SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्त्व २७६. २. सत्त्व प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम होनेपर इस गुणस्थानमें तीर्थकर सहित सत्त्व स्थान है, परन्तु आहारक सहित सत्त्व स्थान नहीं है, क्योंकि इन कर्मोकी सत्ता होनेपर यह गुणस्थान जीवोंके नहीं होता। [ यह दूसरी दृष्टि है ] ५. जघन्य स्थिति सत्त्व निषेक प्रधान है और उत्कृष्ट काल प्रधान २. अनन्तानुबन्धीके सत्व असत्त्व सम्बन्धी क. पा. २/२-२२/६ सं./पृ. सं./पं. अविहत्ती कस्स । अण्ण-सम्मादिहिस्स विसंजोयिद-अणताणुबंधिचउक्कस्स (६११०/६४/७) णिरयगदीए णेरइसु......अणंताणुबंधिचउक्काणं ओघभंगो ।......एवं पदमाए पुढवीए...त्ति वत्तव्वं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एव चेव णवरि मिच्छत्त-अबिहत्ती पत्थि (६१११/१२/३-७) वेदगसम्मादि हिसुअविहत्ति कस्स। अण्णविसंजोइद-अणताणु० चउक्कस्स । ...उवसमसम्मादिट्ठीसु...विसंयोजियद अणं ताणुबंधि च उवकस्स - सासणसम्मादिट्ठीसु सवपयडीणं विहत्ती कस्स। अएण। सम्मामि० अमंताणु० चउक्क० विहत्ती अविहत्ति च कस्स। अण्ण० (६११७/ ६८/१-८) मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तअणं ताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तियो, सिया अविहत्तिओ (६१४२/१३०/५) णेरड्यो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी च सामिओ होदि त्ति। (६२४६/२१९/८) = जिस अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है, ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्क अविभक्ति है। (१११०/११/७) नरकगतिमें...अनन्तानुबन्धि चतुष्कका कथन ओघके समान है।...इस प्रकार पहली पृथिवीके नारकियोंके जानना चाहिए।...दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवौं पृथिवी तकके नारकियों के इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्व अविभक्ति नहीं हैं। (१९११/१२/३-७) वेदक सम्यग्दृष्टि जीवके... जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी बिसंयोजना की है उसकी अविभक्ति है।...जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उस उपशम. सम्यग्दृष्टिके अविभक्ति है।...सासादन सम्यरदृष्टि जीवके सभी प्रकृतियोंकी विभक्ति है। सम्यामिथ्यादृष्टियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कको विभक्ति और अविभक्ति . किसी भी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके है ( ६११७/१८/१.८) जो जीव मिथ्यात्वकी विभक्ति वाला है वह सम्यक् प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित नहीं है । ( १९४२/१३०/५) नारको, तिर्यच, मनुष्य या देव इनमें से किसी भी गतिका सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है । ( ६२४६/२१६/८ ) क. पा. ३/३, २२/६ ४७६/२६७/१० जहण्ण दिदि अद्धाछेदो णिसेगपहाणो ।...उक्कस्सद्विदी पुण कालपहाणो तेण णिसेगेण विणा एगसमए गलिदे वि उक्कस्सत्तं फिट्टदि। -जघन्य स्थिति अद्धाच्छेद निषेक प्रधान है ।...किन्तु उत्कृष्ट स्थिति काल प्रधान है, इसलिए निषेकके बिना एक समयके गल जानेएर भी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्टत्व नाश हो जाता है। क. पा. ३/३,२२/६५१३/२६१/८ जहण्णहिदि-जहण्णादि अद्धच्छेदाण जइवसाच्चारणाइरिएहि णिसेगपहाणाणं गहणादो। उक्कस्सद्विदी उक्कस्सैट्ठिदि अदाछेदो च उक्कस्सट्ठिदिसमयपबद्धणिसेगे मोत्तण णाणासमयपबद्धणिसेगपहाणा [...