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________________ सम्यग्दर्शन प्रकारका है, उनमें से स्वात्मसम्बन्धी प्रधान है तथा परात्मसम्बन्धी गौण है | ८०६) वह प्रभावना अंग भी वात्सल्यकी तरह स्त्र व परके भेदसे दो प्रकारका है । उनमेंसे पहला प्रधान रीतिसे आदेय है तथा दूसरी जो परप्रभावना है वह गौणरूप से उपादेय है।८१४ द.पा.पं./२/७/२४ ते चिह्न कौन सो लिखिए है हाँ मुख्य चिन्ह तो यह है जो उपाधि रहित शुद्ध ज्ञानचेतनास्वरूप आत्माकी अनुभूति है, सो यद्यपि यह अनुभूति ज्ञानका विशेष (दे. सम्यग्दर्शन/ १/२/१) तथापि सम्यक् भये होय है, खाते या बाह्य चिह्न कहिए है ।" ४. श्रद्धान आदि सब आत्मा के परिणाम हैं रा.मा./१/२/१/११/२० स्यादेतत्-वक्ष्यमाणनिर्देशादिसूत्र विवरणात् पुद्गल द्रव्यस्य संप्रत्ययः प्राप्नोतिः तन्नः किं कारणम् । आत्मपरिगामेऽपि तदुपपत्तेः । किं तस्मार्थश्रद्धानम् आत्मपरिणामः । वस्य । आत्मन इत्येवमादि | मोहनीय कर्मको प्रकृतियों में भी सम्यक्त्व नामकी कर्मप्रकृति है और 'निर्देश स्वामित्व आदि सूत्रके विवरण से भी ज्ञात होता है कि यहाँ सम्यक्त्व कर्मप्रकृतिका सम्यग्दर्शनसे ग्रहण है अतः सम्यक्त्वको कर्म पुद्गलरूप मानना चाहिए ? उत्तरयहाँ मोक्षके कारणोंका प्रकरण है, अतः उपादानभूत आत्मपरिणाम हो है (द्र.सं./मू./४१) - दे. भाव/२/२ ओपशमिकादि सम्यग्दर्शन भी सीधे आत्मपरिणाम स्वरूप है कर्मोंकी पर्यायरूप नहीं । ] ५. निश्चय सम्यक्त्वकी महिमा पं.वि./४/२३ तमतिप्रीतिचिसेन येन वापि हि भूता निश्चित स भवेद्भव्य भाविनिर्माणभाजनम् २३-उस आत्मतेजके प्रति मनमे प्रेमको धारण करके जिसने उसकी बात भी सुनी है. वह निश्चयसे भव्य है, व भविष्य में प्राप्त होनेवाली मुक्तिका पात्र है । ३५९ ६. श्रद्धान मात्र समम्यग्दर्शन नहीं है रा.मा./६/२/२६-२०/०२/२१ इच्छा श्रद्धानमित्यपरे |२६| तदयुक्तम् मिथ्यादृष्टेरपि प्रसङ्गात् ॥ २७॥ केवलिनि सम्यक्त्वाभावप्रसंगाच कोई बादी इच्छापूर्वक श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं : २६ उनका यह मत ठीक नहीं हैं, क्योंकि मिध्यादृष्टि (जैन शास्त्रोको पढ़कर) वैसा श्रद्धान तो कर लेते हैं । २७| दूसरी बात यह है कि ऐसा मानने से केवली भगवान्में सम्यक्का अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि, उनमें इच्छाका अभाव है ॥२८॥ श्लो. बा. २/१/२/२/३/३ पश्चालोचने स्थितिः प्रसिधा शिन प्रेक्षणे इति वचनात । तत्र सम्यक् पश्यत्यनेनेत्यादिकरणसाधनत्वादिव्यस्वायां दर्शनाय निरिक्षण सम्यग्दर्शनं न सम्यत एव ततः प्रशस्तालोचनमात्रस्य लब्धेः । न च तदेवेष्टमतित्र्यापित्वादभव्यस्य मिथ्यादृष्टेः प्रशस्तालोचनस्य सम्यग्दर्शनप्रसंगात् । प्रश्न-दृश धातुकी 'सामान्यसे देखना ऐसी व्युत्पत्ति जगत प्रसिध है। महाँ 'सम्यक् देखता है जिसके द्वारा ऐसा करण प्रत्यय करनेपर जो इष्ट लक्षण प्राप्त होता है वह आप स्याद्वादियों के यहाँ प्राप्त नहीं होता है । भले प्रकार देखना ऐसा भाव साधनरूप अर्थ भी नहीं मिलता है ? उत्तर - ऐसा अर्थ हम इष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष होगा। मिथ्यादृष्टि अभव्यके प्रशस्त देखना होनेके कारण सम्यग्दर्शन हो जानेका प्रसंग हो जायेगा । पं. ध. /उ. / ४१४ व्यस्ताश्चैते समस्ता वा सद्दृष्टेर्लक्षणं न वा । सपक्षे वा विपक्षे वा सन्ति यद्वा न सन्ति वा । ४१४ | = श्रधा रुचि प्रतीति और चरण, ये चारों पृथक्-पृथक् अथवा समस्तरूपसे भी सम्यग्दर्शनके वास्तविक लक्षण नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, सपक्ष और विपक्ष दोनों ही अवस्थाओं होते भी हैं और नहीं भी होते हैं। रहस्यपूर्ण Jain Education International II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन चिट्ठी पं. टोडरमल / मो.मा.प्र./५०६/६ जो आपापरका यथार्थ श्रद्धान नाहीं है, अर जनमत विषै कहे जे देव, गुरु, धर्म तिनि ही कूं मानें है, अन्य मत विहे देवादि या तत्वादि तिनको नाही माने है. तो ऐसे केवल व्यवहार सम्यक्त्व करि सम्यक्ली नाम पावै नाहीं । ७. मिध्यादृष्टिकी श्रद्धा आदि यथार्थ नहीं • दे धान /२/५ ( एक भारका ग्रहण किया हुआ पक्ष, मिध्यादृष्टि जीम सम्यक् उपदेश मिलनेपर भी नहीं छोड़ता । उसीकी हठ पकड़े रहता है।] पं. ध. /उ. ४१८ अर्थाच्छ्रधादयः सम्यग्दृष्टिश्रद्धादयो यतः । मिथ्या श्रद्धादयो मिथ्या नार्थाच्छ्रद्धादयो ततः । = - क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवके अनुधादिक वास्तव में अधा आदिक है और मिथ्यादृष्टि श्रद्धा आदिक मिथ्या है, इसलिए मिथ्यादृष्टिके श्रद्धा आदिक वास्तविक नहीं है ४१ · दे. मिध्यादृष्टि / २ / २ व ४/१ [ मिथ्यादृष्टि व्यक्ति यद्यपि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य आदि सभी अंगों का पालन करता है, परन्तु उसके वे सम अंग मिथ्या है, क्योंकि, ये सब भोगके निमित्त हो होते है मोक्षके निमित्त नहीं।] मो.मा. प्र./७/३३०/१६ व्यवहारालम्बीकी तत्त्वश्रद्धा ऐसी होती है, कि ] शास्त्र के अनुसारि जानितौ ले है । परन्तु आपको आप जानि परका अंश भी न मिलावना अर आपका अंश भी पर विषै न मिलावना, ऐसा सांचा श्रद्धान नाहीं करे है। ३. निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व समन्वय १. नव तरयोंका श्रद्धाका अर्थ शुद्धात्मकी अदा ही है रा.सा./न.आ./१३ भीमालीमा पुष्पा च आसवर जिरो मोटो य सम्मतं १३तिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुरात्मख्यातिलक्षणायाः संपयमानस्यादभूतार्थनयसे ज्ञात जीव, अजीब और पुण्य पाप तथा आसव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव तत्त्व सम्यक्त्व हैं | १३ | क्योंकि, नव तत्त्वों में एकत्व प्रकट करनेवाले सार्थयसे एकस्व प्राप्त करके धनय रूप से स्थापित आत्माकी अनुभूति - जिसका लक्षण आत्मख्याति है, वह प्राप्त होती है। (पं.प. / . /९८६) स.सा./आ./१३/८ चिरमिति नवतन्वच्छन्नमुन्नीयमानं', कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकला असततमिति श्यामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्मज्योति तिरुमान [८] इस प्रकार अनेक पर्यायोंमें बहुत समय से छिपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धधनय बाहर निकालकर प्रकट की गयी है, जैसे वर्णोंके समूहमें छिपे हुए एकाकार स्वर्णको बाहर निकालते हैं। इसलिए अब हे भव्यो ! इसे सदा अन्य द्रव्योंसे तथा उनसे होनेवाले (राग आदिक) नैमितिक भावोंसे भिन्न एकरूप देखो। यह ( ज्योति ), पद-पदपर अर्थात प्रत्येक पर्याय में एकरूप चिचमत्कारमात्र उद्योतमान है । स.सा./ता.वृ./१३/३९/१२ पदार्थेन ज्ञाताः सन्तः सम्यer भवन्तीत्युक्तं भवद्भिस्तरीभूतापरिज्ञानमिति पृष्टे प्रत्युतरमाह। द्यनिमपदार्थाः सवनानि प्राथमिकशिष्यापेक्षया भूतार्था भण्यन्ते तथाप्यभेदरत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधिकाले अभूतार्था असत्यार्थी शुद्धधात्मस्वरूपं न भवन्ति । तस्मिन् परमसमाधिकारी नवामध्ये पश्चिमेक एवं शुद्धधारमा प्रोते प्रकाशते प्रतीयते अनुभूत इति प्रश्नन पदार्थ यदि भूतार्थरूपने जाने गये हो तो सम्यग्दन रूप होते है ऐसा आपने कहा है। वह भूतार्थ परिज्ञान कैसा है उत्तर-मपि तीर्थप्रवृत्ति के निमित्त प्राथमिक शिष्यको अपेक्षा मे पदार्थ जाते है. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only = , www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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