पश्चात अपने हाथ और पैरोंको शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्रासुक देशमें स्थित होता हुआ वाचनाको ग्रहण करे ।१०७। बाजू और कांख आदि अपने अंगका स्पर्श न करता हुआ उचित रोतिसे अध्ययन करे और यत्नपूर्वक अध्ययनके पश्चात शास्त्र विधिसे वाचनाको छोड़ दे ।१०८१ दे. कृतिकर्म/४/३ [स्वाध्यायका प्रारम्भ दिन और रात्रिके पूर्वाह्न, अपराह्न चारों ही वेलाओं में लधु श्रुत भक्ति, और आचार्य भक्तिका पाठ करके करना चाहिए, नियत समय तक स्वाध्याय करके लघु श्रुतभक्ति पूर्वक निष्ठापना करनी चाहिए। ये .सब पाठ योग्य कृतिकम सहित किये जाते हैं। ६. विशेष शास्त्रोंके प्रारम्भ व समाप्तिपर उपवासादि का निर्देश मू. आ./२८० उद्देस समुद्दे से अणुणापणए अ होति पंचेव। अंगसुदर्खध झेणुवदेसा विय पविभागीय (२८० बारह अंग चौदह पूर्व वस्तु प्राभृत-प्राभृत इनके पाद विभागके प्रारम्भमैं वा समाप्तिमें बा गुरुओं की अवज्ञा होनेपर पाँच-पाँच उपवास अथवा प्रायश्चित्त अथवा कायोत्सर्ग कहे हैं ।२८०। ७. नियमित व अनियमित विधि युक्त पढ़े जाने योग्य कुछ शास्त्र मू. आ./२७७-२७४ सुत्त गणधरकधिदं तहेब पत्त्य बुद्धिकथिदं च। सुदकेवलिणा कधिदं अभिण्णदसपुबकधिदं च ।२७७। तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स। एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिनु' असज्झाए ।२७८। आराहणणिजुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ। पच्चक्वाणावासयधम्मकहाओ य एरिसओ ।२७१। - अंग पूर्व वस्तु प्राभृत रूप सूत्र गणधर कथित श्रुतकेवली कथित अभिन्न दशपूर्व कथित होता है ।२७७१ वे चार प्रकारके सूत्र कालशुद्धि आदिके बिना संयमियोंको तथा आर्यिकाओंको नहीं पढ़ने चाहिए। इनसे अन्य ग्रन्थ कालशुद्धि आदिके न होनेपर भी पढ़ने योग्य माने गये हैं ।२७८। सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओंका स्वरूप कहनेवाला ग्रन्थ, सत्रह प्रकारके मरणको वर्णन करनेवाला ग्रन्थ, पच संग्रहग्रन्थ, स्तोत्र ग्रन्थ, आहारादिके त्यागका उपदेश करनेवाला ग्रन्थ, सामायिकादि छह आवश्यकोंको कहनेवाला ग्रन्थ, महापुरुषोंके चारित्रको वर्णन करनेवाला ग्रन्थ कालशुद्धि आदि न होनेपर भी पढ़ना चाहिए। स्वानुभव-दे. अनुभव । स्वानुभव दपण-आ. योगेन्दुदेव (ई. श.६) द्वारा विरचित अध्यात्म विषयक प्राकृत गाथा बद्ध ग्रन्थ है। इसमें १०६ गाथाएँ हैं। स्वामित्व-१. स्वामित्वका लक्षण स. सि./१/७/२२/३ स्वामित्वमाधिपत्यम् । स. सि./१/२५/१३२/४ स्वामी प्रयोक्ता।- स्वामीका अर्थ अधिष्ठाता है (रा. वा./९/0/-/३८/२).(अवधि व मनःपर्यय ज्ञानके अर्थ में ) स्वामीका अर्थ प्रयोक्ता है (रा. वा./१/२५/-1८६/६) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामित्व २. अष्टकर्मबन्धके स्वामियोंकी ओघ आदेश प्ररूपणा (घ./.सं./पृ.सं.) प्रकृति (म.नं./पु. सं. १. प्रकृति बन्ध मूल उत्तर बन्धक सामान्य २. स्थिति बन्ध मूल. 11 उत्तर मूल उत्तर | साता असाताके २,३,४ स्थानीय अनुभाग बंधक जीवोंकी अपेक्षा ३. अनुभाग बन्ध- मूल उत्तर मूल उत्तर वेदनीय मोहनीय काल सामान्य बोच आदेश ४. प्रदेश बन्ध ५. विशेषज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय आयु नाम, गोत्र अन्तराय " ओघ आदेश बन्धकके भाव कालों में अपबहुत्व स्थानों - सं. पू. सं. विषय प्रकृति ओष आदेश मूल 19 " ११ 11 ज्ञानावरणी सू २. दर्शनीय अन्तराय मूल ३ वेदनीय मूल ५-७. आयु, नाम, गोत्र उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट 27-88/00-936 म./२/३ म./२/२७६ ध. १९/३१६ म. /४/१५ म. /४/२१६ ध. १२/१३ म./६/२४ म./६/३ विषय प्रदेश संचय 11 11 ११ विषय क्षेत्र या अवगाहना "1 ५२७ भुजगार आदि पद म./२/१४ म. / २ / ३३ म. / ४ / २६६ म. /५/३४५ म./६/१४ उत्कृष्ट घ. १०/११ घ. १० / २२५ उत्कृष्ट भ. १२/१४ ध. ११/२६ ध. ११/२६ ध. १९/३३ वृद्धि हानि म. / २ / ३२ म./२/१३५ म. ४/१४ म./५/२३६ म./६/२२४६. अनुत्कृष्ट ध. १०/२१० घ. १०/२५५ अनुत्कृष्ट म. १९/२३ घ. ९९/२१ ध. १९/३३ घ. १९/३३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश असंख्यात भागादि वृद्धि म. / २ / ११३ म. / ३ / ०१ म. /४/२१६ म./५/३६१ १६१४ घ. ११/२१९ ब. सं . / १२ / २५६२६७/२१४ जघन्य ध. १०/२६० ध, १० / ३१२ घ. १०/३१६ ध. १०/३१२ घ. १० / ३३० घ. १० / ३३० ध. १०/३१२ जघन्य घ. १९/३३ घ. १२/५३ 11 सामान्य स्वामित्व म./१/१२-१४ घ. ११/८७ अजघन्य ध. १०/२६६ घ. १०/२१४ घ. १०/३२७ घ. १०/११४ ध. १० / ३३६ ध. १०/३३० ध. १०/३१४ अजघन्य घ १९ / ३३ ध. ११/५३ " 17 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामित्व स्वामित्व ५२८ ३. मोहनीय कर्म सत्वके स्वामित्व विषयक ओघ भादेश.प्ररूपणा-(क.पा, मूल या उत्तर विषय उत्कृष्टानुत्कृष्ट भुजगारादि पद ज. उ. वृद्धि हानि षट् स्थान वृद्भि-हानि स्वामित्व सामान्य १. प्रकृति सत्त्व राग व द्वेष भाव सामान्य कर्म सत्ता व असत्ता सामान्य कर्म सत्व असत्त्व ३/३३ २/६३६ उत्तर २/१११० २/१३ २/६३१३ २/३१ २/४ २/838 परस्पर सन्निकर्ष २८, २४, २३ आदि स्थानोंकी | समुत्कीर्तना २. स्थिति सत्त्व ३/३४ २] उत्तर ३. अनुभाग सत्व ३/६३२२ ५/१४२ ५/ उत्तर - व भुजगारादि ज.उ. वृद्धि हानि स्वामित्व सामान्य स्थानोंकास. प्रकृति उत्कृष्टानु• त्कृष्ट भुजगारादि ज. उ. वृद्धि ____ हानि षट् स्थान वृद्धि हानि स्वामित्व सामान्य उत्तर १. अष्ट कर्म उदीरणाके स्वामित्व विषयक ओघ आदेश ५. अष्टकर्मोदय स्वामित्व सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा प्ररूपणा (ध. १५/पृष्ठ सं.) (ध. १५/पृष्ठ सं.) मूल मूल जघन्य भंगों या || .. क्र. प्रकृति मूल व उत्तर स्वामित्व १. प्रकृति उदोरणा १ प्रकृति उदय१। अष्टकर्म । मूल ४६-४८ ५१ ५३ ४४-४६ || अष्टकर्म मूल २ ज्ञाना,दर्शना उत्तर ८१-८३ | १७-६६ ३ वेदनीय मोह , , ८१-८३ २ स्थिति उदय[४ आयु, नाम ८१:८३ गोत्र, अन्तरा अष्ट कर्म | २१० २६४ २६५ | २६५ ८६-६६ २६५ उत्तर २८५ १४-६१ उत्तर २८५ २८६ १ उत्तर २६५ १७ २ स्थिति उदीरणा। अष्टकर्म | मूल | १०४३ अनुभाग उदीरणा ३ अनुभाग उदय| अष्टकर्म | मूल २६५ उत्तर - २६५ २६५ २६६ २३७ | ४ प्रदेश उदय ४ प्रदेश उदोरणा१ अष्टकर्म | मूल २६३, अष्टकर्म | मूल | २६६२६६२६६ उत्तर | २६७- | ३२५ ३३२ ३३४ २७१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थ ६. अन्य विषयोंके स्वामित्व सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा (ध. १५ / पृष्ठ सं.) विषय सं प्रकृति १ मूलोत्तर प्रकृति- उपशमना संक्रमण २ मूलोसर स्थिति उपममा संक्रमण ३ लोडर अनुभाग उपशमना संक्रमण ४ मूलोत्तर प्रदेश- उपशमना संक्रमण - जघन्योत्कृष्ट " ↑ 11111 भुजगारादि पद २८० २९३-२८४ २८१ २८१-२०४ २८२ २०३-१८४ २८२ २८३-२८४ ज. उ. वृद्धि हानिद ↓ ↓ ↓ ↓ ↓ ↓ स्वामित्व सामान्य २७६ ०. अन्य सम्बन्धित विषय १. पाँचों शरीरको जघन्योत्कृष्ट संघातन परिशातन कृतिके स्वामित्वकी ओषादेश प्ररूपणा - प. खं//सू. ७२/२२१-२४६४ २. पाँच शरीरोंमें बन्धको प्राप्त वर्गणाओंमें व. उ. वित्रसोपव स्वामित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा - (ध. १४ / ५५६-५६२ ) । स्वार्थ स्व. स्तो./मू./३१ स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पंसां स्वार्थी न भोगः परिभङ्गुरात्मा तृशेऽनुषङ्गान्न च तापशान्तिरितीदमाख्यद्भगवान् सुपार्श्वः | ३१। = यह जो आत्यन्तिक स्वास्थ्य है वही पुरुषों का स्वार्थ है. क्षणभंगुर भोग स्थर्य नहीं है, क्योिं विषयसुख सेवनले उत्तरोत्तर की वृद्धि होती है सापकी शान्ति नहीं होती। यह स्वार्थ और अस्वार्थका स्वरूप शोभन पावके धारक भगवान् सुपार्श्वने बताया है |३१| स्या. म. / ३ / १५/२१ तेषां (ज्ञानिनां ) हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतरत्रात् 1 = महात्मा लोग दूसरेके स्वार्थ को अपना स्वार्थ समझते हैं । अन. प. गौममेव सदा कुर्यादार्यः स्वार्थसिद्धये साध्ये विरोधता 1४४| परोपकारको अपेक्षा न करके आत्म कल्याणके लिए निरन्तर मौन धारणा चाहिए। परोपकारका कार्य ऐसा हो जो कि एक अपने द्वारा ही सिद्ध होता हो तो आत्म कवयाण में विरोध न आवे इस तरह बोलना चाहिए |४ | ५२९ २७८ । स्वार्थ प्रमाण दे, प्रमाण/१/२ । स्वार्थानुमान अनुमान /१ - दे. स्वास्तिक- रुचक पर्वतस्थ एक कूट- दे. लोक /७ ॥ स्वास्थ्य - १. स्वास्थ्यका लक्षण स. श. / ३६ यदा मोहात्प्रजायेत रागद्वेषौ तपस्विनः । तदैव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् । ३हा - जिस समय तपस्वीके मोहके उदयसे रागद्वेष उत्पन्न हो जावें, उस समय तपस्त्री अपने स्वास्थ्य ( आत्म स्वरूप ) की भावना करे, इससे वे क्षणभर में शान्त हो जाते हैं । भ. ग्रा./बि.१०/१०/१० मन्दरहिता निर्जरा स्वास्थ्यं प्रापयति रा बन्ध सहभाविनीति | =बन्ध रहित निर्जरा ही स्वास्थ्य अर्थात् मोक्ष प्रदान करती है, परन्तु मन्दभाविनो निर्जरा मुक्तिका कारण नहीं । सामायिक पाठ / अमित / २४ न सन्ति बाह्याः मम केचनार्थाः भवामि तेषां न कदाचनाहम् । इत्थं विनिश्चिन्त्य विमुच्य बाह्याः स्वस्थं तदा त्वं भव द्रमुक्तये | २४ | कुछ भी बाह्य पदार्थ मेरे नहीं है, और मैं भी उनका कभी नहीं हूँ। ऐसा सोचकर तथा समस्त बाह्यको छोड़कर, हे भद्र ! तू मुक्ति के लिए स्वस्थ हो जा । = भा० ४-६७ स्वार्थ में संस्तो आरोपयोग ही स्वास्थ्य है। पं. वि. /४/६४ साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतो निरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवत्येकार्थ वाचकाः ६४ - साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध, और शुद्धोपयोग एकार्थवाची हैं। * अन्य सम्बन्धित विषय १. परम स्वास्थ्यके अपर नाम २. स्वास्थ्यबाधक पदार्थ अभक्ष्य हैं। स्वाहा बा/नि./१०३६/९७६६/२ स्वाहाकारान्ता सहित मन्त्रस्य । जिसके अन्त में स्वाहाकार है, वह विद्या है। मन्त्र स्वाहाकारसे रहित होता है । स्वोदय बंधी प्रकृतियाँ /०/२ स्वोपकार- दे. कार । हरिकान्त [ह] हंस - १. प. प्र./टी./२/१७० अनन्तज्ञानादिनिर्मलगुणयोगेन हंस इव हंस परमात्मा । अनन्तज्ञानादि निर्मल गुण सहित हंसके समान उज्ज्वल परमात्मा हंस हैं । २. परमहंसके अपर नाम-दे. मोक्षमार्ग/२/५ हंसगर्भ-विजयार्थी उत्तर प्रेमीका नगर विद्याधर हड्डी- अस्थि -३ मा २/४६ । भक्ष्याभक्ष्य / १/३ | दे. हत-गणितकी गुणकार विधिमें गुण्य राशिको गुणकार करि हत किया गया कहलाता है । - दे. गणित / II / १/५ । हतसमुपतिक अनुभाग/९/० हत्या - १. दे. हिंसा, २. आत्महत्या दे. मरण / ४ । हनन गणित विधिमें दो राशियों को परस्पर गुणा करना / दे. गणित / II / २ / ५१ हनुमंत चरित्र - शयम (ई. १५०५-१२१२३ भाषा प्रथ हनुमान् -१, मानुषोत्तरपर्वतस्थ वज्रकूटका स्वामी भवनवासी लोक./१०१२. प. पू. / सर्ग / श्लोक पूर्वभव सं. ६ में दमयन्त पाँच में स्वर्ण१०/१४२-१४) चोथेने सिंहबह नामक राजपुत्र ( १७/१५१ ) तीसरे में स्वर्ग में देव ( १७/१५२) दूसरे में सिंहवाहन राजपुत्र ( १७/१५४ ) और पूर्वभव में लान्तव स्वर्ग में देव था ( १७/१६२ ) वर्तमान भवमें पवनंजयका पुत्र था (१७/१६४,३०७) । क्योंकि विमानमें से पाषाण शिलापर गिरनेपर इसने पत्थरको चूर्णचूर्ण कर दिया इसलिए इनका नाम श्रीशैल भी था । ( १७/४०२ ) रामायण युद्धमें रामकी बहुत सहायता की। अन्त में मेरुकी बन्दनाको जाते समय उल्कापातसे विरक्त होकर दीक्षा ले लो ( ११२/७६ ); ( ११३/३२); तथा क्रमसे मोक्ष प्राप्त किया ( १११ / ४४-४५ ) । हरण हनुरुहद्वीप- हनुमानकी माता अंजना के मामा प्रतिसूर्य का राज्य । ( प. पु. / १७/३४६ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भरत क्षेत्रकी एक नदी -दे, मनुष्य / ४ । हरिपुरके राजा कार्यका पुत्र था। इसीके नामपर हरिवंशकी उत्पत्ति हुई ( ह. पु. /१५/५७-५८ ) - दे. इतिहास १० / १८ । निषेध पर्वतस्थ एक कूट व उसका स्वामी देव - दे. लोक /५/४ ३. विद्य ुत्प्रभ गजदन्तका एक कूट व उसका रक्षक देव - दे. लोक५ / ४: ४. मान्यवान्पव तस्थ एक कूट व उसकी स्वामिनी देवी ! ६. हरिकांत - १, हरि क्षेत्र में स्थित एक कुण्ड जिसमें से हरिकान्ताद 'निकलती है। -दे, लोक३/१०। २. है मवत पर्वतस्थ एक कूट व उसका स्वामी देवक/५/४ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकान्ता ५३० हाथ हरिकांता-हरि क्षेत्रकी एक प्रसिद्ध नदी-दे. लोक/३/१० । हरिवंश पुराण-पुन्नाटसंघीय आ. जिनसेन (ई. ७८३) कृत ६६ हारक्षेत्र-रा. वा./३/१०1८/१७२/२७ हरिः सिंहस्तस्य शुक्लरूपप सर्ग तथा १०,००० श्लोक संस्कृत काव्य । (ती./३/४)। २. कवि रिणामित्वात् तद्वर्णमनुष्याद्य षितवाद्धरिवषः इत्यारख्यायते ।-हरि धवल (वि. श. ११-१२) कृत अपभ्रंश काव्य । (ती./४/११९)। अर्थात् सिंहके समान शुक्ल रूपवाले मनुष्य इसमें रहते हैं अतः यह ३.न.