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________________ सम्यग्दर्शन ३४८ सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश क्षायिक सम्यक्त्वका स्वामित्व । १. गति व पर्याप्तिकी अपेक्षा। २. प्रस्थापक व निष्ठापककी अपेक्षा। ३. गुणस्थानोंकी अपेक्षा। ३ / तीर्थकर आदिके सद्भाव युक्त क्षेत्र व कालमें ही । सम्भव है। * तीर्थकर सत्कमिकको इसकी प्रतिष्ठापनाके लिए केवलीके पादमूल दरकार नहीं। -दे. तीर्थंकर/३/१३ । इसकी प्रतिष्ठापना अढ़ाई द्वीपसे बाहर संभव नहीं। | तथा तद्गत शंकाएँ। -दे. तियंच/२/११ । वेदक सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है। - दर्शनमोह क्षपण विधि। -दे.क्षय/२। | क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत होते हैं पर अत्यंत अल्प। | तीनों वेदोंमें क्षायिक सम्यक्त्वका कथंचित् विधिनिषेध । -दे. वेद/६ ॥ एकेन्द्रिय या निगोदसे आकर सीधे क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्बन्धी। -दे. जन्म/५ । गतियों व गुणस्थानों में इसका स्वामित्व, सत् , संख्या आदि प्ररूपणाएँ, कर्मोंके बन्ध आदि, मरण व जन्म व संसार स्थिति सम्बन्धी नियम। -दे. सम्यग्दर्शन/IV/ २. आज्ञा आदि १० भेदोंके लक्षण रा. बा./३/३६/२/२०१/१३ तत्र भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीताज्ञामात्रनिमित्तश्रद्धाना आज्ञारुचयः । निःसंगमोक्षमार्ग श्रवणमात्रजनितरुचयो मार्गरुचयः । तीर्थ करबलदेवादिशुभचरितोपदेशहेतुकश्रद्धाना उपदेशरुचयः। प्रवज्यामर्यादाप्ररूपणाचारसूत्रश्रवणमात्रसमुद्भूतसम्यग्दर्शनाः सूत्ररुचयः। बीजपदग्रहणपूर्व कसूक्ष्मार्थतत्त्वार्थश्रद्धाना वीजरुचयः। जीवादिपदार्थसमासंबोधनसमुद्भूतश्रद्धानाः संक्षेपरुचयः । अङ्गपूर्वविषयजीवाद्यर्थ विस्तारप्रमाणनयादिनिरूपणो पलन्धश्रद्धाना विस्ताररुचयः । वचनविस्तारविरहितार्थग्रहणजनितप्रसादा अर्थरुचयः । आचारादिद्वादशाङ्गाभिनिविष्टश्रद्धाना अवगाढरुचयः। परमावधिकेवलज्ञानदर्शनप्रकाशितजीवाद्यर्थविषयात्मप्रसादाः परमावगाढरुचयः। -भगवत अहंत सर्वज्ञकी आज्ञामात्रको मानकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए जीव आज्ञारुचि हैं। अपरिग्रही मोक्षमार्गके श्रवणमात्रसे सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए जीव मार्गरुचि है। तीर्थकर बलदेव आदि शुभचारित्रके उपदेशको सुनकर सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाले उपदेशरुचि हैं। दीक्षा आदिकके निरूपक आचारांगादिसूत्रोंके सुननेमात्रसे जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है, वे सूत्ररुचि है। बीजपदोंके ग्रहणपूर्वक सूक्ष्मार्थ तत्त्वार्य श्रद्धानको प्राप्त करनेवाले बीजरुचि हैं। जीवादि पदार्थों के संक्षेप कथनसे ही सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले संक्षेपरुचि है। अंगपूर्व के विषय, प्रमाण नय आदिके विस्तार कथनसे जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे विस्ताररुचि हैं। वचन विस्तारके बिना केवल अर्थ ग्रहणसे जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे अर्थरुचि हैं। आचारांग द्वादशांगमें जिनका श्रद्धान अतिदृढ़ है वे अवगाढरुचि हैं। परमावधि या केवलज्ञान दर्शनसे प्रकाशित जीवादि पदार्थविषयक प्रकाशसे जिनकी आत्मा विशुद्ध है वे परमावगाढरुचि हैं। आ. अनु./१२.१४ आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचित वीतरागाज्ञयैव, व्यक्तग्रन्थप्रपञ्च शिवममृतपर्थ श्रद्दधन्मोहशान्तेः। मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता, या संज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ॥१२॥ आकाचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रदधानः, सूक्तासौ सूत्रदृष्टि१रधिजमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः। कैश्चिज्जातोपलग्धेरसमशमवशाबीजदृष्टिः पदार्थाच, संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान साधु संक्षेपदृष्टिः ।१३॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृतरुचिरथ त विद्धि विस्तारदृष्टि, संजातात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा, कैवल्यालोकिताथै रुचिरिह परमावादिगादेति रूढा ।१४। -दर्शनमोहके उपशान्त होनेसे ग्रन्थश्रवणके मिना केवल वीतराग भगवान्की आज्ञासे ही जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है वह आज्ञासम्यक्त्व है। दर्शनमोहका उपशम होनेसे ग्रन्थ श्रवणके बिना जो कल्याणकारी मोक्षमार्गका श्रद्धान होता है उसे मार्ग सम्यग्दर्शन कहते हैं । तिरसठ शलाकापुरुषों के पुराण ( वृत्तान्त ) के उपदेशसे जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है उसे उपदेश सम्यग्दर्शन कहा है ।१२। मुनिके चारित्रानुष्ठानको सूचित करनेवाले आचारसुत्रको सुनकर जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे सूत्रसम्यग्दर्शन कहा गया है। जिन जीवादिपदार्थोके समूहका अथवा गणितादि विषयों का ज्ञान दुलभ है उनका किन्हीं बीजपदोंके द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेवाले भव्यजीवके जो दर्शनमोहनीयके असाधारण उपशमवश तत्त्वश्रद्धान होता है उसे बीजसम्यग्दर्शन कहते हैं। जो भव्यजीव पदार्थों के स्वरूपको संक्षेपसे ही जान करके तत्त्वश्रद्धानको प्राप्त हुआ है उसके उस सम्यग्दर्शनको संक्षेप सम्यग्दर्शन कहा जाता है।१३। जो भव्यजीव १२ अंगोंको सुनकर तत्वश्रद्धानी हो जाता है उसे विस्तार सम्यग्दर्शनसे युक्त जानो। अंग बाह्य आगमोंके पढ़नेके बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्तसे जो अर्थश्रद्धान होता है वह अर्थसम्यग्दर्शन कहलाता है। अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुतका अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढ़सम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञानके द्वारा देखे गये पदार्थों के विषय 1 सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश १. सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश १. सम्यग्दर्शनके भेद स. सि./१/७/२८/४ विधानं सामान्यादेकं सम्यग्दर्शनम् । द्वितय निसर्गजाधिगमजभेदात् । त्रितयं औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभेदात् । एवं संख्येया विकरूपतः शब्दतः । असंख्येया अनन्ताश्चभवन्ति श्रद्धातृश्रद्धातव्यभेदात् (अध्यवसायभेदात-रा. बा.)। -भेदको अपेक्षा सम्यग्दर्शन सामान्यसे एक है। निसर्गज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका है (त. सू.//३)। औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिकके भेदसे तीन प्रकारका है। (और भी दे. सम्यग्दर्शन/IV/१)। शब्दोंकी अपेक्षा संख्यात प्रकारका है, तथा श्रद्धान करनेवालेकी अपेक्षा असंख्यात प्रकारका है, और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों व अध्यवसायोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकारका है। (रा. वा./१/७/१४/४०/२८ ): (द. पा./टो./१२/१२/१२) । रा, वा./३/२६/२/२०१/१२ दर्शनार्या दशधा-आज्ञामार्गोपदेशसूत्रबीजसंक्षेपविस्ताराविगाळपरमाबगाढरुचिभेदात् । -आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, मीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अबगान और परमावगाढ रुचिके भेदसे दर्शनार्य दश प्रकार हैं। (आ. अनु./११); (अन. घ./२/६२/१८५) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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