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________________ सुयश ४३७ सुषमा काल इत्थं सुरगिरिश्चेति लब्धवणेः स वर्णितः ५३७६ -वज्रमूल, सुरेश्वर-शंकराचार्य के शिष्य । समय-ई. ८२०-दे. वेदान्त/९/२। सवैडूर्य चूलिक, मणिचित, विचित्राश्चर्यकीर्ण, स्वर्णमध्य, सुरालय, मेरु, सुमेरु, महामेरु, सुदर्शन, मन्दर, शैलराज, वसन्त, प्रियदर्शन, सुलस-देवकुरुके १० द्रहोंमेंसे दो का नाम-दे. लोक रत्नोच्चय, दिशामादि, लोकनाभि, मनोरम, लोकमध्य, दिशा- सुलसा-चारण युगलकी पुत्री थी। सगर चक्रीने षड्यन्त्र रचकर मन्त्य, दिशामुत्तर, सूर्याचरण, सूर्यावर्त, स्वयंप्रभ, और सूरगिरि- - इसको विवाहा था। अन्तमें महाकाल द्वारा रचे हिंसायज्ञमें यह इस प्रकार विद्वानोंने अनेकों नामों के द्वारा सुमेरु पर्वतका वर्णन होमी गयी थी। (म. पु./६७/२१४-३६३)। किया है ।३७३-३७६ । सलोचन-बिहायसतिलक नगरका राजा । सगरचक्रीका ससुर (प. * सुमेरु पर्वतका स्वरूप-दे. लोक/३/६ । पु./५/७७-७८)। ३. वर्तमान विद्वानोंकी अपेक्षा सुमेरु सलोचना-म.पू./सर्ग/श्लोक...पूर्वभव नं.४ में रतिवेगा नामक सेठ सुता थी ( ४६/१०५,८७) तीसरेमें रतिषणा कबूतरी (४६/८६) ज. प./प्र. १३६,१४१ A.N. up,H.LJain वर्तमान भूगोलका पामीर दूसरे में प्रभावती (४६१४८) पूर्व भव में स्वर्गमें देव थी (४६/२५०) प्रदेश वही पौराणिक मेरु है। जिसके पूर्व से यारकंद नदी (सीता) वर्तमान भवमें काशी राजाके अकम्पनकी पुत्री थी (४३/१३५) । निकलती है और पश्चिम सितोदसरसे आमू दरिया निकलता है। भरतचक्रीके सेनापति जयसेनसे विवाही गयी (४३/२२६-२९६) । इसके दक्षिणमें दरद ( काश्मीरमें बहनेवाली कृष्णगंगा नदी) है। भरतसुत अर्ककीर्तिने इसके लिए जयसेनसे युद्ध किया। परन्तु इसके इसके उत्तरमें थियानसानके अंचलमें बसा हुआ देश ( उत्तरकुरु), अनशनके प्रभावसे युद्ध समाप्त हो गया (४५/२-७) तम जयसेनने पूर्व में मुजताग (मूंज ) एवं शीतान (शीतान्त) पर्वत, पश्चिममें इसको अपनी पटरानी बनाया (४५/१८१) एक समय देवी द्वारा मंदख्शा (वैदूर्य) पर्वत, और पश्चिम-दक्षिणा में हिंदूकुश (निषध) पतिके शील की परीक्षा करनेपर इसने उस देवीको भगा दिया (४७/पर्बत स्थित है ।१३। पुराणोंके अनुसार मेरुकी शरावाकृति है । इधर २६८-२७३ ) । अन्तमें पतिके दीक्षा लेनेपर शोकचित्त हो स्वयं भी वर्तमान भूगोलके अनुसार 'पामीर देश' चारों हिन्दुकुश, कारा दीक्षा ले ली। तथा घोर तपकर अच्युत स्वर्गमें जन्म लिया। कोरम, काशार और अन्ताई पर्वतसे घिरा होनेके कारण शरावाकार आगामी पर्यायसे मोक्ष होगा। (४७/२८६-२८६।। हो गया है । इसी पामीर देशको मेरु कहते हैं। पामीरमें शब्द आश्लिष्ट है, क्योंकि यह शब्द सपादमेरुका जन्य है । मेरुके सम्बन्ध- सुर्वक्षु-इसके कई रूप मिलते हैं यथा-सुचक्षु, सुवक्षु, एवं सपक्षु । में भी सपाद मेह' मेरुके महापादका व्यवहार प्रायः हुआ है । अतः इसकी उत्पत्ति मेरुके पश्चिमी सर सितोदसे कही गयी है, यह व्युत्पत्ति अशंकनीय है। इसी प्रकार काश्मीर शब्द भी मेरुका जहाँसे निकलकर 'नानाम्लेच्छगणैर्युक्तः' केतुमाल महाद्वीपसे महती अंग जान पड़ता है, क्योंकि काश्मीर शब्द कश्यपमेरुका अपभ्रंश । हुई, यह पश्चिम समुद्र में चली गयी है। वर्तमान आमू दरिया वा है। नीलमत पुराणके भी अनुसार काशमीर कश्यपका क्षेत्र है। और आक्शस हो सुवक्षु है, यह निर्विवाद है। इसके मंगोलियन नाम तैत्तिरीय आरण्यक/१/७ में कहा गया है कि महामेरुको अरण्यक अक्शू और बक्श, तिब्बती नाम पक्शू, तथा चीनो नाम पो-स वा नहीं छोड़ता। फो-रसू, तथा आधुनिक स्थानिक नाम बखिश बखश और बखा उक्त संस्कृत नामोंसे निकले हैं। प्राचीन कालसे अभी थोड़े दिन सुयश-मानुषोत्तर पर्वतस्थ सौगन्धिक कूटका स्वामी भवनवासी पहले तक पामोरके पश्चिमी भागवाली सिरीकोल फील (विक्टोरिया सुपर्णकुमार देव-दे. लोक/७॥ लेक) उसका उद्गम मानी जाती थी, जो पौराणिक सितोद सर सुर-ध. १३/५,५,१४०/३६९/७ तत्र अहिंसाद्यनुष्ठानरतयः सुरा नाम । हुई। इन दिनों यह आराल में गिरती है. किन्तु पहले कैस्पियनमैं -जिनकी अहिंसा आदिके अनुष्ठानमें रति है वे सुर कहलाते हैं। गिरती थी। यही चतुर्तीपी भूगोलका पश्चिम समुद्र है। (ज. प/प्र. १४० A.N. up, H.L. Jain) | सुरगिरि-सुमेरु पर्वतका अपर नाम--दे. सुमेरु । सुवत्सा-१.सौमनस गजदन्तके कनक कूटकी स्वामिनी दिक्कुमारी सुरदेव-भाविकालीन दूसरे तीर्थंकर-दे. तीर्थकर । देवी-दे. लोक/१४। सुरपतिकान्त-विजयार्घकी उत्तर श्रेणीका एक नगर। सुवत्सा -२.पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे. लोक ५/२:२. पूर्व विदेहस्थ -दे. विद्याधर। निकूट वक्षारका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक/१/४ । सरमन्यु- सप्त ऋषियों में से एक-दे. सप्तऋषि । सुवप्र-१. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र -दे. लोक/५/२१२. चन्द्रगिरि वक्षारका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक/१/४॥ सुरलोक-दे. स्वर्ग/५॥ सबल्गु-१. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र । अपर नाम सुगन्धा-दे. सरस-ब्रह्म स्वर्गका द्वितीय परल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/५/३ । लोक /२१२. नागगिरि वक्षारका एक कूट व उसका स्वामी देवसरा-१.हिमवाव पर्वतपर स्थित एक कूट व उसकी स्वामिनीवेवी। दे. लोक/81 -दे. लोक/४१२. रुचक पर्वत बासिनी दियकुमारी। सविधि-म, पु./सर्ग/श्लो. महावत्स देशके सुदृष्टि राजाका पुत्र । -दे, लोक/२/१३ । (१०/१२१-१२२ ) पुत्र केशवके मोहसे दीक्षा न लेकर श्रावकके उत्कृष्ट TAINEES राणाका पुत्र । सुरालय-सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे. सुमेरु। वत ले कठिन तप किया (१०/१५८)। अन्त में दिगम्बर हो समाधि मरण पूर्वक अच्युत स्वर्ग में देव हुआ। (१०/१६६)। यह ऋषभदेवका सुराष्ट्र-१. मालवाका पश्चिम प्रदेश, सुराष्ट्र या सौराष्ट्र या काठियावाड़ कहते हैं। (म.पू./प्र.४६ पन्नालाल । २. भरतक्षेत्रस्थ पूर्वका चौथा भव है।-दे, ऋषभदेव । पश्चिम आर्यखण्डका एक देश । अपर नाम सोरठ-दे. सोरठ। सुविशाल-नव ग्रैवेयकका तृतीय पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/५/३ । सरेन्द्र यन्त्र-दे. यन्त्र/१/६ । सुषमा काल-दे. काल/४ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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