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स्थावर
स्थिति
दे, काय/२/५ बादर, अर. तेज व बनस्पति कायिक जीव अधोलोककी
आठों पृथिवियों व भवनवासियों के विमानों में भी पाये जाते हैं। स्थित द्रव्य निक्षेप-दे, निक्षेप १८। स्थिात-अवस्थान काल का नाम स्थिति है। बन्ध कालसे लेकर
प्रतिसमय एक एक करके कर्म उदयमें आ आकर खिरते रहते हैं। इस प्रकार जब तक उस समयमें बन्धा सर्व द्रव्य समाप्त हो, उतना उतना काल उस कर्म की स्थिति है। और प्रतिसमय वह खिरनेबाला द्रव्य निषेक कहलाता है। सम्पूर्ण स्थितिमें एक एकके पीछे एक स्थित रहता है। सबसे पहिले निषेकमें सबसे अधिक द्रव्य हैं, पीछे क्रम पूर्वक घटते घटते अन्तिम निषेकमें सर्वत्र स्तोक द्रव्य होता है। इसलिए स्थिति प्रकरणमें कर्म निषेकों का यह त्रिकोण यन्त्र बन जाता है। कवाय आदिको तीव्रताके कारण संक्लेश परिणामोंसे अधिक और विशुद्ध परिणामोंसे हीन स्थिति बन्धती है।
उत्तर--यह तो रूढि विशेषके बलसे क्वचित् देखने में आता है। प्रश्न-वायु आदिक अस्थावर होते हैं तो हो जाओ, क्योंकि यह तो हमें इष्ट है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि आगम के साथ विरोध आता है। षटू खण्डागम सत्प्ररूपणाके कायानुबादमें ऐसा वचन अवस्थित है कि 'दोन्द्रियसे लेकर अयोग केवलि तक जीवों को त्रस कहते हैं।" अतः वायु आदिकों को स्थावरकी कोटिसे निकालकर प्रस कोटिमें लाना उचित नहीं है। इसलिए वचन और चलनकी अपेक्षा त्रस और स्थावर नहीं किया जा सकता। (स. सि./२/१२/१७२/४) (ध.१११,१,३६/२६५/६ ) ध, १/१,१.१४/२७६/१ स्थावरकर्मणः किं कार्यमिति चेदेकस्थानावस्थापकत्वम्। तेजोवारबकाया चलनात्मकानां तथा सत्यस्थावरत्वं स्थादिति चेन्न. स्थास्नूनां प्रयोगतश्चजच्छिन्नपानामिव गतिपर्यायपरिणतसमीरणाव्यतिरिक्त शरीरत्वतस्तेषां गमनाविरोधात् । --प्रश्न-स्थावर कर्म का क्या कार्य है। उत्तर-एक स्थानपर अब स्थित रखना स्थाबर कर्म का कार्य है । प्रश्न-ऐसा मानने पर, गमन स्वभाववाले अग्निकायिक वायुकायिक और जलकायिक जीवोंको अस्थावरपना प्राप्त हो जायगा ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार वृक्षमें लगे हुए पत्ते वायुसे हिला करते हैं और टूटनेपर इधरउधर उड़ जाते हैं. उसी प्रकार अग्नि कायिक और जलकायिकके प्रयोगसे गमन मानने में कोई विरोध नहीं आता है। तथा वायुके गति पर्यायसे परिणत शरीरको छोड़कर कोई दूसरा शरीर नहीं पाया जाता है इसलिए उसके गमन करन में भी कोई विरोध नहीं आता है। ८. त्रसव स्थावरमें भेद बतानेका प्रयोजन द्र. सं./टी./११/२६/६ अयमत्रार्थ:-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपर. मात्मस्वरूपभावनोत्पन्न पारमार्थिकसुरखमलभमाना इन्द्रियसुखासक्ता एकेन्द्रियादिजीवानां बधं कृत्वा त्रसस्थावरा भवन्तीत्युक्तं पूर्व तस्मात्त्रसस्थावरोत्पत्तिविनाशाथ तत्रैव परमात्मनि भावना कर्तव्येति । सारांश यह है कि निर्मल, ज्ञान, दर्शन स्वभाव निज परमात्म स्वरूपकी भावनासे उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख है उसकों न पाकर जीव इन्द्रियों के सुखमें आसक्त होकर जो एकेन्द्रियादि जीवोंकी हिंसा करते हैं उससे त्रस तथा स्थावर होते हैं, ऐसा पहले कह चुके हैं. इस कारण उस स्थावरोंमें उत्पत्ति होती है, सबकी मिटाने के लिए उसी पूर्वोक्त प्रकारसे परमात्माकी भावना करनी चाहिए। * स्थावरोको सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाए-दे. बह वह नाम । * स्थावरोंमें गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थानोंके स्वामित्व विषयक २० प्ररूपणाएँ--दे. सत् । * मार्गणा प्रकरणमें भाव मार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ आय व व्ययका संतुलन--दे, मार्गणा। *स्थावर जीवों में प्राणोंका स्वामित्व--दे, प्राण १।
९. स्थावर लोक निर्देश ति. प./५/५ जा जीवपोग्गलाणं धम्माधम्मप्पबद्ध आयासे । होति हु
गदागदाणि ताब ह थावरा लोओ। धर्म व अधर्म द्रव्यसे सम्बन्धित जितने आकाशमें जीव और पुद्गलौका जाना आना रहता है उतना स्थावर लोक है ।। का, अ./मू./१२२ एइं दिएहि भरिदो पंच-पयारेहिं सव्वदो लोओ।...। १२२। - यह लोक पाँच प्रकारके एकेन्द्रियों से सर्वत्र भरा हुआ है।
भेद व लक्षण स्थिति सामान्यका लक्षण ! स्थिति बन्धका लक्षण। स्थिति बन्ध अध्यवसाय स्थान । -दे, अध्यवसाय ।
उत्कृष्ट व सर्व स्थितिके लक्षण। | उत्कृष्ट व सर्व स्थिति आदिमें अन्तर।
-- दे. अनुयोग/३/२॥ अग्र व उपरितन स्थितिके लक्षण । सान्तर व निरन्तर स्थिति के लक्षण । प्रथम व द्वितीय स्थितिके लक्षण । | सादि अनादि स्थितिके लक्षण । ८ । विचार स्थानका लक्षण जीवोंकी स्थिति।
-दे आयु। स्थितिबन्ध निर्देश १ स्थितिबन्धमें चार अनुयोग द्वार। २ | भवस्थिति व कास्थितिमें अन्तर ।
एकसमयिक बन्धको बन्ध नहीं कहते।
स्थिति व अनुभाग वन्धकी प्रधानता। * | स्थितिबन्धका कारण कषाय है। -दे. बन्ध५/१। * | स्थिति (काल) की ओघ आदेश प्ररूपणा।
-दे. काल/५,६ । निषेक रचना निषेक रचना ही कर्मोकी स्थिति है। स्थितिबन्धमें निषेकोंकी त्रिकोण रचना सम्बन्धी।
निषेकोंकी त्रिकोण रचनाका आकार ।-दे, उदय/३ । ३ | कर्म व नोकर्मकी निषेक रचना सम्बन्धी विशेष सूची।
उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धी नियम * जधन्य स्थितिमें निषेक प्रधान हैं और उत्कृष्ट स्थितिमें काल।
-दे. सत्त्व/२/५।। मरण समय उत्कृष्ट बन्ध सम्भव नहीं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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