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________________ श्रुतज्ञान अन्तिम frerest अनन्त रूपोंसे गुणित करनेपर अक्षर- नामक होता है।इस अक्षर ज्ञान के ऊपर एक एक अक्षरकी वृद्धि होती है। अन्य वृद्विधयाँ नहीं होती हैं, इस प्रकार परम्परागत उपदेश पाया जाता है। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं। कि अक्षर ज्ञान भी छह प्रकारको वृद्धिसे भड़ता है। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि समस्त श्रुतज्ञान के संस्था भाग अक्षर-ज्ञानसे ऊपर छह प्रकारको वृद्धिधयोंका होना सम्भव नहीं है। घ. १३/५,५.४८/२६८/३ अक्खरणाणादो उवरि छविहरड्ढि परूविदवैयाक्खाणेण सह किण्ण विरोहो। ण, भिण्णाहिप्पायत्तादो। एयओसमा जेसिमाहरियाममहिपाएक एरिओसीएम अस्थि समस्या पनि एनलजेसिमाहरियाणमहिपारण सत णाणस्स संखेज्जदिभागो चैव तेसिमहिप्पाएणेदं वक्खाणं । तेण ण दोष्णं विरोहो । प्रश्न- अक्षर ज्ञान के ऊपर छह प्रकारकी वृद्धिका कथन करनेवाले वेदना अनुयोगद्वारके व्याख्यानके साथ इस व्याख्यानका विरोध क्यों नहीं होता । उत्तर-नहीं, क्योंकि उसका इससे भिन्न अभियान है। जिन आयायोंके अभिप्रायानुसार एक बरके आनेके क्षयोपन यह वृद्धियों द्वारा वृद्धि लिये हुए होते हैं उन आचार्योंके अभिप्रायको ध्यान में रखकर वेदना अनुयोगद्वार में यह व्याख्यान किया है। किन्तु जिन आचार्योंके अभिप्रायानुसार एक अक्षर श्रुतज्ञान समस्त श्रुतज्ञानके संख्यातवे भागप्रमाण ही होता है। उन आचार्यों के अभिप्रायानुसार यह व्याख्यान किया है, इसलिए इन दोनों व्याख्यानों में विरोध नहीं है। ६६ गोजी/३२२-३३२ अवरुवरिमितमयं संखं च मागवडीए संमतं गुणबड्ढी होंति हु कमेण १३२२ ॥ जीवाणं च य रासी लोग भागगुणम्हि को अदा होति छट्टाणा ॥ ३२३ ॥ उन्नकं चउर के पणछस्सत्तंक अट्ठअंकं च । छवकमोदिकरण (२२४ भागेगड्ढोगदे परवड्ढी । एकं वारं होदि हु पुणो पुणो चरिमउडती |३२| आदिमछट्ठाणमिह य पंच य बड्ढी हवंति सेसेसु । वीओ हाँति सरिसा सम्बन्ध पदसंखा | २२|चट्ठाषा आदि अकोर होदि जिहिं 1201 एव अकं कंडो रूपयिकंडरण य गुणिदकमा जावमुब्बकं । ३२८ ॥ सव्वसमासो णियमा रूवाहियकंडयस्स वग्गस्स । विंदस्स य संवग्गो होदिति फिट १३२१४ मेचित्येकदालछप्प | मतदसमं च भागं गंतॄण य लद्विअक्वरं दुगुणं । ३३०| एवं असंखजोगा अणववरप्पे हवंति छट्टाणा ते पज्जायसमासा अक्खरगं उवरि वोच्छामि ।१३१। चरिमुव्वंकेण बट्टिद अत्थ क्खरगुणिदचरिममुकं । अत्थवखरं तु णाणं होदित्ति जिणेहि णिहिट्ठ १३३२० सर्वजधन्य पर्याय ज्ञानके ऊपर क्रमसे अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्याभाग संख्यातगुण, असंख्यातगुणवृधि ग्रह बृद्धि होती हैं । ३२२ अनन्तभाग ये वृद्धि और अनन्तगुणवृधि इनका भागहार और गुणाकार समस्त जीवराशि प्रमाण अवस्थित है । असंख्यातभाग वृदिव और असंख्यात गुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार असंख्यात लोकमान स्थित है। संख्यात भागवृद्धि संधि इनका