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________________ विशेष ३ २ m.cmxc द्विपृष्ठ झालाका निशान, शल्य २. मारायणादि परिचय ..शल्यके भेदोंके लक्षण भ. आ./वि./२/०८/२४ मिथ्यादर्शनमायानिदानशख्यानो कारणं कर्म नारायण प्रति नारायण | रुद्र द्रव्यशल्यं । - मिथ्यादर्शन, माया, 'निदान ऐसे तीन शक्योंकी १ति.प./४/१५६०-१९६१ ति.प./४/१५६२ जिनसे उत्पत्ति होती है ऐसे कारणभूत कर्मको द्रव्यशल्य कहते हैं। ३त्रि.सा/७g.00 | २ त्रि.सा./८८० ह. पु/६०/- इनके उदयसे जीवके माया, मिथ्या व निदान रूप परिणाम होते हैं ३१. पु./६०/५६६-५६७ ३१. पु./६०/-५७१-५७२ बे भावशल्य है। ४ म.पु७६/४७-४८८ ५६१-५७० भ. आ /वि./१३६/७५५/१३ दर्शनस्य शक्यं शङ्कादि। ज्ञानस्य शक्य अकाले पठनं अविनयादिकं च । चारित्रस्य शल्यं समिति-गुप्स्योरप्रमाण सामान्य नादरः। योगस्य.. असंयमपरिणमनं । तपसश्चारित्र अन्तर्भाव विवक्षया तिबिहमित्युक्तम् ।...सचित्त द्रव्यशक्य दासादि। अचित्त नन्दी श्रीकण्ठ प्रमद द्रव्यशम्यं सुवर्णादि ।...विमिश्र द्रव्यशक्यं ग्रामादि। -शंका कक्षा नन्दिमित्र हरिकण्ठ संमद आदि सम्यग्दर्शनके शल्य है । अकाल में पढ़ना और अविनयादिक नन्दिवेण नन्दिन नीलकण्ठ करना ज्ञानके शल्य है। समिति और गुप्तियों में अनादर रहना नन्दिभूति |३ नन्दि भूतिक अश्व कण्ठ प्रकाम चारित्रशल्य है। असंयममें प्रवृत्ति होना योगशल्य है । तपश्चरणका अचल सुकण्ठ कामद चारित्र में अन्तर्भाव होनेसे भावशाक्यके तीन भेद कहे है। दासादिक | महाबल शिरिखकण्ठ भव सचित्त द्रव्य शल्य है, सुवर्ण वगैरह पदार्थ अचित शल्य हैं और अतिबल अश्वग्रीव ग्रामादिक मिश्र शक्य है। त्रिपृष्ठ हयग्रीव मनोभव द्र. सं./टी./१२/१८३/१० बहिरङ्गमकवेषेण यक्लोकरञ्जन करोति मयूरग्रीव मार तन्मायाशल्यं भण्यते । निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैवोपोदेय इति काम रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षण मिध्याशल्यं भण्यते। ...दृष्टश्रुतानुभूतमोट-है. पु. में इसके क्रममें भागेषु यन्नियतम् निरन्तरम् चित्तम् ददाति तन्निदानशक्यमभि धीयते। यह जीव वाहरमें बगुले जैसे बेषको धारणकर, लोकको कुछ अन्तर है। प्रसन्न करता है, वह माया शल्य कहलाती है। अपना निरंजन दोष रहित परमात्मा ही उपादेय है' ऐसो रुचि रूप सम्यक्त्वसे विलक्षण मिध्याशक्य कहलाती है।...देखे, सुने और अनुभवमें आये हुए शलाका निष्ठापन-Log illing (ज.प्र./प्र.१०८)। भोगों में जो निरन्तर चित्तको देता है, वह निदान-शक्य है। और भो-दे० वह वह नाम । शल्य-१. शल्य सामान्यका लक्षण स. सि./७/१८/३५६।६ शृणाति हिनस्तीति शन्यम् । शरीरानुप्रवेशि ४. बाहुबलिजीको भी शल्य थी काण्डारि प्रहरणं शल्यमिव शल्यं यथा तत् प्राणिनो माधाकर तथा भा. पा./मू./४४ देहादिचत्त संगो माणकसाएण कलुसिओ धीर । अत्ताशारीरमानसनाधाहेतुरवात्कर्मोदय विकारः शल्यमित्युपचर्यते । वणेण जादो बाहूबली कित्तियं काल ४४॥ माहूबलीजोने देहादिक--'शृणाति हिनस्ति इति शन्यम्' यह शव्य शब्द की व्युत्पत्ति है। से समस्त परिग्रह छोड़ दिया और निर्ग्रन्थ पद धारण किया। तौ शक्यका अर्थ है पीड़ा देनेवाली वस्तु । जन शरीरमें काँटा आदि चुभ भी मान कषाय रूप परिणामके कारण कितने काल आतापन योगसे जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीड़ा रहनेपर भी सिद्धि नहीं पायी।४४। कर भात्र वह शल्य शन्दसे लिया गया है। जिस प्रकार काँटा आदि आ. अनु./२१७ चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहसंस्थं यत्प्रावजन्ननु तदैव शक्य प्राणियों को माधाकर होती है उसी प्रकार शरीर और मन स तेन मुञ्चेत् । क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय मानो.मनागपि सम्बन्धी बाधाका कारण होनेसे कर्मोदय जनित विकारमें भो। हति महतीं करोति ।२११ -अपनी दाहिनौ भुजापर स्थित चक्रको शक्यका उपचार कर लेते हैं। अर्थात उसे भी शल्य कहते है। छोड़कर जिस समय माहबलीने दीक्षा धारण की थी उस समय उन्हें (रा. वा/११८/१-२/५४५/२६) । तपके द्वारा मुक्त हो जाना चाहिए था। परन्तु वे चिरकाल उस क्लेशको प्राप्त हुए। सो ठीक है थोड़ा सा भी मान बड़ी भारी हानि करता है। २. शल्य के भेद म. पू./१६/६ सुनन्दायां महाबाहुः अहमिन्द्रो दिवोऽग्रतः। च्युत्वा भ,आ 14./५३८-५३६/७५४-७५५ मिच्यादसणसम्लं मायासक्लं णिदाण- बाहुबली त्यासीव कुमारोऽमरसंनिभः ।६। सरलं च । अहना सल्लं दुनिह दव्वे भावे य बोधव ५३तिविहं म. पु/६/श्लोक - श्रुतज्ञानेन विश्वासपूर्वयित्त्वादिविस्तरः ।१४६। तु भावसग्लं सणणाणे चरित्तजोगे य । सच्चित्ते य मिस्सगे वा वि परमाय धिमुल्लधचस सर्वावधिमासदह । मनःपर्ययोधे च संप्रापद् दम्मम्मि ५६६। -१. मिथ्यादर्शनशक्य, मायाशस्य और निदान- विपुला मतिम् ।१४७. संक्लिष्टोभरताधीशः सोऽस्मत इति यत्किल । शम्य ऐसे शब्यके तीन दोष है। (भ. आ./म./१२१४/१२१३); (स. हृद्यस्य हार्द तेनासीत तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् १८६। -आनन्द पुरीसि./७/१०/३५६/८); (रा. वा./७/१०/३/१४५/३३); (भ. आ./वि /- हितका जीव जो पहले महाबाहु या सर्वार्थ सिद्धिसे च्युत होकर २१/०८/२४); (द्र. सं/टी./४२/१३/१०)। २. अथवा द्रव्य शल्य और सुनन्दाके वाहुबली हुआ 1६। (अतः नियमसे सम्यग्दृष्टि थे) बाहुबलीभावशक्य ऐसे शब्दके दो भेद जानने चाहिए ।५३८। (भ. आ./वि./ की दीक्षाके पश्चात् श्रुतज्ञान बढ़नेसे समस्त अंगों तथा पूौको २५/०८/२४)। ३. भाव शल्यके तीन भेद है-दर्शन, ज्ञान, चारित्र जाननेकी शक्ति बढ़ गयी थी।१४६। वे अवधिज्ञानमें परमावधिको और योग । द्रव्य शल्यके तीन भेद है-सचित्तशल्य अचितशल्य उल्लंघन कर सविधिको प्राप्त हुए थे तथा मनःप य ज्ञानमें विपुलऔर मिश्रशल्य ५३६ मति मन पर्यय ज्ञानको प्राप्त हुए थे।१४७४ (अत: सम्यग्दर्शनमे कभी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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