जिनदास (ई. १३६३-१४६८) कृत ४० सर्ग प्रमाण संस्कृत. हरिवर्ष कहलाता है। (यह अढाई द्वीपों में प्रसिद्ध तीसरा क्षेत्र है।। काव्य । (ती./३/३४०)। ४. कबि रधु (वि. १४५७-१५३६) कृत २. इस क्षेत्रका अस्थान व विस्तारादि-दे. लोक/३/३ । ३. इस अपभ्रश काव्य (दे. रणधु)। ५. सकलकीति (ई. १४०६-१४४२) कृत क्षेत्र में काल बर्तन आदि सम्बन्धी विशेषताएँ-दे, काल/४/१५ । संस्कृत काव्य । (दे. सकलकीति)। हरिचन्द्र-नोमक वंशके कायस्थ आर्द्रदेव नामक श्रेष्ठी के पुत्र हरिवर्मा-अंगदेशके चम्पापुर नगरका राजा था। दीक्षा धारण कर आचारशास्त्र के बेत्ता जैन कवि गृहस्थ । कृति-धर्म शर्माभ्युदय, ११ अंगोंका अध्ययन किया। दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओंका जीवन्धर चम्पू । समय-ई. श. १० का मध्य । (ती./४/१४) । चिन्तवन कर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया। अन्तमें समाधि २. 'अणस्थमियकहा' के रचयिता एक अपभ्रंश कवि गृहस्थ । मरणकर प्राणत स्वर्गमें इन्द्र हुआ। (म. पु/७/२-१५) यह समय -वि. श. १५ का मध्य । (ती./४/२२२) । मुनिसुवत नाथ भगवान्का पूर्वका दूसरा भव है।-दे. मुनिसुव्रत । हारत-१. हरिक्षेत्रकी प्रसिद्ध नदी-दे. लोक/३/११। २. हरिक्षेत्रमें। हो हरिवर्ष-१.हिमवान् पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक ५/४ २. हिरात स्थित एक कुण्ड जिसमें-से कि हरित. नदी निकलती है।-दे. बस्तीसे तात्पर्य है जिसका पर्वत महामेरु शृखलाके अन्तर्गत निषध लोक/३/१०:३. निषध पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/१४:४. हरित ( हिन्दुकुश ) है जो मेरु तक पहुँच जाता है। अवेस्तामें इसका नाम कुण्डव हरित कुण्डको स्वामिनी देवी-दे. लोक/३/१०॥ 'हरिवरजो' प्रसिद्ध है । (ज. प./प्र. १३६ ) । हरिताल-मध्य लोकके अन्तका पन्द्रहवाँ सागर व द्वीप-दे. हरिषेण-१. साकेत नगरीके स्वामी वज्रसेनका पुत्र था। दीक्षा लोक/५/१। धारणकर आयुके अन्त में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। (म. पु./७४/ २३२-२३४) यह वर्धमान भगवानका पूर्वका सातवाँ भव।।-दे. हरिदेव-चंगदेव की सप्तम पीढ़ी में उत्पन्न, मयणपराजय चरिउ के वर्धमान २. पूर्वभव सं.२. में अनन्तनाथ भगवान के तीथ में एक बड़ा रचयिता एक सदगृहस्थ अपभ्रंश कवि । राजा था। पूर्व भवमें स्वर्ग में देव था। (म. पु./६७/६१ ) वर्तमान चङ्गदेव भवमें दसवाँ चक्रवर्ती था। विशेष-दे. शलाकापुरुष/२: ३. काठियावाडके वर्धमानपुर नगर वासी पुन्नाटसंधी आचार्य । कृति बृहत्कथा कोष । समय-ग्रन्थ रचनाकाल शक ८५३ (ई. १३१)। किंकर कृष्ण हरिदेव द्विजपति राधव (ती./३/६५) ४. चित्तौड़ बासी अपभ्रश कवि। कृति-धम्मपरिनागदेव क्खा । समय-ग्रन्थ रचनाकाल वि. १०४४ । (ती./४/१२०)। हर्ष वर्धन-१. स्थानेश्वरके राजा थे। समय-वि, ६६७-७०७ (वैद्यराज ) हेम राम (वैद्यराज) (ई,६१०-६५०); (क्षत्र चूड़ामणि प्र./८ प्रेमो)। २. एक चीनी यात्री था। भारतमें ई. ७०० में आया था । समय-ई. ७०० । ३. भोज प्रियंकर (दानी) वंशीराजा मुब्ज के पिता। समय-ई.६४०-६६४ (दे. इतिहास/३/१) । मुल गित (वैद्यराज हस्त-१. एक नक्षत्र-दे. नक्षत्र, २. क्षेत्रका प्रभाव विशेष । अपर नाम हाथ-दे. गणित/I/१/३।। समय -ई. श.१४ का अन्तिम चरण । नागदेव हस्तकम-भ, आ./वि.६१३/८१२/६ छेदनं भेदनं, पेषणमभिघातो, (ती./४/२१८)। व्यधन, खनन, बन्धनं, स्फाटन, प्रक्षालनं, रञ्जनं, वेष्टन, प्रन्थनं. हरिद्वती-भरत क्षेत्र वरुण पर्वतस्थ एक नदी-दे. मनुष्या४। पूरणं, समुदायकरणं, लेपनं, क्षेपणं आलेखन मित्यादि संक्लिष्ट हस्तकम ।-छेदन करना, भेदन करना, पीसना, आघात करना, हरिभद्र--, महातार्किक तथा दार्शनिक प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य। चुभना, खोदना, बाँधना, फाड़ना, धोना, रंगाना, वेष्टन करना, कृतियें-षड्दर्शन समुच्चय, जंबूदीव संघायणी, लीला विस्तार गूथना, पूर्ण करना, एकत्र करना, लेपन करना, फेकना, चित्र बनाना टीका। समय-वि. ५८५ में स्वर्गवास । अतः ई. ४८०-५२८ । आदि कार्य को संक्लिष्ट हस्तकर्म कहते हैं। (द. सा. प्र. २८/प्रेमीजी) । २. याकिनीसूनु के नाम से प्रसिद्ध हस्तनागपुर-कुरुजांगल देशका एक नगर-दे. मनुष्य/४। श्वेताम्बराचार्य । कृति-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य की स्वीपाटीका इत्यादि सैकड़ों ग्रन्थ । समय-वि. श.८-१। (जै./२/३००, ३७१)। हस्तिनायक-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. ३. मानवदेव उपाध्याय के शिष्य श्वेताम्बराचार्य। समय- विद्याधर। वि. १९७२ । (जै./१/४३२)। -कालका एक प्रमाण विशेष-दे. गणित/१/४ | हरिमश्रु-एक क्रियावादी-दे. क्रियावाद ।। नी-भरत क्षेत्रस्थ आर्य स्खण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४। हरिवंश-सुमुख राजाने बीरक नामक श्रेष्ठीकी स्त्रीका हरण कर उससे भोग किया। ये दोनों फिर आहार दानके प्रभावसे हरिक्षेत्र में हस्तिमल्ल-सेनसंधी आचार्य एक संस्कृत नाटककार । कृतिउत्पन्न हुए। पूर्व वैरके कारण वीरकने देव बनकर इसको (सुमुखके विक्रान्त कौख, मैथिली कल्याणम्, अञ्जना पवनजय, आदि जीवको) भरत क्षेत्र में रख दिया। चूकि यह हरिक्षेत्रसे आया था पुराण, उदयनराज आदि । समय-वि.१३४७ (कर्नाटक कवि चरिते)। इसलिए इसके वंशका नाम हरिवश हुआ। (प. पु./२१/२-७३४८ ई. ११६९-११८१ ती./३/२८०) । ५५); (ह. पु./१५/५८)। -दे० इतिहास /१०/१८ । हाथ-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपर नाम हस्त-दे. गणित/I/११ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हानि हिंसा हानि-१. दो गुणहानि, ड्योढ गुणहानि-दे. गणित/11/६ । षट् गुण हानि वृद्धि-दे. षट् । हार-१. शास्त्रार्थ में हार जीत सम्बन्धी-दे. न्याय/२। २. गणित की भागहार विधिमें जिस राशिसे भाग दिया जाता है सो हार है।-दे. गणित/II १/६। हारित-एक क्रियावादी-दे, क्रियावादी। हारिद्र-सौधर्म स्वर्गका २२ वाँ पटल व इन्द्रक-2. स्वर्ग/५/३। हारी-एक विद्या-दे. विद्या। हार्य-गणितको भागाहार विधि में जिस राशिका भाग किया जाये सो हार्य है। -दे. गणित/II/१/६ । हाव-मुख विकार-दे. विभ्रम । हास्तिन-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । हास्तिविजय-विजयाईकी उत्तर श्रेणीका नगर।-दे. विद्याधर । हिंसाके भेद व लक्षण हिसा सामान्यके भेद । पारितापि आदि हिंसा निर्देश । संकल्पी आदि हिसा निर्देश । असत्यादि सर्व अविरति भाव हिसा रूप है। * आखेट । -दे. आखेट । | सावध योग। -दे. सावद्य। कर्मबन्धके प्रत्ययोंके रूपमें हिसा। -दे. प्रत्यय/१२ । एक समयमें छह कायकी हिसा सम्भव है। हिसा अत्यन्त निन्द्य है। . ७ हिंसकके तपादिक सर्व निरर्थक हैं । " rm निश्चय हिंसाकी प्रधानता स्व हिंसा ही हिंसा है। अशुद्धोपयोग व कषाय हो हिसा है। | निश्चय हिंसा ही प्रधान है व्यवहार नहीं । मैं जीवोंको मारता हूँ ऐसा कहने वाला अशानी है। हास्य-१. हास्य प्रकृतिका लक्षण स.सि./-/8/२८९/१२ यस्योदयाद्धास्याविर्भावस्तद्धास्यम् ।-जिसके उदयसे हँसी आती है वह हास्य कर्म है। (रा. वा./८/६/४/५७४/ १७); (गो. क./जो.प्र./३३/२७) । ध.६/१,६-२४/४७/४ हसनं हासः । जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण हस्सणिमित्तो जीवस्स रागो उप्पजइ, तस्स कम्मवखं धस्स हास्सो त्ति सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो। =हँसनेको हास्य कहते हैं। जिस कर्म-स्कन्ध के उदयसे जीवके हास्य निमित्तक राग उत्पन्न होता है उस कर्म-स्कन्धको कारणमें कार्य के उपचारसे हास्य संज्ञा है। ध. १३/५.५.६६/३६१/८ जस्स कम्मस्स उदएण अणेयविहो हासो समुप्पज्जदि त कम्म हस्सं णाम । =जिस कर्मके उदयसे अनेक प्रकारका परिहास उत्पन्न होता है वह हास्य कर्म है। wom व्यवहार हिंसाकी कथंचित् गौणता व मुख्यता कारणवश या निष्कारण भी जीवोंका घात हिंसा है। वेद प्रणीत हिला भी हिंसा है। खिलौने तोड़ना भी हिंसा है। हिंसक आदि जीवोंकी हिंसा भी योग्य नहीं। धर्मार्थ भी हिंसा करनी योग्य नहीं। छोटे या बड़े किसीकी भी हिंसा योग्य नहीं। सूक्ष्म भी त्रस जीवोंका बध हिंसा है। -दे. मांस/५ । निगोद जीवको तीव्र वेदना नहीं होती। -दे. वेदना समुद्धात/३ । संकल्पी हिंसाका निषेध। विरोधी हिसाकी कथंचित् आशा । बाध हिसा, हिंसा नहीं। * * * अन्य सम्बन्धित विषय १. हास्य राग है। -दे. कषाय/४। २. हास्य प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा।-दे. वह वह नाम । ३. हास्य प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम। -दे. मोहनीय/३/६ । ९ बाप हाहांग-कालका प्रमाण विशेष । - दे. गणित/I/१/४ | हाहा-१. गन्धर्व नामा व्यन्तर जातिका भेद -दे. गन्धर्व । २. कालका एक प्रमाण विशेष । -दे. गणित/1/१/४। ० wom» * निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय निश्चय हिंसाको हिंसा कहनेका कारण । निश्चय हिसाको हिंसा कहनेका प्रयोजन। । व्यवहार हिंसाको हिसा कहनेका प्रयोजन । जीवसे प्राण भिन्न है, उनके वियोगसे हिंसा क्यों । व्यवहार हिसाको न माने तो जीवोंको भरमवत् मल दिया जायेगा। -दे. विभाव/५/५ । हिंसा व्यवहार मात्रसे है निश्चयसे तो नहीं। भिन्न प्राणोंके घातसे न दुःख है न हिंसा। निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय। -दे, हिंसा/४/१। हिगुल-मध्य लोकके अन्तका ग्यारहवाँ सागर व द्वीप । -दे. लोक/५/१। * हसा-स्व व परके अन्तरंग व बाह्य प्राणों का हनन करना हिंसा है। जहाँ रागादि तो स्व हिंसा है और षट् काय जीवों को मारना या कष्ट देना पर हिंसा है। पर हिंसा भी स्व हिंसा पूर्वक होने के कारण परमार्थ से स्व हिंसा ही है। पर निचली भूमिकाकी प्रत्येक प्रवृत्ति में पर हिंसा न करनेका विवेक रखना भी अत्यन्त आवश्यक है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिसा ५३२ २. निश्चय हिंसाकी प्रधानता १. हिंसाके भेद व लक्षण सर्वत्र सद्भावात ।१८७। हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ११०८ हिंसा १. हिंसा सामान्यके भेद पर्यायत्वात्सिद्धा हिंसान्तरङ्गसड्गेषु । बहिरड्गेषु तु नियत' प्रयातु १. निश्चय मूछ हिंसात्वम् ।११। रात्रौ भुजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा। हिंसा विरतै स्तस्मात्त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ।१२६ -१, क. पा. १/१,१/१८३/ गा. ४२/१०२ तेसिं ( रागादोण) चे उप्पत्ती क्योंकि इस सम्पूर्ण असत्य वचनमें एक प्रमाद योग ही कारण है हिंसेति जिणेहि णिहिट्ठा ।४। -रामादिककी उत्पत्ति ही हिंसा है, इसलिए असत्य वचन बोलने वालेमें अवश्य ही हिंसा होती है, ऐसा जिनदेव ने कहा है । (स, सि./७/२२/३६३ पर उद्धृत) (भ. आ/ क्योंकि हिंसाका कारण एक प्रमाद ही है । (अन. ध./४/३६ ) २. वि./८०१-८०२) (पु. सि. उ./४४); (बन, ./४/२६/३०८) प्रमादके योगसे बिना दिये हुए स्वर्ण वस्त्रादिक परिग्रहका ग्रहण प्र. सा./त. प्र./२१६,२१७ अशुद्धोपयोगो हि छेदः...स एव च हिंसा करना चोरी कहते हैं वही चोरी हिंसा है, क्योंकि वह प्राणघातका ।२१६। अशुद्धोपयोगो अन्तरङ्गछेदः।२१७। वास्तव में अशुद्धोपयोग छेद कारण है ।१०२। ये जितने भी स्वर्ण आदि पदार्थ है वे सब पुरुषके है और वही हिंसा है ।२१६। अशुद्धोपयोग अन्तरंग छेद है। बाह्य प्राण हैं। इसलिए जो जिसके इन पदार्थों का हरण करता है वह प. प्र./टी./२/१२५ रागाद्य त्पत्तिस्तु निश्चयो हिंसा । -रागादिकी उसके प्राणोंको हो हरता है ।१०३। ( ज्ञा./१०/३ ) ( अन, ध./४/४६); उत्पत्ति वह निश्चय हिंसा है। ३. स्त्री पुरुष आदि वेद भावके परिणमन रूप रागसे सहित योगको अन. ध/४/२६ परं जिनागमस्येदं रहस्यमवधार्यताम् । हिंसा रागाद्य त्प- मैथुन कहते हैं। वही अवह्म है। तिस विषै हिंसा अवतार धरै है, त्तिरहिंसा तइनुद्भवः।२६। -जिनागमके इस परमोत्कृष्ट रहस्यको ही क्योंकि कुशील करने तथा करानेवालेके सर्व हिंसाका सद्भाव है ।१०७॥ हृदयमें धारण करो कि रागादि परिणामोंका प्रादुर्भाव होना हिंसा जैसे तिलोसे भरी हुई नली में तपे हुए लोहेकी सलाई डालनेपर है...२६ उस नलीके समस्त तिल जल जाते हैं। इसी प्रकार स्त्री अंगमें पुरुषके पं.ध./उ./७५५ अर्थाद्रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मो वतच्युतिः १७५४॥ अंगसे मैथुन करनेपर योनिगत समस्त जीव तत्काल मर जाते हैं ।१०८। = रागादिका नाम ही हिंसा, अधर्म और अवत है ।...) ४. अन्तरंग चौदह प्रकार परिग्रहके सभी भेद हिंसाके पर्यायवाची होनेके कारण हिसा रूप ही सिद्ध है। और बहिरंग परिग्रहविषै २. व्यवहार मूळ या ममत्व भाव ही निश्चयसे हिंसापनेको प्राप्त होता है ।११।। त. सू./७/१३ प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।१३। -प्रमाद योगसे १. रात्रिमें भोजन करनेवालोंको क्योंकि अनिवारित रूपसे हिंसा किसी जीवके प्राणोंका व्यपरोपण करना अर्थात् पीड़ा देना हिंसा है। होती है, इसलिए अहिंसा व्रतधारी जनोंको रात्रि भोजन त्याग प्र. सा./त. प्र./३/१७ प्राणव्यपरोपो हि बहिरङ्गच्छेदः। -प्राणोंका अवश्य करना चाहिए ।१२६। व्यपरोपण बहिर ग छेद है। ५. एक समयमें छह कायकी हिंसा सम्भव है पु.सि.उ./४३ यत्रवलु योगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।४३ = कषाय रूप परिणमा जो गो.क./भाषा/७६४/६६५४४ छह कायकी हिंसा विषै एक जीवकै एकै मन वचन काय योग तिसके हेतु है द्रव्य भाव स्वरूप दो प्रकार प्राणो- काल एक कायकी हिंसा होय, वा दो कायकी हिंसा होय, वा तीनकी का पोड़ना या घात करना, निश्चय करि वही हिंसा है। वा चारकी, वा पाँचको वा छहकी हिंसा होय । २. पारितापिकी आदि हिंसा निर्देश ६. हिंसा अत्यन्त निन्द्य है भ. आ./मू./८०७ पादोसिय अधिकरणीय कायिय परिदावणादिवादाए। ज्ञा/८/१६.