पुयिल्लवक्रवाणमेदेण सुत्तेण सहकिण्ण विरुज्झदे ।...विरुझदे चेव, किंतु उक्कस्सद्विदि उक्क० हिदि अद्भाछेद जहण्णछिदि-जछिदिअद्धाछेदाणं भेदपरूवणहूँ तं वक्रवाणं कयं वक्रवाणाइरिएहि। चुण्णिसुत्तुच्चारणाइरियाणं पुण एसो णाहिप्पाओ;। -जघन्य स्थिति और जघन्य स्थिति अद्वाच्छेदको यतिवृषभ आचार्य और उच्चारणाचार्य ने निषेक प्रधान स्वीकार किया है। तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्टस्थिति अद्धाच्छेद उत्कृष्ट स्थितिवाले समय प्रबद्धके निषेकोंकी अपेक्षा न होकर नाना समय प्रबद्धोंके निषेकोंकी प्रधानतासे होता है। प्रश्नपूर्वोक्त व्याख्यान इस सूत्रके साथ विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता ! उत्तर-विरोधको प्राप्त होता ही है किन्तु उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति अद्धाच्छेद में तथा जघन्य स्थिति और जघन्य अद्धाच्छेदमें भेदके कथन करने के लिए व्याख्यानाचार्यने यह व्यारण्यान किया है। चूर्ण सूत्रकार और उच्चारणाचार्यका यह अभिप्राय नहीं है। ६. जघन्य स्थिति सत्त्वका स्वामी कौन क. पा. ३/३,२२/१३५/२२/३ जो एइंदिओ हतसमुपत्तियं काऊण जाव सक्का ताव संतकम्मस्स हेठा बंधिय सेकाले समर्मादि मोलेहदि त्ति तस्स जहण्णय ठिदिसंतकम्मं ।...मिच्छादि...त्ति ।-जो कोई एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पतिकको करके जबतक शक्य हो तबतक सत्तामें स्थित मोहनीयकी स्थितिसे कम स्थितिवाले कर्मका बन्ध करके तदनन्तर काल में सत्तामें स्थित मोहनीयको स्थितिके समान स्थितिवाले कर्मका बन्ध करेगा उसके मोहनीयका जघन्य स्थिति सत्त्व होता है । इसी प्रकार...मिथ्यादृष्टि जीवोंके...जानना चाहिए। ३. छब्बीस प्रकृति सत्त्वका स्वामी मिथ्यादृष्टि ही होता .पा. २/२-२२/ चूर्ण सूत्र/ २४७/२२१ छम्चीसाए विहत्तिओ को होदि । मिच्छाइट्ठी णियमा। - नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव छब्बीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है। ७. प्रदेशोंका सत्त्व सर्वदा १३ गुणहानि प्रमाण होता है गो, क./मू./५/५ गुणहाणीणदिवड्ढे समयपबद्ध हवे सत्तं ॥५॥ गो. क./मू./१४३ सत्तं समयपबद्ध दिवड्दगुणहाणि ताडियं अणं । तियकोणसरूवविददब्वे मिलिदे हवे णियमा १४३ - कुछ कम डेढ़ गुणहानि आयामसे गुणित समय प्रमाण समय प्रबद्ध सत्ता (वर्तमान) अवस्थामें रहा करते है ।। सत्त्व द्रव्य कुछ कम डेढ गुणहानिकर गुणा हुआ समय प्रबद्ध प्रमाण है। वह त्रिकोण रचनाके सब द्रव्यका जोड़ देनेसे नियमसे इतना ही होता है। ४. २८ प्रकृतिका सत्त्व प्रथमोपशमके प्रथम समयमें होता है ८. सत्त्वके साथ बन्धका सामानाधिकरण नहीं है दे० उपशमा२/२ प्रथमोपशम सम्यक्त्वसे पूर्व अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समयमें अनादि मिथ्या ष्टि जीव जब मिथ्यात्वके तीन खण्ड करता है तब उसके मोहकी २६ प्रकृत्तियों की बजाय २८ प्रकृतियों का सत्त्व स्थान हो जाता है। ध.६/१६.२,६९/१०३/२ ण च संतम्मि विरोहाभाव दळूण बंधम्हि वि तदभावो बोतुं स किज्जइ, बंध-संताणमेयत्ताभावा। -सत्त्वमें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy