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________________ सप्तभंगी ४. अस्ति नास्ति भंग निर्देश व्यवहारोच्छेदः स्यात् (३३/२६) यदीतरात्मकः स्यातः एक घटमात्रप्रसङ्गः (३३/३०) यदि हि कुशलान्तकपालाद्यात्मनि घटः स्यात् घटावस्थायामपि तदुपलब्धिभंवेव (३४/१)। यदि हि पृथुबुध्नाद्यात्मनामपि घटो न स्यात् स एव न स्यात् । ३४/११) । यदि बा रसादिवद्रपमपि घट इति न गृह्यतः चक्षुर्विषयतास्य न स्यात (१४/१६)। यदि वा इतरव्यपेक्षयापि घटः स्यात्. पटादिष्वपि तरिक्रयाविरहितेषु तच्छन्दवृत्तिः स्यात (३४।२१) । इतरोऽसं निहितोऽपि यदि घटः स्याव; पटादीनामपि स्याद घटत्वप्रसङ्गः (३४/२७)। यदि ज्ञेयाकारेणाप्यघटः स्यातः तदाश्रयेतिकर्तव्यतानिरास: स्यात् । अथ हि ज्ञानाकारेणापि घटः स्यात; (३४/३४) उक्तैः प्रकाररर्पितं घटत्वमघटत्वं च परस्परतो न भिन्नम् । यदि भिद्यत; सामानाधिकरण्येन तद्ब्रुद्ध्य भिधानवृत्तिर्न स्यात् घटपटवत (३३/१) । १. स्वरूप ग्रहण और पररूप त्यागके द्वारा हो वस्तुकी वस्तुता स्थिर की जाती है। यदि पररूपकी व्यावृत्ति न हो तो सभी रूपोंसे घट व्यवहार होना चाहिए। और यदि स्वरूप ग्रहण न हो तो निःस्वरूपत्वका प्रसंग होनेसे यह खरविषाणकी तरह असत हो जायेगा। २. यदि अन्य रूपसे नष्ट हो जाये तो प्रतिनियत नामादि व्यवहारका उच्छेद हो जायेगा (३३/२६) ३. यदि इतर घटके आकारसे भी वह घट 'घट' रूप हो जाये तो सभी घड़े एक रूप हो जायेंगे ( ३३/३०) ४. यदि स्थास, कोस, कुशूल और कपाल आदि अवस्थाओं में घट है तो घट अवस्थामें भी उनकी उपलब्धि होवे। (३४/१) ५. यदि पृथुबुध्नोदर आकारसे भी घड़ा न हो तो घटका अभाव हो जायेगा (३४/११) ६. यदि रसादिकी तरह रूप भी स्वात्मा न हो तो वह चक्षुके द्वारा दिखाई हीन देगा ( ३४-१५)। ७. यदि इतर रूपसे भी घट कहा जाये तो घटन क्रिया रहित पट आदि में घट शब्द का व्यवहार होगा, (३४/२१)। यदि इतर के न होने पर भी घट कहा जाये तो पटादिमें भी घट व्यवहारका प्रसंग प्राप्त होगा (३४/२७) ८. यदि ज्ञयाकारसे घट न माना जाये तो घट व्यवहार निराधार हो जायेगा (३४/३४)। इस प्रकार उक्त रीतिसे सूचित घटत्व और अघटत्व दोनों धमों का आधार घड़ा ही होता है । यदि दोनों में भेद माना जाये तो घट में ही दोनों धर्मों के निमित्त से होने वाली बुद्धि और वचन प्रयोग नहीं हो सकेंगे। (स. म./१४/१७६/६:१७७/१७) । है क्योंकि प्रतीतियोंसे विरोध आ रहा है। (४२२/१४ )। स्वकीय कालमें वस्तु है परकीयकाल में नहीं। यह कथन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि अपने कालका ग्रहण करनेसे और दूसरे कालकी