५८ हिंसैव दुर्गतेद्वार हिंसैव दुरितार्णवः। हिंसैब नरक एदे पंचोगा किरियाओ होंति हिंसाओ। = द्वेषिकी, कायिकी, घोर हिंसैव गहनं तमः ॥१६॥ यत्किचित्संसारे शरीरिणां दुःखशोकप्राणघातिकी, पारितापकी, क्रियाधिकरणी ऐसे पाँच प्रकारकी भयबीजम् । दीर्भाग्यादि समस्तं तद्धिसासंभवं ज्ञेयम् ।५८ -हिंसा क्रियाओं को हिंसा क्रिया कहते हैं 1८०७) ही दुर्गतिका द्वार है, पापका समुद्र है, तथा हिंसा ही घोर नरक ३. संकल्पी आदि हिंसा निर्देश और महान्धकार है ।१६। संसारमें जीवोंके जो कुछ दुःख-शोक व भयका बीज रूप कम है तथा दौर्भाग्यादिक हैं वे समस्त एकमात्र नोट:-[ हिंसा चार प्रकारकी होती है -संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी हिंसासे उत्पन्न हुए जानो।५८ व विरोधी। बिना किसी उद्देश्यके संकल्प प्रमादसे की जानेवाली हिंसा संकल्पी है । भोजन आदि बनाने में, घरकी सफाई आदि करने ७. हिंसकके तपादिक सब निरर्थक हैं रूप धरेलू कार्यों में होनेवाली हिंसा आरम्भी है। अर्थ कमाने रूप व्यापार धन्धे में होनेवाली हिंसा उद्योगी है। तथा अपनी, अपने ज्ञा./८/२० निःस्पृहत्वं महत्त्वं च नैराश्यं दुष्करं तपः। कायवलेशश्च आश्रितोंकी अथवा अपने देशकी रक्षाके लिए युद्धादिमे की जानेवाली दानं च हिंसकानामपार्थ कम् ।२०1 = जो हिंसक पुरुष हैं उनकी हिंसा विरोधी हैं। निस्पृहता, महत्ता, आशारहितता, दुष्कर तप करना, कायक्लेश और दान करना आदि समस्त धर्म कार्य व्यर्थ हैं अर्थात निष्फल हैं ।२०) ४. असत्यादि सर्व अविरति भाव हिंसा रूप हैं पु. सि. उ./श्लोक सं. सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्प्रमत्तयोगैकहेतुकथन यत् । २.निश्चय । प्रधानता अनृतवचनेऽपि तस्मानियतं हिंसा समवतरति ।। अवतीर्णस्य । ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यद । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा १. स्वहिंसा ही हिंसा है वधस्य हेतुत्वात् ।१०२१ अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः भ, आ./मू. ८०३, १३६३ अत्ता चेत्र अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिच्छी साम् । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।१०३। समये। जो होदि अप्पमत्तो अहिंसगो हिंसगो इदरो ८०३। तध यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य रोसेण सयं पुत्वमेव उज्झदि हु कलकलेणेव । अण्णस्स पुणो दुरस्त्रं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्जा | १३६३ | आत्मा हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है ऐसा जिनागममें निश्चय किया है। आमतको अहिसक कहते हैं और प्रमको हिंसक लोके समान क्रोधी मनुष्य प्रथम स्वयं सन्तप्त होता है, तदनन्तर वह अन्य पुरुषको सन्तप्त कर सकेगा अथवा नहीं भी नियमपूर्वक दुखी करना इसके हाथमें नहीं ॥१३६॥ स.सि./ ०/१३/३४२ पर मेरामनामानं हिनस्यात्मा प्रमादवान् । पूत्रं प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः । प्रमादसे युक्त आत्मा पहिले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है इसके बाद दूसरे प्राणियों का वध होवे या मरा हो ( रा. वा. ७/१२/१२/२४१ पर उत घ. १४/५.६.२३/गा, ६/३० वियोजयति चासुभियुज्यते शिवं च न परोपमर्द परुषस्मृतेर्विद्यते । वधोपनयमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि स्वायमतिदुर्गमः प्रशम हेतुरुचो तितः ॥ ६॥ कोई प्राणी दूसरों को प्राणोंसे वियुक्त करता है फिर भी वह बन्धसे संयुक्त नहीं होता तथा परोपपासे जिसकी स्मृति कठोर हो गयी है. अर्थात् जो परोपघातका विचार करता है उसका कल्याण नहीं होता । तथा कोई दूसरे जीवों को नहीं मारता भी हिंसकपनेको प्राप्त होता है। इस प्रकार हे जिन ! तुमने यह अति गहन प्रशमका हेतु प्रकाशित किया है। पु. सि. उ/४६-४७ व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । farat जीवो मा वा धावश्य ध्रुवं हिंसा ॥४६॥ यस्मात्कषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु । ४७॥ - रागादि प्रमाद भावोंके वशसे उठने-बैठने आदि क्रियाओं में, जीव मरो अथवा न मरो निश्चयसे हिंसा है ही ४६ | क्योंकि कषाय युक्त आत्मा पहिले अपने द्वारा अपनेको ही घातता है पीछे अन्य जीवोंका घात हो अथवा न हो । ४७ ॥ - · - ५३३ प्र. सा./त. प्र. / १४६ कदाचित्परस्य द्रव्यप्राणानाबाध्य कदाचिदनाबाध्य स्वस्व भावाणानुपरक्तत्वेन बाधमानो ज्ञानावरणादीनि कर्माणि बताति । = कदाचित् पर द्रव्यके प्राणोंको बाधा करके और कदाचित बाधा नहीं करके अपने भाव प्राणोंको तो उपरक्तपनेके द्वारा बाधा करता हुआ ज्ञानावरणादि कमको ( राग-द्वेषादिके कारण घा ही है। प्र. सा./ता.वृ./१४६/२११ / १० यथा कोऽपि तप्तलोहपिण्डेन परं हन्तुकामः सन् पूर्व तावदात्मानमेव हन्ति पश्चादन्यधाते नियमो नास्ति, तथायमज्ञानी जीवोऽपि ... मोहादिपरिणामेन परिणतः पूर्व... सन् सरकायशुप्राण हन्ति पचारकाले पर नियमो नास्ति । = जिस प्रकार कोई व्यक्ति तप्त लोहे के गोले द्वारा किसीको मारनेकी कामना रखता हुआ पहले तो अपनेको ही मारता (हाथ जलाता ) है, पीछे अन्यका घात होवे भी अथवा न भी होवे, कोई नियम नहीं । उसी प्रकार यह अज्ञानो जोब भी मोहादि परिणामों से परिणत होकर पहले तो स्वकीय शुद्ध प्राशोंका बात करता है. पश्चात् उत्तर काल में अन्यके प्राण घातका नियम नहीं । अन. घ. /४/२४ प्रमत्तो हि हिनस्ति स्वं प्रागात्मातङ्गतायनात् । परो नुम्रियतां मावा रागाद्या ह्यरयोऽङ्गिनः | २४| = दुष्कर्मोका संचय तथा व्याकुलता रूप दुःखको उत्पन्न करनेके कारण प्रमत्त जीव पहले तो अपना घात ही कर लेता है, दूसरा जीव मरो वा मत मरो । क्योंकि जीयोंके वास्तविक मेरो तो कपाल ही है न कि दूसरोंका प्राणवध । २. अशुद्धोपयोग व कषाय ही हिंसा है स.सा.वा./२६२ की उत्थानका हिसाध्यवसाय एवं हिंसा अध्यवसाय ही बन्धका कारण है अतः यह हिंसाका अध्यवसाय ही हिंसा है। २. निश्चय हिंसाकी प्रधानता प्र. सा./त.प्र./२१६ अशुद्धोपयोगो हि छेदः शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात् तस्य हिंसनात् स एव च हिंसा । = शुद्धोपयोग रूप श्रामण्यका छेद करनेके कारण अशुद्धोपयोग ही छेद है और उस श्रामण्यका नाश करनेके कारण वह ही हिंसा है। (प्र. सा./त.प्र./ ३१८ ); ( यो. सा. अ./८/२८ ); ( पु. सि. उ. / ४४ ) । पु. सि. उ. / ६४ • हिंसायाः अभिमानभयजुगुप्साहास्यरतिशोककानकोपाद्याः । सर्वेऽपि अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, शोक, काम, क्रोध आदि हिंसा की है। 1 फ प्र. सा./ता.वृ./२९०/प्र/२/२१२ / २१ सूक्ष्मरुपातेऽपि यावतशिन स्वस्वभावचलन रागादिपरिणतिभा हिसा सामाशिन अन्धो भवति न च पादसंघट्टनमात्रेण वीतरागी मुनियों को ईर्यासमिति पूर्वक पसते हुए, सूक्ष्म जगतुओंका घात होनेपर भी जितने अंश में स्वस्वभावसे चलन रूप अर्थात् अशुद्धोपयोग रूप रागादि परिणति लक्षणवाली भाव हिंसा है, उतने अंशमें ही बन्ध होता है, केवल पाकीरगढ़ मासे नहीं-न आपारसार/ २ / १० स्वयं हिंसा स्वयमेव हिरानं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु तदैव हिंसकः ||१०| जो स्वयं हिंसा है और स्वयं ही हिंसन है। यह दोनों हिसाव हिंसन व घात पराधीन नहीं है । प्रमाद रहित जीव अहिंसक होता है और प्रमाद युक्त सदैव हिंसक ५.प्र./टी./ २ / १२५ रागावलस्तु निश्चयहिंसा तदपि कस्माद। निश्चयशुप्राणस्य हिंसाकारणा-रागादिककी उत्पत्ति ही निश्चय हिंसा है क्योंकि यह निश्चय शुद्ध चैतन्य प्राणी हिंसाका कारण होनेसे... 1 पं. ध. /उ. / ७५७ सत्तु रागादिभावेषु बन्धः स्यात्कर्मणां बलात् । तत्पा'कादात्मनो दुःखं तत्सिद्धः स्वात्मनो वधः ७५७ रागादि भावों के होनेपर पूर्वक कमौका होता है और उन कमोंके उदयसे आत्माको दुःख होता है इसलिए रागादि भावों के द्वारा अपनी आत्माका वध या हिंसा सिद्ध होती है । ७५७१ । ३. निश्चय हिंसा ही प्रधान है व्यवहार नहीं भ.आ./मू./८०६ जदि सुद्वस्स य बंधो होहिदि बाहिरंगवत्थुजोगेण । गत्थिदु अहिंसगो णाम होदि बायादिवधहेदु । ८०६। यदि रागद्वेष रहित आत्माको भी बाह्य वस्तुके सम्बन्धसे मग्ध होगा तो जगत् में कोई भी अहिंसक नहीं है, ऐसा मानना पड़ेगा, क्योंकि शुद्ध मुनि भी वायुकायादि जीवोंके बधका हेतु है । = घ. १४ / ५, ६,६३/१०/२ जेग विणा जंण होदि चेत्र तं तस्स कारणं । तन्हा अंतरंगाचे एक हिंसा व बहिरंगा ति सिद्धम् । • जिसके बिना जो नहीं होता वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नयसे अन्तरंग हिंसा ही हिंसा है महिरंग नहीं प्र. सा. प्र. / २१० अशुद्धोपयोगोऽन्तरगच्छेदः बहिरङ्ग: ।... अन्तरङ्ग एव छेदो बलीयान् न पुन पयोग तो अन्तरङ्ग छेद है और परप्राणोंका घात यहाँ अंतरंग छेद ही बलवाद है महिर नहीं अन. ध. /४/२३ रागाद्यसंगतः प्राणव्यपरोपेऽप्यहिंसकः । स्यात्तदव्यपरोपेऽपि हिंस्रो रागादिसंश्रितः। यदि लोक रागादिसे आगिए नहीं है तो प्राणोंका व्यपरोपण हो जानेपर भी यह अहिसक है और यदि रागद्वेषादि कषायों से युक्त है तो प्राणोका वियोग न होनेपर भी हिंसक है। ४. मैं जीवोंको मारता हूँ ऐसा कहनेवाला अज्ञानी है .सा./मू./२४७ जो मणदि हिंसामि य हिंसियामि य परेहिं ससेहिं । सो मूढो अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो | २४७| जो पुरुष ऐसा मानता है कि मैं पर जीवको मारता हूँ और पर जीवों द्वारा मैं मारा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश परप्राव्य परोपो हिरङ्गः । = = अशुद्धोबहिरंगछेद है ।... Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिसा ५३४ ३. व्यवहार हिंसाको कथंचित् गौणता व मुख्यता जाता हूँ वह पुरुष मोही है, अज्ञानी है, और इससे विपरीत है वह बलं श्रद्धीयेत्, दृश्यते तु रज्ज्वादिभिरिणम्। तस्मात् प्रत्यक्षविरोधात ज्ञानी है।२४७१ (यो.सा./अ./४/१२) ।। मन्यामहे न मन्त्रसामर्थ्य मिति। -हिंसादोषाविनिवृत्तेः ।२५। ... स.सा./आ./२५६/क.१६८ सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्म- नियतपरिणामानिमित्तस्यान्यथा विधिनिषेधासंभवात् ।२६। - रणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्त परः परस्य कुर्यात पुमान् प्रश्न-आगम प्रमाणसे प्राणी वध भी धर्म समझा जाता है ? उत्तरमरणजीवितदुखसौख्यम् । = इस लोकमें जीवोंके जो जीवन मरण नहीं, क्योंकि ऐसे आगमको आगमपना ही सिद्ध नहीं है ।१३। यदि दुःख सुख हैं वे सभी सदा काल नियमसे अपने-अपने कर्मके उदयसे हिंसाको धर्मका साधन माना जायेगा तो मछियारे भील आदि होते हैं । ऐसा, होनेपर पुरुष परके जीवन मरण सुख दुःखको करता है सर्व हिंसक मनुष्य जातियों में अविरोधरूपसे धर्म की व्याप्ति चली यह मानना अज्ञान है। आयेगी।२०। प्रश्न- ऐसा नहीं होता, क्योंकि यज्ञके अतिरिक्त ३. व्यवहार हिंसाकी कथंचित् गौणता व मुख्यता अन्य कार्यों में किया जानेवाला वध पाप माना गया है। उत्तर ऐसा भेद नहीं किया जा सकता, क्योंकि हिंसाकी दृष्टिसे दोनों तुल्य १. कारणवश वा निष्कारण भी जीवोंका घात हैं ।२२। प्रश्न-यज्ञके अर्थ ही स्वयम्भूने पशुओंकी सृष्टि की है, अतः हिंसा है यज्ञके अर्थ वध पापका हेतु नहीं हो सकता ! उत्तर-यह पक्ष असिद्ध है। क्योंकि पशुओं की सृष्टि ब्रह्माने की है, यह बात अभी तक सिद्ध पु.सि.उ./८०-८६ धर्मो हि देवताभ्यः ८०। पूज्यनिमित्तं घाते ।। नहीं हो सकी है ।२२। प्रश्न-मन्त्रकी प्रधानताके कारण यह हिंसा बहुसत्त्वधातजनितादशनावरमेकसत्त्वघातोस्थम् ।२। रक्षा भवति निर्दोष है। जिस प्रकार मन्त्रकी प्रधानतासे प्रयोग किया विष मृत्युबहूनामेकैस्य बास्य जीवहरणेन ।...हिंससत्वानाम् ।।३। शरीरिणो का कारण नहीं उसी प्रकार मन्त्र संस्कार पूर्वक किया पशुवध भी हिंस्रा (८४। बहु दुःखासंज्ञपिताः...दुःविणो।८। सुखिनो हताः सुखिन पाप का हेतु नहीं हो सकता! उत्तर-नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर एव । इति तर्क...सुखिनां घाताय...।६। उपलब्धिसुगतिसाधन- प्रत्यक्ष विरोध आता है-यदि केवल मन्त्र बलसे ही यज्ञवेदीपर समाधि.. स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्त्तनीयम्।८७ मोक्षं श्रद्धय नैव पशुओंका घात देखा जाता तो यहाँ मन्त्र बलपर विश्वास किया I परं पुरस्तादशनाय......निजमांसदानरभसादालभनीयो न जाता। परन्तु वह बध तो रस्सी आदि माँधकर करते हुए देखा जाता चात्मापि ८४ा-देवताके अर्थ हिंसा करना धर्म है ऐसा मानकर 1201 है। इसलिए प्रत्यक्षमें विरोध होनेके कारण मन्त्र सामर्थ्य की कल्पना या पूज्य पुरुषों के सत्कारार्थ हिंसा करने में दोष नहीं है ऐसा मानकर उचित नहीं है ।२४। अतः मन्त्रोंसे पशुवध करनेवाले भी हिंसा 1८१ शाकाहारमें अनेक जीवोंकी हिसा होती है और मांसाहारमें दोषसे निवृत्त नहीं हो सकते ।२३। शुभ परिणामोसे पुण्य और अशुभ केवल एककी, इसलिए मांसाहारको भला जानकर ८२॥ हिंसक जीवों परिणामोंसे पाप बन्ध नियत है, उसमें हेर-फेर नहीं हो सकता। को मार देनेसे अनेकोंकी रक्षा होती है ऐसा मानकर हिंसक जीवोंकी हिंसा ८३। तथा इसी प्रकार हिंसक मनुष्यों की भी।