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________________ समवसरण ३३० तत्र तदर्धमाना श्चत्वारस्तरपरीवारमण्डपाः । आक्षेपण्यादयो येषु कथ्यन्ते कथकैः कथाकीर्ण कवासेषु विप्रेष्याचक्षते स्फुटयः स्वष्ट मर्थिभ्यः केवलादिमहर्द्धयः | [भवनभूमि नामकी सप्तम भूमिमें स्तूपोंसे आगे एक पताका लगी हुई है ] उसके आगे १००० खम्भोंपर खड़ा हुआ महोदय नामका मण्डप है, जिसमें मूर्तिमती देवता विद्यमान रहती है उस देवताको शहिने भागमें करके अद्भुतके धारक अनेक धीर वीर मुनियोंसे विरे बुतकेवली कल्याणकारी श्रुतका व्याख्यान करते हैं । ८७| महोदय मण्डपसे आ विस्तारवाले चार परिवार मण्डप और हैं, जिनमें कथा कहनेवाले पुरुष आक्षेपिणी आदि कथाएँ कहते रहते हैं इन मण्डपों के समीपमें नाना प्रकार के फुटकर स्थान भी बने रहते हैं, जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महाशुद्धियों के धारक ऋषि हरजनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओंका निरूपण करते हैं (हरिषेण कृत कथाकोष | कथा नं. ६० / श्लो. १५५ - १६० ) I २. मिध्यादृष्टि अमभ्य जन श्रीमण्डपके भीतर नहीं जाते ति प./४/१३२ मिच्दा अिभन्या मुमसणी न होंति कहआई तह - य अणज्भवसाया संदिद्धा विविहविवरीदा | १३२] - इन (बारह ) कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञो जीव कदापि नहीं होते तथा अनध्यवसाय से युक्त, सन्देहसे संयुक्त और विविध प्रकारकी विपरीतताओं सहित जीव भी नहीं होते हैं |१२ ३. पु./२०/१०४ मध्यकूटाया स्तुपा भामकुटास्ततोऽपरे। वानभम्या न पश्यन्ति प्रभावीकृतेक्षणा १०४ [भूमिमें अनेक स्तूप हैं। उनमें सर्वार्थसिद्धि नामके अनेकों स्तूप है।] नदी प्यमान शिखरों से युक्त भव्यकूट नामके स्तूप रहते हैं, जिन्हें अभव्य जी नहीं देख पाते। क्योंकि उनके प्रभाव से उनके नेत्र अन्धे हो जाते है ४. समवसरणका माहात्म्य ति./४/१२१-६२२ जिगवंदापट्टा पहला संखेज्जभागपरिमाणा । जीवा एक्केश्के समय सरणे १२१० को नेता जीववखेत्तं फलं असंखगुणं । होदून अट्ठ त्ति हु जिनमाहप्पेण ईति ॥१३०॥ संसेज्जोयणाणि मानयहूदी पसकिन्गमणे । अंतोमुहुत्तकाले जिण माहप्पेण गच्छति ||३१| आतंकरोगमरणुपीओ बेरकामचाधाओं । तण्हा वहपोडाओ जिनमापे ण हवं ति ||३३| - एक-एक समवसरण में पश्य के असंख्यातवें भागप्रमाण विविध प्रकार के जीव जिनदेवकी बन्दनामें प्रवृत्त होते हुए स्थित रहते हैं |२| कोठों क्षेत्र यद्यपि जीवोंका क्षेत्रफल असंख्यातगुना है. तथापि सम जीव जिनदेवके माहात्म्यसे एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं|३०| जिनमगमास्के माहात्म्यसे बालकप्रभृति जीन प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर संख्यातयोजन चले जाते हैं |१| इसके अतिरिक्त वहाँपर जिनभगवान्‌के माहात्म्य से आतंक, रोग, मरण, उत्पत्ति, बैर, कामबाधा तथा तृष्णा ( पिपासा ) और पाकी पीड़ाएं नहीं होती हैं |२३| ५. समवसरण देव कृत होता है ति. प. / ४ /७१० ताहे सक्काणाए जिणाण सबलाण समवसरणाणि । विकिरियाए घणो विरदि विलिरुहि [०१०] सौधर्म इन्द्रकी आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा सम्पूर्ण तीर्थ करके विचित्र रूप से रचता है ! ७१०। Jain Education International ६. समवसरणका स्वरूप पि./४/गा का भावार्थ- १. समवसरण के रूप में ३१ अधिकार हैसामान्य भूमि सोपान, विन्यास, बीपी भूमिशाल (प्रथमकोट ) चैत्यप्रासाद भूमियाँ, नृत्यशाला, मानस्तम्भ, बेदी, खातिकाभूमि, वेदी, लतामि, साल (वि. कोट), उपवनभूमि नृत्यशाला बेदी, मिसाल (कोट), कल्पभूमि नृत्यशाला बेदी भवन भूमि, स्तूप, साल (चतु. कोट), श्री मण्डप, ऋषि आदि गण, वेदी, पीठ, डि. पीठीय पीठ, और गन्धकुटी ०७१३२ समनसरणकी सामान्य भूमि गोल होती है । ७१६। ' उसकी प्रत्येक दिशामें आकाशमें स्थित मीरा-मोस हजार सोभान सीढ़ियाँ) है समवशरण २०४ इसमें चार कोट, पाँच मेदियों, इनके बीच में आठ भूमियों और सर्वत्र अन्तर भाग में तीन-तीन पीठ होते हैं। यह उसका विन्यास फोटो आदिका सामान्य निर्देश है १७२३। ( चित्र . १४३३२) ५. प्रत्येक दिशाने सोपानों से लेकर अष्टम भूमिके भीतर गन्धकुटीको प्रथम पीठ तक एक-एक बीधी (सड़क) होती है । ७२४ | बीथियोंके दोनों बाजुओं में बीथियों जितनी ही लम्बी दो बेदियाँ होती हैं |७२८ आठों भूमियोके इसमें बहुतसे तोरणद्वार होते है ७३१ ६ सर्वप्रथम विशाल नामक प्रथम कोट है । ७१३ | इसकी चारों दिशाओं में चार तोरण द्वार हैं । ( ७३४) । ( दे. चित्र सं. २ पृष्ठ ३.३३ ) प्रत्येक गोपुर (द्वार) के बाहर मंगल द्रव्य नवनिधि व धूप घट आदि युक्त पुतलियाँ स्थित हैं । ७३७ | प्रत्येक द्वारके मध्य दोनों बाजुओं में एक-एक नाट्यशाला है । ७४३) ( दे. चित्र सं ३ पृष्ठ ३३३ ) ज्योतिषदेव इन द्वारोंकी रक्षा करते हैं ingar ७. पूसिसास कोटके भीतर र प्रासाद भूमियों है (भोष से मुझ २०११ जहाँ पाँच-पाँच प्रासादोंके अन्तराल से एक-एक चैत्यालय स्थित हैं । ७५२। इस भूमिके भीतर पूर्वी चार बीवियोंके पार्श्वभागों में नाट्यशालाएं हैं। जिनमें ३२ रंगभूमियों है। प्रत्येक रंगभूमि १२ भवनवासी कन्याएँ दृश्य करती है।७३८-३६८. प्रथम चैत्यशसाद.) भूमिके बहुमध्य भागमें चारों वीथियोंके बीचोबीच गोल मानस्तम्भ भूमि हैं । ७६१श (विशेष दे मानस्तम्भ । चित्र सं. ४ पृष्ठ २२१) ६. इस प्रथम चेश्यप्रासादभूमि से आगे प्रथम बेदीं है, जिसका सम्पूर्ण कथन धूलिशालकोट वद जानना । ७६२-०६३ । १० इस बेदीसे आगे स्वातिका भूमि है।७१५२ जिसमें जलसे पूर्ण खातिकाए हैं । ७६६ । ११. इससे आगे पूर्व वेदिका सदृश ही द्वितीय वेदिका है | १२. इसके आगे लताभूमि है, जो अनेकों क्रीड़ा पर्वतों व भाषिकाओं आदि शोभित है ०० ०१ १३. इसके आगे दूसरा कोट है, जिसका वर्णन साल है. परन्तु यह यक्षदेवोंसे रक्षित है ।८०२ । १४. इसके आगे उपवन नामको चौभी भूमि है ।०३। जो अनेक प्रकारके वनों बापिकाओं य पेय वृक्षोंसे शोभित है। १२. सब मनके आत सब बीथियोंके दोनों पार्श्व भागों में दो-दो ( कुल १६ ) नाट्यशालाएँ होती हैं। आदिवासी वाहने भवनवासी देवकन्याएं और आगे की आउने कल्पवासी देवकन्याएं नृत्य करती हैं १६. इसके पूर्व ही तीसरी बेदी है जो महादेवोंसे रक्षित १७. इसके आगे ध्वज-भूमि है, जिसकी प्रत्येक दिशाम सिंह, गज आदि दस चिह्नोंसे चिह्नित ध्वजाए हैं। प्रत्येक चिह्नबजाए १०८ है और प्रत्येक वा अन्य १०से युक्त है। कुल ध्वजाए - ( १०x१०८x४ ) + (१०x१०८१०८x ४) ४७०८८० । १५. इसके आगे तृतीय कोट है जिसका समस्त वर्णन धूलिसाल कोटके सदृश है । ८२७। १६. इसके आगे छठी कल्पभूमि है जो दस प्रकारके कल्पवृक्षों से तथा अनेकों प्रासादों, सिद्धार्थ वृक्षों से है " जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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