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शिरोन्नति
शिरोन्नति - दे, नमस्कार ।
शिला नरककी तृतीय पृथिवी नरक / ५
शिल्पकर्म - दे. सावध / ३ ।
शिल्पि संहिता. दीनन्दि२ (६.६६०-६१६) की एक रचना है। बीरनन्दि - दे. |
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शिवंकर - विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । शिवकालीन तेरहवें तीर्थंकर दे. सोकर / ५
शिव- स. श./टी.२/२२२/२५ शिवं परमसौख्यं परम कल्याणं निर्वाणं चोच्यते । =परम कल्याण अथवा परम सौख्यमय निर्वाणको शिम कहते हैं। स.सा./ता.वृ./३०३-३०२/४६२/१८ वीतरागसहजपरमानन्दरूपं शिवशब्दवाच्यं सुखं वीतराग परमानन्द रूप सुख शिव शब्दका बाच्य है ( प. प्र./टी./२/१) ।
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द्र. स./टी./१४/४७ पर उद्धृत-शिवं परमकल्याण निर्वाणं ज्ञानमक्षयम् । प्राप्तं येन स शिवः परिकीर्तितइतिलक्षणः शिवः । शिव यानी परम कल्याण निर्वाण एवं अक्षय ज्ञान रूप मुक्त पदको जिसने प्राप्त किया वह शिव कहलाता है। भा.पा./टी./१४१/२१२ / ६ शिवः परमकल्याणभूतः शिवति लोका गच्छतीति] शिवः । शिवः अर्थात परम कल्याणभूत होता है, और लोकके अग्र भाग में जाता है वह शिव है।
शिवकुमार वंशी शिव का दूसरा नाम था। इनकी राजधानी कांचीपुर ( कांजीवरम् ) थी। पंचास्तिकायकी रचना इन्हींके लिए हुई थी। तदनुसार इनका समय ई. श. २ आता है ( प्रो. ए. चक्रवर्ती नायनार M. A. L. T.) दे. शिव स्कन्द । शिव कुमार वेलाव्रत - सर्व साधारण विधि में ७-८ व १३-१४
का बेला तथा ६, १५ का पारणा । इस प्रकार प्रतिमास ४ बेले व ४ पारणा । यदि शक्ति हो तो १ बेला व १ पारणाका क्रम १००० वर्ष (1) तक निभाये । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । ( व्रत विधान सं. पू. ११९।
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शिवकोटि१. प्रेमीजी के अनुसार यापनीय संधी दिगम्बराचार्य भ.आ.// २१६६-२१६८ पढ़ने से ऐसा अनुमान होता है कि यह उस समय हुए थे जब कि जैन संघ में कुछ शिथिलाचारका प्रवेश हो चुका था । कोई-कोई साधु पात्र भी रखने लग गए थे तथा घरों से माँगकर भोजन लाने लग गये थे। परन्तु यह संघ अभी अपने मार्ग पर दृढ़ था, इसलिये इन्होंने अपने नाम के साथ पाणिपात्रा हारी विशेषण लगाकर उल्लेख किया है। शिवनन्द. शिव गुप्त, शिवकोटि शिवार्य इनके अपर नाम हैं। यद्यपि किसी भी गुणव मैं आपका नाम प्राप्त नहीं है तदपि भगवती आराधनाकी उक्तगाथाओं में जननन्दिगी आर्य सर्व और आर्यमनन्द का नाम दिया गया है जो इनके शिक्षागुरु प्रतीत होते हैं। यद्यपि आराधना कथा कोश मैं इन्हें आसमन्तभद्र (ई.श. २) के शिष्य कहा गया है तदपि प्रेमीजी को यह बात स्वीकार नहीं है । श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. १०५ के अनुसार तस्वार्थ सूत्रके एक टीकाकार भी शिबकोटि हुये हैं। वही सम्भवतः आ. समन्तभद्र के शिष्य रहे होंगे। कृति- भगवती आराधना समय-म.श.१ (..) (./२/१२२) २.२१माला तथा तत्वार्थ सूत्र की टीका के रचयिता एक शिथिलाचारी आचार्य । । समय- यशस्तिलक (वि. १०१६) के पश्चात् कभी । (भ, आ / प्र.७-१ ) । ३ - वाराणसीके राजा थे। शैष थे । समन्तभद्र आचार्य के द्वारा स्तोत्र के प्रभाव से शिवलिंगका फटना व उसमें से