४। दुःखी जीवों ३. खिलौने तोड़ना भी हिंसा है कोदुःखसे छुड़ानेके लिए मार देना रूप हिंसा ।। सुखीको मार देनेसे सा.ध./३/२२ वस्त्रनाणकपुस्तादि न्यस्तजीवच्छिदादिकम् । न कुर्यात्त्यपर भवमें उसको सुख मिलता है, ऐसा समझकर सुखी जीवको मार तपापद्धिस्तद्धि लोकेऽपि गर्हितम् ।२२। -शिकारव्यसनका त्याग देना ।६। समाधिसे सुगतिकी प्राप्ति होती है. ऐसा मानकर समाधिस्थ करनेवाला श्रावक वस्त्र शिका और काष्ठ पाषाणादि शिल्पमें निकाले गुरुका शिष्य द्वारा सिर काट देना।८७। या मोक्षकी श्रद्धा करके ऐसा गये या बनाये गये जीवोंका छेदनादिकको नहीं करे, क्योंकि वखादिककरना ।८८। दूसरेको भोजन कराने के लिए अपना मांस देनेको निज में स्थापित किये गये जीवोंका छेदन भेदन केवल शास्त्र में ही नहीं शरीरका घात करना ।। ये सभी हिंसाएँ करनी योग्य नहीं हैं। किन्तु लोकमें भी निन्दित है। ज्ञा /८/१८, २७ शान्त्यर्थ देवपूजार्थ यज्ञार्थमथवा नृभिः। कृतः प्राणभृतां ४. हिंसक आदि जीवोंकी हिंसा भी योग्य नहीं घातः पातयत्यविलम्बितम् ।१८। चरमन्त्रौषधानां वा हेतोरन्यस्य वा क्वचित् । कृतः सती नरै हिंसा पातयत्यविलम्बितम् ।२७१= अपनी पु.सि.उ./८३-८५ रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति शान्तिके अर्थ अथवा देवपूजाके तथा यज्ञ के अर्थ जो मनुष्य जीवघात मत्वा कर्तव्यं न हिंसने हिस्रसत्त्वानाम् १८३। बहुसत्त्वघातिनोऽमी करते हैं वह घात भी जीवों को शीघ्र ही नरकमें डालता है ।१८। देवता- जीवन्त उपार्जयन्ति गुरु पापम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः की पूजाके लिए रचे हुए नैवेद्यसे तथा मन्त्र और औषधके निमित्त शरीरिणो हिंसा'४। बहुदुःखासंज्ञपिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखअथवा अन्य किसी भी कार्य के लिए की हुई हिंसा जीवोंको नरकमें विच्छित्तिम् । इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ले जाती है ।२८। १८५ -एक जीवको मारनेसे बहुतसे जीवोंकी रक्षा होती है, ऐसा २. वेद प्रणीत हिंसा भी हिंसा है मानकर हिंसक जीवोंका भी घात न करना ।८३। बहुत जीवों के मारनेवाले यह प्राणी जीता रहेगा तो बहत पाप उपजायेगा इस रा.वा./८/१/१३-२६/५६२-५६४ आगमप्रामाण्यात प्राणिवधो धर्म- प्रकार दया करके भी हिंसक जीवको मारना नहीं चाहिए ।४। यह हेतुरिति चेत; न तस्यागमत्वासिद्धेः ।१३। सर्वेषामविशेष- प्राणी बहुत दुःख करि पीड़ित है यदि इसको मारिये तो इसके सब प्रसङ्गात् ।२०। यदि हिंसा धर्म साधनं मत्स्यबन्ध ( वधक ) शाकुनिक- दुख नष्ट हो जायेंगे ऐसी खोटी बासना रूप तलवार को अंगीकार शौकरिकादीनां सर्वेषामविशिष्टाधर्मावाप्तिः स्यात् ।...यज्ञारकर्मणो- कर दुःखी जीव भी न मारना 11 ऽन्यत्र वधः पापायेति चेत; न; उभयत्र तुल्यत्वात ।२१। 'तादथ्योत सा,ध./२/८१,८३ न हिस्यात्सर्वभूतानीत्याई धर्म प्रमाणयच । सागसोऽपि सर्गस्येति चेत्' ।२२। 'यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयभुवा सदा रक्षेच्छवल्या किं नु निरागसः।। हिंस्रदुःविमुखिप्राणि-घात ( मनुस्मृति/५/१६/इति) इति । अतः सर्गस्य यज्ञार्थत्वात् न तस्य कुर्यान्न जातुचित्। अतिप्रसङ्गश्वभ्राति-सुखोच्छेदसमीक्षणात् । - विनियोक्तुः पापमिति तन्न; किं कारणम् । साध्यत्वात । 'मन्त्र- सम्पूर्ण त्रस स्थावर जीवों में से किसी भी जोबकी हिंसा नहीं करनी प्राधान्याददोष इति चेत; ।२४। यथा विर्ष मन्त्रप्राधान्यादुपयुज्य- चाहिए। इस प्रकारके ऋषि प्रणीत शास्त्रको श्रद्धा पूर्वक माननेवाला मानं न मरणकारणम्, तथा पशुबधोऽपि मन्त्रसंस्कारपूर्वकः क्रिय- धार्मिक गृहस्थ धर्मके निमित्त सदा अपनी शक्ति के अनुसार अपराधी माणो न पापहेतुरिति । तन्न, किं कारणम् । प्रत्यक्षविरोधात् ।...यदि जीवों की रक्षा करे और निरपराधी जीवोंका तो कहना ही क्या है मन्त्रेभ्यो एव केवलेभ्यो याज्ञे कर्मणि पशुन्निपातयन्तः दृश्येर मन्त्र १२ कल्याणार्थी गृहस्थ अति-प्रसंग रूप दोष नरक सम्बन्धी दु:ख जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा ५३.५ ४. निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय सुखका कारण होनेसे हिंसक दुखी और सुखी प्राणियों के घातको कभी न करे।३। ५. धर्मार्थ भी हिंसा करनी योग्य नहीं प्र.सा./मू./२५० जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्यमुज्जदो समणो। ण हवदि हव दि अगारी धम्मो सो सावयणं । -यदि (श्रमण) वैयावृत्ति के लिए उद्यमी वर्तता हुआ छह कायको पीड़ित करे तो वह श्रमण नहीं है । गृहस्थ है, ( क्योंकि ) वह छह कायको विराधना सहित वैयावृत्त्य है ।२५०॥ इ.उ./१६ त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीर स पकेन स्नास्पामीति विलिम्पति १६ जो निर्धन मनुष्य पात्रदान आदि प्रशस्त कार्यों के लिए पुण्य प्राप्ति तथा पाप विनाशके अनेक सावधों द्वारा धन उपार्जन करता है, वह मनुष्य निर्मल शरीरमें पीछे स्नान करके निर्मल होने की आशासे कीचड़ लपेटता है। पु.सि.उ./८०-८१ धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिति सर्वम् । इति दुविवेककलिता धिषणां न प्राप्य देहिनो हिस्याः १८०। पूज्यनिमित्तधाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति । इति संप्रधार्य कार्य चातिथये सत्त्व संज्ञपनम् ८१-देवताको प्रसन्न करनेसे धर्म होता है इसलिए इस लोकमें उस देवताके सब कुछ देने योग्य है । जीवको उनके लिए बलि कर देना धर्म है। ऐसीअविवेक बुद्धि से प्राणी पात योग्य नहीं।८०। अपने गुरुके वास्ते बकरा आदि मारने में कोई दोष नहीं ऐसा मानकर अतिथि के अर्थ जीव वध करना योग्य नहीं। दे.हिंसा ३/१ देवताकी पूजाके लिए जीवधात करना नर कमें डालता है। ६. छोटे या बड़े किसीकी भी हिंसा योग्य नहीं मू.आ./७४८,८०१ वसुधम्मिवि विहरंता पीडंण करेंति कस्सइ कयाई। जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेसु ७६८ तणरुवहरिच्छेदणतयपत्तपत्राल कंदमूलाई । फलपुप्फत्रीयघादं ण करिति मुणी ण कारति ०१-सब जीवों के प्रति दयाको प्राप्त सत्र साधु पृथिवीपर विहार करते हुए भी किसी जीवको कभी भी पीड़ा नहीं करते । जैसे माता पुत्रका हित ही करती है उसी तरह सबका हित चाहते हैं 1७६८। मुनिराज तृण, वृक्ष, हरित इनका छेदन, बकुल, पत्ता, कोंपले, कन्दमूल, इनका छेदन, तथा फल, पुष्प बीज इनका घात न तो आप करते हैं, न दूसरों से कराते हैं ।८०१॥ ७. संकल्पी हिंसाका निषेध सा.ध./२/२ आरम्भेऽपि सदा हिंसां, सुधीः सांकलियकीं त्यजेत् । धनतोऽपि कर्ष कादुच्चैः, पापोऽनन्नपि धीवरः। -बुद्धिमान मनुष्य खेती आदि कार्यों में भी संकल्पी हिंसाको सदैव छोड़ देवें, क्योंकि असंकल्प पूर्वक बहुतसे जीवोंका घात करनेवाला किसानसे जीवोंको मारनेका संकल्प करके उनको नहीं मारनेवाला भी धीवर विशेष पापी होता है ।। ८. विरोधी हिंसाकी कथंचित् आज्ञा सा.ध./१५ की टोकामें उद्धृत-दण्डो हि केवलो लोकमिम चामच रक्षति । राज्ञा शत्रौ च पुत्रे च यथा दोषसमं धृतः। -पुत्र व शत्र में समता रूपसे क्षत्रियों द्वारा किया गया दण्ड इस लोक और परलोककी रक्षा करता है, यह शास्त्र वचन है । ९. बाह्य हिंसा, हिंसा नहीं भ.आ./म./८०६ जदि सुद्धस्स य बंधो होहिदि बाहिरगवत्थुजोगेण । णत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवधहेदु ।०६। == यदि रागद्वेष रहित आत्माको भी मात्र बाह्य वस्तुके सम्बन्धसे नन्ध होगा तो जगत् में कोई भी अहिंसक नहीं, ऐसा मानना पड़ेगा। क्योंकि मुनि भी वायुकायादि जीवोंके वधका हेतु हैं।०६। प्र.सा./म् /२१७ मरदु वा जियदु जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णस्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स १२१७४ =जीव मरे या जीये, अप्रयत आचारवालेके हिंसा निश्चित है, प्रयतके समितिवान् के (बहिरंग) हिंसामात्रसे बन्ध नहीं है ।२१७१ (स.सि./७/१३/३५१ पर उधृत); (ध.१४/५,६,६३/गा.२.१०); (रा.बा./७/१३/१२/५४० पर उद्धृत। प्र.सा./मू./१७/प्रक्षेपक १-२/२६२ उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिपगमत्थाए। आबाधेज्ज कुलिंग मरिज्जतं जोगमासेज्ज ॥१॥ण हि तस्स तणि मित्तो बंधो सुमो य देसिदो समये । मुच्छापरिग्गहो च्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो ।२१ = ईर्यासमितिसे युक्त साधुके अपने पैरके उठानेपर चलने के स्थानमें यदि कोई क्षुद्र प्राणी उनके पैरसे दब जाये और उसके सम्बन्धसे मर जाये तो भी उस निमित्तसे थोड़ा भी बन्ध आगममें नहीं कहा है क्योंकि जैरे अध्यात्म दृष्टिसे मूर्छाको हो परिग्रह कहा है वैसे यहाँ भी रागादि परिणामोंको हिंसा कहा है । (स.सि./७/१३/३५१/ पर उधृत); (रा.बा.७/१३/१२/ ५४० पर उधृत)। स.सि./9/१३/३५१/४ 'प्रमत्तयोगात' इति विशेधणं केवलं प्राणव्यपरोपणं नाधर्मायेति ज्ञापनार्थम् । = केवल प्रागोंका वियोग करनेसे अधर्म नहीं होता, यह बतलाने के लिए सूत्र में 'प्रमत्तयोगसे यह पद दिया है। घ. १४/५.६,६२/६/१२ हिंसा णाम पाण-पाणि वियोगो। तं करताणं कथम हिंसालक्रवणपंचमहव्वयसंभवो । ण, बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावादो। प्रश्न-प्राण और प्राणियों के वियोगका नाम हिंसा है। उसे करने वाले जोवों के अहिंसा लक्षण पाँच महावत कैसे हो सकते हैं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि बहिरंग हिंसा आसव रूप नहीं होती। पु.सि.उ./४५ युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।४५। -युक्ताचारी सत्पुरुषके रागादि भावो के प्रवेश बिना केवल पर जीवोंके प्राण पीड़ते हो त कदाचित हिंसा नहीं होती है। नि.सा./ता.व./५६ तेषां मृतिर्भवतु वा न बा, प्रयत्न परिणाममन्तरेण __ सावधपरिहारो न भवति। -उन (जीवोंका) मरण हो अथवा न हो, प्रयत्न रूप परिणामके बिना सावध का परिहार नहीं होता। अन.ध./४/२३ रागाद्यसङ्गतः प्राणव्यपरोपेऽप्यहिसका। स्यात्तदध्यपरोपेऽपि हिस्रो रागादिसंश्रितः ।२३। जीव यदि राग द्वेष मोह रूप परिणामोंसे आविष्ट नहीं है तो प्राणोंका व्यपरोपण हो जानेपर भी अहिंसक है। और यदि रागादि कषायों से युक्त है तो प्राणोंका वियोग न होने पर भी हिंसक है । ४. निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय १. निश्चय हिंसाको हिंसा कहनेका कारण रा.वा.७/१३/१२/१४०/३३ ननु च प्राणव्यपरोपणाभावेऽपि प्रमत्तयोगमात्रादेव हिंसेष्यते। उक्तं च -1...(प्राणव्यपरोपण निर्देश अनर्थकम्)। नैष दोषः, तत्रापि प्राणव्यपरोपणमस्ति भावलक्षणम् । तथा चोक्तम्-स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः शिइति । एवं कृत्वा यैरुपालम्भः क्रियते-सोऽत्राव काशं न लभते । भिक्षोनिध्यानपरायणस्य प्रमत्तयोगाभावात्। -प्रश्न-प्राणव्यपरोपण के अभाव में भी केवल प्रमत्त योगसे ही हिंसा स्वीकारो गयी है। कहा भी है कि-[ जीव मरो या जीओ अयत्नाचारीके निश्चित रूपमे हिसा है । बाह्य हिंसा मात्रसे बन्ध नहीं होता (दे.हिसा/३/४) अतः सूत्र में 'प्राणव्यपरोपण शब्द व्यर्थ है ।] ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भावलक्षण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा बाता अन्तरंग प्रागव्यपरोपण अर्थात् स्वहिंसा वहाँ भी (प्रमतयोगमें भी है हो। कहा भी है- 'प्रमादसे युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है, इसके बाद दूसरेका घात होवे अथवा न होवे ।' ऐसा माननेपर यह दोष भी नहीं आता है कि- 'जल में, थलमें, आकाश में सब जगह जन्तु ही जन्तु हैं। इस जन्तुमय जगत् में भिक्षुक अहिंसक कैसे रह सकता है ? क्योंकि ज्ञान ध्यान परायण अप्रमत भिक्षुकको मात्र प्राणि वियोग हिंसा नहीं होती। ध.१४/५,६,६३/१ तदभावे (बहिरङ्ग हिंसाभावेऽपि ) वि अंतरंग हिंसादो चैत्र सित्यमच्छस्स बंधुवलंभादो । जेण विणा जंग होदि चेव त तस्स कारणं । तम्हा अंतरंगहिसा चैव सुद्धणरण हिसा ण बहिरंगा चि सिद्धस्। क्योंकि महिरंग हिंसाका अभाव होनेपर भी केवल अन्तरंग हिंसा से सिक्थ मत्स्यके बन्धकी उपलब्धि होती हैं। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्धनयसे अन्तरंग हिंसा ही हिंसा है, महिरंग नहीं यह बात सिद्ध होती है। ये हिंसा/२/२-३ चैतन्य परिणामोंकी घातक होनेसे अन्तरंग हिंसा हो हिंसा है। २. निश्चय हिंसाको हिंसा कहनेका प्रयोजन प्र.सा./ता.