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________________ ३४३ समुद्घात समुद्धात २. समुद्रातके भेद 4.सं./प्रा./१/१९६ वेयण कसाय वेउन्बिय मारणंतिओ समुग्धाओ। तेजाहारो छट्ठो सत्तमओ केवलीणं च ॥१६६ - वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तै जस, आहारक और केवलि समुद्घात; ये सात प्रकारके समुद्धात होते हैं। (रा. वा./१/२०/१२/७७/१२); (ध. ४/१,३,२/गा. ११/२६); (ध. ४/१,३,२/२६/५); (गो. जी././६६७/१११२); (बृ. द्र. सं./१०/२४/); (गो. जी./जी. प्र./५४३/१३६/१३); ( पं. सं./१/३३७ ) समुद्घातवशाद बहिनिःसृतानामात्मप्रदेशानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरोवधिो दिनु गमनमिष्टं श्रेणिगतित्वादात्मप्रदेशानाम् । आहारक और मारणान्तिक समुद्घात एक ही दिशा में होते हैं। (गो. जी./मू./६६६ ) क्योंकि आहारक शरीरकी रचनाके समय श्रेणि गति होनेके कारण एक ही दिशामें असंख्य आत्मप्रदेश निकलकर.. आहारक शरीरको बनाते हैं। मारणान्तिकमें जहाँ नरक आदिमें जीवको मरकर उत्पन्न होना है वहाँकी ही दिशामें आत्मप्रदेश निकलते हैं। शेष पाँच समुद्घात छहों दिशाओं में होते हैं । क्योंकि वेदना आदिके वशसे बाहर निकले हुए आत्मप्रदेश श्रेणीके अनुसार ऊपर, नीचे, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन छहों दिशाओं में * समुद्धात विशेष-दे, वह वह नाम । ३. गमनकी दिशा सम्बन्धी नियम दे. मरण/५/७ [मारणान्तिक समुद्घात निश्चयसे आगे जहाँ उत्पन्न होना है, ऐसे क्षेत्रकी दिशाके अभिमुख होता है, शेष समुद्घात दशों दिशाओंमें प्रतिबद्ध होते हैं।] रा. वा./१/२०/१२/७७/२१ आहारकमारणान्तिकसमुद्धातावेकदिक्की। यत आहारकशरीरमात्मा निर्वर्तयन् श्रेणिगतित्वात एकदिकानात्मदेशानसंख्यातान्निर्गमय्य आहारकशरीरमररिनमात्र निर्वर्तयति । अन्यक्षेत्रसमुद्घातकारणाभावात यत्रानेन नरकादाबुत्पत्तव्यं तत्रैव मारणान्तिकसमुद्घातेन आरमप्रदेशा एकदिक्काः समुदधन्यन्ते. अतस्तावेकदिक्कौ । शेषाः पञ्च समुद्घाताः षड्दिकाः। यतो वेदनादि ४. अवस्थान काल सम्बन्धी नियम रा. वा./१/२०/१२/७७/२६ वेदना-कषाय-मारणान्तिकतेजो-वै क्रियिकाहारकसमुद्घाताः षडसंख्येयसमयिकाः। केवलिसमुधातः अष्टसमयिकः । -वेदनादि छह समुद्धातोंका काल असंरख्यात समय है। और केवलिसमुद्घातका काल आठ समय है। [विशेष-दे. केवली/७/८] ५. समुद्धातोंके स्वामित्व विषयक ओघ आदेश प्ररूपणा (ध. ४/१,२,३-३/३८-४७) क्र. गुणस्थान •8/8/13 वेदना "K/8 कषाय ध. ४/पृ. ध.४/पृ. वै क्रियिक ध.४/पृ. तेजस ध.४/पृ. आहारक ध,४/पृ. केवली | - : :: : mail : | मारणान्तिक : : :: : :: मिथ्यादृष्टि सासादन मित्र असंयत संयतासंयत प्रमत्त अप्रमत्त अपूर्व.क, उप. . ., क्षपक ६-११ उप. १११-११क्षपक क्षीणकषाय १३ सयोगी १४ अयोगी : : : dones :: :: : : :: :: : : : : जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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