SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संगति संगति तरुणो वि बुढ्सीली होदि णरो बुढुसंसिओ अचिरा । लज्जा संकामाणावमाग भयधम्म बुट्टीहि ।१८७६। तरुणस्स वि वेरग्ग पहाविज्जदि परस्स बुढ ढेहिं । पहा विजइ पाडच्छी वि हु वच्छस्स फरुसेण ।१०८३। -जैसे मलिन जल भी कतक फलके संयोगसे स्वच्छ होता है वैसा कलुष मोह भी शील वृद्रोंके संसर्ग से शान्त होता है ।१०७३। वृद्धोके संसर्गसे तरुण मनुष्य भी शीघ्र ही शील गुणोकी वृद्धि होनेसे शीलवृद्ध बनता है। लज्जासे, भीतिसे, अभिमानसे, अपमानके डरसे और धर्म बुद्धिसे तरुण मनुष्य भी वृद्ध बनता है 1१०७६। जैसे बछड़े के स्पर्शसे गौके स्तनों में दुग्ध उत्पन्न होता है वैसे ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध और तपोवृद्वों के सहवाससे तरुणके मनमें भी वैराग्य उत्पन्न होता है ।१०८३। करल/४६/५ मनसः कर्मणश्चापि शुद्धेर्मुल सुसंगतिः । तद्विशुद्धौ यतः सत्यां संशुद्धिर्जायते तयो, ।। - मनकी पवित्रता और कर्मोंकी पवित्रता आदमीकी सगतिकी पवित्रतापर निर्भर है।५। ज्ञा./१५/१६-३६ वृद्धानुजोविनामेव स्युश्चारित्रादिसंपद। भवत्यपि च निर्लेपं मनः क्रोधादिकश्मलम् ।१६। मिथ्यात्वादि भगोत्तुङ्गशृङ्गभङ्गाय कल्पितः । विवेकः साधुसङ्गोत्थो वज्रादघ्यजयो नृणाम् ॥२४॥ एकैव महतो सेवा स्याज्जेत्री भुवनत्रये। ययैव यमिनामुच्चरन्तज्योतिबिज़म्भते ।२७ दृष्ट्वा श्रुत्वा यमी योगिपुण्यानुष्ठानमूजि. तम् । आक्रामति निरातङ्कः पदवों तैरुपासिताम् ।२८। वृद्धोंकी सेवा करने वाले पुरुषों के हो चारित्र आदि सम्पदा होती हैं और क्रोधादि कषायोसे मैला मन निर्लेप हो जाता है ।१६। सत्पुरुषों की संगतिसे उत्पन्न हुआ मनुष्योंका विवेक मिथ्यात्वादि पर्वतों के ऊँचे शिखरों को खण्ड-खण्ड करनेके लिए वज्रसे अधिक अजेय है ।२४। इस त्रिभुवनमें सत्पुरुषों की सेवा ही एकमात्र जयनशील है। इससे मुनियों के अन्तरमे ज्ञानरूप ज्योतिका प्रकाश विस्तृत होता है ।२७। संयमी मुनि महापुरुषोंके महापवित्र आचरण के अनुष्ठान को देखकर या सुनकर उन योगीश्वरोंकी सेयी हुई पदवीको निरुपद्रव प्राप्त करता है। अन. घ./४/१०० कुशीलोऽपि सुशोल' स्यात सद्गोष्ठ्या मारिदत्तवत् । - कुशील भी सद्गोष्ठीसे सुशील हो जाता है, मारिदत्तकी भाँति। एकासनपर बैठना, इन कार्योंसे अल्प धैर्य वाले और स्वच्छन्दसे बोलना-हँसना वगैरह करने वाले पुरुषका मन अग्निके समीप लाखकी भॉति पिघल जाता है ।१०१२। स्त्री सहवाससे मनुष्य का मन मोहित होता है, मैथुनकी तीव्र इच्छा होती है, कारण-कार्यका 'विचार न कर शील तट उल्लंघन करनेको उतारू हो जाता है ।१०६३। माता, अपनी लड़की और बहन इनका भी एकान्तमें आश्रय पाकर मनुष्य का मन क्षुब्ध होता है. अन्यका तो कहना ही क्या ।१०६५। जो पुरुष स्वीका संसर्ग विषके समान समझकर उसका नित्य त्याग करता है वही महात्मा यावज्जीवन ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहता है ।११०२। मू. आ./१७६ तरुणो तरुणीए सह कहा व सल्लावणं च 'जदि कुज्जा। आणाकोबादीया पंचवि दोसा कदा तेण ।१७। -युवावस्था वाला मुनि जवान स्वीके साथ कथा व हास्यादि मिश्रित वार्तालाप करे तो उसने आज्ञाकोप आदि पाँचो ही दोष किये जानना। बो. पा/मु./५७ पसुमहिलासढसग कुसोलसंग ण कुणइ विकहाओ... पत्रज्जा ए रसा भणिया ।५७ =जिन प्रवज्यामें पशु, महिला, नपंसक और कुशील पुरुषका संग नहीं है तथा विकथा न करे ऐसी प्रव्रज्या कही है।५७ लि. पा./मू./१७ रागो करेदि णिच्च महिलावग्गं परं च दूसेइ । ईसण जाणविहीणो तिरिवरवजोणी ण सो समणो ।