वृ./२९८/२१३/१३ शुद्धोपयोगपरिणतपुरुषः जीवलोके विचरनपि यद्यपि महरद्रव्यहिंसामात्रमस्ति तथापि निश्चयहिसा नास्ति ततः कारणाद्वपरमात्मभावनागतेन निश्चयहिंसेच सर्व तात्पर्येण परिहर्तव्येति शुद्धोपयोग रूप परिणत जीवको इस जीवों से भरे हुए लोक में विचरण करते हुए यद्यपि बहिरंग हिंसा मात्र होती है। अंतरंग नहीं इस कारण से शुद्ध परमात्म भावनाके बल द्वारा निश्चय हिंसा ही सर्व प्रकार त्यागने योग्य है । D ३. बहिरंग हिंसाको हिंसा कहनेका प्रयोजन अ./ /४/२८ हिंसा यद्यपि पुंसः स्यान्न स्वल्पाप्यन्यवस्तुतः । तथापि हिंसायतनारिमेजाब २०० मद्यपि पर वस्तु सम्बंध प्रमत्त परिणामोंके बिना केवल बाह्य द्रव्य के ही निमित्तसे जीवको जरा भी हिंसाका दोष नहीं लगता, तो भी भावविशुद्धिके लिए भावहिंसा के निमित्त माह्य पदार्थ से मुमुखको विरत होना चाहिए |२ ४. जीवसे प्राण भिन्न हैं, उनके वियोगसे हिंसा क्यों हो ? ५३६ ४. निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय प. प्र./टी./२/१२० प्राणा जीवादभिन्ना भिन्ना या यवभिनः सहि जीवत्प्राणानां विनाशो नास्ति, अथ भिम्न्नास्तर्हि प्राणबधेऽपि जीवस्य बचो नास्त्यनेन प्रकारेण जीवहिंसे नास्ति कथं जीवयये पापबन्धो भविष्यतीति । परिहारमाह । कथंचिद्भदाभेदः । तथाहि स्वकीयप्राणे हृते सति दुःखोश्पत्तिदर्शनाद्व्यवहारेणाभेदः सैव दुःखोत्पत्तिस्तु हिंसा भण्यते ततश्च पापबन्धः । प्रश्न- प्राण जीवसे भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न है तो जीवकी भाँति प्राणोंका भी विनाश नहीं हो सकता । यदि भिन्न है तो प्राण वध होनेपर भी जीववध नहीं हो सकता और इस प्रकार जीव हिंसा ही नहीं होती फिर जीव वधसे पापका बन्ध कैसे हो सकेगा 1 उत्तर- ऐसा न कहो क्योंकि जीव और प्राणोंमें कथंचित् भेदाभेद है । वह इस प्रकार कि अपने प्राणोंके हरण होनेपर दुःख की उत्पत्ति देखी जाती है, इस कारण व्यवहारसे इनमें अभेद है । वह दुःखोत्पत्ति ही वास्तव में हिंसा कहलाती है और उससे पाप बन्ध होता है। .सा./ता, वृ/३३३-४४४/४२३ / २२ कश्चिदाह जीवाणाभिज्ञा अभिन्ना वा । यद्यभिन्नास्तदा यथा जीवस्य विनाशो नास्ति तथा प्राणानामपि विनाशो नास्ति कथं हिंसा अथ भिन्नस्तहि जीवस्य प्रणयातेऽपि किमयातम्। तत्रापि हिंसा नास्तीति तत्र. [ दे, काय २०३ ) =प्रश्न- कोई कहता है कि जीवसे प्राण भिन्न है कि अभिन्न ! यदि अभिन्न है तो जीवका विनाश ही नहीं हो सकता, तब प्राणोंका भी बिनादा नहीं हो सकता। फिर हिंसा कैसे हो सकती है। यदि प्राण जीवसे भिन्न है तो जीवका प्राण घात होना ही कैसे प्राप्त होता है ? इसलिए ऐसा माननेपर भी हिंसा सिद्ध नहीं होती ! उत्तर ऐसा नहीं है; कायादि प्राणोंके साथ कथंचित् जीवका भेद भी है और अमे भी यह कैसे सो बताते हैं [ सो पिण्ड जैसे अग्नि पृथक नहीं की जा सकती वैसे ही वर्तमानमें शरीर आदि जीवको पृथक नहीं किया जा सकता, इस कारण से व्यवहारसे दोनोंमें अभेद है । परन्तु निश्चयसे भेद है क्योंकि मरणकालमें शरीरादिक प्राण जीवके साथ नहीं जाते। वे प्राण/२/३] दे. विभान/५/५/१ यदि निश्चयकी भाँति व्यवहार से भी हिंसा न हो तो जीवको भस्मवत् मलने से भी हिंसा न होगी। और इस प्रकार मोक्षमार्ग के ग्रहणका अभाव हो जानेसे मोक्षमार्ग का ही अभाव होगा। ५. हिंसा व्यवहार मानसे है निश्चयसे तो नहीं पु. सि. उ. / ५० निश्चयमबुद्धयमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । नाशयति करणचरणं स बहिःकरणालसो बालः । -जो जीव निश्चय के स्वरूपको न जानकर उसको ही निश्चयके श्रद्धानसे अंगीकार करता है, याने अन्तरंग हिसाको हो हिंसा मानता है वह मूर्ख बाह्य क्रियानें आलसी है और बाह्य क्रिया रूप आचरणको नष्ट करता है । = प. प्र./टी./ २ / १२७ ननु तथापि व्यवहारेण हिंसा जाता पापबन्धोऽपि न च निश्चयेन इति । सत्यमुक्तं स्वया, व्यवहारेण पापं तथैव नारकादिदुःखमपि व्यवहारेणेति तदिष्टं भवतां चेतहि हिसां कुरुत यूममिति । प्रश्न- फिर भी यह प्रागपात रूप हिंसाहारमात्र है और इसी प्रकार पापबन्ध भी निश्चयसे तो नहीं है ? उत्तर- तुम्हारी यह बात बिलकुल सत्य है, परन्तु जिस प्रकार पापबन्ध व्यवहारसे है, उसी प्रकार नरकादिके दुःख भी व्यमहारसे ही हैं, यदि मे दुःख तुम्हें अच्छे लगते हैं तो हिंसालू करो। ६. मिन्न प्राणोंके घातसे न दुःख है न हिंसा = रा.वा./७/१३/८-११/५४० / १३ अन्यत्वादधर्माभावः इति चेत्; न; तद्दुःखोत्पादकत्वात् । शरीरिणोऽन्यत्वात् दुःखाभाव इति चेतः नः पुत्रप्रादिभियोगे तापदर्शनात् । प्रत्येकाच्च ॥१०॥ यद्यपि शरीरिशरीरयोः लक्षणमेदाज्ञानात्वम् तथापि मधे प्रत्येकस्वाद तद्वियोगपूर्वक दुःखोपपत्तेरधर्माभाव इत्यनुपालम्भः । एकान्तवादिनां तदनुपपत्तिर्वन्धाभावात् | ११ | = प्रश्न- प्राण आत्मासे भिन्न हैं अतः उनके वियोगसे अधर्म नहीं हो सकता । उत्तर-नहीं, क्योंकि प्राणों का वियोग होनेपर जीवको हो दुःख होता है। प्रश्न-झरीरी आत्मा प्राणों से भिन्न है अतः उनके वियोगसे उसे दुःख भी नहीं होना चाहिए। उत्तर नहीं, क्योंकि पुत्र कलादि सर्वथा भिन्न पदार्थोंके वियोग होनेपर भी ताप देखा जाता है। दूसरे, यद्यपि शरीर झरोरीमें लक्षण मेदसे नानाव है फिर भी अतः शरीर वियोग पूर्वक होने वाला दुःख आत्माको ही होता है । अतः हिंसा और अधर्मका अभाव हो ऐसा नहीं कहा जा सकता ११० बाराको नित्य शुद्ध माननेवाले एकान्तवादियों के मलगे तो ठीक है कि प्राण वियोगसे दुखोत्पत्ति नहीं होतो, क्योंकि वह आत्मा और शरीरका बन्ध स्वीकार नहीं करते। परन्तु अनेकान्तमत में ऐसा मान्य नहीं हो सकता। प्रति दोनों एक हैं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोठ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसादान ५३७ हिंसादान-दे. अनर्थदण्ड । हिरण्य-स. सि./७/२६/३६८/८ हिरण्यं रूप्यादिव्यवहारतन्त्रम् । हिसानंदी रौद्रध्यान-दे. रौद्रध्यान । -जिसमें रूप्य आदि व्यवहार होता है वह हिरण्य है। (द.पा./ टी./१४/१५/१३) हिजरी संवत् -दे. इतिहास/२। हिरण्यकशिपु-इक्ष्वाकुवशी एक राजा। दे. इतिहास/७/२ । हित-१. हितका लक्षण हिरण्यगर्भ-१. सुकौशल मुनिका पुत्र था। अन्त में नघुष पुवको रा. वा/8/५/५/५६४/१७ मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम् । तद्विविधम् राज्य देकर दीक्षा ले ली। ( प. पु./५/१०१-११२) २. योग दर्शनके स्वहितं परहितं चेति ।मोक्षपदकी प्राप्ति रूप प्रधान वा मुख्य फल आद्य प्रवर्तक ---दे. योगदर्शन। मिलता है, उसको हित कहते हैं । वह दो प्रकारका है, एक स्वहित दूसरा परहित । (चा. सा./६६/५) हिरण्यनाभ-जरासंधका सेनापति। युद्धमे युधिष्ठिर द्वारा मारा क.पा./१/१,१३-१४/१२१९/२७१/६ व्य ध्युपशमनहेतुर्द्रव्यं हितम् । यथा ___गया (पा. पु./१६/१६२-१६३ ) । पित्तज्वराभिभूतस्य तदुपशमनहेतुकटुकरोहिण्यादिः । -व्याधिके हिरण्योत्कृष्ट जन्मता क्रिया-दे. संस्कार/२। उपशमनका कारणभूत द्रव्य हित कहलाता है। जैसे, पित्त ज्वरसे पीडित पुरुषके पित्त ज्वरको शान्तिका कारण कड़वी कुटकी तू बड़ी हो-दे. एव । आदिक द्रव्य हित रूप हैं। होन-१. गणितकी व्यकलन प्रक्रिया में मूल राशिको ऋण राशिकरि * ज्ञानी व अज्ञानीको हिताहित बुद्धि में अन्तर हीन कहा जाता है । --दे. गणित/11/१/४ । २. कायोत्सर्ग का एक दे. मिथ्यादृष्टि । अतिचार --दे. व्युत्सर्ग/१ । २. हिताहित जाननेका प्रयोजन हीनयान-दे, बौद्धदर्शन। भ.आ./म./१०३ जाणं तस्सादहिदं अहिद णियत्तीय हिदपवत्तीय । होदि हीनाधिकमानोन्मान-स. सि./७/२७/३६७/६ तत्र ह्यवपमूल्यय तो से.तम्हा आदहिदं आगमे दब्वं ।१०३१ =जो जीव आत्माके हित- लभ्यानि महााणि द्रत्याणीति प्रयत्नः । प्रस्थादि मानम्, तुलाद्य - को पहिचानता है वह अहितसे परावृत होकर हितमें प्रवृत्ति करता न्मानम् । एतेन न्यूनेनान्यस्मै देयमधिकेनात्मनो ग्राह्यमित्येवमादिहै। इस वास्ते हे भव्यजन ! आत्महितका आप परिज्ञान कर कूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मानम् । समान पदसे प्रस्थादि मापनेके लो।१०३। बाट आदि लिये जाते हैं, और उन्मान पदसे तौलनेके तराजू आदि मो. पा./मू./१०२ गुण गणविहूसियंगो हेयोपादेय णिच्छिओ साहू । बाट लिये जाते हैं। कमती माप तौलनेसे दूसरों को देना, बढती माप झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ।१०२। जो मूल व उत्तर तौलनेसे स्वयं लेना, इत्यादि कुटिलतासे लेन-देन करना हीनाधिक गुणोंसे विभूषित है. और हेयोपादेय तत्त्वका जिसको निश्चय है, तथा मानोन्मान है । (रा. वा/७/२७/४/५५४/१४ ) [ इसमें मायाका दोष ध्यान और अध्ययन में जो भले प्रकार लीन है, ऐसा साधु उत्तम आता है। --दे. माया/२। स्थान मोक्षको प्राप्त करता है ।१०२। * स्व पर हित सम्बन्धी-दे. उपकार। होयमान-अवधिज्ञानका एक भेद-दे. अवधिज्ञान/१। हीराचंद-यह पंचास्तिकाय टीकाके रचयिता एक पण्डित थे। हित संभाषण-दे. सत्य/२॥ जहानाबाद के रहनेवाले थे। समय वि.श,१७-१८, (पं. का./प्र./३ पं. हितोपदेश-दे, उपदेश/२,३ । पन्नालाल बाकलीवाल)। हिम-१. नन्दन वनका एक कूट---दे. लोक ५/५:२, षष्ठ नरकका । होरानंद-सुप्रसिद्ध जगत सेठके वंशज तथा ओसवाल जैन थे। वि. प्रथम पटल-दे. नरक/५/११॥ १६६१ में सम्मेद शिखर के लिए संघ निकाला था। शाहजादा सलीमके कृपापात्र और जौहरी था (हिं. जै. सा इ./१३२ कामता)। -विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर--दे. विद्याधर । हीलित-कायोत्सर्ग का एक अतिचार-दे, व्युत्सर्ग/१। हिमवत्-कुण्डल पर्वतस्थ एक कूट---दे. लोक/७ । हुडक संस्थान-दे. संस्थान । हिमवान्-१. रा. वा./३/११/१/१८२/६ हिममस्यास्तीति हिमा हडावसपिणी-दे. काल/४/१३ । निति व्यपदेशः । अन्यत्रापि तत्संबन्ध इति चेत। रूढिविशेषचनलाभात्तत्रैव वृत्तिः। =(भरत क्षेत्रके उत्तर में स्थित पूर्वापर लम्बाय हल्लराज-अपर नाम हुल्लप था। यह वाजिवंशके यक्षराज और मान वर्षधर पर्वत है। अपर नाम पञ्चशिखरी है। ] हिम जिसमें लोकबिम्बके पुत्र थे। तथा यदुवंशी राजा नरसिंहके मन्त्री थे। जैनपाया जाय सो हिमवान् । चूंकि सभी पर्वतोंमें हिम पाया जाता है धर्म के श्रद्वालु थे। अनेकों शिलालेखोंमें इनका उल्लेख पाया जाता अतः रूढिसे ही इसको हिमवान् संज्ञा समझनी चाहिए। २. हिमवान् है। श. सं. १०८५ (ई. ११६३ ); श. सं. १०८७ में कोप्प महातीर्थ में पर्वतका अवस्थान ब विस्तारादि । --दे. लोक/३/४ । ३. हिमवान् जैन मुनि संघको दान दिया । समय-श. १०७५-१०६० (ई. ११५३पर्वतस्थ "कूट व उसका स्वामी देव ।-दे. लोक५/५४. पद्महरके ११६८); (ध. २/प्र./ H.L.Jain) वनमें स्थित एक कूट--दे. लोक/७/ हिमशीतल-कलिंग देशके राजा थे। अकलंक देवने इनकी सभामें हूनवंश---यही कल्की राजाओं का वंश था।-दे. इतिहास/३/४। शास्त्रार्थ किया था। समय- ई. श. ८ का पूर्वार्ध (सि. वि./१५ हूहू-१. गन्धर्व नामा पन्तर जातिका एक भेद-- दे. गन्धर्व । २. पं. महेन्द्र) काल का एक प्रमाणु विशेष-दे. गणित/1/१/४। भा०४-६८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूहू अंग हूहू अंग कालका प्रमाण विशेष - दे. गणित/I/१/४ | हृदयंगम - किंनर नामा या एकमेव हेतु — अनुमान प्रमाणके अंगों में हेतुका सर्व प्रधान स्थान है, क्योंकि इसके बिना केवल विधि व उदाहरण आदिसे साध्यको सिद्धि नहीं हो सकती अन्य दर्शनकारोंने इस हेतुके सीम लक्षण किये हैं. पर स्याद्वाद मतावलम्बियोको 'अन्यथा अनुपपत्ति' रूप एक लक्षण ही इष्ट व पर्याप्त है। इस लक्षणकी विपरीत आदि रूपसे वृत्ति होनेपर वे हेतु स्वयं हेत्वाभास बन जाते हैं । १. भेद व लक्षण १. हेतु सामान्यका लक्षण १. अविनाभात्रीके अर्थमें से उपलक्षित घ. १३५.२.५०/२८७/३ हेतुः साध्याविनाभावि सिह अन्यथानुपपये लक्षणोपलक्षितः जो लिंग अन्यथानुपपत्तिरूप होकर साध्यका अविनाभावी होता है, उसे हेतु कहते हैं । प./३/१५ साध्याविनाभावेन निश्चितो हेतुः । १६। जो साध्यके साथ अविनाभाविपनेसे निश्चित हो अर्थात् साध्यके बिना न रहे, उसको हेतु कहते हैं । न्या. दी./२/३३९/०६/५ साध्याविनाभावि साधन हेतु यथाइति इति या न्या. दी./३/६४६/१०/१५ साध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति निश्चयपथप्राप्तत्वं खलु हेतोर्लक्षणम् । १. साध्यके अविनाभावी साधनके बोलने हेतु कहते हैं जैसे धूमपादा अन्यथा नहीं हो सकता. अथवा अग्नि होनेसे ही धूमवाला है । २• साध्यके होनेपर ही होता है अन्यथा साध्यके बिना नहीं होता तथा निश्चय पथको प्राप्त है अर्थात जिसका निश्चय हो चुका है वह हेतु है । ( और भी दे. साधन ) । 1 1 उपलब्धि 1 विधिरूप अधि अन्वय हेतु ५३८. { / प्रतिषेधरूप विरुद्धोपलब्धि व्यतिरेकहेतु हेतु न्या. सू./मू./१/१/३४-३५ उदाहरणसाधर्थ्यात्साध्यसाधन हेतुः |३४| तथा वैधम्र्म्यात १३१ उदाहरणकी समानताके साध्यके धर्म के साधनको हेतु कहते हैं 158 अथवा उदाहरण के विपरीत धर्म से जो साध्या साधक है उसे भी हेतु पढ़ते हैं (न्या. सू. / भाग्य / १/१/३६/ ३८/११) । हेतु २. स्वपक्षसाधकत्व के अर्थ में घ.१३/५.५.५०/२८७/४ तत्र स्वपक्षसिद्धये प्रयुक्तः साधनहेतुः । स्वपक्षकी सिद्धि लिए प्रयुक्त हुआ हेतु साधन हेतु है ( स मं तं / १० / ३ ) | = २. पलके अर्थ 15 पं.का./ता. १/२/६/१० हेतुफल हेतुशन्देन फलं कथं भव्यत इति चेत् । फलकारणात्फलमुपचारात् । फलको हेतु कहते हैं। प्रश्नहेतु शब्द से फल कैसे कहा जाता है 1 उत्तर- फलका कारण होनेसे उपचार से इसको फल कहा है। ★ साधनका लक्षण - दे. साधन । * साध्यका लक्षण - दे. पक्ष । ★ कारणके अर्थमें हेतु - ३. कारण /१/१/२ २. देतुके भेद १. प्रत्यक्ष परोक्षादि .प./१/३५-३६ दुनो मेदि हे... पञ्चपखपखमे एहिं ॥३५॥ सक्खापचक्रखा पर पञ्चवक्खा दोणि होदि पञ्चक्खा |... १३६ । हेतु प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकार है ।