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________________ हिंसादान ५३७ हिंसादान-दे. अनर्थदण्ड । हिरण्य-स. सि./७/२६/३६८/८ हिरण्यं रूप्यादिव्यवहारतन्त्रम् । हिसानंदी रौद्रध्यान-दे. रौद्रध्यान । -जिसमें रूप्य आदि व्यवहार होता है वह हिरण्य है। (द.पा./ टी./१४/१५/१३) हिजरी संवत् -दे. इतिहास/२। हिरण्यकशिपु-इक्ष्वाकुवशी एक राजा। दे. इतिहास/७/२ । हित-१. हितका लक्षण हिरण्यगर्भ-१. सुकौशल मुनिका पुत्र था। अन्त में नघुष पुवको रा. वा/8/५/५/५६४/१७ मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम् । तद्विविधम् राज्य देकर दीक्षा ले ली। ( प. पु./५/१०१-११२) २. योग दर्शनके स्वहितं परहितं चेति ।मोक्षपदकी प्राप्ति रूप प्रधान वा मुख्य फल आद्य प्रवर्तक ---दे. योगदर्शन। मिलता है, उसको हित कहते हैं । वह दो प्रकारका है, एक स्वहित दूसरा परहित । (चा. सा./६६/५) हिरण्यनाभ-जरासंधका सेनापति। युद्धमे युधिष्ठिर द्वारा मारा क.पा./१/१,१३-१४/१२१९/२७१/६ व्य ध्युपशमनहेतुर्द्रव्यं हितम् । यथा ___गया (पा. पु./१६/१६२-१६३ ) । पित्तज्वराभिभूतस्य तदुपशमनहेतुकटुकरोहिण्यादिः । -व्याधिके हिरण्योत्कृष्ट जन्मता क्रिया-दे. संस्कार/२। उपशमनका कारणभूत द्रव्य हित कहलाता है। जैसे, पित्त ज्वरसे पीडित पुरुषके पित्त ज्वरको शान्तिका कारण कड़वी कुटकी तू बड़ी हो-दे. एव । आदिक द्रव्य हित रूप हैं। होन-१. गणितकी व्यकलन प्रक्रिया में मूल राशिको ऋण राशिकरि * ज्ञानी व अज्ञानीको हिताहित बुद्धि में अन्तर हीन कहा जाता है । --दे. गणित/11/१/४ । २. कायोत्सर्ग का एक दे. मिथ्यादृष्टि । अतिचार --दे. व्युत्सर्ग/१ । २. हिताहित जाननेका प्रयोजन हीनयान-दे, बौद्धदर्शन। भ.आ./म./१०३ जाणं तस्सादहिदं अहिद णियत्तीय हिदपवत्तीय । होदि हीनाधिकमानोन्मान-स. सि./७/२७/३६७/६ तत्र ह्यवपमूल्यय तो से.तम्हा आदहिदं आगमे दब्वं ।१०३१ =जो जीव आत्माके हित- लभ्यानि महााणि द्रत्याणीति प्रयत्नः । प्रस्थादि मानम्, तुलाद्य - को पहिचानता है वह अहितसे परावृत होकर हितमें प्रवृत्ति करता न्मानम् । एतेन न्यूनेनान्यस्मै देयमधिकेनात्मनो ग्राह्यमित्येवमादिहै। इस वास्ते हे भव्यजन ! आत्महितका आप परिज्ञान कर कूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मानम् । समान पदसे प्रस्थादि मापनेके लो।१०३। बाट आदि लिये जाते हैं, और उन्मान पदसे तौलनेके तराजू आदि मो. पा./मू./१०२ गुण गणविहूसियंगो हेयोपादेय णिच्छिओ साहू । बाट लिये जाते हैं। कमती माप तौलनेसे दूसरों को देना, बढती माप झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ।१०२। जो मूल व उत्तर तौलनेसे स्वयं लेना, इत्यादि कुटिलतासे लेन-देन करना हीनाधिक गुणोंसे विभूषित है. और हेयोपादेय तत्त्वका जिसको निश्चय है, तथा मानोन्मान है । (रा. वा/७/२७/४/५५४/१४ ) [ इसमें मायाका दोष ध्यान और अध्ययन में जो भले प्रकार लीन है, ऐसा साधु उत्तम आता है। --दे. माया/२। स्थान मोक्षको प्राप्त करता है ।१०२। * स्व पर हित सम्बन्धी-दे. उपकार। होयमान-अवधिज्ञानका एक भेद-दे. अवधिज्ञान/१। हीराचंद-यह पंचास्तिकाय टीकाके रचयिता एक पण्डित थे। हित संभाषण-दे. सत्य/२॥ जहानाबाद के रहनेवाले थे। समय वि.श,१७-१८, (पं. का./प्र./३ पं. हितोपदेश-दे, उपदेश/२,३ । पन्नालाल बाकलीवाल)। हिम-१. नन्दन वनका एक कूट---दे. लोक ५/५:२, षष्ठ नरकका । होरानंद-सुप्रसिद्ध जगत सेठके वंशज तथा ओसवाल जैन थे। वि. प्रथम पटल-दे. नरक/५/११॥ १६६१ में सम्मेद शिखर के लिए संघ निकाला था। शाहजादा सलीमके कृपापात्र और जौहरी था (हिं. जै. सा इ./१३२ कामता)। -विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर--दे. विद्याधर । हीलित-कायोत्सर्ग का एक अतिचार-दे, व्युत्सर्ग/१। हिमवत्-कुण्डल पर्वतस्थ एक कूट---दे. लोक/७ । हुडक संस्थान-दे. संस्थान । हिमवान्-१. रा. वा./३/११/१/१८२/६ हिममस्यास्तीति हिमा हडावसपिणी-दे. काल/४/१३ । निति व्यपदेशः । अन्यत्रापि तत्संबन्ध इति चेत। रूढिविशेषचनलाभात्तत्रैव वृत्तिः। =(भरत क्षेत्रके उत्तर में स्थित पूर्वापर लम्बाय हल्लराज-अपर नाम हुल्लप था। यह वाजिवंशके यक्षराज और मान वर्षधर पर्वत है। अपर नाम पञ्चशिखरी है। ] हिम जिसमें लोकबिम्बके पुत्र थे। तथा यदुवंशी राजा नरसिंहके मन्त्री थे। जैनपाया जाय सो हिमवान् । चूंकि सभी पर्वतोंमें हिम पाया जाता है धर्म के श्रद्वालु थे। अनेकों शिलालेखोंमें इनका उल्लेख पाया जाता अतः रूढिसे ही इसको हिमवान् संज्ञा समझनी चाहिए। २. हिमवान् है। श. सं. १०८५ (ई. ११६३ ); श. सं. १०८७ में कोप्प महातीर्थ में पर्वतका अवस्थान ब विस्तारादि । --दे. लोक/३/४ । ३. हिमवान् जैन मुनि संघको दान दिया । समय-श. १०७५-१०६० (ई. ११५३पर्वतस्थ "कूट व उसका स्वामी देव ।-दे. लोक५/५४. पद्महरके ११६८); (ध. २/प्र./ H.L.Jain) वनमें स्थित एक कूट--दे. लोक/७/ हिमशीतल-कलिंग देशके राजा थे। अकलंक देवने इनकी सभामें हूनवंश---यही कल्की राजाओं का वंश था।-दे. इतिहास/३/४। शास्त्रार्थ किया था। समय- ई. श. ८ का पूर्वार्ध (सि. वि./१५ हूहू-१. गन्धर्व नामा पन्तर जातिका एक भेद-- दे. गन्धर्व । २. पं. महेन्द्र) काल का एक प्रमाणु विशेष-दे. गणित/1/१/४। भा०४-६८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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