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संस्तनक
करनेवाला समझा जाता है ।८१-६६ २. सद्गृहित्व क्रिया-गृहस्थ योग्य मिसि आदि षट्कर्मोका पालन करता हुआ, पृथिवीतलपर ब्रह्मतेजके वेद या शास्त्रज्ञानको स्वयं पढ़ता हुआ और दूसरोंको पढ़ाता हुआ वह प्रहसनीय देव-ब्राह्मणको प्राप्त होता है । अर्हन्त उसके पिता हैं, रत्नत्रय रूप संस्कार उनकी उत्पत्तिकी अगर्भज योनि है । जिनेन्द्र देवरूप ब्रह्माकी सन्तान है, इसलिए वह देव ब्राह्मण है । उत्तम चारित्रको धारण करनेके कारण वर्णोत्तम है। ऐसा सच्चा जैन श्रावक ही सच्चा द्विज व ब्राह्मणोत्तम है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य व माध्यस्थ्यादि पक्ष तथा चर्या व प्रायश्चित्तादि साधनके कारण उनसे उद्योग सम्बन्धी हिंसाका भी स्पर्श नहीं होता। इस प्रकार गुणोंके द्वारा अपने आत्माकी वृद्धि करना सद्गृहित्व क्रिया है । - १५४ ३ पारिव्राज्य क्रिया - गृहस्थ धर्मका पालन कर घर के निवासमे विरक्त होते हुए पुरुषका जो दीक्षा ग्रहण करना है उसे परिवज्या कहते हैं। ममत्व भावको छोड़कर दिगम्बररूप धारण करना यह पारिव्राज्य क्रिया है ।१५५-२००१ ४, सुरेन्द्रता क्रियापरिव्रज्याके फलस्वरूप सुरेन्द्र पदकी प्राप्ति । २०१५- साम्राज्य क्रिया चक्रवर्तीका वैभव व राज्य प्राप्ति । २०२ | ६. आर्हन्त्य कियार्हन्त परमेष्ठीको जो पंचकल्याणक रूप सम्पदाओं की प्राप्ति होती है, उसे आईन्ध्य क्रिया जानना चाहिए । २०३ २०४ ७. परिनिर्वृति क्रिया- अन्तमें सर्वकर्म विमुक्त सिद्ध पी २००६
★ इन सब क्रियाओंके लिए मन्त्र विधान - मंत्र/१/७ ५. गृहस्थको वे क्रियाएँ अवश्य करनी चाहिए
म. / २८/४६५० देषां जातिसंस्कारं ददयन्निति सोऽधिराट् । स प्रोवाच द्विजन्मेभ्यः क्रियाभेदानशेषतः |४६ । ताश्च क्रियास्त्रिधा - स्नाताः पावकापासंग्रहे सहदृष्टिभिरनुष्ठेया महोदकाः शुभा वहाः १५०० • इसके लिए इन द्विजों ( उत्तम कुलीनों ) की जातिके संस्कारको दृढ करते हुए सम्राट् भरतेश्वरने द्विजोंके लिए नीचे लिखे अनुसार क्रियाओंके समस्त भेद कहे |४६ | उन्होंने कहा कि श्रावकाध्ययन संग्रहमें क्रियाएँ तीन प्रकारकी कही हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको उन क्रियाओंका पालन अवश्य करना चाहिए। क्योंकि वे सभी उत्तम फल देनेवाली और शुभ करनेवाली हैं । ५०|
★ यज्ञोपवीत संस्कार विशेष
दे
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★ संस्कार द्वारा अर्जनको जैन बनाया जा सकता है - दे, यज्ञोपवीत / २ । संस्तनक-दूसरे नरकका दूसरा पटल - दे. नरक / ५ /११ संस्तर - भ.आ./मू./६४० - ६४५/८४०-८४५ पुढविसिलामओ वा फलनओ तणमओ में संचारो होदि समाधिनिमित्तं उत्तर सिर अहव सिरो ६४०। अपसे समे अमुसरे अहियअविलेय अप्पपाने य सिपि गजमा ६४ विद्वत्यो य अडिदो णिक्कंपो सव्वदो असंसत्तो । समपट्टो उज्जोवे सिलामओ होदि संथारो | ६४२ | भूमि समरु दलओ अकुडिल एगंग अप्पमाणो य । अच्छिदो य अफुडिदो त०हो वि य फलय संथारो | ६४३ | निस्संधी य अपोलो मिहदो समधि नास्सवितु पडितेो मणसंधारो हवे परिमो ४४ जुतो पमाणरयो पहिणा
विधिविदो संधारी बारोहयो तिगुते ॥ ६४५॥ पृथिवी शिलामय, फलकमय, और तृणमय ऐसे चार प्रकारके संस्तर हैं । समाधिके निमित्त इनकी आवश्यकता पड़ती है। इन संस्तरोंके मस्तकका भाग पूर्व व उत्तर दिशाकी तरफ होना चाहिए । ६४०] भूमिसंस्तर - जो जमीन मृदु नहीं है, जो छिद्र रहित, राम, सूखी, प्राणि