५ प्रत्यक्ष हेतु साक्षात् प्रत्यक्ष और परम्परा प्रत्यक्षके भेदसे दो प्रकार है ३६ । (ध. १/१,१,१/ ५५/१० ) । दे. कारण / 1 /१/२ [ हेतु दो प्रकार है - अभ्यन्तर व बाह्य । बाह्य हेतु भी दो प्रकारका है आत्मभूत अमारमभूत २. अन्वयव्यतिरेकी आदि 9.8./1/10-541 न्या. दी./१/४२-२८/८८-६६ । विविरूप अविरुद्वानुपलब्धि } } { जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 1 अनुपलब्धि 1 { I प्रतिषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. भेद व लक्षण . ३. नैयायिक मान्य भेद' न्या. दी./३/९४२/८८/१२ ते मन्यन्ते त्रिविधो हेतुः-अन्वय-व्यतिरेकी, केवलान्वयी, केबलव्यतिरेकी चेति । यायिकोंने हेतुके तीन भेद माने हैं-अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी। ३. असाधारण हेतुका लक्षण श्लो. वा./३/९/१०/३३/५५/२३ यदारमा तत्र व्याप्रियते तदैव तत्कारण नान्यदा इत्यसाधारण हेतुः । नित्य भी आत्मा जिस समय उस प्रमितिको उत्पन्न करने में व्यापार कर रहा है तब ही उस प्रमाका कारण है । इस प्रकार आरमा असाधारण हेतु है। ४. उपलब्धि रूप हेतु सामान्य व विशेषके लक्षण प मु./३/६५-७७ परिणामी शब्दः कृतकरवात, य एवं, स एवं दृष्टो, यथा घटः, कृतकश्चार्य, तस्मात्परिणामी, यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा बन्ध्यास्तनं धयः, कृतकश्चार्य तस्मात्परिणामी।६॥ अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिाहारादेः ६६। अस्त्यत्र छाया छत्राव ।६७। उदेष्यति कटं कृतिकोदयात् ।६८ उदगाद्भरणिः प्राक्तत एव ।६। अस्त्यत्र मातुलिङ्ग रूपं रसात् ।७०। नास्त्यत्र शीलस्पर्श औष्ण्याद १७२। नास्त्यत्र शीतस्पर्टी धूमात ७३। नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशव्यात् ।७४। नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात 1७॥ नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्पूर्व पुष्योदयात् ७६। नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽग्भिागदर्शनात् १७७।- विधिरूप--१. शब्द परिणामी है क्योंकि वह किया हुआ है, जो-जो पदार्थ किया हुआ होता है वह-वह परिणामी होता है जैसे-घट । शब्द किया हुआ है इसलिए परिणामी है, जो परिणामी नहीं होता वह-वह किया हुआ भी नहीं होता जैसे-बाँझका पुत्र । यह शब्द किया हुआ है, इसलिए वह परिणामी है।६।। २. इस प्राणीमें बुद्धि है, क्योंकि यह चलता आदि है।६६। ३. यहाँ छाया है क्योंकि छायाका कारण छत्र मौजूद है।६७।४, मुहूर्त के पश्चात शकट (रोहिणी) का उदय होगा क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय है ।६८।५. भरणीका उदय हो चुका क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय है।६६६. इस मातुलिंग (पपीता) में रूप है क्योंकि इसमें रस पाया जाता है ।७०। प्रतिषेध रूप--१. इस स्थानपर शीतस्पर्श नहीं है क्योंकि उष्णता मौजूद है ।७२। २. यहाँ शीतस्पर्श नहीं है क्योंकि शीतस्पर्श रूप साध्यसे विरुद्ध अग्निका कार्य यहाँ धुंआ मौजूद है ।७३। (प. मु./३/६३).३. इस प्राणीमें सुख नहीं, क्योंकि सुखसे विरुद्ध दुःखका कारण इसके मानसिक व्यथा मालूम होती है ।७४६ ४. एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय न होगा, क्योंकि इस समय रोहिणीसे विरुद्ध अश्विनी नक्षत्रसे पहले उदय होनेवाले रेवती नक्षत्रका उदय है ।७५। ५. मुहूर्त के पहले भरणीका उदय नहीं हुआ क्योंकि इस समय भरणीसे विरुद्ध पुनर्वसुके पीछे होनेवाले पुष्यका उदय है ७६। ६. इस भित्तिमें उस ओरके भागका अभाव नहीं है क्योंकि उस ओरके भागके साथ इस ओरका भाग साफ दीख रहा है। , न्या. दी./३/१५२-५६/५५-५६/8 यथा-पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वान्यानुपपत्तः इत्यत्र धूमः। धूमो ह्यग्नेः कार्यभूतस्तदभावेऽनुपपद्यमा- . नोऽग्नि गमयति । कश्चित्कारणरूपः, यथा-वृष्टिभविष्यति विशिष्टमेघान्यथानुपपत्तेः' इत्यत्र मेघविशेषः । मेघविशेषो हि वर्षस्य कारण स्वकार्यभूतं वर्ष गमयति ।५२। कश्चिद्विशेषरूपः, यथा--वृक्षोऽयं शिंशपात्वान्यथानुपपत्ते रित्यत्र [ शिशपा ) शिशपा हि वृक्षविशेषः । सामान्यभूत वृक्षं गमयति । न हि वृक्षाभावे वृक्षविशेषो घटत इति । कश्चित्पूर्वचरः, यथा--उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयान्यथानुपपत्ते रित्यत्र कृत्तिकोदयः। कृत्तिकोदयानन्तरं मुहूर्तान्ते नियमेन शकटोदयो जायत इति कृतिकोदयः पूर्व चरो हेतुः शकटोदयं गमयति । कश्चि दुत्तरचरः, यथा--उद्गद्भरणिः प्राक् कृत्तिकोदयादित्यत्र कृत्तिकोदयः । कृत्तिकोदयो हि भरण्युदयोत्तरचरस्तं गमयति। कश्चित्सहचर:, यथा मातुलिङ्गरूपवद्भवितुमर्हति रसवत्त्वान्यथानुपपत्ते रित्यत्र रसः। रसो हि नियमेन रूपसहचरितस्तदभावेऽनुपपद्यमानस्तद्गमयति 1५४। स यथा--नास्य मिथ्यात्वम, आस्तिक्यान्यथोपपत्ते रित्यत्रास्तिक्यम् । आस्तिक्यं हि सर्व ज्ञवीतरागप्रणीतजीबादितत्त्वार्थ रुचिलक्षणम् । तन्मिथ्यात्ववतो न संभवतोति मिथ्यात्वाभावं साधयति ५६अस्त्यत्र प्राणिनि सम्यक्त्वं विपरीताभिनिवेशाभावात् । अत्र विपरीताभिनिवेशाभावः प्रतिषेधरूपः सम्यक्त्वसद्भावं साधयतीति प्रतिषेधरूपो विधिसाधको हेतुः ॥५८। नास्त्यत्र घूमोऽग्न्यनुपलब्धेरित्यत्राग्न्यभावः प्रतिषेध रूपो घूमाभाव प्रतिषेधरूपमेव साधयतोति प्रतिषेधरूपः प्रतिषेधसाधको हेतुः। -विधिसाधक-१. कोई कार्यरूप है जैसे यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि धूमवाला अन्यथा नहीं हो सकता 'यहाँ धूम' कार्यरूप हेतु है। कारण धूम अग्निका कार्य है, और उसके बिना न होता हुआ अग्निका ज्ञान कराता है ।। २. कोई कारण रूप है जैसे-वर्षा होगी, क्योंकि विशेष बादल अन्यथा नहीं हो सकते, यहाँ "विशेष बादल' कारण हेतु है। क्योंकि विशेष बादल वर्षाके कारण हैं और वे अपने कार्यभूत वर्षाका बोध कराते हैं ।५२१ ३. कोई विशेष रूप हैं। जैसे--'यह वृक्ष है', क्योंकि शिशपा अन्यथा नहीं हो सकती; यहाँ 'शिशपा' विशेष रूप हेतु है । क्यों कि शिशपा वृक्षविशेष है, वह अपने सामान्य भूत वृक्षका ज्ञापन कराती है। कारण, वृक्ष विशेष वृक्ष सामान्यके बिना नहीं हो सकता है। ४. कोई पूर्वचर है, जैसे-'एक मुहूर्त के बाद शकट का उदय होगा; क्योंकि कृत्तिकाका उदय अन्यथा नहीं हो सकता। यहाँ कृत्तिकाका उदय' पूर्वचर हेतु है; क्योंकि कृत्तिकाके उदयके बाद मुहूर्तके अन्तमें नियमसे शकटका उदय होता है। और इसलिए कृत्तिकाका उदय पूर्वचर हेतु होता हुआ शकटके उदयको जनाताहै। ५. कोई उत्तरचर है, जैसे- एक मुहूर्त के पहले भरणीका उदय हो चुका है। क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय अन्यथा नहीं हो सकता' यहाँ कृत्तिकाका उदय उत्तरचर हेतु है । कारण, कृत्तिकाका उदय भरणीके उदयके बाद होता है और इसलिए वह उसका उत्तरचर होता हुआ उसको जानता है। ६. कोई सहचर है, जैसे-'मातुलिंग (पपीता) रूपवान् होना चाहिए, क्योंकि रसवात् अन्यथा नहीं हो सकता', यहाँ 'रस' सहचर हेतु है। कारण रस, नियमसे रूपका सहचारी है और इसलिए वह उसके अभावमें नहीं होता हुआ उसका ज्ञापन कराता है।५४ निषेध साधक-१. सामान्य-इस जीवके मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि आस्तिकता अन्यथा नहीं हो सकती । यहाँ आस्तिकता निषेध साधक है, क्योंकि आस्तिकता सर्वज्ञ वीतरागके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वार्थोंका श्रद्धान रूप है, वह श्रद्धान मिथ्यात्यवाले जीवके नहीं हो सकता, इसलिए वह विवक्षित जीवमें मिथ्यात्वके अभावको सिद्ध करता है ।१६। २. विधिसाधक-इस जीवमें सम्यक्त्व है, क्योंकि मिथ्या अभिनिवेश नहीं है। यहाँ मिथ्या अभिनिवेश नहीं है' यह प्रतिषेध रूप है और वह सम्यग्दर्शनके सद्भावको साधता है, इसलिए वह प्रतिषेध रूप विधि साधक हेतु है। ३. प्रतिषेध साधक-'यहाँ धुंआ नहीं है, क्योंकि अग्निका अभाव है 'यहाँ अग्निका अभाव' स्वयं प्रतिषेध रूप है और यह प्रतिषेधरूप हो धूमके अभावको सिद्ध करता है, इसलिए 'अग्निका अभाव' प्रतिषेध रूप प्रतिषेध साधक हेतु है। ५. अनुपलब्धि रूप हेतु सामान्य व विशेषके लक्षण प मु./३/७४- नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः 198। नास्यत्यत्र शिशपावृक्षानुपलब्धेः 1001 नास्त्यत्र प्रतिबद्धसामोऽग्नि मानुपलब्धेः ८१। नास्त्यत्र धूमोऽनग्नेः । ८२१ न भविष्यति मुहूर्तान्ते शकट कृत्तिकोदयानुपलब्धेः ।३। नोदगाद्भरणिमहृतरित्रात्तत एव १८४॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. हेतु निर्देश हेतु ५४० २. हेतु निर्देश नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धेः । यथास्मिन् रहता और सपक्षसे रहित है. वह हेतु केवलव्यतिरेकी है। जैसे---- प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धेः ।८७। अस्त्यत्र जिन्दा शरीर जीव सहित होना चाहिए, क्योंकि वह प्राणादिवाला देहिनि दु.ख मिष्टसंयोगाभावात् ।८। अनेकान्तारमकं वस्त्वेकान्तस्व- है जो-जो जीव 'सहित नहीं होता है बह-बह प्राणादि वाला नहीं रूपानुपलब्धेः १८१) =विधिरूप-१. इस भूतल पर घड़ा नहीं है होता है जैसे लोष्ठ । यहाँ जिन्दा शरीर पक्ष है, जीव सहितत्व साध्य क्योंकि उसका स्वरूप नहीं दीखता १७६) २. यहाँ शिशपा नहीं है, 'प्राणादिक' हेतु है और लोष्ठादिक व्यतिरेकी दृष्टान्त है। .. क्योंकि कोई किसी प्रकारका यहाँ वृक्ष नहीं दीखता ८०1३. यहाँपरजिसकी सामर्थ्य किसी द्वारा रुकीनही ऐसी अग्नि नहीं है, क्योंकि ७. अतिशायन हेतुका लक्षण यहाँ उसके अनुकूल धुआँ रूप कार्य नहीं दीखता है ।८१। ४. यहाँ धुआँ आप्त मी./१/४ दोषावरणयोहानिनिःशेषास्त्यतिशायनात्। क्वचिद्यथा नहीं पाया जाता क्योंकि उसके अनुकूल अग्नि रूप कारण यहाँ नहीं है स्वहेतुभ्यो गहिरन्तरमलक्षयः ।४ - क्वचित् अपने योग्य ताप आदि 1८२1 १. एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय न होगा, क्योंकि इस निमित्तोंको पाकर जैसे सुवर्ण की कालिमा आदि नष्ट हो जाती है समय कृत्तिकाका उदय नहीं हुआ 1८३। ६. मुहूर्त के पहले भरणीका उसी प्रकार जीवमें भी कथंचित् कदाचित सम्पूर्ण अन्तरंग व बाह्य उदय नहीं हुआ है क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय नहीं पाया मलोंका अभाव सम्भव है, ऐसा अतिशायन हेतुसे सिद्ध है। जाता ।८।। ७. इस बराबर पलड़ेवाली तराजू में (एक पतले में ) ऊँचापन नहीं क्योंकि दूसरे पल्ले में नीचापन नहीं पाया जाता ।। ८. हेतुवाद व हेतुमत्का लक्षण प्रतिषेध रूप-१. जैसे इस प्राणी में कोई रोग विशेष है क्योंकि ध, १३/५.५,५०/२८७/५ हिनोति गमयति परिच्छिनत्यर्थमात्मानं चेति इसकी चेष्टा नीरोग मालूम नहीं पड़ती।८७१ २ यह प्राणी दुःखी है प्रमाणपञ्चकं वा हेतुः। स उच्यते कथ्यते अनेनेति हेतुवादः क्योंकि इसके पिता माता आदि प्रियजनों का सम्बन्ध छूट गया है श्रुतज्ञानम् । =जो अर्थ और आत्माका 'हिनोति' अर्थात् ज्ञान ।८८ ३. हरएक पदार्थ नित्य, अनित्य आदि अनेक धर्मवाला है कराता है उस प्रमाण पंचकको हेतु कहा जाता है। उक्त हेतु जिसके क्योंकि केवल नित्यत्व आदि एक धर्म का अभाव है ।। द्वारा 'उच्यते' अर्थात् कहा जाता है वह श्रुतज्ञान हेतुवाद ६. अन्वय व्यतिरेकी आदि हेतुओंके लक्षण कहलाता है। सू. पा./पं. जयचन्द/६/५४ जहाँ प्रमाण नय करि वस्तुकी निबधि सिद्धि न्या. दी./३/६४२-४४/१-१०/१ तत्र पञ्चरूपोपपन्नोऽन्वयव्यतिरेकी। जामें करि मानिये सो हेतुमत है। यथा-'शब्दोऽनिरयो भवितुमर्हति कृतकत्वात्, यद्यत्कृतकं तत्तदनित्य यथा घटः, यद्यद नित्यं न भवति तत्तत्कृतकं न भवति यथाकाशम्, तथा चायं कृतकः, तस्माद नित्य एवेति।' अत्र शब्द पक्षीकृत्यानित्यत्वं साध्यते। तत्र कृतकत्वं हेतुस्तस्य पक्षी कृतशब्दधमत्वात्पक्षधर्मत्व- १. अन्यथानुपपत्ति ही एक हेतु पर्याप्त है मस्ति। सपक्षे घटादौ वर्तमानत्वाद्विपक्षे गगनादाववर्तमानत्वादन्नयव्यतिरे कित्वम् ।।२। पक्षसपक्षवृत्तिविपक्षरहितः केवलान्वयी। सि. वि./मू./४/२३/३६१ सतर्केगोह्यते रूपं प्रत्यक्षस्येतरस्य वा। अन्ययथा- 'अदृष्टादयः कस्यचित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात्, यद्यदनुमेयं थानुपपन्नत्व हेतोरेकलक्षणम् ।२३। तत्तत्कस्यचित्प्रत्यक्षम, यथान्यादि' इति। अत्रादृष्टादयः पक्षः, सि. वि./टी./२/१५/३४५/२१ विपक्षे हेतुसद्भावबाधकप्रमाणव्यावृत्ती कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं साध्यम्, अनुमेयत्वं हेतुः, अग्न्याद्यन्वयदृष्टान्तः हेतुसामध्यमन्यथानुपपत्तरेव । प्रत्यक्ष या आगमादि अन्य प्रमाणों(४३। पक्षवृत्ति विपक्षव्यावृत्तः सपनरहितो हेतुः केवलव्यतिरेकी । के द्वारा ग्रहण किया गया साधन अन्यथा हो नहीं सकता, इस प्रकार यथा-'जीवच्छरीरं सात्मकं भवितुमर्ह ति प्राणादिमत्वात् यद्य ऊहापोह रूप ही हेतु का लक्षण है।२३। प्रश्न-विपक्षमें हेतु के सात्मक न भवति तत्तत्प्राणादिमन्न भवति यथा लोष्ठम्' इति । सद्भाव के बाधक प्रमाणकी व्यावृत्ति हो जानेपर हेतु की अपनी कौन सी अत्र जीवच्छरीरं पक्षः, सात्मकत्वं साध्यम, प्राणादिमत्वं हेतुः. शक्ति है जिससे कि साध्यकी सिद्धि हो सके। उत्तर-यह साधन लोष्ठादिव्यतिरेकदृष्टान्तः॥४४॥ १. जो पाँच रूपोंसे सहित है वह अन्यथा हो नहीं सकता, इस प्रकारको अन्यथानुपपत्तिकी ही अन्वयव्यतिरेकी है। जैसे-शब्द अनित्य है, क्योंकि कृतक है, सामर्थ्य है। जो-जो किया जाता है वह-वह अनित्य है जैसे घड़ा, जो-जो अनित्य न्या. वि./मू./२/१५४/१७७ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नहीं होता वह-वह किया नहीं जाता जैसे--आकाश। शब्द नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।१५४/- अन्यथा अनुपपन्नत्व के किया जाता है, इसलिए अनित्य ही है। यह शब्द का पक्ष घटित हो जानेपर हेतु के अन्य तीन लक्षण से क्या प्रयोजन और करके उसमें अनित्यता सिद्ध की जा रही है, उस अनित्यताके सिद्ध अन्यथानुपपन्नत्वके घटित न होने पर भी उन तीन लक्षणोंसे क्या करने में किया जाना' हेतु है वह पक्षभूत शब्दका धर्म है। अतः प्रयोजन है ।१७१ उसके पक्षधर्मत्व है। सपक्ष घटादिमें रहने और विपक्ष आकाशादिकमें प. मु/३/६४.६७ व्युहानप्रयोगस्तु तथोपपत्त्यान्यथानुपपत्त्यैव वा ४) न रहनेसे सपक्षसत्त्व और विपक्ष यावृत्ति भी है, हेतुका विषय तारता च साध्यसिद्धिः ।। - व्युत्पन्न पुरुषके लिए तो अन्यथा 'अनित्यत्त रूप साध्य' किसी प्रमाणसे बाधित न होनेसे अबाधित अनुपपत्ति रूप हेनुका प्रयोग ही पर्याप्त है।६४। वे लोग तो उदाहरण विषयत्व ओर प्रतिपक्ष साधन न होनेसे असत्म तिपक्ष भी विद्यमान आदिके प्रयोगके बिना ही हेतुके प्रयोगसे ही व्याप्तिका निश्चय कर है। इस तरह किया जाना हेतु पाँच रूपोंसे विशिष्ट होने के कारण लेते हैं । अन्वयव्यतिरेकी है।४२। २. जो पक्ष और सपक्षमें रहता है तथा बिगलसे रहित है वह केवलान्वयो है। जैसे-अदृष्ट ( पुण्य-पाप ) २. अन्यथानुपपत्तिसे रहित सब हेत्वाभास है आदिक किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमानसे जाने जाते हैं। न्या. वि./मू./२/२०२/२३२ अन्यथानुपपन्नत्वरहिता ये विलक्षणाः । जो-जो अनुमानसे जाने जाते हैं वह यह किसी के प्रत्यक्ष हैं अकिंचित्करान् सर्वान् तात् वयं सं गिरामहे ॥२०२। अन्यथा जैसे अग्नि आदि । यहाँ 'अदृष्ट आदिक' पक्ष है, 'किसीके अनुपपन्नत्वसे शून्य जो हेतुके तीन लक्षण किये गये हैं वे सब प्रत्यक्ष साध्य है परन्तु अनुमानसे जाना जाना हेतु है और अग्नि अकिचित्कर हैं। उन सबको हम हेत्वाभास कहते हैं ।२०२९ (न्या, आदि अन्वय दृष्टान्त है ।४३। ३. जो पक्ष में रहता है, विपक्ष में नहीं वि/म./२/१०४/२१०) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु ५४१ हेमचंद ३. हेतु स्वपक्ष साधक व परपक्ष दृषक होना चाहिए प. मु./६/७३ प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भाषितौ परिहतापरिहृतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनोदूषणभूषणे च॥७३॥-प्रथमवादी के द्वाराप्रयुक्त प्रमाणको प्रतिवादी द्वारा दुष्ट बना दिया जानेपर, यदि वादी उस दूषणको हटा देता है तो वह प्रमाण वादी के लिए साधन और प्रतिवादीके लिए दूषण है। यदि वादी साधनाभासको प्रयोग करे, और पीछे प्रतिवादी द्वारा दिये दूषणको हटा न सके तो वह प्रमाण वादी के लिए दूषण और प्रतिवादी के लिए भूषण है। यही स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषणकी व्यवस्था है। स, भं. त./80/३ हेतुः स्वपक्षस्य साधकः परपक्षस्य दूषकश्च । हेतु स्वपक्षका साधक और परपक्षका दूषक होना चाहिए। ४. हेतु देनेका कारण व प्रयोजन प. मु./अन्तिम श्लोक परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्वयोः। संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवव्यधाम् ।। - परीक्षा प्रवीण मनुष्यकी तरह मुझ बालकने हेय उपादेय तत्त्वों को अपने सरीखे बालकोंको उत्तम रीतिसे समझानेके लिए दर्पणके समान इस परीक्षामुख ग्रन्थकी रचना की है। स.भ.त./80/२ स्वेष्टार्थ सिद्धिमिच्छता प्रवादिना हेतुः प्रयोक्तव्यः, प्रतिज्ञामात्रेणार्थसिद्ध रभावात् । -अपने अभीष्ट अर्थको सिद्धि चाहने वाले प्रौढ वादीको हेतुका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। क्योंकि केवल प्रतिज्ञा मात्रसे अभिलषित अर्थ की सिद्धि नहीं होती। * जय-पराजय व्यवस्था -दे. न्याय/२। ३. हेत्वाभास निर्देश १. हेत्वाभास सामान्यका लक्षण न्या. वि./म्./२/१७४/२१० अन्यथानुपपन्नवरहिता ये विडम्बिताः 1१७४। हेतुत्वेन परस्तेषां हेत्वाभासत्वमीक्षते । - अन्यथानुपपन्नत्वसे रहित अन्य एकान्तवादियोंके द्वारा जो हेतु नहीं होते हुए भी, हेतुरूपसे ग्रहण किये गये हैं वे हेत्वाभास कहे गये हैं। न्या. दी./३/६४०/८८/५ हेतुलक्षणरहिता हेतुबदवभासमानाः खलु हेत्वाभासाः । =जो हेतुके लक्षणसे रहित हैं, और कुछ रूपमें हेतुके समान होनेसे हेतुके समान प्रतीत होते हैं वे हेत्वाभास हैं । (न्या. दी./३/६०/१००/१) (न्या. सू. भाषा./२/१/४/४४) २. हेत्वामासके भेद न्या, मू /२/१०१/१२६ विरुद्धासिद्धसंदिग्धा अकिंचित्करविस्तराः इति ।१०१ -विरुद्ध, असिद्ध, सन्दिग्ध और अकिंचिरकर ये चारों ही अन्यथानुपपन्नत्व रूप हेतुके लक्षणसे विकल होनेके कारण हेत्वा भास हैं । ( न्या. वि. मू./२/१६७/१२५) सि. वि /मू./६/३२/४२६ एकलक्षणसामद्धित्वाभासा निवर्तिताः। विरुद्वान कान्तिकासिद्धाज्ञाताकिञ्चित्करादयः ।३२ =अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षणकी सामर्थ्य से ही विरुद्ध, अनै कान्तिक, असिद्ध अज्ञात व अकिंचित्कर आदि हेत्वाभास उत्पन्न होते हैं। अर्थात उपरोक्त लक्षगको वृत्ति विपरोत आदि प्रकारों से पायी जाने के कारण ही ये विरुद्ध आदि हेत्वाभास हैं। श्लो. पा. ४/न्या./२७३/४२५/७ पर भाषामें उद्धत-सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमातोतकाला हेत्वाभासाः । सव्यभिचारी, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम, अतीतकाल ये पाँच हेत्वाभास हैं । (न्या. सू./ मू. १/४/४४) न्या. दी./३/६४०/८६/४ पञ्च हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धनै कान्तिककालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाख्याः संपन्नाः। -हेत्वाभास पॉच हैं असिद्ध, विरुद्ध, अनेकान्तिक, कालत्ययापदिष्ट और प्रकरणसम । प.मु./६/२१ हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानै कान्तिकाकिचित्कराः। - ___ हेत्वाभासके चार भेद है- असिद्ध, विरुद्ध, अनै कान्तिक और अकिंचित्कर । स. म./२४/१ विरोधस्योपलक्षणत्वाव वैयधिकरणम् अनवस्था संकरः व्यतिकरः संशयः अप्रतिपत्तिः विषयव्यवस्थाहानिरिति। -सप्त भंगी बादमें विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और विषयव्यवस्था हानि ये आठ दोष आते हैं। * हेतुओं व हेत्वाभासोंके भेदोंका चित्र-दे, न्याय/१॥ * हेत्वाभासके भेदोंके लक्षण-दे. बह-वह नाम । हेतुवाद-दे, हेतु/१। य धर्मध्यान-दे.धर्मध्यान/१४/१०। हेत्वन्तर-घ्या. सू./म. व. टी./५/२/६/३११ अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम् ।। निदर्शनम् एकप्रकृतीदं व्यक्तमिति प्रतिज्ञा कस्माद्ध तोरेकप्रकृतीनां विकाराणां परिमाणाद मृत्पूर्वकाणां शरावादीनां दृष्टं परिमाण यावान्प्रकृते! हो भवति तावान्विकार इति दृष्ट' च प्रतिविकार' परिमाणम् । अस्ति चेदं परिमाण प्रतिव्यक्तं तदेक प्रकृतीनां विकाराणां परिमाणात् पश्यामो व्यक्तिमदनेकप्रकृतीति । अस्य व्यभिचारेण प्रत्यवस्थानं नानाप्रकृतीनां च विकाराणां दृष्टं परिमाणमिति । ..... तदिदमपि शेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्ध विशेष अवतो हेत्वन्तरं भवति। - विशेषोंका लक्ष्य नहीं करके सामान्य रूपसे हेतुके कह चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा हेतुके प्रतिषेध हो जानेपर विशेष अंशको विवक्षित कर रहे बादीका हेत्वन्तर निग्रहस्थान हो जाता है। उदाहरण-जैसे व्यक्त एक प्रकृति है यह प्रतिज्ञा है, एक प्रकृति वाले विकारों के परिणामसे यह हेतु है । मिट्टोसे बने शराव आदिकोंका परिमाण दृष्ट है, जितना प्रकृतिका व्यूह होता है उतना ही विकार होता है और यह परिमाण प्रतिव्यक्त है । वह एक प्रकृति वाले विकारों के परिमाण से देखा जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्त एक प्रकृति है। (श्लो. वा./४/ न्या. १६१/३७६/६ में इसपर चर्चा । हेत्वाभास-दे. हेतु/३ । हेमग्राम-श्रीयुत् मल्लिनाथ चक्रवर्ती एम. ए. एल. टी.ने अपने प्रवचनसारकी प्रस्तावनामें लिखा है कि मद्रास प्रेसीडेन्सीके मलाया प्रदेशमें 'पोन्नूरगाँव' को ही प्राचीन काल में हेमग्राम कहते थे । (कुरल काव्य/प्र.२१)। हेमचंद-१. काष्ठा संघकी गूर्वावलीके अनुसार ( दे. इतिहास) आप कुमारसेन ( काष्ठा संघके संस्थापक ) के शिष्य तथा पद्मनन्दि के गुरु थे। समय-वि.८०, (ई. १२३)-दे. इतिहास/७/१। २. गुजरातके , धंधुग्राम में चच्चनामक वैश्यके पुत्र थे । बचपनका नाम चंगदेव था। पाँच वर्षको आयुमें देवचन्द्र गणीसे दीक्षा ग्रहण की। तब इनका नाम हेमचन्द्र रखा गया और सोमदेवकी उपाधिसे विभूषित हुए। ये श्वेताम्बराचार्य थे। कृतियाँ-गुजराती व्याकरण, सिद्ध हेम शब्दानुशासन, प्राकृत व्याकरण, अभिधान चिन्तामणि कोष (हमी नाममाला), अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला, काव्यानुशासन, छन्दानुशासन, प्रमाणमीमांसा, अन्ययोग व्यवच्छेद (द्वात्रिशतिका स्याद्वाद मञ्जरी) अयोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशतिका, अध्यात्मोपनिषद्, योगशास्त्र, दयाश्रय महाकाव्य, निघंटुशेष, वीतरागस्तोत्र, अन्तरश्लोक (द्वादशान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमराज (पांडे) ५४२ ह्रीमंत प्रेक्षा), विषष्टि पुरुष चरित । समय-ई, १०८८-११७३ । (सि. वि./ ४२. महेन्द्र) (प.प्र./प्र७४,११७, A.N. Up.) (का.अ./प्र.१७ A. N.UP.)। हेमराज (पांड)-यह पण्डित रूपचन्दके शिष्य थे। कृतिप्रवचनसार टीका, पञ्चास्तिकाय टीका, भाष्य भक्तामर, गोम्मटसार वचनिका, नयचक्र बच निका, सितपट चौरासी बोल (श्वेताम्बरियोंपर आक्षेप) समय--वि. श. १७-१८ (पं.का. प्र/३. पन्नालाल ); (हि. जै. सा. इ./१३१ कामता )। हैमवत-१. पहले भारतवर्षका ही दूसरा नाम रहा है। यथाइमं हैमवतं वर्ष भारतं नाम विश्रुतम् । (मत्स्य/११२/२८) - आगे चलकर वह स्वतन्त्र एक वर्ष मान लिया गया है। यथा--इदं तु भारतं वर्ष ततो हैमवतं परम् । (भारत भीष्म/६/७ ); (ज. प./प्र./ १४२ A. N. Up.) । २. रा. वा./३/१०/१/१७२/१७ हिमवन्नाम पर्वतः तस्यादूरभवः सोऽस्मिन्नस्तीति वाणि सति हैमवतो वर्षः । = [अढाई द्वोपों में स्थित प्रसिद्ध द्वितीय क्षेत्र है ] हिमवान नामके पर्वतके पासका क्षेत्र, या जिसमें हिमवान् पर्वत है वह हैमवत है। २. हैमवत इस क्षेत्रका अवस्थान व विस्तारादि-दे. लोक/३/३; ३. हैमवत क्षेत्र में काल वर्तनादि सम्बन्धी-दे. काल; ४. हिमवान् पर्वतपर स्थित एक कूट व देव-दे. लोक/५/४५. महामिवान् पर्वतस्थ कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोकाश६.रुचक पर्वतस्थ एक कूट--दे. लोक/५/१३ ॥ हैमी नाममाला-दे. शब्दकोष ! हैरण्यवत-१. रा.वा./३/१०/१७/१८१/१६ हिरण्यवान् रुक्मिनामा पर्वतस्तस्थादूरभवत्वाद्धरण्यवतव्यपदेशः। = [अढाई द्वीपस्थ प्रसिद्ध छठा क्षेत्र है ] रुक्मिके उत्तर शिखरीके दक्षिण तथा पूर्व पश्चिम समुद्रोंके बीच हैरण्यवत क्षेत्र है । २. हैमवत क्षेत्रका अवस्थान व विस्तारादिदे. लोक/३/३॥ ३. हैमवतक्षेत्रमें काल वर्तन आदि सम्बन्धी विशेषता----दे. काल/४/१३॥ ४. रुक्मि पर्वतस्थ एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक,५/४६५.शिखरी पर्वतस्थ एक कूट ब उसका स्वामी देवदे. लोक/। होय्सल-यह नगर कर्नाटक (दक्षिण ) में है। यहाँके राज्यके आधीन ही जैनियों का प्रसिद्ध स्थान मूडबिद्री रहा है (ध./३॥ प्र.५) । होलोरेणुका चरित-पं. जिनदास द्वारा वि. १६८० में लिखित ७ अध्याय ४३ श्लोक प्रमाण पंचनमस्कार महात्म्य प्रदर्शक संस्कृत काव्य । (ती./४/८४)। ह्य नसांग-एक चीनी यात्री था। राजा हर्षवर्धनके समय भारतमें आया। समय--ई.६३०-६४५ (न्यायावतार । प्र.२ सतीश चन्दविद्याभूषण के अनुसार वह ई. ३२६ में भारत आया था। (वर्तमान भारतका इतिहास)। ह्रद-प्रत्येक वर्षधर पर्वतपर स्थित हैं। जिसमेंसे गंगा आदि नदियाँ निकलती हैं। दे. लोक /३/F ! ह्रस्व-ध./१३/५, ५,४७/२४८/३। एकमात्री ह्रस्वः। = एक मात्रा __ वाला वर्ण ह्रस्व होता है। ह्रस्व स्वर-दे. अक्षर । ही-१. हैमवत पर्वतस्थ एक कूट--दे. लोक/५/४,२. हैमवत पर्वतस्थ महापद्म ह्रद तथा ह्रीकूटकी स्वामिनी देवी-दे. लोकश६३.रुचक पर्वतस्थ निवासिनी दिक्कुमारी देवी--दे. लोक/५/१३। ह्रीमत-राजगृहमें स्थित एक पर्वत--दे. मनुष्या। इति चतुर्थः खण्डः समाप्तोऽयं ग्रन्थः जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परिशिष्ट] शतक-इस नाम के दो ग्रन्थ प्राप्त हैं। १. 'कर्म प्रकृति' नामक द्वितीय पूर्व के 'महाकर्मप्रकृति' नामक चौथे प्राभूत का विवेचन श्वेताम्बर ग्रन्थ के बड़े भाई के रूप में प्रसिद्ध इस ग्रन्थ के रचयिता इसमें निबद्ध है (जै./१/६१) । इसका असली नाम क्या था यह आज भी 'कर्म प्रकृति के कर्ता आ. शिवशर्म सूरि (वि.