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________________ स्वाध्याय १. स्वाध्याय निर्देश १. स्वाध्याय निर्देश ४. स्तुति आदि परिवर्तन रूप मी स्वाध्याय है १.स्वाध्याय सामान्यका लक्षण अन.ध./9/8२ अर्ह यानपरस्याहन शं वो दिश्यात्सदारतु वः । शान्ति रियादिरूपोऽपि स्वाध्यायः श्रेयसे मतः १RI -जो साधु निरन्तर १. निश्चय अर्हन्त भगवान के ध्यानमें लीन रहता है उसके 'अर्हन शं वो दिश्यात' स. सि./६/२०/४३६/७ ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः ।-आलस्य अर्थात् अर्हन्त भगवान् तुम्हारा कल्याण करें। तथा 'सदास्तु वः त्यागकर ज्ञानकी आराधना करना स्वाध्याय तप है। शान्तिः' अर्थात मुझे सदा शान्ति बनी रहे इत्यादि वचनोंको भी चा. सा./१५२/५ स्वस्मै हितोऽध्यायः स्वाध्यायः । - अपने आत्माका स्वाध्याय ही कहना चाहिए। क्योंकि पूर्वाचार्योंने इसके द्वारा भी हित करनेवाला अध्ययन करना स्वाध्याय है । कल्याण और परम्परा मोक्षकी सिद्धि मानी है। दे. स्वाध्याय/१/२ ये पाँच प्रकारका स्वाध्याय मुनि देव बन्दना मंगल २. व्यवहार सहित करना चाहिए। मू. आ./५११ बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथित बुधे 1-1 -बारह अंग चौदहपूर्व जो जिनदेवने कहे हैं उनको पण्डितजन स्वाध्याय ५. प्रयोजन व अप्रयोजन भूत विषय . कहते हैं। मो. मा. प्र./9/३१७/२१ मोक्षमार्ग विषै देव, गुरु, धर्म व जीवादि तत्त्व ध. १३/५,४,२६/६४/१ अंगंगबाहिरआगमवायणपुच्छणाणुपेहा - परि वा बन्ध मोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं ।...द्वीप समुद्रादिका कथन यण-धम्मकहाओ सज्झायो णाम | - अंग और अंगबाह्य आगम- अप्रयोजनभूत है। की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तन और धर्म कथा करना ६.चारों अनुयोगोंके स्वाध्यायका क्रम स्वाध्याय नामका तप है (अन. ध./६/४)। मो. मा. प्र./७/३४७/१८ पहला सच्चा तत्त्व ज्ञान हो (द्रव्यानुयोग), चा, सा./४४/३ स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च। . पीछे पुण्य पापके फल को जाने (प्रथमानुयोग) शुद्धोपयोगसे मोक्ष -तत्त्वज्ञानको पढना, पढ़ाना, स्मरण करना आदि स्वाध्याय है। माने (चरणानुयोग ) और गुणस्थानादि जीवका व्यवहार निरूपण का. ब/म./४६२ पूयादिसु हिरवेक्खो जिण-सत्थं जो पढेइ भत्ती, जाने ( करणानुयोग ) इत्यादि जैसे हैं वैसे श्रद्धान करके उसका अर्थात कम्म-मल -सोहण सुय-लाहो सुह्यरो तस्स =जो मुनि अपनी (आगमका) अभ्यास करे तो सम्यक ज्ञान होय। पूजादिसे निरपेक्ष, केवल कर्म मल शोधनके अर्थ जिन शास्त्रोंको मो. मा. प्र./८/पृ./पंक्ति सं. करणानुयोग विषै भी किसी ठिकाने उपभक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ सुखकारी है। देश की मुख्यता पूर्वक व्याख्यान होता है। उसे सर्वथा वैसा ही न मानना (४०७/२) मुख्यपने तो निचली दशामें द्रव्यानुयोग कार्यकारी २. स्वाध्यायके भेद है। गौणपने जाकौं मोक्षमार्गकी प्राप्ति होति न जानियें ताकौं पहले मू आ./३६३ परियट्टणाय वायण पडिच्छणाणुपेहया य धम्मकहा। कोई व्रतादिका उपदेश दीजिए है। ताते ऊँची दशा वालोंको यु तिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होइ सज्झाओ ।३६३।