हानि करनेसे वस्तुका वस्तुपना सिद्ध हो रहा है। अन्यथा कालके संकर हो जानेका प्रसंग आता है। सभी कालोंमें सम्पूर्ण वस्तुओं के अभावका प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। दे. सप्तभंगी/१ [ ये दोनों भंगमूल हैं।] स्या. म./१२/१५५/२८ अन्यरूपनिषेधमन्तरेण तत्स्वरूपपरिच्छेदस्याप्य संपत्ते। स्या. म./१४/१७६/१४ सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात स्वरूपस्याप्यसंभवः । स्या. म./२३/२८०/१० स्यात्कथं चिद नास्त्येव कुम्भादिः स्वद्रव्यादिभिरिव परद्रव्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टौ हि प्रतिनियतस्वरूपाभावाद वस्तुप्रतिनियतिर्न स्यात् । न चास्तित्वैकान्तवादिभिरत्र नास्तित्वमसिद्ध मिति वक्तव्यम् । कथंचित् तस्य वस्तुनि युक्तिसिद्धस्वात:साधनवत् । -१. बिना किसी वस्तुका निषेध किये हुए विधिरूप ज्ञान नहीं हो सकता है । २, प्रत्येक वस्तु स्वरूपसे विद्यमान है, पर रूपसे विद्यमान नहीं है । यदि वस्तुको सर्वथा भावरूप स्वीकार किया जाये, तो एक वस्तुके सद्भावमें सम्पूर्ण वस्तुओंका सद्भाव मानना चाहिए, और यदि सर्वथा अभाव रूप माना जाये तो वस्तुको सर्वथा स्वभाव रहित मानना चाहिए । ३. घट आदि प्रत्येक वस्तु कथं चित् नास्ति रूप ही है। यदि पदार्थको स्व चतुष्टयकी तरह पर चतुष्टयसे भी अस्तिरूप माना जाये, तो पदार्थका कोई भी निश्चित स्वरूप सिद्ध नहीं हो सकता। सर्वथा अस्तित्ववादी भी वस्तुमें नास्तित्व धर्मका प्रतिषेध नहीं करते, क्योंकि जिस प्रकार एक ही साधनमें किसी अपेक्षासे अस्तित्व और किसी अपेक्षासे नास्तित्व सिद्ध होता है. उसी प्रकार अस्ति रूप वस्तुमें कथंचित नास्ति रूप भी युक्तिसे सिद्ध होता है। २. दोनों में अविनाभावी सापेक्षता न. च. वृ./३०४ अत्थितं णो मण्णदि पत्थिसहावस्स जो हु सावेक्वं । णत्थी विय तहदम्वे मूढी मूढो दु सव्वस्थ । जो अस्तित्वको नास्तित्वके सापेक्ष तथा नास्तित्वको अस्तित्वके सापेक्ष नहीं मानता है, तथा द्रव्यमें जो मूढ है वह सर्वत्र मूढ है।३०४।। भा. पा./टी./५७/२०४/१० एकस्य निषेधोऽपरस्य विधिः । एकका निषेध ही दूसरे की विधि है। पंध./पू/६५५ न कश्चिन्नयो हि निरपेक्षः सति च विधौ प्रतिषेधः, प्रतिषेधे सति विधेः प्रसिद्धत्वात् ।६५५१ कोई भी नय निरपेक्ष नहीं है किन्तु विधिके होनेपर प्रतिषेध और प्रतिषेधके होनेपर विधिकी प्रसिद्धि है।६५॥ स, भ. त./५३/६ अस्तित्व स्वभाव नास्तित्वेनाविनाभूतम् । विशेषणत्वात बैघर्म्यवत-अस्तित्व स्वभाव नास्तित्बसे व्याप्त है क्योकि वह विशेषण है जैसे वैधर्म्य । ३. दोनोंकी सापेक्षतामें हेतु रा.