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________________ संस्थान १५४ संस्थान ३. संस्थानके भेदोंके लक्षण है, वह स्वाति संस्थान है। अर्थात् यह शरीर नाभिसे नीचे विशाल और ऊपर सूक्ष्म या हीन होता है । १. समचतुरस्त्र ४. कुब्ज रा. वा./८/११/८/१७६/३२ तत्रोधिोमध्येषु समप्रविभागेन शरीरावयवस निवेशव्यवस्थापनं कुशल शिल्पिनिर्व तितसमस्थितिचक्रवत अव रा. वा./८/११/८/५७७/२ पृष्ठप्रदेशभाविबहुपुद्गलप्रचयविशेषलक्षणस्य स्थानकर समचतुरस्त्र संस्थाननाम । = ऊपर नीचे मध्यमें कुशल निर्वतकं कुब्जसंस्थाननाम । =पीठपर बहुत पुद्गलोंका पिण्ड हो शिल्पीके द्वारा बनाये गये समचक्रको तरह समान रूपसे शरोरके जाना अर्थात कुबड़ापन कुब्जक संस्थान है। अवयवों की रचना होना समचतुरस्त्र संस्थान है। ध.६/१,६-१,३४/७१/६ कुब्जस्य शरीरं कुब्जशरीरम् । तस्य कुब्जध, ६/१,६-१.३४/७१/१ सम चतुरस्र समचतुरस्र समविभक्तमित्यर्थः । शरीरस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य तत्कुब्जशरीरसंस्थानम् । 'जस्स जस्स कम्मस्स उदएण जोवाण समचउरस्ससंठाणं होदि तस्स कम्मस्स कम्मस्स उदएण साहाणं दीहत्तं मज्झस्स रहस्सत्तं च होदि तस्स समचउरससठाणमिदि सण्णा । समान चतुरस्र अर्थात समविभक्तको खुज्जशरीरसंठाणमिदि सण्णा ।- कुबड़े शरीरको कुन्ज शरीर कहते समचतुरस्र कहते हैं। जिस कर्म के उदयसे जोवोंके समचतुरस्रसंस्थान है। उस कुब्ज शरीरके संस्थानके समान संस्थान जिस शरीरका होता है उस कर्मकी समचतुरस्र संज्ञा है। होता है, वह कुब्ज शरीर संस्थान है। जिस कर्मके उदयसे शाखा ओंकी दीर्घता और मध्य भागके ह्रस्वता होती है, उसकी 'कुब्ज ध. १३/५.५,१०७/३६५५ चतुरं शोभनम्, समन्ताच्चतुरं समचतुरम, समानमानोन्मानमित्यर्थः। समचतुरं च तत् शरीरसंस्थानं च सम शरीर संस्थान' यह संज्ञा है । (ध. १३/५,५,१०७/३६८/१२)। चतुरशरीरसंस्थानम् । तस्य संस्थानस्य निवर्तकं यत् कर्म तस्याप्ये ५. वामन व संज्ञा, कारणे कार्योपचारात्। = चतुरका अर्थ शोभन है, सब ओरसे चतुर समचतुर कहलाता है। समान मान और उन्मानवाला, रा. वा./२/११/८/५७७/३ सर्वाङ्गोपाङ्गह्रस्वव्यवस्थाविशेषकारणं वामनयह उक्त कथनका तात्पर्य है। समचतुर ऐसा जो शरीरसंस्थान वह संस्थाननाम । =सभी अंग उपांगोंको छोटा बनाने में कारण वामन समचतुरस्र शरीरसंस्थान है। उस सस्थानके निवर्तक कर्मकी भी संस्थान है। कारणमें कार्य के उपचारसे यही संज्ञा है। ध. ६/१,६-१, ३४/७१/८ वामनस्य शरीरं वामनशरीरम् । वामन शरीरस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य तद्वामनशरीरसंस्थामम् । जस्स २. न्यग्रोध परिमण्डल कम्मस्स उदएण साहाणं जं रहस्सत्तं कायस्स दीहत्तं च होदि तं रा. रा./८/११/८/५७६/३३ नाभेरुपरिष्टाद् भूयसो देहसंनिवेशव्याधस्ता- वामणसरीरसंठाणं होदि। =बौनेके शरीरको वामन शरीर कहते चाल्पोयसो जनकं न्यग्राधपरिमण्डल संस्थानम् । =बड़के पेड़की तरह हैं। वामन शरीरके संस्थानके समान सस्थान जिससे होता है, वह नाभिके ऊपर भारी और नोचे लघुप्रदेशोंकी रचना न्यग्रोधपरिमण्डल वामन शरीर संस्थान है। जिस कर्मके उदयसे शाखाओंके ह्रस्वता संस्थान है। और शरीरके दीर्घता होती है, वह वामनशरीर संस्थान नामकर्म ध. ६/१,६-१,३४/७१/२ णग्गोहो वडरुवखो, तस्स परिम डलं व परिमडलं है। (ध. १३/५,५,१०७/३६८/९३)। जस्स सरीरस्स तण्णगोहपरिमंडलं । णग्गोहपरिमंडलमेव सरीर ६. हुडक संठाणं णग्मोहपरिमंडलसरीरसं ठाणं आयतवृत्तमित्यर्थः। -न्यग्रोध वट वृक्षको कहते हैं, उसके परिमण्डलके समान परिमण्डल जिस रा.