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________________ सुख क्योंकि, वह कर्मके क्षयसे उत्पन्न होता है। तथा वह जीवका स्वभाव है, अतः उसे कर्म जनित मानने में विरोध आता है। स्या, म./८/८६/न चायं सुखशब्दो दुःखाभावमात्रे वर्तते। मुख्यसुखवाच्यतायां बाधकाभावाद। अयं रोगाद विप्रमुक्तः सुरखी जात इत्यादिवाक्येषु च सुखीति प्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसङ्गाच्च । दुःखाभावमात्रस्य रोगाद विप्रमुक्त इतीयतैव गतत्वात् । न च भवदुदीरितो मोक्षः पुंसामुपादेयतया संमतः । को हि नाम शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुं यतेत । दुःखसंवेदनरूपत्वादस्य सुखदुःखयोरेकस्याभावेऽपरस्यावश्यभावात् । अत एव त्वदुपहासः श्रूयतेवरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्ट्टत्वमभिवाडिछतम् । न तु वैशेषिकी मुक्ति गौतमो गन्तुमिच्छति। यहाँ पर (मोक्षमें ) मुखका अर्थ केवल दुःखका अभाव ही नहीं है। यदि सुखका अर्थ केवल दुःखका अभाव ही किया जाये, तो 'यह रोगी रोग रहित होकर सुखी हुआ है' आदि वाक्योंमें पुनरुक्ति दोष आना चाहिए। क्योंकि उक्त सम्पूर्ण वाक्य न कहकर 'यह रोगी रोग रहित हुआ है. इतना कहनेसे ही काम चल जाता है। तथा शिलाके समान सम्पूर्ण सुखोंके संवेदनसे रहित वैशेषिकोंकी मुक्तिको प्राप्त करनेका कौन प्रयत्न करेगा। क्योंकि वैशेषिकों के अनुसार पाषाणकी तरह मुक्त जीव भी मुखके अनुभवसे रहित होते हैं । अतएष सुखका इच्छुक कोई भी प्राणी वैशेषिकोंकी मुक्तिकी इच्छा न करेगा। तथा यदि मोक्षमें मुखका अभाव हो, तो मोक्ष दुःख रूप होना चाहिए। क्योंकि सुख और दुःख में एकका अभाव होने पर दूसरेका सद्भाव अवश्य रहता है। कुछ लोगोंने वैशेषिकोंकी मुक्तिका उपहास करते हुए कहा है, "गौतम ऋषि वैशेषिकों की मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा वृन्दावनमें शृगाल होकर रहना अच्छा समझते हैं।" रा.वा./१०/६/१४/उद्धत श्लो० २४-२६/६१० "स्यादेतदशरीरस्य जन्तोर्नष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्यत्र मे शृणु ।२४।। लोके चतुविहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते। विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च १२५॥ सुखो वह्निः सुखो वायुविषयेष्विह कथ्यते । दुखाभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ।२६। पुण्यकर्म विपाकाच्च सुख मिष्टेन्द्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षाच्च मोक्षे सुखमनुत्तमम् ॥२७॥ सुषुप्तावस्थया तुल्या केचिदिच्छन्ति निर्वृतिम् । तदयुक्त क्रियावत्त्वात सुखानुशयतस्तथा ।२८श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात । महोत्पत्तिविपाकाच्च दर्शनध्नस्य कर्मणः। -प्रश्न-अशरीरी नष्ट अष्टकर्मा मुक्त जीवके कैसे क्या सुख होता होगा ! उत्तर-लोकमें सुख शब्दका प्रयोग विषय वेदना का अभाव, विपाक, कर्मफल और मोक्ष इन चार अर्थों में देखा जाता है । 'अग्नि मुखकर है, वायु सुखकारी है।' इत्यादिमें सुख शब्द विषयार्थक है। रोग आदि दुःखोंके अभावमें भी पुरुष 'मैं सुखी हूँ' यह समझता है। पुण्य कर्मके विपाकमे इष्ट इन्द्रिय विषयोंसे मुखानुभूति होती है और क्लेश के विमोक्षसे मोक्ष का अनुपम सुख प्राप्त होता है ।२३-२७। कोई इस मुखको सुषुप्त अवस्थाके समान मानते हैं, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें सुखानुभव रूप क्रिया होती है और सुषुप्त अवस्था तो दर्शनावरणी कर्मके उदयसे श्रम, क्लम, मद, व्याधि, काम आदि निमित्तोंसे उत्पन्न होती है और मोह विकार रूप है ।२८-२६ । १०. सिद्धोंमें सुखके अस्तित्व की सिद्धि आ, अनु./२६७ स्वाधीन्याददुःखमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम् । स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धाः सुखिनः कथम् - तपस्वी जो स्वाधीनता पूर्वक कायक्लेश आदिके कष्टको सहते हैं वह भी जब उनको सुखकर प्रतीत होता है, तब फिर जो सिद्ध स्वाधीन सुखसे सम्पन्न हैं वे सुखी कैसे न होंगे अर्थात अवश्य होंगे। दे. सुख/२/३ इन्द्रिय व्यापारसे रहित समाधिमें स्थित योगियों को २. अलौकिक सुख निर्देश वर्तमानमें सुख अनुभव होता है और सिद्धोंको सुख अनुमान और आगमसे जाना जाता है। पं. ध/३०/३४८ अस्ति शुद्ध सुखं ज्ञानं सर्वतः कस्यचिद्यथा। देशतोऽप्यस्मदादीनां स्वादुमात्र बत द्वयोः ।