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________________ सम्यग्दर्शन II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन रा. वा./४/२/३/२४४/११ अप्रतिपतितसम्यग्दर्शनानां परीतविषयः सप्ताष्टानि भवग्रहणानि उत्कर्षेण वर्तन्ते, जघन्येन त्रिीणि अनुबन्ध्योच्छिद्यन्ते । प्रतिपतितसम्यक्त्वानां तु भाज्यम् । =-जो सम्यग्दर्शनसे पतित नहीं होते उनको उत्कष्टतः सात या आठ भवोंका ग्रहण होता है और जघन्यसे दो-तीन भवोंका। इतने भवोंके पश्चात् उनके संसारका उच्छेद हो जाता है। जो सम्यक्त्वसे च्युत हो गये हैं उनके लिए कोई नियम नहीं है । ( प. पु./१४/२२४) क्ष. सा./मू./१६५/२१८ दंसणमोहे ख विदे सिज्झदि तत्येव तदियतुरियभवे । णादिक्कति तुरियभवे ण विणस्सति सेससम्मेवा। -दर्शनमोहका क्षय हो जानेपर उस ही भवमे या तीसरे भव में अथवा मनुष्य तिर्यचकी पूर्व में आयु बाँध ली हो तो भोगभूमिकी अपेक्षा चौथे भवमें सिद्धि प्राप्त करते हैं। चौथे भवको उल्लंघन नहीं करते। औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी भाँति यह नाशको प्राप्त नहीं होता ।१६५। (गो. जी./जी. प्र./६४६/१०६७/२ पर उदधृत) वसु, श्रा./२६६ अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण । सत्तट्ठ भवेहि तओ कर ति कम्मक्खयं णियमा ।२६६। --कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्वको पुनः पुनः प्राप्त करके सात-आठ भवों के पश्चात् नियमसे कर्मक्षय करते हैं ।२६। II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन १. निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व लक्षण निर्देश १. सम्यग्दर्शनके दो भेद र. सा./४ सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणियं । तं जाणिज्जइ णिच्छयववहारसरूवदो भेदं ।४। सम्यग्दर्शन समस्त रत्नोंमें सारभूत रत्न है और मोक्षरूपी वृक्षका मूल है, इसके निश्चय व व्यवहार ऐसे दो भेद जानने चाहिए। निर्जरा व मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । ( द. पा./मू./२०); (मू. आ./२०३); (ध.१/१.१,४/१५१/२); (द्र.सं./मू./४१); (वसु. श्रा./१०) पं.का./मू./१०७ सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं [भावाः खलु कालकलित पञ्चास्तिकाय विकल्परूपा नव पदार्थाः। (त.प्र, टीका)] काल सहित पंचास्तिकायके भेदरूप नव पदार्थ वास्तवमें भाव हैं। उन भावों का श्रद्धान सो सम्यक्त्व है। द. पा./मू./१६ छह दब णव पयत्या पंचत्थी सत्त तच्च णिहिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेययो ।१६। = छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सप्त तत्त्व, ये जिनवचनमें कहे गये हैं। इनके स्वरूपका जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है। पं. स./प्रा /१/१५६ छप्पंचणवविहार्ण अस्थाणं जिणवरोवट्ठाण । आणाए अहिगमेण य सदहणं होइ सम्मत्तं । == जिनवरों के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नौ पदार्थोंका आज्ञा या अधिगमसे श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। (ध. १/१,१,४/गा.184/१५); (ध./१,१,१४४/गा. २१२/३६५); (गो. जी./मू./५६१/१००६) ४. पदार्थोका विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान पं.का./ता. वृ./१०७/१६६/२४ मिथ्यात्वोदयजनित विपरीताभिनिवेशरहितं श्रद्धानम् । केषां संबन्धि। पञ्चास्तिकायषड द्रव्यविकल्परूपं जीवाजीवद्रव्यं जीवपुद्गलसंयोगपरिणामोत्पन्नास्त्रवादिपदार्थ सप्तक चेत्युक्तलक्षणानां भावानां जीवादिनवपदार्थानाम् । इदं तु नवपदार्थविषयभूतं व्यवहारसम्यक्त्वम् । : =मिथ्यात्वोदयजनितविपरीत अभिनिवेश रहित, पंचास्तिकाय, षद्रव्य, जीवादि सात पदार्थ अथवा जीवादि नव पदार्थ, इनका जो श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है। (पु. सि. उ./२२); ( स. सा./बृ./१५५:२२०/६) ५, यथावस्थित पदार्थोंका श्रद्धान प. प्र./मू./२/१५ दवइँ जाणइ जह ठियई तह. जगि मण्णइ जो जि। अप्पह केरउ भावडउ अविचलु देसणु सो जि ।