वा./८/११/८/५७७/४ सर्वाङ्गोपाङ्गानां हुण्डसंस्थितत्वात् हुण्डसंस्थाशरीरका होता है उसे न्यग्रोध परिमण्डल कहते हैं। न्यग्रोध परि ननाम | सभी अंग और उपांगोंका बेतरतीब हु'डकी तरह रचना मण्डलरूप ही जो शरीर संस्थान है, वह न्यग्रोध परिमण्डल अर्थात हुंडक संस्थान है। आयतवृत्त शरीरनामकर्म है। ध. ६/१,६,१,३४/७२/२ विसमपासाणभरियदइयो ठव विस्सदो विसम ध. १३/५,५,१०७/३६८/७ न्यग्रोधो वटवृक्षः समन्तानमण्डलं परिमण्डलम्, हुंडं । हुडस्स शरीर हुंडशरीरं, तस्स सठाणमिव सं ठाणं जस्स तं न्यग्रोधस्य परिमण्डल मिव परिमण्डलं यस्य शरीरसंस्थानस्य तन्न्य हेडसरीरसंठाणणाम । जस्स कम्मस्स उदएण पुन्बुत्तपंचसं ठाणेहितो ग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थान नाम । अधस्तात श्लक्ष्णं उपरि विशालं बदिरित्तमण्णसंठाणमुप्पज्जइ एक्कत्तीसभेदभिण्णं तं हुंडसंठाणयच्छरोरं तन्न्यग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थानं नाम । एतस्य यत् सण्णिदं होदि त्ति णादव्यं ।-विषम अर्थात समानता रहित अनेक कारणं कर्म तस्याप्येषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचाराद-न्यग्रोधका आकारवाले पाषाणोंसे भरी हुई मशकके समान सर्व ओरसे विषम अर्थ वटका वृक्ष है, और परिमण्डल का अर्थ सब ओरका मण्डल । आकारको हुंड कहते हैं । हुंडके शरीरको हुंड शरीर कहते हैं। उसके न्यग्रोधके परिमण्डल के समान जिस शरीर संस्थानका परिमण्डल संस्थानके समान संस्थान जिसके होता है उसका नाम हुंड शरीर संस्थान है। जिस कर्म के उदयसे पूर्वोक्त पाँच संस्थानोंसे व्यतिरिक्त, होता है वह न्यग्रोध परिमण्डल शरीर संस्थान है। जो शरीर नीचे इकतीस भेद भिन्न अन्य संस्थान उत्पन्न होता है, वह शरीर हुंडसूक्ष्म और ऊपर विशाल होता है वह न्यग्रोध परिमण्डल शरीर संस्थान संज्ञा वाला है, ऐसा जानना चाहिए। (ध. १३/५,५,१०६/ संस्थान है। कारणमें कार्यके उपचार इसके कारण कर्म की यहो संज्ञा है। ३६६/१)। ३. स्वाति ४. इत्थं अनित्थं संस्थानके लक्षण रा. वा./८/११/८/५७७/२ तद्विपरीतसंनिवेशकरं स्वातिसंस्थाननाम स. सि./२/२४/२६६/१ वृत्तव्यसचतुरस्रायतपरिमण्डलादोनामित्थलक्षवामीकतुल्याकारम् । -न्यग्रोधसे उलटा ऊपर लघु और नीचे भारो, णम् । अतोऽन्यन्मेषादोन संस्थानमनेकविधमित्थमिदमिति निरूप बाम्बीकी रचना स्वाति संस्थान है । (ध. १३/०५.१०७/१६८/१०)। णाभावादनित्थं लक्षणम् ।-जिसके विषयमें 'यह संस्थान इस प्रकारध. ६/१.६-१,३४/७१/४ स्वातिर्वल्मीक: शाल्मलिर्वा, तस्य संस्थानमिव का है' यह निर्देश किया जा सके वह इत्थं लक्षण संस्थान है। वृत्त, सस्थानं यस्य शरीरस्य तत्स्वातिशरीरसंस्थानम् । अहो विसालं त्रिकोण, चतुष्कोण, आयत और परिमण्डल, आदि ये सब इत्थंनक्षण उबरि सण मिदि जं उत्तं होदि 1-स्वाति नाम बन्मीक या संस्थान हैं। तथा इसके अतिरिक्त मेघ आदिके आकार जो कि अनेक शाल्मली वृक्षका है । उसके आकारके समान आकार जिस शरीरका प्रकारके हैं और जिनके विषय में 'यह इस प्रकारका है। यह नहीं कहा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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