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________________ साधु ४११ लिए विशकुल अवकाश नहीं मिलता ।७१२। किन्तु ऐसा नहीं है कि आचार्य श्रेणी के आरोहण काल पहिले छेदोपस्थापनारूप चारित्रको ग्रहण करके पीछे साधुपदको ग्रहण करते हो ।७१३८ दे, सल्लेखना / ४/६ संस्तर धारण से पूर्व आचार्य संपकी व्यवस्थाका कार्य भार बालाचार्यको सौंपकर स्वयं उस पदसे निवृत्त हो जाते हैं ।] साधु प्रासुक परित्यक्तता - ६. ध्यान /३ साधु संघ साधु समाधि - देसमाथि दे. संघ व इतिहास / ५ - साध्य - दे, पक्ष । -- साध्य विकल्प/ साध्य विरुद्ध दे विरुद्ध । साध्य समन्या. सू./मू./२/८ साध्याविशिष्टः साध्यत्वात्साध्यसमः = साध्य होनेके कारण साध्यसे जो अभिन्न है ऐसे हेतुको साध्यसमत्वाभास कहते हैं जैसे पर्वत महिमा है, क्योंकि यह महिमा है ] ( श्लो. वा. ४/१/३३ / न्या./२७२/४२८/२५) साध्यसमा न्या. सू. /भाष्य /५/१/४/२८८ / २३ - [ मूलसूत्र दे. वर्ण्यसमा] क्रियागुणयुकं किचिहगुरु यथा लोष्ठः किचिन्तषु यथा वायुरेवं क्रियाहेतुगुणयुक्त किंचित्क्रियावत्स्याद् यथा लोष्टः किंचिदक्रियं यथात्मा विशेषो वा वाच्य इति । हेत्याद्यवयव सामर्थ्ययोगी धर्मः साध्यस्तं दृष्टान्ते प्रसज्ञ्जतः साध्यसमः । यदि यथा लोष्टस्तथारमा प्राप्तस्तर्हि यथात्मा तथा लोष्ट इति । साध्यश्चायमात्मा क्रियावानिति कामं लोष्टोऽपि साध्यः । अथ नैवं तर्हि यथा लोष्ट : तथात्मा एतेषामुत्तर क्रिया हेतुगुणसे युक्त पदार्थ कुछ भारी भी होता है जैसे लोष्ट, कुछ हलका भी होता है जैसे वायु, कुछ क्रियावाला होता है, जैसे लोष्ट और कुछ क्रियारहित भी होता है। जैसे आत्मा । कुछ और विशेष हो तो कहिए। हेतु आदि अवयव की सामर्थ्यको जोड़नेवाला धर्म साध्य होता है। उसको दृष्टान्तमें प्रसंग करानेवालेको साध्यसम कहते हैं। उदाहरणार्थ जैसा लोट है वैसा ही आत्मा है, तब प्राप्त हुआ कि जैसा आत्मा है ऐसा ही नोट है। यदि आमाका किपाबादपना साध्य है तो निस्सन्देह लोहका भी कियाापना भी साध्य है यदि ऐसा नहीं है तो 'जैसा लोष्ट वैसा आत्मा' ऐसा नहीं कहा जा सकता । ( श्लो. वा. ४/ १/३६/या ३३०/४०३/१०) | ! । साध्य साधक सम्बन्ध सम्बन्ध साध्य साधन भाव -- ( दे. निश्चय व्यवहार नय या धर्म या चारित्र आदि) । सदानन्द वेदान्तसार नामक प्रत्यके रचयिता समय ई. श. १७ (दे. वेदान्त / १/२ ।) सान. १३/२२.३० / २४२/३ स्वति चिनति हन्ति विनाशयति अध्यवसायमित्यवग्रहः सामए जो अनध्यवसायको छेदता है, नष्ट करता है, वह अवग्रहका तीसरा नाम सान है। । सान्निपातिक भाव दे सापेक्ष/२.२ सापेक्ष मात्रा - Relative mass - ( जं. प / प्र.१०६) । सामानिक--- ति प./३/६५ सामाणिया कलत्तसमा । ६५। कलत्रके समान होते हैं। (त्रि सा/२२४) । Jain Education International सामानिक देव इन्द्रके सामान्य स.सि./३/११/२१८/६ समाने स्थाने भवाः सामानिकाः । स.सि./४/४/२३१/२ आश्वर्यव जिस यरस्थानादुपरिवारभोग. प भोगादि तत्समानं, तत्समाने भवाः सामानिकाः महत्तराः पितृगुरूपाध्यायतुल्याः । = १. समान स्थान या पदमें जो होते हैं सो सामायिक कहलाते हैं। (रावा./३/११/३/१८३/३१) २. बा और ऐश्वर्य अतिरिक्त जो आयु बौर्य, परिवार, भोग और उपभोग हैं वे समान कहलाते हैं। उस समानमें जो होते हैं वे सामानिक कहलाते हैं । ये पिता, गुरु और उपाध्यायके समान सबसे बड़े हैं । (रा.मा./४/४/२/२१२/१७) । - म.पू. / २२/२४ पितृमातृगुरूप्रख्याः संभतास्ते रेशिमा भन्ते सममिन्द्रश्व सरकार मान्यतोचितम्। २४ मे सामानिक जातिके देव इन्द्रोंके पिता माता और गुरुके तुल्य होते हैं तथा ये अपनी मान्यता के अनुसार इन्द्रोंके समान ही सत्कार प्राप्त करते हैं | २४| प.प./११/३०६ सामानिया वि देवा अग्रसरिसा लोगवाला - सामानिक देव भी वैभव आदिमें लोकपालोंके सदृश होते हैं । अन्य सम्बन्धित विषय १. सामानिक देवोंकी देवियाँ - ( दे. स्वर्ग / ३ / ७) २. इन्द्रोंके परिवार में सामानिक देवोंका प्रमाण दें, भवन, व्यन्तर ज्योतिषी और स्वर्ग। - सामान्य - १. 'सामान्य सामान्यके लक्षण दे, द्रव्य /१/७ [ द्रव्य, सामान्य, उत्सर्ग, अनुवृत्ति, सत्ता, सत्त्व, सत, अन्य वस्तु अर्थ विधि अविशेष ये सब एकार्थवाचक शब्द है।] दे. नय./1/५/४-[ द्रव्यका सामान्यांश हारके डोरे सर्व पर्यायोंमें अनुस्यूत एक भाव है । ] दे. निक्षेप /२/७ [ द्रव्यकी प्रारम्भसे लेकर अन्त तककी सब पर्यायें मिलकर एक द्रव्य बनता है। वही सामान्य द्रव्यार्थिक नयका विषय है ] ( और भी दे. नय / IV/१/२)। । दे दर्शन / ४ / २-४ [ यह काला है या नीला इस प्रकार भेद किये बिना सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों का सामान्य रूपसे ग्रहण करनेके कारण आत्मा ही सामान्य है और मही दर्शनोपयोगका विषय है । ] ग्या./वि././१/१२९/४५० समानभावः सामान्यं समान अर्थात् एकता का भाव सामान्य है । न्या. वि./वृ./१/४/१२१/१० अनुवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात्सामान्यम् ।-अनुवृत्ति अर्थात् एकताकी बुद्धिका कारण होनेसे सामान्य है। (प.मु./२/२) न.च.वृ./६३ सामण्णसहावदो सव्वे । = सब द्रव्यों में होना सामान्यका स्वभाव है। सम./२/१०/१२ स्वभाव एवं ह्ययं सर्वभावानां यदनुवृत्ति...तथाहि । घट एव तावत् पृथुबनोद कारवान् प्रतीतिविषयीभवन् सन्नन्यानपि तदाकृतिभृतः पदार्था पटरूपतया घरे शब्दबाध्यताच प्रत्याय सामान्यास्य सभते स्वयं ही सर्व भावों को अनुवृतिरूपसे ज्ञान करानेवाला ऐसा रूम प्रव्योंका स्वभाव ही है। उदाहरणार्थमोटा गोल उदर आदि आकारवाला घड़ा स्वयं ही उसी आकृतिके अन्य पदार्थों को भी घटरूपसे और घटशब्दरूपसे जानता हुआ 'सामान्य' कहा जाता है । द्र.सं./टी./६/१८/२ सामान्यमिति कोऽर्थः संसारिजीवयुक्तजीव विवक्षा नास्ति अपना शुद्धाशुदर्शनमिक्षा नारित रादपि कथमिति विवक्षायाः अभावः सामान्यलक्षणमिति वचनाव | यहाँ 'सामान्य जीव' इस कथनका यह तात्पर्य है कि इस ( जीवके ) लक्षण में संसारी तथा मुक्त जीवकी विवक्षा नहीं है अथवा वृद्ध अशुद्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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