५००) ही बताये ज्ञात नहीं है। जीवस्थान आदि छः खण्डों में विभक्त होने के कारण जाते हैं । गाथा संख्या १०७ होने से इसका 'शतक' नाम सार्थक है, इसका 'षट् खण्डागम' नाम प्रसिद्ध हो गया है । (जै./१/११)। इसके और कर्मों के बन्ध उदय आदि का प्ररूपक होने से 'बन्ध शतक' प्रत्येक खण्ड मे अनेक अनेक अधिकार है । जैसे कि जीवस्थान नामक कहलाता है। ३१३ । दृष्टिवाद अग के अष्टम पूर्व 'कर्म प्रवाद' की प्रथम खण्डमे सत्प्ररूपणा, द्रव्य प्रमाणानुगम आदि आठ अधिकार है। बन्ध विषयक गाथाओं का संग्रह होने से इसे 'बन्ध समास' भी कहा इसके रचयिता के विषय मे धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने यह जा सकता है । ३१४ गाथा संख्या १०५ में इसे 'कर्म प्रवाद' अग लिखा है कि "आ. पुष्पदन्त ने 'बीसदि' नामक सूत्रो की रचना की, का संक्षिप्त स्यन्द या सार कहा गया है। ३१२ । चूर्णिकार चन्द्रर्षि और उन सूत्रों को देखकर आ. भूतबलि ने द्रव्य प्रमाणानुगम आदि महत्तर ने इसकी उत्पत्ति दृष्टिवाद अंग के 'अग्रणी' नामक द्वि. पूर्व विशिष्ट ग्रन्थ की रचना की"। (ध. १/पृष्ठ ७१) । इस 'अवशिष्ट के अन्तर्गत 'महाकर्म प्रकृति प्राभृत' के 'बन्धन' नामक अष्टम अनु- शब्द पर मे यह अनुमान होता है कि आ. पुष्पदन्त (ई.६६-१०६) योग द्वार से बताई है। ३५८ । इसके पूर्वार्ध भाग में जीव समास, द्वारा रचित 'बीसदि' सूत्र ही जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड का गणस्थान, मार्गणा स्थान आदि से समवेत जीवकाण्डका, और अप सत्तरूपणा नामक प्रथम अधिकार है जिसमें बीस प्ररूपणाओ का रार्ध भाग में कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व की व्युच्छित्ति विषयक विवेचन निबद्ध है । इस खण्ड के शेष सात अधिकार तथा उनके आगे कर्मकाण्ड का विवेचन निबद्ध है । ३१२ । रचयिता ने अपने कर्म शेष पाँच खण्ड आ. भूतबलि की रचना है। यदि इन दोनों ने आ. प्रकृति' नामक ग्रन्थ में सर्वत्र 'शतक' के स्थान पर 'बन्ध शतक' का धरसेन (बी. नि. ६३०) के पास इस सिद्धान्त का अध्ययन किया है नामोल्लेख किया है ।३१३ । समय-वि. १००। (जै./१/पृष्ठ)। तो इस ग्रन्थ के आदा तीन खण्डों की रचना वी, नि. ६५०(ई. १२३) इसपर अनेकों चूर्णियां लिखी जा चुकी है। (दे. कोष ।। में परिशिष्ट के आसपास स्थापित की जा सकती है (जै./२/१२३) और ये तीन १/चूणि)। खण्ड टीका लिखने के लिये आ. कुन्द कन्द (ई. १२७) को प्राप्त हो २. उपयुक्त ग्रन्थको ही कुछ अन्तरके साथ श्री देवेन्द्र सूरिने सकते हैं। भी लिखा है जिसपर उन्हीं को एक स्वोपज्ञ टीका भी है। समय इन छ' खण्डों में से 'महाबन्ध' नामक अन्तिम खण्ड को छोडवि. श. १३ का अन्त । (ज./१/४३५) । कर शेष ५ खण्डों पर अनेकों टीकायें लिखी गयी हैं। यथा--१. आद्य तीन खण्डों पर आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७) कृत 'परिम' टीका। शिवशर्म सूरि-एक प्राचीन श्वेताम्बराचार्य। नन्दीसूत्र आदि के २. आद्य ५ खण्डों पर आ. समन्त भन्द्र (ई. श. २) टीका । कुछ पाठ का अवलोकन करने से अनुमान होता है कि आप सम्भवतः विद्वानों को यह बात स्वीकार नहीं है)। ३. आद्य पांच खंडों पर देवगिणी क्षमाश्रमण से भी पूर्ववर्ती हैं और दशपूर्वधारी भी हैं। आ. शामकुण्ड (ई. श. ३) कृत 'पद्धति' नामक टीका। ४. तम्बूला३०३ । दृष्टिवाद अंग के अशभूत 'महाकर्म प्रकृति प्राभृत' का ज्ञान चार्य (ई. श. ३-४) कृत 'चूड़ामणि' टीका। ५. आ. बप्पदेव इन्हें आचार्य परम्परा से प्राप्त था। उच्छिन्न हो जाने की आशंका से (ई. श ६-७) कृत 'व्याख्या प्रज्ञप्ति टीका। (जै./१/२६३ पर उद्धृत अपने उस ज्ञान को 'कर्म प्रकृति' नामक ग्रन्थ मे निबद्ध कर दिया इन्द्रनन्दि श्रुतावतार)। था। (पीछे 'मन्ध शतक' के नाम से उसी का कुछ विस्तार किया)। सत्कर्म-इन्द्रनन्दि कृत तावतार के अनुसार यह ग्रन्थ षट्वंडागम श्वेताम्बराम्नाय में क्योंकि दृष्टिवाद अग वी. नि. १००० तक के छः खंडों के अतिरिक्त वह अधिक खंड है. जिसे कि आ. जीवित रहा माना जाता है, इसलिये आपको वि. ५०० के आसपास बप्पदेव (ई, श.६-७) कृत उपयुक्त व्यारख्या प्रज्ञप्टि' की टीका के स्थापित किया जा सकता है । ३०४ । (जै./१/पृष्ठ)। रूप में आ. बीरसेन स्वामी (ई.७७०-८२७) ने रचा है। (दे. व्याख्या शभनन्दि रविनन्दि-इन्द्रनन्दी कृत श्रृतावतार श्लोक १७१-१७३ प्रज्ञप्ति)। षट् खंडागम के वर्गणा' नामक पंचम खंड के अन्तिम सूत्र के अनुसार आपको आचार्य परम्परा से षट्खण्डागम विषयक को देशामर्शक मानकर उन्होंने निबन्धनादि अठारह अधिकारों में सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त था। इनके समीप में श्रवण करके ही आ. विभक्त इसका धवला के परिशिष्ट रूपेण ग्रहण किया है। मुद्रित बप्पदेव ने षटूखण्डागम तथा कषायपाहूड़ पर व्याख्या लिखी थी। षट्वं डागम की १५ वीं पुस्तक में प्रकाशित है। (ती./१/६६): (और प्राचीन श्रुतधरों की श्रेणी में बैठाकर यद्यपि डा. नेमिचन्द ने इन्हें भी दे. आगे 'सत्कर्म पञ्जिका')। बी. नि हाद(ई. श. १) में स्थापित करने का प्रयत्न किया है, सत्कर्म पञ्जिका-धवला के परिशिष्ट रूप से गृहीत 'सत्कम' परन्तु उनकी यह कल्पना इसलिये कुछ संगत प्रतीत नही होती' प्ररूपणा के निबन्धन आदि अठारह योगद्वारों या अधिकारों में से क्योंकि षटवण्डागम के रचयिता आ. भूतनलि के काल की पूर्वावधि प्रथम चार पर रचित यह एक ऐसी टीका है जिसे लेखक'ने स्वयं. वी, नि. ५६३ से ऊपर किसी प्रकार भी ले जायी जानी सम्भव नहीं तथा आचार्यों ने भो 'सु-महार्थ' अथवा 'महार्थ' कहा है। उन-उन है। (दे. कोष //परिशिष्ट २)। अधिकारों की पूरी टीका न होकर यह केवल उन विषयों का पखण्डागम-भगवान महावीर से आचार्य परम्परा द्वारा आगत खुलासा करती है जो कि उन अधिकारों में अतिदूर अत्रगाहित ऋतज्ञान का अश होने से कषायपाहर के पश्चात षट कण्डागम ही प्रतीत होते है। षट्रा डागमके महाबन्ध' नामक षष्टम ख ड की हाड़दिगम्बर आम्नाय का द्वितीय महनीय ग्रन्थ है । अग्रायणी नामक पत्रीय प्रति के आद्य २७ पत्रों पर यह अंकित है । (जै./१/२८४-२६५)। जैनेन्द्र सिमान्तकोश | Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 544 सिद्ध सेन(गणी) इसके रचयिता के काल तथा नाम का स्पष्ट उल्लेख कहीं उपलब्ध पुराण तथा हरिवंशपुराण में इनकी मुक्त कण्ठ से प्रशसा की है। नहीं है, परन्तु 'महाबन्ध' को ताडपत्रीय प्रति पर लिखा होने से तथा 206 / आ. समन्त भद्र की भांति इनके विषय में भी यह कथा प्रसिद्ध इसके कतिपय उल्लेखो का अवलोकन करने से ऐसा प्रतीत होता है है कि कल्याण मन्दिर स्तोत्र के प्रभाव से इन्होने रुद्र लिग को फाड़कि इसकी रचना सम्भवतः धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी के सामने कर राजा विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वि.) को सम्बोधित किया था (ई.७७०-८२७) में अथवा उनके पश्चात् तत्काल ही हो गयी थी। / 207-206 / इसलिये बहुत सम्भव है कि उनके शिष्य श्री जिनसेन स्वामी ने गुरु-आप उज्जैनी मे देवर्षि ब्राह्मण के पुत्र और वृद्धवादि के श्रीपाल. पद्मसेन तथा देवसेन नाम वाले जिन तीन विद्वानों का शिष्य थे। 206 / धर्माचार्य को भी इनका गुरु बताया जाता है नामोल्लेख किया है और इस हेतु से जो उनके गुरु भाई प्रतीत होते / 2071 कृतियें-सन्मति सूत्र, कल्याण मन्दिर स्तोत्र, तथा द्वात्रिं हैं, उनमें से ही किसी ने इसकी रचना की हो / (जै./१/२६२)। शिकाओं में से कुछ इन की हैं / 210 / समय-इनके समय के विषय सप्ततिका-कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व विषयक चर्चा करने वाला, में भी मतभेद पाया जाता है / कट्टरपंथी श्वेताम्बर आचार्य इन्हें कुन्दकुन्द से भी पहले वि. श. 1 में स्थापित करते हैं, परन्तु श्वेताश्वेताम्बर आम्नाय का यह ग्रन्थ 70 गाथा युक्त होने के कारण प्राकत म्भर के प्रसिद्ध विद्वान पं. सुखलाल जी मालवणिया आ. पूज्यपाद भाषा में 'सत्तरि' नाम से प्रसिद्ध है। संस्कृत में इसे 'सप्ततिका' भी कहा जा सकता है / 318 / यद्यपि गाथा 1 में इसके रचयिता ने इसे (वि. श. 6 पूर्वार्ध) कृत सर्वार्थ सिद्धि में तथा जैनेन्द्र व्याकरण में इनके कतिपय सूत्र तथा बाक्य उद्धत देखकर इनका काल वि. श.. शिवशर्म सूरि कृत 'शतक' की भांति दृष्टिवाद अग का संक्षिप्त स्यन्द या सार कहा है, तदपि यह उससे भिन्न है, क्योंकि शिस्त्र शम का प्रथम पाद और वि. श. 4 का अन्तिम पाद कल्पित करते हैं सूरि को ही दूसरी कृति 'कर्म प्रकृति के साथ कई स्थलों पर मतभेद / 204 / दिगम्बर विद्वानों में मुख्तारसाहब इन्हें पूज्यपाद (वि. श.६) और अकलंक भट्ट (वि श. 7) के मध्य वि. 625 के आसपास पाया जाता है। 321 / इस पर रचित एक चूणि (दे. कोष / परिशिष्ट) के अतिरिक्त आ. अभय देव सूरि (वि. 1080-1934) तथा स्थापित करते हैं / इस विषय में इनका हेतु यह है कि एक ओर तो आ, मलयगिरि (वि. श. 12) कृत टीकायें भी उपलब्ध हैं। आ. इनके द्वारा रचित सन्मति सूत्र के वाक्य 'विशेषावश्यक भाष्य (वि. जिनभद्र गणी के विशेषावश्यक भाष्य (वि. 650) में क्यों कि 'कर्म 650) में तथा धवला जय धवला (वि.७१३-७६३) में उद्धृत पाये प्रकृति' तथा 'शतक' की भाँति इसकी गाथायें भी उद्धृत हुई मिलती जाते हैं और दूसरी ओर सन्मति सूत्र में कथित ज्ञान तथा दर्शन हैं, इसलिये इसे हम वि. श, 7 के पश्चात् का नहीं कह सकते। उपयोग के अभेदबाद की चर्चा जिस प्रकार अकलंक (वि. श.७) कत जि./१/पृष्ठ)। राजवार्तिक में पाई जाती है उस प्रकार पूज्यपाद (वि.श.६) कृत सर्वार्थ सिद्धि में नहीं पायी जाती/२११ / (ती./२/पृष्ठ)।। सिहरि-तत्वार्थाधिगम भाष्य के वृत्ति कार सिद्धसेन गणी के दादा सिद्धसेन (गणी)-श्वेताम्बर आचार्य थे। मूल आगम ग्रन्थों को गुरु (दे. आगे सिद्धसेन गणी)। ये श्वेताम्बराचार्य मल्लवादी कृत प्राकृत से संस्कृत में रूपान्तरित करने के विचार मात्र से इन्हें एक 'नय चक्र' के वृतिकार माने जाते हैं / 330 / इनकी इस वृत्ति में एक बार श्वेताम्बर संघ से 12 वर्ष के लिये निष्कासित कर दिया गया ओर तो विशेषावश्यक भाष्य (वि. 650) के कुछ वाक्य उद्धृत पाये था। इस काल में ये दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आये और इन्हीं जाते हैं और दूसरी ओर बौद्धाचार्य धर्म कीति (वि. 622-707) का दिनों उनसे प्रभावित होकर इन्होंने भक्तिपरक द्वात्रिशिकाओं की यहां कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, जबकि इनके प्रशिष्य सिद्धसेन रचना की। दिगम्बर संघ में इनका प्रभाव बढ़ता देख शोताम्बर संघ गणी ने अपनी 'तत्त्वार्थभाष्य वृत्ति' में उनका पर्याप्त आश्रय लिया ने इनके प्रायश्चित की अवधि घटा दो और ये पुनः श्वेताम्बर संघ है। इसलिये इन्हें हम वि श. 7 के मध्य में स्थापित कर सकते हैं। में आ गए। (ती./२/२१०)। आ. शीलांक (वि. श.९-१०) ने अपनी (जै /2/330-365); (जै./२/३०१) / 'आचारांग सूत्रवृत्ति' में इनका गन्धहस्ती' के नाम से उल्लेख किया सिषि-उपमिति भव प्रपञ्च कथा' के रचयिता एक श्वेताम्बरा- है (दे, गन्ध हस्ती)। यद्यपि श्वेताम्बर लोग इन्हें ही मति सूत्र चार्य / उक्त ग्रन्थ के अनुसार सूर्याचार्य के शिष्य छल महत्तर और का कर्ता मानते हैं, परन्तु मुख्तार साहब की अपेक्षा ये उनसे भिन्न उनके स्वामी दुर्गा स्वामी हुए। इन दुर्गा स्वामी ने ही इनको तथा हैं (दे. सिद्धसेन दिवाकर)। इनके शिक्षा गुरु गर्ग स्वामी को दीक्षित किया था। समय-ग्रन्थ गुरु-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य पर लिखित अपनी वृत्ति में आपने अपने को दिन्न गणी के शिष्य सिह सूरि (वि.श.७ का अन्त) सिद्धसेन दिवाकर -दिगम्बर आचार्य-आप दिगम्बर तथा का प्रशिष्य और भास्वामी का शिष्य घोषित किया है (जै./२/३२६) श्वेताम्बर दोनों आम्नायों में प्रसिद्ध है। दिवाकर की उपाधि इन्हें कृतिय-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य पर बृहद वृत्ति, न्यायावतार तथा भक्तिपरक कुछ द्वात्रिशि कायें। (ती./२/२६२) समय- एक ओर तो श्वेताम्बराचार्य अभयदेव, सूरि (वि. श. 12) ने सन्मति मूत्र की अपनीटीकामें प्रदान की हैं जो दिगम्बर आम्नाय मे प्राप्त नही है। अन्त) का और अक्लंक. भट्ट (वि.श.७) कृत 'सिद्धि विनिश्चय का दिगम्बर आम्नाय में इन्हें सन्मति सूत्र के साथ-साथ कल्याण मन्दिर उल्लेख उपलब्ध होता है,और दूसरी ओर प्रभावक चारित्र(वि श.८) स्तोत्र जैसे कुछ भक्तिपरक ग्रन्थों के भी रचयिता माना गया है, में आपका नामोल्लेख पाया जाता है, इसलिये आपको वि. श. के जबकि श्वेताम्बर आम्नाय में इन्हें न्यायावतार तथा द्वात्रिशिकाओं पूर्वार्ध में स्थापित किया जा सकता है (जै./२/३३१) / आपके दादाआदि के कर्ता कहा जाता है / 212 / पं.जुगल किशोर जी मुख्तार गुरु सिंहसूरि का काल क्योंकि वि. श. 7 निर्धारित किया जा चुका के अनुसार ये दोनों व्यक्ति भिन्न हैं। द्वात्रिशिकाओं आदि के कर्ता है (दे. इससे पहले सिहसूरि') इसलिये उनके साथ भी इसकी संगति सिद्धसेन गणी हैं जो श्वेताम्बर थे। उनकी चर्चा आगे की जायेगी। बैठ जाती है। पं. सुखलाल जी मालवणिया ने इनके काल की अपरासन्मति सूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर हैं। आ, जिनसेन ने आदि- बधि वि. श. निर्धारित की है / (जै./१/३६५) / . समाप्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश