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________________ स्वभाव स्वयंबुद्ध दे. स्वभाव/१/६ सप्तभंगीके विषयभूत अस्तित्व नास्तित्व आदि धर्म वस्तु में कल्पित हैं। ६. वस्तुमें कल्पित व वस्तुभूत धर्मोंका निर्देश श्लो. वा. २/१/७/६/२६/२७ कल्पितानां वस्तुभूतानां च धर्माणां वस्तुनि यथाप्रमाणोपपन्नत्वात्। वस्तुमें प्रमाणों की उत्पत्तिका अतिक्रम नहीं करके कतिपत, अस्ति, नास्ति आदि सप्तभंगीके विषयभूत धर्मोंकी और वस्तुभूत वस्तुत्व, द्रव्यत्व, ज्ञान, सुख, रूप, रस आदि धर्मों की सिद्धि हो रही है। २. स्वभाव व शक्ति निर्देश १. स्वभाव परकी अपेक्षा नहीं रखता न्या. वि/टी./१/१३६/४८८ पर प्रमाण वार्तिकसे उधृत-अर्थान्तरानपेक्षत्वा स स्वभावोऽनुवर्णितः।-दूसरे पदार्थ की अपेक्षा न होनेसे वह स्वभाव कहा गया है। स. सा. आ./११६ न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्त मन्येन पार्यते ।...न हि बस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते। - (वस्तुमें) जो शक्ति स्वतन हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। वस्तुकी शक्तियाँ परकी अपेक्षा नहीं रखती। प्र. सा./त. प्र./१६,६६,६८ स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वात ११६। स्वभावः तत्पुनरन्यसाधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततया हेतुकयैकरूपया ...1६६। सर्व द्रव्याणां स्वभाव सिद्धत्वात् स्वभाव सिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनवात् । अनादि निधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते॥१८-स्वभावपरसे अनपेक्ष है ॥१६॥ स्वभाव अन्य साधनसे निरपेक्ष होनेके कारण अनादि अनन्त होनेसे तथा अहेतुक, एकरूप वृत्तिसे... हि६। वास्तव में सर्व द्रव्य स्वभाव सिद्ध हैं । स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनतासे है, क्योंकि अनादिनिधन साधनान्तरकी अपेक्षा नहीं रखता १८ २. स्वभावमें तर्क नहीं चलता ध. १/१,१,२२/१६६/२ न हि स्वभावाः परपर्यानुयोगाः । -स्वभाव दूसरोंके प्रश्नों के योग्य नहीं हुआ करते हैं । (ध.४/४,१,४४/१२१/२), (और भी दे. आगम/६/३)। ध.१/१,६,७८/५६/७ ण च सहावे जुत्तिवादस्स पवेसो अस्थि । -स्वभावमें युक्तिवादका प्रवेश नहीं है। गो. जी /जी. प्र./१८४/४१६/२० स्वभावोऽतर्कगोचरः इति समस्त वादिसं मतत्वात् । स्वभावमें तर्क नहीं चलता. ऐसा समस्तवादी मानते हैं (श्लो. वा. २/भाषा/१/६/३८/३६३/१२); (पं.ध/3/५३,४८८)। ३. शक्ति व व्यक्तिकी परोक्षता प्रत्यक्षता न्या. वि./वृ./२/१८/३७ पर उधृत-शक्तिः कार्यानुमेया हि व्यक्तिदर्शनहेतुका । शक्तिका कार्य परसे अनुमान किया जाता है और व्यक्तिका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। ४. स्वभाव या धर्म अपेक्षा कृत होते हैं स्था. म./२४/२८६/२१ नन्वेते धर्माः परस्पर विरुद्धाः तत्कथमेकत्र वस्तुन्यैषा समावेशः संभवति ।...उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकाराः तेषां भेदो नानात्वम्, तेनोपहितमपितम् । असत्त्वस्य विशेषणमेतत् । उपाधिभेदोपहितं सदर्थेष्वसत्त्वं न विरुद्धम् । - प्रश्न--अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव ये किसी वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते। उत्तर--वास्तव में अस्तित्वादिमें विरोध नहीं है। क्योंकि अस्तित्वादि किसी अपेक्षासे स्वीकार किये गये हैं। पदार्थों में अस्तित्व, नास्तित्वादि नानाधर्म विद्यमान हैं। जिस समय हम पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध करते हैं, उस समय अस्तित्व धर्मकी प्रधानता और अन्य धर्म की गौणता रहती है। अतएव अस्तित्व, नास्तित्व धर्म में परस्पर विरोध नहीं है। ५. गुणको स्वभाव कह सकते हैं पर स्वभावको गुण नहीं आ.प./६ धमपिक्षया स्वभावा गुणा न भवन्ति । स्वद्रव्यचतुष्टयापेक्षया परस्परं गुणा; स्वभावा भवन्ति । धर्मों की अपेक्षा स्वभाव गुण नहीं होते हैं। परन्तु स्व द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा परस्पर गुण स्वभाव होते हैं। ६. धर्मोकी सापेक्षताको न माने सो अज्ञानी न. च. बृ./७४ इति पुन्बुत्ता धम्मा सियसावेवखा ण गेहए जो हु। सो इह मिच्छाइट्ठी णायवो पत्रयणे भणिओ।७४। -जो पूर्वमें कहे हुए धर्मोंको कथंचित् परस्परमें सापेक्ष ग्रहण नहीं करता है वह मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। ऐसा वचनमें कहा है 1७४। स्वभाव नय-दे. नय/I/५/४। स्वभाववाद-मो. क./F/८८३ को करइ कंटयाणं तिक्खत्तं मियविहंगमादीणं विविहत्तं तु सहाओ इदि सब पि य सहाओत्ति 1८८३। काँटेको आदि लेकर जो तीक्ष्ण वस्तु हैं उनके तीक्ष्ण पना 'कौन करता है। तथा मृग और पक्षी आदिकों के अनेकपना कोन करता है। इस प्रश्नका उत्तर मिलता है कि सबमें स्वभाव ही है। ऐसे सबको कारणके बिना स्वभावसे ही मानना (मिथ्या) स्वभाववादका अर्थ है। नि. सा./ता. वृ./१७० ज्ञानं तावज्जीवस्वरूपं भवति, ततो हेतोरखण्डाद्वैतस्वभावनिरतं निरतिशयपरमभावनासनाथ मुक्तिसुन्दरीनाथ बहियवृतकौतूहल निजपरमात्मानं जानाति कश्चिदात्मा भव्यजव इति अयं खलु स्वभाववादः । ज्ञान वास्तवमें जीवका स्वरूप है, उस हेतुसे जो अरवण्ड अद्वैत स्वभावमें लीन है, जो निरतिशय परम भावना सहित है, जो मुक्ति सुन्दरीका नाथ है और माह्यमें जिसने कौतूहल व्यावृत किया है ऐसे निज परमात्माको कोई आरमा-भव्य जीव जानता है। ऐसा वास्तव में (निश्चय) स्वभाववाद है। स्वभावविरुद्धानुपलब्धिहेतु-दे. हेतु । स्वभावानित्य पर्यायाथिक नय-दे, नय/IV/४ | स्वमुखोदय-दे, उदय/१। स्वयंप्रभ-१. भाविकालीन चोथे तीर्थकर-दे. तीर्थंकर/ 1 २.म. पु./सर्ग/श्लोक ऐशान स्वर्गका एक देव था। (8/१८६) यह श्रेयांस राजाका पूर्व का छठा भव है। --दे. श्रेयांस। ३. सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे. सुमेरु । ४. रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/१/१३। स्वयंप्रभा-म. पु./सर्ग/श्लोक स्वर्गमें ललितांगदेव (ऋषभदेवके नवमें भव) की अति प्रिय देवी थी (१/२८६)। यह ललितांगदेयके 'स्वर्गसे च्युत होनेपर अति दुस्खी हुई (६/५०) । अन्तमें पंचपरमेष्ठीके स्मरण पूर्वक स्वर्गसे च्युत हुई (६/५६-५७)। यह श्रेयांस राजाका पूर्वका पाँचवाँ भव है-दे. श्रेयांस । स्वयबुद्ध-१. इस सम्बन्धी विषय--दे. बुद्ध। २.म.पु./सर्ग। श्लोक यह राजा महाबल (ऋषभदेवका पूर्वका नवमा भव) का मन्त्री था (४/१६१) इसने तीन मिथ्यावृष्टि मन्त्रियों द्वारा मिथ्यावादोंकी स्थापना करनेपर उनका खण्डनकर आस्तिक्यभावकी स्थापना की (४६)। एक समय मेरुकी वन्दनार्थ गया (५/१६९) पदहा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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