१७। - जो लिग धारण. कर स्त्रियोंके समूहके प्रति राग करता है, निर्दोषीको दूषण लगाता है, सो मुनि दर्शन व ज्ञान कर रहित तिथंच योनिसा पशुसम है । ६. गुणाधिकका ही संग श्रेष्ठ है प्र. सा./मू./२७० तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणे हि वा अहियं । अधिषसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दरवपरिमोक्वं ।२७०। -- ( लौकिक जन के संगसे संयत भी असं यत होता है । ) इसलिए यदि श्रमण दुःखसे परिमुक्त होना चाहता हो तो वह समान गुणों वाले श्रमणके अथवा अधिक गुणों वाले श्रमण के संगमें निवास करो १२७०। ७. स्त्रियों आदिकी संगतिका निषेध भ.आ./मू./३३४/५५४ सव्वत्थ इथिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अबीसत्थो। णित्थरदि बंभचेरं तविवरीदो ण णित्थरदि ॥३३४॥ सम्पूर्ण खोमात्रमें मुनिको विश्वास रहित होना चाहिए, प्रमाद रहित होना चाहिए, तभी आजन्म ब्रह्मचर्य पालन कर सकेगा, अन्यथा ब्रह्मचर्य को नहीं निभा सकेगा। भ. आ./मू./१०१२-११०२ संसग्गोए पुरिसस्स अप्पसारस्स लछपम रस्स। अग्गिसमीवे लक्खेव मणो लहमेव वियलाइ ।१०६२। संसग्गीसम्मूढो मेहू गसहिदो मणो हु दुम्मेरो। पुवावरमगणता लंघेज्ज सुसीलपायारं ।१०६३। माद सुटं च भगिणीमेगते अल्लियंतगस्त मणो। खुभइ परस्स सहसा कि पुण सेसासु महिल सु ।१०६५। जो महिलासंसरगी विसंव दळूण परिहरइ णिचं। णित्थरह बंभचेर जावजीवं अकंपो सो ॥११०२। स्त्रीके साथ सहगमन करना. ८. आर्यिकाकी संगतिका निषेध भ.आ/मू./३३१-३३६ थेरस्स वि तव सिस्स वि बहुस्सुदस्स वि पमाण भू दस्स । अज्जासं सग्गीए जणपणयं हवेज्जादि ।३३१॥ जदि वि सय थिरबुद्धी तहा बि संसग्गिलद्धपसराए। अग्गिसमीवे व घदं विलेज्ज चित्तं खु अज्जाए ।३३। खेलपडिदमपाण ण तरदि जह मच्छिया विमोचेदं । अज्जाणुचरो ण तरदि तह अप्पाण विमोचे, १३३६। = मुनि, वृद्ध, तपस्थी, बहुश्रुत और जनमान्य होने पर भी यदि आर्यिकाका सहवास करेगा तो वह लोगों की निन्दाका स्थान बनेगा ही।३३१॥ मुनि यद्यपि स्थिर बुद्धिका धारक होगा तो भी मुनिके सहबाससे जिसका चित्त चंचल हुआ है ऐसी आयिकाका मन अग्निके समीप धी जैसा पिघल जाता है ।३३३३ जैसे मनुष्यके कफमे पड़ी मवरवी उससे निकलनेमे असमर्थ होती है वैसे आर्यिकाके साथ परिचय किया मुनि छुट काग नहीं पा सकता ।३३६। मू. /१७७-१८५ अज्जागमणे काले ण अत्थिदव्वं तहेब एक्केण । ताहिं पुण सल्लाबो ण य काययो अकज्जेण ११७७। तासि पुण पुच्छाओ एकस्से णय कहेज एक्को दु। गणिणों पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदवं ।१७८। णो कप्पदि विरदाणं विरदीमुबासयमिह चिठेदु । तत्थ णिसेज्जउवटुणसज्झाहार भिवरवबोसरणे ।१८० कण्णं विधवं अंतेउरियं तह सइरिणी सलिंग वा। अचिरेणल्लियमाणो अत्र वादं तत्थ पप्पोदि १८२१ =आर्यिका आदि स्त्रियोंके आनेके समय मुनिको बनमे अकेला नहीं रहना चाहिए और उनके साथ पर्म कार्यादि प्रयोजनके बिना बोले नहीं।१७७। उन आर्यिकाओं में से यदि एक आर्यिका कुछ पूछे तो निन्दाके भयसे अकेला न रहे। यदि प्रधान आर्यिका अगाड़ी करके कुछ पूछे तो कह देना चाहिए !१७८। संयमी मुनिको आर्थिकाओंकी वस्तिकामें ठहरना, बठना, सोना, स्वाध्याय करना, आहार व भिक्षा ग्रहण करना तथा प्रतिक्रमण व मलका त्याग करना आदि क्रिया नहीं करनी चाहिए 1१८०कन्या, विधवा, रानी वा विलासिनी, स्वेच्छाचारिणी तथा दोक्षा धारण करने वाली, ऐसी स्त्रियों के साथ क्षणमात्र भो वार्तालाप करता मुनि लोक निन्दाको पाता है ।१८॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy