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म्यग्दर्शन
II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन
तदेव निश्चयसम्यवस्वमिति ।-प्रशय, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदिकी अभिव्यक्ति सराग सम्यक्त्वका लक्षण है (दे, शीर्षक नं.१)। वह ही व्यवहारसम्यक्त्व है। वीतराग सम्यक्त्व निजशुद्धारमानुभूति लक्षणवाला है और वीतराग चारित्रके अविना
भावी है। वह ही निश्चय सम्यक्त्व है। पं. का./ता वृ./१५०-१५१/२१७/१५ सप्तप्रकृतीनामुपशमेन क्षयोपशमैन च सरागसम्यग्दृष्टिभूत्वा पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण... सात प्रकृतियों के उपशम या क्षयोपशमसे सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदिरूपसे ( परिणमित होता है। दे. समय-[पंचपरमेष्ठी आदिकी भक्ति रूप परिणत होनेके कारण सराग सम्यग्दृष्टि सूक्ष्म परसमय है ] ।
३. सराग व वीतराग सम्यक्त्वका स्वामित्व भ. आ./वि./१६/६२/३ वीतरागसम्यक्त्वं नेह गृहीतम्। मोहप्रलयमन्तरेण वीतरागता नास्ति । -यहाँ वीतराग सम्यक्त्वका ग्रह्ण नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोहका क्षय हुए बिना वीतरागता नहीं होती। (दे. सम्यग्दर्शन/II/४/१)। दे. सम्यग्दर्शन/II/४/१ (क्षायिक सम्यग्दृष्टि वीतराग सम्यग्दृष्टि है
और औपशमिक व क्षायोपशमिक सराग सम्यग्दृष्टि हैं ) दे, सम्यग्दर्शन/II/४/२/-पं. का)। दे. सम्यग्दर्शन/II/४/२ ( भक्ति आदि शुभ रागसे परिणत सराग सम्यग्दृष्टि है और वीतरागचारित्रका अविनाभावी वीतराग सम्यग्दृष्टि
समस्तदोषायतनभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायरूपायतनानां परिहारेण केवलज्ञानाद्यनन्तगुणायतनभूते स्वशुद्धात्मनि निवास एवानायतनसेवापरिहार इति । - इन उपरोक्त लक्षणवाली तीन मूढ़ताओंको सराग सम्यग्दृष्टि अवस्थामै त्यागना चाहिए, और मन, वचन तथा कायकी गुप्तिरूप अवस्थावाले वीतराग सम्यक्त्वके प्रस्तावमें 'अपना निरंजन तथा निर्दोष परमात्मा ही देव है' ऐसी जो निश्चय बुद्धि है वही देवमूढ़तासे रहितता जानना चाहिए। तथा मिथ्यात्व राग आदि रूप जो मूढ़ भाव है, इनका त्याग करनेसे निजशुद्ध आत्मामें स्थितिका करना वही लोकमूढ़तासे रहितता है। तथा परमसमता भावसे उसी निज शुद्धात्मामें ही जो सम्यक् प्रकारसे अयन यानी गमन अथवा परिणमन है, उसको समयमूढ़ताका त्याग समझना चाहिए। उपरोक्त आठ मदोंका सराग सम्यग्दृष्टियोंको त्याग करना चाहिए। मान कषायसे उत्पन्न जो मद, मात्सर्य (ईया) आदि समस्त विकल्पोंके त्यागपूर्वक जो ममकार अहंकारसे रहित शुद्ध आत्मामें भावनाका करना है वही वीतराग सम्यग्दृष्टियों के आठ मदों का त्याग है। ये उपरोक्त छह अनायतन सराग सम्यग्दृष्टियोंको त्यागने चाहिए । और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव हैं उनके सम्पूर्ण दोषोंके स्थानभूत मिथ्यात्व, विषय तथा कषायरूप आयतनोंके त्यागपूर्षक केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंके स्थानभूत निजशुद्ध आत्मामें जो निवास करना है, वही अनायतनोंको सेवाका त्याग है।
५. दोनोंमें कथंचित् एकत्व श्लो.वा./पु.२/१/२/३-४/१६/२८ तत्त्वविशेषणे त्वर्थे श्रद्धानस्य न किंचिदबद्यदर्शनमोहरहितस्य पुरुषस्वरूपस्य वा 'तत्त्वार्थद्वानम् शब्देनाभिधानात सरागवीतरागसम्यग्दर्शनयोस्तस्य सद्भावादध्याप्तेः स्फुट विध्वंसनात । - तत्त्व विशेषण लगानेसे तत्त्व करके निति अर्थका श्रद्धान करना रूप लक्षण अनवद्य है। क्योंकि, दर्शनमोहनीय कर्म के उदयसे रहित हो रहे आत्माके 'तत्त्वार्थोंका श्रद्धान करना' इस शब्दसे कहा गया यह लक्षण, सराग और वीतराग दोनों ही सम्यग्दर्शनों में घटित हो जाता है। अतः अव्याप्ति दोषका सर्वथा नाश हो जाता है।
