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________________ श्रुतज्ञान I श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश श्रुतशानकी ओघ व आदेश २० प्ररूपणाएँ-दे. सत् ।। श्रुतज्ञानके स्वामित्व सम्बन्धी सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ -दे. बह बह नाम । सभी मार्गणा स्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम -दे. मार्गणा। मतिज्ञान व तज्ञान में अन्तर १ दोनोंमें कथंचित् एकता। | मति व श्रुतशानमें भेद। श्रोतज मतिशान व श्रुतशानमें अन्तर । | मनोमति शान व श्रुतज्ञानमें अन्तर । ईहादि मतिशान व श्रुतशानमें अन्तर । स्मृतिसे अनुमान तकके शानोंकी उत्पत्तिका क्रम -दे. मतिज्ञान/३। * अनुमान उपमान आदि सब श्रुतज्ञानके विकल्प हैं -दे. वह वह नाम। श्रतज्ञान व केवलज्ञानमें कथंचित् समानताअसमानता श्रुतशान भी सर्व पदार्थ विषयक है। दोनोंमें प्रत्यक्ष परोक्षका अन्तर है। श्रुतज्ञान कथंचित् त्रिकाल ग्राहक है -दे. श्रुतज्ञान/1/२/५ ॥ समन्वय । मति श्रुतज्ञानकी कथंचित् प्रत्यक्षता-परोक्षता मतिश्रुत शान कथंचित् परोक्ष हैं। श्रुतशान परोक्ष है -दे. परोक्ष/४॥ मतिशान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है -दे. प्रत्यक्ष/१/४ । इन्द्रिय ज्ञानको प्रत्यक्ष माननेमें दोष । | परोक्षता व अपरोक्षताका समन्वय । श्रुतशानकी कथंचित् निर्विकल्पता -दे. विकल्प। शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष भेद व लक्षण लोकोत्तर शब्द लिंगजके सामान्य भेद । आगम सामान्य व विशेषके लक्षण । अंग प्रविष्ट व अंग बाह्यके भेद । अंग प्रविष्ट के भेदोंके लक्षण । | अंगबाह्यके भेदोंके लक्षण । शब्द लिंगज निर्देश । श्रुत तीर्थकी उत्पत्ति चुत वायका उत्पत्ति -दे. इतिहास/४/५। श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास --दे. इतिहास/४/६। बारह अगोंमें पद निर्देश। दृष्टिवाद अंगोंमें पद संख्या निर्देश। चौदह पूर्वोमें पदादिकी संख्या निर्देश । अंग बायके चौदह भेदोंमें पद संख्या निर्देश । ५ | यहॉपर मध्यम पदसे प्रयोजन है। ६ | इन शानका अनुयोग आदि शानोंमें अन्तर्भाव । १ I श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश १. भेद व लक्षण १. श्रुतज्ञान सामान्यका लक्षण १. सामान्य अर्थ स.सि./अ./सू./पू./पं. श्रूयते अनेन तत् शृणोति श्रवणमा वा श्रुतम् (१/३/१४/१) श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादितोऽपि रूढ़िवशात् कस्मिश्चिज्ज्ञान विशेषे वर्तते । यथा कुशलवनकम प्रतीत्य व्युत्पादितोऽपि कुशल शब्दो रूढिवशात्पर्यवदाते वर्तते (१/२०/१२०/ ४) श्रुतज्ञानविषयोऽर्थः श्रुतम् ( २/२१/१७६/७ )। विशेषेण तकण - मूहनं वितर्कः श्रुतज्ञानमित्यर्थः (१/४/४५६)१. पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुनना मात्र श्रुत कहलाता है (रा वा./१/४/२/४४/१०)। २. यह श्रुत शब्द सुनने रूप अर्थ की मुख्यतासे निष्पादित है तो भी रूढिसे उसका वाच्य कोई ज्ञान विशेष है। जैसे-कुशल शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ कुशाका छेदना है तो भी रूढिसे उसका अर्थ पर्यवदात अर्थात् विमल या मनोज्ञ लिया जाता है । (रा. वा./१/२०/१/७०/२१) (ध.१/४,१,४५/१६०/५); (गो. जो./जी. प्र./३१६/६७३/१७) ३. श्रुतज्ञानका विषय भूत अर्थ श्रुत है । (रा. बा./२/२१/-/१३४/१८)४, विशेष रूपसे तर्कणा करना अर्थात् ऊहा करना वितकं अर्थात श्रुतज्ञान कहलाता है । (रा. वा./8/ ४३/-६३४६), (त. सा./१/२४), (अन. ध./१/१४५ पर उधृत)। का, अ/मू./२६२ सव्वं पि अणेयतं परोवरख-रूवेण जं पयासे दि । त सुयणाणं भण्णादि ससय-पहूदीहि परिचत्तं ।२६२। जो परोक्ष रूपसे सब वस्तुओंको अनेकान्त रूप दर्शाता है, संशय, विपर्यय आदिसे रहित उस ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं ।२६॥ अन. ध./१५ स्वावृत्यपायेऽविस्पष्टं यन्मानार्थ प्ररूपणम्। ज्ञान... तच्छुतम ।। - भूतज्ञानावरण कमका क्षयोपशम होनेपर नाना पदार्थोके समीचीन स्वरूपका निश्चय कर सकनेवाले अस्पष्ट ज्ञानको श्रुत कहते हैं ।। द्र.सं./टी./५/१५/१० श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमात्...मूर्त्तामूर्तवस्तुलोकालोकव्याप्तिज्ञानरूपेण यदस्पष्टं जानाति तत्... श्रुतज्ञान भण्यते । I अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश । भेद व लक्षण अर्थलिंगज २० प्रकारका है। २ अर्थ लिगके २० भेदोंके नाम निर्देश । बीस भेदोंके लक्षण। उपरोक्त ज्ञानोंको वह संशाएँ क्यों। अक्षर झानमें कौनसा अक्षर इष्ट है। अर्थलिंगज निर्देश लब्ध्यक्षर ज्ञानका प्रमाण। लब्ध्यक्षर शान सदा निरावरण होता है। | पर्याय आदि शानोंमें वृद्धि क्रम विकास । .जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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