- पढ़े हुए ग्रन्थका अध्यात्म अभ्यास योग्य है । ( ४३१/७) पाठ करना, वाचन-व्याख्यान करना, पृच्छना-शास्त्रोंके अर्थको ७. स्वाध्याय सर्वोत्तम तप है किसी दूसरेसे पूछना, अनुप्रेक्षा-बारम्बार शास्त्रका मनन करना, धमकथा-शठ शलाका पुरुषोंका चारित्र पढ़ना ये पाँच प्रकारका भ, आ./मू./१०७-१०६ बारसविहम्मि य तवे सब्भतरमाहिरे कुसलस्वाध्याय मुनि देव वन्दना मंगल सहित करना चाहिए ।३६३। (दे. दिठे । ण वि अस्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्म। ऊपरवाले शीर्ष कमें ध./१३), (अन. ध./७) । ।१०७ जं अण्णाणीकम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तणाणीत. सू./६/२५ वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षम्नायधर्मोपदेशाः ॥२५॥ वाचना, तिहिं गुत्तो खवेदि अंतोमुहत्तण ।१०८ छहट्ठमदसमदुबालसे हि अण्णापृच्छना,अनुप्रेक्षा, आम्नाय, और धर्मोपदेश यह पाँच प्रकारका णियस्स जा सोही। तत्तो बहुगुणदरिया होज्ज हु जिमिदस्स णाणिस्स । स्वाध्याय है ।।२५। (चा. सा./१५२/५); (अन, ध.७/८३-८७) । 1१०६।१. सर्वज्ञ देवकर उपदेशे हुए अभ्यन्तर और बाह्य भेद सहित बारह प्रकारके तपमेंसे स्वाध्याय तपके समान अन्य कोई न तो है दे. वाचना चार प्रकार है-नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या। और न होगा ।१०७१ ( आ./४०६,६७०) २. सम्यग्ज्ञानसे रहित जीव लक्षावधि कोटि भवोंमें जितने कमौके क्षय करने में समर्थ ३. स्वाध्याय में सम्यक्त्वकी प्रधानता होता है, ज्ञानी जीव गुप्तिगुप्त होकर उतने कोका क्षय अन्तर्मुहर्त में भा.पा./मू./८४ सयलोणाणज्म यणो णिरत्यओ भावरहियाणं । -भाव कर देता है ।१०८५ (प्र. सा./मू./२३८): (ध.६/५,५,५०/गा.२३/२८१) रहित श्रमणों का सकल ध्यान और अध्ययन निरर्थक हैं। एक, दो, तीन, चार वा पाँच, अथवा पक्षोपवास व मासोपवास करने वाले सम्यग्ज्ञान रहित जीवसे भोजन करनेवाला स्वाध्यायमें तत्पर ध. १/४.१.१/६/३ ण च सम्मत्तेण विरहियाण णाणमाणाणमसंखेज्ज. सम्यग्दृष्टि परिणामोंकी ज्यादा विशुद्धि कर लेता है ।१०। गुण सेडीकम्मणिज्जराए अणिमित्ताणं णाण झाणववएसो पारमत्थिओ अस्थि, अवगयट्ठ सहणणाणे...तव्यवएसब्भुवगमे संते अइप्प- ८. स्वाध्यायका लौकिक व अलौकिक फल स गादो । सम्यक्त्व से रहित ज्ञान ध्यानके असंख्यात गुणी श्रेणी ति. ५/१/३५-४२ दुविहो हवेदि हेदू तिलोयपण्ण तिर्गथयज्झयणे । रूप कर्म निर्जराके कारण न होनेसे 'ज्ञानध्यान' यह संज्ञा वास्तविक जिणवरक्यणु विट्ठोपच्चश्व परोक्खभेएहि ।३५॥ सक्खापच्चरखपरंपञ्चनहीं है। क्योंकि अर्थ श्रद्वानसे रहित ज्ञान...में वह संज्ञा स्वीकार क्वा दोण्णि होदि पचचरखा। अण्णाणस्स विणासं णाणदिवायरस्स करने में अतिप्रसंग दोष आता है। उप्पत्ती।३६। देवमणुस्सादी हिं संततमभच्चणप्पयाराणि । पडिसमययो. सा. अ./७/४४ संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मर हिताना ४४-- जो मसंखेज गुणसे दिकम्मणिज्जरणं १३७४ इय सक्खापच्चक्खं पच्चवरख विद्वान हैं-शास्त्रों का अक्षराभ्यास तो कर चुके हैं परन्तु आत्म- पर परं च णादव्वं । सिस्सपडिसिस्सपहूदीहिं सददमभच्चणयार ध्यानसे शून्य हैं उनका संसार शास्त्र है। 1३८ दोभेदं च परोक्वं अभुदयसोपखाई मोगरवसोपखाई जैनेन्द्र सिवन्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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