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________________ सामान्य । ज्ञान दर्शनको भी विवक्षा नहीं है सामान्यका लक्षण है' ऐसा कहा है न्या. दी./३/१०६/११०/२ तत्र सामान्यमनुवृत्तिस्वरूप पृथुलोदराकारः गोरममिति साम्रादिमत्यमेव गी' इस प्रकारके अनुगत व्यवहारके विषयधूरा सहया 'घटत्व' 'गोरख' आदि अनुगत स्वरूपको सामान्य कहते हैं। वह 'घटत्व' स्थूल कम्बुग्रीवादि स्वरूप तथा 'गोरख' साना आदि स्वरूप ही है । राद्धि पट घट घट' 'गी परिणामात्मक ४१२ कि 'विवझाका अभाव ही ( स.सा./ता.वृ./११०/२०४७) । י' पं. /उ./२ बहुव्यापकमेवे तत्सामान्यं सहइत्यतः २-सहता जो बहुत देशमें व्यापक रहता है उसीको सामान्य कहते हैं । Jain Education International ६. ६० / १-२ / ३,४ सामान्यं विशेष इति बुद्धयपेक्षम् ॥ ३॥ भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुरबाद सामान्यमेव ॥४। सामान्य और विशेष बुद्धिकी अपेक्षासे लिये जाते हैं | ३| जैसे अनुवृत्ति अर्थात् बार बार लौटकर प्रत्येक बस्तुके मिलने से यह विदित होता है कि भाव अर्थात सत्ता है। - २. सामान्यके भेद व उनके लक्षण . . /४/३५ सामान्यं द्वधा तिर्यगूर्ध्वताभेशय । सहप्राणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गौरववत |४| परापरव्यायिता - मृदिव स्थासादिषु || सामान्य दो प्रकारका है-एक तिर्यक् सामान्य, दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य |३| तहाँ सामान्य परिणामको तिर्यक सामान्य कहते हैं, जैसे गोरव सामान्य, क्योंकि खाण्डी मुण्डी आदि जीवोंनें गोरख सामान्यरूपये रहता है तथा पूर्वोत्तर पर्यायों में रहनेवाले द्रव्यको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे में मिट्टी क्योंकि, स्थास, कोश, कुशूल आदि जितनी भी एक घड़ेकी पूर्वोत्तर पर्यायें है उन सबमें मिट्टी अनुगत रूपसे रहती है 1 विशेष दे क्रम/६) स्पा // ६६ / ९४ तदनुप्रयहेतुः सामान्य तच्च द्विविधं परमपरं च तत्र पर सत्ता मानो महासामान्यमिति चोच्यते । उपवाद्यवान्तरसामान्यापेक्षया महाविषयत्वात् अपर सामान्य प द्रव्यत्वादि । एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते । अनुवृत्ति प्रत्ययका कारण सामान्य है । वह दो प्रकारका है— पर सामान्य और अपर सामान्य । पर सामान्यको सत्ता, भाव, और महासामान्य भी कहते हैं क्योंकि, यह द्रव्यत्व आदि अपर सामान्य की अपेक्षा महान् विषय वाला है । द्रव्यत्व केवल द्रव्यमें ही रहता है और परसामान्य द्रव्य गुण व कर्म तीनों में रहता है । द्रव्यत्वादि अपर सामान्य हैं। इसे सामान्य विशेष भी कहते हैं । ( और भी दे. 'अस्तिम' नम /11/४/२/१) ३. सर्वथा स्वतन्त्र सामान्य या विशेष कुछ नहीं सि. वि. / / २ / १२ / १४३ न पश्यामः क्वचित् किंचित् सामान्यं वा स्वलक्षणम् जायन्तरं तु पश्यामः ततो नेकान्स हेतयः । कोई किंचित भी विशेष मात्र या सामान्य मात्र देखने में नहीं आता । हाँ सामान्य विशेषात्मक एक जात्यन्तर भाव अवश्य देखा जाता है इसलिए 'सामान्य' अनेकान्त हेतुक है अर्थात् अनेकान्तके द्वारा ही सिद्ध हो सकता है। सि./वृ/१/०/१५९/७ पर उड़त ( प्रमाण बार्तिक / २ / १२६) एकत्र दृष्टभेदो हि क्वचिन्नान्यत्र दृश्यते । न तस्माद्भिन्नमस्त्यन्यत्सामान्यं बुद्धयभेदतः । - किसी एक स्थान पर देखा गया भेद किसी भी प्रकार अन्यत्र नहीं देखा जाता इस लिए बुद्धिके अभेदसे वह सामान्य कथं चित् भिन्न व अन्य नहीं है । आ.