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________________ सल्लेखना | मरणमिति । भज्ये सेव्यते इति भक्तं, तस्थ पइण्णा त्यागो भत्तपण्णा । इतरयोरपि भक्तप्रत्याख्यान संभवेऽपि रूढिवशान्मरणविशेषे दो रंगिनीदेन गितमात्मनो भण्यते स्वामि प्राधानुसारेण स्थित्वा वर्तमानं मरणं इंगिनी मरण - पादोपगमन इसका शब्दार्थ, 'अपने पाँव के द्वारा संघसे निकलकर और योग्य प्रदेशमें जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन मरण है । इतर मरणों में भी यद्यपि अपने पाँव से चलकर मरण करना समान है, परन्तु यहाँ रूढिका आश्रय लेकर मरण विशेष में ही यह लक्षण पटित किया है, इसलिये मरणके तीन मेदॉकी अनुपपत्ति नहीं बनती है । अथवा गाथा में 'पाओग्गगमणमरणं' ऐसा भी पाठ है। उसका ऐसा अभिप्राय है कि भरका अन्त करने योग्य ऐसे संस्थान और संहननको प्रायोग्य कहते हैं। इनकी प्राप्ति होना प्रायोग्यगमन है। अर्थात् विशिष्ट संस्थान व विशिष्ट संहनन वाले ही प्रायोग्य अंगीकार करते हैं। भक्त शब्दका अर्थ आहार है और प्रतिज्ञा शब्दका अर्थ त्याग होता है । अर्थात् आहारका त्याग करके मरण करना वह भक्तप्रत्याख्यान है । यद्यपि आहारका त्याग इतर दोनों मरणों में भी होता है, तो भी इस लक्षणका प्रयोग रूढ़िवश मरण विशेष में ही कहा गया है । स्व अभिप्रायको इंगित कहते हैं। अपने अभिप्रायके अनुमार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुए जो मरण होता है उसी कोई गिनोमरण कहते हैं। ३. तीनोंके योग्य संहनन काल व क्षेत्र भ.आ./वि./६४ / ११०/- मरणं सा चेन भक्तप्रत्याख्यानमृतिरेव एवं हि काले... संहननविशेषसमानतरणयं संहननविशेषाः ऋषभनाराचादयः अद्यत्वेऽमुष्मिक्षेत्रे सन्ति गणानां ॥... यदि ते वर्तयितुं इदानीतनानामसामर्थ्यं किं तदुपदेशेनेति चेत् स्वरूपपरिज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं । 1 . Jain Education International ३८७ भ, आ. मि. / २०४९/१००६/१० बायेषु त्रिषु संहननेषु अन्यतमः शुभ स्थानोऽभेद्यकवच जिसकरण जिनि मिस ग्र - १. भक्तप्रत्याख्यान मरण ही इस कालमें उपयुक्त है । इतर दो अर्थात् इंगिनी व प्रायोपगमनमरण संहनन विशेष वालोंके ही होते हैं । वज्रऋषभ आदि वे संहनन विशेष इस पंचमकाल में इस भरत क्षेत्र में मनुष्योंमें होते नहीं हैं। यद्यपि गिनी प्रायोपगमनकी सामर्थ्य इस काल में नहीं है, फिर भी उनके स्वरूपका परिज्ञान करानेके लिए उनका उपदेश दिया गया है । २. इंगिनीमरणके धारक मुनि पहिले तीन (अर्थात् वज्रऋषभ नाराच, वज्रनाराच और नाराच) सहननोमेंसे कोई एक संहननके धारक रहते हैं। उनका शुभ संस्थान रहता है। वे निद्राको जीतते हैं। महाबल व शूर रहते हैं । ४. तीनों के फल 1 भ.आ./मू./गा. यरिसमाराधनमपाले केवली भरिया लोगन सिहरवासी हवं ति सिद्धा कलेसा | ११६२६ मा राधणमणुपालित्ता सरीरयं हिच्चा हुति अणुत्तरवासी देवा सुविसुलेस्सा य १६३३ | दंसणणाणचरिते उक्किट्ठा उत्तमोपधाणा य । हरियावह पविणा हवंति लवसत्तमा देवा । १६३४ । जे विहु उलेसमाराहणं मंति से सिहति देवा ण हेठिल्ला | १६४०) एवमधक्वादविधि साधित्ता इंगिण पुए किलेसा। सिर्फ ईहत देवामा २०६१। = इस प्रकार भक्तप्रत्याख्यानकी उत्कृष्ट आराधनाका पालन कर ज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं। सम्पूर्ण कर्मले मुक्त होकर लोका शिखरवासी सिद्ध परमेष्ठी होते हैं । १६२६| उसी भक्तप्रत्याख्यानकी मध्यम आराधनाका पालन कर शरीरका त्याग करनेवाले मुनिराज विशुद्ध लेश्याको धारण कर अर्थात् उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या के स्वामी बनकर अनुत्तरवासी देवों होते हैं । ९६३३] सम्यग्दर्शन-ज्ञान ३. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश चारित्र पालने में पूर्ण दक्ष, उत्कृष्ट तप ध्यान वग़ैरह नियमों के धारक, पथको जिन्होंने प्राप्त किया है अर्थात् कल्पवासी देवत्वकी प्राप्ति योग्य शुभावको जो प्राप्त हो गये हैं ऐसे मुनिराज लवसत्तम देव होते हैं अर्थात् मरकर नवबेक अनुदिश विमानमें रहनेवाले देव हो जाते हैं | १६३४) तेजोलेश्याके धारक ऐसे क्षपककी भक्तप्रत्याख्यान आराधनाको जघन्य आराधना कहते हैं । इस आराधनाके आराधक क्षपक सौधर्मादिक स्वर्गीमें देव होते हैं । इन देवोंसे हीन देवों में इनका जन्म नहीं होता ।१६४०। यहाँ तक जो इंगिनी मरकी विधि कही है, उसको सिद्ध करके कोई मुनि सम्पूर्ण कर्मवशको दूर करके मुक्त होते हैं और कोई वैमानिक होते हैं । २०६१ ५. भक्त प्रत्याख्यानकी जघन्य व उत्कृष्ट कालावधि भ.आ./मू. २५२/४७४ उक्कस्सेण भत्तपइण्णाकालो जिणेहिं णिद्दिट्ठो । कासम्म संप भारसमरियाणि पुष्णानि । २५२२ - आयुष्काल अधिक होने पर अर्थात भक्त प्रतिज्ञाका उत्कृष्ट कालप्रमाण जिनेन्द्र भगवान् ने बारह वर्ष प्रमाण कहा है | २५२ | घ. १/१.१.२/२४ / ९ वत्र भावानं प्रिविधं जयग्योत्कृष्टमध्यमभेदात् । जघन्यमन्तर्मुहूर्त प्रमाणम् । उत्कृष्टभक्तप्रत्याख्यानं द्वादशवर्षप्रणाम् । मध्यमेतयोरन्तरालमिति । - भक्तप्रत्याख्यान विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारकी है। जघन्यका प्रमाण अन्तर्मुहूर्तमात्र है। उत्कृष्टका बारह वर्ष है। इन दोनोंके अन्तरालवर्ती सर्व कालप्रमाण मध्यम भक्तप्रत्याख्यानका है । (गो. क./मू./५६-६०/५०); (चा.सा./१२४/४); (अन, भ./०/१०९/०२६ ) - ६. साधुओंके लिए भक्त प्रत्याख्यानकी सामान्य विधि मू. आ./ १०६ - १११ सव्वं पाणारं भं पञ्चवक्खामि अलीयवयणं च । सव्वमदत्तादाण मेण परिचैव ॥ १०६ सम्म मे सम्मभूम ण ण वि । आसाए बोसरित्ताणं समाधि पडिवज्जइ । ११० । सव्यं आहार विहिं सण्णाओ आसाए कसाए य । सब्वं चेय ममत्ति जहामि सव्वं खमावेमि । १११ | संक्षेपसे प्रत्याख्यान करनेवाला ऐसी प्रतिज्ञा करता है, कि मैं सर्व प्रथम हिंसादि पांचों पापोंका त्याग करता हूँ । १०६ । मेरे सब जीवों में समता भाव है, किसीके साथ भी मेरा देर नहीं है इसलिए में सर्व आकांक्षाओंको छोड़कर समाधि (शुद्ध) परिणामको प्राप्त होता हूँ । ११०। मैं सब अन्नपान आदि आहारकी अवधिको आहार संज्ञाको सम्पूर्ण आशाओंका कषायों का और सर्व पदार्थों में ममत्व भावका त्याग करता हूँ । १११ । ( दे. संस्कार / २ में ३१वीं क्रिया ) " दे. सल्लेखना / ३ / ६ [ जीवितका सन्देह होने पर तो 'उपसर्ग टलने पर पारणा कर लूँगा ऐसा आहारत्याग करता है, और मरण निश्चित होने पर सर्वथा आहारका त्याग करता है । ] ७. समर्थ श्रावकों के लिए भक्त प्रत्याख्यानकी सामान्य विधि र. क. श्रा./१२४-१२८ स्नेहं वैरं संगं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियवचनैः | १२४ | आलोच्य सर्वनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजं । आरोपयेन्महावत मामरणस्थानिशेष १९२३ शोभाले कालुष्यमरतिमपि हिरवी च मनः प्रसाथ ते १२० आहार परिहास्य कमशः स्निग्धं विवर्द्धमेत्सनं स्निग्ध हाला खरपानं पूरयेत्क्रमशः | १२७) खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पञ्च नमस्कार मनास्तनुं त्यजेत्सर्वं यत्नेन । १२८ | = [सल्लेखना धारण करनेवाला शीत उष्ण में हर्ष विषाद न करे - ( चा. सा. )] स्नेह र परिछोड़कर शुद्ध होता हुआ कि वचनों से अपने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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