१५। -जो द्रव्यों को जैसा उनका स्वरूप है वैसा जाने और उसी तरह इस जगत में श्रद्धान करे, वही आत्माका चलमलिनअवगाढ दोष रहित निश्चल भाव है। वही आत्मभाव सम्यग्दर्शन है। (और भी दे. सम्यग्दर्शन/J/१/४); (दे. तत्त्व/१/१)। ६. तत्वोंमें हेय व उपादेय बुद्धि सू. पा./मू./५ सुत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहु विहं अत्थ । हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठीश-सूत्रमें जिनेन्द्र भगवान ने जीव अजीव आदि बहुत प्रकारके पदार्थ कहे हैं। उनको जो हेय और अहेयरूपसे जानता है ( अर्थात् जीव संवर निर्जरा व मोक्ष अहेय हैं और शेष तीन हेय । इस प्रकार जो जानता है ) वह सम्यग्दृष्टि है । ७. तत्व रुचि मो. पा./मू./३८ तच्चरुई सम्मत्तं । = तत्त्वरुचि सम्यग्दर्शन है। (ध. २. व्यवहार सम्यग्दर्शनके लक्षण १. देव शास्त्र गुरु व धर्मकी श्रद्धा मो. पा./मु./६० हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गथे पवयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।१०। -हिंसादि रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव. निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग व गुरु इनमें श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है ।१०। र. क. श्रा/ श्रद्वान परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग' सम्यग्दशनमस्मयम् ।४। सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु इन तीनोंका आठ अंग सहित, तोन मूढता और आठ मदरहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा जाता है। का. अ/मू./३१७ णिज्जि यदोसं देवं सब जिणाणं दयावरं धम्म । वजियगय च गुरु जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी।३१७१ =जो वीतराग अर्हन्तको देव, दयाको उत्कृष्ट धर्म और निम्रन्थको गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है। २. आप्त आगम व तत्वोंको श्रद्धा नि. सा./मू./५ अत्तागमतचाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं । आप्त आगम और तत्वों की श्रद्धासे सम्यक्त्व होता है। [ इनका सम्यक् श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व है--( इसी गाथाकी ता. वृ. टीका); (घ.१/ १.१४/१५१/४ ); ( वसु श्रा./६) । ३. तत्त्वार्थ या पदार्थों आदिका श्रद्धान त. सू./१/२,३ तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।२। जीवाजीवास्वबन्धसंबरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् ।३। - अपने-अपने स्वभावमें स्थित तत्त्वार्थ के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। जीव-अजीव आस्रव बन्ध संवर ३. निश्चय सम्यग्दर्शनके लक्षण १. उपरोक्त पदार्थोंका शुद्धात्मासे भिन्न दर्शन प्र. सा./त. प्र./२४२ ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण =ज्ञेय और ज्ञाता इन दोनों की यथारूप प्रतीति सम्यग्दर्शन का लक्षण है। स. सा./आ./३१४-३१५ स्वपरयोविभागदर्शनेन दर्शको भवति । - स्व व परके विभाग दर्शन से दर्शक होता है। स. सा./ता. वृ./१५५/२२०/११ अथवा तेषामेव भूतार्थेनाधिगतानां पदार्थानां शुद्धात्मनः सकाशात् भिन्नत्वेन सम्यगवलोकनं निश्चय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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