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________________ समवसरण समवसरण ८३३। २०. कल्पभूमि के दोनों पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी के आश्रित पीठके ऊपर तीसरी पीठ है।८८४। जिसके चारों दिशाओं में आठचार-चार (कुल १६) नाट्यशालाएँ हैं ।८३८। यहाँ ज्योतिष आठ सोपान हैं।८८६३ ३१. तीसरी पीठके ऊपर एक गन्धकुटी है, कन्याए नृत्य करती हैं।८३६॥ २१. इसके आगे चौथी वेदी है, जो अनेक ध्वजाओंसे शोभित है।८८७-८८८। गन्धकुटीके मध्य में जो भवनवासी देवों द्वारा रक्षित है ।८४०। २२. इसके आगे पादपीठ सहित सिंहासन है। जिसपर भगवान् चार अंगुल के भवनभूमियाँ हैं, जिनमें ध्वजा-पताकायुक्त अनेकों भवन हैं।८४११ अन्तरालसे आकाशमें स्थित है ।८६५ह. पु./७/१-१६१)(ध-६/४, २३. इस भवनभूमिके पार्श्वभागोंमें प्रत्येक बीथीके मध्यमें १,४४/१०६-१९३) (म. ./२२/७७-३१२) ( चित्र सं.५, पृष्ठ ३३४) जिनप्रतिमाओंयुक्त नौ-नौ स्तुप (कुल ७२ स्तूप) है।८४४। * मानस्तम्भका स्वरूप व विस्तार-दे. मानस्तम्भ। २४. इसके आगे चतुर्थ कोट है जो कल्पवासी देवों द्वारा रक्षित है 1८४८-८४६, २५. इसके आगे अन्तिम श्रीमण्डप भूमि है।८५२॥ * चैत्य वृक्षका स्वरूप व विस्तार-दे. वृक्ष। इसमें कुल ६ दीवारें व उनके बीच १२ कोठे हैं 1८५३॥ २६. पूर्व (चित्र सं.६, पृष्ठ ३३४) दिशाको आदि करके इन १२ कोठोंमें क्रमसे गणधर आदि मुनिजन; कल्पवासी देवियाँ, आर्यिकाएं व श्राविकार, ज्योतिषी देवियाँ, व्यन्तर देवियाँ, भवनवासी देवियाँ, भवनवासीदेव, ७. समवसरणका विस्तार व्यन्तरदेव, ज्योतिषीदेव, कल्पवासीदेव, मनुष्य व तियंच मैठते ति.प./४/७१८ अवसप्पिणिए एवं भणिदं उस्स प्पिणीए विवरीदं । हैं।८५७-८६३॥ २७. इसके आगे पंचम वेदी है, जिसका वर्णन बारस जोयणमेत्ता सा सयल विदेहकत्ताण ७१८ =यह जो सामान्य चौथे कोटके सदृश है।६४। २८. इसके आगे प्रथम पीठ है, जिस- भूमिका प्रमाण बतलाया है (दे. आगे सारणी) वह अवसर्पिणीपर बारह कोठों व चारों वीथियोंके सन्मुख सोलह-सोलह सीढ़ियाँ कालका है। उत्सपिणी कालमें इससे विपरीत है। विदेह क्षेत्रके हैं।६५-८६६। इस पीठपर चारों दिशाओं में सरपर धर्मचक्र रखे सम्पूर्ण तीर्थ करोंके समवसरणकी भूमि मारह योजन प्रमाण ही चार यक्षेन्द्र स्थित हैं।८७०। पूर्वोक्त बारहके बारह गण इस पीठ- रहती है ।७१८॥ [ अवसर्पिणी काल में जिस प्रकार प्रथम तीर्थ से पर चढ़कर प्रदक्षिणा देते हैं।८७३। २६. प्रथम पीठके ऊपर द्वितीय अन्तिम तीर्थ तक भूमि आदिके विस्तार उत्तरोत्तर कम होते गये पीठ होता है ।८७५ जिसके चारों दिशाओं में सोपान हैं।७१। हैं उसी प्रकार उत्सर्पिणीकालमें वे उत्तरोत्तर बढ़ते होंगे। विदेह इस पीठपर सिंह, बैल आदि चिह्नोंवाली ध्वजाए हैं व अष्टमंगल क्षेत्रके सभी समवसरणों में ये विस्तार प्रथम तीर्थ करके समान द्रव्य, नवनिधि, धूपघट आदि शोभित हैं ।८८०-८८१०३०. द्वितीय जानने। प्रमाण-ति. प./४/गाथा सं. नोट-तीर्थंकरोंको ऊँचाईके लिए 1 दे. तीर्थकर/५/३/२.१६ ॥ संकेत-यो = योजन; को.-कोश: ध.-धनुष; अं.- अंगुल । प्रथम लम्बाई २२वें गाथा नाम चौड़ाई या / ऋषभदेवके । नेमिनाथ तक | पाश्वनाथके वर्धमानके समवसरणमें | क्रमिक हानि | समवसरण में समवसरण में सामान्य भूमि विस्तार १२ यो. २ को. (विशेष दे, तीर्थकर/५/३/४-३२) सोपान लम्बाई २४४२४ यो । २४ यो. | ट को. ४६ को, चौड़ाई व ऊँचाई १हाथx १हाथ १हाथ वीथी चौड़ाई सोपानवव লাই ३५३ को. | ३ को. | ४१ को. बीथीके दोनों बाजुओं में वेदी प्रथम कोट ऊँचाई स्व स्व तीर्थ करसे चौगुनी मूल में विस्तार हे को, । १९ को. | टेट को ७३ को. तोरण व गोपुर द्वार ऊँचाई कोटसे तोरण और उससे गोपुर अधिक-अधिक ऊँचे है। चैत्य व प्रासाद ऊँचाई स्व-स्व तीर्थकरसे १२ गुनी चैत्यप्रासाद भूमि विस्तार ३७ यो, | यो. | ट यो. ट यो. नाट्यशाला ऊँचाई स्व स्व तीर्थकरसे १२ गुनी प्रथम बेदी ऊंचाई व विस्तार प्रथम कोटवत् खातिका भूमि विस्तार → प्रथम चैत्यप्रासाद भूमिवद द्वि. वेदी विस्तार →प्रथम कोटसे दूना:ऊँचाई → प्रथम कोटवत् - लताभूमि विस्तार →चैत्यप्रासाद भूमिसे दूनाद्वि. कोट ऊँचाई प्रथम कोटवत् विस्तार प्रथम कोरसे दूना २४३ १/४ यो. १यो. ७२१ हरे को. ७२६ ७४७ ७५३ - जैनेन्द्र सिदान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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