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________________ श्रुत ज्ञानावरण ७१ पंचमियोंके ५ उपवास ५ पारणा अवधिज्ञानके ६ षष्ठियोंके - ६ उपवास ६ पारणा; मनःपर्यय ज्ञानके २ चौथोंके २ उपवास २ पारणा, केवलज्ञानके १ दशमीका १ उपवास १ परिणा । इस प्रकार कुल १५८ उपवास करे । तथा 'ओं ह्रीं श्रुतज्ञानाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे विधान सं./१३२) (हि तरंगिनी)। श्रुत ज्ञानावरण - दे. ज्ञानावरण श्रुत ज्ञानी दे. श्रुतकेवली । | | श्रुत तीर्थं - दे. इतिहास ४ । श्रुत पंचमी व्रत - पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला ५ को "तारके उपलक्षमें उपवास करे जो हो द्वादशानाय नम:' इस मन्त्रकी त्रिकाल जाप करे। (व्रत विधान सं./ पृ. १०) । श्रत भावना दे. भावना / १ । अंत मूढ मूढ । = श्रुतवाद. १३/२-२२०/२००/१२ पु द्विविधं प्रविष्टम बाह्यमिति । तदुच्यते कथ्यते अनेन वचनकलापेनेति श्रुतवादी द्रव्यश्रुतम् । सुदवादोति गदं । श्रुत दो प्रकारका है-अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य । इसका कथन जिस वचन कलापके द्वारा किया जाता है वह द्रव्यश्रुतश्रुतवाद कहलाता है। इस प्रकार श्रुतवाद का कथन किया। " श्रुतसागर नन्दिसंघ बलात्कार गण की सूरत शाखा में । ( दे. इतिहास) आप विद्यानन्द सं. २ के शिष्य तथा श्रीचन्द्रके गुरु थे । कृति - यशस्तिलक चम्पूकी टीका यशस्तिलकचन्द्रिका, स्वावृत्ति (सागरी) तत्त्वत्रय प्रकाशिका (ज्ञानायके गद्य भागकी टीका) प्राकृत व्याकरण, जिनसह नाम टीका, विक्रमप्रवन्धकी टीका, औदार्यचिन्तामणि तीर्थदीपक, श्रीपाल चरित, यशोधर चरित महाभिषेक टीका (पं. आशाधर के नित्यमहोद्योतकी टोका); तस्कन्ध पूजा, सिद्धचकाटपूजा, सिद्धभक्ति, बृहद कथाकोष, षट् प्राभृतकी टीका । व्रत कथाकोष । समय-महाभिषेक टीका वि. १५८२ में लिखी गयी है। तदनुसार इनका समय वि. १५४४ - १५६० (ई. १४८७-१५३३ ); ( सभाप्य तत्त्वार्थाधिगम/प्र./२ टिप्पण प्रेमजी); (पं.वि.प्र. ३५ / A N. Up ); ( प.पु.प्र./६३ A.N, Up): (ती./१/१११) (/२/३७६) (दे. इतिहास /७/४) । 1 1 श्रुतस्कंध पूजा - दे. पूजापाठ । श्रुतस्कंध व्रत- इस व्रतकी विधि उत्तम, मध्यम व जधन्यके भेद से तीन प्रकारकी है- उत्तम विधि - भाद्रपद कृ. १ से आश्विन कृ. २ तक ३२ दिनमें एक उपवास एक पारणा क्रमसे. १६ उपवास करे। मध्यमविधि - भाद्रपद कृ. ६ से शुक्ला १५ तक २० दिनमें उपरोक्त ही प्रकार १० उपवास करे। लघुविधि-भाद्रपद शुक्ला १ से आश्विन कृ. १ तक १६ दिनों में उपरोक्त ही प्रकार में उपवास करे। तीनों ही विधियों में 'ओ ह्रीं श्रीजिनमुखोइ भूतस्याद्वादनयगभिद्वादशांग श्रुतज्ञानाय नमः इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। ( व्रत विधान सं./७०); ( किशनसिंह कृत क्रिया कोष ) | श्रुतावतार - १. भगवान् महावीरके पश्चात केवली व श्रुतकेवतियोंकी मूल परम्पराको ही सुतावतार नामसे कहा गया है। दे. इतिहास / ४ / १ । २. आ, इन्द्रनन्दि ( ई. श. १०-११) द्वारा रचित प्राकृत गाथाम भगवात् महावीरके निर्माणसे १८३ वर्ष पर्यन्तकी मूलसंघकी पट्टावली । ३. आ. श्रीधर ( ई. श. १४) द्वारा रचित प्राकृत छन्दबद्ध ग्रन्थ । बुतिगम्य - रा. बा.४/४५२/१२/२६०/२० अनपेक्षितवृत्तिनिमित्तः Jain Education International श्रेणी श्रुति मात्र प्रापितः श्रुतिगम्यः । अनपेक्षित रूपसे प्रवृत्ति में कारण मितभूतिगम्य है। श्रुतिकल्याण व्रत . श्रेदि - Arithmetical and Geometrical progression, श्रेणिक-म. पु. / ७४ / श्लोक सं. पूर्व भव सं २ में खदीरसार नामक भी था | ३६ | पूर्वं भवमें सौधर्म स्वर्ग में देव था (४०६) वर्तमान भव में राजा कुणिकका पुत्र था ( ४१४) मगधदेशका राजा था। उज्जै भी राजधानी थी। पहले बौद्ध था. पीछे अपनी रानी चेतनाके उपदेशसे जैन हो गया था । और भगवान् महावीरका प्रथम भक्त बन गया था | जिनधर्मपर अपनी दृढ़ आस्थाके कारण इसे तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध हो गया था। इसके जीवनका अन्तिम भाग बहुत दुखद बीता है, इसके पुत्र ने इसे बन्दी बनाकर जेलमें डाल दिया था और उसके भय से ही इसने आत्महत्या कर ली थी, जिसके कारण कि यह प्रथम नरकको प्राप्त हुआ। और वहाँ आकर अगले युग में प्रथम तीर्थंकर होगा। भगवान् वीरके अनुसार इसका समय बी. नि. २० वर्ष से १० वर्ष पश्चात तक माना जा सकता है। ई. पू. ५४६ - ५१६ श्रेणी - Series (ज. प. प्र.१०८ ) । श्रेणी श्रेणी नाम का है। इस शब्दका प्रयोग अनेक प्रकरणों आता है। जैसे आकाश प्रदेशोंकी श्रेणी, राजसेनाकी १६ श्रेणियाँ, स्वर्ग व नरकके श्रेणीबद्ध विमान मिल शुक्लध्यान गत साधुकी उपशम व क्षपक श्रेणी, अनन्तरोपनिधा व परम्परोपनिधा श्रेणी प्ररूपण आदि । उपशम श्रेणी से साधु नीचे गिर जाता है, पर क्षपक श्रेणी से नहीं यहाँ उसे नियमसे मुक्ति होती है। १ १ २ ३ ४ ५ ६ * १ २ ३ श्रेणी सामान्य निर्देश अणी प्ररूपणाके भेद व मेदक लक्षण । राजसेनाकी १६ श्रणियोंका निर्देश। आकाश प्रदेशोंकी अणी निर्देश । अभिवद्ध विमान दिल उपशम व क्षपक श्रेणीका लक्षण । उपशम व क्षपक श्र ेणीमें गुणस्थान निर्देश | अपूर्व करण आदि गुणस्थान - दे. वह वह नाम । सभी गुणस्थानोंमें आपके अनुसार ही व्यय होनेका नियम । - दे. मार्गणा । श्री आरोहण के समय आचार्यादि पद छूट जाते है । - दे. सा श्र ेणी मांडनेमें संहनन सम्बन्धी । - दे. संहनन । उपशम व क्षपक अभी स्वामित्व सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ । - दे. वह वह नाम । क्षपक श्रेणी निर्देश चारित्रमोहका क्षपण विधान अद्धायुष्क को ही क्षपक श्र ेणीकी सम्भावना | क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही गांढ सकता है। क्षपकों की संख्या उपशमकोंसे दुगुनी है। क्षपक श्र ेणीमें मरण सम्भव नहीं । दे, मरण / ३ ॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - दे. क्षय । www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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