३४८/mजैसे किसी जीवके सर्वथा सुरव और ज्ञान होने चाहिए क्योंकि खेद है कि हम लोगोंके भी उन शुद्ध सुख तथा ज्ञानका एकदेश रूपसे अनुभव मात्र पाया जाता है। (अर्थात जब हम लोगोंमें शुद्ध सुख का स्वादमात्र पाया जाता है तो अनुमान है किसीमें इनकी पूर्णता अवश्य होनी चाहिए ) ३४८ ११. कोंके अभावमें सुख भी नष्ट क्यों नहीं होता ध.६/३५-३६/४ सुह दुक्खाई कम्मे हितो होति, तो कम्मेसु विणठेसु सुह-दुवरखवज्जएण जीवेण होदव्वं ।...जं किं पि दुवं णाम तं असादावेदणीयादो होदि, तस्स जीवसरूवत्ताभावा ।...मुहं पुण ण कम्मादो उप्पज्ज दि,...ण सादावेदणीयाभावो वि, दुक्खुवसमहेउसुदव्वसंपादणे तस्स बाबारादो। -प्रश्न-यदि सुख और दुःख कर्मोसे होते हैं तो कर्मोके विनष्ट हो जाने पर जीवको मुख और दुःखसे रहित हो जाना चाहिए ! उत्तर-दुःख नामकी जो कोई भी वस्तु है वह असाता वेदनीय कर्मके उदयसे होती है, क्योंकि वह जीवका स्वरूप नहीं है।...किन्तु सुख कर्म से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि वह जीवका स्वभाव है ।...सुखको जीवका स्वभाव मानने पर साता वेदनीय कर्म का अभाव भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, दुःख उपशमन के कारणभूत सुद्रव्योंके सम्पादनमें साता वेदनीय कर्म का व्यापार होता है । १२. इन्द्रियोंके बिना सुख कैसे सम्भव है द्र. सं./टी./३७/१५५/४ इन्द्रियसुखमेव सुख, मुक्तात्मनामिन्द्रियशरीराभावे पूर्वोक्तमतीन्द्रियसुखं कथं घटत इति। सांसारिक सुख तावत खीसेवनादि पञ्चेन्द्रियविषयप्रभवमेव, यत्पुनः पञ्चेन्द्रियविषयव्यापाररहिताना निर्व्याकुलचित्तानो पुरुषाणां मुखं तदतीन्द्रियसुखमत्रैव दृश्यते ।...निर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिना रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्वशेषेणातीन्द्रियम् । -प्रश्न-जो इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है वही सुख है, सिद्ध जीवोंके इन्द्रियों तथा शरीरका अभाव है, इस लिए पूर्वोक्त अतीन्द्रिय सुख सिद्धोंके कैसे हो सकता है। उत्तर-संसारी सुख तो स्त्रीसेवनादि पाँचों इन्द्रियोंसे ही उत्पन्न होता है, किन्तु पाँचौ इन्द्रियों के व्यापारसे रहित तथा निर्व्याकुल चित्त बाले पुरुषों को जो उत्तम सुख है वह अतीन्द्रिय है। वह इस लोकमें भी देखा जाता है ।...निर्विकल्प ध्यानमें स्थित परम योगियों के रागादिके अभावसे जो स्वसंवेद्य आत्मिक सुख है, वह विशेष रूपसे अतीन्द्रिय है। प्र. सा./मू./६५ पप्पा इठे विसये फासेहि समस्सिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहोश-स्पर्शादिक इन्द्रियाँ जिसका आश्रय लेती हैं, ऐसे इष्ट विषयोंको पाकर ( अपने अशुद्ध) स्वभावसे परिणमन करता हुआ आत्मा स्वयं ही सुख रूप होता है। देह सुख रूप नहीं होती। (त. सा./८/४२-४५) दे. प्रत्यक्ष/२/४ में.प्र. सा. यह आरमा स्वयमेव अनाकुलता लक्षण मुख होकर परिणमित होता है। यह आस्माका स्वभाव ही है। त, अनु०/२४१-२४६ ननु चाास्तदर्थानामनु भोक्तुः सुखं भवेत् । अतीन्द्रियेषु मुक्तेषु मोक्षे तरकीदृशं सुखम् ।२४०। इति चेन्मन्यसे मोहात्तन्न श्रेयो मतं यतः। नाद्यापि वत्स ! त्वं वेरिस स्वरूप सुखदुःखयोः ।२४१॥ आरमायत्तं निराबाधमतीन्द्रियमनश्वरम् । घातिकर्मक्षयोदभूतं यत्तन्मोक्षसुखं विदुः ।२४२॥ तन्मोहस्यैव माहात्म्य विषयेभ्योऽपि यत्सुखम् । यत्पटोलमपि स्वादु श्लेष्मणस्तद्विज म्भितम् ।२७। यदत्र चक्रिणा सौख्यं यच्च स्वर्गे दिवौकसाम् । कलयापि न तत्तुल्य भा०४-५५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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