भागहार और गुणाकार उत्कृष्ट संख्यात अवस्थित है | ३२३| लघुरूप संदृष्टिके लिए क्रमसे छह वृधियोंकी ये छह संज्ञा हैं अनमा वृद्धिको एक असंख्यात भागवृद्धिको चतुर 1 Jain Education International 11 अलग तज्ञान विशेष निर्देश के , संख्यात भागवृद्विधको पञ्चाङ्क, संख्यात गुणवृघिकी षडङ्क, असंख्यात गुणवृद्वधकी सप्ताङ्क, अनन्तगुण वृद्धिधकी अष्टांक | ३२४१ गुरुके असंख्पाट भाग प्रमाण पूर्व वृद्वि होनेपर एक बार उत्तर वृदि होती है। यह नियम की वृद्धि पर्यन्त समझना चाहिए |१२| सोक प्रमाण षट्स्थानोंमें से प्रथम स्थानों में पाँच हो वृद्धि होती हैं, अक वृद्धि नहीं होती। शेष सम्पूर्ण षट् स्थानोंमें शंकसहित वह होती है। सू संस्पात भाग अवस्थित है इसलिए पदोंकी संख्या सब जगह दश ही समझनी चाहिए । ३२६ सम्पूर्ण पदस्थानों में आदिके स्थानको अष्टांक, और अन्तके स्थानको उर्वक कहते हैं, क्योंकि जघन्य पर्यय ज्ञान भी अगुरुलघु गुणके अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा अष्टक हो सकता है | ३२७| एक षट्स्थानमें एक ही अष्टांक होता है। और सप्तांक गुलके असंख्या में भागमात्र होते हैं। इसके नीचे पक, पंचक, चतुरक क एक एक अधिक मार असंख्यात भागसे ग्रथित कम है। ३२५ एक अधिक काण्डकके वर्ग और घनको परस्पर गुणा करनेसे जो प्रमाण लब्ध आवे उतना ही एक पदस्थान पट्टियोंके प्रमाणका जोड़ है|३२| एक अधिक काण्डकसे गुणित सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अनन्त भाग वृद्धिके स्थान और गुलके असंख्यात भाग प्रमाण असंख्यात भागवृधिके स्थान, इन दो वृद्धियोंको जघन्य ज्ञानके ऊपर हो जानेपर एक बार संख्यात भागवृद्विपका स्थान होता है. इसके आगे उक्त क्रमानुसार उत्कृष्ट संख्यात मात्र पूर्वोक्त 'संख्यातवृद्विध के हो जानेपर उसमें प्रक्षेपक वृद्धिधके होनेसे लब्ध्यक्षरका प्रमाण दूना हो जाता है | ३३० | इस प्रकारसे अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानके असंख्यात लोक्प्रमाण षट्स्थान होते हैं, ये सब ही पर्याय समास ज्ञानके भेद हैं। २१ और भी सज्ञान /11/१/३ अन्तकेार समूहमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसको अन्तके उर्वकसे गुणा करनेपर अर्थाक्षर ज्ञानका प्रमाण होता है | ३३२ | ( विशेष - दे. नीचे यंत्र) एक स्थानकी संदृष्टि तदनुसार है : ३४ | ३३४ | 334 | 53४ | 33४ | 33५ | 33४33४ | 33 ४ | ३४३3५ | 33४ | 33४ ३५ ३३४ ३४ 331 ३४ ३४ ३५ ३३४ ३३४ ३५ ३३४ ३३४ ३३७ 33४ | ३३४ ३५ ३३४ | ४ | ३३५ | ३३४ | ३३४ | 33 ३३४ | ३३४ | ३३५ | ३३४ ३३४ ३५ ३३४ ३३४ 33 33४ | ३३४ ३५ ३३४ | ३३४ / ३३५ | 33४ | 33४ | 339 33४ ३४ ३३५ ३३४ 33४ | ३३५ ३३४ | 33४ | 33 ३३४ ३३४ ३३५ ३३४ / ३३४ ३३५ | ३३४ | ३३४ 33 ३३४ | ३३४ ३३५ | ३३४ ३३४ ३३५ | 33४ | ३३४ | ३3८' (क. पा. २/४-१२/१५०९/१२४२) (गो.जी.भाषा/२/१४) । ); जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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