वा./४/४२/१५/२५४/१४ स्यादेतत्-यदस्ति तव स्वायत्तद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण भवति नेतरेण तस्याप्रस्तुतत्वात् । यथा घटो द्रव्यतः पाथिवत्वेन, क्षेत्रत इहत्यतया कालतो वर्तमानकालसंबन्धितया, भावतो रक्तवादिना, न परायत्तईब्यादिभिस्तेषामप्रसक्तस्वात इति ।.. यदि हि असो द्रव्यतः पार्थिवत्वेन तथोदकादित्वेनापि भवेत. ततोऽसी घट एव न स्यात् पृथिव्युदकदहनपवनादिषु वृत्तत्वाद द्रव्यत्ववत । तथा, यथा इहत्यतया अस्ति तथाविरोधिदिगन्तानियतदेशस्थतयापि यदि स्यात्तथा चासौ घट एव न स्यात विरोधिदिगन्तानियतसर्वदेशस्थस्वात आकाशक्त् । तथा, यथा वर्तमानघटकालतया अस्ति तथातीतशिवकाद्यनागतकपालादिकालतयापि स्याव तथा चासौ घट एव श्लो.वा./२/१/६/२२ पृष्ठ सं./पंक्ति सं. सर्व वस्तु स्वद्रव्येऽस्ति न परद्रव्य तस्य स्वपरद्रव्यस्वीकारतिरस्कारव्यवस्थितसाध्यत्वात्। स्वद्रव्यवत परद्रव्यस्य स्त्रीकारे द्रव्याद्वैतप्रसक्तेः स्वपरद्रव्यविभागाभावात्। तच्च विरुद्धम् । जीवपुद्गलादिद्रव्याण भिन्नलक्षणानां प्रसिद्ध (४२०/ १७) । तथा स्वक्षेत्रेऽस्ति परक्षेत्रे नास्तीत्यपि न विरुध्यते स्वपरक्षेत्रप्राप्तिपरिहाराभ्यां वस्तुनो वस्तुत्व सिद्ध रन्यथा क्षेत्रसंकरप्रसङ्गात् । सर्वस्याक्षेत्रत्वापत्तेश्च । न चैतत्साधीयः प्रतीतिविरोधात (४२२) १४) । तथा स्वकालेऽस्ति परकाले नास्तीत्यपि न विरुद्ध स्वपरकालग्रहणपरित्यागाभ्यां बस्तुनस्तत्त्वं प्रसिद्धरन्यथाकालसकर्यप्रसङ्गात् । सर्वदा सर्वस्थाभावप्रसङ्गाच्च (४२३/२३ ) । सम्पूर्ण वस्तु अपने द्रव्यमें है पर द्रव्यमें नहीं है क्योंकि वस्तुकी व्यवस्था स्वकीय द्रव्यके स्वीकार करनेसे और परकीय द्रव्यके तिरस्कार करनेसे साधी जाती है। यदि वस्तु स्व द्रव्यके समान परद्रव्यको भी स्वीकार करे तो संसारमें एक ही द्रव्य होनेका प्रसंग हो जायेगा। स्वद्रव्य व परद्रव्यका विभाग न हो सकेगा। किन्तु बद्र मुक्त आदिका विभाग न होना प्रतीतियोंसे विरुद्ध है क्योंकि जीव, पुद्गल भिन्न लक्षणवाले अनेक द्रव्य प्रसिद्ध हैं ।४२०/१७ । वस्तु स्वक्षेत्रमें है पर क्षेत्रमें नहीं है, यह कहना भी विरुद्ध नहीं है। क्योंकि स्वकीय क्षेत्रकी प्राप्तिसे परकीय क्षेत्रके परित्यागसे वस्तुका वस्तुपना सिद्ध हो रहा है। अन्यथा क्षेत्रोंके संकर होने का प्रसंग होगा। तथा सम्पूर्ण पदार्थोंको क्षेत्ररहितपनेकी आपत्ति हो जायेगी। किन्तु यह क्षेत्ररहितपना प्रशस्त नहीं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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