नं. निर्विशे हि सामान्यं भवेश्वर विषाणयत सामान्यह रविशेषस्तदेव हि विदोषोंसे रहित सामान्य और इसी प्रकार सामान्यसे रहित विशेष । कुछ गधेके सींग के समान असत होते हैं। सामान्य ४. वस्तु स्वयं सामान्य विशेषात्मक है श्लो. रखो २/४/२/१३/६०/२४३ / ९६ सर्वस्य वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकवाद-सर्व ही वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक है। दे प्रमाण / २ / ५. [सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाणका विशेष है।] क. पा/१/१-२०/१३२४/३५६/२ ततः स्वयमेवैकत्वापत्तिरिति स्थितम् । सामान्य विशेषोभयानुभयकान्यतिरित्या जात्यन्तरं वस्त्विति स्थितम् - इसका (दे. अगशीर्ष) यह अभिप्राय है कि वस्तु न सामान्य रूप है, न विशेषरूप है, न सर्वथा उभयरूप है और न अनुभयरूप है किन्तु जात्यन्तररूप ही वस्तु है, ऐसा सिद्ध होता ई (क. पा/१/१-२/३३३/४१/२) ७. सामान्य व विशेषकी स्वतन्त्र सत्ता न माननेमें हेतु क. पा /१/१-२०/१३२२ / ३५३/३ ण ताव सामण्णमत्थि; विसेसवदिरि ताणं सम्भावसारियल पर सामणाणम एव भादो समागच याणमुत्पत्ती अग्गहावयचीदो अस्थि सामग्यमिदि बो गुरु अगासमाणाविवेगसमागमेग जच्चतरी भूपचयाणं मुपन्ति सणादण सामगवदिरितो विसेस व अस्थि: सामागुविद्धमेव मिसेसस्वतं भादो श प एसो सामण्ण-विसेसाणं संजोगो..." क. पा /९/१-२०/१३२३/३५४/१ म सामण्ण-विसेसा संबंध वधु१- केवल सामान्य तो है नहीं, क्योंकि अपने विशेषको छोड़कर केवल तद्भाव सामान्य और सादृश्यलक्षण सामान्य नहीं पाये जाते हैं । २- यदि कहा जाय कि सामान्यके सर्वत्र समान प्रत्यय और एक प्रत्यय की उपपत्ति बन नहीं सकती है इसलिए सामान्य नामका स्वतन्त्र पदार्थ है, सो कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि अनेक का ग्रहण असमानानुविद्ध होता है और एक का ग्रहण समानानुविद्ध होता है । ३ - अतः सामान्य विशेषात्मक वस्तुको विषय करनेवाले जात्यन्तरभूत ज्ञानों की ही उत्पत्ति देखी जाती है। ४ तथा सामान्य से सर्वथा भिन्न विशेष नामका भी कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि सामान्यसे अनुविद्ध होकर ही विशेषकी उपलब्धि होती है । ५यदि कहा जाय कि स्वतन्त्र रहते हुए भी उनके संयोगका ही परिज्ञान एक ज्ञानके द्वारा होता है. सो भी कहना ठीक नहीं( विशेष दे. द्रव्य / ५ / ३ ) । ६ - सामान्य और विशेषके सम्बन्धको अर्थात् समवाय सम्बन्धको स्वतन्त्र वस्तु कहना भी ठीक नहीं(दे. समवाय ) । ६. सामान्य व विशेषमें कथंचिद् भेद ध. १३/५/५/३५ / २३४/६ विसेसा दो सामण्णस्स कथंचिद पृधभूदस्स भादो । तं जहा - सामण्णमेय संखं विसेसो अणेयसंखो । वदियो बिसेस अण्णयस्वर्ण सामणं, आहारो विसेस आहेयो सामण्णं णिचचं सामण्णं अणिच्चो विसेसो । तम्हा सामाण-विसे रथ यत्तमिदि । = विशेषसे सामान्य में कथंचित् भेद पाया जाता है । यथा - सामान्य एक संख्या वाला होता है और विशेष अनेक संख्या वाला होता है. विशेष व्यतिरेक लक्षण वाला होता है और सामान्य अन्वय लक्षणवाला होता है, विशेष आधार होता है और सामान्य आधेय होता है, सामान्य नित्य होता है और विशेष अनित्य होता है । इसलिए सामान्य और विशेष एक नहीं हो सकते । पं. ध.पू./२०५ सामान्यं विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च ।... २७५ | - विधिरूप वर्तना सामान्य काल कहलाता है और निषेध स्वरूप विशेष काल कहलाता है। (वे. सप्तभंगी/३/१-स. म. ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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