दे. सम्यग्दर्शन/I/३/२/६ (चौथेसे छठे गुणस्थानतक स्थूल सराग सम्यग्दृष्टि हैं, क्योंकि, उनको पहिचान उनके काय आदि के व्यापारपरसे हो जाती है और सातवें से दसवें गुणस्थानतक सूक्ष्म सराग सम्यग्दृष्टि है, क्यों कि, उसकी पहिचान काय आदिके व्यापारपरसे या प्रशम आदि गुणोंपरसे नहीं होती है। यहाँ अपित्ति से बात जान ली जाती है कि बीतराग सम्यग्दृष्टि ११ वें से १४ वें गुणस्थान तक होते हैं। सकल मोहका अभाव हो जानेसे वे ही वास्तवमें वीतराग हैं या वीतराग चारित्रके धारक हैं)। १. इन दोनों सम्यक्त्वों सम्बन्धी २५ दोषोंके लक्षणोंकी विशेषता द्र. सं./टी./४११६६-१६६ का भावार्थ-[वीतराग सर्वज्ञको देव न मानकर क्षेत्रपाल आदिको देव मानना देवमूढ़ता है। गङ्गादि तीर्थों में स्नान करना पुण्य है, ऐसा मानना लोकमूढ़ता है । वीतराग निर्ग्रन्थ गुरुको न मानकर लौकिक चमत्कार दिखानेवाले कुलिंगियोंको गुरु मानना गुरुमूढ़ता है। विज्ञान ऐश्वर्य आदिका मद करना सो आठ मद हैं । कुदेव, कुगुरु, कुधर्म तथा इसके उपासक ये छह अनायतन हैं । व्यवहार निःशंकितादिक आठ अंगोंसे विपरीत आठ दोष हैं।
ये २५ दोष हैं (विशेष दे. वह यह नाम)]। द्र.सं./टी./४१/पृष्ठ/पंक्ति-एवमुक्तलक्षणं मूढत्रयं सरागसम्यग्दृष्टयवस्था परिहरणीयमिति । त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्वप्रस्तावे पुननिजनिरङजननिर्दोषपरमात्मैव देव इति निश्चयबुद्धिर्देवमूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च मिथ्यारबरागादिरूपमूढभावत्यागेन स्व शुद्धात्मन्येवावस्थान लोकमूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च...परमसमरसीभावेन तस्मिन्नेव सम्यग्रूपेणायनं गमनं परिणमन समयमूवरहितत्व मोद्धव्यम् । (२६८/२)...मदाष्टकं सरागसम्यग्दृष्टिभिस्त्याज्यमिति । वीतरागसम्यग्दृष्टीना पुननिकषायादुत्पन्नमदमात्सर्यादिसमस्तविकल्पजालपरिहारेण ममकाराहंकाररहिते शुद्धात्मनि भावनैव मदाष्टत्याग इति । (१६८/8)। चेत्युक्तलक्षणमनायतनषटकं सरागसम्यग्दृष्टीनो त्याज्यं भवतीति। वीतरागसम्यग्दृष्टीना पुनः
६. इन दोनों में तात्त्विक भेद मानना भूल है पं.ध./उ/श्लो.नं, तत्रास्ति वीतरागस्य कस्यचिज्ज्ञानचेतना । सदृष्टेनिर्विकल्पस्य नेतरस्य कदाचन ।८२१ व्यावहारिकसदृष्टेः सविकल्पस्य रागिणः । प्रतीतिमात्रमेवास्ति कुतः स्यात् ज्ञानचेतना ।२६। इति प्रज्ञापराधेन ये बदन्ति दुराशयाः। तेषां यावत् श्रुताभ्यासः कायक्लेशाय केवलम् ।३०। बरौष्ण्यमिवात्मज्ञं पृथक्कतं त्वमहंसि । मा विभ्रमस्वदृष्ट्वापि चक्षुषाऽचक्षुषाशयोः ।३३॥ हेतोः परं प्रसिद्ध पैः स्थूल लक्ष्य रिति स्मृतम् । आप्रमत्तं च सम्यक्त्वं ज्ञानं वा सविकक्पकम् ।।१३। ततस्तूध्वं तु सम्यक्त्वं ज्ञानं वा निर्विकवपकम् । शुक्लध्यानं तदेवास्ति तत्रास्ति ज्ञान वितना1११४ प्रमत्तानी विकल्पत्वान्न स्यात्सा शुद्धचेतना। अस्तीति वासनोन्मेषः केचित्स न सन्निह ।।१५॥ यतः पराश्रितो दोषो गुणो वा नाश्रयेश्परम् । परो वा नाश्रयेद्दोष गुणं चापि पराश्रितम् ।।१६-१, उन दोनों में से एक वीतराग निर्विकल्प सम्यग्दृष्टिके ही ज्ञानचेतना होती है और दूसरे अति सविकल्प व सराग सम्यग्दृष्टिके वह नहीं होती है ।२८॥ किन्तु उस सविकल्प सरागी व्यवहार सम्यग्दृष्टिके केवल प्रतीति मात्र श्रद्धा होती है, इसलिए उसके ज्ञानचेतना के से हो सकती है ।।२६॥ बुद्धिके दोषसे जो दुराशय लोग ऐसा कहते हैं, उनका जितना भी शास्त्राध्ययन है वह सब केवल शरीरक्लेशके लिए ही समझना चाहिए 1८३०। भो आत्मज्ञ ! अग्निकी उष्णताके समान तुम्हें अपने स्वभाव. को पृथक करके देखना योग्य है। (स्त्रसंवेदन द्वारा उस वीतरार
भा०४-४६
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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