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शिवार्थ
चन्द्र भगवाकी प्रतिमाका होना देखकर उनके शिष्य बन गये थे। पीछे उनसे ही जिन दीक्षा ले ली थी। समन्तभद्र के अनुसार इनका समय ई. श. २ आता है । ( प्रभाचन्द्र व नेमिदत्तके कथाको आधारपर भ.आ./न. ४ प्रेमीजी ) ।
शिवगुप्त - पुनाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप गुप्ति ऋद्धि शिष्य तथा अर्ह नलिके गुरु थे । समय- वी. नि. ५६० (ई. ३३ ) - दे. इतिहास / ७ / ८ शिवतस्य
ध्यान /४/२ शिवस्व वास्तव में आत्मा है। झा / २१ / १०... युगपतु घनपटल त्रिगमे सवितुः प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् स खल्वयमात्मैव परमात्मव्यपदेशभाग्भबति। युगपत् अनन्तज्ञान-दर्शन सुख पीर्य रूप चतुश्य जिसके रेखा, जैसे- मेघ पटलोंके दूर होनेसे सूर्यका प्रताप और प्रकाश युगपत प्रकट होता है, उसी प्रकार प्रगट हुआ आत्मा ही निश्चय करके परमात्मा व्यपदेशका धारक होता है। यहाँ शिवराय है। शिवदत्त पट्टावर्सी के अनुसार भगवान् महावीरकी मूल परम्परामें लोहाचार्य के पश्चात्वाले चार आचार्यों में आपका नाम है। समय - वी. नि. ५६५-५८५ ई. ३८-५६ । - दे. इतिहास / ४/४ । शिवदेव"लवण समुद्रस्थ उदक व उदकाभास पर्वतका स्वामी देव । दे. लोक /४/१
शिवदेवी भगवान नेमिनाथकी माता तीर्थ / शिव मंदिर - १. विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर । - दे. विद्याधर । २. विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । शिवम
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शिवमार द्वि० ई. ८१० गंगी नरेश श्रीपुरुष उत्तराधि कारी थे। (सि. वि. /१६. महेन्द्र )
शिव मृगेशवर्म- - आप कदम्ब वंशी राजा थे। चालुक्य वंशी
राजा कीर्तिवर्य द्वारा बादामी नगरी में श. सं. ५०० में कदम्ब वंशका नाश हुआ था। अतः कदम्बवंशी इनका समय लगभग श. सं. ४५०५०० (वि. ५८५) ( ई०५२८-५७८) आता है। (जै. सि. प्र. के समय प्रभु KB Pathak ) शिवलाल ( पं०) आप एक उच्चकोटिके मिद्वार बनेक ग्रन्थोंकी देश भाषामय टीकाएँ लिखी हैं। यथा-भगवती आराधना, रत्नकरण्ड श्रा. चर्चासंग्रह, बोधसार, दर्शनसार अध्यात्म तरंगिनी आदि ग्रन्थोंकी भाषा टीका । समय- वि. १८१८ ( ई. ०६९) ( आ./२५ मी शिवशर्म - ३० परिशिष्ट ।
शिव सागर आचार्य शान्तिसागरजीकी आम्नायमें - आप तीसरे नम्बर पर आते हैं। आप आ शान्ति सागरजी के शिष्य थे । और आप आचार्य धर्म सागरजी के गुरु थे। वि २००६ में दीक्षा ही थी और नीरसागरजी के पश्चात् मि. २०१४ में आचार्यपदपर आसीन हुए समय म. २००६. १९४६) शिव स्कंद पलव वंश (बि. श. १) के राजा, अपर नाम शिव
कुमार, राजधानी कांजीपुरम मर्यारडबोलुजा दानपत्र के दाता । कुन्दकुन्द ने इनके लिये पंचास्तिकाय ग्रन्थ की रचना की। समयकुन्दकुन्द के अनुसार ई. श. २ (प्रो. ए. चक्रवर्ती नायना (जे./१/११४)।
शिवार्य वास्तममें इनका ही नाम शिवकोटि था. क्योंकि भग
जिनसेनने आदि पुराण में इसी नामका उल्लेख किया है। कार्य तो इनका विशेषण था जैसे कि स्वयं इन्होंने अपने तीनों गुरुओं के
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