भा० ४-२०
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संस्थान
रहित, प्रकाशयुक्त, क्षपकके देहप्रमाणके अनुसार और गुप्त, और सुरक्षित है ऐसी जमीन संस्तररूप होगी अन्यथा नहीं । ६४१ शिलामय संस्तर - शिलामय संस्तर अग्निज्वालसे दग्ध, टाँकीके द्वारा उके गया, वा घिसा हुआ होना चाहिए। यह संस्तर टूटा-फूटा न हो निश्चल हो, सर्वतः जीवोंसे रहित हो, खटमल आदि दोषोंसे रहित, समतल और प्रकाशयुक्त होना चाहिए | ६४२ | फलकमय संस्तरचारों तरफसे जो भूमिसे संलग्न है, रुन्द और हलका, उठाने रखने में अनायास कारक, सरल, अखण्ड, स्निग्ध, मृदु, अफूट ऐसा फलक संस्तर के लिए योग्य है । ६४३ | तृणसंस्तर- तृणसंस्तर गाँठ रहित तृणसे बना हुआ, छिद्र रहित, न टूटे हुए तृणसे बना हुआ, जिसपर सोने में बैठने खुजली न होगी ऐसे से बना हुआ स्पर्शाला, जन्तुरहित, जो सुख सोधा जाता है. ऐसा होना चाहिए । ६४४ संस्तरके सामान्य लक्षण चारों प्रकारके संस्तरोंमें ये गुण होने चाहिए योग्य प्रमाणयुक्त हो तथा सूर्योदय व सूर्यास्तकालमें शोधन करनेसे शुद्ध होता है। शास्त्रोत विधिसे जिसकी रचना हुई है. ऐसे संस्तरपर मन वचन कायको शुद्ध कर आरोहण करना चाहिए
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संस्तव - दे. भक्ति / ३.
संस्थान - १. संस्थान सामान्य व संस्थान नामकर्मका लक्षण
स.सि./३/२४ / २०६९ संस्थानमाकृतिः ।
स.सि./ ८ / १२ / ३६० / ३ यदुदयादौदारिकादिशरीराकृतिनिवृत्तिर्भवति तत्संस्थाननामा - १. संस्थानका अर्थ आकृति है । (रा. वा./३/८/३/१००/१४२, जिसके उदयसे औदारिकादि शरीरोंकी आकृति बनती है वह संस्थाननामकर्म है (रा. ना./८/१९/८/४०८/२६ (ध. ६/१.२-१.२८/२३/4 ) ( ११/५.२१०१ / २६४ / ३) (गो. क./जी. प्र. / ३३ / २६ / ३ ) *रा. वा./५/२४/१/४८५ / १३ संतिष्ठते, संस्थीयतेऽनेनेति संस्थितिर्वा संस्थानम् । - जो संस्थित होता है या जिसके द्वारा संस्थित होता है या स्थितिको संस्थान कहते हैं।
क. पा. २ / २-२२/१५/६/२ तंस-उस-बादी जि
संठाणाणि । - त्रिकोण, चतुष्कोण, और गोस आदि (आकार) को संस्थान कहते हैं ।
२. संस्थानके भेद
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घ. खं. ६ / १,६-१ / सू. ३४/७० जं तं सरीरसंठाणणामकम्मं तं छविह समच उरससरी रामनाम गोहपरिमंडल सरीरसं ठाणणामं सादियसरीरसंठाणणामं खुज्जसरीरसंठाणणामं वामणसरीरसंठाणणामं डसरीर ठाणणामं चेदि जो शरीर संस्थान नामकर्म है वह छह प्रकारका है समचतुरल शरीरस्थाननामर्क्स, शोधपरिमण्डल शरीर संस्थाननामकर्म, स्वातिशरीरसं स्थाननामकर्म, कुब्जशरीरसंस्थान नामकर्म, वामनशरीर संस्थाननामकर्म, और हुडकशरीरसंस्थाननामकर्म ( . १२/१२/ १०० / ३६०) (स. सि. /८/११/२६० / ३) (पं.सं./प्रा./१/४ की टीका ): (प्र.सं./१८/०१/६) ( पा./टी./६४/२-१/१३) स.सि./५/२४/२६६/१ तह (संस्थानं) द्विविधमित्य सक्षम निरयं लक्षण येति । - इस संस्थान) के दो भेद हैं- लक्षण और अनित्यंलक्षण ।
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द्र. सं./टी./१६/५३/८ वृत्तत्रिकोणचतुष्कोणादिव्यक्ताव्यक्तरूपं बहुधा संस्थान गोल त्रिकोण, चतुष्कोण आदि अनेक प्रकारके संस्थान हैं
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